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33
॥ श्रीहरि: ।।
श्रीमन्महर्षि वेदव्यासप्रणीत
महाभारत
(द्वितीय खण्ड)
[वनपर्व और विराटपर्व]
[सचित्र, सरल हिंदी-अनुवादसहित]
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्व सखा त्वमेव ।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्व मम देवदेव ।।
अनुवादक --
--+-न साहित्याचार्य पणिडत रामनारायणदत्त शास्त्री पाण्डेय 'राम' )--
सं० २०७२ पंद्रहवाँ पुनर्मुद्रण ३,२००
कुल मुद्रण... ७७,६००
प्रकाशक--
गीताप्रेस, गोरखपुर--२७३००५
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॥ श्रीहरि: ।।
विषय-सूर्च
(अरण्यपर्व)
अध्याय विषय
करनेपर उनमेंसे बहुतोंका लौटना तथा पाण्डवोंका प्रमाणकोटितीर्थमें रात्रिवास
२- धनके दोष, अतिथि-सत्कारकी महत्ता तथा कल्याणके उपायोंके विषयमें धर्मराज
युधिष्ठिरसे ब्राह्मणों तथा शौनकजीकी बातचीत
3- युधिष्ठटिरके द्वारा अन्नके लिये भगवान सूर्यकी उपासना और उनसे अक्षयपात्रकी
प्राप्ति
४- विदुरजीका धृतराष्ट्रको हितकी सलाह देना और धृतराष्ट्रका रुष्ट होकर महलमें
चला जाना
५- पाण्डवोंका काम्यकवनमें प्रवेश और विदुरजीका वहाँ जाकर उनसे मिलना और
बातचीत करना
६- धृतराष्ट्रका संजयको भेजकर विदुरको वनसे बुलवाना और उनसे क्षमा-प्रार्थना
७- दुर्योधन,_दुःशासन,_शकुनि और कर्णकी सलाह,_पाण्डवोंका वध करनेके लिये
उनका वनमें जानेकी तैयारी तथा व्यासजीका आकर उनको रोकना
८- व्यासजीका धतराष्ट्रसे दुर्योधनके अन्यायको रोकनेके लिये अनुरोध
९- व्यासजीके द्वारा सुरभि और इन्द्रके उपाख्यानका वर्णन तथा उनका पाण्डवोंके
प्रति दया दिखलाना
१०- व्यासजीका जाना, _मैत्रेयजीका धृतराष्ट्र और दुर्योधनसे पाण्डवोंके प्रति सद्भावका
अनुरोध तथा दुर्योधनके अशिष्ट व्यवहारसे रुष्ट होकर उसे शाप देना
(किर्मीरवधपर्व)
११- भीमसेनके द्वारा किर्मीरके वधकी कथा
(अर्जुनाभिगमनपर्व)
१२- अर्जुन और द्रौपदीके द्वारा भगवान श्रीकृष्णकी स्तुति,_द्रौपदीका भगवान्
श्रीकृष्णसे अपने प्रति किये गये अपमान और दुःखका वर्णन और भगवान्
श्रीकृष्ण, अर्जुन एवं धृष्टघ्म्नका उसे आश्वासन देना
२४- पाण्डवोंका द्वैतवनमें जाना
महर्षि मार्कण्डेयका पाण्डवोंको धर्मका आदेश _
आदरसे लाभ ख और अनादरसे हानि
3३- द्रौपदीका पुरुषार्थको प्र
ैष्ठिरके पूछनेपर बृहदश्चके
! और हंसका दमयन्ती और
व॑ नलका यज्ञानुष्ठान और
राजा नलकी चिन्ता और दमयन्तीको अकेली सोती छोड़कर उनका अन्यत्र
&3- दमयन्तीका विलाप तथा अजगर एवं व्याधसे उसके प्राण एवं सतीत्वकी र
तथा दमयन्तीके पातिव्रत्यधर्मके प्रभावसे व्याधका विनाश
यन्तीका विलाप और स्वियोंद्वारा दमयन्तीको आश्वासन तथा
हाथियोंद्वारा व्यापारियोंके दलका सर्वनाश तथा दुःखित दमयन्तीक
स्वागत.
७५- दमयन्तीके ३ आदे 4, ३ से सो सी ु 9 गीट़ा
७९- राजा नलके आख्यानके
निका महत्त्व, बृहदश्व॒ मुनिका युधिष्ठिककों आश्वासन
देना तथा झूतविद्या और अः
र अश्वविद्याका रहस्य बताकर जाना
९०- धौम्यद्वारा उत्तर दिशाके तीर्थोंका वर्णन
$३- महर्षि लोमशका आगमन और यु
आश्वासन देना के
अंशुमानसे दिलीपको और दिलीपसे भगीरथको राज्यकी
१०८- भगीरथका हिमालयपर तपस्याद्वारा गंगा और महादेवजीको प्रस
वर प्राप्त करना
पृथ्वीपर गंगाजीके उतरने और समुद्रको
पुत्रकी चिन्ताका कारण पूछना
ऋष्यशं ंगका पिताको अपनी चिन्ताका कारण बताते हुए ब्रह्मचारीरूप धारी
सहानुभूतिसूचक दुःखपूर्ण उदगार
्॒रीकृष्णके वचनोंका अनुमोदन
वज्को स्तम्भित करना और उसे
यज्ञमें भाग स्वीकार कर लेनेपर इन्द्रका संकटमुक्त होना तथा
महत्त्वका वर्णन
होना तथा भीमसेनके स्मरण
गयतासे पाण्डवोंका गन्धमादन पर्वत एवं
सहटेवका हरण तथा
नकुल ॥ 90५ नननिीीो--
१५८- नर-नारायण-आश्रमसे वृषपर्वकि यहाँ होते हुए
। जाना जाना
१७७- पाएज का गन्धमादनसे बदरिकाश्रम,_सुबाहुनगर और |
हुए सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवनमें प्रवेश
महाबली भीमसेनका हिंसक पशुओंको मारना दम अजगरद्वारा पकड़ा जाना
और सप र्पर पधारी नहुषकी
(मार्केण्डेयसमास्यापर्व)
| आदिका पुनः द्वैतवनसे काम्यकवनमें
| पाण्डवोंके पास भगवान _श्रीकष्ण,_मुनिवर मार्ण्कण्डेय तथा
नारदजीका आगमन एवं युधिष्ठिरके पूछनेपर मार्कण्डेयजीके द्वारा कर्मफल
भोगका विवेचन...
338
युद्ध और कर्णकी पराजय
की पराजय और
३५४८ शकुनिके समझानेपर भी दु्योधनको प्रायोप-वेशनसे विचलित होते न देखकर
त्योंका कृत्याद्वारा उसे रसातलमें बुलाना |
दानवोंका दुर्योधनकोी समझाना और कर्णके अनुरोध करनेपर दुर्योधनका अनशन
रपोधनके यज्ञका आरम्भ एवं समाप्ति
रस _कोप, सुग्रीवका सीताकी खोजमें वानरोंको भेजना तथा
मानजीका लौटकर अपनी लंकायात्राका वृत्तान्त निवेः्
संतुष्ट करना
२९६- सावित्रीकी व्रतचर्या तथा सास-ससुर और पतिकी आज्ञा लेकर सत्यवान
उसका वनमें जाना
२९७- सावित्री और यमका संवाद, _यमराजका संतुष्ट होक
३००- सूर्यका स्वप्रमें कर्णको द
सचेत करना तथा कर्णका आग्रहपूर्वक
य और ब्राह्मणकी परिचर्य[| मी
होकर तपस्वी ब्राह्मणका उस: के | मन्त्रका उपदेश देना
। ॥व
०0|0 |९
ढ़
३१२- पानी लानेके लिये गये हुए _नकुल आदि_चार भाइयोंका सरोवरके
होकर गिरना
धौम्यका समझाना,_भीमसेनका उत्साह देना तथा आश्रमसे दूर जाकर पाण्डवोंका
परस्पर परामर्शके लिये बैठन
३१६- वनपर्व-श्रवण-महिमा
विजयी _उत्तरका_नगरमें प्रवेश
[र और क्षमा-प्रार्थना
90%
$- श्रीकृष्णके द्वारा द्रौपदीको आश्वासन
- द्रौपदी और भीमसेनका युधिष्ठटिरसे संवाद
अर्जुनकी तपस्या
४- अर्जुनका किरातवेषधारी भगवान शिवपर बाण चलाना
५- नलकी पहचानके लिये दमयन्तीकी लोक-पालोंसे प्रार्थना
६- सती दमयन्तीके तेजसे पापी व्याधका विनाश
८- देवताओंद्वारा वत्रासुरके वधके लिये दधीचिसे उनकी अस्थियोंकी याचना
९- देवराज इन्द्रका वज्के प्रहारसे वृत्रासुरका वध करना
०- महर्षि कपिलकी क्रोधाग्निसे सगरपुत्रोंका भस्म होना
महर्षि अगस्त्यका समुद्रपान
२- भगवान् परशुरामद्वारा सहखार्ज़ुनका वध
१४- राजा शिबिका कबूतरकी रक्षाके लिये बाजको अपने शरीरका मांस काटकर देना
१५- द्रौपदीका भीमसेनको सौगन्धिक पुष्प भेंट करके वैसे ही और पुष्प लानेका
आग्रह
६- स्वर्गसे लौटकर अर्जुन धर्मराजको प्रणाम कर रहे हैं
वनमें पाण्डवोंसे श्रीकृष्ण-सत्यभामाका मिलना
- तपस्वीके वेशमें मण्डूकराजका राजाको आश्वासन
ययातिसे ब्राह्मणकी याचना
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9 # 6!
- कौशिक ब्राह्मण और माता-पिताके भक्त धर्मव्याध
- कार्तिकेयके द्वारा महिषासुरका वध
- द्रौपदी-सत्यभामा-संवाद
अर्जुन-चित्रसेन-युद्ध
सीताजीका रावणको फटकारना
हनुमानजीकी श्रीसीताजीसे भेंट
यम-सावित्री
- कर्णको इन्द्रका शक्ति-दान
| ४ | भद "हा हम | श "ब | (ज +ँ
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युधिष्ठिर और बगुलारूपधारी यक्ष
विराटके यहाँ पाण्डव
विराटकी राजसभामें कीचकद्दारा सैरन्ध्रीका अपमान
अर्जुनका शंखनाद
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॥/७ |९
॥ ] ॥.. ॥॥
॥५०
गए
॥ ३० श्रीपरमात्मने नम: ।।
श्रीमहाभारतम्
वनपर्व
अरण्यपर्व
प्रथमो 5 ध्याय:
पाण्डवोंका वनगमन, पुरवासियोंद्वारा उनका अनुगमन
और युधिष्ठिरके अनुरोध करनेपर उनमेंसे बहुतोंका लौटना
तथा पाण्डवोका प्रमाणकोटितीर्थमें रात्रिवास
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् |
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ।।
“अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, (उनके नित्यसखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ
अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करनेवाली) भगवती सरस्वती और (उन लीलाओंका संकलन
करनेवाले) महर्षि वेदव्यासको नमस्कार करके जय (महाभारत)-का पाठ करना चाहिये।
जनमेजय उवाच
एवं द्यूतजिता: पार्था: कोपिताश्न दुरात्मभि: ।
धार्टराष्ट्रै: सहामात्यैर्निकृत्या द्विजसत्तम ।। १ ||
श्राविता: परुषा वाच: सृजद्धिर्वैरमुत्तमम् ।
किमकुर्वत कौरव्या मम पूर्वपितामहा: ।। २ ।।
जनमेजयने पूछा--विप्रवर! मन्त्रियोंसहित धृतराष्ट्रके दुरात्मा पुत्रोंने जब इस प्रकार
कपट॒पूर्वक कुन्तीकुमारोंको जूएमें हगाकर कुपित कर दिया और घोर वैरकी नींव डालते हुए
उन्हें अत्यन्त कठोर बातें सुनायीं, तब मेरे पूर्वपितामह युधिष्ठिर आदि कुरुवंशियोंने क्या
किया? ।। १-२ ।।
कथं चैश्वर्यविभ्रष्टा: सहसा दुःखमेयुष: ।
वने विजद्रिरे पार्था: शक्रप्रतिमतेजस: ।। ३ ।।
तथा जो सहसा ऐश्वर्यसे वंचित हो जानेके कारण महान् दुःखमें पड़ गये थे, उन इन्द्रके
तुल्य तेजस्वी पाण्डवोंने वनमें किस प्रकार विचरण किया? ।। ३ ।।
के वै तानन्ववर्तन्त प्राप्तान् व्यसनमुत्तमम् ।
किमाचारा: किमाहारा: क्व च वासो महात्मनाम् ।। ४ ।।
उस भारी संकटमें पड़े हुए पाण्डवोंके साथ वनमें कौन-कौन गये थे? वनमें वे किस
आचार-व्यवहारसे रहते थे? क्या खाते थे? और उन महात्माओंका निवास-स्थान कहाँ
था? ।। ४ ।।
कथं च द्वादश समा बने तेषां महामुने |
व्यतीयुत्रल्वमिणश्रेष्ठ शूराणामरिघातिनाम् ।। ५ ।।
महामुने! ब्राह्मणश्रेष्ठ! शत्रुओंका संहार करनेवाले उन शूरवीर महारथियोंके बारह वर्ष
वनमें किस प्रकार बीते? ।। ५ ।।
कथं च राजपुत्री सा प्रवरा सर्वयोषिताम् ।
पतिव्रता महाभागा सततं सत्यवादिनी ।। ६ ।।
वनवासमदु:खार्हा दारुणं प्रत्यपद्यत |
एतदाचदक्ष्व मे सर्व विस्तरेण तपोधन ।। ७ ।॥।
तपोधन! संसारकी समस्त सुन्दरियोंमें श्रेष्ठ, पतिव्रता एवं सदा सत्य बोलनेवाली वह
महाभागा राजकुमारी द्रौपदी, जो दुःख भोगनेके योग्य कदापि नहीं थी, वनवासके भयंकर
कष्टको कैसे सह सकी? यह सब मुझे विस्तारपूर्वक बतलाइये ।। ६-७ ।।
श्रोतुमिच्छामि चरितं भूरिद्रविणतेजसाम् ।
कथ्यमानं त्वया विप्र परं कौतूहलं हि मे ।। ८ ।।
ब्रह्मन! मैं आपके द्वारा कहे जाते हुए महान् पराक्रम और तेजसे सम्पन्न पाण्डवोंके
चरित्रको सुनना चाहता हूँ। इसके लिये मेरे मनमें अत्यन्त कौतूहल हो रहा है ।। ८ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवं द्यूतजिता: पार्था: कोपिताश्च दुरात्मभि: |
धार्तराष्ट्रै: सहामात्यैर्निययुर्गजसाह्लयात् ।। ९ ।।
वैशम्पायनजीने कहा--राजन्! इस प्रकार मन्त्रियोंसहित दुरात्मा धृतराष्ट्रपुत्रोंद्वारा
जूएमें पराजित करके क़ुद्ध किये हुए कुन्तीकुमार हस्तिनापुरसे बाहर निकले ।। ९ ।।
वर्धमानपुरद्वारादभिनिष्क्रम्य पाण्डवा: ।
उदड्मुखा: शस्त्रभृत: प्रययु: सह कृष्णया ।। १० ।।
वर्धमानपुरकी दिशामें स्थित नगरद्वारसे निकलकर शणस्त्रधारी पाण्डवोंने द्रौपदीके साथ
उत्तराभिमुख होकर यात्रा आरम्भ की ।। १० ।।
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इन्द्रसेनादयश्ैव भृत्या: परि चतुर्दश ।
रथैरनुययु: शीघ्रै: स्त्रिय आदाय सर्वश: ।। ११ ।।
इन्द्रसेन आदि चौदहसे अधिक सेवक सारी स्त्रियोंको शीघ्रगामी रथोंपर बिठाकर उनके
पीछे-पीछे चले ।। ११ ।।
गतानेतान् विदित्वा तु पौरा: शोकाभिपीडिता: ।
गर्हयन्तोडसकृद् भीष्मविदुरद्रोणगौतमान् ।। १२ ।।
ऊचुर्विगतसंत्रासा: समागम्य परस्परम् |
पाण्डव वनकी ओर गये हैं, यह जानकर हस्तिनापुरके निवासी शोकसे पीडित हो बिना
किसी भयके भीष्म, विदुर, द्रोण और कृपाचार्यकी बारंबार निनन््दा करते हुए एक-दूसरेसे
मिलकर इस प्रकार कहने लगे || १२६ ||
पौरा ऊचु.
नेदमस्ति कुलं सर्व न वयं न च नो गृहा: ।। १३ ।।
यत्र दुर्योधन: पाप: सौबलेनाभिपालित: ।
कर्णदु:शासनाभ्यां च राज्यमेतच्चिकीर्षति ।। १४ ।।
पुरवासी बोले--अहो! हमारा यह समस्त कुल, हम तथा हमारे घर-द्वार अब सुरक्षित
नहीं हैं; क्योंकि यहाँ पापात्मा दुर्योधन सुबलपुत्र शकुनिसे पालित हो कर्ण और दुःशासनकी
सम्मतिसे इस राज्यका शासन करना चाहता है ।। १३-१४ ।।
न तत् कुलं न चाचारो न धर्मो<र्थ: कुतः सुखम् ।
यत्र पापसहायो<यं पापो राज्यं चिकीर्षति || १५ ।।
जहाँ पापियोंकी ही सहायतासे यह पापाचारी राज्य करना चाहता है वहाँ हमलोगोंके
कुल, आचार, धर्म और अर्थ भी नहीं रह सकते, फिर सुख तो रह ही कैसे सकता
है? ।। १५ ।।
दुर्योधनो गुरुद्वेषी त्यक्ताचारसुहृज्जन: ।
अर्थलुब्धोडभिमानी च नीच: प्रकृतिनिर्घण: ।। १६ ।।
दुर्योधन गुरुजनोंसे द्वेष रखनेवाला है। उसने सदाचार और पाण्डवों-जैसे सुहृदोंको
त्याग दिया है। वह अर्थलोलुप, अभिमानी, नीच और स्वभावतः ही निष्ठुर है ।। १६ ।।
नेयमस्ति मही कृत्स्ना यत्र दुर्योधनो नृप: ।
साधु गच्छामहे सर्वे यत्र गच्छन्ति पाण्डवा: ।। १७ ।।
जहाँ दुर्योधन राजा है, वहाँकी यह सारी पृथ्वी नहींके बराबर है, अत: यही ठीक होगा
कि हम सब लोग वहीं चलें जहाँ पाण्डव जा रहे हैं || १७ ।।
सानुक्रोशा महात्मानो विजितेन्द्रियशत्रव: ।
ह्वीमन्तः कीर्तिमन्तश्ष धर्माचारपरायणा: ।। १८ ॥।
पाण्डवगण दयालु, महात्मा, जितेन्द्रिय, शत्रुविजयी, लज्जाशील, यशस्वी, धर्मात्मा
तथा सदाचारपरायण हैं ।। १८ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमुकक््त्वानुजग्मुस्ते पाण्डवांस्तान् समेत्य च ।
ऊचुः प्राउज्जलय: सर्वे कौन्तेयान् माद्रिनन्दनान् ।। १९ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--ऐसा कहकर वे पुरवासी पाण्डवोंके पास गये और उन
कुन्तीकुमारों तथा माद्रीपुत्रोंस मिलकर वे सब-के-सब हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले
-- || १९ ||
क्व गमिष्यथ भद्रं वस्त्यक्त्वास्मान् दुःखभागिन: ।
वयमप्यनुयास्यामो यत्र यूयं गमिष्यथ ।। २० ।।
'पाण्डवो! आपलोगोंका कल्याण हो। हम आपके वियोगसे बहुत दुःखी हैं। आपलोग
हमें छोड़कर कहाँ जा रहे हैं? आप जहाँ जायँगे वहीं हम भी आपके साथ चलेंगे || २० ।।
अधर्मेण जितान् श्र॒त्वा युष्मांस्त्यक्तघृणै: परै: ।
उद्विग्ना: स्मो भृशं सर्वे नास्मान् हातुमिहाहथ ।। २१ ।।
भक्तानुरक्तान् सुहृद: सदा प्रियहिते रतान् |
कुराजाधिषिते राज्ये न विनश्येम सर्वश: ।। २२ ।।
“निर्दयी शत्रुओंने आपको अधर्मपूर्वक जूएमें हराया है, यह सुनकर हम सब लोग
अत्यन्त उद्विग्न हो उठे हैं। आपलोग हमारा त्याग न करें; क्योंकि हम आपके सेवक हैं, प्रेमी
हैं, सुहृद् हैं और सदा आपके प्रिय एवं हितमें संलग्न रहनेवाले हैं। आपके बिना इस दुष्ट
राजाके राज्यमें रहकर हम नष्ट होना नहीं चाहते || २१-२२ ।।
श्रूयतां चाभिधास्यामो गुणदोषान् नरर्षभा: |
शुभाशुभाधिवासेन संसर्ग: कुरुते यथा ।। २३ ।।
“नरश्रेष्ठ पाण्डवो! शुभ और अशुभ आश्रयमें रहनेपर वहाँका संसर्ग मनुष्यमें जैसे गुण-
दोषोंकी सृष्टि करता है, उनका हम वर्णन करते हैं, सुनिये || २३ ।।
वस्त्रमापस्तिलान् भूमिं गन्धो वासयते यथा ।
पुष्पाणामधिवासेन तथा संसर्गजा गुणा: ।। २४ ।।
'जैसे फूलोंके संसर्गमें रहनेपर उनकी सुगन्ध वस्त्र, जल, तिल और भूमिको भी
सुवासित कर देती है, उसी प्रकार संसर्गजनित गुण भी अपना प्रभाव डालते हैं || २४ ।।
मोहजालस्य योनिर्हि मूढेरेव समागम: ।
अहन्यहनि धर्मस्य योनि: साधुसमागम: || २५ |।
“मूढ मनुष्योंसे मिलना-जुलना मोहजालकी उत्पत्तिका कारण होता है। इसी प्रकार
साधु-महात्माओंका रंग प्रतिदिन धर्मकी प्राप्ति करानेवाला है || २५ ।।
तस्मात् प्राजजैश्न वृद्धैश्न सुस्वभावैस्तपस्विभि: ।
सद्िश्व सह संसर्ग: कार्य: शमपरायणै: ।। २६ ।।
“इसलिये दिद्दवानों, वृद्ध पुरुषों तथा उत्तम स्वभाववाले शान्तिपरायण तपस्वी
सत्पुरुषोंका संग करना चाहिये || २६ ।।
येषां त्रीण्यवदातानि विद्या योनिश्च कर्म च ।
ते सेव्यास्तै: समास्या हि शास्त्रेभ्योडपि गरीयसी ।। २७ ।।
निरारम्भा हापि वयं पुण्यशीलेषु साधुषु ।
पुण्यमेवाप्रुयामेह पापं पापोपसेवनात् ।। २८ ।।
“जिन पुरुषोंके विद्या, जाति और कर्म--ये तीनों उज्ज्वल हों, उनका सेवन करना
चाहिये; क्योंकि उन महापुरुषोंके साथ बैठना शास्त्रोंके स्वाध्यायसे भी बढ़कर है। हमलोग
अग्निहोत्र आदि शुभ कर्मोंका अनुष्ठान नहीं करते, तो भी पुण्यात्मा साधुपुरुषोंके समुदायमें
रहनेसे हमें पुण्यकी ही प्राप्ति होगी। इसी प्रकार पापीजनोंके सेवनसे हम पापके ही भागी
होंगे || २७-२८ ।।
असतां दर्शनात् स्पर्शात् संजल्पाच्च सहासनात् |
धर्माचारा: प्रहीयन्ते सिद्धयन्ति च न मानवा: || २९ |।
“दुष्ट मनुष्योंके दर्शन, स्पर्श, उनके साथ वार्तालाप अथवा उठने-बैठनेसे धार्मिक
आचारोंकी हानि होती है। इसलिये वैसे मनुष्योंको कभी सिद्धि नहीं प्राप्त होती || २९ ।।
बुद्धिश्च हीयते पुंसां नीचै: सह समागमात् |
मध्यमैर्मध्यतां याति श्रेष्ठतां याति चोत्तमै: ॥। ३० ।।
“नीच पुरुषोंका साथ करनेसे मनुष्योंकी बुद्धि नष्ट होती है। मध्यम श्रेणीके मनुष्योंका
साथ करनेसे मध्यम होती है और उत्तम पुरुषोंका संग करनेसे उत्तरोत्तर श्रेष्ठ होती
है || ३० ।।
अनीचैनप्यविषयैर्नाधर्मिष्ठिविशेषत: ।
ये गुणा: कीर्तिता लोके धर्मकामार्थसम्भवा: |
लोकाचारेषु सम्भूता वेदोक्ता: शिष्टसम्मता: || ३१ ।।
उत्तम, प्रसिद्ध एवं विशेषत: धर्मिष्ठ मनुष्योंने लोकमें धर्म, अर्थ और कामकी उत्पत्तिके
हेतुभूत जो वेदोक्त गुण (साधन) बताये हैं वे ही लोकाचारमें प्रकट होते हैं--लोगोंद्वारा
काममें लाये जाते हैं और शिष्ट पुरुष उन्हींका आदर करते हैं || ३१ ।।
ते युष्मासु समस्ताश्ष व्यस्ताश्वैवेह सदगुणा: ।
इच्छामो गुणवन्मध्ये वस्तुं श्रेयोडभिकाड्क्षिण: ।। ३२ ।।
“वे सभी सदगुण पृथक्ू-पृथक् और एक साथ आपलोगोंमें विद्यमान हैं, अतः हमलोग
कल्याणकी इच्छासे आप-जैसे गुणवान् पुरुषोंके बीचमें रहना चाहते हैं! || ३२ ।।
युधिछिर उवाच
धन्या वयं यदस्माकं स्नेहकारुण्ययन्त्रिता: ।
असतोडपि गुणानाहु्ब्राह्मणप्रमुखा: प्रजा: ।। ३३ ।।
युधिष्ठिरने कहा--हमलोग धन्य हैं; क्योंकि ब्राह्मण आदि प्रजावर्गके लोग हमारे प्रति
स्नेह और करुणाके पाशमें बँधकर जो गुण हमारे अंदर नहीं हैं, उन गुणोंको भी हममें
बतला रहे हैं ।। ३३ ।।
तदहं भ्रातृसहित: सर्वान् विज्ञापयामि व: |
नान्यथा तद्धि कर्तव्यमस्मत्स्नेहानुकम्पया ।। ३४ ।।
भाइयोंसहित मैं आप सब लोगोंसे कुछ निवेदन करता हूँ। आपलोग हमपर स्नेह और
कृपा करके उसके पालनसे मुख न मोड़ें ।। ३४ ।।
भीष्म: पितामहो राजा विदुरो जननी च मे ।
सुहज्जनश्नच प्रायो मे नगरे नागसाह्लये ।। ३५ ।।
(आपलोगोंको मालूम होना चाहिये कि) हमारे पितामह भीष्म, राजा धृतराष्ट्र, विदुरजी,
मेरी माता तथा प्राय: अन्य सगे-सम्बन्धी भी हस्तिनापुरमें ही हैं || ३५ ।।
ते त्वस्मद्धितकामार्थ पालनीया: प्रयत्नत: ।
युष्माभि: सहिता: सर्वे शोकसंतापविह्वला: ।। ३६ ।।
वे सब लोग आपलोगोंके साथ ही शोक और संतापसे व्याकुल हैं, अतः आपलोग
हमारे हितकी इच्छा रखकर उन सबका यत्नपूर्वक पालन करें ।। ३६ ।।
निवर्ततागता दूरं समागमनशापिता: ।
स्वजने न्यासभूते मे कार्या स्नेहान्विता मति: || ३७ ।।
अच्छा, अब लौट जाइये, आपलोग बहुत दूर चले आये हैं। मैं अपनी शपथ दिलाकर
अनुरोध करता हूँ कि आपलोग मेरे साथ न चलें। मेरे स््व्जन आपके पास धरोहरके रूपमें
हैं। उनके प्रति आपलोगोंके हृदयमें स्नेहभाव रहना चाहिये || ३७ ।।
एतद्धि मम कार्याणां परम॑ हृदि संस्थितम् ।
कृता तेन तु तुष्टिमें सत्कारश्न भविष्यति ।। ३८ ।।
मेरे हृदयमें स्थित सब कार्योमें यही कार्य सबसे उत्तम है, आपके द्वारा इसके किये
जानेपर मुझे महान् संतोष प्राप्त होगा और इसीसे मेरा सत्कार भी हो जायगा ।। ३८ ।।
वैशम्पायन उवाच
तथानुमन्त्रितास्तेन धर्मराजेन ता: प्रजा: ।
चक्कुरार्तस्वरं घोरं हा राजन्निति संहता: ।। ३९ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! धर्मराजके द्वारा इस प्रकार विनयपूर्वक अनुरोध
किये जानेपर उन समस्त प्रजाओंने “हा! महाराज!” ऐसा कहकर एक ही साथ भयंकर
आर्तनाद किया ।। ३९ |।
गुणान् पार्थस्य संस्मृत्य दुःखार्ता: परमातुरा: ।
अकामा: संन्यवर्तन्त समागम्याथ पाण्डवान् ।। ४० ।।
कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरके गुणोंका स्मरण करके प्रजावर्गके लोग दुःखसे पीडित और
अत्यन्त आतुर हो गये। उनकी पाण्डवोंके साथ जानेकी इच्छा पूर्ण नहीं हो सकी। वे केवल
उनसे मिलकर लौट आये ।। ४० ।।
निवत्तेषु तु पौरेषु रथानास्थाय पाण्डवा: |
आजममुर्जालह्नवीतीरे प्रमाणाख्यं महावटम् ।। ४१ ।।
पुरवासियोंके लौट जानेपर पाण्डवगण रथोंपर बैठकर गंगाजीके किनारे प्रमाणकोटि
नामक महान् वटके समीप आये ।। ४१ ।।
ते तं दिवसशेषेण वर्टं गत्वा तु पाण्डवा: ।
ऊषुस्तां रजनीं वीरा: संस्पृश्य सलिलं शुचि || ४२ ।।
संध्या होते-होते उस वटके निकट पहुँचकर शूरवीर पाण्डवोंने पवित्र जलका स्पर्श
(आचमन और संध्यावन्दन आदि) करके वह रात वहीं व्यतीत की ।। ४२ ।।
उदकेनैव तां रात्रिमूषुस्ते दुःखकर्षिता: ।
अनुजम्मुश्न तत्रैतान् स्नेहात् केचिद् द्विजातय: ।। ४३ ।।
दुःखसे पीड़ित हुए वे पाँचों पाण्डुकुमार उस रातमें केवल जल पीकर ही रह गये। कुछ
ब्राह्मण-लोग भी इन पाण्डवोंके साथ स्नेहवश वहाँतक चले आये थे ।। ४३ ।।
साग्नयो5नग्नयश्वैव सशिष्यगणबान्धवा: ।
स तैः परिवृतो राजा शुशुभे ब्रह्म॒वादिभि: ।। ४४ ।।
उनमेंसे कुछ साग्नि (अग्निहोत्री) थे और कुछ निरग्नि। उन्होंने अपने शिष्यों तथा भाई-
बन्धुओंको भी साथ ले लिया था। वेदोंका स्वाध्याय करनेवाले उन ब्राह्मणोंसे घिरे हुए राजा
युधिष्ठिरकी बड़ी शोभा हो रही थी ।। ४४ ।।
तेषां प्रादुष्कृताग्नीनां मुहुर्ते रम्यदारुणे ।
ब्रह्मघोषपुरस्कार: संजल्प: समजायत ।। ४५ ।।
संध्याकालकी नैसर्गिक शोभासे रमणीय तथा राक्षस-पिशाचादिके संचरणका समय
होनेसे अत्यन्त भयंकर प्रतीत होनेवाले उस मुहूर्तमें अग्नि प्रजजलित करके वेद-मन्त्रोंके
घोषपूर्वक अग्निहोत्र करनेके बाद उन ब्राह्मणोंमें परस्पर संवाद होने लगा || ४५ ।।
राजानं तु कुरुश्रेष्ठ ते हंसमधुरस्वरा: ।
आश्वासयन्तो विप्राग्रया: क्षपां सर्वा व्यनोदयन् ।। ४६ ।।
हंसके समान मधुर स्वरमें बोलनेवाले उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने कुरुकुलरत्न राजा युधिष्ठिरको
आश्वासन देते हुए सारी रात उनका मनोरंजन किया ।। ४६ ||
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि पौरप्रत्यागमने प्रथमो5ध्याय: ।। १ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत अरण्यपर्वमें पुरवासियोंके लौटनेसे सम्बन्ध
रखनेवाला पहला अध्याय पूरा हुआ ॥। १ ॥।
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द्वितीयो&्ध्याय:
धनके दोष, अतिथिसत्कारकी महत्ता तथा कल्याणके
उपायोंके विषयमें धर्मराज युधिष्ठिरसे ब्राह्मणों तथा
शौनकजीकी बातचीत
वैशम्पायन उवाच
प्रभातायां तु शर्वर्या तेषामक्लिष्टकर्मणाम् |
वन॑ यियासतां विप्रास्तस्थुर्भिक्षाभुजो5ग्रत: ।। १ ॥।
वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन्! जब रात बीती और प्रभातका उदय हुआ तथा
अनायास ही महान् पराक्रम करनेवाले पाण्डव वनकी ओर जानेके लिये उद्यत हुए, उस
समय भिक्षान्नभोजी ब्राह्मण साथ चलनेके लिये उनके सामने खड़े हो गये ।। १ ।।
तानुवाच ततो राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर: ।
वयं हि हृतसर्वस्वा हृतराज्या हृतश्रिय: ।। २ ।।
फलमूलाशनाहारा वनं गच्छाम दु:ःखिता: ।
वनं च दोषबहुलं बहुव्यालसरीसूपम् ।। ३ ।।
तब कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिरने उनसे कहा--“ब्राह्मणो! हमारा राज्य, लक्ष्मी और
सर्वस्व जूएमें हरण कर लिया गया है। हम फल, मूल तथा अन्नके आहार-पर रहनेका निश्चय
करके दुःखी होकर वनमें जा रहे हैं। वनमें बहुत-से दोष हैं। वहाँ सर्प-बिच्छू आदि असंख्य
भयंकर जन्तु हैं ।। २-३ ।।
परिक्लेशश्व वो मन्ये ध्रुवं तत्र भविष्यति ।
ब्राह्मणानां परिक्लेशो दैवतान्यपि सादयेत् ।
कि पुनर्मामितो विप्रा निवर्तध्वं यथेष्टत: ।। ४ ।।
“मैं समझता हूँ, वहाँ आपलोगोंको अवश्य ही महान् कष्टका सामना करना पड़ेगा।
ब्राह्मणोंको दिया हुआ क्लेश तो देवताओंका भी विनाश कर सकता है, फिर मेरी तो बात
ही क्या है? अतः ब्राह्मणो! आपलोग यहाँसे अपने अभीष्ट स्थानको लौट जाया ।। ४ ।।
ब्राह्मणा ऊचु
गतिर्या भवतां राजंस्तां वयं गन्तुमुद्यता: |
ना्हस्यस्मान् परित्यक्तुं भक्तान् सद्धर्मदर्शिन: ।। ५ ।॥।
ब्राह्मणोंने कहा--राजन्! आपकी जो गति होगी उसे भुगतनेके लिये हम भी उद्यत
हैं। हम आपके भक्त तथा उत्तम धर्मपर दृष्टि रखनेवाले हैं। इसलिये आपको हमारा
परित्याग नहीं करना चाहिये ।। ५ ।।
अनुकम्पां हि भक्तेषु देवता हापि कुर्वते ।
विशेषतो ब्राह्म॒णेषु सदाचारावलम्बिषु ।। ६ ।।
देवता भी अपने भक्तोंपर विशेषत: सदाचारपरायण ब्राह्मणोंपर तो अवश्य ही दया
करते हैं ।। ६ ।।
युधिछिर उवाच
ममापि परमा भक्तित्रह्मणेषु सदा द्विजा: ।
सहायविपरिभ्रंशस्त्वयं सादयतीव माम् ।। ७ ।।
आहरेयुरिमे येडषपि फलमूलमधूनि च ।
त इमे शोकजेैर्दु:खैर्भ्रातरो मे विमोहिता: ।। ८ ।।
युधिष्ठटिर बोले--विप्रगण! मेरे मनमें भी ब्राह्मणोंके प्रति उत्तम भक्ति है, किंतु यह सब
प्रकारके सहायक साधनोंका अभाव ही मुझे दुःखमग्न-सा किये देता है। जो फल-मूल एवं
शहद आदि आहार जुटाकर ला सकते थे वे ही ये मेरे भाई शोकजनित दुःखसे मोहित हो
रहे हैं || ७-८ ।।
द्रौपद्या विप्रकर्षण राज्यापहरणेन च ।
दुःखार्दितानिमान् क्लेशैरनईहहं योक्तुमिहोत्सहे ।। ९ ।।
द्रौपदीके अपमान तथा राज्यके अपहरणके कारण ये दुःखसे पीडित हो रहे हैं, अतः मैं
इन्हें (आहार जुटानेका आदेश देकर) अधिक क्लेशमें नहीं डालना चाहता ।। ९ ।।
ब्राह्मणा ऊचु
अस्मत्पोषणजा चिन्ता मा भूत् ते हृदि पार्थिव ।
स्वयमाह्त्य चान्नानि त्वानुयास्यथामहे वयम् ।। १० ।।
ब्राह्मण बोले--पृथ्वीनाथ! आपके हृदयमें हमारे पालन-पोषणकी चिन्ता नहीं होनी
चाहिये। हम स्वयं ही अपने लिये अन्न आदिकी व्यवस्था करके आपके साथ
चलेंगे || १० ।।
अनुध्यानेन जप्येन विधास्याम: शिवं तव ।
कथाभिश्चाभिरम्याभि: सह रंस्थामहे वयम् ।। ११ ।।
हम आपके अभीष्टचिन्तन और जपके द्वारा आपका कल्याण करेंगे तथा आपको
सुन्दर-सुन्दर कथाएँ सुनाकर आपके साथ ही प्रसन्नतापूर्वक वनमें विचरेंगे || ११ ।।
युधिछिर उवाच
एवमेतन्न संदेहो रमे5हं सतत द्विजै: ।
न्यूनभावात् तु पश्यामि प्रत्यादेशमिवात्मन: ।। १२ ।।
युधिष्ठिरने कहा--महात्माओ! आपका कहना ठीक है। इसमें संदेह नहीं कि मैं सदा
ब्राह्मणोंके साथ रहनेमें ही प्रसन्नताका अनुभव करता हूँ, किंतु इस समय धन आदिसे हीन
होनेके कारण मैं देख रहा हूँ कि मेरे लिये यह अपकीर्तिकी-सी बात है || १२ ।।
कथं द्रक्ष्यामि व: सर्वान् स््वयमाहृतभोजनान् ।
मद्धक्त्या क्लिश्यतो<नर्हान् धिक् पापान् धृतराष्ट्रजान् ।। १३ ।।
आप सब लोग स्वयं ही आहार जुटाकर भोजन करें, यह मैं कैसे देख सकूँगा?
आपलोग कष्ट भोगनेके योग्य नहीं हैं, तो भी मेरे प्रति स्नेह होनेके कारण इतना क्लेश उठा
रहे हैं। धृतराष्ट्रके पापी पुत्रोंको धिकक््कार है ।। १३ ।।
वैशम्पायन उवाच
इत्युक्त्वा स नृप: शोचन् निषसाद महीतले ।
तमध्यात्मरतो विद्वान् शौनको नाम वै द्विज: ।। १४ ।।
योगे सांख्ये च कुशलो राजानमिदमत्रवीत् ।। १५ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्! इतना कहकर धर्मराज युधिष्ठिर शोकमग्न हो
चुपचाप पृथ्वीपर बैठ गये। उस समय अध्यात्मविषयमें रत अर्थात् परमात्म-चिन्तनमें तत्पर
विद्वान ब्राह्मण शौनकने, जो कर्मयोग और सांख्ययोग--दोनों ही निष्ठाओंके विचारमें
प्रवीण थे, राजासे इस प्रकार कहा-- ।। १४--१५ ।।
शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च ।
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् ।। १६ ।।
'शोकके सहस्रों और भयके सैकड़ों स्थान हैं। वे मूढ़ मनुष्यपर प्रतिदिन अपना प्रभाव
डालते हैं; परंतु ज्ञानी पुरुषपर वे प्रभाव नहीं डाल सकते ।। १६ ।।
न हि ज्ञानविरुद्धेषु बहुदोषेषु कर्मसु ।
श्रेयोधातिषु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधा: ।। १७ ।।
“अनेक दोषोंसे युक्त, ज्ञानविरुद्ध एवं कल्याणनाशक कर्मोमें आप-जैसे ज्ञानवान् पुरुष
नहीं फँसते हैं ।। १७ ।।
अष्टाज्जां बुद्धिमाहुर्या सर्वाश्रेयोडभिघातिनीम् ।
श्रुतिस्मृतिसमायुक्तां राजन् सा त्वय्यवस्थिता ।। १८ ।।
“राजन! योगके आठ अंग--यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान
और समाधिसे सम्पन्न, समस्त अमंगलोंका नाश करनेवाली तथा श्रुतियों और स्मृतियोंके
स्वाध्यायसे भलीभाँति दृढ़ की हुई जो उत्तम बुद्धि कही गयी है, वह आपमें स्थित
है ।। १८ ।।
अर्थकृच्छेषु दुर्गेषु व्यापत्सु स्वजनस्य च ।
शारीरमानसैर्द:खैर्न सीदन्ति भवद्विधा: ।। १९ ।।
“अर्थसंकट, दुस्तर दुःख तथा स्वजनोंपर आयी हुई विपत्तियोंमें आप-जैसे ज्ञानी
शारीरिक और मानसिक दु:खोंसे पीडित नहीं होते |। १९ ।।
श्रूयतां चाभिधास्यामि जनकेन यथा पुरा ।
आत्मव्यवस्थानकरा गीता: श्लोका महात्मना ।। २० ||
'पूर्वकालमें महात्मा राजा जनकने अन्तःकरणको स्थिर करनेवाले कुछ श्लोकोंका गान
किया था। मैं उन श्लोकोंका वर्णन करता हूँ, आप सुनिये--- || २० ।।
मनोदेहसमुत्थाभ्यां दुःखाभ्यामर्दितं जगत् ।
तयोव्याससमासा भ्यां शमोपायमिमं शृणु || २१ ।।
“सारा जगत् मानसिक और शारीरिक दु:खोंसे पीडित है। उन दोनों प्रकारके दुःखोंकी
शान्तिका यह उपाय संक्षेप और विस्तारसे सुनिये || २१ ।।
व्याधेरनिष्टसंस्पर्शाच्छूमादिष्टविवर्जनात् ।
दुःखं चतुर्भि: शारीरं कारणै: सम्प्रवर्तते || २२ ।।
“रोग, अप्रिय घटनाओंकी प्राप्ति, अधिक परिश्रम तथा प्रिय वस्तुओंका वियोग--इन
चार कारणोंसे शारीरिक दु:ख प्राप्त होता है ।। २२ ।।
तदा तत्प्रतिकाराच्च सततं चाविचिन्तनात् ।
आधिव्याधिप्रशमनं क्रियायोगद्धयेन तु ।। २३ ।।
'समयपर इन चारों कारणोंका प्रतीकार करना एवं कभी भी उसका चिन्तन न करना
--ये दो क्रियायोग (दुःखनिवारक उपाय) हैं। इन्हींसे आधि-व्याधिकी शान्ति होती
है ।। २३ ।।
मतिमन्तो हातो वैद्या: शमं प्रागेव कुर्वते ।
मानसस्य प्रियाख्यानै: सम्भोगोपनयैर्नणाम् ।। २४ ।।
“अतः बुद्धिमान् तथा विद्दान् पुरुष प्रिय वचन बोलकर तथा हितकर भोगोंकी प्राप्ति
कराकर पहले मनुष्योंके मानसिक दुःखोंका ही निवारण किया करते हैं |। २४ ।।
मानसेन हि दुःखेन शरीरमुपतप्यते ।
अय:पिण्डेन तप्तेन कुम्भसंस्थमिवोदकम् ।। २५ ।।
“क्योंकि मनमें दुःख होनेपर शरीर भी संतप्त होने लगता है; ठीक वैसे ही, जैसे तपाया
हुआ लोहेका गोला डाल देनेपर घड़ेमें रखा हुआ शीतल जल भी गरम हो जाता
है ।। २५ ।।
मानसं शमयेत् तस्माज्ज्ञानेनाग्निमिवाम्बुना |
प्रशान्ते मानसे हास्य शारीरमुपशाम्यति ।। २६ ।।
“इसलिये जलसे अग्निको शान्त करनेकी भाँति ज्ञानके द्वारा मानसिक दुःखको शान्त
करना चाहिये। मनका दुःख मिट जानेपर मनुष्यके शरीरका दुःख भी दूर हो जाता
है ।। २६ ||
मनसो दुःखमूलं तु स्नेह इत्युपलभ्यते ।
स्नेहात् तु सज्जते जन्तुर्दुःखयोगमुपैति च ।। २७ ।।
“मनके दुःखका मूल कारण क्या है? इसका पता लगानेपर 'स्नेह' (संसारमें आसक्ति)-
की ही उपलब्धि होती है। इसी स्नेहके कारण ही जीव कहीं आसक्त होता और दुःख पाता
है || २७ |।
स्नेहमूलानि दुःखानि स्नेहजानि भयानि च ।
शोकहर्षो तथा55यास: सर्व स्नेहात् प्रवर्तते | २८ ।।
स्नेहाद भावो<नुरागश्न प्रजज्ञे विषये तथा ।
अश्रेयस्कावुभावेतौ पूर्वस्तत्र गुरु: स्मृत: ।। २९ ।।
“दुःखका मूल कारण है आसक्ति। आसक्तिसे ही भय होता है। शोक, हर्ष तथा क्लेश
--इन सबकी प्राप्ति भी आसक्तिके कारण ही होती है। आसक्तिसे ही विषयोंमें भाव और
अनुराग होते हैं। ये दोनों ही अमंगलकारी हैं। इनमें भी पहला अर्थात् विषयोंके प्रति भाव
महान् अनर्थकारक माना गया है ।। २८-२९ |।
कोटराग्निर्यथाशेषं समूलं पादपं दहेत्
धर्मार्थो तु तथाल्पो5पि रागदोषो विनाशयेत् ।। ३० ।।
“जैसे खोखलेमें लगी हुई आग सम्पूर्ण वृक्षको जड़-मूलसहित जलाकर भस्म कर देती
है, उसी प्रकार विषयोंके प्रति थोड़ी-सी भी आसक्ति धर्म और अर्थ दोनोंका नाश कर देती
है || ३० ।।
विप्रयोगे न तु त्यागी दोषदर्शी समागमे ।
विरागं भजते जनन््तुर्निर्विरो निरवग्रह: || ३१ ।।
“विषयोंके प्राप्त न होनेपर जो उनका त्याग करता है, वह त्यागी नहीं है; अपितु जो
विषयोंके प्राप्त होनेपर भी उनमें दोष देखकर उनका परित्याग करता है, वस्तुतः वही त्यागी
है--वही वैराग्यको प्राप्त होता है। उसके मनमें किसीके प्रति द्वेषभाव न होनेके कारण वह
निर्वेर तथा बन्धनमुक्त होता है ।। ३१ ।।
तस्मात् स्नेहं न लिप्सेत मित्रेभ्यो धनसंचयात् ।
स्वशरीरसमुत्थं च ज्ञानेन विनिवर्तयेत् ॥। ३२ ।।
“इसलिये मित्रों तथा धनराशिको पाकर इनके प्रति स्नेह (आसक्ति) न करे। अपने
शरीरसे उत्पन्न हुई आसक्तिको ज्ञानसे निवृत्त करे || ३२ ।।
ज्ञानान्वितेषु युक्तेषु शास्त्रज्ञेषु कृतात्मसु ।
न तेषु सज्जते स्नेह: पद्मपत्रेष्विवोदकम् ।। ३३ ।।
'जो ज्ञानी, योगयुक्त, शास्त्रज्ञ तथा मनको वशमें रखनेवाले हैं, उनपर आसक्तिका
प्रभाव उसी प्रकार नहीं पड़ता, जैसे कमलके पत्तेपर जल नहीं ठहरता ।। ३३ ।।
रागाभिभूत: पुरुष: कामेन परिकृष्यते ।
इच्छा संजायते तस्य ततस्तृष्णा विवर्धते ।। ३४ ।।
तृष्णा हि सर्वपापिष्ठा नित्योद्वेगकरी स्मृता ।
अधर्मबहुला चैव घोरा पापानुबन्धिनी ।। ३५ ।।
“रागके वशीभूत हुए पुरुषको काम अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। फिर उसके मनमें
कामभोगकी इच्छा जाग उठती है। तत्पश्चात् तृष्णा बढ़ने लगती है। तृष्णा सबसे बढ़कर
पापिष्ठ (पापमें प्रवृत्त करनेवाली) तथा नित्य उद्वेग करनेवाली बतायी गयी है। उसके द्वारा
प्राय: अधर्म ही होता है। वह अत्यन्त भयंकर पापाबन्धनमें डालनेवाली है | ३४-३५ ।।
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्य॑ति जीर्यत: ।
योडसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजत: सुखम् ।। ३६ ।।
“खोटी बुद्धिवाले मनुष्योंके लिये जिसे त्यागना अत्यन्त कठिन है, जो शरीरके जरासे
जीर्ण हो जानेपर भी स्वयं जीर्ण नहीं होती तथा जिसे प्राणनाशक रोग बताया गया है, उस
तृष्णाको जो त्याग देता है, उसीको सुख मिलता है ।। ३६ ।।
अनाइम्ता तु सा तृष्णा अन्तर्देहगता नृणाम्
विनाशयति भूतानि अयोनिज इवानल: ।। ३७ ।।
“यह तृष्णा यद्यपि मनुष्योंके शरीरके भीतर ही रहती है, तो भी इसका कहीं आदि-
अन्त नहीं है। लोहेके पिण्डकी आगके समान यह तृष्णा प्राणियोंका विनाश कर देती
है || ३७ ।।
यथैध: स्वसमुत्थेन वह्लिना नाशमृच्छति ।
तथाकृतात्मा लोभेन सहजेन विनश्यति ।। ३८ ।।
'जैसे काष्ठ अपनेसे ही उत्पन्न हुई आगसे जलकर भस्म हो जाता है, उसी प्रकार
जिसका मन वशमें नहीं है, वह मनुष्य अपने शरीरके साथ उत्पन्न हुए लोभके द्वारा स्वयं
नष्ट हो जाता है || ३८ ।।
राजत: सलिलादमन्नेश्षलोरत: स्वजनादपि ।
भयमर्थवतां नित्यं मृत्यो: प्राणभूतामिव ।। ३९ ।।
“धनवान् मनुष्योंको राजा, जल, अग्नि, चोर तथा स्वजनोंसे भी सदा उसी प्रकार भय
बना रहता है, जैसे सब प्राणियोंको मृत्युसे | ३९ ।।
यथा ह्यामिषमाकाशे पक्षिश्रि: श्वापदैर्भुवि ।
भक्ष्यते सलिले मत्स्यैस्तथा सर्वत्र वित्तवान् । ४० ।।
'जैसे मांसके टुकड़ेको आकाशमें पक्षी, पृथ्वीपर हिंस्र जन्तु तथा जलमें मछलियाँ खा
जाती हैं, उसी प्रकार धनवान् पुरुषको सब लोग सर्वत्र नोचते रहते हैं || ४० ।।
अर्थ एव हि केषांचिदनर्थ भजते नृणाम् |
अर्थश्रेयसि चासक्तो न श्रेयो विन्दते नर: ।। ४१ ।।
“कितने ही मनुष्योंके लिये अर्थ ही अनर्थका कारण बन जाता है; क्योंकि अर्थद्वारा
सिद्ध होनेवाले श्रेय (सांसारिक भोग)-में आसक्त मनुष्य वास्तविक कल्याणको नहीं प्राप्त
होता ।। ४१ ।।
तस्मादर्थागमा: सर्वे मनोमोहविवर्धना: ।
कार्पण्यं दर्पमानौ च भयमुद्वेग एव च ।। ४२ ।।
अर्थजानि विदु: प्राज्ञा: दुःखान्येतानि देहिनाम् ।
अर्थस्योत्पादने चैव पालने च तथा क्षये ।। ४३ ।।
सहन्ति च महद् दु:खं घ्नन्ति चैवार्थकारणात् ।
अर्था दु:खं परित्यक्तुं पालिताश्वैव शत्रव: ।। ४४ ।।
“इसलिये धन-प्राप्तिके सभी उपाय मनमें मोह बढ़ानेवाले हैं। कृपणता, घमण्ड,
अभिमान, भय और उद्वेग इन्हें विद्वानोंने देहधारियोंके लिये धनजनित दुःख माना है। धनके
उपार्जन, संरक्षण तथा व्ययमें मनुष्य महान् दुःख सहन करते हैं और धनके ही कारण एक-
दूसरेको मार डालते हैं। धनको त्यागनेमें भी महान् दुःख होता है और यदि उसकी रक्षा की
जाय तो वह शत्रुका-सा काम करता है: ।। ४२--४४ ।।
दुःखेन चाधिगम्यन्ते तस्मान्नाशं न चिन्तयेत् ।
असंतोषपरा मूढा: संतोष॑ यान्ति पण्डिता: ।। ४५ ।।
“धनकी प्राप्ति भी दुःखसे ही होती है। इसलिये उसका चिन्तन न करे; क्योंकि धनकी
चिन्ता करना अपना नाश करना है। मूर्ख मनुष्य सदा असंतुष्ट रहते हैं और विद्वान् पुरुष
संतुष्ट ।। ४५ ||
अन्तो नास्ति पिपासाया: संतोष: परमं सुखम् |
तस्मात् संतोषमेवेह परं पश्यन्ति पण्डिता: ।। ४६ ।।
“धनकी प्यास कभी बुझती नहीं है; अतः संतोष ही परम सुख है। इसीलिये ज्ञानीजन
संतोषको ही सबसे उत्तम समझते हैं || ४६ ।।
अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं रत्नसंचय: ।
ऐश्वर्य प्रियसंवासो गृध्येत् तत्र न पण्डित: ।। ४७ ।।
'यौवन, रूप, जीवन, रत्नोंका संग्रह, ऐश्वर्य तथा प्रियजनोंका एकत्र निवास--ये सभी
अनित्य हैं; अतः विद्वान् पुरुष उनकी अभिलाषा न करे || ४७ ।।
त्यजेत संचयांस्तस्मात्तज्जान् क्लेशान् सहेत च |
न हि संचयवान् कश्रिद् दृश्यते निरुपद्रव: ।
अतश्न धार्मिकै: पुंभिरनीहार्थ: प्रशस्पते ॥। ४८ ।।
“इसलिये धन-संग्रहका त्याग करे और उसके त्यागसे जो क्लेश हो, उसे धैर्यपूर्वक सह
ले। जिनके पास धनका संग्रह है, ऐसा कोई भी मनुष्य उपद्रवरहित नहीं देखा जाता। अतः
धर्मात्मा पुरुष उसी धनकी प्रशंसा करते हैं जो दैवेच्छासे न्यायपूर्वक स्वतः प्राप्त हो गया
हो ।। ४८ ।।
धर्मार्थ यस्य वित्तेहा वरं तस्य निरीहता ।
प्रक्षालनाद्धि पंकस्य श्रेयो न स्पर्शन॑ नृणाम् ।। ४९ ।।
'जो धर्म करनेके लिये धनोपार्जनकी इच्छा करता है उसका धनकी इच्छा न करना ही
अच्छा है। कीचड़ लगाकर धोनेकी अपेक्षा मनुष्योंके लिये उसका स्पर्श न करना ही श्रेष्ठ
है ।। ४९ ||
युधिष्ठिरैवं सर्वेषु न स्पृहां कर्तुमरहसि ।
धर्मेण यदि ते कार्य विमुक्तेच्छो भवार्थत: ।। ५० ।।
'युधिष्ठिर! इस प्रकार आपके लिये किसी भी वस्तुकी अभिलाषा करनी उचित नहीं है।
यदि आपको थधर्मसे ही प्रयोजन हो तो धनकी इच्छाका सर्वथा त्याग कर दें" || ५० ।।
युधिछिर उवाच
नार्थोपभोगलिप्सार्थमियमर्थेप्सुता मम ।
भरणार्थ तु विप्राणां ब्रह्मन् काडक्षे न लोभत: ।। ५१ ।।
युधिष्ठिरने कहा--ब्रह्मन! मैं जो धन चाहता हूँ वह इसलिये नहीं कि मुझे धनसम्बधी
भोग भोगनेकी इच्छा है। मैं तो ब्राह्मणोंक भरण-पोषणके लिये ही धनकी इच्छा रखता हूँ,
लोभवश नहीं ।। ५१ ।।
कथं हा[स्मद्विधो ब्रह्मन् वर्तमानो गृहाश्रमे ।
भरणं पालन चापि न कुर्यादनुयायिनाम् ।। ५२ ।।
विप्रवर! गृहस्थ-आश्रममें रहनेवाला मेरे-जैसा पुरुष अपने अनुयायियोंका भरण-
पोषण भी न करे, यह कैसे उचित हो सकता है? ।। ५२ ।।
संविभागो हि भूतानां सर्वेषामेव दृश्यते ।
तथैवापचमाने भ्य: प्रदेयं गृहमेधिना ।। ५३ ।।
गृहस्थके भोजनमें देवता, पितर, मनुष्य एवं समस्त प्राणियोंका हिस्सा देखा जाता है।
गृहस्थका यह धर्म है कि वह अपने हाथसे भोजन न बनानेवाले संन्यासी आदिको अवश्य
पका-पकाया अन्न दे || ५३ ।।
तृणानि भूमिरुदकं वाक् चतुर्थी च सूनूता ।
सतामेतानि गेहेषु नोच्छिद्यन्ते कदाचन ।। ५४ ।।
आसनके लिये तृण (कुश), बैठनेके लिये स्थान, जल और चौथी मधुर वाणी,
सत्पुरुषोंके घरमें इन चार वस्तुओंका अभाव कभी नहीं होता ।। ५४ ।।
देयमार्तस्य शयनं स्थितश्रान्तस्य चासनम् |
तृषितस्य च पानीयं क्षुधितस्य च भोजनम् ।। ५५ ।।
रोग आदिसे पीड़ित मनुष्यको सोनेके लिये शय्या, थके-माँदे हुएको बैठनेके लिये
आसन, प्यासेको पानी और भूखेको भोजन तो देना ही चाहिये || ५५ ।।
चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद् वाचं दद्यात् सुभाषिताम् ।
उत्थाय चासन दद्यादेष धर्म: सनातन: ।
प्रत्युत्थायाभिगमन कुर्यानन््यायेन चार्चनम् ।। ५६ ।।
जो अपने घरपर आ जाय, उसे प्रेमभरी दृष्टिसे देखे, मनसे उसके प्रति उत्तम भाव रखे,
उससे मीठे वचन बोले और उठकर उसके लिये आसन दे। यह गृहस्थका सनातन धर्म है।
अतिथिको आते देख उठकर उसकी अगवानी और यथोचित रीतिसे उसका आदर-सत्कार
करे ।। ५६ ||
अग्निहोत्रमनड्वांश्व॒ ज्ञातयो5तिथिबान्धवा: ।
पुत्रा दाराश्च भृत्याश्व निर्दहेयुरपूजिता: ।। ५७ ।।
यदि गृहस्थ मनुष्य अग्निहोत्र, साँड, जाति-भाई, अतिथि-अभ्यागत, बन्धु-बान्धव,
स्त्री-पुत्र तथा भृत्यजनोंका आदर-सत्कार न करे तो वे अपनी क्रोधाग्निसे उसे जला सकते
हैं ।। ५७ ।।
आत्मार्थ पाचयेन्नान्नं न वृथा घातयेत् पशून् ।
न च तत् स्वयमश्रीयाद् विधिवद् यन्न निर्वपेत् ।। ५८ ।।
केवल अपने लिये अन्न न पकावे (देवता-पितरों एवं अतिथियोंके उद्देश्यसे ही भोजन
बनानेका विधान है), निकम्मे पशुओंकी भी हिंसा न करे और जिस वस्तुको विधिपूर्वक
देवता आदिके लिये अर्पित न करे, उसे स्वयं भी न खाय || ५८ ।।
श्वभ्यश्न श्वपचेभ्यश्व वयोभ्यश्वावपेद् भुवि ।
वैश्वदेवं हि नामैतत् सायं प्रातश्न॒ दीयते ।। ५९ ।।
कुत्तों, चाण्डालों और कौवोंके लिये पृथ्वीपर अन्न डाल दे। यह वैश्वदेव नामक महान्
यज्ञ है, जिसका अनुष्ठान प्रातःकाल और सायंकालमें भी किया जाता है ।। ५९ ।।
विघसाशी भवेत् तस्मान्नित्यं चामृतभोजन: ।
विघसो भुक्तशेषं तु यज्ञशेषं तथामृतम् ।। ६० ।।
अतः गृहस्थ मनुष्य प्रतिदिन विघस एवं अमृत भोजन करे। घरके सब लोगोंके भोजन
कर लेनेपर जो अन्न शेष रह जाय उसे “विघस” कहते हैं तथा बलि-वैश्वदेवसे बचे हुए
अन्नका नाम 'अमृत' है || ६० ।।
चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद् वाचं दद्याच्च सूनृताम् ।
अनुव्रजेदुपासीत स यज्ञ: पठचदक्षिण: ।। ६१ ।।
अतिथिको नेत्र दे (उसे प्रेमभरी दृष्टिसे देखे), मन दे (मनसे हित-चिन्तन करे) तथा
मधुर वाणी प्रदान करे (सत्य, प्रिय, हितकी बात कहे)। जब वह जाने लगे तब कुछ दूरतक
उसके पीछे-पीछे जाय और जबतक वह घरपर रहे तबतक उसके पास बैठे (उसकी सेवामें
लगा रहे)। यह पाँच प्रकारकी दक्षिणाओंसे युक्त अतिथि-यज्ञ है ।। ६१ ।।
यो दद्यादपरिक्लिष्टमन्नमध्वनि वर्तते |
भ्रान्तायादृष्टपूर्वाय तस्य पुण्यफलं महत् ।। ६२ ।।
जो गृहस्थ अपरिचित थके-माँदे पथिकको प्रसन्नतापूर्वक भोजन देता है, उसे महान्
पुण्यफलकी प्राप्ति होती है ।। ६२ ।।
एवं यो वर्तते वृत्तिं वर्तमानो गृहाश्रमे ।
तस्य धर्म परं प्राहुः कथं वा विप्र मन्यसे ।। ६३ ।।
ब्रह्मन! जो गृहस्थ इस वृत्तिसे रहता है, उसके लिये उत्तम धर्मकी प्राप्ति बतायी गयी है,
अथवा इस विषयमें आपकी क्या सम्मति है? ।। ६३ ।।
शौनक उवाच
अहो बत महत् कष्ट विपरीतमिदं जगत् |
येनापत्रपते साधुरसाधुस्तेन तुष्यति ।। ६४ ।।
शौनकजीने कहा--अहो! बहुत दुःखकी बात है, इस जगत्में विपरीत बातें दिखायी
देती हैं। साधु पुरुष जिस कर्मसे लज्जित होते हैं, दुष्ट मनुष्योंको उसीसे प्रसन्नता प्राप्त होती
है ।। ६४ ।।
शिक्षोदरकृते<प्राज्ञ: करोति विघसं बहु |
मोहरागवशाक्रान्त इन्द्रियार्थवशानुग: ।। ६५ ।।
अज्ञानी मनुष्य अपनी जननेन्द्रिय तथा उदरकी तृप्तिके लिये मोह एवं रागके वशीभूत
हो विषयोंका अनुसरण करता हुआ नाना प्रकारकी विषय-सामग्रीको यज्ञावशेष मानकर
उसका संग्रह करता है ।। ६५ ।।
हियते बुध्यमानो5पि नरो हारिभिरिन्द्रियै: ।
विमूढसंज्ञो दुष्टाश्वैरुदभ्रान्तैरिव सारथि: ।। ६६ ।।
समझदार मनुष्य भी मनको हर लेनेवाली इन्द्रियोंद्रारा विषयोंकी ओर खींच लिया
जाता है। उस समय उसकी विचारशक्ति मोहित हो जाती है। जैसे दुष्ट घोड़े वशमें न होनेपर
सारथिको कुमार्गमें घसीट ले जाते हैं, यही दशा उस अजितेन्द्रिय पुरुषकी भी होती
है ।। ६६ ||
षडिन्द्रियाणि विषयं समागच्छन्ति वै यदा ।
तदा प्रादुर्भवत्येषां पूर्वसंकल्पजं मन: ।। ६७ ।।
जब मन और पाँचों इन्द्रियाँ अपने विषयोंमें प्रवृत्त होती हैं, उस समय प्राणियोंके
पूर्वसंकल्पके अनुसार उसीकी वासनासे वासित मन विचलित हो उठता है ।। ६७ ।।
मनो यस्येन्द्रियस्पेह विषयान् याति सेवितुम् |
तस्यौत्सुक्यं सम्भवति प्रवृत्तिश्नोपजायते ।। ६८ ।।
मन जिस इन्द्रियके विषयोंका सेवन करने जाता है, उसीमें उस विषयके प्रति उत्सुकता
भर जाती है और वह इन्द्रिय उस विषयके उपभोगमें प्रवृत्त हो जाती है ।। ६८ ।।
ततः संकल्पबीजेन कामेन विषयेषुभि: ।
विद्धः पतति लोभाग्नौ ज्योतिर्लोभात् पतड़वत् ।। ६९ ।।
तदनन्तर संकल्प ही जिसका बीज है, उस कामके द्वारा विषयरूपी बाणोंसे बिंधकर
मनुष्य ज्योतिके लोभसे पतंगकी भाँति लोभकी आगमें गिर पड़ता है ।। ६९ ।।
ततो विहारैराहारैमोहितश्न यथेप्सया ।
महामोहे सुखे मग्नो नात्मानमवबुध्यते ॥। ७० ।।
इसके बाद इच्छानुसार आहार-विहारसे मोहित हो महामोहमय सुखमें निमग्न रहकर
वह मनुष्य अपने आत्माके ज्ञानसे वंचित हो जाता है || ७० ।।
एवं पतति संसारे तासु तास्विह योनिषु ।
अविद्याकर्मतृष्णाभि भ्राम्यमाणो5थ चक्रवत् ।। ७१ ।।
इस प्रकार अविद्या, कर्म और तृष्णाद्वारा चक्रकी भाँति भ्रमण करता हुआ मनुष्य
संसारकी विभिन्न योनियोंमें गिरता है || ७१ ।।
ब्रह्मादिषु तृणान्तेषु भूतेषु परिवर्तते ।
जले भुवि तथा55काशे जायमान: पुन: पुन: ।। ७२ ।।
फिर तो ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त सभी प्राणियोंमें तथा जल, भूमि और आकाशमें वह
मनुष्य बारंबार जन्म लेकर चक्कर लगाता रहता है || ७२ ।।
अबुधानां गतिस्त्वेषा बुधानामपि मे शृणु ।
ये धर्मे श्रेयसि रता विमोक्षरतयो जना: ।। ७३ ।।
यह अविवेकी पुरुषोंकी गति बतायी गयी है। अब आप मुझसे विवेकी पुरुषोंकी
गतिका वर्णन सुनें। जो धर्म एवं कल्याणमार्ममें तत्पर हैं और मोक्षके विषयमें जिनका
निरन्तर अनुराग है, वे विवेकी हैं || ७३ ।।
तदिदं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च ।
तस्माद् धर्मानिमान् सर्वान् नाभिमानात् समाचरेत् || ७४ ।।
वेदकी यह आज्ञा है कि कर्म करो और कर्म छोड़ो; अतः आगे बताये जानेवाले इन
सभी धर्मोका अहंकारशून्य होकर अनुष्ठान करना चाहिये ।। ७४ ।।
इज्याध्ययनदानानि तप: सत्यं क्षमा दम: ।
अलोभ इति मार्गो<यं धर्मस्याष्टविध: स्मृत: ।। ७५ ।।
यज्ञ, अध्ययन, दान, तप, सत्य, क्षमा, मन और इन्द्रियोंका संयम तथा लोभका
परित्याग--ये धर्मके आठ मार्ग हैं || ७५ ।।
अत्र पूर्वक्षतुर्वर्ग: पितृयाणपथे स्थित: ।
कर्तव्यमिति यत् कार्य नाभिमानात् समाचरेत् ।। ७६ ।।
इनमें पहले बताये हुए चार धर्म पितृयानके मार्गमें स्थित हैं; अर्थात् इन चारोंका
सकामभावसे अनुष्ठान करनेपर ये पितृयानमार्गसे ले जाते हैं। अग्निहोत्र और
संध्योपासनादि जो अवश्य करनेयोग्य कर्म हैं, उन्हें कर्तव्य-बुद्धिसे ही अभिमान छोड़कर
करे ।। ७६ |।
उत्तरो देवयानस्तु सद्धिराचरित: सदा ।
अष्ट ड्रेनैव मार्गेण विशुद्धात्मा समाचरेत् | ७७ ।।
अन्तिम चार धर्मोंको देवयानमार्गका स्वरूप बताया गया है। साधु पुरुष सदा उसी
मार्गका आश्रय लेते हैं। आगे बताये जानेवाले आठ अंगोंसे युक्त मार्गद्वारा अपने
अन्तःकरणको शुद्ध करके कर्तव्य-कर्मोंका कर्तृत्वके अभिमानसे रहित होकर पालन
करे ।। ७७ |।
सम्यक्संकल्पसंबन्धात् सम्यक् चेन्द्रियनिग्रहात् ।
सम्यग्व्रतविशेषाच्च सम्यक् च गुरुसेवनात् ।। ७८ ।।
सम्यगाहारयोगाच्च सम्यक् चाध्ययनागमात् |
सम्यक्कर्मोपसंन्यासात् सम्यक् चित्तनिरोधनात् ।। ७९ ।।
पूर्णतया संकल्पोंको एक ध्येयमें लगा देनेसे, इन्द्रियोंको भली प्रकार वशमें कर लेनेसे,
अहिंसादि व्रतोंका अच्छी प्रकार पालन करनेसे, भली प्रकार गुरुकी सेवा करनेसे, यथायोग्य
योगसाधनोपयोगी आहार करनेसे, वेदादिका भली प्रकार अध्ययन करनेसे, कर्मोंको
भलीभाँति भगवत्समर्पण करनेसे और चित्तका भली प्रकार निरोध करनेसे मनुष्य परम
कल्याणको प्राप्त होता है ।। ७८-७९ ||
एवं कर्माणि कुर्वन्ति संसारविजिगीषव: ।
रागद्वेषविनिर्मुक्ता ऐश्वर्य देवता गता: ।। ८० ।।
संसारको जीतनेकी इच्छावाले बुद्धिमान् पुरुष इसी प्रकार राग-द्वेषसे मुक्त होकर कर्म
करते हैं। इन्हीं नियमोंके पालनसे देवतालोग एऐश्वर्यको प्राप्त हुए हैं || ८० ।।
रुद्रा: साध्यास्तथा55दित्या वसवो5थ तथाश्रिनौ ।
योगैश्वर्येण संयुक्ता धारयन्ति प्रजा इमा: ।। ८१ ।।
रुद्र, साध्य, आदित्य, वसु तथा दोनों अश्विनीकुमार योगजनित ऐश्वर्यसे युक्त होकर इन
प्रजाजनोंका धारण-पोषण करते हैं || ८१ ।।
तथा त्वमपि कौन्तेय शममास्थाय पुष्कलम् |
तपसा सिद्धिमन्विच्छ योगसिद्धिं च भारत ।। ८२ ।।
कुन्तीनन्दन! इसी प्रकार आप भी मन और इन्द्रियोंको भलीभाँति वशमें करके
तपस्याद्वारा सिद्धि तथा योगजनित ऐश्वर्य प्राप्त करनेकी चेष्टा कीजिये || ८२ ।।
पितृमातृमयी सिद्धि: प्राप्ता कर्ममयी च ते ।
तपसा सिद्धिमन्विच्छ द्विजानां भरणाय वै ॥। ८३ ।।
यज्ञ, युद्धादि कर्मोंसे प्राप्त होनेवाली सिद्धि पितृ-मातृमयी (परलोक और इहलोकमें भी
लाभ पहुँचानेवाली) है, जो आपको प्राप्त हो चुकी है। अब तपस्याद्वारा वह योगसिद्धि
प्राप्त करनेका प्रयत्न कीजिये जिससे ब्राह्मणोंका भरण-पोषण हो सके ।। ८३ ।।
सिद्धा हि यद् यदिच्छन्ति कुर्वते तदनुग्रहात्
तस्मात्तप: समास्थाय कुरुष्वात्ममनोरथम् ।। ८४ ।।
सिद्ध पुरुष जो-जो वस्तु चाहते हैं, उसे अपने तपके प्रभावसे प्राप्त कर लेते हैं। अतः
आप तपस्याका आश्रय लेकर अपने मनोरथकी पूर्ति कीजिये ।। ८४ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि पाण्डवानां प्रव्रजने द्वितीयो5ध्याय: ।। २
||
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत अरण्यपर्वमें पाण्डवोंका प्रव्रजन (वनगमन)-
विषयक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥। २ ॥।
हि मय न हुक है ०
- धनके लोभसे मनुष्य धनके रक्षककी हत्या कर डालते हैं।
तृतीयो<थध्याय:
युधिष्ठिरके द्वारा अन्नके लिये भगवान् सूर्यकी उपासना और
उनसे अक्षयपात्रकी प्राप्ति
वैशम्पायन उवाच
शौनकेनैवमुक्तस्तु कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर: ।
पुरोहितमुपागम्य भ्रातृमध्येडब्रवीदिदम् ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! शौनकके ऐसा कहनेपर कुन्तीनन्दन युधिष्ठछिर
अपने पुरोहितके पास आकर भाइयोंके बीचमें इस प्रकार बोले-- ।। १ ।।
प्रस्थितं मानुयान्तीमे ब्राह्मणा वेदपारगा: ।
न चास्मि पोषणे शक्तो बहुदुःखसमन्वितः ।। २ ।।
“विप्रवर! ये वेदोंके पारंगत विद्वान ब्राह्मण मेरे साथ वनमें चल रहे हैं। परंतु मैं इनका
पालन-पोषण करनेमें असमर्थ हूँ, यह सोचकर मुझे बड़ा दुःख हो रहा है || २ ।।
परित्यक्तुं न शक्तो5स्मि दानशक्तिश्च नास्ति मे ।
कथमत्र मया कार्य तद् ब्रूहि भगवन् मम ।। ३ ।।
“भगवन्! मैं इन सबका त्याग नहीं कर सकता; परंतु इस समय मुझमें इन्हें अन्न देनेकी
शक्ति नहीं है। ऐसी अवस्थामें मुझे क्या करना चाहिये? यह कृपा करके बताइये” ।। ३ ।।
वैशम्पायन उवाच
मुहूर्तमिव स ध्यात्वा धर्मेणान्विष्य तां गतिम् ।
युधिष्ठिरमुवाचेदं धौम्यो धर्मभूतां वर: ।। ४ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ धौम्य मुनिने युधिष्ठिरका प्रश्न
सुनकर दो घड़ीतक ध्यान-सा लगाया और धर्मपूर्वक उस उपायका अन्वेषण करनेके पश्चात्
उनसे इस प्रकार कहा ।। ४ ।।
धौग्य उवाच
पुरा सृष्टानि भूतानि पीड्यन्ते क्षुधया भृशम् ।
ततो<नुकम्पया तेषां सविता स्वपिता यथा ।। ५ ।।
गत्वोत्तरायणं तेजो रसानुद्धृत्य रश्मिभि: ।
दक्षिणायनमावृत्तो महीं निविशते रवि: ।। ६ ।।
धौम्य बोले--राजन्! सृष्टिके प्रारम्भकालमें जब सभी प्राणी भूखसे अत्यन्त व्याकुल
हो रहे थे, तब भगवान् सूर्यने पिताकी भाँति उन सबपर दया करके उत्तरायणमें जाकर
अपनी किरणोंसे पृथ्वीका रस (जल) खींचा और दक्षिणायनमें लौटकर पृथ्वीको उस रससे
आविष्ट किया ।। ५-६ ।।
क्षेत्रभूते ततस्तस्मिन्नोषधीरोषधीपति: ।
दिवस्तेज: समुद्धृत्य जनयामास वारिणा ।। ७ ।।
इस प्रकार जब सारे भूमण्डलमें क्षेत्र तैयार हो गया, तब ओषधियोंके स्वामी चन्द्रमाने
अन्तरिक्षमें मेघोंके रूपमें परिणत हुए सूर्यके तेजको प्रकट करके उसके द्वारा बरसाये हुए
जलसे अन्न आदि ओषधियोंको उत्पन्न किया || ७ ।।
निषिक्तश्नन्द्रतेजोभि: स्वयोनौ निर्गते रवि: ।
ओषध्य: षड़सा मेध्यास्तदन्न॑ प्राणिनां भुवि ।। ८ ।।
चन्द्रमाकी किरणोंसे अभिषिक्त हुआ सूर्य जब अपनी प्रकृतिमें स्थित हो जाता है, तब
छः प्रकारके रसोंसे युक्त पवित्र ओषधियाँ उत्पन्न होती हैं। वही पृथ्वीमें प्राणियोंके लिये अन्न
होता है || ८ ।।
एवं भानुमयं हान्न॑ भूतानां प्राणधारणम् |
पितैष सर्वभूतानां तस्मात् तं शरणं व्रज ।। ९ ।।
इस प्रकार सभी जीवोंके प्राणोंकी रक्षा करनेवाला अन्न सूर्यरूप ही है। अतः भगवान्
सूर्य ही समस्त प्राणियोंके पिता हैं, इसलिये तुम उनन््हींकी शरणमें जाओ ।। ९ ।।
राजानो हि महात्मानो योनिकर्मविशोधिता: ।
उद्धरन्ति प्रजा: सर्वास्तप आस्थाय पुष्कलम् ।। १० ।।
जो जन्म और कर्म दोनों ही दृष्टियोंसे परम उज्ज्वल हैं, ऐसे महात्मा राजा भारी
तपस्याका आश्रय लेकर सम्पूर्ण प्रजाजनोंका संकटसे उद्धार करते हैं || १० ।।
भीमेन कार्तवीर्येण वैन्येन नहुषेण च ।
तपोयोगसमाधिस्थैरुद्धता ह्यापद: प्रजा: ।। ११ ।।
भीम, कार्तवीर्य अर्जुन, वेनपुत्र पृथु तथा नहुष आदि नरेशोंने तपस्या, योग और
समाधिमें स्थित होकर भारी आपत्तियोंसे प्रजाको उबारा है || ११ ।।
तथा त्वमपि धर्मात्मन् कर्मणा च विशोधित: ।
तप आस्थाय धर्मेण द्विजातीन् भर भारत ॥। १२ ।।
धर्मात्मा भारत! इसी प्रकार तुम भी सत्कर्मसे शुद्ध होकर तपस्याका आश्रय ले
धर्मानुसार द्विजातियोंका भरण-पोषण करो ।। १२ ।।
जनमेजय उवाच
कथर्थ॑ कुरूणामृषभ: स तु राजा युधिष्ठिर: ।
विप्रार्थमाराधितवान् सूर्यमद्भुतदर्शनम् ।। १३ ।।
जनमेजयने पूछा--भगवन्! पुरुषश्रेष्ठ राजा युधिष्छिरने ब्राह्मणोंके भरण-पोषणके
लिये, जिनका दर्शन अत्यन्त अद्भुत है, उन भगवान् सूर्यकी आराधना किस प्रकार
की? ।। १३ ।।
वैशम्पायन उवाच
शृणुष्वावहितो राजन् शुचिर्भूत्वा समाहित: ।
क्षणं च कुरु राजेन्द्र सम्प्रवक्ष्याम्यशेषत: ।। १४ ।।
वैशम्पायनजीने कहा--राजेन्द्र! मैं सब बातें बता रहा हूँ। तुम सावधान, पवित्र और
एकाग्रचित्त होकर सुनो और धैर्य रखो ।। १४ ।।
धौम्येन तु यथा पूर्व पार्थाय सुमहात्मने ।
नामाष्टशतमाख्यातं तच्छुणुष्व महामते ।। १५ ।।
महामते! धौम्यने जिस प्रकार महात्मा युधिष्ठिरको पहले भगवान् सूर्यके एक सौ आठ
नाम बताये थे, उनका वर्णन करता हूँ, सुनो || १५ ।।
धौम्य उवाच
सूर्योडर्यमा भगस्त्वष्टा पूषार्क:ः सविता रवि: ।
गभस्तिमानज: कालो मृत्युर्धाता प्रभाकर: ।। १६ ।।
पृथिव्यापश्च तेजश्न खं वायुश्व॒ परायणम् ।
सोमो बृहस्पति: शूक्रो बुधो5ज़ारक एव च ।। १७ ।।
इन्द्रो विवस्वान् दीप्तांशु: शुचि: शौरि: शनैश्वर: ।
ब्रह्मा विष्णुश्न रुद्रश्न स्कन्दो वै वरुणो यम: ।। १८ ।।
वैद्युतो जाठरश्नाग्निरैन्धनस्तेजसां पति: ।
धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदाड़ो वेदवाहन: ।। १९ ।।
कृतं त्रेता द्वापरश्न कलि: सर्वमलाश्रय: ।
कला काष्टठा मुहूर्ताश्च क्षपा यामस्तथा क्षण: ।। २० ।।
संवत्सरकरोडश्वत्थ: कालचक्रो विभावसु: ।
पुरुष: शाश्व॒तो योगी व्यक्ताव्यक्त: सनातन: ।। २१ ।।
कालाध्यक्ष: प्रजाध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुद: ।
वरुण: सागरों5शुश्व जीमूतो जीवनोडरिहा ।। २२ ।।
भूताश्रयो भूतपति: सर्वतलोकनमस्कृत: ।
स्रष्टा संवर्तको वह्नि: सर्वस्यादिरलोलुप: || २३ ।।
अनन्त: कपिलो भानु: कामद: सर्वतोमुख: ।
जयो विशालो वरद: सर्वधातुनिषेचिता ।। २४ ।।
मनःसुपर्णो भूतादि: शीघ्रग: प्राणधारक: ।
धन्वन्तरिर्धूमकेतुरादिदेवो $दिते: सुत: ।। २५ ।।
द्वादशात्मारविन्दाक्ष: पिता माता पितामह: ।
स्वर्गद्धारं प्रजद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम् ।। २६ ।।
देहकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुख: ।
चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेय: करुणान्वित: ।। २७ ।।
एतद् वै कीर्तनीयस्य सूर्यस्यामिततेजस: ।
नामाष्टशतकं चेदं प्रोक्तमेतत् स्वयंभुवा | २८ ।।
धौम्य बोले--१ सूर्य, २ अर्यमा, ३ भग, ४ त्वष्टा, ५ पूषा, ६ अर्क, ७ सविता, ८ रवि, ९
गभस्तिमान, १० अज, ११ काल, १२ मृत्यु, १३ धाता, १४ प्रभाकर, १५ पृथिवी, १६ आप,
१७ तेज, १८ ख (आकाश), १९ वायु, २० परायण, २१ सोम, २२ बृहस्पति, २३ शुक्र, २४
बुध, २५ अंगारक (मंगल) २६ इन्द्र, २७ विवस्वानू, २८ दीप्तांशु, २९ शुचि, ३० शौरि, ३१
शनैश्वर, ३२ ब्रह्मा, ३३ विष्णु, ३४ रुद्र, ३५ स्कन्द, ३६ वरुण, ३७ यम, ३८ वैद्युताग्नि, ३९
जाठराग्नि, ४० ऐन्धनाग्नि, ४१ तेज:पति, ४२ धर्मध्वज, ४३ वेदकर्ता, ४४ वेदांग, ४५
वेदवाहन, ४६ कृत, ४७ त्रेता, ४८ द्वापर, ४९ सर्वमलाश्रय कलि, ५० कला-काष्ठा-मुहूर्तरूप
समय, ५१ क्षपा (रात्रि), ५२ याम, ५३ क्षण, ५४ संवत्सरकर ५५ अध्वत्थ, ५६
कालचक्रप्रवर्तक विभावसु, ५७ शाश्वत पुरुष, ५८ योगी, ५९ व्यक्ताव्यक्त, ६० सनातन, ६१
कालाध्यक्ष, ६२ प्रजाध्यक्ष, ६३ विश्वकर्मा, ६४ तमोनुद, ६५ वरुण, ६६ सागर, ६७ अंशु, ६८
जीमूत, ६९ जीवन, ७० अरिहा, ७१ भूताश्रय, ७२ भूतपति, ७३ सर्वलोक-नमस्कृत, ७४
स्रष्टा, ७५ संवर्तक, ७६ वह्लि, ७७ सर्वादि, ७८ अलोलुप, ७९ अनन्त, ८० कपिल, ८१ भानु,
८२ कामद, ८३ सर्वतोमुख, ८४ जय, ८५ विशाल, ८६ वरद, ८७ सर्वधातुनिषेचिता, ८८
मन:सुपर्ण, ८९-भूतादि, ९० शीघ्रग, ९१ प्राणधारक, ९२ धन्वन्तरि, ९३ धूमकेतु, ९४
आदिदेव, ९५ अदितिसुत, ९६ द्वादशात्मा, ९७ अरविन्दाक्ष, ९८ पिता-माता-पितामह, ९९
स्वर्गद्वार-प्रजाद्वार, १०० मोक्षद्वार-त्रिविष्टप, १०१ देहकर्ता, १०२ प्रशान्तात्मा, १०३
विश्वात्मा, १०४ विश्वतोमुख, १०५ चराचरात्मा, १०६ सूक्ष्मात्मा, १०७ मैत्रेय तथा १०८
करुणान्वित--ये अमिततेजस्वी भगवान् सूर्यके कीर्तन करनेयोग्य एक सौ आठ नाम हैं,
जिनका उपदेश साक्षात् ब्रह्माजीने किया है || १६--२८ ।।
सुरगणपितृयक्षसेवितं
हासुरनिशाचरसिद्धवन्दितम् ।
वरकनकहुताशनप्रभं
प्रणिपतितो5स्मि हिताय भास्करम् ।। २९ |।
(इन नामोंका उच्चारण करके भगवान् सूर्यको इस प्रकार नमस्कार करना चाहिये।)
समस्त देवता, पितर और यक्ष जिनकी सेवा करते हैं, असुर, राक्षस तथा सिद्ध जिनकी
वन्दना करते हैं तथा जो उत्तम सुवर्ण और अग्निके समान कान्तिमान् हैं, उन भगवान्
भास्करको मैं अपने हितके लिये प्रणाम करता हूँ ।। २९ ।।
सूर्योदये यः सुसमाहित: पठेत्
स पुत्रदारान् धनरत्नसंचयान् ।
लभेत जातिस्मरतां नर: सदा
धृतिं च मेधां च स विन्दते पुमान् ।। ३० ।।
जो मनुष्य सूर्योदयके समय भलीभाँति एकाग्रचित्त हो इन नामोंका पाठ करता है वह
स्त्री, पुत्र, धन, रत्नराशि, पूर्वजन्मकी स्मृति, धैर्य तथा उत्तम बुद्धि प्राप्त कर लेता
है || ३० ।।
इमं स्तवं देववरस्य यो नर:
प्रकीर्तयेच्छुचिसुमना: समाहित: ।
विमुच्यते शोकदवाग्निसागरा-
ल्लभेत कामान् मनसा यथेप्सितान् ।। ३१ ।।
जो मानव स्नान आदि करके पवित्र, शुद्धचित्त एवं एकाग्र हो देवेश्वर 'भगवान्' सूर्यके
इस नामात्मक स्तोत्रका कीर्तन करता है वह शोकरूपी दावानलसे युक्त दुस्तर
संसारसागरसे मुक्त हो मनचाही वस्तुओंको प्राप्त कर लेता है ।। ३१ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमुक्तस्तु धौम्येन तत्कालसदृशं वच: ।
विप्रत्यागसमाधिस्थ: संयतात्मा दृढव्रत: ।। ३२ |।
धर्मराजो विशुद्धात्मा तप आतिष्ठदुत्तमम् |
पुष्पोपहारैर्बलिभिरर्चयित्वा दिवाकरम् ।। ३३ ।।
सो<वगाहा जलं राजा देवस्याभिमुखो5 भवत् ।
योगमास्थाय धर्मात्मा वायुभक्षो जितेन्द्रिय: ।। ३४ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! पुरोहित धौम्यके इस प्रकार समयोचित बात
कहनेपर ब्राह्मणोंको देनेके लिये अन्नकी प्राप्तिके उद्देश्यसे नियममें स्थित हो मनको वशमें
रखकर दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करते हुए शुद्धचेता धर्मराज युधिष्ठिरने उत्तम तपस्याका
अनुष्ठान आरम्भ किया। राजा युधिष्ठिरने गंगाजीके जलमें स्नान करके पुष्प और नैवेद्य
आदि उपहारोंद्वारा भगवान् दिवाकरकी पूजा की और उनके सम्मुख मुँह करके खड़े हो
गये। धर्मात्मा पाण्डुकुमार चित्तको एकाग्र करके इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए केवल वायु
पीकर रहने लगे || ३२--३४ ।।
गाड़ेयं वार्युपस्पृश्य प्राणायामेन तस्थिवान् ।
शुचि: प्रयतवाग भूत्वा स्तोत्रमारब्धवांस्तत: ।। ३५ ।।
गंगाजलका आचमन करके पवित्र हो वाणीको वशमें रखकर तथा प्राणायामपूर्वक
स्थित रहकर उन्होंने पूर्वोक्त अष्टोत्तरशतनामात्मक स्तोत्रका जप किया ।। ३५ ।।
युधिछिर उवाच
त्वं भानो जगतत्नक्षुस्त्वमात्मा सर्वदेहिनाम् ।
त्वं योनि: सर्वभूतानां त्वमाचार: क्रियावताम् ।। ३६ ।।
युधिष्ठिर बोले--सूर्यदेव! आप सम्पूर्ण जगतके नेत्र तथा समस्त प्राणियोंके आत्मा हैं।
आप ही सब जीवोंके उत्पत्तिस्थान और कर्मानुष्ठानमें लगे हुए पुरुषोंके सदाचार
हैं ।। ३६ ||
त्वं गति: सर्वसांख्यानां योगिनां त्वं परायणम् ।
अनावृतार्गलद्वारं त्वं गतिस्त्वं मुमुक्षताम् ।। ३७ ।।
सम्पूर्ण सांख्ययोगियोंके प्राप्तव्य स्थान आप ही हैं। आप ही सब कर्मयोगियोंके आश्रय
हैं। आप ही मोक्षके उन्मुक्त द्वार हैं और आप ही मुमुक्षुओंकी गति हैं ।। ३७ ।।
त्वया संधार्यते लोकस्त्वया लोक: प्रकाश्यते ।
त्वया पवित्रीक्रियते निर्व्याजं पाल्यते त्वया ।। ३८ ।।
आप ही सम्पूर्ण जगत्को धारण करते हैं। आपसे ही यह प्रकाशित होता है। आप ही
इसे पवित्र करते हैं और आपके ही द्वारा निःस्वार्थभावसे इसका पालन किया जाता
है ।। ३८ ।।
त्वामुपस्थाय काले तु ब्राह्मणा वेदपारगा: ।
स्वशाखाविहितैर्मन्त्रैरर्चन्त्यषिगणार्चितम् ।। ३९ ।।
सूर्ययेव!! आप ऋषिगणोंद्वारा पूजित हैं। वेदके तत्त्वज्ञ ब्राह्मणलोग अपनी-अपनी
वेदशाखाओंमें वर्णित मन्त्रोंद्रारा उचित समयपर उपस्थान करके आपका पूजन किया
करते हैं ।। ३९ ।।
तव दिव्यं रथं यान्तमनुयान्ति वरार्थिन: ।
सिद्धचारणगन्धर्वा यक्षगुह्मुकपन्नगा: || ४० ।।
सिद्ध, चारण, गन्धर्व, यक्ष, गुह्क और नाग आपसे वर पानेकी अभिलाषासे आपके
गतिशील दिव्य रथके पीछे-पीछे चलते हैं || ४० ।।
त्रयस्त्रिंशच्च वै देवास्तथा वैमानिका गणा: ।
सोपेन्द्रा: समहेन्द्राश्न॒ त्वामिष्टवा सिद्धिमागता: ।। ४१ ।।
तैंतीसः देवता एवं विमानचारी सिद्धगण भी उपेन्द्र तथा महेन्द्रसाहित आपकी
आराधना करके सिद्धिको प्राप्त हुए हैं ।। ४१ ।।
उपयान्त्यर्चयित्वा तु त्वां वै प्राप्तमनोरथा: ।
दिव्यमन्दारमालाभि स्तूर्ण विद्याधरोत्तमा: || ४२ ।।
गुहाया: पितृगणा: सप्त ये दिव्या ये च मानुषा: ।
ते पूजयित्वा त्वामेव गच्छन्त्याशु प्रधानताम् ।। ४३ ।।
वसवो मरुतो रुद्रा ये च साध्या मरीचिपा: ।
वालखिल्यादय: सिद्धा: श्रेष्ठत्वं प्राणिनां गता: ।। ४४ ।॥
श्रेष्ठ विद्याधरगण दिव्य मन्दार-कुसुमोंकी मालाओंसे आपकी पूजा करके
सफलमनोरथ हो तुरंत आपके समीप पहुँच जाते हैं। गुह्यक, सातः प्रकारके पितृगण तथा
दिव्य मानव (सनकादि) आपकी ही पूजा करके श्रेष्ठ पदको प्राप्त करते हैं। वसुगण,
मरुदगण, रुद्र, साध्य तथा आपकी किरणोंका पान करनेवाले वालखिल्य आदि सिद्ध महर्षि
आपकी ही आराधनासे सब प्राणियोंमें श्रेष्ठ हुए हैं।। ४२-४४ ।।
सब्रद्यकेषु लोकेषु सप्तस्वप्यखिलेषु च ।
न तद्धूतमहं मनन््ये यदर्कादतिरिच्यते ।। ४५ ।।
सन्ति चान्यानि सत्त्वानि वीर्यवन्ति महान्ति च ।
न तु तेषां तथा दीप्ति: प्रभावो वा यथा तव ।। ४६ ।।
ज्योतींषि त्वयि सर्वाणि त्वं सर्वज्योतिषां पति: ।
त्वयि सत्यं च सत्त्वं च सर्वे भावाश्व॒ साच्चिका: ।। ४७ ।।
त्वत्तेजसा कृतं॑ चक्र सुनाभं विश्वकर्मणा ।
देवारीणां मदो येन नाशित: शार्ज्र्धन्चना ।। ४८ ।।
ब्रद्मतोकसहित ऊपरके सातों लोकोंमें तथा अन्य सब लोकोंमें भी ऐसा कोई प्राणी
नहीं दीखता जो आप भगवान् सूर्यसे बढ़कर हो। भगवन्! जगतमें और भी बहुत-से महान्
शक्तिशाली प्राणी हैं; परंतु उनकी कान्ति और प्रभाव आपके समान नहीं हैं। सम्पूर्ण
ज्योतिर्मय पदार्थ आपके ही अन्तर्गत हैं। आप ही समस्त ज्योतियोंके स्वामी हैं। सत्य, सत्त्व
तथा समस्त सात्त्विक भाव आपमें ही प्रतिष्ठित हैं। 'शार्इ” नामक धनुष धारण करनेवाले
भगवान् विष्णुने जिसके द्वारा दैत्योंका घमंड चूर्ण किया है उस सुदर्शन चक्रको विश्वकर्माने
आपके ही तेजसे बनाया है || ४५--४८ ।।
त्वमादायांशुभिस्तेजो निदाघे सर्वदेहिनाम् ।
सर्वोौषधिरसानां च पुनर्वर्षासु मुडचसि ।। ४९ ।।
आप ग्रीष्म-ऋतुमें अपनी किरणोंसे समस्त देहधारियोंके तेज और सम्पूर्ण ओषधियोंके
रसका सार खींचकर पुन: वर्षाकालमें उसे बरसा देते हैं || ४९ ।।
तपन्त्यन्ये दहन्त्यन्ये गर्जन्त्यन्ये तथा घना: ।
विद्योतन्ते प्रवर्षन्ति तव प्रावृषि रश्मय: ।। ५० ।।
वर्षा-ऋतुमें आपकी कुछ किरणें तपती हैं, कुछ जलाती हैं, कुछ मेघ बनकर गरजती,
बिजली बनकर चमकती तथा वर्षा भी करती हैं || ५० ।।
न तथा सुखयत्यग्निर्न प्रावारा न कम्बला: |
शीतवातार्दितं लोक॑ यथा तव मरीचय: ।। ५१ ।।
शीतकालकी वायुसे पीड़ित जगत्को अग्नि, कम्बल और वस्त्र भी उतना सुख नहीं देते
जितना आपकी किरणें देती हैं || ५१ ।।
त्रयोदशद्वीपवर्ती गोभिर्भासयसे महीम् ।
त्रयाणामपि लोकानां हितायैक: प्रवर्तसे || ५२ ।।
आप अपनी किरणोंद्वारा तेरहः द्वीपोंसे युक्त सम्पूर्ण पृथ्वीको प्रकाशित करते हैं; और
अकेले ही तीनों लोकोंके हितके लिये तत्पर रहते हैं ।। ५२ ।।
तव यद्युदयो न स्यादन्ध॑ जगदिदं भवेत् |
न च धर्मार्थकामेषु प्रवर्तेरनू मनीषिण: ।। ५३ ।।
यदि आपका उदय न हो तो यह सारा जगत् अंधा हो जाय और मनीषी पुरुष धर्म, अर्थ
एवं कामसम्बन्धी क्मोंमें प्रवृत्त ही न हों ।। ५३ ।।
आधानपशुबन्न्धेष्टिमन्त्रयज्ञतपःक्रिया: ।
त्वत्प्रसादादवाप्यन्ते ब्रह्म॒क्षत्रविशां गणै: ।। ५४ ।।
गर्भाधान या अग्निकी स्थापना, पशुओंको बाँधना, इष्टि (पूजा), मन्त्र, यज्ञानुष्ठान और
तप आदि समस्त क्रियाएँ आपकी ही कृपासे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यगणों द्वारा सम्पन्न
की जाती हैं ।। ५४ ।।
यदहर्ब्रह्मण: प्रोक्ते सहस्रयुगसम्मितम् ।
तस्य त्वमादिरन्तश्ष॒ कालज्ञै: परिकीर्तित: ।। ५५ ।।
ब्रद्माजीका जो एक सहस्र युगोंका दिन बताया गया है, कालमानके जाननेवाले
विद्वानोंने उसका आदि और अन्त आपको ही बताया है ।। ५५ ।।
मनूनां मनुपुत्राणां जगतो5मानवस्य च ।
मन्वन्तराणां सर्वेषामी श्वराणां त्वमी श्वर: ।। ५६ ।।
मनु और मनुपुत्रोंके, जगतके, (ब्रह्मलोककी प्राप्ति करानेवाले) अमानव पुरुषके,
समस्त मन्वन्तरोंके तथा ईश्वरोंके भी ईश्वर आप ही हैं ।। ५६ ।।
संहारकाले सम्प्राप्ते तव क्रोधविनि:सृत: ।
संवर्तकाग्निस्त्रैलोक्यं भस्मीकृत्यावतिष्ठते | ५७ ।।
प्रलयकाल आनेपर आपके ही क्रोधसे प्रकट हुई संवर्तक नामक अग्नि तीनों लोकोंको
भस्म करके फिर आपमें ही स्थित हो जाती है || ५७ ।।
त्वद्वीधितिसमुत्पन्ना नानावर्णा महाघना: ।
सैरावता: साशनय: कुर्वन्त्याभूतसम्प्लवम् ।। ५८ ।।
आपकी ही किरणोंसे उत्पन्न हुए रंग-बिरंगे ऐरावत आदि महामेघ और बिजलियाँ
सम्पूर्ण भूतोंका संहार करती हैं ।। ५८ ।।
कृत्वा द्वादशधा55त्मानं द्वादशादित्यतां गत: ।
संहृत्यैकार्णवं सर्व त्वं शोषयसि रश्मिभि: ।। ५९ ||
फिर आप ही अपनेको बारह स्वरूपोंमें विभक्त करके बारह सूर्योके रूपमें उदित हो
अपनी किरणोंद्वारा त्रिलोकीका संहार करते हुए एकार्णवके समस्त जलको सोख लेते
हैं ।। ५९ |।
त्वामिन्द्रमाहुस्त्वं रुद्रस्त्वं विष्णुस्त्वं प्रजापति: ।
त्वमग्निस्त्वं मन: सूक्ष्मं प्रभुस्त्वं ब्रह्म शाश्वतम् ।। ६० ।।
आपको ही इन्द्र कहते हैं। आप ही रुद्र, आप ही विष्णु और आप ही प्रजापति हैं।
अग्नि, सूक्ष्म मन, प्रभु तथा सनातन ब्रह्म भी आप ही हैं ।। ६० ।।
त्वं हंस: सविता भानुरंशुमाली वृषाकपि: ।
विवस्वान् मिहिर: पूषा मित्रो धर्मस्तथैव च ।। ६१ ।।
सहस्नरश्मिरादित्यस्तपनस्त्वं गवाम्पति: ।
मार्तण्डो<र्को रवि: सूर्य: शरण्यो दिनकृत् तथा ॥। ६२ ।।
दिवाकर: सप्तसप्तिर्धामकेशी विरोचन: ।
आशुगामी तमोष्नश्न हरिताश्वश्न कीर्त्यसे || ६३ ।।
आप ही हंस (शुद्धस्वरूप), सविता (जगतकी उत्पत्ति करनेवाले), भानु (प्रकाशमान),
अंशुमाली (केरणसमूहसे सुशोभित), वृषाकपि (धर्मरक्षक), विवस्वान् [सर्वव्यापी), मिहिर
(जलकी वृष्टि करनेवाले), पूषा (पोषक), मित्र (सबके सुहृद), धर्म (धारण करनेवाले),
सहस्ररश्मि (हजारों किरणोंवाले), आदित्य (अदितिपुत्र), तपन (तापकारी), गवाम्पति
(किरणोंके स्वामी), मार्तण्ड, अर्क (अर्चनीय), रवि, सूर्य (उत्पादक), शरण्य (शरणागतकी
रक्षा करनेवाले), दिनकृत् (दिनके कर्ता), दिवाकर (दिनको प्रकट करनेवाले), सप्तसप्ति
(सात घोड़ोंवाले), धामकेशी (ज्योतिर्मय किरणोंवाले), विरोचन (देदीप्यमान), आशुगामी
(शीघ्रगामी), तमोघ्न (अन्धकारनाशक) तथा हरिताश्व (हरे रंगके घोड़ोंवाले) कहे जाते
हैं | ६१--६३ ।।
सप्तम्यामथवा षष्ठ्यां भक््त्या पूजां करोति यः ।
अनिर्विण्णो5नहंकारी त॑ लक्ष्मीर्भजते नरम् । ६४ ।।
जो सप्तमी अथवा षष्ठीको खेद और अहंकारसे रहित हो भक्तिभावसे आपकी पूजा
करता है, उस मनुष्यको लक्ष्मी प्राप्त होती है ।। ६४ ।।
न तेषामापद: सन्ति नाधयो व्याधयस्तथा ।
ये तवानन्यमनस: कुर्वन्त्यर्चनवन्दनम् ।। ६५ ।।
भगवन्! जो अनन्य चित्तसे आपकी अर्चना और वन्दना करते हैं, उनपर कभी आपत्ति
नहीं आती। वे मानसिक चिन्ताओं तथा रोगोंसे भी ग्रस्त नहीं होते || ६५ ।।
सर्वरोगैर्विरहिता: सर्वपापविवर्जिता: ।
त्वद्धावभक्ता: सुखिनो भवन्ति चिरजीविन: ।। ६६ ।।
जो प्रेमपूर्वक आपके प्रति भक्ति रखते हैं वे समस्त रोगों तथा सम्पूर्ण पापोंसे रहित हो
चिरंजीवी एवं सुखी होते हैं || ६६ ।।
त्वं ममापन्नकामस्य सर्वातिथ्यं चिकीर्षत: ।
अन्नमन्नपते दातुमभित: श्रद्धयाहसि || ६७ ।।
अन्नपते! मैं श्रद्धापूर्वक सबका आतिथ्य करनेकी इच्छासे अन्न प्राप्त करना चाहता हूँ।
आप मुझे अन्न देनेकी कृपा करें || ६७ ।।
ये च ते$नुचरा: सर्वे पादोपान्तं समाश्रिता: ।
माठरारुणदण्डद्यास्तांस्तान् वन्देडशनिक्षुभान् ।। ६८ ।।
आपके चरणोंके निकट रहनेवाले जो माठर, अरुण तथा दण्ड आदि अनुचर (गण) हैं,
वे विद्युतके प्रवर्तक हैं। मैं उन सबकी वन्दना करता हूँ ।। ६८ ।।
क्षुभया सहिता मैत्री याश्वान्या भूतमातर: ।
ताश्न सर्वा नमस्यामि पान्तु मां शरणागतम् ।। ६९ ।।
क्षुभाके साथ जो मैत्रीदेवी तथा गौरी, पद्मा आदि अन्य भूतमाताएँ हैं, उन सबको मैं
नमस्कार करता हूँ। वे सभी मुझ शरणागतकी रक्षा करें ।। ६९ ।।
वैशमग्पायन उवाच
एवं स्तुतो महाराज भास्करो लोकभावन: ।
ततो दिवाकर: प्रीतो दर्शयामास पाण्डवम् |
दीप्यमान: स्ववपुषा ज्वलन्निव हुताशन: || ७० ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--महाराज! जब युधिष्ठिरने लोकभावन भगवान् भास्करका
इस प्रकार स्तवन किया, तब दिवाकरने प्रसन्न होकर उन पाण्डुकुमारको दर्शन दिया। उस
समय उनके श्रीअंग प्रज्वलित अग्निके समान उद्भासित हो रहे थे || ७० ।।
विवस्वानुवाच
यत् तेडभिलषितं किंचित् तत् त्वं सर्वमवाप्स्यसि |
अहमन्न प्रदास्यामि सप्त पठच च ते समा: ।। ७१ ||
भगवान् सूर्य बोले--धर्मराज! तुम जो कुछ चाहते हो, वह सब तुम्हें प्राप्त होगा। मैं
बारह वर्षोतक तुम्हें अन्न प्रदान करूँगा || ७१ ।।
4
स्ि
नि
पर
झ
जय
प्
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पाण्डवोंका वनगमन
उर्वशीका अर्जुनको शाप देना
नलका अपने पूर्वरूपमें प्रकट होकर दमयन्तीसे मिलना
भीताप्रेसे गो
जमदग्निका परशुरामसे कार्तवीर्य-अर्जुनका अपराध बताना
महाप्रलयके समय भगवान् मत्स्यके सींगमें बँधी हुई मनु और सप्तर्षियोंसहित नौका
मार्कण्डेय मुनिको अक्षयवटकी शाखापर बालमुकुन्दका दर्शन
#% कि।। ६ ।:६3
कौरवोंद्वारा विराटकी गायोंका हरण
गृह्नीष्व पिठरं ताम्र॑ं मया दत्त नराधिप ।
यावद् वर्त्स्यति पाञ्चाली पात्रेणानेन सुव्रत ।। ७२ ।।
फलमूलामिषं शाकं संस्कृतं यन्महानसे ।
चतुर्विधं तदन्नाद्यमक्षय्यं ते भविष्यति ।। ७३ ।।
राजन! यह मेरी दी हुई ताँबेकी बटलोई लो। सुव्रत! तुम्हारे रसोईघरमें इस पात्रद्वारा
फल, मूल, भोजन करनेके योग्य अन्य पदार्थ तथा साग आदि जो चार प्रकारकी भोजन-
सामग्री तैयार होगी, वह तबतक अक्षय बनी रहेगी, जबतक द्रौपदी स्वयं भोजन न करके
परोसती रहेगी || ७२-७३ ।।
इतश्नतुर्दशे वर्षे भूयो राज्यमवाप्स्यसि |
आजसे चौदहवें वर्षमें तुम अपना राज्य पुन: प्राप्त कर लोगे || ७३ ३ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमुकक््त्वा तु भगवांस्तत्रैवान्न्तरधीयत ।। ७४ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्! इतना कहकर भगवान् सूर्य वहीं अन्तर्धान हो
गये ।। ७४ ।।
इमं स्तवं प्रयतमना: समाधिना
पठेदिहान्यो5पि वरं समर्थयन् |
तत् तस्य दद्याच्च रविर्मनीषितं
तदाप्रुयाद् यद्यपि तत् सुदुर्लभम् ।। ७५ ।।
जो कोई अन्य पुरुष भी मनको संयममें रखकर चित्तवृत्तियोंको एकाग्र करके इस
स्तोत्रका पाठ करेगा, वह यदि कोई अत्यन्त दुर्लभ वर भी माँगे तो भगवान् सूर्य उसकी उस
मनोवांछित वस्तुको दे सकते हैं || ७५ ।।
यश्चेदं धारयेन्नित्यं शृणुयाद् वाप्यभीक्षणश: ।
पुत्रार्थी लभते पुत्र धनार्थी लभते धनम् ।
विद्यार्थी लभते विद्यां पुरुषो5प्यथवा स्त्रिय: | ७६ ।।
जो प्रतिदिन इस स्तोत्रको धारण करता अथवा बार-बार सुनता है, वह यदि पुत्रार्थी हो
तो पुत्र पाता है, धन चाहता हो तो धन पाता है, विद्याकी अभिलाषा रखता हो तो उसे विद्या
प्राप्त होती है और पत्नीकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको पत्नी सुलभ होती है || ७६ ।।
उभे संध्ये पठेन्नित्यं नारी वा पुरुषो यदि ।
आप प्राप्य मुच्येत बद्धों मुच्येत बन्धनात् ।। ७७ ।।
स्त्री हो या पुरुष यदि दोनों संध्याओंके समय इस स्तोत्रका पाठ करता है तो आपत्तिमें
पड़कर भी उससे मुक्त हो जाता है। बन्धनमें पड़ा हुआ मनुष्य बन्धनसे मुक्त हो जाता
है | ७७ |।
एतद् ब्रह्मा ददौ पूर्व शक्राय सुमहात्मने ।
शक्राच्च नारद: प्राप्तो धौम्यस्तु तदनन्तरम् |
धौम्याद् युधिष्ठिर: प्राप्प सर्वान् कामानवाप्तवान् ।। ७८ ।।
यह स्तुति सबसे पहले ब्रह्माजीने महात्मा इन्द्रको दी, इन्द्रसे नारदजीने और नारदजीसे
धौम्यने इसे प्राप्त किया। धौम्यसे इसका उपदेश पाकर राजा युधिष्ठिरने अपनी सब
कामनाएँ प्राप्त कर लीं || ७८ ।।
संग्रामे च जयेन्नित्यं विपुलं चाप्रुयाद् वसु ।
मुच्यते सर्वपापेभ्य: सूर्यलोक॑ स गच्छति ।। ७९ ।।
जो इसका अनुष्ठान करता है वह सदा संग्राममें विजयी होता है, बहुत धन पाता है, सब
पापोंसे मुक्त होता और अन्तमें सूर्यलोकको जाता है ।। ७९ ।।
वैशम्पायन उवाच
लब्ध्वा वरं तु कौन्तेयो जलादुत्तीर्य धर्मवित् ।
जग्राह पादौ धौम्यस्य भ्रातृश्च॒ परिषस्वजे ।। ८० ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! पूर्वोक्त वर पाकर धर्मके ज्ञाता कुन्तीनन्दन
युधिष्ठिर गंगाजीके जलसे बाहर निकले। उन्होंने धौम्यजीके दोनों चरण पकड़े और
भाइयोंको हृदयसे लगा लिया || ८० ।।
द्रौपद्या सह संगम्य वन्द्यमानस्तया प्रभु: ।
महानसे तदानीं तु साधयामास पाण्डव: ।। ८१ ।।
द्रौपदीने उन्हें प्रणाम किया और वे उससे प्रेमपूर्वक मिले। फिर उसी समय पाण्डुनन्दन
युधिष्ठिरने चूल्हेपर बटलोई रखकर रसोई तैयार करायी ।। ८१ ।।
संस्कृतं प्रसवं याति स्वल्पमन्नं चतुर्विधम् |
अक्षय्यं वर्धते चान्नं तेन भोजयते द्विजान् ।। ८२ ।।
उसमें तैयार की हुई चार प्रकारकी थोड़ी-सी भी रसोई उस पात्रके प्रभावसे बढ़ जाती
और अक्षय हो जाती थी। उसीसे वे ब्राह्मणोंको भोजन कराने लगे ।। ८२ ।।
भुक्तवत्सु च विप्रेषु भोजयित्वानुजानपि ।
शेषं विघससंतज्ञं तु पश्चाद् भुड्धक्ते युधिष्ठिर: ।। ८३ ।।
ब्राह्मणोंक भोजन कर लेनेपर अपने छोटे भाइयोंको भी भोजन करानेके पश्चात्
“विघस' संज्ञक अवशिष्ट अन्नको युधिष्ठिर सबसे पीछे खाते थे ।। ८३ ।।
युधिष्ठिरं भोजयित्वा शेषमश्नाति पार्षती ।
द्रौपद्यां भुज्यमानायां तदन्न॑ क्षयमेति च ।
एवं दिवाकरात् प्राप्प दिवाकरसमप्रभ: ।। ८४ ।।
कामान् मनो5भिलषितान् बाह्नाणेभ्योडददात् प्रभु: |
पुरोहितपुरोगाश्च तिथिनक्षत्रपर्वसु ।
यज्ञियार्था: प्रवर्तन्ते विधिमन्त्रप्रमाणत: || ८५ ।।
युधिष्ठिको भोजन कराकर द्रौपदी शेष अन्न स्वयं खाती थी। द्रौपदीके भोजन कर
लेनेपर उस पात्रका अन्न समाप्त हो जाता था। इस प्रकार सूर्यसे मनोवांछित वरोंको पाकर
उन्हींके समान तेजस्वी प्रभावशाली राजा युधिष्ठिर ब्राह्मणोंको नियमपूर्वक अन्नदान करने
लगे। पुरोहितोंको आगे करके उत्तम तिथि, नक्षत्र एवं पर्वोपर विधि और मन्त्रके प्रमाणके
अनुसार उनके यज्ञसम्बन्धी कार्य होने लगे || ८४-८५ ।।
ततः कृतस्वस्त्ययना धौम्येन सह पाण्डवा: ।
द्विजसड्घै: परिवृता: प्रययु: काम्यकं वनम् ।। ८६ ।।
तदनन्तर स्वस्तिवाचन कराकर ब्राह्मणसमुदायसे घिरे हुए पाण्डव धौम्यजीके साथ
काम्यकवनको चले गये ।। ८६ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि काम्यकवनप्रवेशे तृतीयो5ध्याय: ।। ३ ।॥।
इस प्रकार श्रीमह़्ा भारत वनपवकि अन्तर्गत अरण्यपर्वमें काम्यकवनप्रवेशविषयक तीसरा
अध्याय पूरा हुआ ॥। ३ ॥।
ऑडज आरर | आओ अप
$. बारह आदित्य, ग्यारह रुद्र, आठ वसु, इन्द्र और प्रजापति--ये तैंतीस देवता हैं।
२. सभापर्वके ११ वें अध्याय श्लोक ४६, ४७ में सात पितरोंके नाम इस प्रकार बताये हैं--वैराज, अग्निष्वात्त, सोमपा,
गार्हपत्य, एकश्ंग, चतुर्वेद और कला।
- जम्बू, प्लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्रौंच, शाक और पुष्कर--ये सात प्रधान द्वीप माने गये हैं। इनके सिवा, कई उपद्दीप
हैं। उनको लेकर यहाँ १३ द्वीप बताये गये हैं।
चतुथों5 ध्याय:
विदुरजीका धृतराष्ट्रको हितकी सलाह देना और धृतराष्ट्रका
रुष्ट होकर महलमें चला जाना
वैशम्पायन उवाच
वन॑ प्रविष्टेष्वथ पाण्डवेषु
प्रज्ञाचक्षुस्तप्यमानो 5म्बिकेय: ।
धर्मात्मानं विदुरमगाधबुद्धि
सुखासीनो वाक्यमुवाच राजा ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! जब पाण्डव वनमें चले गये, तब प्रज्ञाचक्षु
अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र मन-ही-मन संतप्त हो उठे। उन्होंने अगाधबुद्धि धर्मात्मा
विदुरको बुलाकर स्वयं सुखद आसनपर बैठे हुए उनसे इस प्रकार कहा ।। १ ।।
धृतराष्ट्र रवाच
प्रज्ञा च ते भार्गवस्येव शुद्धा
धर्म च त्वं परमं वेत्थ सूक्ष्मम् ।
समक्ष त्वं सम्मत: कौरवाणां
पथ्यं चैषां मम चैव ब्रवीहि ।। २ ।।
धृतराष्ट्र बोले--विदुर! तुम्हारी बुद्धि शुक्राचार्यके समान शुद्ध है। तुम सूक्ष्म-से-सूक्ष्म
श्रेष्ठ धर्मको जानते हो। तुम्हारी सबके प्रति समान दृष्टि है और कौरव तथा पाण्डव सभी
तुम्हारा सम्मान करते हैं। अतः मेरे तथा इन पाण्डवोंके लिये जो हितकर कार्य हो, वह मुझे
बताओ ।। २ ।।
एवंगते विदुर यदद्य कार्य
पौराश्न मे कथमस्मान् भजेरन् ।
ते चाप्यस्मान् नोद्धरेयु: समूलां-
स्तत्त्वं ब्रूया: साधुकार्याणि वेत्सि ।। ३ ।।
विदुर! ऐसी दशामें अब हमारा जो कर्तव्य हो वह बताओ। ये पुरवासी कैसे हमलोगोंसे
प्रेम करेंगे। तुम ऐसा कोई उपाय बताओ जिससे वे पाण्डव हमलोगोंको जड़-मूलसहित
उखाड़ न फेंके। तुम अच्छे कार्योको जानते हो। अतः हमें ठीक-ठीक कर्तव्यका निर्देश
करो ।। ३ ।।
विदुर उवाच
त्रिवर्गो5यं धर्ममूलो नरेन्द्र
राज्यं चेदं धर्ममूलं वदन्ति ।
धर्मे राजन् वर्तमान: स्वशकक््त्या
पुत्रान् सर्वान् पाहि पाण्डो:सुतांश्ष ।। ४ ।।
विदुरजीने कहा--नरेन्द्र! धर्म, अर्थ और काम इन तीनोंकी प्राप्तिका मूल कारण धर्म
ही है। धर्मात्मा पुरुष इस राज्यकी जड़ भी धर्मको ही बतलाते हैं, अतः महाराज! आप
धर्मके मार्गपर स्थिर रहकर यथाशक्ति अपने तथा पाण्डुके सब पुत्रोंका पालन
कीजिये ।। ४ ।।
स वै धर्मो विप्रलब्ध: सभायां
पापात्मभि: सौबलेयप्रधानै: ।
आहूय कुन्तीसुतमक्षवत्यां
पराजैषीत् सत्यसंधं सुतस्ते ।। ५ ।।
शकुनि आदि पापात्माओंने द्यूतसभामें उस धर्मके साथ विश्वासघात किया; क्योंकि
आपके पुत्रने सत्य-प्रतिज्ञ कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरको बुलाकर उन्हें कपटपूर्वक पराजित किया
है।। ५ ।।
एतस्स्य ते दुष्प्रणीतस्य राजन्
शेषस्याहं परिपश्याम्युपायम् ।
यथा पुत्रस्तव कौरव्य पापा-
न्मुक्तो लोके प्रतितिछेत साधु ।। ६ ।।
कुरुराज! दुरात्माओंद्वारा पाण्डवोंके प्रति किये हुए इस दुर्व्यवहारकी शान्तिका उपाय
मैं जानता हूँ, जिससे आपका पुत्र दुर्योधन पापसे मुक्त हो लोकमें भलीभाँति प्रतिष्ठा प्राप्त
करे ।। ६ ।।
तद् वै सर्व पाण्डुपुत्रा लभन्तां
यत् तद् राजन्नभिसूष्टं त्वया55सीत् ।
एष धर्म: परमो यत् स्वकेन
राजा तुष्येन्न परस्वेषु गृध्येत् ॥ ७ ।।
आपने पाण्डवोंको जो राज्य दिया था, वह सब उन्हें मिल जाना चाहिये। राजाके लिये
यह सबसे बड़ा धर्म है कि वह अपने धनसे संतुष्ट रहे। दूसरेके धनपर लोभभरी दृष्टि न
डाले || ७ |।
यशो न नश्येज्ज्ञातिभेदश्न न स्याद्
धर्मो न स्यान्नैव चैवं कृते त्वाम् ।
एतत् कार्य तव सर्वप्रधानं
तेषां तुष्टि: शकुनेश्चावमान: ॥। ८ ॥।
ऐसा कर लेनेपर आपके यशका नाश नहीं होगा, भाइयोंमें फ़ूट नहीं होगी और आपको
धर्मकी भी प्राप्ति होगी। आपके लिये सबसे प्रमुख कार्य यह है कि पाण्डवोंको संतुष्ट करें
और शकुनिका तिरस्कार करें || ८ ।।
एवं शेषं यदि पुत्रेषु ते स्या-
देतद् राजंस्त्वरमाण: कुरुष्व |
तथैतदेवं न करोषि राजन्
ध्रुवं कुरूणां भविता विनाश: ॥। ९ ।।
राजन! ऐसा करनेपर भी यदि आपके पुत्रोंका भाग्य शेष होगा तो उनका राज्य उनके
पास रह जायगा; अतः आप शीघ्र ही यह काम कर डालिये। महाराज! यदि आप ऐसा न
करेंगे तो कौरवकुलका निश्चय ही नाश हो जायगा ।। ९ ।।
न हि क्रुद्धों भीमसेनो<र्जुनो वा
शेषं कुर्याच्छात्रवाणामनीके ।
येषां योद्धा सव्यसाची कृतास्त्रो
भधनुर्येषां गाण्डिवं लोकसारम् ।। १० ।।
येषां भीमो बाहुशाली च योद्धा
तेषां लोके कि नु न प्राप्यमस्ति ।
उक्त पूर्व जातमात्रे सुते ते
मया यत् ते हितमासीत् तदानीम् ।। ११ ।।
क्रोधमें भरे हुए भीमसेन अथवा अर्जुन अपने शत्रुओंकी सेनामें किसीको जीवित नहीं
छोड़ेंगे। अस्त्रविद्यामें निपुण सव्यसाची अर्जुन जिनके योद्धा हैं, सम्पूर्ण लोकोंका सारभूत
गाण्डीव जिनका धनुष है तथा अपने बाहुबलसे सुशोभित होनेवाले भीमसेन जिनकी ओरसे
युद्ध करनेवाले हैं, उन पाण्डवोंके लिये संसारमें ऐसी कौन-सी वस्तु है जो प्राप्त न हो सके।
आपके पुत्र दुर्योधनके जन्म लेते ही मुझे उस समय जो हितकी बात जान पड़ी, वह मैंने
पहले ही बता दी थी ।। १०-११ ।।
पुत्र त्यजेममहितं कुलस्य
हितं परं॑ न च तत् त्वं चकर्थ ।
इदं च राजन् हितमुक्तं न चेत् त्व-
मेवं कर्ता परितप्तासि पश्चात् ।। १२ ।।
मैंने साफ कह दिया था कि आपका यह पुत्र समस्त कुलका अहित करनेवाला है, अतः
इसको त्याग दीजिये; परंतु आपने मेरी उत्तम और सात्त्विक सलाहके अनुसार कार्य नहीं
किया। राजन्! इस समय भी मैंने जो यह आपके हितकी बात बतायी है यदि उसे आप नहीं
करेंगे तो आपको बहुत पश्चात्ताप करना पड़ेगा ।। १२ ।।
यद्येतदेवमनुमन्ता सुतस्ते
सम्प्रीयमाण: पाण्डवैरेकराज्यम् ।
तापो न ते भविता प्रीतियोगा-
न्न चेन्निगृह्लीष्व सुतं सुखाय ।। १३ ।।
यदि आपका पुत्र दुर्योधन प्रसन्नतापूर्वक पाण्डवोंके साथ एक राज्य बनानेकी बात
मान ले तो आपको पश्चात्ताप नहीं होगा, प्रसन्नता ही प्राप्त होगी। यदि दुर्योधन आपकी बात
न माने तो समस्त कुलको सुख पहुँचानेके लिये आप अपने उस पुत्रपर नियन्त्रण
कीजिये ।। १३ ।।
दुर्योधन त्वहितं वै निगृहा
पाण्डो: पुत्र कुरुष्वाधिपत्ये ।
अजातशश्न्रुहि विमुक्तरागो
धर्मेणेमां पृथिवीं शास्तु राजन् ।। १४ ।।
इस प्रकार अहितकारक दुर्योधनको काबूमें करके आप पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरको राज्यपर
अभिषिक्त कर दीजिये; क्योंकि वे अजातशत्रु हैं। उनका किसीसे राग या द्वेष नहीं है।
राजन! वे ही इस पृथ्वीका धर्मपूर्वक पालन करेंगे ।। १४ ।।
ततो राजन् पार्थिवा: सर्व एव
वैश्या इवास्मानुपतिष्ठ न्तु सद्य: ।
दुर्योधन: शकुनि: सूतपुत्र:
प्रीत्या राजन् पाण्डुपुत्रान् भजन्तु ।। १५ ।।
महाराज! यदि ऐसा हुआ तो भूमण्डलके समस्त राजा वैश्योंकी भाँति उपहार ले हम
कौरवोंकी सेवामें शीघ्र उपस्थित होंगे। राजराजेश्वर! दुर्योधन, शकुनि तथा सूतपुत्र कर्ण
प्रेमपूर्वक पाण्डवोंको अपनावें ।। १५ ।।
दुःशासनो याचतु भीमसेनं
सभामध्ये द्रुपदस्यात्मजां च ।
युधिष्टिरं त्वं परिसान्त्वयस्व
राज्ये चैनं स्थापयस्वाभिपूज्य ।। १६ ।।
दुःशासन भरी सभामें भीमसेन तथा द्रौपदीसे क्षमा माँगे और आप युधिष्ठिरको
भलीभाँति सान्त्वना दे सम्मानपूर्वक इस राज्यपर बिठा दीजिये ।। १६ ।।
त्वया पृष्टः किमहमन्यद् वदेय-
मेतत् कृत्वा कृतकृत्योडसि राजन् ।। १७ ।।
कुरुराज! आपने हितकी बात पूछी है तो मैं इसके सिवा और क्या बताऊँ। यह सब
कर लेनेपर आप कृतकृत्य हो जायँगे ।। १७ ।।
धघतयाट्र उवाच
एतद् वाक््यं विदुर यत् ते सभाया-
मिह प्रोक्तं पाण्डवान् प्राप्य मां च ।
हित॑ तेषामहितं मामकाना-
मेतत् सर्व मम नावैति चेत: ।। १८ ।।
धृतराष्ट्रने कहा--विदुर! तुमने यहाँ सभामें पाण्डवोंके तथा मेरे विषयमें जो बात कही
है वह पाण्डवोंके लिये तो हितकर है, पर मेरे पुत्रोंक लिये अहितकारक है, अत: यह सब
मेरा मन स्वीकार नहीं करता है ।। १८ ।।
इदं त्विदानीं गत एव निद्षितं
तेषामर्थे पाण्डवानां यदात्थ |
तेनाद्य मन्ये नासि हितो ममेति
कथं हि पुत्र पाण्डवार्थे त्यजेयम् ।। १९ ।।
इस समय तुम जो कुछ कह रहे हो इससे यह भलीभाँति निश्चय होता है कि तुम
पाण्डवोंके हितके लिये ही यहाँ आये थे। तुम्हारे आजके ही व्यवहारसे मैं समझ गया कि
तुम मेरे हितैषी नहीं हो। मैं पाण्डवोंके लिये अपने पुत्रोंको कैसे त्याग दूँ || १९ ।।
असंशयं तेडपि ममैव पुत्रा
दुर्योधनस्तु मम देहात् प्रसूत: ।
स्वं वै देहं परहेतोस्त्यजेति
को नु ब्रूयात् समतामन्ववेक्ष्य ।। २० ।।
इसमें संदेह नहीं कि पाण्डव भी मेरे पुत्र हैं, पर दुर्योधन साक्षात् मेरे शरीरसे उत्पन्न
हुआ है। समताकी ओर दृष्टि रखते हुए भी कौन किसको ऐसी बातें कहेगा कि तुम दूसरेके
हितके लिये अपने शरीरका त्याग कर दो ।। २० ।।
स मां जिह्दां विदुर सर्व ब्रवीषि
मानं च तेडहमधिकं धारयामि ।
यथेच्छकं गच्छ वा तिष्ठ वा त्वं
सुसान्त्व्यमानाप्यसती स्त्री जहाति ।। २१ ।।
विदुर! मैं तुम्हारा अधिक सम्मान करता हूँ; किंतु तुम मुझे सब कुटिलतापूर्ण सलाह दे
रहे हो। अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो, चले जाओ या रहो। तुमसे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है।
कुलटा स्त्रीको कितनी ही सान्त्वना दी जाय, वह स्वामीको त्याग ही देती है || २१ ।।
वैशम्पायन उवाच
एतावदुक्त्वा धृतराष्ट्रोडन्वपद्य-
दन्तर्वेश्म सहसोत्थाय राजन् |
नेदमस्तीत्यथ विदुरो भाषमाण:
सम्प्राद्रवद् यत्र पार्था बभूवु: ॥। २२ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! ऐसा कहकर राजा धृतराष्ट्र सहसा उठकर
महलके भीतर चले गये। तब विदुरने यह कहकर कि अब इस कुलका नाश अवश्यम्भावी
है, जहाँ पाण्डव थे वहाँ चले गये || २२ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरवाक्यप्रत्याख्याने चतुर्थो 5ध्याय: ।।
४ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अरण्यपर्वमें विदुरवाक्यप्रत्याख्यान-विषयक
चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥। ४ ॥
हि >> आय ० () हि २ 7
पञठ्चमो<ध्याय:
पाण्डवोंका काम्यकवनमें प्रवेश और विदुरजीका वहाँ
जाकर उनसे मिलना और बातचीत करना
वैशम्पायन उवाच
पाण्डवास्तु वने वासमुद्दिश्य भरतर्षभा: ।
प्रययुर्जाह्नवीकूलात् कुरुक्षेत्र सहानुगा: ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! भरतवंश-शिरोमणि पाण्डव वनवासके लिये
गंगाजीके तटसे अपने साथियोंसहित कुरक्षेत्रमें गये | १ ।।
सरस्वतीदृषद्धत्यौ यमुनां च निषेव्य ते ।
ययुर्वनेनैव वनं सततं पश्चिमां दिशम् ।। २ ।।
उन्होंने क्रमशः सरस्वती, दृषद्वती और यमुना नदीका सेवन करते हुए एक वनसे दूसरे
वनमें प्रवेश किया। इस प्रकार वे निरन्तर पश्चिम दिशाकी ओर बढ़ते गये ।॥ २ ।।
ततः सरस्वतीकूले समेषु मरुधन्वसु ।
काम्यकं नाम ददृशुर्वनं मुनिजनप्रियम् ।। ३ ।।
तदनन्तर सरस्वती-तट तथा मरुभूमि एवं वन्य प्रदेशोंकी यात्रा करते हुए उन्होंने
काम्यकवनका दर्शन किया, जो ऋषि-मुनियोंके समुदायको बहुत ही प्रिय था ।। ३ ।।
तत्र ते न्यवसन् वीरा वने बहुमृगद्धिजे ।
अन्वास्यमाना मुनिश्रि: सान्त्व्यमानाश्न भारत ।। ४ ।।
भारत! उस वनमें बहुत-से पशु-पक्षी निवास करते थे। वहाँ मुनियोंने उन्हें बिठाया और
बहुत सान्त्वना दी। फिर वे वीर पाण्डव वहीं रहने लगे ।। ४ ।।
विदुरस्त्वथ पाण्डूनां सदा दर्शनलालस: ।
जगामैकरयथेनैव काम्यकं वनमृद्धिमत् ।। ५ ।।
इधर विदुरजी सदा पाण्डवोंको देखनेके लिये उत्सुक रहा करते थे। वे एकमात्र रथके
द्वारा काम्यकवनमें गये, जो वनोचित सम्पत्तियोंसे भरा-पूरा था || ५ |।
ततो गत्वा विदुर: काम्यकं त-
च्छीघ्रैरश्वेर्वाहिना स्यन्दनेन ।
ददर्शासीनं धर्मात्मानं विविक्ते
सार्थ द्रौपद्या भ्रातृभिन्र्मिणैश्व ।। ६ ।।
शीघ्रगामी अश्वोंद्वारा खींचे जानेवाले रथसे काम्यक-वनमें पहुँचकर विदुरजीने देखा
धर्मात्मा युधिष्ठिर एकान्त प्रदेशमें द्रौपदी, भाइयों तथा ब्राह्मणोंके साथ बैठे हैं ।। ६ ।।
ततो<पश्यद् विदुरं तूर्णमारा-
दभ्यायान्तं सत्यसंध: स राजा ।
अथाब्रवीद् भ्रातरं भीमसेनं
कि नु क्षत्ता वक्ष्यति न: समेत्य ।। ७ ।।
सत्यप्रतिज्ञ राजा युधिष्ठिरने जब बड़ी उतावलीके साथ विदुरजीको अपने निकट आते
देखा तब भाई भीमसेनसे कहा--'ये विदुरजी हमारे पास आकर न जाने क्या
कहेंगे || ७ ।।
कच्चिन्नायं वचनात् सौबलस्य
समाह्दाता देवनायोपयात: ।
कच्चित् क्षुद्र: शकुनिर्नायुधानि
जेष्यत्यस्मान् पुनरेवाक्षवत्याम् ।। ८ ।।
'ये शकुनिके कहनेसे हमें फिर जूआ खेलनेके लिये बुलाने तो नहीं आ रहे हैं। कहीं
नीच शकुनि हमें फिर द्यूत-सभामें बुलाकर हमारे आयुधोंको तो जीत नहीं लेगा ।। ८ ।।
समाहूतः केनचिदाद्रवेति
नाहं शक्तो भीमसेनापयातुम् |
गाण्डीवे च संशयिते कथं नु
राज्यप्राप्ति: संशयिता भवेन्न: ।। ९ ।।
'भीमसेन! आओ, कहकर यदि कोई मुझे (युद्ध या द्यूतके लिये) बुलावे तो मैं पीछे नहीं
हट सकता। ऐसी दशामें यदि हम गाण्डीव धनुष किसी तरह जूएमें हार गये तो हमारी
राज्य-प्राप्ति संशयमें पड़ जायगी” ।। ९ ।।
वैशम्पायन उवाच
तत उत्थाय विदुरं पाण्डवेया:
प्रत्यगृह्लन नृपते सर्व एव ।
तैः सत्कृत: स च तानाजमीढो
यथोचितं पाण्डुपुत्रान् समेयात् । १० ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्! तदनन्तर सब पाण्डवोंने उठकर विदुरजीकी
अगवानी की। उनके द्वारा किया हुआ यथोचित स्वागत-सत्कार ग्रहण करके अजमीढवंशी
विदुर पाण्डवोंसे मिले ।। १० ।।
समाश्चस्तं विदुरं ते नरर्ष भा-
स्ततो<पृच्छन्नागमनाय हेतुम् ।
स चापि तेभ्यो विस्तरत: शशंस
यथावृत्तो धृतराष्ट्रोडम्बिकेय: ।। ११ ।।
विदुरजीके आदर-सत्कार पानेपर नरश्रेष्ठ पाण्डवोंने उनसे वनमें आनेका कारण पूछा।
उनके पूछनेपर विदुरने भी अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्रने जैसा बर्ताव किया था, वह सब
विस्तारपूर्वक कह सुनाया ।। ११ ।।
विदुर उवाच
अवोचन्मां धृतराष्ट्रो ईनुगुप्त-
मजातशत्रो परिगृह्माभिपूज्य ।
एवं गते समतामभ्युपेत्य
पथ्य॑ तेषां मम चैव ब्रवीहि ।। १२ ।।
विदुरजी बोले--अजातशत्रो! राजा धृतराष्ट्रने मुझे अपना रक्षक समझकर बुलाया
और मेरा आदर करके कहा--“विदुर! आजकी परिस्थितिमें समभाव रखकर तुम ऐसा कोई
उपाय बताओ जो मेरे और पाण्डवोंके लिये हितकर हो” | १२ ।।
मयाप्युक्तं यत् क्षेमं कौरवाणां
हित॑ पथ्य॑ धृतराष्ट्रस्य चैव ।
तद् वै तस्मै न रुचाम भ्युपैति
ततक्षाहं क्षेममन्यन्न मन््ये ।। १३ ।।
तब मैंने भी ऐसी बातें बतायीं जो सर्वधा उचित तथा कौरववंश एवं धृतराष्ट्रके लिये भी
हितकर और लाभदायक थीं। वह बात उनको नहीं रुची और मैं उसके सिवा दूसरी कोई
बात उचित नहीं समझता था ।। १३ ।।
परं श्रेय: पाण्डवेया मयोक्तं
न मे तच्च श्रुतवानाम्बिकेय: ।
यथा<5तुरस्येव हि पथ्यमन्ने
न रोचते स्मास्य तदुच्यमानम् ।। १४ ।।
पाण्डवो! मैंने दोनों पक्षके लिये परम कल्याणकी बात बतायी थी, परंतु अम्बिकानन्दन
महाराज धूृतराष्ट्रने मेरी वह बात नहीं सुनी। जैसे रोगीको हितकर भोजन अच्छा नहीं
लगता, उसी प्रकार राजा धूृतराष्ट्रको मेरी कही हुई हितकर बात भी पसंद नहीं
आती ।। १४ ||
न श्रेयसे नीयतेडजातशत्रो
स्त्री श्रोत्रियस्थेव गृहे प्रदुष्टा ।
ध्रुवं न रोचेद् भरतर्षभस्य
पति: कुमार्या इव षष्टिवर्ष: ।। १५ ।।
अजातशशत्रो! जैसे श्रोत्रियके घरकी दुष्टा स्त्री श्रेयके मार्गपर नहीं लायी जा सकती,
उसी प्रकार राजा धृतराष्ट्रको कल्याणके मार्गपर लाना असम्भव है। जैसे कुमारी कन्याको
साठ वर्षका बूढ़ा पति अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार भरतश्रेष्ठ धृतराष्ट्रको मेरी कही हुई
बात निश्चय ही नहीं रुचती ।। १५ ।।
ध्रुवं विनाशो नृप कौरवाणां
न वै श्रेयो धृतराष्ट्र: परैति ।
यथा च पर्णे पुष्करस्यावसिक्तं
जल न तिषछेत् पथ्यमुक्ते तथास्मिन् ।। १६ ।।
राजन! राजा धृतराष्ट्र कल्याणकारी उपाय नहीं ग्रहण करते हैं, अत: यह निश्चय जान
पड़ता है कि कौरवकुलका विनाश अवश्यम्भावी है। जैसे कमलके पत्तेपर डाला हुआ जल
नहीं ठहर सकता, उसी प्रकार कही हुई हितकर बात राजा धृतराष्ट्रके मनमें स्थान नहीं पाती
है ।। १६ ||
ततः क्रुद्धो धृतराष्ट्रोडब्रवीन्मां
यस्मिन् श्रद्धा भारत तत्र याहि ।
नाहं भूय: कामये त्वां सहायं
महीमिमां पालयितु पुरं वा ।। १७ ।।
उस समय राजा धृतराष्ट्रने कृपित होकर मुझसे कहा--“भारत! जिसपर तुम्हारी श्रद्धा
हो वहीं चले जाओ। अब मैं इस राज्य अथवा नगरका पालन करनेके लिये तुम्हारी सहायता
नहीं चाहता' ।। १७ |।
सोऊहं त्यक्तो धृतराष्ट्रेण राज्ञा
प्रशासितुं त्वामुपयातो नरेन्द्र ।
तद् वै सर्व यन्मयोक्त सभायां
तद् धार्यतां यत् प्रवक्ष्यामि भूय: ।। १८ ।।
नरेन्द्र! इस प्रकार राजा धृतराष्ट्रने मुझे त्याग दिया है; अतः मैं तुम्हें उपदेश देनेके लिये
आया हूँ। मैंने सभामें जो कुछ कहा था और पुन: इस समय जो कुछ कह रहा हूँ, वह सब
तुम धारण करो ।। १८ ।।
क्लेशैस्तीव्रैर्युज्यमान: सपत्नै:
क्षमां कुर्वन्ू कालमुपासते यः ।
संवर्धयन् स्तोकमिवाग्निमात्मवान्
स वै भुड्क्ते पृथिवीमेक एव ।। १९ ।।
जो शत्रुओंद्वारा दुःसह कष्ट दिये जानेपर भी क्षमा करते हुए अनुकूल अवसरकी
प्रतीक्षा करता है; तथा जिस प्रकार थोड़ी-सी आगको भी लोग घास-फूसके द्वारा प्रज्वलित
करके बढ़ा लेते हैं, वैसे ही जो मनको वशमें रखकर अपनी शक्ति और सहायकोंको बढ़ाता
है, वह अकेला ही सारी पृथ्वीका उपभोग करता है ।। १९ ।।
यस्याविभक्तं वसु राजन् सहायै-
स्तस्य दुःखे5प्यंशभाज: सहाया: ।
सहायानामेष संग्रहणे<ध्युपाय:
सहायाप्तौ पृथिवीप्राप्तिमाहु: ॥। २० ।।
राजन! जिसका धन सहायकोंके लिये बाँटा नहीं है; अर्थात् जिसके धनको सहायक भी
अपना ही समझकर भोगते हैं, उसके दुःखमें भी वे सब लोग हिस्सा बँटाते हैं। सहायकोंके
संग्रहका यही उपाय है। सहायकोंकी प्राप्ति हो जानेपर पृथ्वीकी ही प्राप्ति हो गयी, ऐसा
कहा जाता है ।। २० ।।
सत्यं श्रेष्ठ पाण्डव विप्रलापं
तुल्यं चान्नं सह भोज्यं सहायै: ।
आत्मा चैषामग्रतो न सम पूज्य
एवंवृत्तिर्वर्धती भूमिपाल: ।। २१ ।।
पाण्डुनन्दन! व्यर्थकी बकवादसे रहित सत्य बोलना ही श्रेष्ठ है। अपने सहायक भाई-
बन्धुओंके साथ बैठकर समान अन्नका भोजन करना चाहिये। उन सबके आगे अपनी मान-
बड़ाई तथा पूजाकी बातें नहीं करनी चाहिये। ऐसा बर्ताव करनेवाला भूपाल सदा
उन्नतिशील होता है || २१ ।।
युधिछिर उवाच
एवं करिष्यामि यथा ब्रवीषि
परां बुद्धिमुपगम्याप्रमत्त: ।
यच्चाप्यन्यद्रेशकालोपपन्नं
तद् वै वाच्यं तत् करिष्यामि कृत्स्नम् ।। २२ ।।
युधिष्ठिर बोले--विदुरजी! मैं उत्तम बुद्धिका आश्रय ले सतत सावधान रहकर आप
जैसा कहते हैं वैसा ही करूँगा। और भी देश-कालके अनुसार आप जो कर्तव्य उचित
समझें, वह बतावें। मैं उसका पूर्णरूपसे पालन करूँगा ।। २२ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरनिर्वासे पठचमो<ध्याय: ।। ५ ।।
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत वनपवके अन्तर्गत अरण्यपर्वमें विदुरनिवासनविषयक पाँचवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥। ५ ॥
#2:8 #:23:.7 () हि २ 7
षष्ठो5 ध्याय:
धृतराष्ट्रका संजयको भेजकर विदुरको वनसे बुलवाना और
उनसे क्षमा-प्रार्थना
वैशम्पायन उवाच
गते तु विदुरे राजन्नाश्रमं पाण्डवान् प्रति ।
धृतराष्ट्रो महाप्राज्ञ: पर्यतप्यत भारत ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्! जब विदुरजी पाण्डवोंके आश्रमपर चले गये, तब
महाबुद्धिमान् राजा धृतराष्ट्रको बड़ा पश्चात्ताप हुआ ।। १ ।।
विदुरस्य प्रभावं च संधिविग्रहकारितम् ।
विवृद्धि च परां मत्वा पाण्डवानां भविष्यति ॥। २ ।।
उन्होंने सोचा, विदुर संधि और विग्रह आदिकी नीतिको अच्छी तरह जानते हैं, जिसके
कारण उनका बहुत बड़ा प्रभाव है। वे पाण्डवोंके पक्षमें हो गये तो भविष्यमें उनका महान्
अभ्युदय होगा ।। २ ।।
स सभाद्वारमागम्य विदुरस्मारमोहितः ।
समक्ष॑ पार्थिवेन्द्राणां पपाताविष्टचेतन: ।। ३ ।।
विदुरका स्मरण करके वे मोहित-से हो गये और सभाभवनके द्वारपर आकर सब
राजाओंके देखते-देखते अचेत होकर पृथ्वीपर गिर पड़े ।। ३ ।।
स तु लब्ध्वा पुन: संज्ञां समुत्थाय महीतलात् |
समीपोपस्थितं राजा संजयं वाक्यमब्रवीत् ।। ४ ।।
फिर होशमें आनेपर वे पृथ्वीसे उठ खड़े हुए और समीप आये हुए संजयसे इस प्रकार
बोले-- || ४ ।।
भ्राता मम सुदहृच्चैव साक्षाद् धर्म इवापर: ।
तस्य स्मृत्याद्य सुभृशं हृदयं दीर्यतीव मे ।। ५ ।।
“संजय! विदुर मेरे भाई और सुहृद् हैं। वे साक्षात् दूसरे धर्मके समान हैं। उनकी याद
आनेसे आज मेरा हृदय अत्यन्त विदीर्ण-सा होने लगा है ।। ५ ।।
तमानयस्व धर्मज्ञं मम भ्रातरमाशु वै ।
इति ब्रुवन् स नृपति: कृपणं पर्यदेवयत् ।। ६ ।।
“तुम मेरे धर्मज्ञ भ्राता विदुरको शीघ्र यहाँ बुला लाओ।” ऐसा कहते हुए राजा धुृतराष्ट्र
दीनभावसे फूट-फ़ूटकर रोने लगे || ६ ।।
पश्चात्तापाभिसंतप्तो विदुरस्मारमोहित: ।
भ्रातृस्नेहादिदं राजा संजयं वाक्यमब्रवीत् ।। ७ ।।
महाराज धुृतराष्ट्र विदुरकी याद आनेसे मोहित हो पश्चात्तापसे खिन्च हो उठे और
भ्रातृस्नेहवश संजयसे पुन: इस प्रकार बोले-- ।। ७ ।।
गच्छ संजय जानीहि भ्रातरं विदुरं मम ।
यदि जीवति रोषेण मया पापेन निर्धुत: ।। ८ ।।
संजय! जाओ, मेरे भाई विदुरका पता लगाओ। मुझ पापीने क्रोधवश उन्हें निकाल
दिया। वे जीवित तो हैं न? ।। ८ ।।
न हि तेन मम क्षात्रा सुसूक्ष्ममपि किंचन ।
व्यलीकं कृतपूर्व वै प्राज्ञेनामितबुद्धिना ।। ९ ।।
“अपरिमित बुद्धिवाले मेरे उन विद्वान भाईने पहले कभी कोई छोटा-सा भी अपराध
नहीं किया है ।। ९ ।।
स व्यलीकं पर प्राप्तो मत्त: परमबुद्धिमान् ।
त्यक्ष्यामि जीवितं प्राज्ञ तं गच्छानय संजय ।। १० ।।
“बुद्धिमान् संजय! मुझसे परम मेधावी विदुरका बड़ा अपराध हुआ। तुम जाकर उन्हें ले
आओ, नहीं तो मैं प्राण त्याग दूँगा” ।। १० ।।
तस्य तदू वचन श्रुत्वा राज्ञस्तमनुमान्य च |
संजयो बाढमित्युक्त्वा प्राद्रवत् काम्यकं प्रति ।। ११ ।।
सो<5चिरेण समासाद्य तद् वन यत्र पाण्डवा: ।
रौरवाजिनसंवीतं ददर्शाथ युधिष्िरम् ।। १२ ।।
विदुरेण सहासीन ब्राह्मणैश्व सहस्रश: ।
भ्रातृभिश्चाभिसंगुप्तं देवैरिव पुरंदरम् ।। १३ ।।
राजाका यह वचन सुनकर संजयने उनका आदर करते हुए “बहुत अच्छा” कहकर
काम्यकवनको प्रस्थान किया। जहाँ पाण्डव रहते थे, उस वनमें शीघ्र ही पहुँचकर संजयने
देखा, राजा युधिष्छिर मृगचर्म धारण करके विदुरजी तथा सहमों ब्राह्मणोंके साथ बैठे हुए हैं।
और देवताओंसे घिरे हुए इन्द्रकी भाँति अपने भाइयोंसे सुरक्षित हैं | ११--१३ ।।
युधिष्ठिरमुपागम्य पूजयामास संजय: ।
भीमार्जुनयमाश्चापि तद्युक्त प्रतिपेदिरे || १४ ।।
युधिष्ठिरके पास पहुँचकर संजयने उनका सम्मान किया। फिर भीम, अर्जुन और
नकुल-सहदेवने संजयका यथोचित सत्कार किया ।। १४ ।।
राज्ञा पृष्ट: स कुशलं सुखासीनश्न संजय: ।
शशंसागमने हेतुमिदं चैवाब्रवीद् वच: ।। १५ ।।
राजा युधिष्ठिरके कुशल-प्रश्न करनेके पश्चात् जब संजय सुखपूर्वक बैठ गया, तब अपने
आनेका कारण बताते हुए उसने इस प्रकार कहा ।। १५ |।
संजय उवाच
राजा स्मरति ते क्षत्तर्धुतराष्ट्रो अम्बिकासुत: ।
त॑ पश्य गत्वा त्वं क्षिप्रं संजीवय च पार्थिवम् ।। १६ ।।
संजयने कहा--विदुरजी! अम्बिकानन्दन महाराज धृतराष्ट्र आपको स्मरण करते हैं।
आप जल्दी चलकर उनसे मिलिये और उन्हें जीवनदान दीजिये ।। १६ ।।
सो<नुमान्य नरश्रेष्ठान् पाण्डवान् कुरुनन्दनान् ।
नियोगाद् राजसिंहस्य गन्तुमरहसि सत्तम || १७ ।।
साधुशिरोमणे! आप कुरुकुलको आनन्दित करनेवाले इन नरश्रेष्ठ पाण्डवोंसे
आदरपूर्वक विदा लेकर महाराजके आदेशसे शीघ्र उनके पास चलें || १७ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमुक्तस्तु विदुरो धीमान् स््वजनवल्लभ: ।
युधिष्ठटिरस्यानुमते पुनरायाद् गजाह्वयम् ।। १८ ।।
तमब्रवीन्महातेजा धृतराष्ट्रो3म्बिकासुत: ।
दिष्ट्या प्राप्तोडसि धर्मज्ञ दिष्ट्या स्मरसि मेडनघ ।। १९ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! स्वजनोंके परम प्रिय बुद्धिमान् विदुरजीसे जब
संजयने इस प्रकार कहा, तब वे युधिष्ठिरकी अनुमति लेकर फिर हस्तिनापुरमें आये। वहाँ
महातेजस्वी अम्बिकानन्दन धृतराष्ट्रने उनसे कहा--'धर्मज्ञ विदुर! तुम आ गये, यह मेरे बड़े
सौभाग्यकी बात है। अनघ! यह भी मेरे सौभाग्यकी बात है कि तुम मुझे भूले
नहीं ।। १८-१९ ||
अद्य रात्रौ दिवा चाहं त्वत्कृते भरतर्षभ ।
प्रजागरे प्रपश्यामि विचित्र देहमात्मन: ।। २० ।।
“भरतकुलभूषण! मैं आज दिन-रात तुम्हारे लिये जागते रहनेके कारण अपने शरीरकी
विचित्र दशा देख रहा हूँ! || २० ।।
सो<ड्कमानीय विदुरं मूर्थन्याप्राय चैव ह ।
क्षम्यतामिति चोवाच यदुक्तोडसि मयानघ ।। २१ ।।
ऐसा कहकर राजा धृतराष्ट्रने विदुरको अपने हृदयसे लगा लिया और उनका मस्तक
सूँघते हुए कहा--“निष्पाप विदुर! मैंने तुमसे जो अप्रिय बात कह दी है, उसके लिये मुझे
क्षमा करो” || २१ ।।
||
१
।
4 ||
हे एक सजा
" हि ््क््ट
विदुर उवाच
क्षान्तमेव मया राजन गुरुर्मे परमो भवान् |
एषो5हमागत: शीघ्र त्वद्दर्शनपरायण: ।। २२ ।।
भवन्ति हि नरव्याप्र पुरुषा धर्मचेतस: ।
दीनाभिपातिनो राजन् नात्र कार्या विचारणा ॥। २३ ।।
विदुरने कहा--राजन्! मैंने तो सब क्षमा कर ही दिया है। आप मेरे परम गुरु हैं। मैं
शीघ्रतापूर्वक आपके दर्शनके लिये आया हूँ। नरश्रेष्ठ! धर्मात्मा पुरुष दीन जनोंकी ओर
अधिक झुकते हैं। आपको इसके लिये मनमें विचार नहीं करना चाहिये || २२-२३ ।।
पाण्डो: सुता यादृशा मे तादृशास्तव भारत ।
दीना इतीव मे बुद्धिरभिपन्नाद्य तान् प्रति ।। २४ ।।
भारत! मेरे लिये जैसे पाण्डुके पुत्र हैं, वैसे ही आपके भी। परंतु पाण्डव इन दिनों दीन
दशामें हैं, अतः उनके प्रति मेरे हृदयका झुकाव हो गया ।। २४ ।।
वैशम्पायन उवाच
अन्योन्यमनुनीयैवं भ्रातरौ द्वौ महाद्युती ।
विदुरो धृतराष्ट्रश्न लेभाते परमां मुदम् ।। २५ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! वे दोनों महातेजस्वी भाई विदुर और धूृतराष्ट्र
एक-दूसरेसे अनुनय-विनय करके अत्यन्त प्रसन्न हो गये || २५ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरप्रत्यागमने षष्ठो5ध्याय: ।। ६ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अरण्यपर्वमें विदुरप्रत्यागयमनविषयक छठा
अध्याय पूरा हुआ ॥। ६ ॥
#2:8 #:23:.7 () हि २ 7
सप्तमो<्ध्याय:
दुर्योधन, दःशासन, शकुनि और कर्णकी सलाह,
पाण्डवोंका वध करनेके लिये उनका वनमें जानेकी तैयारी
तथा व्यासजीका आकर उनको रोकना
वैशम्पायन उवाच
श्र॒ुत्वा च विदुरं प्राप्त राज्ञा च परिसान्त्वितम् ।
धृतराष्ट्रात्मजो राजा पर्यतप्यत दुर्मति: ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! विदुर आ गये और राजा धूृतराष्ट्रने उन्हें
सान्त्वना देकर रख लिया, यह सुनकर दुष्ट बुद्धिवाला धृतराष्ट्रकुमार राजा दुर्योधन संतप्त
हो उठा ।। १ ।।
स सौबलेयमानाय्य कर्णदुःशासनौ तथा ।
अब्रवीद् वचन राजा प्रविश्याबुद्धिजं तम: ।। २ ।।
उसने शकुनि, कर्ण और दुःशासनको बुलाकर अज्ञानजनित मोहमें मग्न हो इस प्रकार
कहा-- || २ ||
एष प्रत्यागतो मन्त्रो धृतराष्ट्रस्य धीमत: ।
विदुर: पाण्डुपुत्राणां सुहृद् विद्वान् हिते रत: ॥। ३ ।।
“बुद्धिमान पिताजीका यह मन्त्री विदुर फिर लौट आया। विदुर विद्वान् होनेके साथ ही
पाण्डवोंका सुहृद् और उन्हींके हितसाधनमें संलग्न रहनेवाला है ।। ३ ।।
यावदस्य पुनर्बुद्धिं विदुरो नापकर्षति ।
पाण्डवानयने तावन्मन्त्रयध्वं हित॑ं मम ।। ४ ।।
“यह पिताजीके विचारको पुनः पाण्डवोंके लौटा लानेकी ओर जबतक नहीं खींचता,
तभीतक मेरे हित-साधनके विषयमें तुमलोग कोई उत्तम सलाह दो ।। ४ ।।
अथ पश्याम्यहं पार्थान् प्राप्तानिह कथंचन ।
पुन: शोषं गमिष्यामि निरम्बुर्निरवग्रह: ।। ५ ।।
“यदि मैं किसी प्रकार पाण्डवोंको यहाँ आया देख लूँगा तो जलका भी परित्याग करके
स्वेच्छासे अपने शरीरको सुखा डालूँगा ।। ५ ।।
विषमुद्धन्धनं चैव शस्त्रमग्निप्रवेशनम् ।
करिष्ये न हि तानृद्धान् पुनर्द्रष्टमिहोत्सहे ।। ६ ।।
“मैं जहर खा लूँगा, फाँसी लगा लूँगा, अपने-आपको ही शस्त्रसे मार दूँगा अथवा
जलती आगममें प्रवेश कर जाऊँगा; परंतु पाण्डवोंको फिर बढ़ते या फलते-फूलते नहीं देख
सकूँगा” ।। ६ ||
शकुनिरुवाच
कि बालिशमतिं राजन्नास्थितो5सि विशाम्पते ।
गतास्ते समयं कृत्वा नैतदेवं भविष्यति ।। ७ ।।
शकुनि बोला--राजन्! तुम भी क्या नादान बच्चोंके-से विचार रखते हो? पाण्डव
प्रतिज्ञा करके वनमें गये हैं। वे उस प्रतिज्ञाको तोड़कर लौट आवें, ऐसा कभी नहीं
होगा ।। ७ ।।
सत्यवाक्यस्थिता: सर्वे पाण्डवा भरतर्षभ |
पितुस्ते वचन तात न ग्रहीष्यन्ति कहिचित् ।। ८ ।॥।
भरतवंशशिरोमणे! सब पाण्डव सत्य वचनका पालन करनेमें संलग्न हैं। तात! वे
तुम्हारे पिताकी बात कभी स्वीकार नहीं करेंगे ।। ८ ।।
अथवाते ग्रहीष्यन्ति पुनरेष्यन्ति वा पुरम् ।
निरस्य समयं सर्वे पणो5स्माकं भविष्यति ।। ९ ।।
अथवा यदि वे तुम्हारे पिताकी बात मान लेंगे और प्रतिज्ञा तोड़कर इस नगरमें आ
जायूँगे तो हमारा व्यवहार इस प्रकार होगा ।। ९ ।।
सर्वे भवामो मध्यस्था राज्ञश्छन्दानुवर्तिन: ।
छिद्रं बहु प्रपश्यन्त: पाण्डवानां सुसंवृता: ।। १० ।।
हम सब लोग राजाकी आज्ञाका पालन करते हुए मध्यस्थ हो जायँगे और छिपे-छिपे
पाण्डवोंके बहुत-से छिद्र देखते रहेंगे || १० ।।
दुःशासन उवाच
एवमेतन्महाप्राज्ञ यथा वदसि मातुल ।
नित्यं हि मे कथयतस्तव बुद्धिर्विरोचते ।। ११ ।।
दुःशासनने कहा--महाबुद्धिमान् मामाजी! आप जैसा कहते हैं, वही मुझे भी ठीक
जान पड़ता है। आपके मुखसे जो विचार प्रकट होता है, वह मुझे सदा अच्छा लगता
है ।। ११ ||
कर्ण उवाच
काममीक्षामहे सर्वे दुर्योधन तवेप्सितम् ।
ऐकमत्यं हि नो राजन् सर्वेषामेव लक्षये ।। १२ ।।
कर्ण बोला--ददुर्योधन! हम सब लोग तुम्हारी अभिलषित कामनाकी पूर्तिके लिये
सचेष्ट हैं। राजन! इस विषयमें हम सभीका एक मत दिखायी देता है || १२ ।।
नागमिष्यन्ति ते धीरा अकृत्वा कालसंविदम् |
आगमिष्यन्ति चेन्मोहात् पुनर्यूतेन तान् जय ।। १३ ।।
धीरबुद्धि पाण्डव निश्चित समयकी अवधिको पूर्ण किये बिना यहाँ नहीं आयँगे; और
यदि वे मोहवश आ भी जायाँ तो तुम पुनः जूएके द्वारा उन्हें जीत लेना ।। १३ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमुक्तस्तु कर्णेन राजा दुर्योधनस्तदा ।
नातिदृष्टमना: क्षिप्रमभवत् स पराड्मुख: ।। १४ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! कर्णके ऐसा कहनेपर उस समय राजा
दुर्योधनको अधिक प्रसन्नता नहीं हुई। उसने तुरंत ही अपना मुँह फेर लिया ।। १४ ।।
उपलभ्य तत: कर्णो विवृत्य नयने शुभे ।
रोषाद् दुःशासनं चैव सौबलं च तमेव च ।। १५ ।।
उवाच परमक्रुद्ध उद्यम्यात्मानमात्मना |
अथो मम मतं यत् तु तन्निबोधत भूमिपा: ।। १६ ।।
तब उसके आशयको समझकर कर्णने रोषसे अपनी सुन्दर आँखें फाड़कर दुःशासन,
शकुनि और दुर्योधनकी ओर देखते हुए स्वयं ही उत्साहमें भरकर अत्यन्त क्रोधपूर्वक कहा
--“भूमिपालो! इस विषयमें मेरा जो मत है, उसे सुन लो || १५-१६ ।।
प्रियं सर्वे करिष्यामो राज्ञ: किड्करपाणय: ।
न चास्य शवनुमः स्थातु प्रिये सर्वे हमृतन्द्रिता: । १७ ।।
“हम सब लोग राजा दुर्योधनके किंकर और भुजाएँ हैं; अतः हम सब मिलकर इनका
प्रिय कार्य करेंगे; परंतु हम आलस्य छोड़कर इनके प्रियसाधनमें लग नहीं पाते || १७ ।।
वयं तु शस्त्राण्यादाय रथानास्थाय दंशिता: ।
गच्छाम: सहिता हन्तुं पाण्डवान् वनगोचरान् ।। १८ ।।
“मेरी राय यह है कि हम कवच पहनकर अपने-अपने रथपर आखरूढ़ हो अस्त्र-शस्त्र
लेकर वनवासी पाण्डवोंको मारनेके लिये एक साथ उनपर धावा करें ।। १८ ।।
तेषु सर्वेषु शान्तेषु गतेष्वविदितां गतिम् ।
निर्विवादा भविष्यन्ति धार्तराष्ट्रस्त्था वयम् ।। १९ ।।
“जब वे सभी मरकर शान्त जो जाये और अज्ञात गतिको अर्थात्र परलोकको पहुँच
जायँ, तब धृतराष्ट्रके पुत्र तथा हम सब लोग सारे झगड़ोंसे दूर हो जायँगे ।। १९ ।।
यावदेव परिद्यूना यावच्छोकपरायणा: ।
यावम्मित्रविहीनाक्ष॒ तावच्छक्या मतं मम ।। २० ।।
“वे जबतक क्लेशगमें पड़े हैं, जबतक शोकमें डूबे हुए हैं और जबतक मित्रों एवं
सहायकोंसे वंचित हैं, तभीतक युद्धमें जीते जा सकते हैं, मेरा तो यही मत है" || २० ।।
तस्य तदू् वचन श्रुत्वा पूजयन्त: पुनः पुनः ।
बाढमित्येव ते सर्वे प्रत्यूचु: सूतजं तदा ।। २१ ।।
कर्णकी यह बात सुनकर सबने बार-बार उसकी सराहना की और कर्णकी बातके
उत्तरमें सबके मुखसे यही निकला--“बहुत अच्छा, बहुत अच्छा” || २१ ।।
एवमुकक््त्वा सुसंरब्धा रथै: सर्वे पृथक्पृथक् ।
निर्ययु: पाण्डवान् हन्तुं सहिता: कृतनिश्चया: ।। २२ ।।
इस प्रकार आपसमें बातचीत करके रोष और जोशगमें भरे हुए वे सब पृथक्-पृथक्
रथोंपर बैठकर पाण्डवोंके वधका निश्चय करके एक साथ नगरसे बाहर निकले ।। २२ |।
तान् प्रस्थितान् परिज्ञाय कृष्णद्वैपायन: प्रभु: ।
आजगाम विशुद्धात्मा दृष्टवा दिव्येन चक्षुषा || २३ ।।
उन्हें वनकी ओर प्रस्थान करते जान शक्तिशाली महर्षि शुद्धात्मा श्रीकृष्णद्वैपायन
व्यास दिव्य दृष्टिसे सब कुछ देखकर सहसा वहाँ आये ।। २३ ।।
प्रतिषिध्याथ तान् सर्वान् भगवॉल्लोकपूजित: ।
प्रज्ञाचक्षुषमासीनमुवाचा भ्येत्य सत्वरम् ।। २४ ।।
उन लोकपूजित भगवान् व्यासने उन सबको रोका और सिंहासनपर बैठे हुए प्रज्ञाचक्षु
धृतराष्ट्रके पास शीघ्र आकर कहा ।। २४ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि व्यासागमने सप्तमो5ध्याय: ।। ७ ।॥।
इस प्रकार श्रीमह्या भारत वनपवके अन्तर्गत अरण्यपर्वमें व्यासजीके आगमनसे सम्बन्ध
रखनेवाला यसातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ७ ॥।
हि >> आय न [हुक हि 7 2
अष्टमो> ध्याय:
व्यासजीका धृतराष्ट्रसे दुर्योधनके अन्यायको रोकनेके लिये
अनुरोध
व्यास उवाच
धृतराष्ट्र महाप्राज्ञ निबोध वचनं मम ।
वक्ष्यामि त्वां कौरवाणां सर्वेषां हितमुत्तमम् ।। १ ।।
व्यासजीने कहा--महाप्राज्ञ धृतराष्ट्र! तुम मेरी बात सुनो, मैं तुम्हें समस्त कौरवोंके
हितकी उत्तम बात बताता हूँ ।। १ ।।
न मे प्रियं महाबाहो यद् गता: पाण्डवा वनम् |
निकृत्या निकृताश्चैव दुर्योधनपुरोगमै: ।। २ ।।
महाबाहो! पाण्डवलोग जो वनमें भेजे गये हैं, यह मुझे अच्छा नहीं लगा है। दुर्योधन
आदिने उन्हें छलपूर्वक जूएमें हराया है ।। २ ।।
ते स्मरन्त: परिक््लेशान् वर्षे पूर्णे त्रयोदशे ।
विमोक्ष्यन्ति विषं क्रुद्धा: कौरवेयेषु भारत ।। ३ ||
भारत! वे तेरहवाँ वर्ष पूर्ण होनेपर अपनेको दिये हुए क्लेश याद करके कुपित हो
कौरवोंपर विष उगलेंगे, अर्थात् विषके समान घातक अस्त्र-शस्त्रोंका प्रहार करेंगे || ३ ।।
तदयं कि नु पापात्मा तव पुत्र: सुमन्दधी: ।
पाण्डवान् नित्यसंक्रुद्धों राज्यहेतोर्जिधांसति ।। ४ ।।
ऐसा जानते हुए भी तुम्हारा यह पापात्मा एवं मूर्ख पुत्र क्यों सदा रोषमें भरा रहकर
राज्यके लिये पाण्डवोंका वध करना चाहता है || ४ ।।
वार्यतां साध्वयं मूढ: शमं गच्छतु ते सुतः ।
वनस्थांस्तानयं हन्तुमिच्छन् प्राणान् विमोक्ष्यति ।। ५ ।।
तुम इस मूढ़को रोको। तुम्हारा यह पुत्र शान्त हो जाय। यदि इसने वनवासी पाण्डवोंको
मार डालनेकी इच्छा की तो यह स्वयं ही अपने प्राणोंको खो बैठेगा ।। ५ ।।
यथा हि विदुरः प्राज्ञो यथा भीष्मो यथा वयम् |
यथा कृपश्च द्रोणश्व॒ तथा साधुर्भवानपि ।। ६ ।।
जैसे ज्ञानी विदुर, भीष्म, मैं, कृपाचार्य तथा द्रोणाचार्य हैं, वैसे ही साधुस्वभाव तुम भी
हो ।। ६ |।
विग्रहो हि महाप्राज्ञ स्वजनेन विगर्लितः ।
अधर्म्यमयशस्यं च मा राजन् प्रतिपद्यताम् ।। ७ ।।
महाप्राज्ञ! स्वजनोंके साथ कलह अत्यन्त निन्दित माना गया है। वह अधर्म एवं अयश
बढ़ानेवाला है; अतः राजन! तुम स्वजनोंके साथ कलहमें न पड़ो || ७ ।।
समीक्षा यादृशी हास्य पाण्डवान् प्रति भारत ।
उपेक्ष्यमाणा सा राजन् महान्तमनयं स्पृशेत् ।। ८ ।।
भारत! पाण्डवोंके प्रति इस दुर्योधनका जैसा विचार है, यदि उसकी उपेक्षा की गयी--
उसका शमन न किया गया तो उसका वह विचार महान् अत्याचारकी सृष्टि कर सकता
है | ८ ।।
अथवायं सुमन्दात्मा वनं गच्छतु ते सुत: ।
पाण्डवै: सहितो राजन्नेक एवासहायवान् ।। ९ ।।
अथवा तुम्हारा यह मन्दबुद्धि पुत्र अकेला ही दूसरे किसी सहायकको लिये बिना
पाण्डवोंके साथ वनमें जाय ।। ९ ।।
ततः संसर्गज: स्नेह: पुत्रस्य तव पाण्डवै: ।
यदि स्यात् कृतकार्योड्द्य भवेस्त्वं मनुजेश्वर ।। १० ।।
मनुजेश्वर! वहाँ पाण्डवोंके संसर्गमें रहनेसे तुम्हारे पुत्रके प्रति उनके हृदयमें स्नेह हो
जाय, तो तुम आज ही कृतार्थ हो जाओगे ।। १० ।।
अथवा जायमानस्य यच्छीलमनुजायते ।
श्रूयते तन्महाराज नामृतस्यापसर्पति ।। ११ ।।
कथं वा मन्यते भीष्मो द्रोणो5थ विदुरो5पि वा।
भवान् वात्र क्षमं कार्य पुरा वोडर्थोडभिवर्धते ।। १२ ।।
किंतु महाराज! जन्मके समय किसी वस्तुका जैसा स्वभाव बन जाता है वह दूर नहीं
होता। भले ही वह वस्तु अमृत ही क्यों न हो? यह बात मेरे सुननेमें आयी है। अथवा इस
विषयमें भीष्म, द्रोण, विदुर या तुम्हारी क्या सम्मति है? यहाँ जो उचित हो, वह कार्य पहले
करना चाहिये, उसीसे तुम्हारे प्रयोजनकी सिद्धि हो सकती है || ११-१२ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि व्यासवाक्ये अष्टमो5ध्याय: ॥। ८ ।॥।
इस प्रकार श्रीमह्या भारत वनपवके अन्तर्गत अरण्यपर्वमें व्यासवाक्यविषयक आठवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥। ८ ॥।
अनार (0) है
नवमो<्ध्याय:
व्यासजीके द्वारा सुरभि और इन्द्रके उपाख्यानका वर्णन
तथा उनका पाण्डवोंके प्रति दया दिखलाना
धृतराष्ट उवाच
भगवन् नाहमप्येतद् रोचये द्यूतसम्भवम् |
मन्ये तद्विधिना55कृष्य कारितो<स्मीति वै मुने ।। १ ।।
धृतराष्ट्रने कहा--भगवन्! यह जूएका खेल मुझे भी पसंद नहीं था। मुने! मैं तो ऐसा
समझता हूँ कि विधाताने मुझे बलपूर्वक खींचकर इस कार्यमें लगा दिया ।। १ ।।
नैतद् रोचयते भीष्मो न द्रोणो विदुरो न च ।
गान्धारी नेच्छति द्यूतं तत्र मोहात् प्रवर्तितम् ।। २ ।॥।
भीष्म, द्रोण और विदुरको भी यह द्यूतका आयोजन अच्छा नहीं लगता था। गान्धारी
भी नहीं चाहती थी कि जूआ खेला जाय; परंतु मैंने मोहवश सबको जूएमें लगा
दिया ।। २ ।।
परित्यक्तुंन शक्नोमि दुर्योधनमचेतनम् ।
पुत्रस्नेहेन भगवन् जानन्नपि प्रियव्रत ।। ३ ।।
भगवन! प्रियव्रत! मैं यह जानता हूँ कि दुर्योधन अविवेकी है, तो भी पुत्रस्नेहके कारण
मैं उसका त्याग नहीं कर सकता ।। ३ ।।
व्यास उवाच
वैचित्रवीर्य नृपते सत्यमाह यथा भवान् |
दृढं विद्य: परं पुत्र परं पुत्रान्न विद्यते | ४ ।।
व्यासजी बोले--राजन्! विचित्रवीर्यनन्दन! तुम ठीक कहते हो, हम अच्छी तरह
जानते हैं कि पुत्र परम प्रिय वस्तु है। पुत्रसे बढ़कर संसारमें और कुछ नहीं है || ४ ।।
इन्द्रोडप्यश्रुनिपातेन सुरभ्या प्रतिबोधित: ।
अन्यै: समृद्धैरप्यर्थर्न सुतान्मन्यते परम् ।। ५ ।।
सुरभिने पुत्रके लिये आँसू बहाकर इन्द्रको भी यह बात समझायी थी, जिससे वे अन्य
समृद्धिशाली पदार्थोंसे सम्पन्न होनेपर भी पुत्रसे बढ़कर दूसरी किसी वस्तुको नहीं मानते
हैं ।। ५ |।
अत्र ते कीर्तयिष्यामि महदाख्यानमुत्तमम् ।
सुरभ्याश्चैव संवादमिन्द्रस्य च विशाम्पते ।। ६ ।।
जनेश्वर! इस विषयमें मैं तुम्हें एक परम उत्तम इतिहास सुनाता हूँ; जो सुरभि तथा
इन्द्रके संवादके रूपमें है || ६ ।।
त्रिविष्टपगता राजन् सुरभी प्रारूुदत् किल |
गवां माता पुरा तात तामिन्द्रोडन्वकृपायत ।। ७ ।।
राजन! पहलेकी बात है, गोमाता सुरभि स्वर्गलोकमें जाकर फूट-फ़ूटकर रोने लगी।
तात! उस समय इन्द्रको उसपर बड़ी दया आयी ।। ७ ।।
इन्द्र रवाच
किमिदं रोदिषि शुभे कच्चित् क्षेमं दिवौकसाम् |
मानुषेष्वथ वा गोषु नैतदल्पं भविष्यति ।॥। ८ ।।
इन्द्रने पूछा--शुभे! तुम क्यों इस तरह रो रही हो? देवलोकवासियोंकी कुशल तो है
न? मनुष्यों तथा गौओंमें तो सब लोग कुशलसे हैं न? तुम्हारा यह रोदन किसी अल्प
कारणसे नहीं हो सकता? ।। ८ ।।
युराभिरुवाच
विनिपातो न वः वच्चिद् दृश्यते त्रिदशाधिप ।
अहं तु पुत्र शोचामि तेन रोदिमि कौशिक ।। ९ ।।
सुरभिने कहा--देवेश्वर! आपलोगोंकी अवनति नहीं दिखायी देती। इन्द्र! मुझे तो
अपने पुत्रके लिये शोक हो रहा है, इसीसे रोती हूँ ।। ९ ।।
पश्यैनं कर्षकं क्षुद्रं दुर्बलं मम पुत्रकम् ।
प्रतोदेनाभिनिधघ्नन्तं लाड़्लेन च पीडितम् ॥। १० ।।
देखो, इस नीच किसानको जो मेरे दुर्बल बेटेको बार-बार कोड़ेसे पीट रहा है और वह
हलसे जुतकर अत्यन्त पीड़ित हो रहा है || १० ।।
निषीदमान सोत्कण्ठं वध्यमानं सुराधिप ।
कृपाविष्टास्मि देवेन्द्र मनश्लोद्विजते मम ।
एकस्तत्र बलोपेतो धुरमुद्ग॒हतेडधिकाम् ।। ११ ।।
अपरोअप्यबलप्राण: कृशो धमनिसंततः ।
कृच्छादुद्गहते भारं तं वै शोचामि वासव ।। १२ ।।
वध्यमान: प्रतोदेन तुद्यमान: पुन: पुनः ।
नैव शक्नोति तं भारमुद्वोढुं पश्य वासव ।। १३ ।।
सुरेश्वर! वह तो विश्रामके लिये उत्सुक होकर बैठ रहा है और वह किसान उसे डंडे
मारता है। देवेन्द्र! यह देखकर मुझे अपने बच्चेके प्रति बड़ी दया हो आयी है और मेरा मन
उद्विग्न हो उठा है। वहाँ दो बैलोंमेंसे एक तो बलवान है जो भारयुक्त जूएको खींच सकता
है; परंतु दूसरा निर्बल है, प्राणशून्य-सा जान पड़ता है। वह इतना दुबला-पतला हो गया है
कि उसके सारे शरीरमें फैली हुई नाड़ियाँ दीख रही हैं। वह बड़े कष्टसे उस भारयुक्त जूएको
खींच पाता हैं। वासव! मुझे उसीके लिये शोक हो रहा है। इन्द्र! देखो-देखो, चाबुकसे मार-
मारकर उसे बार-बार पीड़ा दी जा रही है, तो भी उस जूएके भारको वहन करनेमें वह
असमर्थ हो रहा है | ११--१३ ।।
ततो<हं तस्य शोकार्ता विरौमि भृशदुः:खिता ।
अश्रूण्यावर्तयन्ती च नेत्राभ्यां करुणायती ।। १४ ।।
यही देखकर मैं शोकसे पीड़ित हो अत्यन्त दु:खी हो गयी हूँ और करुणामग्न हो दोनों
नेत्रोंस आँसू बहाती हुई रो रही हूँ ।। १४ ।।
शक्र उवाच
तव पुत्रसहस््रेषु पीड्यमानेषु शो भने ।
कि कृपायितवत्यत्र पुत्र एकत्र हन्यति ।। १५ ।।
इन्द्रने कहा--कल्याणी! तुम्हारे तो सहस्रों पुत्र इसी प्रकार पीड़ित हो रहे हैं, फिर
तुमने एक ही पुत्रके मार खानेपर यहाँ इतनी करुणा क्यों दिखायी? ।। १५ ।।
युराभिरुवाच
यदि पुत्रसहस््राणि सर्वत्र समतैव मे ।
दीनस्यथ तु सतः शक्र पुत्रस्याभ्यधिका कृपा ।। १६ ।।
सुरभि बोली--देवेन्द्र! यदि मेरे सहस्ौरों पुत्र हैं, तो मैं उन सबके प्रति समानभाव ही
रखती हूँ; परंतु दीन-दुःखी पुत्रके प्रति अधिक दया उमड़ आती है ।। १६ ।।
व्यास उवाच
तदिन्द्र: सुरभीवाक्यं निशम्य भृशविस्मित: ।
जीवितेनापि कौरव्य मेने5भ्यधिकमात्मजम् ।। १७ ।।
व्यासजी कहते हैं--कुरुराज! सुरभिकी यह बात सुनकर इन्द्र बड़े विस्मित हो गये।
तबसे वे पुत्रको प्राणोंसे भी अधिक प्रिय मानने लगे ।। १७ ।।
प्रववर्ष च तत्रैव सहसा तोयमुल्बणम् ।
कर्षकस्याचरन् विधघ्नं भगवान् पाकशासन: ।। १८ ।।
उस समय वहाँ पाकशासन भगवान् इन्द्रने किसानके कार्यमें विध्न डालते हुए सहसा
भयंकर वर्षा की || १८ ।।
तद् यथा सुरकि: प्राह समवेतास्तु ते तथा ।
सुतेषु राजन् सर्वेषु हीनेष्वभ्यधिका कृपा ।। १९ ।।
इस प्रसंगमें सुरभिने जैसा कहा है, वह ठीक है, कौरव और पाण्डव सभी मिलकर
तुम्हारे ही पुत्र हैं। परंतु राजन! सब पुत्रोंमें जो हीन हों, दयनीय दशामें पड़े हों, उन्हींपर
अधिक कृपा होनी चाहिये ।। १९ ।।
यादृशो मे सुतः पाण्डुस्तादृशो मे5सि पुत्रक |
विदुरश्न महाप्राज्ञ: स्नेहादेतद् ब्रवीम्पहम् ।। २० ।।
वत्स! जैसे पाण्डु मेरे पुत्र हैं, वैसे ही तुम भी हो, उसी प्रकार महाज्ञानी विदुर भी हैं।
मैंने स्नेहवश ही तुमसे ये बातें कही हैं || २० ।।
चिराय तव पुत्राणां शतमेकश्न भारत ।
पाण्डो: पज्चैव लक्ष्यन्ते तेडपि मन्दा: सुदु:ःखिता: ।। २१ ।।
भारत! दीर्घकालसे तुम्हारे एक सौ एक पुत्र हैं, किंतु पाण्डुके पाँच ही पुत्र देखे जाते
हैं। वे भी भोले-भाले, छल-कपटसे रहित हैं और अत्यन्त दुःख उठा रहे हैं | २१ ।।
कथं जीवेयुरत्यन्तं कथं वर्धेयुरित्यपि ।
इति दीनेषु पार्थेषु मनो मे परितप्यते ।। २२ ।।
“वे कैसे जीवित रहेंगे और कैसे वृद्धिको प्राप्त होंगे?” इस प्रकार कुन्तीके उन दीन
पुत्रोंके प्रति सोचते हुए मेरे मनमें बड़ा संताप होता है || २२ ।।
यदि पार्थिव कौरव्याज्जीवमानानिहेच्छसि ।
दुर्योधनस्तव सुत: शमं गच्छतु पाण्डवै: ।। २३ ।।
राजन! यदि तुम चाहते हो कि समस्त कौरव यहाँ जीवित रहें तो तुम्हारा पुत्र दुर्योधन
पाण्डवोंसे मेल करके शान्तिपूर्वक रहे || २३ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि सुरभ्युपाख्याने नवमो5ध्याय: ।। ९ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अरण्यपर्वमें सुराभिे-उपाख्यानविषयक नवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥। ९ ॥
अऑडआ हर (0) है 7-2
दशमो< ध्याय:
व्यासजीका जाना, मैत्रेयजीका धृतराष्ट्र और दुर्योधनसे
पाण्डवोंके प्रति सद्भावका अनुरोध तथा दुर्योधनके अशिष्ट
व्यवहारसे रुष्ट होकर उसे शाप देना
धृतराष्ट उवाच
एवमेतन्महाप्राज्ञ यथा वदसि नो मुने ।
अहं चैव विजानामि सर्वे चेमे नराधिपा: ।। १ ।।
धृतराष्ट्र बोले--महाप्राज्ञ मुने! आप जैसा कहते हैं, यही ठीक है। मैं भी इसे ही ठीक
मानता हूँ तथा ये सब राजालोग भी इसीका अनुमोदन करते हैं ।। १ ।।
भवांश्ष मन्यते साधु यत् कुरूणां महोदयम् ।
तदेव विदुरो<प्याह भीष्मो द्रोणश्न मां मुने | २ ।।
मुने! आप भी वही उत्तम मानते हैं जो कुरुवंशके महान् अभ्युदयका कारण है। मुने!
यही बात विदुर, भीष्म और द्रोणाचार्यने भी मुझे कही है ।। २ ।।
यदि त्वहमनुग्राह्म: कौरव्येषु दया यदि ।
अन्वशाधि दुरात्मानं पुत्र दुर्योधनं मम ।। ३ ।।
यदि आपका मुझपर अनुग्रह है और यदि कौरव-कुलपर आपकी दया है तो आप मेरे
दुरात्मा पुत्र दुर्योधनको स्वयं ही शिक्षा दीजिये ।। ३ ।।
व्यास उवाच
अयमायाति वै राजन मैत्रेयो भगवानृषि: ।
अन्विष्य पाण्डवान् भ्रातृनिहैत्यस्मद्दिदृक्षया || ४ ।।
व्यासजीने कहा--राजन! ये महर्षि भगवान् मैत्रेय आ रहे हैं। पाँचों पाण्डवबन्धुओंसे
मिलकर अब ये हमलोगोंसे मिलनेके लिये यहाँ आते हैं ।। ४ ।।
एष दुर्योधन पुत्रं तव राजन् महानृषि: ।
अनुशास्ता यथान्यायं शमायास्य कुलस्य च ।। ५ ।।
महाराज! ये महर्षि ही इस कुलकी शान्तिके लिये तुम्हारे पुत्र दुर्योधनको यथायोग्य
शिक्षा देंगे ।। ५ ।।
ब्रूयाद् यदेष कौरव्य तत् कार्यमविशड्कया ।
अक्रियायां तु कार्यस्य पुत्र ते शप्स्यते रुषा ।। ६ ।।
कुरुनन्दन! मैत्रेय जो कुछ कहें, उसे निःशंक होकर करना चाहिये। यदि उनके बताये
हुए कार्यकी अवहेलना की गयी तो वे कुपित होकर तुम्हारे पुत्रको शाप दे देंगे ।। ६ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमुक््त्वा ययौ व्यासो मैत्रेय: प्रत्यदृश्यत ।
पूजया प्रतिजग्राह सपुत्रस्तं नराधिप: ।। ७ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! ऐसा कहकर व्यासजी चले गये और मैत्रेयजी
आते हुए दिखायी दिये। राजा धुृतराष्ट्रने पुत्रसहित उनकी अगवानी की और स्वागत-
सत्कारके साथ उन्हें अपनाया ।। ७ ।।
अध्यद्धाभि: क्रियाभिरवव विश्रान्तं मुनिसत्तमम् ।
प्रश्रयेणाब्रवीद् राजा धृतराष्ट्रोडम्बिकासुत: ।। ८ ।।
पाद्य, अर्घ्य आदि उपचारोंद्वारा पूजित हो जब मुनिश्रेष्ठ मैत्रेय विश्राम कर चुके, तब
अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्रने नम्रतापूर्वक पूछा-- || ८ ।।
सुखेनागमनं कच्चिद् भगवन् कुरुजाड्लान् ।
कच्चित् कुशलिनो वीरा भ्रातर: पञ्च पाण्डवा: ।। ९ |।
“भगवन्! इस कुरुदेशमें आपका आगमन सुख-पूर्वक तो हुआ है न? वीर भ्राता पाँचों
पाण्डव तो कुशलसे हैं न? ।। ९ ।।
समये स्थातुमिच्छन्ति कच्चिच्च भरतर्षभा: |
कच्चित् कुरूणां सौक्षात्रमव्युच्छिन्नं भविष्यति ।। १० ।।
“क्या वे भरतश्रेष्ठ पाण्डव अपनी प्रतिज्ञापर स्थिर रहना चाहते हैं? क्या कौरवोंमें उत्तम
भ्रातृभाव अखण्ड बना रहेगा?” ।। १० ।।
मैत्रेय उदाच
तीर्थयात्रामनुक्रामन् प्राप्तो5स्मि कुरुजाड्लान् ।
यदृच्छया धर्मराजं दृष्टवान् काम्यके वने ।। ११ ।।
मैत्रेयजीने कहा--राजन! मैं तीर्थयात्राके प्रसंगसे घूमता हुआ अकस्मात् कुरुजांगल
देशमें चला आया हूँ। काम्यकवनमें धर्मराज युधिष्ठिरसे भी मेरी भेंट हुई थी ।। ११ ।।
त॑ं जटाजिनसंवीतं तपोवननिवासिनम् ।
समाजममुर्महात्मान द्रष्ट मुनिगणा: प्रभो ।। १२ ।।
प्रभो! जटा और मृगचर्म धारण करके तपोवनमें निवास करनेवाले उन महात्मा
धर्मराजको देखनेके लिये वहाँ बहुत-से मुनि पधारे थे | १२ ।।
तत्राश्रीषं महाराज पुत्राणां तव विभ्रमम् |
अनयं द्यूतरूपेण महाभयमुपस्थितम् ।। १३ ।।
महाराज! वहीं मैंने सुना कि तुम्हारे पुत्रोंकी बुद्धि भ्रान्त हो गयी है। वे ह्यूतरूपी
अनीतिमें प्रवृत्त हो गये और इस प्रकार जूएके रूपमें उनके ऊपर बड़ा भारी भय उपस्थित
हो गया है ।। १३ ।।
ततोऊहं त्वामनुप्राप्त: कौरवाणामवेक्षया ।
सदा हभ्यधिकः: स्नेहः प्रीतिश्न त्वयि मे प्रभो ।। १४ ।।
यह सुनकर मैं कौरवोंकी दशा देखनेके लिये तुम्हारे पास आया हूँ। राजन! तुम्हारे
ऊपर सदासे ही मेरा स्नेह और प्रेम अधिक रहा है ।। १४ ।।
नैतदौपयिकं राजंस्त्वयि भीष्मे च जीवति ।
यदन्योन्येन ते पुत्रा विरुध्यन्ते कथंचन ।। १५ ।।
महाराज! तुम्हारे और भीष्मके जीते-जी यह उचित नहीं जान पड़ता कि तुम्हारे पुत्र
किसी प्रकार आपसमें विरोध करें ।। १५ ।।
मेढी भूत: स्वयं राजन निग्रहे प्रग्रहे भवान् ।
किमर्थमनयं घोरमुत्पद्यन्तमुपेक्षसे | १६ ।।
महाराज! तुम स्वयं इन सबको बाँधकर नियन्त्रणमें रखनेके लिये खंभेके समान हो;
फिर पैदा होते हुए इस घोर अन्यायकी क्यों उपेक्षा कर रहे हो || १६ ।।
दस्यूनामिव यद् वृत्तं सभायां कुरुनन्दन ।
तेन न भ्राजसे राजंस्तापसानां समागमे ।। १७ ।।
कुरुनन्दन! तुम्हारी सभामें डाकुओंकी भाँति जो बर्ताव किया गया है, उसके कारण
तुम तपस्वी मुनियोंके समुदायमें शोभा नहीं पा रहे हो || १७ ।।
वैशम्पायन उवाच
ततो व्यावृत्य राजानं दुर्योधनममर्षणम् ।
उवाच श्लक्षणया वाचा मैत्रेयो भगवानृषि: ॥। १८ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर महर्षि भगवान् मैत्रेय अमर्षशील राजा
दुर्योधनकी ओर मुड़कर उससे मधुर वाणीमें इस प्रकार बोले || १८ ।।
मैत्रेय उवाच
दुर्योधन महाबाहो निबोध वदतां वर |
वचन मे महाभाग ब्रुवतो यद्धितं तव ।। १९ ।।
मैत्रेयजीने कहा--महाबाहु दुर्योधन! तुम वक्ताओंमें श्रेष्ठ हो; मेरी एक बात सुनो।
महाभाग! मैं तुम्हारे हितकी बात बता रहा हूँ ।। १९ ।।
मा द्रुह: पाण्डवान् राजन् कुरुष्व प्रियमात्मन: ।
पाण्डवानां कुरूणां च लोकस्य च नरर्षभ ।। २० ।।
राजन! तुम पाण्डवोंसे द्रोह न करो। नरश्रेष्ठ] अपना, पाण्डवोंका, कुरुकुलका तथा
सम्पूर्ण जगत्का प्रिय साधन करो || २० ।।
ते हि सर्वे नरव्यात्रा: शूरा विक्रान्तयोधिन: ।
सर्वे नागायुतप्राणा वज्ञसंहनना दृढा: || २१ ।।
मनुष्योंमें श्रेष्ठ सब पाण्डव शूरवीर, पराक्रमी और युद्धकुशल हैं। उन सबमें दस हजार
हाथियोंका बल है। उनका शरीर वज्रके समान दृढ़ है || २१ ।।
सत्यव्रतधरा: सर्वे सर्वे पुरुषमानिन: ।
हन्तारो देवशत्रूणां रक्षमां कामरूपिणाम् ।। २२ ।।
हिडिम्बबकमुख्यानां किर्मीरस्य च रक्षस: ।
वे सब-के-सब सत्यव्रतधारी और अपने पौरुषपर अभिमान रखनेवाले हैं। इच्छानुसार
रूप धारण करनेवाले देवद्रोही हिडिम्ब आदि राक्षसोंका तथा राक्षसजातीय किर्मीरका वध
भी उन्होंने ही किया है || २२३ ।।
इतः प्रद्रवतां रात्रौ यः स तेषां महात्मनाम् ।। २३ ।।
आवृत्य मार्ग रौद्रात्मा तस्थौ गिरिरिवाचल: ।
त॑ भीम: समरश्लाघी बलेन बलिनां वर: | २४ ।।
जघान पशुमारेण व्याघ्र: क्षुद्रमूगं यथा ।
पश्य दिग्विजये राजन् यथा भीमेन पातितः ।। २५ ।।
जरासंधो महेष्वासो नागायुतबलो युधि ।
सम्बन्धी वासुदेवश्व श्याला: सर्वे च पार्षता: ।। २६ ।।
यहाँसे रातमें जब वे महात्मा पाण्डव चले जा रहे थे, उस समय उनका मार्ग रोककर
भयंकर और पर्वतके समान विशालकाय किर्मीर उनके सामने खड़ा हो गया। युद्धकी
श्लाघा रखनेवाले बलवानोंमें श्रेष्ठ भीमसेनने उस राक्षसको बलपूर्वक पकड़कर पशुकी तरह
वैसे ही मार डाला, जैसे व्याप्र छोटे मृगको मार डालता है। राजन्! देखो, दिग्विजयके समय
भीमसेनने उस महान धनुर्धर राजा जरासंधको भी युद्धमें मार गिराया, जिसमें दस हजार
हाथियोंका बल था। (यह भी स्मरण रखना चाहिये कि) वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण
उनके सम्बन्धी हैं तथा द्रपदके सभी पुत्र उनके साले हैं | २३--२६ ।।
कस्तान् युधि समासीत जरामरणवान् नर: ।
तस्य ते शम एवास्तु पाण्डवैर्भरतर्षभ ।। २७ ।।
जरा और मृत्युके वशमें रहनेवाला कौन मनुष्य युद्धमें उन पाण्डवोंका सामना कर
सकता है। भरतकुल-भूषण! ऐसे महापराक्रमी पाण्डवोंके साथ तुम्हें शान्तिपूर्वक मिलकर
ही रहना चाहिये || २७ ।।
कुरु मे वचन राजन् मा मन्युवशमन्वगा: ।
राजन! तुम मेरी बात मानो; क्रोधके वशमें न होओ ।। २७६ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवं तु ब्रुवतस्तस्य मैत्रेयस्य विशाम्पते ॥। २८ ।।
ऊरु गजकराकारं करेणाभिजघान स: |
दुर्योधन: स्मितं कृत्वा चरणेनोल्लिखन् महीम् ।। २९ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन! मैत्रेयजी जब इस प्रकार कह रहे थे, उस समय
दुर्योधनने मुसकराकर हाथीके सूँड़के समान अपनी जाँघको हाथसे ठोंका और पैरसे
पृथ्वीको कुरेदने लगा || २८-२९ ।।
न किंचिदुक्त्वा दुर्मेधास्तस्थी किंचिदवाड्मुख: ।
तमशुश्रूषमाणं तु विलिखन्तं वसुंधराम् ।। ३० ।।
दृष्टवा दुर्योधन राजन् मैत्रेयं कोप आविशतू ।
स कोपवशमापन्नो मैत्रेयो मुनिसत्तम: ।। ३१ ।।
उस दुर्बृद्धिने मैत्रेयजीको कुछ भी उत्तर न दिया। वह अपने मुँहको कुछ नीचा किये
चुपचाप खड़ा रहा। राजन! मैत्रेयजीने देखा, दुर्योधन सुनना नहीं चाहता, वह पैरोंसे
धरतीको कुरेद रहा है। यह देख उनके मनमें क्रोध जाग उठा। फिर तो वे मुनिश्रेष्ठ मैत्रेय
कोपके वशीभूत हो गये ।। ३०-३१ ।।
विधिना सम्प्रणुदित: शापायास्य मनो दे |
ततः स वार्युपस्पृश्य कोपसंरक्तलोचन: ।
मैत्रेयो धार्तराष्ट्र तमशपद् दुष्टचेतसम् ।। ३२ ।।
विधातासे प्रेरित होकर उन्होंने दुर्योधनको शाप देनेका विचार किया। तदनन्तर मैत्रेयने
क्रोधसे लाल आँखें करके जलका आचमन किया और उस दुष्ट चित्तवाले धृतराष्ट्रपुत्रको इस
प्रकार शाप दिया-- || ३२ ।।
यस्मात् त्वं मामनादृत्य नेमां वाचं चिकीर्षसि ।
तस्मादस्याभिमानस्य सद्यः: फलमवाप्लुहि ।। ३३ ।।
“दुर्योधन! तू मेरा अनादर करके मेरी बात मानना नहीं चाहता; अतः तू इस
अभिमानका तुरंत फल पा ले ।। ३३ ।।
4432 )
त्वदभिद्रोहसंयुक्तं युद्धमुत्पत्स्यते महत् ।
तत्र भीमो गदाघातैस्तवोरं भेत्स्यते बली ।। ३४ ।।
"तेरे द्रोहके कारण बड़ा भारी युद्ध छिड़ेगा, उसमें बलवान् भीमसेन अपनी गदाकी
चोटसे तेरी जाँघ तोड़ डालेंगे” || ३४ ।।
इत्येवमुक्ते वचने धृतराष्ट्रो महीपति: ।
प्रसादयामास मुनि नैतदेवं भवेदिति ।। ३५ ।।
उनके ऐसा कहनेपर महाराज धूृतराष्ट्रने मुनिको प्रसन्न किया और कहा--“भगवन्!
ऐसा न हो' ॥| ३५ ||
मैत्रेय उवाच
शमं यास्यति चेत् पुत्रस्तव राजन् यदा तदा ।
शापो न भविता तात विपरीते भविष्यति ।। ३६ ।।
मैत्रेयजीने कहा--राजन्! जब तुम्हारा पुत्र शान्ति धारण करेगा (पाण्डवोंसे वैर-
विरोध न करके मेल-मिलाप कर लेगा), तब यह शाप इसपर लागू न होगा। तात! यदि इसने
विपरीत बर्ताव किया तो यह शाप इसे अवश्य भोगना पड़ेगा ॥। ३६ ।।
वैशम्पायन उवाच
विलक्षयंस्तु राजेन्द्रो दुर्योधनपिता तदा ।
मैत्रेयं प्राह किर्मीर: कथं भीमेन पातित: ।। ३७ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! तब दुर्योधनके पिता महाराज धूृतराष्ट्रने
भीमसेनके बलका विशेष परिचय पानेके लिये मैत्रेयजीसे पूछा--“मुने! भीमने किर्मीरको
कैसे मारा?” ।। ३७ ||
मैत्रेय उवाच
नाहं वक्ष्यामि ते भूयो न ते शुश्रूषते सुत: ।
एष ते विदुर: सर्वमाख्यास्यति गते मयि ॥। ३८ ।।
मैत्रेयजीने कहा--राजन्! तुम्हारा पुत्र मेरी बात सुनना नहीं चाहता, अतः मैं तुमसे
इस समय फिर कुछ नहीं कहूँगा। ये विदुरजी मेरे चले जानेपर वह सारा प्रसंग तुम्हें
बतायेंगे || ३८ ।।
वैशम्पायन उवाच
इत्येवमुक्त्वा मैत्रेय: प्रातिष्तत यथा55गतम् ।
किर्मीरवधसंविग्नो बहिर्दुर्योधनो ययौ ।। ३९ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्! ऐसा कहकर मैत्रेयजी जैसे आये थे वैसे ही चले
गये। किर्मीरवधका समाचार सुनकर उद्विग्न हो दुर्योधन भी बाहर निकल गया ।। ३९ |।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्व॑णि मैत्रेयशापे दशमो<ध्याय: ।। १० |।
इस प्रकार श्रीमह्या भारत वनपवके अन्तर्गत अरण्यपर्वमें मैत्रेयशापविषयक दसवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥। १० ॥
#::2:7 #पड- (0) हि 2 7
(किर्मीरवधपर्व)
एकादशो< ध्याय:
भीमसेनके द्वारा किर्मीरके वधकी कथा
धृतराष्ट उवाच
किर्मीरस्य वध क्षत्त: श्रोतुमिच्छामि कथ्यताम् |
रक्षसा भीमसेनस्य कथमासीत् समागम: ।। १ ।।
धृतराष्ट्रने पूछा--विदुर! मैं किर्मीरवधका वृत्तान्त सुनना चाहता हूँ, कहो। उस
राक्षसके साथ भीमसेनकी मुठभेड़ कैसे हुई? ।। १ ।।
विदुर उवाच
शृणु भीमस्य कर्मेदमतिमानुषकर्मण: ।
श्रुतपूर्व मया तेषां कथान्तेषु पुन: पुन: ॥। २ ।।
विदुरजीने कहा--राजन! मानवशक्तिसे अतीत कर्म करनेवाले भीमसेनके इस
भयानक कर्मको आप सुनिये, जिसे मैंने उन पाण्डवोंके कथाप्रसंगमें (ब्राह्मणोंसे) बार-बार
सुना है ।। २ ।।
इत:ः प्रयाता राजेन्द्र पाण्डवा द्यूतनिर्जिता: ।
जम्मुस्त्रिभिरहोरात्रै: काम्यकं नाम तद् वनम् ॥। ३ ।।
राजेन्द्र! पाण्डव जूएमें पराजित होकर जब यहाँसे गये, तब तीन दिन और तीन रातमें
काम्यकवनमें जा पहुँचे ।। ३ ।।
रात्रौ निशी्थे त्वाभीले गते<र्धसमये नृप ।
प्रचारे पुरुषादानां रक्षसां घोरकर्मणाम् ।। ४ ।।
तद् वन॑ तापसा नित्यं गोपाश्न वनचारिण: ।
दूरात् परिहरन्ति सम पुरुषादभयात् किल ।। ५ ।।
आधी रातके भयंकर समयमें, जब कि भयानक कर्म करनेवाले नरभक्षी राक्षस विचरते
रहते हैं, तपस्वी मुनि और वनचारी गोपगण भी उस राक्षसके भयसे उस वनको दूरसे ही
त्याग देते थे ।। ४-५ ।।
तेषां प्रविशतां तत्र मार्गमावृत्य भारत ।
दीप्ताक्ष॑ भीषण रक्ष: सोल्मुकं प्रत्यपद्यत ।। ६ ।।
भारत! उस वनमें प्रवेश करते ही वह राक्षस उनका मार्ग रोककर खड़ा हो गया।
उसकी आँखें चमक रही थीं। वह भयानक राक्षस मशाल लिये आया था || ६ ।।
बाहू महान्तौ कृत्वा तु तथा55स्यं च भयानकम् |
स्थितमावृत्य पन्थानं येन यान्ति कुरूद्वहा: ।। ७ ।।
अपनी दोनों भुजाओंको बहुत बड़ी करके मुँहको भयानकरूपसे फैलाकर वह उसी
मार्गको घेरकर खड़ा हो गया, जिससे वे कुरुवंशशिरोमणि पाण्डव यात्रा कर रहे थे | ७ ।।
स्पष्टाष्टदंष्टं ताम्राक्ष॑ प्रदीप्तोर्ध्वशिरोरुहम् ।
सार्करश्मितडिच्चक्रं सबलाकमिवाम्बुदम् ।। ८ ।।
उसकी आठ दाढ़ें स्पष्ट दिखायी देती थीं, आँखें क्रोधसे लाल हो रही थीं एवं सिरके
बाल ऊपरकी ओर उठे हुए और प्रज्वलित-से जान पड़ते थे। उसे देखकर ऐसा मालूम होता
था, मानो सूर्यकी किरणों, विद्युन्मण्डल और बकपंक्तियोंके साथ मेघ शोभा पा रहा
हो ॥। ८ ।।
सृजन्तं राक्षसीं मायां महानादनिनादितम् ।
मुज्चन्तं विपुलान्ू नादान् सतोयमिव तोयदम् ।। ९ ।।
वह भयंकर गर्जनाके साथ राक्षसी मायाकी सृष्टि कर रहा था। सजल जलधरके समान
जोर-जोरसे सिंहनाद करता था ।। ९ |।
तस्य नादेन संत्रस्ता: पक्षिण: सर्वतोदिशम् |
विमुक्तनादा: सम्पेतु: स्थलजा जलजै: सह ।। १० ।।
उसकी गर्जनासे भयभीत हुए स्थलचर पक्षी जलचर पक्षियोंके साथ चीं-चीं करते हुए
सब दिशाओंमें भाग चले ।। १० ।।
सम्प्रद्रुतमृगद्वीपिमहिषर्क्षममाकुलम् ।
तद् वन॑ तस्य नादेन सम्प्रस्थितमिवाभवत् ।। ११ ।।
भागते हुए मृग, भेड़िये, भैंसे तथा रीछोंसे भरा हुआ वह वन उस राक्षसकी गर्जनासे
ऐसा हो गया, मानो वह वन ही भाग रहा हो ।। ११ ।।
तस्योरुवाताभिहतास्ताम्रपल्लवबाहव: ।
विदूरजाताश्न लता: समाश्लिष्यन्ति पादपान् ।। १२ ।।
उसकी जाँघोंकी हवाके वेगसे आहत हो ताम्रवर्णके पल्लवरूपी बाँहोंद्वारा सुशोभित
दूरकी लताएँ भी मानो वृक्षोंसे लिपटी जाती थीं ।। १२ ।।
तस्मिन् क्षणेडथ प्रववो मारुतो भूशदारुण: ।
रजसा संवृतं तेन नष्टज्योतिरभून्नरभ: ।। १३ ।।
इसी समय बड़ी प्रचण्ड वायु चलने लगी। उसकी उड़ायी हुई धूलसे आच्छादित हो
आकाशके तारे भी अस्त हो गये-से जान पड़ते थे || १३ ॥।
पज्चानां पाण्डुपुत्राणामविज्ञातो महारिपु: ।
पञ्चानामिन्द्रियाणां तु शोकावेश इवातुल: ।। १४ ।।
जैसे पाँचों इन्द्रियोंको अकस्मात् अतुलित शोकावेश प्राप्त हो जाय, उसी प्रकार पाँचों
पाण्डवोंका वह तुलनारहित महान् शत्रु सहसा उनके पास आ पहुँचा; पर पाण्डवोंको उस
राक्षसका पता नहीं था ।। १४ ।।
स दृष्टवा पाण्डवान् दूरात् कृष्णाजिनसमावृतान् |
आवृणोत् तद्वनद्वारं मैनाक इव पर्वतः ।। १५ ।।
उसने दूरसे ही पाण्डवोंको कृष्ण-मृगचर्म धारण किये आते देख मैनाक पर्वतकी भाँति
उस वनके प्रवेश-द्धारको घेर लिया ।। १५ ।।
त॑ समासाद्य वित्रस्ता कृष्णा कमललोचना ।
अदृष्टपूर्व संत्रासान्न्यमीलयत लोचने ।। १६ ।।
उस अदृष्टपूर्व राक्षषके निकट पहुँचकर कमल-लोचना कृष्णाने भयभीत हो अपने
दोनों नेत्र बंद कर लिये || १६ ।।
दुःशासनकरोत्सृष्टविप्रकीर्णशिरोरुहा ।
पज्चपर्वतमध्यस्था नदीवाकुलतां गता ।। १७ ।।
दुःशासनके हाथोंसे खुले हुए उसके केश सब ओर बिखरे हुए थे। वह पाँच पर्वतोंके
बीचमें पड़ी हुई नदीकी भाँति व्याकुल हो उठी ।। १७ ।।
मोमुहामानां तां तत्र जगृहुः पञ्च पाण्डवा: ।
इन्द्रियाणि प्रसक्तानि विषयेषु यथा रतिम् ।। १८ ।।
उसे मूर्छित होती हुई देख पाँचों पाण्डवोंने सहारा देकर उसी तरह थाम लिया, जैसे
विषयोंमें आसक्त हुई इन्द्रियाँ तत्सम्बन्धी अनुरक्तिको धारण किये रहती हैं ।। १८ ।।
अथ तां राक्षसीं मायामुत्थितां घोरदर्शनाम् ।
रक्षोघ्नैविविधैर्मन्त्रैधौम्य: सम्यक्प्रयोजितै: ।। १९ ।।
पश्यतां पाण्डुपुत्राणां नाशयामास वीर्यवान् ।
स नष्टमायो5तिबल: क्रोधविस्फारितेक्षण: ।। २० ।।
काममूर्तिधर: क्रूर: कालकल्पो व्यदृश्यत ।
तमुवाच ततो राजा दीर्घप्रज्ञो युधिष्ठिर: ।। २१ ।।
तदनन्तर वहाँ प्रकट हुई अत्यन्त भयानक राक्षसी मायाको देख शक्तिशाली धौम्य
मुनिने अच्छी तरह प्रयोगमें लाये हुए राक्षसविनाशक विविध मन्त्रोंद्वारा पाण्डवोंके देखते-
देखते उस मायाका नाश कर दिया। माया नष्ट होते ही वह अत्यन्त बलवान् एवं इच्छानुसार
रूप धारण करनेवाला क्रूर राक्षस क्रोधसे आँखें फाड़-फाड़कर देखता हुआ कालके समान
दिखायी देने लगा। उस समय परम बुद्धिमान् राजा युधिष्ठिरने उससे पूछा-- || १९--
२१ ||
को भवान् कस्य वा किं ते क्रियतां कार्यमुच्यताम् ।
प्रत्युवाचाथ तद् रक्षो धर्मराजं युधिष्ठिरम् । २२ ।।
“तुम कौन हो, किसके पुत्र हो अथवा तुम्हारा कौन-सा कार्य सम्पादन किया जाय? यह
सब बताओ।' तब उस राक्षसने धर्मराज युधिष्ठिरसे कहा-- || २२ ।।
अहं बकस्य वै भ्राता किर्मीर इति विश्रुत: ।
वने5स्मिन् काम्यके शून्ये निवसामि गतज्वर: | २३ ।।
“मैं बकका भाई हूँ, मेरा नाम किर्मीर है, इस निर्जन काम्यकवनमें निवास करता हूँ।
यहाँ मुझे किसी प्रकारकी चिन्ता नहीं है |। २३ ।।
युधि निर्जित्य पुरुषानाहारं नित्यमाचरन् |
के यूयमभिसम्प्राप्ता भक्ष्यभूता ममान्तिकम् ।
युधि निर्जित्य व: सर्वान् भक्षयिष्ये गतज्वर: ।। २४ ।।
“यहाँ आये हुए मनुष्योंको युद्धमें जीतकर सदा उन्हींको खाया करता हूँ। तुमलोग कौन
हो? जो स्वयं ही मेरा आहार बननेके लिये मेरे निकट आ गये? मैं तुम सबको युद्धमें परास्त
करके निश्चिन्त हो अपना आहार बनाऊँगा” ।। २४ ।।
वैशम्पायन उवाच
युधिष्ठिरस्तु तच्छुत्वा वचस्तस्य दुरात्मन: ।
आचचतक्षे ततः सर्व गोत्रनामादि भारत ॥। २५ ||
वैशम्पायनजी कहते हैं--भारत! उस दुरात्माकी बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिरने उसे
गोत्र एवं नाम आदि सब बातोंका परिचय दिया ।। २५ ।।
युधिछिर उवाच
पाण्डवो धर्मराजो<हं यदि ते श्रोत्रमागत: ।
सहितो भ्रातृभि: सर्वैर्भीमसेनार्जुनादिभि: ।। २६ ।।
ह्ृतराज्यो वने वासं वस्तुं कृतमतिस्ततः ।
वनमभ्यागतो घोरमिदं तव परिग्रहम् ।। २७ ।।
युधिष्ठिर बोले--मैं पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर हूँ। सम्भव है, मेरा नाम तुम्हारे कानोंमें भी पड़ा
हो। इस समय मेरा राज्य शत्रुओंने जूएमें हरण कर लिया है। अतः मैं भीमसेन, अर्जुन आदि
सब भाइयोंके साथ वनमें रहनेका निश्चय करके तुम्हारे निवासस्थान इस घोर काम्यकवनमें
आया हूँ || २६-२७ ।।
विदुर उवाच
किर्मीरिस्त्वब्रवीदेनं दिष्ट्या देवैरिदं मम ।
उपपादितमद्येह चिरकालान्मनोगतम् ।। २८ ।।
विदुरजी कहते हैं--राजन्! तब किर्मीरने युधिष्ठिससे कहा--'आज सौभाग्यवश
देवताओं ने यहाँ मेरे बहुत दिनोंके मनोरथकी पूर्ति कर दी ।। २८ ।।
भीमसेनवधार्थ हि नित्यमभ्युद्यतायुध: ।
चरामि पृथिवीं कृत्स्नां नैनं चासादयाम्यहम् ।। २९ ।।
“मैं प्रतिदिन हथियार उठाये भीमसेनका वध करनेके लिये सारी पृथ्वीपर विचरता था;
किंतु यह मुझे मिल नहीं रहा था ।। २९ ।।
सो<5यमासादितो दिष्ट्या भ्रातृहा काड्क्षितश्चिरम् ।
अनेन हि मम भ्राता बको विनिहत: प्रिय: ।॥॥ ३० ।।
वैत्रकीयवने राजन ब्राह्मणच्छह्मरूपिणा ।
विद्याबलमुपश्रित्य न हुस्त्यस्यौरसं बलम् ।। ३१ ।।
“आज सौभाग्यवश यह स्वयं मेरे यहाँ आ पहुँचा। भीम मेरे भाईका हत्यारा है, मैं बहुत
दिनोंसे इसकी खोजमें था। राजन्! इसने (एकचक्रा नगरीके पास) वैत्रकीयवनमें ब्राह्मणका
कपटवेष धारण करके वेदोक्त मन्त्ररूप विद्याबलका आश्रय ले मेरे प्यारे भाई बकासुरका
वध किया था; वह इसका अपना बल नहीं था | ३०-३१ ।।
हिडिम्बश्न सखा महां दयितो वनगोचर: ।
हतो दुरात्मनानेन स्वसा चास्य हृता पुरा ।। ३२ ।।
“इसी प्रकार वनमें रहनेवाले मेरे प्रिय मित्र हिडिम्बको भी इस दुरात्माने मार डाला और
उसकी बहिनका अपहरण कर लिया। ये सब बहुत पहलेकी बातें हैं || ३२ ।।
सो<5यमभ्यागतो मूढो ममेदं गहनं वनम् ।
प्रचारसमये<5स्माकमर्धरात्रे स्थिते स मे ।। ३३ ।।
“वही यह मूढ़ भीमसेन हमलोगोंके घूमने-फिरनेकी बेलामें आधी रातके समय मेरे इस
गहन वनमें आ गया है ।। ३३ ।।
अद्यास्य यातयिष्यामि तद् वैरं चिरसम्भृतम् ।
तर्पयिष्यामि च बकं रुधिरेणास्य भूरिणा ।। ३४ ।।
“आज इससे मैं उस पुराने वैरका बदला लूँगा और इसके प्रचुर रक्तसे बकासुरका तर्पण
करूँगा ।। ३४ ।।
अद्याहमनृणो भूत्वा भ्रातु: सख्युस्तथैव च ।
शान्तिं लब्धास्मि परमां हत्वा राक्षषकण्टकम् ॥। ३५ ।।
“आज मैं राक्षसोंके लिये कण्टकरूप इस भीमसेनको मारकर अपने भाई तथा मित्रके
ऋणसे उऋण हो परम शान्ति प्राप्त करूँगा ।। ३५ ।।
यदि तेन पुरा मुक्तो भीमसेनो बकेन वै ।
अद्यैनं भक्षयिष्यामि पश्यतस्ते युधिछ्िर ।। ३६ ।।
'युधिष्ठिर! यदि पहले बकासुरने भीमसेनको छोड़ दिया, तो आज मैं तुम्हारे देखते-
देखते इसे खा जाऊँगा ।। ३६ ।।
एनं हि विपुलप्राणमद्य हत्वा वृकोदरम् ।
सम्भक्ष्य जरयिष्यामि यथागस्त्यो महासुरम् ।। ३७ ।।
'जैसे महर्षि अगस्त्यने वातापि नामक महान् राक्षसको खाकर पचा लिया, उसी प्रकार
मैं भी इस महाबली भीमको मारकर खा जाऊँगा और पचा लूँगा' || ३७ ।।
एवमुक्तस्तु धर्मात्मा सत्यसंधो युधिष्ठिर: ।
नैतदस्तीति सक्रोधो भर्त्सयामास राक्षसम् ।। ३८ ।।
उसके ऐसा कहनेपर धर्मात्मा एवं सत्यप्रतिज्ञ युधिष्ठिरने कुपित हो उस राक्षसको
फटकारते हुए कहा--'ऐसा कभी नहीं हो सकता” || ३८ ।।
ततो भीमो महाबाहुरारुज्य तरसा द्रुमम् ।
दशव्याममथोद्विद्धं निष्पत्रमकरोत् तदा ।। ३९ |।
तदनन्तर महाबाहु भीमसेनने बड़े वेगसे हिलाकर एक दस व्याम- लम्बे वृक्षको उखाड़
लिया और उसके पत्ते झाड़ दिये || ३९ ।।
चकार सज्यं गाण्डीवं वज्ननिष्पेषगौरवम् |
निमेषान्तरमात्रेण तथैव विजयोडर्जुन: ।। ४० ।।
इधर विजयी अर्जुनने भी पलक मारते-मारते अपने उस गाण्डीव धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ा
दी, जिसे वज़को भी पीस डालनेका गौरव प्राप्त था || ४० ।।
निवार्य भीमो जिष्णुं तं॑ तद् रक्षो मेघनि:स्वनम् |
अभिद्र॒त्याब्रवीद् वाक््यं तिष्ठ तिछठेति भारत ।। ४१ ।।
भारत! भीमसेनने अर्जुनको रोक दिया और मेघके समान गर्जना करनेवाले उस
राक्षसपर आक्रमण करते हुए कहा--“अरे! खड़ा रह, खड़ा रह” ।। ४१ ।।
इत्युक्त्वैनमतिक्रुद्धः कक्ष्यामुत्पीड्य पाण्डव: ।
निष्पिष्य पाणिना पार्णिं संदष्टौष्पपुटो बली ।। ४२ ।।
तमभ्यधावद् वेगेन भीमो वृक्षायुधस्तदा ।
यमदण्डप्रतीकाशं ततस्तं तस्य मूर्थनि ॥। ४३ ।।
पातयामास वेगेन कुलिशं मघवानिव ।
असमभ्रान्तं तु तद् रक्ष: समरे प्रत्यदृश्यत ।। ४४ ।।
ऐसा कहकर अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए बलवान् पाण्डुनन्दन भीमने वस्त्रसे अच्छी तरह
अपनी कमर कस ली और हाथ-से-हाथ रगड़कर दाँतोंसे ओंठ चबाते हुए वृक्षको ही आयुध
बनाकर बड़े वेगसे उसकी तरफ दौड़े और जैसे इन्द्र वज्जका प्रहार करते हैं, उसी प्रकार
यमदण्डके समान उस भयंकर वृक्षको राक्षसके मस्तकपर उन्होंने बड़े जोरसे दे मारा। तो
भी वह निशाचर युद्धमें अविचलभावसे खड़ा दिखायी दिया || ४२--४४ ।।
चिक्षेप चोल्मुकं दीप्तमशनिं ज्वलितामिव ।
तदुदस्तमलातं तु भीम: प्रहरतां वर: ।। ४५ ।।
पदा सव्येन चिक्षेप तद् रक्ष: पुनराव्रजत्
किर्मीरश्वापि सहसा वृक्षमुत्पाट्य पाण्डवम् ।। ४६ ।।
दण्डपाणिरिव क्ुद्ध: समरे प्रत्यधावत ।
तद् वृक्षयुद्धमभवन्महीरुहविनाशनम् ।। ४७ ।।
वालिसुग्रीवयो भ्रंत्रोर्यथा स्त्रीकाड्क्षिणो: पुरा ।
तत्पश्चात् उसने भी प्रज्वलित वज़्के समान जलता हुआ काठ भीमके ऊपर फेंका,
परंतु योद्धाओंमें श्रेष्ठ भीमने उस जलते काठको अपने बाँयें पैरसे मारकर इस तरह फेंका
कि वह पुनः उस राक्षसपर ही जा गिरा। फिर तो किर्मीरने भी सहसा एक वृक्ष उखाड़ लिया
और क्रोधमें भरे हुए दण्डपाणि यमराजकी भाँति उस युद्धमें पाण्डुकुमार भीमपर आक्रमण
किया। जैसे पूर्वकालमें स्त्रीकी अभिलाषा रखनेवाले वाली और सुग्रीव दोनों भाइयोंमें भारी
युद्ध हुआ था, उसी प्रकार उन दोनोंका वह वृक्षयुद्ध वनके वृक्षोंका विनाशक था ।। ४५--
४७३ ||
शीर्षयो: पतिता वृक्षा बिभिदुर्नैकधा तयो: ।। ४८ ।।
यथैवौत्पलपत्राणि मत्तयोर्द्धिपयोस्तथा ।
जैसे दो मतवाले गजराजोंके मस्तकपर पड़े हुए कमलपत्र क्षणभरमें छिन्न-भिन्न होकर
बिखर जाते हैं, वैसे ही उन दोनोंके मस्तकपर पड़े हुए वृक्षोंके अनेक टुकड़े हो जाते
थे।। ४८३ ||
मुज्जवज्जर्जरीभूता बहवस्तत्र पादपा: || ४९ ।।
चीराणीव व्युदस्तानि रेजुस्तत्र महावने ।
तद् वृक्षयुद्धम भवन्मुहूर्त भरतर्षभ ।
राक्षसानां च मुख्यस्य नराणामुत्तमस्य च ।। ५० ||
वहाँ उस महान् वनमें बहुत-से वृक्ष मूँजकी भाँति जर्जर हो गये थे। वे फटे चीथड़ोंकी
तरह इधर-उधर फैले हुए सुशोभित होते थे। भरतश्रेष्ठ! राक्षसराज किर्मीर और मनुष्योंमें
श्रेष्ठ भीमसेनका वह वृक्षयुद्ध दो घड़ीतक चलता रहा ।। ४९-५० ।।
ततः शिलां समुत्क्षिप्प भीमस्य युधि तिष्ठत: ।
प्राहिणोद् राक्षस: क्रुद्धो भीमश्ष न चचाल ह ।। ५१ ।।
तदनन्तर राक्षसने कुपित हो एक पत्थरकी चट्टान लेकर युद्धमें खड़े हुए भीमसेनपर
चलायी। भीम उसके प्रहारसे जडवत् हो गये ।। ५१ ।।
तं शिलाताडनजडं पर्यधावत राक्षस: ।
बाहुविक्षिप्तकिरण: स्वर्भानुरिव भास्करम् ।। ५२ ।।
वे शिलाके आघातसे जडवत् हो रहे थे। उस अवस्थामें वह राक्षस भीमसेनकी ओर
उसी तरह दौड़ा जैसे राहु अपनी भुजाओंसे सूर्यकी किरणोंका निवारण करते हुए उनपर
आक्रमण करता है ।। ५२ ।।
तावन्योन्यं समा श्लिष्य प्रकर्षन्तौ परस्परम् |
उभावपि चकाशे ते प्रवृद्धौ वृषभाविव ।। ५३ ।।
वे दोनों वीर परस्पर भिड़ गये और दोनों दोनोंको खींचने लगे। दो हृष्ट-पुष्ट साँड़ोंकी
भाँति परस्पर भिड़े हुए उन दोनों योद्धाओंकी बड़ी शोभा हो रही थी || ५३ ।।
तयोरासीत् सुतुमुल: सम्प्रहार: सुदारुण: ।
नखदंष्टायुधवतोर्व्याच्रयोरिव दृप्तयो: ।। ५४ ।।
नख और दाढ़ोंसे ही आयुधका काम लेनेवाले दो उन्मत्त व्याप्रोंकी भाँति उन दोनोंमें
अत्यन्त भयंकर एवं घमासान युद्ध छिड़ा हुआ था ।। ५४ ।।
दुर्योधननिकाराच्च बाहुवीर्याच्च दर्पित: ।
कृष्णानयनदृष्टश्न व्यवर्धत वृकोदर: ।। ५५ ||
दुर्योधनके द्वारा प्राप्त हुए तिरस्कारसे तथा अपने बाहुबलसे भीमसेनका शौर्य एवं
अभिमान जाग उठा था। इधर द्रौपदी भी प्रेमपूर्ण दृष्टिसि उनकी ओर देख रही थी; अतः वे
उस युद्धमें उत्तरोत्तर उत्साहित हो रहे थे || ५५ ।।
अभिपद्य च बाहुभ्यां प्रत्यगृह्नादमर्षित: ।
मातड़मिव मातड़ः प्रभिन्नकरटामुखम् ।। ५६ ।।
उन्होंने अमर्षमें भरकर सहसा आक्रमण करके दोनों भुजाओंसे उस राक्षसको उसी
तरह पकड़ लिया, जैसे मतवाला गजराज गण्डस्थलसे मदकी धारा बहानेवाले दूसरे हाथीसे
भिड़ जाता है ।। ५६ |।
स चाप्येनं ततो रक्ष: प्रतिजग्राह वीर्यवान् ।
तमाक्षिपद् भीमसेनो बलेन बलिनां वर: ।। ५७ ||
उस बलवान राक्षसने भी भीमसेनको दोनों भुजाओंसे पकड़ लिया; तब बलवानोंमें
श्रेष्ठ भीमसेनने उसे बलपूर्वक दूर फेंक दिया ।। ५७ ।।
तयोर्भुजविनिष्पेषादुभयोबलिनोस्तदा ।
शब्द: समभवद् घोरो वेणुस्फोटसमो युधि ।॥। ५८ ।।
अथैनमाक्षिप्य बलाद् गृह मध्ये वृकोदर: ।
धूनयामास वेगेन वायुश्नण्ड इव द्रुमम् ।। ५९ ।।
युद्धमें उन दोनों बलवानोंकी भुजाओंकी रगड़से बाँसके फटनेके समान भयंकर शब्द
हो रहा था। जैसे प्रचण्ड वायु अपने वेगसे वृक्षको झकझोर देती है, उसी प्रकार भीमसेनने
बलपूर्वक उछलकर उसकी कमर पकड़ ली और उस राक्षसको बड़े वेगसे घुमाना आरम्भ
किया ।। ५८-५९ ||
स भीमेन परामृष्टो दुर्बलो बलिना रणे |
व्यस्पन्दत यथाप्राणं विचकर्ष च पाण्डवम् ।। ६० ।।
बलवान् भीमकी पकड़में आकर वह दुर्बल राक्षस अपनी शक्तिके अनुसार उनसे
छूटनेकी चेष्टा करने लगा। उसने भी पाण्डुनन्दन भीमसेनको इधर-उधर खींचा ।। ६० ।।
तत एनं परिश्रान्तमुपलक्ष्य वृकोदर: ।
योक््त्रयामास बाहुभ्यां पशुं रशनया यथा ।। ६३ ।।
तदनन्तर उसे थका हुआ देख भीमसेनने अपनी दोनों भुजाओंसे उसे उसी तरह कस
लिया, जैसे पशुको डोरीसे बाँध देते हैं || ६१ ।।
विनदन्तं महानादं भिन्नभेरीस्वनं बली ।
भ्रामयामास सुचिरं विस्फुरन्तमचेतसम् ।। ६२ ।।
राक्षस किर्मीर फूटे हुए नगारेकी-सी आवाजमें बड़े जोर-जोरसे चीत्कार करने और
छटपटाने लगा। बलवान भीम उसे देरतक घुमाते रहे, इससे वह मूर्छित हो गया ।। ६२ ।।
त॑ विषीदन्तमाज्ञाय राक्षसं पाण्डुनन्दन: ।
प्रगृह् तरसा दोर्भ्या पशुमारममारयत् ।। ६३ ।।
उस राक्षसको विषादमें डूबा हुआ जान पाण्डुनन्दन भीमने दोनों भुजाओंसे वेगपूर्वक
दबाते हुए पशुकी तरह उसे मारना आरम्भ किया ।। ६३ ।।
आक्रम्य च कटीदेशे जानुना राक्षसाधमम् |
पीडयामास पाणिभ्यां कण्ठं तस्थ वृकोदर: ।। ६४ ।।
भीमने उस राक्षसके कटिप्रदेशको अपने घुटनेसे दबाकर दोनों हाथोंसे उसका गला
मरोड़ दिया ।। ६४ ।।
अथ जर्जरसर्वाड्गं व्यावृत्तनयनोल्बणम् |
भूतले भ्रामयामास वाक्यं चेदमुवाच ह ।। ६५ ।।
किर्मीरका सारा अंग जर्जर हो गया और उसकी आँखें घूमने लगीं, इससे वह और भी
भयंकर प्रतीत होता था। भीमने उसी अवस्थामें उसे पृथ्वीपर घुमाया और यह बात कही
-- || ६५ ||
हिडिम्बबकयो: पाप न त्वमश्रुप्रमार्जनम् ।
करिष्यसि गतश्लापि यमस्य सदन प्रति | ६६ ।।
'“ओ पापी! अब तू यमलोकमें जाकर भी हिडिम्ब और बकासुरके आँसू न पोंछ
सकेगा” ।। ६६ ।।
इत्येवमुक्त्वा पुरुषप्रवीर-
स्तं राक्षसं क्रोधपरीतचेता: ।
विस्नस्तवस्त्राभरणं स्फुरन्त-
मुद्भ्रान्तचित्तं व्यसुमुत्ससर्ज ।। ६७ ।।
ऐसा कहकर क्रोधसे भरे हृदयवाले नरवीर भीमने उस राक्षसको, जिसके वस्त्र और
आभूषण खिसककर इधर-उधर गिर गये थे और चित्त भ्रान्त हो रहा था, प्राण निकल
जानेपर छोड़ दिया ।। ६७ ।।
तस्मिन् हते तोयदतुल्यरूपे
कृष्णां पुरस्कृत्य नरेन्द्रपुत्रा: ।
भीम॑ प्रशस्थाथ गुणैरनेकै-
हशस्ततो द्वैतवनाय जग्मु: ।। ६८ ।।
उस राक्षसका रूप-रंग मेघके समान काला था। उसके मारे जानेपर राजकुमार पाण्डव
बड़े प्रसन्न हुए और भीमसेनके अनेक गुणोंकी प्रशंसा करते हुए द्रौपदीको आगे करके
वहाँसे द्वैतववनकी ओर चल दिये ।। ६८ ।।
विदुर उवाच
एवं विनिहत: संख्ये किर्मीरो मनुजाधिप ।
भीमेन वचनात् तस्य धर्मराजस्य कौरव ।। ६९ ।।
विदुरजी कहते हैं--नरेश्वर! इस प्रकार धर्मराज युधिष्ठिरकी आज्ञासे भीमसेनने
किर्मीरको युद्धमें मार गिराया ।। ६९ |।
ततो निष्कण्टकं कृत्वा वनं तदपराजित: ।
द्रौपद्या सह धर्मज्ञो वसतिं तामुवास ह ।। ७० |।
तदनन्तर विजयी एवं धर्मज्ञ पाण्डुकुमार उस वनको निष्कण्टक (राक्षसरहित) बनाकर
द्रौपदीके साथ वहाँ रहने लगे || ७० ।।
समाश्चास्य च ते सर्वे द्रौपद्रीं भरतर्षभा: ।
प्रहृष्टमनस: प्रीत्या प्रशशंसुर्व॑कोदरम् ।। ७१ ।।
भरतकुलके भूषणरूप उन सभी वीरोंने द्रौधदीको आश्वासन देकर प्रसन्नचित्त हो
प्रेमपूर्वक भीमसेनकी सराहना की || ७१ ।।
भीमबाहुबलोप्पिष्टे विनष्टे राक्षसे ततः ।
विविशुस्ते वन॑ वीरा: क्षेमं निहतकण्टकम् ।। ७२ ।।
भीमसेनके बाहुबलसे पिसकर जब वह राक्षस नष्ट हो गया, तब उस अकण्टक एवं
कल्याणमय वनमें उन सभी वीरोंने प्रवेश किया || ७२ ।।
स मया गच्छता मार्गे विनिकीर्णो भयावह: ।
वने महति दुष्टात्मा दृष्टो भीमबलाद्धत: ।। ७३ ।।
मैंने महान् वनमें जाते और आते समय रास्तेमें मरकर गिरे हुए उस भयानक एवं
दुष्टात्मा राक्षषके शवको अपनी आँखों देखा था, जो भीमसेनके बलसे मारा गया
था ।। ७३ ||
तत्राऔ्षमहं चैतत् कर्म भीमस्य भारत ।
ब्राह्मणानां कथयतां ये तत्रासन् समागता: ।। ७४ ।।
भारत! मैंने वनमें उन ब्राह्मणोंके मुखसे, जो वहाँ आये हुए थे, भीमसेनके इस महान्
कर्मका वर्णन सुना ।। ७४ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवं विनिहतं संख्ये किर्मीरें रक्षसां वरम् ।
श्रुत्वा ध्यानपरो राजा निशश्चासार्तवत् तदा | ७५ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! इस प्रकार राक्षसप्रवर किर्मीरिका युद्धमें मारा
जाना सुनकर राजा धृतराष्ट्र किसी भारी चिन्तामें डूब गये और शोकातुर मनुष्यकी भाँति
लंबी साँस खींचने लगे ।। ७५ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि किर्मीरवधपर्वणि विदुरवाक्ये एकादशो<5ध्याय: ।। १३
||
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत किर्मीरवधपर्वमें विदुरवाक्यसम्बन्धी ग्यारहवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥। ११ ॥
हि आह न (0) है 7 7
- दोनों भुजाओंको दोनों ओर फैलानेपर एक हाथकी अँगुलियोंके सिरेसे दूसरे हाथकी अँगुलियोंके सिरेतक जितनी
दूरी होती है, उसे “व्याम” कहते हैं। यही पुरुषप्रमाण है। इसकी लम्बाई लगभग ३ ह हाथकी होती है।
(अर्जुनाभिगमनपर्व)
द्वादशो<5 ध्याय:
अर्जुन और द्रौपदीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति,
ट्रोपदीका भगवान् श्रीकृष्णसे अपने प्रति किये गये अपमान
और दुःखका वर्णन और भगवान् श्रीकृष्ण, अर्जुन एवं
धृष्टद्युम्नका उसे आश्वासन देना
वैशम्पायन उवाच
भोजा: प्रव्रजिताउदूुत्वा वृष्णयश्चान्धकै: सह ।
पाण्डवान् दुःखसंतप्तान् समाजम्मुर्महावने ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! जब भोज, वृष्णि और अन्धकवंशके वीरोंने
सुना कि पाण्डव अत्यन्त दुःखसे संतप्त हो राजधानीसे निकलकर चले गये, तब वे उनसे
मिलनेके लिये महान् वनमें गये ।। १ ।।
पाञज्चालस्य च दायादो धृष्टकेतुश्न चेदिप: ।
केकयाश्व महावीर्या भ्रातरो लोकविश्रुता: ।। २ ।॥।
बने द्रष्टं ययु: पार्थान् क्रोधामर्षसमन्विता: ।
गर्हयन्तो धार्तराष्ट्रानू कि कुर्म इति चाब्रुवन् ।। ३ ।।
पांचालराजकुमार धृष्टद्युम्न, चेदिराज धृष्टकेतु तथा महापराक्रमी लोकविख्यात
केकयराजकुमार सभी भाई क्रोध और अमर्षमें भरकर धृतराष्ट्रपुत्रोंकी निन्दा करते हुए
कुन्तीकुमारोंसे मिलनेके लिये वनमें गये और आपसमें इस प्रकार कहने लगे, “हमें क्या
करना चाहिये” ।। २-३ ।।
वासुदेवं पुरस्कृत्य सर्वे ते क्षत्रियर्षभा: ।
परिवार्योपविविशुर्धर्मराजं युधिष्ठिरम् ।
अभिवाद्य कुरुश्रेष्ठ विषण्ण: केशवो<ब्रवीत् ।। ४ ।।
भगवान् श्रीकृष्णको आगे करके वे सभी क्षत्रियशिरोमणि धर्मराज युधिष्ठिरको चारों
ओरसे घेरकर बैठे। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण विषादग्रस्त हो कुरुप्रवर युधिष्ठिरको
नमस्कार करके इस प्रकार बोले ।। ४ ।।
वायुदेव उवाच
दुर्योधनस्य कर्णस्य शकुनेश्न दुरात्मन: ।
दुःशासनचतुर्थानां भूमि: पास्यति शोणितम् ॥। ५ ।।
श्रीकृष्णने कहा--राजाओ! जान पड़ता है, यह पृथ्वी दुर्योधन, कर्ण, दुरात्मा शकुनि
और चौथे दुःशासन--इन सबके रक्तका पान करेगी ।। ५ ।।
एतान् निहत्य समरे ये च तस्य पदानुगा: ।
तांश्व सर्वान् विनिर्जित्य सहितान् सनराधिपान् ।। ६ ।।
ततः सर्वेडभिषिज्चामो धर्मराजं युधिष्ठिरम् ।
निकृत्योपचरन् वध्य एष धर्म: सनातन: ।। ७ ।।
युद्धमें इनको और इनके सब सेवकोंको अन्य राजाओंसहित परास्त करके हम सब
लोग धर्मराज युधिष्ठिरको पुनः चक्रवर्ती नरेशके पदपर अभिषिक्त करें। जो दूसरेके साथ
छल-कपट अथवा धोखा करके सुख भोग रहा हो उसे मार डालना चाहिये, यह सनातन
धर्म है ।। ६-७ ।।
वैशग्पायन उवाच
पार्थानामभिषड्लेण तथा क्रुद्धं जनार्दनम् ।
अर्जुन: शमयामास दिथक्षन्तमिव प्रजा: ।। ८ ।।
संक्रुद्धं केशवं दृष्टवा पूर्वदेहेषु फाल्गुन: ।
कीर्तयामास कर्माणि सत्यकीर्तेर्महात्मन: ।। ९ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! कुन्तीपुत्रोंके अपमानसे भगवान् श्रीकृष्ण ऐसे
कुपित हो उठे, मानो वे समस्त प्रजाको जलाकर भस्म कर देंगे। उन्हें इस प्रकार क्रोध करते
देख अर्जुनने उन्हें शान्त किया और उन सत्यकीर्ति महात्माद्वारा पूर्व शरीरोंमें किये हुए
कर्मोका कीर्तन आरम्भ किया ।। ८-९ |।
पुरुषस्याप्रमेयस्य सत्यस्थामिततेजस: ।
प्रजापतिपतेरविष्णोलॉकनाथस्य धीमत: ।। १० ।।
भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्यामी, अप्रमेय, सत्यस्वरूप, अमिततेजस्वी, प्रजापतियोंके भी
पति, सम्पूर्ण लोकोंके रक्षक तथा परम बुद्धिमान श्रीविष्णु ही हैं (अर्जुनने उनकी इस प्रकार
स्तुति की) ।। १० ।।
अजुन उवाच
दश वर्षसहस्राणि यत्रसायंगृहो मुनि: ।
व्यचरस्त्वं पुरा कृष्ण पर्वते गन्धमादने ।। ११ ।।
अर्जुन बोले--श्रीकृष्ण! पूर्वकालमें गन्धमादन पर्वतपर आपने यत्रसायंगृह- मुनिके
रूपमें दस हजार वर्षोतक विचरण किया है; अर्थात् नारायण ऋषिके रूपमें निवास किया
है ।। ११ |।
दश वर्षसहस्त्राणि दश वर्षशतानि च ।
पुष्करेष्ववस: कृष्ण त्वमपो भक्षयन् पुरा ।। १२ ।।
सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! पूर्वकालमें कभी इस धराधाममें अवतीर्ण हो आपने
ग्यारह हजार वर्षो-तक केवल जल पीकर रहते हुए पुष्करतीर्थमें निवास किया है || १२ ।।
ऊर्ध्वबाहुर्विशालायां बदर्या मधुसूदन ।
अतिष्ठ एकपादेन वायुभक्ष: शतं समा: ।। १३ ।।
मधुसूदन! आप विशालापुरीके बदरिकाश्रममें दोनों भुजाएँ ऊपर उठाये केवल वायुका
आहार करते हुए सौ वर्षोतक एक पैरसे खड़े रहे हैं || १३ ।।
अवकृष्टोत्तरासड्र: कृशो धमनिसंततः ।
आसी: कृष्ण सरस्वत्यां सत्रे द्वादशवार्षिके ।। १४ ।।
कृष्ण! आप सरस्वती नदीके तटपर उत्तरीय वस्त्रतकका त्याग करके द्वादशवार्षिक
यज्ञ करते समयतक शरीरसे अत्यन्त दुर्बल हो गये थे। आपके सारे शरीरमें फैली हुई नस-
नाड़ियाँ स्पष्ट दिखायी देती थीं ।। १४ ।।
प्रभासमप्यथासाद्य तीर्थ पुण्यजनोचितम् ।
तथा कृष्ण महातेजा दिव्यं वर्षमहस्रकम् ।। १५ ।।
अतिष्ठस्त्वमथैकेन पादेन नियमस्थित: ।
लोवप्रवृत्तिहेतुस्त्वमिति व्यासो ममाब्रवीत् ।। १६ ।।
गोविन्द! आप पुण्यात्मा पुरुषोंके निवासयोग्य प्रभासतीर्थमें जाकर लोगोंको तपमें
प्रवृत्त करनेके लिये शौच-संतोषादि नियमोंमें स्थित हो महातेजस्वी स्वरूपसे एक सहस्र
दिव्य वर्षोतक एक ही पैरसे खड़े रहे। ये सब बातें मुझसे श्रीव्यासजीने बतायी
हैं ।। १५-१६ ।।
क्षेत्रज्ञ: सर्वभूतानामादिरन्तश्न केशव ।
निधानं तपसां कृष्ण यज्ञस्त्वं च सनातन: ।। १७ ।।
केशव! आप क्षेत्रज्ञ (सबके आत्मा), सम्पूर्ण भूतोंक आदि और अन्त, तपस्याके
अधिष्ठान, यज्ञ और सनातन पुरुष हैं ।। १७ ।।
निहत्य नरकं॑ भौममाहृत्य मणिकुण्डले ।
प्रथमोत्पतितं कृष्ण मेध्यमश्वमवासृज: ।। १८ ।।
आप भूमिपुत्र नरकासुरको मारकर अदितिके दोनों मणिमय कुण्डलोंको ले आये थे;
एवं आपने ही सृष्टिके आदिमें उत्पन्न होनेवाले यज्ञके उपयुक्त घोड़ेकी रचना की
थी ।। १८ ।।
कृत्वा तत् कर्म लोकानामृषभ: सर्वलोकजित् ।
अवधीस्त्वं रणे सर्वान् समेतान् दैत्यदानवान् ॥। १९ |।
सम्पूर्ण लोकोंपर विजय पानेवाले आप लोकेश्चर प्रभुने वह कर्म करके सामना करनेके
लिये आये हुए समस्त दैत्यों और दानवोंका युद्धस्थलमें वध किया ।। १९ ।।
ततः: सर्वेश्वरत्वं च सम्प्रदाय शचीपते: ।
मानुषेषु महाबाहो प्रादुर्भूतोईसि केशव ।। २० ।।
महाबाहु केशव! तदनन्तर शचीपतिको सर्वेश्वर-पद प्रदान करके आप इस समय
मनुष्योंमें प्रकट हुए हैं || २० ।।
स त्वं नारायणो भूत्वा हरिरासी: परंतप ।
ब्रह्मा सोमश्च सूर्यक्ष धर्मों धाता यमोडनल: ।। २१ |।
वायुर्वैश्रवणो रुद्र: काल: खं पृथिवी दिश: ।
अजकश्षराचरगुरु: स्रष्टा त्वं पुरुषोत्तम || २२ ।।
परंतप! पुरुषोत्तम! आप ही पहले नारायण होकर फिर हरिरूपमें प्रकट हुए। ब्रह्मा,
सोम, सूर्य, धर्म, धाता, यम, अनल, वायु, कुबेर, रुद्र, काल, आकाश, पृथ्वी, दिशाएँ,
चराचरगुरु तथा सृष्टिकर्ता एवं अजन्मा आप ही हैं ।। २१-२२ ।।
परायणं देवमूर्धा क्रतुभिर्मधुसूदन ।
अयजो भूरितेजा वै कृष्ण चैत्ररथे वने ॥। २३ ।।
मधुसूदन श्रीकृष्ण! आपने चैत्ररथवनमें अनेक यज्ञोंका अनुष्ठान किया है। आप सबके
उत्तम आश्रय, देवशिरोमणि और महातेजस्वी हैं ।। २३ ।।
शतं शतसहस्त्राणि सुवर्णस्य जनार्दन |
एकैकस्मिंस्तदा यज्ञे परिपूर्णानि भागश: ।। २४ ।।
जनार्दन! उस समय आपने प्रत्येक यज्ञमें पृथक्ू-पृथक् एक-एक करोड़ स्वर्णमुद्राएँ
दक्षिणाके रूपमें दीं || २४ ।।
अदितेरपि पुत्रत्वमेत्य यादवनन्दन ।
त्वं विष्णुरिति विख्यात इन्द्रादवरजो विभु: ॥। २५ ।।
यदुनन्दन! आप अदितिके पुत्र हो, इन्द्रके छोटे भाई होकर सर्वव्यापी विष्णुके नामसे
विख्यात हैं ।। २५ ।।
शिशुर्भूत्वा दिवं खं च पृथिवीं च परंतप ।
त्रिभिविक्रमणै: कृष्ण क्रान्तवानसि तेजसा ।। २६ ।।
परंतप श्रीकृष्ण! आपने वामनावतारके समय छोटे-से बालक होकर भी अपने तेजसे
तीन डगोंद्वारा द्युलोक, अन्तरिक्ष और भूलोक--तीनोंको नाप लिया || २६ ।।
सम्प्राप्प दिवमाकाशमादित्यस्यन्दने स्थित: ।
अत्यरोचश्व भूतात्मन् भास्करं स्वेन तेजसा ।। २७ ।।
भूतात्मन! आपने सूर्यके रथपर स्थित हो द्युलोक और आकाशमें व्याप्त होकर अपने
तेजसे भगवान् भास्करको भी अत्यन्त प्रकाशित किया है || २७ ।।
प्रादुर्भावसहस्रेषु तेषु तेषु त्वया विभो ।
अधर्मरुचय: कृष्ण निहता: शतशो<सुरा: ।। २८ ।।
विभो! आपने सहस्रों अवतार धारण किये हैं और उन अवतारोंमें सैकड़ों असुरोंका,
जो अधर्ममें रुचि रखनेवाले थे, वध किया है || २८ ।।
सादिता मौरवा: पाशा निसुन्दनरकौ हतौ ।
कृत: क्षेम: पुनः पन्था: पुरं प्राग्ज्योतिषं प्रति ।। २९ ।।
आपने मुर दैत्यके लोहमय पाश काट दिये, निसुन्द और नरकासुरको मार डाला और
पुनः प्राग्ज्योतिषपुरका मार्ग सकुशल यात्रा करनेयोग्य बना दिया || २९ ।।
जारूथ्यामाहुति: क्राथ: शिशुपालो जनै: सह ।
जरासंधश्ष शैब्यक्ष शतधन्वा च निर्जित: ।। ३० ।।
भगवन्! आपने जारूथी नगरीमें आहुति, क्राथ, साथियोंसहित शिशुपाल, जरासंध,
शैब्य और शतधन्वाको परास्त किया ।। ३० ।।
तथा पर्जन्यघोषेण रथेनादित्यवर्चसा ।
अवाप्सीर्महिषीं भोज्यां रणे निर्जित्य रुक्मिणम् ।। ३१ ।।
इसी प्रकार मेघके समान घर्घर शब्द करनेवाले सूर्यतुल्य तेजस्वी रथके द्वारा
कुण्डिनपुरमें जाकर आपने रुक््मीको युद्धमें जीता और भोजवंशकी कन्या रुक्मिणीको
अपनी पटरानीके रूपमें प्राप्त किया || ३१ ।।
इन्द्रद्युम्नो हतः कोपाद् यवनश्न कसेरुमान् |
हतः सौभपति: शाल्वस्त्वया सौभं च पातितम् ॥। ३२ ।।
प्रभो! आपने क्रोधसे इन्द्रद्युम्मको मारा और यवनजातीय कसेरुमान् एवं सौभपति
शाल्वको भी यमलोक पहुँचा दिया। साथ ही शाल्वके सौभ विमानको भी छित्न-भिन्न करके
धरतीपर गिरा दिया ।। ३२ ।।
एवमेते युधि हता भूयश्चान्याञ्छूणुष्व ह ।
इरावत्यां हतो भोज: कार्तवीर्यसमो युधि ।॥। ३३ ।।
इस प्रकार इन पूर्वोक्त राजाओंको आपने युद्धमें मारा है। अब आपके द्वारा मारे हुए
औरोंके भी नाम सुनिये। इरावतीके तटपर आपने कार्तवीर्य अर्जुनके सदृश पराक्रमी
भोजको युद्धमें मार गिराया || ३३ ।।
गोपतिस्तालकेतुश्न त्वया विनिहतावुभौ ।
तां च भोगवतीं पुण्यामृषिकान्तां जनार्दन ।। ३४ ।।
द्वारकामात्मसात् कृत्वा समुद्र गमयिष्यसि ।
गोपति और तालकेतु--ये दोनों भी आपके ही हाथसे मारे गये। जनार्दन! भोग-
सामग्रियोंसे सम्पन्न तथा ऋषि-मुनियोंकी प्रिय अपने अधीन की हुई पुण्यमयी द्वारका
नगरीको आप अन्तमें समुद्रमें विलीन कर देंगे ।। ३४ ६ ।।
न क्रोधो न च मात्सर्य नानृतं मधुसूदन ।
त्वयि तिष्ठति दाशार्ह न नृशंस्यं कुतो5नृजु ।। ३५ ।।
आसीन चैत्यमध्ये त्वां दीप्पमानं स्वतेजसा ।
आगम्य ऋषय: सर्वेड्याचन्ताभयमच्युत ।। ३६ ।।
मधुसूदन! वास्तवमें आपमें न तो क्रोध है, न मात्सर्य है, न असत्य है, न निर्दयता ही है।
दाशाई! फिर आपमें कठोरता तो हो ही कैसे सकती है? अच्युत! महलके मध्यभागमें बैठे
और अपने तेजसे उद्भासित हुए आपके पास आकर सम्पूर्ण ऋषियोंने अभयकी याचना
की ।। ३५-३६ ।।
युगान्ते सर्वभूतानि संक्षिप्प मधुसूदन ।
आत्मनैवात्मसात् कृत्वा जगदासी: परंतप ।। ३७ ।।
परंतप मधुसूदन! प्रलयकालमें समस्त भूतोंका संहार करके इस जगत्को स्वयं ही
अपने भीतर रखकर आप अकेले ही रहते हैं | ३७ ।।
युगादौ तव वार्ष्णेय नाभिपडझ्मादजायत ।
ब्रह्मा चराचरगुरुर्यस्येदे सकल॑ जगत् ।। ३८ ।।
वार्ष्णेय! सृष्टिके प्रारम्भकालमें आपके नाभि-कमलसे चराचरगुरु ब्रह्मा उत्पन्न हुए,
जिनका रचा हुआ यह सम्पूर्ण जगत् है ।। ३८ ।।
त॑ हन्तुमुद्यतौ घोरो दानवौ मधुकैटभौ ।
तयोरव्यतिक्रमं दृष्टवा क्रुद्धस्य भवतो हरे: ।। ३९ ।।
ललाटाज्जातवाउछम्भु: शूलपाणिस्त्रिलोचन: ।
इत्थं तावपि देवेशौ त्वच्छरीरसमुद्धवी ।। ४० ।।
जब ब्रह्माजी उत्पन्न हुए, उस समय दो भयंकर दानव मधु और कैटभ उनके प्राण
लेनेको उद्यत हो गये। उनका यह अत्याचार देखकर क्रोधमें भरे हुए आप श्रीहरिके ललाटसे
भगवान् शंकरका प्रादुर्भाव हुआ, जिनके हाथोंमें त्रिशूल शोभा पा रहा था। उनके तीन नेत्र
थे। इस प्रकार वे दोनों देव ब्रह्मा और शिव आपके ही शरीरसे उत्पन्न हुए हैं | ३९-४० ।।
त्वन्नियोगकरावेताविति मे नारदोडब्रवीत् |
तथा नारायण पुरा क्रतुभिर्भूरिदक्षिणै: ।। ४१ ।।
इष्टवांस्त्वं महासत्रं कृष्ण चैत्ररथे वने ।
नैवं परे नापरे वा करिष्यन्ति कृतानि वा ॥। ४२ ।।
यानि कर्माणि देव त्वं बाल एव महाबल: ।
कृतवान् पुण्डरीकाक्ष बलदेवसहायवान् |
कैलासभवने चापि ब्राह्मुणैन्यवस: सह ।। ४३ ।।
वे दोनों आपकी ही आज्ञाका पालन करनेवाले हैं, यह बात मुझे नारदजीने बतलायी
थी। नारायण श्रीकृष्ण! इसी प्रकार पूर्वकालमें चैत्ररथवनके भीतर आपने प्रचुर
दक्षिणाओंसे सम्पन्न अनेक यज्ञों तथा महासत्रका अनुष्ठान किया था। भगवान्
पुण्डरीकाक्ष! आप महान् बलवान् हैं। बलदेवजी आपके नित्य सहायक हैं। आपने
बचपनमें ही जो-जो महान् कर्म किये हैं, उन्हें पूर्ववर्ती अथवा परवर्ती पुरुषोंने न तो किया है
और न करेंगे। आप ब्राह्मणोंके साथ कुछ कालतक कैलास पर्वतपर भी रहे हैं | ४१--
४३ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमुक््त्वा महात्मानमात्मा कृष्णस्य पाण्डव: ।
तूष्णीमासीत् ततः पार्थमित्युवाच जनार्दन: ।। ४४ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! श्रीकृष्णके आत्मस्वरूप पाण्डुनन्दन अर्जुन उन
महात्मासे ऐसा कहकर चुप हो गये। तब भगवान् जनार्दनने कुन्तीकुमारसे इस प्रकार कहा
-- || ४४ ।।
ममैव त्वं तवैवाहं ये मदीयास्तवैव ते ।
यस्त्वां द्वेष्टि स मां द्वेष्टि यस्त्वामनु स मामनु ।। ४५ ।।
'पार्थ! तुम मेरे ही हो, मैं तुम्हारा ही हूँ। जो मेरे हैं, वे तुम्हारे ही हैं। जो तुमसे द्वेष
रखता है, वह मुझसे भी रखता है। जो तुम्हारे अनुकूल है, वह मेरे भी अनुकूल है || ४५ ।।
नरस्त्वमसि दुर्धर्ष हरिनारायणो हाहम् ।
काले लोकमिमं प्राप्ती नरनारायणावृषी ।। ४६ ।।
“दुर्द्धध वीर! तुम नर हो और मैं नारायण श्रीहरि हूँ। इस समय हम दोनों नर-नारायण
ऋषि ही इस लोकमें आये हैं || ४६ ।।
अनन्य: पार्थ मत्तस्त्वं त्वत्तश्नाहं तथैव च ।
नावयोरन्तरं शक््यं वेदितुं भरतर्षभ ।। ४७ ।।
“कुन्तीकुमार! तुम मुझसे अभिन्न हो और मैं तुमसे पृथक नहीं हूँ। भरतश्रेष्ठी हम
दोनोंका भेद जाना नहीं जा सकता” ।। ४७ |।
वैशम्पायन उवाच
एवमुक्ते तु वचने केशवेन महात्मना ।
तस्मिन् वीरसमावाये संरब्धेष्वथ राजसु ।। ४८ ।।
धृष्टद्युम्नमुखैर्वरिर्श्रातृभि: परिवारिता ।
पाज्चाली पुण्डरीकाक्षमासीनं भ्रातृभि: सह ।
अभिगम्याब्रवीत् क्रुद्धा शरण्यं शरणैषिणी ।। ४९ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! रोषावेशसे भरे हुए राजाओंकी मण्डलीमें उस
वीरसमुदायके मध्य महात्मा केशवके ऐसा कहनेपर धृष्टद्युम्म आदि भाइयोंसे घिरी और
कुपित हुई पांचालराजकुमारी द्रौपदी भाइयोंके साथ बैठे हुए शरणागतवत्सल श्रीकृष्णके
पास जा उनकी शरणकी इच्छा रखती हुई उनसे बोली || ४८-४९ ।।
द्रौपहुवाच
पूर्वे प्रजाभिसर्गे त्वामाहुरेकं प्रजापतिम् ।
स्रष्टारं सर्वतोकानामसितो देवलो<ब्रवीत् ।। ५० ।।
द्रौपदीने कहा--प्रभो! ऋषिलोग प्रजासृष्टिके प्रारम्भकालमें एकमात्र आपको ही
सम्पूर्ण जगत्का स्रष्टा एवं प्रजापति कहते हैं। महर्षि असित-देवलका यही मत है ।। ५० ।।
विष्णुस्त्वमसि दुर्धर्ष त्वं यज्ञो मधुसूदन ।
यष्टा त्वमसि यष्टव्यो जामदग्न्यो यथाब्रवीत् ।। ५१ ।।
दुर्द्धध मधुसूदन! आप ही विष्णु हैं, आप ही यज्ञ हैं, आप ही यजमान हैं और आप ही
यजन करने योग्य श्रीहरि हैं, जैसा कि जमदग्निनन्दन परशुरामका कथन है ।। ५१ ।।
ऋषयपस्त्वां क्षमामाहु: सत्यं च पुरुषोत्तम |
सत्याद् यज्ञोडसि सम्भूत: कश्यपस्त्वां यथाब्रवीत् ।। ५२ ।।
पुरुषोत्तम! कश्यपजीका कहना है कि महर्षिगण आपको क्षमा और सत्यका स्वरूप
कहते हैं। सत्यसे प्रकट हुए यज्ञ भी आप ही हैं ।। ५२ ।।
साध्यानामपि देवानां शिवानामीश्ररेश्वर |
भूतभावन भूतेश यथा त्वां नारदोउब्रवीत् ।। ५३ ।।
भूतभावन भूतेश्वरर आप साध्य देवताओं तथा कल्याणकारी रुद्रोंके अधीश्वर हैं।
नारदजीने आपके विषयमें यही विचार प्रकट किया है || ५३ ।।
ब्रह्मशंकरशक्राद्यैर्देववृन्दै: पुन: पुनः ।
क्रीडसे त्वं नरव्याप्र बाल: क्रीडनकैरिव ।। ५४ ।।
नरश्रेष्ठ! जैसे बालक खिलौनोंसे खेलता है, उसी प्रकार आप ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्र
आदि देवताओंसे बारंबार क्रीडा करते रहते हैं ।। ५४ ।।
द्यौश्न ते शिरसा व्याप्ता पद्धयां च पृथिवी प्रभो ।
जठरं त इमे लोका: पुरुषोडसि सनातन: ।। ५५ ||
प्रभो! स्वर्गलोेक आपके मस्तकसे और पृथ्वी आपके चरणोंसे व्याप्त है। ये सब लोक
आपके उदरस्वरूप हैं। आप सनातन पुरुष हैं ।। ५५ ।।
विद्यातपो$भितप्तानां तपसा भावितात्मनाम् |
आत्मदर्शनतृप्तानामृषीणामसि सत्तम: ।। ५६ ।।
विद्या और तपस्यासे सम्पन्न तथा तपके द्वारा शोधित अन्त:ःकरणवाले आत्मज्ञानसे
तृप्त महर्षियोंमें आप ही परम श्रेष्ठ हैं || ५६ ।।
राजर्षीणां पुण्यकृतामाहवेष्वनिवर्तिनाम् ।
सर्वधर्मोपपन्नानां त्वं गति: पुरुषर्षभ ।
त्वं प्रभुस्त्वं विभुश्न त्वं भूतात्मा त्वं विचेष्टसे || ५७ ।।
पुरुषोत्तम! युद्धमें कभी पीठ न दिखानेवाले, सब धर्मोसे सम्पन्न पुण्यात्मा राजर्षियोंके
आप ही आश्रय हैं। आप ही प्रभु (सबके स्वामी), आप ही विभु [सर्वव्यापी) और आप ही
सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा हैं। आप ही विविध प्राणियोंके रूपमें नाना प्रकारकी चेष्टाएँ कर रहे
हैं ।। ५७ ।।
लोकपालाश्न लोकाश्ष नक्षत्राणि दिशो दश ।
नभभश्रन्द्रश्न सूर्यश्ष त्वयि सर्व प्रतेष्ठितम् ।। ५८ ।।
लोक, लोकपाल, नक्षत्र, दसों दिशाएँ, आकाश, चन्द्रमा और सूर्य सब आपमें प्रतिष्ठित
हैं ।। ५८ ।।
मर्त्यता चैव भूतानाममरत्वं दिवौकसाम् |
त्वयि सर्व महाबाहो लोककार्य प्रतिष्ठितम् ।। ५९ ।।
महाबाहो! भूलोकके प्राणियोंकी मृत्युपरवशता, देवताओंकी अमरता तथा सम्पूर्ण
जगत्का कार्य सब कुछ आपमें ही प्रतिष्ठित है ।। ५९ ।।
सा ते5हं दुःखमाख्यास्ये प्रणयान्मधुसूदन ।
ईशस्त्वं सर्वभूतानां ये दिव्या ये च मानुषा: ।। ६० ।।
मधुसूदन! मैं आपके प्रति प्रेम होनेके कारण आपसे अपना दुःख निवेदन करूँगी;
क्योंकि दिव्य और मानव जगतमें जितने भी प्राणी हैं, उन सबके ईश्वर आप ही हैं ।। ६० ।।
कथं नु भार्या पार्थानां तव कृष्ण सखी विभो ।
धृष्टद्युम्नस्य भगिनी सभां कृष्येत मादृशी ।। ६१ ।।
भगवन् कृष्ण! मेरे-जैसी स्त्री जो कुन्तीपुत्रोंकी पत्नी, आपकी सखी और धृष्टद्युम्न-
जैसे वीरकी बहिन हो, क्या किसी तरह सभामें (केश पकड़कर) घसीटकर लायी जा
सकती है? ।। ६१ ।।
स्त्रीधर्मिणी वेपमाना शोणितेन समुक्षिता |
एकवसत्त्रा विकृष्टास्मि दु:खिता कुरुसंसदि ।। ६२ ।।
मैं रजस्वला थी, मेरे कपड़ोंपर रक्तके छींटे लगे थे, शरीरपर एक ही वस्त्र था और
लज्जा एवं भयसे मैं थरथर काँप रही थी। उस दशामें मुझ दुःखिनी अबलाको कौरवोंकी
सभामें घसीटकर लाया गया था ।। ६२ ।।
राज्ञां मध्ये सभायां तु रजसातिपरिप्लुता ।
दृष्टवा च मां धार्तराष्ट्रा प्रहसन् पापचेतस: ।। ६३ ।।
भरी सभामें राजाओंकी मण्डलीके बीच अत्यन्त रजस्राव होनेके कारण मैं रक्तसे भींगी
जा रही थी। उस अवस्थामें मुझे देखकर धृतराष्ट्रके पापात्मा पुत्रोंने जोर-जोरसे हँसकर मेरी
हँसी उड़ायी ।। ६३ ।।
दासीभावेन मां भोक्तुमीषुस्ते मधुसूदन ।
जीवत्सु पाण्डुपुत्रेषु पज्चालेषु च वृष्णिषु || ६४ ।।
मधुसूदन! पाण्डवों, पांचालों और वृष्णिवंशी वीरोंके जीते-जी धृतराष्ट्रके पुत्रोंने
दासीभावसे मेरा उपभोग करनेकी इच्छा प्रकट की ।। ६४ ।।
नन्वहं कृष्ण भीष्मस्य धृतराष्ट्रस्य चो भयो: ।
स््नुषा भवामि धर्मेण साहं दासीकृता बलात् ।। ६५ ।।
श्रीकृष्ण! मैं धर्मतः भीष्म और धृतराष्ट्र दोनोंकी पुत्रवधू हूँ, तो भी उनके सामने ही
बलपूर्वक दासी बनायी गयी ।। ६५ ।।
गर्हये पाण्डवांस्त्वेव युधि श्रेष्ठानू महाबलान् |
यत्क्लिश्यमानां प्रेक्षन्ते धर्मपत्नीं यशस्विनीम् ।। ६६ ।।
मैं तो संग्राममें श्रेष्ठ इन महाबली पाण्डवोंकी ही निन््दा करती हूँ; जो अपनी यशस्विनी
धर्मपत्नीको शत्रुओंद्वारा सतायी जाती हुई देख रहे थे || ६६ ।।
धिग् बल॑ भीमसेनस्य धिक् पार्थस्य च गाण्डिवम् ।
यौ मां विप्रकृतां क्षुद्रैर्मषयेतां जनार्दन ।। ६७ ।।
जनार्दन! भीमसेनके बलको धिक्कार है, अर्जुनके गाण्डीव धनुषको भी धिककार है,
जो उन नराधमोंद्वारा मुझे अपमानित होती देखकर भी सहन करते रहे ।। ६७ ।।
शाश्वृतो<5यं धर्मपथ: सद्धिराचरित: सदा ।
यद् भार्या परिरक्षन्ति भर्तारोडल्पबला अपि ॥। ६८ ।।
सत्पुरुषोंद्वारा सदा आचरणमें लाया हुआ यह धर्मका सनातन मार्ग है कि निर्बल पति
भी अपनी पत्नीकी रक्षा करते हैं || ६८ ।।
भार्यायां रक्ष्यमाणायां प्रजा भवति रक्षिता ।
प्रजायां रक्ष्यमाणायामात्मा भवति रक्षित: ।। ६९ ।।
पत्नीकी रक्षा करनेसे अपनी संतान सुरक्षित होती है और संतानकी रक्षा होनेपर अपने
आत्माकी रक्षा होती है ।। ६९ ।।
आत्मा हि जायते तस्यां तस्माज्जाया भवत्युत ।
भर्ता च भार्यया रक्ष्य: कथं जायान्ममोदरे ।। ७० ||
अपना आत्मा ही स्त्रीके गर्भसे जन्म लेता है; इसीलिये वह जाया कहलाती है।
पत्नीको भी अपने पतिकी रक्षा इसीलिये करनी चाहिये कि यह किसी प्रकार मेरे उदरसे
जन्म ग्रहण करे || ७० ।।
नन्विमे शरणं प्राप्त न त्यजन्ति कदाचन ।
ते मां शरणमापन्नां नान्वपद्यन्त पाण्डवा: ।। ७१ ।।
ये अपनी शरणमें आनेपर कभी किसीका भी त्याग नहीं करते; किंतु इन्हीं पाण्डवोंने
मुझ शरणागत अबलापर तनिक भी दया नहीं की ।। ७१ ।।
पज्चभि: पतिभिज्जाता: कुमारा मे महौजस: ।
एतेषामप्यवेक्षार्थ त्रातव्यास्मि जनार्दन ।। ७२ ||
जनार्दन! इन पाँच पतियोंसे उत्पन्न हुए मेरे महाबली पाँच पुत्र हैं। उनकी देखभालके
लिये भी मेरी रक्षा आवश्यक थी || ७२ ।।
प्रतिविन्ध्यो युधिष्ठिरात् सुतसोमो वृकोदरात् ।
अर्जुनाच्छुतकीर्तिश्व शतानीकस्तु नाकुलि: ।। ७३ ।।
कनिष्ठाच्छुतकर्मा च सर्वे सत्यपराक्रमा: ।
प्रद्युम्नो यादृश: कृष्ण तादृशास्ते महारथा: ।। ७४ ।।
युधिष्ठिरसे प्रतिविन्ध्य, भीमसेनसे सुतसोम, अर्जुनसे श्रुतकीर्ति, नकुलसे शतानीक
और छोटे पाण्डव सहदेवसे श्रुतकर्माका जन्म हुआ है। ये सभी कुमार सच्चे पराक्रमी हैं।
श्रीकृष्ण! आपका पुत्र प्रद्युम्न जैसा शूरवीर है, वैसे ही वे मेरे महारथी पुत्र भी
हैं | ७३-७४ ।।
नन्विमे धनुषि श्रेष्ठा अजेया युधि शात्रवै: ।
किमर्थ धार्तराष्ट्राणां सहन्ते दुर्बलीयसाम् ।। ७५ ।।
ये धर्नुर्विद्यामें श्रेष्ठ तथा शत्रुओंद्वारा युद्धमें अजेय हैं तो भी दुर्बल धृतराष्ट्र-पुत्रोंका
अत्याचार कैसे सहन करते हैं? | ७५ ।।
अधर्मेण द्वतं राज्यं सर्वे दासा: कृतास्तथा ।
सभायां परिकृष्टाहमेकवस्त्रा रजस्वला ।। ७६ ।।
अधर्मसे सारा राज्य हरण कर लिया गया, सब पाण्डव दास बना दिये गये और मैं
एकवस्त्रधारिणी रजस्वला होनेपर भी सभामें घसीटकर लायी गयी ।। ७६ ।।
नाधिज्यमपि यच्छक्यं कर्तुमन्येन गाण्डिवम् ।
अन्यत्रार्जुनभीमाभ्यां त्वया वा मधुसूदन ।। ७७ ।।
मधुसूदन! अर्जुनके पास जो गाण्डीव धनुष है, उसपर अर्जुन, भीम अथवा आपके
सिवा दूसरा कोई प्रत्यंचा भी नहीं चढ़ा सकता (तो भी ये मेरी रक्षा न कर सके) ।। ७७ ।।
धिग् बल॑ भीमसेनस्य धिक् पार्थस्य च पौरुषम् |
यत्र दुर्योधन: कृष्ण मुहूर्तमपि जीवति ।। ७८ ।।
कृष्ण! भीमसेनके बलको धिक्कार है, अर्जुनके पुरुषार्थको भी धिक्कार है, जिसके
होते हुए दुर्योधन इतना बड़ा अत्याचार करके दो घड़ी भी जीवित रह रहा है || ७८ ।।
य एतानाक्षिपद् राष्ट्रात् सह मात्राविहिंसकान् ।
अधीयानान् पुरा बालान् व्रतस्थान् मधुसूदन ।। ७९ |।
मधुसूदन! पहले बाल्यावस्थामें, जब कि पाण्डव ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करते हुए
अध्ययनमें लगे थे, किसीकी हिंसा नहीं करते थे, जिन दुष्टने इन्हें इनकी माताके साथ
राज्यसे बाहर निकाल दिया था ।। ७९ ||
भोजने भीमसेनस्य पाप: प्राक्षेपयद् विषम् ।
कालकूटं नवं तीक्ष्णं सम्भूतं लोमहर्षणम् ।। ८० ।।
जिस पापीने भीमसेनके भोजनमें नूतन, तीक्ष्ण, परिमाणमें अधिक एवं रोमांचकारी
कालकूट नामक विष डलवा दिया था || ८० ।।
तज्जीर्णमविकारेण सहान्नेन जनार्दन ।
सशेषत्वान्महाबाहो भीमस्य पुरुषोत्तम ।। ८१ ।।
महाबाहु नरश्रेष्ठ जनार्दन! भीमसेनकी आयु शेष थी, इसीलिये वह घातक विष अन्नके
साथ ही पच गया और उसने कोई विकार नहीं उत्पन्न किया (इस प्रकार उस दुर्योधनके
अत्याचारोंको कहाँतक गिनाया जाय) ।। ८१ ।।
प्रमाणकोट्यां विश्वस्तं तथा सुप्तं वृकोदरम् ।
बद्ध्वैनं कृष्ण गज्जायां प्रक्षिप्प पुरमाव्रजत् ।। ८२ ।।
श्रीकृष्ण! प्रमाणकोटितीर्थमें, जब भीमसेन विश्वस्त होकर सो रहे थे, उस समय
दुर्योधनने इन्हें बाँधकर गंगामें फेंक दिया और स्वयं चुपचाप राजधानीमें लौट
आया || ८२ ।।
यदा विबुद्धः कौन्तेयस्तदा संच्छिद्य बन्धनम् ।
उदतिष्ठन्महाबाहुर्भीमसेनो महाबल: ।। ८३ ।।
जब इनकी आँख खुली तो ये महाबली महाबाहु भीमसेन सारे बन्धनोंको तोड़कर
जलसे ऊपर उठे ।। ८३ ।।
आशीविषै: कृष्णसर्पैरभीमसेनमदंशयत् ।
सर्वेष्वेवाड्रदेशेषु न ममार च शत्रुहा ।। ८४ ।।
इनके सारे अंगोंमें विषैले काले सर्पोंसे डँसवाया; परंतु शत्रुहन्ता भीमसेन मर न
सके ।। ८४ ।।
प्रतिबुद्धस्तु कौन्तेय: सर्वान् सर्पानपो थयत् ।
सारथिं चास्य दयितमपहस्तेन जध्निवान् ।। ८५ ।।
जागनेपर कुन्तीनन्दन भीमने सब सर्पोंको उठा-उठाकर पटक दिया। दुर्योधनने
भीमसेनके प्रिय सारथिको भी उलटे हाथसे मार डाला ।। ८५ ।।
पुन: सुप्तानुपाधाक्षीद् बालकान् वारणावते ।
शयानानार्यया सार्ध को नु तत् कर्तुमहति ।। ८६ ।।
इतना ही नहीं, वारणावतमें आर्या कुन्तीके साथमें ये बालक पाण्डव सो रहे थे, उस
समय उसने घरमें आग लगवा दी। ऐसा दुष्कर्म दूसरा कौन कर सकता है? || ८६ ।।
यत्रार्या रुदती भीता पाण्डवानिदमब्रवीत् |
महद् व्यसनमापन्ना शिखिना परिवारिता ।। ८७ ।।
उस समय वहाँ आर्या कुन्ती भयभीत हो रोती हुई पाण्डवोंसे इस प्रकार बोलीं--'मैं
बड़े भारी संकटमें पड़ी, आगसे घिर गयी || ८७ ।।
हा हतास्मि कुतो न्वद्य भवेच्छान्तिरिहानलात् ।
अनाथा विनशिष्यामि बालकै: पुत्रकैः सह ।। ८८ ।।
“हाय! हाय! मैं मारी गयी, अब इस आगसे कैसे शान्ति प्राप्त होगी? मैं अनाथकी तरह
अपने बालक पुत्रोंके साथ नष्ट हो जाऊँगी' ।। ८८ ।।
तत्र भीमो महाबाहुर्वायुवेगपराक्रम: ।
आर्यामाश्वासयामास क्षातृ्श्चापि वृकोदर: ।। ८९ ।।
वैनतेयो यथा पक्षी गरुत्मान् पततां वर: ।
तथैवाभिपतिष्यामि भयं वो नेह विद्यते ।। ९० ।।
उस समय वहाँ वायुके समान वेग और पराक्रमवाले महाबाहु भीमसेनने आर्या कुन्ती
तथा भाइयोंको आश्वासन देते हुए कहा--'पक्षियोंमें श्रेष्ठ विनतानन्दन गरुड जैसे उड़ा
करते हैं, उसी प्रकार मैं भी तुम सबको लेकर यहाँसे चल दूँगा। अतः तुम्हें यहाँ तनिक भी
भय नहीं है” ।। ८९-९० ।।
आर्यामड्केन वामेन राजानं दक्षिणेन च |
अंसयोश्व यमौ कृत्वा पृष्ठे बीभत्सुमेव च ।। ९१ ।।
सहसोत्पत्य वेगेन सर्वानादाय वीर्यवान् |
भ्रातृनारया च बलवान् मोक्षयामास पावकात् ।। ९२ ।।
ऐसा कहकर पराक्रमी एवं बलवान् भीमने आर्या कुन्तीको बायें अंकमें, धर्मराजको
दाहिने अंकमें, नकुल और सहदेवको दोनों कंधोंपर तथा अर्जुनको पीठपर चढ़ा लिया और
सबको लिये-दिये सहसा वेगसे उछलकर इन्होंने उस भयंकर अग्निसे भाइयों तथा माताकी
रक्षा की- || ९१-९२ ||
ते रात्रौ प्रस्थिता: सर्वे सह मात्रा यशस्विन: ।
अभ्यगच्छन्महारण्ये हिडिम्बवनमन्तिकात् ।। ९३ ।।
फिर वे सब यशस्वी पाण्डव माताके साथ रातमें ही वहाँसे चल दिये और हिडिम्बवनके
पास एक भारी वनमें जा पहुँचे ।। ९३ ।।
भ्रान्ता: प्रसुप्तास्तत्रेमे मात्रा सह सुदु:खिता: ।
सुप्तांश्ैनान भ्यगच्छद्धिडिम्बा नाम राक्षसी ॥। ९४ ।।
वहाँ मातासहित ये दु:ःखी पाण्डव थककर सो गये। सो जानेपर इनके निकट हिडिम्बा
नामक राक्षसी आयी ।। ९४ ।।
सा दृष्टवा पाण्डवांस्तत्र सुप्तान् मात्रा सह क्षितौ ।
हृच्छयेनाभिभूतात्मा भीमसेनमकामयत् ।॥। ९५ ।।
मातासहित पाण्डवोंको वहाँ धरतीपर सोते देख कामसे पीड़ित हो उस राक्षसीने
भीमसेनकी कामना की ।। ९५ ||
भीमस्य पादौ कृत्वा तु स्व उत्सड़े ततोडबला ।
पर्यमर्दत संहृष्टा कल्याणी मृदुपाणिना ।। ९६ ।।
भीमके पैरोंको अपनी गोदमें लेकर वह कल्याणमयी अबला अपने कोमल हाथोंसे
प्रसन्नतापूर्वक दबाने लगी ।। ९६ ।।
तामबुध्यदमेयात्मा बलवान् सत्यविक्रम: ।
पर्यपृच्छत तां भीम: किमिहेच्छस्यनिन्दिते || ९७ ।।
उसका स्पर्श पाकर बलवान सत्यपराक्रमी तथा अमेयात्मा भीमसेन जाग उठे।
जागनेपर उन्होंने पूछा--“सुन्दरी! तुम यहाँ क्या चाहती हो?” ।। ९७ ।।
एवमुक्ता तु भीमेन राक्षसी कामरूपिणी ।
भीमसेनं महात्मानमाह चैवमनिन्दिता ।। ९८ ।।
इस प्रकार पूछनेपर इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली उस अनिन्द्य सुन्दरी
राक्षसकन्याने महात्मा भीमसे कहा-- || ९८ ।।
पलायध्वमित: क्षिप्रं मम भ्रातैष वीर्यवान् ।
आगमिष्यति वो हन्तुं तस्माद् गच्छत मा चिरम् ।। ९९ |।
“आपलोग यहाँसे जल्दी भाग जायूँ, मेरा यह बलवान् भाई हिडिम्ब आपको मारनेके
लिये आयेगा; अत: आपलोग जल्दी चले जाइये, देर न कीजिये” || ९९ ।।
अथ भीमो< भ्युवाचैनां साभिमानमिदं वच: ।
नोद्विजेयमहं तस्मान्निहनिष्येडहमागतम् ।। १०० ।।
यह सुनकर भीमने अभिमानपूर्वक कहा--'मैं उस राक्षससे नहीं डरता। यदि यहाँ
आयेगा तो मैं ही उसे मार डालूँगा” || १०० ।।
तयो: श्रुत्वा तु संजल्पमागच्छद् राक्षसाधम: ।
भीमरूपो महानादान् विसृजन् भीमदर्शन: ।। १०१ ||
उन दोनोंकी बातचीत सुनकर वह भीमरूपधारी भयंकर एवं नीच राक्षस बड़े जोरसे
गर्जना करता हुआ वहाँ आ पहुँचा || १०१ ।।
राक्षस उवाच
केन सार्थ कथयसि आनयैनं ममान्तिकम् |
हिडिम्बे भक्षयिष्यामो न चिरं कर्तुमहसि ।। १०२ ।।
राक्षस बोला--हिडिम्बे! “तू किससे बात कर रही है? लाओ इसे मेरे पास। हमलोग
खायँगे। अब तुम्हें देर नहीं करनी चाहिये || १०२ ।।
सा कृपासंगृहीतेन हृदयेन मनस्विनी ।
नैनमैच्छत् तदाख्यातुमनुक्रोशादनिन्दिता | १०३ ।।
मनस्विनी एवं अनिन्दिता हिडिम्बाने स्नेहयुक्त हृदयके कारण दयावश यह क्रूरतापूर्ण
संदेश भीमसेनसे कहना उचित न समझा || १०३ ।।
स नादान् विनदन् घोरान् राक्षस: पुरुषादक: ।
अभ्यद्रवत वेगेन भीमसेनं तदा किल ।। १०४ ।।
इतनेहीमें वह नरभक्षी राक्षस घोर गर्जना करता हुआ बड़े वेगसे भीमसेनकी ओर
दौड़ा || १०४ ।।
तमभिद्र॒त्य संक्रुद्धो वेगेन महता बली ।
अग॒ह्नात् पाणिना पार्णिं भीमसेनस्य राक्षस: ।। १०५ ।।
इन्द्राशनिसमस्पर्श वज़संहननं दृढम् |
संहत्य भीमसेनाय व्याक्षिपत् सहसा करम् | १०६ ।।
क्रोधमें भरे हुए उस बलवान राक्षसने बड़े वेगसे निकट जाकर अपने हाथसे
भीमसेनका हाथ पकड़ लिया। भीमसेनके हाथका स्पर्श इन्द्रके वज्रके समान था। उनका
शरीर भी वैसा ही सुदृढ़ था। राक्षसने भीमसेनसे भिड़कर उनके हाथको सहसा झटक
दिया || १०५-१०६ ||
गृहीतं पाणिना पारणिं भीमसेनस्य रक्षसा ।
नामृष्यत महाबाहुस्तत्राक्रुध्यद् वृकोदर: ॥। १०७ ।।
राक्षसने भीमसेनके हाथको अपने हाथसे पकड़ लिया; यह बात महाबाहु भीमसेन नहीं
सह सके। वे वहीं कुपित हो गये || १०७ ।।
तदा<5<सीत् तुमुलं युद्ध भीमसेनहिडिम्बयो: ।
सर्वस्त्रिविदुषोर्घोरें वृत्रवासवयोरिव || १०८ ।।
उस समय सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञाता भीमसेन और हिडिम्बमें इन्द्र और वृत्रासुरके
समान भयानक एवं घमासान युद्ध होने लगा || १०८ ।।
विक्रीड्य सुचिरं भीमो राक्षसेन सहानघ ।
निजघान महावीर्यस्तं तदा निर्बलं बली ।। १०९ ।।
निष्पाप श्रीकृष्ण! महापराक्रमी और बलवान् भीमसेनने उस राक्षसके साथ बहुत
देरतक खिलवाड़ करके उसके निर्बल हो जानेपर उसे मार डाला | १०९ |।
हत्वा हिडिम्बं भीमो5थ प्रस्थितो भ्रातृभि: सह ।
हिडिम्बामग्रत: कृत्वा यस्यां जातो घटोत्कच: || ११० ।।
इस प्रकार हिडिम्बको मारकर हिडिम्बाको आगे किये भीमसेन अपने भाइयोंके साथ
आगे बढ़े। उसी हिडिम्बासे घटोत्कचका जन्म हुआ || ११० ।।
ततः सम्प्राद्रवन् सर्वे सह मात्रा परंतपा: ।
एकचक्रामभिमुखा: संवृता ब्राह्मणव्रजै: ।। १११ ।।
तदनन्तर सब परंतप पाण्डव अपनी माताके साथ आगे बढ़े। ब्राह्मणोंसे घिरे हुए ये
लोग एकचक्रा नगरीकी ओर चल दिये ।। १११ ।।
प्रस्थाने व्यास एषां च मन्त्री प्रियहिते रत: ।
ततोडगच्छन्नेकचक्रां पाण्डवा: संशितव्रता: || ११२ ।।
उस यात्रामें इनके प्रिय एवं हितमें लगे हुए व्यासजी ही इनके परामर्शदाता हुए। उत्तम
व्रतका पालन करनेवाले पाण्डव उन्हींकी सम्मतिसे एकचक्रापुरीमें गये || ११२ ।।
तत्राप्यासादयामासुर्बक॑ नाम महाबलम् |
पुरुषादं प्रतिभयं हिडिम्बेनैव सम्मितम् ।। ११३ ।।
वहाँ जानेपर भी इन्हें नरभक्षी राक्षस महाबली बकासुर मिला। वह भी हिडिम्बके ही
समान भयंकर था ।। ११३ ।।
तं॑ चापि विनिहत्योग्रं भीम: प्रहरतां वर: ।
सहितो भ्रातृभि: सर्वैर्द्रपदस्य पुरं ययौ ।। ११४ ।।
योद्धाओंमें श्रेष्ठ भीम उस भयंकर राक्षसको मारकर अपने सब भाइयोंके साथ मेरे
पिता ट्रुपदकी राजधानीमें गये ।। ११४ ।।
लब्धाहमपि तत्रैव वसता सव्यसाचिना ।
यथा त्वया जिता कृष्ण रुक्मिणी भीष्मकात्मजा ।। ११५ ।।
श्रीकृष्ण! जैसे आपने भीष्मकनन्दिनी रुक्मिणीको जीता था, उसी प्रकार मेरे पिताकी
राजधानीमें रहते समय सव्यसाची अर्जुनने मुझे जीता ।। ११५ ।।
एवं सुयुद्धे पार्थेन जिताहं मधुसूदन ।
स्वयंवरे महत् कर्म कृत्वा न सुकरं परै: ।। ११६ ।।
मधुसूदन! स्वयंवरमें, जो महान् कर्म दूसरोंके लिये दुष्कर था, वह करके भारी युद्धमें
भी अर्जुनने मुझे जीत लिया था || ११६ ।।
एवं क्लेशै: सुबहुभि: क्लिश्यमाना सुदु:ःखिता ।
निवसाम्यार्यया हीना कृष्ण धौम्यपुर:सरा ।। ११७ ।।
परंतु आज मैं इन सबके होते हुए भी अनेक प्रकारके क्लेश भोगती और अत्यन्त
दुःखमें डूबी रहकर अपनी सास कुन्तीसे अलग हो धौम्यजीको आगे रखकर वनमें निवास
करती हूँ || ११७ ।।
त इमे सिंहविक्रान्ता वीर्येणा भ्यधिका: परै: ।
विहीनै: परिक्लिश्यन्तीं समुपैक्षन्त मां कथम् ।। ११८ ।।
ये सिंहके समान पराक्रमी पाण्डव बल-वीर्यमें शत्रुओंसे बढ़े-चढ़े हैं, इनसे सर्वथा हीन
कौरव मुझे भरी सभामें कष्ट दे रहे थे, तो भी इन्होंने क्यों मेरी उपेक्षा की? ।। ११८ ।।
एतादृशानि दुःखानि सहन्ती दुर्बलीयसाम् ।
दीर्घकालं प्रदीप्तास्मि पापानां पापकर्मणाम् ।। ११९ |।
पापकर्मोमें लगे हुए अत्यन्त दुर्बल पापी शत्रुओंके दिये हुए ऐसे-ऐसे दुःख मैं सह रही
हूँ और दीर्घकालसे चिन्ताकी आगमें जल रही हूँ ।। ११९ ।।
कुले महति जातास्मि दिव्येन विधिना किल |
पाण्डवानां प्रिया भार्या सनुषा पाण्डोर्महात्मन: ।। १२० ।।
यह प्रसिद्ध है कि मैं दिव्य विधिसे एक महान् कुलमें उत्पन्न हुई हूँ। पाण्डवोंकी प्यारी
पत्नी और महाराज पाण्डुकी पुत्रवधू हूँ || १२० ।।
कचग्रहमनुप्राप्ता सास्मि कृष्ण वरा सती ।
पज्चानां पाणए्डुपुत्राणां प्रेक्षतां मधुसूदन ।। १२१ ।।
मधुसूदन श्रीकृष्ण! मैं श्रेष्ठ और सती-साध्वी होती हुई भी इन पाँचों पाण्डवोंके देखते-
देखते केश पकड़कर घसीटी गयी ।। १२१ ।।
इत्युक्त्वा प्रारुदत् कृष्णा मुखं प्रच्छाद्य पाणिना ।
पद्मकोशप्रकाशेन मृदुना मृदुभाषिणी ।। १२२ ।।
ऐसा कहकर मृदुभाषिणी द्रौपदी कमलकोशके समान कान्तिमान् एवं कोमल हाथसे
अपना मुँह ढककर फूट-फ़ूटकर रोने लगी ।। १२२ ।।
स्तनावपतितौ पीनौ सुजातौ शुभलक्षणौ |
अभ्यवर्षत पाज्चाली दुःखजैरश्रुबिन्दुभि: ।। १२३ ।।
पांचालराजकुमारी कृष्णा अपने कठोर, उभरे हुए, शुभलक्षण तथा सुन्दर स्तनोंपर
दुःखजनित अभ्रुबिन्दुओंकी वर्षा करने लगी ।। १२३ ।।
चक्षुषी परिमार्जन्ती नि:श्वसन्ती पुन: पुन: ।
बाष्पपूर्णेन कण्ठेन क्रुद्धा वचनमत्रवीत् ।। १२४ ।।
कुपित हुई द्रौपदी बार-बार सिसकती और आँसू पोंछती हुई आँसूभरे कण्ठसे बोली
-- || १२४ |।
नैव मे पतय: सन्ति न पुत्रा न च बान्धवा: ।
न भ्रातरो न च पिता नैव त्वं मधुसूदन ।। १२५ ।।
“मधुसूदन! मेरे लिये न पति हैं, न पुत्र हैं, न बान्धव हैं, न भाई हैं, न पिता हैं और न
आप ही हैं ।। १२५ ।।
ये मां विप्रकृतां क्षुद्रैरुपेक्षध्व॑ं विशोकवत् |
नच मे शाम्यते दुःखं कर्णो यत् प्राहसत् तदा ।। १२६ ।।
“क्योंकि आप सब लोग, नीच मनुष्योंद्वारा जो मेरा अपमान हुआ था, उसकी उपेक्षा
कर रहे हैं, मानो इसके लिये आपके हृदयमें तनिक भी दुःख नहीं है। उस समय कर्णने जो
मेरी हँसी उड़ायी थी, उससे उत्पन्न हुआ दुःख मेरे हृदयसे दूर नहीं होता है | १२६ ।।
चतुर्भि: कारणै: कृष्ण त्वया रक्ष्यास्मि नित्यश: ।
सम्बन्धाद् गौरवात् सख्यात् प्रभुत्वेनेव केशव ।। १२७ ।।
“श्रीकृष्ण! चार कारणोंसे आपको सदा मेरी रक्षा करनी चाहिये। एक तो आप मेरे
सम्बन्धी हैं, दूसरे अग्निकुण्डमें उत्पन्न होनेके कारण मैं गौरवशालिनी हूँ, तीसरे आपकी
सच्ची सखी हूँ और चौथे आप मेरी रक्षा करनेमें समर्थ हैं' || १२७ ।।
वैशम्पायन उवाच
अथ तामब्रवीत् कृष्णस्तस्मिन् वीरसमागमे ।
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! यह सुनकर भगवान् श्रीकृष्णने वीरोंके उस
समुदायमें द्रौपदीसे इस प्रकार कहा ।। १२७६
वासुदेव उवाच
रोदिष्यन्ति स्त्रियो होवं येषां क्रुद्धासि भाविनि ।
बीभत्सुशरसंच्छन्नाञ्छोणितौघपरिप्लुतान् ।। १२८ ।।
निहतान् वल्लभान् वीक्ष्य शयानान् वसुधातले ।
यत् समर्थ पाण्डवानां तत् करिष्यामि मा शुच: ।। १२९ ।।
श्रीकृष्ण बोले--भाविनि! तुम जिनपर क्कुद्ध हुई हो, उनकी स्त्रियाँ भी अपने
प्राणप्यारे पतियोंको अर्जुनके बाणोंसे छिन्न-भिन्न और खूनसे लथपथ हो मरकर धरतीपर
पड़ा देख इसी प्रकार रोयेंगी। पाण्डवोंके हितके लिये जो कुछ भी सम्भव है, वह सब
करूँगा, शोक न करो ॥। १२८-१२९ ।।
। (४ $
५ ११ ॥॥ (९;
सत्य॑ ते प्रतिजानामि राज्ञां राज्ञी भविष्यसि |
पतेद् द्यौर्हिमवाञ्छीर्येत् पृथिवी शकलीभवेत् ।। १३० ।।
शुष्येत् तोयनिधि: कृष्णे न मे मोघं वचो भवेत् ।
तच्छुत्वा द्रौपदी वाक््यं प्रतिवाक्यमथाच्युतात् ।। १३१ ।।
साचीकृतमवेक्षत् सा पाञज्चाली मध्यमं पतिम् |
आबभाषे महाराज द्रौपदीमर्जुनस्तदा ।। १३२ ।।
मैं सत्य प्रतिज्ञापूर्वक कह रहा हूँ कि तुम राजरानी बनोगी। कृष्णे! आसमान फट पड़े,
हिमालय पर्वत विदीर्ण हो जाय, पृथ्वीके टुकड़े-टुकड़े हो जायँ और समुद्र सूख जाय, किंतु
मेरी यह बात झूठी नहीं हो सकती। द्रौपदीने अपनी बातोंके उत्तरमें भगवान् श्रीकृष्णके
मुखसे ऐसी बातें सुनकर तिरछी चितवनसे अपने मझले पति अर्जुनकी ओर देखा।
महाराज! तब अर्जुनने द्रौपदीसे कहा-- ।। १३०--१३२ ।।
मा रोदी: शुभतागम्राक्षि यदाह मधुसूदन: ।
तथा तद् भविता देवि नान्यथा वरवर्णिनि ।। १३३ ।।
“लालिमायुक्त सुन्दर नेत्रोंवाली देवि! वरवर्णिनि! रोओ मत। भगवान् मधुसूदन जो कुछ
कह रहे हैं, वह अवश्य होकर रहेगा; टल नहीं सकता' ।। १३३ ।।
धृष्टह्ुम्न उवाच
अहं द्रोणं हनिष्यामि शिखण्डी तु पितामहम् ।
दुर्योधनं भीमसेन: कर्ण हन्ता धनंजय: ।। १३४ ।।
रामकृष्णौ व्यपाश्रित्य अजेया: सम रणे स्वसः ।
अपि वृत्रहणा युद्धे कि पुनर्धुतराष्ट्रजे || १३५ ।।
धृष्टद्युम्नने कहा--बहिन! मैं द्रोणको मार डालूँगा, शिखण्डी भीष्मका वध करेंगे,
भीमसेन दुर्योधनको मार गिरायेंगे और अर्जुन कर्णको यमलोक भेज देंगे। भगवान् श्रीकृष्ण
और बलरामका आश्रय पाकर हमलोग युद्धमें शत्रुओंके लिये अजेय हैं। इन्द्र भी हमें रणमें
परास्त नहीं कर सकते। फिर धृतराष्ट्रके पुत्रोंकी तो बात ही क्या है? ।। १३४-१३५ ।।
वैशम्पायन उवाच
इत्युक्तेडभिमुखा वीरा वासुदेवमुपास्थिता: ।
तेषां मध्ये महाबाहुः: केशवो वाक्यमब्रवीत् ।। १३६ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! धृष्टद्युम्मके ऐसा कहनेपर वहाँ बैठे हुए वीर
भगवान् श्रीकृष्णकी ओर देखने लगे। उनके बीचमें बैठे हुए महाबाहु केशवने उनसे ऐसा
कहा ।। १३६ |।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्व णि द्रौपद्याश्वासने द्वादशो5ध्याय: ।।
१२ ||
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्वमें द्रौपदी-आश्चासनविषयक
बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२ ॥।
#:73..8 #::3...7 () असम आता
- यत्रसायंगृह मुनि वे होते हैं, जो जहाँ सायंकाल हो जाता है वहीं घरकी तरह रातभर निवास करते हैं।
+ आदिपर्वके १४७वें अध्यायके लाक्षागृहदाहप्रसंगमें बतलाया है कि 'भीमसेनने माताको तो कंधेपर चढ़ा लिया और
नकुल-सहदेवको गोदमें उठा लिया तथा शेष दोनों भाइयोंको दोनों हाथोंसे पकड़कर उन्हें सहारा देते हुए चलने लगे।” इस
कथनसे द्रौपदीके वचन भिन्न हैं; क्योंकि द्रौपदीका उस समय विवाह नहीं हुआ था, अतः द्रौपदी इस बातको ठीक-ठीक
नहीं जानती थी, इसीसे वह लोगोंके मुखसे सुनी-सुनायी बात अनुमानसे कह रही है; अत: लाक्षागृहदाहके प्रसंगकी बात
ही ठीक है।
त्रयोदशो< ध्याय:
श्रीकृष्णका जूएके अनुपस्थिलिको बताते हु पाण्डवोंपर आयी हुई
विपत्तिमें अपनी कारण मानना
वायुदेव उवाच
नैतत् कृच्छुमनुप्राप्तो भवान् स्याद् वसुधाधिप ।
यद्य॒हं द्वारकायां स्यां राजन् संनिहित: पुरा ।। १ ।।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले--राजन्! यदि मैं पहले द्वारकामें या उसके निकट होता तो
आप इस भारी संकटमें नहीं पड़ते ।। १ ॥।
आगच्छेयमहं द्यूतमनाहूतो 5पि कौरवै: ।
आम्बिकेयेन दुर्धर्ष राज्ञा दुर्योधनेन च ।
वारयेयमहं द्यूतं बहून् दोषान् प्रदर्शयन् ॥। २ ।।
दुर्जय वीर! अम्बिकानन्दन धृतराष्ट्र, राजा दुर्योधन तथा अन्य कौरवोंके बिना बुलाये भी
मैं उस द्यूतसभामें आता और जूएके अनेक दोष दिखाकर उसे रोकनेकी चेष्टा
करता ।। २ |।
भीष्मद्रोणी समानाय्य कृपं बाह्लीकमेव च ।
वैचित्रवीर्य राजानमलं द्यूतेन कौरव ।। ३ ।।
पुत्राणां तव राजेन्द्र त्वन्निमित्तमिति प्रभो ।
तत्राचक्षमहं दोषान् यैर्भवान् व्यतिरोपित: ।। ४ ।।
प्रभो! मैं आपके लिये भीष्म, द्रोण, कृप, बाह्नीक तथा राजा धृतराष्ट्रको बुलाकर
कहता--“कुरुवंशके महाराज! आपके पुत्रोंकोी जूआ नहीं खेलना चाहिये।” राजन! मैं
द्यूतसभामें जूएके उन दोषोंको स्पष्टरूपसे बताता, जिनके कारण आपको अपने राज्यसे
वंचित होना पड़ा है ।। ३-४ ।।
वीरसेनसुतो यैस्तु राज्यात् प्रभ्रंशित: पुरा ।
अतर्कितविनाशश्ष् देवनेन विशाम्पते ।। ५ ।।
तथा जिन दोषोंने पूर्वकालमें वीरसेनपुत्र महाराज नलको राजसिंहासनसे च्युत किया।
नरेश्वर! जूआ खेलनेसे सहसा ऐसा सर्वनाश उपस्थित हो जाता है, जो कल्पनामें भी नहीं
आ सकता ।। ५ ||
सातत्यं च प्रसड्गस्य वर्णयेयं यथातथम् ।। ६ ।।
इसके सिवा उससे सदा जूआ खेलनेकी आदत बन जाती है। यह सब बातें मैं ठीक-
ठीक बता रहा हूँ ।। ६ ।।
स्त्रियो$क्षा मृगया पानमेतत् कामसमुत्थितम् ।
दुःखं चतुष्टयं प्रोक्त यैर्नरो भ्रश्यते श्रिय: ॥॥ ७ ।।
तत्र सर्वत्र वक्तव्यं मन्यन्ते शास्त्रकोविदा: ।
विशेषतश्च वक्तव्यं ्यूते पश्यन्ति तद्विद: ।। ८ ।।
स्त्रियोंके प्रति आसक्ति, जूआ खेलना, शिकार खेलनेका शौक और मद्यपान--ये चार
प्रकारके भोग कामनाजनित दुःख बताये गये हैं, जिनके कारण मनुष्य अपने धन-ऐश्वर्यसे
भ्रष्ट हो जाता है। शास्त्रोंके निपुण विद्वान् सभी परिस्थितियोंमें इन चारोंको निन्दनीय मानते
हैं; परंतु द्यूतक्रीडाको तो जूएके दोष जाननेवाले लोग विशेषरूपसे निन्दनीय समझते
हैं || ७-८ ।।
एकाहादू द्रव्यनाशोअत्र ध्रुवं व्यसनमेव च ।
अभुक्तनाशश्चार्थानां वाक््पारुष्यं च केवलम् ॥। ९ ।।
एतच्चान्यच्च कौरव्य प्रसज्िकटुकोदयम् |
द्यूते ब्रूयां महाबाहो समासाद्याम्बिकासुतम् || १० ।।
जूएसे एक ही दिनमें सारे धनका नाश हो जाता है। साथ ही जूआ खेलनेसे उसके प्रति
आसक्ति होनी निश्चित है। समस्त भोग-पदार्थोंका बिना भोगे ही नाश हो जाता है और
बदलेमें केवल कटुवचन सुननेको मिलते हैं। कुरुनन्दन! ये तथा और भी बहुत-से दोष हैं,
जो जूएके प्रसंगसे कटु परिणाम उत्पन्न करनेवाले हैं। महाबाहो! मैं धृतराष्ट्रसे मिलकर
जूएके ये सभी दोष बतलाता ।। ९-१० |।
एवमुक्तो यदि मया गृह्नीयाद् वचनं मम ।
अनामयं स्याद् धर्मश्न॒ कुरूणां कुरुवर्धन ।। ११ ।।
कुरुवर्धन! मेरे इस प्रकार समझाने-बुझानेपर यदि वे मेरी बात मान लेते तो कौरवोंमें
शान्ति बनी रहती और धर्मका भी पालन होता ।। ११ ।।
न चेत् स मम राजेन्द्र गृह्लीयान्मधुंर वच: ।
पथ्यं च भरतश्रेष्ठ निगृह्नीयां बलेन तम् ।। १२ ।।
राजेन्द्र! भरतश्रेष्ठ! यदि वे मेरे मधुर एवं हितकर वचनको सुनकर उसे न मानते तो मैं
उन्हें बलपूर्वक रोक देता || १२ ।।
अथैनमपनीतेन सुहृदो नाम दुर्हवद: ।
सभासदोशनुवर्तेरंस्तांश्व हन्यां दुरोदरान् ।। १३ ।।
यदि वहाँ सुहृदनामधारी शत्रु अन्यायका आश्रय ले इस धृतराष्ट्रका साथ देते तो मैं उन
सभासद जुआरियोंको मार डालता ।। १३ ।।
असांनिध्यं तु कौरव्य ममानर्तेष्वभूत् तदा |
येनेदं व्यसन प्राप्ता भवन्तो द्यूतकारितम् ।। १४ ।।
कुरुश्रेष्ठ! मैं उन दिनों आनर्तदेशमें ही नहीं था, इसीलिये आपलोगोंपर यह द्यूतजनित
संकट आ गया ।। १४ ।।
सो>हमेत्य कुरुश्रेष्ठ द्वारकां पाण्डुनन्दन ।
अश्रौषं त्वां व्यसनिनं युयुधानादू यथातथम् ।। १५ ।।
कुरुप्रवर पाण्डुनन्दन! जब मैं द्वारकामें आया, तब सात्यकिसे आपके संकटमें
पड़नेका यथावत् समाचार सुना ।। १५ ।।
श्र॒ुत्वैव चाहं राजेन्द्र परमोद्धिग्नमानस: ।
तूर्णमभ्यागतो$स्मि त्वां द्रष्टकामो विशाम्पते || १६ ।।
राजेन्द्र! वह सुनते ही मेरा मन अत्यन्त उद्विग्न हो उठा और प्रजेश्वर! मैं तुरंत ही
आपसे मिलनेके लिये चला आया ।। १६ ।।
अहो कृच्छ्मनुप्राप्ता: सर्वे सम भरतर्षभ |
सोऊहं त्वां व्यसने मग्नं पश्यामि सह सोदरै: ।। १७ ।।
भरतकुलभूषण! अहो! आप सब लोग बड़ी कठिनाईमें पड़ गये हैं। मैं तो आपको सब
भाइयोंसहित विपत्तिके समुद्रमें डूबा हुआ देख रहा हूँ || १७ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि वासुदेववाक्ये त्रयोदशो<5 ध्याय:
|| १३ |।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अजुनाभिगमनपर्वमें वायुदेववाक्यविषयक
तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३ ॥।
हि ० आय न [हुक हि 7 आम
चतुर्दशो 5 ध्याय:
द्यूतके समय न पहुँचनेमें श्रीकृष्णके द्वारा शाल्वके साथ
युद्ध करने और सौभविमानसहित उसे नष्ट करनेका
संक्षिप्त वर्णन
युधिछिर उवाच
असांनिध्यं कथं कृष्ण तवासीदू वृष्णिनन्दन ।
क्व चासीदू विप्रवासस्ते कि चाकार्षी: प्रवासत: ।। १ ।।
युधिष्ठिरने कहा--वृष्णिकुलको आनन्दित करनेवाले श्रीकृष्ण! जब यहाँ द्यूतक्रीडाका
आयोजन हो रहा था, उस समय तुम द्वारकामें क्यों अनुपस्थित रहे? उन दिनों तुम्हारा
निवास कहाँ था और उस प्रवासके द्वारा तुमने कौन-सा कार्य सिद्ध किया? ।। १ ।।
श्रीकृष्ण उवाच
शाल्वस्य नगरं सौभं॑ गतो<5हं भरतर्षभ ।
निहन्तुं कौरवश्रेष्ठ तत्र मे शूणु कारणम् ।। २ ।।
महातेजा महाबाहुर्यः स राजा महायशा: ।
दमघोषात्मजो वीर: शिशुपालो मया हतः ।। ३ ।।
यज्ञे ते भरतश्रेष्ठ राजसूये<र्हणां प्रति ।
स रोषवशमापन्नो नामृष्यत दुरात्मवान् ॥। ४ ।।
श्र॒त्वा तं निहतं शाल्वस्तीव्ररोषसमन्वित: ।
उपायाद् द्वारकां शून्यामिहस्थे मयि भारत ।। ५ ।।
श्रीकृष्णने कहा--भरतवंशशिरोमणे! कुरुकुलभूषण! मैं उन दिनों शाल्वके सौभ
नामक नगराकार विमानको नष्ट करनेके लिये गया हुआ था। इसका क्या कारण था, वह
बतलाता हूँ, सुनिये। भरतश्रेष्ठी आपके राजसूययज्ञमें अग्रपूजाके प्रश्नको लेकर जो क्रोधके
वशीभूत हो इस कार्यको नहीं सह सका था और इसीलिये जिस दुरात्मा, महातेजस्वी,
महाबाहु एवं महायशस्वी दमघोषनन्दन वीर राजा शिशुपालको मैंने मार डाला था; उसकी
मृत्युका समाचार सुनकर शाल्व प्रचण्ड रोषसे भर गया। भारत! मैं तो यहाँ हस्तिनापुरमें था
और वह हमलोगोंसे सूनी द्वारकापुरीमें जा पहुँचा || २--५ ।।
स तत्र योधितो राजन कुमारैर्वष्णिपुड्वै: ।
आगतः: कामगं सौभमारुहौव नृशंसवत् ।। ६ ।।
राजन! वहाँ वृष्णिवंशके श्रेष्ठ कुमारोंने उसके साथ युद्ध किया। वह इच्छानुसार
चलनेवाले सौभ नामक विमानपर बैठकर आया और क्रूर मनुष्यकी भाँति यादवोंकी हत्या
करने लगा ।। ६ ।।
ततो वृष्णिप्रवीरांस्तान् बालान् हत्वा बहुंस्तदा ।
पुरोद्यानानि सर्वाणि भेदयामास दुर्मति: ।। ७ ।।
उस खोटी बुद्धिवाले शाल्वने वृष्णिवंशके बहुतेरे बालकोंका वध करके नगरके सब
बगीचोंको उजाड़ डाला ।। ७ ||
उक्तवांश्व महाबाहो क्वासौ वृष्णिकुलाधम: ।
वासुदेव: स मन्दात्मा वसुदेवसुतो गत: ।। ८ ।॥।
महाबाहो! उसने यादवोंसे पूछा--“वह वृष्णिकुलका कलंक मन्दात्मा वसुदेवपुत्र
वासुदेव कहाँ है? ।। ८ ।।
तस्य युद्धार्थिनो दर्प युद्धे नाशयितास्म्यहम् ।
आनर्ता: सत्यमाख्यात तत्र गन्तास्मि यत्र सः ।। ९ ।।
त॑ हत्वा विनिवर्तिष्ये कंसकेशिनिषूदनम् |
अहत्वा न निवर्तिष्ये सत्येनायुधभालभे ।। १० ।।
'उसे युद्धकी बड़ी इच्छा रहती है, आज उसके घमंडको मैं चूर कर दूँगा।
आनर्तनिवासियो! सच-सच बतला दो। वह कहाँ है? जहाँ होगा, वहीं जाऊँगा और कंस
तथा केशीका संहार करनेवाले उस कृष्णको मारकर ही लौटूँगा। मैं अपने अस्त्र-शस्त्रोंको
छूकर सत्यकी सौगन्ध खाता हूँ कि अब कृष्णको मारे बिना नहीं लौटूँगा” ।। ९-१० ।।
क्वासौ क्वासाविति पुनस्तत्र तत्र प्रधावति ।
मया किल रणे योद्धुं काड्क्षमाण: स सौभराट् | ११ ।।
सौभविमानका स्वामी शाल्व संग्रामभूमिमें मेरे साथ युद्धकी इच्छा रखकर चारों ओर
दौड़ता और सबसे यही पूछता था कि “वह कहाँ है, कहाँ है?” ।। ११ ।।
अद्य तं पापकर्माणि क्षुद्रें विश्वासघातिनम् ।
शिशुपालवधामर्षाद् गमयिष्ये यमक्षयम् ।। १२ ।।
मम पापस्वभावेन भ्राता येन निपातित: ।
शिशुपालो महीपालस्तं वधिष्ये महीपते ।। १३ ।।
राजन! साथ ही वह यह भी कहता था कि “आज उस नीच पापाचारी और
विश्वासघाती कृष्णको शिशुपालवधके अमर्षके कारण मैं यमलोक भेज दूँगा। उस पापीने
मेरे भाई राजा शिशुपालको मार गिराया है, अतः मैं भी उसका वध करूँगा ।। १२-१३ ।।
भ्राता बालश्न राजा च न च संग्राममूर्थनि ।
प्रमत्तश्न हतो वीरस्तं हनिष्ये जनार्दनम् ।। १४ ।।
“मेरा भाई शिशुपाल अभी छोटी अवस्थाका था, दूसरे वह राजा था, तीसरे युद्धके
मुहानेपर खड़ा नहीं था, चौथे असावधान था, ऐसी दशामें उस वीरकी जिसने हत्या की है,
उस जनार्दनको मैं अवश्य मारूँगा” || १४ ।।
एवमादि महाराज विलप्य दिवमास्थित: ।
कामगेन स सौभेन क्षिप्त्वा मां कुरुनन्दन ।। १५ ।।
कुरुनन्दन! महाराज! इस प्रकार शिशुपालके लिये विलाप करके मुझपर आक्षेप करता
हुआ वह इच्छानुसार चलनेवाले सौभ विमानद्वारा आकाशमें ठहरा हुआ था ।। १५ ।।
तमश्रौषमहं गत्वा यथावृत्त: स दुर्मति: ।
मयि कौरव्य दुष्टात्मा मार्तिकावतको नृप: ।। १६ ।।
कुरुश्रेष्ठ! यहाँसे द्वारका जानेपर मैंने, मार्तिकावतक देशके निवासी दुष्टात्मा एवं दुर्बुद्धि
राजा शाल्वने मेरे प्रति जो दुष्टतापूर्ण बर्ताव किया था (आक्षेपपूर्ण बातें कही थीं), वह सब
कुछ सुना ।। १६ ।।
ततो5हमपि कौरव्य रोषव्याकुलमानस: ।
निश्चित्य मनसा राजन् वधायास्य मनो दधे ॥। १७ ।।
कुरुनन्दन! तब मेरा मन भी रोषसे व्याकुल हो उठा। राजन्! फिर मन-ही-मन कुछ
निश्चय करके मैंने शाल्वके वधका विचार किया ।। १७ ।।
आनर्तेषु विमर्द च क्षेपं चात्मनि कौरव ।
प्रवृद्धमवलेपं च तस्य दुष्कृतकर्मण: ।। १८ ।।
ततः सौभवधायाह ूं प्रतस्थे पृथिवीपते ।
स मया सागरावरतें दृष्ट आसीत् परीप्सता ।। १९ ।।
कुरुप्रवर! पृथ्वीपते! उसने आनर्त देशमें जो महान् संहार मचा रखा था, वह मुझपर
जो आक्षेप करता था तथा उस पापाचारीका घमंड जो बहुत बढ़ गया था, वह सब सोचकर
मैं सौभनगरका नाश करनेके लिये प्रस्थित हुआ। मैंने सब ओर उसकी खोज की तो वह
मुझे समुद्रके एक द्वीपमें दिखायी दिया || १८-१९ ।।
ततः प्रध्माप्प जलजं पाउ्चजन्यमहं नृप ।
आहूय शाल्वं समरे युद्धाय समवस्थित: ।। २० ।।
नरेश्वर! तदनन्तर मैंने पाउचजन्य शंख बजाकर शाल्वको समरभूमिमें बुलाया और
स्वयं भी युद्धके लिये उपस्थित हुआ || २० ।।
तन्मुहूर्तमभूद् युद्ध तत्र मे दानवै: सह ।
वशीभूताश्न मे सर्वे भूतले च निपातिता: ।। २१ ।।
वहाँ सौभनिवासी दानवोंके साथ दो घड़ीतक मेरा युद्ध हुआ और मैंने सबको वशमें
करके पृथ्वीपर मार गिराया ।। २१ ।।
एतत् कार्य महाबाहो येनाहं नागमं तदा ।
श्रुत्वैव हास्तिनपुरं द्यूतं चाविनयोत्थितम् ।
ट्रुतमागतवान् युष्मान् द्रष्टकाम: सुदु:ःखितान् ।। २२ ।।
महाबाहो! यही कार्य उपस्थित हो गया था, जिससे मैं उस समय न आ सका।
लौटनेपर ज्यों ही सुना कि हस्तिनापुरमें दुर्योधनकी उद्दण्डताके कारण जूआ खेला गया
(और पाण्डव उसमें सब कुछ हारकर वनको चले गये); तब अत्यन्त दुःखमें पड़े हुए
आपलोगोंको देखनेके लिये मैं तुरंत यहाँ चला आया ।। २२ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि सौभवधोपाख्याने
चतुर्दशो5ध्याय: ।। १४ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अ्जुनाभियगमनपर्वमें सौभवधोपाख्यानविषयक
चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४ ॥
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पञ्चदशो<् ध्याय:
सौभनाशकी विस्तृत कथाके प्रसंगमें द्वारकामें युद्धसम्बन्धी
रक्षात्मक तैयारियोंका वर्णन
युधिछिर उवाच
वासुदेव महाबाहो विस्तरेण महामते ।
सौभस्य वधमाचक्ष्व न हि तृप्पामि कथ्यत: ।। १ ।।
युधिष्ठिरने कहा--महाबाहो! वसुदेवनन्दन! महामते! तुम सौभ-विमानके नष्ट होनेका
समाचार विस्तारपूर्वक कहो। मैं तुम्हारे मुखसे इस प्रसंगको सुनते-सुनते तृप्त नहीं हो रहा
हूँ ।। १ ।।
वायुदेव उवाच
हतं श्रुत्वा महाबाहो मया श्रौतश्रवं नृप ।
उपायाद् भरतश्रेष्ठ शाल्वो द्वारवतीं पुरीम् ।। २ ।॥।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले--महाबाहो! नरेश्वर! भरतमश्रेष्ठ! श्रुतश्रवा- के पुत्र शिशुपालके
मारे जानेका समाचार सुनकर शाल्वने द्वारकापुरीपर चढ़ाई की ।। २ ।।
अरुन्धत्तां सुदुष्टात्मा सर्वतः पाण्डुनन्दन ।
शाल्वो वैहायसं चापि तत् पुरं व्यूह्ा विछ्ठित: ।। ३ ।।
पाण्डुनन्दन! उस दुष्टात्मा शाल्वने सेनाद्वारा द्वारकापुरीको सब ओरसे घेर लिया था।
वह स्वयं आकाशचारी विमान सौभपर व्यूहरचनापूर्वक विराजमान हो रहा था ।। ३ ।।
तत्रस्थो5थ महीपालो योधयामास तां पुरीम् ।
अभिसारेण सर्वेण तत्र युद्धमवर्तत ।। ४ ।।
उसीपर रहकर राजा शाल्व द्वारकापुरीके लोगोंसे युद्ध करता था। वहाँ भारी युद्ध छिड़ा
हुआ था और उसमें सभी दिशाओंसे अस्त्र-शस्त्रोंके प्रहार हो रहे थे |। ४ ।।
पुरी समन्ताद् विहिता सपताका सतोरणा ।
सचक्रा सहुडा चैव सयन्त्रखनका तथा ।। ५ ||
द्वारकापुरीमें सब ओर पताकाएँ फहरा रही थीं। ऊँचे-ऊँचे गोपुर वहाँ चारों दिशाओंमें
सुशोभित थे। जगह-जगह सैनिकोंके समुदाय युद्धके लिये प्रस्तुत थे। सैनिकोंके
आत्मरक्षापूर्वक युद्धकी सुविधाके लिये स्थान-स्थानपर बुर्ज बने हुए थे। युद्धोपयोगी यन्त्र
वहाँ बैठाये गये थे; तथा सुरंगद्वारा नये-नये मार्ग निकालनेके काममें भी बहुत-से लोग जुटे
हुए थे | ५ ।।
सोपशल्यप्रतोलीका साट्टाद्टालकगोपुरा ।
सचक्रग्रहणी चैव सोल्कालातावपोथिका ।। ६ ।।
68 #
॥ किआसला 2
सड़कोंपर लोहेके विषाक्त काँटे अदृश्यरूपसे बिछाये गये थे। अट्टालिकाओं और
गोपुरोंमें पर्याप्त अन्नका संग्रह किया गया था। शत्रुपक्षके प्रहारोंको रोकनेके लिये जगह-
जगह मोर्चेबन्दी की गयी थी। शत्रुओंके चलाये हुए जलते गोले और अलात (प्रज्वलित
लौहमय अस्त्र)-को भी विफल करके नीचे गिरा देनेवाली शक्तियाँ सुसज्जित थीं ।। ६ ।।
सोष्टिका भरतश्रेष्ठ सभेरीपणवानका ।
सतोमराड्कुशा राजन् सशतघ्नीकलाड्ूला ॥। ७ ।।
सभुशुण्ड्यश्मगुडका सायुधा सपरश्वधा ।
लोहचर्मवती चापि साग्नि: सगुडशुज्धिका ।। ८ ।।
अस्त्रोंसे भरे हुए मिट्टी और चमड़ेके असंख्य पात्र रखे गये थे। भरतश्रेष्ठ! ढोल, नगारे
और मृदंग आदि जुझाऊ बाजे भी बज रहे थे। राजन्! तोमर, अंकुश, शतघ्नी, लांगल,
भुशुण्डी, पत्थरके गोले, अन्यान्य अस्त्र-शस्त्र, फरसे, बहुत-सी सुदृढ़ ढालें और गोला-
बारूदसे भरी हुई तोपें यथास्थान तैयार रखी गयी थीं || ७-८ ।।
शास्त्रदृष्टेन विधिना सुयुक्ता भरतर्षभ ।
रथैरनेकैर्विविधैर्गदसाम्बोद्धवादिभि: ।। ९ |।
पुरुषै: कुरुशार्टूल समर्थ: प्रतिवारणे ।
अतिख्यातकुलै वीरिवदृष्टवीर्यश्व संयुगे ।। १० ।।
मध्यमेन च गुल्मेन रक्षिभि: सा सुरक्षिता ।
उत्क्षिप्तगुल्मैश्न तथा हयैश्न सपताकिभि: ।। ११ ।।
आधघोषितं च नगरे न पातव्या सुरेति वै ।
प्रमादं परिरक्षद्धिरुग्रसेनोद्धवादिभि: ।। १२ ।।
भरतकुलभूषण! शास्त्रोक्त विधिसे द्वारकापुरीको रक्षाके सभी उत्तम उपायोंसे सम्पन्न
किया गया था। कुरुश्रेष्ठ! शत्रुओंका सामना करनेमें समर्थ गद, साम्ब और उद्धव आदि
अनेक वीर पुरुष नाना प्रकारके बहुसंख्यक रथोंद्वारा पुरीकी रक्षामें दत्तचित थे। जो अत्यन्त
विख्यात कुलोंमें उत्पन्न थे तथा युद्धके अवसरोंपर जिनके बल-वीर्यका परिचय मिल चुका
था, ऐसे वीर रक्षक मध्यम गुल्म (नगरके मध्यवर्ती दुर्ग)-में स्थित हो पुरीकी पूर्णतः रक्षा कर
रहे थे। सबको प्रमादसे बचानेवाले उग्रसेन और उद्धव आदिने शत्रुओंके गुल्मोंको नष्ट
करनेकी शक्ति रखनेवाले घुड़सवारोंके हाथमें झंडे देकर समूचे नगरमें यह घोषणा करा दी
थी कि किसीको भी मद्यपान नहीं करना चाहिये || ९--१२ ।।
प्रमत्तेष्वभिघातं हि कुर्याच्छाल्वो नराधिप: ।
इति कृत्वाप्रमत्तास्ते सर्वे वृष्ण्यन्धका: स्थिता: ।। १३ ।।
क्योंकि मदिरासे उन्मत्त हुए लोगोंपर राजा शाल्व घातक प्रहार कर सकता है। यह
सोचकर वृष्णि और अन्धकवंशके सभी योद्धा पूरी सावधानीके साथ युद्धमें डटे हुए
थे ।। १३ ।।
आनर्ताक्ष तथा सर्वे नटा नर्तकगायना: ।
बहिनिर्वासिता: क्षिप्रं रक्षद्धिर्वित्तमंचयम् ।। १४ ।।
धनसंग्रहकी रक्षा करनेवाले यादवोंने आनर्तदेशीय नटों, नर्तकों तथा गायकोंको शीघ्र
ही नगरसे बाहर कर दिया था ।। १४ ।।
संक्रमा भेदिता: सर्वे नावश्व प्रतिषेधिता: ।
परिखाश्नलापि कौरव्य कालै: सुनिचिता: कृता: ।। १५ ।।
कुरुनन्दन! द्वारकापुरीमें आनेके लिये जो पुल मार्ममें पड़ते थे वे सब तोड़ दिये गये।
नौकाएँ रोक दी गयी थीं और खाइयोंमें काँटे बिछा दिये गये थे || १५ ।।
उदपाना: कुरुश्रेष्ठ तथैवाप्यम्बरीषका: ।
समन्तात् क्रोशमात्रं च कारिता विषमा च भू: ।। १६ ।।
कुरुश्रेष्ठ! द्वारकापुरीके चारों ओर एक कोसतकके चारों ओरके कुएँ इस प्रकार
जलशून्य कर दिये गये थे मानो भाड़ हों और उतनी दूरकी भूमि भी लौहकण्टक आदिसे
व्याप्त कर दी गयी थी || १६ ।।
प्रकृत्या विषम दुर्ग प्रकृत्या च सुरक्षितम् ।
प्रकृत्या चायुधोपेतं विशेषेण तदानघ ।। १७ ।।
निष्पाप नरेश! द्वारका एक तो स्वभावसे ही दुर्गम्य, सुरक्षित और अस्त्र-शस्त्रोंसे सम्पन्न
है, तथापि उस समय इसकी विशेष व्यवस्था कर दी गयी थी ।। १७ ।।
सुरक्षितं सुगुप्तं च सर्वायुधसमन्वितम् ।
तत् पुरं भरतश्रेष्ठ यथेन्द्रभवनं तथा ।। १८ ।।
भरतश्रेष्ठ! द्वारकानगर इन्द्रभवनकी भाँति ही सुरक्षित, सुगुप्त और सम्पूर्ण आयुधोंसे
भरा-पूरा है ।। १८ ।।
नचामुद्रोडभिनिर्याति न चामुद्र: प्रवेश्यते ।
वृष्ण्यन्धक पुरे राजंस्तदा सौभसमागमे ।। १९ ।।
राजन! सौभनिवासियोंके साथ युद्ध होते समय वृष्णि और अन्धकवंशी वीरोंके उस
नगरमें कोई भी राजमुद्रा (पास)-के बिना न तो बाहर निकल सकता था और न बाहरसे
नगरके भीतर ही आ सकता था ।। १९ ||
अनुरथ्यासु सर्वासु चत्वरेषु च कौरव ।
बल॑ बभूव राजेन्द्र प्रभूतगजवाजिमत् ।। २० ।।
कुरुनन्दन राजेन्द्र! वहाँ प्रत्येक सड़क और चौराहेपर बहुत-से हाथीसवार और
घुड़सवारोंसे युक्त विशाल सेना उपस्थित रहती थी ।। २० ।।
दत्तवेतनभक्तं च दत्तायुधपरिच्छदम् |
कृतोपधानं च तदा बलमासीन्महाभुज ।। २१ ।।
महाबाहो! उस समय सेनाके प्रत्येक सैनिकको पूरा-पूरा वेतन और भत्ता चुका दिया
गया था। सबको नये-नये हथियार और पोशाकें दी गयी थीं और उन्हें विशेष पुरस्कार आदि
देकर उनका प्रेम और विश्वास प्राप्त कर लिया गया था ।। २१ ।।
न कुप्यवेतनी वक्रिन्न चातिक्रान्तवेतनी ।
नानुग्रहभृतः कश्रिन्न चादृष्टपराक्रम: ।। २२ ।।
कोई भी सैनिक ऐसा नहीं था जिसे सोने-चाँदीके सिवा ताँबा आदि वेतनके रूपमें
दिया जाता हो अथवा जिसे समयपर वेतन न प्राप्त हुआ हो। किसी भी सैनिकको दयावश
सेनामें भर्ती नहीं किया गया था तथा कोई भी ऐसा न था जिसका पराक्रम बहुत दिनोंसे
देखा न गया हो ।। २२ ।।
एवं सुविहिता राजन् द्वारका भूरिदक्षिणा ।
आहुकेन सुगुप्ता च राज्ञा राजीवलोचन ।। २३ ।।
कमलनयन राजन! जिसमें बहुत-से दक्ष मनुष्य निवास करते थे उस द्वारकानगरीकी
रक्षाके लिये इस प्रकारकी व्यवस्था की गयी थी। वह राजा उग्रसेनके द्वारा भलीभाँति
सुरक्षित थी || २३ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि सौभवधोपाख्याने
पजठ्चदशो< ध्याय: ।। १५ ।।
इस प्रकार श्रीमह्माभारत वनपवके अन्तर्गत अजुनाभिगमनपर्वमें सौभवधविषयक पंद्रहवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥। १५ ॥
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- श्रुतश्रवा शिशुपालकी माताका नाम है। यह वसुदेवजीकी बहिन थी।
घोडशो< ध्याय:
शाल्वकी विशाल सेनाके आक्रमणका यादवसेनाद्वारा
प्रतिरोध, साम्बद्धारा क्षेमवृद्धिकी पराजय, वेगवान्का वध
तथा चारुदेष्णद्वारा विविन्ध्य दैत्यका वध एवं प्रद्युम्नद्वारा
सेनाको आश्वासन
वायुदेव उवाच
तां तूपयातो राजेन्द्र शाल्व: सौभपतिस्तदा ।
प्रभूतनरनागेन बलेनोपविवेश ह ।। १ ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं--राजेन्द्र! सौभ विमानका स्वामी राजा शाल्व अपनी
बहुत बड़ी सेनाके साथ, जिसमें हाथीसवारों तथा पैदलोंकी संख्या अधिक थी,
द्वारकापुरीपर चढ़ आया और उसके निकट आकर ठहरा ।। १ |।
समे निविष्टा सा सेना प्रभूतसलिलाशये ।
चतुरड्रबलोपेता शाल्वराजाभिपालिता ।। २ ।।
जहाँ अधिक जलसे भरा हुआ जलाशय था, वहीं समतल भूमिमें उसकी सेनाने पड़ाव
डाला। उसमें हाथीसवार, घुड़सवार, रथी और पैदल चारों प्रकारके सैनिक थे। स्वयं राजा
शाल्व उसका संरक्षक था || २ ।।
वर्जयित्वा श्मशानानि देवता55यतनानि च ।
वल्मीकांश्रैत्यवक्षांश्व तन्निविष्टमभूदू बलम् ।। ३ ।।
श्मशानभूमि, देवमन्दिर, बाँबी और चैत्यवृक्षको छोड़कर सभी स्थानोंमें उसकी सेना
फैलकर ठहरी हुई थी ।। ३ ।।
अनीकानां विभागेन पन्थान: संवृता5भवन् |
प्रवणाय च नैवासञ्छाल्वस्य शिविरे नूप ॥। ४ ।।
सेनाओंके विभागपूर्वक पड़ाव डालनेसे सारे रास्ते घिर गये थे। राजन! शाल्वके
शिविरमें प्रवेश करनेका कोई मार्ग नहीं रह गया था ।। ४ ।।
सर्वायुधसमोपेतं सर्वशस्त्रविशारदम् |
रथनागाश्वकलिलं पदातिध्वजसंकुलम् ।। ५ ।।
तुष्टपुष्टबलोपेतं वीरलक्षणलक्षितम् |
विचित्रध्वजसन्नाहं विचित्ररथकार्मुकम् ।। ६ ।।
संनिवेश्य च कौरव्य द्वारकायां नरर्षभ ।
अभिसारयामास तदा वेगेन पतगेन्द्रवत् । ७ ।।
नरश्रेष्ठ राजा शाल्वकी वह सेना सब प्रकारके आयुधोंसे सम्पन्न, सम्पूर्ण अस्त्र-
शस्त्रोंके संचालनमें निपुण, रथ, हाथी और घोड़ोंसे भरी हुई तथा पैदल सिपाहियों और
ध्वजा-पताकाओंसे व्याप्त थी। उसका प्रत्येक सैनिक हृष्ट-पुष्ट एवं बलवान् था। सबमें
वीरोचित लक्षण दिखायी देते थे। उस सेनाके सिपाही विचित्र ध्वजा तथा कवच धारण
करते थे। उनके रथ और धनुष भी विचित्र थे। कुरुनन्दन! द्वारकाके समीप उस सेनाको
ठहराकर राजा शाल्वने उसे वेगपूर्वक द्वारकाकी ओर बढ़ाया; मानो पक्षिराज गरुड़ अपने
लक्ष्यकी ओर उड़े जा रहे हों || ५--७ ।।
तदापतन्तं संदृश्य बलं शाल्वपतेस्तदा ।
निर्याय योधयामासु: कुमारा वृष्णिनन्दना: ।। ८ ।।
शाल्वराजकी उस सेनाको आती देख उस समय वृष्णिकुलको आनन्दित करनेवाले
कुमार नगरसे बाहर निकलकर युद्ध करने लगे ।। ८ ।।
असहन्तो5भियानं तच्छाल्वराजस्य कौरव ।
चारुदेष्णश्न साम्बश्न प्रद्युम्नश्न महारथ: ।। ९ ।।
ते रथैर्दशिता: सर्वे विचित्राभरणध्वजा: ।
संसक्ता: शाल्वराजस्य बहुभियोंधपुड्भवै: ।। १० ।।
कुरुनन्दन! शाल्वराजके उस आक्रमणको वे सहन न कर सके। चारुदेष्ण, साम्ब और
महारथी प्रद्युम्न--ये सब कवच, विचित्र आभूषण तथा ध्वजा धारण करके रथोंपर बैठकर
शाल्वराजके अनेक श्रेष्ठ योद्धाओंके साथ भिड़ गये ।। ९-१० ।।
गृहीत्वा कार्मुकं साम्ब: शाल्वस्य सचिवं रणे |
योधयामास संद्ृष्ट: क्षेमवृद्धि चमूपतिम् ।। ११ ।।
हर्षमें भरे हुए साम्बने धनुष धारण करके शाल्वके मन्त्री तथा सेनापति क्षेमवृद्धिके
साथ युद्ध किया ।। ११ ।।
तस्य बाणमयं वर्ष जाम्बवत्या: सुतो महत् ।
मुमोच भरतश्रेष्ठ यथा वर्ष सहस्रदूक्ू । १२ ।।
तद् बाणवर्ष तुमुलं विषेहे स चमूपति: ।
क्षेमवृद्धिर्महाराज हिमवानिव निश्चल: ।। १३ ।।
भरतश्रेष्ठ! जाम्बवतीकुमारने उसके ऊपर भारी बाणवर्षा की, मानो इन्द्र जलकी वर्षा
कर रहे हों। महाराज! सेनापति क्षेमवृद्धिने साम्बकी उस भयंकर बाणवर्षाको हिमालयकी
भाँति अविचल रहकर सहन किया ।। १२-१३ ।।
ततः साम्बाय राजेन्द्र क्षेमवृद्धिरपि स्वयम् ।
मुमोच मायाविहितं शरजालं महत्तरम् ।। १४ ।।
राजेन्द्र! तदनन्तर क्षेमवृद्धिने स्वयं भी साम्बके ऊपर मायानिर्मित बाणोंकी भारी वर्षा
प्रारम्भ की ।। १४ ।।
ततो मायामयं जाल॑ माययैव विदीर्य सः ।
साम्ब: शरसहस्रेण रथमस्याभ्यवर्षत ।। १५ ||
साम्बने उस मायामय बाणजालको मायासे ही छिजन्न-भिन्न करके क्षेमवृद्धिके रथपर
सहस्रों बाणोंकी झड़ी लगा दी ।। १५ ।।
ततः स विद्धः साम्बेन क्षेमवृद्धिश्चमूपति: ।
अपायाज्जवनैरश्रै: साम्बबाणप्रपीडित: ।। १६ ।।
साम्बने सेनापति क्षेमवृद्धिको अपने बाणोंसे घायल कर दिया। वह साम्बकी
बाणवर्षासे पीड़ित हो शीघ्रगामी अश्वोंकी सहायतासे (लड़ाईका मैदान छोड़कर) भाग
गया ।। १६ ||
तस्मिन् विप्रद्रुते क्ूरे शाल्वस्याथ चमूपतौ ।
वेगवान् नाम दैतेय: सुतं मे5भ्यद्रवद् बली ।। १७ ।।
शाल्वके क्रूर सेनापति क्षेमवृद्धिके भाग जाने-पर वेगवान् नामक बलवान दैत्यने मेरे
पुत्रपर आक्रमण किया ।। १७ |।
अभिफपन्नस्तु राजेन्द्र साम्बो वृष्णिकुलोद्वह: ।
वेगं वेगवतो राजं॑स्तस्थौ वीरो विधारयन् ।। १८ ।।
राजेन्द्र! वृष्णिवेंशका भार वहन करनेवाला वीर साम्ब वेगवान्के वेगको सहन करते
हुए धैर्यपूर्वक उसका सामना करने लगा ।। १८ ।।
स वेगवति कौन्तेय साम्बो वेगवत्तीं गदाम् ।
चिक्षेप तरसा वीरो व्याविद्धय सत्यविक्रम: ।। १९ ।।
कुन्तीनन्दन! सत्यपराक्रमी वीर साम्बने अपनी वेगशालिनी गदाको बड़े वेगसे घुमाकर
वेगवान् दैत्यके सिरपर दे मारा || १९ |।
तया त्वभिहतो राजन् वेगवान् न््यपतद् भुवि ।
वातरुग्ण इव क्षुण्णो जीर्णमूलो वनस्पति: ।॥ २० ।।
राजन्! उस गदासे आहत होकर वेगवान् इस प्रकार पृथ्वीपर गिर पड़ा, मानो जीर्ण हुई
जड़वाला पुराना वृक्ष हवाके वेगसे टूटकर धराशायी हो गया हो ।। २० ।।
तस्मिन् विनिहते वीरे गदानुन्ने महासुरे ।
प्रविश्य महतीं सेनां योधयामास मे सुत: ।॥ २१ ।।
गदासे घायल हुए उस वीर महादैत्यके मारे जानेपर मेरा पुत्र साम्ब शाल्वकी विशाल
सेनामें घुसकर युद्ध करने लगा ।। २१ ।।
चारुदेष्णेन संसक्तो विविन्ध्यो नाम दानव: ।
महारथ: समाज्ञातो महाराज महाधनु: ।। २२ ।।
महाराज! चारुदेष्णके साथ महारथी एवं महान् धनुर्धर विविन्ध्य नामक दानव
शाल्वकी आज्ञासे युद्ध कर रहा था || २२ ।।
ततः सुतुमुलं युद्ध चारुदेष्णविविन्ध्ययो: ।
वृत्रवासवयो राजन् यथा पूर्व तथाभवत् ॥। २३ ।।
राजन्! तदनन्तर चारुदेष्ण और विविन्ध्यमें वैसा ही भयंकर युद्ध होने लगा, जैसा
पहले इन्द्र और वृत्रासुरमें हुआ था || २३ ।।
अन्योन्यस्याभिसंक्रुद्धावन्योन्यं जघ्नतुः शरै: ।
विनदन्तौ महारावान् सिंहाविव महाबलौ ।। २४ ।।
वे दोनों एक-दूसरेपर कुपित हो बाणोंसे परस्पर आघात कर रहे थे और महाबली
सिंहोंकी भाँति जोर-जोरसे गर्जना करते थे || २४ ।।
रौक्मिणेयस्ततो बाणमग्न्यकॉपमवर्चसम् |
अभिमन्त्र्य महास्त्रेण संदधे शत्रुनाशनम् ।। २५ ।।
तदनन्तर रुक्मिणीनन्दन चारुदेष्णने अग्नि और सूर्यके समान तेजस्वी शत्रुनाशक
बाणको महान् (दिव्य) अस्त्रसे अभिमन्त्रित करके अपने धनुषपर संधान किया ।। २५ |।
स विविन्ध्याय सक्रोध: समाहूय महारथ: ।
चिक्षेप मे सुतो राजन् स गतासुरथापतत् ।। २६ ।।
राजन! तत्पश्चात् मेरे उस महारथी पुत्रने क्रोधमें भरकर विविन्ध्यपर वह बाण चलाया।
उसके लगते ही विविन्ध्य प्राणशून्य होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा || २६ ।।
विविन्ध्यं निहतं दृष्टवा तां च विक्षोभितां चमूम् |
कामगेन स सौभेन शाल्व: पुनरुपागमत् ।। २७ ।।
विविन्ध्यको मारा गया और सेनाको तहस-नहस हुई देख शाल्व इच्छानुसार चलनेवाले
सौभ विमानद्वारा फिर वहाँ आया || २७ ।।
ततो व्याकुलितं सर्व द्वारकावासि तद् बलम् |
दृष्टवा शाल्वं महाबाहो सौभस्थं नृपते तदा ।। २८ ।।
महाबाहु नरेश्वर! उस समय सौभ विमानपर बैठे हुए शाल्वको देखकर द्वारकाकी सारी
सेना भयसे व्याकुल हो उठी ।। २८ ।।
ततो निर्याय कौरव्य अवस्थाप्य च तद् बलम् |
आनर्तानां महाराज प्रद्युम्नो वाक्यमब्रवीत् ।। २९ ।।
महाराज कुरुनन्दन! तब प्रद्युम्नने निकलकर आनर्तवासियोंकी उस सेनाको धीरज
बँधाया और इस प्रकार कहा-- || २९ ।।
सर्वे भवन्तस्तिष्ठ न्तु सर्वे पश्यन्तु मां युधि ।
निवारयन्तं संग्रामे बलात् सौभं॑ सराजकम् ।। ३० ।।
“यादवो! आप सब लोग (चुपचाप) खड़े रहें और मेरे पराक्रमको देखें; मैं किस प्रकार
युद्धमें राजा शाल्वके सहित सौभ विमानकी गतिको रोक देता हूँ || ३० ।।
अहं सौभपते: सेनामायसैर्भुजगैरिव ।
धनुर्भुजविनिर्मुक्तिर्नाशयाम्यद्य यादवा: ।। ३१ ।।
“यदुवंशियो! मैं अपने धरनुर्दण्डसे छूटे हुए लोहेके सर्पतुल्य बाणोंद्वारा सौभपति
शाल्वकी सेनाको अभी नष्ट किये देता हूँ ।। ३१ ।।
आश्वसथध्व॑ न भी: कार्या सौभराडटद्य नश्यति ।
मयाभिपन्नो दुष्टात्मा ससौभो विनशिष्यति ।। ३२ ।।
“आप धैर्य धारण करें, भयभीत न हों, सौभराज अभी नष्ट हो रहा है। दुष्टात्मा शाल्व
मेरा सामना होते ही सौभ विमानसहित नष्ट हो जायगा” ।। ३२ ।।
एवं ब्रुवति संहृष्टे प्रद्युम्ने पाण्डुनन्दन ।
विछितं तद् बल॑ वीर युयुधे च यथासुखम् ।। ३३ ।।
वीर पाण्डुनन्दन! हर्षमें भरे हुए प्रद्युम्मनके ऐसा कहने पर वह सारी सेना स्थिर हो
पूर्ववत् प्रसन्नता और उत्साहके साथ युद्ध करने लगी ।। ३३ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि सौभवधोपाख्याने
षोडशो<ध्याय: ।। १६ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अर्जुनाथिगमनपर्वमें सौभवधोपाख्यानविषयक
सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६ ॥/
हि आय ० () है 7
सप्तदशो< ध्याय:
प्रद्युम्म और शाल्वका घोर युद्ध
वायुदेव उवाच
एवमुक्त्वा रौक्मिणेयो यादवान् भरतर्षभ ।
दंशितै्हरिभियुक्ते रथमास्थाय काज्चनम् ।। १ ।।
उच्छ़ित्य मकर केतु व्यात्ताननमिवान्तकम् ।
उत्पतद्धिरिवाकाशं तैहयैरन्वयात् परान् ।। २ ।।
विक्षिपन् नादयंश्वापि धनु: श्रेष्ठ महाबल: ।
तूणखड्गधर: शूरो बद्धगोधाड्गुलित्रवान् ।। ३ ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं--भरतश्रेष्ठ! यादवोंसे ऐसा कहकर रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न
एक सुवर्णमय रथपर आरूढ़ हुए, जिसमें बख्तर पहनाये हुए घोड़े जुते थे। उन्होंने अपनी
मकरचिह्लित ध्वजाको ऊँचा किया, जो मुह बाये हुए कालके समान प्रतीत होती थी। उनके
रथके घोड़े ऐसे चलते थे, मानो आकाशमें उड़े जा रहे हों। ऐसे अश्वोंसे जुते हुए रथके द्वारा
महाबली प्रद्युम्नने शत्रुओंपर आक्रमण किया। वे अपने श्रेष्ठ धनुषको बारंबार खींचकर
उसकी टंकार फैलाते हुए आगे बढ़े। उन्होंने पीझठपर तरकस और कमरमें तलवार बाँध ली
थी। उनमें शौर्य भरा था और उन्होंने गोहके चमड़ेके बने हुए दस्ताने पहन रखे थे || १--
३।।
स विद्युच्छुरितं चापं विहरन् वै तलातू तलम् ।
मोहयामास दैतेयान् सर्वान् सौभनिवासिन: ।। ४ ।।
वे अपने धनुषको एक हाथसे दूसरे हाथमें ले लिया करते थे। उस समय वह धनुष
बिजलीके समान चमक रहा था। उन्होंने उस धनुषके द्वारा सौभ विमानमें रहनेवाले समस्त
दैत्योंको मूर्च्छिंत कर दिया ।। ४ ।।
तस्य विक्षिपतश्चापं संदधानस्य चासकृत् ।
नानन््तरं ददृशे कश्रिन्निघ्नतः शात्रवान् रणे ।। ५ ।।
वे बारंबार धनुषको खींचते, उसपर बाण रखते और उसके द्वारा शत्रुसैनिकोंको युद्धमें
मार डालते थे। उनकी उक्त क्रियाओंमें किसीको थोड़ा-सा भी अन्तर नहीं दिखायी देता
था।। ५।।
मुखस्य वर्णो न विकल्पते5स्य
चेलुश्व गात्राणि न चापि तस्य ।
सिंहोन्नतं चाप्यभिगर्जतो<5स्य
शुश्राव लोको<द्धुतवीर्यमग्रयम् ।। ६ ।।
उनके मुखका रंग तनिक भी नहीं बदलता था। उनके अंग भी विचलित नहीं होते थे।
सब ओर गर्जना करते हुए प्रद्युम्नका उत्तम एवं अद्भुत बल-पराक्रमका सूचक सिंहनाद
सब लोगोंको सुनायी देता था ।। ६ |।
जलेचर: काञ्चनयष्टिसंस्थो
व्यात्तानन: सर्वतिमिप्रमाथी ।
वित्रासयन् राजति वाहमुख्ये
शाल्वस्य सेनाप्रमुखे ध्वजाग्रय: ।। ७ ।।
शाल्वकी सेनाके ठीक सामने प्रद्युम्नके श्रेष्ठ रथपर उनकी उत्तम ध्वजा फहराती हुई
शोभा पा रही थी। उस ध्वजाके सुवर्णमय दण्डके ऊपर सब तिमि नामक जल-जन्तुओंका
प्रमथन करनेवाले मुँह बाये एक मगरमच्छका चिह्न था। वह शशत्रुसैनिकोंको अत्यन्त
भयभीत कर रहा था ।। ७ ।।
ततस्तूर्ण विनिष्पत्य प्रद्युम्न: शत्रुकर्षण: ।
शाल्वमेवाभिदुद्राव विधित्सु: कलहं नूप ।। ८ ।।
नरेश्वर! तदनन्तर शत्रुहन्ता प्रद्युम्न तुरंत आगे बढ़कर राजा शाल्वके साथ युद्ध करनेकी
इच्छासे उसीकी ओर दौड़े ।। ८ ।।
अभियान तु वीरेण प्रद्युम्नेन महारणे ।
नामर्षयत संक्रुद्ध: शाल्व: कुरुकुलोद्ह ।। ९ ।।
कुरुकुलतिलक! उस महासंग्राममें वीर प्रद्युम्नके द्वारा किया हुआ वह आक्रमण क्रुद्ध
हुआ राजा शाल्व न सह सका ।। ९ ||
स रोषमदमत्तो वै कामगादवरुह्मु च ।
प्रद्युम्नं योधयामास शाल्व: परपुरंजय: ।। १० ।।
शत्रुकी राजधानीपर विजय पानेवाले शाल्वने रोष एवं बलके मदसे उन्मत्त हो
इच्छानुसार चलनेवाले विमानसे उतरकर प्रद्युम्नसे युद्ध आरम्भ किया ।। १० ।।
तयो: सुतुमुलं युद्ध शाल्ववृष्णिप्रवीरयो: ।
समेता ददृशुलोंका बलिवासवयोरिव ।। ११ ।।
शाल्व तथा वृष्णिवंशी वीर प्रद्युम्ममें बलि और इन्द्रके समान घोर युद्ध होने लगा। उस
समय सब लोग एकत्र होकर उन दोनोंका युद्ध देखने लगे ।। ११ ।।
तस्य मायामयो वीर रथो हेमपरिष्कृत: ।
सपताक: सध्वजश्न सानुकर्ष: स तूणवान् ॥ १२ ।।
वीर! शाल्वके पास सुवर्णभूषित मायामय रथ था। वह रथ ध्वजा, पताका, अनुकर्ष
(हरसा)- और तरकससे युक्त था ।। १२ ।।
सतं रथवरं श्रीमान् समारुह्मु किल प्रभो ।
मुमोच बाणान् कौरव्य प्रद्युम्नाय महाबल: ।। १३ ।।
प्रभो कुरुनन्दन! श्रीमान् महाबली शाल्वने उस श्रेष्ठ रथपर आरूढ़ हो प्रद्युम्नपर
बाणोंकी वर्षा आरम्भ की ।। १३ ।।
ततो बाणमयं वर्ष व्यसृजत् तरसा रणे ।
प्रद्युम्नो भुजवेगेन शाल्वं सम्मोहयन्निव ।। १४ ।।
तब प्रद्युम्न भी युद्धभूमिमें अपनी भुजाओंके वेगसे शाल्वको मोहित करते हुए-से
उसके ऊपर शीघ्रतापूर्वक बाणोंकी बौछार करने लगे ।। १४ ।।
स तैरभिहत: संख्ये नामर्षयत सौभराट् ।
शरान् दीप्ताग्निसंकाशान् मुमोच तनये मम ।। १५ ।।
सौभ विमानका स्वामी राजा शाल्व युद्धमें प्रद्युममके बाणोंसे घायल होनेपर यह सहन
नहीं कर सका--अमर्षमें भर गया और मेरे पुत्रपर प्रजवलित अग्निके समान तेजस्वी बाण
छोड़ने लगा ।। १५ ।।
तमापतन्तं बाणौघं स चिच्छेद महाबल: ।
ततश्चान्याछ्छरान् दीप्तान् प्रचिक्षेप सुते मम ।। १६ ।।
महाबली प्रद्युम्नने उन बाणोंको आते ही काट गिराया। तत्पश्चात् शाल्वने मेरे पुत्रपर
और भी बहुत-से प्रज्वलित बाण छोड़े ।। १६ ।।
स शाल्वबाणै राजेन्द्र विद्धो रुक्मिणिनन्दन: ।
मुमोच बाणं त्वरितो मर्मभेदिनमाहवे ।। १७ ।।
राजेन्द्र! शाल्वके बाणोंसे घायल होकर रुक्मिणी-नन्दन प्रद्युम्नने तुरंत ही उस
युद्धभूमिमें शाल्वपर एक ऐसा बाण चलाया, जो मर्मस्थलको विदीर्ण कर देनेवाला
था ।। १७ ||
तस्य वर्म विभिवद्याशु स बाणो मत्सुतेरित: ।
विव्याध हृदयं पत्री स मुमोह पपात च ।। १८ ।।
मेरे पुत्रके चलाये हुए उस बाणने शाल्वके कवचको छेदकर उसके हृदयको बींध
डाला। इससे वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ा ।। १८ ।।
तस्मिन् निपतिते वीरे शाल्वराजे विचेतसि ।
सम्प्राद्रवन् दानवेन्द्रा दारयन्तो वसुंधराम् ।। १९ ।।
वीर शाल्वराजके अचेत होकर गिर जानेपर उसकी सेनाके समस्त दानवराज पृथ्वीको
विदीर्ण करके पातालमें पलायन कर गये ।। १९ ।।
हाहाकृतमभूत् सैन्यं शाल्वस्य पृथिवीपते ।
नष्टसंज्ञे निपतिते तदा सौभपतौ नृूपे ।। २० ।।
पृथ्वीपते! उस समय सौभ विमानका स्वामी राजा शाल्व जब संज्ञाशून्य होकर
धराशायी हो गया, तब उसकी समस्त सेनामें हाहाकार मच गया ।। २० ।।
तत उत्थाय कौरव्य प्रतिलभ्य च चेतनाम् ।
मुमोच बाणान् सहसा प्रद्युम्नाय महाबल: ।। २१ ।।
कुरुश्रेष्ठ! तत्पश्चात् जब चेत हुआ, तब महाबली शाल्व सहसा उठकर प्रद्युम्नपर
बाणोंकी वर्षा करने लगा || २१ ।।
तैः स विद्धों महाबाहु: प्रद्युम्न: समरे स्थित: ।
जन्रुदेशे भृशं वीरो व्यवासीदद् रथे तदा ।। २२ ।।
शाल्वके उन बाणोंद्वारा कण्ठके मूलभागमें गहरा आघात लगनेसे अत्यन्त घायल
होकर समरमें स्थित महाबाहु वीर प्रद्युम्म उस समय रथपर मूर्च्छित हो गये || २२ ।।
तं स विद्धवा महाराज शाल्वो रुक्मिणिनन्दनम् |
ननाद सिंहनादं वै नादेनापूरयन् महीम् ।। २३ ।।
महाराज! रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्मको घायल करके शाल्व बड़े जोर-जोरसे सिंहनाद
करने लगा। उसकी आवाजसे वहाँकी सारी पृथ्वी गूँज उठी ।। २३ ।॥।
ततो मोहं समापन्ने तनये मम भारत ।
मुमोच बाणांस्त्वरित: पुनरन्यान् दुरासदान् ।। २४ ।।
भारत! मेरे पुत्रके मूर्च्छित हो जानेपर भी शाल्वने उनपर और भी बहुत-से दुर्धर्ष बाण
शीघ्रतापूर्वक छोड़े || २४ ।।
स तैरभिहतो बाणैर्बहुभिस्तेन मोहित: ।
निश्चेष्ट: कौरवश्रेष्ठ प्रद्युम्नो5भूद् रणाजिरे ।। २५ ।।
कौरवश्रेष्ठ! इस प्रकार बहुत-से बाणोंसे आहत होनेके कारण प्रद्युम्न उस रणांगणमें
मूर्च्छित एवं निश्चेष्ट हो गये || २५ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि सौभवधोपाख्याने
सप्तदशो<ड्ध्याय: ।। १७ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अर्जुनाभियगमनपर्वमें सौभवधोपाख्यानविषयक
सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १७ ॥।
अप: हर () है ०
- रथके नीचे पहियेके ऊपर लगा रहनेवाला काष्ठ।
अष्टादशो< ध्याय:
मूर्च्ाावस्थामें सारथिके द्वारा रणभूमिसे बाहर लाये
जानेपर प्रद्युम्नका अनुताप और इसके लिये सारथिको
उपालम्भ देना
वायुदेव उवाच
शाल्वबाणार्दिते तस्मिन् प्रद्युम्ने बलिनां वरे ।
वृष्णयो भग्नसंकल्पा विव्यथु: पृतनागता: ।। १ ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं--बलवानोंमें श्रेष्ठ प्रद्यम्म जब शाल्वके बाणोंसे पीड़ित हो
(मूर्च्छित हो) गये, तब सेनामें आये हुए वृष्णिवंशी वीरोंका उत्साह भंग हो गया। उन सबको
बड़ा दुःख हुआ ।। १ |।
हाहाकृतमभूत् सर्व वृष्ण्यन्धकबलं तत: ।
प्रद्ुम्ने मोहिते राजन् परे च मुदिता भूशम् ।। २ ।।
राजन! प्रद्युम्मके मोहित होनेपर वृष्णि और अन्धकवंशकी सारी सेनामें हाहाकार मच
गया और शत्रुलोग अत्यन्त प्रसन्नतासे खिल उठे ।। २ ।।
तं॑ तथा मोहितं दृष्टवा सारथिर्जवनै्यै: ।
रणादपाहरत् तूर्ण शिक्षितो दारुकिस्तदा ।। ३ ।।
दारुकका पुत्र प्रद्युम्नका सुशिक्षित सारथि था। वह प्रद्युम्नको इस प्रकार मूर्च्छित देख
वेगशाली अअश्रोंद्वारा उन्हें तुरंत रणभूमिसे बाहर ले गया ।। ३ ।।
नातिदूरापयाते तु रथे रथवरप्रणुत् ।
धनुर्गृहीत्वा यन्तारं लब्धसंज्ञो5ब्रवीदिदम् ॥। ४ |
अभी वह रथ अधिक दूर नहीं जाने पाया था, तभी बड़े-बड़े रथियोंको परास्त
करनेवाले प्रद्युम्म सचेत हो गये और हाथमें धनुष लेकर सारथिसे इस प्रकार बोले
-- || ४ ||
सौते कि ते व्यवसितं कस्माद् यासि पराड्मुख: ।
नैष वृष्णिप्रवीराणामाहवे धर्म उच्यते ।। ५ ।।
'सूतपुत्र! आज तूने कया सोचा है? क्यों युद्धसे मुँह मोड़कर भागा जा रहा है? युद्धसे
पलायन करना वृष्णिवंशी वीरोंका धर्म नहीं है ।। ५ ।।
कच्चित् सौते न ते मोह: शाल्वं दृष्टवा महाहवे ।
विषादो वा रण दृष्टवा ब्रूहि मे त्वं यथातथम् ।। ६ ।।
'सूतनन्दन! इस महासंग्राममें राजा शाल्वको देखकर तुझे मोह तो नहीं हो गया है?
अथवा युद्ध देखकर तुझे विषाद तो नहीं होता है? मुझसे ठीक-ठीक बता (तेरे इस प्रकार
भागनेका क्या कारण है?)' ॥। ६ ।।
सौतिर्वाच
जानार्दने न मे मोहो नापि मां भयमाविशत् |
अतिभारं तु ते मन्ये शाल्वं केशवनन्दन ।। ७ ।।
सूतपुत्रने कहा--जनार्दनकुमार! न मुझे मोह हुआ है और न मेरे मनमें भय ही समाया
है। केशवनन्दन! मुझे ऐसा मालूम होता है कि यह राजा शाल्व आपके लिये अत्यन्त भार-
सा हो रहा है || ७ ।।
सो<5पयामि शनैर्वीर बलवानेष पापकृत् ।
मोहितश्न रणे शूरो रक्ष्य: सारथिना रथी ।॥। ८ ।।
वीरवर! मैं धीरे-धीरे रणभूमिसे दूर इसलिये जा रहा हूँ कि यह पापी शाल्व बड़ा
बलवान है। सारथिका यह धर्म है कि यदि शूरवीर रथी संग्राममें मूर्च्छिंत हो जाय तो वह
किसी प्रकार उसके प्राणोंकी रक्षा करे ।। ८ ।।
आयुष्म॑स्त्वं मया नित्यं॑ रक्षितव्यस्त्वयाप्यहम् ।
रक्षितव्यो रथी नित्यमिति कृत्वापयाम्यहम् ।। ९ ।।
आयुष्मन्! मुझे आपकी और आपको मेरी सदा रक्षा करनी चाहिये। रथी सारथिके
द्वारा सदा रक्षणीय है, इस कर्तव्यका विचार करके ही मैं रणभूमिसे लौट रहा हूँ ।। ९ ।।
एकश्नासि महाबाहो बहवश्चापि दानवा: ।
न सम॑ रौक्मिणेयाहं रणे मत्वापयामि वै ।। १० ।।
महाबाहो! आप अकेले हैं और इन दानवोंकी संख्या बहुत है। रुक्मिणीनन्दन! इस
युद्धमें इतने विपक्षियोंका सामना करना अकेले आपके लिये कठिन है; यह सोचकर ही मैं
युद्धसे हट रहा हूँ ।। १० ।।
एवं ब्रुवति सूते तु तदा मकरकेतुमान् ।
उवाच सूतं कौरव्य निवर्तय रथं पुन: ।। ११ ।।
दारुकात्मज मैवं त्वं पुनः कार्षी: कथंचन ।
व्यपयानं रणात् सौते जीवतो मम कहिचित् ।। १२ ।।
कुरुनन्दन! सूतके ऐसा कहनेपर मकरथ्वज प्रद्युम्नने उससे कहा--“दारुककुमार! तू
रथको पुनः युद्धभूमिकी ओर लौटा ले चल। सूतपुत्र! आजसे फिर कभी किसी प्रकार भी
मेरे जीते-जी रथको रणभूमिसे न लौटाना ।। ११-१२ ।।
न स वृष्णिकुले जातो यो वै त्यजति संगरम् |
यो वा निपतितं हन्ति तवास्मीति च वादिनम् ॥। १३ ||
वृष्णिवंशमें ऐसा कोई (वीर पुरुष) नहीं पैदा हुआ है, जो युद्ध छोड़कर भाग जाय
अथवा गिरे हुएको तथा “मैं आपका हूँ यह कहनेवालेको मारे ।। १३ ।।
तथा स्त्रियं च यो हन्ति बाल॑ वृद्ध तथैव च ।
विरथं विप्रकीर्ण च भग्नशस्त्रायुधं तथा ।। १४ ।।
“इसी प्रकार स्त्री, बालक, वृद्ध, रथहीन, अपने पक्षसे बिछुड़े हुए तथा जिसके अस्त्र-
शस्त्र नष्ट हो गये हों, ऐसे लोगोंपर जो हथियार उठाता हो, ऐसा मनुष्य भी वृष्णिकुलमें नहीं
उत्पन्न हुआ है ।। १४ ।।
त्वं च सूतकुले जातो विनीत:ः सूतकर्मणि ।
धर्मज्ञश्षासि वृष्णीनामाहवेष्वपि दारुके || १५ ।।
“दारुककुमार! तू सूतकुलमें उत्पन्न होनेके साथ ही सूतकर्मकी अच्छी तरह शिक्षा पा
चुका है। वृष्णिवंशी वीरोंका युद्धमें क्या धर्म है, यह भी भली-भाँति जानता है ।। १५ ।।
स जानंश्वरितं कृत्स्नं वृष्णीनां पृतनामुखे ।
अपयानं पुन: सौते मैवं कार्षी: कथंचन ।। १६ ।।
'सूतनन्दन! युद्धके मुहानेपर डटे हुए वृष्णिकुलके वीरोंका सम्पूर्ण चरित्र तुझसे अज्ञात
नहीं है; अतः तू फिर कभी किसी तरह भी युद्धसे न लौटना ।। १६ ।।
अपयातं हत॑ पृषछ्े भ्रान्तं रणपलायितम् |
गदाग्रजो दुराधर्ष: कि मां वक्ष्यति माधव: ।। १७ ।।
'युद्धसे लौटने या भ्रान्तचित्त होकर भागनेपर जब मेरी पीठमें शत्रुके बाणोंका आघात
लगा हो, उस समय किसीसे परास्त न होनेवाले मेरे पिता गदाग्रज भगवान् माधव मुझसे
क्या कहेंगे? ।। १७ ।।
केशवस्याग्रजो वापि नीलवासा मदोत्कट: ।
किं वक्ष्यति महाबाहुर्बलदेव: समागत: ।। १८ ।।
“अथवा पिताजीके बड़े भाई नीलाम्बरधारी मदोत्कट महाबाहु बलरामजी जब यहाँ
पधारेंगे, तब वे मुझसे क्या कहेंगे? ।। १८ ।।
कि वक्ष्यति शिनेर्नप्ता नरसिंहो महाधनु: ।
अपयातं रणात् सूत साम्बश्न समितिंजय: ।। १९ ।।
'सूत! युद्धसे भागनेपर मनुष्योंमें सिंहके समान पराक्रमी महाधनुर्धर सात्यकि तथा
समरविजयी साम्ब मुझसे क्या कहेंगे? ।। १९ ।।
चारुदेष्ण श्व दुर्धर्षस्तथैव गदसारणौ ।
अक्रूरश्व महाबाहु: किं मां वक्ष्यति सारथे ॥। २० ।।
'सारथे! दुर्धर्ष वीर चारुदेष्ण, गद, सारण और महाबाहु अक्रूर मुझसे क्या
कहेंगे? || २० ।।
शूरं सम्भावितं शान्तं नित्यं पुरुषमानिनम् |
स्त्रियश्न वृष्णिवीराणां कि मां वक्ष्यन्ति संहता: ।। २१ ।।
“मैं शूरवीर, सम्भावित (सम्मानित), शान्तस्वभाव तथा सदा अपनेको वीर पुरुष
माननेवाला समझा जाता हूँ। (युद्धसे भागनेपर) मुझे देखकर झुंड-की-झुंड एकत्र हुई
वृष्णिवीरोंकी स्त्रियाँ मुझे क्या कहेंगी? || २१ ।।
प्रद्युम्नोडयमुपायाति भीतस्त्यक्त्वा महाहवम् ।
धिगेनमिति वक्ष्यन्ति न तु वक्ष्यन्ति साथ्विति ।। २२ ।।
“सब लोग यही कहेंगे--“यह प्रद्युम्म भयभीत हो महान् संग्राम छोड़कर भागा आ रहा
है; इसे धिक््कार है।” उस अवस्थामें किसीके मुखसे मेरे लिये अच्छे शब्द नहीं
निकलेंगे || २२ ।।
धिग्वाचा परिहासो5पि मम वा मद्विधस्य वा ।
मृत्युनाभ्यधिक: सौते स त्वं मा व्यपया: पुनः: ।। २३ ।।
'सूतकुमार! मेरे अथवा मेरे-जैसे किसी भी पुरुषके लिये धिक्कारयुक्त वाणीद्वारा कोई
परिहास भी कर दे तो वह मृत्युसे भी अधिक कष्ट देनेवाला है; अतः तू फिर कभी युद्ध
छोड़कर न भागना ॥। २३ |।
भारं हि मयि संन्यस्य यातो मधुनिहा हरि: ।
यज्ञ भारतसिंहस्य न हि शक्योउ्द्य मर्षितुम् ।। २४ ।।
“मेरे पिता मधुसूदन भगवान् श्रीहरि यहाँकी रक्षाका सारा भार मुझपर रखकर
भरतवंशशिरोमणि धर्मराज युधिष्ठिरके यज्ञमें गये हैं। (आज मुझसे जो अपराध हो गया है,)
इसे वे कभी क्षमा नहीं कर सकेंगे ।। २४ ।।
कृतवर्मा मया वीरो निर्यास्यन्नेव वारित: ।
शाल्व॑ निवारयिष्ये5हं तिष्ठ त्वमिति सूतज || २५ ।।
'सूतपुत्र! वीर कृतवर्मा शाल्वका सामना करनेके लिये पुरीसे बाहर आ रहे थे; किंतु
मैंने उन्हें रोक दिया और कहा--“आप यहीं रहिये। मैं शाल्वको परास्त करूँगा” ।। २५ ।।
सच सम्भावयन् मां वै निवृत्तो हृदिकात्मज: ।
त॑ समेत्य रणं त्यक्त्वा कि वक्ष्यामि महारथम् ।। २६ ।।
“कृतवर्मा मुझे इस कार्यके लिये समर्थ जानकर युद्धसे निवृत्त हो गये। आज युद्ध
छोड़कर जब मैं उन महारथी वीरसे मिलूँगा, तब उन्हें क्या जवाब दूँगा? ।। २६ ।।
उपयान्तं दुराधर्ष शडुखचक्रगदाधरम् ।
पुरुष पुण्डरीकाक्ष॑ कि वक्ष्यामि महाभुजम् ।। २७ ।।
“शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले कमलनयन महाबाहु एवं अजेय वीर भगवान्
पुरुषोत्तम जब यहाँ मेरे निकट पदार्पण करेंगे, उस समय मैं उन्हें क्या उत्तर दूँगा? ।। २७ ।।
सात्यकिं बलदेवं च ये चान्येडन्धकवृष्णय: ।
मया स्पर्थन्ति सततं कि नु वक्ष्यामि तानहम् ।। २८ ।।
'सात्यकिसे, बलरामजीसे तथा अन्धक और वृष्णिवंशके अन्य वीरोंसे, जो सदा मुझसे
स्पर्धा रखते हैं, मैं क्या कहूँगा? ।। २८ ।।
त्यक्त्वा रणमिमं सौते पृष्ठतो5भ्याहतः शरै: ।
त्वयापनीतो विवशो न जीवेयं कथंचन ।। २९ ।।
“'सूतपुत्र! तेरे द्वारा रणसे दूर लाया हुआ मैं इस युद्धको छोड़कर और पीठपर बाणोंकी
चोट खाकर विवशतापूर्ण जीवन किसी प्रकार भी नहीं धारण करूँगा ।। २९ ।।
स निवर्त रथेनाशु पुनर्दारुकनन्दन ।
न चैतदेवं कर्तव्यमथापत्सु कथंचन ।। ३० ।।
“दारुकनन्दन! अतः तू शीघ्र ही रथके द्वारा पुनः संग्रामभूमिकी ओर लौट। आजसे
मुझपर आपत्ति आनेपर भी तू किसी तरह ऐसा बर्ताव न करना ।। ३० ||
न जीवितमहं सौते बहु मनन््ये कथंचन ।
अपयातो रणाद् भीत: पृष्ठतो5भ्याहत: शरै: ॥। ३१ ।।
'सूतपुत्र! पीठपर बाणोंकी चोट खाकर भयभीत हो युद्धसे भागनेवालेके जीवनको मैं
किसी प्रकार भी अधिक आदर नहीं देता ।। ३१ ।।
कदापि सूतपुत्र त्वं जानीषे मां भयार्दितम् ।
अपयातं रणं हित्वा यथा कापुरुषं तथा ।। ३२ ।।
'सूतपुत्र! क्या तू मुझे कायरोंकी तरह भयसे पीड़ित और युद्ध छोड़कर भागा हुआ
समझता है? ।। ३२ ।।
न युक्त भवता त्यक्तुं संग्रामं दारुकात्मज ।
मयि युद्धार्थिनि भूशं स त्वं याहि यतो रणम् ॥। ३३ ।।
“दारुककुमार! तुझे संग्रामभूमिका परित्याग करना कदापि उचित नहीं था। विशेषत:
उस अवस्थामें, जब कि मैं युद्धकी अभिलाषा रखता था। अतः जहाँ युद्ध हो रहा है, वहाँ
चल” ।। ३३ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि सौभवधोपाख्याने
अष्टादशो< ध्याय: ।। १८ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अजुनाथिगमनपर्वमें सौभवधोपाख्यानविषयक
अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १८ ॥।
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एकोनविशो< ध्याय:
प्रद्युम्नके द्वारा शाल्वकी पराजय
वायुदेव उवाच
एवमुक्तस्तु कौन्तेय सूतपुत्रस्ततो<ब्रवीत् ।
प्रद्युम्नं बलिनां श्रेष्ठ मधुरं श्लक्ष्णमज्जसा ।। १ ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं--कुन्तीनन्दन! प्रद्युम्मके ऐसा कहनेपर सूतपुत्रने शीघ्र ही
बलवानोंमें श्रेष्ठ प्रद्युम्नसे थोड़े शब्दोंमें मधुरतापूर्वक कहा-- ।। १ ॥।
न मे भयं रौक्मिणेय संग्रामे यच्छतो हयान् ।
युद्धज्ञो5स्मि च वृष्णीनां नात्र किंचिदतोडन्यथा ।। २ ।।
'रुक्मिणीनन्दन! संग्रामभूमिमें घोड़ोंकी बागडोर सँभालते हुए मुझे तनिक भी भय
नहीं होता। मैं वृष्णिवंशियोंके युद्धधर्मको भी जानता हूँ। आपने जो कुछ कहा है, उसमें
कुछ भी अन्यथा नहीं है ।। २ ।।
आमुष्मन्नुपदेशस्तु सारथ्ये वर्ततां स्मृत: ।
सर्वार्थेषु रथी रक्ष्यस्त्वं चापि भूशपीडित: ।। ३ ।।
“आयुष्मन्! मैंने तो सारथ्यमें तत्पर रहनेवाले लोगोंके इस उपदेशका स्मरण किया था
कि सभी दशाओंमें रथीकी रक्षा करनी चाहिये। उस समय आप भी अधिक पीड़ित
थे।।३।।
त्वं हि शाल्वप्रयुक्तेन शरेणाभिहतो भृशम् |
कश्मलाभिहतो वीर ततो5हमपयातवान् ।। ४ ।।
“वीर! शाल्वके चलाये हुए बाणोंसे अधिक घायल होनेके कारण आपको मूर्च्छा आ
गयी थी, इसीलिये मैं आपको लेकर रणभूमिसे हटा था ।। ४ ।।
स त्वं सात्वतमुख्याद्य लब्धसंज्ञो यदृच्छया ।
पश्य मे हयसंयाने शिक्षां केशवनन्दन ।। ५ ।।
'सात्वतवीरोंमें प्रधान केशवनन्दन! अब दैवेच्छासे आप सचेत हो गये हैं, अतः घोड़े
हॉकनेकी कलामें मुझे कैसी उत्तम शिक्षा मिली है, उसे देखिये || ५ ।।
दारुकेणाहमुत्पन्नो यथावच्चैव शिक्षित: ।
वीतभी: प्रविशाम्येतां शाल्वस्य प्रथितां चमूम् ।। ६ ।।
“मैं दारुकका पुत्र हूँ और उन्होंने ही मुझे सारथ्यकर्मकी यथावत् शिक्षा दी है। देखिये!
अब मैं निर्भय होकर राजा शाल्वकी इस विख्यात सेनामें प्रवेश करता हूँ” || ६ ।।
वायुदेव उवाच
एवमुक््त्वा ततो वीर हयान् संचोद्य संगरे ।
रश्मिभिस्तु समुद्यम्य जवेनाभ्यपतत् तदा ।। ७ ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं--वीरवर! ऐसा कहकर उस सूतपुत्रने घोड़ोंकी बागडोर
हाथमें लेकर उन्हें युद्धभूमिकी ओर हाँका और शीघ्रतापूर्वक वहाँ जा पहुँचा ।। ७ ।।
मण्डलानि विचित्राणि यमकानीतराणि च ।
सव्यानि च विचित्राणि दक्षिणानि च सर्वश: ।। ८ ।।
उसने समान-असमान और वाम-दक्षिण आदि सब प्रकारकी विचित्र मण्डलाकार
गतिसे रथका संचालन किया ।। ८ ॥।
प्रतोदेनाहता राजन् रश्मिभिश्च समुद्यता: ।
उत्पतन्त इवाकाशे व्यचरंस्ते हयोत्तमा: ।। ९ ।।
राजन! वे श्रेष्ठ घोड़े चाबुककी मार खाकर बागडोर हिलानेसे तीव्र गतिसे दौड़ने लगे,
मानो आकाशमें उड़ रहे हों ।। ९ ।।
ते हस्तलाघवोपेतं विज्ञाय नृप दारुकिम् |
दहामाना इव तदा नास्पृशंश्वरणैर्महीम् ।। १० ।।
महाराज! दारुकपुत्रके हस्तलाघवको समझकर वे घोड़े प्रजजलित अग्निकी भाँति
दमकते हुए इस प्रकार जा रहे थे, मानो अपने पैरोंसे पृथ्वीका स्पर्श भी न कर रहे
हों ।। १० ।।
सो<5पसव्यां चमूं तस्य शाल्वस्य भरतर्षभ ।
चकार नातियत्नेन तदद्भुतमिवाभवत् ।। ११ ।।
भरतकुलभूषण! दारुकके पुत्रने अनायास ही शाल्वकी उस सेनाको अपस्व्य (दाहिने)
कर दिया। यह एक अदभुत बात हुई ।। ११ ।।
अमृष्यमाणो<5पसव्यं प्रद्युम्नेन च सौभराट् ।
यन्तारमस्य सहसा त्रिभि्बाणै: समार्दयत् ।। १२ ||
सौभराज शाल्व प्रद्यम्नके द्वारा अपनी सेनाका अपसव्य किया जाना न सह सका।
उसने सहसा तीन बाण चलाकर प्रद्युम्मके सारथिको घायल कर दिया ।। १२ ।।
दारुकस्य सुतस्तत्र बाणवेगमचिन्तयन् ।
भूय एव महाबाहो प्रययावपसव्यत: ।। १३ ।।
ततो बाणान् बहुविधान् पुनरेव स सौभराट् ।
मुमोच तनये वीर मम रुक्मिणिनन्दने ।। १४ ।।
तानप्राप्ताज्छितैर्बाणैश्षिच्छेद परवीरहा ।
रौक्मिणेय: स्मितं कृत्वा दर्शयन् हस्तलाघवम् ।। १५ ।।
छिन्नान् दृष्टवा तु तान् बाणान प्रद्युम्नेन च सौभराट् |
आसुरीं दारुणीं मायामास्थाय व्यसृजच्छरान् ।। १६ ।।
महाबाहो! परंतु दारुककुमारने वहाँ बाणोंके वेगपूर्वक प्रहारकी कोई चिन्ता न करते
हुए शाल्वकी सेनाको अपसव्य (दाहिने) करते हुए ही रथको आगे बढ़ाया। वीरवर! तब
सौभराज शाल्वने पुनः मेरे पुत्र रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्मपर अनेक प्रकारके बाण चलाये।
शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्म अपने हाथोंकी फुर्ती दिखाते हुए
शाल्वके बाणोंको अपने पास आनेसे पहले ही तीक्ष्ण बाणोंसे मुसकराकर काट देते थे।
प्रद्युम्नके द्वारा अपने बाणोंको छिन्न-भिन्न होते देख सौभराजने भयंकर आसुरी मायाका
सहारा लेकर बहुत-से बाण बरसाये || १३--१६ ।।
प्रयुज्यमानमाज्ञाय दैतेयास्त्र महाबलम् ।
ब्रह्मास्त्रेणान्तराच्छित्त्वा मुमोचान्यान् पतत्रिण: ।। १७ ।।
प्रद्यम्नने शाल्वको अति शक्तिशाली दैत्यास्त्रका प्रयोग करता जानकर ब्रह्मास्त्रके द्वारा
उसे बीचमें ही काट डाला और अन्य बहुत-से बाण बरसाये ।। १७ ।।
ते तदस्त्रं विधूयाशु विव्यधू रुधिराशना: ।
शिरस्युरसि वक््त्रे च स मुमोह पपात च ॥। १८ ।।
वे सभी बाण शत्रुओंका रक्त पीनेवाले थे। उन बाणोंने शाल्वके अस्त्रोंका नाश करके
उसके मस्तक, छाती और मुखको बींध डाला, जिससे वह मूर्च्छित होकर गिर
पड़ा ॥| १८ ।।
तस्मिन् निपतिते क्षुद्रे शाल्वे बाणप्रपीडिते ।
रौक्मिणेयो परं बाणं संदधे शत्रुनाशनम् ।। १९ ।।
क्षुद्र स्वभाववाले राजा शाल्वके बाणविद्ध होकर गिर जानेपर रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्नने
अपने धनुषपर एक उत्तम बाणका संधान किया, जो शत्रुका नाश कर देनेवाला
था ।। १९ ||
तमर्चितं सर्वदशार्हपूगै-
राशीविषाग्निज्वलनप्रकाशम् ।
दृष्टवा शरं ज्यामभिनीयमानं
बभूव हाहाकृतमन्तरिक्षम् ।। २० ।।
वह बाण समस्त यादवसमुदायके द्वारा सम्मानित, विषैले सर्पके समान विषाक्त तथा
प्रज्वलित अग्निके समान प्रकाशमान था। उस बाणको प्रत्यंचापर रखा जाता हुआ देख
अन्तरिक्षलोकमें हाहाकार मच गया || २० ।।
ततो देवगणाः: सर्वे सेन्द्रा: सहधनेश्वरा: ।
नारदं प्रेषयामासु: श्वसनं च मनोजवम् ।। २१ ।।
तब इन्द्र और कुबेरसहित सम्पूर्ण देवताओंने देवर्षि नारद तथा मनके समान वेगवाले
वायुदेवको भेजा || २१ ।।
तौ रौक्मिणेयमागम्य वचोडब्रूतां दिवौकसाम् |
नैष वध्यस्त्वया वीर शाल्वराज: कथंचन ।। २२ ।।
उन दोनोंने रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्मके पास आकर देवताओंका यह संदेश सुनाया
--'वीरवर! यह राजा शाल्व युद्धमें कदापि तुम्हारा वध्य नहीं है” || २२ ।।
संहरस्व पुनर्बाणमवध्यो<यं त्वया रणे ।
एतस्य च शरस्याजौ नावध्यो<स्ति पुमान् क्वचित् ।। २३ ।।
“तुम अपने इस बाणको फिरसे लौटा लो; क्योंकि यह शाल्व तुम्हारे द्वारा अवध्य है।
तुम्हारे इस बाणका प्रयोग होनेपर युद्धमें कोई भी पुरुष बिना मरे नहीं रह सकता ।। २३ ।।
मृत्युरस्य महाबाहो रणे देवकिनन्दन: ।
कृष्ण: संकल्पितो धात्रा तन्मिथ्या न भवेदिति ।। २४ ।।
“महाबाहो! विधाताने युद्धमें देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णके हाथसे ही इसकी मृत्यु
निश्चित की है। उनका वह संकल्प मिथ्या नहीं होना चाहिये” || २४ ।।
ततः परमसंदृष्ट: प्रद्युम्न: शरमुत्तमम् ।
संजहार धनुःश्रेष्ठात् तूणे चैव न्यवेशयत् ।। २५ ।।
यह सुनकर प्रद्युम्न बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने श्रेष्ठ धनुषसे उस उत्तम बाणको उतार
लिया और पुन: तरकसमें रख दिया || २५ ।।
तत उत्थाय राजेन्द्र शाल्व: परमदुर्मना: ।
व्यपायात् सबलस्तूर्ण प्रद्युम्नशरपीडित: ।। २६ ।।
राजेन्द्र! तदनन्तर शाल्व उठकर अत्यन्त दु:खितचित्त हो प्रद्युम्नके बाणोंसे पीड़ित
होनेके कारण अपनी सेनाके साथ तुरंत भाग गया ।। २६ ।।
स द्वारकां परित्यज्य क्रूरो वृष्णिभिरार्दित: ।
सौभमास्थाय राजेन्द्र दिवमाचक्रमे तदा || २७ ।।
महाराज! उस समय वृष्णिवंशियोंसे पीड़ित हो क्रूर स्वभाववाला शाल्व द्वारकाको
छोड़कर अपने सौभ नामक विमानका आश्रय ले आकाशमें जा पहुँचा ।। २७ ||
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि सौभवधोपाख्याने
एकोनविंशो5 ध्याय: ।। १९ ||
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अजुनाथिगमनपर्वमें सौभवधोपाख्यानविषयक
उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १९ ॥
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विशो< ध्याय:
श्रीकृष्ण और शाल्वका भीषण युद्ध
वासुदेव उवाच
आनर्तनगरं मुक्त ततो5हमगमं तदा ।
महाक्रतौ राजसूये निवृत्ते नृपते तव ।। १ ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं--राजन! आपका राजसूय महायज्ञ समाप्त होनेपर मैं
शाल्वसे विमुक्त आनर्तनगर (द्वारका)-में गया ।। १ ।।
अपश्यं॑ द्वारकां चाहं महाराज हतत्विषम् |
निःस्वाध्यायवषट्कारां निर्भूषणवरस्त्रियम् । २ ।।
महाराज! मैंने वहाँ पहुँचकर देखा, द्वारका श्रीहीन हो रही है। वहाँ न तो स्वाध्याय होता
है, न वषट्कार। वह पुरी आभूषणोंसे रहित सुन्दरी नारीकी भाँति उदास लग रही
थी ।।२॥।।
अनभिशक्ञेयरूपाणि द्वारकोपवनानि च ।
दृष्टवा शड्कोपपन्नो5हमपृच्छे हृदिकात्मजम् ।। ३ ।।
द्वारकाके वन-उपवन तो ऐसे हो रहे थे, मानो पहचाने ही न जाते हों। यह सब देखकर
मेरे मनमें बड़ी शंका हुई और मैंने कृतवर्मासे पूछा-- ।। ३ ।।
अस्वस्थनरनारीकमिदं वृष्णिकुलं भृशम् ।
किमिदं नरशार्दटूल श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ।। ४ ।।
“नरश्रेष्ठ) इस वृष्णिवंशके प्राय: सभी स्त्री-पुरुष अस्वस्थ दिखायी देते हैं, इसका क्या
कारण है? यह मैं ठीक-ठीक सुनना चाहता हूँ || ४ ।।
एवमुक्त: स तु मया विस्तरेणेदमब्रवीत् ।
रोधं॑ मोक्ष च शाल्वेन हार्दिक्यो राजसत्तम ।। ५ ।।
नृपश्रेष्ठ! मेरे इस प्रकार पूछनेपर कृतवर्माने शाल्वके द्वारकापुरीपर घेरा डालने और
फिर छोड़कर भाग जानेका सब समाचार विस्तारपूर्वक कह सुनाया ।। ५ ।।
ततो<हं भरतश्रेष्ठ श्रुत्वा सर्वमशेषत: ।
विनाशे शाल्वराजस्य तदैवाकरवं मतिम् ।। ६ ।।
भरतवंशशिरोमणे! यह सब वृत्तान्त पूर्णरूपसे सुनकर मैंने शाल्वराजके विनाशका पूर्ण
निश्चय कर लिया ।। ६ |।
ततो<हं भरतश्रेष्ठ समाश्वास्य पुरे जनम् ।
राजानमाहुकं चैव तथैवानकदुन्दुभिम् ।। ७ ।।
सर्वान् वृष्णिप्रवीरांश्व हर्षयन्नब्रुवं तदा ।
अप्रमाद: सदा कार्यो नगरे यादवर्षभा: ।। ८ ।।
भरतश्रेष्ठ) तदनन्तर मैं नगरनिवासियोंको आश्वासन देकर राजा उग्रसेन, पिता वसुदेव
तथा सम्पूर्ण वृष्णिवंशियोंका हर्ष बढ़ाते हुए बोला--'यदुकुलके श्रेष्ठ पुरुषो! आपलोग
नगरकी रक्षाके लिये सदा सावधान रहें ।। ७-८ ।।
शाल्वराजविनाशाय प्रयातं मां निबोधत ।
नाहत्वा त॑ निवर्तिष्ये पुरी द्वारवतीं प्रति ।। ९ ।।
“मैं शाल्वराजका नाश करनेके लिये यहाँसे प्रस्थान करता हूँ। आप यह निश्चय जानें; मैं
शाल्वका वध किये बिना द्वारकापुरीको नहीं लौटूँगा ।। ९ ।।
सशाल्वं सौभनगरं हत्वा द्रष्टास्मि व: पुन: ।
त्रिःसामा हन्यतामेषा दुन्दुभि: शत्रुभीषणा ।। १० ।।
'शाल्वसहित सौभनगरका नाश कर लेनेपर ही मैं पुन: आपलोगोंका दर्शन करूँगा।
अब शत्रुओंको भयभीत करनेवाले इस नगाड़ेको तीन बार बजाइये” ।। १० ।।
ते मया55श्वासिता वीरा यथावद् भरतर्षभ |
सर्वे मामब्रुवन् हृष्टा: प्रयाहि जहि शात्रवान् ।। ११ ।।
भरतकुलभूषण! मेरे इस प्रकार आश्वासन देनेपर सभी यदुवंशी वीरोंने प्रसन्न होकर
मुझसे कहा--“जाइये और शत्रुओंका विनाश कीजिये” ।। ११ ।।
तैः प्रहृष्टात्मभिवीरिराशीर्भिरभिनन्दित: ।
वाचयित्वा द्विजश्रेष्ठान् प्रणम्य शिरसाभवम् ।। १२ ।।
शैब्यसुग्रीवयुक्तेन रथेनानादयन् दिश: ।
प्रध्माय शड्खप्रवरं पाउचजन्यमहं नृप ।। १३ |।
प्रयातो5स्मि नरव्यात्र बलेन महता वृतः ।
क्लृप्तेन चतुरड्रेण यत्तेन जितकाशिना ।। १४ ।।
प्रसन्नचित्तवाले उन वीरोंके द्वारा आशीर्वादसे अभिनन्दित होकर मैंने श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे
स्वस्तिवाचन कराया और मस्तक झुकाकर भगवान् शिवको प्रणाम किया। नरश्रेष्ठ!
तदनन्तर शैब्य और सुग्रीव नामक घोड़ोंसे जुते हुए अपने रथके द्वारा सम्पूर्ण दिशाओंको
प्रतिध्वनित करते हुए श्रेष्ठ शंख पांचजन्यको बजाकर मैंने विशाल सेनाके साथ रणके लिये
प्रस्थान किया। मेरी उस व्यूहरचनासे युक्त और नियन्त्रित सेनामें हाथी, घोड़े, रथी और
पैदल--चारों ही अंग मौजूद थे। उस समय वह सेना विजयसे सुशोभित हो रही थी ।। १२
--2४ ||
समतीत्य बहुन् देशान् गिरींश्व बहुपादपान् |
सरांसि सरितश्चैव मार्तिकावतमासदम् ।। १५ ।।
तब मैं बहुत-से देशों और असंख्य वृक्षोंसे हरे-भरे पर्वतों, सरोवरों और सरिताओंको
लाँघता हुआ मार्तिकावतमें जा पहुँचा || १५ ।।
तत्राओऔषं नरव्यात्र शाल्वं सागरमन्तिकात् ।
प्रयान्तं सौभमास्थाय तमहं पृष्ठतोडन्वयाम् ।। १६ ।।
नरव्याप्र! वहाँ मैंने सुना कि शाल्व सौभविमानपर बैठकर समुद्रके निकट जा रहा है।
तब मैं उसीके पीछे लग गया ।। १६ ।।
ततः सागरमासाद्य कुक्षौ तस्य महोर्मिण: ।
समुद्रनाभ्यां शाल्वो5भूत् सौभमास्थाय शत्रुहन् ।। १७ ।।
शत्रुनाशन! फिर समुद्रके निकट पहुँचकर उत्ताल तरंगोंवाले महासागरकी कुक्षिके
अन्तर्गत उसके नाभिदेश (एक द्वीप)-में जाकर राजा शाल्व सौभविमानपर ठहरा हुआ
था ।। १७ ||
स समालोक्य दूरान्मां स्मयन्निव युधिष्ठिर ।
आह्वियामास दुष्टात्मा युद्धायैव मुहुर्मुहु: ।। १८ ।।
युधिष्ठिर! वह दुष्टात्मा दूरसे ही मुझे देखकर मुसकराता हुआ-सा बारंबार युद्धके लिये
ललकारने लगा ।। १८ ।।
तस्य शार्ड्रविनिर्मुक्तिबहुभिमर्म भेदिभि: ।
पुंर नासाद्यत शरैस्ततो मां रोष आविशत् || १९ ।।
मेरे शार्क़ धनुषसे छूटे हुए बहुत-से मर्मभेदी बाण शाल्वके विमानतक नहीं पहुँच सके।
इससे मैं रोषमें भर गया ।। १९ ।।
स चापि पापप्रकृतिर्देतियापसदो नृप ।
मय्यवर्षत दुर्धर्ष: शरधारा: सहस्रश: ।। २० ।।
राजन! नीच दैत्य दुर्धर्ष राजा शाल्व स्वभावसे ही पापाचारी था। उसने मेरे ऊपर
सहस्रों बाणधाराएँ बरसायीं || २० ।।
सैनिकान् मम सूतं च हयांश्व समवाकिरत् ।
अचिन्तयन्तस्तु शरान् वयं युध्याम भारत ।। २१ ।।
मेरे सारथि, घोड़ों तथा सैनिकोंपर उसने भी बाणोंकी झड़ी लगा दी। भारत! उसके
बाणोंकी बौछारको कुछ न समझकर मैं युद्धमें ही लगा रहा || २१ ।।
ततः शतसहस््राणि शराणां नतपर्वणाम् |
चिक्षिपु: समरे वीरा मयि शाल्वपदानुगा: ।। २२ ।।
तदनन्तर शाल्वके अनुगामी वीरोंने युद्धमें मेरे ऊपर झुकी हुई गाँठवाले लाखों बाण
बरसाये || २२ ।।
ते हयांश्व॒ रथं चैव तदा दारुकमेव च |
छादयामासुरसुरास्तैर्बाणैर्मर्म भेदिभि: ।। २३ |।
उस समय उन असुरोंने अपने मर्मवेधी बाणोंद्वारा मेरे घोड़ोंको, रथको और दारुकको
भी ढक दिया ।। २३ ।।
न हया न रथो वीर न यन्ता मम दारुक: ।
अदृश्यन्त शरैश्छन्नास्तथाहं सैनिकाश्न मे ।। २४ ।।
वीरवर! उस समय मेरे घोड़े, रथ, मेरा सारथि दारुक, मैं तथा मेरे सारे सैनिक--सभी
बाणोंसे आच्छादित होकर अदृश्य हो गये ।। २४ ।।
ततो5हमपि कौन्तेय शराणामयुतान् बहून्
आमन्त्रितानां धनुषा दिव्येन विधिनाक्षिपम् ।। २५ ||
कुन्तीनन्दन! तब मैंने भी अपने धनुषद्वारा दिव्य विधिसे अभिमन्त्रित किये हुए कई
हजार बाण बरसाये ।। २५ ||
न तत्र विषयस्त्वासीन्मम सैन्यस्य भारत ।
खे विषक्त हि तत् सौभ॑ क्रोशमात्र इवाभवत् ।। २६ ।।
भारत! शाल्वका सौभविमान आकाशमें इस प्रकार प्रवेश कर गया था कि मेरे
सैनिकोंकी दृष्टिमें आता ही नहीं था, मानो एक कोस दूर चला गया हो ।। २६ ।।
ततस्ते प्रेक्षका: सर्वे रड्रवाद इव स्थिता: ।
हर्षयामासुरुच्चैर्मा सिंहनादतलस्वनै: ।। २७ ।।
तब वे सैनिक रंगशालामें बैठे हुए दर्शकोंकी भाँति केवल मेरे युद्धका दृश्य देखते हुए
जोर-जोरसे सिंहनाद और करतलध्वनि करके मेरा हर्ष बढ़ाने लगे || २७ ।।
मत्कराग्रविनिर्मुक्ता दानवानां शरास्तथा ।
अड्रेषु रुचिरापाज़ा विविशु: शलभा इव ॥। २८ ।।
तब मेरे हाथोंसे छूटे हुए मनोहर पंखवाले बाण दानवोंके अंगोंमें शलभोंकी भाँति घुसने
लगे ।। २८ ।।
ततो हलहलाशब्द: सौभमध्ये व्यवर्धत ।
वध्यतां विशिखैस्तीक्ष्णै: पततां च महार्णवे ।। २९ ।।
इससे सौभविमानमें मेरे तीखे बाणोंसे मरकर महासागरमें गिरनेवाले दानवोंका
कोलाहल बढ़ने लगा ।। २९ |।
ते निकृत्तभुजस्कन्धा: कबन्धाकृतिदर्शना: ।
नदन्तो भैरवान् नादान् निपतन्ति सम दानवा: ।। ३० ।।
कंधे और भुजाओंके कट जानेसे कबन्धकी आकृतिमें दिखायी देनेवाले वे दानव
भयंकर नाद करते हुए समुद्रमें गिरने लगे || ३० ।।
पतितास्ते5पि भशक्ष्यन्ते समुद्राम्भोनिवासिभि: ।
ततो गोक्षीरकुन्देन्दुमूणालरजतप्रभम् ।। ३१ ।।
जलजं पाज्चजन्यं वै प्राणेनाहमपूरयम् |
तान् दृष्टवा पतितांस्तत्र शाल्वः सौभपतिस्तत: ।। ३२ ।।
मायायुद्धेन महता योधयामास मां युधि ।
ततो गदा हला: प्रासा: शूलशक्तिपरश्चधा: ।॥। ३३ ।।
असय: शक्तिकुलिशपाशर्धिकनपा: शरा: |
पट्टिशाश्व भुशुण्ड्यश्व प्रपतन्त्यनिशं मयि ।। ३४ ।।
जो गिरते थे, उन्हें समुद्रमें रहनेवाले जीव-जन्तु निगल जाते थे। तत्पश्चात् मैंने गोदुग्ध,
कुन्दपुष्प, चन्द्रमा, मृणाल तथा चाँदीकी-सी कान्तिवाले पांचजन्य नामक शंखको बड़े
जोरसे फूँका। उन दानवोंको समुद्रमें गिरते देख सौभराज शाल्व महान् मायायुद्धके द्वारा
मेरा सामना करने लगा। फिर तो मेरे ऊपर गदा, हल, प्रास, शूल, शक्ति, फरसे, खड्ग,
शक्ति, वज्र, पाश, ऋष्टि, कनप, बाण, पट्टिश और भुशुण्डी आदि शश्त्रास्त्रोंकी निरन्तर वर्षा
होने लगी || ३१--३४ ।।
तामहं माययैवाशु प्रतिगृह्य व्यनाशयम् ।
तस्यां हतायां मायायां गिरिशृज्जैरयोधयत् ।। ३५ ।।
शाल्वकी उस मायाको मैंने मायाद्वारा ही नियन्त्रित करके नष्ट कर दिया। उस मायाका
नाश होनेपर वह पर्वतके शिखरोंद्वारा युद्ध करने लगा ।। ३५ ।।
ततो5भवत् तम इव प्रकाश इव चाभवत् |
दुर्दिनं सुदिनं चैव शीतमुष्णं च भारत ।। ३६ ।।
अड्भारपांशुवर्ष च शस्त्रवर्ष च भारत ।
एवं मायां प्रकुर्वाणो योधयामास मां रिपु: ।। ३७ ।।
तदनन्तर कभी अन्धकार-सा हो जाता, कभी प्रकाश-सा हो जाता, कभी मेघोंसे
आकाश घिर जाता और कभी बादलोंके छिन्न-भिन्न होनेसे सुन्दर दिन प्रकट हो जाता था।
कभी सर्दी और कभी गरमी पड़ने लगती थी। अंगार और धूलिकी वर्षके साथ-साथ
शस्त्रोंकी भी वृष्टि होने लगती। इस प्रकार शत्रुने मेरे साथ मायाका प्रयोग करते हुए युद्ध
आरम्भ किया ।। ३६--३७ ।।
विज्ञाय तदहं सर्व माययैव व्यनाशयम् ।
यथाकालं तु युद्धेन व्यधमं सर्वतः शरै: ।। ३८ ।।
वह सब जानकर मैंने मायाद्वारा ही उसकी मायाका नाश कर दिया। यथासमय युद्ध
करते हुए मैंने बाणोंद्वारा शाल्वकी सेनाको सब ओरसे संतप्त कर दिया ।। ३८ ।।
ततो व्योम महाराज शतसूर्यमिवाभवत् ।
शतचन्द्रं च कौन्तेय सहस्नायुततारकम् ।। ३९ ||
कुन्तीपुत्र महाराज युधिष्ठिर! इसके बाद आकाश सौ सूर्योसे उदभासित-सा दिखायी
देने लगा। उसमें सैकड़ों चन्द्रमा और करोड़ों तारे दिखायी देने लगे || ३९ ।।
ततो नाज्ञायत तदा दिवारात्र तथा दिशः ।
ततो<हं मोहमापतन्न: प्रज्ञास्त्रं समयोजयम् ।। ४० ।।
उस समय यह नहीं जान पड़ता था कि यह दिन है या रात्रि! दिशाओंका भी ज्ञान नहीं
होता था; इससे मोहित होकर मैंने प्रज्ञासत्रका संधान किया || ४० ।।
ततस्तदस्त्रं कौन्तेय धूतं तूलमिवानिलै: ।
तथा तदभवद् युद्ध तुमुलं लोमहर्षणम् ।
लब्धालोकस्तु राजेन्द्र पुनः शत्रुमयोधयम् ।। ४१ ।।
कुन्तीकुमार! तब उस अस्त्रने उस सारी मायाको उसी प्रकार उड़ा दिया, जैसे हवा
रूईको उड़ा देती है। इसके बाद शाल्वके साथ हमलोगोंका अत्यन्त भयंकर तथा
रोमांचकारी युद्ध होने लगा। राजेन्द्र! सब ओर प्रकाश हो जानेपर मैंने पुनः शत्रुसे युद्ध
प्रारम्भ कर दिया || ४१ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि सौभवधोपाख्याने विंशो5थध्याय:
|| २० ||
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अ्जुनाभिगमनपर्वमें सौभवधोपाख्यानविषयक
बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ २० ॥।
हि मय ० (0) है 7
एकविशो< ध्याय:
श्रीकृष्णका शाल्वकी ला मोहित होकर पुन: सजग
ना
वायुदेव उवाच
एवं स पुरुषव्यात्र शाल्वराजो महारिपु: ।
युध्यमानो मया संख्ये वियदभ्यगमत् पुनः ॥। १ ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं--पुरुषसिंह! इस प्रकार मेरे साथ युद्ध करनेवाला महाशत्रु
शाल्वराज पुनः: आकाशमें चला गया ।। १ ।।
ततः शतघ्नीश्ष महागदाश्ष
दीप्तांक्ष शूलान् मुसलानसीं श्व॒
चिक्षेप रोषान्मयि मन्दबुद्धि:
शाल्वो महाराज जयाभिकाडुक्षी ॥। २ ॥।
महाराज! वहाँसे विजयकी इच्छा रखनेवाले मन्दबुद्धि शाल्वने क्रोधमें भरकर मेरे ऊपर
शतघ्नियाँ, बड़ी-बड़ी गदाएँ, प्रजजलित शूल, मुसल और खड्ग फेंके ।। २ ।।
तानाशुगैरापततो5हमाशु
निवार्य हन्तुं खगमान् ख एव ।
द्विधा त्रिधा चाच्छिदमाशुमुक्ति-
स्ततो<न्तरिक्षे निनदो बभूव ।। ३ ||
उनके आते ही मैंने तुरंत शीघ्रगामी बाणोंद्वारा उन्हें रोककर उन गगनचारी शत्रुओंको
आकाशमें ही मार डालनेका निश्चय किया और शीघ्र छोड़े हुए बाणोंद्वारा उन सबके दो-दो
तीन-तीन टुकड़े कर डाले। इससे अन्तरिक्षमें बड़ा भारी आर्त्तनाद हुआ || ३ ।।
तत:ः शतसहस्तरेण शराणां नतपर्वणाम् ।
दारुकं वाजिनश्लैव रथं च समवाकिरत् ।। ४ ।।
तदनन्तर शाल्वने झुकी हुई गाँठोंवाले लाखों बाणोंका प्रहार करके मेरे सारथि दारुक,
घोड़ों तथा रथको आच्छादित कर दिया ।। ४ ।।
ततो मामब्रवीद् वीर दारुको विह्वलन्निव ।
स्थातव्यमिति तिष्ठामि शाल्वबाणप्रपीडित: ।
अवस्थातुं न शकनोमि अज्ुू मे व्यवसीदति ।। ५ ।।
वीरवर! तब दारुक व्याकुल-सा होकर मुझसे बोला--'प्रभो! युद्धमें डटे रहना चाहिये”
इस कर्तव्यका स्मरण करके ही मैं यहाँ ठहरा हुआ हूँ; किंतु शाल्वके बाणोंसे अत्यन्त
पीड़ित होनेके कारण मुझमें खड़े रहनेकी भी शक्ति नहीं रह गयी है। मेरा अंग शिथिल होता
जा रहा है! || ५ ॥।
इति तस्य निशम्याहं सारथे: करुणं वच: ।
अवेक्षमाणो यन्तारमपश्यं शरपीडितम् ।। ६ ।।
सारथिका यह करुण वचन सुनकर मैंने उसकी ओर देखा। उसे बाणोंद्वारा बड़ी पीड़ा
हो रही थी ।। ६ ।।
न तस्योरसि नो मूर्थ्नि न काये न भुजद्धये ।
अन्तरं पाण्डवश्रेष्ठ पश्याम्यनिचितं शरै: ।। ७ ।।
स तु बाणवरोत्पीडाद् विस््रवत्यसृगुल्बणम् |
अभिवृष्टे यथा मेघे गिरिगैरिकधातुमान् ।॥। ८ ।।
पाण्डवश्रेष्ठ! उसकी छातीमें, मस्तकपर, शरीरके अन्य अवयवोंमें तथा दोनों भुजाओंमें
थोड़ा-सा भी ऐसा स्थान नहीं दिखायी देता था, जिसमें बाण न चुभे हुए हों। जैसे मेघके
वर्षा करनेपर गेरू आदि धातुओंसे युक्त पर्वत लाल पानीकी धारा बहाने लगता है, वैसे ही
वह बाणोंसे छिदे हुए अपने अंगोंसे भयंकर रक्तकी धारा बहा रहा था ।। ७-८ ।।
अभीषु हस्तं त॑ं दृष्टवा सीदन्तं सारथिं रणे |
अस्तम्भयं महाबाहो शाल्वबाणप्रपीडितम् ।। ९ |।
महाबाहो! उस युद्धमें हाथमें बागडोर लिये सारथिको शाल्वके बाणोंसे पीड़ित होकर
वष्ट पाते देख मैंने उसे ढाढ़स बँधाया || ९ ।।
अथ मां पुरुष: कश्रिद् द्वारकानिलयोडब्रवीत् |
त्वरितो रथमभ्येत्य सौहदादिव भारत ।। १० ।।
आहुकस्य वचो वीर तस्यैव परिचारक: ।
विषण्ण: सन्नकण्ठेन तन्निबोध युधिछिर ।। ११ ।।
भरतवंशी वीरवर! इतनेमें ही कोई द्वारकावासी पुरुष आकर तुरंत मेरे रथपर चढ़ गया
और सौहार्द दिखाता हुआ-सा बोला। वह राजा उमग्रसेनका सेवक था और दुःखी होकर
उसने गद्गदकण्ठसे उनका जो संदेश सुनाया, उसे बताता हूँ, सुनिये || १०-११ ।।
द्वारकाधिपतिर्वीर आह त्वामाहुको वच: ।
केशवैहि विजानीष्व यत् त्वां पितृसखो<ब्रवीत् ।। १२ ।।
(दूत बोला--) “वीर! द्वारकानरेश उग्रसेनने आपको यह एक संदेश दिया है। केशव!
वे आपके पिताके सखा हैं; उन्होंने आपसे कहा है कि यहाँ आ जाओ और जान
लो ।॥। १२ ।।
उपायायाद्य शाल्वेन द्वारकां वृष्णिनन्दन ।
विषक्ते त्वयि दुर्धर्ष हतः शूरसुतो बलात् ।। १३ ।।
“दुर्धर्ष वृष्णिनन्दन! आपके युद्धमें आसक्त होनेपर शाल्वने अभी द्वारकापुरीमें आकर
शूरनन्दन वसुदेवजीको बलपूर्वक मार डाला है ।। १३ ।।
तदलं साधु युद्धेन निवर्तस्व जनार्दन |
द्वारकामेव रक्षस्व कार्यमेतन्महत् तव ।। १४ ।।
“जनार्दन! अब युद्ध करके क्या लेना है? लौट आओ। द्वारकाकी ही रक्षा करो। तुम्हारे
लिये यही सबसे महान् कार्य है” || १४ ।।
इत्यहं तस्य वचन श्रुत्वा परमदुर्मना: ।
निशक्ष॒यं नाधिगच्छामि कर्तव्यस्येतरस्य च ।। १५ ।।
दूतका यह वचन सुनकर मेरा मन उदास हो गया। मैं कर्तव्य और अकर्तव्यके विषयमें
कोई निश्चय नहीं कर पाता था ।। १५ ।।
सात्यकिं बलदेवं च प्रद्युम्नं च महारथम् ।
जगहें मनसा वीर तच्छुत्वा महदप्रियम् ॥। १६ ।।
वीर युधिष्ठिर! वह महान् अप्रिय वृत्तान्त सुनकर मैं मन-ही-मन सात्यकि, बलरामजी
तथा महारथी प्रद्युम्नकी निन्दा करने लगा ।। १६ ।।
अहं हि द्वारकायाश्न पितुश्न कुरुनन्दन ।
तेषु रक्षां समाधाय प्रयातः सौभपातने ।। १७ ।।
कुरुनन्दन! मैं द्वारका तथा पिताजीकी रक्षाका भार उन्हीं लोगोंपर रखकर
सौभविमानका नाश करनेके लिये चला था ।। १७ ।।
बलदेवो महाबाहुः कच्चिज्जीवति शत्रुहा ।
सात्यकी रौक्मिणेयश्व चारुदेष्णश्न वीर्यवान् ।। १८ ।।
साम्बप्रभृतयश्चैवेत्यहमासं सुदुर्मना: ।
एतेषु हि नरव्याप्र जीवत्सु न कथंचन ।। १९ ।।
शक्य: शूरसुतो हन्तुमपि वज्ञभूता स्वयम् ।
हतः शूरसुतो व्यक्त व्यक्ते चैते परासव: ।। २० ।।
बलदेवमुखा: सर्व इति मे निश्चिता मति: ।
सो&हं सर्वविनाशं त॑ं चिन्तयानो मुहुर्मुहु: ।
अविद्दलो महाराज पुन: शाल्वमयोधयम् ।। २१ ।।
क्या शत्रुहन्ता महाबली बलरामजी जीवित हैं? क्या सात्यकि, रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न,
महाबली चारुदेष्ण तथा साम्ब आदि जीवन धारण करते हैं? इन बातोंका विचार करते-
करते मेरा मन बहुत उदास हो गया। नरश्रेष्ठ! इन वीरोंके जीते-जी साक्षात् इन्द्र भी मेरे पिता
वसुदेवजीको किसी प्रकार मार नहीं सकते थे। अवश्य ही शूरनन्दन वसुदेवजी मारे गये
और यह भी स्पष्ट है कि बलरामजी आदि सभी प्रमुख वीर प्राणत्याग कर चुके हैं--यह मेरा
निश्चित विचार हो गया। महाराज! इस प्रकार सबके विनाशका बारंबार चिन्तन करके भी मैं
व्याकुल न होकर राजा शाल्वसे पुन: युद्ध करने लगा ।। १८--२१ ।।
ततो<पश्यं महाराज प्रपतन्तमहं तदा ।
सौभाच्छूरसुतं वीर ततो मां मोह आविशत् || २२ ।।
वीर महाराज! इसी समय मैंने देखा, सौभविमानसे मेरे पिता वसुदेवजी नीचे गिर रहे
हैं। इससे शाल्वकी मायासे मुझे मूर्च्छा-सी आ गयी ।। २२ ।।
तस्य रूपं॑ प्रपतत: पितुर्मम नराधिप ।
ययाते: क्षीणपुण्यस्य स्वर्गादिव महीतलम् ।॥। २३ ।।
नरेश्वरर! उस विमानसे गिरते हुए मेरे पिताका स्वरूप ऐसा जान पड़ता था, मानो
पुण्यक्षय होनेपर स्वर्गसे पृथ्वीतलपर गिरनेवाले राजा ययातिका शरीर हो ।। २३ ।।
विशीर्णमलिनोष्णीष: प्रकीर्णाम्बरमूर्धज: ।
प्रपतन् दृश्यते ह सम क्षीणपुण्य इव ग्रह: ।। २४ ।।
उनकी मलिन पगड़ी बिखर गयी थी, शरीरके वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गये थे और बाल
बिखर गये थे। वे गिरते समय पुण्यहीन ग्रहकी भाँति दिखायी देते थे || २४ ।।
ततः शार्ज्र धनुःश्रेष्ठ करात् प्रपतितं मम ।
मोहापन्नश्न कौन्तेय रथोपस्थ उपाविशम् ।। २५ ||
कुन्तीनन्दन! उनकी यह अवस्था देख धनुषोंमें श्रेष्ठ शार्ड मेरे हाथसे छूटकर गिर गया
और मैं शाल्वकी मायासे मोहित-सा होकर रथके पिछले भागमें चुपचाप बैठ गया ।। २५ ।।
ततो हाहाकृतं सर्व सैन्यं मे गतचेतनम् ।
मां दृष्टवा रथनीडस्थं गतासुमिव भारत ।। २६ ।।
भारत! फिर तो मुझे रथके पिछले भागमें प्राणरहितके समान पड़ा देख मेरी सारी सेना
हाहाकार कर उठी। सबकी चेतना लुप्त-सी हो गयी || २६ ।।
प्रसार्य बाहू पतत: प्रसार्य चरणावपि ।
रूप॑ं पितुर्मे विबभौ शकुने: पततो यथा ।। २७ ।।
हाथों और पैरोंको फैलाकर गिरते हुए मेरे पिताका शरीर मरकर गिरनेवाले पक्षीके
समान जान पड़ता था ।। २७ ।।
तं॑ पतन्तं महाबाहो शूलपट्टिशपाणय: ।
अभिष्नन्तो भृशं वीर मम चेतो हाकम्पयन् ।। २८ ।।
वीरवर महाबाहो! गिरते समय शत्रु-सैनिक हाथोंमें शूल और पट्टिश लिये उनके ऊपर
बारंबार प्रहार कर रहे थे। उनके इस क्रूर कृत्यने मेरे हृदयको कम्पित-सा कर
दिया || २८ ।।
ततो मुहूर्तात् प्रतिलभ्य संज्ञा-
महं तदा वीर महाविमर्दे |
न तत्र सौभं न रिपुं च शाल्वं
पश्यामि वृद्ध पितरं न चापि ॥। २९ ।।
वीरवर! तदनन्तर दो घड़ीके बाद जब मैं सचेत होकर देखता हूँ, तब उस महासमरमें न
तो सौभविमानका पता है, न मेरा शत्रु शाल्व ही दिखायी देता है और न मेरे बूढ़े पिता ही
दृष्टिगोचर होते हैं || २९ ।।
ततो ममासीन्मनसि मायेयमिति निश्चितम् ।
प्रबुद्धोडस्मि ततो भूय: शतशो<5वाकिरं शरान् ।। ३० ।।
तब मेरे मनमें यह निश्चय हो गया कि यह वास्तवमें माया ही थी। तब मैंने सजग होकर
सैकड़ों बाणोंकी वर्षा प्रारम्भ की || ३० ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि सौभवधोपाख्याने
एकविंशो<5ध्याय: ।। २३१ ।॥।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अ्जुनाभिगमनपर्वमें सौभवधोपाख्यानविषयक
इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ २९ ॥।
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द्ाविशोद्ध्याय:
शाल्ववधोपाख्यानकी समाप्ति और युधिष्ठिरकी आज्ञा
लेकर श्रीकृष्ण, धृष्टद्युम्न तथा अन्य सब राजाओंका अपने-
अपने नगरको प्रस्थान
वायुदेव उवाच
ततो<हं भरतश्रेष्ठ प्रगृह्य रुचिरं धनु: ।
शरैरपातयं सौभाच्छिरांसि विबुधद्विषाम् ।। १ ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं--भरतश्रेष्ठ] तब मैं अपना सुन्दर धनुष उठाकर
बाणोंद्वारा सौभविमानसे देवद्रोही दानवोंके मस्तक काट-काटकर गिराने लगा ।। १ ।।
शरांश्षाशीविषाकारानूर्ध्वगांस्तिग्मतेजस: ।
प्रैषयं शाल्वराजाय शार्ज्रमुक्तानू सुवासस: || २ ।।
तत्पश्चात् शार्ड़् धनुषसे छूटे हुए विषैले सर्पोंके समान प्रतीत होनेवाले, सुन्दर पंखोंसे
सुशोभित, प्रचण्ड तेजस्वी तथा अनेक ऊर्ध्वगामी बाण मैंने राजा शाल्वपर चलाये ।। २ ।।
ततो नादृश्यत तदा सौभं कुरुकुलोद्वह ।
अन्तहितं माययाभूत् ततो5हं विस्मितो5$भवम् ।। ३ ।।
कुरुकुलशिरोमणे! परंतु उस समय सौभविमान मायासे अदृश्य हो गया, अतः किसी
प्रकार दिखायी नहीं देता था। इससे मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ ।। ३ ।।
अथ दानवसडूघास्ते विकृताननमूर्धजा: ।
उदक्रोशन् महाराज विछिते मयि भारत ।। ४ ।।
भरतवंशी महराज! तदनन्तर जब मैं निर्भय और अचलभावसे स्थित हुआ तथा उनपर
शस्त्रप्रहार करने लगा, तब विकृत मुख और केशवाले सौभनिवासी दानवगण जोर-जोरसे
चिल्लाने लगे ।। ४ ।।
ततोअस्त्रं शब्दसाहं वै त्वरमाणो महारणे ।
अयोजयं तद्गभधाय तत: शब्द उपारमत् ।। ५ ।।
तब मैंने उनके वधके लिये उस महान् संग्राममें बड़ी उतावलीके साथ शब्दवेधी बाणका
संधान किया। यह देख उनका कोलाहल शान्त हो गया ।। ५ |।
हतास्ते दानवा: सर्वे यै: स शब्द उदीरित: ।
शरैरादित्यसंकाशैज्वलितै: शब्दसाधनै: ।। ६ ।।
जिन दानवोंने पहले कोलाहल किया था, वे सब सूर्यके समान तेजस्वी शब्दवेधी
बाणोंद्वारा मारे गये || ६ ।।
तस्मिन्नुपरते शब्दे पुनरेवान्यतो5भवत् |
शब्दो5परो महाराज तत्रापि प्राहरं शरै: ।। ७ ।।
महाराज! वह कोलाहल शान्त होनेपर फिर दूसरी ओर उनका शब्द सुनायी दिया। तब
मैंने उधर भी बाणोंका प्रहार किया ।। ७ ।।
एवं दश दिश: सर्वास्तिर्यगूर्ध्य च भारत ।
नादयामासुरसुरास्ते चापि निहता मया ।। ८ ।।
भारत! इस तरह वे असुर इधर-उधर ऊपर-नीचे दसों दिशाओंमें कोलाहल करते और
मेरे हाथसे मारे जाते थे || ८ ।।
ततः प्राग्ज्योतिषं गत्वा पुनरेव व्यदृश्यत ।
सौभं कामगमं वीर मोहयन्मम चक्षुषी ।। ९ ।।
तदनन्तर इच्छानुसार चलनेवाला सौभविमान प्राग्ज्योतिषपुरके निकट जाकर मेरे
नेत्रोंको भ्रममें डालता हुआ फिर दिखायी दिया ।। ९ |।
ततो लोकान्तकरणो दानवो दारुणाकृति: ।
शिलावर्षेण महता सहसा मां समावृणोत् ।। १० ।।
तत्पश्चात् लोकान्तकारी भयंकर आकृतिवाले दानवने आकर सहसा पत्थरोंकी भारी
वर्षकि द्वारा मुझे आवृत कर दिया ।। १० ।।
सो<हं पर्वतवर्षेण वध्यमान: पुन: पुनः ।
वल्मीक इव राजेन्द्र पर्वतोपचितो5भवम् ।। ११ ।।
राजेन्द्र! शिलाखण्डोंकी उस निरन्तर वृष्टिसे बार-बार आहत होकर मैं पर्वतोंसे
आच्छादित बाँबी-सा प्रतीत होने लगा || ११ ।।
ततोऊहं पर्वतचित: सहय: सहसारथि: ।
अप्रख्यातिमियां राजन सर्वतः पर्वतैश्चित: ।। १२ ।॥।
राजन! मेरे चारों ओर शिलाखण्ड जमा हो गये थे। मैं घोड़ों और सारथिसहित
प्रस्तरखण्डोंसे चुना-सा गया था, जिससे दिखायी नहीं देता था ।। १२ ।।
ततो वृष्णिप्रवीरा ये ममासन् सैनिकास्तदा ।
ते भयार्ता दिश: सर्वे सहसा वित्रदुद्रुवु: ।॥ १३ ।।
यह देख वृष्णिकुलके श्रेष्ठ वीर जो मेरे सैनिक थे, भयसे आर्त हो सहसा चारों
दिशाओंमें भाग चले ।। १३ ।।
ततो हाहाकृतमभूत् सर्व किल विशाम्पते ।
द्यौश्न भूमिश्व खं चैवादृश्यमाने तथा मयि ।। १४ ।।
प्रजानाथ! मेरे अदृश्य हो जानेपर भूलोक, अन्तरिक्ष तथा स्वर्गलोक--सभी स्थानोंमें
हाहाकार मच गया ।। १४ ।।
ततो विषण्णमनसो मम राजन् सुहृज्जना: ।
रुरुदुश्लुक्तुशुश्वेव द:खशोकसमन्विता: ।। १५ ।।
राजन्! उस समय मेरे सभी सुहृद् खिन्नचित्त हो दुःख-शोकमें डूबकर रोने-चिल्लाने
लगे ।। १५ ||
द्विषतां च प्रहर्षो5 भूदार्ति श्वाद्धिषतामपि ।
एवं विजितवान् वीर पश्चादश्रौषमच्युत ।। १६ ।।
शत्रुओंमें उल्लास छा गया और मित्रोंमें शोक। अपनी मर्यादासे च्युत न होनेवाले वीर
युधिष्ठिर! इस प्रकार राजा शाल्व एक बार मुझपर विजयी हो चुका था। यह बात मैंने सचेत
होनेपर पीछे सारथिके मुँहसे सुनी थी ।। १६ ।।
ततो5हमिन्द्रदयितं सर्वपाषाण भेदनम् ।
वज़मुद्यम्य तान् सर्वान् पर्वतान् समशातयम् ।। १७ ।।
तब मैंने सब प्रकारके प्रस्तरोंको विदीर्ण करनेवाले इन्द्रके प्रिय आयुध वज्रका प्रहार
करके उन समस्त शिलाखण्डोंको चूर-चूर कर दिया ।। १७ ।।
ततः पर्वतभारार्त्ता मन्दप्राणविचेष्टिता: ।
हया मम महाराज वेपमाना इवाभवन् ।। १८ ।।
महाराज! उस समय पर्वतखण्डोंके भारसे पीड़ित हुए मेरे घोड़े कम्पित-से हो रहे थे।
उनकी बलसाध्य चेष्टाएँ बहुत कम हो गयी थीं ।। १८ ।।
मेघजालमिवाकाशे विदार्यभ्युदितं रविम् ।
दृष्टवा मां बान्धवा: सर्वे हर्षमाहारयन् पुन: ।। १९ ।।
जैसे आकाशमें बादलोंके समुदायको छिन्न-भिन्न करके सूर्य उदित होता है, उसी प्रकार
शिलाखण्डोंको हटाकर मुझे प्रकट हुआ देख मेरे सभी बन्धु-बान्धब पुनः हर्षसे खिल
उठे ॥। १९ |।
ततः पर्वतभारार्त्तान् मन्दप्राणविचेष्टितान् ।
हयान् संदृश्य मां सूत: प्राह तात्कालिकं वच: ।। २० ।।
तब प्रस्तरखण्डोंके भारसे पीड़ित तथा धीरे-धीरे प्राणसाध्य चेष्टा करनेवाले घोड़ोंको
देखकर सारथिने मुझसे यह समयोचित बात कही-- ।। २० ।।
साधु सम्पश्य वार्ष्णेय शाल्वं सौभपतिं स्थितम् ।
अलं कृष्णावमन्यैनं साधु यत्नं समाचर ।। २१ ।।
4वार्ष्णेय! वह देखिये, सौभराज शाल्व वहाँ खड़ा है। श्रीकृष्ण! इसकी उपेक्षा करनेसे
कोई लाभ नहीं। इसके वधका कोई उचित उपाय कीजिये ।। २१ ।।
मार्दव॑ सखितां चैव शाल्वादद्य व्यपाहर ।
जहि शाल्वं महाबाहो मैनं जीवय केशव ।। २२ ।।
“महाबाहु केशव! अब शाल्वकी ओरसे कोमलता और मित्रभाव हटा लीजिये। इसे मार
डालिये, जीवित न रहने दीजिये ।। २२ ।।
सर्वे: पराक्रमैर्वीर वध्य: शत्रुरमित्रहन् |
न शत्रुरवमन्तव्यो दुर्बलोडपि बलीयसा ।। २३ |।
शत्रुहन्ता वीरवर! आपको सारा पराक्रम लगाकर इस शत्रुका वध कर डालना चाहिये।
कोई कितना ही बलवान क्यों न हो, उसे अपने दुर्बल शत्रुकी भी अवहेलना नहीं करनी
चाहिये ।। २३ ।।
योडपि स्यात् पीठग: ककश्रित् कि पुनः समरे स्थित: ।
स त्वं पुरुषशार्दूल सर्वयत्नैरिमं प्रभो । २४ ।।
जहि वृष्णिकुलश्रेष्ठ मा त्वां कालो<त्यगात् पुन: ।
नैष मार्दवसाध्यो वै मतो नापि सखा तव ॥। २५ ।।
येन त्वं योधितो वीर द्वारका चावमर्दिता ।
एवमादि तु कौन्तेय श्रुत्वाहं सारथेवच: ।। २६ ।।
तत्त्वमेतदिति ज्ञात्वा युद्धे मतिमधारयम् ।
वधाय शाल्वराजस्य सौभस्य च निपातने ॥। २७ ।।
“कोई शत्रु अपने घरमें आसनपर बैठा हो (युद्ध न करना चाहता हो), तो भी उसे नष्ट
करनेमें नहीं चूकना चाहिये; फिर जो संग्राममें युद्ध करनेके लिये खड़ा हो, उसकी तो बात
ही क्या है? अतः पुरुषसिंह! प्रभो! आप सभी उपायोंसे इस शत्रुको मार डालिये।
वृष्णिवंशावतंस! इस कार्यमें आपको पुनः विलम्ब नहीं करना चाहिये। यह मृदुतापूर्ण
उपायसे वशमें आनेवाला नहीं। वास्तवमें यह आपका मित्र भी नहीं है; क्योंकि वीर! इसने
आपके साथ युद्ध किया और द्वारकापुरीको तहस-नहस कर दिया, अतः इसको शीघ्र मार
डालना चाहिये।” कुन्तीनन्दन! सारथिके मुखसे इस तरहकी बातें सुनकर मैंने सोचा, यह
ठीक ही तो कहता है। यह विचारकर मैंने शाल्वराजका वध करने और सौभविमानको मार
गिरानेके लिये युद्धमें मन लगा दिया || २४--२७ ।।
दारुकं चाब्रुवं वीर मुहूर्त स्थीयतामिति ।
ततो<प्रतिहतं दिव्यमभेद्यमतिवीर्यवत् ।। २८ ।।
आग्नेयमस्त्र दयितं सर्वसाहं महाप्रभम् ।
योजयं तत्र धनुषा दानवान्तकरं रणे ॥। २९ ।।
वीर! तत्पश्चात् मैंने दारुकसे कहा--'सारथे! दो घड़ी और ठहरो (फिर तुम्हारी इच्छा
पूरी हो जायगी)।' तदनन्तर मैंने कहीं भी कुण्ठित न होनेवाले दिव्य, अभेद्य, अत्यन्त
शक्तिशाली, सब कुछ सहन करनेमें समर्थ, प्रिय तथा परम कान्तिमान् आग्नेयास्त्रका अपने
धनुषपर संधान किया। वह अस्त्र युद्धमें दानवोंका अन्त करनेवाला था || २८-२९ |।
यक्षाणां राक्षसानां च दानवानां च संयुगे ।
राज्ञां च प्रतिलोमानां भस्मान्तकरणं महत् ।। ३० ।।
इतना ही नहीं, वह यक्षों, राक्षसों, दानवों तथा विपक्षी राजाओंको भी भस्म कर
डालनेवाला और महान था ।। ३० ।।
क्षुरान्तममलं चक्रं कालान्तकयमोपमम् ।
अनुमन्त्रयाहमतुलं द्विषतां विनिबर्हणम् ।। ३१ ।।
जहि सौभे स्ववीर्येण ये चात्र रिपवो मम ।
इत्युक्त्वा भुजवीर्येण तस्मै प्राहिणवं रुषा । ३२ ।।
वह आग्नेयास्त्र (सुदर्शन) चक्रके रूपमें था। उसके परिधिभागमें सब ओर तीखे छूरे
लगे हुए थे। वह उज्ज्वल अस्त्र काल, यम और अन्तकके समान भयंकर था। उस
शत्रुनाशक अनुपम अस्त्रको अभिमन्त्रित करके मैंने कहा--'तुम अपनी शक्तिसे
सौभविमान और उसपर रहनेवाले मेरे शत्रुओंको मार डालो।' ऐसा कहकर अपने बाहुबलसे
रोषपूर्वक मैंने वह अस्त्र सौभ-विमानकी ओर चलाया ।। ३१-३२ ।।
रूप॑ सुदर्शनस्थासीदाकाशे पततस्तदा ।
द्वितीयस्येव सूर्यस्य युगान्ते प्रपतिष्यत: ।। ३३ ।।
आकाशमें जाते ही उस सुदर्शन चक्रका स्वरूप प्रलयकालमें उगनेवाले द्वितीय सूर्यके
समान प्रकाशित हो उठा ।। ३३ ।।
तत् समासाद्य नगरं सौभं व्यपगतत्विषम् ।
मध्येन पाटयामास क्रकचो दार्विवोच्छितम् ।। ३४ ।।
उस दिव्यास्त्रने सौभनगरमें पहुँचकर उसे श्रीहीन कर दिया और जैसे आरा ऊँचे
काठको चीर डालता है, उसी प्रकार सौभविमानको बीचसे काट डाला ।। ३४ |।
द्विधा कृतं ततः: सौभ॑ सुदर्शनबलाद्धतम् ।
महेश्वरशरोद्धूतं पपात त्रिपुरं यथा ।। ३५ ।।
सुदर्शन चक्रकी शक्तिसे कटकर दो टुकड़ोंमें बँटा हुआ सौभविमान महादेवजीके
बाणोंसे छिन्न-भिन्न हुए त्रिपुरकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ा ।। ३५ ।।
तस्मिन् निपतिते सौभे चक्रमागात् करं मम |
पुनश्चादाय वेगेन शाल्वायेत्यहमब्रुवम् ।। ३६ ।।
सौभविमानके गिरनेपर चक्र फिर मेरे हाथमें आ गया। मैंने फिर उसे लेकर वेगपूर्वक
चलाया और कहा--“अबकी बार शाल्वको मारनेके लिये तुम्हें छोड़ रहा हूँ” ।। ३६ ।।
ततः शाल्वं गदां गुर्वीमाविध्यन्तं महाहवे ।
द्विधा चकार सहसा प्रजज्वाल च तेजसा ।॥। ३७ |।
तब उस चक्रने महासमरमें बड़ी भारी गदा घुमानेवाले शाल्वके सहसा दो टुकड़े कर
दिये और वह तेजसे प्रज्वलित हो उठा || ३७ ।।
तस्मिन् विनिहते वीरे दानवास्त्रस्तचेतस: ।
हाहाभूता दिशो जम्मुरदिता मम सायकै: ।। ३८ ।।
वीर शाल्वके मारे जानेपर दानवोंके मनमें भय समा गया। वे मेरे बाणोंसे पीड़ित हो
हाहाकार करते हुए सब दिशाओंमें भाग गये ।। ३८ ।।
ततो<5हं समवस्थाप्य रथं सौभसमीपत: ।
शड्खं प्रध्माप्य हर्षेण सुहृद: पर्यहर्षयम् ।। ३९ ।।
तब मैंने सौभविमानके समीप अपने रथको खड़ा करके प्रसन्नतापूर्वक शंख बजाकर
सभी सुहृदोंको हर्षमें निमग्न कर दिया ।। ३९ |।
तन्मेरुशिखराकारं विध्वस्ताट्टालगोपुरम् ।
दह्यूमानमभिप्रेक्ष्य स्त्रियस्ता: सम्प्रदुद्गरुवु: |॥ ४० ।।
मेरुपर्वतके शिखरके समान आकृतिवाले सौभ-नगरकी अट्टालिका और गोपुर सभी
नष्ट हो गये। उसे जलते देख उसपर रहनेवाली स्त्रियाँ इधर-उधर भाग गयीं ।। ४० ।।
एवं निहत्य समरे सौभ॑ शाल्व॑ निपात्य च ।
आनर्तान् पुनरागम्य सुहृदां प्रीतिमावहम् ।। ४१ ।।
धर्मराज! इस प्रकार युद्धमें सौभविमान तथा राजा शाल्वको नष्ट करके मैं पुनः
आनर्तनगर [द्वारका)-में लौट आया और सुहृदोंका हर्ष बढ़ाया || ४१ ।।
तदेतत् कारणं राजन् यदहं नागसाह्नयम् ।
नागमं परवीरघ्न न हि जीवेत् सुयोधन: ।। ४२ ।।
मय्यागते<5थवा वीर द्यूतं न भविता तथा ।
अद्याहं कि करिष्यामि भिन्नसेतुरिवोदकम् ।। ४३ |।
राजन! यही कारण है, जिससे मैं उन दिनों हस्तिनापुरमें न आ सका। शत्रुवीरोंका नाश
करनेवाले धर्मराज! मेरे आनेपर या तो जूआ नहीं होता या दुर्योधन जीवित नहीं रह पाता।
जैसे बाँध टूट जानेपर पानीको कोई नहीं रोक सकता, उसी प्रकार आज जबकि सब कुछ
बिगड़ चुका है, तब मैं क्या कर सकूँगा || ४२-४३ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमुकक््त्वा महाबाहु: कौरवं पुरुषोत्तम: ।
आमन्त्रय प्रययौ श्रीमान् पाण्डवान् मधुसूदन: ।। ४४ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! ऐसा कहकर पुरुषोंमें श्रेष्ठ महाबाहु श्रीमान्
मधुसूदन कुरुनन्दन युधिष्ठिरकी आज्ञा लेकर द्वारकाकी ओर चले ।। ४४ ।।
अभिवाद्य महाबाहुर्धर्मराजं युधिष्ठिरम् ।
राज्ञा मूर्थन्युपाप्रातो भीमेन च महाभुज: ।। ४५ ।।
महाबाहु श्रीकृष्णने धर्मराज युधिष्ठिरको प्रणाम किया। राजा युधिष्ठिर तथा भीमने
बड़ी-बड़ी भुजाओंवाले श्रीकृष्णका सिर सूँघा || ४५ ।।
परिष्वक्तश्नार्जुनेन यमा भ्यां चाभिवादित: ।
सम्मानितश्च धौम्येन द्रौपद्या चार्चितो5श्रुभि: || ४६ ।।
अर्जुनने उनको हृदयसे लगाया और नकुल-सहदेवने उनके चरणोंमें प्रणाम किया।
पुरोहित धौम्यजीने उनका सम्मान किया तथा द्रौपदीने अपने आँसुओंसे उनकी अर्चना
की || ४६ ।।
सुभद्रामभिमन्युं च रथमारोप्य काउ्चनम् |
आरुरोह रथं कृष्ण: पाण्डवैरभिपूजित: ।। ४७ ।।
पाण्डवोंसे सम्मानित श्रीकृष्ण सुभद्रा और अभिमन्युको अपने सुवर्णमय रथपर
बैठाकर स्वयं भी उसपर आरूढ़ हुए ।। ४७ ।।
शैब्यसुग्रीवयुक्तेन रथेनादित्यवर्चसा ।
द्वारकां प्रययौ कृष्ण: समाश्वास्य युधिष्ठिरम् ।। ४८ ।।
उस रथमें शैब्य और सुग्रीव नामक घोड़े जुते हुए थे और वह सूर्यके समान तेजस्वी
प्रतीत होता था। युधिष्ठिरको आश्वासन देकर श्रीकृष्ण उसी रथके द्वारा द्वारकापुरीकी ओर
चल दिये ।। ४८ ।।
ततः प्रयाते दाशाहें धृष्टद्युम्नोडपि पार्षत: ।
द्रौपदेयानुपादाय प्रययौ स्वपुरं तदा ।। ४९ ।।
श्रीकृष्णके चले जानेपर ट्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्नने भी द्रौपदीकुमारोंको साथ ले अपनी
राजधानीको प्रस्थान किया ।। ४९ |।
धृष्टकेतु: स्वसारं च समादायाथ चेदिराट् ।
जगाम पाण्डवान् दृष्टवा रम्यां शुक्तिमतीं पुरीम् ।। ५० ।।
चेदिराज धृष्टकेतु भी अपनी बहिन करेणुमतीको, जो नकुलकी भार्या थी, साथ ले
पाण्डवोंसे मिल-जुलकर अपनी सुरम्य राजधानी शुक्तिमतीपुरीको चले गये || ५० ।।
केकयाश्षाप्यनुज्ञाता: कौन्तेयेनामितौजसा ।
आमन्त्र्य पाण्डवान् सर्वान् प्रययुस्तेषपि भारत ।। ५१ ।।
भारत! केकयराजकुमार भी अमित तेजस्वी कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरकी आज्ञा पा समस्त
पाण्डवोंसे विदा लेकर अपने नगरको चले गये ।। ५१ ।।
ब्राह्मणाश्ष विशश्वैव तथा विषयवासिन: ।
विसृज्यमाना: सुभृशं न त्यजन्ति सम पाण्डवान् ।। ५२ ।।
युधिष्ठिरके राज्यमें रहनेवाले ब्राह्मण तथा वैश्य बारंबार विदा करनेपर भी पाण्डवोंको
छोड़कर जाना नहीं चाहते थे || ५२ ।।
समवाय: स राजेन्द्र सुमहाद्भुतदर्शन: ।
आसीन्महात्मनां तेषां काम्यके भरतर्षभ ।। ५३ ।।
भरतवंशभूषण महाराज जनमेजय! उस समय काम्यकवनमें उन महात्माओंका बड़ा
अद्भुत सम्मेलन जुटा था || ५३ ।।
युधिष्ठिरस्तु विप्रांस्ताननुमान्य महामना: ।
शशास पुरुषान् काले रथान् योजयतेति वै ॥। ५४ ।।
तदनन्तर महामना युधिष्ठिरने सब ब्राह्मणोंकी अनुमतिसे अपने सेवकोंको समयपर
आज्ञा दी--*रथोंको जोतकर तैयार करो” || ५४ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि सौभवधोपाख्याने
द्वाविंशोडध्याय: ।। २२ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अ्जुनाभिगमनपर्वमें सौभवधोपाख्यानविषयक
बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ २२ ॥।
अऑरड..2 ९23: (0) हि 7 7
त्रयोविशो<् ध्याय:
पाण्डवोंका द्वैतवनमें जानेके लिये उद्यत होना और
प्रजावर्गकी व्याकुलता
वैशम्पायन उवाच
तस्मिन् दशाहाधिपतौ प्रयाते
युधिष्ठिरो भीमसेनार्जुनौ च ।
यमौ च कृष्णा च पुरोहितश्न
रथान् महाहनि् परमाश्चयुक्तान् ।। १ ||
आस्थाय वीरा: सहिता वनाय
प्रतस्थिरे भूतपतिप्रकाशा: ।
हिरण्यनिष्कान् वसनानि गाश्न
प्रदाय शिक्षाक्षरमन्त्रविद्धय: ।। २ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! यादवकुलके अधिपति भगवान् श्रीकृष्णके चले
जानेपर युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रौपदी और पुरोहित धौम्य उत्तम
घोड़ोंसे जुते हुए बहुमूल्य रथोंपर बैठे। फिर भूतनाथ भगवान् शंकरके समान सुशोभित
होनेवाले वे सभी वीर एक साथ दूसरे वनमें जानेके लिये उद्यत हुए। वेद-वेदांग और मन्त्रके
जाननेवाले ब्राह्मणोंको सोनेकी मुद्राएँ, वस्त्र तथा गौएँ प्रदान करके उन्होंने यात्रा प्रारम्भ
की ।। १-२ ।।
प्रेष्या: पुरो विंशतिरात्तशस्त्रा
धनूंषि शस्त्राणि शरांश्ष दीप्तान्
मौर्वीश्ष यन्त्राणि च सायकांश्व॒
सर्वे समादाय जघन्यमीयु: ।। ३ ।।
भगवान् श्रीकृष्णके साथ बीस सेवक अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित हो धनुष, तेजस्वी
बाण, शस्त्र, डोरी, यन्त्र और अनेक प्रकारके सायक लेकर पहले ही पश्चिम दिशामें स्थित
द्वारकापुरीकी ओर चले गये थे || ३ ।।
ततस्तु वासांसि च राजपुत्र्या
धात्र्यश्न दासस््यश्न विभूषणं च |
तदिन्द्रसेनस्त्वरित: प्रगृह्म
जघन्यमेवोपययौ रथेन ।। ४ ।।
तदनन्तर सारथि इन्द्रसेन राजकुमारी सुभद्राके वस्त्र, आभूषण, धायों तथा दासियोंको
लेकर तुरंत ही रथके द्वारा द्वारकापुरीको चल दिया || ४ ।।
तत:ः कुरुश्रेष्ठमुपेत्य पौरा:
प्रदक्षिणं चक्कुरदीनसत्त्वा: ।
त॑ ब्राह्मणाश्वाभ्यवदन् प्रसन्ना
मुख्याश्न सर्वे कुरुजाड्डलानाम् ।। ५ ।।
इसके बाद उदार हृदयवाले पुरवासियोंने कुरुश्रेष्ठ युधिष्िरकके पास जा उनकी परिक्रमा
की। कुरुजांगलदेशके ब्राह्मणों तथा सभी प्रमुख लोगोंने उनसे प्रसन्नतापूर्वक बातचीत
की ।। ५ ।।
स चापि तानभ्यवदत् प्रसन्न:
सहैव तैभ्रव्ृभिर्धर्मराज: ।
तस्थौ च तत्राधिपतिर्महात्मा
दृष्टवा जनौघं कुरुजाजुलानाम् ।। ६ ।।
अपने भाइयोंसहित धर्मराज युधिष्ठिरने भी प्रसन्न होकर उन सबसे वार्तालाप किया।
कुरुजांग लदेशके उस जनसमुदायको देखकर महात्मा राजा युधिष्ठिर थोड़ी देरके लिये वहाँ
ठहर गये ।। ६ ।।
पितेव पुत्रेषु स तेषु भावं
चक्रे कुरूणामृषभो महात्मा ।
ते चापि तस्मिन् भरतप्रबर्हे
तदा बभूवुः पितरीव पुत्रा: ७ ।।
जैसे पिताका अपने पुत्रोंपर वात्सल्यभाव होता है, उसी प्रकार कुरुश्रेष्ठ महात्मा
युधिष्ठिरने उन सबके प्रति अपने आन्तरिक स्नेहका परिचय दिया। वे भी उन भरतश्रेष्ठ
युधिष्ठिरके प्रति वैसे ही अनुरक्त थे, जैसे पुत्र अपने पितापर ।। ७ ।।
ततस्तमासाद्य महाजनौघा:
कुरुप्रवीरं परिवार्य तस्थु: ।
हा नाथ हा धर्म इति ब्रुवाणा
भीताश्ष सर्वेडश्रुमुखाश्न॒ राजन् ।। ८ ।।
वर: कुरूणामधिप: प्रजानां
पितेव पुत्रानपहाय चास्मान् |
पौरानिमाञ्जानपदांश्व सर्वान्
हित्वा प्रयात: क्व नु धर्मराज: ।। ९ ।।
उस महान् जनसमुदाय (प्रजा)-के लोग कुरुकुलके प्रमुख वीर युधिष्ठिरके पास जा
उन्हें चारों ओरसे घेरकर खड़े हो गये। राजन! उस समय उन सबके मुखपर आँसुओंकी
धारा बह रही थी और वे वियोगके भयसे भीत हो हा नाथ! हा धर्म! इस प्रकार पुकारते हुए
कह रहे थे--“कुरुवंशके श्रेष्ठ अधिपति, प्रजाजनोंपर पिताका-सा स्नेह रखनेवाले धर्मराज
युधिष्ठिर हम सब पुत्रों, पुरवासियों तथा समस्त देशवासियोंको छोड़कर अब कहाँ चले जा
रहे हैं? ।। ८-९ ।।
धिग् धार्त॑राष्ट्रं सुनृशंसबुद्धि
धिक् सौबलं पापमतिं च कर्णम् ।
अनर्थमिच्छन्ति नरेन्द्र पापा
ये धर्मनित्यस्य सतस्तवैवम् ।। १० ।।
“'क्रूरबुद्धि धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनको धिक्कार है। सुबलपुत्र शकुनि तथा पापपूर्ण विचार
रखनेवाले कर्णको भी धिक््कार है, जो पापी सदा धर्ममें तत्पर रहनेवाले आपका इस प्रकार
अनर्थ करना चाहते हैं ।। १० ।।
स्वयं निवेश्याप्रतिमं महात्मा
पुरं महादेवपुरप्रकाशम् ।
शतक्रतुप्रस्थममेयकर्मा
हित्वा प्रयात: क्व नु धर्मराज: ।। ११ ।।
“जिन महात्माने स्वयं ही पुरुषार्थ करके महादेवजीके नगर कैलासकी-सी सुषमावाले
अनुपम इन्द्रप्रस्थ नामक नगरको बसाया था, वे अचिन्त्यकर्मा धर्मराज युधिष्ठिर अपनी उस
पुरीको छोड़कर अब कहाँ जा रहे हैं? ।। ११ ।।
चकार यामप्रतिमां महात्मा
सभां मयो देवसभाप्रकाशाम् |
तां देवगुप्तामिव देवमायां
हित्वा प्रयात: क्व नु धर्मराज: ।। १२ ।।
“महामना मयदानवने देवताओंकी सभाके समान सुशोभित होनेवाली जिस अनुपम
सभाका निर्माण किया था, देवताओंद्वारा रक्षित देवमायाके समान उस सभाका परित्याग
करके धर्मराज युधिष्ठिर कहाँ चले जा रहे हैं?' || १२ ।।
तान् धर्मकामार्थविदुत्तमौजा
बीभत्सुरुच्चै: सहितानुवाच ।
आदास्यते वासमिमं निरुष्य
वनेषु राजा द्विषतां यशांसि ।। १३ ।।
धर्म, अर्थ और कामके ज्ञाता उत्तम पराक्रमी अर्जुनने उन सब प्रजाजनोंको सम्बोधित
करके उच्च स्वरसे कहा--'राजा युधिष्ठिर इस वनवासकी अवधि पूर्ण करके शत्रुओंका यश
छीन लेंगे ।। १३ ।।
द्विजातिमुख्या: सहिता: पृथक् च
भवद्धिरासाद्य तपस्विनश्न ।
प्रसाद्य धर्मार्थविदश्ष वाच्या
यथार्थसिद्धि: परमा भवेन्न: ।। १४ ।।
“आपलोग एक साथ या अलग-अलग श्रेष्ठ ब्राह्मणों, तपस्वियों तथा धर्म-अर्थके ज्ञाता
महापुरुषोंको प्रसन्न करके उन सबसे यह प्रार्थना करें, जिससे हमलोगोंके अभीष्ट
मनोरथकी उत्तम सिद्धि हो' ।। १४ ।।
इत्येवमुक्ते वचने<र्जुनेन
ते ब्राह्मणा: सर्ववर्णाश्ष॒ राजन् |
मुदाभ्यनन्दन् सहिताश्च चक्रुः
प्रदक्षिणं धर्मभूतां वरिष्ठटम् ।। १५ ।।
राजन! अर्जुनके ऐसा कहनेपर ब्राह्मणों तथा अन्य सब वर्णके लोगोंने एक स्वरसे
प्रसन्नतापूर्वक उनकी बातका अभिनन्दन किया तथा धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिरकी
परिक्रमा की ।। १५ ||
आमन्त्रय पार्थ च वृकोदरं च
धनंजयं याज्ञसेनीं यमौ च ।
प्रतस्थिरे राष्ट्रमपेतहर्षा
युधिष्ठटिरेणानुमता यथास्वम् ।। १६ ।।
तदनन्तर सब लोग कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, द्रौपदी तथा नकुल-सहदेवसे
विदा ले एवं युधिष्ठिरकी अनुमति प्राप्त करके उदास होकर अपने राष्ट्रको प्रस्थित
हुए || १६ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि द्वैतवनप्रवेशे त्रयोविंशो 5 ध्याय:
॥॥ २३ |।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्वमें द्वैतवनप्रवेशविषयक
तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। २३ ॥।
#2:8 #:23:.:7 (0) हि २ 7
चतुर्विशो$ध्याय:
पाण्डवोंका द्वैतवनमें जाना
वैशम्पायन उवाच
ततस्तेषु प्रयातेषु कौन्तेय: सत्यसंगर: ।
अभ्यभाषत धर्मात्मा भ्रातृन् सर्वान् युधिष्ठिर: ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर प्रजाजनोंके चले जानेपर सत्यप्रतिज्ञ
एवं धर्मात्मा कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरने अपने सब भाइयोंसे कहा-- ।। १ ।।
द्वादशेमानि वर्षाणि वस्तव्यं निर्जने वने ।
समीक्षध्वं महारण्ये देशं बहुमृगद्धिजम् ॥। २ ।।
“हमलोगोंको इन आगामी बारह वर्षोतक निर्जन वनमें निवास करना है, अतः इस
महान् वनमें कोई ऐसा स्थान ढूँढ़ो, जहाँ बहुत-से पशु-पक्षी निवास करते हों ।। २ ।।
बहुपुष्पफलं रम्यं शिवं पुण्यजनावृतम् ।
यत्रेमा: शरद: सर्वा: सुखं प्रतिवसेमहि ।। ३ ।।
“जहाँ फल-फूलोंकी अधिकता हो, जो देखनेमें रमणीय एवं कल्याणकारी हो तथा
जहाँ बहुत-से पुण्यात्मा पुरुष रहते हों। वह स्थान इस योग्य होना चाहिये, जहाँ हम सब
लोग इन बारह वर्षोतक सुखपूर्वक रह सकें” ।। ३ ।।
एवमुक्ते प्रत्युवाच धर्मराजं धनंजय: ।
गुरुवन्मानवगुरुं मानयित्वा मनस्विनम् ।। ४ ।।
धर्मराजके ऐसा कहनेपर अर्जुनने उन मनस्वी मानवगुरु युधिष्ठिरका गुरुतुल्य सम्मान
करके उनसे इस प्रकार कहा ।। ४ ।।
अजुन उवाच
भवानेव महर्षीणां वृद्धानां पर्युपासिता ।
अज्ञातं मानुषे लोके भवतो नास्ति किंचन ।। ५ ।।
अर्जुन बोले--आर्य! आप स्वयं ही बड़े-बड़े ऋषियों तथा वृद्ध पुरुषोंका संग
करनेवाले हैं। इस मनुष्यलोकमें कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो आपको ज्ञात न हो || ५ ।।
त्वया हुपासिता नित्यं ब्राह्मणा भरतर्षभ ।
द्वैपायनप्रभूतयो नारदश्च॒ महातपा: ।। ६ ।।
भरतश्रेष्ठी आपने सदा द्वैपायन आदि बहुत-से ब्राह्मणों तथा महातपस्वी नारदजीकी
उपासना की है || ६ ।।
य: सर्वलोकद्वाराणि नित्यं संचरते वशी ।
देवलोकाद् ब्रह्मलोक॑ गन्धर्वाप्सरसामपि ।। ७ ||
जो मन और इन्द्रियोंको वशमें रखकर सदा सम्पूर्ण लोकोंमें विचरते रहते हैं।
देवलोकसे लेकर ब्रह्मलोक तथा गन्धर्वों और अप्सराओंके लोकोंमें भी उनकी पहुँच
है ।। ७ ।।
अनुभावांश्व॒ जानासि ब्राह्मणानां न संशय: ।
प्रभावांश्वैव वेत्थ त्वं सर्वेषामेव पार्थिव ।। ८ ।।
राजन! आप सभी ब्राह्मणोंके अनुभाव और प्रभावको जानते हैं, इसमें संशय नहीं
है ।। ८ ।।
त्वमेव राजन् जानासि श्रेय:कारणमेव च ।
यत्रेच्छसि महाराज निवासं तत्र कुर्महे ।। ९ ।।
राजन! आप ही श्रेय (मोक्ष)-के कारणका ज्ञान रखते हैं। महाराज! आपकी जहाँ
इच्छा हो वहीं हमलोग निवास करेंगे ।। ९ |।
इदं द्वैतवनं नाम सर: पुण्यजलोचितम् |
बहुपुष्पफलं रम्यं नानाद्विजनिषेवितम् ।। १० ।।
यह जो पवित्र जलसे भरा हुआ सरोवर है, इसका नाम द्वैतवन है। यहाँ फल और
फूलोंकी बहुलता है। देखनेमें यह स्थान रमणीय तथा अनेक ब्राह्मणोंसे सेवित है || १० ।।
अत्रेमा द्वादश समा विहरेमेति रोचये ।
यदि तेडनुमतं राजन् किमन्यन्मन्यते भवान् ।। ११ ।।
मेरी इच्छा है कि यहीं हमलोग इन बारह वर्षोतक निवास करें। राजन! यदि आपकी
अनुमति हो तो द्वैतववनके समीप रहा जाय। अथवा आप दूसरे किस स्थानको उत्तम मानते
हैं ।। ११ ।।
युधिछिर उवाच
ममाप्येतन्मतं पार्थ त्वया यत् समुदाह्मतम् ।
गच्छाम: पुण्यविख्यातं महद् द्वैतवनं सर: ।। १२ ।।
युधिष्ठिरने कहा--पार्थ! तुमने जैसा बताया है, वही मेरा भी मत है। हमलोग पवित्र
जलके कारण प्रसिद्ध द्वैतववन नामक विशाल सरोवरके समीप चलें ।। १२ ।।
वैशम्पायन उवाच
ततस्ते प्रययु: सर्वे पाण्डवा धर्मचारिण: ।
ब्राह्मणैर्बहुभि: सार्ध पुण्यं द्वैतवनं सर: ।। १३ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर वे सभी धर्मात्मा पाण्डव बहुत-से
ब्राह्मणोंके साथ पवित्र द्वैववन नामक सरोवरको चले गये ।। १३ ।।
ब्राह्मणा: साम्निहोत्राश्न तथैव च निरग्नय: ।
स्वाध्यायिनो भिक्षवश्ष॒ तथैव वनवासिन: ।। १४ ।।
बहवो ब्राद्मणास्तत्र परिवद्रुर्युधिष्ठिरम् ।
तपःसिद्धा महात्मान: शतश: संशितव्रता: ।। १५ ।।
वहाँ बहुत-से अन्निहोत्री ब्राह्मणों, निरग्निकों, स्वाध्यायपरायण ब्रह्मचारियों,
वानप्रस्थियों, संन्यासियों, सैकड़ों कठोर व्रतका पालन करनेवाले तपःसिद्ध महात्माओं तथा
अन्य अनेक ब्राह्मणोंने महाराज युधिष्ठिरको घेर लिया ।। १४-१५ ।।
ते यात्वा पाण्डवास्तत्र ब्राह्मणैर्बहुभि: सह ।
पुण्यं द्वेतवनं रम्यं विविशुर्भरतर्षभा: ।। १६ ।।
वहाँ पहुँचकर भरतश्रेष्ठ पाण्डवोंने बहुत-से ब्राह्मणोंके साथ पवित्र एवं रमणीय
द्वैतवनमें प्रवेश किया || १६ ।।
तमालतालाम्रमधूकनीप-
कदम्बसर्जार्जुनकर्णिकारै: ।
तपात्यये पुष्पधथरैरुपेतं
महावनं राष्ट्रपतिर्ददर्श ।। १७ ।।
राष्ट्रपति युधिष्ठिरने देखा, वह महान् वन तमाल, ताल, आम, महुआ, नीप, कदम्ब,
साल, अर्जुन और कनेर आदि वृक्षोंसे, जो ग्रीष्म-ऋतु बीतनेपर फ़ूल धारण करते हैं, सम्पन्न
है ।। १७ ।।
महाद्रुमाणां शिखरेषु तस्थु-
मनोरमां वाचमुदीरयन्त: ।
मयूरदात्यूहचकोरसड्घा-
स्तस्मिन् वने बर्हिणकोकिलाश्न ।। १८ ।।
उस वनमें बड़े-बड़े वृक्षोंकी ऊँची शाखाओं-पर मयूर, चातक, चकोर, बर्हिण तथा
कोकिल आदि पक्षी मनको भानेवाली मीठी बोली बोलते हुए बैठे थे || १८ ।।
करेणुयूथै: सह यूथपानां
मदोत्कटानामचलप्रभाणाम् |
महान्ति यूथानि महाद्विपानां
तस्मिन् वने राष्ट्रपतिर्ददर्श || १९ ।।
राष्ट्रपति युधिष्ठिरको उस वनमें पर्वतोंके समान प्रतीत होनेवाले मदोन्मत्त गजराजोंके,
जो एक-एक यूथके अधिपति थे, हथिनियोंके साथ विचरनेवाले कितने ही भारी-भारी झुंड
दिखायी दिये ।। १९ ।।
मनोरमां भोगवतीमुपेत्य
पूतात्मनां चीरजटाधराणाम् |
तस्मिन् वने धर्मभूतां निवासे
ददर्श सिद्धर्षिगणाननेकान् ।। २० |।
मनोरम भोगवती (सरस्वती) नदीमें स्नान करके जिनके अन्त:करण पवित्र हो गये हैं,
जो वल््कल और जटा धारण करते हैं, ऐसे धर्मात्माओंके निवासभूत उस वनमें राजाने
सिद्धमहर्षियोंके अनेक समुदाय देखे || २० ।।
ततः स यानादवरुह्यु राजा
सभ्रातृक: सजन: काननं तत् ।
विवेश धर्मात्मवतां वरिष्ठ-
स्त्रिविष्टपं शक्र इवामितौजा: ।। २१ ।।
तदनन्तर धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ एवं अमित तेजस्वी राजा युधिष्ठिरने अपने सेवकों और
भाइयोंसहित रथसे उतरकर स्वर्ममें इन्द्रके समान उस वनमें प्रवेश किया ।। २१ ।।
त॑ सत्यसंधं सहसाभिपेतु-
दिंदृक्षवश्चारणसिद्धसड्घा: ।
वनौकससश्षापि नरेन्द्रसिंहं
मनस्थविनं तं परिवार्य तस्थु: ।। २२ ।।
उस समय उन सत्यप्रतिज्ञ मनस्वी राजसिंह युधिष्ठिरको देखनेकी इच्छासे सहसा बहुत-
से चारण, सिद्ध एवं वनवासी महर्षि आये और उन्हें घेरकर खड़े हो गये || २२ ।।
स तत्र सिद्धानभिवाद्य सर्वान्
प्रत्यर्चितो राजवद् देववच्च ।
विवेश सर्व: सहितो द्विजाग्रयै:
कृताञ्जलि।धर्धर्म भृतां वरिष्ठ: ।। २३ ।।
वहाँ आये हुए समस्त सिद्धोंको प्रणाम करके धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिर उनके द्वारा
भी राजा तथा देवताके समान पूजित हुए एवं दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने उन समस्त श्रेष्ठ
ब्राह्मणोंके साथ वनके भीतर पदार्पण किया ।। २३ ।।
स पुण्यशील: पितृवन्महात्मा
तपस्विभिर्धर्मपरैरुपेत्य ।
प्रत्यर्चित: पुष्पधरस्य मूले
महाद्रुमस्पोपविवेश राजा ।। २४ ।।
उस वनमें रहनेवाले धर्मपरायण तपस्वियोंने उन पुण्यशील महात्मा राजाके पास
जाकर उनका पिताकी भाँति सम्मान किया। तत्पश्चात् राजा युधिष्ठिर फूलोंसे लदे हुए एक
महान् वृक्षके नीचे उसकी जड़के समीप बैठे || २४ ।।
भीमश्न कृष्णा च धनंजयश्न
यमौ च ते चानुचरा नरेन्द्रम् ।
विमुच्य वाहानवशाश्न सर्वे
तत्रोपतस्थुर्भरतप्रबर्हा: ।। २५ ।।
तदनन्तर पराधीन-दशामें पड़े हुए भीम, द्रौपदी, अर्जुन, नकुल, सहदेव तथा सेवकगण
सवारी छोड़कर उतर गये। वे सभी भरतश्रेष्ठ वीर महाराज युधिष्ठिरके समीप जा
बैठे || २५ ।।
लतावतानावनतः: स पाण्डवै-
महाद्रुम: पठचभिरेव धन्विभि: ।
बभौ निवासोपगतैर्महात्मभि-
महागिरिवारिणयूथपैरिव ।। २६ ।।
जैसे महान् पर्वत यूथपति गजराजोंसे सुशोभित होता है, उसी प्रकार, लतासमूहसे
झुका हुआ वह महान् वृक्ष वहाँ निवासके लिये आये हुए पाँच धनुर्धर महात्मा पाण्डवोंद्वारा
शोभा पाने लगा ।। २६ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि द्वैतवनप्रवेशे चतुर्विशो 5ध्याय: ।।
२४ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अजुनाभिगमनपर्वमें द्वैतवनप्रवेशविषयक
चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। २४ ॥।
#2:8 #23:.7 () हि 2 7
पञ्चविशो< ध्याय:
महर्षि मार्कण्डेयका पाण्डवोंको धर्मका आदेश देकर उत्तर
दिशाकी ओर प्रस्थान
वैशम्पायन उवाच
तत् कानने प्राप्य नरेन्द्रपुत्रा:
सुखोचिता वासमुपेत्य कृच्छम् ।
विजहुरिन्द्रप्रतिमा: शिवेषु
सरस्वतीशालवनेषु तेषु ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! सुख भोगनेके योग्य राजकुमार पाण्डव इन्द्रके
समान तेजस्वी थे। वे वनवासके संकटमें पड़कर द्वैतवनमें प्रवेश करके वहाँ
सरस्वतीतटवर्ती सुखद शालवनोंमें विहार करने लगे ।। १ ।।
यतींश्व॒ राजा स मुनींश्व॒ सर्वा-
स्तस्मिन् वने मूलफलैरुदग्रै: ।
द्विजातिमुख्यानृषभ: कुरूणां
संतर्पयामास महानुभाव: ।। २ ।।
इष्टी क्ष पित्रयाणि तथा क्रियाश्र
महावने वसतां पाण्डवानाम् |
पुरोहितस्तत्र समृद्धतेजा-
श्व॒कार धौम्य: पितृवन्नपाणाम् ।। ३ ।।
कुरुश्रेष्ठ महानुभाव राजा युधिष्ठिरने उस वनमें रहनेवाले सम्पूर्ण यतियों, मुनियों और
श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको उत्तम फल-मूलोंके द्वारा तृप्त किया। अत्यन्त तेजस्वी पुरोहित धौम्य
पिताकी भाँति उस महावनमें रहनेवाले राजकुमार पाण्डवोंके यज्ञ-याग, पितृ-श्राद्ध तथा
अन्य सत्कर्म करते-कराते रहते थे ।। २-३ ।।
अपेत्य राष्ट्राद् वसतां तु तेषा-
मृषि: पुराणोडतिथिराजगाम ।
तमाश्रमं तीव्रसमृद्धतेजा
मार्कण्डेय: श्रीमतां पाण्डवानाम् ।। ४ ।।
राज्यसे दूर होकर वनमें निवास करनेवाले श्रीमान् पाण्डवोंके उस आश्रमपर उद्दीप्त
तेजस्वी पुरातन महर्षि मार्कण्डेयजी अतिथिके रूपमें आये ।। ४ ।।
तमागतं ज्वलितहुताशनप्रभं
महामना: कुरुवृषभो युधिष्ठिर: ।
अपूजयत् सुरऋषिमानवार्चितं
महामुनि हानुपमसत्त्ववीर्यवान् ।। ५ ।।
उनकी अंग-कान्ति प्रज्वलित अग्निके समान उदभासित हो रही थी। देवताओं, ऋषियों
तथा मनुष्योंद्वारा पूजित महामुनि मार्कण्डेयको आया देख अनुपम धैर्य और पराक्रमसे
सम्पन्न महामनस्वी कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिरने उनकी यथावत् पूजा की ।। ५ ।।
स सर्वविद् द्रौपदी वीक्ष्य कृष्णां
युधिष्ठिरं भीमसेनार्जुनौ च ।
संस्मृत्य राम॑ मनसा महात्मा
तपस्विमध्येडस्मयतामितौजा: ।। ६ ।।
अमित तेजस्वी तथा सर्वज्ञ महात्मा मार्कण्डेयजी ट्रुपदकुमारी कृष्णा, युधिष्ठिर,
भीमसेन, अर्जुन (और नकुल-सहदेव)-को देखकर मन-ही-मन श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण
करके तपस्वियोंके बीचमें मुसकराने लगे || ६ ।।
त॑ं धर्मराजो विमना इवाब्रवीत्
सर्वे द्विया सन्ति तपस्विनो5मी ।
भवानिदं कि स्मयतीव हृष्ट-
स्तपस्विनां पश्यतां मामुदीक्ष्य ।। ७ ।।
तब धर्मराज युधिष्ठिरने उदासीन-से होकर पूछा--'मुने! ये सब तपस्वी तो मेरी
अवस्था देखकर कुछ संकुचित-से हो रहे हैं, परंतु क्या कारण है कि आप इन सब
महात्माओंके सामने मेरी ओर देखकर प्रसन्नतापूर्वक यों मुसकराते-से दिखायी देते
हैं? ।। ७ |।
मार्कण्डेय उवाच
न तात हृष्यामि न च स्मयामि
प्रहर्षजो मां भजते न दर्प: ।
तवापदं त्वद्य समीक्ष्य राम॑
सत्यव्रतं दाशरथिं स्मरामि ।। ८ ।।
मार्कण्डेयजी बोले--तात! न तो मैं हर्षित होता हूँ और न मुसकराता ही हूँ।
हर्षजनित अभिमान कभी मेरा स्पर्श नहीं कर सकता। आज तुम्हारी यह विपत्ति देखकर
मुझे सत्यप्रतिज्ञ दशरथनन्दन श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण हो आया ।। ८ ।।
स चापि राजा सह लक्ष्मणेन
वने निवासं पितुरेव शासनात् ।
धन्वी चरन् पार्थ मयैव दृष्टो
गिरे: पुरा ऋष्यमूकस्य सानौ ।। ९ ।।
कुन्तीनन्दन! प्राचीनकालकी बात है राजा रामचन्द्रजी भी अपने पिताकी आज्ञासे ही
केवल धनुष हाथमें लिये लक्ष्मणके साथ वनमें निवास एवं भ्रमण करते थे। उस समय
ऋष्यमूकपर्वतके शिखरपर मैंने ही उनका भी दर्शन किया था ।। ९ ।।
सहसतनेत्रप्रतिमो महात्मा
यमस्य नेता नमुचेश्व हन्ता ।
पितुर्निदेशादनघ: स्वधर्म
वासं वने दाशरथिक्षकार ।। १० |।
दशरथनन्दन श्रीराम सर्वथा निष्पाप थे। इन्द्र उनके दूसरे स्वरूप थे। वे यमराजके भी
नियन्ता और नमुचि-जैसे दानवोंके नाशक थे, तो भी उन महात्माने पिताकी आज्ञासे अपना
धर्म समझकर वनमें निवास किया ।। १० ।।
स चापि शक्रस्य समप्रभावो
महानुभाव: समरेष्वजेय: ।
विहाय भोगानचरद् वनेषु
नेशे बलस्येति चरेदधर्मम् ।। ११ ।।
जो इन्द्रके समान प्रभावशाली थे, जिनका अनुभव महान् था तथा जो युद्धमें सर्वदा
अजेय थे, उन्होंने भी सम्पूर्ण भोगोंका परित्याग करके वनमें निवास किया था। इसलिये
अपनेको बलका स्वामी समझकर अधर्म नहीं करना चाहिये || ११ ।।
भूपाश्चन नाभागभगीरथादयो
महीमिमां सागरान्तां विजित्य ।
सत्येन ते5प्यजयंस्तात लोकान्
नेशे बलस्येति चरेदधर्मम् ।। १२ ।।
नाभाग और भगीरथ आदि राजाओंने भी समुद्रपर्यन्त पृथ्वीको जीतकर सत्यके द्वारा
उत्तम लोकोंपर विजय पायी। इसलिये तात! अपनेको बलका स्वामी मानकर अधर्मका
आचरण नहीं करना चाहिये ।। १२ ।।
अलर्कमाहुर्नरवर्य सनन््तं
सत्यव्रतं काशिकरूषराजम् |
विहाय राज्यानि वसूनि चैव
नेशे बलस्येति चरेदधर्मम् ।। १३ ।।
नरश्रेष्ठू काशी और करूषदेशके राजा अलर्कको सत्यप्रतिज्ञ संत बताया गया है।
उन्होंने राज्य और धन त्यागकर धर्मका आश्रय लिया है। अत: अपनेको अधिक शक्तिशाली
समझकर अधर्मका आचरण नहीं करना चाहिये ।। १३ ।।
धात्रा विधियों विहित: पुराणै-
स्तं पूजयन्तो नरवर्य सन्त: ।
सप्तर्षय: पार्थ दिवि प्रभान्ति
नेशे बलस्येति चरेदधर्मम् ।। १४ ।।
मनुष्योंमें श्रेष्ठ कुन्तीकुमार! विधाताने पुरातन वेदवाक्योंद्वारा जो अग्निहोत्र आदि
कर्मोका विधान किया है, उसका समादर करनेके कारण ही साधु सप्तर्षिगण देवलोकमें
प्रकाशित हो रहे हैं। अतः अपनेको शक्तिशाली मानकर कभी अधर्मका आचरण नहीं करना
चाहिये ।। १४ ।।
महाबलानू् पर्वतकूटमात्रान्
विषाणिन: पश्य गजान् नरेन्द्र ।
स्थितान् निदेशे नरवर्य धातु-
नेंशे बलस्येति चरेदधर्मम् ।। १५ ।।
कुन्तीनन्दन महाराज युधिष्ठिर! पर्वतशिखरके समान ऊँचे और बड़े-बड़े दाँतोंवाले इन
महाबली गजराजोंकी ओर तो देखो। ये भी विधाताके आदेशका पालन करनेमें लगे हैं।
इसलिये मैं शक्तिका स्वामी हूँ ऐसा समझकर कभी अधर्माचरण न करे ।। १५ ।।
सर्वाणि भूतानि नरेन्द्र पश्य
तथा यथावद् विहितं विधात्रा ।
स्वयोनित: कर्म सदा चरन्ति
नेशे बलस्येति चरेदधर्मम् ।। १६ ।।
नरेन्द्र! देखो, ये समस्त प्राणी विधाताके विधानके अनुसार अपनी योनिके अनुरूप
सदा कार्य करते रहते हैं, अत: अपनेको बलका स्वामी समझकर अधर्म न करे || १६ ।।
सत्येन धर्मेण यथार्हवृत्त्या
हिया तथा सर्वभूतान्यतीत्य ।
यशश्न तेजश्न तवापि दीप्त॑
विभावसोर्भास्करस्येव पार्थ ।। १७ ।।
कुन्तीनन्दन! तुम अपने सत्य, धर्म, यथायोग्य बर्ताव तथा लज्जा आदि सदगुणोंके
कारण समस्त प्राणियोंसे ऊँचे उठे हुए हो। तुम्हारा यश और तेज अग्नि तथा सूर्यके समान
प्रकाशित हो रहा है || १७ ।।
यथाप्रतिज्ञं च महानुभाव
कृच्छूं वने वासमिमं निरुष्य ।
ततः श्रियं तेजसा तेन दीप्ता-
मादास्यसे पार्थिव कौरवेभ्य: ।। १८ ।।
महानुभाव नरेश! तुम अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार इस कष्टसाध्य वनवासकी अवधि पूरी
करके कौरवोंके हाथसे अपनी तेजस्विनी राजलक्ष्मीको प्राप्त कर लोगे ।। १८ ।।
वैशग्पायन उवाच
तमेवमुक्त्वा वचन महर्षि-
स्तपस्विमध्ये सहित सुहृद्धि: ।
आमन्त्र्य धौम्यं सहितांश्ष पार्था-
सतत: प्रतस्थे दिशमुत्तरां स: ।। १९ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तपस्वी महात्माओंके बीचमें अपने सुहृदोंके
साथ बैठे हुए धर्मराज युधिष्ठिरसे पूर्वोक्त बातें कहकर महर्षि मार्कण्डेय धौम्य एवं समस्त
पाण्डवोंसे विदा ले उत्तर दिशाकी ओर चल दिये ।। १९ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि द्वैतवनप्रवेशे पठचरविंशो5ध्याय:
॥॥ २५ ||
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अ्जुनाभिगमनपर्वमें द्वैतवनप्रवेशविषयक
पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। २५ ॥
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षड्विशो<5ध्याय:
दल्भपुत्र बकका युधिष्ठिरको ब्राह्मणोंका महत्त्व बतलाना
वैशम्पायन उवाच
वसत्सु वै द्वेतवने पाण्डवेषु महात्मसु ।
अनुकीर्ण महारण्यं ब्राह्मणैः समपद्यत ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! द्वैतवनमें जब महात्मा पाण्डव निवास करने
लगे, उस समय वह विशाल वन ब्राह्मणोंसे भर गया ।। १ ॥।
ईर्यमाणेन सतत ब्रह्म॒घोषेण सर्वश: ।
ब्रद्मलोकसमं पुण्यमासीद् द्वैतवनं सर: ।। २ ।॥।
सरोवरसहित द्वैततन सदा और सब ओर उच्चारित होनेवाले वेदमन्त्रोंके घोषसे
ब्रह्मलोकके समान जान पड़ता था ॥| २ ।।
यजुषाम्चां साम्नां च गद्यानां चैव सर्वश: ।
आसीदुच्चार्यमाणानां नि:स्वनो हृदयड्भम: ।। ३ ।।
यजुर्वेद, ऋग्वेद और सामवेद तथा गद्य-भागके उच्चारणसे जो ध्वनि होती थी, वह
हृदयको प्रिय जान पड़ती थी ।। ३ ।।
ज्याघोषश्लैव पार्थानां ब्रह्मघोषश्वन धीमताम् ।
संसृष्टं ब्रह्मणा क्षत्रं भूय एव व्यरोचत ।। ४ ।।
कुन्तीपुत्रोंके धनुषकी प्रत्यंचाका टंकार-शब्द और बुद्धिमान ब्राह्मणोंके वेदमन्त्रोंका
घोष दोनों मिलकर ऐसे प्रतीत होते थे, मानो ब्राह्मणत्व और क्षत्रियत्वका सुन्दर संयोग हो
रहा था ॥। ४ ।।
अथाब्रवीद् बको दाल्शभ्यो धर्मराजं युधिष्ठिरम् ।
संध्यां कौन्तेयमासीनमृषिभि: परिवारितम् ।। ५ ।।
एक दिन कुन्तीकुमार धर्मराज युधिष्ठिर ऋषियोंसे घिरे हुए संध्योपासना कर रहे थे।
उस समय दल्भके पुत्र बक नामक महर्षिने उनसे कहा-- ।। ५ ।।
पश्य द्वैतवने पार्थ ब्राह्मणानां तपस्विनाम् ।
होमवेलां कुरुश्रेष्ठ सम्प्रजज्लितपावकाम् ।। ६ ।।
“कुरुश्रेष्ठ कुन्तीकुमार! देखो, द्वैतवनमें तपस्वी ब्राह्मणोंकी होमवेलाका कैसा सुन्दर
दृश्य है। सब ओर वेदियोंपर अग्नि प्रज्वलित हो रही है ।। ६ ।।
चरन्ति धर्म पुण्ये5स्मिंस्त्वया गुप्ता धृतव्रता: ।
भृगवोडज़्विरसश्वैव वासिष्ठा: काश्यपै: सह ।। ७ ।।
आगस्त्याक्ष महाभागा आत्रेयाश्षोत्तमव्रता: ।
सर्वस्य जगत: श्रेष्ठा ब्राह्मणा: संगतास्त्वया ॥। ८ ।।
“आपके द्वारा सुरक्षित हो व्रत धारण करनेवाले ब्राह्मण इस पुण्य वनमें धर्मका अनुष्ठान
कर रहे हैं। भार्गव, अंगिरस, वासिष्ठ, काश्यप, महान् सौभाग्यशाली अगस्त्य वंशी तथा श्रेष्ठ
व्रतका पालन करनेवाले आत्रेय आदि सम्पूर्ण जगतके श्रेष्ठ ब्राह्मण यहाँ आकर तुमसे मिले
हैं || ७-८ ।।
इदं तु वचन पार्थ शृणुष्व गदतो मम ।
भ्रातृभि: सह कौन्तेय यत् त्वां वक्ष्यामि कौरव ।। ९ ।।
“कुन्तीनन्दन! कुरुश्रेष्ठ भाइयोंसहित तुमसे मैं जो एक बात कह रहा हूँ, इसे ध्यान
देकर सुनो ।। ९ ।।
ब्रद्य क्षत्रेण संसृष्टं क्षत्रं च ब्रह्मणा सह ।
उदीर्णे दहतः शत्रून् वनानीवाग्निमारुती ।। १० ।।
“जब ब्राह्मण क्षत्रियसे और क्षत्रिय ब्राह्मणसे मिल जाय तो दोनों प्रचण्ड शक्तिशाली
होकर उसी प्रकार अपने शत्रुओंको भस्म कर देते हैं, जैसे अग्नि और वायु मिलकर सारे
वनको जला देते हैं || १० ।।
नाब्राह्मणस्तात चिरं बुभूषे-
दिच्छन्निमं लोकममुं च जेतुम् ।
विनीतधर्मार्थमपेतमोहं
लब्ध्वा द्विज॑ नुदति नृप: सपत्नान् ।। ११ ।।
“तात! इहलोक और परलोकपर विजय पानेकी इच्छा रखनेवाला राजा किसी
ब्राह्मणको साथ लिये बिना अधिक कालतक न रहे। जिसे धर्म और अर्थकी शिक्षा मिली हो
तथा जिसका मोह दूर हो गया हो, ऐसे ब्राह्मगको पाकर राजा अपने शत्रुओंका नाश कर
देता है ।। ११ ।।
चरन् नै:श्रेयसं धर्म प्रजापालनकारितम् |
नाध्यगच्छद् बलिलेके तीर्थमन्यत्र वै द्विजात् । १२ ।।
“राजा बलिको प्रजापालनजनित कल्याणकारी धर्मका आचरण करनेके लिये
ब्राह्मणका आश्रय लेनेके सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं जान पड़ा था ।। १२ ।।
अनूनमासीदसुरस्य कामै-
वैंरोचने: श्रीरपि चाक्षया5डसीत् ।
लब्ध्वा महीं ब्राह्मणसम्प्रयोगात्
तेष्वाचरन् दुष्टमथो व्यनश्यत् ।। १३ ।।
“ब्राह्मणके सहयोगसे पृथ्वीका राज्य पाकर विरोचन-पुत्र बलि नामक असुरका जीवन
सम्पूर्ण आवश्यक कामोपभोगकी सामग्रीसे सम्पन्न हो गया और अक्षय राज्यलक्ष्मी भी
प्राप्त हो गयी। परंतु वह उन ब्राह्मणोंके साथ दुर्व्यवहार करनेपर नष्ट हो गया--उसका
राज्यलक्ष्मीसे वियोग हो गया- ।। १३ ।।
नाब्राह्म॒णं भूमिरियं सभूति-
वर्ण द्वितीयं भजते चिराय ।
समुद्रनेमिर्नमते तु तस्मै
य॑ ब्राह्मण: शास्ति नयैविनीतम् ।। १४ ।।
“जिसे ब्राह्मणका सहयोग नहीं प्राप्त है, ऐसे क्षत्रियके पास यह ऐश्वर्यपूर्ण भूमि दीर्घ
कालतक नहीं रहती। जिस नीतिज्ञ राजाको श्रेष्ठ ब्राह्मणका उपदेश प्राप्त है, उसके सामने
समुद्रपर्यन्त पृथिवी नतमस्तक होती है ।। १४ ।।
कुणञ्जरस्येव संग्रामे परिगृह्माड्कुशग्रहम् ।
ब्राह्मणैरविप्रहीणस्य क्षत्रस्य क्षीयते बलम् ।। १५ ।।
जैसे संग्राममें हाथीसे महावतको अलग कर देनेपर उसकी सारी शक्ति व्यर्थ हो जाती
है, उसी प्रकार ब्राह्मणरहित क्षत्रियका सारा बल क्षीण हो जाता है ॥। १५ ||
ब्राह्मण्यनुपमा दृष्टि: क्षात्रमप्रतिमं बलम् |
तौ यदा चरत: सार्थ तदा लोक: प्रसीदति ।। १६ ।।
'ब्राह्मणोंके पास अनुपम दृष्टि (विचारशक्ति) होती है और क्षत्रियके पास अनुपम बल
होता है। ये दोनों जब साथ-साथ कार्य करते हैं, तब सारा जगत् सुखी होता है ।। १६ ।।
यथा हि सुमहानग्नि: कक्षं दहति सानिल: ।
तथा दहति राजन्यो ब्राह्मणेन समं रिपुम् । १७ ।।
'जैसे प्रचण्ड अग्नि वायुका सहारा पाकर सूखे जंगलको जला डालती है, उसी प्रकार
ब्राह्मणकी सहायतासे राजा अपने शत्रुको भस्म कर देता है || १७ ।।
ब्राह्मणेष्वेव मेधावी बुद्धिपर्येषणं चरेत्
अलब्धस्थ च लाभाय लब्धस्थ परिवृद्धये ।। १८ ।।
“बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्तकी वृद्धिके लिये
ब्राह्मणोंसे बुद्धि ग्रहण करे ।। १८ ।।
अलब्धलाभाय च लब्धवृद्धये
यथाह्तीर्थप्रतिपादनाय ।
यशस्विनं वेदविदं विपक्षितं
बहुश्रुतं ब्राह्मणमेव वासय ।। १९ ।।
“राजन! अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्तकी वृद्धिके लिये यथायोग्य उपाय बतानेके
निमित्त तुम अपने यहाँ यशस्वी, बहुश्रुत एवं वेदज्ञ विद्वान् ब्राह्मणफो बसाओ ।। १९ |।
ब्राह्मणेषूत्तमा वृत्तिस्तव नित्यं युधिष्ठिर ।
तेन ते सर्वलोकेषु दीप्यते प्रथितं यश: ।। २० ।।
'युधिष्ठिर! ब्राह्मणोंके प्रति तुम्हारे हृदयमें सदा उत्तम भाव है, इसीलिये सब लोकोंमें
तुम्हारा यश विख्यात एवं प्रकाशित है” || २० ।।
वैशम्पायन उवाच
ततस्ते ब्राह्मणा: सर्वे बक॑ दाल्भ्यमपूजयन् ।
युधिष्टिरे स्तूयमाने भूय: सुमनसो5भवन् ॥। २१ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर युधिष्ठिरकी बड़ाई करनेपर उन सब
ब्राह्मगोंने बकका आदर-सत्कार किया और उन सब ब्राह्मणोंका चित्त प्रसन्न हो
गया ।। २१ ||
द्वैधायनो नारदश्न जामदग्न्य: पृथुश्रवा: ।
इन्द्रद्युम्नो भालुकिश्न॒ कृतचेता: सहस्रपात् ।। २२ ।।
कर्णश्रवाश्न मुज्जश्न लवणाश्वश्न॒ काश्यप: ।
हारीतः स्थूणकर्णश्र अग्निवेश्योडथ शौनक: ।। २३ ।।
कृतवाक् च सुवाक् चैव बृहदश्वो विभावसु: ।
ऊर्ध्व रेता वृषामित्र: सुहोत्रो होत्रवाहन: ।। २४ ।।
एते चान्ये च बहवो ब्राह्मणा: संशितव्रता: ।
अजातशभत्रुमानर्चु: पुरंदरमिवर्षय: || २५ ।।
द्वैपायन व्यास, नारद, परशुराम, पृथुश्रवा, इन्द्रद्ममम, भालुकि, कृतचेता, सहस्रपात्,
कर्णश्रवा, मुंज, लवणाश्व, काश्यप, हारीत, स्थूणकर्ण, अग्निवेश्य, शौनक, कृतवाक्,
सुवाक्, बृहदश्वच, विभावसु, ऊध्वरेता, वृषामित्र, सुहोत्र तथा होत्रवाहन--ये सब ब्रह्मर्षि तथा
राजर्षिगण और दूसरे कठोर व्रतका पालन करनेवाले बहुत-से ब्राह्मण अजातशत्रु
युधिष्ठिरका उसी प्रकार आदर करते थे, जैसे महर्षि लोग देवराज इन्द्रका | २२--२५ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि द्वैतवनप्रवेशे षड्विंशो 5ध्याय: ।।
२६ ||
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वमें अजुनाभिगमनपर्वमें द्वैतवनप्रवेशविषयक छब्बीसवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥। २६ ॥
2.3 आए (0) है
- बलिके द्वारा ब्राह्मणोंके साथ दुर्व्यवहार करनेपर उसका राज्यलक्ष्मीसे वियोग होनेका प्रसंग शान्तिपर्वके २२५ वें
अध्यायमें आता है।
सप्तविशो<्ध्याय:
द्रौपदीका युधिष्ठिरसे उनके शत्रुविषयक क्रोधको उभाड़नेके
लिये संतापपूर्ण वचन
वैशम्पायन उवाच
ततो वनगताः पार्था: सायाह्वले सह कृष्णया ।
उपविष्टा: कथाश्षक्रुर्द:खशोकपरायणा: ।। १ ||
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर वनमें गये हुए पाण्डव एक दिन
सायंकालमें द्रौपदीके साथ बैठकर दुःख और शोकमें मग्न हो कुछ बातचीत करने
लगे ।। १ ।।
प्रिया च दर्शनीया च पण्डिता च पतिव्रता ।
अथ कृष्णा धर्मराजमिदं वचनमत्रवीत् ।। २ ।।
पतिव्रता द्रौपदी पाण्डवोंकी प्रिया, दर्शनीया और विदुषी थी। उसने धर्मराजसे इस
प्रकार कहा ।। २ ।।
द्रौपहुुवाच
न नूनं तस्य पापस्य दुःखमस्मासु किंचन ।
विद्यते धार्तराष्ट्रस्य नृशंसस्य दुरात्मन: ।। ३ ।।
द्रौपदी बोली--राजन्! मैं समझती हूँ, उस क्रूर स्वभाववाले दुरात्मा धृतराष्ट्रपुत्र पापी
दुर्योधनके मनमें हमलोगोंके लिये तनिक भी दुःख नहीं हुआ होगा ।। ३ ।।
यस्त्वां राजन् मया सार्धमजिनै: प्रतिवासितम् ।
वन॑ प्रस्थाप्य दुष्टात्मा नान्वतप्यत दुर्मति: ।। ४ ।।
महाराज! उस नीच बुद्धिवाले दुष्टात्माने आपको भी मृगछाला पहनाकर मेरे साथ
वनमें भेज दिया; किंतु इसके लिये उसे थोड़ा भी पश्चात्ताप नहीं हुआ ।। ४ ।।
आयसं हृदयं नूनं तस्य दुष्कृतकर्मण: ।
यस्त्वां धर्मपरं श्रेष्ठ रूक्षाण्यश्राववत् तदा ।। ५ ।।
अवश्य ही उस कुकर्मीका हृदय लोहेका बना है, क्योंकि उसने आप-जैसे धर्मपरायण
श्रेष्ठ पुछुषको भी उस समय कटु वचन सुनाये थे ।। ५ ।।
सुखोचितमदु:खार्ह दुरात्मा ससुहृदूगण: ।
ईदृशं दुःखमानीय मोदते पापपूरुष: ।। ६ ।।
आप सुख भोगनेके योग्य हैं। दुःखके योग्य कदापि नहीं हैं, तो भी आपको ऐसे दुःखमें
डालकर वह पापाचारी दुरात्मा अपने मित्रोंक साथ आनन्दित हो रहा है || ६ ।।
चतुर्णामेव पापानामस्त्र न पतितं तदा ।
त्वयि भारत निष्क्रान्ते वनायाजिनवाससि ।। ७ ।।
भारत! जब आप वल्कल-वस्त्र धारण करके वनमें जानेके लिये निकले, उस समय
केवल चार ही पापात्माओंके नेत्रोंसे आँसू नहीं गिरा था ।। ७ ।।
दुर्योधनस्य कर्णस्य शकुनेश्न दुरात्मन: ।
दुर्भातुस्तस्य चोग्रस्य राजन् दःशासनस्य च ।॥। ८ ।।
दुर्योधन, कर्ण, दुरात्मा शकुनि तथा उग्र स्वभाव-वाले दुष्ट भ्राता दुःशासन--इन्हींकी
आँखोंमें आँसू नहीं थे ।। ८ ।।
इतरेषां तु सर्वेषां कुरूणां कुरुसत्तम ।
दुःखेनाभिपरीतानां नेत्रेभ्य: प्रापतज्जलम् ।। ९ ।।
कुरुश्रेष्ठ! अन्य सभी कुरुवंशी दु:खमें डूबे हुए थे और उनके नेत्रोंसे अश्रुवर्षा हो रही
थी।।९॥।।
इदं च शयनं दृष्टवा यच्चासीत् ते पुरातनम् ।
शोचामि त्वां महाराज दु:ःखानह सुखोचितम् ।। १० ।।
महाराज! आज आपकी यह शबय्या देखकर मुझे पहलेकी राजोचित शय्याका स्मरण
हो आता है और मैं आपके लिये शोकमें मग्न हो जाती हूँ; क्योंकि आप दुःखके अयोग्य
और सुखके ही योग्य हैं ।। १० ।।
दान्तं यच्च सभामध्य आसन रत्नभूषितम् |
दृष्टवा कुशवृषीं चेमां शोको मां प्रदहत्ययम् ।। ११ ।।
सभाभवनमें जो रत्नजटित हाथीदाँतका सिंहासन है, उसका स्मरण करके जब मैं इस
कुशकी चटाईको देखती हूँ, तब शोक मुझे दग्ध किये देता है ।। ११ ।।
यदपश्यं सभायां त्वां राजभि: परिवारितम् |
तच्च राजन्नपश्यन्त्या: का शान्तिह॑ंदयस्य मे ।। १२ ।।
राजन! मैं इन्द्रप्रस्थकी सभामें आपको राजाओंसे घिरा हुआ देख चुकी हूँ, अत: आज
वैसी अवस्थामें आपको न देखकर मेरे हृदयको क्या शान्ति मिल सकती है? ।। १२ |।
या त्वाहं चन्दनादिग्धमपश्य॑ सूर्यवर्चसम् ।
सा त्वां पड़कमलादिग्धं दृष्टवा मुह्दामि भारत ।। १३ ।।
भारत! जो पहले आपको चन्दनचर्चित एवं सूर्यके समान तेजस्वी देखती रही हूँ, वही
मैं आपको कीचड़ एवं मैलसे मलिन देखकर मोहके कारण दु:खित हो रही हूँ ।। १३ ।।
या त्वाहं कौशिकैरव॑स्त्रै: शुभ्रैराच्छादितं पुरा ।
दृष्टवत्यस्मि राजेन्द्र सा त्वां पश्यामि चीरिणम् ।। १४ ।।
राजेन्द्र! जो मैं पहले आपको उज्ज्वल रेशमी वस्त्रोंसे आच्छादित देख चुकी हूँ, वही
आज वल्कल-वस्त्र पहने देखती हूँ ।। १४ ।।
यच्च तद्रुक्मपात्रीभि्राह्मणेभ्य: सहस्रश: ।
हियते ते गृहादन्नं संस्कृतं सार्वकामिकम् ।। १५ ।।
एक दिन वह था कि आपके घरसे सहसों ब्राह्मणोंके लिये सोनेकी थालियोंमें सब
प्रकारकी रुचिके अनुकूल तैयार किया हुआ सुन्दर भोजन परोसा जाता था ।। १५ |।
यतीनामगृहाणां ते तथैव गृहमेधिनाम् ।
दीयते भोजन राजन्नतीवगुणवत् प्रभो ।। १६ ।।
शक्तिशाली महाराज! उन दिनों प्रतिदिन यतियों, ब्रह्मचारियों और गृहस्थ ब्राह्मणोंको
भी अत्यन्त गुणकारी भोजन अर्पित किया जाता था ।। १६ ।।
सत्कृतानि सहस्राणि सर्वकामै: पुरा गृहे ।
सर्वकामै: सुविहितैर्यदपूजय था द्विजान् ।। १७ ।।
पहले आपके राजभवनमें सहस्रों (सुवर्णमय) पात्र थे, जो सम्पूर्ण इच्छानुकूल भोज्य
पदार्थोंसे भरे-पूरे रहते थे और उनके द्वारा आप समस्त अभीष्ट मनोरथोंकी पूर्ति करते हुए
प्रतिदिन ब्राह्मणोंका सत्कार करते थे ।। १७ |।
तच्च राजन्नपश्यन्त्या: का शान्तिहंदयस्य मे |
यत् ते भ्रातृन् महाराज युवानो मृष्टकुण्डला: ।। १८ ।।
अभोजयमन्त मिष्ट न्नेः सूदा: परमसंस्कृतै: ।
सर्वास्तानद्य पश्यामि वने वन्येन जीविन: ।। १९ ।।
राजन्! आज वह सब न देखनेके कारण मेरे हृदयको क्या शान्ति मिलेगी? महाराज!
आपके जिन भाइयोंको कानोंमें सुन्दर कुण्डल पहने हुए तरुण रसोइये अच्छे प्रकारसे
बनाये हुए स्वादिष्ट अन्न परोसकर भोजन कराया करते थे, उन सबको आज वनमें जंगली
फल-मूलसे जीवन-निर्वाह करते देख रही हूँ || १८-१९ ।।
अदुःखाहनि् मनुष्येन्द्र नोपशाम्यति मे मन: ।
भीमसेनमिमं चापि दु:खितं वनवासिनम् ।। २० ।।
ध्यायत: कि न मन्युस्ते प्राप्ते काले विवर्धते ।
भीमसेनं हि कर्माणि स्वयं कुर्वाणमच्युतम् ।। २१ ।।
सुखाई दु:खितं दृष्टवा कस्मान्मन्युर्न वर्धते ।
नरेन्द्र! आपके भाई दुःख भोगनेके योग्य नहीं हैं; आज इन्हें दुःखमें देखकर मेरा चित्त
किसी प्रकार शान्त नहीं हो पाता है। महाराज! वनमें रहकर दुःख भोगते हुए इन अपने भाई
भीमसेनका स्मरण करके समय आनेपर क्या शत्रुओंके प्रति आपका क्रोध नहीं बढ़ेगा? मैं
पूछती हूँ--युद्धसे कभी पीछे न हटनेवाले और सुख भोगनेके योग्य भीमसेनको स्वयं अपने
हाथोंसे सब काम करते और दुःख उठाते देखकर शत्रुओंपर आपका क्रोध क्यों नहीं भड़क
उठता? || २०-२१ ३ ||
सत्कृतं विविधैयनिर्वस्त्रैरुच्चावचैस्तथा ।। २२ ।।
तं॑ ते वनगतं दृष्टवा कस्मान्मन्युर्न वर्धते ।
विविध सवारियाँ और नाना प्रकारके वस्त्रोंस जिनका सत्कार होता था, उन्हीं
भीमसेनको वनमें कष्ट उठाते देख शत्रुओंके प्रति आपका क्रोध प्रज्वलित क्यों नहीं
होता? || २२३ ।।
अयं कुरून् रणे सर्वान् हन्तुमुत्सहते प्रभु: ।। २३ ।।
त्वप्प्रतिज्ञां प्रतीक्ष॑स्तु सहतेडयं वृकोदर: ।
ये शक्तिशाली भीमसेन युद्धमें समस्त कौरवोंको नष्ट कर देनेका उत्साह रखते हैं, परंतु
आपकी प्रतिज्ञा-पूर्तिकी प्रतीक्षा करमेके कारण अबतक शत्रुओंके अपराधको सहन करते
हैं ।। २३६ ||
योअरर्जुनेनार्जुनस्तुल्यो द्विबाहुर्बहुबाहुना || २४ ।।
शरावमर्दे शीघ्रत्वात् कालान्तकयमोपम: ।
यस्य शस्त्रप्रतापेन प्रणता: सर्वपार्थिवा: ॥। २५ ।।
यज्ञे तव महाराज ब्राह्मणानुपतस्थिरे ।
तमिमं पुरुषव्याप्र॑ पूजितं देवदानवै: ।। २६ ।।
ध्यायन्तमर्जुनं दृष्टवा कस्माद् राजन् न कुप्यसि ।
राजन्! आपके जो भाई अर्जुन दो ही भुजाओंसे युक्त होनेपर भी सहस्र भुजाओंसे
विभूषित कार्तवीर्य अर्जुनके समान पराक्रमी हैं, बाण चलानेमें अत्यन्त फुर्ती रखनेके कारण
जो शत्रुओंके लिये काल, अन्तक और यमके समान भयंकर हैं; महाराज! जिनके शस्त्रोंके
प्रतापसे समस्त भूपाल नतमस्तक हो आपके यज्ञमें ब्राह्मणोंकी सेवाके लिये उपस्थित हुए
थे, उन्हीं इन देव-दानवपूजित पुरुषसिंह अर्जुनको चिन्तामग्न देखकर आप शत्रुओंपर क्रोध
क्यों नहीं करते? || २४--२६ $ ।।
दृष्टवा वनगतं पार्थमदु:ःखाह सुखोचितम् ।। २७ ।।
न च ते वर्धते मन्युस्तेन मुह्यमि भारत ।
भारत! दुःखके अयोग्य और सुख भोगनेके योग्य अर्जुनको वनमें दुःख भोगते देखकर
भी जो शत्रुओंके प्रति आपका क्रोध नहीं उमड़ता, इससे मैं मोहित हो रही हूँ || २७३६ ।।
यो देवांश्व मनुष्यांश्व॒ सर्पाश्नैकरथो&5जयत् ।। २८ ।।
तं॑ ते वनगतं दृष्टवा कस्मान्मन्युर्न वर्धते ।
जिन्होंने एकमात्र रथकी सहायतासे देवताओं, मनुष्यों और नागोंपर विजय पायी है,
उन्हीं अर्जुनको वनवासका दुःख भोगते देख आपका क्रोध क्यों नहीं बढ़ता? ।। २८३ ।।
यो यानैरद्धुताकारैर्हयैनगिश्व संवृतः ।। २९ ।।
प्रसहय वित्तान्यादत्त पार्थिवेभ्य: परंतप ।
क्षिपत्येकेन वेगेन पजडचबाणशतानि यः: ।। ३० ।।
तं॑ ते वनगतं दृष्टवा कस्मान्मन्युर्न वर्धते ।
परंतप! जिन्होंने पराजित नरेशोंके दिये हुए अद्भुत आकारवाले रथों, घोड़ों और
हाथियोंसे घिरे हुए कितने ही राजाओंसे बलपूर्वक धन लिये थे, जो एक ही वेगसे पाँच सौ
बाणोंका प्रहार करते हैं, उन्हीं अर्जुनको वनवासका कष्ट भोगते देख शत्रुओंपर आपका
क्रोध क्यों नहीं बढ़ता? || २९-३० $ ।।
श्यामं बृहन्तं तरुणं चर्मिणामुत्तमं रणे || ३१ ।।
नकुलं ते वने दृष्टवा कस्मान्मन्युर्न वर्थते ।
जो युद्धमें ढाल और तलवारसे लड़नेवाले वीरोंमें सर्वश्रेष्ठ है, जिनकी कद ऊँची है तथा
जो श्यामवर्णके तरुण हैं, उन्हीं नकुलको आज वनमें कष्ट उठाते देखकर आपको क्रोध क्यों
नहीं होता? ।। ३१६ ।।
दर्शनीयं च शूरं च माद्रीपुत्रं युधिष्ठिर ।। ३२ ।।
सहदेवं वने दृष्टवा कस्मात् क्षमसि पार्थिव ।
महाराज युधिष्ठिर! माद्रीके परम सुन्दर पुत्र शूरवीर सहदेवको वनवासका दुःख भोगते
देखकर आप शत्रुओंको क्षमा कैसे कर रहे हैं? || ३२३ ।।
नकुल॑ सहदेवं च दृष्टवा ते दु:खितावुभौ ।। ३३ ।।
अदुःखाहँ मनुष्येन्द्र कस्मान्मन्युर्न वर्थते ।
नरेन्द्र! नकुल और सहदेव दुःख भोगनेके योग्य नहीं हैं। इन दोनोंको आज दु:खी
देखकर आपका क्रोध क्यों नहीं बढ़ रहा है? ।। ३३३ ।।
द्रुपदस्य कुले जातां स्नुषां पाण्डोर्महात्मन: ।। ३४ ।।
धृष्टद्युम्नस्य भगिनीं वीरपत्नीमनुव्रताम्
मां वै वनगतां दृष्टवा कस्मात् क्षमसि पार्थिव ।। ३५ ।।
मैं द्रपदके कुलमें उत्पन्न हुई महात्मा पाण्डुकी पुत्रवधू, वीर धृष्टद्युम्नकी बहिन तथा
वीरशिरोमणि पाण्डवोंकी पतिव्रता पत्नी हूँ। महाराज! मुझे इस प्रकार वनमें कष्ट उठाती
देखकर भी आप शशत्रुओंके प्रति क्षमाभाव कैसे धारण करते हैं? ।। ३४-३५ ।।
नूनं च तव वै नास्ति मन्युर्भरतसत्तम ।
यत् ते हल श्च मां चैव दृष्टवा न व्यथते मन: ।। ३६ ।।
भरतश्रेष्ठ! निश्चय ही आपके हृदयमें क्रोध नहीं है, क्योंकि मुझे और अपने भाइयोंको
भी कष्टमें पड़ा देख आपके मनमें व्यथा नहीं होती है! || ३६ ।।
न निर्मन्यु:क्षत्रियो$स्ति लोके निर्वचनं स्मृतम् ।
तदद्य त्वयि पश्यामि क्षत्रिये विपरीतवत् ।। ३७ ।।
संसारमें कोई भी क्षत्रिय क्रोधरहित नहीं होता, क्षत्रिय शब्दकी व्युत्पत्ति ही ऐसी है,
जिससे उसका सक्रोध होना सूचित होता है।- परंतु आज आप-चजैसे क्षत्रियमें मुझे यह
क्रोधका अभाव क्षत्रियत्वके विपरीत-सा दिखायी देता है || ३७ ।।
यो न दर्शयते तेज: क्षत्रियः काल आगते ।
सर्वभूतानि तं पार्थ सदा परिभवन्त्युत ।। ३८ ।।
कुन्तीनन्दन! जो क्षत्रिय समय आनेपर अपने प्रभावको नहीं दिखाता, उसका सब
प्राणी सदा तिरस्कार करते हैं ।। ३८ ।।
तत् त्वया न क्षमा कार्या शत्रून् प्रति कथंचन ।
तेजसैव हि ते शक््या निहन्तुं नात्र संशय: ।। ३९ ।।
महाराज! आपको शशत्रुओंके प्रति किसी प्रकार भी क्षमाभाव नहीं धारण करना
चाहिये। तेजसे ही उन सबका वध किया जा सकता है, इसमें तनिक भी संशय नहीं
है ।। ३९ ||
तथैव य: क्षमाकाले क्षत्रियो नोपशाम्यति ।
अप्रिय: सर्वभूतानां सोअमुत्रेह च नश्यति ।। ४० ।।
इसी प्रकार जो क्षत्रिय क्षमा करनेके योग्य समय आनेपर शान्त नहीं होता, वह सब
प्राणियोंके लिये अप्रिय हो जाता है और इहलोक तथा परलोकमें भी उसका विनाश ही
होता है ।। ४० ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि द्रौपदीपरितापवाक्ये
सप्तविंशोडध्याय: ।। २७ ।।
इस प्रकार श्रीमह्माभारत वनपर्वके अन्तर्गत अर्जुनाथिगमनपर्वमें द्रौपदीके
अनुतापपूर्णगचनविषयक सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ २७ ॥
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- क्षरते इति क्षत्रमू--जो दुष्टोंका क्षरण--नाश करता है, वह क्षत्रिय है।
अष्टाविशोश् ध्याय:
द्रौपदीद्वारा प्रह्लाद-बलि-संवादका वर्णन--तेज और
क्षमाके अवसर
द्रौपहुुवाच
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
प्रह्लादस्य च संवाद बलेवैंरोचनस्य च ।। १ ||
द्रौपदी कहती है--महाराज! इस विषयमें प्रह्नमाद तथा विरोचनपुत्र बलिके संवादरूप
इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। १ ।।
असुरेन्द्रं महाप्राज्ञं धर्माणामागतागमम् |
बलि: पप्रच्छ दैत्येन्द्रं प्रह्मादं पितरं पितु: ॥। २ ।।
असुरोंके स्वामी परम बुद्धिमान दैत्यराज प्रह्नाद सभी धर्मोके रहस्यको जाननेवाले थे।
एक समय बलिने उन अपने पितामह प्रह्नादजीसे पूछा ।। २ ।।
बलिरुवाच
क्षमा स्विच्छेयसी तात उताहो तेज इत्युत ।
एतन्मे संशयं तात यथावद् ब्रूहि पृच्छते ।। ३ ।।
बलिने पूछा--तात! क्षमा और तेजमेंसे क्षमा श्रेष्ठ है अथवा तेज? यह मेरा संशय है।
मैं इसका समाधान पूछता हूँ। आप इस प्रश्नका यथार्थ निर्णय कीजिये ।। ३ ।।
श्रेयो यदत्र धर्मज्ञ ब्रूहि मे तदसंशयम् ।
करिष्यामि हि तत् सर्व यथावदनुशासनम् ।। ४ ।।
धर्मज्ञ! इनमें जो श्रेष्ठ है, वह मुझे अवश्य बताइये, मैं आपके सब आदेशोंका यथावत्
पालन करूँगा ।। ४ ।।
तस्मै प्रोवाच तत् सर्वमेवं पृष्ट: पितामह: ।
सर्वनिश्चयवित् प्राज्ञ: संशयं परिपृच्छते ।। ५ ।।
बलिके इस प्रकार पूछनेपर समस्त सिद्धान्तोंके ज्ञाता विद्वान् पितामह प्रह्नादने संदेह
निवारण करनेके लिये पूछनेवाले पौत्रके प्रति इस प्रकार कहा ।। ५ ।।
प्रह्माद उवाच
न श्रेय: सततं तेजो न नित्य॑ं श्रेयसी क्षमा |
इति तात विजानीहि द्वयमेतदसंशयम् ।। ६ ।।
प्रह्नाद बोले--तात! न तो तेज ही सदा श्रेष्ठ है और न क्षमा ही। इन दोनोंके विषयमें
मेरा ऐसा ही निश्चय जानो, इसमें संशय नहीं है ।। ६ ।।
यो नित्यं क्षमते तात बहून् दोषान् स विन्दति |
भृत्या: परिभवन्त्येममुदासीनास्तथारय: ।। ७ ।।
सर्वभूतानि चाप्यस्य न नमन्ति कदाचन ।
तस्मान्नित्यं क्षमा तात पण्डितैरपि वर्जिता ।। ८ ।।
वत्स! जो सदा क्षमा ही करता है, उसे अनेक दोष प्राप्त होते हैं। उसके भृत्य, शत्रु तथा
उदासीन व्यक्ति सभी उसका तिरस्कार करते हैं। कोई भी प्राणी कभी उसके सामने
विनयपूर्ण बर्ताव नहीं करते, अतः तात! सदा क्षमा करना दिद्वानोंके लिये भी वर्जित
है || ७-८ ।।
अवज्ञाय हि त॑ भृत्या भजन्ते बहुदोषताम् |
आदातु चास्य वित्तानि प्रार्थयन्तेडल्पचेतस: ।। ९ |।
सेवकगण उसकी अवहेलना करके बहुत-से अपराध करते रहते हैं। इतना ही नहीं, वे
मूर्ख भूत्यगण उसके धनको भी हड़प लेनेका हौसला रखते हैं ।। ९ ।।
यान॑ वस्त्राण्यलंकाराज्छयनान्यासनानि च ।
भोजनान्यथ पानानि सर्वोपकरणानि च ।। १० ||
आददीरन्नधिकृता यथाकाममचेतस: ।
प्रदिष्टानि च देयानि न दद्युर्भवृशासनात् ।। ११ ।।
विभिन्न कार्योंमें नियुक्त किये हुए मूर्ख सेवक अपने इच्छानुसार क्षमाशील स्वामीके
रथ, वस्त्र, अलंकार, शय्या, आसन, भोजन, पान तथा समस्त सामग्रियोंका उपयोग करते
रहते हैं तथा स्वामीकी आज्ञा होनेपर भी किसीको देनेयोग्य वस्तुएँ नहीं देते
हैं । १०-११ ।।
न चैनं भर्त॒पूजाभि: पूजयन्ति कथंचन ।
अवज्ञानं हि लोकेडस्मिन् मरणादपि गर्हितम् ।। १२ ।।
स्वामीका जितना आदर होना चाहिये, उतना आदर वे किसी प्रकार भी नहीं करते। इस
संसारमें सेवकोंद्वारा अपमान तो मृत्युसे भी अधिक निन्दित है ।। १२ ।।
क्षमिणं तादृशं तात ब्रुवन्ति कटुकान्यपि ।
प्रेष्या: पुत्राश्न भृत्याश्ष तथोदासीनवृत्तय: ।। १३ ।।
तात! उपर्युक्त क्षमाशीलको अपने सेवक, पुत्र, भृत्य तथा उदासीनवृत्तिके लोग
कटुवचन भी सुनाया करते हैं ।। १३ ।।
अथास्य दारानिच्छन्ति परिभूय क्षमावत: ।
दाराक्षास्य प्रवर्तन्ते यथाकाममचेतस: ।। १४ ।।
इतना ही नहीं, वे क्षमाशील स्वामीकी अवहेलना करके उसकी स्त्रियोंको भी हस्तगत
करना चाहते हैं और वैसे पुरुषकी मूर्ख स्त्रियाँ भी स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त हो जाती हैं | १४ ।।
तथा च नित्यमुदिता यदि नाल्पमपीश्वरात् |
दण्डमर्हन्ति दुष्यन्ति दुष्टाश्चाप्पपकुर्वते || १५ ।।
यदि उन्हें अपने स्वामीसे तनिक भी दण्ड नहीं मिलता तो वे सदा मौज उड़ाती हैं और
आचारसे दूषित हो जाती हैं। दुष्टा होनेपर वे अपने स्वामीका अपकार भी कर बैठती
हैं ।। १५ ।।
एते चान्ये च बहवो नित्यं दोषा: क्षमावताम् |
अथ वैरोचने दोषानिमान् विद्धाक्षमावताम् ।। १६ ।।
सदा क्षमा करनेवाले पुरुषोंको ये तथा और भी बहुत-से दोष प्राप्त होते हैं।
विरोचनकुमार! अब क्षमा न करनेवालोंके दोषोंको सुनो || १६ ।।
अस्थाने यदि वा स्थाने सततं रजसा5<5वृत: ।
क्रुद्धों दण्डान् प्रणयति विविधान् स्वेन तेजसा ।। १७ ।।
क्रोधी मनुष्य रजोगुणसे आवृत होकर योग्य या अयोग्य अवसरका विचार किये बिना
ही अपने उत्तेजित स्वभावसे लोगोंको नाना प्रकारके दण्ड देता रहता है ।। १७ ।।
मित्र: सह विरोध॑ च प्राप्तुते तेजसा55वृतः ।
आप्रोति द्वेष्पतां चैव लोकात् स्वजनतस्तथा ।। १८ ।।
तेज (उत्तेजना)-से व्याप्त मनुष्य मित्रोंसे विरोध पैदा कर लेता है तथा साधारण लोगों
और स्वजनोंका द्वेषपात्र बन जाता है ॥| १८ ।।
सो<5वमानादर्थहानिमुपालम्भमनादरम् ।
संतापद्वेषमोहांश्व शत्रृंक्ष लभते नर: ।। १९ ।।
वह मनुष्य दूसरोंका अपमान करनेके कारण सदा धनकी हानि उठाता है। उपालम्भ
सुनता और अनादर पाता है। इतना ही नहीं, वह संताप, द्वेष, मोह तथा नये-नये शत्रु पैदा
कर लेता है ।। १९ ।।
क्रोधाद् दण्डान्मनुष्येषु विविधान् पुरुषो5नयात् ।
भ्रश्यते शीघ्रमैश्वर्यात् प्राणेभ्य: स्वजनादपि || २० ।।
मनुष्य क्रोधवश अन्यायपूर्वक दूसरे लोगोंपर नाना प्रकारके दण्डका प्रयोग करके
अपने ऐश्वर्य, प्राण और स्वजनोंसे भी हाथ धो बैठता है ।। २० ।।
वा जम हर्तृश्ष तेजसैवोपगच्छति ।
लोक: सर्पाद् वेश्मगतादिव ।। २१ ।।
जो उपकारी मनुष्यों और चोरोंके साथ भी उत्तेजनायुक्त बर्ताव ही करता है, उससे सब
लोग उसी प्रकार उद्दिग्न होते हैं, जैसे घरमें रहनेवाले सर्पसे || २१ ।।
यस्मादुद्धिजते लोक: कथं तस्य भवो भवेत् |
अन्तरं तस्य दृष्टवैव लोको विकुरुते ध्रुवम् ।। २२ ।।
जिससे सब लोग उद्विग्न होते हैं, उसे ऐश्वर्यकी प्राप्ति कैसे हो सकती है? उसका
थोड़ा-सा भी छिद्र देखकर लोग निश्चय ही उसकी बुराई करने लगते हैं || २२ ।।
तस्मान्नात्युत्सूजेत् तेजो न च नित्यं मृदुर्भवेत्
काले काले तु सम्प्राप्ते मृदुस्तीक्ष्णोडपि वा भवेत् ।। २३ ।।
इसलिये न तो सदा उत्तेजनाका ही प्रयोग करे और न सर्वदा कोमल ही बना रहे।
समय-समयपर आवश्यकताके अनुसार कभी कोमल और कभी तेज स्वभाववाला बन
जाय ।। २३ ||
काले मृदुर्यो भवति काले भवति दारुण: ।
स वै सुखमवाप्रोति लोकेअ<मुष्मिन्निहैव च ।। २४ ।।
जो मौका देखकर कोमल होता है और उपयुक्त अवसर आनेपर भयंकर भी बन जाता
है, वही इहलोक और परलोकमें सुख पाता है ।। २४ ।।
क्षमाकालांस्तु वक्ष्यामि शूणु मे विस्तरेण तान्
ये ते नित्यमसंत्याज्या यथा प्राहुर्मनीषिण: ।। २५ ।।
अब मैं तुम्हें क्षमाके योग्य अवसर बताता हूँ, उन्हें विस्तारपूर्वक सुनो, जैसा कि मनीषी
पुरुष कहते हैं, उन अवसरोंका तुम्हें कभी त्याग नहीं करना चाहिये ।। २५ ।।
पूर्वोपकारी यस्ते स्थादपराधे गरीयसि ।
उपकारेण तत् तस्य क्षन्तव्यमपराधिन: ।। २६ ।।
जिसने पहले कभी तुम्हारा उपकार किया हो, उससे यदि कोई भारी अपराध हो जाय,
तो भी पहलेके उपकारका स्मरण करके उस अपराधीके अपराधको तुम्हें क्षमा कर देना
चाहिये ।। २६ ।।
अबुद्धिमश्रितानां तु क्षन्तव्यमपराधिनाम् |
न हि सर्वत्र पाण्डित्यं सुलभं पुरुषेण वै ।। २७ ।।
जिन्होंने अनजानमें अपराध कर डाला हो, उनका वह अपराध क्षमाके ही योग्य है;
क्योंकि किसी भी पुरुषके लिये सर्वत्र विद्वत्ता (बुद्धिमानी) ही सुलभ हो, यह सम्भव नहीं
है || २७ |।
अथ चेद् बुद्धिजं कृत्वा ब्रूयुस्ते तदबुद्धिजम् ।
पापान् स्वल्पे5पि तान् हन्यादपराधे तथानृजून् ।। २८ ।।
परंतु जो जान-बूझकर किये हुए अपराधको भी उसे कर लेनेके बाद अनजानमें किया
हुआ बताते हों, उन उद्दण्ड पापियोंको थोड़े-से अपराधके लिये भी अवश्य दण्ड देना
चाहिये ।। २८ ।।
सर्वस्यैको5परा धस्ते क्षन्तव्य: प्राणिनो भवेत् ।
द्वितीये सति वध्यस्तु स्वल्पेडप्यपकृते भवेत् ।। २९ ।।
सभी प्राणियोंका एक अपराध तो तुम्हें क्षमा ही कर देना चाहिये। यदि उससे फिर
दुबारा अपराध बन जाय तो थोड़े-से अपराधके लिये भी उसे दण्ड देना आवश्यक
है || २९ |।
अजानता भवेत् कश्चिदपराध: कृतो यदि ।
क्षन्तव्यमेव तस्याहु: सुपरीक्ष्य परीक्षया ॥। ३० ।।
अच्छी तरह जाँच-पड़ताल करनेपर यदि यह सिद्ध हो जाय कि अमुक अपराध
अनजानमें ही हो गया है, तो उसे क्षमाके ही योग्य बताया गया है || ३० ।।
मृदुना दारुणं हन्ति मृदुना हन्त्यदारुणम्
नासाध्यं मृदुना किंचित् तस्मात् तीव्रतरं मृदु | ३१ ।।
मनुष्य कोमलभाव (सामनीति)-के द्वारा उग्र स्वभाव तथा शान्त स्वभावके शत्रुका भी
नाश कर देता है; मृदुतासे कुछ भी असाध्य नहीं है। अतः मृदुतापूर्ण नीतिको तीव्रतर
(उत्तम) समझे ।। ३१ ।।
देशकालौ तु सम्प्रेक्य बलाबलमथात्मन: ।
नादेशकाले किंचित् स्याद् देशकालौ प्रतीक्षताम् ।
तथा लोक भयाच्चैव क्षन्तव्यमपराधिन: ।। ३२ ।।
देश, काल तथा अपने बलाबलका विचार करके ही मृदुता (सामनीति)-का प्रयोग
करना चाहिये। अयोग्य देश अथवा अनुपयुक्त कालमें उसके प्रयोगसे कुछ भी सिद्ध नहीं हो
सकता; अतः उपयुक्त देश, कालकी प्रतीक्षा करनी चाहिये। कहीं लोकके भयसे भी
अपराधीको क्षमादान देनेकी आवश्यकता होती है ।। ३२ ।।
एत एवंविधा: काला: क्षमाया: परिकीर्तिता: ।
अतोन््यथानुवर्तत्सु तेजस: काल उच्यते ।। ३३ ।।
इस प्रकार ये क्षमाके अवसर बताये गये हैं। इनके विपरीत बर्ताव करनेवालोंको राहपर
लानेके लिये तेज (उत्तेजनापूर्ण बर्ताव)-का अवसर कहा गया है ।। ३३ ।।
तदहं तेजस: काल॑ तव मन्ये नराधिप ।
धार्तराष्टेषु लुब्धेषु सततं चापकारिषु ।। ३४ ।।
(द्रौपदी कहती है--) नरेश्वर! धृतराष्ट्रके पुत्र लोभी तथा सदा आपका अपकार
करनेवाले हैं; अत: उनके प्रति आपके तेजके प्रयोगका यह अवसर आया है, ऐसा मेरा मत
है ।। ३४ ।।
न हि वक्चित् क्षमाकालो विद्यतेड्द्य कुरून् प्रति
तेजसश्चागते काले तेज उत्स्रष्टमहसि ।। ३५ ।।
कौरवोंके प्रति अब क्षमाका कोई अवसर नहीं है। अब तेज प्रकट करनेका अवसर
प्राप्त है; अत: उनपर आपको अपने तेजका ही प्रयोग करना चाहिये ।। ३५ ।।
मृदुर्भवत्यवज्ञातस्ती क्ष्णादुद्धिजते जन: ।
काले प्राप्ते द्वयं चैतद् यो वेद स महीपति: ।। ३६ ।।
कोमलतापूर्ण बर्ताव करनेवालेकी सब लोग अवहेलना करते हैं और तीक्ष्ण
स्वभाववाले पुरुषसे सबको उद्वेग प्राप्त होता है। जो उचित अवसर आनेपर इन दोनोंका
प्रयोग करना जानता है, वही सफल भूपाल है ।। ३६ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि द्रौपदीवाक्येडष्टाविंशो 5ध्याय: ।।
२८ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अजुनाभिगमनपर्वमें द्रौपदीवाक्यविषयक
अद्वाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। २८ ॥।
#:2:8 #:23:.7 () हि २ 7
एकोनत्रिशो< ध्याय:
युधिष्ठिरके द्वारा क्रोधकी निन्दा और क्षमाभावकी विशेष
प्रशंसा
युधिछिर उवाच
क्रोधो हन्ता मनुष्याणां क्रोधो भावयिता पुन: ।
इति विद्धि महाप्राज्ञे क्रोधमूली भवाभवौ ।। १ ।।
युधिछिर बोले--परम बुद्धिमती द्रौपदी! क्रोध ही मनुष्योंको मारनेवाला है और क्रोध
ही यदि जीत लिया जाय तो अभ्युदय करनेवाला है। तुम यह जान लो कि उन्नति और
अवनति दोनों क्रोधमूलक ही हैं (क्रोधको जीतनेसे उन्नति और उसके वशीभूत होनेसे
अवनति होती है) ।। १ ।।
यो हि संहरते क्रोधं भवस्तस्य सुशोभने ।
यः पुन: पुरुष: क्रोधं नित्यं न सहते शुभे ।
तस्याभावाय भवति क्रोध: परमदारुण: || २ ।।
सुशोभने! जो क्रोधको रोक लेता है, उसकी उन्नति होती है और जो मनुष्य क्रोधके
वेगको कभी सहन नहीं कर पाता, उसके लिये वह परम भयंकर क्रोध विनाशकारी बन
जाता है ॥| २ ।।
क्रोधमूलो विनाशो हि प्रजानामिह दृश्यते ।
तत् कथं मादृश: क्रोधमुत्सूजेल्लोकनाशनम् ।। ३ ।।
इस जगतमें क्रोधके कारण लोगोंका नाश होता दिखायी देता है; इसलिये मेरे-जैसा
मनुष्य लोकविनाशक क्रोधका उपयोग दूसरोंपर कैसे करेगा? ।। ३ ।।
क्रुद्ध: पापं नर: कुर्यात् क्रुद्धों हन्याद् गुरूनपि ।
क्रुद्ध: परुषया वाचा श्रेयसो5प्यवमन्यते ।। ४ ।।
क्रोधी मनुष्य पाप कर सकता है, क्रोधके वशीभूत मानव गुरुजनोंकी भी हत्या कर
सकता है और क्रोधमें भरा हुआ पुरुष अपनी कठोर वाणीद्वारा श्रेष्ठ मनुष्योंका भी अपमान
कर देता है || ४ ।।
वाच्यावाच्ये हि कुपितो न प्रजानाति कहिचित् ।
नाकार्यमस्ति क्रुद्धस्य नावाच्यं विद्यते तथा ।। ५ ।।
क्रोधी मनुष्य कभी यह नहीं समझ पाता कि क्या कहना चाहिये और क्या नहीं।
क्रोधीके लिये कुछ भी अकार्य अथवा अवाच्य नहीं है ।। ५ ।।
हिंस्यात् क्रोधादवध्यांस्तु वध्यान् सम्पूजयीत च ।
आत्मानमपि च क्रुद्धः प्रेषयेद् यमसादनम् ।। ६ ।।
क्रोधवश वह अवध्य पुरुषोंकी भी हत्या कर सकता है और वधके योग्य मनुष्योंकी भी
पूजामें तत्पर हो सकता है। इतना ही नहीं, क्रोधी मानव (आत्महत्याद्वारा) अपने-आपको
भी यमलोकका अतिथि बना सकता है ।। ६ ।।
एतान् दोषान् प्रपश्यद्धिर्जित: क्रोधो मनीषिभि: ।
इच्छद्धि: परमं श्रेय इह चामुत्र चोत्तमम् ।। ७ ।।
इन दोषोंको देखनेवाले मनस्वी पुरुषोंने, जो इहलोक और परलोकमें भी परम उत्तम
कल्याणकी इच्छा रखते हैं, क्रोधको जीत लिया है || ७ ।।
त॑ं क्रोध॑ वर्जितं धीरै: कथमस्मद्विधश्चरेत् ।
एतद् द्रौपदि संधाय न मे मन्यु: प्रवर्धते |। ८ ।।
अतः धीर पुरुषोंने जिसका परित्याग कर दिया है। उस क्रोधको मेरे-जैसा मनुष्य कैसे
उपयोगमें ला सकता है? ट्रपदकुमारी! यही सोचकर मेरा क्रोध कभी बढ़ता नहीं है ।। ८ ।।
आत्मानं च परांश्चैव त्रायते महतो भयात् |
क्रुध्यन्तमप्रतिक्रुध्यन् द्वयोरेष चिकित्सक: ।। ९ ।।
क्रोध करनेवाले पुरुषके प्रति जो बदलेमें क्रोध नहीं करता, वह अपनेको और दूसरोंको
भी महान् भयसे बचा लेता है। वह अपने और पराये दोनोंके दोषोंको दूर करनेके लिये
चिकित्सक बन जाता है ।। ९ |।
मूढो यदि क्लिश्यमान: क्रुध्यते5शक्तिमान् नर: ।
बलीयसां मनुष्याणां त्यजत्यात्मानमात्मना ।। १० ||
यदि मूढ़ एवं असमर्थ मनुष्य दूसरोंके द्वारा क्लेश दिये जानेपर स्वयं भी बलिष्ठ
मनुष्योंपर क्रोध करता है तो वह अपने ही द्वारा अपने-आपका विनाश कर देता
है ।। १० ।।
तस्यात्मानं संत्यजतो लोका नश्यन्त्यनात्मन: ।
तस्माद् द्रौपद्यशक्तस्य मन्योर्नियमनं स्मृतम् ।। ११ ।।
अपने चित्तको वशमें न रखनेके कारण क्रोधवश देहत्याग करनेवाले उस मनुष्यके
लोक और परलोक दोनों नष्ट हो जाते हैं। अतः द्रुपदकुमारी! असमर्थके लिये अपने
क्रोधको रोकना ही अच्छा माना गया है ॥| ११ ।।
विद्वांस्तथैव य:ः शक्तः क्लिश्यमानो न कुप्यति |
अनाशयित्वा कलेष्टारं परलोके च नन्दति ।। १२ ।।
इसी प्रकार जो विद्वान् पुरुष शक्तिशाली होकर भी दूसरोंद्वारा क्लेश दिये जानेपर स्वयं
क्रोध नहीं करता, वह क्लेश देनेवालेका नाश न करके परलोकमें भी आनन्दका भागी होता
है ।। १२ ।।
तस्माद् बलवता चैव दुर्बलेन च नित्यदा ।
क्षन्तव्यं पुरुषेणाहुरापत्स्वपि विजानता ।। १३ ।।
इसलिये बलवान् या निर्बल सभी विज्ञ मनुष्योंको सदा आपत्तिकालमें भी क्षमाभावका
ही आश्रय लेना चाहिये ।। १३ ।।
मन्योहिं विजयं कृष्णे प्रशंसन््तीह साधव: ।
क्षमावतो जयो नित्यं साधोरिह सतां मतम् ।। १४ ।।
कृष्णे! साधु पुरुष क्रोधको जीतनेकी ही प्रशंसा करते हैं। संतोंका यह मत है कि इस
जगत्में क्षमाशील साधु पुरुषकी सदा जय होती है ।। १४ ।।
सत्यं चानृततः श्रेयो नृशंस्याच्चानृशंसता ।
तमेवं बहुदोषं तु क्रोधं साधुविवर्जितम् ।। १५ ।।
मादृश: प्रसजेत् कस्मात् सुयोधनवधादपि ।
झूठसे सत्य श्रेष्ठ है। क्रूरतासे दयालुता श्रेष्ठ है, अतः दुर्योधन मेरा वध कर डाले तो भी
इस प्रकार अनेक दोषोंसे भरे हुए और सत्पुरुषोंद्वारा परित्यक्त क्रोधका मेरे-जैसा पुरुष
कैसे उपयोग कर सकता है? ।। १५३ ।।
तेजस्वीति यमाहुर्व पण्डिता दीर्घदर्शिन: ।। १६ ।।
न क्रोधो5भ्यन्तरस्तस्य भवतीति विनिश्चितम् ।
दूरदर्शी विद्वान जिसे तेजस्वी कहते हैं, उसके भीतर क्रोध नहीं होता; यह निश्चित बात
है ।। १६३ ||
यस्तु क्रोधं समुत्पन्नं प्रज्ञया प्रतिबाधते ।। १७ ।।
तेजस्विनं त॑ विद्वांसो मन्यन्ते तत्त्वदर्शिन: ।
जो उत्पन्न हुए क्रोधको अपनी बुद्धिसे दबा देता है, उसे तत्त्वदर्शी विद्वान् तेजस्वी
मानते हैं ।। १७३ ।।
क्रुद्धों हि कार्य सुश्रोेणि न यथावत् प्रपश्यति ।
नाकार्य न च मर्यादां नर: क्रुद्धोडनुपश्यति ।। १८ ।।
सुन्दरी! क्रोधी मनुष्य किसी कार्यको ठीक-ठीक नहीं समझ पाता। वह यह भी नहीं
जानता कि मर्यादा क्या है (अर्थात् क्या करना चाहिये) और क्या नहीं करना
चाहिये ।। १८ ।।
हन्त्यवध्यानपि क्ुद्धो गुरून् क्रुद्धस्तुदत्यपि ।
तस्मात् तेजसि कर्तव्य: क्रोधो दूरे प्रतिष्ठित: ।। १९ ।।
क्रोधी मनुष्य अवध्य पुरुषोंका वध कर देता है। क्रोधी मनुष्य गुरुजनोंको कटु
वचनोंद्वारा पीड़ा पहुँचाता है। इसलिये जिसमें तेज हो, उस पुरुषको चाहिये कि वह
क्रोधको अपनेसे दूर रखे ।। १९ ।।
दाक्ष्यं हमर्ष: शौर्य च शीघ्रत्वमिति तेजस: ।
गुणा! क्रोधाभिभूतेन न शक््या: प्राप्तुमजजसा ।। २० ।।
दक्षता, अमर्ष, शौर्य और शीघ्रता--ये तेजके गुण हैं। जो मनुष्य क्रोधसे दबा हुआ है,
वह इन गुणोंको सहजमें ही नहीं पा सकता || २० ।।
क्रोधं॑ त्यक्त्वा तु पुरुष: सम्यक् तेजो5भिपद्यते ।
कालयुक्तं महा प्राज्ञे क्रुद्धैेस््तेज: सुदुःसहम् ।। २१ ।।
क्रोधका त्याग करके मनुष्य भलीभाँति तेज प्राप्त कर लेता है। महाप्राज्ञे! क्रोधी
पुरुषोंके लिये समयके उपयुक्त तेज अत्यन्त दु:ःसह है | २१ ।।
क्रोधस्त्वपण्डितै: शश्वत् तेज इत्यभिनिश्चितम् ।
रजस्तु लोकनाशाय विहितं मानुषं प्रति ।। २२ ।।
मूर्खलोग क्रोधको ही सदा तेज मानते हैं। परन्तु रजोगुणजनित क्रोधका यदि मनुष्योंके
प्रति प्रयोग हो तो वह लोगोंके नाशका कारण होता है ।। २२ ।।
तस्माच्छश्वत् त्यजेत् क्रोधं पुरुष: सम्यगाचरन् |
श्रेयान् स्वधर्मानपगो न क्ुद्ध इति निश्चितम् ।। २३ ।।
अतः सदाचारी पुरुष सदा क्रोधका परित्याग करे। अपने वर्णधर्मके अनुसार न
चलनेवाला मनुष्य (अपेक्षाकृत) अच्छा, किंतु क्रोधी नहीं अच्छा--यह निश्चय है ।। २३ ।।
यदि सर्वमबुद्धीनामतिक्रान्तमचेतसाम् |
अतिक्रमो मद्विधस्य कथंस्वित् स्यादनिन्दिते ।। २४ ।।
साध्वी द्रौपदी! यदि मूर्ख और अविवेकी मनुष्य क्षमा आदि सद्गुणोंका उल्लंघन कर
जाते हैं तो मेरे-जैसा विज्ञ पुरुष उनका अतिक्रमण कैसे कर सकता है? ।। २४ ।।
यदि न स्युर्मानुषेषु क्षमिण: पृथिवीसमा: ।
न स्यात् संधिर्मनुष्याणां क्रोधमूलो हि विग्रह: ।। २५ ।।
यदि मनुष्योंमें पृथ्वीके समान क्षमाशील पुरुष न हों तो मानवोंमें कभी सन्धि हो ही
नहीं सकती; क्योंकि झगड़ेकी जड़ तो क्रोध ही है ।। २५ ।।
अभिषक्तो हाभिषजेदाहन्याद् गुरुणा हतः ।
एवं विनाशो भूतानामथधर्म: प्रथितो भवेत् | २६ ।।
यदि कोई अपनेको सतावे तो स्वयं भी उसको सतावे। औरोंकी तो बात ही कया है,
यदि गुरुजन अपनेको मारें तो उन्हें भी मारे बिना न छोड़े; ऐसी धारणा रखनेके कारण सब
प्राणियोंका ही विनाश हो जाता है और अधर्म बढ़ जाता है || २६ ।।
आद्ुष्ट: पुरुष: सर्व प्रत्याक्रोशेदनन्तरम् ।
प्रतिहन्याद्धतश्चलैव तथा हिंस्याच्च हिंसित: ।। २७ ।।
यदि सभी क्रोधके वशीभूत हो जायँ तो एक मनुष्य दूसरेके द्वारा गाली खाकर स्वयं भी
बदलेमें उसे गाली दे सकता है। मार खानेवाला मनुष्य बदलेमें मार सकता है। एकका
अनिष्ट होनेपर वह दूसरेका भी अनिष्ट कर सकता है || २७ ।।
हन्युहिं पितर: पुत्रान् पुत्राश्ापि तथा पितृन् |
हन्युश्व पतयो भार्या: पतीन् भार्यास्तथैव च ।। २८ ।।
पिता पुत्रोंको मारेंगें और पुत्र पिताको, पति पत्नियोंकों मारेंगे और पत्नियाँ
पतिको ।। २८ ।।
एवं संकुपिते लोके शम: कृष्णे न विद्यते ।
प्रजानां संधिमूलं हि शमं विद्धि शुभानने ॥। २९ ।।
कृष्णे! इस प्रकार सम्पूर्ण जगतके क्रोधका शिकार हो जानेपर तो कहीं शान्ति नहीं
रहती। शुभानने! तुम यह जान लो कि सम्पूर्ण प्रजाकी शान्ति सन्धिमूलक ही है ।। २९ ।।
ताः क्षिपेरन् प्रजा: सर्वाः क्षिप्रं द्रौपदि तादृशे ।
तस्मान्मन्युविनाशाय प्रजानामभवाय च ॥। ३० ||
द्रौपदी! यदि राजा तुम्हारे कथनानुसार क्रोधी हो जाय तो सारी प्रजाओंका शीघ्र ही
नाश हो जायगा। अत: यह समझ लो कि क्रोध प्रजावर्गके नाश और अवनतिका कारण
है || ३० ।।
यस्मात् तु लोके दृश्यन्ते क्षमिण: पृथिवीसमा: ।
तस्माज्जन्म च भूतानां भवश्च प्रतिपद्यते ।। ३१ ।।
इस जगतमें पृथ्वीके समान क्षमाशील पुरुष भी देखे जाते हैं, इसीलिये प्राणियोंकी
उत्पत्ति और वृद्धि होती रहती है ।। ३१ ।।
क्षन्तव्यं पुरुषेणेह सर्वापत्सु सुशो भने ।
क्षमावतो हि भूतानां जन्म चैव प्रकीर्तितम् ।। ३२ ।।
सुशोभने! पुरुषको सभी आपत्तियोंमें क्षमाभाव रखना चाहिये। क्षमाशील पुरुषसे ही
समस्त प्राणियोंका जीवन बताया गया है ।। ३२ ।।
आक्रुष्टस्ताडित: क्रुद्धः क्षमते यो बलीयसा ।
यश्व नित्यं जितक्रोधो विद्वानुत्तमपूरुष: || ३३ ।।
जो बलवान पुरुषके गाली देने या कुपित होकर मारनेपर भी क्षमा कर जाता है तथा
जो सदा अपने क्रोधको काबूमें रखता है, वही विद्वान् है और वही श्रेष्ठ पुरुष है ।। ३३ ।।
प्रभाववानपि नरस्तस्य लोका: सनातना: ।
क्रोधनस्त्वल्पविज्ञान: प्रेत्य चेह च नश्यति ।। ३४ ।।
वही मनुष्य प्रभावशाली कहा जाता है। उसीको सनातन लोक प्राप्त होते हैं। क्रोधी
मनुष्य अल्पज्ञ होता है। वह इस लोक और परलोक दोनोंमें विनाशका ही भागी होता
है ।। ३४ ।।
अत्राप्युदाहरन्तीमा गाथा नित्यं क्षमावताम् |
गीता: क्षमावता कृष्णे काश्यपेन महात्मना ।। ३५ ।।
इस विषयमें जानकार लोग क्षमावान् पुरुषोंकी गाथाका उदाहरण देते हैं। कृष्णे!
क्षमावान् महात्मा काश्यपने इस गाथाका गान किया है ।। ३५ |।
क्षमा धर्म: क्षमा यज्ञ: क्षमा वेदा: क्षमा: श्रुतम् ।
य एतदेवं जानाति स सर्व क्षन्तुमहति ।। ३६ ।।
क्षमा धर्म है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा वेद है और क्षमा शास्त्र है। जो इस प्रकार जानता है,
वह सब कुछ क्षमा करनेके योग्य हो जाता है ।। ३६ ।।
क्षमा ब्रह्म क्षमा सत्यं क्षमा भूतं च भावि च ।
क्षमा तप: क्षमा शौचं क्षमयेदं धृतं जगत् ।। ३७ ।।
क्षमा ब्रह्म है, क्षमा सत्य है, क्षमा भूत है, क्षमा भविष्य है, क्षमा तप है और क्षमा शौच
है। क्षमाने ही सम्पूर्ण जगत्को धारण कर रखा है ।। ३७ ।।
अति यज्ञविदां लोकान् क्षमिण: प्राप्तुवन्ति च ।
अति ब्रह्मविदां लोकानति चापि तपस्विनाम् ।। ३८ ।।
क्षमाशील मनुष्य यजवेत्ता, ब्रह्मवेत्ता और तपस्वी पुरुषोंसे भी ऊँचे लोक प्राप्त करते
हैं ।। ३८ ।।
अन्ये वै यजुषां लोका: कर्मिणामपरे तथा ।
क्षमावतां ब्रह्मलोके लोका: परमपूजिता: ।। ३९ |।।
(सकामभावसे) यज्ञकर्मोंका अनुष्ठान करनेवाले पुरुषोंके लोक दूसरे हैं एवं
(सकामभावसे) वापी, कूप, तडाग और दान आदि कर्म करनेवाले मनुष्योंके लोक दूसरे हैं।
परंतु क्षमावानोंके लोक ब्रह्मलोकके अन्तर्गत हैं; जो अत्यन्त पूजित हैं ।। ३९ ।।
क्षमा तेजस्विनां तेज: क्षमा ब्रह्म तपस्विनाम् ।
क्षमा सत्यं सत्यवतां क्षमा यज्ञ: क्षमा शम: ।। ४० ।।
क्षमा तेजस्वी पुरुषोंका तेज है, क्षमा तपस्वियोंका ब्रह्म है, क्षमा सत्यवादी पुरुषोंका
सत्य है। क्षमा यज्ञ है और क्षमा शम (मनोनिग्रह) है ।। ४० ।।
तां क्षमां तादृशीं कृष्णे कथमस्मद्विधस्त्यजेत् ।
यस्यां ब्रह्म च सत्यं च यज्ञा लोकाश्न घिषछिता: ।। ४१ ।।
कृष्णे! जिसका महत्त्व ऐसा बताया गया है, जिसमें ब्रह्म, सत्य, यज्ञ और लोक सभी
प्रतिष्ठित हैं, उस क्षमाको मेरे-जैसा मनुष्य कैसे छोड़ सकता है || ४१ ।।
क्षन्तव्यमेव सततं पुरुषेण विजानता ।
यदा हि क्षमते सर्व ब्रह्म सम्पद्यते तदा ।। ४२ ।।
विद्वान पुरुषको सदा क्षमाका ही आश्रय लेना चाहिये। जब मनुष्य सब कुछ सहन कर
लेता है, तब वह ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है ।। ४२ ।।
क्षमावतामयं लोक: परश्रैव क्षमावताम् |
इह सम्मानमृच्छन्ति परत्र च शुभां गतिम् ।। ४३ ।।
क्षमावानोंके लिये ही यह लोक है। क्षमावानोंके लिये ही परलोक है। क्षमाशील पुरुष
इस जगतमें सम्मान और परलोकमें उत्तम गति पाते हैं || ४३ ।।
येषां मन्युर्मनुष्याणां क्षमयाभिहत: सदा ।
तेषां परतरे लोकास्तस्मात् क्षान्ति: परा मता ।। ४४ ।।
जिन मनुष्योंका क्रोध सदा क्षमाभावसे दबा रहता है, उन्हें सर्वोत्तम लोक प्राप्त होते हैं।
अत: क्षमा सबसे उत्कृष्ट मानी गयी है ।। ४४ ।।
इति गीता: काश्यपेन गाथा नित्यं क्षमावताम् |
श्रुत्वा गाथा: क्षमायास्त्व॑ तुष्य द्रौपदि मा क्रुध: ।। ४५ ।।
इस प्रकार काश्यपजीने नित्य क्षमाशील पुरुषोंकी इस गाथाका गान किया है। द्रौपदी!
क्षमाकी यह गाथा सुनकर संतुष्ट हो जाओ, क्रोध न करो || ४५ ।।
पितामह: शान्तनव: शमं सम्पूजयिष्यति ।
कृष्णश्न देवकीपुत्र: शमं सम्पूजयिष्यति ।। ४६ ।।
मेरे पितामह शान्तनुनन्दन भीष्म शान्तिभावका ही आदर करेंगे। देवकीनन्दन श्रीकृष्ण
भी शान्तिभावका ही आदर करेंगे ।। ४६ ।।
आचार्यो विदुर: क्षत्ता शममेव वदिष्यत: ।
कृपश्च संजयश्चैव शममेव वदिष्यत: ।। ४७ ।।
आचार्य द्रोण और विदुर भी शान्तिको ही अच्छा कहेंगे। कृपाचार्य और संजय भी
शान्त रहना ही अच्छा बतायेंगे || ४७ ।।
सोमदत्तो युयुत्सुश्न द्रोणपुत्रस्तथैव च ।
पितामहश्न नो व्यास: शमं वदति नित्यश: ।। ४८ ।।
सोमदत्त, युयुत्सु, अश्वत्थामा तथा हमारे पितामह व्यास भी सदा शान्तिका ही उपदेश
देते हैं | ४८ ।।
एतैहिं राजा नियतं चोद्यमान: शमं प्रति |
राज्यं दातेति मे बुद्धिर्न चेल्लोभान्नशिष्यति ।। ४९ ।।
ये सब लोग यदि राजा धुृतराष्ट्रको सदा शान्तिके लिये प्रेरित करते रहेंगे तो वे अवश्य
मुझे राज्य दे देंगे, ऐसा मुझे विश्वास है। यदि नहीं देंगे तो लोभके कारण नष्ट हो
जायँगे ।। ४९ ।।
कालो<यं दारुण: प्राप्तो भरतानामभूतये ।
निश्चितं मे सदैवैतत् पुरस्तादपि भाविनि ।। ५० ।।
सुयोधनो नार्हतीति क्षमामेवं न विन्दति ।
अहहस्तत्राहमित्येवं तस्मान्मां विन्दते क्षमा ।। ५१ ।।
इस समय भरतवंशके विनाशके लिये यह बड़ा भयंकर समय आ गया है। भामिनि!
मेरा पहलेसे ही ऐसा निश्चित मत है कि सुयोधन कभी भी इस प्रकार क्षमा-भावको नहीं
अपना सकता, वह इसके योग्य नहीं है। मैं इसके योग्य हूँ, इसलिये क्षमा मेरा ही आश्रय
लेती है ।।
एतदात्मवतां वृत्तमेष धर्म: सनातन: ।
क्षमा चैवानृशंस्यं च तत् कर्तास्म्यहमज्जसा ।। ५२ ।।
क्षमा और दया यही जितात्मा पुरुषोंका सदाचार है और यही सनातनधर्म है, अतः मैं
यथार्थ रूपसे क्षमा और दयाको ही अपनाऊँगा || ५२ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि द्रौपदीयुधिष्ठिरसंवादे
एकोनत्रिंशो5ध्याय: ।। २९ ||
इस प्रकार श्रीमह्या भारत वनपर्वके अन्तर्गत अजुनाभिगमनपर्वमें द्रौपदी-
युधिष्ठिरसंवादविषयक उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। २९ ॥।
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त्रिशो&्थ्याय:
दुःखसे मोहित द्रौपदीका युधिष्िरकी बुद्धि, धर्म एवं ईश्वरके
न्यायपर आशक्षेप
द्रौपहुवाच
नमो थात्रे विधात्रे च यौ मोहं चक्रतुस्तव ।
पितृपैतामहे वृत्ते वोढव्ये तेडन्यथा मतिः: ।॥। १ ।।
द्रौपदीने कहा--राजन! उस धाता (ईश्वर) और विधाता ([प्रारब्ध)-को नमस्कार हैं,
जिन्होंने आपकी बुद्धिमें मोह उत्पन्न कर दिया। पिता-पितामहोंके आचारका भार वहन
करनेमें भी आपका विचार दिखायी देता है ।। १ ।।
कर्मभिश्िन्तितो लोको गत्यां गत्यां पृथग्विध: ।
तस्मात् कर्माणि नित्यानि लोभान्मोक्षं यियासति ।। २ ।।
नेह धर्मानृशंस्याभ्यां न क्षान्त्या नार्जवेन च ।
पुरुष: श्रियमाप्रोति न घृणित्वेन कहिचित् ।। ३ ।।
कर्मोके अनुसार उत्तम, मध्यम, अधम योनिमें भिन्न-भिन्न लोकोंकी प्राप्ति बतलायी
गयी है, अतः कर्म नित्य हैं (भोगे बिना उन कर्मोंका क्षय नहीं होता)। मूर्ख लोग लोभसे ही
मोक्ष पानेकी इच्छा रखते हैं। इस जगत्में धर्म, कोमलता, क्षमा, विनय और दयासे कोई भी
मनुष्य कभी धन और एऐश्वर्यकी प्राप्ति नहीं कर सकता ।। २-३ ।।
द्रौपदी और भीमसेनका युधिष्ठिरसे संवाद
त्वां च व्यसनमभ्यागादिदं भारत दुःसहम् ।
यत् त्वं नाहसि नापीमे भ्रातरस्ते महौजस: ।। ४ ।।
भारत! इसी कारण तो आपपर भी यह दुःसह संकट आ गया, जिसके योग्य न तो
आप हैं और न आपके महातेजस्वी ये भाई ही हैं ।। ४ ।।
न हि तेडध्यगमज्जातु तदानीं नाद्य भारत |
धर्मात् प्रियतरं किंचिदपि चेज्जीवितादिह ।। ५ ।।
भरतकुलतिलक! आपके भाइयोंने न तो पहले कभी और न आज ही धर्मसे अधिक
प्रिय दूसरी किसी वस्तुको समझा है। अपितु धर्मको जीवनसे भी बढ़कर माना है ।। ५ ।।
धर्मार्थमेव ते राज्यं धर्मार्थ जीवितं च ते ।
ब्राह्मणा गुरवश्वचैव जानन्त्यापि च देवता: || ६ ।।
आपका राज्य धर्मके लिये ही है, आपका जीवन भी धर्मके लिये ही है। ब्राह्मण,
गुरुजन और देवता सभी इस बातको जानते हैं ।। ६ ।।
भीमसेनार्जुनौ चो भौ माद्रेयौ च मया सह ।
त्यजेस्त्वमिति मे बुद्धिर्न तु धर्म परित्यजे: ।। ७ ।।
मुझे विश्वास है कि आप मेरेसहित भीमसेन, अर्जुन और नकुल-सहदेवको भी त्याग
देंगे; किंतु धर्मका त्याग नहीं करेंगे || ७ ।।
राजानं धर्मगोप्तारं धर्मो रक्षति रक्षित: ।
इति मे श्रुतमार्याणां त्वां तु मन््ये न रक्षति ॥। ८ ।।
मैंने आर्योके मुँहसे सुना है कि यदि धर्मकी रक्षा की जाय तो वह धर्मरक्षक राजाकी
स्वयं भी रक्षा करता है। किंतु मुझे मालूम होता है कि वह आपकी रक्षा नहीं कर रहा
है ।। ८ ।।
अनन्या हि नरव्याप्र नित्यदा धर्ममेव ते ।
बुद्धिः सततमन्वेति च्छायेव पुरुषं निजा ।। ९ ।।
नरश्रेष्ठ) जैसे अपनी छाया सदा मनुष्यके पीछे चलती है, उसी प्रकार आपकी बुद्धि
सदा अनन्यभावसे धर्मका ही अनुसरण करती है ।। ९ ।।
नावमंस्था हि सदृशान् नावराउ्छेयस: कुतः ।
अवाप्य पृथिवीं कृत्स्नां न ते शुज्धमवर्धत ।। १० ।।
आपने अपने समान और अपनेसे छोटोंका भी कभी अपमान नहीं किया। फिर
अपनेसे बड़ोंका तो करते ही कैसे? सारी पृथ्वीका राज्य पाकर भी आपका प्रभुताविषयक
अहंकार कभी नहीं बढ़ा ।। १० ।।
स्वाहाकारै: स्वधाभिश्न पूजाभिरपि च द्विजान् ।
दैवतानि पितृश्चैव सततं पार्थ सेवसे ।॥। ११ ।।
कुन्तीनन्दन! आप स्वाहा, स्वथा और पूजाके द्वारा देवताओं, पितरों और ब्राह्मणोंकी
सदा सेवा करते रहते हैं ।। ११ ।।
ब्राह्मणा: सर्वकामैस्ते सततं पार्थ तर्पिता: ।
यतयो मोक्षिणश्रैव गृहस्थाश्वैव भारत ।। १२ ।।
भुज्जते रुक्मपात्रीभियरयत्राहं परिचारिका |
आरण्यकेभ्यो लौहानि भाजनानि प्रयच्छसि ।
नादेयं ब्राह्मणेभ्यस्ते गृहे किंचन विद्यते ।। १३ ।।
पार्थ! आपने ब्राह्मणोंकी समस्त कामनाएँ पूरी करके सदा उन्हें तृप्त किया है। भारत!
आपके यहाँ मोक्षाभिलाषी संन्यासी तथा गृहस्थ ब्राह्मण सोनेके पात्रोंमें भोजन करते थे।
जहाँ स्वयं मैं अपने हाथों उनकी सेवा-टहल करती थी। वानप्रस्थोंको भी आप सोनेके पात्र
दिया करते थे। आपके घरमें कोई ऐसी वस्तु नहीं थी, जो ब्राह्मणोंके लिये अदेय
हो ।। १२-१३ ।।
यदिदं वैश्वदेवं ते शान्तये क्रियते गृहे ।
तद् दत्त्वातिथिभूते भ्यो राजज्छिषप्टेन जीवसि ।। १४ ।।
राजन! आपके द्वारा शान्तिके लिये जो घरमें यह वैश्वदेव कर्म किया जाता है, उसमें
अतिथियों और प्राणियोंके लिये अन्न देकर आप अवशिष्ट अन्नके द्वारा जीवन-निर्वाह करते
हैं ।। १४ ।।
इष्टय: पशुबन्धाश्न काम्यनैमित्तिकाश्न ये ।
वर्तन्ते पाकयज्ञाश्ष यज्ञकर्म च नित्यदा ।। १५ ||
इष्टि (पूजा), पशुबन्ध (पशुओंको बाँधना), काम्य याग, नैमित्तिक याग, पाकयज्ञ तथा
नित्ययज्ञ--ये सब भी आपके यहाँ बराबर चलते रहते हैं || १५ ।।
अस्मिन्नपि महारण्ये विजने दस्युसेविते ।
राष्ट्रादपेत्य वसतो धर्मस्ते नावसीदति ।। १६ ।।
आप राज्यसे निकलकर लुटेरोंद्वारा सेवित इस निर्जन महावनमें निवास कर रहे हैं, तो
भी आपका धर्मकार्य कभी शिथिल नहीं हुआ है ।। १६ ।।
अश्वमेधो राजसूय: पुण्डरीको5थ गोसव: ।
एतैरपि महायज्ैरिष्ट ते भूरिदक्षिणै: ।। १७ ।।
अश्वमेध, राजसूय, पुण्डरीक तथा गोसव--इन सभी महायज्ञोंका आपने प्रचुर
दक्षिणादानपूर्वक अनुष्ठान किया है || १७ ।।
राजन् परीतया बुद्धा विषमे5क्षपराजये ।
राज्यं वसून्यायुधानि भ्रातृन् मां चासि निर्जित: ।। १८ ।।
परंतु महाराज! उस कपट हद्यूतजनित पराजयके समय आपकी बुद्धि विपरीत हो गयी,
जिसके कारण आप राज्य, धन, आयुध तथा भाइयोंको और मुझे भी दावँपर रखकर हार
गये ।। १८ ।।
ऋजोर्मुदोर्वदान्यस्य ह्वीमत: सत्यवादिन: ।
कथमक्षव्यसनजा बुद्धिरापतिता तव ।। १९ ।।
आप सरल, कोमल, उदार, लज्जाशील और सत्यवादी हैं। न जाने कैसे आपकी
बुद्धिमें जूआ खेलनेका व्यसन आ गया ।। १९ |।
अतीव मोहमायाति मनश्नव परिभूयते ।
निशाम्य ते दुःखमिदमिमां चापदमीदृशीम् ।। २० ।।
आपके इस दुःख और भयंकर विपत्तिको विचारकर मुझे अत्यन्त मोह प्राप्त हो रहा है
और मेरा मन दुःखसे पीड़ित हो रहा है || २० ।।
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
ईश्वरस्य वशे लोकास्तिष्ठन्ते नात्मनो यथा ।। २३१ ।।
इस विषयमें लोग इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण देते हैं, जिसमें यह कहा गया है कि
सब लोग ईश्वरके वशमें हैं, कोई भी स्वाधीन नहीं है || २१ ।।
धातैव खलु भूतानां सुखदु:खे प्रियाप्रिये ।
दधाति सर्वमीशान: पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरन् ।। २२ ।।
विधाता ईश्वर ही सबके पूर्वकर्मोके अनुसार प्राणियोंके लिये सुख-दुःख, प्रिय-
अप्रियकी व्यवस्था करते हैं || २२ ।।
यथा दारुमयी योषा नरवीर समाहिता ।
ईरयत्यड्रमजड्भानि तथा राजन्नरिमा: प्रजा: || २३ ।।
नरवीर नरेश! जैसे कठपुतली सूत्रधारसे प्रेरित हो अपने अंगोंका संचालन करती है,
उसी प्रकार यह सारी प्रजा ईश्वरकी प्रेरणासे अपने हस्त-पाद आदि अंगोंद्वारा विविध चेष्टाएँ
करती हैं ।। २३ ।।
आकाश इव भूतानि व्याप्य सर्वाणि भारत ।
ईश्वरो विदधातीह कल्याणं यच्च पापकम् ॥। २४ ।।
भारत! ईश्वर आकाशके समान सम्पूर्ण प्राणियोंमें व्याप्त होकर उनके कर्मानुसार सुख-
दुःखका विधान करते हैं || २४ ।।
शकुनिस्तन्तुबद्धो वा नियतो5यमनीश्वर: ।
ईश्वरस्य वशे तिषछेन्नान्येषां नात्मन: प्रभु: ।। २५ ।।
जीव स्वतन्त्र नहीं है, वह डोरेमें बँधे हुए पक्षीकी भाँति कर्मके बन्धनमें बँधा होनेसे
परतन्त्र है। वह ईश्वरके ही वशमें होता है। उसका न दूसरोंपर वश चलता है, न अपने
ऊपर || २५ ||
मणि: सूत्र इव प्रोतो नस्योत इव गोवृष: ।
स्रोतसो मध्यमापन्न: कूलाद् वृक्ष इव च्युत: | २६ ।।
धातुरादेशमन्वेति तन्मयो हि तदर्पण: ।
नात्माधीनो मनुष्यो5यं कालं भजति कंचन ।। २७ ।।
सूतमें पिरोयी हुई मणि, नाकमें नथे हुए बैल और किनारेसे टूटकर धाराके बीचमें गिरे
हुए वृक्षकी भाँति यह जीव सदा ईश्वरके आदेशका ही अनुसरण करता है; क्योंकि वह
उसीसे व्याप्त और उसीके अधीन है। यह मनुष्य स्वाधीन होकर समयको नहीं बिताता ।।
अज्ञो जन्तुरनीशोडयमात्मन: सुखदुःखयो: ।
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग नरकमेव च | २८ ।।
यह जीव अज्ञानी तथा अपने सुख-दुःखके विधानमें भी असमर्थ है। यह ईश्वरसे प्रेरित
होकर ही स्वर्ग एवं नरकमें जाता है || २८ ।।
यथा वायोस्तृणाग्राणि वशं यान्ति बलीयस: ।
धातुरेवं वशं यान्ति सर्वभूतानि भारत ।। २९ ।।
भारत! जैसे क्षुद्र तिनके बलवान् वायुके वशमें हो उड़ते-फिरते हैं, उसी प्रकार समस्त
प्राणी ईश्वरके अधीन हो आवागमन करते हैं ।। २९ ।।
आर्ये कर्मणि युञ्जान: पापे वा पुनरीश्वरः ।
व्याप्य भूतानि चरते न चायमिति लक्ष्यते || ३० ।।
कोई श्रेष्ठ कर्ममें लगा हुआ हो चाहे पापकर्ममें, ईश्वर सभी प्राणियोंमें व्याप्त होकर
विचरते हैं; किंतु वे यही हैं इस प्रकार उनका लक्ष्य नहीं होता ।। ३० ।।
हेतुमात्रमिदं धातु: शरीर क्षेत्रसंज्ञितम् |
येन कारयते कर्म शुभाशुभफलं विभु: ।। ३१ ।।
यह क्षेत्रसंज्षक शरीर ईश्वरका साधनमात्र है, जिसके द्वारा वे सर्वव्यापी परमेश्वर
प्राणियोंसे स्वेच्छा-प्रारब्धरूप शुभाशुभ फल भुगतानेवाले कर्मोंका अनुष्ठान करवाते
हैं । ३१ ।।
पश्य मायाप्रभावो5यमी श्वरेण यथा कृत: ।
यो हन्ति भूतैर्भूतानि मोहयित्वा55त्ममायया ।। ३२ ।।
ईश्वरने जिस प्रकार इस मायाके प्रभावका विस्तार किया है, उसे देखिये। वे अपनी
मायाद्वारा मोहित करके प्राणियोंसे ही प्राणियोंका वध करवाते हैं || ३२ ।।
अन्यथा परिदृष्टानि मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभि: ।
अन्यथा परिवर्तन्ते वेगा इव नभस्वत: ।। ३३ ।।
तत्त्वदर्शी मुनियोंने वस्तुओंके स्वरूप कुछ और प्रकारसे देखे हैं; किंतु अज्ञानियोंके
सामने किसी और ही रूपमें भासित होते हैं। जैसे आकाशचारी सूर्यकी किरणें मरुभूमिमें
पड़कर जलके रूपमें प्रतीत होने लगती हैं ।। ३३ ।।
अन्यथैव हि मन्यन्ते पुरुषास्तानि तानि च ।
अन्यथैव प्रभुस्तानि करोति विकरोति च ।॥। ३४ ।।
लोग भिन्न-भिन्न वस्तुओंको भिन्न-भिन्न रूपोंमें मानते हैं; परंतु शक्तिशाली परमेश्वर
उन्हें और ही रूपमें बनाते और बिगाड़ते हैं || ३४ ।।
यथा काष्ठेन वा काष्ठमश्मानं चाश्मना पुन: ।
अयसा चाप्ययश्शषिन्द्यान्निर्विचेष्टमचेतनम् ।। ३५ ।।
एवं स भगवान् देव: स्वयम्भू: प्रपितामह: ।
हिनस्ति भूतैर्भूतानि च्छद्म कृत्वा युधिछ्ठिर ।। ३६ ।।
महाराज युधिष्ठिर! जैसे अचेतन एवं चेष्टारहित काठ, पत्थर और लोहेको मनुष्य काठ,
पत्थर और लोहेसे ही काट देता है, उसी प्रकार सबके प्रपितामह स्वयम्भू भगवान् श्रीहरि
मायाकी आड़ लेकर प्राणियोंसे ही प्राणियोंका विनाश करते हैं || ३५-३६ ।।
सम्प्रयोज्य वियोज्यायं कामकारकर: प्रभु: ।
क्रीडते भगवान् भूतैर्बाल: क्रीडनकैरिव ।। ३७ ।।
जैसे बालक खिलौनोंसे खेलता है, उसी प्रकार स्वेच्छानुसार कर्म (भाँति-भाँतिकी
लीलाएँ) करने-वाले शक्तिशाली भगवान् सब प्राणियोंके साथ उनका परस्पर संयोग-वियोग
कराते हुए लीला करते रहते हैं ।। ३७ ।।
न मातृपितृवद् राजन् धाता भूतेषु वर्तते ।
रोषादिव प्रवृत्तोडयं यथायमितरो जन: ।। ३८ ।।
राजन! मैं समझती हूँ, ईश्वर समस्त प्राणियोंके प्रति माता-पिताके समान दया एवं
स्नेहयुक्त बर्ताव नहीं कर रहे हैं, वे तो दूसरे लोगोंकी भाँति मानो रोषसे ही व्यवहार कर रहे
हैं ।। ३८ ।।
आयज्छीलववतो दृष्टवा ह्वीमतो वृत्तिकर्शितान् |
अनार्यान् सुखिनश्चैव विद्धलामीव चिन्तया ।। ३९ ।।
क्योंकि जो लोग श्रेष्ठ, शीलवान् और संकोची हैं, वे तो जीविकाके लिये कष्ट पा रहे हैं;
किंतु जो अनार्य (दुष्ट) हैं, वे सुख भोगते हैं; यह सब देखकर मेरी उक्त धारणा पुष्ट होती है
और मैं चिन्तासे विह्नल-सी हो रही हूँ ।। ३९ ।।
तवेमामापदं दृष्टवा समृद्धिं च सुयोधने ।
धातारं गये पार्थ विषमं योडनुपश्यति ।। ४० ।।
कुन्तीनन्दन! आपकी इस आप त्तिको तथा दुर्योधनकी समृद्धिको देखकर मैं उस
विधाताकी निन्दा करती हूँ, जो विषम दृष्टिसे देख रहा है अर्थात् सज्जनको दुःख और
दुर्जजको सुख देकर उचित विचार नहीं कर रहा है || ४० ।।
आर्यशास्त्रातिगे क्रूरे लुब्धे धर्मापचायिनि ।
धार्तरष्टे श्रियं दत्ता धाता कि फलमश्लुते ।। ४१ ।।
जो आर्यशास्त्रोंकी आज्ञाका उल्लंघन करनेवाला, क्रूर, लोभी तथा धर्मकी हानि
करनेवाला है, उस धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनको धन देकर विधाता क्या फल पाता है? ।। ४१ ।।
कर्म चेत् कृतमन्वेति कर्तारें नान्यमृच्छति ।
कर्मणा तेन पापेन लिप्यते नूनमी श्वर: ।। ४२ ।।
यदि किया हुआ कर्म कर्ताका ही पीछा करता है, दूसरेके पास नहीं जाता, तब तो ईश्वर
भी उस पापकर्मसे अवश्य लिप्त होंगे || ४२ ।।
अथ कर्म कृतं पापं न चेत् कर्तारमृच्छति ।
कारणं बलमेवेह जनाञ्छोचामि दुर्बलान् ।। ४३ ।।
इसके विपरीत, यदि किया हुआ पाप-कर्म कर्ताको नहीं प्राप्त होता तो इसका कारण
यहाँ बल ही है (ईश्वर शक्तिशाली हैं, इसीलिये उन्हें पापकर्मका फल नहीं मिलता होगा)।
उस दशामें मुझे दुर्बल मनुष्योंके लिये शोक हो रहा है || ४३ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि द्रौपदीवाक्ये त्रिंशो5ध्याय: ।॥ ३०
||
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अर्जुनाथिगमनपर्वमें द्रौपदीवाक्यविषयक
तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ३० ॥।
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एकत्रिशो< ध्याय:
युधिष्ठिरद्वारा द्रौपदीके आक्षेपका समाधान तथा ईश्वर, धर्म
और महापुरुषोंके आदरसे लाभ और अनादरसे हानि
युधिछिर उवाच
वल्गु चित्रपदं श्लक्ष्णं याज्ञसेनि त्वया वच: ।
उक्त तच्छुतमस्माभिरन्नास्तिक्यं तु प्रभाषसे ।। १ ।।
युधिष्ठिर बोले--यज्ञसेनकुमारी! तुमने जो बात कही है, वह सुननेमें बड़ी मनोहर,
विचित्र पदावलीसे सुशोभित तथा बहुत सुन्दर है, मैंने उसे बड़े ध्यानसे सुना है। परंतु इस
समय तुम (अज्ञानसे) नास्तिक मतका प्रतिपादन कर रही हो ।। १ ।।
नाहं कर्मफलान्वेषी राजपुत्रि चराम्युत ।
ददामि देयमित्येव यजे यष्टव्यमित्युत ।। २ ।॥।
राजकुमारी! मैं कर्मोके फलकी इच्छा रखकर उनका अनुष्ठान नहीं करता; अपितु “देना
कर्तव्य है” यह समझकर दान देता हूँ और यज्ञको भी कर्तव्य मानकर ही उसका अनुष्ठान
करता हूँ ।। २ ।।
अस्तु वात्र फल॑ मा वा कर्तव्यं पुरुषेण यत् ।
गृहे वा वसता कृष्णे यथाशक्ति करोमि तत् ।। ३ ।।
कृष्णे! यहाँ उस कर्मका फल हो या न हो, गृहस्थ-आश्रममें रहनेवाले पुरुषका जो
कर्तव्य है, मैं उसीका यथाशक्ति कर्तव्यबुद्धिसे पालन करता हूँ ।। ३ ।।
धर्म चरामि सुश्रोणि न धर्मफलकारणात् |
आगमाननतिक्रम्य सतां वृत्तमवेक्ष्य च ।। ४ ।।
धर्म एव मन: कृष्णे स्वभावाच्चैव मे धृतम् ।
धर्मवाणिज्यको हीनो जघन्यो धर्मवादिनाम् ।। ५ ।।
सुश्रोणि! मैं धर्मका फल पानेके लोभसे धर्मका आचरण नहीं करता, अपितु साधु
पुरुषोंके आचार-व्यवहारको देखकर शास्त्रीय मर्यादाका उल्लंघन न करके स्वभावसे ही
मेरा मन धर्मपालनमें लगा है। द्रौपदी! जो मनुष्य कुछ पानेकी इच्छासे धर्मका व्यापार
करता है, वह धर्मवादी पुरुषोंकी दृष्टिमें हीन और निन्दनीय है ।। ४-५ ।।
न धर्मफलमाप्रोति यो धर्म दोग्धुमिच्छति ।
यश्चैनं शड़कते कृत्वा नास्तिक्यात् पापचेतन: ।। ६ ।।
जो पापात्मा मनुष्य नास्तिकतावश धर्मका अनुष्ठान करके उसके विषयमें शंका करता
है अथवा धर्मको दुहना चाहता है अर्थात् धर्मके नामपर स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है, उसे
धर्मका फल बिलकुल नहीं मिलता ।। ६ ।।
अतिवादाद् वदाम्येष मा धर्ममभिशड्किथा: ।
धर्माभिशड्की पुरुषस्तिर्यग्गतिपरायण: ।। ७ ।।
मैं सारे प्रमाणोंसे ऊपर उठकर केवल शास्त्रके आधारपर यह जोर देकर कह रहा हूँ कि
तुम धर्मके विषयमें शंका न करो; क्योंकि धर्मपर संदेह करनेवाला मानव पशु-पक्षियोंकी
योनिमें जन्म लेता है || ७ ।।
धर्मो यस्याभिशड्क््य: स्यादार्ष वा दुर्बलात्मन: |
वेदाच्छूद्र इवापेयात् स लोकादजरामरात् ।। ८ ।।
जो धर्मके विषयमें संदेह रखता है अथवा जो दुर्बलात्मा पुरुष वेदादि शास्त्रोंपर
अविश्वास करता है, वह जरा-मृत्युरहित परमधामसे उसी प्रकार वंचित रहता है, जैसे शाद्र
वेदोंके अध्ययनसे ।। ८ ।।
वेदाध्यायी धर्मपर: कुले जातो मनस्विनि ।
स्थविरेषु स योक्तव्यो राजर्षिर्धर्मचारिभि: ।। ९ ।।
मनस्विनि! जो वेदका अध्ययन करनेवाला, धर्मपरायण और कुलीन हो, उस राजर्षिकी
गणना धर्मात्मा पुरुषोंको वृद्धोंमें करनी चाहिये (वह आयुमें छोटा हो तो भी उसका वृद्ध
पुरुषके समान आदर करना चाहिये) ।। ९ ।।
पापीयान् स हि शूद्रेभ्यस्तस्करेभ्यो विशिष्यते ।
शास्त्रातिगो मन्दबुद्धियों धर्ममभिशड्गकते ।। १० ।।
जो मन्दबुद्धि पुरुष शास्त्रोंकी मर्यादाका उल्लंघन करके धर्मके विषयमें आशंका करता
है, वह शूद्रों और चोरोंसे भी बढ़कर पापी है || १० ।।
प्रत्यक्ष हि त्वया दृष्ट ऋषिर्गच्छन् महातपा: ।
मार्कण्डेयोडप्रमेयात्मा धर्मेण चिरजीविता ।। ११ ।।
तुमने अमेयात्मा महातपस्वी मार्कण्डेयजीको जो अभी यहाँसे गये हैं, प्रत्यक्ष देखा है।
उन्हें धर्मपालनसे ही चिरजीविता प्राप्त हुई है ।। ११ ।।
व्यासो वसिष्ठो मैत्रेयो नारदो लोमश: शुक: ।
अन्ये च ऋषय: सर्वे धर्मेणैव सुचेतस: ।। १२ ।।
व्यास, वसिष्ठ, मैत्रेय, नारद, लोमश, शुक तथा अन्य सब महर्षि धर्मके पालनसे ही
शुद्ध हृदयवाले हुए हैं || १२ ।।
प्रत्यक्ष पश्यसि होतान् दिव्ययोगसमन्वितान् ।
शापानुग्रहणे शक्तान् देवेभ्योडपि गरीयस: ।। १३ ।।
तुम अपनी आँखों इन सबको देखती हो, ये दिव्य योगशक्तिसे सम्पन्न, शाप और
अनुग्रहमें समर्थ तथा देवताओंसे भी अधिक गौरवशाली हैं ।। १३ ।।
एते हि धर्ममेवादौ वर्णयन्ति सदानघे ।
कर्तव्यममरप्रख्या: प्रत्यक्षागमबुद्धय: ।। १४ ।।
अनघे! ये अमरोंके समान विख्यात तथा वेदगम्य विषयको भी प्रत्यक्ष देखनेवाले महर्षि
धर्मको ही सबसे प्रथम आचरणमें लानेयोग्य बताते हैं | १४ ।।
अतो नाहसि कल्याणि धातारं धर्ममेव च |
राज्ञि मूढेन मनसा क्षेप्तुं शड्कितुमेव च ।। १५ ।।
अतः कल्याणमयी महारानी द्रौपदी! तुम्हें मूर्खतायुक्त मनके द्वारा ईश्वर और धर्मपर
आक्षेप एवं आशंका नहीं करनी चाहिये || १५ ।।
उन्मत्तान् मन्यते बाल: सर्वानागतनिश्चयान् |
धर्माभिशड्को नान्यस्मात् प्रमाणमधिगच्छति ।। १६ ।।
धर्मके विषयमें संशय रखनेवाला बालबुद्धि मानव जिन्हें धर्मके तत्त्वका निश्चय हो गया
है, उन समस्त ज्ञानीजनोंको उन्मत्त समझता है; अतः वह बालबुद्धि दूसरे किसीसे कोई
शास्त्र-प्रमाण नहीं ग्रहण करता ।। १६ ।।
आत्मप्रमाण उन्नद्ध: श्रेयसो हवमन्यक: ।
इन्द्रियप्रीतिसम्बद्धं यदिदं लोकसाक्षिकम् ।
एतावन्मन्यते बालो मोहमन्यत्र गच्छति ।। १७ ।।
केवल अपनी बुद्धिको ही प्रमाण माननेवाला उद्दण्ड मानव श्रेष्ठ पुरुषों एवं उत्तम
धर्मकी अवहेलना करता है; क्योंकि वह मूढ़ इन्द्रियोंकी आसक्तिसे सम्बन्ध रखनेवाले इस
लोक-प्रत्यक्ष दृश्य जगत्की ही सत्ता स्वीकार करता है। अप्रत्यक्ष वस्तुके विषयमें उसकी
बुद्धि मोहमें पड़ जाती है ।। १७ ।।
प्रायक्षित्तं न तस्यास्ति यो धर्ममभिशड्कते ।
ध्यायन् स कृपण: पापो न लोकानू् प्रतिपद्यते || १८ ।।
जो धर्मके प्रति संदेह करता है, उसकी शुद्धिके लिये कोई प्रायश्चित्त नहीं है। वह
धर्मविरोधी चिन्तन करनेवाला दीन पापात्मा पुरुष उत्तम लोकोंको नहीं पाता अर्थात्
अधोगतिको प्राप्त होता है ।। १८ ।।
प्रमाणाद्धि निवृत्तो हि वेदशास्त्रार्थनिन्दक: ।
कामलोभातिगो मूढो नरकं प्रतिपद्यते ।। १९ ।।
जो मूर्ख प्रमाणोंकी ओरसे मुँह मोड़ लेता है, वेद और शास्त्रोंके सिद्धान्तकी निन्दा
करता है तथा काम एवं लोभके अत्यन्त परायण है, वह नरकमें पड़ता है ।। १९ ।।
यस्तु नित्यं कृतमतिर्धर्ममेवाभिपद्यते ।
अशड्कमान: कल्याणि सोअमुत्रानन्त्यमश्लुते || २० ।।
कल्याणी! जो सदा धर्मके विषयमें पूर्ण निश्चय रखनेवाला है और सब प्रकारकी
आशंकाएँ छोड़कर धर्मकी ही शरण लेता है, वह परलोकमें अक्षय अनन्त सुखका भागी
होता है अर्थात् परमात्माको प्राप्त हो जाता है || २० ।।
आर्ष प्रमाणमुत्क्रम्य धर्म न प्रतिपालयन् ।
सर्वशास्त्रातिगो मूढ: शं जन्मसु न विन्दति ।। २३१ ।।
जो मूढ़ मानव आर्ष-पग्रन्थोंके प्रमाणकी अवहेलना करके समस्त शास्त्रोंक विपरीत
आचरण करते हुए धर्मका पालन नहीं करता, वह जन्म-जन्मान्तरोंमें भी कभी कल्याणका
भागी नहीं होता || २१ ।।
यस्य नार्ष प्रमाणं स्याच्छिष्टाचारक्ष भाविनि ।
न वै तस्य परो लोको नायमस्तीति निश्चय: ।। २२ ।।
भाविनि! जिसकी दृष्टिमें ऋषियोंके वचन और शिष्ट पुरुषोंके आचार प्रमाणभूत नहीं
हैं, उसके लिये न यह लोक है और न परलोक, यह तत्त्ववेत्ता महापुरुषोंका निश्चय
है ।। २२ ।।
शिष्टैराचरितं धर्म कृष्णे मा स्माभिशड्किथा: ।
पुराणमृषिश्रि: प्रोक्त सर्वज्ञै: सर्वदर्शिभि: ।। २३ ।।
कृष्णे! सर्वज्ञ और सर्वद्रष्टा महर्षियोंद्वारा प्रतिपादित तथा शिष्ट पुरुषोंद्वारा आचरित
पुरातन धर्मपर शंका नहीं करनी चाहिये ।। २३ ।।
धर्म एव प्लवो नान्य: स्वर्ग द्रौपदि गच्छताम् ।
सैव नौ: सागरस्येव वणिज: पारमिच्छत: ।। २४ ।।
ट्रपदकुमारी! जैसे समुद्रके पार जानेकी इच्छा-वाले वणिक्के लिये जहाजकी
आवश्यकता है, वैसे ही स्वर्गमें जानेवालोंके लिये धर्माचरण ही जहाज है, दूसरा
नहीं ।। २४ ।।
अफलो यदि धर्म: स्याच्चरितो धर्मचारिभि: |
अप्रतिष्ठे तमस्येतज्जगन्मज्जेदनिन्दिते ।। २५ ।।
साध्वी द्रौपदी! यदि धर्मपरायण पुरुषोंद्वारा पालित धर्म निष्फल होता तो सम्पूर्ण जगत्
असीम अन्धकारमें निमग्न हो जाता || २५ ।।
निर्वाणं नाधिगच्छेयुर्जीवेयु: पशुजीविकाम् |
विद्यां ते नैव युज्येयुर्न चार्थ केचिदाप्रुयु: ।। २६ ।।
यदि धर्म निष्फल होता तो धर्मात्मा पुरुष मोक्ष नहीं पाते, कोई विद्याकी प्राप्तिमें नहीं
लगते, कोई भी प्रयोजनसिद्धिके लिये प्रयत्न नहीं करते और सभी पशुओंका-सा जीवन
व्यतीत करते ।। २६ ।।
तपकश्न ब्रह्मचर्य च यज्ञ: स्वाध्याय एव च |
दानमार्जवमेतानि यदि स्युरफलानि वै ।। २७ ।।
नाचरिष्यन् परे धर्म परे परतरे च ये ।
विप्रलम्भो5यमत्यन्तं यदि स्युरफला: क्रिया: ।। २८ ।।
ऋषयश्नैव देवाश्न गन्धर्वासुरराक्षसा: |
ईश्वरा: कस्य हेतोस्ते चरेयुर्धर्ममादृता: ॥। २९ ।।
यदि तप, ब्रह्मचर्य, यज्ञ, स्वाध्याय, दान और सरलता आदि धर्म निष्फल होते तो पहले
जो श्रेष्ठ और श्रेष्ठतर पुरुष हुए हैं वे धर्मका आचरण नहीं करते। यदि धार्मिक क्रियाओंका
कुछ फल नहीं होता, वे सब निरी ठगविद्या होतीं तो ऋषि, देवता, गन्धर्व, असुर तथा राक्षस
प्रभावशाली होते हुए भी किसलिये आदरपूर्वक धर्मका आचरण करते ।। २७--२९ ।।
फलदं चल्विह विज्ञाय धातारं श्रेयसि ध्रुवम्
धर्म ते व्यचरन् कृष्णे तद्धि श्रेय: सनातनम् ।। ३० ।।
कृष्णे! यहाँ धर्मका फल देनेवाले ईश्वर अवश्य हैं, यह बात जानकर ही उन ऋषि
आदिकोंने धर्मका आचरण किया है। धर्म ही सनातन श्रेय है ।। ३० ।।
स नायमफलो धर्मो नाधर्मोडफलवानपि ।
दृश्यन्तेडपि हि विद्यानां फलानि तपसां तथा ।। ३१ ।।
त्वमात्मनो विजानीहि जन्म कृष्णे यथा श्रुतम्
वेत्थ चापि यथा जातो धृष्टद्युम्न: प्रतापवान् ।। ३२ ।।
धर्म निष्फल नहीं होता। अधर्म भी अपना फल दिये बिना नहीं रहता। विद्या और
तपस्याके भी फल देखे जाते हैं। कृष्णे! तुम अपने जन्मके प्रसिद्ध वृत्तान्तको ही स्मरण
करो। तुम्हारा प्रतापी भाई धृष्टद्युम्न जिस प्रकार उत्पन्न हुआ है, यह भी तुम जानती
हो ।। ३१-३२ ।।
एतावदेव पर्याप्तमुपमानं शुचिस्मिते ।
कर्मणां फलमाप्रोति धीरोडल्पेनापि तुष्यति ॥। ३३ ।।
पवित्र मुसकानवाली द्रौपदी! इतना ही दृष्टान्त देना पर्याप्त है। धीर पुरुष कर्मोका फल
पाता है और थोड़े-से फलसे भी संतुष्ट हो जाता है ।। ३३ ।।
बहुनापि हााविद्वांसो नैव तुष्यन्त्यबुद्धय: ।
तेषां न धर्मजं किंचित् प्रेत्य शर्मास्ति वा पुन: ।। ३४ ।।
परंतु बुद्धिहीन अज्ञानी मनुष्य बहुत पाकर भी संतुष्ट नहीं होते। उन्हें परलोकमें
धर्मजनित थोड़ा-सा भी सुख नहीं मिलता || ३४ ।।
कर्मणां श्रुतपुण्यानां पापानां च फलोदय: ।
प्रभवश्वात्ययश्चैव देवगुह्दानि भाविनि ।। ३५ ।।
भामिनि! वेदोक्त पुण्य देनेवाले सत्कर्मों और अनिष्टकारी पापकर्मोंका फलोदय तथा
उत्पत्ति और प्रलय--ये सब देवगुह्य हैं (देवता ही उन्हें जानते हैं) || ३५ ।।
नैतानि वेद यः कश्रिन्मुहान्ते5त्र प्रजा इमा: |
अपि कल्पसहस्रेण न स श्रेयोडधिगच्छति ।। ३६ ।।
इन देवगुह्य विषयोंमें साधारण लोग मोहित हो जाते हैं। जो इन सबको तात्त्विकरूपसे
नहीं जानता है, वह सहस्रों कल्पोंमें भी कल्याणका भागी नहीं हो सकता ।। ३६ ।।
रक्ष्याण्येतानि देवानां गूढमाया हि देवता: ।
कृताशाश्च व्रताशाश्व॒ तपसा दग्धकिल्बिषा: |
प्रसादैर्मानसैर्युक्ता: पश्यन्त्येतानि वै द्विजा: ।। ३७ ।।
इन सब विषयोंको देवतालोग गुप्त रखते हैं। देवताओंकी माया भी गूढ़ (दुर्बोध) है। जो
आशाका परित्याग करके साच्चिक हितकर एवं पवित्र आहार करनेवाले हैं। तपस्यासे
जिनके सारे पाप दग्ध हो गये हैं तथा जो मानसिक प्रसन्नतासे युक्त हैं, वे द्विज ही इन
देवगुह्म विषयोंको देख पाते हैं || ३७ ।।
न फलादर्शनाद् धर्म: शड्कितव्यो न देवता: ।
यष्टव्यं च प्रयत्नेन दातव्यं चानसूयता ।। ३८ ।।
धर्मका फल तुरंत दिखायी न दे तो इसके कारण धर्म एवं देवताओंपर आशंका नहीं
करनी चाहिये। दोषदृष्टि न रखते हुए यत्नपूर्वक यज्ञ और दान करते रहना चाहिये ।। ३८ ।।
कर्मणां फलमस्तीह तथैतद् धर्मशासनम् |
ब्रह्मा प्रोवाच पुत्राणां यदृषिर्वेद कश्यप: ।। ३९ ।।
कर्मोका फल यहाँ अवश्य प्राप्त होता है, यह धर्मशास्त्रका विधान है। यह बात
ब्रह्माजीने अपने पुत्रोंसे कही है, जिसे कश्यप ऋषि जानते हैं ।। ३९ ।।
तस्मात् ते संशय: कृष्णे नीहार इव नश्यतु ।
व्यवस्य सर्वमस्तीति नास्तिक्यं भावमुत्सूज ।। ४० ।।
इसलिये कृष्णे! सब कुछ सत्य है, ऐसा निश्चय करके तुम्हारा धर्मविषयक संदेह
कुहरेकी भाँति नष्ट हो जाना चाहिये। तुम अपने इस नास्तिकतापूर्ण विचारको त्याग
दो ।। ४० ।।
ईश्वरं चापि भूतानां धातारं मा च वै क्षिप ।
शिक्षस्वैनं नमस्वैनं मा ते5भूद् बुद्धिरीदूृशी ।। ४१ ।।
और समस्त प्राणियोंका भरण-पोषण करनेवाले ईश्वरपर आक्षेप बिलकुल न करो। तुम
शास्त्र और गुरुजनोंके उपदेशानुसार ईश्वरको समझनेकी चेष्टा करो और उन्हींको नमस्कार
करो। आज जैसी तुम्हारी बुद्धि है, वैसी नहीं रहनी चाहिये ।। ४१ ।।
यस्य प्रसादात् तद्धक्तो मर्त्यों गच्छत्यमर्त्यताम् |
उत्तमां देवतां कृष्णे मावमंस्था: कथंचन ।। ४२ ।।
कृष्णे! जिनके कृपाप्रसादसे उनके प्रति भक्तिभाव रखनेवाला मरणधर्मा मनुष्य
अमरत्वको प्राप्त हो जाता है, उन परमदेव परमेश्वरकी तुमको किसी प्रकार अवहेलना नहीं
करनी चाहिये ।। ४२ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि युधिष्िरवाक्ये एकत्रिंशो 5 ध्याय:
|| ३१ ||
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्वमें युधिष्ठिरवाक्यविषयक
इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ३१ ॥
हि () हल मय
द्वात्रिशोड्थ्याय:
द्रौोपदीका पुरुषार्थको प्रधान मानकर पुरुषार्थ करनेके लिये
जोर देना
द्रौपहुुवाच
नावमन्ये न गहें च धर्म पार्थ कथंचन ।
ईश्वरं कुत एवाहमवमंस्ये प्रजापतिम् ।। १ ।।
द्रौपदी बोली--कुन्तीनन्दन! मैं धर्मकी अवहेलना तथा निन्दा किसी प्रकार नहीं कर
सकती। फिर समस्त प्रजाओंका पालन करनेवाले परमेश्वरकी अवहेलना तो कर ही कैसे
सकती हूँ ।। १ ।।
आर्तईहं प्रलपामीदमिति मां विद्धि भारत ।
भूयश्व विलपिष्यामि सुमनास्त्वं निबोध मे ।॥ २ ।॥।
भारत! आप ऐसा समझ लें कि मैं शोकसे आर्त होकर प्रलाप कर रही हूँ। मैं इतनेसे ही
चुप नहीं रहूँगी और भी विलाप करूँगी। आप प्रसन्नचित्त होकर मेरी बात सुनिये || २ ।।
कर्म खल्विह कर्तव्यं जानतामित्रकर्शन ।
अकर्माणो हि जीवन्ति स्थावरा नेतरे जना: ।। ३ ।।
शत्रुनाशन! ज्ञानी पुरुषको भी इस संसारमें कर्म अवश्य करना चाहिये। पर्वत और वृक्ष
आदि स्थावर भूत ही बिना कर्म किये जी सकते हैं, दूसरे लोग नहीं ।। ३ ।।
यावद्गोस्तनपानाच्च यावच्छायोपसेवनात् |
जन्तव: कर्मणा वृत्तिमाप्रुवन्ति युधिष्ठिर || ४ ।।
महाराज युधिष्ठिर! गौओंके बछड़े भी माताका दूध पीते और छायामें जाकर विश्राम
करते हैं। इस प्रकार सभी जीव कर्म करके ही जीवन-निर्वाह करते हैं ।। ४ ।।
जड़मेषु विशेषेण मनुष्या भरतर्षभ ।
इच्छन्ति कर्मणा वृत्तिमवाप्तु प्रेत्य चेह च ।। ५ ।।
भरतश्रेष्ठ! जंगम जीवोंमें विशेषरूपसे मनुष्य कर्मके द्वारा ही हहलोक और परलोकमें
जीविका प्राप्त करना चाहते हैं ।। ५ ।।
उत्थानमभिजानन्ति सर्वभूतानि भारत |
प्रत्यक्ष फलमश्रन्ति कर्मणां लोकसाक्षिकम् ॥। ६ ||
भारत! सभी प्राणी अपने उत्थानको समझते हैं और कर्मोंके प्रत्यक्ष फलका उपभोग
करते हैं,जिसका साक्षी सारा जगत् है ।। ६ ।।
सर्वे हि स्वं समुत्थानमुपजीवन्ति जन्तव: ।
अपि धाता विधाता च यथायमुदके बक: ।। ७ ।।
यह जलके समीप जो बगुला बैठकर (मछलीके लिये) ध्यान लगा रहा है, उसीके
समान ये सभी प्राणी अपने उद्योगका आश्रय लेकर जीवन धारण करते हैं। धाता और
विधाता भी सदा सृष्टिपालनके उद्योगमें लगे रहते हैं || ७ ।।
अकर्मणां वै भूतानां वृत्ति: स्यान्न हि काचन |
तदेवाभिप्रपद्येत न विहन्यात् कदाचन ।। ८ ।।
कर्म न करनेवाले प्राणियोंकी कोई जीविका भी सिद्ध नहीं होती। अतः: (प्रारब्धका
भरोसा करके) कभी कर्मका परित्याग न करे। सदा कर्मका ही आश्रय ले ।। ८ ।।
स्वकर्म कुरु मा ग्लासी: कर्मणा भव दंशित: ।
कृतं हि योडभिजानाति सहस्ने सो5स्ति नास्ति च ।। ९ ।।
अतः आप अपना कर्म करें। उसमें ग्लानि न करें, कर्मका कवच पहने रहें। जो कर्म
करना अच्छी तरह जानता है, ऐसा मनुष्य हजारोंमें एक भी है या नहीं? यह बताना कठिन
है।।९।।
तस्य चापि भवेत् कार्य विवृद्धौ रक्षणे तथा ।
भक्ष्यमाणो हानादानात् क्षीयेत हिमवानपि ।। १० ।।
धनकी वृद्धि और रक्षाके लिये भी कर्मकी आवश्यकता है। यदि धनका उपभोग (व्यय)
होता रहे और आय न हो तो हिमालय-जैसी धनराशिका भी क्षय हो सकता है ।। १० ।।
उत्सीदेरन् प्रजा: सर्वा न कुर्यु: कर्म चेद् भुवि ।
तथा होता न वर्धेरन् कर्म चेदफलं भवेत् ।। ११ ।।
यदि समस्त प्रजा इस भूतलपर कर्म करना छोड़ दे तो सबका संहार हो जाय। यदि
कर्मका कुछ फल न हो तो इन प्रजाओंकी वृद्धि ही न हो ।। ११ ।।
अपि चाप्यफल कर्म पश्याम: कुर्वतो जनान् |
नान्यथा हाूपि गच्छन्ति वृत्ति लोका: कथंचन ।। १२ ।।
हम देखती हैं कि लोग व्यर्थ कर्ममें भी लगे रहते हैं, कर्म न करनेपर तो लोगोंकी किसी
प्रकार जीविका ही नहीं चल सकती ।। १२ ।।
यश्न दिष्टपरो लोके यश्चापि हठवादिक: ।
उभावपि शठावेतौ कर्मबुद्धि: प्रशस्यते ।। १३ ।।
संसारमें जो केवल भाग्यके भरोसे कर्म नहीं करता अर्थात् जो ऐसा मानता है कि पहले
जैसा किया है वैसा ही फल अपने-आप ही प्राप्त होगा तथा जो हठवादी है--बिना किसी
युक्तिके हठपूर्वक यह मानता है कि कर्म करना अनावश्यक है, जो कुछ मिलना होगा,
अपने-आप मिल जायगा, वे दोनों ही मूर्ख हैं। जिसकी बुद्धि कर्म (पुरुषार्थ)-में रुचि रखती
है, वही प्रशंसाका पात्र है || १३ ।।
यो हि दिष्टमुपासीनो निर्विचिष्ट:सुखं शयेत् ।
अवसीदेत् स दुर्बुद्धिरामो घट इवोदके ।। १४ ।।
जो खोटी बुद्धिवाला मनुष्य प्रारब्ध (भाग्य)-का भरोसा रखकर उद्योगसे मुँह मोड़ लेता
और सुखसे सोता रहता है, उसका जलमें रखे हुए कच्चे घड़ेकी भाँति विनाश हो जाता
है ।। १४ ।।
तथैव हठदुर्बुद्धिः शक्तः कर्मण्यकर्मकृत् ।
आसीत न चिरं जीवेदनाथ इव दुर्बल: ।। १५ ।।
इसी प्रकार जो हठी और दुर्बुद्धि मानव कर्म करनेमें समर्थ होकर भी कर्म नहीं करता,
बैठा रहता है, वह दुर्बल एवं अनाथकी भाँति दीर्घजीवी नहीं होता ।। १५ ।।
अकस्मादिह य: कश्रिदर्थ प्राप्नोति पूरुष: ।
त॑ हठेनेति मन्यन्ते स हि यत्नो न कस्यचित् ।। १६ ।।
जो कोई पुरुष इस जगतमें अकस्मात् कहींसे धन पा लेता है, उसे लोग हठसे मिला
हुआ मान लेते हैं; क्योंकि उसके लिये किसीके द्वारा प्रयत्न किया हुआ नहीं
दीखता ।। १६ ।।
यच्चापि किंचित् पुरुषो दिष्टं नाम भजत्युत ।
दैवेन विधिना पार्थ तद् दैवमिति निश्चितम् ।। १७ ।।
कुन्तीनन्दन! मनुष्य जो कुछ भी देवाराधनकी विधिसे अपने भाग्यके अनुसार पाता है,
उसे निश्चितरूपसे दैव (प्रारब्ध) कहा गया है ।। १७ ।।
यत् स्वयं कर्मणा किंचित् फलमाप्रोति पूरुष: ।
प्रत्यक्षमेतल्लोकेषु तत् पौरुषमिति श्रुतम् । १८ ।।
तथा मनुष्य स्वयं कर्म करके जो कुछ फल प्राप्त करता है, उसे पुरुषार्थ कहते हैं। यह
सब लोगोंको प्रत्यक्ष दिखायी देता है ।। १८ ।।
स्वभावतः: प्रवृत्तो यः प्राप्रोत्यर्थ न कारणात् ।
तत् स्वभावात्मकं विद्धि फलं पुरुषसत्तम ।। १९ |।
नरश्रेष्ठ)ी जो स्वभावसे ही कर्ममें प्रवृत्त होकर धन प्राप्त करता है, किसी कारणवश
नहीं, उसके उस धनको स्वाभाविक फल समझना चाहिये ।। १९ ।।
एवं हठाच्च दैवाच्च स्वभावात् कर्मणस्तथा ।
यानि प्राप्रोति पुरुषस्तत् फल पूर्वकर्मणाम् ।। २० ।।
इस प्रकार हठ, दैव, स्वभाव तथा कर्मसे मनुष्य जिन-जिन वस्तुओंको पाता है, वे सब
उसके पूर्वकर्मोके ही फल हैं || २० ।।
धातापि हि स्वकर्मव तैस्तैहेंतुभिरी श्वर: ।
विदधाति विभज्येह फल पूर्वकृतं नृणाम् ।। २१ ।।
जगदाधार परमेश्वर भी उपर्युक्त हठ आदि हेतुओंसे जीवोंके अपने-अपने कर्मको ही
विभक्त करके मनुष्योंको उनके पूर्वजन्ममें किये हुए कर्मके फलरूपसे यहाँ प्राप्त कराता
है ।। २१ ||
यद्धायं पुरुष: किंचित् कुरुते वै शुभाशुभम् ।
तद् धातृविहितं विद्धि पूर्वकर्मफलोदयम् ।। २२ ।।
पुरुष यहाँ जो कुछ भी शुभ-अशुभ कर्म करता है, उसे ईश्वरद्वारा विहित उसके
पूर्वकर्मोके फलका उदय समझिये ।। २२ ।।
कारणं तस्य देहो<यं धातु: कर्मणि वर्तते ।
स यथा प्रेरयत्येनं तथायं कुरुतेडवश: ।। २३ ।।
यह मानव-शरीर जो कर्ममें प्रवृत्त होता है, वह ईश्वरके कर्मफलसम्पादन-कार्यका
साधन है। वे इसे जैसी प्रेरणा देते हैं, यह विवश होकर (स्वेच्छा--प्रारब्धभोगके लिये) वैसा
ही करता है ।। २३ ।।
तेषु तेषु हि कृत्येषु विनियोक्ता महेश्वर: |
सर्वभूतानि कौन्तेय कारयत्यवशान्यपि ।। २४ ।।
कुन्तीनन्दन! परमेश्वर ही समस्त प्राणियोंको विभिन्न कार्योमें लगाते और स्वभावके
परवश हुए उन प्राणियोंसे कर्म कराते हैं || २४ ।।
मनसार्थान् विनिश्ित्य पश्चात् प्राप्रोति कर्मणा ।
बुद्धिपूर्व स्वयं वीर पुरुषस्तत्र कारणम् । २५ ।।
किंतु वीर! मनसे अभीष्ट वस्तुओंका निश्चय करके फिर कर्मद्वारा मनुष्य स्वयं
बुद्धिपूर्वक उन्हें प्राप्त करता है। अतः पुरुष ही उसमें कारण है ।। २५ ।।
संख्यातुं नैव शक््यानि कर्माणि पुरुषर्षभ ।
अगारनगराणां हि सिद्धि: पुरुषहैतुकी ।। २६ ।।
तिले तैलं गवि क्षीरं काछ्ठे पावकमन्तत: ।
धिया धीरो विजानीयादुपायं चास्य सिद्धये ।। २७ ।।
नरश्रेष्ठ कर्मोीकी गणना नहीं की जा सकती। गृह एवं नगर आदि सभीकी प्राप्तिमें
पुरुष ही कारण है। विद्वान पुरुष पहले बुद्धिद्वारा यह निश्चय करे कि तिलमें तेल है, गायके
भीतर दूध है और काषप्ठमें अग्नि है, तत्पश्चात् उसकी सिद्धिके उपायका निश्चय
करे ।। २६-२७ ।।
ततः प्रवर्तते पश्चात् कारणैस्तस्य सिद्धये ।
तां सिद्धिमुपजीवन्ति कर्मजामिह जन्तवः ।। २८ ।।
तदनन्तर उन्हीं उपायोंद्वारा उस कार्यकी सिद्धिके लिये प्रवृत्त होना चाहिये। सभी प्राणी
इस जगतमें उस कर्मजनित सिद्धिका सहारा लेते हैं | २८ ।।
कुशलेन कृतं कर्म कर्त्रा साधु स्वनुछ्ितम् ।
इदं त्वकुशलेनेति विशेषादुपलभ्यते ।। २९ ।।
योग्य कर्ताके द्वारा किया गया कर्म अच्छे ढंगसे सम्पादित होता है। यह कार्य किसी
अयोग्य कततकि द्वारा किया गया है, यह बात कार्यकी विशेषतासे अर्थात् परिणामसे जानी
जाती है | २९ |।
इष्टापूर्तफलं न स्यान्न शिष्यो न गुरुर्भवेत् ।
पुरुष: कर्मसाध्येषु स्याच्चेदयमकारणम् ।। ३० ।।
यदि कर्मसाध्य फलोंमें पुरुष (एवं उसका प्रयत्न) कारण न होता अर्थात् वह कर्ता नहीं
बनता तो किसीको यज्ञ और कूपनिर्माण आदि कर्मोंका फल नहीं मिलता। फिर तो न कोई
किसीका शिष्य होता और न गुरु ही ।। ३० ।।
कर्तृत्वादेव पुरुष: कर्मसिद्धौ प्रशस्यते ।
असिद्धौ निन्द्यते चापि कर्मनाशात् कथं त्विह ।। ३१ ।।
कर्ता होनेके कारण ही कार्यकी सिद्धिमें पुरुषकी प्रशंसा की जाती है और जब कार्यकी
सिद्धि नहीं होती, तब उसकी निन्दा की जाती है। यदि कर्मका सर्वथा नाश ही हो जाय, तो
यहाँ कार्यकी सिद्धि ही कैसे हो ।। ३१ ।।
सर्वमेव हठेनैके दैवेनैके वदन्त्युत ।
पुंस: प्रयत्नजं केचित्त्रैधमेतन्निरुच्यते || ३२ ।।
कोई तो सब कार्योंको हठसे ही सिद्ध होनेवाला बतलाते हैं। कुछ लोग दैवसे कार्यकी
सिद्धिका प्रतिपादन करते हैं तथा कुछ लोग पुरुषार्थको ही कार्यसिद्धिका कारण बताते हैं।
इस तरह ये तीन प्रकारके कारण बताये जाते हैं ।। ३२ ।।
न चैवैतावता कार्य मन्यन्त इति चापरे |
अस्ति सर्वमदृश्यं तु दिष्टं चैव तथा हठ: ।। ३३ ।।
दूसरे लोगोंकी मान्यता इस प्रकार है कि मनुष्यके प्रयत्नकी कोई आवश्यकता नहीं है।
अदृश्य दैव (प्रारब्ध) तथा हठ--ये दो ही सब कार्योंके कारण हैं ।। ३३ ।।
दृश्यते हि हठाच्चैव दिष्टाच्चार्थस्य संतति: ।
किंचिद् दैवाद्धठात् किंचित् किंचिदेव स्वभावत: ।। ३४ ।।
पुरुष: फलमाप्रोति चतुर्थ नात्र कारणम् |
कुशला: प्रतिजानन्ति ये वै तत्त्वविदो जना: ।। ३५ ।।
क्योंकि यह देखा जाता है कि हठ तथा दैवसे सब कार्योकी धारावाहिक रूपसे सिद्धि
हो रही है। जो लोग तत्त्वज्ञ एवं कुशल हैं, वे प्रतिज्ञापूर्वक कहते हैं कि मनुष्य कुछ फल
दैवसे, कुछ हठसे और कुछ स्वभावसे प्राप्त करता है। इस विषयमें इन तीनोंके सिवा कोई
चौथा कारण नहीं है ।। ३४-३५ ।।
तथैव धाता भूतानामिष्टानिष्टफलप्रद: ।
यदि न स्यान्न भूतानां कृषपणो नाम कश्नन ॥। ३६ ।।
क्योंकि यदि ईश्वर सब प्राणियोंको इष्ट-अनिष्टरूप फल नहीं देते तो उन प्राणियोंमेंसे
कोई भी दीन नहीं होता || ३६ ।।
य॑ यमर्थमभिप्रेप्सु: कुरुते कर्म पूरुष: ।
तत्तत् सफलमेव स्याद् यदि न स्यात् पुरा कृतम् ।। ३७ ।।
यदि पूर्वकृत प्रारब्धकर्म प्रभाव डालनेवाला न होता तो मनुष्य जिस-जिस प्रयोजनके
अभिप्रायसे कर्म करता, वह सब सफल ही हो जाता ।। ३७ ।।
त्रिद्वारामर्थसिद्धि तु नानुपश्यन्ति ये नरा: ।
तथैवानर्थसिद्धिं च यथा लोकास्तथैव ते ।। ३८ ।।
अत: जो लोग अर्थसिद्धि तथा अनर्थकी प्राप्तिमें देव, हठ और स्वभाव--इन तीनोंको
कारण नहीं समझते, वे वैसे ही हैं, जैसे कि साधारण अज्ञ लोग होते हैं ।। ३८ ।।
कर्तव्यमेव कर्मेति मनोरेष विनिश्चय: ।
एकान्तेन हानीहो5यं पराभवति पूरुष: ।। ३९ ।।
किंतु मनुका यह सिद्धान्त है कि कर्म करना ही चाहिये, जो बिलकुल कर्म छोड़कर
निश्वेष्ट हो बैठ रहता है, वह पुरुष पराभवको प्राप्त होता है || ३९ ।।
कुर्वतों हि भवत्येव प्रायेणेह युधिष्ठिर ।
एकान्तफलसिद्धि तु न विन्दत्यलस: क्वचित् ।। ४० ।।
(इसलिये मेरा तो कहना यह है कि) महाराज युधिष्ठिर! कर्म करनेवाले पुरुषको यहाँ
प्राय: फलकी सिद्धि प्राप्त होती ही है। परंतु जो आलसी है, जिससे ठीक-ठीक कर्तव्यका
पालन नहीं हो पाता, उसे कभी फलकी सिद्धि नहीं प्राप्त होती || ४० ।।
असम्भवे त्वस्य हेतु: प्रायश्ित्तं तु लक्षयेत् |
कृते कर्मणि राजेन्द्र तथानृण्यमवाप्नुते || ४१ ।।
यदि कर्म करनेपर भी फलकी उत्पत्ति न हो तो कोई-न-कोई कारण है; ऐसा मानकर
प्रायश्चित्त (उसके दोषके समाधान)-पर दृष्टि डाले। राजेन्द्र! कर्मको सांगोपांग कर लेनेपर
कर्ता उऋण (निर्दोष) हो जाता है ।। ४१ ।।
अलक्ष्मीराविशत्येने शयानमलसं नरम् |
नि:संशयं फल॑ लब्ध्वा दक्षो भूतिमुपाश्ुुते || ४२ ।।
जो मनुष्य आलस्यके वशमें पड़कर सोता रहता है, उसे दरिद्रता प्राप्त होती है और
कार्यकुशल मानव निश्चय ही अभीष्ट फल पाकर ऐश्वर्यका उपभोग करता है ।। ४२ ।।
अनर्था: संशयावस्था: सिद्धयन्ते मुक्तसंशया: ।
धीरा नरा: कर्मरता ननु नि:संशया: क्वचित् ।। ४३ ।।
कर्मका फल होगा या नहीं, इस संशयमें पड़े हुए मनुष्य अर्थसिद्धिसे वंचित रह जाते हैं
और जो संशयरहित हैं, उन्हें सिद्धि प्राप्त होती है। कर्मपरायण और संशयरहित धीर मनुष्य
निश्चय ही कहीं बिरले देखे जाते हैं || ४३ ।।
एकान्तेन हाानर्थो<यं वर्तते5स्मासु साम्प्रतम् ।
स तु नि:संशयं न स्यात् त्वयि कर्मण्यवस्थिते ।। ४४ ।।
इस समय हमलोगोंपर राज्यापहरणरूप भारी विपद् आ पड़ी है, यदि आप कर्म
(पुरुषार्थ)-में तत्परतासे लग जाय॑ँ तो निश्चय ही यह आपत्ति टल सकती है ।। ४४ ।।
अथवा सिद्धिरेव स्यादभिमानं तदेव ते ।
वृकोदरस्य बीभत्सोर्भ्रोत्रोश्न यमयोरपि ।। ४५ ।।
अथवा यदि कार्यकी सिद्धि ही हो जाय, तो वह आपके, भीमसेन और अर्जुनके तथा
नकुल-सहदेवके लिये भी विशेष गौरवकी बात होगी ।। ४५ ।।
अन्येषां कर्म सफलमस्माकमपि वा पुन: ।
विप्रकर्षेण बुध्येत कृतकर्मा यथाफलम् ।। ४६ ।।
कर्मोके कर लेनेपर अन्तमें कर्ताको जैसा फल मिलता है, उसके अनुसार ही यह जाना
जा सकता है कि दूसरोंका कर्म सफल हुआ है या हमारा || ४६ ।।
पृथिवीं लाड्रलेनेह भित्त्वा बीज॑ वपत्युत ।
आस्ते<थ कर्षकस्तूष्णीं पर्जन्यस्तत्र कारणम् | ४७ ।।
वृष्टिश्रेन्नानुगृह्लीयादनेनास्तत्र कर्षक: ।
यदन्य: पुरुष: कुर्यात् तत् कृतं सफलं मया ।। ४८ ।।
तच्चेदं फलमस्माकमपराधो न मे क्वचित् |
इति धीरो<न्ववेक्ष्यैव नात्मानं तत्र गरहयेत् ।। ४९ ।।
किसान हलसे पृथ्वीको चीरकर उसमें बीज बोता है और फिर चुपचाप बैठा रहता है;
क्योंकि उसे सफल बनानेमें मेघ कारण हैं। यदि वृष्टिने अनुग्रह नहीं किया तो उसमें
किसानका कोई दोष नहीं है। वह किसान मन-ही-मन यह सोचता है कि दूसरे लोग जोतने-
बोनेका जो सफल कार्य जैसे करते हैं, वह सब मैंने भी किया है। उस दशामें यदि मुझे ऐसा
प्रतिकूल फल मिला तो इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है--ऐसा विचार करके उस
असफलताके लिये वह बुद्धिमान् किसान अपनी निन्दा नहीं करता ।। ४७--४९ ।।
कुर्वतो नार्थसिद्धिर्मे भवतीति ह भारत ।
निर्वेदो नात्र कर्तव्यो द्वावन्यौ हात्र कारणम् ।। ५० |।
भारत! पुरुषार्थ करनेपर भी यदि अपनेको सिद्धि न प्राप्त हो तो इस बातको लेकर
मन-ही-मन खिन्न नहीं होना चाहिये; क्योंकि फलकी सिद्धिमें पुरुषार्थके सिवा दो और भी
कारण हैं--प्रारब्ध और ईश्वरकृपा || ५० ।।
सिद्धिर्वाप्पथवासिद्धिरप्रवृत्तिरतोडन्यथा ।
बहूनां समवाये हि भावानां कर्म सिद्धाति ।। ५१ ।।
महाराज! कार्यमें सिद्धि प्राप्त होगी या असिद्धि, ऐसा संदेह मनमें लेकर आप कर्ममें
प्रवृत्त ही न हों, यह उचित नहीं है; क्योंकि बहुत-से कारण एकत्र होनेपर ही कर्ममें सफलता
मिलती है || ५१ ।।
गुणाभावे फल न्यूनं भवत्यफलमेव च ।
अनारम्भे हि न फलं न गुणो दृश्यते क्वचित् ।। ५२ ।।
कर्मोमें किसी अंगकी कमी रह जानेपर थोड़ा फल हो सकता है। यह भी सम्भव है कि
फल हो ही नहीं। परंतु कर्मका आरम्भ ही न किया जाय तब तो न कहीं फल दिखायी देगा
और न कर्ताका कोई गुण (शौर्य आदि) ही दृष्टिगोचर होगा ।। ५२ ।।
देशकालावुपायांश्व मड्लं स्वस्तिवृद्धये ।
युनक्ति मेधया धीरो यथाशक्ति यथाबलम् ।। ५३ ।।
धीर मनुष्य मंगलमय कल्याणकी वृद्धिके लिये अपनी बुद्धिके द्वारा शक्ति तथा बलका
विचार करते हुए देश-कालके अनुसार साम-दाम आदि उपायोंका प्रयोग करे ।। ५३ ।।
अप्रमत्तेन तत् कार्यमुपदेष्टा पराक्रम: ।
भूयिष्ठं कर्मयोगेषु दृष्ट एव पराक्रम: ।। ५४ ।।
सावधान होकर देश-कालके अनुरूप कार्य करे। इसमें पराक्रम ही उपदेशक (प्रधान)
है। कार्यकी समस्त युक्तियोंमें पराक्रम ही सबसे श्रेष्ठ समझा गया है ।। ५४ ।।
यत्र धीमानवेक्षेत श्रेयांसं बहुभिगुणै: ।
साम्नैवार्थ ततो लिप्सेत् कर्म चास्मै प्रयोजयेत् ।। ५५ ।।
जहाँ बुद्धिमान् पुरुष शत्रुको अनेक गुणोंसे श्रेष्ठ देखे, वहाँ सामनीतिसे ही काम
बनानेकी इच्छा करे और उसके लिये जो सन्धि आदि आवश्यक कर्तव्य हो, करे ।। ५५ ।।
व्यसन वास्य काड्क्षेत विवासं वा युधिष्ठिर ।
अपि सिन्धोगिरिर्वापि किं पुनर्मर्त्यधर्मिण: ।। ५६ ।।
महाराज युधिष्ठिर! अथवा शत्रुपर कोई भारी संकट आने या देशसे उसके निकाले
जानेकी प्रतीक्षा करे; क्योंकि अपना विरोधी यदि समुद्र अथवा पर्वत हो तो उसपर भी
विपत्ति लानेकी इच्छा रखनी चाहिये, फिर जो मरणधर्मा मनुष्य है, उसके लिये तो कहना
ही क्या है? ।। ५६ ||
उत्थानयुक्त: सततं परेषामन्तरैषणे ।
आनृण्यमाप्रोति नर: परस्यात्मन एव च ।। ५७ ।।
शत्रुओंके छिद्रका अन्वेषण करनेके लिये सदा प्रयत्नशील रहे। ऐसा करनेसे वह अपनी
और दूसरे लोगोंकी दृष्टिमें भी निर्दोष होता है ।। ५७ ।।
न त्वेवात्मावमन्तव्य: पुरुषेण कदाचन ।
न हाात्मपरिभूतस्य भूतिर्भवति शोभना ।। ५८ ।।
मनुष्य कभी अपने-आपका अनादर न करे--अपने-आपको छोटा न समझे। जो स्वयं
ही अपना अनादर करता है, उसे उत्तम ऐश्वर्यकी प्राप्ति नहीं होती || ५८ ।।
एवं संस्थितिका सिद्धिरियं लोकस्य भारत |
तत्र सिद्धिर्गति: प्रोक्ता कालावस्थाविभागत: ।। ५९ ||
भारत! लोकको इसी प्रकार कार्यसिद्धि प्राप्त होती है--कार्यसिद्धिकी यही व्यवस्था
है। काल और अवस्थाके विभागके अनुसार शत्रुकी दुर्बलताके अन्वेषणका प्रयत्न ही
सिद्धिका मूल कारण है ।। ५९ |।
ब्राह्म॒णं मे पिता पूर्व वासयामास पण्डितम् ।
सो<पि सर्वामिमां प्राह पित्रे मे भरतर्षभ ।। ६० ।।
नीतिं बृहस्पतिप्रोक्तां भ्रातृन् मे5ग्राहयत् पुरा ।
तेषां सकाशादश्रौषमहमेतां तदा गृहे ।। ६१ ।।
भरतमश्रेष्ठ! पूर्वकालमें मेरे पिताजीने अपने घरपर एक दविद्दान् ब्राह्मणको ठहराया था।
उन्होंने ही पिताजीसे बृहस्पतिजीकी बतायी हुई इस सम्पूर्ण नीतिका प्रतिपादन किया था
और मेरे भाइयोंको भी इसीकी शिक्षा दी थी। उस समय अपने भाइयोंके निकट रहकर घरमें
ही मैंने भी उस नीतिको सुना था || ६०-६१ ।।
स मां राजन् कर्मवतीमागतामाह सान्त्वयन् ।
शुश्रूषमाणामासीनां पितुरड्के युधिछ्िर ।। ६२ ।।
महाराज युधिष्ठिर! मैं उस समय किसी कार्यसे पिताके पास आयी थी और यह सब
सुननेकी इच्छासे उनकी गोदमें बैठ गयी थी। तभी उन ब्राह्मण देवताने मुझे सान्त्वना देते
हुए इस नीतिका उपदेश किया था ।। ६२ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि द्रौपदीवाक्ये द्वात्रिंशो5ध्याय: ।।
३२ ||
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अजुनाभिगमनपर्वमें द्रौपदीवाक्यविषयक
बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ३२ ॥
#:73:.7 #::3-...7 (0) हि २ 7
त्रयस्त्रिंशो5 ध्याय:
भीमसेनका पुरुषार्थकी प्रशंसा करना और युधिष्ठिरको
उत्तेजित करते हुए क्षत्रिय-धर्मके अनुसार युद्ध छेड़नेका
अनुरोध
वैशम्पायन उवाच
याज्ञसेन्या वच: श्रुत्वा भीमसेनो हामर्षण: ।
निःश्वसन्नुपसंगम्य क्रुद्धो राजानमब्रवीत् ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! ट्रपदकुमारीका वचन सुनकर अमर्षमें भरे हुए
भीमसेन क्रोधपूर्वक उच्छवास लेते हुए राजाके पास आये और इस प्रकार कहने लगे
-- || १ ||
राज्यस्य पदवीं धर्म्या ब्रज सत्पुरुषोचिताम् |
धर्मकामार्थहीनानां कि नो वस्तुं तपोवने ।। २ ।।
“महाराज! श्रेष्ठ पुरुषोंके लिये उचित और धर्मके अनुकूल जो राज्य-प्राप्तिका मार्ग
(उपाय) हो, उसका आश्रय लीजिये। धर्म, अर्थ और काम--इन तीनोंसे वंचित होकर इस
तपोवनमें निवास करनेपर हमारा कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होगा ।। २ ।।
नैव धर्मेण तद् राज्यं नार्जवेन न चौजसा |
अक्षकूटमधिष्ठाय हतं दुर्योधनेन वै ।। ३ ।।
“दुर्योधनने धर्मसे, सरलतासे और बलसे भी हमारे राज्यको नहीं लिया है; उसने तो
कपटपूर्ण जूएका आश्रय लेकर उसका हरण कर लिया है ।। ३ ।।
गोमायुनेव सिंहानां दुर्बलेन बलीयसाम् ।
आमिषं विघसाशेन तद्वद् राज्यं हि नो हृतम् ।। ४ ।।
“बचे हुए अन्नको खानेवाले दुर्बल गीदड़ जैसे अत्यन्त बलिष्ठ सिंहोंका भोजन हर लें,
उसी प्रकार शत्रुओंने हमारे राज्यका अपहरण किया है ।। ४ ।।
धर्मलेशप्रतिच्छन्न: प्रभवं धर्मकामयो: ।
अर्थमुत्सृज्य कि राजन् दुःखेषु परितप्यसे ।। ५ ।।
“महाराज! धर्म और कामके उत्पादक राज्य और धनको खोकर लेशमात्र धर्मसे आवृत
हुए अब आप क्यों दुःखसे संतप्त हो रहे हैं? ।। ५ ।।
भवतो5नवधानेन राज्यं न: पश्यतां हृतम् |
अहार्यमपि शक्रेण गुप्तं गाण्डीवधन्चना ।। ६ ।।
“गाण्डीवधारी अर्जुनके द्वारा सुरक्षित हमारे राज्यको इन्द्र भी नहीं छीन सकते थे, परंतु
आपकी असावधानीसे वह हमारे देखते-देखते छिन गया ।। ६ ।।
कुणीनामिव बिल्वानि पड्गूनामिव धेनव: ।
ह्ृतमैश्वर्यमस्माकं जीवतां भवत:ः कृते ॥। ७ ।।
'जैसे लूलोंके पाससे उनके बेलफल और पंगुओंके निकटसे उनकी गायें छिन जाती हैं
और वे जीवित रहकर भी कुछ कर नहीं पाते, उसी प्रकार आपके कारण जीते-जी हमारे
राज्यका अपहरण कर लिया गया ।। ७ ।।
भवत: प्रियमित्येवं महद् व्यसनमीदृशम् ।
धर्मकामे प्रतीतस्य प्रतिपन्ना: सम भारत ।। ८ ।।
भारत! आप धर्मकी इच्छा रखनेवाले हैं; इस रूपमें आपकी प्रसिद्धि है। अतः आपकी
प्रिय अभिलाषा सिद्ध हो, इसीलिये हमलोग ऐसे महान् संकटमें पड़ गये हैं |। ८ ।।
कर्शयाम: स्वमित्राणि नन्दयामश्न शात्रवान् ।
आत्मानं भवतां शास्त्रैर्नियम्य भरतर्षभ ।। ९ ।।
“भरतकुलभूषण! आपके शासनसे अपने-आपको नियन्त्रणमें रखकर आज हमलोग
अपने मित्रोंको दुःखी और शत्रुओंको सुखी बना रहे हैं ।। ९ ।।
यद् वयं न तदैवैतान् धार्तराष्ट्रानू निहन्महि ।
भवत: शास्त्रमादाय तन्नस्तपति दुष्कृतम् ।। १० ।।
“आपके शासनको मानकर जो हमलोगोंने उसी समय इन धृतराष्ट्रपुत्रोंकी मार नहीं
डाला, वह दुष्कर्म हमें आज भी संताप दे रहा है || १० ।।
अथैनामन्ववेक्षस्व मृगचर्यामिवात्मन: ।
दुर्बलाचरितां राजन् न बलस्थैनिषिविताम् ।। ११ ।।
“राजन! मृगोंके समान अपनी इस वनचर्यापर ही दृष्टिपात कीजिये। दुर्बल मनुष्य ही
इस प्रकार वनमें रहकर समय बिताते हैं। बलवान् मनुष्य वनवासका सेवन नहीं
करते ।। ११ ।।
यां न कृष्णो न बीभत्सुर्नाभिमन्युर्न सूंजया: ।
न चाहमभिनन्दामि न च माद्रीसुतावुभौ ।। १२ ।।
“श्रीकृष्ण, अर्जुन, अभिमन्यु, सूंजयवंशी वीर, मैं और ये नकुल-सहदेव--कोई भी इस
वनचर्याको पसंद नहीं करते ।। १२ ।।
भवान् धर्मो धर्म इति सततं व्रतकर्शित: ।
कच्चिद् राजन न निर्वेदादापन्न: क्लीबजीविकाम् ।। १३ ।।
“राजन! आप “यह धर्म है, यह धर्म है', ऐसा कहकर सदा व्रतोंका पालन करके कष्ट
उठाते रहते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि आप वैराग्यके कारण साहसशून्य हो नपुंसकोंका-
सा जीवन व्यतीत करने लगे हों? ।। १३ ।।
दुर्मनुष्या हि निर्वेदमफलं स्वार्थधातकम् |
अशक्ता: श्रियमाहर्तुमात्मन: कुर्वते प्रियम् ।। १४ ।।
“अपनी खोयी हुई राज्यलक्ष्मीका उद्धार करनेमें असमर्थ दुर्बल मनुष्य ही निष्फल और
स्वार्थनाशक वैराग्यका आश्रय लेते हैं और उसीको प्रिय मानते हैं ।। १४ ।।
स भवान् दृष्टिमाछछक्त: पश्यन्नस्मासु पौरुषम् |
आनृशंस्यपरो राजन् नानर्थमवबुध्यसे | १५ ।।
“राजन! आप समझदार, दूरदर्शी और शक्तिशाली हैं, हमारे पुरुषार्थको देख चुके हैं;
तो भी इस प्रकार दयाको अपनाकर इससे होनेवाले अनर्थको नहीं समझ रहे हैं || १५ ।।
अस्मानमी धार्तराष्ट्रा: क्षममाणानलं सतः ।
अशक्तानिव मन्यन्ते तद् दुःखं नाहवे वध: ।। १६ ।।
“हम शत्रुओंके अपराधको क्षमा करते जा रहे हैं, इसलिये समर्थ होते हुए भी हमें ये
धृतराष्ट्रके पुत्र निर्बल-से मानने लगे हैं, यही हमारे लिये महान् दुःख है; युद्धमें मारा जाना
कोई दुःख नहीं है ।। १६ ।।
तत्र चेद् युध्यमानानामजिह्यमनिवर्तिनाम् |
सर्वशो हि वध: श्रेयान् प्रेत्मय लोकान् लभेमहि ।। १७ ।।
“ऐसी दशामें यदि हम पीठ न दिखाकर युद्धमें निष्कपटभावसे लड़ते रहें और उसमें
हमारा वध भी हो जाय तो वह कल्याणकारक है; क्योंकि युद्धमें मरनेसे हमें उत्तम लोकोंकी
प्राप्ति होगी || १७ ।।
अथवा वयमेवैतान् निहत्य भरतर्षभ ।
आददीमटहि गां सर्वा तथापि श्रेय एव न: ।। १८ ।।
“अथवा भरतश्रेष्ठ! यदि हम ही इन शत्रुओंको मारकर सारी पृथ्वी ले लें तो वही हमारे
लिये कल्याणकर है ।। १८ ।।
सर्वथा कार्यमेतन्न: स्वधर्ममनुतिष्ठताम् ।
काडुक्षतां विपुलां कीर्ति वैरं प्रतिचिकीर्षताम् ।। १९ ।।
“हम अपने क्षत्रिय-धर्मके अनुष्ठानमें संलग्न हो वैरका बदला लेना चाहते हैं और
संसारमें महान् यशका विस्तार करनेकी अभिलाषा रखते हैं, अतः हमारे लिये सब प्रकारसे
युद्ध करना ही उचित है ।। १९ |।
आत्मार्थ युध्यमानानां विदिते कृत्यलक्षणे |
अन्यैरपि हूते राज्ये प्रशंसैव न गर्हणा ।। २० ।।
'शत्रुओंने हमारे राज्यको छीन लिया है, ऐसे अवसरपर यदि हम अपने कर्तव्यको
समझकर अपने लाभके लिये ही युद्ध करें तो भी इसके लिये जगत्में हमारी प्रशंसा ही
होगी, निन््दा नहीं होगी || २० ।।
कर्शनार्थोीं हि यो धर्मो मित्राणामात्मनस्तथा ।
व्यसनं नाम तद् राजन् न धर्म: स कुधर्म तत् ।। २१ ।।
“महाराज! जो धर्म अपने तथा मित्रोंके लिये क्लेश उत्पन्न करनेवाला हो, वह तो संकट
ही है। वह धर्म नहीं, कुधर्म है । २१ ।।
सर्वथा धर्मनित्यं तु पुरुष धर्मदुर्बलम्
त्यजतस्तात धर्मार्थो प्रेत दुःखसुखे यथा ।। २२ ।।
“तात! जैसे मुर्दोकी दुःख और सुख दोनों नहीं होते, उसी प्रकार जो सर्वथा और सर्वदा
धर्ममें ही तत्पर रहकर उसके अनुष्ठानसे दुर्बल हो गया है, उसे धर्म और अर्थ दोनों त्याग देते
हैं ।। २२ ।।
यस्य धर्मो हि धर्मार्थ क्लेशभाड़ू न स पण्डित: ।
न स धर्मस्य वेदार्थ सूर्यस्यान्ध: प्रभामिव | २३ ।।
जिसका धर्म केवल धर्मके लिये ही होता है, वह धर्मके नामपर केवल क्लेश
उठानेवाला मानव बुद्धिमान नहीं है। जैसे अन्धा सूर्यकी प्रभाको नहीं जानता, उसी प्रकार
वह धर्मके अर्थको नहीं समझता है ।। २३ ।।
यस्य चार्थार्थमेवार्थ: स च नार्थस्य कोविद: ।
रक्षेत भूतको5रण्ये यथा गास्तादूगेव सः ।। २४ ।।
“जिसका धन केवल धनके ही लिये है, दान आदिके लिये नहीं है, वह धनके तत्त्वको
नहीं जानता। जैसे सेवक (ग्वालिया) वनमें गौओंकी रक्षा करता है, उसी प्रकार वह भी उस
धनका दूसरेके लिये रक्षकमात्र है ।। २४ ।।
अतिवेलं हि योर्दशर्थार्थी नेतरावनुतिष्ठति ।
स वध्य: सर्वभूतानां ब्रह्म॒हेव जुगुप्सित: ।। २५ ।।
'जो केवल अर्थके ही संग्रहकी अत्यन्त इच्छा रखनेवाला है और धर्म एवं कामका
अनुष्ठान नहीं करता है, वह ब्रह्महत्यारेके समान घृणाका पात्र है और सभी प्राणियोंके लिये
वध्य है ।। २५ ।।
सतत यश्च कामार्थी नेतरावनुतिष्ठति ।
मित्राणि तस्य नश्यन्ति धर्मार्थभ्यां च हीयते ।। २६ ।।
“इसी प्रकार जो निरन्तर कामकी ही अभिलाषा रखकर धर्म और अर्थका सम्पादन
नहीं करता, उसके मित्र नष्ट हो जाते हैं (उसको त्यागकर चल देते हैं) और वह धर्म एवं अर्थ
दोनोंसे वंचित ही रह जाता है ।। २६ ।।
तस्य धर्मार्थहीनस्य कामान्ते निधन ध्रुवम् ।
कामतो रममाणस्य मीनस्येवाम्भस: क्षये ।। २७ ||
“जैसे पानी सूख जानेपर उसमें रहनेवाली मछलीकी मृत्यु निश्चित है, उसी प्रकार जो
धर्म-अर्थसे हीन होकर केवल काममें ही रमण करता है, उस काम (भोगसामग्री)-की
समाप्ति होनेपर उसकी भी अवश्य मृत्यु हो जाती है ।। २७ ।।
तस्माद् धर्मार्थयोर्नित्यं न प्रमाद्यन्ति पण्डिता: ।
प्रकृति: सा हि कामस्य पावकस्यारणिरयथा ॥। २८ ।।
“इसलिये विद्वान् पुरुष कभी धर्म और अर्थके सम्पादनमें प्रमाद नहीं करते हैं। धर्म
और अर्थ कामकी उत्पक्तिके स्थान हैं (अर्थात् धर्म और अर्थसे ही कामकी सिद्धि होती है)
जैसे अरणि अग्निका उत्पत्तिस्थान है || २८ ।।
सर्वथा धर्ममूलो<र्थों धर्मश्चार्थपरिग्रह: ।
इतरेतरयोर्नीतौ विद्धि मेघोदधी यथा ।। २९ ।।
“अर्थका कारण है धर्म और धर्म सिद्ध होता है अर्थसंग्रहसे। जैसे मेघसे समुद्रकी पुष्टि
होती है और समुद्रसे मेघकी पूर्ति। इस प्रकार धर्म और अर्थको एक-दूसरेके आश्रित
समझना चाहिये ।। २९ ।।
द्रव्यार्थस्पर्शसंयोगे या प्रीतिरुपजायते ।
स कामश्रित्तसंकल्प: शरीरं नास्य दृश्यते ।। ३० ।।
स्त्री, माला, चन्दन आदि द्रव्योंके स्पर्श और सुवर्ण आदि धनके लाभसे जो प्रसन्नता
होती है, उसके लिये जो चित्तमें संकल्प उठता है, उसीका नाम काम है। उस कामका शरीर
नहीं देखा जाता (इसीलिये वह “अनंग” कहलाता है) ।। ३० ।।
अर्थार्थी पुरुषो राजन् बृहन्तं धर्ममिच्छति ।
अर्थमिच्छति कामार्थी न कामादन्यमिच्छति ।। ३१ ।।
“राजन! धनकी इच्छा रखनेवाला पुरुष महान् धर्मकी अभिलाषा रखता है और
कामार्थी मनुष्य धन चाहता है। जैसे धर्मसे धनकी और धनसे कामकी इच्छा करता है, उस
प्रकार वह कामसे किसी दूसरी वस्तुकी इच्छा नहीं करता है ।। ३१ ।।
न हि कामेन कामोअनन््य: साध्यते फलमेव तत् ।
उपयोगात् फलस्यैव काष्ठाद् भस्मेव पण्डितै: ।। ३२ ।।
“जैसे फल उपभोगमें आकर कृतार्थ हो जाता है, उससे दूसरा फल नहीं प्राप्त हो
सकता तथा जिस प्रकार काष्ठसे भस्म बन सकता है, परंतु उस भस्मसे दूसरा कोई पदार्थ
नहीं बन सकता; इसी तरह बुद्धिमान् पुरुष एक कामसे किसी दूसरे कामकी सिद्धि नहीं
मानते, क्योंकि वह साधन नहीं, फल ही है || ३२ ।।
इमाञ्छकुनकान् राजन् हन्ति वैतंसिको यथा ।
एतद् रूपमधर्मस्य भूतेषु हि विहिंसता ।। ३३ ।।
कामाल्लोभाच्च धर्मस्य प्रकृतिं यो न पश्यति ।
स वध्य: सर्वभूतानां प्रेत्य चेह च दुर्मति: ।। ३४ ।।
'राजन्! जैसे पक्षियोंको मारनेवाला व्याध इन पक्षियोंकों मारता है, यह विशेष
प्रकारकी हिंसा ही अधर्मका स्वरूप है (अत: वह हिंसक सबके लिये वध्य है)। वैसे ही जो
खोटी बुद्धिवाला मनुष्य काम और लोभके वशीभूत होकर धर्मके स्वरूपको नहीं जानता,
वह इहलोक और परलोकमें भी सब प्राणियोंका वध्य होता है || ३३-३४ ।।
व्यक्त ते विदितो राजन्नर्थों द्रव्यपरिग्रह: ।
प्रकृतिं चापि वेत्थास्य विकृतिं चापि भूयसीम् ।। ३५ ।।
“राजन! आपको यह अच्छी तरह ज्ञात है कि धनसे ही भोग्य-सामग्रीका संग्रह होता है।
धनका जो कारण है, उससे भी आप परिचित हैं और धनके द्वारा जो बहुत-से कार्य सिद्ध
होते हैं, उसे भी आप जानते हैं ।। ३५ ।।
तस्य नाशे विनाशे वा जरया मरणेन वा ।
अनर्थ इति मन्यन्ते सो5यमस्मासु वर्तते || ३६ ।।
“उस धनका अभाव होनेपर अथवा प्राप्त हुए धनका नाश होनेपर अथवा स्त्री आदि
धनके जरा-जीर्ण एवं मृत्युग्रस्त होनेपर मनुष्यकी जो दशा होती है, उसीको सब लोग अनर्थ
मानते हैं। वही इस समय हमलोगोंको भी प्राप्त हुआ है ।। ३६ ।।
इन्द्रियाणां च पठचानां मनसो हृदयस्य च ।
विषये वर्तमानानां या प्रीतिरुपजायते ।। ३७ ।।
स काम इति मे बुद्धि: कर्मणां फलमुत्तमम् |
'पाँचों ज्ञानेन्द्रियों, मन और बुद्धिकी अपने विषयोंमें प्रवृत्त होनेके समय जो प्रीति होती
है, वही मेरी समझमें काम है। वह कर्मोका उत्तम फल है || ३७३ ।।
एवमेव पृथग दृष्टवा धर्मार्थोी काममेव च ।। ३८ ।।
न धर्मपर एव स्यान्न चार्थपरमो नर: ।
न कामपरमो वा स्यात् सर्वान् सेवेत सर्वदा ।। ३९ ।।
धर्म पूर्वे धनं मध्ये जघन्ये काममाचरेत् ।
अहन्यनुचरेदेवमेष शास्त्रकृतो विधि: ।। ४० ।।
“इस प्रकार धर्म, अर्थ और काम तीनोंको पृथक्ू-पृथक् समझकर मनुष्य केवल धर्म,
केवल अर्थ अथवा केवल कामके ही सेवनमें तत्पर न रहे। उन सबका सदा इस प्रकार
सेवन करे, जिससे इनमें विरोध न हो। इस विषयमें शास्त्रोंका यह विधान है कि दिनके
पूर्वभागमें धर्मका, दूसरे भागमें अर्थका और अन्तिम भागमें कामका सेवन करे ।। ३८--
४० ||
काम पूर्वे धनं मध्ये जघन्ये धर्ममाचरेत् ।
वयस्यनुचरेदेवमेष शास्त्रकृतो विधि: ।। ४१ ।।
“इसी प्रकार अवस्था-क्रममें शास्त्रका विधान यह है कि आयुके पूर्वभागमें
(युवावस्थामें) कामका, मध्यभाग (प्रौढ़ावस्था)-में धनका तथा अन्तिम भाग (वृद्धावस्था)-में
धर्मका पालन करे ।। ४१ ।।
धर्म चार्थ च काम॑ च यथावद् वदतां वर ।
विभज्य काले कालज्ञ: सर्वान् सेवेत पण्डित: ।। ४२ ।।
“वक्ताओंमें श्रेष्ठ! उचित कालका ज्ञान रखनेवाला विद्दान् पुरुष धर्म, अर्थ और काम
तीनोंका यथावत् विभाग करके उपयुक्त समयपर उन सबका सेवन करे ।। ४२ ।।
मोक्षो वा परमं श्रेय एष राजन् सुखार्थिनाम् |
प्राप्तिवा बुद्धिमास्थाय सोपायां कुरुनन्दन ।। ४३ ।।
तद् वा*<शु क्रियतां राजन प्राप्तिवाप्पधिगम्यताम् ।
जीवितं ह्ातुरस्येव दुःखमन्तरवर्तिन: ।। ४४ ।।
“कुरुनन्दन! निरतिशय सुखकी इच्छा रखनेवाले मुमुक्षुओंके लिये यह मोक्ष ही परम
कल्याणप्रद है। राजन! इसी प्रकार लौकिक सुखकी इच्छावालोंके लिये धर्म, अर्थ,
कामरूप त्रिवर्गकी प्राप्ति ही परम श्रेय है। अतः महाराज! भक्ति और योगसहित ज्ञानका
आश्रय लेकर आप शीघ्र ही या तो मोक्षकी प्राप्ति कर लीजिये अथवा धर्म, अर्थ, कामरूप
त्रिवर्गकी प्राप्तिके उपायका अवलम्बन कीजिये। जो इन दोनोंके बीचमें रहता है, उसका
जीवन तो आर्त मनुष्यके समान दुःखमय ही है ।। ४३-४४ ।।
विदितश्रैव मे धर्म: सततं चरितकश्न ते ।
जानन्तस्त्वयि शंसन्ति सुहृद: कर्मचोदनाम् ।। ४५ ।।
“मुझे मालूम है कि आपने सदा धर्मका ही आचरण किया है, इस बातको जानते हुए
भी आपके हितैषी, सगे-सम्बन्धी आपको (धर्मयुक्त) कर्म एवं पुरुषार्थके लिये ही प्रेरित
करते हैं ।। ४५ ।।
दान॑ यज्ञा: सतां पूजा वेदधारणमार्जवम् |
एष धर्म: परो राजन् बलवान प्रेत्य चेह च || ४६ ।।
“महाराज! इहलोक और परलोकमें भी दान, यज्ञ, संतोंका आदर, वेदोंका स्वाध्याय
और सरलता आदि ही उत्तम एवं प्रबल धर्म माने गये हैं || ४६ ।।
एष नार्थविहीनेन शक््यो राजन् निषेवितुम् ।
अखिलाः: पुरुषव्याप्र गुणा: स्युर्यद्यपीतरे || ४७ ।।
'पुरुषसिंह राजन! यद्यपि मनुष्यमें दूसरे सभी गुण मौजूद हों तो भी यह यज्ञ आदि
रूप धर्म धनहीन पुरुषके द्वारा नहीं सम्पादित किया जा सकता || ४७ |।
धर्ममूलं जगद् राजन् नान्यद् धर्माद् विशिष्यते ।
धर्मश्चार्थेन महता शक्यो राजन् निषेवितुम् ।। ४८ ।।
“महाराज! इस जगत्का मूल कारण धर्म ही है। इस जगतमें धर्मसे बढ़कर दूसरी कोई
वस्तु नहीं है। उस धर्मका अनुष्ठान भी महान् धनसे ही हो सकता है ।। ४८ ।।
नचार्थों भैक्ष्यचर्येण नापि क्लैब्येन कह्िचित् ।
वेत्तुं शक्य: सदा राजन् केवल धर्मबुद्धिना ।। ४९ ।।
“राजन्! भीख माँगनेसे, कायरता दिखानेसे अथवा केवल धर्ममें ही मन लगाये रहनेसे
धनकी प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती ।। ४९ ।।
प्रतिषिद्धा हि ते याच्ञा यया सिद्धयति वै द्विज: ।
तेजसैवार्थलिप्सायां यतस्व पुरुषर्षभ ।। ५० ।।
“नरश्रेष्ठ! ब्राह्मण जिस याचनाके द्वारा कार्यसिद्धि कर लेता है वह तो आप कर नहीं
सकते, क्योंकि क्षत्रियके लिये उसका निषेध है। अत: आप अपने तेजके द्वारा ही धन
पानेका प्रयत्न कीजिये || ५० ।।
भैक्ष्यचर्या न विहिता न च विट्शूद्रजीविका ।
क्षत्रियस्य विशेषेण धर्मस्तु बलमौरसम् || ५१ ।।
'क्षत्रियके लिये न तो भीख माँगनेका विधान है और न वैश्य और शूद्रकी जीविका
करनेका ही। उसके लिये तो बल और उत्साह ही विशेष धर्म हैं ।। ५१ ।।
स्वथधर्म प्रतिपद्यस्व जहि शत्रून् समागतान् ।
धार्तराष्ट्रमवनं पार्थ मया पार्थेन नाशय ।। ५२ ||
'पार्थ! अपने धर्मका आश्रय लीजिये, प्राप्त हुए शत्रुओंका वध कीजिये। मेरे तथा
अर्जुनके द्वारा धृतराष्ट्रपुत्ररूपी जंगलको कटवा डालिये ।। ५२ ।।
उदारमेव विद्वांसो धर्म प्राहुर्मनीषिण: ।
उदारं प्रतिपद्यस्व नावरे स्थातुमहसि ।। ५३ ।।
“मनीषी विद्वान् दानशीलताको ही धर्म कहते हैं, अतः आप उस दानशीलताको ही
प्राप्त कीजिये। आपको इस दयनीय अवस्थामें नहीं रहना चाहिये ।। ५३ ।।
अनुबुध्यस्व राजेन्द्र वेत्थ धर्मान् सनातनात् |
क्रूरकर्माभिजातो$सि यस्मादुद्धिजते जन: ।। ५४ ।।
“महाराज! आप सनातनधर्मोंको जानते हैं, आप कठोर कर्म करनेवाले क्षत्रियकुलमें
उत्पन्न हुए हैं, जिससे सब लोग भयभीत रहते हैं; अतः अपने स्वरूप और कर्तव्यकी ओर
ध्यान दीजिये ।। ५४ ।।
प्रजापालनसम्भूतं फलं तव न गर्हितम् ।
एष ते विहितो राजन् धात्रा धर्म: सनातन: ॥। ५५ ।।
“जब आप राज्य प्राप्त कर लेंगे, उस समय प्रजापालनरूप धर्मसे आपको जिस
पुण्यफलकी प्राप्ति होगी, वह आपके लिये गर्हित नहीं होगा। महाराज! विधाताने आप-
जैसे क्षत्रियका यही सनातनधर्म नियत किया है || ५५ ।।
तस्मादपचित: पार्थ लोके हास्यं गमिष्यसि ।
स्वथर्माद्धि मनुष्याणां चलन न प्रशस्यते ।। ५६ ।।
'पार्थ! उस धर्मसे हीन होनेपर तो संसारमें आप उपहासके पात्र हो जायँगे। मनुष्योंका
अपने धर्मसे भ्रष्ट होना कुछ प्रशंसाकी बात नहीं है ।। ५६ ।।
सक्षात्रं हृदयं कृत्वा त्यक्त्वेद शिथिलं मन: ।
वीर्यमास्थाय कौरव्य धुरमुद्वह धुर्यवत् ।। ५७ ।।
“कुरुनन्दन! अपने हृदयको क्षत्रियोचित उत्साहसे भरकर मनकी इस शिथिलताको दूर
करके पराक्रमका आश्रय ले आप एक धुरन्धर वीर पुरुषकी भाँति युद्धका भार वहन
कीजिये || ५७ ।।
न हि केवलधर्मात्मा पृथिवीं जातु कश्नन |
पार्थिवो व्यजयद् राजन् न भूतिं न पुन: श्रियम् ।। ५८ ।।
“महाराज! केवल धर्ममें ही लगे रहनेवाले किसी भी नरेशने आजतक न तो कभी
पृथ्वीपर विजय पायी है और न ऐश्वर्य तथा लक्ष्मीको ही प्राप्त किया है || ५८ ।।
जिद्नां दत्त्वा बहूनां हि क्षुद्राणां लुब्धचेतसाम् ।
निकृत्या लभते राज्यमाहारमिव शल्यक: ।। ५९ ।।
'जैसे बहेलिया लुब्ध हृदयवाले छोटे-छोटे मृगोंको कुछ खानेकी वस्तुओंका लोभ देकर
छलसे उन्हें पकड़ लेता है, उसी प्रकार नीतिज्ञ राजा शत्रुओंके प्रति कूटनीतिका प्रयोग
करके उनसे राज्यको प्राप्त कर लेता है ।। ५९ ।।
भ्रातर: पूर्वजाताश्न सुसमद्धा श्व सर्वश: ।
निकृत्या निर्जिता देवैरसुरा: पार्थिवर्षभ ।। ६० ।।
“नृपश्रेष्ठ आप जानते हैं कि असुरगण देवताओंके बड़े भाई हैं, उनसे पहले उत्पन्न हुए
हैं और सब प्रकारसे समृद्धिशाली हैं तो भी देवताओंने छलसे उन्हें जीत लिया || ६० ।।
एवं बलवत: सर्वमिति बुद्ध्वा महीपते ।
जहि शत्रून् महाबाहो परां निकृतिमास्थित: ।। ६१ ।।
“महाराज! महाबाहो! इस प्रकार बलवान्का ही सबपर अधिकार होता है, यह
समझकर आप भी कूटनीतिका आश्रय ले अपने शत्रुओंको मार डालिये ।। ६१ ।।
न हार्जुनसम: कश्रिद् युधि योद्धा धनुर्धर: ।
भविता वा पुमान् कश्चिन्मत्समो वा गदाधर: ।। ६२ ।।
'युद्धमें अर्जुनके समान कोई धनुर्धर अथवा मेरे समान गदाधारी योद्धा न तो है और न
आगे होनेकी ही सम्भावना है ।। ६२ ।।
सत्त्वेन कुरुते युद्ध राजन् सुबलवानपि ।
अप्रमादी महोत्साही सत्त्वस्थो भव पाण्डव ।। ६३ ।।
'पाण्डुनन्दन! अत्यन्त बलवान् पुरुष भी आत्मबलसे ही युद्ध करता है, इसलिये आप
सावधानीपूर्वक महान् उत्साह और आत्मबलका आश्रय लीजिये ।। ६३ ।।
सत्त्वं हि मूलमर्थस्य वितथं यदतो5न्यथा ।
नतु प्रसक्त भवति वृक्षच्छायेव हैमनी ।। ६४ ।।
“आत्मबल ही धनका मूल है, इसके विपरीत जो कुछ है, वह मिथ्या है; क्योंकि हेमन्त-
ऋतुमें वृक्षोंकी छायाके समान वह आत्माकी दुर्बलता किसी भी कामकी नहीं है ।। ६४ ।।
अर्थत्यागोडपि कार्य: स्वादर्थ श्रेयांसमिच्छता ।
बीजौपम्येन कौन्तेय मा ते भूदत्र संशय: ।। ६५ ।।
“कुन्तीकुमार! जैसे किसान अधिक अन्नराशि उपजानेकी लालसासे धान्य आदिके
अल्प बीजोंका भूमिमें परित्याग कर देता है, उसी प्रकार श्रेष्ठ अर्थ पानेकी इच्छासे अल्प
अर्थका त्याग किया जा सकता है। आपको इस विषयमें संशय नहीं करना
चाहिये ।। ६५ ।।
अर्थेन तु समो नार्थो यत्र लभ्येत नोदय: ।
न तत्र विपण: कार्य: खरकण्डूयनं हि तत् ।। ६६ ।।
“जहाँ अर्थका उपयोग करनेपर उससे अधिक या समान अर्थकी प्राप्ति न हो वहाँ उस
अर्थको नहीं लगाना चाहिये, क्योंकि वह (परस्पर) गधोंके शरीरको खुजलानेके समान व्यर्थ
है ।। ६६ |।
एवमेव मनुष्येन्द्र धर्म त्यक्त्वाल्पकं नर: ।
बृहन्तं धर्ममाप्रोति स बुद्ध इति निश्चितम् ।। ६७ ।।
“नरेश्वर! इसी प्रकार जो मनुष्य अल्प धर्मका परित्याग करके महान धर्मकी प्राप्ति
करता है, वह निश्चय ही बुद्धिमान है ।। ६७ ।।
अमित्रं मित्रसम्पन्नं मित्रैर्भिन्दन्ति पण्डिता: ।
भिन्नैमित्रै: परित्यक्तं दुर्बल॑ कुर्वते वशम् ।। ६८ ।।
“मित्रोंसे सम्पन्न शत्रुको विद्वान् पुरुष अपने मित्रोंद्वारा भेदनीतिसे उसमें और उसके
मित्रोंमें फ़ूट डाल देते हैं, फिर भेदभाव होनेपर मित्र जब उसको त्याग देते हैं, तब वे उस
दुर्बल शत्रुको अपने वशमें कर लेते हैं || ६८ ।।
सत्त्वेन कुरुते युद्ध राजन् सुबलवानपि ।
नोद्यमेन न होत्राभि: सर्वाः स्वीकुरुते प्रजा: ।। ६९ ।।
“राजन! अत्यन्त बलवान् पुरुष भी आत्मबलसे ही युद्ध करता है, वह किसी अन्य
प्रयत्नसे या प्रशंसाद्वारा सब प्रजाको अपने वशमें नहीं करता ।। ६९ ।।
सर्वथा संहतैरेव दुर्बलैर्बलवानपि ।
अमित्र: शक््यते हन्तुं मधुहा भ्रमरैरिव ।। ७० ।।
'जैसे मधुमक्खियाँ संगठित होकर मधु निकालने-वालेको मार डालती हैं, उसी प्रकार
सर्वथा संगठित रहनेवाले दुर्बल मनुष्योंद्वारा बलवान् शत्रु भी मारा जा सकता है || ७० ।।
यथा राजन् प्रजा: सर्वा: सूर्य: पाति गभस्तिभि: ।
अत्ति चैव तथैव त्वं सदृश: सवितुर्भव || ७१ ||
राजन! जैसे भगवान् सूर्य पृथ्वीके रसको ग्रहण करते और अपनी किरणोंद्वारा वर्षा
करके उन सबकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप भी प्रजाओंसे कर लेकर उनकी रक्षा
करते हुए सूर्यके ही समान हो जाइये || ७१ ।।
एतच्चापि तपो राजन् पुराणमिति न: श्रुतम् ।
विधिना पालन भूमेर्यत् कृतं न: पितामहै: ।। ७२ ।।
'राजेन्द्र! हमारे बाप-दादोंने जो किया है, वह धर्मपूर्वक पृथ्वीका पालन भी
प्राचीनकालसे चला आनेवाला तप ही है; ऐसा हमने सुना है || ७२ ।।
न तथा तपसा राजॉल्लोकान प्राप्रोति क्षत्रिय: ।
यथा सृष्टेन युद्धेन विजयेनेतरेण वा ।। ७३ ।।
“धर्मराज! क्षत्रिय तपस्याके द्वारा वैसे पुण्य-लोकोंको नहीं प्राप्त होता, जिन्हें वह अपने
लिये विहित युद्धके द्वारा विजय अथवा मृत्युको अंगीकार करनेसे प्राप्त करता है || ७३ ।।
अपेयात् किल भा: सूर्याल्लक्ष्मीश्वन्द्रमसस्तथा ।
इति लोको व्यवसितो दृष्टवेमां भवतो व्यथाम् ।। ७४ ।।
“आपपर जो यह संकट आया है, इस असम्भव-सी घटनाको देखकर लोग यह
निश्चयपूर्वक मानने लगे हैं कि सूर्यसे उसकी प्रभा और चन्द्रमासे उसकी चाँदनी भी दूर हो
सकती है || ७४ ।।
भवतत्ष प्रशंसाभिनििन्दाभिरितरस्य च ।
कथायुक्ता: परिषद: पृथग् राजन् समागता: ।। ७५ ।।
“राजन्! साधारण लोग भिन्न-भिन्न सभाओंमें सम्मिलित होकर अथवा अलग-अलग
समूह-के-समूह इकट्ठे होकर आपकी प्रशंसा और दुर्योधनकी निन्दासे ही सम्बन्ध
रखनेवाली बातें करते हैं || ७५ ।।
इदमभ्यधिकं राजन ब्राह्मणा: कुरवश्च ते ।
समेता: कथयन्तीह मुदिता: सत्यसंधताम् ।। ७६ ।।
“महाराज! इसके सिवा, यह भी सुननेमें आया है कि ब्राह्मण और कुरुवंशी एकत्र
होकर बड़ी प्रसन्नताके साथ आपकी सत्यप्रतिज्ञताका वर्णन करते हैं | ७६ ।।
यन्न मोहान्न कार्पण्यान्न लोभान्न भयादपि ।
अनृतं किंचिदुक्त ते न कामान्नार्थकारणात् || ७७ ।।
“उनका कहना है कि आपने कभी न तो मोहसे, न दीनतासे, न लोभसे, न भयसे, न
कामनासे और न धनके ही कारणसे किंचिन्मात्र भी असत्य भाषण किया है ।। ७७ |।
यदेन: कुरुते किंचिद् राजा भूमिमवाप्रुवन् ।
सर्व तन्नुदते पश्चाद् यज्जैरविपुलदक्षिणै: ।। ७८ ।।
“राजा पृथ्वीको अपने अधिकारमें करते समय युद्धजनित हिंसा आदिके द्वारा जो कुछ
पाप करता है, वह सब राज्यप्राप्तिके पश्चात् भारी दक्षिणावाले यज्ञोंद्वारा नष्ट कर देता
है || ७८ ।।
ब्राह्मणेभ्यो ददद् ग्रामान् गाश्न॒ राजन् सहस्रश: ।
मुच्यते सर्वपापेभ्यस्तमोभ्य इव चन्द्रमा: । ७९ ।।
'जनेश्वर! ब्राह्मणोंको बहुत-से गाँव और सहस्रों गौएँ दानमें देकर राजा अपने समस्त
पापोंसे उसी प्रकार मुक्त हो जाता है, जैसे चन्द्रमा अन्धकारसे || ७९ ।।
पौरजानपदा: सर्वे प्रायश: कुरुनन्दन ।
सवृद्धबालसहिता: शंसन्ति त्वां युधिष्ठिर ।। ८० ।।
“कुरुनन्दन युधिष्ठिर! प्रायः नगर और जनपदमें निवास करनेवाले आबालवृद्ध सब
लोग आपकी प्रशंसा करते हैं || ८० ।।
श्वदृती क्षीरमासक्तं ब्रह्म वा वृषले यथा ।
सत्यं स्तेने बल॑ नार्या राज्यं दुर्योधने तथा ।। ८१ ।।
'कुत्तेके चमड़ेकी कुप्पीमें रखा हुआ दूध, शूद्रमें स्थित वेद, चोरमें सत्य और नारीमें
स्थित बल जैसे अनुचित है, उसी प्रकार दुर्योधनमें स्थित राजत्व भी संगत नहीं है ।। ८१ ।।
इति लोके निर्वचनं पुरश्चरति भारत ।
अपि चैता: स्त्रियो बाला: स्वाध्यायमधिकुर्वते ।। ८२ ।।
“भारत! लोकमें यह उपर्युक्त सत्य प्रवाद पहलेसे चला आ रहा है । स्त्रियाँ और
बच्चेतक इसे नित्य किये जानेवाले पाठकी तरह दुहराते रहते हैं || ८२ ।।
इमामवस्थां च गते सहास्माभिररिंदम ।
हन्त नष्टा: सम सर्वे वै भवतोपद्रवे सति ।। ८३ ।।
'शत्रुदमन! बड़े दुःखकी बात है कि हमारे साथ ही आज आप इस दुरवस्थामें पहुँच
गये हैं और आपहीके कारण ऐसा उपद्रव आया कि हम सब लोग नष्ट हो गये ।। ८३ ।।
स भवान् रथमास्थाय सर्वोपकरणान्वितम् |
त्वरमाणो$भिनिर्यातु विप्रेभ्यो5र्थविभावक: ।। ८४ ।।
“महाराज! आप विजयमें प्राप्त हुए धनका ब्राह्मणोंको दान करनेके लिये अस्त्र-शस्त्र
आदि सभी आवश्यक सामग्रियोंसे सुसज्जित रथपर बैठकर शीघ्र यहाँसे युद्धके लिये
निकलिये || ८४ ।।
वाचयित्वा द्विजश्रेष्ठानद्यव गजसाह्दयम् ।
अस्त्रविद्धि: परिवृतो भ्रातृभिर्दृढ्धन्विभि: ।। ८५ ।।
आशीविषसमैरवरिर्मरुद्धिरिव वृत्रहा ।
अमित्रांस्तेजसा मृद्नन्नसुरानिव वृत्रहा ।
श्रियमादत्स्व कौन्तेय धार्तराष्ट्रानू महाबल || ८६ ।।
“जैसे सर्पोके समान भयंकर शूरवीर देवताओंसे घिरे हुए वृत्रनाशक इन्द्र असुरोंपर
आक्रमण करते हैं, उसी प्रकार अस्त्र-विद्याके ज्ञाता और सुदृढ़ धनुष धारण करनेवाले हम
सब भाइयोंसे घिरे हुए आप श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराकर आज ही हस्तिनापुरपर
चढ़ाई कीजिये। महाबली कुन्तीकुमार! जैसे इन्द्र अपने तेजसे दैत्योंको मिट्टीमें मिला देते हैं,
उसी प्रकार आप अपने प्रभावसे शत्रुओंको मिट्टीमें मिलाकर धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनसे अपनी
राजलक्ष्मीको ले लीजिये || ८५-८६ ।।
न हि गाण्डीवमुक्तानां शराणां गार्ध्रवाससाम् ।
स्पर्शमाशीविषाभानां मर्त्य: कश्नन संसहेत् ।। ८७ ।।
“मनुष्योंमें कोई ऐसा नहीं है, जो गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए विषैले सर्पोके समान
भयंकर गृध्रपंखयुक्त बाणोंका स्पर्श सह सके ।। ८७ ।।
नस वीरो न मातड़ोी न च सो5श्वो5स्ति भारत ।
य:ः सहेत गदावेगं मम क्रुद्धस्य संयुगे || ८८ ।।
“भारत! इसी प्रकार जगतमें ऐसा कोई अश्व या गजराज या कोई वीर पुरुष भी नहीं है,
जो रणभूमिमें क्रोधपूर्वक विचरनेवाले मुझ भीमसेनकी गदाका वेग सह सके ।। ८८ ।।
सृञ्जयै: सह कैकेयैर्वष्णीनां वृषभेण च ।
कथंस्विद् युधि कौन्तेय न राज्यं प्राप्तुयामहे ।। ८९ ।।
“कुन्तीनन्दन! सूंजय और कैकयवंशी वीरों तथा वृष्णिवंशावतंस भगवान् श्रीकृष्णके
साथ होकर हम संग्राममें अपना राज्य कैसे नहीं प्राप्त कर लेंगे? ।। ८९ ।।
शत्रुहस्तगतां राजन् कथंस्विन्नाहरेरमहीम् ।
इह यत्नमुपाहृत्य बलेन महतान्वित: ।। ९० ।।
“राजन! आप विशाल सेनासे सम्पन्न हो यहाँ प्रयत्नपूर्वक युद्ध ठानकर शत्रुओंके
हाथमें गयी हुई पृथ्वीको उनसे छीन क्यों नहीं लेते?” ।। ९० ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि भीमवाक्ये त्रयस्त्रिंशो 5ध्याय: ।।
३३ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्वमें भीमवाक्यविषयक
तैतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ३३ ॥
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चतुस्त्रिंशो 5 ध्याय:
धर्म और नीतिकी बात कहते के युधिष्ठिरकी अपनी
प्रतिज्ञाके पालनरूप धर्मपर ही डटे रहनेकी घोषणा
वैशग्पायन उवाच
स एवमुक्तस्तु महानुभाव:
सत्यव्रतो भीमसेनेन राजा ।
अजातशगत्रुस्तदनन्तरं वै
धैर्यान्वितो वाक्यमिदं बभाषे ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! भीमसेन जब इस प्रकार अपनी बात पूरी कर
चुके, तब महानुभाव, सत्यप्रतिज्ञ एवं अजातशत्रु राजा युधिष्ठिरने धैर्यपूर्वक उनसे यह बात
कही-- ।। १ ||
युधिछिर उवाच
असंशयं भारत सत्यमेतद्
यन्मां तुदन् वाक्यशल्यै: क्षिणोषि ।
न त्वां विगहें प्रतिकूलमेव
ममानयाद्धि व्यसनं व आगात् ॥। २ ।।
युधिष्ठिर बोले--भरतकुलनन्दन! तुम मुझे पीड़ा देते हुए अपने वागूबाणोंद्वारा मेरे
हृदयको जो विदीर्ण कर रहे हो, यह निःसंदेह ठीक ही है। मेरे प्रतिकूल होनेपर भी इन
बातोंके लिये मैं तुम्हारी निन्दा नहीं करता; क्योंकि मेरे ही अन्यायसे तुमलोगोंपर यह विपत्ति
आयी है ॥| २ ।।
अहं हाक्षानन्वपद्यं जिहीर्षन्
राज्यं सराष्ट्र धृतराष्ट्रस्य पुत्रात् ।
तन्मां शठ: कितव: प्रत्यदेवीत्
सुयोधनार्थ सुबलस्य पुत्र: ।। ३ ।।
उन दिनों धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनके हाथसे उसके राष्ट्र तथा राजपदका अपहरण करनेकी
इच्छा रखकर ही मैं द्यूतक्रीड़ामें प्रवृत्त हुआ था; किंतु उस समय धूर्त जुआरी सुबलपुत्र
शकुनि दुर्योधनके लिये उसकी ओरसे मेरे विपक्षमें आकर जूआ खेलने लगा ।। ३ ।।
महामाय: शकुनि: पर्वतीय:
सभामध्ये प्रवपन्नक्षपूगान् ।
अमायिन॑ मायया प्रत्यजैषीत्
ततो<पश्यं वृजिनं भीमसेन ।। ४ ।।
भीमसेन! पर्वतीय प्रदेशका निवासी शकुनि बड़ा मायावी है। उसने द्यूतसभामें पासे
फेंककर अपनी मायाद्वारा मुझे जीत लिया; क्योंकि मैं माया नहीं जानता था; इसीलिये मुझे
यह संकट देखना पड़ा है || ४ ।।
अक्षांश्व दृष्टवा शकुनेर्यथावत्
कामानुकूलानयुजो युजश्न ।
शक्यो नियन्तुमभविष्यदात्मा
मन्युस्तु हन्यात् पुरुषस्य धैर्यम् ।। ५ ।।
शकुनिके सम और विषम सभी पासोंको उसकी इच्छाके अनुसार ही ठीक-ठीक पड़ते
देखकर यदि अपने मनको जूएकी ओरसे रोका जा सकता तो यह अनर्थ न होता, परंतु
क्रोधावेश मनुष्यके धैर्यको नष्ट कर देता है (इसीलिये मैं जूएसे अलग न हो सका) ।। ५ ।।
यन्तुं नात्मा शक््यते पौरुषेण
मानेन वीर्येण च तात नद्धः ।
न ते वाचो भीमसेनाभ्यसूये
मन्ये तथा तद् भवितव्यमासीत् ।। ६ ।।
तात भीमसेन! किसी विषयमें आसक्त हुए चित्तको पुरुषार्थ, अभिमान अथवा
पराक्रमसे नहीं रोका जा सकता (अर्थात्र उसे रोकना बहुत ही कठिन है), अतः मैं तुम्हारी
बातोंके लिये बुरा नहीं मानता। मैं समझता हूँ, वैसी ही भवितव्यता थी ।। ६ ।।
स नो राजा धृतराष्ट्रस्य पुत्रो
न्यपातयद् व्यसने राज्यमिच्छन् ।
दास््यं च नोडगमयद् भीमसेन
यत्राभवच्छरणं द्रौपदी नः ।। ७ ।।
भीमसेन! धृतराष्ट्रके पुत्र राजा दुर्योधनने राज्य पानेकी इच्छासे हमलोगोंको विपत्तिमें
डाल दिया। हमें दासतक बना लिया था, किंतु उस समय द्रौपदी हमलोगोंकी रक्षक
हुई |। ७ ।।
त्वं चापि तद् वेत्थ धनंजयश्न
पुनर्यूतायागतानां सभां नः ।
यन्मा<ब्रवीद् धृतराष्ट्रस्य पुत्र
एकग्लहार्थ भरतानां समक्षम् ।। ८ ।।
तुम और अर्जुन दोनों इस बातको जानते हो कि जब हम पुनः द्यूतके लिये बुलाये
जानेपर उस सभामें आये तो उस समय समस्त भरतवंशियोंके समक्ष धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनने
मुझसे एक ही दाँव लगानेके लिये इस प्रकार कहा-- ।। ८ ।।
वने समा द्वादश राजपुत्र
यथाकामं विदितमजातशत्रो |
अथापरं चाविदितं चरेथा:
सर्वे: सह भ्रातृभिश्छझगूढ: ।। ९ ।।
“राजकुमार अजातशत्रो! (यदि आप हार जायेँ तो) आपको बारह वर्षोतक इच्छानुसार
सबकी जानकारीमें और पुनः एक वर्षतक गुप्त वेषमें छिपे रहकर अपने भाइयोंके साथ
वनमें निवास करना पड़ेगा ।। ९ ।।
त्वां चेच्छुत्वा तात तथा चरन्त-
मवभोत्स्यन्ते भरतानां चराशक्ष ।
अन्यांक्षरेथास्तावतो<ब्दांस्त था त्व॑
निश्चित्य तत् प्रतिजानीहि पार्थ ।। १० ।।
“कुन्तीकुमार! यदि भरतवंशियोंके गुप्तचर आपके गुप्त निवासका समाचार सुनकर
पता लगाने लगें और उन्हें यह मालूम हो जाय कि आपलोग अमुक जगह अमुक रूपमें रह
रहे हैं, तब आपको पुनः उतने (बारह) ही वर्षोतक वनमें रहना पड़ेगा। इस बातको निश्चय
करके इसके विषयमें प्रतिज्ञा कीजिये || १० ।।
चरेश्षेत्रो5विदित: कालमेतं
युक्तो राजन् मोहयित्वा मदीयान् ।
ब्रवीमि सत्यं कुरुसंसदीह
तवैव ता भारत पज्च नद्यः ।। ११ ।।
“भरतवंशी नरेश! यदि आप सावधान रहकर इतने समयतक मेरे गुप्तचरोंको मोहित
करके अज्ञात-भावसे ही विचरते रहें तो मैं यहाँ कौरवोंकी सभामें यह सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ
कि उस सारे पंचनदप्रदेशपर फिर तुम्हारा ही अधिकार होगा ।। ११ ।।
वयं चैतद् भारत सर्व एव
त्वया जिता: कालमपास्य भोगान् |
वसेम इत्याह पुरा स राजा
मध्ये कुरूणां स मयोक्तस्तथेति ।। १२ ।।
“भारत! यदि आपने ही हम सब लोगोंको जीत लिया तो हम भी उतने ही समयतक
सारे भोगोंका परित्याग करके उसी प्रकार वास करेंगे।” राजा दुर्योधनने जब समस्त
कौरवोंके बीच इस प्रकार कहा, तब मैंने भी “तथास्तु/ कहकर उसकी बात मान
ली ।। १२ ।।
तत्र द्यूतमभवजन्नो जघन्यं
तस्मिज्जिता: प्रव्रजिताश्च सर्वे ।
इत्थं तु देशाननुसंचरामो
वनानि कृच्छाणि च कृच्छुरूपा: ।। १३ ।।
फिर वहाँ हमलोगोंका अन्तिम बार निन्दनीय जूआ हुआ। उसमें हम सब लोग हार गये
और घर छोड़कर वनमें निकल आये। इस प्रकार हम कष्टप्रद वेष धारण करके कष्टदायक
वनों और विभिन्न प्रदेशोंमें घूम रहे हैं || १३ ।।
सुयोधनश्वापि न शान्तिमिच्छन्
भूय: स मन्योर्वशमन्वगच्छत् ।
उद्योजयामास कुरूंश्व॒ सर्वान्
ये चास्य केचिद् वशमन्वगच्छन् ।। १४ ।।
उधर दुर्योधन भी शान्तिकी इच्छा न रखकर और भी क्रोधके वशीभूत हो गया है।
उसने हमें तो कष्टमें डाल दिया और दूसरे समस्त कौरवोंको जो उसके वशमें होकर उसीका
अनुसरण करते रहे हैं, (देशशासक और दुर्गरक्षक आदि) ऊँचे पदोंपर प्रतिष्ठित कर दिया
है ।। १४ ।।
त॑ संधिमास्थाय सतां सकाशे
को नाम जह्यादिह राज्यहेतो: ।
आर्यस्य मन्ये मरणाद् गरीयो
यद्धमर्ममुत्क्रम्य महीं प्रशासेत् ।। १५ ।।
कौरव-सभामें साधु पुरुषोंके समीप वैसी सन्धिका आश्रय लेकर यानी प्रतिज्ञा करके
अब यहाँ राज्यके लिये उसे कौन तोड़े? धर्मका उल्लंघन करके पृथ्वीका शासन करना तो
किसी श्रेष्ठ पुरुषके लिये मृत्युसे भी बढ़कर दुःखदायक है--ऐसा मेरा मत है || १५ ।।
तदैव चेद् वीर कर्माकरिष्यो
यदा द्ूते परिघं पर्यमृक्ष: ।
बाहू दिधक्षन् वारित: फाल्गुनेन
किं दुष्कृतं भीम तदाभविष्यत् ।। १६ ।।
प्रागेव चैवं समयक्रियाया:
कि नाब्रवी: पौरुषमाविदान: ।
प्राप्त तु काल॑ त्वभिपद्य पश्चात्
कि मामिदानीमतिवेलमात्थ ।। १७ ।।
वीर भीमसेन! द्यूतके समय जब तुमने मेरी दोनों बाँहोंको जला देनेकी इच्छा प्रकट की
और अर्जुनने तुम्हें रोका, उस समय तुम शत्रुओंपर आघात करनेके लिये अपनी गदापर
हाथ फेरने लगे थे। यदि उसी समय तुमने शत्रुओंपर आघात कर दिया होता तो कितना
अनर्थ हो जाता। तुम अपना पुरुषार्थ तो जानते ही थे। जब मैं पूर्वोक्त प्रकारकी प्रतिज्ञा
करने लगा उससे पहले ही तुमने ऐसी बात क्यों नहीं कही? जब प्रतिज्ञाके अनुसार
वनवासका समय स्वीकार कर लिया, तब पीछे चलकर इस समय क्यों मुझसे अत्यन्त
कठोर बातें कहते हो? ।। १६-१७ ।।
भूयो5पि दु:ःखं मम भीमसेन
दूये विषस्येव रसं हि पीत्वा ।
यद् याज्ञसेनीं परिक्लिश्यमानां
संदृश्य तत् क्षान्तमिति सम भीम ।। १८ ।।
भीमसेन! मुझे इस बातका भी बड़ा दुःख है कि द्रौपदीको शत्रुओंद्वारा क्लेश दिया जा
रहा था और हमने अपनी आँखों देखकर भी उसे चुपचाप सह लिया। जैसे कोई विष
घोलकर पी ले और उसकी पीड़ासे कराहने लगे, वैसी ही वेदना इस समय मुझे हो रही
है ।। १८ ।।
न त्वद्य शक््यं भरतप्रवीर
कृत्वा यदुक्तं कुरुवीरमध्ये ।
काल प्रतीक्षस्व सुखोदयस्य
पक्ति फलानामिव बीजवाप: ।। १९ ||
भरतवंशके प्रमुख वीर! कौरव वीरोंके बीच मैंने जो प्रतिज्ञा की है, उसे स्वीकार कर
लेनेके बाद अब इस समय आक्रमण नहीं किया जा सकता। जैसे बीज बोनेवाला किसान
अपनी खेतीके फलोंके पकनेकी बाट जोहता रहता है, उसी प्रकार तुम भी उस समयकी
प्रतीक्षा करो, जो हमारे लिये सुखकी प्राप्ति करानेवाला है ।। १९ ।।
यदा हि पूर्व निकृतो निकृन्तेद्
वैरं सपुष्पं सफल॑ विदित्वा ।
महागुणं हरति हि पौरुषेण
तदा वीरो जीवति जीवलोके ।। २० ।।
जब पहले शत्रुके द्वारा धोखा खाया हुआ वीर पुरुष उसे फ़ूलता-फलता जानकर अपने
पुरुषार्थके द्वारा उसका मूलोच्छेद कर डालता है, तभी उस शत्रुके महान् गुणोंका अपहरण
कर लेता है और इस जगत्में सुखपूर्वक जीवित रहता है || २० ।।
श्रियं च लोके लभते समग्रां
मन्ये चास्मै शत्रव: संनमन्ते |
मित्राणि चैनमचिराद् भजन्ते
देवा इवेन्द्रमुपजीवन्ति चैनम् ।। २१ ।।
वह वीर पुरुष लोकमें सम्पूर्ण लक्ष्मीको प्राप्त कर लेता है। मैं यह भी मानता हूँ कि
सभी शत्रु उसके सामने नतमस्तक हो जाते हैं। फिर थोड़े ही दिनोंमें उसके बहुत-से मित्र
बन जाते हैं और जैसे देवता इन्द्रके सहारे जीवन धारण करते हैं, उसी प्रकार वे मित्रगण
उस वीरकी छत्रछायामें रहकर जीवन-निर्वाह करते हैं || २१ ।।
मम प्रतिज्ञां च निबोध सत्यां
वृणे धर्मममृताज्जीविताच्च ।
राज्यं च पुत्राश्न यशो धनं च
सर्व न सत्यस्य कलामुपैति ॥। २२ ।।
किंतु भीमसेन! मेरी यह सच्ची प्रतिज्ञा सुनो। मैं जीवन और अमरत्वकी अपेक्षा भी
धर्मको ही बढ़कर समझता हूँ। राज्य, पुत्र, यश और धन--ये सब-के-सब सत्यधर्मकी
सोलहवीं कलाको भी नहीं पा सकते ।। २२ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि युधिष्ठिरवाक्ये चतुस्त्रिंशो 5 ध्याय:
|| ३४ ।।
इस प्रकार श्रीमह्माभारत वनपर्वके अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्वमें युधिष्ठिरवाक्यविषयक
चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ३४ ॥।
अप. ऋा- [हुक है आम
पजञ्चत्रिशोड्ध्याय:
दुःखित भीमसेनका युधिष्ठिरको युद्धके लिये उत्साहित
करना
भीमसेन उवाच
संधि कृत्वैव कालेन ह्ुन्तकेन पतत्त्रिणा ।
अनन्तेनाप्रमेयेण स्रोतसा सर्वहारिणा ॥। १ ।।
प्रत्यक्ष मन्यसे काल॑ मर्त्य: सन् कालबन्धन: ।
फेनधर्मा महाराज फलधर्मा तथैव च ।। २ ।।
भीमसेन बोले--महाराज! आप फेनके समान नश्वर, फलके समान पतनशील तथा
कालके बन्धनमें बँधे हुए मरणधर्मा मनुष्य हैं तो भी आपने सबका अन्त और संहार
करनेवाले, बाणके समान वेगवान, अनन्त, अप्रमेय एवं जलस्रोतके समान प्रवाहशील लंबे
कालको बीचमें देकर दुर्योधनके साथ सन्धि करके उस कालको अपनी आँखोंके सामने
आया हुआ मानते हैं ।। १-२ ।।
निमेषादपि कौन्तेय यस्यायुरपचीयते ।
सूच्येवाञ्जनचूर्णस्य किमिति प्रतिपालयेत् ।। ३ ।।
किंतु कुन्तीकुमार! सलाईसे थोड़ा-थोड़ा करके उठाये जानेवाले अंजनचूर्ण (सुरमे)-की
भाँति एक-एक निमेषमें जिसकी आयु क्षीण हो रही है, वह क्षणभंगुर मानव समयकी
प्रतीक्षा क्या कर सकता है? ।। ३ ।।
यो नूनममितायु: स्वादथवापि प्रमाणवित् ।
स काल वै प्रतीक्षेत सर्वप्रत्यक्षदर्शिवान् ।। ४ ।।
अवश्य ही जिसकी आयुकी कोई माप नहीं है अथवा जो आयुकी निश्चित संख्याको
जानता है तथा जिसने सब कुछ प्रत्यक्ष देख लिया है। वही समयकी प्रतीक्षा कर सकता
है ।। ४ ।।
प्रतीक्ष्म्माण: कालो न: समा राजंस्त्रयोदश |
आयुषो<5पचयं कृत्वा मरणायोपनेष्यति ।। ५ ।।
राजन! तेरह वर्षोतक हमें जिसकी प्रतीक्षा करनी है, वह काल हमारी आयुको क्षीण
करके हम सबको मृत्युके निकट पहुँचा देगा ।। ५ ।।
शरीरिणां हि मरणं शरीरे नित्यमाश्रितम् ।
प्रागेव मरणात् तस्माद् राज्यायैव घटामहे ।। ६ ।।
देहधारीकी मृत्यु सदा उसके शरीरमें ही निवास करती है, अतः मृत्युके पहले ही हमें
राज्य-प्राप्तिके लिये चेष्टा करनी चाहिये ।। ६ ।।
यो न याति प्रसंख्यानमस्पष्टो भूमिवर्धन: ।
अयातयित्वा वैराणि सोडवसीदति गौरिव ।। ७ ||
जिसका प्रभाव छिपा हुआ है, वह भूमिके लिये भाररूप ही है, क्योंकि वह
जनसाधारणमें ख्याति नहीं प्राप्त कर सकता। वह वैरका प्रतिशोध न लेनेके कारण बैलकी
भाँति दुःख उठाता रहता है || ७ ।।
यो न यातयते वैरमल्पसत्त्वोद्यम: पुमान् |
अफलं जन्म तस्याहं मन्ये दुर्जातजायिन: ।। ८ ।।
जिसका बल और उद्यम बहुत कम है, जो वैरका बदला नहीं ले सकता, उस पुरुषका
जन्म अत्यन्त घृणित है। मैं तो उसके जन्मको निष्फल मानता हूँ ।। ८ ।।
हैरण्यौ भवतो बाहू श्रुतिर्भवति पार्थिवी ।
हत्वा द्विषन्तं संग्रामे भुडुक्ष्य बाहुजितं वसु ।। ९ ।।
महाराज! आपकी दोनों भुजाएँ सुवर्णकी अधिकारिणी हैं। आपकी कीर्ति राजा पृथुके
समान है। आप युद्धमें शत्रुका संहार करके अपने बाहुबलसे उपार्जित धनका उपभोग
कीजिये ।। ९ ।।
हत्वा वै पुरुषो राजन् निकर्तारमरिंदम ।
अद्वाय नरकं गच्छेत् स्वर्गंणास्य स सम्मित: ।। १० ।।
शत्रुदमन नरेश! यदि मनुष्य अपनेको धोखा देनेवाले शत्रुका वध करके तुरंत ही
नरकमें पड़ जाय तो उसके लिये वह नरक भी स्वर्गके तुल्य है ।। १० ।।
अमर्षजो हि संताप: पावकाद दीप्तिमत्तर: ।
येनाहमभिसंतप्तो न नक्त न दिवा शये ॥। १३ ।।
अमर्षसे जो संताप होता है, वह आगसे भी बढ़कर जलानेवाला है। जिससे संतप्त
होकर मुझे न तो रातमें नींद आती है और न दिनमें ।। ११ ।।
अयं च पार्थो बीभत्सुर्वरिष्ठो ज्याविकर्षणे |
आस्ते परमसंतप्तो नूनं सिंह इवाशये ।। १२ ।।
ये हमारे भाई अर्जुन धनुषकी प्रत्यंचा खींचनेमें सबसे श्रेष्ठ हैं; परंतु ये भी निश्चय ही
अपनी मगुफामें दुःखी होकर बैठे हुए सिंहकी भाँति सदा अत्यन्त संतप्त होते रहते
हैं ।। १२ ।।
योडयमेको5भिमनुते सर्वान् लोके धनुर्भुतः ।
सो<यमात्मजमूष्माणं महाहस्तीव यच्छति ।। १३ ।।
जो अकेले ही संसारके समस्त धनुर्धर वीरोंका सामना कर सकते हैं, वे ही अर्जुन
महान् गजराजकी भाँति अपने मानसिक क्रोधजनित संतापको किसी प्रकार रोक रहे
हैं ।। १३ ।।
नकुल: सहदेवश्व वृद्धा माता च वीरसू: ।
तवैव प्रियमिच्छन्त आसते जडमूकवत् ।। १४ ।।
नकुल, सहदेव तथा वीरपुत्रोंको जन्म देनेवाली हमारी बूढ़ी माता कुन्ती--ये सब-के-
सब आपका प्रिय करनेकी इच्छा रखकर ही मूर्खों और गूँगोंकी भाँति चुप रहते हैं ।। १४ ।।
सर्वे ते प्रियमिच्छन्ति बान्धवा: सह सृञज्जयै: ।
अहमेकश्न् संतप्तो माता च प्रतिविन्ध्यत: ।। १५ ।।
आपके सभी बन्धु-बान्धव और सूंजयवंशी योद्धा भी आपका प्रिय करना चाहते हैं।
केवल हम दो व्यक्तियोंको ही विशेष कष्ट है। एक तो मैं संतप्त होता हूँ और दूसरी
प्रतिविन्ध्यकी माता द्रौपदी || १५ ।।
प्रियमेव तु सर्वेषां यद् ब्रवीम्युत किंचन ।
सर्वे हि व्यसन प्राप्ता: सर्वे युद्धाभिनन्दिन: ।। १६ ।।
मैं जो कुछ कहता हूँ, वह सबको प्रिय है। हम सब लोग संकटमें पड़े हैं और सभी
युद्धका अभिनन्दन करते हैं ।। १६ ।।
नात: पापीयसी काचिदापदू राजन् भविष्यति ।
यन्ञो नीचैरल्पबलै राज्यमाच्छिद्य भुज्यते ।। १७ ।।
राजन्! इससे बढ़कर अत्यन्त दुःखदायिनी विपत्ति और क्या होगी कि नीच और दुर्बल
शत्रु हम बलवानोंका राज्य छीनकर उसका उपभोग कर रहे हैं | १७ ।।
शीलदोषाद् घृणाविष्ट आनृशंस्यात् परंतप ।
क्लेशांस्तितिक्षसे राजन् नान्य: कश्चिचत् प्रशंसति ।। १८ ।।
परंतप युधिष्ठिर! आप शील-स्वभावके दोष और कोमलतासे एवं दयाभावसे युक्त
होनेके कारण इतने क्लेश सह रहे हैं, परंतु महाराज! इसके लिये आपकी कोई प्रशंसा नहीं
करता है ।। १८ ।।
श्रोत्रियस्थेव ते राजन् मन्दकस्याविपक्षित: ।
अनुवाकहता बुद्धिर्नैषा तत्त्वार्थदर्शिनी ।। १९ ।।
राजन! आपकी बुद्धि अर्थज्ञानसे रहित वेदोंके अक्षरमात्रको रटनेवाले मन्दबुद्धि
श्रोत्रियकी तरह केवल गुरुकी वाणीका अनुसरण करनेके कारण नष्ट हो गयी है। यह
तात्विक अर्थको समझने या समझानेवाली नहीं है ।। १९ ।।
घृणी ब्राह्मणरूपो$सि कथं क्षत्रे5भ्यजाय था: ।
अस्यां हि योनौ जायन्ते प्रायश: क्रूरबुद्धयः ।। २० ।।
आप दयालु ब्राह्मणरूप हैं। पता नहीं, क्षत्रियकुलमें कैसे आपका जन्म हो गया;
क्योंकि क्षत्रिय योनिमें तो प्राय: क्रूर बुद्धिके ही पुरुष उत्पन्न होते हैं || २० ।।
अश्रौषीस्त्वं राजधर्मान् यथा वै मनुरब्रवीत् ।
क्ररान् निकृतिसम्पन्नान् विहितानशमात्मकान् ।। २१ |।
धार्तराष्ट्रानू महाराज क्षमसे किं दुरात्मन: ।
कर्तव्ये पुरुषव्याप्र किमास्से पीठसर्पवत् || २२ ।।
बुद्धया वीर्येण संयुक्त: श्रुेतेनाभिजनेन च ।
महाराज! आपने राजधर्मका वर्णन तो सुना ही होगा, जैसा मनुजीने कहा है। फिर क्रूर,
मायावी, हमारे हितके विपरीत आचरण करनेवाले तथा अशान्तचित्तवाले दुरात्मा
धृतराष्ट्रपुत्रोंका अपराध आप क्यों क्षमा करते हैं? पुरुषसिंह! आप बुद्धि, पराक्रम,
शास्त्रज्ञान तथा उत्तम कुलसे सम्पन्न होकर भी जहाँ कुछ काम करना है, वहाँ अजगरकी
भाँति चुपचाप क्यों बैठे हैं? | २१-२२ ६ ।।
तृणानां मुष्टिनेकेन हिमवन्तं च पर्वतम् ।। २३ ।।
छन्नमिच्छसि कौन्तेय यो<स्मात् संवर्तुमिच्छसि ।
कुन्तीनन्दन! आप अज्ञातवासके समय जो हम-लोगोंको छिपाकर रखना चाहते हैं,
इससे जान पड़ता है कि आप एक मुट्ठी तिनकेसे हिमालय पर्वतको ढक देना चाहते
हैं || २३६ |।
अज्ञातचर्या गूढेन पृथिव्यां विश्रुतेन च ।। २४ ।।
दिवीव पार्थ सूर्येण न शक््याचरितुं त्वया ।
पार्थ! आप इस भूमण्डलमें विख्यात हैं, जैसे सूर्य आकाशमें छिपकर नहीं रह सकते,
उसी प्रकार आप भी कहीं छिपे रहकर अज्ञातवासका नियम नहीं पूरा कर सकते ।। २४६
||
बृहच्छाल इवानूपे शाखापुष्पपलाशवान् ॥। २५ ।।
हस्ती श्वेत इवाज्ञात: कथं जिष्णुश्नरिष्यति ।
जहाँ जलकी अधिकता हो, ऐसे प्रदेशमें शाखा, पुष्प और पत्तोंसे सुशोभित विशाल
शालवृक्षके समान अथवा श्वेत गजराज ऐरावतके सदृश ये अर्जुन कहीं भी अज्ञात कैसे रह
सकेंगे? ।। २५३ ।।
इमौ च सिंहसंकाशौ भ्रातरी सहितौ शिशू ।। २६ ।।
नकुल: सहदेवश्न कथं पार्थ चरिष्यत: ।
कुन्तीकुमार! ये दोनों भाई बालक नकुल-सहदेव सिंहके समान पराक्रमी हैं। ये दोनों
कैसे छिपकर विचर सकेंगे? ।। २६६ ।।
पुण्यकीर्ती राजपुत्री द्रौपदी वीरसूरियम् ।। २७ ।।
विश्रुता कथमज्ञाता कृष्णा पार्थ चरिष्यति ।
पार्थ! यह वीरजननी पवित्रकीर्ति राजकुमारी द्रौपदी सारे संसारमें विख्यात है। भला,
यह अज्ञातवासके नियम कैसे निभा सकेगी ।। २७३६ ।।
मां चापि राजज्जानन्ति हयाकुमारमिमा: प्रजा: ।। २८ ।।
नाज्ञातचर्या पश्यामि मेरोरिव निगूहनम् |
महाराज! मुझे भी प्रजावर्गके बच्चेतक पहचानते हैं, जैसे मेरुपर्वतको छिपाना
असम्भव है, उसी प्रकार मुझे अपनी अज्ञातचर्या भी सम्भव नहीं दिखायी देती || २८३ ।।
तथैव बहवो<स्माभी राष्ट्र भ्यो विप्रवासिता: ।। २९ ।।
राजानो राजपूत्राश्न धृतराष्ट्रमनुव्रता: ।
न हि ते5प्युपशाम्यन्ति निकृता वा निराकृता: ।। ३० ।।
राजन! इसके सिवा एक बात और है, हमलोगोंने भी बहुत-से राजाओं तथा
राजकुमारोंको उनके राज्यसे निकाल दिया है। वे सब आकर राजा धुतराष्ट्रसे मिल गये होंगे,
हमने जिनको राज्यसे वंचित किया अथवा निकाला है, वे कदापि हमारे प्रति शान्तभाव नहीं
धारण कर सकते ।। २९-३० |।
अवश्यं तैर्निकर्तव्यमस्माकं तत्तप्रियैषिभि: ।
तेअप्यस्मासु प्रयुञ्जीरन् प्रच्छन्नान् सुबहूंश्षरान् ।
आचक्षीरंश्न नो ज्ञात्वा ततः स्यात् सुमहत् भयम् ।। ३१ ।।
अवश्य ही दुर्योधनका प्रिय करनेकी इच्छा रखकर वे राजालोग भी हमलोगोंको धोखा
देना उचित समझकर हमलोगोंकी खोज करनेके लिये बहुत-से छिपे हुए गुप्तचर नियुक्त
करेंगे और पता लग जानेपर निश्चय ही दुर्योधनको सूचित कर देंगे। उस दशामें हमलोगोंपर
बड़ा भारी भय उपस्थित हो जायगा ।। ३१ ||
अस्माभिरुषिता: सम्यगूवने मासास्त्रयोदश ।
परिमाणेन तान् पश्य तावत: परिवत्सरान् ।। ३२ ।।
हमने अबतक वनमें ठीक-ठीक तेरह महीने व्यतीत कर लिये हैं, आप इन्हींको
परिमाणमें तेरह वर्ष समझ लीजिये ।। ३२ ।।
अस्ति मास: प्रतिनिधिर्यथा प्राहुर्मनीषिण: ।
पूतिकामिव सोमस्य तथेदं क्रियतामिति ।। ३३ ।।
मनीषी पुरुषोंका कहना है कि मास संवत्सरका प्रतिनिधि है। जैसे पूतिका सोमलताके
स्थानपर यज्ञमें काम देती है, उसी प्रकार आप इन तेरह मासोंको ही तेरह वर्षोंका प्रतिनिधि
स्वीकार कर लीजिये ।। ३३ ।।
अथवानडुहे राजन् साधवे साधुवाहिने |
सौहित्यदानादेतस्मादेनस: प्रतिमुच्यते | ३४ ।।
राजन्! अथवा अच्छी तरह बोझ ढोनेवाले उत्तम बैलको भरपेट भोजन दे देनेपर इस
पापसे आपको छुटकारा मिल सकता है ।। ३४ ।।
तस्माच्छत्रुवधे राजन् क्रियतां निश्चयस्त्वया ।
क्षत्रियस्य हि सर्वस्य नान््यो धर्मोडस्ति संयुगात् ।। ३५ ।।
अतः महाराज! आप शत्रुओंका वध करनेका निश्चय कीजिये; क्योंकि समस्त क्षत्रियोंके
लिये युद्धसे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है || ३५ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि भीमवाक्ये पज्चत्रिंशो ध्याय: ।।
३५ |
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपव्वके अन्तर्गत अजुनाभिगमनपर्वमें भीमवाक्यविषयक
पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ३५ ॥
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षट्त्रिशो5ध्याय:
युधिष्ठिरका भीमसेनको समझाना, व्यासजीका आगमन
और युधिष्ठिरको प्रतिस्मृतिविद्याप्रदान तथा पाण्डवोंका
पुन: काम्यकवनगमन
वैशम्पायन उवाच
भीमसेनवच: श्रुत्वा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर: ।
निः:श्वस्य पुरुषव्याघ्र: सम्प्रदध्यौ परंतप: ।। १ ।।
श्रुता मे राजधर्माश्न वर्णानां च विनिश्चया: ।
आयत्यां च तदात्वे च यः पश्यति स पश्यति ।। २ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! भीमसेन-की बात सुनकर शत्रुओंको संताप
देनेवाले पुरुषसिंह कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर लम्बी साँस लेकर मन-ही-मन विचार करने लगे
--'मैंने राजाओंके धर्म एवं वर्णोके सुनिश्चित सिद्धान्त भी सुने हैं, परंतु जो भविष्य और
वर्तमान दोनोंपर दृष्टि रखता है, वही यथार्थदर्शी है ।। १-२ ।।
धर्मस्य जानमानो<हं गतिमग्रयां सुदुर्विदाम् ।
कथं बलात् करिष्यामि मेरोरिव विमर्दनम् ।। ३ ।।
“धर्मकी श्रेष्ठ गति अत्यन्त दुर्बोध है, उसे जानता हुआ भी मैं कैसे बलपूर्वक मेरु
पर्वतके समान महान् उस धर्मका मर्दन करूँगा” ।। ३ ।।
स मुहूर्तमिव ध्यात्वा विनिश्चित्येतिकृत्यताम् ।
भीमसेनमिदं वाक्यमपदान्तरमब्रवीत् ।। ४ ।।
इस प्रकार दो घड़ीतक विचार करनेके पश्चात् अपनेको क्या करना है, इसका निश्चय
करके युधिष्ठिरने भीमसेनसे अविलम्ब यह बात कही ।। ४ ।।
युधिछिर उवाच
एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत ।
इदमन्यत् समादत्स्व वाच्यं मे वाक्यकोविद ।। ५ ।।
युधिष्ठिर बोले--महाबाहु भरतकुलतिलक वाक्यविशारद भीम! तुम जैसा कह रहे हो,
वह ठीक है, तथापि मेरी यह दूसरी बात भी मानो ।। ५ ।।
महापापानि कर्माणि यानि केवलसाहसात् ।
आरभ्यन्ते भीमसेन व्यथन्ते तानि भारत ।। ६ ।।
भरतनन्दन भीमसेन! जो महान् पापमय कर्म केवल साहसके भरोसे आरम्भ किये
जाते हैं, वे सभी कष्टदायक होते हैं |। ६ ।।
सुमन्त्रिते सुविक्रान्ते सुकृते सुविचारिते ।
सिध्यन्त्यर्था महाबाहो दैवं चात्र प्रदक्षिणम् ।। ७ ।।
महाबाहो! अच्छी तरहसे सलाह और विचार करके पूरा पराक्रम प्रकट करते हुए
सुन्दररूपसे जो कार्य किये जाते हैं, वे सफल होते हैं और उसमें दैव भी अनुकूल हो जाता
है ।। ७ ।।
यत् तु केवलचापल्याद् बलदर्पोत्थित: स्वयम् ।
आरब्धव्यमिदं कार्य मन्यसे शृणु तत्र मे | ८ ।।
तुम स्वयं बलके घमण्डसे उन्मत्त हो जो केवल चपलतावश स्वयं इस युद्धरूपी
कार्यको अभी आरम्भ करनेके योग्य मान रहे हो, उसके विषयमें मेरी बात सुनो || ८ ।।
भूरिश्रवा: शलश्वैव जलसंधश्च वीर्यवान् |
भीष्मो द्रोणश्व कर्णश्न द्रोणपुत्रश्न वीर्यवान् ।। ९ ।।
धार्तराष्ट्रा दुराधर्षा दुर्योधनपुरोगमा: ।
सर्व एव कृतास्त्राश्न सततं चाततायिन: ।। १० ।।
राजान: पार्थिवाश्वैव येडस्माभिरुपतापिता: ।
संश्रिता: कौरवं पक्ष जातस्नेहाश्न तं प्रति ।। ११ ।।
भूरिश्रवा, शल, पराक्रमी जलसंध, भीष्म, द्रोण, कर्ण, बलवान् अश्व॒त्थामा तथा सदाके
आततायी दुर्योधन आदि दुर्धर्ष धृतराष्ट्रपत्न--ये सभी अस्त्र-विद्याके ज्ञाता हैं एवं हमने जिन
राजाओं तथा भूमिपालोंको युद्धमें कष्ट पहुँचाया है, वे सभी कौरवपक्षमें मिल गये हैं और
उधर ही उनका स्नेह हो गया है ।। ९--११ ।।
दुर्योधनहिते युक्ता न तथास्मासु भारत ।
पूर्णकोशा बलोपेता: प्रयतिष्यन्ति संगरे ।। १२ ।।
भारत! वे दुर्योधनके हितमें ही संलग्न होंगे; हमलोगोंके प्रति उनका वैसा सद्धाव नहीं
हो सकता। उनका खजाना भरा-पूरा है और वे सैनिक-शक्तिसे भी सम्पन्न हैं, अतः वे युद्ध
छिड़नेपर हमारे विरुद्ध ही प्रयत्न करेंगे || १२ ।।
सर्वे कौरवसैन्यस्य सपुत्रामात्यसैनिका: ।
संविभक्ता हि मात्राभिभोगिरपि च सर्वश: ।। १३ ।।
मन्त्रियों और पुत्रोंके सहित कौरवसेनाके सभी सैनिकोंको दुर्योधनकी ओरसे पूरे वेतन
और सब प्रकारकी उपभोग-सामग्रीका वितरण किया गया है ।। १३ ।।
दुर्योधनेन ते वीरा मानिताश्व विशेषतः ।
प्राणांस्त्यक्ष्यन्ति संग्रामे इति मे निश्चिता मति:ः ।। १४ ।।
इतना ही नहीं, दुर्योधनने उन वीरोंका विशेष आदर-सत्कार भी किया है। अतः मेरा यह
विश्वास है कि वे उसके लिये संग्राममें (हँसते-हँसते) प्राण दे देंगे || १४ ।।
समा यद्यपि भीष्मस्य वृत्तिरस्मासु तेषु च
द्रोणस्प च महाबाहो कृपस्य च महात्मन: ।। १५ ।।
अवश्यं राजपिण्डस्तैन्विंश्य इति मे मति: ।
तस्मात् त्यक्ष्यन्ति संग्रामे प्राणानपि सुदुस्त्यजान् ।। १६ ।।
महाबाहो! यद्यपि पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण तथा महामना कृपाचार्यका आन्तरिक
स्नेह धृतराष्ट्रके पुत्रों तथा हमलोगोंपर एक-सा ही है, तथापि वे राजा दुर्योधनका दिया हुआ
अन्न खाते हैं, अतः उसका ऋण अवश्य चुकायेंगे, ऐसा मुझे प्रतीत होता है। युद्ध छिड़नेपर
वे भी दुर्योधनके पक्षसे ही लड़कर अपने दुस्त्यज प्राणोंका भी परित्याग कर
देंगे ।। १५-१६ ।।
सर्वे दिव्यास्त्रविद्वांस: सर्वे धर्मपरायणा: ।
अजेयाश्रैति मे बुद्धिरपि देवैः सवासवै: ।। १७ ।।
वे सब-के-सब दिव्यास्त्रोंके ज्ञाता और धर्मपरायण हैं। मेरी बुद्धिमें तो यहाँतक आता है
कि इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता भी उन्हें परास्त नहीं कर सकते ।। १७ ।।
अमर्षी नित्यसंरब्धस्तत्र कर्णो महारथ: ।
सर्वस्त्रिविदनाधृष्यो हाुभेद्यकवचावृत: ।। १८ ।।
उस पक्षमें महारथी कर्ण भी है, जो हमारे प्रति सदा अमर्ष और क्रोधसे भरा रहता है।
वह सब अस्त्रोंका ज्ञाता, अजेय तथा अभेद्य कवचसे सुरक्षित है || १८ ।।
अनिर्जित्य रणे सवनितान् पुरुषसत्तमान् ।
अशक्यो हासहायेन हन्तुं दुर्योधनस्त्वया || १९ ।।
इन समस्त वीर पुरुषोंको युद्धमें परास्त किये बिना तुम अकेले दुर्योधनको नहीं मार
सकते ।। १९ ||
न निद्रामधिगच्छामि चिन्तयानो वृकोदर ।
अतिसर्वान् धनुग्राहान् सूतपुत्रस्य लाघवम् | २० ।।
वृकोदर! सूतपुत्र कर्णके हाथोंकी फुर्ती समस्त धनुर्धरोंसे बढ़-चढ़कर है। उसका स्मरण
करके मुझे अच्छी तरह नींद नहीं आती है || २० ।।
वैशम्पायन उवाच
एतद् वचनमाज्ञाय भीमसेनो>त्यमर्षण: ।
बभूव विमनास्त्रस्तो न चैवोवाच किंचन ।। २१ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! युधिष्ठदिरका यह वचन सुनकर अत्यन्त क्रोधी
भीमसेन उदास और शंकायुक्त हो गये। फिर उनके मुँहसे कोई बात नहीं निकली || २१ ।।
तयो: संवदतोरेव॑ तदा पाण्डवर्योर्द्वयो: ।
आजगाम महायोगी व्यास: सत्यवतीसुत: ।। २२ ।।
दोनों पाण्डवोंमें इस प्रकार बातचीत हो ही रही थी कि महायोगी सत्यवतीनन्दन व्यास
वहाँ आ पहुँचे || २२ ।।
सो$5भिगम्य यथान्यायं पाण्डवै: प्रतिपूजित: ।
युधिष्ठटिरमिदं वाक्यमुवाच वदतां वर: ॥। २३ ।।
पाण्डवोंने उठकर उनकी अगवानी की और यथायोग्य पूजन किया। तत्पश्चात्
वक्ताओंमें श्रेष्ठ व्यासजी युधिष्ठिरसे इस प्रकार बोले-- || २३ ।।
व्यास उवाच
युधिष्ठिर महाबाहो वेझि ते हृदयस्थितम् ।
मनीषया ततः क्षिप्रमागतो5स्मि नरर्षभ ।। २४ ।।
व्यासजीने कहा--नरश्रेष्ठ महाबाहु युधिष्छिर! मैं ध्यानके द्वारा तुम्हारे मनका भाव
जान चुका हूँ। इसलिये शीघ्रतापूर्वक यहाँ आया हूँ || २४ ।।
भीष्माद् द्रोणात् कृपात् कर्णाद द्रोणपुत्राच्च भारत ।
दुर्योधनान्नपसुतात् तथा दुःशासनादपि ।। २५ |।
यत् ते भयममित्रघ्न हृदि सम्परिवर्तते ।
तत् ते5हं नाशयिष्यामि विधिदृष्टेन कर्मणा ।। २६ ।।
शत्रुहन्ता भारत! भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन और
दुःशासनसे भी जो तुम्हारे मनमें भय समा गया है, उसे मैं शास्त्रीय उपायसे नष्ट कर
दूँगा || २५-२६ ।।
तच्छुत्वा धृतिमास्थाय कर्मणा प्रतिपादय ।
प्रतिपाद्य तु राजेन्द्र ततः क्षिप्रं ज्वरं जहि ॥। २७ ।।
राजेन्द्र! उस उपायको सुनकर धैर्यपूर्वक प्रयत्नद्वारा उसका अनुष्ठान करो। उसका
अनुष्ठान करके शीघ्र ही अपनी मानसिक चिन्ताका परित्याग कर दो || २७ ।।
तत एकान्तमुन्नीय पाराशर्यों युधिष्ठिरम् ।
अब्रवीदुपपन्नार्थमिदं वाक्यविशारद: ।। २८ ।।
तदनन्तर प्रवचनकुशल पराशरनन्दन व्यासजी युधिष्ठिरको एकान्तमें ले गये और उनसे
यह युक्तियुक्त वचन बोले-- ॥। २८ ।।
श्रेयसस्ते पर: काल: प्राप्तो भरतसत्तम ।
येनाभिभविता शत्रून् रणे पार्थो धनुर्धर: ।। २९ ।।
“भरतश्रेष्ठ! तुम्हारे कल्याणका सर्वश्रेष्ठ समय आया है, जिससे धनुर्धर अर्जुन युद्धमें
शत्रुओंको पराजित कर देंगे || २९ |।
गृहाणेमां मया प्रोक्तां सिद्धि मूर्तिमतीमिव ।
विद्यां प्रतिस्मृतिं नाम प्रपन्नाय ब्रवीमि ते || ३० ।।
“मेरी दी हुई इस प्रतिस्मृति नामक विद्याको ग्रहण करो, जो मूर्तिमती सिद्धिके समान
है। तुम मेरे शरणागत हो, इसलिये मैं तुम्हें इस विद्याका उपदेश करता हूँ ।। ३० ।।
यामवाप्य महाबाहुरर्जुन: साधयिष्यति ।
अस्त्रहेतोरममहिन्द्रं च रुद्रे चैवाभिगच्छतु ।। ३१ ।।
वरुणं च कुबेरं च धर्मराजं च पाण्डव ।
शक्तो होष सुरान् द्रष्टं तपसा विक्रमेण च ।। ३२ ।।
“जिसे तुमसे पाकर महाबाहु अर्जुन अपना सब कार्य सिद्ध करेंगे। पाण्डुनन्दन! ये
अर्जुन दिव्यास्त्रोंकी प्राप्तिके लिये देवराज इन्द्र, रुद्र, वरुण, कुबेर तथा धर्मराजके पास
जायँँ। ये अपनी तपस्या और पराक्रमसे देवताओंको प्रत्यक्ष देखनेमें समर्थ
होंगे ।। ३१-३२ ।।
ऋषिरेष महातेजा नारायणसहायवान् ।
पुराण: शाश्वतो देवस्त्वजेयो जिष्णुरच्युत: ।। ३३ ।।
अस्त्राणीन्द्राच्च रुद्राच्च लोकपालेभ्य एव च |
समादाय महाबाहुर्महत् कर्म करिष्यति ।। ३४ ।।
“भगवान् नारायण जिनके सखा हैं, वे पुरातन महर्षि महातेजस्वी नर ही अर्जुन हैं।
सनातन देव, अजेय, विजयशील तथा अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले हैं। महाबाहु
अर्जुन इन्द्र, रुद्र तथा अन्य लोकपालोंसे दिव्यास्त्र प्राप्त करके महान् कार्य
करेंगे || ३३-३४ ।।
वनादस्माच्च कौन्तेय वनमन्यद् विचिन्त्यताम् ।
निवासार्थाय यत् युक्त भवेद् व: पृथिवीपते ।। ३५ ।।
“कुन्तीकुमार! पृथिवीपते! अब तुम अपने निवासके लिये इस वनसे किसी दूसरे वनमें,
जो तुम्हारे लिये उपयोगी हो, जानेकी बात सोचो ।। ३५ ।।
एकत्र चिरवासो हि न प्रीतिजननो भवेत् ।
तापसानां च सर्वेषां भवेदुद्वेशकारक: ।। ३६ ।।
“एक ही स्थानपर अधिक दिनोंतक रहना प्राय: रुचिकर नहीं होता। इसके सिवा, यहाँ
तुम्हारा चिरनिवास समस्त तपस्वी महात्माओंके लिये तपमें विघ्न पड़नेके कारण
उद्वेगकारक होगा ।। ३६ ।।
मृगाणामुपयोगश्व वीरुदौषधिसंक्षय: ।
बिभर्षि च बहून् विप्रान् वेदवेदाड्गपारगान् ।। ३७ ।।
'यहाँके हिंसक पशुओंके उपयोग--मारनेका काम हो चुका है तथा तुम बहुत-से वेद-
वेदांगोंके पारगामी विद्वान् ब्राह्गोंका भरण-पोषण करते हो (और हवन करते हो),
इसलिये यहाँ लता-गुल्म और ओषधियोंका क्षय हो गया है” || ३७ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमुकक््त्वा प्रपन्नाय शुचये भगवान् प्रभु: ।
प्रोवाच लोकतत्त्वज्ञो योगी विद्यामनुत्तमाम् ।। ३८ ।।
धर्मराजाय धीमान् स व्यास: सत्यवतीसुतः ।
अनुज्ञाय च कौन्तेयं तत्रैवान्तरधीयत ।। ३९ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! ऐसा कहकर लोकतत्त्वके ज्ञाता एवं शक्तिशाली
योगी परम बुद्धिमान् सत्यवतीनन्दन भगवान् व्यासजीने अपनी शरणमें आये हुए पवित्र
धर्मराज युधिष्ठिरको उस अत्युत्तम विद्याका उपदेश किया और कुन्तीकुमारकी अनुमति
लेकर फिर वहीं अन्तर्धान हो गये ।। ३८-३९ ।।
युधिष्ठिरस्तु धर्मात्मा तद् ब्रह्म मनसा यत: ।
धारयामास मेधावी काले काले सदाभ्यसन् ।। ४० ।।
धर्मात्मा मेधावी संयतचित्त युधिष्ठिरने उस वेदोक्त मन्त्रको ममससे धारण किया और
समय-समयपर सदा उसका अभ्यास करने लगे || ४० ।।
स व्यासवाक्यमुदितो वनाद् द्वैतवनात् ततः ।
ययौ सरस्वतीकूले काम्यक॑ं नाम काननम् ।। ४१ ।।
तदनन्तर वे व्यासजीकी आज्ञासे प्रसन्नतापूर्वक द्वैतववनसे काम्यकवनमें चले गये, जो
सरस्वतीके तटपर सुशोभित है ।। ४१ ।।
तमन्वयुर्महाराज शिक्षाक्षरविशारदा: ।
ब्राह्मणास्तपसा युक्ता देवेन्द्रमूषणो यथा ।। ४२ ।।
महाराज! जैसे महर्षिगण देवराज इन्द्रका अनुसरण करते हैं, वैसे ही वेदादि शास्त्रोंकी
शिक्षा तथा अक्षर ब्रह्मतत्त्वके ज्ञानमें निपुण बहुत-से तपस्वी ब्राह्मण राजा युधिष्ठिरके साथ
उस वनमें गये || ४२ ।।
ततः काम्यकमासाद्य पुनस्ते भरतर्षभ ।
न्यविशन्त महात्मान: सामात्या: सपरिच्छदा: ।। ४३ ।।
भरतश्रेष्ठ) वहाँसे काम्यकवनमें आकर मन्त्रियों और सेवकोंसहित वे महात्मा पाण्डव
पुनः वहीं बस गये ।। ४३ ।।
तत्र ते न्यवसन् राजन् किंचित् कालं मनस्विनः ।
धनुर्वेदपरा वीरा: शृण्वन्तो वेदमुत्तमम् ।। ४४ ।।
राजन! वहाँ धनुर्वेदके अभ्यासमें तत्पर हो उत्तम वेदमन्त्रोंका उद्घोष सुनते हुए उन
मनस्वी पाण्डवोंने कुछ कालतक निवास किया ।। ४४ ।।
चरन्तो मृगयां नित्यं शुद्धैर्बाणै्मगार्थिन: ।
पितृदैवतविप्रेभ्यो निर्वपन्तो यथाविधि ।। ४५ ।।
वे प्रतेदिन हिंसक पशुओंको मारनेके लिये शुद्ध (शास्त्रानुकूल) बाणोंद्वारा शिकार
खेलते थे एवं शास्त्रकी विधिके अनुसार नित्य पितरों तथा देवताओंको अपना-अपना भाग
देते थे अर्थात् नित्य श्राद्ध और नित्य होम करते थे | ४५ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि काम्यकवनगमने
षट्त्रिंशो5ध्याय: ।। ३६ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अजुनाभियगमनपर्वमें काम्यकवनगमनविषयक
छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ३६ ॥।
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सप्तत्रिशो5्ध्याय:
अर्जुनका सब भाई आदिसे मिलकर इन्द्रकील पर्वतपर
जाना एवं इन्द्रका दर्शन करना
वैशम्पायन उवाच
कस्यचित् त्वथ कालस्य धर्मराजो युधिष्ठिर: ।
संस्मृत्य मुनिसंदेशमिदं वचनमब्रवीत् ।। १ ।।
विविक्ते विदितप्रज्ञमर्जुनं पुरुषर्षभ ।
सान्त्वपूर्व स्मितं कृत्वा पाणिना परिसंस्पृशन् ।। २ ।।
स मुहूर्तमिव ध्यात्वा वनवासमरिंदम: ।
धनंजयं धर्मराजो रहसीदमुवाच ह ।। ३ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--नरश्रेष्ठ जनममेजय! कुछ कालके अनन्तर धर्मराज
युधिष्ठिरको व्यासजीके संदेशका स्मरण हो आया। तब उन्होंने परम बुद्धिमान् अर्जुनसे
एकान्तमें वार्तालाप किया। शत्रुओंका दमन करनेवाले धर्मराज युधिष्ठिरने दो घड़ीतक
वनवासके विषयमें चिन्तन करके किंचित् मुसकराते हुए अर्जुनके शरीरको हाथसे स्पर्श
किया और एकान्तमें उन्हें सान्त्वना देते हुए इस प्रकार कहा ।। १--३ ।।
युधिछिर उवाच
भीष्मे द्रोणे कृपे कर्णे द्रोणपुत्रे च भारत ।
धरनुर्वेदश्चतुष्पाद एतेष्वद्य प्रतिष्ठित: | ४ ।।
युधिष्ठिरने कहा--भारत! आजकल पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण और
अश्वत्थामा--इन सबमें चारों पादोंसे युक्त सम्पूर्ण धनुर्वेद प्रतिष्ठित है ।। ४ ।।
दैवं बाह्यें मानुषं च सयत्नं सचिकित्सितम् ।
सर्वस्त्राणां प्रयोगं च अभिजानन्ति कृत्स्नश: || ५ ।।
वे दैव, ब्राह्म और मानुष तीनों पद्धतियोंके अनुसार सम्पूर्ण अस्त्रोंके प्रयोगकी सारी
कलाएँ जानते हैं। उन अस्त्रोंके ग्रहण और धारणरूप प्रयत्नसे तो वे परिचित हैं ही,
शत्रुओंद्वारा प्रयुक्त हुए अस्त्रोंकी चिकित्सा (निवारणके उपाय)-को भी जानते हैं ।। ५ ।।
ते सर्वे धृतराष्ट्रस्य पुत्रेण परिसान्त्विता: ।
संविभक्ताश्न तुष्टाश्न गुरुवत् तेषु वर्तते ।। ६ ।।
उन सबको धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनने बड़े आश्वासनके साथ रखा है और उपभोगकी
सामग्री देकर संतुष्ट किया है। इतना ही नहीं, वह उनके प्रति गुरुजनोचित बर्ताव करता
है।। ६ ।।
सर्वयोधेषु चैवास्य सदा प्रीतिरनुत्तमा ।
आचार्या मानितास्तुष्टा: शान्तिं व्यवहरन्त्युत ।। ७ ।।
अन्य सम्पूर्ण योद्धाओंपर भी दुर्योधन सदा ही बहुत प्रेम रखता है। उसके द्वारा
सम्मानित और संतुष्ट किये हुए आचार्यगण उसके लिये सदा शान्तिका प्रयत्न करते
हैं ।। ७ ।।
शक्ति न हापयिष्यन्ति ते काले प्रतिपूजिता: ।
अद्य चेयं मही कृत्स्ना दुर्योधनवशानुगा ।। ८ ।।
सग्रामनगरा पार्थ ससागरवनाकरा |
भवानेव प्रियो5स्माकं त्वयि भार: समाहित: ।। ९ ।।
जो लोग उसके द्वारा समय-समयपर समादृत हुए हैं, वे कभी उसकी शक्ति क्षीण नहीं
होने देंगे | पार्थ! आज यह सारी पृथ्वी ग्राम, नगर, समुद्र, वन तथा खानोंसहित दुर्योधनके
वशमें है। तुम्हीं हम सब लोगोंके अत्यन्त प्रिय हो। हमारे उद्धारका सारा भार तुमपर ही
है ।। ८-९ |।
अत्र कृत्य॑ प्रपश्यामि प्राप्तकालमरिंदम ।
कृष्णद्वैपायनात् तात गृहीतोपनिषन्मया ।। १० ।।
शत्रुदमन! अब इस समयके योग्य जो कर्तव्य मुझे उचित दिखायी देता है, उसे सुनो।
तात! मैंने श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजीसे एक रहस्यमयी विद्या प्राप्त की है ।। १० ।।
तया प्रयुक्तया सम्यग् जगत् सर्व प्रकाशते ।
तेन त्वं ब्रह्मणा तात संयुक्त: सुसमाहित: ।। ११ ।।
देवतानां यथाकाल प्रसादं प्रतिपालय ।
तपसा योजयात्मानमुग्रेण भरतर्षभ ।। १२ ।।
धनुष्मात् कवची खड्गी मुनि: साधुव्रते स्थित: ।
न कस्यचित् ददन्मार्ग गच्छ तातोत्तरां दिशम् ।। १३ |।
उसका विधिवत् प्रयोग करनेपर समस्त जगत् अच्छी प्रकारसे ज्यों-का-त्यों स्पष्ट
दीखने लगता है। तात! उस मन्त्र-विद्यासे युक्त एवं एकाग्रचित्त होकर तुम यथासमय
देवताओंकी प्रसन्नता प्राप्त करो। भरतश्रेष्ठी! अपने-आपको उग्र तपस्यामें लगाओ। धनुष,
कवच और खड्ग धारण किये साधु-व्रतके पालनमें स्थित हो मौनावलम्बनपूर्वक किसीको
आक्रमणका मार्ग न देते हुए उत्तर दिशाकी ओर जाओ || ११--१३ ।।
इन्द्रे हास्त्राणि दिव्यानि समस्तानि धनंजय ।
व॒त्राद् भीतैर्बलं देवैस्तदा शक्रे समर्पितम् ।। १४ ।।
धनंजय! इन्द्रको समस्त दिव्यास्त्रोंका ज्ञान है। वृत्रासुरसे डरे हुए सम्पूर्ण देवताओंने
उस समय अपनी सारी शक्ति इन्द्रको ही समर्पित कर दी थी || १४ ।।
तान्येकस्थानि सर्वाणि ततत्त्वं प्रतिपत्स्यसे ।
शक्रमेव प्रपद्यस्व स ते<स्त्राणि प्रदास्यति ॥। १५ ।।
दीक्षितोउद्यैव गच्छ त्वं द्रष्टूं देव पुरंदरम्
वे सब दिव्यास्त्र एक ही स्थानमें हैं, तुम उन्हें वहींसे प्राप्त कर लोगे; अतः तुम इन्द्रकी
ही शरण लो। वही तुम्हें सब अस्त्र प्रदान करेंगे। आज ही दीक्षा ग्रहण करके तुम देवराज
इन्द्रके दर्शनकी इच्छासे यात्रा करो || १५३ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमुकक््त्वा धर्मराजस्तमध्यापयत प्रभु: ।। १६ ।।
दीक्षितं विधिनानेन धृतवाक्कायमानसम् |
अनुजज्ञे तदा वीरं भ्राता भ्रातरमग्रज: ।। १७ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! ऐसा कहकर शक्तिशाली धर्मराज युधिष्ठिरने
मन, वाणी और शरीरको संयममें रखकर दीक्षा ग्रहण करनेवाले अर्जुनको विधिपूर्वक
पूर्वोक्त प्रतिस्मृति-विद्याका उपदेश किया। तदनन्तर बड़े भाई युधिष्ठिरने अपने वीर भाई
अर्जुनको वहाँसे प्रस्थान करनेकी आज्ञा दी || १६-१७ ||
निदेशाद् धर्मराजस्य द्रष्टकाम: पुरंदरम् |
धनुर्गाण्डीवमादाय तथाक्षय्ये महेषुधी ।। १८ ।।
कवची सतलत्राणो बद्धगोधाड्गुलित्रवान् |
ह॒त्वानिनें ब्राह्मणान्निष्कै: स्वस्ति वाच्य महाभुज: ।। १९ ।।
प्रातिष्ठत महाबाहु: प्रगूहीतशरासन: ।
वधाय धाररराष्ट्राणां नि:श्वस्योर्ध्वमुदीक्ष्य च |। २० ।।
धर्मराजकी आज्ञासे देवराज इन्द्रका दर्शन करनेकी इच्छा मनमें रखकर महाबाहु
धनंजयने अग्निमें आहुति दी और स्वर्णमुद्राओंकी दक्षिणा देकर ब्राह्मणोंसे स्वस्ति-वाचन
कराया तथा गाण्डीव धनुष और दो महान् अक्षय तूणीर साथ ले कवच, तलत्राण (जूते)
तथा अंगुलियोंकी रक्षाके लिये गोहके चमड़ेका बना हुआ अंगुलित्र धारण किया। इसके
बाद ऊपरकी ओर देख लंबी साँस खींचकर धुृतराष्ट्रपुत्रोंके वधके लिये महाबाहु अर्जुन
धनुष हाथमें लिये वहाँसे प्रस्थित हुए || १८--२० ।।
त॑ दृष्टवा तत्र कौन्तेयं प्रगृहीतशरासनम् |
अब्रुवन ब्राह्मणा: सिद्धा भूतान्यन्तर्हितानि च || २३१ ।।
कुन्तीनन्दन अर्जुनको वहाँ धनुष लिये जाते देख सिद्धों, ब्राह्मणों तथा अदृश्य भूतोंने
कहा-- ॥। २१ ।।
क्षिप्रमाप्तुहि कौन्न्तेय मनसा यद् यदिच्छसि ।
अब्रुवन् ब्राह्मणा: पार्थमिति कृत्वा जयाशिष: ।। २२ ।।
संसाधयस्व कौन्तेय ध्रुवो5स्तु विजयस्तव ।
“कुन्तीकुमार! तुम अपने मनमें जो-जो इच्छा रखते हो, वह सब तुम्हें शीघ्र प्राप्त हो।'
इसके बाद ब्राह्मणोंने अर्जुनको विजयसूचक आशीर्वाद देते हुए कहा--*कुन्तीपुत्र! तुम
अपना अभीष्ट साधन करो, तुम्हें अवश्य विजय प्राप्त हो” || २२६ ।।
त॑ तथा प्रस्थितं वीरं शालस्कन्धोरुमर्जुनम् । २३ ।।
मनांस्यादाय सर्वेषां कृष्णा वचनमत्रवीत् ।
शालवृक्षके समान कंधे और जाँघोंसे सुशोभित वीर अर्जुनको इस प्रकार सबके
चित्तको चुराकर प्रस्थान करते देख द्रौपदी इस प्रकार बोली ।। २३६ ।।
कृष्णोवाच
यत् ते कुन्ती महाबाहो जातस्यैच्छद् धनंजय ।। २४ ।।
तत् ते<स्तु सर्व कौन्तेय यथा च स्वयमिच्छसि ।
द्रौोपदीने कहा--कुन्तीकुमार महाबाहु धनंजय! आपके जन्म लेनेके समय आर्या
कुन्तीने अपने मनमें आपके लिये जो-जो इच्छाएँ की थीं तथा आप स्वयं भी अपने हृदयमें
जो-जो मनोरथ रखते हों, वे सब आपको प्राप्त हों ।। २४३ ।।
मास्माकं क्षत्रियकुले जन्म कश्चिदवाप्रुयात् ।। २५ ।।
ब्राह्मणे भ्यो नमो नित्यं येषां भैक्ष्येण जीविका ।
हमलोगोंमेंसे कोई भी क्षत्रिय-कुलमें उत्पन्न न हो। उन ब्राह्मणोंको नमस्कार है, जिनका
भिक्षासे ही निर्वाह हो जाता है ।। २५३ ।।
इदं मे परमं दु:ःखं य: स पाप: सुयोधन: ।। २६ ।।
दृष्टवा मां गौरिति प्राह प्रहलन् राजसंसदि ।
नाथ! मुझे सबसे बढ़कर दुःख इस बातसे हुआ है कि उस पापी दुर्योधनने राजाओंसे
भरी हुई सभामें मेरी ओर देखकर और मुझे “गाय” (अनेक पुरुषोंके उपभोगमें आनेवाली)
कहकर मेरा उपहास किया || २६३ ।।
तस्माद् दुःखादिदं दुःखं गरीय इति मे मति: ।। २७ ।।
यत् तत् परिषदो मध्ये बह्नयुक्तमभाषत |
उस दुःखसे भी बढ़कर महान् कष्ट मुझे इस बातसे हुआ कि उसने भरी सभामें मेरे प्रति
बहुत-सी अनुचित बातें कहीं || २७३ ।।
नूनं ते भ्रातर: सर्वे त्वत्कथाभि: प्रजागरे ।। २८ ।।
रंस्यन्ते वीर कर्माणि कथयन्तः पुन: पुनः ।
नैव नः पार्थ भोगेषु न धने नोत जीविते ।। २९ ।।
तुष्टिबबुद्धिर्भवित्री वा त्वयि दीर्घप्रवासिनि ।
त्वयि नः पार्थ सर्वेषां सुखदु:खे समाहिते ।। ३० ।।
जीवितं मरणं चैव राज्यमैश्वर्यमेव च ।
आपूृष्टो मेडसि कौन्तेय स्वस्ति प्राप्तुहि भारत ।। ३१ ।।
वीरवर! निश्चय ही आपके चले जानेके बाद आपके सभी भाई जागते समय आपहीके
पराक्रमकी चर्चा बार-बार करते हुए अपना मन बहलायेंगे। पार्थ! दीर्घकालके लिये आपके
प्रवासी हो जानेपर हमारा मन न तो भोगोंमें लगेगा और न धनमें ही। इस जीवनमें भी कोई
रस नहीं रह जायगा। आपके बिना हम इन वस्तुओंसे संतोष नहीं पा सकेंगे। पार्थ! हम
सबके सुख-दुःख, जीवन-मरण तथा राज्य-ऐश्वर्य आपपर ही निर्भर हैं। भरतकुलतिलक!
कुन्तीकुमार! मैंने आपको विदा दी; आप कल्याणको प्राप्त हों || २८--३१ ।।
बलवदभिवविरुद्ध न कार्यमेतत् त्वयानघ ।
प्रयाह्म॒ुविध्नेनेवाशु विजयाय महाबल ।
नमो धात्रे विधात्रे च स्वस्ति गच्छ हुनामयम् ।। ३२ ।।
निष्पाप महाबली आर्यपुत्र! आप बलवानोंसे विरोध न करें, यह मेरा अनुरोध है। विध्न-
बाधाओंसे रहित हो विजयप्राप्तिके लिये शीघ्र यात्रा कीजिये। धाता और विधाताको
नमस्कार है। आप कुशल और स्वस्थतापूर्वक प्रस्थान कीजिये ।। ३२ ।।
ह्वी: श्री: कीर्तिद्युति: पुष्टिरमा लक्ष्मी: सरस्वती |
इमा वै तव पान्थस्य पालयन्तु धनंजय ।। ३३ ।।
धनंजय! ही, श्री, कीर्ति, द्युति, पुष्टि, उमा, लक्ष्मी और सरस्वती--ये सब देवियाँ मार्गमें
जाते समय आपकी रक्षा करें ।। ३३ ।।
ज्येष्ठापचायी ज्येष्ठस्य भ्रातुर्वचनकारक: ।
प्रपद्ये5हं वसून् रुद्रानादित्यान्ू समरुद्गणान् ।। ३४ ।।
विश्वेदेवांस्तथा साध्याञ्छान्त्यर्थ भरतर्षभ ।
स्वस्ति ते<स्त्वान्तरिक्षेभ्य: पार्थिवेभ्यश्वु भारत ।। ३५ ।।
दिव्येभ्यश्वैव भूतेभ्यो ये चान्ये परिपन्थिन: ।
आप बड़े भाईका आदर करनेवाले हैं, उनकी आज्ञाके पालक हैं। भरतश्रेष्ठ! मैं आपकी
शान्तिके लिये वसु, रुद्र, आदित्य, मरुदगण, विश्वेदेव तथा साध्य देवताओंकी शरण लेती
हूँ। भारत! भौम, आन्तरिक्ष तथा दिव्य भूतोंसे और दूसरे भी जो मार्गमें विघध्न डालनेवाले
प्राणी हैं, उन सबसे आपका कल्याण हो ।। ३४-३५६ ||
वैशम्पायन उवाच
एवमुक््त्वा55शिष: कृष्णा विरराम यशस्विनी ।। ३६ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन! ऐसी मंगलकामना करके यशस्विनी द्रौपदी चुप हो
गयी ।। ३६ |।
ततः प्रदक्षिणं कृत्वा भ्रातृन् धौम्यं च पाण्डव: ।
प्रातिष्ठत महाबाहु: प्रगृह्म रुचिरं धनु: ।॥ ३७ ।।
तदनन्तर पाण्डुनन्दन महाबाहु अर्जुनने अपना सुन्दर धनुष हाथमें लेकर सभी भाइयों
और धौम्य मुनिको दाहिने करके वहाँसे प्रस्थान किया ।। ३७ ।।
तस्य मार्गादपाक्रामन् सर्व भूतानि गच्छत: ।
युक्तस्यैन्द्रेण योगेन पराक्रान्तस्य शुष्मिण: ।। ३८ ।।
महान् पराक्रमी और महाबली अर्जुनके यात्रा करते समय उनके मार्गसे समस्त प्राणी
दूर हट जाते थे; क्योंकि वे इन्द्रसे मिला देनेवाली प्रतिस्मृति नामक योगविद्यासे युक्त
थे ।। ३८ ।।
सो5गच्छत् पर्वतांस्तात तपोधननिषेवितान् ।
दिव्यं हैमवतं पुण्यं देवजुष्टं परंतप: ।। ३९ ।।
परंतप अर्जुन तपस्वी महात्माओंद्वारा सेवित पर्वतोंके मार्गसे होते हुए दिव्य, पवित्र
तथा देवसेवित हिमालय पर्वतपर जा पहुँचे ।। ३९ ।।
अगच्छत् पर्वतं पुण्यमेकाह्रैव महामना: ।
मनोजवगतिर््भूत्वा योगयुक्तो यथानिल: ।। ४० ।।
महामना अर्जुन योगयुक्त होनेके कारण मनके समान तीव्र वेगसे चलनेमें समर्थ हो गये
थे, अतः वे वायुके समान एक ही दिनमें उस पुण्य पर्वतपर पहुँच गये ।। ४० ।।
हिमवन्तमतिक्रम्प गन्धमादनमेव च ।
अत्यक्रामत् स दुर्गाणि दिवारात्रमतन्द्रित: |। ४१ ।।
हिमालय और गन्धमादन पर्वतको लाँघकर उन्होंने आलस्यरहित हो दिन-रात चलते
हुए और भी बहुत-से दुर्गम स्थानोंको पार किया ।। ४१ ।।
इन्द्रकीलं समासाद्य ततो5तिष्ठद् धनंजय: ।
अन्तरिक्षेडतिशुश्राव तिछेति स वचस्तदा || ४२ |।
तदनन्तर इन्द्रकील पर्वतपर पहुँचकर अर्जुनने आकाशमें उच्च स्वरसे गूँजती हुई एक
वाणी सुनी--“तिष्ठ” (यहीं ठहर जाओ)। तब वे वहीं ठहर गये ।। ४२ ।।
तच्छुत्वा सर्वतो दृष्टि चारयामास पाण्डव: |
अथापश्यत् सव्यसाची वृक्षमूले तपस्विनम् ।। ४३ ।।
वह वाणी सुनकर पाण्डुनन्दन अर्जुनने चारों ओर दृष्टिपात किया। इतनेहीमें उन्हें
वृक्षके मूलभागमें बैठे हुए एक तपस्वी महात्मा दिखायी दिये ।। ४३ ।।
ब्राह्यया श्रिया दीप्यमानं पिड़लं जटिलं कृशम् |
सोडब्रवीदर्जुनं तत्र स्थितं दृष्टत्वा महातपा: ।। ४४ ।।
वे अपने ब्रह्मतेजसे उदभासित हो रहे थे। उनकी अंगकान्ति पिंगलवर्णकी थी। सिरपर
जटा बढ़ी हुई थी और शरीर अत्यन्त कृश था। उन महातपस्वीने अर्जुनको वहाँ खड़े हुए
देखकर पूछा-- ।। ४४ ।।
कस्त्वं तातेह सम्प्राप्तो धनुष्मान् कवची शरी ।
निबद्धासितलत्राण: क्षत्रधर्ममनुव्रत: ।। ४५ ।।
नेह शस्त्रेण कर्तव्यं शान्तानामेष आलय: ।
विनीतक्रोधहर्षाणां ब्राह्मणानां तपस्विनाम् ।। ४६ ।।
“तात! तुम कौन हो? जो धनुष-बाण, कवच, तलवार तथा दस्तानेसे सुसज्जित हो
क्षत्रियधर्मका अनुगमन करते हुए यहाँ आये हो। यहाँ अस्त्र-शस्त्रकी आवश्यकता नहीं है।
यह तो क्रोध और हर्षको जीते हुए तपस्यामें तत्पर शान्त ब्राह्मणोंका स्थान है || ४५-४६ ।।
नेहास्ति धनुषा कार्य न संग्रामो5त्र कहिचित् ।
निक्षिपैतद् धनुस्तात प्राप्तोडसि परमां गतिम् ।। ४७ ।।
“यहाँ कभी कोई युद्ध नहीं होता, इसलिये यहाँ तुम्हारे धनुषका कोई काम नहीं है।
तात! यह धनुष यहीं फेंक दो, अब तुम उत्तम गतिको प्राप्त हो चुके हो || ४७ ।।
ओजसा तेजसा वीर यथा नान्य: पुमान् क्वचित् |
तथा हसन्निवाभीद्ष्णं ब्राह्मुणो<र्जुनमब्रवीत् ।
न चैनं चालयामास धैर्यात् सुधृतनिश्चयम् ।। ४८ ।।
“वीर! ओज और तेजमें तुम्हारे-जैसा दूसरा कोई पुरुष नहीं है!” इस प्रकार उन
ब्रह्मर्षिने हँसते हुए-से बार-बार अर्जुनसे धनुषको त्याग देनेकी बात कही। परंतु अर्जुन
धनुष न त्यागनेका दृढ़ निश्चय कर चुके थे; अतः ब्रह्मर्षि उन्हें धैर्यसे विचलित नहीं कर
सके ।।
तमुवाच तत: प्रीत: स द्विज: प्रहसन्निव ।
वरं वृणीष्व भद्रं ते शक्रोडहमरिसूदन ।। ४९ ।।
तब उन ब्राह्मण देवताने पुनः प्रसन्न होकर उनसे हँसते हुए-से कहा--“शत्रुसूदन!
तुम्हारा भला हो, मैं साक्षात् इन्द्र हूँ, मुझसे कोई वर माँगो' ।। ४९ ।।
एवमुक्त: सहस्राक्षं प्रत्युवाच धनंजय: ।
प्राउजलि: प्रणतो भूत्वा शूर: कुरुकुलोद्वह: ।। ५० ।।
यह सुनकर कुरुकुलरत्न शूरवीर अर्जुनने सहस्र नेत्रधारी इन्द्रसे हाथ जोड़कर
प्रणामपूर्वक कहा-- || ५० ।।
ईप्सितो होष वै कामो वरं चैनं॑ प्रयच्छ मे ।
त्वत्तोड्द्य भगवन्तस्त्रं कृत्स्नमिच्छामि वेदितुम् ।। ५१ ।।
“'भगवन्! मैं आपसे सम्पूर्ण अस्त्रोंका ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ, यही मेरा अभीष्ट
मनोरथ है; अतः मुझे यही वर दीजिये” || ५१ ।।
प्रत्युवाच महेन्द्रस्तं प्रीतात्मा प्रहसन्निव ।
इह प्राप्तस्य कि कार्यमस्त्रैस्तव धनंजय ।। ५२ ।।
कामान् वृणीष्य लोकांस्त्व॑ प्राप्तोडसि परमां गतिम् ।
एवमुक्त: प्रत्युवाच सहस्राक्षं धनंजय: ।। ५३ ।।
न लोभान्न पुन: कामान्न देवत्वं पुन: सुखम् ।
न च सर्वामरैश्वर्य कामये त्रिदशाधिप ।। ५४ ।।
भ्रातृंस्तान् विपिने त्यक्त्वा वैरमप्रतियात्य च ।
अकीर्ति सर्वलोकेषु गच्छेयं शाश्वती: समा: ।। ५५ ।।
तब महेन्द्रने प्रसन्नचित्त हो हँसते हुए-से कहा--“धनंजय! जब तुम यहाँतक आ पहुँचे,
तब तुम्हें अस्त्रोंको लेकर क्या करना है? अब इच्छानुसार उत्तम लोक माँग लो; क्योंकि तुम्हें
उत्तम गति प्राप्त हुई है।। यह सुनकर धनंजयने पुनः देवराजसे कहा--देवेश्वर! मैं अपने
भाइयोंको वनमें छोड़कर (शत्रुओंसे) वैरका बदला लिये बिना लोभ अथवा कामनाके
वशीभूत हो न तो देवत्व चाहता हूँ, न सुख और न सम्पूर्ण देवताओंका एऐश्वर्य प्राप्त कर
लेनेकी ही मेरी इच्छा है। यदि मैंने वैसा किया तो सदाके लिये सम्पूर्ण लोकोंमें मुझे महान्
अपयश प्राप्त होगा” || ५२--५५ ||
एवमुक्त: प्रत्युवाच वृत्रहा पाण्डुनन्दनम् |
सान्त्वयज्छलक्ष्णया वाचा सर्वलोकनमस्कृत: ।। ५६ ।।
अर्जुनके ऐसा कहनेपर विश्ववन्दित, वृत्र-विनाशक इन्द्रने मधुर वाणीमें अर्जुनको
सान्त्वना देते हुए कहा-- || ५६ ।।
यदा द्रक्ष्यसि भूतेशं तयक्षं शूलधरं शिवम् |
तदा दातास्मि ते तात दिव्यान्यस्त्राणि सर्वश: ।। ५७ ।।
“तात! जब तुम्हें तीन नेत्रोंसे विभूषित त्रिशूलधारी भूतनाथ भगवान् शिवका दर्शन
होगा, तब मैं तुम्हें सम्पूर्ण दिव्यास्त्र प्रदान करूँगा ।। ५७ ।।
क्रियतां दर्शने यत्नो देवस्य परमेष्ठिन: ।
दर्शनात् तस्य कौन्तेय संसिद्धः स्वर्गमेष्यसि ।। ५८ ।।
“कुन्तीकुमार! तुम उन परमेश्वर महादेवजीका दर्शन पानेके लिये प्रयत्न करो। उनके
दर्शनसे पूर्णतः सिद्ध हो जानेपर तुम स्वर्गलोकमें पधारोगे” ।। ५८ ।।
इत्युक्त्वा फाल्गुनं शक्रो जगामादर्शन॑ पुनः ।
अर्जुनो5प्यथ तत्रैव तस्थौ योगसमन्वित: ।। ५९ ।।
अर्जुनसे ऐसा कहकर इन्द्र पुनः अदृश्य हो गये। तत्पश्चात् अर्जुन योगयुक्त हुए वहीं
रहने लगे ।। ५९ |।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि इन्द्रदर्शने सप्तत्रिंशो5ध्याय: ।।
३७ ।।
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत वनपवके अन्तर्गत अजुनाभिगमनपर्वमें इन्द्रदर्शनविषयक सैतीसवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥। ३७ ॥
अप अर [हुक हि 7 2
(कैरातपर्व)
अष्टात्रिशो5 ध्याय:
अर्जुनकी उग्र तपस्या और उसके विषयमें ऋषियोंका
भगवान् शंकरके साथ वार्तालाप
जनमेजय उवाच
भगवज्छोतुमिच्छामि पार्थस्याक्लिष्टकर्मण: ।
विस्तरेण कथामेतां यथास्त्राण्युपलब्धवान् ॥। १ ।।
जनमेजय बोले--भगवन्! अनायास ही महान् कर्म करनेवाले कुन्तीनन्दन अर्जुनकी
यह कथा मैं विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ; उन्होंने किस प्रकार अस्त्र प्राप्त किये? ।। १ ।।
यथा च पुरुषव्याप्रो दीर्घबाहुर्धनंजय: ।
वन॑ प्रविष्टस्तेजस्वी निर्मनुष्यमभीतवत् ।। २ ।।
पुरुषसिंह महाबाहु तेजस्वी धनंजय उस निर्जन वनमें निर्भयके समान कैसे चले गये
थे? ।। २ |।
किं च तेन कृतं तत्र वसता ब्रह्मृवित्तम ।
कथं च भगवान् स्थाणुर्देवराजश्व॒ तोषित: ।। ३ ।।
ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ महर्ष] उस वनमें रहकर पार्थने क्या किया? भगवान् शंकर तथा
देवराज इन्द्रको कैसे संतुष्ट किया? ।। ३ ।।
एतदिच्छाम्यहं श्रीतुं त्वत्प्रसादाद् द्विजोत्तम |
त्वं हि सर्वज्ञ दिव्यं च मानुषं चैव वेत्थ ह । ४ |
विप्रवर! मैं आपकी कृपासे ये सब बातें सुनना चाहता हूँ। सर्वज्ञ! आप दिव्य और
मानुष सभी वृत्तान्तों-को जानते हैं ।। ४ ।।
अत्यद्भुततमं ब्रह्मन् रोमहर्षणमर्जुन: ।
भवेन सह संग्रामं चकाराप्रतिमं किल ।। ५ ।।
पुरा प्रहरतां श्रेष्ठ: संग्रामेष्वपराजित: ।
यच्छुत्वा नरसिंहाना दैन्यहर्षातिविस्मयात् ।। ६ ।।
शूराणामपि पार्थानां हृदयानि चकम्पिरे ।
यद् यच्च कृतवानन्यत् पार्थस्तदखिलं वद ।। ७ ।।
ब्रह्मन्! मैंने सुना है, कभी संग्राममें परास्त न होनेवाले, योद्धाओंमें श्रेष्ठ अर्जुनने
पूर्वकालमें भगवान् शंकरके साथ अत्यन्त अद्भुत, अनुपम और रोमांचकारी युद्ध किया था,
जिसे सुनकर मनुष्योंमें श्रेष्ठ शूरवीर कुन्तीपुत्रोंके हृदयोंमें भी दैन्य, हर्ष और विस्मयके
कारण कँपकँपी छा गयी थी। अर्जुनने और भी जो-जो कार्य किये हों, वे सब भी मुझे
बताइये || ५--७ ।।
न हास्य निन्दितं जिष्णो: सुसूक्ष्ममपि लक्षये ।
चरितं तस्य शूरस्य तन्मे सर्व प्रकीर्तय ।। ८ ।।
शूरवीर अर्जुनका अत्यन्त सूक्ष्म चरित्र भी ऐसा नहीं दिखायी देता है, जिसमें थोड़ी-सी
भी निन्दाके लिये स्थान हो; अत: वह सब मुझसे कहिये ।। ८ ।।
वैशम्पायन उवाच
कथयिष्यामि ते तात कथामेतां महात्मन: ।
दिव्यां पौरवशार्दूल महतीमद्भुतोपमाम् ।। ९ ।।
वैशम्पायनजीने कहा--तात! पौरवश्रेष्ठ! महात्मा अर्जुनकी यह कथा दिव्य, अद्भुत
और महत्त्वपूर्ण है; इसे मैं तुम्हें सुनाता हूँ || ९ ।।
गात्रसंस्पर्शसम्बद्धां नयम्बकेण सहानघ ।
पार्थस्य देवदेवेन शूणु सम्यक् समागमम् ।। १० ।।
अनघ! देवदेव महादेवजीके साथ अर्जुनके शरीरका जो स्पर्श हुआ था, उससे सम्बन्ध
रखनेवाली यह कथा है। तुम उन दोनोंके मिलनका यह वृत्तान्त भलीभाँति सुनो ।। १० ।।
युधिष्ठिरनियोगात् स जगामामितविक्रम: ।
शक्रं सुरेश्वरं द्रष्टे देवदेवं च शंकरम् ।। ११ ।।
दिव्यं तद् धनुरादाय खड्गं च कनकत्सरुम् |
महाबलो महाबाहुरर्जुन: कार्यसिद्धये ।। १२ ।।
दिशं ५ डक आ कौरव्यो हिमवच्छिखरं प्रति ।
ऐन्द्रि: राजन् सर्वलोकमहारथ: ।। १३ ।।
राजन्! अमित पराक्रमी, महाबली, महाबाहु, कुरुकुलभूषण, इन्द्रपुत्र अर्जुन, जो
सम्पूर्ण विश्वमें विख्यात महारथी और सुस्थिर चित्तवाले थे, युधिष्ठिरकी आज्ञासे देवराज
इन्द्र तथा देवाधिदेव भगवान् शंकरका दर्शन करनेके लिये कार्यकी सिद्धिका उद्देश्य लेकर
अपने उस दिव्य (गाण्डीव) धनुष और सोनेकी मूँठवाले खड्गको हाथमें लिये उत्तर दिशामें
हिमालय पर्वतकी ओर चले ।। ११--१३ ।।
त्वरया परया युक्तस्तपसे धृतनिश्चय: ।
वन॑ कण्टकितं घोरमेक एवान्वपद्यत || १४ ।।
तपस्याके लिये दृढ़ निश्चय करके बड़ी उतावलीके साथ जाते हुए वे अकेले ही एक
भयंकर कण्टकाकीर्ण वनमें पहुँचे ।। १४ ।।
नानापुष्पफलोपेतं नानापक्षिनिषेवितम् ।
नानामृगगणाकीर्ण सिद्धचारणसेवितम् ।। १५ ।।
जो नाना प्रकारके फल-फूलोंसे भरा था, भाँति-भाँतिके पक्षी जहाँ कलरव कर रहे थे,
अनेक जातियोंके मृग उस वनमें सब ओर विचरते रहते थे तथा कितने ही सिद्ध और चारण
निवास कर रहे थे || १५ ।।
ततः प्रयाते कौन्तेये वनं मानुषवर्जितम् ।
शड़्खानां पटहानां च शब्द: समभवद् दिवि ।। १६ ।।
तदनन्तर कुन्तीनन्दन अर्जुनके उस निर्जन वनमें पहुँचते ही आकाशमें शंखों और
नगाड़ोंका गम्भीर घोष गूँज उठा ।। १६ |।
पुष्पवर्ष च सुमहन्निपपात महीतले ।
मेघजालं च विततं छादयामास सर्वतः ।। १७ ।।
सो>तीत्य वनदुर्गाणि संनिकर्षे महागिरे: ।
शुशुभे हिमवत्पृछे वसमानो<र्जुनस्तदा ।। १८ ।।
पृथ्वीपर फूलोंकी बड़ी भारी वर्षा होने लगी। मेघोंकी घटा घिरकर आकाशमें सब ओर
छा गयी। उन दुर्गम वनस्थलियोंको लाँघकर अर्जुन हिमालयके पृष्ठभागमें एक महान्
पर्वतके निकट निवास करते हुए शोभा पाने लगे ।। १७-१८ ।।
तत्रापश्यद् ट्रुमान् फुल्लान् विहगैर्वल्गुनादितान् |
नदीश्व विपुलावर्ता वैदूर्यविमलप्रभा: ।। १९ ।।
वहाँ उन्होंने फूलोंसे सुशोभित बहुत-से वृक्ष देखे, जो पक्षियोंके मधुर शब्दसे
गुंजायमान हो रहे थे। उन्होंने वैदूर्यमणिके समान स्वच्छ जलसे भरी हुई शोभामयी कितनी
ही नदियाँ देखीं, जिनमें बहुत-सी भँवरें उठ रही थीं ।। १९ ।।
हंसकारण्डवोदगीता: सारसाभिरुतास्तथा ।
पुंस्कोकिलरुताश्चैव क्रौज्चबर्हिणनादिता: ।। २० ।।
हंस, कारण्डव तथा सारस आदि पक्षी वहाँ मीठी बोली बोलते थे। तटवर्ती वृक्षोंपर
कोयल मनोहर शब्द बोल रही थी। क्रौंचेके कलरव और मयूरोंकी केकाध्वनि भी वहाँ सब
ओर गूँजती रहती थी || २० ।।
मनोहरवनोपेतास्तस्मिन्नतिरथो<र्जुन: ।
पुण्यशीतामलजला: पश्यन् प्रीतमनाभवत् ।। २१ ।।
उन नदियोंके आस-पास मनोहर वनश्रेणी सुशोभित होती थी। हिमालयके उस
शिखरपर पवित्र, शीतल और निर्मल जलसे भरी हुई उन सुन्दर सरिताओंका दर्शन करके
अतिरथी अर्जुनका मन प्रसन्नतासे खिल उठा ।। २१ ।।
रमणीये वनोद्देशे रममाणो<र्जुनस्तदा ।
तपस्युग्रे वर्तमान उग्रतेजा महामना: ।। २२ ।।
उग्र तेजस्वी महामना अर्जुन वहाँ वनके रमणीय प्रदेशोंमें घूम-फिरकर बड़ी कठोर
तपस्यामें संलग्न हो गये || २२ ।।
दर्भचीरं निवस्याथ दण्डाजिनविभूषित: ।
शीर्ण च पतितं भूमौ पर्ण समुपयुक्तवान् ।। २३ ।।
कुशाका ही चीर धारण किये तथा दण्ड और मृगचर्मसे विभूषित अर्जुन पृथ्वीपर गिरे
हुए सूखे पत्तोंका ही भोजनके स्थानमें उपयोग करते थे ।। २३ ।।
पूर्णे पूर्णे त्रिरात्रे तु मासमेक॑ं फलाशन: ।
द्विगुणेन हि कालेन द्वितीयं मासमत्ययात् ।। २४ ।।
एक मासतक वे तीन-तीन रातके बाद केवल फलाहार करके रहे। दूसरे मासको उन्होंने
पहलेकी अपेक्षा दूने-दूने समयपर अर्थात् छः-छ: रातके बाद फलाहार करके व्यतीत
किया ।। २४ ।।
तृतीयमपि मासं स पक्षेणाहारमाचरन् ।
चतुर्थे त्वथ सम्प्राप्ते मासे भरतसत्तम: ।। २५ ।।
वायुभक्षो महाबाहुरभवत् पाण्डुनन्दन: ।
ऊर्ध्वबाहुर्निरालम्ब: पादाड्गुष्ठाग्रविष्ठित: ।। २६ ।।
तीसरा महीना पंद्रह-पंद्रह दिनमें भोजन करके बिताया। चौथा महीना आनेपर
भरतश्रेष्ठ पाण्डुनन्दन महाबाहु अर्जुन केवल वायु पीकर रहने लगे। वे दोनों भुजाएँ ऊपर
उठाये बिना किसी सहारेके पैरके अंगूठेके अग्रभागके बलपर खड़े रहे || २५-२६ ।।
सदोपस्पर्शनाच्चास्य बभूवुरमितौजस: ।
विद्युदम्भोरुहनिभा जटास्तस्य महात्मन: ।। २७ ।।
अमित तेजस्वी महात्मा अर्जुनके सिरकी जटाएँ नित्य स्नान करनेके कारण विद्युत्
और कमलोंके समान हो गयी थीं ।। २७ ।।
ततो महर्षय: सर्वे जम्मुर्देवं पिनाकिनम् |
निवेदयिषव: पार्थ तपस्युग्रे समास्थितम् ।। २८ ।।
तदनन्तर भयंकर तपस्यामें लगे हुए अर्जुनके विषयमें कुछ निवेदन करनेकी इच्छासे
वहाँ रहनेवाले सभी महर्षि पिनाकधारी महादेवजीकी सेवामें गये || २८ ।।
त॑ प्रणम्य महादेव शशंसु: पार्थकर्म तत् ।
एष पार्थो महातेजा हिमवत्पृष्ठमास्थित: ।। २९ |।
उग्रे तपसि दुष्पारे स्थितो धूमाययन् दिश: ।
तस्य देवेश न वयं विद्यः सर्वे चिकीर्षितम् ।। ३० ।।
उन्होंने महादेवजीको प्रणाम करके अर्जुनका वह तपरूप कर्म कह सुनाया। वे बोले
--“भगवन्! ये महातेजस्वी कुन्तीपुत्र अर्जुन हिमालयके पृष्ठभागमें स्थित हो अपार एवं उग्र
तपस्यामें संलग्न हैं और सम्पूर्ण दिशाओंको धूमाच्छादित कर रहे हैं। देवेश्वर! वे क्या करना
चाहते हैं, इस विषयमें हमलोगोंमेंसे कोई कुछ नहीं जानता है | २९-३० ।।
संतापयति न: सर्वानसौ साधु निवार्यताम् ।
तेषां तद्वचनं श्रुत्वा मुनीनां भावितात्मनाम् ।। ३१ ।।
उमापतिर्भूतपतिर्वाक्यमेतदुवाच ह ।
“वे अपनी तपस्याके संतापसे हम सब महर्षियोंको संतप्त कर रहे हैं। अत: आप उन्हें
तपस्यासे सद्भावपूर्वक निवृत्त कीजिये।” पवित्र चित्तवाले उन महर्षियोंका यह वचन सुनकर
भूतनाथ भगवान् शंकर इस प्रकार बोले-- ।। ३१३ ।।
महादेव उवाच
न वो विषाद: कर्तव्य: फाल्गुन॑ं प्रति सर्वश: ।। ३२ ।।
शीघ्र॑ं गच्छत संहृष्टा यथागतमतन्द्रिता: ।
अहमस्य विजानामि संकल्पं मनसि स्थितम् ।। ३३ ।।
महादेवजीने कहा--महर्षियो! तुम्हें अर्जुनके विषयमें किसी प्रकारका विषाद
करनेकी आवश्यकता नहीं है। तुरन्त आलस्यरहित हो शीघ्र ही प्रसन्नतापूर्वक जैसे आये हो,
वैसे ही लौट जाओ। अर्जुनके मनमें जो संकल्प है, मैं उसे भलीभाँति जानता
हूँ ।। ३२-३३ ।।
नास्य स्वर्गस्पूहा काचिन्नैश्वर्यस्थ तथा5<5युष: ।
यत् तस्य काड्क्षितं सर्व तत् करिष्येडहमद्य वै ।। ३४ ।।
उन्हें स्वर्गलोककी कोई इच्छा नहीं है, वे ऐश्वर्य तथा आयु भी नहीं चाहते। वे जो कुछ
पाना चाहते हैं, वह सब मैं आज ही पूर्ण करूँगा ।। ३४ ।।
वैशम्पायन उवाच
तच्छुत्वा शर्ववचनमृषय: सत्यवादिन: ।
प्रहृष्मनसो जम्मुर्यथा स्वान् पुनरालयान् ।। ३५ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--भगवान् शंकरका यह वचन सुनकर वे सत्यवादी महर्षि
प्रसन्नचित्त हो फिर अपने आश्रमोंको लौट गये || ३५ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि कैरातपर्वणि मुनिशड्करसंवादे अष्टात्रिंशो 5 ध्याय: ।।
३८ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत कैरातपर्वमें महर्षियों तथा भगवान् शंकरके
संवादसे सम्बन्ध रखनेवाला अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ३८ ॥।
अपना स२ (0 अवज असल
एकोनचत्वारिशोड ध्याय:
भगवान् शंकर और अर्जुनका युद्ध, अर्जुनपर उनका प्रसन्न
होना एवं अर्जुनके द्वारा भगवान् शंकरकी स्तुति
वैशम्पायन उवाच
गतेषु तेषु सर्वेषु तपस्विषु महात्मसु ।
पिनाकपाणिभर्भगवान् सर्वपापहरो हर: ।। १ ।।
कैरातं वेषमास्थाय काठ्चनद्रुमसंनिभम् ।
विभ्राजमानो विपुलो गिरिमेंरुरिवापर: ।। २ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! उन सब तपस्वी महात्माओंके चले जानेपर
सर्वपापहारी, पिनाक-पाणि, भगवान् शंकर किरातवेष धारण करके सुवर्णमय वृक्षके सदृश
दिव्य कान्तिसे उद्धासित होने लगे। उनका शरीर दूसरे मेरुपर्वतके समान दीप्तिमान् और
विशाल था ।। १-२ ||
श्रीमद् धनुरुपादाय शरांश्चवाशीविषोपमान् ।
निष्पपात महावेगो दहनो देहवानिव ।। ३ ||
वे एक शोभायमान धनुष और सर्पोके समान विषाक्त बाण लेकर बड़े वेगसे चले।
मानो साक्षात् अग्निदेव ही देह धारण करके निकले हों ।। ३ ।।
देव्या सहोमया श्रीमान् समानव्रतवेषया ।
नानावेषधरै्ष्टेर्भूतिरनुगतस्तदा ।। ४ ।।
किरातवेषसंच्छन्न: स्त्रीभिश्वापि सहस्रश: ।
अशोभत तदा राजन् स देशोडतीव भारत ।। ५ ।।
उनके साथ भगवती उमा भी थीं, जिनका व्रत और वेष भी उन्हींके समान था। अनेक
प्रकारके वेष धारण किये भूतगण भी प्रसन्नतापूर्वक उनके पीछे हो लिये थे। इस प्रकार
किरातवेषमें छिपे हुए श्रीमान् शिव सहसों स्त्रियोंसे घिरकर बड़ी शोभा पा रहे थे। भरतवंशी
राजन! उस समय वह प्रदेश उन सबके चलने-फिरनेसे अत्यन्त सुशोभित हो रहा
था || ४-५ ||
क्षणेन तद् वनं सर्व नि:शब्दम भवत् तदा ।
नाद: प्रस्रवणानां च पक्षिणां चाप्युपारमत् ।। ६ ।।
एक ही क्षणमें वह सारा वन शब्दरहित हो गया। झरनों और पक्षियोंतककी आवाज
बंद हो गयी ।। ६ ।।
स संनिकर्षमागम्य पार्थस्याक्लिष्टकर्मण: ।
मूक नाम दनो: पुत्र ददर्शाद्भुतदर्शनम् ।। ७ ।।
वाराहं रूपमास्थाय तर्कयन्तमिवार्जुनम् ।
हन्तुं परं दीप्पमानं तमुवाचाथ फाल्गुन: ।। ८ ।॥।
गाण्डीवं धनुरादाय शरांश्वाशीविषोपमान् |
सज्यं धनुर्वरं कृत्वा ज्याघोषेण निनादयन् ।। ९ ।।
अनायास ही महान पराक्रम करनेवाले कुन्तीपुत्र अर्जुके निकट आकर भगवान्
शंकरने अद्भुत दीखनेवाले मूक नामक अद्भुत दानवको देखा, जो सूअरका रूप धारण
करके अत्यन्त तेजस्वी अर्जुनको मार डालनेका उपाय सोच रहा था; उस समय अर्जुनने
गाण्डीव धनुष और विषैले सर्पोके समान भयंकर बाण हाथ-में ले धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ाकर
उसकी टंकारसे दिशाओंको प्रतिध्वनित करके कहा-- | ७--९ |।
यन्मां प्रार्थयसे हन्तुमनागसमिहागतम् ।
तस्मात् त्वां पूर्वमेवाहं नेताद्य यमसादनम् ।। १० |।
“अरे! तू यहाँ आये हुए मुझ निरपराधको मारनेकी घातमें लगा है, इसीलिये मैं आज
पहले ही तुझे यमलोक भेज दूँगा” ।। १० ।।
दृष्टवा तं॑ प्रहरिष्यन्तं फाल्गुनं दृढ्धन्विनम् ।
किरातरूपी सहसा वारयामास शड्कर: ।। ११ ।।
सुदृढ़ धनुषवाले अर्जुनको प्रहारके लिये उद्यत देख किरातरूपधारी भगवान् शंकरने
उन्हें सहसा रोका ।। ११ ।।
मयैष प्रार्थित: पूर्वमिन्द्रकीलसमप्रभ: ।
अनादृत्य च तद् वाक्यं प्रजहाराथ फाल्गुन: ।। १२ ।।
और कहा--*इन्द्रकील पर्वतके समान कान्तिवाले इस सूअरको पहलेसे ही मैंने अपना
लक्ष्य बना रखा है, अतः तुम न मारो।' परंतु अर्जुनने किरातके वचनकी अवहेलना करके
उसपर प्रहार कर ही दिया ।। १२ ।।
किरातश्न सम॑ तस्मिन्नेकलक्ष्ये महाद्युति: ।
प्रमुमोचाशनिप्रख्यं शरमग्निशिखोपमम् ।। १३ ।।
साथ ही महातेजस्वी किरातने भी उसी एकमात्र लक्ष्ययर बिजली और अग्निशिखाके
समान तेजस्वी बाण छोड़ा ।। १३ ।।
तौ मुक्तौ सायकौ ताभ्यां सम॑ तत्र निपेततुः ।
मूकस्य गात्रे विस्तीर्णे शैलसंहनने तदा ।। १४ ।।
उन दोनोंके छोड़े हुए वे दोनों बाण एक ही साथ मूक दानवके पर्वत-सदृश विशाल
शरीरमें लगे || १४ ।।
यथाशनेविंनिर्घोषो वज्रस्येव च पर्वते ।
तथा तयो: संनिपात: शरयोरभवत् तदा ।। १५ ।।
जैसे पर्वतपर बिजलीकी गड़गड़ाहट और वज्रपातका भयंकर शब्द होता है, उसी
प्रकार उन दोनों बाणोंके आघातका शब्द हुआ ।। १५ ।।
स विद्धो बहुभिर्बाणैर्दीप्तास्यै: पन्नगैरिव ।
ममार राक्षसं रूप॑ भूय: कृत्वा विभीषणम् ।। १६ ।।
इस प्रकार प्रज्वलित मुखवाले सर्पोके समान अनेक बाणोंसे घायल होकर वह दानव
फिर अपने भयानक राक्षसरूपको प्रकट करते हुए मर गया ।। १६ ।।
स ददर्श ततो जिष्णु: पुरुषं काउचनप्रभम् ।
किरातवेषसंच्छन्नं सत्रीसहायममित्रहा ।। १७ ।।
तमब्रवीत् प्रीतमना: कौन्तेय: प्रहसन्निव ।
को भवानटते शून्ये वने स्त्रीगणसंवृत: ।। १८ ।।
इसी समय शत्रुनाशक अर्जुनने सुवर्णके समान कान्तिमान् एक तेजस्वी पुरुषको देखा,
जो स्त्रियोंक साथ आकर अपनेको किरातवेषमें छिपाये हुए थे। तब कुन्तीकुमारने
प्रसन्नचित्त होकर हँसते हुए-से कहा--“आप कौन हैं जो इस सूने वनमें स्त्रियोंसे घिरे हुए
घूम रहे हैं? | १७-१८ ।।
न त्वमस्मिन् वने घोरे बिभेषि कनकप्रभ ।
किमर्थ च त्वया विद्धो वराहो मत्परिग्रह: ।। १९ ।।
'सुवर्णके समान दीप्तिमान् पुरुष! क्या आपको इस भयानक वनमें भय नहीं लगता?
यह सूअर तो मेरा लक्ष्य था, आपने क्यों उसपर बाण मारा? ।। १९ |।
मयाभिपन्नः पूर्व हि राक्षमो5यमिहागत: ।
कामात् परिभवाद् वापि न मे जीवन् विमोक्ष्यसे || २० ।।
“यह राक्षस पहले यहीं मेरे पास आया था और मैंने इसे काबूमें कर लिया था। आपने
किसी कामनासे इस शूकरको मारा हो या मेरा तिरस्कार करनेके लिये। किसी दशामें भी मैं
आपको जीवित नहीं छोडूँगा || २० ।।
न होष मृगयाधर्मो यस्त्वयाद्य कृतो मयि ।
तेन त्वां भ्रंशयिष्यामि जीवितात् पर्वताश्रयम् ।। २१ ।।
“यह मृगयाका धर्म नहीं है, जो आज आपने मेरे साथ किया है। आप पर्वतके निवासी
हैं तो भी उस अपराधके कारण मैं आपको जीवनसे वंचित कर दूँगा” ।। २१ ।।
इत्युक्त: पाण्डवेयेन किरात: प्रहसन्निव ।
उवाच श्लक्ष्णया वाचा पाण्डवं सव्यसाचिनम् ॥। २२ ||
पाण्डुनन्दन अर्जुनके इस प्रकार कहनेपर किरात-वेषधारी भगवान् शंकर जोर-जोरसे
हँस पड़े और सव्यसाची पाण्डवसे मधुर वाणीमें बोले-- ।। २२ ।।
न मत्कृते त्वया वीर भी: कार्या वनमन्तिकात् ।
इयं भूमि: सदास्माकमुचिता वसतां वने ।। २३ ।।
“वीर! तुम हमारे लिये वनके निकट आनेके कारण भय न करो। हम तो वनवासी हैं,
अतः हमारे लिये इस भूमिपर विचरना सदा उचित ही है || २३ ।।
त्वया तु दुष्कर: कस्मादिह वास: प्ररोचित: ।
वयं तु बहुसत्त्वेडस्मिन् निवसामस्तपोधन ।। २४ ।।
'किंतु तुमने यहाँका दुष्कर निवास कैसे पसंद किया? तपोधन! हम तो अनेक प्रकारके
जीव-जन्तुओंसे भरे हुए इस वनमें सदा ही रहते हैं || २४ ।।
भवांस्तु कृष्णवर्त्माभ: सुकुमार: सुखोचित: ।
कथं शून्यमिमं देशमेकाकी विचरिष्यति ।। २५ ।।
“तुम्हारे अंगोंकी प्रभा प्रजजलित अग्निके समान जान पड़ती है। तुम सुकुमार हो और
सुख भोगनेके योग्य प्रतीत होते हो। इस निर्जन प्रदेशमें किसलिये अकेले विचर रहे
हो?” ॥। २५ ।।
अजुन उवाच
गाण्डीवमाश्रयं कृत्वा नाराचां श्वाग्निसंनिभान् ।
निवसामि महारण्ये द्वितीय इव पावकि: ।। २६ ।।
अर्जुनने कहा--मैं गाण्डीव धनुष और अग्निके समान तेजस्वी बाणोंका आश्रय लेकर
इस महान् वनमें द्वितीय कार्तिकेयकी भाँति (निर्भय) निवास करता हूँ ।। २६ ।।
एष चापि मया जसन्तुर्मगरूपं समाश्रित: ।
राक्षसो निहतो घोरो हन्तुं मामिह चागत: ।। २७ ।।
यह प्राणी हिंसक पशुका रूप धारण करके मुझे ही मारनेके लिये यहाँ आया था, अतः
इस भयंकर राक्षसको मैंने मार गिराया है || २७ ।।
किरयात उवाच
मयैष धन्वनिर्मुक्तैस्ताडित: पूर्वमेव हि ।
बाणैरभिहत: शेते नीतश्न॒ यमसादनम् ।। २८ ।।
किरातरूपधारी शिव बोले--मैंने अपने धनुषद्वारा छोड़े हुए बाणोंसे पहले ही इसे
घायल कर दिया था। मेरे ही बाणोंकी चोट खाकर यह सदाके लिये सो रहा है और
यमलोकमें पहुँच गया || २८ ।।
ममैष लक्ष्यभूतो हि मम पूर्वपरिग्रह: ।
ममैव च प्रहारेण जीविताद् व्यपरोपित: ।। २९ ।।
मैंने ही पहले इसे अपने बाणोंका निशाना बनाया, अतः तुमसे पहले इसपर मेरा
अधिकार स्थापित हो चुका था। मेरे ही तीव्र प्रहारसे इस दानवको अपने प्राणोंसे हाथ धोना
पड़ा है ।। २९ |।
दोषान् स्वान् नार्हसे<न्यस्मै वक्तुं स््वबलदर्पित: ।
अवलिप्तो$सि मन्दात्मन् न मे जीवन विमोक्ष्यसे || ३० ।।
मन्दबुद्धे! तुम अपने बलके घमंडमें आकर अपने दोष दूसरेपर नहीं मढ़ सकते। तुम्हें
अपनी शक्तिपर बड़ा गर्व है; अत: अब तुम मेरे हाथसे जीवित नहीं बच सकते || ३० ।।
स्थिरो भवस्व मोक्ष्यामि सायकानशनीनिव ।
घटस्व परया शक््त्या मुज्च त्वमपि सायकान् ।। ३१ ।।
धैर्यपूर्वक सामने खड़े रहो, मैं वज़के समान भयानक बाण छोड़ूँगा। तुम भी अपनी
पूरी शक्ति लगाकर मुझे जीतनेका प्रयास करो। मेरे ऊपर अपने बाण छोड़ो ।। ३१ ।।
तस्य तद् वचन श्रुत्वा किरातस्यार्जुनस्तदा ।
रोषमाहारयामास ताडयामास चेषुभि: ।। ३२ ।।
किरातकी वह बात सुनकर उस समय अर्जुनको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने बाणोंसे
उसपर प्रहार आरम्भ किया ।। ३२ |।
ततो हृष्टेन मनसा प्रतिजग्राह सायकान् |
भूयो भूय इति प्राह मन्दमन्देत्युवाच ह ।। ३३ ।।
प्रहरस्व शरानेतान् नाराचान् मर्मभेदिन: ।
तब किरातने प्रसन्नचित्तसे अर्जुनके छोड़े हुए सभी बाणोंको पकड़ लिया और कहा
--“ओ मूर्ख! और बाण मार और बाण मार, इन मर्मभेदी नाराचोंका प्रहार कर' || ३३ $ ||
इत्युक्तो बाणवर्ष स मुमोच सहसार्जुन: ।। ३४ ।।
उसके ऐसा कहनेपर अर्जुनने सहसा बाणोंकी झड़ी लगा दी ।। ३४ ।।
ततस्तौ तत्र संरब्धौ राजमानौ मुहुर्मुहुः ।
शरैराशीविषाकारैस्ततक्षाते परस्परम् ।। ३५ ।।
तदनन्तर वे दोनों क्रोधमें भरकर बारंबार सर्पाकार बाणोंद्वारा एक-दूसरेको घायल
करने लगे। उस समय उन दोनोंकी बड़ी शोभा होने लगी ।। ३५ ।।
ततोडअर्जुन: शरवर्ष किराते समवासृजत् |
तत् प्रसन्नेन मनसा प्रतिजग्राह शड्कर: ।। ३६ ।।
तत्पश्चात् अर्जुनने किरातपर बाणोंकी वर्षा प्रारम्भ की; परंतु भगवान् शंकरने
प्रसन्नचित्तसे उन सब बाणोंको ग्रहण कर लिया ।। ३६ ।।
मुहूर्त शरवर्ष तत् प्रतिगृह्ा पिनाकधृक् ।
अक्षतेन शरीरेण तस्थौ गिरिरिवाचल: ।। ३७ ||
पिनाकथधारी शिव दो ही घड़ीमें सारी बाण-वर्षाको अपनेमें लीन करके पर्वतकी भाँति
अविचल भावसे खड़े रहे। उनके शरीरपर तनिक भी चोट या क्षति नहीं पहुँची थी || ३७ ।।
स दृष्टवा बाणवर्ष तु मोघीभूतं धनंजय: ।
परम विस्मयं चक्रे साधु साध्विति चाब्रवीत् ।। ३८ ।।
अपनी की हुई सारी बाण-वर्षा व्यर्थ हुई देख धनंजयको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे
किरातको साधुवाद देने लगे और बोले-- || ३८ ।।
अहो<यं सुकुमाराज़ो हिमवच्छिखराश्रय: ।
गाण्डीवमुक्तान् नाराचान प्रतिगृह्नात्यविह्लल: ।। ३९ ।।
“अहो! हिमालयके शिखरपर निवास करनेवाले इस किरातके अंग तो बड़े सुकुमार हैं,
तो भी यह गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए बाणोंको ग्रहण कर लेता है और तनिक भी व्याकुल
नहीं होता ।। ३९ ।।
को<यं देवो भवेत् साक्षाद् रुद्रो यक्ष: सुरोडसुर: ।
विद्यते हि गिरिश्रेष्ठे त्रिदशानां समागम: ।। ४० ।।
“यह कौन है? साक्षात् भगवान् रुद्रदेव, यक्ष, देवता अथवा असुर तो नहीं है। इस श्रेष्ठ
पर्वतपर देवताओंका आना-जाना होता रहता है ।। ४० ।।
न हि मद्बाणजालानामुत्सृष्टानां सहस्रश: ।
शक्तो<न्य: सहितुं वेगमृते देवं पिनाकिनम् ।। ४१ ।।
“मैंने सहस्नों बार जिन बाण-समूहोंकी वृष्टि की है, उनका वेग पिनाकधारी भगवान्
शंकरके सिवा दूसरा कोई नहीं सह सकता ।। ४१ ।।
देवो वा यदि वा यक्षो रुद्रादन्यो व्यवस्थित: ।
अहमेनं शरैस्तीक्ष्णैनयामि यमसादनम् ।। ४२ ।।
“यदि यह रुद्रदेवसे भिन्न व्यक्ति है तो यह देवता हो या यक्ष--मैं इसे तीखे बाणोंसे
मारकर अभी यमलोक भेजता हूँ | ४२ ।।
ततो हृष्टमना जिष्णु्नाराचान् मर्मभेदिन: ।
व्यसृजच्छतथा राजन् मयूखानिव भास्कर: ।। ४३ ।।
राजन! यह सोचकर प्रसन्नचित्त अर्जुनने सहस्रों किरणोंको फैलानेवाले भगवान्
भास्करकी भाँति सैकड़ों मर्मभेदी नाराचोंका प्रहार किया || ४३ ।।
तान् प्रसन्नेन मनसा भगवॉल्लोकभावन: ।
शूलपाणि: प्रत्यगृह्नाच्छिलावर्षमिवाचल: ।। ४४ ।।
परंतु त्रिशूलधारी भूतभावन भगवान् भवने हर्षभरे हृदयसे उन सब नाराचोंको उसी
प्रकार आत्मसात् कर लिया, जैसे पर्वत पत्थरोंकी वर्षाको || ४४ ।।
क्षणेन क्षीणबाणो<थ संवृत्त: फाल्गुनस्तदा |
भीश्वैनमाविशत् तीव्रा तं दृष्टवा शरसंक्षयम् ।। ४५ ।।
उस समय एक ही क्षणमें अर्जुनके सारे बाण समाप्त हो चले। उन बाणोंका इस प्रकार
विनाश देखकर उनके मनमें बड़ा भय समा गया ।। ४५ ।।
चिन्तयामास जिष्णुस्तु भगवन्तं हुताशनम् ।
पुरस्तादक्षयौ दत्तौ तूणौ येनास्थ खाण्डवे ।। ४६ ।।
विजयी अर्जुनने उस समय भगवान् अग्निदेवका चिन्तन किया, जिन्होंने खाण्डववनमें
प्रत्यक्ष दर्शन देकर उन्हें दो अक्षय तूणीर प्रदान किये थे || ४६ ।।
कि नु मोक्ष्यामि धनुषा यन्मे बाणा: क्षयं गता: ।
अयं च पुरुष: को5पि बाणान् ग्रसति सर्वश: ।। ४७ ।।
हत्वा चैनं धनुष्कोट्या शूलाग्रेणेव कुज्जरम् ।
नयामि दण्डधारस्य यमस्य सदन प्रति ।। ४८ ।।
वे मन-ही-मन सोचने लगे, “मेरे सारे बाण नष्ट हो गये, अब मैं धनुषसे क्या चलाऊँगा।
यह कोई अदभुत पुरुष है, जो मेरे सारे बाणोंको खाये जा रहा है। अच्छा, अब मैं शूलके
अग्रभागसे घायल किये जानेवाले हाथीकी भाँति इसे धनुषकी कोटि (नोक)-से मारकर
दण्डधारी यमराजके लोकमें पहुँचा देता हूँ” || ४७-४८ ।।
प्रगृह्या थ धनुष्कोट्या ज्यापाशेनावकृष्य च |
मुष्टिभिश्चापि हतवान् वज्रकल्पैर्महाद्युति: ।। ४९ ।।
ऐसा विचारकर महातेजस्वी अर्जुनने किरातको अपने धनुषकी कोटिसे पकड़कर
उसकी प्रत्यंचामें उसके शरीरको फँसाकर खींचा और वज्रके समान दुः:सह मुष्टिप्रहारसे
पीड़ित करना प्रारम्भ किया ।। ४९ ।।
सम्प्रयुद्धों धनुष्कोट्या कौन्तेय: परवीरहा ।
तदप्यस्य धर्नुर्दिव्यं जग्राह गिरिगोचर: ।। ५० ||
शत्रु-वीरोंका संहार करनेवाले कुन्तीकुमार अर्जुनने जब धनुषकी कोटिसे प्रहार किया,
तब उस पर्वतीय किरातने अर्जुनके उस दिव्य धनुषको भी अपनेमें लीन कर
लिया || ५० |।
ततोड्डर्जुनो ग्रस्तधनु: खड्गपाणिरतिष्ठत ।
युद्धस्यान्तम भी प्सन् वै वेगेनाभिजगाम तम् ।। ५१ ।।
तदनन्तर धनुषके ग्रस्त हो जानेपर अर्जुन हाथमें तलवार लेकर खड़े हो गये और
युद्धका अन्त कर देनेकी इच्छासे वेगपूर्वक उसपर आक्रमण किया ।। ५१ ।।
तस्य मूर्थ्नि शितं खड्गमसक्तं पर्वतेष्वपि |
मुमोच भुजवीर्येण विक्रम्प कुरुनन्दन: ।। ५२ ।।
उनकी वह तलवार पर्वतोंपर भी कुण्ठित नहीं होती थी। कुरुनन्दन अर्जुनने अपने
भुजाओंकी पूरी शक्ति लगाकर किरातके मस्तकपर उस तीक्ष्ण धारवाली तलवारसे वार
किया ।। ५२ ।।
तस्य मूर्धानमासाद्य पफालासिवरो हि सः ।
ततो वृक्ष: शिलाभिश्न योधयामास फाल्गुन: ।। ५३ ||
परंतु उसके मस्तकसे टकराते ही वह उत्तम तलवार टूक-टूक हो गयी। तब अर्जुनने
वृक्षों और शिलाओंसे युद्ध करना आरम्भ किया ।। ५३ ।।
तदा वृक्षान् महाकाय: प्रत्यगृह्नादथो शिला: ।
किरातरूपी भगवांस्तत: पार्थो महाबल: ।। ५४ ।।
मुष्टिभि्वज्ञसंकाशैर्धूममुत्पादयन् मुखे ।
प्रजहार दुराधर्षे किरातसमरूपिणि ।। ५५ ।।
तब विशालकाय किरातरूपी भगवान् शंकरने उन वृक्षों और शिलाओंको भी ग्रहण कर
लिया। यह देखकर महाबली कुन्तीकुमार अपने वज़तुल्य मुक््कोंसे दुर्धर्ष किरात-सदृश
रूपवाले भगवान् शिवपर प्रहार करने लगे। उस समय क्रोधके आवेशसे अर्जुनके मुखसे
धूम प्रकट हो रहा था ।। ५४-५५ ।।
ततः शक्राशनिसमैर्मुष्टिभिर्भुशदारुणै: ।
किरातरूपी भगवानर्दयामास फाल्गुनम् ।। ५६ ।।
तदनन्तर किरातरूपी भगवान् शिव भी अत्यन्त दारुण और इन्द्रके वज़के समान
दुःसह मुक्कोंसे मारकर अर्जुनको पीड़ा देने लगे || ५६ ।।
ततश्नट्चटाशब्द: सुघोर: समपद्यत ।
पाण्डवस्य च मुष्टीनां किरातस्य च युध्यत: ।। ५७ ।।
फिर तो घमासान युद्धमें लगे हुए पाण्डुनन्दन अर्जुन तथा किरातरूपी शिवके
मुक्कोंका एक-दूसरेके शरीरपर प्रहार होनेसे बड़ा भयंकर “चट-चट” शब्द होने
लगा || ५७ ||
सुमुहूर्त तु तद् युद्धमभभवल्लोमहर्षणम् |
भुजप्रहारसंयुक्तं वृत्रवासवयोरिव ।। ५८ ।।
वृत्रासुर और इन्द्रके समान उन दोनोंका वह रोमांचकारी बाहुयुद्ध दो घड़ीतक चलता
रहा ।। ५८ ।।
जघानाथ ततो जिष्णु: किरातमुरसा बली ।
पाण्डवं च विचेष्ट॑ तं किरातो5प्यहनद् बली ।। ५९ ||
तत्पश्चात् बलवान् वीर अर्जुनने अपनी छातीसे किरातको बड़े जोरसे मारा, तब
महाबली किरातने भी विपरीत चेष्टा करनेवाले पाण्डुनन्दन अर्जुन॒पर आघात
किया ।। ५९ ||
तयोर्भुजविनिष्पेषात् संघर्षणोरसोस्तथा ।
समजायत गात्रेषु पावको5ड्रारधूमवान् ।। ६० ।।
उन दोनोंकी भुजाओंके टकराने और वक्षःस्थलोंके संघर्षसे उनके अंगोंमें धूम और
चिनगारियोंके साथ आग प्रकट हो जाती थी || ६० ।।
तत एनं महादेव: पीड्य गात्रै: सुपीडितम् ।
तेजसा व्यक्रमद् रोषाच्चेतस्तस्य विमोहयन् ।। ६१ ।।
तदनन्तर! महादेवजीने अपने अंगोंसे दबाकर अर्जुनको अच्छी तरह पीड़ा दी और
उनके चित्तको मूर्च्छित-सा करते हुए उन्होंने तेज तथा रोषसे उनके ऊपर अपना पराक्रम
प्रकट किया ।। ६१ ।।
ततो<5भिपीडितैगरत्रि: पिण्डीकृत इवाबभौ ।
फाल्गुनो गात्रसंरुद्धो देवदेवेन भारत ।। ६२ ।।
भारत! तदनन्तर देवाधिदेव महादेवजीके अंगोंसे अवरुद्ध हो अर्जुन अपने पीड़ित
अवयवोंके साथ मिट्टीके लोंदे-से दिखायी देने लगे || ६२ ।।
निरुच्छवासो5 भवच्चैव संनिरुद्धों महात्मना ।
पपात भूम्यां निश्चेष्टो गतसत्त्व इवाभवत् ।। ६३ ।।
महात्मा भगवान् शंकरके द्वारा भलीभाँति नियन्त्रित हो जानेके कारण अर्जुनकी
श्वासक्रिया बंद हो गयी। वे निष्प्राणकी भाँति चेष्टाहीन होकर पृथ्वीपर गिर पड़े ।। ६३ ।।
स मुहूर्त तथा भूत्वा सचेता: पुनरुत्थितः ।
रुधिरेणाप्लुताड़स्तु पाण्डवो भृशदु:खित: ।। ६४ ।।
दो घड़ीतक उसी अवस्थामें पड़े रहनेके पश्चात् जब अर्जुनको चेत हुआ, तब वे उठकर
खड़े हो गये। उस समय उनका सारा शरीर खूनसे लथपथ हो रहा था और वे बहुत दुःखी हो
गये थे || ६४ ।।
शरण्यं शरणं गत्वा भगवन्तं पिनाकिनम् |
मृण्मयं स्थण्डिलं कृत्वा माल्येनापूजयद् भवम् ।। ६५ ।।
तब वे शरणागतवत्सल पिनाकधारी भगवान् शिवकी शरणमें गये और मिट्टीकी वेदी
बनाकर उसीपर पार्थिव शिवकी स्थापना करके पुष्पमालाके द्वारा उनका पूजन
किया ।। ६५ ।।
तच्च माल्यं तदा पार्थ: किरातशिरसि स्थितम् |
अपश्यत् पाण्डवश्रेष्ठो हर्षेण प्रकृतिं गत: ।। ६६ ।।
कुन्तीकुमारने जो माला पार्थिव शिवपर चढ़ायी थी, वह उन्हें किरातके मस्तकपर पड़ी
दिखायी दी। यह देखकर पाण्डवश्रेष्ठ अर्जुन हर्षसे उललसित हो अपने आपेमें आ
गये ।। ६६ ।।
पपात पादयोस्तस्य ततः प्रीतो5भवद् भव: ।
उवाच चैनं वचसा मेघगम्भीरगीर्हर: ।
जातविस्मयमालोक्य तप:ःक्षीणाड्रसंहतिम् ।। ६७ ।।
और किरातरूपी भगवान् शंकरके चरणोंमें गिर पड़े। उस समय तपस्याके कारण
उनके समस्त अवयव क्षीण हो रहे थे और वे महान् आश्चर्यमें पड़ गये थे, उन्हें इस
अवस्थामें देखकर सर्वपापहारी भगवान् भव उनपर बहुत प्रसन्न हुए और मेघके समान
गम्भीर वाणीमें बोले || ६७ ।।
भव उवाच
भो भो: फाल्गुन तुष्टोडस्मि कर्मणाप्रतिमेन ते ।
शौर्येणानेन धृत्या च क्षत्रियो नास्ति ते सम: ।। ६८ ।।
भगवान् शिवने कहा--फाल्गुन! मैं तुम्हारे इस अनुपम पराक्रम, शौर्य और धैर्यसे
बहुत संतुष्ट हूँ। तुम्हारे समान दूसरा कोई क्षत्रिय नहीं है ।। ६८ ।।
सम॑ तेजश्न वीर्य च ममाद्य तव चानघ ।
प्रीतस्तेडहं महाबाहो पश्य मां भरतर्षभ ।॥। ६९ ।।
अनघ! तुम्हारा तेज और पराक्रम आज मेरे समान सिद्ध हुआ है। महाबाहु भरतश्रेष्ठ!
मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। मेरी ओर देखो || ६९ ।।
ददामि ते विशालाक्ष चक्षु: पूर्वऋषिर्भवान् ।
विजेष्यसि रणे शत्रूनपि सर्वान् दिवौकस: || ७० ।।
विशाललोचन! मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि देता हूँ। तुम पहलेके “नर” नामक ऋषि हो। तुम
युद्धमें अपने शत्रुओंपर, वे चाहे सम्पूर्ण देवता ही क्यों न हों, विजय पाओगे || ७० ।।
प्रीत्या च ते5हं दास्यामि यदस्त्रमनिवारितम् ।
त्वं हि शक्तो मदीयं तदस्त्रं धारयितुं क्षणात् ।। ७१ ।।
मैं तुम्हारे प्रेमवश तुम्हें अपना पाशुपतास्त्र दूँगा, जिसकी गतिको कोई रोक नहीं
सकता। तुम क्षणभरमें मेरे उस अस्त्रको धारण करनेमें समर्थ हो जाओगे ।। ७१ ।।
वैशम्पायन उवाच
ततो देव महादेवं गिरिशं शूलपाणिनम् |
ददर्श फाल्गुनस्तत्र सह देव्या महाद्युतिम् ।। ७२ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! तदनन्तर अर्जुनने शूलपाणि महातेजस्वी
महादेवजीका देवी पार्वती-सहित दर्शन किया ।। ७२ ।।
स जानुभ्यां महीं गत्वा शिरसा प्रणिपत्य च ।
प्रसादयामास हरं पार्थ: परपुरंजय: ।। ७३ ।।
शत्रुओंकी राजधानीपर विजय पानेवाले कुन्तीकुमारने उनके आगे पृथ्वीपर घुटने टेक
दिये और सिरसे प्रणाम करके शिवजीको प्रसन्न किया || ७३ ।।
अजुन उवाच
कपर्दिन् सर्वदेवेश भगनेत्रनिपातन ।
देवदेव महादेव नीलग्रीव जटाधर ।। ७४ ।।
अर्जुन बोले--जटाजूटधारी सर्वदेवेश्वर देवदेव महादेव! आप भगदेवताके नेत्रोंका
विनाश करनेवाले हैं। आपकी ग्रीवामें नील चिह्न शोभा पा रहा है। आप अपने मस्तकपर
सुन्दर जटा धारण करते हैं ।। ७४ ।।
कारणानां च परम॑ जाने त्वां त्रयम्बकं विभुम् |
देवानां च गतिं देव त्वत्प्रसूतमिदं जगत् ।। ७५ ।।
प्रभो! मैं आपको समस्त कारणोंमें सर्वश्रेष्ठ कारण मानता हूँ। आप नत्रिनेत्रधारी तथा
सर्वव्यापी हैं। सम्पूर्ण देवताओंके आश्रय हैं। देव! यह सम्पूर्ण जगत् आपसे ही उत्पन्न हुआ
है ।। ७५ |।
अजेयस्त्वं त्रिभिलोंकै: सदेवासुरमानुषै: ।
शिवाय विष्णुरूपाय विष्णवे शिवरूपिणे ।। ७६ ।।
देवता, असुर और मनुष्योंसहित तीनों लोक भी आपको पराजित नहीं कर सकते।
आप ही विष्णुरूप शिव तथा शिवस्वरूप विष्णु हैं, आपको नमस्कार है || ७६ ।।
दक्षयज्ञविनाशाय हरिरुद्राय वै नमः ।
ललाटाक्षाय शर्वाय मीढुषे शूलपाणये ।। ७७ ।।
दक्षयज्ञका विनाश करनेवाले हरिहररूप आप भगवान्को नमस्कार है। आपके
ललाटमें तृतीय नेत्र शोभा पाता है। आप जगत्का संहारक होनेके कारण शर्व कहलाते हैं।
भक्तोंकी अभीष्ट कामनाओंकी वर्षा करनेके कारण आपका नाम मीढ्वान् (वर्षणशील) है।
अपने हाथमें त्रिशूल धारण करनेवाले आपको नमस्कार है || ७७ ||
पिनाकगोपष्जरे सूर्याय मंगल्याय च वेधसे ।
प्रसादये त्वां भगवन् सर्वभूतमहेश्वर ।। ७८ ।।
पिनाकरक्षक, सूर्यस्वरूप, मंगलकारक और सृष्टिकर्ता आप परमेश्वरको नमस्कार है।
भगवन! सर्वभूत-महेश्वर! मैं आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ | ७८ ।।
गणेशं जगत: शम्भुं लोककारणकारणम् |
प्रधानपुरुषातीतं परं सूक्ष्मतरं हरम् ।। ७९ ।।
आप भूतगणोंके स्वामी, सम्पूर्ण जगत्का कल्याण करनेवाले तथा जगत्के कारणके
भी कारण हैं। प्रकृति और पुरुष दोनोंसे परे अत्यन्त सूक्ष्मस्वरूप तथा भक्तोंके पापोंको
हरनेवाले हैं || ७९ |।
व्यतिक्रमं मे भगवन् क्षन्तुमहसि शंकर ।
भगवन् दर्शनाकाडुक्षी प्राप्तोडस्मीम॑ं महागिरिम् || ८० ।।
कल्याणकारी भगवन्! मेरा अपराध क्षमा कीजिये। भगवन्! मैं आपहीके दर्शनकी
इच्छा लेकर इस महान् पर्वतपर आया हूँ || ८० ।।
दयितं तव देवेश तापसालयमुत्तमम् |
प्रसादये त्वां भगवन् सर्वलोकनमस्कृतम् ।। ८१ ।।
देवेश्वरर यह शैल-शिखर तपस्वियोंका उत्तम आश्रय तथा आपका प्रिय निवासस्थान
है। प्रभो! सम्पूर्ण जगत् आपके चरणोंमें वन्दना करता है। मैं आपसे यह प्रार्थना करता हूँ
कि आप मुझपर प्रसन्न हों || ८१ ।।
न मे स्थादपराधो5यं महादेवातिसाहसात् |
कृतो मयायमज्ञानाद विमर्दो यस्त्वया सह |
शरणं प्रतिपन्नाय तत् क्षमस्वाद्य शंकर ॥। ८२ ।।
महादेव! अत्यन्त साहसवश मैंने जो आपके साथ यह युद्ध किया है, इसमें मेरा
अपराध नहीं है। यह अनजानमें मुझसे बन गया है। शंकर! मैं अब आपकी शरणमें आया
हूँ। आप मेरी उस धृष्टताको क्षमा करें ।।
वैशम्पायन उवाच
तमुवाच महातेजा: प्रहस्य वृषभध्वज: ।
प्रगृह्म रुचिरं बाहुं क्षान्तमित्येव फाल्गुनम् ।। ८३ ।।
वैशम्पायनजीने कहा--जनमेजय! तब महातेजस्वी भगवान् वृषभध्वजने अर्जुनका
सुन्दर हाथ पकड़कर उनसे हँसते हुए कहा--“मैंने तुम्हारा अपराध पहलेसे ही क्षमा कर
दिया” ।। ८३ ।।
परिष्वज्य च बाहुभ्यां प्रीतात्मा भगवान् हर: ।
पुन: पार्थ सान्त्वपूर्वमुवाच वृषभध्वज: ।। ८४ ।।
फिर उन्हें दोनों भुजाओंसे खींचकर हृदयसे लगाया और प्रसन्नचित्त हो वृषके चिह्नसे
अंकितध्वजा धारण करनेवाले भगवान् रुद्रने पुनः कुन्तीकुमारको सान्त्वना देते हुए
कहा ।। ८४ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि कैरातपर्वणि महादेवस्तवे एकोनचत्वारिंशो5ध्याय: ।।
३९ ||
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपव्वके अन्तर्गत कैरातपर्वमें महादेवजीकी स्वुतिसे सम्बन्ध
रखनेवाला उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३९ ॥।
हि >> न (0) है
चत्वारिशो< ध्याय:
भगवान् शंकरका अर्जुनको वरदान देकर अपने धामको
प्रस्थान
देवदेव उवाच
नरस्त्वं पूर्वदेहे वै नारायणसहायवान् ।
बदर्या तप्तवानुग्र॑ं तपो वर्षायुतान् बहूनू ।। १ ।।
देवदेव महादेवजी बोले--अर्जुन! तुम पूर्व-शरीरमें “नर' नामक सुप्रसिद्ध ऋषि थे।
नारायण तुम्हारे सखा हैं। तुमने बदरिकाश्रममें अनेक सहस्र वर्षोतक उग्र तपस्या की
है।। १।।
त्वयि वा परमं तेजो विष्णौ वा पुरुषोत्तमे ।
युवाभ्यां पुरुषाग्रयाभ्यां तेजसा धार्यते जगत् ।। २ ।॥।
तुममें अथवा पुरुषोत्तम भगवान् विष्णुमें उत्कृष्ट तेज है। तुम दोनों पुरुषरत्नोंने अपने
तेजसे इस सम्पूर्ण जगत्को धारण कर रखा है ।। २ ।।
शक्राभिषेके सुमहद्धनुर्जलदनि:स्वनम् ।
प्रगृह् दानवा: शस्तास्त्वया कृष्णेन च प्रभो ।। ३ ।।
प्रभो! तुमने और श्रीकृष्णने इन्द्रके अभिषेकके समय मेघके समान गम्भीर घोष
करनेवाले महान् धनुषको हाथमें लेकर बहुत-से दानवोंका वध किया था ।। ३ ।।
तदेतदेव गाण्डीवं तव पार्थ करोचितम् ।
मायामास्थाय यद् ग्रस्तं मया पुरुषसत्तम ।। ४ ।।
पुरुषप्रवर पार्थ! तुम्हारे हाथमें रहनेयोग्य यही वह गाण्डीव धनुष है, जिसे मैंने मायाका
आश्रय लेकर अपनेमें विलीन कर लिया था ।। ४ ।।
तूणौ चाप्यक्षयौ भूयस्तव पार्थ यथोचितौ ।
भविष्यति शरीरं च नीरुजं कुरुनन्दन ।॥। ५ ।।
कुरुनन्दन! और ये रहे तुम्हारे दोनों अक्षय तूणीर, जो सर्वथा तुम्हारे ही योग्य हैं।
कुन्तीकुमार! तुम्हारे शरीरमें जो चोट पहुँची है, वह सब दूर होकर तुम नीरोग हो
जाओगे ।। ५ ।।
प्रीतिमानस्मि ते पार्थ भवान् सत्यपराक्रम: ।
गृहाण वरमस्मत्त: काड्क्षितं पुरुषोत्तम ।। ६ ।।
पार्थ! तुम्हारा पराक्रम यथार्थ है, इसलिये मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। पुरुषोत्तम! तुम
मुझसे मनोवांछित वर ग्रहण करो ।। ६ ।।
न त्वया पुरुष: कश्रित् पुमान् मर्त्येषु मानद ।
दिवि वा वर्तते क्षत्रं त्वत्प्रधानमरिंदम ।। ७ ।।
मानद! मर्त्यलोक अथवा स्वर्गलोकमें भी कोई पुरुष तुम्हारे समान नहीं है। शत्रुदमन!
क्षत्रिय-जातिमें तुम्हीं सबसे श्रेष्ठ हो || ७ ।।
अजुन उवाच
भगवन् ददासि चेन्महां काम प्रीत्या वृषध्वज ।
कामये दिव्यमस्त्रं तद् घोरं पाशुपतं प्रभो ।। ८ ।।
अर्जुन बोले--भगवन्! वृषध्वज! यदि आप प्रसन्नतापूर्वक मुझे इच्छानुसार वर देते हैं
तो प्रभो! मैं उस भयंकर दिव्यास्त्र पाशुपतको प्राप्त करना चाहता हूँ ।। ८ ।।
यत् तद् ब्रह्मशिरो नाम रौद्रे भीमपराक्रमम् |
चुगान्ते दारुणे प्राप्ते कृत्स्नं संहरते जगत् ।। ९ ।।
जिसका नाम ब्रह्मशिर है, आप भगवान् रुद्र ही जिसके देवता हैं, जो भयानक पराक्रम
प्रकट करनेवाला तथा दारुण प्रलयकालमें सम्पूर्ण जगत्का संहारक है || ९ ।।
कर्णभीष्मकृपद्रोणैर्भविता तु महाहव: ।
त्वत्प्रसादान्न्महादेव जयेयं तान् यथा युधि ।। १० ।।
महादेव! कर्ण, भीष्म, कृप, द्रोणाचार्य आदिके साथ मेरा महान् युद्ध होनेवाला है, उस
युद्धमें मैं आपकी कृपासे उन सबपर विजय पा सकूँ, इसीके लिये दिव्यास्त्र चाहता
हूँ ।। १० ।।
दहेयं येन संग्रामे दानवान् राक्षसांस्तथा ।
भूतानि च पिशाचांश्व गन्धर्वानथ पन्नगान् ।। ११ ।।
यस्मिज्छुलसहस््राणि गदाश्षोग्रप्रदर्शना: ।
शराश्षाशीविषाकारा: सम्भवन्त्यनुमन्त्रिते || १२ ।।
मुझे वह अस्त्र प्रदान कीजिये, जिससे संग्राममें दानवों, राक्षसों, भूतों, पिशाचों, गन्धवों
तथा नागोंको भस्म कर सकूँ। जिस अस्त्रके अभिमन्त्रित करते ही सहस्रों शूल, देखनेमें
भयंकर गदाएँ और विषैले सर्पोके समान बाण प्रकट हों ।। ११-१२ ।।
युध्येयं येन भीष्मेण द्रोणेन च कृपेण च ।
सूतपुत्रेण च रणे नित्यं कटुकभाषिणा ।। १३ ।।
उस अस्त्रको पाकर मैं भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य तथा सदा कटु भाषण करनेवाले सूतपुत्र
कर्णके साथ भी युद्धमें लड़ सकूँ ।। १३ ।।
एष मे प्रथम: कामो भगवन् भगनेत्रहन् ।
त्वत्प्रसादाद् विनिर्वृत्त: समर्थ: स्थामहं यथा ।। १४ ।।
भगदेवताकी आँखें नष्ट करनेवाले भगवन्! आपके समक्ष यह मेरा सबसे पहला
मनोरथ है, जो आपहीके कृपाप्रसादसे पूर्ण हो सकता है। आप ऐसा करें, जिससे मैं सर्वथा
शत्रुओंको परास्त करनेमें समर्थ हो सकूँ ।। १४ ।।
भव उवाच
ददामि ते<स्त्रं दयितमहं पाशुपतं विभो ।
समर्थो धारणे मोक्षे संहारे चासि पाण्डव ।। १५ ।।
महादेवजीने कहा--पराक्रमशाली पाण्डुकुमार! मैं अपना परम प्रिय पाशुपतास्त्र
तुम्हें प्रदान करता हूँ। तुम इसके धारण, प्रयोग और उपसंहारमें समर्थ हो || १५ ।।
नैतद् वेद महेन्द्रोडपि न यमो न च यक्षराट्
वरुणो5प्यथवा वायु: कुतो वेत्स्यन्ति मानवा: | १६ ।।
इसे देवराज इन्द्र, यम, यक्षराज कुबेर, वरुण अथवा वायुदेवता भी नहीं जानते। फिर
साधारण मानव तो जान ही कैसे सकेंगे? ।। १६ ।।
न त्वेतत् सहसा पार्थ मोक्तव्यं पुरुषे क्वचित् ।
जगद् विनाशयेत् सर्वमल्पतेजसि पातितम् ।। १७ ।।
परंतु कुन्तीकुमार! तुम सहसा किसी पुरुषपर इसका प्रयोग न करना। यदि किसी
अल्पशक्ति योद्धापर इसका प्रयोग किया गया तो यह सम्पूर्ण जगत्का नाश कर
डालेगा ।। १७ |।
अवशध्यो नाम नास्त्यत्र त्रैलोक्ये सचराचरे ।
मनसा चक्षुषा वाचा धनुषा च निपातयेत् ।। १८ ।।
चराचर प्राणियोंसहित समस्त त्रिलोकीमें कोई ऐसा पुरुष नहीं है जो इस अस्त्रद्वारा
मारा न जा सके। इसका प्रयोग करनेवाला पुरुष अपने मानसिक संकल्पसे, दृष्टिसे, वाणीसे
तथा धनुष-बाणद्वारा भी शत्रुओंको नष्ट कर सकता है ।। १८ ।।
वैशम्पायन उवाच
तच्छुत्वा त्वरित: पार्थ: शुचिर्भूत्वा समाहित: ।
उपसंगम्य विश्वेशमधीष्वेत्यथ सो<ब्रवीत् ।। १९ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! यह सुनकर कुन्तीपुत्र अर्जुन तुरंत ही पवित्र एवं
एकाग्रचित्त हो शिष्यभावसे भगवान् विश्वेश्वरकी शरण गये और बोले--“भगवन्! मुझे इस
पाशुपतास्त्रका उपदेश कीजिये' ।। १९ ।।
ततस्त्वध्यापयामास सरहस्यनिवर्तनम् |
तदस्त्रं पाण्डवश्रेष्ठ मूर्तिमन्तमिवान्तकम् ।। २० ।।
उपतस्थे च तत् पार्थ यथा तरयक्षमुमापतिम् ।
प्रतिजग्राह तच्चापि प्रीतिमानर्जुनस्तदा ।। २१ ।।
तब भगवान् शिवने रहस्य और उपसंहारसहित पाशुपतास्त्रका उन्हें उपदेश दिया। उस
समय वह अस्त्र जैसे पहले त्रिनेत्रधारी उमापति शिवकी सेवामें उपस्थित हुआ था, उसी
प्रकार मूर्तिमान् यमराजतुल्य पाण्डवश्रेष्ठ अर्जुनके पास आ गया। तब अर्जुनने बहुत प्रसन्न
होकर उसे ग्रहण किया || २०-२१ ।।
ततश्नचाल पृथिवी सपर्वतवनद्रुमा |
ससागरवनोद्देशा सग्रामनगराकरा ।। २२ ।।
अर्जुनके पाशुपतास्त्र ग्रहण करते ही पर्वत, वन, वृक्ष, समुद्र, वनस्थली, ग्राम, नगर
तथा आबकरों (खानों) सहित सारी पृथ्वी काँप उठी ।। २२ ।।
शड्खदुन्दुभिघोषाश्व भेरीणां च सहस्रश: ।
तस्मिन् मुहूर्ते सम्प्राप्ते निर्धातश्न महानभूत् ।। २३ ।।
उस शुभ मुहूर्त्तक आते ही शंख और दुन्दुभियोंके शब्द होने लगे। सहस्रों भेरियाँ बज
उठीं। आकाशमें वायुके टकरानेका महान् शब्द होने लगा ।। २३ ।।
अथानस्त्रं जाज्वलद् घोरं पाण्डवस्यामितौजस: ।
मूर्तिमद् वै स्थितं पाश्वे ददृशुर्देवदानवा: ।। २४ ।।
तदनन्तर वह भयंकर अस्त्र मूर्तिमान्ू हो अग्निके समान प्रज्वलित तेजस्वीरूपसे
अमित पराक्रमी पाण्डुनन्दन अर्जुनके पार्श्रभागमें खड़ा हो गया। यह बात देवताओं और
दानवोंने प्रत्यक्ष देखी || २४ ।।
स्पृष्टस्य >यम्बकेणाथ फाल्गुनस्यामितौजस: ।
यत् किंचिदशुभं देहे तत् सर्व नाशमीयिवत् ।। २५ ।।
भगवान् शंकरके स्पर्श करनेसे अमित तेजस्वी अर्जुनके शरीरमें जो कुछ भी अशुभ
था, वह नष्ट हो गया ।। २५ ।।
स्वर्ग गच्छेत्यनुज्ञातस्त्रयम्बकेण तदार्जुन: ।
प्रणम्य शिरसा राजनू् प्राञ्जलिदेंवमैक्षत ।। २६ ।।
उस समय भगवान् त्रिलोचनने अर्जुनको यह आज्ञा दी कि “तुम स्वर्गलेकको जाओ।'
राजन! तब अर्जुनने भगवानके चरणोंमें मस्तक रखकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर
उनकी ओर देखने लगे ।। २६ ।।
ततः प्रभुस्त्रेदिवनिवासिनां वशी
महामतिर्गिरिश उमापति: शिव: ।
धनुर्महद् देतिजपिशाचसूदनं
ददौ भव: पुरुषवराय गाण्डिवम् ।। २७ ।।
तत्पश्चात् देवताओंके स्वामी, जितेन्द्रिय एवं परम बुद्धिमान् कैलासवासी उमावल्लभ
भगवान् शिवने पुरुषप्रवर अर्जुनको वह महान् गाण्डीवधनुष दे दिया, जो दैत्यों और
पिशाचोंका संहार करनेवाला था ।। २७ ।।
ततः शुभं गिरिवरमी श्वरस्तदा
सहोमया सिततटसानुकन्दरम् |
विहाय त॑ पतगमहर्षिसेवितं
जगाम खं पुरुषवरस्य पश्यत: ॥। २८ ।।
जिसके तट, शिखर और कन्दराएँ हिमाच्छादित होनेके कारण श्वेत दिखायी देती हैं,
पक्षी और महर्षिगण सदा जिसका सेवन करते हैं, उस मंगलमय गिरिश्रेष्ठ इन्द्रकीलको
छोड़कर भगवान् शंकर भगवती उमादेवीके साथ अर्जुनके देखते-देखते आकाशमार्गसे चले
गये ।। २८ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि कैरातपर्वणि शिवप्रस्थाने चत्वारिंशो5ध्याय: ।। ४० ।।
इस प्रकार श्रीमह्या भारत वनपवके अन्तर्गत कैरातपर्वमें शिवप्रस्थानविषयक चालीसवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥। ४० ॥
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एकचत्वारिशो< ध्याय:
अर्जुनके पास दिक्पालोंका आगमन एवं उन्हें दिव्यास्त्र-
प्रदान तथा इन्द्रका उन्हें स्वर्गमें चलनेका आदेश देना
वैशम्पायन उवाच
तस्य सम्पश्यतस्त्वेव पिनाकी वृषभध्वज: ।
जगामादर्शन॑ भानुलोंकस्येवास्तमीयिवान् ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! अर्जुनके देखते-देखते पिनाकधारी भगवान्
वृषभध्वज अदृश्य हो गये, मानो भुवनभास्कर भगवान् सूर्य अस्त हो गये हों ।। १ ।।
ततोअर्जुन: परं चक्रे विस्मयं परवीरहा ।
मया साक्षान्महादेवो दृष्ट इत्येव भारत ।। २ ।।
भारत! तदनन्तर शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले अर्जुनको यह सोचकर बड़ा आश्चर्य
हुआ कि आज मुझे महादेवजीका प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त हुआ है ।। २ ।।
धन्यो<स्म्यनुगृहीतो5स्मि यन्मया ःयम्बको हर: ।
पिनाकी वरदो रूपी दृष्ट: स्पृष्टश्न पाणिना ।। ३ ।।
मैं धन्य हूँ! भगवान्का मुझपर बड़ा अनुग्रह है कि त्रिनेत्रधारी, सर्वपापहारी एवं अभीष्ट
वर देनेवाले पिनाक-पाणि भगवान् शंकरने मूर्तिमान् होकर मुझे दर्शन दिया और अपने
करकमलोंसे मेरे अंगोंका स्पर्श किया ।। ३ ।।
कृतार्थ चावगच्छामि परमात्मानमाहवे ।
शत्रृंश्न विजितान् सर्वान् निर्वृत्तं च प्रयोजनम् ।। ४ ।।
आज मैं अपने-आपको परम कृतार्थ मानता हूँ, साथ ही यह विश्वास करता हूँ कि
महासमरमें अपने समस्त शत्रुओंपर विजय प्राप्त करूँगा। अब मेरा अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध
हो गया ।। ४ ।।
इत्येवं चिन्तयानस्य पार्थस्यामिततेजस: ।
ततो वैदूर्यवर्णाभो भासयन् सर्वतो दिश: ।
यादोगणवृत: श्रीमानाजगाम जलेश्वर: ।। ५ ।।
इस प्रकार चिन्तन करते हुए अमित तेजस्वी कुन्तीकुमार अर्जुनके पास जलके स्वामी
श्रीमान् वरुणदेव जल-जन्तुओंसे घिरे हुए आ पहुँचे। उनकी अंगकान्ति वैदूर्यमणिके समान
थी और वे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित कर रहे थे || ५ ।।
नागैन्दिनदीभिश्र दैत्यै: साध्यैश्व दैवतै: ।
वरुणो यादसां भर्ता वशी तं देशमागमत् ।। ६ ।।
नागों, नद और नदियोंके देवताओं, दैत्यों तथा साध्यदेवताओंके साथ जल-जन्तुओंके
स्वामी जितेन्द्रिय वरुणदेवने उस स्थानको अपने शुभागमनसे सुशोभित किया ।। ६ ।।
अथ जाम्बूनदवपुर्विमानेन महार्चिषा ।
कुबेर: समनुप्राप्तो यक्षैरनुगत: प्रभु: | ७ ।।
तदनन्तर स्वर्णके समान शरीरवाले भगवान् कुबेर महातेजस्वी विमानद्वारा वहाँ आये।
उनके साथ बहुत-से यक्ष भी थे ।। ७ ।।
विद्योतयन्निवाकाशमद्भुतोपमदर्शन: ।
धनानामीशथ्चर: श्रीमानर्जुन॑ द्रष्ठटमागत: ।। ८ ।।
वे अपने तेजसे आकाशमण्डलको प्रकाशित-से कर रहे थे। उनका दर्शन अद्भुत एवं
अनुपम था। परम सुन्दर श्रीमान् धनाध्यक्ष कुबेर अर्जुनको देखनेके लिये वहाँ पधारे
थे।। ८ ।।
तथा लोकान्तकृच्छीमान् यम: साक्षात् प्रतापवान् |
मर्त्यमूर्तिधरै: सार्थ पितृभिलोॉकभावनै: ।। ९ ।।
इसी प्रकार समस्त जगत्का अन्त करनेवाले श्रीमान् प्रतापी यमराजने प्रत्यक्षरूपमें
वहाँ दर्शन दिया। उनके साथ मानव-शरीरधारी विश्वभावन पितृगण भी थे ।। ९ ।।
दण्डपाणिरचिन्त्यात्मा सर्वभूतविनाशकृत् ।
वैवस्वतो धर्मराजो विमानेनावभासयन् ।। १० ।।
त्रींललोकान् गुह्ुकांश्वैव गन्धर्वाश्व॒ सपन्नगान् ।
द्वितीय इव मार्तण्डो युगान्ते समुपस्थिते || ११ ।।
उनके हाथमें दण्ड शोभा पा रहा था। सम्पूर्ण भूतोंका विनाश करनेवाले अचिन्त्यात्मा
सूर्यपुत्र धर्मराज अपने (तेजस्वी) विमानसे तीनों लोकों, गुह्यकों, गन्धर्वों तथा नागोंको
प्रकाशित कर रहे थे। प्रलयकाल उपस्थित होनेपर दिखायी देनेवाले द्वितीय सूर्यकी भाँति
उनकी अद्भुत शोभा हो रही थी ।। १०-११ ॥।
ते भानुमन्ति चित्राणि शिखराणि महागिरे: ।
समास्थायार्जुनं तत्र ददृशुस्तपसान्वितम् ।। १२ ।।
उन सब देवताओंने उस महापर्वतके विचित्र एवं तेजस्वी शिखरोंपर पहुँचकर वहाँ
तपस्वी अर्जुनको देखा ।।
ततो मुहूर्ताद् भगवानैरावतशिरोगत:ः ।
आजगाम रहेन्द्राण्या शक्र: सुरगणैर्वृत: ।। १३ ।।
तत्पश्चात् दो ही घड़ीके बाद भगवान् इन्द्र इन्द्राणीके साथ ऐरावतकी पीठपर बैठकर
वहाँ आये। देवताओंके समुदायने उन्हें सब ओरसे घेर रखा था ।।
पाण्डुरेणातपत्रेण प्रियमाणेन मूर्थनि ।
शुशुभे तारकाराज: सितमभ्रमिव स्थित: ।। १४ ।।
संस्तूयमानो गन्धर्वैर्क्षिभिश्न तपोधनै: ।
शूडूं गिरे: समासाद्य तस्थौ सूर्य इवोदित: ।। १५ ।।
उनके मस्तकपर श्वेत छत्र तना हुआ था, जिससे वे शुभ्र वर्णके मेघखण्डसे आच्छादित
चन्द्रमाके समान सुशोभित हो रहे थे। बहुत-से तपस्वी-ऋषि तथा गन्धर्वगण उनकी स्तुति
करते थे। वे उस पर्वतके शिखरपर आकर ठहर गये, मानो वहाँ सूर्य प्रकट हो गये
हों ।। १४-१५ ।।
अथ मेघस्वनो धीमान् व्याजहार शुभां गिरम्
यम: परमधर्मज्ञो दक्षिणां दिशमास्थित: ।। १६ ।।
तदनन्तर मेघके समान गम्भीर स्वरवाले परम धर्मज्ञ एवं बुद्धिमान् यमराज दक्षिण
दिशामें स्थित हो यह शुभ वचन बोले-- ।। १६ ।।
अर्जुनार्जुन पश्यास्मॉललोकपालान् समागतान् |
दृष्टिं ते वितरामो5द्य भवानहति दर्शनम् ।। १७ ।।
पूर्वर्षिरमितात्मा त्वं नरो नाम महाबल: ।
नियोगाद् ब्रह्मणस्तात मर्त्यतां समुपागत: ।। १८ ।।
अर्जुन! हम सब लोकपाल यहाँ आये हुए हैं। तुम हमें देखो। हम तुम्हें दिव्य दृष्टि देते
हैं। तुम हमारे दर्शनके अधिकारी हो। तुम महामना एवं महाबली पुरातन महर्षि नर हो।
तात! ब्रह्माजीकी आज्ञासे तुमने मानव-शरीर ग्रहण किया है ।। १७-१८ ।।
त्वया च वसुसम्भूतो महावीर्य: पितामह: ।
भीष्म: परमधर्मात्मा संसाध्यक्ष रणेडनघ ।। १९ |।
क्षत्रं चाग्निसमस्पर्श भारद्वाजेन रक्षितम् |
दानवाश्च महावीर्या ये मनुष्यत्वमागता: ।। २० ।।
निवातकवचाश्नैव दानवा: कुरुनन्दन ।
पितुर्ममांशो देवस्य सर्वलोकप्रतापिन: ।। २१ ।।
कर्णश्न सुमहावीर्यस्त्वया वध्यो धनंजय ।
“अनघ! वसुओंके अंशसे उत्पन्न महापराक्रमी और परम धर्मात्मा पितामह भीष्मको
तुम संग्राममें जीत लोगे। भरद्वाजपुत्र द्रोणाचार्यके द्वारा सुरक्षित क्षत्रिय-समुदाय भी,
जिसका स्पर्श अग्निके समान भयंकर है, तुम्हारे द्वारा पराजित होगा। कुरुनन्दन! मानव-
शरीरमें उत्पन्न हुए महाबली दानव तथा निवातकवच नामक दैत्य भी तुम्हारे हाथसे मारे
जायँगे। धनंजय! सम्पूर्ण जगत्को उष्णता प्रदान करनेवाले मेरे पिता भगवान् सूर्यदेवके
अंशसे उत्पन्न महापराक्रमी कर्ण भी तुम्हारा वध्य होगा | १९--२१ ३ ।।
अंशाश्च क्षितिसम्प्राप्ता देवदानवरक्षसाम् ।। २२ ।।
त्वया निपातिता युद्धे स्वकर्मफलनिर्जिताम् ।
गतिं प्राप्स्यन्ति कौन्तेय यथास्वमरिकर्षण ।। २३ ।।
'शत्रुओंका संहार करनेवाले कुन्तीकुमार! देवताओं, दानवों तथा राक्षसोंके जो अंश
पृथ्वीपर उत्पन्न हुए हैं, वे युद्धमें तुम्हारे द्वारा मारे जाकर अपने कर्मफलके अनुसार
यथोचित गति प्राप्त करेंगे ।। २२-२३ ।।
अक्षया तव कीर्तिश्व लोके स्थास्यति फाल्गुन ।
त्वया साक्षान्महादेवस्तोषितो हि महामृथे ।। २४ ।।
'फाल्गुन! संसारमें तुम्हारी अक्षय कीर्ति स्थापित होगी। तुमने यहाँ महासमरमें साक्षात्
महादेवजीको संतुष्ट किया है | २४ ।।
लघ्वी वसुमती चापि कर्तव्या विष्णुना सह ।
गृहाणास्त्रं महाबाहो दण्डमप्रतिवारणम् ।
अनेनास्त्रेण सुमहत् त्वं हि कर्म करिष्यसि ।। २५ ।।
“महाबाहो! भगवान् श्रीकृष्णके साथ मिलकर तुम्हें इस पृथ्वीका भार भी हलका करना
है, अतः यह मेरा दण्डास्त्र ग्रहण करो। इसका वेग कहीं भी कुण्ठित नहीं होता। इसी
अस्त्रके द्वारा तुम बड़े-बड़े कार्य सिद्ध करोगे” || २५ ।।
वैशम्पायन उवाच
प्रतिजग्राह तत् पार्थो विधिवत् कुरुनन्दन: ।
समन्त्र॑ सोपचारं च समोक्षविनिवर्तनम् ।। २६ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! कुरुनन्दन कुन्तीकुमार अर्जुनने विधिपूर्वक
मन्त्र, उपचार, प्रयोग और उपसंहारसहित उस अस्त्रको ग्रहण किया ।। २६ ।।
ततो जलधरश्यामो वरुणो यादसां पति: ।
पश्चिमां दिशमास्थाय गिरमुच्चारयन् प्रभु: ।। २७ ।।
इसके बाद जल-जन्तुओंके स्वामी मेघके समान श्यामकान्तिवाले प्रभावशाली वरुण
पश्चिम दिशामें खड़े हो इस प्रकार बोले-- || २७ ।।
पार्थ क्षत्रियमुख्यस्त्वं क्षत्रधर्मे व्यवस्थित: ।
पश्य मां पृथुताम्राक्ष वरुणो5स्मि जलेश्वर: ।। २८ ।।
'पर्थ! तुम क्षत्रियोंमें प्रधान एवं क्षत्रिय-धर्ममें स्थित हो। विशाल तथा लाल नेत्रोंवाले
अर्जुन! मेरी ओर देखो। मैं जलका स्वामी वरुण हूँ || २८ ।।
मया समुद्यतान् पाशान् वारुणाननिवारितान् ।
प्रतिगृह्लीष्व कौन्तेय सरहस्यनिवर्तनम् ।। २९ ।।
“कुन्तीकुमार! मेरे दिये हुए इन वरुण-पाशोंको रहस्य और उपसंहारसहित ग्रहण करो।
इनके वेगको कोई भी रोक नहीं सकता ।। २९ |।
एभिस्तदा मया वीर संग्रामे तारकामये ।
दैतेयानां सहस्नाणि संयतानि महात्मनाम् ।। ३० ।।
“वीर! मैंने इन पाशोंद्वारा तारकामय संग्राममें सहस्रों महाकाय दैत्योंको बाँध लिया
था || ३० ||
तस्मादिमान् महासत्त्व मत्प्रसादसमुत्थितान् ।
गृहाण न हि ते मुच्येदन््तको5प्याततायिन: ।। ३१ ।।
“अतः महाबली पार्थ! मेरे कृपाप्रसादसे प्रकट हुए इन पाशोंको तुम ग्रहण करो। इनके
द्वारा आक्रमण करनेपर मृत्यु भी तुम्हारे हाथसे नहीं छूट सकती ।। ३१ ।।
अनेन वत्वं यदास्त्रेण संग्रामे विचरिष्यसि ।
तदा निःक्षत्रिया भूमिर्भविष्यति न संशय: ।। ३२ ।।
“इस अस्त्रके द्वारा जब तुम संग्रामभूमिमें विचरण करोगे, उस समय यह सारी वसुन्धरा
क्षत्रियोंसे शून्य हो जायगी, इसमें संशय नहीं है” || ३२ ।।
वैशम्पायन उवाच
ततः कैलासनिलयो धनाध्यक्षो5भ्यभाषत ।
दत्तेष्वस्त्रेषु दिव्येषु वरुणेन यमेन च ।। ३३ ।।
प्रीतो5हमपि ते प्राज्ञ पाण्डवेय महाबल ।
त्वया सह समागम्य अजितेन तथैव च ।। ३४ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! वरुण और यमके दिव्यास्त्र प्रदान कर चुकनेपर
कैलासनिवासी धनाध्यक्ष कुबेरने कहा--“महाबली बुद्धिमान् पाण्डुनन्दन! मैं भी तुमपर
प्रसन्न हूँ। तुम अपराजित वीर हो। तुमसे मिलकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है” || ३३-३४ ।।
सव्यसाचिन् महाबाहो पूर्वदेव सनातन ।
सहास्माभिर्भवाउ्छान्त: पुराकल्पेषु नित्यश: ।। ३५ ।।
दर्शनात् ते व्िदं दिव्यं प्रदिशामि नरर्षभ ।
अमनुष्यान् महाबाहो दुर्जयानपि जेष्यसि ।। ३६ ।।
“सव्यसाचिन्! महाबाहो! पुरातन देव! सनातनपुरुष! पूर्वकल्पोंमें मेरे साथ तुमने सदा
तपके द्वारा परिश्रम उठाया है। नरश्रेष्ठ) आज तुम्हें देखकर यह दिव्यास्त्र प्रदान करता हूँ।
महाबाहो! इसके द्वारा तुम दुर्जय मानवेतर प्राणियोंको भी जीत लोगे || ३५-३६ ।।
मत्तश्वैव भवानाशा गृल्लात्वस्त्रमनुत्तमम् |
अनेन त्वमनीकानि धार्तराष्ट्रस्य धक्ष्यसि || ३७ ।।
“तुम मुझसे शीघ्र ही इस अत्युत्तम अस्त्रको ग्रहण कर लो। तुम इसके द्वारा दुर्योधनकी
सारी सेनाओंको जलाकर भस्म कर डालोगे || ३७ ।।
तदिदं प्रतिगृह्नीष्व अन्तर्धानं प्रियं मम ।
ओजस्तेजोद्युतिकरं प्रस्वापनमरातिनुत् || ३८ ।।
“यह मेरा परम प्रिय अन्तर्धान नामक अस्त्र है। इसे ग्रहण करो। यह ओज, तेज और
कान्ति प्रदान करनेवाला, शत्रुसेनाकों सुला देनेवाला और समस्त वैरियोंका विनाश
करनेवाला है ।। ३८ ।।
महात्मना शड्करेण त्रिपुरं निहतं यदा ।
तदैतदस्त्र॑ निर्मुक्ते येन दग्धा महासुरा: ।। ३९ ।।
“परमात्मा शंकरने जब त्रिपुरासुरके तीनों नगरोंका विनाश किया था, उस समय इस
अस्त्रका उनके द्वारा प्रयोग किया गया था; जिससे बड़े-बड़े असुर दग्ध हो गये थे || ३९ ।।
त्वदर्थमुद्यतं चेद॑ मया सत्यपराक्रम ।
त्वमहों धारणे चास्य मेरुप्रतिमगौरव ।। ४० ।।
'सत्यपराक्रमी और मेरुके समान गौरवशाली पार्थ! तुम्हारे लिये यह अस्त्र मैंने
उपस्थित किया है। तुम इसे धारण करनेके योग्य हो” ।। ४० ।।
ततोडर्जुनो महाबाहुर्विधिवत् कुरुनन्दन: ।
कौबेरमधिजग्राह दिव्यमस्त्र महाबल: ।। ४१ ।।
तब कुरुकुलका आनन्द बढ़ानेवाले महाबाहु महाबली अर्जुनने कुबेरके उस “अन्तर्धान!
नामक दिव्य अस्त्रको ग्रहण किया ।। ४१ ।।
ततो<ब्रवीद् देवराज: पार्थमक्लिष्टकारिणम् ।
सान्त्वयःश्लक्ष्णया वाचा मेघदुन्दुभिनि:स्वन: || ४२ ।।
तदनन्तर देवराज इन्द्रने अनायास ही महान् कर्म करनेवाले कुन्तीकुमार अर्जुनको मीठे
वचनोंद्वारा सान्त्वना देते हुए मेघ और दुन्दुभिके समान गम्भीर स्वरसे कहा-- || ४२ ।।
कुन्तीमातर्महाबाहो त्वमीशान: पुरातन: ।
परां सिद्धिमनुप्राप्त: साक्षाद् देवगतिं गत: ।। ४३ ।।
“महाबाहु कुन्तीकुमार! तुम पुरातन शासक हो। तुम्हें उत्तम सिद्धि प्राप्त हुई है। तुम
साक्षात् देवगतिको प्राप्त हुए हो ।। ४३ ।।
देवकार्य तु सुमहत् त्वया कार्यमरिंदम ।
आरोढ्व्यस्त्वया स्वर्ग: सज्जीभव महाद्युते ।। ४४ ।।
'शत्रुदमन! तुम्हें देवताओंका बड़ा भारी कार्य सिद्ध करना है। महाद्युते! तैयार हो
जाओ तुम्हें स्वर्गलोकमें चलना है || ४४ ।।
रथो मातलिसंयुक्त आगन्ता त्वत्कृते महीम्
तत्र ते5हं प्रदास्यामि दिव्यान्यस्त्राणि कौरव ।। ४५ ।।
“मातलिके द्वारा जोता हुआ दिव्य रथ तुम्हें लेनेके लिये पृथ्वीपर आनेवाला है।
कुरुनन्दन! वहीं (स्वर्गमें) मैं तुम्हें दिव्यास्त्र प्रदान करूँगा” || ४५ ।।
तान् दृष्टवा लोकपालांस्तु समेतान् गिरिमूर्थनि ।
जगाम विस्मयं धीमान् कुन्तीपुत्रो धनंजय: ।। ४६ ।।
उस पर्वतशिखरपर एकत्र हुए उन सभी लोक-पालोंका दर्शन करके परम बुद्धिमान्
धनंजयको बड़ा विस्मय हुआ ।। ४६ ।।
ततोडर्जुनो महातेजा लोकपालान् समागतान् |
पूजयामास विधिवद् वाग्भिरद्धि: फलैरपि ।। ४७ ।।
तत्पश्चात् महातेजस्वी अर्जुनने वहाँ पधारे हुए लोकपालोंका मीठे वचन, जल और
फलोंके द्वारा भी विधिपूर्वक पूजन किया ।। ४७ ।।
ततः प्रतिययुर्देवा: प्रतिमान्य धनंजयम् ।
यथागतेन विबुधा: सर्वे काममनोजवा: ।। ४८ ।।
इसके बाद इच्छानुसार मनके समान वेगवाले समस्त देवता अर्जुनके प्रति सम्मान
प्रकट करके जैसे आये थे वैसे ही चले गये || ४८ ।।
ततोडर्जुनो मुर्दं लेभे लब्धास्त्र: पुरुषर्षभ: ।
कृतार्थमथ चात्मानं स मेने पूर्णणमानसम् ।। ४९ ।।
तदनन्तर देवताओंसे दिव्यास्त्र प्राप्त करके पुरुषोत्तम अर्जुनको बड़ी प्रसन्नता हुई;
उन्होंने अपने-आपको कृतार्थ एवं पूर्णमनोरथ माना ।। ४९ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि कैरातपर्वणि देवप्रस्थाने एकचत्वारिंशो 5ध्याय: ।। ४१
||
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत वनपर्वके अन्तर्गत कैरातपर्वमें देवप्रस्थानविषयक इकतालीसवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥। ४१ ॥
हि आय न [हुक हि २ आम
(इन्द्रलोकाभिगमनपर्व)
द्विचत्वारिशो< ध्याय:
अर्जुनका हिमालयसे विदा होकर मातलिके साथ
स्वर्गलोकको प्रस्थान
वैशम्पायन उवाच
गतेषु लोकपालेषु पार्थ: शत्रुनिबर्हण: ।
चिन्तयामास राजेन्द्र देवराजरथं प्रति ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! लोकपालोंके चले जानेपर शत्रुसंहारक अर्जुनने
देवराज इन्द्रके रथका चिन्तन किया ।। १ ।।
ततश्चिन्तयमानस्य गुडाकेशस्य धीमत: ।
रथो मातलिसंयुक्त आजगाम महाप्रभ: ॥। २ ॥।
निद्राविजयी बुद्धिमान् पार्थके चिन्तन करते ही मातलिसहित महातेजस्वी रथ वहाँ आ
गया ।। २ ।।
नभो वितिमिरं कुर्वज्जलदान् पाटयन्निव ।
दिश: सम्पूरयन् नादैर्महामेघरवोपमै: ।। ३ ।॥
वह रथ आकाशको अन्धकारशून्य मेघोंकी घटाको विदीर्ण और महान् मेघकी गर्जनाके
समान गम्भीर शब्दसे दिशाओंको परिपूर्ण-सा कर रहा था ।। ३ ।।
असय: शक्तयो भीमा गदाश्षोग्रप्रदर्शना: ।
दिव्यप्रभावा: प्रासाश्न विद्युतश्न महाप्रभा: ।। ४ ।।
तथैवाशनयश्वैव चक्रयुक्तास्तुलागुडा: ।
वायुस्फोटा: सनिर्घाता महामेघस्वनास्तथा ।। ५ ।।
उस रथमें तलवार, भयंकर शक्ति, उग्र गदा, दिव्य प्रभावशाली प्रास, अत्यन्त
कान्तिमती विद्युत्ू, अशनि एवं चक्रयुक्त भारी वजनवाले प्रस्तरके गोले रखे हुए थे, जो
चलाते समय हवामें सनसनाहट पैदा करते थे। तथा जिनसे वज्रगर्जन और महामेघोंकी
गम्भीर ध्वनिके समान शब्द होते थे ।। ४-५ ।।
तत्र नागा महाकाया ज्वलितास्या: सुदारुणा: ।
सिताभ्रकूटप्रतिमा: संहताश्च॒ तथोपला: ।। ६ ।।
उस स्थानमें अत्यन्त भयंकर तथा प्रज्वलित मुखवाले विशालकाय सर्प मौजूद थे। श्वेत
बादलोंके समूहकी भाँति ढेर-के-ढेर युद्धमें फेंकनेयोग्य पत्थर भी रखे हुए थे ।। ६ ।।
दशवाजिसहस्राणि हरीणां वातरंहसाम् ।
वहन्ति य॑ नेत्रमुषं दिव्यं मायामयं रथम् ।। ७ ।।
वायुके समान वेगशाली दस हजार श्वेत-पीत रंगवाले घोड़े नेत्रोंमें चकाचौंध पैदा
करनेवाले उस दिव्य मायामय रथको वहन करते थे ।। ७ ।।
तत्रापश्यन्महानीलं वैजयन्तं महाप्रभम् |
ध्वजमिन्दीवरश्यामं वंशं कनकभूषणम् ।। ८ ।।
अर्जुनने उस रथपर अत्यन्त नीलवर्णवाले महातेजस्वी “वैजयन्त” नामक इन्द्रध्वजको
फहराता देखा। उसकी श्याम सुषमा नील कमलकी शोभाको तिरस्कृत कर रही थी। उस
ध्वजके दण्डमें सुवर्ण मढ़ा हुआ था ।। ८ ।।
तस्मिन् रथे स्थितं सूतं तप्तहेमविभूषितम् ।
दृष्टवा पार्थों महाबाहुर्देवमेवान्वतर्कयत् ।। ९ ।।
महाबाहु कुन्तीकुमारने उस रथपर बैठे हुए सारथिकी ओर देखा, जो तपाये हुए
सुवर्णके आभूषणोंसे विभूषित था। उसे देखकर उन्होंने कोई देवता ही समझा ।। ९ ।।
तथा तर्कयतस्तस्य फाल्गुनस्याथ मातलि: ।
संनतः प्रस्थितो भूत्वा वाक्यमर्जुनमब्रवीत् || १० ।।
इस प्रकार विचार करते हुए अर्जुनके सम्मुख उपस्थित हो मातलिने विनीतभावसे
कहा ।। १० ।।
मातलिस्वाच
भो भो: शक्रात्मज श्रीमाउछक्रस्त्वां द्रष्टमिच्छति ।
आरोहतु भवाज्छीघ्रं रथमिन्द्रस्य सम्मतम् || ११ ।।
मातलि बोला--इन्द्रकुमार! श्रीमान् देवराज इन्द्र आपको देखना चाहते हैं। यह
उनका प्रिय रथ है। आप इसपर शीघ्र आरूढ़ होइये || ११ ।।
आह माममरश्रेष्ठ: पिता तव शतक्रतुः ।
कुन्तीसुतमिह प्राप्तं पश्यन्तु त्रिदशालया: ।॥। १२ ।।
एष शक्रः परिवृतो देवैरऋषिगणैस्तथा ।
गन्धर्वैरप्सरोभिश्र त्वां दिदृक्षु: प्रतीक्षते ।। १३ ।।
आपके पिता देवेश्वर शतक्रतुने मुझसे कहा है कि “तुम कुन्तीनन्दन अर्जुनको यहाँ ले
आओ, जिससे सब देवता उन्हें देखें।" देवताओं, महर्षियों, गन्धर्वों तथा अप्सराओंसे घिरे
हुए इन्द्र आपको देखनेके लिये प्रतीक्षा कर रहे हैं | १२-१३ ।।
अस्माल्लोकाद् देवलोक॑ पाकशासनशासनात् |
आरो ह त्वं मया सार्ध लब्धास्त्र: पुनरेष्यसि ।। १४ ।।
आप देवराजकी आज्ञासे इस लोकसे मेरे साथ देवलोकको चलिये। वहाँसे दिव्यास्त्र
प्राप्त करके लौट आइयेगा ।। १४ ।।
अजुन उवाच
मातले गच्छ शीघ्रं त्वमारोहस्व रथोत्तमम् |
राजसूयाश्दमेधानां शतैरपि सुदुर्लभम् ।। १५ ।।
अर्जुनने कहा--मातले! आप जल्दी चलिये। अपने इस उत्तम रथपर पहले आप
चढ़िये। यह सैकड़ों राजसूय और अश्वमेधयज्ञोंद्वारा भी अत्यन्त दुर्लभ है ।।
पार्थिवै: सुमहाभागैर्यज्वभि र्भूरिदक्षिणै: ।
देवतैर्वा समारोढुं दानवैर्वा रथोत्तमम् ।। १६ ।।
प्रचुर दक्षिणा देनेवाले, महान् सौभाग्यशाली, यज्ञपरायण भूमिपालों, देवताओं अथवा
दानवोंके लिये भी इस उत्तम रथपर आरूढ़ होना कठिन है ।। १६ ।।
नातप्ततपसा शक््य एष दिव्यो महारथ: ।
द्रष्ट वाप्यथवा स्प्रष्टमारोढुं कुत एव च ।। १७ ।।
जिन्होंने तपस्या नहीं की है, वे इस महान् दिव्य रथका दर्शन या स्पर्श भी नहीं कर
सकते, फिर इसपर आरूढ़ होनेकी तो बात ही क्या है? ।। १७ ।।
त्वयि प्रतिछ्ठिते साधो रथस्थे स्थिरवाजिनि ।
पश्चादहमथारो क्ष्ये सुकृती सत्प्ं यथा ।। १८ ।।
साधु सारथे! आप इस रथपर स्थिरतापूर्वक बैठकर जब घोड़ोंको काबूमें कर लें, तब
जैसे पुण्यात्मा सन्मार्गपर आरूढ़ होता है, उसी प्रकार पीछे मैं भी इस रथपर आखरूढ़
होऊँगा ।। १८ ।।
वैशम्पायन उवाच
तस्य तद् वचन श्रुत्वा मातलिः शक्रसारथि: ।
आरुरोह रथं शीघ्र हयान् येमे च रश्मिभि: ।। १९ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! अर्जुनका यह वचन सुनकर इन्द्रसारथि मातलि
शीघ्र ही रथपर जा बैठा और बागडोर खींचकर घोड़ोंको काबूमें किया ।। १९ ।।
ततोडर्जुनो हृष्टमना गज्जायामाप्लुत: शुचि: ।
जजाप जप्यं कौन्तेयो विधिवत् कुरुनन्दन: ।। २० ।।
तदनन्तर कुरुनन्दन कुन्तीकुमार अर्जुनने प्रसन्नमनसे गंगामें स्नान किया और पवित्र हो
विधिपूर्वक जपने-योग्य मन्त्रका जप किया || २० |।
ततः पितृन् यथान्यायं तर्पयित्वा यथाविधि ।
मन्दरं शैलराजं तमाप्रष्टमुपचक्रमे ।। २१ ।।
फिर विधिपूर्वक न्यायोचित रीतिसे पितरोंका तर्पण करके विस्तृत शैलराज हिमालयसे
विदा लेनेका उपक्रम किया ।। २१ ।।
साधूनां पुण्यशीलानां मुनीनां पुण्यकर्मणाम् ।
त्वं सदा संश्रय: शैल स्वर्गमार्गाभिकाड्क्षिणाम् ।। २२ ।।
“गिरिराज! तुम साधु-महात्माओं, पुण्यात्मा मुनियों तथा स्वर्गमार्गकी अभिलाषा
रखनेवाले पुण्यकर्मा मनुष्योंके सदा शुभ आश्रय हो ।। २२ ।।
त्वत्प्रसादात् सदा शैल ब्राह्मणा: क्षत्रिया विश: ।
स्वर्ग प्राप्ताश्चरन्ति सम देव: सह गतव्यथा: ।। २३ ।।
“गिरिराज! तुम्हारे कृपाप्रसादसे सदा कितने ही ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य स्वर्गमें
जाकर व्यथारहित हो देवताओंके साथ विचरते हैं || २३ ।।
अद्विराज महाशैल मुनिसंश्रय तीर्थवन् |
गच्छाम्यामन्त्रयामि त्वां सुखमस्म्युषितस्त्वयि ।। २४ ।।
“अद्रिराज! महाशैल! मुनियोंके निवासस्थान! तीर्थोंसे विभूषित हिमालय! मैं तुम्हारे
शिखरपर सुखपूर्वक रहा हूँ, अतः तुमसे आज्ञा माँगकर यहाँसे जा रहा हूँ || २४ ।।
तव सानूनि कुज्जाश्न नद्यः प्र्रवणानि च ।
तीर्थानि च सुपुण्यानि मया दृष्टान्यनेकश: ।। २५ ।।
“तुम्हारे शिखर, कुंजवन, नदियाँ, झरने और परम पुण्यमय तीर्थस्थान मैंने अनेक बार
देखे हैं || २५ ।।
फलानि च सुगन्धीनि भक्षितानि ततस्तत: ।
सुसुगन्धाश्च वार्योघास्त्वच्छरीरविनि:सृता: ।। २६ ।।
अमृतास्वादनीया मे पीता: प्रस्रवणोदका: ।
'यहाँके विभिन्न स्थानोंसे सुगन्धित फल लेकर भोजन किये हैं। तुम्हारे शरीरसे प्रकट
हुए परम सुगन्धित प्रचुर जलका सेवन किया है। तुम्हारे झरनेका अमृतके समान स्वादिष्ट
जल मैंने प्रतिदिन पान किया है || २६३ ।।
शिशुर्यथा पितुरड्के सुसुखं वर्तते नग | २७ ।।
तथा तवाड्के ललितं शैलराज मया प्रभो ।
'प्रभो नगराज! जैसे शिशु अपने पिताके अंकमें बड़े सुखसे रहता है, उसी प्रकार मैंने
भी तुम्हारी गोदमें आमोदपूर्वक क्रीड़ाएँ की हैं || २७३ ।।
अप्सरोगणसंकीर्णे ब्रह्मघोषानुनादिते || २८ ।।
सुखमस्म्युषित: शैल तव सानुषु नित्यदा ।
'शैलराज! अप्सराओंसे व्याप्त और वैदिक मन्त्रोंके उच्चघोषसे प्रतिध्वनित तुम्हारे
शिखरों पर मैंने प्रतिदिन बड़े सुखसे निवास किया है” ।। २८३ ।।
एवमुकक््त्वार्जुन: शैलमामन्त्रय परवीरहा ।। २९ ।।
आरुरोह रथं दिव्यं द्योतयन्निव भास्कर: ।
ऐसा कहकर शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले अर्जुन शैलराजसे आज्ञा माँगकर उस दिव्य
रथको देदीप्यमान करते हुए-से उसपर आखरूढ़ हो गये, मानो सूर्य सम्पूर्ण दिशाओंको
प्रकाशित कर रहे हों ।। २९३ ।।
स तेनादित्यरूपेण दिव्येनाद्भुतकर्मणा ।। ३० ।।
ऊर्ध्वमाचक्रमे धीमान् प्रहृष्ट: कुरुनन्दन: ।
सो<दर्शनपथं यातो मर्त्यानां धर्मचारिणाम् ।। ३१ ।।
परम बुद्धिमान् कुरुनन्दन अर्जुन बड़े प्रसन्न होकर उस अद्भुत चालसे चलनेवाले
सूर्यस्वरूप दिव्य रथके द्वारा ऊपरकी ओर जाने लगे। धीरे-धीरे धर्मात्मा मनुष्योंके
दृष्टिपथसे दूर हो गये || ३०-३१ ।।
ददर्शाद्भधुतरूपाणि विमानानि सहस्रश: ।
न तत्र सूर्य: सोमो वा द्योतते न च पावक: ।। ३२ ।।
ऊपर जाकर उन्होंने सहस्रों अद्भुत विमान देखे। वहाँ न सूर्य प्रकाशित होते हैं, न
चन्द्रमा। अग्निकी प्रभा भी वहाँ काम नहीं देती है ।। ३२ ।।
स्वयैव प्रभया तत्र द्योतन्ते पुण्यलब्धया ।
तारारूपाणि यानीह दृश्यन्ते द्युतिमन्ति वै ।। ३३ ।।
दीपवद् विप्रकृष्टत्वात् तनूनि सुमहान्त्यपि ।
तानि तत्र प्रभास्वन्ति रूपवन्ति च पाण्डव: ।। ३४ ।।
ददर्श स्वेषु धिष्ण्येषु दीप्तिमन्त: स्वयार्चिषा ।
तत्र राजर्षय: सिद्धा वीराश्व निहता युधि ।। ३५ ।।
वहाँ स्वर्गके निवासी अपने पुण्यकर्मोसे प्राप्त हुई अपनी ही प्रभासे प्रकाशित होते हैं।
यहाँ प्रकाशमान तारोंके रूपमें जो दूर होनेके कारण दीपककी भाँति छोटे और बड़े
प्रकाशपुंज दिखायी देते हैं, उन सभी प्रकाशमान स्वरूपोंको पाण्डुनन्दन अर्जुनने देखा। जो
अपने-अपने अधिष्ठानोंमें अपनी ही ज्योतिसे देदीप्यमान हो रहे थे। उन लोकोंमें वे सिद्ध
राजर्षि वीर निवास करते थे, जो युद्धमें प्राण देकर वहाँ पहुँचे थे || ३३--३५ ।।
तपसा च जित स्वर्ग सम्पेतु: शतसड्घश: ।
गन्धर्वाणां सहस्राणि सूर्यज्वलिततेजसाम् ।। ३६ ।।
गुहाकानामृषीणां च तथैवाप्सरसां गणान् |
लोकानात्मप्रभान् पश्यन् फाल्गुनो विस्मयान्वित: ॥। ३७ ।।
सैकड़ों झुंड-के-झुंड तपस्वी पुरुष स्वर्गमें जा रहे थे, जिन्होंने तपस्याद्वारा उसपर
विजय पायी थी। सूर्यके समान प्रकाशमान सहस्रों गन्धर्वों, गुह्कों, ऋषियों तथा
अप्सराओंके समूहोंको और उनके स्वतः प्रकाशित होनेवाले लोकोंको देखकर अर्जुनको
बड़ा आश्चर्य होता था || ३६-३७ ।।
पप्रच्छ मातलिं प्रीत्या स चाप्येनममुवाच ह ।
एते सुकृतिन:ः पार्थ स्वेषु धिष्ण्येष्ववस्थिता: ।। ३८ ।।
तान् दृष्टवानसि विभो तारारूपाणि भूतले ।
अर्जुनने प्रसन्नतापूर्वक मातलिसे उनके विषयमें पूछा, तब मातलिने उनसे कहा
--कुन्तीकुमार! ये वे ही पुण्यात्मा पुरुष हैं, जो अपने-अपने लोकोंमें निवास करते हैं।
विभो! उन्हींको भूतलपर आपने तारोंके रूपमें चमकते देखा है” || ३८३ ।।
ततो<पश्यत् स्थितं द्वारि शुभं वैजयिनं गजम् ॥। ३९ ।।
ऐरावतं चतुर्दन्तं कैलासमिव शृद्धिणम् ।
स सिद्धमार्गमाक्रम्य कुरुपाण्डवसत्तम: || ४० ।।
व्यरोचत यथापूर्व मान्धाता पार्थिवोत्तम: ।
अभिचक्राम लोकान् स राज्ञां राजीवलोचन: ।। ४१ ।।
तदनन्तर अर्जुनने स्वर्गद्वारपर खड़े हुए सुन्दर विजयी गजराज ऐरावतको देखा,
जिसके चार दाँत बाहर निकले हुए थे। वह ऐसा जान पड़ता था, मानो अनेक शिखरोंसे
सुशोभित कैलास पर्वत हो। कुरु-पाण्डव-शिरोमणि अर्जुन सिद्धोंके मार्गपर आकर वैसे ही
शोभा पाने लगे, जैसे पूर्वकालमें भूपालशिरोमणि मान्धाता सुशोभित होते थे। कमलनयन
अर्जुनने उन पुण्यात्मा राजाओंके लोकोंमें भ्रमण किया ।। ३९--४१ ।।
एवं स संक्रमंस्तत्र स्वर्गलोके महायशा: ।
ततो ददर्श शक्रस्य पुरीं ताममरावतीम् ।। ४२ ।।
इस प्रकार महायशस्वी पार्थने स्वर्गलोकमें विचरते हुए आगे जाकर इन्द्रपुरी
अमरावतीका दर्शन किया ।। ४२ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि इन्द्रलोकाभिगमनपर्वणि द्विचत्वारिंशो5ध्याय: ।। ४२ ।।
इस प्रकार श्रीमह्या भारत वनपवकि अन्तर्गत इन्द्रलोकाभिगमनपर्वमें बयालीसवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥। ४२ ॥
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त्रिचत्वारिशो< ध्याय:
अर्जुनद्वारा देवराज इन्द्रका दर्शन तथा इन्द्रसभामें उनका
स्वागत
वैशम्पायन उवाच
ददर्श स पुरी रम्यां सिद्धचारणसेविताम् ।
सर्वर्तुकुसुमै: पुण्य: पादपैरुपशोभिताम् ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन! अर्जुनने सिद्धों और चारणोंसे सेवित उस रम्य
अमरावतीपुरीको देखा, जो सभी ऋतुओंके कुसुमोंसे विभूषित पुण्यमय वृक्षोंसे सुशोभित
थी।।१॥।।
तत्र सौगन्धिकानां च पुष्पाणां पुण्यगन्धिनाम् ।
उद्वीज्यमानो मिश्रेण वायुना पुण्यगन्धिना ।। २ ।।
वहाँ सुगन्धयुक्त कमल तथा पवित्र गन्धवाले अन्य पुष्पोंकी पवित्र गन्धसे मिली हुई
वायु मानो व्यजन डुला रही थी ।। २ ।।
ननन््दनं च वन दिव्यमप्सरोगणसेवितम् ।
ददर्श दिव्यकुसुमैराद्दयद्धिरिव द्रुमै: ।। ३ ।।
अप्सराओंसे सेवित दिव्य नन्दनवनका भी उन्होंने दर्शन किया, जो दिव्य पुष्पोंसे भरे
हुए वृक्षोंद्वारा मानो उन्हें अपने पास बुला रहा था || ३ ।।
नातप्ततपसा शकयो द्रष्टं नानाहिताग्निना ।
स लोक कक गं नापि युद्धे पराड्मुखै: ।। ४ ।।
जिन्होंने तपस्या नहीं की है, जो अग्निहोत्रसे दूर रहे हैं तथा जिन्होंने युद्धमें पीठ दिखा
दी है, वैसे लोग पुण्यात्माओंके उस लोकका दर्शन भी नहीं कर सकते ।। ४ ।।
नायज्वभिनवत्रितिकैर्न वेदश्रुतिवर्जिति: ।
नानाप्लुताज्ैस्तीर्थेषु यज्ञदानबहिष्कृतै: ।। ५ ।।
जिन्होंने यज्ञ नहीं किया है, व्रतका पालन नहीं किया है, जो वेद और श्रुतियोंके
स्वाध्यायसे दूर रहे हैं, जिन्होंने तीर्थोंमें स्नान नहीं किया है तथा जो यज्ञ और दान आदि
सत्कर्मोसे वंचित रहे हैं, ऐसे लोगोंको भी उस पुण्यलोकका दर्शन नहीं हो सकता ।। ५ ।।
नापि यज्ञहनै: क्षुद्रेर्दर्टं शक्य: कथंचन ।
पानपैर्गुरुतल्पैश्व मांसादैर्वा दुरात्मभि: ।। ६ ।।
जो यज्ञोंमें विघ्म डालनेवाले नीच, शराबी, गुरुपत्नीगामी, मांसाहारी तथा दुरात्मा हैं, वे
तो किसी भी प्रकार उस दिव्य लोकका दर्शन नहीं पा सकते ।। ६ ।।
स तद् दिव्यं वनं पश्यन् दिव्यगीतनिनादितम् ।
प्रविवेश महाबाहु: शक्रस्य दयितां पुरीम् ।। ७ ।।
जहाँ सब ओर दिव्य संगीत गूँज रहा था, उस दिव्य वनका दर्शन करते हुए महाबाहु
अर्जुनने देवराज इन्द्रकी प्रिय नगरी अमरावतीमें प्रवेश किया ।। ७ ।।
तत्र देवविमानानि कामगानि सहस्रशः ।
संस्थितान्यभियातानि ददर्शायुतशस्तदा ।। ८ ।।
संस्तूयमानो गन्धर्वैरप्सरोभिश्नल पाण्डव: |
पुष्पगन्धवहै: पुण्यैर्वायुभिश्चवानुवीजित: ।। ९ ।।
वहाँ स्वेच्छानुसार गमन करनेवाले देवताओंके सहस्रों विमान स्थिरभावसे खड़े थे और
हजारों इधर-उधर आते-जाते थे। उन सबको पाण्डुनन्दन अर्जुनने देखा। उस समय गन्धर्व
और अप्सराएँ उनकी स्तुति कर रही थीं। फ़ूलोंकी सुगन्धका भार वहन करनेवाली पवित्र
मन्द-मन्द वायु मानो उनके लिये चँवर डुला रही थी ।। ८-९ ।।
ततो देवा: सगन्धर्वा: सिद्धाश्न परमर्षय: |
हृष्टा: सम्पूजयामासु: पार्थमक्लिष्टकारिणम् ।। १० ।।
तदनन्तर देवताओं, गन्धर्वों, सिद्धों और महर्षियोंने अत्यन्त प्रसन्न होकर अनायास ही
महान् कर्म करनेवाले कुन्तीकुमार अर्जुनका स्वागत-सत्कार किया ।। १० ।।
आशीवदि: स्तूयमानो दिव्यवादित्रनि:स्वनै: ।
प्रतिपेदे महाबाहुः शड्ःखदुन्दुभिनादितम् ।। ११ ।।
नक्षत्रमार्ग विपुलं सुरवीथीति विश्रुतम्
इन्द्राज्ञया ययौ पार्थ: स्तूयमान: समन्ततः ।। १२ ।।
कहीं उन्हें आशीर्वाद मिलता और कहीं स्तुति-प्रशंसा प्राप्त होती थी। स्थान-स्थानपर
दिव्य वाद्योकी मधुर ध्वनिसे उनका स्वागत हो रहा था। इस प्रकार महाबाहु अर्जुन शंख
और दुन्दुभियोंके गम्भीर नादसे गूँजते हुए 'सुरवीथी” नामसे प्रसिद्ध विस्तृत नक्षत्र-मार्गपर
चलने लगे। इन्द्रकी आज्ञासे कुन्तीकुमारका सब ओर स्तवन हो रहा था और इस प्रकार वे
गन्तव्य मार्गपर बढ़ते चले जा रहे थे || ११-१२ ।।
तत्र साध्यास्तथा विश्वे मरुतो5थाश्विनौ तथा ।
आदित्या वसवो रुद्रास्तथा ब्रह्मर्षपोडमला: ।। १३ ।।
राजर्षयश्व बहवो दिलीपप्रमुखा नृपा: ।
तुम्बुरुनरिदश्चैव गन्धर्वो च हहाहुहू: ।। १४ ।।
वहाँ साध्य, विश्वेदेव, मरुद्गण, अश्विनीकुमार, आदित्य, वसु, रुद्र तथा विशुद्ध
ब्रह्मर्षिणण और अनेक राजर्षिगण एवं दिलीप आदि बहुत-से राजा, तुम्बुरु, नारद, हाहा,
हूहू आदि गन्धर्वगण विराजमान थे ।। १३-१४ ।।
तान् स सर्वान् समागम्य विधिवत् कुरुनन्दन: ।
ततो<पश्यद् देवराजं शतक्रतुमरिंदम: ।। १५ ||
शत्रुओंका दमन करनेवाले कुरुनन्दन अर्जुनने उन सबसे विधिपूर्वक मिलकर अन्तमें
सौ यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाले देवराज इन्द्रका दर्शन किया ।। १५ ।।
ततः पार्थों महाबाहुरवतीर्य रथोत्तमात् ।
ददर्श साक्षाद् देवेशं पितरं पाकशासनम् ।। १६ ।।
उन्हें देखते ही महाबाहु पार्थ उस उत्तम रथसे उतर पड़े और देवेश्वर पिता पाकशासन
(इन्द्र)-को उन्होंने प्रत्यक्ष देखा || १६ ।।
पाण्डुरेणातपत्रेण हेमदण्डेन चारुणा ।
दिव्यगन्धाधिवासेन व्यजनेन विधूयता ।। १७ ।।
उनके मस्तकपर श्वेत छत्र तना हुआ था, जिसमें मनोहर स्वर्णमय दण्ड शोभा पा रहा
था। उनके उभय पार्श्वमें दिव्य सुगन्धसे वासित चँवर डुलाये जा रहे थे ।। १७ ।।
विश्वावसुप्र भृतिभिरर्गन्धर्वे: स्तुतिवन्दनै: ।
स्तूयमान द्विजाग्रयैश्न ऋग्यजु:सामसम्भवै: ।। १८ ।।
विश्वावसु आदि गन्धर्व स्तुति और वन्दनापूर्वक उनके गुण गाते थे। श्रेष्ठ ब्रह्मर्षिगण
ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके इन्द्रदेवतासम्बन्धी मन्त्रोंद्रारा उनका स्तवन कर रहे
थे।। १८ ।।
ततो5भिगम्य कौन्तेय: शिरसाभ्यगमद् बली ।
स चैन वृत्तपीनाभ्यां बाहुशभ्यां प्रत्यगृह्नत ।। १९ ।।
तदनन्तर बलवान कुन्तीकुमारने निकट जाकर देवेन्द्रके चरणोंमें मस्तक रख दिया और
उन्होंने अपनी गोल-गोल मोटी भुजाओंसे उठाकर अर्जुनको हृदयसे लगा लिया ।। १९ ।।
ततः शक्रासने पुण्ये देवर्षिगणसेविते ।
शक्र: पाणौ गृहीत्वैनमुपावेशयदन्तिके ।। २० ।।
तत्पश्चात् इन्द्रने अर्जुनका हाथ पकड़कर अपने देवर्षिगणसेवित पवित्र सिंहासनपर
उन्हें पास ही बिठा लिया || २० ।।
मूर्थ्नि चैनमुपाप्राय देवेन्द्र: परवीरहा ।
अड्कमारोपयामास प्रश्रयावनतं तदा ।। २१ ।।
तब शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले देवराजने विनीतभावसे आये हुए अर्जुनका मस्तक
सूँघा और उन्हें अपनी गोदमें बिठा लिया ।। २१ ।।
सहस्राक्षनियोगात् स पार्थ: शक्रासनं गत: ।
अध्यक्रामदमेयात्मा द्वितीय इव वासव: ।। २२ ।।
उस समय सहसनेत्रधारी देवेन्द्रके आदेशसे उनके सिंहासनपर बैठे हुए अपरिमित
प्रभावशाली कुन्तीकुमार दूसरे इन्द्रकी भाँति शोभा पा रहे थे || २२ ।।
ततः प्रेम्णा वृत्रशत्रुरर्जुनस्य शुभं मुखम् |
पस्पर्श पुण्यगन्धेन करेण परिसान्त्वयन् ।। २३ ।।
इसके बाद वृत्रासुरके शत्रु इन्द्रने पवित्र गन्धयुक्त हाथसे बड़े प्रेमके साथ अर्जुनको सब
प्रकारसे आश्वासन देते हुए उनके सुन्दर मुखका स्पर्श किया ।। २३ ।।
प्रमार्जमान: शनकैर्बाहू चास्यायतौ शुभौ ।
ज्याशरक्षेपकठिनौ स्तम्भाविव हिरणमयौ ।। २४ ।।
अर्जुनकी सुन्दर विशाल भुजाएँ प्रत्यंचा खींचकर बाण चलानेकी रगड़से कठोर हो
गयी थीं। वे देखनेमें सोनेके खंभे-जैसी जान पड़ती थीं। देवराज उन भुजाओंपर धीरे-धीरे
हाथ फेरने लगे ।। २४ ।।
वज्जग्रहणचिह्लेन करेण परिसान्त्वयन् ।
मुहुर्मुहुर्वज़धरो बाहू चास्फोटयच्छनै: ।। २५ ।।
वज्रधारी इन्द्र वज्रधारणजनित चिह्से सुशोभित दाहिने हाथसे अर्जुनको बार-बार
सान्त्वना देते हुए उनकी भुजाओंको धीरे-धीरे थपथपाने लगे ।। २५ ।।
स्मयन्निव गुडाकेशं प्रेक्षमाण: सहस्रदूक् ।
हर्षेणोत्फुल्लनयनो न चातृप्यत वृत्रहा ।। २६ ।।
सहसख््र नयनोंसे सुशोभित वृत्रसूदन इन्द्र निद्राविजयी अर्जुनको मुसकराते हुए-से देख
रहे थे। उस समय इन्द्रकी आँखें हर्षसे खिल उठी थीं। वे उन्हें देखनेसे तृप्त नहीं होते
थे।। २६ |।
एकासनोपविष्टो तौ शोभयांचक्रतु: सभाम् |
सूर्याचन्द्रमसौ व्योम चतुर्दश्यामिवोदितौ ।। २७ ।।
जैसे कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको उदित हुए सूर्य और चन्द्रमा आकाशकी शोभा बढ़ाते हैं,
उसी प्रकार एक सिंहासनपर बैठे हुए देवराज इन्द्र और कुन्तीकुमार अर्जुन देवसलभाको
सुशोभित कर रहे थे ।। २७ ।।
तत्र सम गाथा गायन्ति साम्ना परमवल्गुना ।
गन्धर्वस्तुम्बुरुश्रेष्ठा: कुशला गीतसामसु ।। २८ ।।
उस समय वहाँ सामगानमें निपुण तुम्बुरु आदि श्रेष्ठ गन्धर्वगण सामगानके
नियमानुसार अत्यन्त मधुर स्वरमें गाथागान करने लगे ।। २८ ।।
घृताची मेनका रम्भा पूर्वचित्ति: स्वयंप्रभा ।
उर्वशी मिश्रकेशी च दण्डगौरी वरूथिनी ।। २९ ।।
गोपाली सहजन्या च कुम्भयोनि: प्रजागरा ।
चित्रसेना चित्रलेखा सहा च मधुरस्वरा ।। ३० ।।
एताश्षान्याश्व ननृतुस्तत्र तत्र सहस्रश: ।
चित्तप्रसादने युक्ता: सिद्धानां पच्मलोचना: ।। ३१ ।।
महाकटितटश्रोण्य: कम्पमानै: पयोधरै: ।
कटाक्षहावमारधुर्यैश्वेतोबुद्धिमनोहरै: । ३२ ।।
घृताची, मेनका, रम्भा, पूर्वचित्ति, स्वयंप्रभा, उर्वशी, मिश्रकेशी, दण्डगौरी, वरूथिनी,
गोपाली, सहजन्या, कुम्भयोनि, प्रजागरा, चित्रसेना, चित्रलेखा, सहा और मधुरस्वरा--ये
तथा और भी सहसीरों अप्सराएँ वहाँ इन्द्रसभामें भिन्न-भिन्न स्थानोंपर नृत्य करने लगीं। वे
कमललोचना अप्सराएँ सिद्ध पुरुषोंके भी चित्तको प्रसन्न करनेमें संलग्न थीं। उनके कटि-
प्रदेश और नितम्ब विशाल थे। नृत्य करते समय उनके उन्नत स्तन कम्पमान हो रहे थे।
उनके कटाक्ष, हाव-भाव तथा माधुर्य आदि मन, बुद्धि एवं चित्तकी सम्पूर्ण वृत्तियोंका
अपहरण कर लेते थे | २९--३२ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि इन्द्रलोकाभिगमनपर्वणि इन्द्रसभादर्शने
त्रिचत्वारिंशो ध्याय: ।। ४३ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपरव्वके अन्तर्गत इन्रलोकाभिगमनपर्वमें इन्द्रसभादर्शनविषयक
तैतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ४३ ॥।
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चतुश्नत्वारिशो< ध्याय:
अर्जुनको अस्त्र और संगीतकी शिक्षा
वैशम्पायन उवाच
ततो देवा: सगन्धर्वा: समादायार्घ्यमुत्तमम् ।
शक्रस्य मतमाज्ञाय पार्थमानर्चुरञ्जसा ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर देवराज इन्द्रका अभिप्राय जानकर
देवताओं और गन्धर्वोने उत्तम अर्घ्य लेकर कुन्तीकुमार अर्जुनका यथोचित पूजन
किया ।। १ ।।
पाद्यमाचमनीयं च प्रतिग्राह्म नृपात्मजम् ।
प्रवेशयामासुरथो पुरन्दरनिवेशनम् ।। २ ।।
राजकुमार अर्जुनको पाद्य, (अर्घ्य)) आचमनीय आदि उपचार अर्पित करके देवताओं ने
उन्हें इन्द्रभवनमें पहुँचा दिया || २ ।।
एवं सम्पूजितो जिष्णुरुवास भवने पितु: ।
उपशि क्षन् महास्त्राणि ससंहाराणि पाण्डव: ।। ३ ।।
इस प्रकार देवसमुदायसे पूजित हो पाण्डुकुमार अर्जुन अपने पिताके घरमें रहने और
उनसे उपसंहारसहित महान् अस्त्रोंकी शिक्षा ग्रहण करने लगे ।। ३ ।।
शक्रस्य हस्ताद् दयितं वज्रमस्त्रं च दुः:सहम् ।
अशनीक्ष महानादा मेघबहिणलक्षणा: ।। ४ ।।
उन्होंने इन्द्रके हाथसे उनके प्रिय एवं दुःसह अस्त्र वज्॑ और भारी गड़गड़ाहट पैदा
करनेवाली उन अशनियोंको ग्रहण किया, जिनका प्रयोग करनेपर जगतमें मेघोंकी घटा घिर
आती और मयूर नृत्य करने लगते हैं || ४ ।।
गृहीतास्त्रस्तु कौन्तेयो भ्रातृून् सस्मार पाण्डव: ।
पुरन्दरनियोगाच्च पञठ्चाब्दानवसत् सुखी ।। ५ ।।
सब अस्त्रोंकी शिक्षा ग्रहण कर लेनेपर पाण्डुपुत्र पार्थने अपने भाइयोंका स्मरण किया।
परंतु पुरन्दरके विशेष अनुरोधसे वे (मानव-गणनाके अनुसार) पाँच वर्षोतक वहाँ सुखपूर्वक
ठहरे रहे ।। ५ ।।
तत: शक्रो<ब्रवीत् पार्थ कृतास्त्रं काल आगते ।
नृत्यं गीत॑ च कौन्तेय चित्रसेनादवाप्रुहि || ६ ।।
तदनन्तर इन्द्रने अस्त्रशिक्षामें निपुण कुन्ती-कुमारसे उपयुक्त अवसर आनेपर कहा
--कुन्तीनन्दन! तुम चित्रसेनसे नृत्य और गीतकी शिक्षा ग्रहण कर लो” ।। ६ ।।
वादित्रं देवविहितं नूलोके यन्न विद्यते ।
तदर्जयस्व कौन्तेय श्रेयो वै ते भविष्यति ॥। ७ ।।
'कुन्तीनन्दन! मनुष्यलोकमें जो अबतक प्रचलित नहीं है, देवताओंकी उस
वाद्यकलाका ज्ञान प्राप्त कर लो। इससे तुम्हारा भला होगा' || ७ ।।
सखायं प्रददौ चास्य चित्रसेनं पुरन्दर: ।
स तेन सह संगम्य रेमे पार्थो निरामय: ।। ८ ।।
पुरन्दरने अर्जुनको संगीतकी शिक्षा देनेके लिये उन्हींके मित्र चित्रसेनको नियुक्त कर
दिया। मित्रसे मिलकर दुःख-शोकसे रहित अर्जुन बड़े प्रसन्न हुए || ८ ।।
गीतवादित्रनृत्यानि भूय एवादिदेश ह ।
तथापि नालभच्छर्म तपस्वी द्यूतकारितम् ॥। ९ ।।
चित्रसेनने उन्हें गीत, वाद्य और नृत्यकी बार-बार शिक्षा दी तो भी द्यूतजनित
अपमानका स्मरण करके तपस्वी अर्जुनको तनिक भी शान्ति नहीं मिली ।। ९ ।।
दुःशासनवधामर्षी शकुने: सौबलस्य च ।
ततस्तेनातुलां प्रीतिमुपागम्य क्वचित् क्वचित् ।
गान्धर्वमतुल नृत्यं वादित्रं चोपलब्धवान् ।। १० ।।
उन्हें दुःशासन तथा सुबलपुत्र शकुनिके वधके लिये मनमें बड़ा रोष होता था तथा
चित्रसेनके सहवाससे कभी-कभी उन्हें अनुपम प्रसन्नता प्राप्त होती थी, जिससे उन्होंने
गीत, नृत्य और वाद्यकी उस अनुपम कलाको (पूर्णरूपसे) उपलब्ध कर लिया ।। १० ।।
स शिक्षितो नृत्यगुणाननेकान्
वादित्रगीतार्थगुणांश्व॒ सर्वान् ।
न शर्म लेभे परवीरहन्ता
भ्रातृन् स्मरन् मातरं चैव कुन्तीम् ।। ११ ।।
शत्रुवीरोंका हनन करनेवाले वीर अर्जुनने नृत्य-सम्बन्धी अनेक गुणोंकी शिक्षा पायी।
वाद्य और गीत-विषयक सभी गुण सीख लिये। तथापि भाइयों और माता कुन्तीका स्मरण
करके उन्हें कभी चैन नहीं पड़ता था ।। ११ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि इन्द्रलोकाभिगमनपर्वणि चतुश्नत्वारिंशोडध्याय: ।। ४४
||
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत वनपवके अन्तर्गत इन्रलोकाभिगमनपर्वमें अर्जुनकी
अख्रादिशिक्षासे सम्बन्ध रखनेवाला चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ४४ ॥/
हि आय न [छुक हि ०
पजञज्चचत्वारिशो< ध्याय:
चित्रसेन और उर्वशीका वार्तालाप
वैशम्पायन उवाच
आदावेवाथ त॑ शक्रश्नित्रसेनं रहो5ब्रवीत् ।
पार्थस्य चक्षुरुर्वश्यां सक्तं विज्ञाय वासव: ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! एक समय इन्द्रने अर्जुनके नेत्र उर्वशीके प्रति
आसक्त जानकर चित्रसेन गन्धर्वको बुलाया और प्रथम ही एकान्तमें उनसे यह बात कही
-- || १ ||
गन्धर्वराज गच्छाद्य प्रहितो5प्सरसां वराम् ।
उर्वशीं पुरुषव्याघप्र सोपातिष्ठतु फाल्गुनम् ।। २ ।।
“गन्धर्वराज! तुम मेरे भेजनेसे आज अप्सराओंमें श्रेष्ठ उर्वशीके पास जाओ। पुरुषश्रेष्ठ!
तुम्हें वहाँ भेजनेका उद्देश्य यह है कि उर्वशी अर्जुनकी सेवामें उपस्थित हो ।। २ ।।
यथार्चितो गृहीतास्त्रो विद्यया मन्नियोगत: ।
तथा त्वया विधाततयं स्त्रीषु संगविशारद: ।। ३ ।।
/ !/
+कि
५ //
4 (४
गा
'जैसे अस्त्रविद्या सीख लेनेके पश्चात् अर्जुनको मेरी आज्ञासे तुमने संगीतविद्याद्वारा
सम्मानित किया है, उसी प्रकार वे स्त्रीसंगविशारद हो सकें, ऐसा प्रयत्न करो” ।। ३ ।।
एवमुक्तस्तथेत्युक्त्वा सो<नुज्ञां प्राप्प वासवात् |
गन्धर्वराजो5प्सरसमभ्यगादुर्वशीं वराम् ।। ४ ।।
इन्द्रके इस प्रकार कहनेपर “तथास्तु” कहकर उनसे आज्ञा ले गन्धर्वराज चित्रसेन
सुन्दरी अप्सरा उर्वशीके पास गये ।। ४ ।।
तां दृष्टवा विदितो हृष्ट: स्वागतेनार्चितस्तया ।
सुखासीन: सुखासीनां स्मितपूर्व वचो<ब्रवीत् ।। ५ ।।
उससे मिलकर वे बहुत प्रसन्न हुए। उर्वशीने चित्रसेनको आया जान स्वागतपूर्वक
उनका सत्कार किया। जब वे आरामसे बैठ गये, तब सुखपूर्वक सुन्दर आसनपर बैठी हुई
उर्वशीसे मुसकराकर बोले-- || ५ ।।
विदितं ते<स्तु सुश्रोणि प्रहितो5हमिहागत: ।
त्रिदिवस्यैकराजेन त्वत्प्रसादाभिनन्दिना ।। ६ ।।
'सुश्रोणि! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि स्वर्गके एकमात्र सम्राट् इन्द्रने, जो तुम्हारे
कृपाप्रसादका अभिनन्दन करते हैं, मुझे तुम्हारे पास भेजा है। उन्हींकी आज्ञासे मैं यहाँ
आया हूँ ।। ६ ।।
यस्तु देवमनुष्येषु प्रर्यात: सहजैर्गुणै: ।
श्रिया शीलेन रूपेण व्रतेन च दमेन च ।
प्रख्यातो बलवीर्येण सम्मत: प्रतिभानवान् ।। ७ ।।
वर्चस्वी तेजसा युक्त: क्षमावान् वीतमत्सर: ।
साड्रोपनिषदान वेदांश्ष॒तुराख्यानपञ्चमान् ।। ८ ।।
यो<थीते गुरुशुश्रूषां मेधां चाष्टगुणा श्रयाम् ।
ब्रह्मचर्येण दाक्ष्येण प्रसवैर्वयसापि च ।। ९ |।
एको वै रक्षिता चैव त्रिदिवं मघवानिव ।
अकत्थनो मानयिता स्थूललक्ष्य: प्रियंवद: ।। १० ।।
सुहृदश्चान्नपानेन विविधेनाभिवर्षति ।
सत्यवाक् पूजितो वक्ता रूपवाननहंकृत: ।। ११ ।।
भक्तानुकम्पी कान्तश्न प्रियश्न स्थिरसंगर: ।
प्रार्थनीयैर्गुणगणैमहेन्द्रवरुणोपम: ।। १२ ।।
विदितस्ते<र्जुनो वीर: स स्वर्गफलमाप्नुयात् ।
त्वं तु शक्राभ्यनुज्ञाता तस्य पादान्तिकं व्रज ।
तदेवं कुरु कल्याणि प्रसन्नस्त्वां धनंजय: ।। १३ ।।
'सुन्दरी! जो अपने स्वाभाविक सदगुण, श्री, शील (स्वभाव), मनोहर रूप, उत्तम व्रत
और इन्द्रियसंयमके कारण देवताओं तथा मनुष्योंमें विख्यात हैं। बल और पराक्रमके द्वारा
जिनकी सर्वत्र प्रसिद्धि है; जो सबके प्रिय, प्रतिभाशाली, वर्चस्वी, तेजस्वी, क्षमाशील तथा
ईर्ष्यारहित हैं, जिन्होंने छहों अंगोंसहित चारों वेदों, उपनिषदों और पंचम वेद (इतिहास-
पुराण)-का अध्ययन किया है। जिन्हें गुरुशुश्रूषा तथा आठ गुणोंसे- युक्त मेधाशक्ति प्राप्त
है, जो ब्रह्मचर्यपालन, कार्य-दक्षता, संतान तथा युवावस्थाके द्वारा अकेले ही देवराज
इन्द्रकी भाँति स्वर्गलोककी रक्षा करनेमें समर्थ हैं, जो अपने मुँहसे अपने गुणोंकी कभी
प्रशंसा नहीं करते, दूसरोंको सम्मान देते, अत्यन्त सूक्ष्म विषयको भी स्थूलकी भाँति शीघ्र
ही समझ लेते और सबसे प्रिय वचन बोलते हैं, जो अपने सुहृदोंके लिये नाना प्रकारके
अन्न-पानकी वर्षा करते और सदा सत्य बोलते हैं, जिनका सर्वत्र आदर होता है, जो अच्छे
वक्ता तथा मनोहर रूपवाले होकर भी अहंकारशून्य हैं, जिनके हृदयमें अपने प्रेमी भक्तोंके
लिये अत्यन्त कृपा भरी हुई है, जो कान्तिमान्, प्रिय तथा प्रतिज्ञापालन एवं युद्धमें
स्थिरतापूर्वक डटे रहनेवाले हैं, जिनके सदगुणोंकी दूसरे लोग स्पृहा रखते हैं और उन्हीं
गुणोंके कारण जो महेन्द्र और वरुणके समान आदरणीय माने जाते हैं, उन वीरवर
अर्जुनको तुम अच्छी तरह जानती हो। उन्हें स्वर्गमें आनेका फल अवश्य मिलना चाहिये।
तुम देवराजकी आज्ञाके अनुसार आज अर्जुनके चरणोंके समीप जाओ। कल्याणि! तुम
ऐसा प्रयत्न करो, जिससे कुन्तीकुमार धनंजय तुमपर प्रसन्न हों” ।।
एवमुक्ता स्मितं कृत्वा सम्मान बहु मन््य च |
प्रत्युवाचोर्वशी प्रीता चित्रसेनमनिन्दिता ।। १४ ।।
चित्रसेनके ऐसा कहनेपर उर्वशीके अधरोंपर मुसकान दौड़ गयी। उसने इस आदेशको
अपने लिये बड़ा सम्मान समझा। अनिन्द्य सुन्दरी उर्वशी उस समय अत्यन्त प्रसन्न होकर
चित्रसेनसे इस प्रकार बोली-- |। १४ ।।
यस्त्वस्य कथित: सत्यो गुणोद्देशस्त्वया मम ।
त॑ श्रुत्वाव्यथयं पुंसो वृणुयां किमतो<र्जुनम् ।। १५ ।।
“गन्धर्वराज! तुमने जो अर्जुनके लेशमात्र गुणोंका मेरे सामने वर्णन किया है, वह सब
सत्य है। मैं दूसरे लोगोंके मुखसे भी उनकी प्रशंसा सुनकर उनके लिये व्यथित हो उठी हूँ।
अतः इससे अधिक मैं अर्जुनका क्या वरण करूँ?” ।। १५ |।
महेन्द्रस्य नियोगेन त्वत्त: सम्प्रणयेन च ।
तस्य चाहं गुणौघेन फाल्गुने जातमन्मथा ।
गच्छ त्वं हि यथाकाममागमिष्याम्यहं सुखम् ।। १६ ।।
“महेन्द्रकी आज्ञासे, तुम्हारे प्रेमपूर्ण बर्तावसे तथा अर्जुनके सदगुणसमुदायसे मेरा उनके
प्रति कामभाव हो गया है। अतः: अब तुम जाओ। मैं इच्छानुसार सुखपूर्वक उनके स्थानपर
यथासमय आऊँगी” ।। १६ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि इन्द्रलोकाभिगमनपर्वणि चित्रसेनोर्वशीसंवादे
पज्चचत्वारिंशो5 ध्याय: ।। ४५ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत इन्द्रजोकाथिगमनपर्वमें चित्रयेन-
उर्वशीसंवादविषयक पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ४५ ॥।
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- शुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, ऊह, अपोह, अर्थविज्ञान तथा तत्त्वविज्ञान--ये बुद्धिके आठ गुण हैं।
षट्चत्वारिशो5 ध्याय:
उर्वशीका कामपीड़ित होकर अर्जुनके पास जाना और
उनके अस्वीकार करनेपर उन्हें शाप देकर लौट आना
वैशम्पायन उवाच
ततो विसृज्य गन्धर्व कृतकृत्यं शुचिस्मिता ।
उर्वशी चाकरोत् स्नान पार्थदर्शनलालसा ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर कृतकृत्य हुए गन्धर्वराज चित्रसेनको
विदा करके पवित्र मुसकानवाली उर्वशीने अर्जुनसे मिलनेके लिये उत्सुक हो स्नान
किया ।। १ |।
स््नानालंकरणैटईग्यैर्गन्धमाल्यैश्न सुप्रभै: ।
धनंजयस्य रूपेण शरैर्मन्मथचोदितै: ।। २ ॥।
अतिविद्धेन मनसा मन्मथेन प्रदीपिता ।
दिव्यास्तरणसंस्तीर्णे विस्तीर्णे शयनोत्तमे ।। ३ ।।
चित्तसंकल्पभावेन सुचित्तानन्यमानसा ।
मनोरथेन सम्प्राप्तं रमन्त्येनं हि फाल्गुनम् ।। ४ ।।
धनंजयके रूप-सौन्दर्यसे प्रभावित उसका हृदय कामदेवके बाणोंद्वारा अत्यन्त घायल
हो चुका था। वह मदनाग्निसे दग्ध हो रही थी। स्नानके पश्चात् उसने चमकीले और
मनोभिराम आभूषण धारण किये। सुगन्धित दिव्य पुष्पोंके हारोंसे अपनेको अलंकृत किया।
फिर उसने मन-ही-मन संकल्प किया--दिव्य बिछौनोंसे सजी हुई एक सुन्दर विशाल शय्या
बिछी हुई है। उसका हृदय सुन्दर तथा प्रियतमके चिन्तनमें एकाग्र था। उसने मनकी
भावनाद्वारा ही यह देखा कि कुन्तीकुमार अर्जुन उसके पास आ गये हैं और वह उनके साथ
रमण कर रही है || २--४ ।।
निर्गम्य चन्द्रोदयने विगाढे रजनीमुखे ।
प्रस्थिता सा पृथुश्रोणी पार्थस्य भवन प्रति ।। ५ ।।
संध्याको चन्द्रोदय होनेपर जब चारों ओर चाँदनी छिटक गयी, उस समय वह विशाल
नितम्बोंवाली अप्सरा अपने भवनसे निकलकर अर्जुनके निवासस्थानकी ओर चली ।। ५ ।।
मृदुकुज्चितदीर्घेण कुमुदोक्तरधारिणा ।
केशहस्तेन ललना जगामाथ विराजती ।। ६ ।।
उसके कोमल, घुँधराले और लम्बे केशोंका समूह वेणीके रूपमें आबद्ध था। उनमें
कुमुद-पुष्पोंके गुच्छे लगे हुए थे। इस प्रकार सुशोभित वह ललना अर्जुनके गृहकी ओर बढ़ी
जा रही थी ।। ६ ।।
भ्रूक्षेपालापमाधुर्य: कान्त्या सौम्यतयापि च ।
शशिनं वक््त्रचन्द्रेण सा55ह्वयन्तीव गच्छति ।। ७ ।।
भौंहोंकी भंगिमा, वार्तालापकी मधुरिमा, उज्ज्वल कान्ति और सौम्यभावसे सम्पन्न
अपने मनोहर मुखचन्द्र-द्वारा वह चन्द्रमाको चुनौती-सी देती हुई इन्द्रभवनके पथपर चल
रही थी ।। ७ ।।
दिव्याड्रागौं सुमुखौ दिव्यचन्दनरूषितौ ।
गच्छन्त्या हाररुचिरौ सतनौ तस्या ववल्गतुः: ।। ८ ।।
चलते समय सुन्दर हारोंसे विभूषित उर्वशीके उठे हुए स्तन जोर-जोरसे हिल रहे थे।
उनपर दिव्य अंगराग लगाये गये थे। उनके अग्रभाग अत्यन्त मनोहर थे। वे दिव्य चन्दनसे
चर्चित हो रहे थे ।। ८ ।।
स्तनोद्वहनसंक्षोभान्नम्यमाना पदे पदे ।
त्रिवलीदामचित्रेण मध्येनातीवशोभिना ।। ९ |।
स्तनोंके भारी भारको वहन करनेके कारण थककर वह पग-पगपर झुकी जाती थी।
उसका अत्यन्त सुन्दर मध्यभाग (उदर) त्रिवली रेखासे विचित्र शोभा धारण करता
था।।९।।
अधो भूधरविस्तीर्ण नितम्बोन्नतपीवरम् |
मन्मथायतनं शुभ्र॑ं रसनादामभूषितम् ।। १० ।।
ऋषीणामपि दिव्यानां मनोव्याघातकारणम् ।
सूक्ष्मवस्त्रधरं रेजे जघनं निरवद्यवत् ।। ११ ।।
सुन्दर महीन वस्त्रोंसे आच्छादित उसका जघनप्रदेश अनिन््द्य सौन्दर्यसे सुशोभित हो
रहा था। वह कामदेवका उज्ज्वल मन्दिर जान पड़ता था। नाभिके नीचेके भागमें पर्वतके
समान विशाल नितम्ब ऊँचा और स्थूल प्रतीत होता था। कटिमें बँधी हुई करधनीकी लड़ियाँ
उस जघनप्रदेशको सुशोभित कर रही थीं। वह मनोहर अंग (जघन) देवलोकवासी
महर्षियोंके भी चित्तको क्षुब्ध कर देनेवाला था || १०-११ ।।
गूढगुल्फधरौ पादौ ताम्रायततलाड्गुली ।
कूर्मपृष्ठोत्नती चापि शोभेते किड॒किणीकिणौ ।। १२ ।।
उसके दोनों चरणोंके गुल्फ (टखने) मांससे छिपे हुए थे। उसके विस्तृत तलवे और
अँगुलियाँ लाल रंगकी थीं। वे दोनों पैर कछुएकी पीठके समान ऊँचे होनेके साथ ही
घुँघुरुओंके चिह्लसे सुशोभित थे ।। १२ ।।
सीधुपानेन चाल्पेन तुष्ट्याथ मदनेन च |
विलासनैश्व विविधै: प्रेक्षणीयतराभवत् ।। १३ ।।
वह अल्प सुरापानसे, संतोषसे, कामसे और नाना प्रकारकी विलासिताओंसे युक्त
होनेके कारण अत्यन्त दर्शनीय हो रही थी ।। १३ ।।
सिद्धचारणगन्धर्व: सा प्रयाता विलासिनी ।
बन्दाश्चयेंडपि वै स्वर्गे दर्शनीयतमाकृति: ।। १४ ।॥
सुसूक्ष्मेणोत्तरीयेण मेघवर्णेन राजता ।
तनुरभ्रावृता व्योम्नि चन्द्रलेखेव गच्छति ।। १५ ।।
जाती हुई उस विलासिनी अप्सराकी आकृति अनेक आश्चर्योंसे भरे हुए स्वर्गलोकमें भी
सिद्ध, चारण और गन्धर्वोके लिये देखनेके ही योग्य हो रही थी। अत्यन्त महीन मेघके
समान श्याम रंगकी सुन्दर ओढ़नी ओडढ़े तन्वंगी उर्वशी आकाशमें बादलोंसे ढकी हुई
चन्द्रलेखा-सी चली जा रही थी ।। १४-१५ ।।
ततः प्राप्ता क्षणेनैव मन:पवनगामिनी ।
भवन पाण्डुपुत्रस्य फाल्गुनस्य शुचिस्मिता ।। १६ ।।
मन और वायुके समान तीव्र वेगसे चलनेवाली वह पवित्र मुसकानसे सुशोभित अप्सरा
क्षणभरमें पाण्डुकुमार अर्जुनके महलमें जा पहुँची || १६ ।।
तत्र द्वारमनुप्राप्ता द्वारस्थैश्व निवेदिता ।
अर्जुनस्य नरश्रेष्ठ उर्वशी शुभलोचना ।। १७ ।।
उपातिष्ठत तद् वेश्म निर्मल सुमनोहरम् ।
सशड्कितमना राजन प्रत्युदूगच्छत तां निशि ॥। १८ ।।
नरश्रेष्ठ जनमेजय! महलके द्वारपर पहुँचकर वह ठहर गयी। उस समय द्वारपालोंने
अर्जुनको उसके आगमनकी सूचना दी। तब सुन्दर नेत्रोंवाली उर्वशी रात्रिमें अर्जुनके
अत्यन्त मनोहर तथा उज्ज्वल भवनमें उपस्थित हुई। राजन्! अर्जुन सशंक हृदयसे उसके
सामने गये ।। १७-१८ ।।
दृष्टवैव चोर्वशीं पार्थो लज्जासंवृतलोचन: ।
तदाभिवादन कृत्वा गुरुपूजां प्रयुक्तवान् ।। १९ ।।
उर्वशीको आयी देख अर्जुनके नेत्र लज्जासे मुँद गये। उस समय उन्होंने उसके चरणोंमें
प्रणाम करके उसका गुरुजनोचित सत्कार किया ।। १९ ||
अर्जुन उवाच
अभिवादनये त्वां शिरसा प्रवराप्सरसां वरे ।
किमाज्ञापयसे देवि प्रेष्यस्तेडहमुपस्थित: ।॥ २० ।।
अर्जुन बोले--देवि! श्रेष्ठ अप्सराओंमें भी तुम्हारा सबसे ऊँचा स्थान है। मैं तुम्हारे
चरणोंमें मस्तक रखकर प्रणाम करता हूँ। बताओ, मेरे लिये क्या आज्ञा है? मैं तुम्हारा सेवक
हूँ और तुम्हारी आज्ञाका पालन करनेके लिये उपस्थित हूँ || २० ।।
फाल्गुनस्य वच: श्रुत्वा गतसंज्ञा तदोर्वशी ।
गन्धर्ववचनं सर्व श्रावयामास तं तदा ।। २१ ।।
अर्जुनकी यह बात सुनकर उर्वशीके होश-हवास गुम हो गये, उस समय उसने
गन्धर्वराज चित्रसेनकी कही हुई सारी बातें कह सुनायीं || २१ ।।
उर्वश्युवाच
यथा मे चित्रसेनेन कथितं मनुजोत्तम ।
तत् ते&5हं सम्प्रवक्ष्यामि यथा चाहमिहागता ।। २२ ।।
उर्वशीने कहा--पुरुषोत्तम! चित्रसेनने मुझे जैसा संदेश दिया है और उसके अनुसार
जिस उद्देश्यको लेकर मैं यहाँ आयी हूँ, वह सब मैं तुम्हें बता रही हूँ |। २२ ।।
उपस्थाने महेन्द्रस्य वर्तमाने मनोरमे ।
तवागमनतो वृत्ते स्वर्गस्थ परमोत्सवे ।। २३ ।।
रुद्राणां चैव सांनिध्यमादित्यानां च सर्वश: ।
समागमे5श्विनोश्वैव वसूनां च नरोत्तम || २४ ।।
महर्षीणां च संघेषु राजर्षिप्रवरेषु च ।
सिद्धचारणयक्षेषु महोरगगणेषु च ।। २५ ।।
उपविष्टेषु सर्वेषु स्थानमानप्रभावत: ।
ऋद्धया प्रज्वलमानेषु अग्निसोमार्कवर्ष्मसु || २६ ।।
वीणासु वाद्यमानासु गन्धर्वै: शक्रनन्दन ।
दिव्ये मनोरमे गेये प्रवृत्ते पुथुलोचन ।। २७ ।।
सर्वाप्सर:सु मुख्यासु प्रनृत्तासु कुरूद्गवह |
त्वं किलानिमिष: पार्थ मामेकां तत्र दृष्टवान् । २८ ।।
देवराज इन्द्रके इस मनोरम निवासस्थानमें तुम्हारे शुभागमनके उपलक्ष्यमें एक महान्
उत्सव मनाया गया। यह उत्सव स्वर्गलोकका सबसे बड़ा उत्सव था। उसमें रुद्र, आदित्य,
अश्विनीकुमार और वसुगण--इन सबका सब ओरसे समागम हुआ था। नरश्रेष्ठ!
महर्षिसमुदाय, राजर्षिप्रवर, सिद्ध, चारण, यक्ष तथा बड़े-बड़े नाग--ये सभी अपने पद,
सम्मान और प्रभावके अनुसार योग्य आसनोंपर बैठे थे। इन सबके शरीर अग्नि, चन्द्रमा
और सूर्यके समान तेजस्वी थे और ये समस्त देवता अपनी अद्भुत समृद्धिसे प्रकाशित हो
रहे थे। विशाल नेत्रोंवाले इन्द्रकुमार! उस समय गन्धर्वोद्वारा अनेक वीणाएँ बजायी जा रही
थीं। दिव्य मनोरम संगीत छिड़ा हुआ था और सभी प्रमुख अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं।
कुरुकुलनन्दन पार्थ! उस समय तुम मेरी ओर निर्निमेष नयनोंसे निहार रहे थे || २३--
२८ ||
तत्र चावभृथे तस्मिन्नुपस्थाने दिवौकसाम् ।
तव पित्राभ्यनुज्ञाता गता:ः स्वं स्व गृहं सुरा: ।। २९ ।।
तथैवाप्सरस: सर्वा विशिष्टा: स्वगृहं गता: ।
अपि चान्याश्व शत्रुघ्न तव पित्रा विसर्जिता: ।। ३० ।॥।
देवसभामें जब उस महोत्सवकी समाप्ति हुई, तब तुम्हारे पिताकी आज्ञा लेकर सब
देवता अपने-अपने भवनको चले गये। शत्रुदमन! इसी प्रकार आपके पितासे विदा लेकर
सभी प्रमुख अप्सराएँ तथा दूसरी साधारण अप्सराएँ भी अपने-अपने घरको चली गयीं ।।
ततः शक्रेण संदिष्टश्चित्रसेनो ममान्तिकम् ।
प्राप्त: कमलपत्राक्ष स च मामब्रवीदथ ।। ३१ ।।
कमलनयन! तदनन्तर देवराज इन्द्रका संदेश लेकर गन्धर्वप्रवर चित्रसेन मेरे पास आये
और इस प्रकार बोले-- ।। ३१ ।।
त्वत्कृते5हं सुरेशेन प्रेषितो वरवर्णिनि ।
प्रियं कुरु महेन्द्रस्य मम चैवात्मनश्व ह ।। ३२ ।।
“वरवर्णिनि! देवेश्वर इन्द्रने तुम्हारे लिये एक संदेश देकर मुझे भेजा है। तुम उसे सुनकर
महेन्द्रका, मेरा तथा मुझसे अपना भी प्रिय कार्य करो” || ३२ ।।
शक्रतुल्यं रणे शूरं सदौदार्यगुणान्वितम् |
पार्थ प्रार्थय सुश्रोणि त्वमित्येवं तदाब्रवीत् ।। ३३ ।।
'सुश्रोणि! जो संग्राममें इन्द्रके समान पराक्रमी और उदारता आदि गुणोंसे सदा सम्पन्न
हैं, उन कुन्तीनन्दन अर्जुनकी सेवा तुम स्वीकार करो।” इस प्रकार चित्रसेनने मुझसे कहा
था ।। ३३ ||
ततो<हं समनुज्ञाता तेन पित्रा च तेडनघ ।
तवान्तिकमनुप्राप्ता शुश्रूषितुमरिंदम ।। ३४ ।।
अनघ! शत्रुदमन! तदनन्तर चित्रसेन और तुम्हारे पिताकी आज्ञा शिरोधार्य करके मैं
तुम्हारी सेवाके लिये तुम्हारे पास आयी हूँ ।। ३४ ।।
त्वद्गुणाकृष्टचित्ताहमनज्रवशमागता ।
चिराभिलषितो वीर ममाप्येष मनोरथ: ।। ३५ ।।
तुम्हारे गुणोंने मेरे चित्तको अपनी ओर खींच लिया है। मैं कामदेवके वशमें हो गयी हूँ।
वीर! मेरे हृदयमें भी चिरकालसे यह मनोरथ चला आ रहा था ।। ३५ |।
वैशम्पायन उवाच
तां तथा ब्रुव्तीं श्रुत्वा भृश॑ लज्जा5<वृतोडर्जुन: ।
उवाच कर्णाो हस्ताभ्यां पिधाय त्रिदशालये ।। ३६ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! स्वर्गलोकमें उर्वशीकी यह बात सुनकर अर्जुन
अत्यन्त लज्जासे गड़ गये और हाथोंसे दोनों कान मूँदकर बोले-- ।। ३६ ।।
दुःश्रुतं मे5स्तु सुभगे यन्मां वदसि भाविनि |
गुरुदारै: समाना मे निश्चयेन वरानने ।। ३७ ।।
'सौभाग्यशालिनि! भाविनि! तुम जैसी बात कह रही हो, उसे सुनना भी मेरे लिये बड़े
दुःखकी बात है। वरानने! निश्चय ही तुम मेरी दृष्टिमें गुरुपत्नियोंके समान पूजनीया
हो ।। ३७ ।।
यथा कुन्ती महाभागा यथेन्द्राणी शची मम ।
तथा त्वमपि कल्याणि नात्र कार्या विचारणा ॥। ३८ ।।
“कल्याणि! मेरे लिये जैसी महाभागा कुन्ती और इन्द्राणी शची हैं, वैसी ही तुम भी हो।
इस विषयमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये ।। ३८ ।।
यच्चेक्षितासि विस्पष्टं विशेषेण मया शुभे ।
तच्च कारणपूर्व हि शृणु सत्यं शुचिस्मिते ।। ३९ ।।
'शुभे! पवित्र मुसकानवाली उर्वशी! मैंने जो उस समय सभामें तुम्हारी ओर एकटक
दृष्टिसे देखा था, उसका एक विशेष कारण था, उसे सत्य बताता हूँ सुनो-- ।। ३९ ।।
इयं पौरववंशस्य जननी मुदितेति ह ।
त्वामहं दृष्टवांस्तत्र विज्ञायोत्फुल्ललोचन: ।। ४० ।।
न माममहसि कल्याणि अन्यथा ध्यातुमप्सर: ।
गुरोर्गुरुतरा मे त्वं मम त्वं वंशवर्धिनी ।। ४१ ।।
“यह आनन्दमयी उर्वशी ही पूरुवंशकी जननी है, ऐसा समझकर मेरे नेत्र खिल उठे और
इस पूज्य भावको लेकर ही मैंने तुम्हें वहाँ देखा था। कल्याणमयी अप्सरा! तुम मेरे विषयमें
कोई अन्यथा भाव मनमें न लाओ। तुम मेरे वंशकी वृद्धि करनेवाली हो, अतः गुरुसे भी
अधिक गौरवशालिनी हो” ।। ४०-४१ ।।
उर्वश्युवाच
अनावृताश्च सर्वा: सम देवराजाभिनन्दन ।
गुरुस्थाने न मां वीर नियोक्तुं त्वमिहाहसि ।॥। ४२ ।।
उर्वशीने कहा--वीर देवराजनन्दन! हम सब अप्सराएँ स्वर्गवासियोंके लिये अनावृत हैं
--हमारा किसीके साथ कोई पर्दा नहीं है। अतः तुम मुझे गुरुजनके स्थानपर नियुक्त न
करो ।। ४२ ।।
पूरोर्वशे हि ये पुत्रा नप्तारो वा त्विहागता: ।
तपसा रमयन्त्यस्मान्न च तेषां व्यतिक्रम: ।। ४३ ।।
तद् प्रसीद न मामार्ता विसर्जयितुमरहसि ।
हृच्छयेन च संतप्तं भक्तां च भज मानद || ४४ ||
पूर॒ुवंशके कितने ही पोते-नाती तपस्या करके यहाँ आते हैं और वे हम सब
अप्सराओंके साथ रमण करते हैं। इसमें उनका कोई अपराध नहीं समझा जाता। मानद!
मुझपर प्रसन्न होओ। मैं कामवेदनासे पीड़ित हूँ, मेरा त्याग न करो। मैं तुम्हारी भक्त हूँ और
मदनाग्निसे दग्ध हो रही हूँ; अतः मुझे अंगीकार करो ।। ४३-४४ ।।
अर्जुन उवाच
शृणु सत्यं वरारोहे यत् त्वां वक्ष्याम्यनिन्दिते ।
शण्वन्तु मे दिशश्वैव विदिशश्व॒ सदेवता: ।। ४५ ।।
अर्जुनने कहा--वरारोहे! अनिन्दिते! मैं तुमसे जो कुछ कहता हूँ, मेरे उस सत्य
वचनको सुनो। ये दिशा, विदिशा तथा उनकी अधिष्ठात्री देवियाँ भी सुन लें || ४५ ।।
यथा कुन्ती च माद्री च शची चैव ममानघे ।
तथा च वंशजननी त्वं हि मेडद्य गरीयसी ।। ४६ ।।
अनघे! मेरी दृष्टिमें कुन्ती, माद्री और शचीका जो स्थान है, वही तुम्हारा भी है। तुम
पूर॒ुवंशकी जननी होनेके कारण आज मेरे लिये परम गुरुस्वरूप हो || ४६ ।।
गच्छ मूर्ध्ना प्रपन्नो5स्मि पादौ ते वरवर्णिनि ।
त्वं हि मे मातृवत् पूज्या रक्ष्योडहं पुत्रवत् त्वया || ४७ ।।
वरवर्णिनि! मैं तुम्हारे चरणोंमें मस्तक रखकर तुम्हारी शरणमें आया हूँ। तुम लौट
जाओ। मेरी दृष्टिमें तुम माताके समान पूजनीया हो और तुम्हें पुत्रके समान मानकर मेरी
रक्षा करनी चाहिये || ४७ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमुक्ता तु पार्थेन उर्वशी क्रोधमूर्च्छिता ।
वेपन्ती भ्रुकुटीवक्रा शशापाथ धनंजयम् ।। ४८ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! कुन्तीकुमार अर्जुनके ऐसा कहनेपर उर्वशी
क्रोधसे व्याकुल हो उठी। उसका शरीर काँपने लगा और भौंहें टेढ़ी हो गयीं। उसने अर्जुनको
शाप देते हुए कहा ।। ४८ ।।
। ण
१
|
शषि्
+ १7,
त्रण्णा।
#
उर्वश्युवाच
तव पित्रा भ्यनुज्ञातां स्वयं च गृहमागताम् ।
यस्मान्मां नाभिनन्देथा: कामबाणवशंगताम् ।। ४९ ।।
तस्मात् त्वं नर्तनः पार्थ स्त्रीमध्ये मानवर्जित: ।
अपुमानिति विख्यात: षण्ढवद् विचरिष्यसि ।। ५० ।।
उर्वशी बोली--अर्जुन! तुम्हारे पिता इन्द्रके कहनेसे मैं स्वयं तुम्हारे घरपर आयी और
कामबाणसे घायल हो रही हूँ, फिर भी तुम मेरा आदर नहीं करते। अतः तुम्हें स्त्रियोंके
बीचमें सम्मानरहित होकर नर्तक बनकर रहना पड़ेगा। तुम नपुंसक कहलाओगे और
तुम्हारा सारा आचार-व्यवहार हिजड़ोंके ही समान होगा ।। ४९-५० ।।
एवं दत्त्वार्जुने शापं स्फुरदोष्ठी श्वसन्त्यथ |
पुन: प्रत्यागता क्षिप्रमुर्वशी गृहमात्मन: ।। ५१ ।।
फड़कते हुए ओठोंसे इस प्रकार शाप देकर उर्वशी लंबी साँसें खींचती हुई पुनः शीघ्र ही
अपने घरको लौट गयी ।। ५१ ।।
ततो्र्जुनस्त्वरमाणश्षित्रसेनमरिंदम: ।
सम्प्राप्पय रजनीवृत्तं तदुर्वश्या यथातथम् ।। ५२ ।।
निवेदयामास तदा चित्रसेनाय पाण्डव: ।
तत्र चैवं यथावृत्तं शापं चैव पुन: पुन: ।। ५३ ।।
तदनन्तर शत्रुदमन पाण्डुकुमार अर्जुन बड़ी उतावलीके साथ चित्रसेनके समीप गये
तथा रातमें उर्वशीके साथ जो घटना जिस प्रकार घटित हुई, वह सब उन्होंने उस समय
चित्रसेनको ज्यों-की-त्यों कह सुनायी। साथ ही उसके शाप देनेकी बात भी उन्होंने बार-बार
दुहरायी || ५२-५३ ।।
अवेदयच्च शक्रस्य चित्रसेनो5पि सर्वश: ।
तत आनाय्य तनयं विविक्ते हरिवाहन: ।। ५४ ।।
सान्त्वयित्वा शुभैर्वाक्यै: स्मयमानो5 भ्यभाषत ।
सुपुत्राद्य पृथा तात त्वया पुत्रेण सत्तम ।। ५५ ।।
चित्रसेनने भी सारी घटना देवराज इन्द्रसे निवेदन की। तब इन्द्रने अपने पुत्र अर्जुनको
बुलाकर एकान्तमें कल्याणमय वचनोंद्वारा सान्त्वना देते हुए मुसकराकर उनसे कहा
--“तात! तुम सत्पुरुषोंके शिरोमणि हो, तुम-जैसे पुत्रको पाकर कुन्ती वास्तवमें श्रेष्ठ
पुत्रवाली है' ।।
ऋषयो<पि हि धैर्येण जिता वै ते महाभुज ।
यत् तु दत्तवती शापमुर्वशी तव मानद ।। ५६ ।।
स चापि ते<र्थकृत् तात साधकश्न भविष्यति ।। ५७ ।।
अज्ञातवासो वस्तव्यो भवद्धिर्भूतलेडनघ ।
वर्षे त्रयोदशे वीर तत्र त्वं क्षपयिष्यसि ।। ५८ ।।
“महाबाहो! तुमने अपने धैर्य (इन्द्रियसंयम)-के द्वारा ऋषियोंको भी पराजित कर दिया
है। मानद! उर्वशीने जो तुम्हें शाप दिया है, वह तुम्हारे अभीष्ट अर्थका साधक होगा। अनघ!
तुम्हें भूतलपर तेरहवें वर्षमें अज्ञातवास करना है। वीर! उर्वशीके दिये हुए शापको तुम उसी
वर्षमें पूर्ण कर दोगे” || ५६--५८ ।।
तेन नर्तनवेषेण अपुस्त्वेन तथैव च ।
वर्षमेकं विह्ृत्यैव ततः पुंस्त्वमवाप्स्यसि ।। ५९ |।
“नर्तक वेष और नपुंसक भावसे एक वर्षतक इच्छानुसार विचरण करके तुम फिर
अपना पुरुषत्व प्राप्त कर लोगे” || ५९ ||
एवमुक्तस्तु शक्रेण फाल्गुन: परवीरहा ।
मुर्दं परमिकां लेभे न च शापं व्यचिन्तयत् ।। ६० ।।
इन्द्रके ऐसा कहनेपर शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले अर्जुनको बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर
तो उन्हें शापकी चिन्ता छूट गयी ।। ६० ।।
चित्रसेनेन सहितो गन्धर्वेण यशस्विना ।
रेमे स स्वर्गभवने पाण्डुपुत्रो धनंजय: ।। ६१ ।।
पाण्डुपुत्र धनंजय महायशस्वी गन्धर्व चित्रसेनके साथ स्वर्गलोकमें सुखपूर्वक रहने
लगे ।। ६१ ।।
इदं यः शृणुयाद् वृत्तं नित्यं पाण्डुसुतस्य वै ।
न तस्य काम: कामेषु पापकेषु प्रवर्तते || ६२ ।।
जो मनुष्य पाण्डुनन्दन अर्जुनके इस चरित्रको प्रतिदिन सुनता है, उसके मनमें पापपूर्ण
विषयभोगोंकी इच्छा नहीं होती || ६२ ।।
इदममरवरात्मजस्य घोर
शुचि चरितं विनिशम्य फाल्गुनस्य ।
व्यपगतमददम्भरागदोषा-
स्त्रिदिवगता विरमन्ति मानवेन्द्रा: ।। ६३ ।।
देवराज इन्द्रके पुत्र अर्जुनके इस अत्यन्त दुष्कर पवित्र चरित्रको सुनकर मद, दम्भ
तथा विषयासक्ति आदि दोषोंसे रहित श्रेष्ठ मानव स्वर्गलोकमें जाकर वहाँ सुखपूर्वक निवास
करते हैं ।। ६३ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि इन्द्रलोकाभिगमनपर्वणि उर्वशीशापो नाम
षट्चत्वारिंशो5ध्याय: | ४६ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपववके अन्तर्गत इन्रलोकाभिगमनपर्वनें उर्वशीशाप नामक
छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ४६ ॥
हि आय न चुके है
सप्तचत्वारिशो<्ध्याय:
लोमश मुनिका स्वर्गमें इन्द्र और अर्जुनसे मिलकर उनका
संदेश ले काम्यकवनमें आना
वैशम्पायन उवाच
कदाचिदटमानस्तु महर्षिरुत लोमश: ।
जगाम शक्रभवन पुरन्दरदिदृक्षया ।। १ ।॥।
स समेत्य नमस्कृत्य देवराजं महामुनि: ।
ददर्शार्धासनगतं पाण्डवं वासवस्य हि ॥। २ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! एक समयकी बात है, महर्षि लोमश इधर-उधर
घूमते हुए इन्द्रसे मिलनेकी इच्छा लेकर स्वर्गलोकमें गये। उन महामुनिने देवराज इन्द्रसे
मिलकर उन्हें नमस्कार किया और देखा, पाण्डुनन्दन अर्जुन इन्द्रके आधे सिंहासनपर बैठे
हैं ।।
ततः शक्राभ्यनुज्ञात आसने विष्टरोत्तरे ।
निषसाद द्विजश्रेष्ठ: पूज्यमानो महर्षिभि: ।। ३ ||
तदनन्तर इन्द्रकी आज्ञासे एक उत्तम सिंहासनपर, जहाँ ऊपर कुशका आसन बिछा
हुआ था, महर्षियोंसे पूजित द्विजवर लोमशजी बैठे ।। ३ ।।
तस्य दृष्टवा भवद् बुद्धि: पार्थमिन्द्रासने स्थितम् ।
कथं नु क्षत्रिय: पार्थ: शक्रासनमवाप्तवान् ।। ४ ।।
इन्द्रके सिंहासनपर बैठे हुए कुन्तीकुमार अर्जुनको देखकर लोमशजीके मनमें यह
विचार हुआ कि “क्षत्रिय होकर भी कुन्तीकुमारने इन्द्रका आसन कैसे प्राप्त कर
लिया? ।। ४ ।।
कि त्वस्य सुकृतं कर्म के लोका वै विनिर्जिता: ।
स एवमनुसम्प्राप्त: स्थानं देवनमस्कृतम् ।। ५ ।।
“इनका पुण्य-कर्म क्या है? इन्होंने किन-किन लोकोंपर विजय पायी है? किस पुण्यके
प्रभावसे इन्होंने यह देववन्दित स्थान प्राप्त किया है?' || ५ ।।
तस्य विज्ञाय संकल्पं शक्रो वृत्रनिषूदन: ।
लोमशं प्रहसन् वाक्यमिदमाह शचीपति: ।। ६ ।।
लोमश मुनिके संकल्पको जानकर वृत्रहन्ता शचीपति इन्द्रने हँसते हुए उनसे कहा
-- [६ ।।
ब्रह्मर्षे श्रूयतां यत् ते मनसैतद् विवक्षितम् |
नायं केवलमर्त्यों वै मानुषत्वमुपागत: ।। ७ ।।
“ब्रह्मर्ष] आपके मनमें जो प्रश्न उठा है” उसका समाधान कर रहा हूँ, सुनिये। ये अर्जुन
मानवयोनिमें उत्पन्न हुए केवल मरणधर्मा मनुष्य नहीं हैं || ७ ।।
महर्षे मम पुत्रो5यं कुन्त्यां जातो महाभुज: ।
अस्त्रहेतोरिह प्राप्त: कस्माच्चित् कारणान्तरात् ।। ८ ।।
अहो नैनं भवान् वेत्ति पुराणमृषिसत्तमम् |
शृणु मे वदतो ब्रह्मन् यो5यं यच्चास्य कारणम् ॥। ९ ।।
“महर्षे! ये महाबाहु धनंजय कुन्तीके गर्भसे उत्पन्न हुए मेरे पुत्र हैं और कुछ कारणवश
अस्त्रविद्या सीखनेके लिये यहाँ आये हैं। आश्वर्य है कि आप इन पुरातन ऋषिप्रवरको नहीं
जानते हैं। ब्रह्म! इनका जो स्वरूप है और इनके अवतार-ग्रहणका जो कारण है, वह सब
मैं बता रहा हूँ। आप मेरे मुँहसे यह सब सुनिये ।। ८-९ ।।
नरनारायणौ यौ तौ पुराणावृषिसत्तमौ ।
ताविमावनुजानीहि हृषीकेशधनंजयौ ।। १० ।।
“नर-नारायण नामसे प्रसिद्ध जो पुरातन मुनीश्वर हैं” वे ही श्रीकृष्ण और अर्जुनके
रूपमें अवतीर्ण हुए हैं, यह बात आप जान लें ।। १० ।।
विख्यातौ त्रिषु लोकेषु नरनारायणावृषी ।
कार्यार्थमवतीर्णो तौ पृथ्वीं पुण्यप्रतिश्रयाम् ।। ११ ।।
'तीनों लोकोंमें विख्यात नर-नारायण ऋषि ही देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये
पुण्यके आधाररूप भूतलपर अवतीर्ण हुए हैं ।। ११ ।।
यन्न शक््यं सुरैर्द्ष्टमृषिभिर्वा महात्मभि: ।
तदाश्रमपदं पुण्यं बदरीनाम विश्रुतम् ।। १२ ।।
स निवासो<भवद् विप्र विष्णोर्जिष्णोस्तथैव च ।
यतः प्रववृते गड़ा सिद्धचारणसेविता ।। १३ ।।
“देवता अथवा महात्मा महर्षि भी जिसे देखनेमें समर्थ नहीं, वह बदरी नामसे विख्यात
पुण्यतीर्थ इनका आश्रम है; वही पूर्वकालमें इन श्रीकृष्ण और अर्जुनका (नारायण और
नरका) निवासस्थान था। जहाँसे सिद्ध-चारणसेवित गंगाका प्राकट्य हुआ है ।। १२-१३ ।।
तो मन्नियोगाद् ब्रह्म॒र्षे क्षितो जातौ महाद्युती ।
भूमेर्भारावतरणं महावीर्यों करिष्यत: ।। १४ ।।
“ब्रह्मर्ष! ये दोनों महातेजस्वी नर और नारायण मेरे अनुरोधसे पृथ्वीपर उत्पन्न हुए हैं।
इनकी शक्ति महान् है, ये दोनों इस पृथ्वीका भार उतारेंगे ।। १४ ।।
उद्वृत्ता हुसुरा: केचिन्निवातकवचा इति ।
विप्रियेषु स्थितास्माकं वरदानेन मोहिता: ।। १५ ।।
“इन दिनों निवातकवच नामसे प्रसिद्ध कुछ असुरगण बड़े उद्ण्ड हो रहे हैं, वे वरदानसे
मोहित होकर हमारा अनिष्ट करनेमें लगे हुए हैं ।। १५ ।।
तर्कयन्ते सुरान् हन्तुं बलदर्पसमन्विता: ।
देवान् न गणयन्त्येते तथा दत्तवरा हि ते ।। १६ ।।
“उनमें बल तो है ही, बली होनेका अभिमान भी है। वे देवताओंको मार डालनेका
विचार करते हैं। देवताओंको तो वे लोग कुछ गिनते ही नहीं; क्योंकि उन्हें वैसा ही वरदान
प्राप्त हो चुका है ।। १६ ।।
पातालवासिनो रौद्रा दनो: पुत्रा महाबला: |
सर्वदेवनिकाया हि नाल॑ योधयितुं हि तान् ।। १७ ।।
योडसौ भूमिगत: श्रीमान् विष्णुर्मधुनिषूदन: ।
कपिलो नाम देवो5सौ भगवानजितो हरि: ।। १८ ।।
“वे महाबली भयंकर दानव पातालमें निवास करते हैं। सम्पूर्ण देवता मिलकर भी उनके
साथ युद्ध नहीं कर सकते। इस समय भूतलपर जिनका अवतार हुआ है वे श्रीमान् मधुसूदन
विष्णु ही कपिल नामसे प्रसिद्ध देवता हुए हैं। वे ही भगवान् अपराजित हरि
हैं ।। १७-१८ ।।
येन पूर्व महात्मान: खनमाना रसातलम् |
दर्शनादेव निहता: सगरस्यात्मजा विभो ।। १९ ।।
“महर्षे! पूर्वकालमें रसातलको खोदनेवाले सगरके महामना पुत्र उन्हीं कपिलकी
दृष्टिमात्र पड़नेसे भस्म हो गये थे ।। १९ ।।
तेन कार्य महत् कार्यमस्माकं द्विजसत्तम ।
पार्थेन च महायुद्धे समेताभ्यां न संशय: ।। २० ।।
द्विजश्रेष्ठ! वे भगवान् श्रीहरि हमारा महान् कार्य सिद्ध कर सकते हैं। कुन्तीकुमार
अर्जुनसे भी हमारा कार्य सिद्ध हो सकता है। यदि श्रीकृष्ण और अर्जुन किसी महायुद्धमें
एक-दूसरेसे मिल जायाँ तो वे दोनों एक साथ होकर महान्-से-महान् कार्य सिद्ध कर सकते
हैं! इसमें संशय नहीं है || २० ।।
सोअसुरान् दर्शनादेव शक्तो हन्तुं सहानुगान् ।
निवातकवचान् सर्वान् नागानिव महाह्नदे || २१ ।।
भगवान् श्रीकृष्ण तो दृष्टिनिक्षेपमात्रसे ही महान् कुण्डमें निवास करनेवाले नागोंकी
भाँति समस्त “निवातकवच” नामक दानवोंको उनके अनुयायियोंसहित मार डालनेमें समर्थ
हैं ।। २१ ।।
कि तु नाल्पेन कार्येण प्रबोध्यो मधुसूदन: ।
तेजस: सुमहाराशि: प्रबुद्धः प्रदेज्जगत् ।। २२ ।।
'परंतु किसी छोटे कार्यके लिये भगवान् मधुसूदनको सूचना देनी उचित नहीं जान
पड़ती। वे तेजके महान् राशि हैं; यदि प्रज्वलित हों तो सम्पूर्ण जगत्को भस्म कर सकते
हैं ।। २२ ।।
अयं तेषां समस्तानां शक्त: प्रतिसमासने ।
तान् निहत्य रणे शूर: पुनर्यास्थति मानुषान् ।। २३ ।।
'ये शूरवीर अर्जुन अकेले ही उन समस्त निवात-कवचोंका संहार करनेमें समर्थ हैं। उन
सबको युद्धमें मारकर ये फिर मनुष्यलोकको लौट जायँगे ।। २३ ।।
भवानस्मन्नियोगेन यातु तावन््महीतलम् |
काम्यके द्र॒क्ष्यसे वीर॑ं निवसन्तं युधिष्ठिरम् ।। २४ ।।
“मुने! आप मेरे अनुरोधसे कृपया भूलोकमें जाइये और काम्यकवनमें निवास करनेवाले
युधिष्ठिससे मिलिये || २४ ।।
स वाच्यो मम संदेशाद् धर्मात्मा सत्यसंगर: ।
नोत्कण्ठा फाल्गुने कार्या कृतास्त्र: शीघ्रमेष्यति ।। २५ ।।
वे बड़े धर्मात्मा और सत्यप्रतिज्ञ हैं। उनसे मेरा यह संदेश कहियेगा--'राजन्! आप
अर्जुनके वापस लौटनेके विषयमें उत्कण्ठित न हों। वे अस्त्रविद्या सीखकर शीघ्र ही लौट
आयेंगे ।। २५ ।।
नाशुद्धबाहुवीर्येण नाकृतास्त्रेण वा रणे ।
भीष्मद्रोणादयो युद्धे शक््या: प्रतिसमासितुम् ।। २६ ।।
“जिसका बाहुबल पूर्ण अस्त्रशिक्षाके अभावसे त्रुटिपूर्ण हो तथा जिसने अस्त्रविद्याका
पूर्ण ज्ञान न प्राप्त किया हो, वह युद्धमें भीष्म-ट्रोण आदिका सामना नहीं कर
सकता ।। २६ ||
गृहीतास्त्रो गुडाकेशो महाबाहुर्महामना: ।
नृत्यवादित्रगीतानां दिव्यानां पारमीयिवान् ॥। २७ ।।
“महाबाहु महामना अर्जुन अस्त्रविद्याकी पूरी शिक्षा पा चुके हैं। वे दिव्य नृत्य, वाद्य एवं
गीतकी कलामें भी पारंगत हो गये हैं || २७ ।।
भवानपि विविक्तानि तीर्थानि मनुजेश्वर ।
भ्रातृभि: सहित: सर्वैर्द्र्ठमर्हत्यरिंदम ।। २८ ।।
तीर्थेष्वाप्लुत्य पुण्येषु विपाप्मा विगतज्वर: ।
राज्यं भोक्ष्यसि राजेन्द्र सुखी विगतकल्मष: ।। २९ |।
“मनुजेश्वर! शत्रुदयन! आप भी अपने सभी भाइयोंके साथ पवित्र तीर्थोंका दर्शन
कीजिये। राजेन्द्र! पुण्यतीर्थोमें स्नान करके पाप-तापसे रहित हो सुखी एवं निष्कलंक
जीवन बिताते हुए आप राज्यभोग करेंगे” ।।
भवांश्वैनं द्विजश्रेष्ठ पर्यटन्तं महीतलम् ।
त्रातुमर्हति विप्राग्रय तपोबलसमन्वित: ।। ३० ।।
द्विजश्रेष्ठू आप भी भूतलपर विचरनेवाले राजा युधिष्ठिरकी रक्षा करते रहें; क्योंकि
आप तपोबलसे सम्पन्न हैं || ३० ।।
गिरिदुर्गेषु च सदा देशेषु विषमेषु च ।
वसन्ति राक्षसा रौद्रास्तेभ्यो रक्षां विधास्यति ॥। ३१ ।।
'पर्वतोंके दुर्गम स्थानोंमें तथा ऊँची-नीची भूमियोंमें भयंकर राक्षस निवास करते हैं;
उनसे आप भाइयोंसहित युधिष्ठिरकी रक्षा कीजियेगा' ।। ३१ ।।
एवमुक्तो महेन्द्रेण बीभत्सुरपि लोमशम् |
उवाच प्रयतो वाक्यं रक्षेथा: पाण्डुनन्दनम् ।। ३२ ।।
महेन्द्रके ऐसा कहनेपर अर्जुनने भी विनीत होकर लोमश मुनिसे कहा--'मुने!
पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरकी भाइयोंसहित रक्षा कीजिये ।। ३२ ।।
यथा गुप्तस्त्वया राजा चरेत् तीर्थानि सत्तम |
दानं॑ दद्याद् यथा चैव तथा कुरु महामुने ।। ३३ ।।
'साधुशिरोमणे! महामुने! आपसे सुरक्षित रहकर राजा युधिष्ठिर तीर्थोमें भ्रमण करें
और दान दें--ऐसी कृपा कीजिये” ।। ३३ ।।
वैशम्पायन उवाच
तथेति सम्प्रतिज्ञाय लोमश: सुमहातपा: ।
काम्यकं वनमुद्दिश्य समुपायान्महीतलम् ।। ३४ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! “बहुत अच्छा” कहकर महातपस्वी लोमशजीने
उनका अनुरोध मान लिया और काम्यकवनमें जानेके लिये भूलोककी ओर प्रस्थान
किया ।। ३४ ।।
ददर्श तत्र कौन्तेयं धर्मराजमरिंदमम् |
तापसैर्भ्रातृभिश्वैव सर्वतः परिवारितम् ॥। ३५ ।।
वहाँ पहुँचकर उन्होंने शत्रुदमन कुन्तीकुमार धर्मराज युधिष्ठिरको भाइयों तथा तपस्वी
मुनियोंसे घिरा हुआ देखा ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि इन्द्रलोकाभिगमनपर्वणि लोमशगमने
सप्तचत्वारिंशो5ध्याय: ।। ४७ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपरव्वके अन्तर्गत इन्रलोकाभिगमनपर्वमें लोमशगमनविषयक
सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ४७ ॥/
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अष्टचत्वारिशो<् ध्याय:
दुःखित धृतराष्ट्रका संजयके सम्मुख अपने पुत्रोंके लिये
चिन्ता करना
जनमेजय उवाच
अत्यद्भुतमिदं कर्म पार्थस्यामिततेजस: ।
धृतराष्ट्रो महाप्राज्ञ: श्रुत्वा विप्र किमब्रवीत् ।। १ ।।
जनमेजयने पूछा--ब्रह्मन! अमित तेजस्वी कुन्तीकुमार अर्जुनका यह कर्म तो
अत्यन्त अद्भुत है। परम बुद्धिमान् राजा धृतराष्ट्रने भी यह सब अवश्य सुना होगा। उसे
सुनकर उन्होंने क्या कहा था? यह बतलाइये ।। १ ।।
वैशम्पायन उवाच
शक्रलोकगतं पार्थ श्रुत्वा राजाम्बिकासुत: ।
द्वैपायनादृषिश्रेष्ठात् संजयं वाक्यमत्रवीत् ।। २ ।।
वैशम्पायनजीने कहा--जनमेजय! अम्बिकानन्दन राजा धूृतराष्ट्रने ऋषि द्वैपायन
व्यासके मुखसे अर्जुनके इन्द्रलोकगमनका समाचार सुनकर संजयसे यह बात कही ।। २ ।।
धृतराष्ट्र रवाच
श्रुतं मे सूत कार्त्स्न्येन कर्म पार्थस्य धीमतः ।
कच्चित् तवापि विदितं याथातथ्येन सारथे ।। ३ ।।
धृतराष्ट्र बोले--सूत! मैंने परम बुद्धिमान् कुन्तीकुमार अर्जुनका सारा वृत्तान्त सुना है।
सारथे! क्या तुम्हें भी इस विषयमें यथार्थ बातें ज्ञात हुई हैं? ।। ३ ।।
प्रमत्तो ग्राम्यर्मेषु मन्दात्मा पापनिश्चय: ।
मम पुत्र: सुददुर्बुद्धि: पृथिवीं घातयिष्यति ।। ४ ।।
मेरा मूढ़बुद्धि पुत्र तो विषयभोगोंमें फँसा हुआ है। उसका विचार सदा पापपूर्ण ही बना
रहता है। प्रमादमें पड़ा हुआ वह अत्यन्त दुर्बुद्धि दुर्योधन एक दिन सारे भूमण्डलका नाश
करा देगा ।। ४ ।।
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यस्य नित्यमृता वाच: स्वैरेष्वपि महात्मन: ।
त्रैलोक्यमपि तस्य स्याद् योद्धा यस्य धनंजय: ।। ५ ।।
जिन महात्माके मुखसे हँसीमें भी सदा सत्य ही बातें निकलती हैं और जिनकी ओरसे
लड़नेवाले धनंजय-जैसे योद्धा हैं, उन धर्मराज युधिष्ठिरके लिये इस कौरव-राज्यको
जीतनेकी तो बात ही क्या है, वे तीनों लोकोंपर अधिकार प्राप्त कर सकते हैं ।। ५ ।।
अस्यतः कर्णिनाराचांस्तीक्षणाग्रांश्र शिलाशितान् ।
कोडर्जुनस्थाग्रतस्तिषछ्ेदपि मृत्युर्जरातिग: ।। ६ ।।
जो पत्थरपर रगड़कर तेज किये गये हैं, जिनके अग्रभाग बड़े तीखे हैं, उन कर्णि
नामक नाराचोंका प्रहार करनेवाले अर्जुनके आगे कौन योद्धा ठहर सकता है? जराविजयी
मृत्यु भी उनका सामना नहीं कर सकती ।। ६ ।।
मम पुत्रा दुरात्मान: सर्वे मृत्युवशानुगा: ।
येषां युद्ध दुराधर्षै: पाण्डवै: प्रत्युपस्थितम् ।। ७ ।।
मेरे सभी दुरात्मा पुत्र मृत्युके वशमें हो गये हैं; क्योंकि उनके सामने दुर्धर्ष वीर
पाण्डवोंके साथ युद्ध करनेका अवसर उपस्थित हुआ है ।। ७ ।।
तथैव च न पश्यामि युधि गाण्डीवधन्वन: ।
अनिशं चिन्तयानो5पि य एनमुदियाद् रथी ।। ८ ।।
मैं दिन-रात विचार करनेपर भी यह नहीं समझ पाता कि युद्धमें “गाण्डीवधन्वा'
अर्जुनका सामना कौन रथी कर सकता है? ।। ८ ।।
द्रोणकर्णो प्रतीयातां यदि भीष्मो5पि वा रणे |
महान् स्यात् संशयो लोके तत्र पश्यामि नो जयम् ।। ९ ।।
द्रोण और कर्ण उस अर्जुनका सामना कर सकते हैं। भीष्म भी युद्धमें उनसे लोहा ले
सकते हैं; परंतु तो भी मेरे मनमें महान् संशय ही बना हुआ है। मुझे इस लोकमें अपने
पक्षकी जीत नहीं दिखायी देती || ९ ।।
घृणी कर्ण: प्रमादी च आचार्य: स्थविरो गुरु: ।
अमर्षी बलवान् पार्थ: संरम्भी दृढविक्रम: || १० ।।
सम्भवेत् तुमुलं युद्ध सर्वशो5प्यपराजितम् ।
सर्वे हस्त्रविद: शूरा: सर्वे प्राप्ता महद् यश: ।। ११ ।।
कर्ण दयालु और प्रमादी है। आचार्य द्रोण वृद्ध एवं गुरु हैं। उधर कुन्तीकुमार अर्जुन
अत्यन्त अमर्षमें भरे हुए और बलवान हैं। उद्योगी और दृढ़ पराक्रमी हैं। सब ओरसे
घमासान युद्ध छिड़नेकी सम्भावना हो गयी है। युद्धमें पाण्डवोंकी पराजय नहीं हो सकती;
क्योंकि उनकी ओर सभी अस्त्रविद्याके विद्वान् शूरवीर और महान् यशस्वी हैं || १०-११ ।।
अपि सर्वेश्वरत्वं हि ते वाउछन्त्यपराजिता: ।
वधे नूनं भवेच्छान्तिरेतेषां फाल्गुनस्थ वा ।। १२ ।।
और वे पराजित न होकर सर्वेश्वर सम्राट् बननेकी इच्छा रखते हैं। इन कर्ण आदि
योद्धाओंका वध हो जाय अथवा अर्जुन ही मारे जायूँ तो इस विवादकी शान्ति हो सकती
है ।। १२ ।।
नतु हन्तार्जुनस्यास्ति जेता वास्य न विद्यते।
मन्युस्तस्य कथं शाम्येन्मन्दान् प्रति समुत्थित: ।। १३ ।।
परंतु अर्जुनको मारनेवाला या जीतनेवाला कोई नहीं है। मेरे मन्दबुद्धि पुत्रोंके प्रति
उनका बढ़ा हुआ क्रोध कैसे शान्त हो सकता है? ।। १३ ।।
त्रिदशेशसमो वीर: खाण्डवेडग्निमतर्पयत् |
जिगाय पार्थिवान् सर्वान् राजसूये महाक्रतौ ।। १४ ।।
अर्जुन इन्द्रके समान वीर हैं। उन्होंने खाण्डववनमें अग्निको तृप्त किया तथा राजसूय
महायज्ञमें समस्त राजाओंपर विजय पायी ।। १४ ।।
शेषं कुर्याद् गिरेवज्रो निपतन् मूर्थ्नि संजय ।
नतु कुर्यु: शरा: शेषं क्षिप्तास्तात किरीटिना ।। १५ ।।
संजय! पर्वतके शिखरपर गिरनेवाला वज्र भले ही कुछ बाकी छोड़ दे; किंतु तात!
किरीटधारी अर्जुनके चलाये हुए बाण कुछ भी शेष नहीं छोड़ेंगे || १५ ।।
यथा हि किरणा भानोस्तपन्तीह चराचरम् ।
तथा पार्थभुजोत्सृष्टा: शरास्तप्यन्ति मत्सुतान् ।। १६ ।।
जैसे सूर्यकी किरणें चराचर जगतको संतप्त करती हैं, उसी प्रकार अर्जुनकी
भुजाओंद्वारा चलाये गये बाण मेरे पुत्रोंको संतप्त कर देंगे ।। १६ ।।
अपि तद्रथघोषेण भयार्ता सव्यसाचिन: ।
प्रतिभाति विदीर्णेव सर्वतो भारती चमू: ।। १७ ।।
मुझे तो आज भी सव्यसाची अर्जुनके रथकी घरघराहटसे सारी कौरव-सेना भयातुर हो
छिन्न-भिन्न-सी होती प्रतीत हो रही है ।। १७ ।।
यदोद्वहन् प्रवपंश्नैव बाणान्
स्थाता55ततायी समरे किरीटी ।
सृष्टोडन्तक: सर्वहरो विधात्रा
भवेद् यथा तद्धदपारणीय: ।। १८ ।।
जब किरीटथारी अर्जुन हाथोंमें अस्त्र-शस्त्र लिये (तृणीरसे) बाण निकालते और चलाते
हुए समरभूमिमें खड़े होंगे, उस समय उनसे पार पाना असम्भव हो जायगा। वे ऐसे जान
पड़ेंगे, मानो विधाताने किसी दूसरे सर्वसंहारकारी यमराजकी सृष्टि कर दी हो ।। १८ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि इन्द्रलोकाभिगमनपर्वणि
धृतराष्ट्रविलापेडष्टचत्वारिंशो 5ध्याय: ।। ४८ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत इन्द्रलहोकाभिगमनपर्वनें धृतराष्ट्रविलापविषयक
अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ४८ ॥
हि >> आय न [हुक है
एकोनपज्चाशत्तमो<ड्ध्याय:
संजयके द्वारा धृतराष्ट्रकी बातोंका अनुमोदन और
धृतराष्ट्रका संताप
संजय उवाच
यदेतत् कथित राजंस्त्वया दुर्योधन प्रति ।
सर्वमेतद् यथातत्त्वं नैतन्मिथ्या महीपते ।। १ ।।
संजय बोला--राजन्! आपने दुर्योधनके विषयमें जो बातें कही हैं, वे सभी
यथार्थ हैं। महीपते! आपका वचन मिथ्या नहीं है ।। १ ।।
मन्युना हि समाविष्टा: पाण्डवास्ते महौजस: ।
दृष्टवा कृष्णां सभां नीतां धर्मपत्नीं यशस्विनीम् ।। २ ।।
दुःशासनस्य ता वाच: श्रुत्वा ते दारुणोदया: ।
कर्णस्य च महाराज जुगुप्सन्तीति मे मति: ।। ३ ।।
महातेजस्वी वे पाण्डव अपनी धर्मपत्नी यशस्विनी कृष्णाको सभामें लायी
गयी देखकर क्रोधसे भरे हुए हैं और महाराज! दुःशासन तथा कर्णकी वे कठोर
बातें सुनकर पाण्डव आपलोगोंकी निन्दा करते हैं, ऐसा मुझे विश्वास
है ।। २-३ ।।
श्रुतं हि मे महाराज यथा पार्थेन संयुगे |
एकादशतलतनु: स्थाणुर्धनुषा परितोषित: ।। ४ ।।
राजेन्द्र! मैंने यह भी सुना है कि कुन्तीकुमार अर्जुनने एकादश मूर्तिधारी
भगवान् शंकरको भी अपने धनुष-बाणकी कलाद्दारा संतुष्ट किया है ।। ४ ।।
कैरातं वेषमास्थाय योधयामास फाल्गुनम् ।
जिज्ञासु: सर्वदेवेश: कपर्दी भगवान् स्वयम् ॥। ५ ||
जटाजूटवधारी सर्वदिवेश्वर भगवान् शंकरने स्वयं ही अर्जुनके बलकी परीक्षा
लेनेके लिये किरातवेष धारण करके उनके साथ युद्ध किया था ।। ५ ।।
तत्रैनं लोकपालास्ते दर्शयामासुरर्जुनम् ।
अस्त्रहेतो: पराक्रान्तं तपसा कौरवर्षभम् ।। ६ ।।
वहाँ अस्त्रप्राप्तिके लिये विशेष उद्योगशील कुरु-कुलरत्न अर्जुनको उनकी
तपस्यासे प्रसन्न होकर उन लोकपालोंने भी दर्शन दिया था ।। ६ ।।
नैतदुत्सहते चान्यो लब्धुमन्यत्र फाल्गुनात्
साक्षाद् दर्शनमेतेषामी श्वराणां नरो भुवि ।। ७ ।।
इस संसारमें अर्जुनको छोड़कर दूसरा कोई मनुष्य ऐसा नहीं है, जो इन
लोकेश्चरोंका साक्षात् दर्शन प्राप्त कर सके ।। ७ ।।
महेश्वरेण यो राजन् न जीर्णों हाष्टमूर्तिना ।
कस्तमुत्सहते वीरो युद्धे जरयितुं पुमान् ।। ८ ।।
राजन! अष्टमूर्ति- भगवान् महेश्वर भी जिसे युद्धमें पराजित न कर सके,
उन्हीं वीरवर अर्जुनको दूसरा कौन वीर पुरुष जीतनेका साहस कर सकता
है ।। ८ ।।
आसादितमिदं घोरं तुमुलं लोमहर्षणम् ।
द्रौपदी परिकर्षद्धि: कोपयद्धिश्व॒ पाण्डवान् । ९ ।।
भरी सभामें द्रौपदीका वस्त्र खींचकर पाण्डवोंको कुपित करनेवाले आपके
पुत्रोंने स्वयं ही इस रोमांचकारी, अत्यन्त भयंकर एवं घमासान युद्धको निमन्त्रित
किया है ॥। ९ ।।
यत् तु प्रस्फुरमाणौष्ठो भीम: प्राह वचो<र्थवत् ।
दृष्टवा दुर्योधनेनोरू द्रौपद्या दर्शितावुभौ ।। १० |।
जब दुर्योधनने द्रौपदीको अपनी दोनों जाँघें दिखायी थीं, उस समय यह
देखकर भीमसेनने फड़कते हुए ओठोंसे जो बात कही थी, वह व्यर्थ नहीं हो
सकती ॥।
ऊरू भेत्स्यामि ते पाप गदया भीमवेगया ।
त्रयोदशानां वर्षाणामन्ते दुर्यूतदेविन: ।। ११ ।।
उन्होंने कहा था--'पापी दुर्योधन! मैं तेरहवें वर्षके अन्तमें अपनी भयानक
वेगवाली गदासे तुझ कपटी जुआरीकी दोनों जाँघें तोड़ डालूँगा' ।। ११ ।।
सर्वे प्रहरतां श्रेष्ठा: सर्वे चामिततेजस: ।
सर्वे सर्वास्त्रिविद्वांसो देवैरपि सुदुर्जया: ॥। १२ ।।
सभी पाण्डव प्रहार करनेवाले योद्धाओंमें श्रेष्ठ हैं। सभी अपरिमित तेजसे
सम्पन्न हैं तथा सबको सभी अस्त्रोंका परिज्ञान है, अतः वे देवताओंके लिये भी
अत्यन्त दुर्जय हैं || १२ ।।
मन्ये मन्युसमुद्धूता: पुत्राणां तव संयुगे ।
अन्तं पार्था: करिष्यन्ति भार्यामर्षसमन्विता: ।। १३ ।।
मेरा तो ऐसा विश्वास है कि अपनी पत्नीके अपमानजनित अमर्षसे युक्त
और रोषसे उत्तेजित हो समस्त कुन्तीपुत्र संग्राममें आपके पुत्रोंका संहार कर
डालेंगे || १३ ।।
धृतराष्ट उवाच
कि कृतं सूत कर्णेन वदता परुषं वच: ।
पर्याप्तं वैरमेतावद् यत् कृष्णा सा सभां गता ।॥। १४ ।।
धृतराष्ट्रने कहा--सूत! कर्णने कठोर बातें कहकर क्या किया, पूरा वैर तो
इतनेसे ही बढ़ गया कि द्रौपदीको सभामें (केश पकड़कर) लाया गया ।। १४ ।।
अपीदानीं मम सुतास्तिष्ठेरन् मन्दचेतस: ।
येषां भ्राता गुरुज्येछ्ठो विनये नावतिष्ठते || १५ ।।
अब भी मेरे मूर्ख पुत्र चुपचाप बैठे हैं। उनका बड़ा भाई दुर्योधन विनय एवं
नीतिके मार्गपर नहीं चलता ।। १५ ।।
ममापि वचन सूत न शुश्रूषति मन्दभाक् ।
दृष्टवा मां चक्षुषा हीन॑ निर्विचेष्टमचेतसम् ।। १६ ।।
सूत! वह मन्दभागी दुर्योधन मुझे अन्धा, अकर्मण्य और अविवेकी
समझकर मेरी बात भी नहीं सुनना चाहता ।। १६ ।।
ये चास्य सचिवा मन्दा: कर्णमौबलकादय: ।
ते तस्य भूयसो दोषान् वर्धयन्ति विचेतस: ।॥। १७ ।।
कर्ण और शकुनि आदि जो उसके मूर्ख मन्त्री हैं, वे भी विचारशून्य होकर
उसके अधिक-से-अधिक दोष बढ़ानेकी ही चेष्टा करते हैं || १७ ।।
स्वैरमुक्ता हापि शरा: पार्थेनामिततेजसा ।
निर्दोहेयुर्मम सुतान् किं पुनर्मन्युनेरिता: ।। १८ ।।
अमित तेजस्वी अर्जुनके द्वारा स्वेच्छापूर्वक छोड़े हुए बाण भी मेरे पुत्रोंको
जलाकर भस्म कर सकते हैं, फिर क्रोधपूर्वक छोड़े हुए बाणोंके लिये तो कहना
ही क्या है? ।। १८ ।।
पार्थबाहुबलोत्सृष्टा महाचापविनि:सूता: ।
दिव्यास्त्रमन्त्रमुदिता: सादयेयु: सुरानपि ।। १९ ।।
अर्जुनके बाहु-बलद्वारा चलाये और उनके महान् धनुषसे छूटे हुए
दिव्यास्त्रमन्त्रोंद्रारा अभिमन्त्रित बाण देवताओंका भी संहार कर सकते
हैं ।। १९ ।।
यस्य मन्त्री च गोप्ता च सुहृच्चैव जनार्दन: ।
हरिस्त्रैलोक्यनाथ: स कि नु तस्य न निर्जितम् । २० ।।
जिनके मन्त्री, संरक्षक और सुहृद् त्रिभुवननाथ, जनार्दन श्रीहरि हैं, वे किसे
नहीं जीत सकते? ।। २० ।।
इदं हि सुमहच्चित्रमर्जुनस्येह संजय ।
महादेवेन बाहुभ्यां यत् समेत इति श्रुति: ।। २१ ।।
संजय! अर्जुनका यह पराक्रम तो बड़े ही आश्वर्यका विषय है कि उन्होंने
महादेवजीके साथ बाहुयुद्ध किया, यह मेरे सुननेमें आया है || २१ ।।
प्रत्यक्ष सर्वलोकस्य खाण्डवे यत् कृतं पुरा ।
फाल्गुनेन सहायार्थे वल्लेर्दमोदरेण च ।। २२ ।।
आजसे पहले खाण्डववनमें अग्निदेवकी सहायताके लिये श्रीकृष्ण और
अर्जुनने जो कुछ किया है, वह तो सम्पूर्ण जगत्की आँखोंके सामने है || २२ ।।
सर्वथा न हि मे पुत्रा: सहामात्या: ससौबला: ।
क्रुद्धे पार्थे च भीमे च वासुदेवे च सात्वते | २३ ।।
जब कुन्तीपुत्र अर्जुन, भीमसेन और यदुकुलतिलक वासुदेव श्रीकृष्ण
क्रोधमें भरे हुए हैं, तब मुझे यह विश्वास कर लेना चाहिये कि शकुनि तथा अन्य
मन्त्रियोंसहित मेरे सभी पुत्र सर्वधा जीवित नहीं रह सकते ।। २३ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि इन्द्रलोकाभिगमनपर्वणि धृतराष्ट्रखेदे
एकोनपज्चाशत्तमो5 ध्याय: ।। ४९ ||
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत इन्द्रलोकाभियगमनपर्वमें
धृतराष्ट्रखेदविषयक उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ४९ ॥
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> सूर्य, जल, पृथ्वी, अग्नि, वायु, आकाश, दीक्षित ब्राह्मण तथा चन्द्रमा--ये शिवजीकी आठ मूर्तियाँ हैं।
(विष्णुपुराण १।८।८)
पज्चाशत्तमोडध्याय:
वनमें पाण्डवोंका आहार
जनमेजय उवाच
यदिदं शोचितं राज्ञा धृतराष्ट्रेण वै मुने ।
प्रत्राज्य पाण्डवान् वीरान् सर्वमेतन्निरर्थकम् ।। १ ।।
जनमेजय बोले--मुने! वीर पाण्डवोंको वनमें निर्वासित करके राजा धुृतराष्ट्रने जो
इतना शोक किया, यह सब व्यर्थ था || १ ।।
कथं च राजा पुत्र तमुपेक्षेताल्पचेतसम् ।
दुर्योधनं पाण्डुपुत्रान् कोपयानं महारथान् ॥। २ ।।
उस मन्दबुद्धि राजकुमार दुर्योधनको ही किसी तरह त्याग देना उनके लिये सर्वथा
उचित था जो महारथी पाण्डवोंको अपने दुर्व्यवहारसे कुपित करता जा रहा था ।। २ ।।
किमासीत् पाण्डुपुत्राणां वने भोजनमुच्यताम् ।
वानेयमथवा कृष्टमेतदाख्यातु नो भवान् ॥। ३ ।।
विप्रवर! बताइये, पाण्डवलोग वनमें क्या भोजन करते थे? जंगली फल-मूल या
खेतीसे पैदा हुआ ग्रामीण अन्न? इसका आप स्पष्ट वर्णन कीजिये ।। ३ ।।
वैशम्पायन उवाच
वानेयांश्व म्गांश्चैव शुद्धैर्बाणैर्निपातितान् |
ब्राह्मणानां निवेद्याग्रमभुञ्जन् पुरुषर्षभा: ।। ४ ।।
वैशम्पायनजीने कहा--राजन्! पुरुषश्रेष्ठ पाण्डव जंगली फल-मूल और खेतीसे पैदा
हुए अन्नादि भी पहले ब्राह्मणोंको निवेदन करके फिर स्वयं खाते थे एवं सब लोगोंकी रक्षाके
लिये केवल बाणोंके द्वारा ही हिंसक पशुओंको मारा करते थे ।। ४ ।।
तांस्तु शूरान् महेष्वासांस्तदा निवसतो वने ।
अन्वयुरत्रल्यिणा राजन् साग्नयोडनग्नयस्तथा ।। ५ ।।
राजन! उन दिनों वनमें निवास करनेवाले महाधनुर्धर शूरवीर पाण्डवोंके साथ बहुत-से
साग्निक (अग्निहोत्री) और निरग्निक (अग्निहोत्ररहित) ब्राह्मण भी रहते थे ।। ५ ।।
ब्राह्मणानां सहस्नाणि स्नातकानां महात्मनाम् |
दश मोक्षविदां तत्र यान् बिभर्ति युधिष्ठिर: ।। ६ ।।
राजा युधिष्ठिर जिनका पालन करते थे, वे महात्मा, स्नातक, मोक्षवेत्ता ब्राह्मण दस
हजारकी संख्यामें थे |। ६ ।।
रुरून् कृष्णमृगांश्वैव मेध्यांश्वान्यान् वनेचरान् ।
बाणैरुन्मथ्य विविधैर््राह्रणेभ्यो न्न्यवेदयत् ।। ७ ।।
वे रुरुमृग, कृष्णममृग तथा अन्य जो मेध्य (पवित्र): हिंसक वनजन्तु थे, उन सबको
विविध बाणोंद्वारा मारकर उनके चर्म ब्राह्मणोंको आसनादि बनानेके लिये अर्पित कर देते
थे।।७।।
नततत्र वश्रिद् दुर्वर्णो व्याधितो वापि दृश्यते ।
कृशो वा दुर्बलो वापि दीनो भीतो$5पि वा पुन: ।। ८ ।।
वहाँ उन ब्राह्मणोंमेंसे कोई भी ऐसा नहीं दिखायी देता था, जिसके शरीरका रंग दूषित
हो अथवा जो किसी रोगसे ग्रस्त हो। उनमेंसे कोई कृशकाय, दुर्बल, दीन अथवा भयभीत
भी नहीं जान पड़ता था ॥। ८ ।।
पुत्रानिव प्रियान् भ्रातृजज्ञातीनिव सहोदरान् ।
पुपोष कौरवश्रेष्ठो धर्मराजो युधिष्ठिर: ।। ९ ।।
कुरुकुलतिलक धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाइयोंका प्रिय पुत्रोंकी भाँति तथा
ज्ञातिजनोंका सहोदर भाइयोंके समान पालन-पोषण करते थे || ९ ।।
पतींक्ष द्रौपदी सर्वान् द्विजातींश्व॒ यशस्विनी ।
मातृवद् भोजयित्वाग्रे शिष्टमाहारयत् तदा ॥। १० |।
इसी प्रकार यशस्विनी द्रौपदी भी पतियों तथा समस्त द्विजातियोंको माताके समान
पहले भोजन कराकर पीछे बचा-खुचा आप खाती थी ।। १० ।।
प्राचीं राजा दक्षिणां भीमसेनो
यमौ प्रतीचीमथ वाप्युदीचीम् ।
धनुर्धराणां सहितो मृगाणां
क्षयं चक्कु्नित्यमेवोपगम्य ।। ११ ।।
राजा युधिष्ठिर पूर्व दिशामें, भीमसेन दक्षिण दिशामें तथा नकुल-सहदेव पश्चिम एवं
उत्तर दिशामें और कभी सब मिलकर नित्य वनमें निकल जाते और धनुषधारी (डाकुओं)
तथा हिंसक पशुओंका संहार किया करते थे ।। ११ ।।
तथा तेषां वसतां काम्यके वै
विहीनानामर्जुनेनोत्सुकानाम् ।
पज्चैव वर्षाणि तथा व्यतीयु-
रधीयतां जपतां जुद्धतां च ।। १२ ।।
इस प्रकार काम्यकवनमें अर्जुनसे वियुक्त एवं उनके लिये उत्कण्ठित होकर निवास
करनेवाले पाण्डवोंके पाँच वर्ष व्यतीत हो गये। इतने समयतक उनका स्वाध्याय, जप और
होम सदा पूर्ववत् चलता रहा ।। १२ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि इन्द्रलोकाभिगमनपर्वणि पार्थाहारक थने
पज्चाशत्तमोडध्याय: ।। ५० |।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपरव्वके अन्तर्गत इन्रलोकाभिगमनपर्वमें पाण्डवोंके भोजनका
वर्णनविषयक पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ५० ॥
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- सिंह-व्याप्रादि हिंसक जानवरोंको मार देनेसे वे मारनेवालेको पवित्र करनेवाले हैं; इसलिये उनको पवित्र कहा गया
है।
एकपज्चाशत्तमो< ध्याय:
80000 (80 ष्टके प्रति श्रीकृष्णादिके द्वारा की हुई
दुर्यो वधकी प्रतिज्ञाका वृत्तान्त सुनाना
वैशम्पायन उवाच
तेषां तच्चरितं श्रुत्वा मनुष्यातीतमद्भुतम् ।
चिन्ताशोकपरीतात्मा मन्युनाभिपरिप्लुत: ।। १ ।।
दीर्घमुष्णं च नि:श्वस्य धृतराष्ट्रोडम्बिकासुत: ।
अब्रवीत् संजयं सूतमामन्त्रय पुरुषर्षभ ।। २ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--पुरुषरत्न जनमेजय! पाण्डवोंका वह अद्भुत एवं अलौकिक
चरित्र सुनकर अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्रका मन चिन्ता और शोकमें डूब गया। वे अत्यन्त
खिन्न हो उठे और लंबी एवं गरम साँसें खींचकर अपने सारथि संजयको निकट बुलाकर
बोले-- ॥। १-२ ।।
नरात्रौ न दिवा सूत शान्तिं प्राप्रोमि वै क्षणम् ।
संचिन्त्य दुर्नयं घोरमतीतं द्यूतजं हि तत् ।। ३ ।।
'सूत! मैं बीते हुए द्यूतजनित घोर अन्यायका स्मरण करके दिन तथा रातमें क्षणभर भी
शान्ति नहीं पाता ।।
तेषामसहावीर्याणां शौर्य धैर्य धृतिं पराम् ।
अन्योन्यमनुरागं च भ्रातृणामतिमानुषम् ।। ४ ।।
“मैं देखता हूँ, पाण्डवोंके पराक्रम असह्ा हैं। उनमें शौर्य, धैर्य तथा उत्तम धारणाशक्ति
है। उन सब भाइयोंमें परस्पर अलौकिक प्रेम है ।। ४ ।।
देवपुत्रौ महाभागौ देवराजसमझ्ुती |
नकुल: सहदेवश्न पाण्डवौ युद्धदुर्मदौ ।। ५ ।।
'देवपुत्र महाभाग नकुल-सहदेव देवराज इन्द्रके समान तेजस्वी हैं। वे दोनों ही पाण्डव
युद्धमें प्रचण्ड हैं || ५ ।।
दृढायुधौ दूरपातौ युद्धे च कृतनिश्चयौ ।
शीघ्रहस्ती दृढकोधौ नित्ययुक्तो तरस्विनौ ।। ६ ।।
“उनके आयुध दृढ़ हैं। वे दूरतक निशाना मारते हैं। युद्धके लिये उनका भी दृढ़ निश्चय
है। वे दोनों ही बड़ी शीघ्रतासे हस्तसंचालन करते हैं। उनका क्रोध भी अत्यन्त दृढ़ है। वे
सदा उद्योगशील और बड़े वेगवान् हैं ।। ६ ।।
भीमार्जुनौ पुरोधाय यदा तौ रणमूर्थनि ।
स्थास्येते सिंहविक्रान्तावश्विनाविव दुःसहौ ।। ७ ।।
न शेषमिह पश्यामि मम सैन्यस्य संजय ।
तो ह्ाप्रतिरथौ युद्धे देवपुत्रो महारथी ।। ८ ।।
“जिस समय भीमसेन और अर्जुनको आगे रखकर वे दोनों सिंहके समान पराक्रमी
और अश्विनीकुमारोंके समान दुःसह वीर युद्धके मुहानेपर खड़े होंगे, उस समय मुझे अपनी
सेनाका कोई वीर शेष रहता नहीं दिखायी देता है। संजय! देवपुत्र महारथी नकुल-सहदेव
युद्धमें अनुपम हैं। कोई भी रथी उनका सामना नहीं कर सकता ।। ७-८ ।।
द्रौपद्यास्तं परिकलेशं न क्षंस्येते त्वमर्षिणौ ।
वृष्णयो5थ महेष्वासा: पञ्चाला वा महौजस: ।। ९ |।
युधि सत्याभिसंधेन वासुदेवेन रक्षिता: ।
प्रधक्ष्यन्ति रणे पार्था: पुत्राणां मम वाहिनीम् ॥ १० ।।
“अमर्षमें भरे हुए माद्रीकुमार द्रौपदीको दिये गये उस कष्टको कभी क्षमा नहीं करेंगे।
महान् धनुर्धर वृष्णिवंशी, महातेजस्वी पांचाल योद्धा और युद्धमें सत्यप्रतिज्ञ वासुदेव
श्रीकृष्णसे सुरक्षित कुन्तीपुत्र निश्चय ही मेरे पुत्रोंकी सेनाको भस्म कर डालेंगे || ९-१० ।।
रामकृष्णप्रणीतानां वृष्णीनां सूतनन्दन ।
न शक््य: सहितुं वेग: सर्वैस्तैरपि संयुगे || ११ ।।
'सूतनन्दन! बलराम और श्रीकृष्णसे प्रेरित वृष्णि-वंशी योद्धाओंके वेगको युद्धमें
समस्त कौरव मिलकर भी नहीं सह सकते ।। ११ ।।
तेषां मध्ये महेष्वासो भीमो भीमपराक्रम: ।
शैक्यया वीरघातिन्या गदया विचरिष्यति ।। १२ ।।
तथा गाण्डीवनिर्घोषं विस्फूर्जितमिवाशने: ।
गदावेगं च भीमस्य नाल॑ सोढुं नराधिपा: ।। १३ ।।
“उनके बीचमें जब भयानक पराक्रमी महान् धनुर्थर भीमसेन बड़े-बड़े वीरोंका संहार
करनेवाली आकाशगमें ऊपर उठी हुई गदा लिये विचरेंगे तब उन भीमकी गदाके वेगको तथा
वज्रगर्जके समान गाण्डीव धनुषकी टंकारको भी कोई नरेश नहीं सह
सकता || १२-१३ ।।
ततो<हं सुहृदां वाचो दुर्योधनवशानुग: ।
स्मरणीया: स्मरिष्यामि मया या न कृता: पुरा ।। १४ ।।
“उस समय मैं दुर्योधनके वशमें होनेके कारण अपने हितैषी सुहृदोंकी उन याद
रखनेयोग्य बातोंको याद करूँगा, जिनका पालन मैंने पहले नहीं किया” || १४ ।।
संजय उवाच
व्यतिक्रमो<यं सुमहांस्त्वया राजन्नुपेक्षित: ।
समर्थेनापि यन्मोहात् पुत्रस्ते न निवारित: ।। १५ ।।
संजयने कहा--राजन्! आपके द्वारा यह बहुत बड़ा अन्याय हुआ है, जिसकी आपने
जान-बूझकर उपेक्षा की है (उसे रोकनेकी चेष्टा नहीं की है); वह यह है कि आपने समर्थ
होते हुए भी मोहवश अपने पुत्रको कभी रोका नहीं ।। १५ ।।
श्र॒त्वा हि निर्जितान् द्यूते पाण्डवान् मधुसूदन: ।
त्वरित: काम्यके पार्थान्ू समभावयदच्युत: ।। १६ ।।
भगवान् मधुसूदनने ज्यों ही सुना कि पाण्डव द्यूतमें पराजित हो गये, त्यों ही वे
काम्यकवनमें पहुँचकर कुन्तीपुत्रोंसे मिले और उन्हें आश्वासन दिया ।। १६ ।।
द्रुपदस्य तथा पुत्रा धृष्टद्युम्नपुरोगमा: ।
विराटो धृष्टकेतुश्च केकयाश्व महारथा: ।। १७ ।।
इसी प्रकार ट्रुपदके धृष्टद्युम्न आदि पुत्र, विराट, धृष्टकेतु और महारथी कैकय--इन
सबने पाण्डवोंसे भेंट की ।। १७ ।।
तैश्व॒ यत् कथितं राजन् दृष्टवा पार्थान् पराजितान् |
चारेण विदितं सर्व तन्मया5<5वेदितं च ते ।। १८ ।।
राजन्! पाण्डवोंको जूएमें पराजित देखकर उन सबने जो बातें कहीं, उन्हें
गुप्तचरोंद्वारा जानकर मैंने आपकी सेवामें निवेदन कर दिया था || १८ ।।
समागम्य वृतस्तत्र पाण्डवैर्मधुसूदन: ।
सारथ्ये फाल्गुनस्याजौ तथेत्याह च तान् हरि: ।। १९ ।।
पाण्डवोंने मिलकर मधुसूदन श्रीकृष्णको युद्धमें अर्जुनका सारथि होनेके लिये वरण
किया और श्रीहरिने “तथास्तु' कहकर उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया ।। १९ |।
अमर्षितो हि कृष्णोडपि दृष्टवा पार्थासतथा गतान् |
कृष्णाजिनोत्तरासंगानब्रवीच्च युधिष्ठिरम् | २० ।।
भगवान् श्रीकृष्ण भी कुन्तीपुत्रोंकी उस अवस्थामें काला मृगचर्म ओढ़कर आये हुए
देख उस समय अमर्षमें भर गये और युधिष्ठिरसे इस प्रकार बोले--- || २० ।।
या सा समृद्धि: पार्थानामिन्द्रप्रस्थे बभूव ह ।
राजसूये मया दृष्टा नृपैरन्यै: सुदुर्लभा ।। २१ ।।
इन्द्रप्रस्थमें कुन्तीकुमारोंक पास जो समृद्धि थी तथा राजसूययज्ञके समय जिसे मैंने
अपनी आँखों देखा था, वह अन्य नरेशोंके लिये अत्यन्त दुर्लभ थी || २१ ।।
यत्र सर्वान् महीपालाउछस्त्रतेजो भयार्दितान् ।
सवज्ाज्रान् सपौण्ड्रोड़़ान् सचोलद्राविडान्ध्रकान् । २२ ।।
सागरानूपकांश्वैव ये च प्रान्ताभिवासिन: ।
सिंहलान् बर्बरान् म्लेच्छान् ये च लड़कानिवासिन: ।। २३ |।
पश्चिमानि च राष्ट्राणि शतश: सागरान्तिकान् ।
पह्ववान् दरदान् सर्वान् किरातान् यवनाछ्छकान् ॥। २४ ।।
हारह्णांश्व चीनांश्व तुषारान् सैन्धवांस्तथा ।
जागुडान् रामठान् मुण्डान् स्त्रीराज्यमथ तड्णान् ।। २५ ।।
केकयान् मालवांश्वैव तथा काश्मीरकानपि ।
अद्राक्षमहमाहूतान् यज्ञे ते परिवेषकान् ।। २६ ।।
“उस समय सब भूमिपाल पाण्डवोंके शस्त्रोंके तेजसे भयभीत थे। अंग, वंग, पुण्ड्र,
उड़, चोल, द्राविड़, आन्ध्र, सागरतटवर्ती द्वीप तथा समुद्रके समीप निवास करनेवाले जो
राजा थे, वे सभी राजसूययज्ञमें उपस्थित थे। सिंहल, बर्बर, म्लेच्छ, लंकानिवासी, पश्चिमके
राष्ट्र सागरके निकटवर्ती सैकड़ों प्रदेश, पह्लव, दरद, समस्त किरात, यवन, शक, हारहूण,
चीन, तुषार, सैन्धव, जागुड़, रामठ, मुण्ड, स्त्रीराज्य, तंगण, केकय, मालव तथा
काश्मीरदेशके नरेश भी राजसूययज्ञमें बुलाये गये थे और मैंने उन सबको आपके यज्ञमें
रसोई परोसते देखा था || २२--२६ ।।
सा ते समृद्धिर्यैरात्ता चपला प्रतिसारिणी ।
आदाय जीवितं तेषामाहरिष्यामि तामहम् ।। २७ ।।
“सब ओर फैली हुई आपकी उस चंचल समृद्धिको जिन लोगोंने छलसे छीन लिया है,
उनके प्राण लेकर भी मैं उसे पुनः: वापस लाऊँगा ।। २७ ।।
रामेण सह कौरव्य भीमार्जुनयमैस्तथा ।
अक्रूरगदसाम्बैश्व प्रद्युम्नेनाहुकेन च ।। २८ ।।
धृष्टय्युम्नेन वीरेण शिशुपालात्मजेन च |
दुर्योधनं रणे हत्वा सद्य: कर्ण च भारत ।। २९ ।।
दुःशासनं सौबलेयं यश्चान्य: प्रतियोत्स्यते ।
ततस्त्वं हास्तिनपुरे भ्रातृभि: सहितो वसन् ।। ३० ।।
धार्तरष्ट्रीं श्रियं प्राप्प प्रशाधि पृथिवीमिमाम् |
“कुरुनन्दन! भरतकुलतिलक! बलराम, भीमसेन, अर्जुन, नकुल-सहदेव, अक्रूर, गद,
साम्ब, प्रद्युम्न, आहुक, वीर धृष्टद्युम्न और शिशुपालपुत्र धृष्टकेतुके साथ आक्रमण करके
युद्धमें दुर्योधन, कर्ण, दुःशासन एवं शकुनिको तथा और जो कोई योद्धा सामना करने
आयेगा, उसे भी शीघ्र ही मारकर मैं आपकी सम्पत्ति लौटा लाऊँगा। तदनन्तर आप
भाइयोंसहित हस्तिनापुरमें निवास करते हुए धृतराष्ट्रकी राज्यलक्ष्मीको पाकर इस सारी
पृथ्वीका शासन कीजिये” || २८--३० ह ||
अथैनमब्रवीद् राजा तस्मिन् वीरसमागमे ।। ३१ ।।
शण्वसत्स्वेतेषु वीरेषु धृष्टद्युम्नमुखेषु च ।
तब राजा युधिष्ठिरने उस वीरसमुदायमें इन धृष्टद्युम्न आदि शूरवीरोंके सुनते हुए
श्रीकृष्ससे कहा || ३१३ ।।
युधिछिर उवाच
प्रतिगृह्नामि ते वाचमिमां सत्यां जनार्दन ।। ३२ ।।
युधिष्ठिर बोले--जनार्दन! मैं आपकी सत्य वाणीको शिरोधार्य करता हूँ ।। ३२ ।।
अमित्रान् मे महाबाहो सानुबन्धान् हनिष्यसि ।
वर्षात् त्रयोदशादूर्ध्व सत्यं मां कुरु केशव ।। ३३ ।।
प्रतिज्ञातो वने वासो राजमध्ये मया हायम् ।
महाबाहो! केशव! तेरहवें वर्षके बाद आप मेरे सम्पूर्ण शत्रुओंको उनके बन्धु-
बान्धवोंसहित नष्ट कीजियेगा। ऐसा करके आप मेरे सत्य (वनवासके लिये की गयी
प्रतिज्ञा)-की रक्षा कीजिये। मैंने राजाओंकी मण्डलीमें वनवासकी प्रतिज्ञा की है || ३३३ ।।
तद् धर्मराजवचन प्रतिश्रुत्य सभासद: ।। ३४ ।।
धृष्टद्युम्नपुरोगास्ते शभयामासुरञ्जसा ।
केशवं मधुरैर्वाक्यै: कालयुक्तैरमर्षितम् ।। ३५ ।।
धर्मराजकी वह बात सुनकर धृष्टद्युम्म आदि सभासदोंने समयोचित मधुर वचनोंद्वारा
अमर्षमें भरे हुए श्रीकृष्णको शीघ्र ही शान्त किया ।। ३४-३५ ।।
पाज्चालीं प्राहुरक्लिष्टां वासुदेवस्य शृण्वतः ।
दुर्योधनस्तव क्रोधाद् देवि त्यक्ष्यति जीवितम् ।। ३६ ।।
तत्पश्चात् उन्होंने क्लेशरहित हुई द्रौपदीसे भगवान् श्रीकृष्णके सुनते हुए कहा--'देवि!
दुर्योधन तुम्हारे क्रोधसे निश्चय ही प्राण त्याग देगा || ३६ ।।
प्रतिजानीमहे सत्यं मा शुचो वरवर्णिनि ।
ये सम ते$क्षजितां कृष्णे दृष्टवा त्वां प्राहसंस्तदा ।
मांसानि तेषां खादन्तो हरिष्यन्ति वृकद्विजा: ।। ३७ ।।
“वरवर्णिनि! हम यह सच्ची प्रतिज्ञा करते हैं, तुम शोक न करो। कृष्णे! उस समय तुम्हें
जूएमें जीती हुई देखकर जिन लोगोंने हँसी उड़ायी है, उनके मांस भेड़िये और गीध खायँगे
और नोच-नोचकर ले जायूँगे ।। ३७ ।।
पास्यन्ति रुर्धिर तेषां गृध्रा गोमायवस्तथा ।
उत्तमाड़ानि कर्षन्तो यै: कृष्टासि सभातले ॥। ३८ ।।
“इसी प्रकार जिन्होंने तुम्हें सभाभवनमें घसीटा है, उनके कटे हुए सिरोंको घसीटते हुए
गीध और गीदड़ उनके रक्त पीयेंगे || ३८ ॥।
तेषां द्रक्ष्यसि पाउ्चालि गात्राणि पृथिवीतले ।
क्रव्यादे: कृष्पमाणानि भक्ष्यमाणानि चासकृत् ।। ३९ ।।
'पांचालराजकुमारि! तुम देखोगी कि उन दुष्टोंके शरीर इस पृथ्वीपर मांसाहारी गीदड़-
गीध आदि पशु-पक्षियोंद्वारा बार-बार घसीटे और खाये जा रहे हैं || ३९ ।।
परिक्लिष्टासि यैस्तत्र यैश्वासि समुपेक्षिता ।
तेषामुत्कृत्तशिरसां भूमि: पास्यति शोणितम् ।। ४० ।।
“जिन लोगोंने तुम्हें सभामें क्लेश पहुँचाया और जिन्होंने चुपचाप रहकर उस
अन्यायकी उपेक्षा की है, उन सबके कटे हुए मस्तकोंका रक्त यह पृथ्वी पीयेगी' || ४० ।।
एवं बहुविधा वाचस्त ऊचुर्भरतर्षभ ।
सर्वे तेजस्विन: शूरा: सर्वे चाहतलक्षणा: ।। ४१ ।।
भरतकुलतिलक! इस प्रकार उन वीरोंने अनेक प्रकारकी बातें कही थीं। वे सब-के-सब
तेजस्वी और शूरवीर हैं। उनके शुभ लक्षण अमिट हैं ।। ४१ ।।
ते धर्मराजेन वृता वर्षादूर्ध्व त्रयोदशात् ।
पुरस्कृत्योपयास्यन्ति वासुदेव॑ महारथा: ।। ४२ ।।
धर्मराजने तेरहवें वर्षके बाद युद्ध करनेके लिये उनका वरण किया है। वे महारथी वीर
भगवान् श्रीकृष्णको आगे रखकर आक्रमण करेंगे || ४२ ।।
रामश्न कृष्णश्व धनंजयश्न
प्रद्युम्नसाम्बी युयुधानभीमौ ।
माद्रीसुतीो केकयराजपुत्रा:
पाञ्चालपुत्रा: सह मत्स्यराज्ञा || ४३ ।।
एतान् सर्वान् लोकवीरानजेयान्
महात्मन: सानुबन्धान् ससैन्यान् ।
को जीवितार्थी समरे< भ्युदीयात्
क्रुद्धान सिंहानू केसरिणो यथैव ।। ४४ ।।
बलराम, श्रीकृष्ण, अर्जुन, प्रद्युम्न, साम्ब, सात्यकि, भीमसेन, नकुल, सहदेव,
केकयराजकुमार, द्रपद और उनके पुत्र तथा मत्स्यनरेश विराट--ये सब-के-सब
विश्वविख्यात अजेय वीर हैं। ये महामना जब अपने सगे-सम्बन्धियों और सेनाके साथ धावा
करेंगे, उस समय क्रोधमें भरे हुए केसरी सिंहोंके समान उन महावीरोंका समरमें जीवनकी
इच्छा रखनेवाला कौन पुरुष सामना करेगा? ।। ४३-४४ ।।
ध्तराष्ट्र उवाच
यन्माब्रवीद् विदुरो द्यूतकाले
त्वं पाण्डवाग्जेष्यसि चेन्नरेन्द्र ।
ध्रुवं कुरूणामयमन्तकालो
महाभयो भविता शोणितौघ: ।। ४५ ।।
धृतराष्ट्र बोले--संजय! जब जूआ खेला जा रहा था, उस समय विदुरने मुझसे जो यह
बात कही थी कि नरेन्द्र! यदि आप पाण्डवोंको जूएमें जीतेंगे तो निश्चय ही यह कौरवोंके
लिये खूनकी धारासे भरा हुआ अत्यन्त भयंकर विनाशकाल होगा ।। ४५ ।।
मन्ये तथा तद् भवितेति सूत
यथा क्षत्ता प्राह वच: पुरा माम् |
असंशयं भविता युद्धमेतद्
गते काले पाण्डवानां यथोक्तम् ।। ४६ ।।
सूत! विदुरने पहले जो बात कही थी, वह अवश्य ही उसी प्रकार होगी, ऐसा मेरा
विश्वास है। वनवासका समय व्यतीत होनेपर पाण्डवोंके कथनानुसार यह घोर युद्ध होकर
ही रहेगा, इसमें संशय नहीं ।। ४६ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि इन्द्रलोकाभिगमनपर्वणि धृतराष्ट्रविलापे
एकपज्चाशत्तमो5ध्याय: ।। ५१ ||
इस प्रकार श्रीमह्ा भारत वनपवके अन्तर्गत इन्रलोकाभिगमनपर्वमें धृतराष्टरविलापविषयक
इकक््यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ५१ ॥।
हि >> आय न [हुक है 7-2
(नलोपाख्यानपर्व)
द्विपञ्चाशत्तमो<5 ध्याय:
भीमसेन-युधिष्ठटिर-संवाद, बृहदश्चका आगमन तथा
युधिष्ठिरके पूछनेपर बृहदश्चवके द्वारा नलोपाख्यानकी
प्रस्तावना
जनमेजय उवाच
अस्त्रहेतोर्गते पार्थे शक्रलोक॑ महात्मनि ।
युधिष्ठिरप्रभूतय: किमकुर्वत पाण्डवा: ।। १ ।।
जनमेजयने पूछा--ब्रह्मन! अस्त्रविद्याकी प्राप्तिके लिये महात्मा अर्जुनके इन्द्रलोक
चले जानेपर युधिष्ठिर आदि पाण्डवोंने क्या किया? ।। १ ।।
वैशम्पायन उवाच
अस्त्रहेतोर्गते पार्थे शक्रलोक॑ महात्मनि ।
आवसन् कृष्णया सार्धथ काम्यके भरतर्षभा: ।। २ ।।
वैशम्पायनजीने कहा--राजन! अस्त्रविद्याके लिये महात्मा अर्जुनके इन्द्रलोक
जानेपर भरतकुलभूषण पाण्डव द्रौपदीके साथ काम्यकवनमें निवास करने लगे ।। २ ।।
तत: कदाचिदेकान्ते विविक्त इव शाद्वले |
दुःखार्ता भरतश्रेष्ठा निषेदु: सह कृष्णया ।। ३ ।।
धनंजयं शोचमाना: साश्रुकण्ठा: सुदुःखिता: ।
तद्वियोगार्दितान् सर्वाउ्छोक: समभिपुप्लुवे ॥। ४ ।॥।
तदनन्तर एक दिन एकान्त एवं पवित्र स्थानमें, जहाँ छोटी-छोटी हरी दूर्वा आदि घास
उगी हुई थी, वे भरतवंशके श्रेष्ठ पुरुष दुःखसे पीड़ित हो द्रौपदीके साथ बैठे और धनंजय
अर्जुनके लिये चिन्ता करते हुए अत्यन्त दु:खमें भरे अश्रुगदूगद कण्ठसे उन्हींकी बातें करने
लगे। अर्जुनके वियोगसे पीड़ित उन समस्त पाण्डवोंको शोकसागरने अपनी लहरोंमें डुबो
दिया ।। ३-४ ।।
धनंजयवियोगाच्च राज्य भ्रंशाच्च दु:खिता: ।
अथ भीमो महाबाहुर्युधिष्ठटिमभाषत ।। ५ ।।
पाण्डव राज्य छिन जानेसे तो दुःखी थे ही। अर्जुनके विरहसे वे और भी क्लेशमें पड़
गये थे। उस समय महाबाहु भीमने युधिष्ठिससे कहा-- || ५ ।।
निदेशात् ते महाराज गतो5सौ भरतर्षभ: ।
अर्जुन: पाण्डुपुत्राणां यस्मिन् प्राणा: प्रतिक्ठिता: । ६ ।।
“महाराज! आपकी आज्ञासे भरतवंशका रत्न अर्जुन तपस्याके लिये चला गया। हम
सब पाण्डवोंके प्राण उसीमें बसते हैं |। ६ ।।
यस्मिन् विनष्टे पाड्चाला: सह पुत्रैस्तथा वयम् |
सात्यकिर्वासुदेवश्च विनश्येयुर्न संशय: ।। ७ ।।
“यदि कहीं अर्जुनका नाश हुआ तो पुत्रोंसहित पांचाल, हम पाण्डव, सात्यकि और
वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण--ये सब-के-सब नष्ट हो जायँगे || ७ ।।
योडसौ गच्छति धर्मात्मा बहून् क्लेशान् विचिन्तयन् ।
भवतन्नियोगाद् बीभत्सुस्ततो दुःखतरं नु किम् ।। ८ ।।
'जो धर्मात्मा अर्जुन अनेक प्रकारके क्लेशोंका चिन्तन करते हुए आपकी आज्ञासे
तपस्याके लिये गया, उससे बढ़कर दुःख और क्या होगा? ।। ८ ।।
यस्य बाहू समाश्रित्य वयं सर्वे महात्मन: ।
मन्यामहे जितानाजोौ परानू प्राप्तां च मेदिनीम् । ९ ।।
“जिस महापराक्रमी अर्जुनके बाहुबलका आश्रय लेकर हम संग्राममें शत्रुओंको
पराजित और इस पृथ्वीको अपने अधिकारमें आयी हुई समझते हैं ।। ९ ।।
यस्य प्रभावान्न मया सभामध्ये धनुष्मत: ।
नीता लोकममुं सर्वे धार्तराष्ट्रा: ससौबला: ।। १० ।।
“जिस धरनुर्धर वीरके प्रभावसे प्रभावित होकर मैंने सभामें शकुनिसहित समस्त
धृतराष्ट्रपुत्रोंको तुरंत ही यमलोक नहीं भेज दिया ।। १० ।॥।
ते वयं बाहुबलिन: क्रोधमुत्थितमात्मन: ।
सहामहे भवन्न्मूलं वासुदेवेन पालिता: ।। ११ ।।
“हम सब लोग बाहुबलसे सम्पन्न हैं और भगवान् वासुदेव हमारे रक्षक हैं तो भी हम
आपके कारण अपने उठे हुए क्रोधको चुपचाप सह लेते हैं || ११ ।।
वयं हि सह कृष्णेन हत्वा कर्णमुखान् परान् |
स्वबाहुविजितां कृत्स्नां प्रशासेम वसुन्धराम् ।। १२ ।।
“भगवान् श्रीकृष्णके साथ हमलोग कर्ण आदि शत्रुओंको मारकर अपने बाहुबलसे
जीती हुई सम्पूर्ण पृथ्वीका शासन कर सकते हैं ।। १२ ।।
भवतो द्यूतदोषेण सर्वे वयमुपप्लुता: ।
अहीनपौरुषा बाला बलिभिबलवत्तरा: || १३ ।।
“आपके जूएके दोषसे हमलोग पुरुषार्थयुक्त होकर भी दीन बन गये हैं और वे मूर्ख
दुर्योधन आदि भेंटमें मिले हुए हमारे धनसे सम्पन्न हो इस समय अधिक बलशाली बन गये
हैं ।। १३ ।।
क्षात्रं धर्म महाराज त्वमवेक्षितुमहसि ।
न हि धर्मो महाराज क्षत्रियस्यथ वनाश्रय: ।। १४ ।।
“महाराज! आप क्षत्रियरधर्मकी ओर तो देखिये। इस प्रकार वनमें रहना कदापि
क्षत्रियोंका धर्म नहीं है ।। १४ ।।
राज्यमेव पर धर्म क्षत्रियस्य विदुर्बुधा: ।
स क्षत्रधर्मविद् राजा मा धर्म्यान्नीनश: पथ: ।। १५ ।।
“विद्वानोंने राज्यको ही क्षत्रियका सर्वोत्तम धर्म माना है। आप क्षत्रियधर्मके ज्ञाता नरेश
हैं। धर्मके मार्गसे विचलित न होइये ।। १५ ।।
प्राग् द्वादशसमा राजन् धार्तराष्ट्रानू निहन्महि ।
निवर्त्य च वनात् पार्थमानाय्य च जनार्दनम् ।। १६ ।।
“राजन्! हमलोग बारह वर्ष बीतनेके पहले ही अर्जुनको वनसे लौटाकर और भगवान्
श्रीकृष्णको बुलाकर धृतराष्ट्रके पुत्रोंका संहार कर सकते हैं ।। १६ ।।
व्यूढानीकान् महाराज जवेनैव महामते ।
धार्तराष्ट्राममुं लोकं गमयामि विशाम्पते ।। १७ ।।
सर्वानहं हनिष्यामि धार्तराष्ट्रानूस सौबलान् ।
दुर्योधनं च कर्ण च यो वान्य: प्रतियोत्स्यते ।। १८ ।।
“महाराज! महामते! धृतराष्ट्रके पुत्र कितनी ही सेनाओंकी मोर्चाबन्दी क्यों न कर लें,
हम उन्हें शीघ्र यमलोकका पथिक बनाकर ही छोड़ेंगे। मैं स्वयं ही शकुनिसहित समस्त
धृतराष्ट्रपुत्रोंको मार डालूँगा। दुर्योधन, कर्ण अथवा दूसरा जो कोई योद्धा मेरा सामना
करेगा, उसे भी अवश्य मारूँगा ।। १७-१८ ।।
मया प्रशमिते पश्चात् त्वमेष्यसि वनात् पुनः ।
एवं कृते न ते दोषा भविष्यन्ति विशाम्पते ।। १९ ।।
“मेरे द्वारा शत्रुओंका संहार हो जानेपर आप फिर तेरह वर्षके बाद वनसे चले आइयेगा।
प्रजानाथ! ऐसा करनेपर आपको दोष नहीं लगेगा ।। १९ |।
यज्ैश्न विविधैस्तात कृतं पापमरिंदम |
अवधूय महाराज गच्छेम स्वर्गमुत्तमम् ।। २० ।।
“तात! शत्रुदमन! महाराज! हम नाना प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान करके अपने किये हुए
पापको धो-बहाकर उत्तम स्वर्गलोकमें चलेंगे || २० ।।
एवमेतद् भवेद् राजन् यदि राजा न बालिश: ।
अस्माकं दीर्घसूत्र: स्याद् भवान् धर्मपरायण: ।। २१ ।।
“राजन! यदि ऐसा हो तो आप हमारे धर्मपरायण राजा अविवेकी और दीर्घसूत्री नहीं
समझे जायूँगे ।। २१ ।।
निकृत्या निकृतिप्रज्ञा हन्तव्या इति निश्चय: ।
न हि नैकृतिकं हत्वा निकृत्या पापमुच्यते ।। २२ ।।
'शठता करने या जाननेवाले शत्रुओंको शठताके द्वारा ही मारना चाहिये, यह एक
सिद्धान्त है। जो स्वयं दूसरोंपर छल-कपटका प्रयोग करता है, उसे छलसे भी मार डालनेमें
पाप नहीं बताया गया है || २२ ।।
तथा भारत धर्मेषु धर्मज्शैरिह दृश्यते ।
अहोरात्रं महाराज तुल्यं संवत्सरेण ह ।। २३ ।।
“भरतवंशी महाराज! धर्मशास्त्रमें इसी प्रकार धर्मपरायण धर्मज्ञ पुरुषोंद्वारा यहाँ एक
दिन-रात एक संवत्सरके समान देखा जाता है ।। २३ ।।
तथैव वेदवचन श्रूयते नित्यदा विभो ।
संवत्सरो महाराज पूर्णो भवति कृच्छृत: ।। २४ ।।
'प्रभो! महाराज! इसी प्रकार सदा यह वैदिक वचन सुना जाता है कि कृच्छृव्रतके
अनुष्ठानसे एक वर्षकी पूर्ति हो जाती है ।। २४ ।।
यदि वेदा: प्रमाणास्ते दिवसादूर्ध्वमच्युत ।
त्रयोदश समा: कालो ज्ञायतां परिनिष्ठित: ।। २५ ।।
“अच्युत! यदि आप वेदको प्रमाण मानते हैं तो तेरहवें दिनके बाद ही तेरह वर्षोंका
समय बीत गया, ऐसा समझ लीजिये || २५ ।।
कालो दुर्योधन हन्तुं सानुबन्धमरिंदम ।
एकाग्रां पृथिवीं सर्वा पुरा राजन् करोति सः: ।। २६ ।।
'शत्रुदमन! यह दुर्योधनको उसके सगे-सम्बन्धियों-सहित मार डालनेका अवसर आया
है। राजन्! वह सारी पृथ्वीको जबतक एक सूत्रमें बाँध ले, उसके पहले ही यह कार्य कर
लेना चाहिये || २६ ।।
द्यूतप्रियेण राजेन्द्र तथा तद् भवता कृतम् |
प्रायेणाज्ञातचर्यायां वयं सर्वे निपातिता: || २७ ।।
'राजेन्द्र! जूएके खेलमें आसक्त होकर आपने ऐसा अनर्थ कर डाला कि प्राय: हम सब
लोगोंको अज्ञातवासके संकटमें लाकर पटक दिया ।। २७ ।।
नतं देशं प्रपश्यामि यत्र सो5स्मान् सुदुर्जन: ।
न विज्ञास्यति दुष्टात्मा चारैरिति सुयोधन: ।॥ २८ ।।
अधिगम्य च सर्वान् नो वनवासमिमं ततः ।
प्रत्राजयिष्यति पुनर्निकृत्याधमपूरुष: ।। २९ ।।
“मैं ऐसा कोई देश या स्थान नहीं देखता, जहाँ अत्यन्त दुष्टचित्त, दुरात्मा दुर्योधन अपने
गुप्तचरोंद्वारा हमलोगोंका पता न लगा ले। वह नीच नराधम हम सब लोगोंका गुप्त निवास
जान लेनेपर पुनः अपनी कपटपूर्ण नीतिद्वारा हमें इस वनवासमें ही डाल देगा || २८-२९ ।।
यद्यस्मानभिगच्छेत पाप: स हि कथंचन ।
अज्ञातचर्यामुत्तीर्णान् दृष्टवा च पुनराह्ययेत् ।। ३० ।।
“यदि वह पापी किसी प्रकार यह समझ ले कि हम अज्ञातवासकी अवधि पार कर गये
हैं, तो वह उस दशामें हमें देखकर पुनः आपको ही जूआ खेलनेके लिये बुलायेगा || ३० ।।
द्यूतेन ते महाराज पुनर्दययूतमवर्तत ।
भवांश्व पुनराहूतो द्यूते नैवापनेष्यति ।। ३१ ।।
“महाराज! आप एक बार जूएके संकटसे बचकर दुबारा द्यूतक्रीडामें प्रवृत्त हो गये थे,
अतः मैं समझता हूँ, यदि पुनः आपका द्यूतके लिये आवाहन हो तो आप उससे पीछे न
हटेंगे || ३१ ।।
स तथाक्षेषु कुशलो निश्चितो गतचेतन: ।
चरिष्यसि महाराज वनेषु वसती: पुनः ।। ३२ ।।
“नरेश्वर! वह विवेकशून्य शकुनि जूआ फेंकनेकी कलामें कितना कुशल है, यह आप
अच्छी तरह जानते हैं, फिर तो उसमें हारकर आप पुनः वनवास ही भोगेंगे ।।
यद्यस्मान् सुमहाराज कृपणान् कर्तुमर्हसि ।
यावज्जीवमतवेक्षस्व वेदधर्माश्व कृत्सनश: ।। ३३ ।।
“महाराज! यदि आप हमें दीन, हीन, कृपण ही बनाना चाहते हैं तो जबतक जीवन है,
तबतक सम्पूर्ण वेदोक्त धर्मोंके पालनपर ही दृष्टि रखिये ।। ३३ ।।
निकृत्या निकृतिप्रज्ञो हन्तव्य इति निश्चय: ।
अनुज्ञातस्त्वया गत्वा यावच्छक्ति सुयोधनम् ।। ३४ ।।
यथैव कक्षमुत्सृष्टो दहेदनिलसारथि: ।
हनिष्यामि तथा मन्दमनुजानातु मे भवान् ॥। ३५ ।।
“अपना निश्चय तो यही है कि कपटीको कपटसे ही मारना चाहिये। यदि आपकी आज्ञा
हो तो जैसे तृणकी राशिमें डाली हुई आग हवाका सहारा पाकर उसे भस्म कर डालती है,
वैसे ही मैं जाकर अपनी शक्तिके अनुसार उस मूढ़ दुर्योधनका वध कर डालूँ, अतः आप
मुझे आज्ञा दीजिये || ३४-३५ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवं ब्रुवाणं भीम॑ तु धर्मराजो युधिष्ठिर: ।
उवाच सान्त्वयन् राजा मूर्ध्न्युपात्राय पाण्डवम् ।। ३६ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! धर्मराज राजा युधिष्ठिरने उपर्युक्त बातें
कहनेवाले पाण्डुनन्दन भीमसेनका मस्तक सूँधकर उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा
-- || ३६ ||
असंशयं महाबाहो हनिष्यसि सुयोधनम् ।
वर्षात् त्रयोदशादूर्ध्व सह गाण्डीवधन्चना ।। ३७ ।।
“महाबाहो! इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि तुम तेरहवें वर्षके बाद गाण्डीवधारी
अर्जुनके साथ जाकर युद्धमें सुयोधनको मार डालोगे || ३७ ।।
यत् त्वमाभाषसे पार्थ प्राप्त: काल इति प्रभो ।
अनृतं नोत्सहे वक्तुं न होतन्मम विद्यते ॥। ३८ ।।
'किंतु शक्तिशाली वीर कुन्तीकुमार! तुम जो यह कहते हो कि सुयोधनके वधका
अवसर आ गया है, वह ठीक नहीं है। मैं झूठ नहीं बोल सकता, मुझमें यह आदत नहीं
है ।। ३८ ।।
अन्तरेणापि कौन्तेय निकृतिं पापनिश्चयम् ।
हन्ता त्वमसि दुर्धर्ष सानुबन्धं सुयोधनम् ।। ३९ ।।
“कुन्तीनन्दन! तुम दुर्धर्ष वीर हो, छल-कपटका आश्रय लिये बिना भी पापपूर्ण विचार
रखनेवाले सुयोधनको सगे-सम्बन्धियोंसहित नष्ट कर सकते हो” ।। ३९ |।
एवं ब्रुवति भीम॑ तु धर्मराजे युधिष्ठिरे ।
आजगाम महाभागो बृहदश्वो महानृषि: ।। ४० ।।
धर्मराज युधिष्ठिर जब भीमसेनसे ऐसी बातें कह रहे थे, उसी समय महाभाग महर्षि
बृहदश्व वहाँ आ पहुँचे || ४० ।।
तमभिप्रेक्ष्य धर्मात्मा सम्प्राप्तं धर्मचारिणम् ।
शास्त्रवन्मधुपर्केण पूजयामास धर्मराट् ।। ४१ ।।
धर्मात्मा धर्मराज युधिष्ठिरने धर्मानुष्ठान करनेवाले उन महात्माको आया देख शास्त्रीय
विधिके अनुसार मधुपर्कद्वारा उनका पूजन किया || ४१ ।।
आश्चस्तं चैनमासीनमुपासीनो युधिष्ठिर: ।
अभिप्रेक्ष्य महाबाहुः कृपणं बह्वदभाषत ।। ४२ ।।
जब वे आसनपर बैठकर थकावटसे निवृत्त हो चुके अर्थात् विश्राम कर चुके, तब
महाबाहु युधिष्ठिर उनके पास ही बैठकर उन्हींकी ओर देखते हुए अत्यन्त दीनतापूर्ण वचन
बोले-- ।। ४२ ।।
अक्षद्यूते च भगवन् धन राज्यं च मे हृतम् |
आहूय निकृतिप्रज्जै: कितवैरक्षकोविदै: ।। ४३ ।।
“भगवन्! पासे फेंककर खेले जानेवाले जूएके लिये मुझे बुलाकर छल-कपटमें कुशल
तथा पासा डालनेकी कलामें निपुण धूर्त जुआरियोंने मेरे सारे धन तथा राज्यका अपहरण
कर लिया है ।। ४३ ।।
अनक्षज्ञस्य हि सतो निकृत्या पापनिश्चयै: ।
भार्या च मे सभां नीता प्राणेभ्योडपि गरीयसी ।। ४४ ।।
“मैं जूएका मर्मज्ञ नहीं हूँ। फिर भी पापपूर्ण विचार रखनेवाले उन दुष्टोंके द्वारा मेरी
प्राणोंसे भी अधिक गौरवशालिनी पत्नी द्रौपदी केश पकड़कर भरी सभामें लायी
गयी ।। ४४ ।।
पुनर्ययतेन मां जित्वा वनवासं सुदारुणम् ।
प्रावत्राजयन् महारण्यमजिनै: परिवारितम् ।। ४५ ।।
“एक बार जूएके संकटसे बच जानेपर पुनः द्यूतका आयोजन करके उन्होंने मुझे जीत
लिया और मृगचर्म पहनाकर वनवासका अत्यन्त दारुण कष्ट भोगनेके लिये इस महान् वनमें
निर्वासित कर दिया || ४५ ।।
अहं वने दुर्वसतीर्वसन् परमदु:खित: ।
अक्षद्यूताधिकारे च गिर: शृण्वन् सुदारुणा: ।। ४६ ।।
आततंतानां सुहृदां वाचो द्यूतप्रभूति शंसताम् ।
अहं हदि श्रिता: स्मृत्वा सर्वरात्रीविचिन्तयन् ।। ४७ ।।
“मैं अत्यन्त दुःखी हो बड़ी कठिनाईसे वनमें निवास करता हूँ। जिस सभामें जूआ
खेलनेका आयोजन किया गया था, वहाँ प्रतिपक्षी पुरुषोंके मुखसे मुझे अत्यन्त कठोर बातें
सुननी पड़ी हैं। इसके सिवा द्यूत आदि कार्योंका उल्लेख करते हुए मेरे दुःखातुर सुहृदोंने जो
संतापसूचक बातें कही हैं, वे सब मेरे हृदयमें स्थित हैं। मैं उन सब बातोंको याद करके सारी
रात चिन्तामें निमग्न रहता हूँ ।। ४६-४७ ।।
यस्मिंश्नैव समस्तानां प्राणा गाण्डीवधन्चनि ।
विना महात्मना तेन गतसत्त्व इवाभवम् ।। ४८ ।।
“इधर जिस गाण्डीव धनुषधारी अर्जुनमें हम सबके प्राण बसते हैं, वह भी हमसे अलग
है। महात्मा अर्जुनके बिना मैं निष्प्राण-सा हो गया हूँ ।। ४८ ।।
कदा द्रक्ष्यामि बीभत्सुं कृतास्त्रं पुनरागतम् ।
प्रियवादिनमक्षुद्रं दयायुक्तमतन्द्रित: ।। ४९ ।।
“मैं सदा निरालस्यभावसे यही सोचा करता हूँ कि श्रेष्ठ, दयालु और प्रियवादी अर्जुन
कब अस्त्रविद्या सीखकर फिर यहाँ आयेगा और मैं उसे भर आँख देखूँगा ।। ४९ ।।
अस्ति राजा मया कश्चिदल्पभाग्यतरो भुवि |
भवता दृष्टपूर्वो वा श्रुतपूर्वोडपि वा क्वचित् |
न मत्तो दुःखिततर: पुमानस्तीति मे मति: ।। ५० ।।
“क्या मेरे-जैसा अत्यन्त भाग्यहीन राजा इस पृथ्वीपर कोई दूसरा भी है? अथवा आपने
कहीं मेरे-जैसे किसी राजाको पहले कभी देखा या सुना है। मेरा तो यह विश्वास है कि
मुझसे बढ़कर अत्यन्त दुःखी मनुष्य दूसरा कोई नहीं है” || ५० ।।
ब॒हृदश्चव उवाच
यद् ब्रवीषि महाराज न मनत्तो विद्यते क्वचित् |
अल्पभाग्यतर: कश्रित् युमानस्तीति पाण्डव ।। ५१ ।।
अत्र ते वर्णयिष्यामि यदि शुश्रूषसे5नघ ।
यस्त्वत्तो दु:खिततरो राजा55सीत् पृथिवीपते ।। ५२ ।।
बृहदश्वच बोले--महाराज पाण्डुनन्दन! तुम जो यह कह रहे हो कि मुझसे बढ़कर
अत्यन्त भाग्यहीन कोई पुरुष कहीं भी नहीं है, उसके विषयमें मैं तुम्हें एक प्राचीन इतिहास
सुनाऊँगा। अनघ! पृथ्वीपते! यदि तुम सुनना चाहो तो मैं उस व्यक्तिका परिचय दूँगा, जो
इस पृथ्वीपर तुमसे भी अधिक दुःखी राजा था ।। ५१-५२ ।।
वैशम्पायन उवाच
अथैनमब्रवीद् राजा ब्रवीतु भगवानिति |
इमामवस्थां सम्प्राप्तं श्रोतुमिच्छामि पार्थिवम् ।। ५३ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तब राजा युधिष्ठिरने मुनिसे कहा--“भगवन्!
अवश्य कहिये। जो मेरी-जैसी संकटपूर्ण स्थितिमें पहुँचा हुआ हो, उस राजाका चरित्र मैं
सुनना चाहता हूँ || ५३ ।।
ब॒हृदश्च उवाच
शृणू राजन्नवहित: सह भ्रातृभिरच्युत ।
यस्त्वत्तो द:खिततरो राजा55सीत् पृथिवीपते ।। ५४ ।।
बृहदश्वने कहा--राजन्! अपने धर्मसे कभी च्युत न होनेवाले भूपाल! तुम
भाइयोंसहित सावधान होकर सुनो। इस पृथ्वीपर जो तुमसे भी अधिक दुःखी राजा था,
उसका परिचय देता हूँ ।। ५४ ।।
निषधेषु महीपालो वीरसेन इति श्रुत: ।
तस्य पुत्रो5भवन्नाम्ना नलो धर्मार्थकोविद: ।। ५५ ।।
निषधदेशमें वीरसेन नामसे प्रसिद्ध एक भूपाल हो गये हैं। उन्हींके पुत्रका नाम नल था।
जो धर्म और अर्थके तत्त्वज्ञ थे ।। ५५ ।।
स निकृत्या जितो राजा पुष्करेणेति न: श्रुतम्
वनवासं सुदुःखार्तों भार्यया न्यवसत् सह ।। ५६ ।।
हमने सुना है कि राजा नलको उनके भाई पुष्करने छलसे ही जूएके द्वारा जीत लिया
था और वे अत्यन्त दुःखसे आतुर हो अपनी पत्नीके साथ वनवासका दुःख भोगने लगे
थे ।। ५६ ।।
न तस्य दासा न रथो न भ्राता न च बान्धवा: ।
वने निवसतो राजज्ल्िष्यन्ते सम कदाचन ।। ५७ ।।
राजन्! उनके साथ न सेवक थे न रथ, न भाई थे न बान्धव। वनमें रहते समय उनके
पास ये वस्तुएँ कदापि शेष नहीं थीं || ५७ ।।
भवान् हि संवृतो वीरैर्भ्रातृभिदेवसम्मितै: ।
ब्रह्मकल्पैर्द्धिजाग्रयैश्व तस्मान्नाहसि शोचितुम् | ५८ ।।
तुम तो देवतुल्य पराक्रमी वीर भाइयोंसे घिरे हुए हो। ब्रह्माजीके समान तेजस्वी श्रेष्ठ
ब्राह्मण तुम्हारे चारों ओर बैठे हुए हैं। अतः तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये ।।
युधिछिर उवाच
विस्तरेणाहमिच्छामि नलस्य सुमहात्मन: ।
चरितं वदतां श्रेष्ठ तन्ममाख्यातुमहसि ।। ५९ ।।
युधिष्ठिर बोले--वक्ताओंमें श्रेष्ठ मुने! मैं उत्तम महामना राजा नलका चरित्र विस्तारके
साथ सुनना चाहता हूँ। आप मुझे बतानेकी कृपा करें ।। ५९ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि द्विपञ्चाशत्तमो5ध्याय: ।। ५२ ।।
इस प्रकार श्रीमह्या भारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें
बुहदश्चयुधिष्टिस्संवादविषयक बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ५२ ॥।
#:73:.8 #::23-:.7 (0) हि २ 7
त्रिपञज्चाशत्तमो<्ध्याय:
नल-दमयन्तीके गुणोंका वर्णन, उनका परस्पर हम राग
और हंसका दमयन्ती और नलको एक-दूसरेके संदेश
सुनाना
बृहृदश्चव उवाच
आसीद्ू राजा नलो नाम वीरसेनसुतो बली ।
उपपन्नो गुणैरिप्टे रूपवानश्वकोविद: ।। १ ।।
बृहदश्वने कहा--धर्मराज! निषधदेशमें वीरसेनके पुत्र नल नामसे प्रसिद्ध एक बलवान्
राजा हो गये हैं। वे उत्तम गुणोंसे सम्पन्न, रूपवान् और अश्वसंचालनकी कलामें कुशल
थे।।१।।
अतिष्ठन्मनुजेन्द्राणां मूर्थ्नि देवपतिर्य था ।
उपर्युपरि सर्वेषामादित्य इव तेजसा ।। २ ।।
ब्रह्मण्यो वेदविच्छूरो निषधेषु महीपति: ।
अक्षप्रिय: सत्यवादी महानक्षौहिणीपति: ।। ३ ।।
जैसे देवराज इन्द्र सम्पूर्ण देवताओंके शिरमौर हैं, उसी प्रकार राजा नलका स्थान
समस्त राजाओंके ऊपर था। वे तेजमें भगवान् सूर्यके समान सर्वोपरि थे। निषधदेशके
महाराज नल बड़े ब्राह्मणभक्त, वेदवेत्ता, शूरवीर, द्यूत-क्रीड़ाके प्रेमी, सत्यवादी, महान् और
एक अक्षौहिणी सेनाके स्वामी थे ।। २-३ ।।
ईप्सितो वरनारीणामुदार: संयतेन्द्रिय: ।
रक्षिता धन्विनां श्रेष्ठ: साक्षादिव मनु: स्वयम् ।। ४ ।।
वे श्रेष्ठ स्त्रियोंकोी प्रिय थे और उदार, जितेन्द्रिय, प्रजाजनोंके रक्षक तथा साक्षात् मनुके
समान धनुर्धरोंमें उत्तम थे || ४ ।।
तथैवासीद्ू विदर्भेषु भीमो भीमपराक्रम: ।
शूर: सर्वगुणैर्युक्त: प्रजाकाम: स चाप्रज: ।। ५ ।।
इसी प्रकार उन दिनों विदर्भदेशमें भयानक पराक्रमी भीम नामक राजा राज्य करते थे।
वे शूरवीर और सर्व-सद्गुणसम्पन्न थे। उन्हें कोई संतान नहीं थी। अतः संतानप्राप्तिकी
कामना उनके हृदयमें सदा बनी रहती थी ।।
स प्रजार्थे परं यत्नमकरोत् सुसमाहितः ।
तमभ्यगच्छद् ब्रद्मर्षिदमनो नाम भारत ।। ६ ।।
भारत! राजा भीमने अत्यन्त एकाग्रचित्त होकर संतानप्राप्तिके लिये महान् प्रयत्न
किया। उन्हीं दिनों उनके यहाँ दमन नामक ब्रह्मर्षि पधारे || ६ ।।
त॑ं स भीम: प्रजाकामस्तोषयामास धर्मवित् |
महिष्या सह राजेन्द्र सत्कारेण सुवर्चसम् ।। ७ ।।
तस्मै प्रसन्नो दमन: सभार्याय वरं ददौ ।
कन्यारत्नं कुमारांश्व त्रीनुदारान् महायशा: ।। ८ ।।
राजेन्द्र! धर्मज्ञ तथा संतानकी इच्छावाले उस भीमने अपनी रानीसहित उन
महातेजस्वी मुनिको पूर्ण सत्कार करके संतुष्ट किया। महायशस्वी दमन मुनिने प्रसन्न होकर
पत्नीसहित राजा भीमको एक कन्या और तीन उदार पुत्र प्रदान किये || ७-८ ।।
दमयन्तीं दमं दान्तं दमनं च सुवर्चसम् ।
उपपन्नान् गुणै: सर्वैर्भीमान् भीमपराक्रमान् ।। ९ ।।
कन्याका नाम था दमयन्ती और पुत्रोंके नाम थे--दम, दान्त तथा दमन। ये सभी बड़े
तेजस्वी थे। राजाके तीनों पुत्र गुणसम्पन्न, भयंकर वीर और भयानक पराक्रमी थे ।। ९ ।।
दमयन्ती तु रूपेण तेजसा यशसा श्रिया ।
सौभाग्येन च लोकेषु यश: प्राप सुमध्यमा || १० ।।
सुन्दर कटिप्रदेशवाली दमयन्ती रूप, तेज, यश, श्री और सौभाग्यके द्वारा तीनों
लोकोंमें विख्यात यशस्विनी हुई ।। १० ।।
अथ तां वयसि प्राप्ते दासीनां समलंकृताम् ।
शतं शतं सखीनां च पर्युपासच्छचीमिव ।। ११ ।।
जब उसने युवावस्थामें प्रवेश किया, उस समय सौ दासियाँ और सौ सखियाँ
वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत हो सदा उसकी सेवामें उपस्थित रहती थीं। मानो देवांगनाएँ शचीकी
उपासना करती हों ।। ११ ।।
तत्र सम राजते भैमी सर्वाभरणभूषिता ।
सखीमध्येडनवद्याजी विद्युत्सौदामनी यथा ।। १२ ।।
अनिन्द्द सुन्दर अंगोंवाली भीमकुमारी दमयन्ती सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित हो
सखियोंकी मण्डलीमें वैसी ही शोभा पाती थी, जैसे मेघमालाके बीच विद्युत् प्रकाशित हो
रही हो | १२ ।।
अतीव रूपसम्पन्ना श्रीरिवायतलोचना ।
न देवेषु न यक्षेषु तादूगू रूपवती क्वचित् ।। १३ ।।
वह लक्ष्मीके समान अत्यन्त सुन्दर रूपसे सुशोभित थी। उसके नेत्र विशाल थे।
देवताओं और यक्षोंमें भी वैसी सुन्दरी कन्या कहीं देखनेमें नहीं आती थी ।। १३ ।।
मानुषेष्वपि चान्येषु दृष्टपूर्वाथवा श्रुता ।
चित्तप्रसादनी बाला देवानामपि सुन्दरी ।। १४ ।।
मनुष्यों तथा अन्य वर्गके लोगोंमें भी वैसी सुन्दरी पहले न तो कभी देखी गयी थी और
न सुननेमें ही आयी थी। उस बालाको देखते ही चित्त प्रसन्न हो जाता था। वह देववर्गमें भी
श्रेष्ठ सुन्ददी समझी जाती थी ।। १४ ।।
नलश्न नरशार्दूलो लोकेष्वप्रतिमो भुवि ।
कन्दर्प इव रूपेण मूर्तिमानभवत् स्वयम् ।। १५ ।।
नरश्रेष्ठ नल भी इस भूतलके मनुष्योंमें अनुपम सुन्दर थे। उनका रूप देखकर ऐसा
जान पड़ता था, मानो नलके आकारमें स्वयं मूर्तिमान् कामदेव ही उत्पन्न हुआ हो ।। १५ ।।
तस्या: समीपे तु नल॑ प्रशशंसु: कुतूहलात् ।
नैषधस्य समीपे तु दमयन्तीं पुन: पुन: ।। १६ ।।
लोग कौतूहलवश दमयन्तीके समीप नलकी प्रशंसा करते थे और निषधराज नलके
निकट बार-बार दमयन्तीके सौन्दर्यकी सराहना किया करते थे ।। १६ ।।
तयोरदृष्ट: कामो< भूच्छृण्वतो: सतत॑ गुणान् |
अन्योन्यं प्रति कौन्तेय स व्यवर्धत हृच्छय: ।। १७ ।।
कुन्तीनन्दन! इस प्रकार निरन्तर एक-दूसरेके गुणोंको सुनते-सुनते उन दोनोंमें बिना
देखे ही परस्पर काम (अनुराग) उत्पन्न हो गया। उनकी वह कामना दिन-दिन बढ़ती ही
चली गयी ।। १७ ||
अशव्नुवन् नल: काम तदा धारयितुं हृदा ।
अन्तःपुरसमीपस्थे वन आस्ते रहोगत: ।। १८ ।।
जब राजा नल उस कामवेदनाको हृदयके भीतर छिपाये रखनेमें असमर्थ हो गये, तब
वे अन्तः:पुरके समीपवर्ती उपवनमें जाकर एकान्तमें बैठ गये ।। १८ ।।
स ददर्श ततो हंसान् जातरूपपरिष्कृतान् |
वने विचरतां तेषामेकं जग्राह पक्षिणम् ।। १९ |।
इतनेहीमें उनकी दृष्टि कुछ हंसोंपर पड़ी, जो सुवर्णमय पंखोंसे विभूषित थे। वे उसी
उपवनमें विचर रहे थे। राजाने उनमेंसे एक हंसको पकड़ लिया ।। १९ ||
ततो<न््तरिक्षगो वाचं व्याजहार नल॑ तदा ।
हन्तव्यो5स्मि न ते राजन् करिष्यामि तव प्रियम् ।। २० ।।
तब आकाशचारी हंसने उस समय नलसे कहा--'राजन्! आप मुझे न मारें। मैं आपका
प्रिय कार्य करूँगा ।।
५२0 ॥
॥/॥९
॥80॥/,
(७ ,7 )७॥]
दमयन्तीसकाशे त्वां कथयिष्यामि नैषध ।
यथा त्वदन्यं पुरुषं न सा मंस्यति कहिचित् ।। २१ ।।
“निषधनरेश! मैं दमयन्तीके निकट आपकी ऐसी प्रशंसा करूँगा, जिससे वह आपके
सिवा दूसरे किसी पुरुषको मनमें कभी स्थान न देगी” || २१ ।।
एवमुक्तस्ततो हंसमुत्ससर्ज महीपति: ।
ते तु हंसा: समुत्पत्य विदर्भानगमंस्तत: ।। २२ ।।
हंसके ऐसा कहनेपर राजा नलने उसे छोड़ दिया। फिर वे हंस वहाँसे उड़कर
विदर्भदेशमें गये || २२ ।।
विदर्भनगरीं गत्वा दमयन्त्यास्तदान्तिके ।
निपेतुस्ते गरुत्मन्त: सा ददर्श च तान् खगान् ।। २३ ।।
तब विदर्भनगरीमें जाकर वे सभी हंस दमयन्तीके निकट उतरे। दमयन्तीने भी उन
अद्भुत पक्षियोंकों देखा ।। २३ ।।
सा तानद्धुतरूपान् वै दृष्टया सखिगणावृता ।
ह्ृष्टा ग्रहीतुं खगमांस्त्वरमाणोपचक्रमे ।। २४ ।।
सखियोंसे घिरी हुई राजकुमारी दमयन्ती उन अपूर्व पक्षियोंकों देखकर बहुत प्रसन्न हुई
और तुरंत ही उन्हें पकड़नेकी चेष्टा करने लगी ।। २४ ।।
अथ हंसा विससूपु: सर्वतः प्रमदावने ।
एकैकशस्तदा कन्यास्तान् हंसान् समुपाद्रवन् ।। २५ ।।
तब हंस उस प्रमदावनमें सब ओर विचरण करने लगे। उस समय सभी राजकन्याओं ने
एक-एक करके उन सभी हंसोंका पीछा किया || २५ ।।
दमयन्ती तु यं हंसं समुपाधावदन्तिके ।
स मानुषीं गिरं कृत्वा दमयन्तीमथाब्रवीत् ।। २६ ।।
दमयन्ती जिस हंसके निकट दौड़ रही थी, उसने उससे मानवी वाणीमें कहा
-- || २६ ||
दमयन्ति नलो नाम निषधेषु महीपतिः ।
अश्विनो: सदृशो रूपे न समास्तस्य मानुषा: ।। २७ ।।
“राजकुमारी दमयन्ती! सुनो, निषथदेशमें नल नामसे प्रसिद्ध एक राजा हैं, जो
अश्विनीकुमारोंके समान सुन्दर हैं। मनुष्योंमें तो कोई उनके समान है ही नहीं ।। २७ ।।
कन्दर्प इव रूपेण मूर्तिमानभवत् स्वयम् ।
तस्य वै यदि भार्या त्वं भवेथा वरवर्णिनि ॥। २८ ।।
सफल ते भवेज्जन्म रूप॑ चेदं सुमध्यमे ।
वयं हि देवगन्धर्वमनुष्योरगराक्षसान् ।। २९ ।।
दृष्टवन्तो न चास्माभिरदर्दष्टपूर्वस्तथाविध: ।
त्वं चापि रत्नं नारीणां नरेषु च नलो वर: ।। ३० ।।
विशिष्टया विशिष्टेन संगमो गुणवान् भवेत् ।
'सुन्दरि! रूपकी दृष्टिसे तो वे मानो स्वयं मूर्तिमान् कामदेव-से ही प्रतीत होते हैं।
सुमध्यमे! यदि तुम उनकी पत्नी हो जाओ तो तुम्हारा जन्म और यह मनोहर रूप सफल हो
जाय। हमलोगोंने देवता, गन्धर्व, मनुष्य, नाग तथा राक्षसोंको भी देखा है; परंतु हमारी
दृष्टिमें अबतक उनके-जैसा कोई भी पुरुष पहले कभी नहीं आया है। तुम रमणियोंमें
रत्नस्वरूपा हो और नल पुरुषोंके मुकुटमणि हैं। यदि किसी विशिष्ट नारीका विशिष्ट पुरुषके
साथ संयोग हो तो वह विशेष गुणकारी होता है” | २८--३० $ ।।
277, | "कट 9८. | /' ५७४४-८९
20%, ४ ॥/८ ॥/, ५. ॥४- ७:४8२:7” ० २॥॥| ४८४६८ &:
एवमुक्ता तु हंसेन दमयन्ती विशाम्पते ।। ३१ ।।
अब्रवीत् तत्र तं हंसं त्वमप्येवं नले वद |
तथेत्युक्त्वाण्डज: कन्यां विदर्भस्य विशाम्पते ।
पुनरागम्य निषधान् नले सर्व न्यवेदयत् ।। ३२ ।।
राजन! हंसके इस प्रकार कहनेपर दमयन्तीने उससे कहा--'पक्षिराज! तुम नलके
निकट भी ऐसी ही बातें कहना'। राजन! विदर्भराजकुमारी दमयन्तीसे “तथास्तु” कहकर
वह हंस पुनः निषधदेशमें आया और उसने नलसे सब बातें निवेदन की ।। ३१-३२ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि हंसदमयन्तीसंवादे
त्रिपउ्चाशत्तमो<डध्याय: ।। ५३ ||
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें हंसदमयन्तीयंवादविषयक
तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ५३ ॥।
#व2न्ी ताज (9) आज ८
चतुष्पठ्चाशत्तमोडध्याय:
स्वर्गमें नारद और इन्द्रकी बातचीत, दमयन्तीके स्वयंवरके
लिये राजाओं तथा लोकपालोंका प्रस्थान
बृहदश्चव उवाच
दमयन्ती तु तच्छुत्वा वचो हंसस्य भारत ।
ततः प्रभृति न स्वस्था नल॑ प्रति बभूव सा ।॥। १ ।।
बृहदश्व मुनि कहते हैं--भारत! दमयन्तीने जबसे हंसकी बातें सुनीं, तबसे राजा
नलके प्रति अनुरक्त हो जानेके कारण वह अस्वस्थ रहने लगी ।। १ ।।
ततश्रिन्तापरा दीना विवर्णवदना कृशा |
बभूव दमयन्ती तु निः:श्वासपरमा तदा ।। २ ।॥।
तदनन्तर उसके मनमें सदा चिन्ता बनी रहती थी। स्वभावमें दैन्य आ गया। चेहरेका रंग
फीका पड़ गया और दमयन्ती दिन-दिन दुबली होने लगी। उस समय वह प्राय: लंबी साँसें
खींचती रहती थी ।। २ ।।
ऊर्ध्वदृष्टिर्यानपरा बभूवोन्मत्तदर्शना |
पाण्डुवर्णा क्षणेनाथ हृच्छयाविष्टचेतना ।। ३ ।।
ऊपरकी ओर निहारती हुई सदा नलके ध्यानमें परायण रहती थी। देखनेमें उन्मत्त-सी
जान पड़ती थी। उसका शरीर पाण्डुवर्णका हो गया। कामवेदनाकी अधिकतासे उसकी
चेतना क्षण-क्षणमें विलुप्त-सी हो जाती थी ।। ३ ।।
न शय्यासनभोगेषु रतिं विन्दति कहिचित् ।
ननक्तं न दिवा शेते हाहेति रुदती पुन: ।। ४ ।।
उसकी शबय्या, आसन तथा भोग-सामग्रियोंमें कहीं भी प्रीति नहीं होती थी। वह न तो
रातमें सोती और न दिनमें ही। बारंबार “हाय-हाय' करके रोती ही रहती थी ।। ४ ।।
तामस्वस्थां तदाकारां सख्यस्ता जज्ञुरिज्धितै:
ततो विदर्भपतये दमयन्त्या: सखीजन: ।। ५ ||
न्यवेदयत् तामस्वस्थां दमयन्तीं नरेश्वरे ।
तच्छुत्वा नृपतिर्भीमो दमयन्तीं सखीगणात् ।। ६ ।।
चिन्तयामास तत् कार्य सुमहत् स्वां सुतां प्रति ।
किमर्थ दुहिता मेउद्य नातिस्वस्थेव लक्ष्यते ।। ७ ।॥।
उसकी वैसी आकृति और अस्वस्थ-अवस्थाका क्या कारण है, यह सखियोंने संकेतसे
जान लिया। तदनन्तर दमयन्तीकी सखियोंने विदर्भनरेशको उसकी उस अस्वस्थ-अवस्थाके
विषयमें सूचना दी। सखियोंके मुखसे दमयन्तीके विषयमें वैसी बात सुनकर राजा भीमने
बहुत सोचा-विचारा, परंतु अपनी पुत्रीके लिये कोई विशेष महत्त्वपूर्ण कार्य उन्हें नहीं सूझ
पड़ा। वे सोचने लगे कि “क्यों मेरी पुत्री आजकल स्वस्थ नहीं दिखायी देती है?” || ५--
७ ।।
स समीक्ष्य महीपाल: स्वां सुतां प्राप्तयौवनाम् ।
अपश्यदात्मना कार्य दमयन्त्या: स्वयंवरम् । ८ ।।
राजाने बहुत सोचने-विचारनेके बाद यह निश्चय किया कि मेरी पुत्री अब युवावस्थामें
प्रवेश कर चुकी, अतः दमयन्तीके लिये स्वयंवर रचाना ही उन्हें अपना विशेष कर्तव्य
दिखायी दिया ॥। ८ ।।
स संनिमन्त्रयामास महीपालान् विशाम्पति: ।
एषो<नुभूयतां वीरा: स्वयंवर इति प्रभो ।॥। ९ ।।
राजन! विदर्भनरेशने सब राजाओंको इस प्रकार निमन्त्रित किया--“वीरो! मेरे यहाँ
कन्याका स्वयंवर है। आपलोग पधारकर इस उत्सवका आनन्द लें! ॥। ९ ।।
श्र॒त्वा तु पार्थिवा: सर्वे दमयन्त्या: स्वयंवरम् ।
अभिजमग्मुस्ततो भीम॑ राजानो भीमशासनात् ।। १० ।।
हस्त्यश्वरथघोषेण पूरयन्तो वसुन्धराम् ।
विचित्रमाल्याभरणैर्बलैर्दश्यै: स्वलंकृतै: । ११ ।।
दमयन्तीका स्वयंवर होने जा रहा है, यह सुनकर सभी नरेश विदर्भराज भीमके
आदेशसे हाथी, घोड़ों तथा रथोंकी तुमुल ध्वनिसे पृथ्वीको गुँजाते हुए उनकी राजधानीमें
गये। उस समय उनके साथ विचित्र माला एवं आभूषणोंसे विभूषित बहुत-से सैनिक देखे
जा रहे थे || १०-११ ।।
तेषां भीमो महाबाहु: पार्थिवानां महात्मनाम् |
यथाहमकरोत् पूजां तेडवसंस्तत्र पूजिता: ।। १२ ।।
महाबाहु राजा भीमने वहाँ पधारे हुए उन महामना नरेशोंका यथायोग्य पूजन किया।
तत्पश्चात् वे उनसे पूजित हो वहीं रहने लगे ।। १२ ।।
एतस्मिन्नेव काले तु सुराणामृषिसत्तमौ ।
अटमानौ महात्मानाविन्द्रलोकमितो गतौ ।। १३ ||
नारद: पर्वतश्नैव महाप्राज्ञौं महाव्रतौ ।
देवराजस्य भवनं विविशाते सुपूजिता ।। १४ ।।
इसी समय देवर्षिप्रवर महान् व्रतधारी महाप्राज्ञ नारद और पर्वत दोनों महात्मा इधरसे
घूमते हुए इन्द्रलोकमें गये। वहाँ उन्होंने देवराजके भवनमें प्रवेश किया। उस भवनमें उनका
विशेष आदर-सत्कार एवं पूजन किया गया ।। १३-१४ ।।
तावर्चयित्वा मघवा तत: कुशलमव्ययम् |
पप्रच्छानामयं चापि तयो: सर्वगतं विभु: ।। १५ ।।
उन दोनोंकी पूजा करके भगवान् इन्द्रने उनसे उन दोनोंके तथा सम्पूर्ण जगत्के कुशल-
मंगल एवं स्वस्थताका समाचार पूछा || १५ |।
नारद उवाच
आवयो: कुशल देव सर्वत्रगतमी श्वर ।
लोके च मघवन् कृत्स्ने नृपा: कुशलिनो विभो ॥। १६ ।।
तब नारदजीने कहा--प्रभो! देवेश्वर! हमलोगोंकी सर्वत्र कुशल है और समस्त
लोकमें भी राजालोग सकुशल हैं ।। १६ ।।
बृहदश्च उवाच
नारदस्य वच: श्रुत्वा पप्रच्छ बलवृत्रहा ।
धर्मज्ञा: पृथिवीपालास्त्यक्तजीवितयोधिन: ।। १७ ।।
शस्त्रेण निधन काले ये गच्छन्त्यपराड्मुखा: ।
अयं लोको$क्षयस्तेषां यथैव मम कामधुक् ।। १८ ।।
बृहदश्व कहते हैं--राजन्! नारदकी बात सुनकर बल और वृत्रासुरका वध करनेवाले
इन्द्रने उनसे पूछा--“मुने! जो धर्मज्ञ भूपाल अपने प्राणोंका मोह छोड़कर युद्ध करते हैं और
पीठ न दिखाकर लड़ते समय किसी श'स्त्रके आघातसे मृत्युको प्राप्त होते हैं, उनके लिये
हमारा यह स्वर्गलोक अक्षय हो जाता है और मेरी ही तरह उन्हें भी यह मनोवांछित भोग
प्रदान करता है ।। १७-१८ ।।
क्वनुते क्षत्रिया: शूरा न हि पश्यामि तानहम् ।
आगच्छतो महीपालान् दयितानतिथीन् मम ।। १९ |।
एवमुक्तस्तु शक्रेण नारद: प्रत्यभाषत ।
“वे शूरवीर क्षत्रिय कहाँ हैं? अपने उन प्रिय अतिथियोंको आजकल मैं यहाँ आते नहीं
देख रहा हूँ इन्द्रके ऐसा पूछनेपर नारदजीने उत्तर दिया || १९६ ।।
नारद उवाच
शृणु मे मघवन् येन न दृश्यन्ते महीक्षित: ।। २० ।।
विदर्भराज्ञो दुहिता दमयन्तीति विश्रुता ।
रूपेण समतिक्रान्ता पृथिव्यां सर्वयोषित: ।। २१ ।।
नारदजी बोले--मघवन्! मैं वह कारण बताता हूँ, जिससे राजालोग आजकल यहाँ
नहीं दिखायी देते, सुनिये। विदर्भनरेश भीमके यहाँ दमयन्ती नामसे प्रसिद्ध एक कन्या
उत्पन्न हुई है, जो मनोहर रूप-सौन्दर्यमें पृथ्वीकी सम्पूर्ण युवतियोंको लाँध गयी
है | २०-२१ ।।
तस्या: स्वयंवर: शक्र भविता न चिरादिव |
तत्र गच्छन्ति राजानो राजपुत्राश्ष सर्वश: ।। २२ ।।
इन्द्र! अब शीघ्र ही उसका स्वयंवर होनेवाला है, उसीमें सब राजा तथा राजकुमार जा
रहे हैं | २२ ।।
तां रत्नभूतां लोकस्य प्रार्थयन्तो महीक्षित: ।
काड्क्षन्ति सम विशेषेण बलवृत्रनिष्दन ।। २३ ।।
बल और वृत्रासुरके नाशक इन्द्र! दमयन्ती सम्पूर्ण जगत्का एक अद्धुत रत्न है।
इसलिये सब राजा उसे पानेकी विशेष अभिलाषा रखते हैं || २३ ।।
एतस्मिन् कथ्यमाने तु लोकपालाश्व साग्निका: ।
आजममुर्देवराजस्य समीपममरोत्तमा: ।। २४ ।।
यह बात हो ही रही थी कि देवश्रेष्ठ लोकपालगण अग्निसहित देवराजके समीप
आये ।। २४ ।।
ततस्ते शुश्रुवु: सर्वे नारदस्य वचो महत् |
श्रुत्वैव चाब्रुवन् हृष्टा गच्छामो वयमप्युत ।। २५ ।।
तदनन्तर उन सबने नारदजीकी ये विशिष्ट बातें सुनीं। सुनते ही वे सब-के-सब
हर्षोल्लाससे परिपूर्ण हो बोले--“हमलोग भी उस स्वयंवरमें चलें” || २५ ।।
ततः सर्वे महाराज सगणा: सहवाहना: ।
विदर्भानभिजम्मुस्ते यतः सर्वे महीक्षित: ।। २६ ।।
महाराज! तदनन्तर वे सब देवता अपने सेवकगणों और वाहनोंके साथ विदर्भदेशमें
गये, जहाँ समस्त भूपाल एकत्र हुए थे || २६ ।।
नलो<पि राजा कौन्तेय श्रुत्वा राज्ञां समागमम् ।
अभ्यगच्छददीनात्मा दमयन्तीमनुव्रत: ।। २७ ।।
कुन्तीनन्दन! उदारहृदय राजा नल भी विदर्भनगरमें समस्त राजाओंका समागम
सुनकर दमयन्तीमें अनुरक्त हो वहाँ गये || २७ ।।
अथ देवा: पथि नल ददृशुर्भूतले स्थितम् ।
साक्षादिव स्थितं मूर्त्या मन्मथं रूपसम्पदा || २८ ।।
उस समय देवताओंने पृथ्वीपर मार्गमें खड़े हुए राजा नलको देखा। रूप-सम्पत्तिकी
दृष्टिसे वे साक्षात् मूर्तिमान् कामदेव-से जान पड़ते थे || २८ ।।
त॑ दृष्टवा लोकपालास्ते भ्राजमानं यथा रविम् |
तस्थुर्विंगतसंकल्पा विस्मिता रूपसम्पदा ।। २९ |।
सूर्यके समान प्रकाशित होनेवाले महाराज नलको देखकर वे लोकपाल उनके रूप-
वैभवसे चकित हो दमयन्तीको पानेका संकल्प छोड़ बैठे || २९ ।।
ततोअन्तरिक्षे विष्टभ्य विमानानि दिवौकस: ।
अनब्रुवन् नैषधं राजन्नवतीर्य नभस्तलात् ।। ३० ।।
राजन्! तब उन देवताओंने अपने विमानोंको आकाशमें रोक दिया और वहाँसे नीचे
उतरकर निषधनरेशसे कहा-- || ३० ।।
भो भो निषधराजेन्द्र नल सत्यव्रतो भवान् |
अस्माकं कुरु साहाय्यं दूतो भव नरोत्तम ॥। ३१ ।।
“निषधदेशके महाराज नरश्रेष्ठ नल! आप सत्य-व्रती हैं, हमलोगोंकी सहायता कीजिये।
हमारे दूत बन जाइये” ।। ३१ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि इन्द्रनारदसंवादे
चतुष्पञ्चाशत्तमो<ध्याय: ।। ५४ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें इन्द्रनारदरसंवादविषयक
चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ५४ ॥/
ऑ2आ छटर () अऑसन अप
पञ्चपञज्चाशत्तमो< ध्याय:
नलका दूत बनकर राजमहलमें जाना और दमयन्तीको
देवताओंका संदेश सुनाना
बृहृदश्च उवाच
तेभ्य: प्रतिज्ञाय नलः करिष्य इति भारत ।
अथैतान् परिपप्रच्छ कृताञज्जलिरुपस्थित: ।। १ ।।
के वै भवन्त: कश्चासौ यस्याहं दूत ईप्सित: ।
किं च तद् वो मया कार्य कथयध्वं यथातथम् ।। २ ।।
बृहदश्व मुनि कहते हैं--भारत! देवताओंसे उनकी सहायता करनेकी प्रतिज्ञा करके
राजा नलने हाथ जोड़ पास जाकर उनसे पूछा--“आपलोग कौन हैं? और वह कौन व्यक्ति
है, जिसके पास जानेके लिये आपने मुझे दूत बनानेकी इच्छा की है तथा आपलोगोंका वह
कौन-सा कार्य है, जो मेरे द्वारा सम्पन्न होनेयोग्य है, यह ठीक-ठीक बताइये" ।। १-२ ।।
एवमुक्तो नैषधेन मघवानभ्यभाषत ।
अमरान् वै निबोधास्मान् दमयन्त्यर्थमागतान् ।। ३ ।।
निषधराज नलके इस प्रकार पूछनेपर इन्द्रने कहा--“भूपाल! तुम हमें देवता समझो,
हम दमयन्तीको प्राप्त करनेके लिये यहाँ आये हैं! ।। ३ ।।
अहमिन्द्रोड्यमग्निश्व तथैवायमपां पति: ।
शरीरान्तकरो नृणां यमो5यमपि पार्थिव ।। ४ ।।
त्वं वै समागतानस्मान् दमयन्त्यै निवेदय ।
लोकपाला महेन्द्राद्या: समायान्ति दिदृक्षव: ।। ५ ।।
“मैं इन्द्र हूँ, ये अग्निदेव हैं, ये जलके स्वामी वरुण और ये प्राणियोंके शरीरका नाश
करनेवाले साक्षात् यमराज हैं। आप दमयन्तीके पास जाकर उसे हमारे आगमनकी सूचना
दे दीजिये और कहिये--महेन्द्र आदि लोकपाल तुम्हें देखनेके लिये आ रहे हैं || ४-५ ।।
प्राप्तुमिच्छन्ति देवास्त्वां शक्रोग्निर्वरुणो यम: ।
तेषामन्यतमं देवं पतित्वे वरयस्व ह ।। ६ ।।
“इन्द्र, अग्नि, वरुण और यम--ये देवतालोग तुम्हें प्राप्त करना चाहते हैं। तुम उनमेंसे
किसी एक देवताको पतिरूपमें चुन लो' || ६ ।।
एवमुक्त: स शक्रेण नल: प्राउ्जलिरब्रवीत् |
एकार्थ समुपेतं मां न प्रेषयितुमहथ ।। ७ ।।
इन्द्रके ऐसा कहनेपर नल हाथ जोड़कर बोले--'देवताओ! मेरा भी एकमात्र यही
प्रयोजन है, जो आपलोगोंका है; अत: एक ही प्रयोजनके लिये आये हुए मुझे दूत बनाकर न
भेजिये' || ७ |।
कथं तु जातसंकल्प: स्त्रियमुत्सूजते पुमान् ।
परार्थमीदृशं वक्तुं तत् क्षमन्तु महेश्वरा: ।। ८ ।।
'देवेश्वरो! जिसके मनमें किसी स्त्रीको प्राप्त करनेका संकल्प हो गया है, वह पुरुष
उसी स्त्रीको दूसरेके लिये कैसे छोड़ सकता है? अतः आपलोग ऐसी बात कहनेके लिये
मुझे क्षमा करें" || ८ ।।
देवा ऊचु
करिष्य इति संभश्रुत्य पूर्वमस्मासु नैषध ।
न करिष्यसि कस्मात् त्वं त्रज नैषध मा चिरम् ।। ९ ।।
देवताओंने कहा--निषधनरेश! तुम पहले हमलोगोंसे हमारा कार्य सिद्ध करनेके लिये
प्रतिज्ञा कर चुके हो, फिर तुम उस प्रतिज्ञाका पालन कैसे नहीं करोगे? इसलिये निषधराज!
तुम शीघ्र जाओ; देर न करो || ९ |।
बृहृदश्च उवाच
एवमुक्त: स देवैस्तैनैषथ: पुनरब्रवीत् |
सुरक्षितानि वेश्मानि प्रवेष्टं कथमुत्सहे || १० ।।
बृहदश्व मुनि कहते हैं--राजन! उन देवताओंके ऐसा कहनेपर निषधनरेशने पुनः
उनसे पूछा--“विदर्भराजके सभी भवन (पहरेदारोंसे) सुरक्षित हैं। मैं उनमें कैसे प्रवेश कर
सकता हूँ?” ॥। १० ।।
प्रवेक्ष्यसीति तं शक्र: पुनरेवाभ्यभाषत ।
जगाम स ततथेत्युक्त्वा दमयन्त्या निवेशनम् ।। ११ ।।
तब इन्द्रने पुनः उत्तर दिया--'तुम वहाँ प्रवेश कर सकोगे।” तत्पश्चात् राजा नल
'तथास्तु” कहकर दमयन्तीके महलमें गये ।। ११ ।।
ददर्श तत्र वैदर्भी सखीगणसमावृताम् |
देदीप्यमानां वपुषा श्रिया च वरवर्णिनीम् ।। १२ ।।
वहाँ उन्होंने देखा, सखियोंसे घिरी हुई परम सुन्दरी विदर्भराजकुमारी दमयन्ती अपने
सुन्दर शरीर और दिव्य कान्तिसे अत्यन्त उद्धासित हो रही है ।। १२ ।।
अतीवसुकुमाराड्ीं तनुमध्यां सुलोचनाम् ।
आशक्षिपन्तीमिव प्रभां शशिन: स्वेन तेजसा ।। १३ ।।
उसके अंग परम सुकुमार हैं, कटिके ऊपरका भाग अत्यन्त पतला है और नेत्र बड़े
सुन्दर हैं एवं वह अपने तेजसे चन्द्रमाकी प्रभाको भी तिरस्कृत-सी कर रही है ।। १३ ।।
तस्य दृष्टवैव ववृधे कामस्तां चारुहासिनीम् ।
सत्यं चिकीर्षमाणस्तु धारयामास हृच्छयम् ।। १४ ।।
उस मनोहर मुसकानवाली राजकुमारीको देखते ही नलके हृदयमें कामाग्नि प्रज्वलित
हो उठी; तथापि अपनी प्रतिज्ञाको सत्य करनेकी इच्छासे उन्होंने उस कामवेदनाको मनमें
ही रोक लिया ।। १४ ।।
ततस्ता नैषध॑ दृष्टवा सम्भ्रान्ता: परमाड्ना: ।
आसनेभ्य: समुत्पेतुस्तेजसा तस्य धर्षिता: || १५ ।।
निषधराजको वहाँ आये देख अन्तःपुरकी सारी सुन्दरी स्त्रियाँ चकित हो गयीं और
उनके तेजसे तिरस्कृत हो अपने आसनोंसे उठकर खड़ी हो गयीं ।। १५ ।।
प्रशशंसुश्न सुप्रीता नल॑ ता विस्मयान्विता: ।
न चैनमभ्यभाषन्त मनोभिस्त्वभ्यपूजयन् ।। १६ ।।
अत्यन्त प्रसन्न और आश्वर्यचकित होकर उन सबने राजा नलके सौन्दर्यकी प्रशंसा की।
उन्होंने उनसे वार्तालाप नहीं किया; परंतु मन-ही-मन उनका बड़ा आदर किया ।। १६ ।।
अहो रूपमहो कान्तिरहो धैर्य महात्मन: ।
को<यं देवो5थवा यक्षो गन्धर्वो वा भविष्यति ।। १७ ।।
वे सोचने लगीं--“अहो! इनका रूप अद्भुत है, कान्ति बड़ी मनोहर है तथा इन
महात्माका धैर्य भी अनूठा है। न जाने ये हैं कौन? सम्भव है, देवता, यक्ष अथवा गन्धर्व
हों! ।। १७ ।।
न तास्तं शवनुवन्ति सम व्याहर्तुमपि किंचन ।
तेजसा धर्षितास्तस्य लज्जावत्यो वराड़ना ।। १८ ।।
नलके तेजसे प्रतिहत हुई वे लजीली सुन्दरियाँ उनसे कुछ बोल भी न सकी ।। १८ ।।
अथीैनं स्मयमान तु स्मितपूर्वांभिभाषिणी ।
दमयन्ती नलं॑ वीरमभ्यभाषत विस्मिता ।। १९ ।।
तब मुसकराकर बातचीत करनेवाली दमयन्तीने विस्मित होकर मुसकराते हुए वीर
नलसे इस प्रकार पूछा-- ।। १९ |।
कर्त्वं सर्वानवद्याड़ मम हच्छयवर्धन ।
प्राप्तोडस्पमरवद् वीर ज्ञातुमिच्छामि तेडनघ ।। २० ।।
कथमागमनं चेह कथं चासि न लक्षित: ।
सुरक्षितं हि मे वेश्म राजा चैवोग्रशासन: ।। २१ ।।
एवमुक्तस्तु वैदर्भ्या नलस्तां प्रत्युवाच ह ।
“आप कौन हैं? आपके सम्पूर्ण अंग निर्दोष एवं परम सुन्दर हैं। आप मेरे हृदयकी
कामाग्निको बढ़ा रहे हैं। निष्पाप वीर! आप देवताओंके समान यहाँ आ पहुँचे हैं। मैं
आपका परिचय पाना चाहती हूँ। आपका इस रनिवासमें आना कैसे सम्भव हुआ? आपको
किसीने देखा कैसे नहीं? मेरा यह महल अत्यन्त सुरक्षित है और यहाँके राजाका शासन
बड़ा कठोर है--वे अपराधियोंको बड़ा कठोर दण्ड देते हैं।” विदर्भराजकुमारीके ऐसा
पूछनेपर नलने इस प्रकार उत्तर दिया || २०-२१ ६ ।।
नल उवाच
नल॑ मां विद्धि कल्याणि देवदूतमिहागतम् ।। २२ ।।
देवास्त्वां प्राप्तुमिच्छन्ति शक्रोडग्निर्वरुणो यम: ।
तेषामन्यतमं देवं पतिं वरय शोभने ।। २३ ।।
नलने कहा--कल्याणि! तुम मुझे नल समझो। मैं देवताओंका दूत बनकर यहाँ आया
हूँ। इन्द्र, अग्नि, वरुण और यम देवता तुम्हें प्राप्त करना चाहते हैं। शोभने! तुम उनमेंसे
किसी एकको अपना पति चुन लो || २२-२३ ।।
तेषामेव प्रभावेण प्रविष्टोड5हमलक्षित: ।
प्रविशन्तं न मां कश्चिदपश्यन्नाप्पवारयत् ।। २४ ।।
उन्हीं देवताओंके प्रभावसे मैं इस महलके भीतर आया हूँ और मुझे कोई देख न सका
है। भीतर प्रवेश करते समय न तो किसीने मुझे देखा है और न रोका ही है || २४ ।।
एतदर्थमहं भटद्रे प्रेषित: सुरसत्तमै: ।
एतच्छुत्वा शुभे बुद्धि प्रकुरुष्व यथेच्छसि ।। २५ ।।
भद्रे! इसीलिये श्रेष्ठ देवताओंने मुझे यहाँ भेजा है। शुभे! इसे सुनकर तुम्हारी जैसी
इच्छा हो, वैसा निश्चय करो ।। २५ |।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि नलस्य देवदौत्ये
पञ्चपज्चाशत्तमो<ध्याय: ।। ५५ ||
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें नलके देवदूत बनकर
दमयन्तीके पास जानेसे सम्बन्ध रखनेवाला पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ५५ ॥/
छः “+(9) #ल्दिम #औ2४22
षट्पज्चाशत्तमो< ध्याय:
नलका दमयन्तीसे वार्तालाप करना और लौटकर
देवताओंको उसका संदेश सुनाना
बृहदश्व उवाच
सा नमस्कृत्य देवेभ्य: प्रहस्य नलमब्रवीत् ।
प्रणयस्व यथाश्रद्धं राजन् कि करवाणि ते ।। १ ।।
बृहदश्व मुनि कहते हैं--राजन्! दमयन्तीने अपनी श्रद्धाके अनुसार देवताओंको
नमस्कार करके नलसे हँसकर कहा--“महाराज! आप ही मेरा पाणिग्रहण कीजिये और
बताइये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ || १ ।।
अहं चैव हि यच्चान्यन्ममास्ति वसु किंचन ।
तत् सर्व तव विश्रब्धं कुरु प्रणयमी श्वर ।। २ ।।
“नरेश्वर! मैं तथा मेरा जो कुछ दूसरा धन है, वह सब आपका है। आप पूर्ण विश्वस्त
होकर मेरे साथ विवाह कीजिये ।। २ ।।
हंसानां वचन यत् तु तन्मां दहति पार्थिव ।
त्वत्कृते हि मया वीर राजान: संनिपातिता: ।। ३ ।।
'भूपाल! हंसोंकी जो बात मैंने सुनी" वह (मेरे हृदयमें कामाग्नि प्रजजलित करके सदा)
मुझे दग्ध करती रहती है। वीर! आपहीको पानेके लिये मैंने यहाँ समस्त राजाओंका
सम्मेलन कराया है ।। ३ ।।
यदि त्वं भजमानां मां प्रत्याख्यास्यसि मानद ।
विषमग्निं जल॑ं रज्जुमास्थास्ये तव कारणात् ।। ४ ।।
“मानद! आपके चरणोंमें भक्ति रखनेवाली मुझ दासीको यदि आप स्वीकार नहीं करेंगे
तो मैं आपके ही कारण विष, अग्नि, जल अथवा फाँसीको निमित्त बनाकर अपना प्राण
त्याग दूँगी' ।। ४ ।।
एवमुक्तस्तु वैदर्भ्या नलस्तां प्रत्युवाच ह |
तिष्ठत्सु लोकपालेषु कथं मानुषमिच्छसि ।। ५ ।।
दमयन्तीके ऐसा कहनेपर राजा नलने उससे पूछा--'(तुम्हें पानेके लिये उत्सुक)
लोकपालोंके होते हुए तुम एक साधारण मनुष्यको कैसे पति बनाना चाहती हो? ।। ५ ।।
येषामहं लोककृतामीश्व॒राणां महात्मनाम् |
न पादरजसा तुल्यो मनस्ते तेषु वर्तताम् ।। ६ ।।
“जिन लोकस्रष्टा महामना ईश्वरोंके चरणोंकी धूलके समान भी मैं नहीं हूँ, उन्हींकी ओर
तुम्हें मन लगाना चाहिये ।। ६ ।।
विप्रियं ह्याचरन् मर्त्यों देवानां मृत्युमृच्छति ।
त्राहि मामनवद्याड्ि वरयस्व सुरोत्तमान् । ७ ।।
“निर्दोष अंगोंवाली सुन्दरी! देवताओंके विरुद्ध चेष्टा करनेवाला मानव मृत्युको प्राप्त हो
जाता है; अतः तुम मुझे बचाओ और उन श्रेष्ठ देवताओंका ही वरण करो ।।
विरजांसि च वासांसि दिव्य॒ज्षित्रा: स्रजस्तथा ।
भूषणानि तु मुख्यानि देवान् प्राप्य तु भुड़क्ष्य वै ।। ८ ।।
“तथा देवताओंको ही पाकर निर्मल वस्त्र, दिव्य एवं विचित्र पुष्पहार तथा मुख्य-मुख्य
आभूषणोंका सुख भोगो ।। ८ ।।
य इमां पृथिवीं कृत्स्नां संक्षिप्य ग्रसते पुन: ।
हुताशमीशं देवानां का त॑ं न वरयेत् पतिम् ।। ९ ।।
“जो इस सारी पृथ्वीको संक्षिप्त करके पुनः अपना ग्रास बना लेते हैं, उन देवेश्वर
अग्निको कौन नारी अपना पति न चुनेगी? ।। ९ ।।
यस्य दण्डभयात् सर्वे भूतग्रामा: समागता: ।
धर्ममेवानुरुध्यन्ति का त॑ं न वरयेत् पतिम् ।। १० ।।
“जिनके दण्डके भयसे संसारमें आये हुए समस्त प्राणिसमुदाय धर्मका ही पालन करते
हैं, उन यमराजको कौन अपना पति नहीं वरेगी? ।। १० ।।
धर्मात्मानं महात्मानं दैत्यदानवमर्दनम् |
महेन्द्र सर्वदेवानां का त॑ न वरयेत् पतिम् ।। ११ ।।
'दैत्यों और दानवोंका मर्दन करनेवाले धर्मात्मा महामना सर्वदेवेश्वर महेन्द्रका कौन
नारी पतिरूपमें वरण न करेगी? ।। ११ ।।
क्रियतामविशड्केन मनसा यदि मन्यसे ।
वरुणं लोकपालानां सुहृद्वाक्यमिदं शृूणु ।। १२ ।।
“यदि तुम ठीक समझती हो तो लोकपालोंमें प्रसिद्ध वरुणको नि:शंक होकर अपना
पति बनाओ। यह एक हितैषी सुहृदका वचन है, इसे सुनो” | १२ ।।
नैषधेनैवमुक्ता सा दमयन्ती वचो<ब्रवीत् ।
समाप्लुताभ्यां नेत्राभ्यां शोकजेनाथ वारिणा ॥। १३ ।।
तदनन्तर निषधराज नलके ऐसा कहनेपर दमयन्ती शोकाश्रुओंसे भरे हुए नेत्रोंद्वारा
देखती हुई इस प्रकार बोली-- ।। १३ ।।
देवेभ्यो5हें नमस्कृत्य सर्वेभ्य: पृथिवीपते ।
वृणे त्वामेव भर्तारें सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ।। १४ ।।
'पृथ्वीपते! मैं सम्पूर्ण देवताओंको नमस्कार करके आपहीको अपना पति चुनती हूँ।
यह मैंने आपसे सच्ची बात कही है” || १४ ।।
तामुवाच ततो राजा वेपमानां कृताञ्जलिम् |
दौत्येनागत्य कल्याणि तथा भद्रे विधीयताम् ॥। १५ ।।
ऐसा कहकर दमयन्ती दोनों हाथ जोड़े थर-थर काँपने लगी। उस अवस्थामें राजा नलने
उससे कहा--“कल्याणि! मैं इस समय दूतका कार्य करनेके लिये आया हूँ; अतः भद्रे! इस
समय वही करो जो मेरे स्वरूपके अनुरूप हो ।। १५ ।।
कथं हाहं प्रतिश्रुत्य देवतानां विशेषतः ।
परार्थे यत्नमारभ्य कथं स्वार्थमिहोत्सहे ।। १६ ।।
“मैं देवताओंके सामने प्रतिज्ञा करके विशेषत: परोपकारके लिये प्रयत्न आरम्भ करके
अब यहाँ स्वार्थ-साधनके लिये कैसे उत्साहित हो सकता हूँ? ।। १६ ।।
एष धर्मो यदि स्वार्थो ममापि भविता ततः ।
एवं स्वार्थ करिष्यामि तथा भद्रे विधीयताम् ।। १७ ।।
“यदि यह धर्म सुरक्षित रहे तो उससे मेरे स्वार्थकी भी सिद्धि हो सकती है। भद्रे! तुम
ऐसा प्रयत्न करो, जिससे मैं इस प्रकार धर्मयुक्त स्वार्थकी सिद्धि करूँ: || १७ ।।
ततो बाष्पाकुलां वाचं दमयन्ती शुचिस्मिता ।
प्रत्याहरन्ती शनकैर्नलं राजानमब्रवीत् ।। १८ ।।
उपायो<यं मया दृष्टो निरपायो नरेश्वर ।
येन दोषो न भविता तव राजन् कथंचन ।। १९ ।।
यह सुनकर पवित्र मुसकानवाली दमयन्ती राजा नलसे धीरे-धीरे अश्लुगद्गदवाणीमें
बोली--“नरेश्वर! मैंने उस निर्दोष उपायको दूँढ़ निकाला है, राजन! जिससे आपको किसी
प्रकार दोष नहीं लगेगा ।। १८-१९ ।।
त्वं चैव हि नरश्रेष्ठ देवाश्रैन्द्रपुरोगमा: ।
आयान्तु सहिता: सर्वे मम यत्र स्वयंवर: । २० ||
“नरश्रेष्ठी] आप और इन्द्र आदि सब देवता एक ही साथ उस रंगमण्डपमें पधारें, जहाँ
मेरा स्वयंवर होनेवाला है || २० ।।
ततो<5हं लोकपालानां संनिधौ त्वां नरेश्वर ।
वरयिष्ये नरव्यात्र नैवं दोषो भविष्यति ।। २१ ।।
“नरेश्वर! नरव्याप्र! तदनन्तर मैं उन लोकपालोंके समीप ही आपका वरण कर लूँगी।
ऐसा करनेसे (आपको कोई) दोष नहीं लगेगा” || २१ ।।
एवमुक्तस्तु वैदर्भ्या नलो राजा विशाम्पते ।
आजमगाम पुनस्तत्र यत्र देवा: समागता: ।। २२ ।।
युधिष्ठिर! विदर्भराजकुमारीके ऐसा कहनेपर राजा नल पुनः वहीं लौट आये, जहाँ
देवताओंसे उनकी भेंट हुई थी ।। २२ ।।
तमपश्यंस्तथा5<5यान्तं लोकपाला महेश्वरा: ।
दृष्टवा चैनं ततो<पृच्छन् वृत्तान्तं सर्वमेव तम् ।। २३ ।।
महान् शक्तिशाली लोकपालोंने इस प्रकार राजा नलको लौटते देखा और उन्हें देखकर
उनसे सारा वृत्तान्त पूछा-- || २३ ।।
कच्चिद् दृष्टा त्वया राजन् दमयन्ती शुचिस्मिता ।
किमब्रवीच्च न: सर्वान् वद भूमिप तेडनघ ।। २४ ।।
“राजन! क्या तुमने पवित्र मुसकानवाली दमयन्तीको देखा है? पापरहित भूपाल! हम
सब लोगोंको उसने क्या संदेश दिया, बताओ” ।। २४ ।।
नल उवाच
भवद्धिरहमादिष्टो दमयन्त्या निवेशनम् |
प्रविष्ट: सुमहाकक्ष॑ दण्डिभि: स्थविरैर्वृतम् ।। २५ ।।
नलने कहा--देवताओ! आपकी आज्ञा पाकर मैं दमयन्तीके महलमें गया। उसकी
ड्योढ़ी विशाल थी और दण्डधारी बूढ़े रक्षक उसे घेरकर पहरा दे रहे थे || २५ ।।
प्रविशन्तं च मां तत्र न कश्निद् दृष्टवान् नर: ।
ऋते तां पार्थिवसुतां भवतामेव तेजसा ।। २६ ।।
आपलोगोंके प्रभावसे उसमें प्रवेश करते समय मुझे वहाँ उस राजकन्या दमयन्तीके
सिवा दूसरे किसी मनुष्यने नहीं देखा || २६ ।।
सख्यश्चास्या मया दृष्टास्ताभिश्नाप्युपलक्षित: ।
विस्मिताश्चा भवन् सर्वा दृष्टवा मां विबुधेश्वरा: । २७ ।।
दमयन्तीकी सखियोंको भी मैंने देखा और उन सखियोंने भी मुझे देखा। देवेश्वरो! वे
सब मुझे देखकर आश्वर्यचकित हो गयीं ।। २७ ।।
वर्ण्यमानेषु च मया भवत्सु रुचिरानना |
मामेव गतसंकल्पा वृणीते सा सुरोत्तमा: ।। २८ ।॥।
श्रेष्ठ देवताओ! जब मैं आपलोगोंके प्रभावका वर्णन करने लगा, उस समय सुमुखी
दमयन्तीने मुझमें ही अपना मानसिक संकल्प रखकर मेरा ही वरण किया ।। २८ ।।
अब्रवीच्चैव मां बाला आयान्तु सहिता: सुरा: ।
त्वया सह नरव्याप्र मम यत्र स्वयंवर: ।। २९ ।।
उस बालाने मुझसे यह भी कहा कि “नरव्याप्र! सब देवता आपके साथ उस स्थानपर
पधारें, जहाँ मेरा स्वयंवर होनेवाला है || २९ ।।
तेषामहं संनिधौ त्वां वरयिष्यामि नैषध ।
एवं तव महाबाहो दोषो न भवितेति ह ।। ३० ।।
“निषधराज! मैं उन देवताओंके समीप ही आपका वरण कर लूँगी। महाबाहो! ऐसा
होनेपर आपको दोष नहीं लगेगा” || ३० ।।
एतावदेव विबुधा यथावृत्तमुपाह्तम्
मयाइशेषे प्रमाणं तु भवन्तस्त्रिदशेश्वरा: ।। ३१ ।।
देवताओ! दमयन्तीके महलका इतना ही वृत्तान्त है, जिसे मैंने ठीक-ठीक निवेदन कर
दिया। देवेश्वरगण! अब इस सम्पूर्ण विषयमें आप सब देवतालोग ही प्रमाण हैं, अर्थात् आप
ही साक्षी हैं || ३१ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि नलकर्त्कदेवदौत्ये
षट्पञज्चाशत्तमो<ध्याय: ।। ५६ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें नलकर्तृक देवदौत्यविषयक
छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ५६ ॥
हि आय न [के है आम
सप्तपञ्चाशत्तमो<्ध्याय:
स्वयंवरमें दमयन्तीद्वारा नलका वरण, देवताओंका नलको
वर देना, देवताओं और राजाओंका प्रस्थान, नल-
दमयन्तीका विवाह एवं नलका यज्ञानुष्ठान और
संतानोत्पादन
बृहदश्व उवाच
अथ काले शुभे प्राप्ते तिथौ पुण्ये क्षणे तथा ।
आजुहाव महीपालान् भीमो राजा स्वयंवरे ।। १ ।।
बृहदश्व मुनि कहते हैं--राजन्! तदनन्तर शुभ समय, उत्तम तिथि तथा पुण्यदायक
अवसर आनेपर राजा भीमने समस्त भूपालोंको स्वयंवरके लिये बुलाया ।। १ ।।
तच्छुत्वा पृथिवीपाला: सर्वे हच्छयपीडिता: ।
त्वरिता: समुपाजम्मुर्दमयन्तीम भीप्सव: ।। २ ।।
यह सुनकर सब भूपाल कामपीड़ित हो दमयन्तीको पानेकी इच्छासे तुरंत चल
दिये || २ ।।
कनकस्तम्भरुचिरं तोरणेन विराजितम् |
विविशुस्ते नृपा रड़ं महासिंहा इवाचलम् ।। ३ ।।
रंगमण्डप सोनेके खम्भोंसे सुशोभित था। तोरणसे उसकी शोभा और बढ़ गयी थी।
जैसे बड़े-बड़े सिंह पर्वतकी गुफामें प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार उन नरेशोंने रंगमण्डपमें
प्रवेश किया ।। ३ ।।
सुरभिस्रग्धरा: सर्वे प्रमृष्टमणिकुण्डला: ।। ४ ।।
वहाँ सब भूपाल भिन्न-भिन्न आसनोंपर बैठ गये। सबने सुगन्धित फूलोंकी माला धारण
कर रखी थी और सबके कानोंमें विशुद्ध मणिमय कुण्डल झिलमिला रहे थे ।। ४ ।।
तां राजसमितिं पुण्यां नागैभोंगवर्तीमिव ।
सम्पूर्णा पुरुषव्याघ्रैव्यप्रि्गिरिगुहामिव ।। ५ ।।
व्याप्रोंसे भरी हुई पर्वतकी गुफा तथा नागोंसे सुशोभित भोगवती पुरीकी भाँति वह
पुण्यमयी राजसभा नरश्रेष्ठ भूपालोंसे भरी दिखायी देती थी ।। ५ ।।
तत्र सम पीना दृश्यन्ते बाहव: परिघोपमा: ।
आकारवर्णसुश्लक्ष्णा: पञज्चशीर्षा इवोरगा: ।। ६ ।।
वहाँ भूमिपालोंकी (पाँच अँगुलियोंसे युक्त) परिघ-जैसी मोटी भुजाएँ आकार-प्रकार
और रंगमें अत्यन्त सुन्दर तथा पाँच मस्तकवाले सर्पके समान दिखायी देती थीं ।। ६ ।।
सुकेशान्तानि चारूणि सुनासाक्षिभ्रुवाणि च ।
मुखानि राज्ञां शोभन्ते नक्षत्राणि यथा दिवि ।। ७ ।।
जैसे आकाशकमें तारे प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार सुन्दर केशान्तभागसे विभूषित एवं
रुचिर नासिका, नेत्र और भौंहोंसे युक्त राजाओंके मनोहर मुख सुशोभित हो रहे थे || ७ ।।
दमयन्ती ततो रजझ्ुूं प्रविवेश शुभानना ।
मुष्णन्ती प्रभया राज्ञां चक्षूंषि च मनांसि च ॥। ८ ।।
तदनन्तर अपनी प्रभासे राजाओंके नयनोंको लुभाती और चित्तको चुराती हुई सुन्दर
मुखवाली दमयन्तीने रंगभूमिमें प्रवेश किया ।। ८ ।।
तस्या गात्रेषु पतिता तेषां दृष्टिर्महात्मनाम् ।
तत्र तत्रैव सक्ता5भूज्न चचाल च पश्यताम् ॥। ९ ।।
वहाँ आते ही दमयन्तीके अंगोंपर उन महामना नरेशोंकी दृष्टि पड़ी। उसे देखनेवाले
राजाओंमेंसे जिसकी दृष्टि दमयन्तीके जिस अंगपर पड़ी, वहीं लग गयी, वहाँसे हट न
सकी ।। ९ |।
ततः संकीर्त्यमानेषु राज्ञां नामसु भारत ।
ददर्श भैमी पुरुषान् पज्चतुल्याकृतीनिह ।। १० ।।
भारत! तत्पश्चात् राजाओंके नाम, रूप, यश और पराक्रम आदिका परिचय दिया जाने
लगा। भीमकुमारी दमयन्तीने आगे बढ़कर देखा, यहाँ तो एक जगह पाँच पुरुष एक ही
आकृतिके बैठे हुए हैं || १० ।।
तान् समीक्ष्य ततः सर्वान् निर्विशेषाकृतीन् स्थितान् ।
संदेहादथ वैदर्भी नाभ्यजानान्नलं नृपम् ।। ११ ।।
उन सबके रूप-रंग आदिमें कोई अन्तर नहीं था। वे पाँचों नलके ही समान दिखायी देते
थे। उन्हें एक जगह स्थित देखकर संदेह उत्पन्न हो जानेसे विदर्भराजकुमारी वास्तविक
राजा नलको पहचान न सकी ॥।| ११ ।।
यं यं हि ददृशे तेषां तं त॑ मेने नल॑ नृपम् ।
सा चिन्तयन्ती बुद्धयाथ तर्कयामास भाविनी ।। १२ ।।
वह उनमेंसे जिस-जिस व्यक्तिपर दृष्टि डालती, उसी-उसीको राजा नल समझने लगती
थी। वह भाविनी राजकन्या बुद्धिसे सोच-विचारकर मन-ही-मन तर्क करने लगी ।। १२ ।।
कथं हि देवाज्जानीयां कथं विद्यां नल॑ नृपम् ।
एवं संचिन्तयन्ती सा वैदर्भी भृशदु:खिता ।। १३ ।।
अहो! मैं कैसे देवताओंको जानूँ और किस प्रकार राजा नलको पहिचानूँ।” इस चिन्तामें
पड़कर विदर्भराजकुमारी दमयन्तीको बड़ा दुःख हुआ ।। १३ ।।
श्रुतानि देवलिड्रानि तर्कयामास भारत ।
देवानां यानि लिड्डानि स्थविरेभ्य: श्रुतानि मे |। १४ ।।
तानीह तिष्ठतां भूमावेकस्थापि न लक्षये ।
सा विनिश्ित्य बहुधा विचार्य च पुन: पुनः: ।। १५ ।।
शरणं प्रति देवानां प्राप्तकालममन्यत ।
भारत! उसने अपने सुने हुए देवचिह्ञोंपर भी विचार किया। वह मन-ही-मन कहने लगी
'मैंने बड़े-बूढ़े पुरुषोंसे देवताओंकी पहचान करानेवाले जो लक्षण या चिह्न सुन रखे हैं, उन्हें
यहाँ भूमिपर बैठे हुए इन पाँच पुरुषोंमेंसे किसी एकमें भी नहीं देख पाती हूँ।! उसने अनेक
प्रकारसे निश्चय और बार-बार विचार करके देवताओंकी शरणमें जाना ही समयोचित
कर्तव्य समझा ।। १४-१५३ ||
वाचा च मनसा चैव नमस्कार प्रयुज्य सा ।। १६ ।।
देवेभ्य: प्रा्जलिर्भूत्वा वेपमानेदमब्रवीत् ।
हंसानां वचन श्रुत्वा यथा मे नैषधो वृतः ।
पतित्वे तेन सत्येन देवास्तं प्रदिशन्तु मे ।। १७ ।।
तत्पश्चात् मन एवं वाणीद्वारा देवताओंको नमस्कार करके दोनों हाथ जोड़कर काँपती
हुई वह इस प्रकार बोली--'मैंने हंसोंकी बात सुनकर निषधनरेश नलका पतिरूपमें वरण
कर लिया है। इस सत्यके प्रभावसे देवतालोग स्वयं ही मुझे राजा नलकी पहचान करा दें ।।
मनसा वचसा चैव यथा नाभिचराम्यहम् |
तेन सत्येन विबुधास्तमेव प्रदिशन्तु मे ।। १८ ।।
“यदि मैं मन, वाणी एवं क्रियाद्वारा कभी सदाचारसे च्युत नहीं हुई हूँ तो उस सत्यके
प्रभावसे देवतालोग मुझे राजा नलकी ही प्राप्ति करावें || १८ ।।
यथा देवै: स मे भर्ता विहितो निषधाधिप: ।
तेन सत्येन मे देवास्तमेव प्रदिशन्तु मे ।। १९ ।।
“यदि देवताओंने उन निषधनरेश नलको ही मेरा पति निश्चित किया हो तो उस सत्यके
प्रभावसे देवता-लोग मुझे उनन््हींको बतला दें ।। १९ ।।
यथेदं व्रतमारब्धं नलस्याराधने मया ।
तेन सत्येन मे देवास्तमेव प्रदिशन्तु मे || २० ।।
“यदि मैंने नलकी आराधनाके लिये ही यह व्रत आरम्भ किया हो तो उस सत्यके
प्रभावसे देवता मुझे उनन््हींको बतला दें || २० ।।
स्वं चैव रूप॑ कुर्वन्तु लोकपाला महेश्वरा: ।
यथाहमभिजानीयां पुण्यश्लोक॑ नराधिपम् ।। २१ ।।
“महेश्वर लोकपालगण अपना रूप प्रकट कर दें, जिससे मैं पुण्यश्लोक महाराज नलको
पहचान सकूँ” ।। २१ ।।
निशम्य दमयन्त्यास्तत् करुणं प्रतिदेवितम् ।
निश्चयं परमं तथ्यमनुरागं च नैषधे ।। २२ ।।
मनोविशुद्ि बुद्धिं च भक्ति रागं च नैषधे |
यथोक्तं चक्रिरे देवा: सामर्थ्य लिड्रधारणे ।। २३ ।।
दमयन्तीका वह करुण विलाप सुनकर तथा उसके अन्तिम निश्चय, नलविषयक
वास्तविक अनुराग, विशुद्ध हृदय, उत्तम बुद्धि तथा नलके प्रति भक्ति एवं प्रेम देखकर
देवताओंने दमयन्तीके भीतर वह यथार्थ शक्ति उत्पन्न कर दी, जिससे उसे देवसूचक
लक्षणोंका निश्चय हो सके || २२-२३ ।।
सापश्यद् विबुधान् सर्वानस्वेदान् स्तब्धलोचनान् |
हृषितस्रग्रजोहीनान् स्थितानस्पृशत: क्षितिम् ।। २४ ।।
अब दमयन्तीने देखा--सम्पूर्ण देवता स्वेदरहित हैं--उनके किसी अंगमें पसीनेकी बूँद
नहीं दिखायी देती, उनकी आँखोंकी पलकें नहीं गिरती हैं। उन्होंने जो पुष्पमालाएँ पहन
रखी हैं, वे नूतन विकाससे युक्त हैं--कुम्हलाती नहीं हैं। उनपर धूल-कण नहीं पड़ रहे हैं। वे
सिंहासनोंपर बैठे हैं, किंतु अपने पैरोंसे पृथ्वीतलका स्पर्श नहीं करते हैं और उनकी परछाईं
नहीं पड़ती है ।। २४ ।।
ध्स्ट पक हा
छायाद्वितीयो म्लानस्रग्रज:स्वेदसमन्वित: ।
भूमिष्ठो नैषधश्चैव निमेषेण च सूचित: ।। २५ ।।
उन पाँचोंमें एक पुरुष ऐसे हैं, जिनकी परछाईं पड़ रही है। उनके गलेकी पुष्पमाला
कुम्हला गयी है। उनके अंगोंमें धूल-कण और पसीनेकी बूँदें भी दिखायी पड़ती हैं। वे
पृथ्वीका स्पर्श किये बैठे हैं और उनके नेत्रोंकी पलकें गिरती हैं। इन लक्षणोंसे दमयन्तीने
निषधराज नलको पहचान लिया ।। २५ ||
सा समीक्ष्य तु तान् देवान् पुण्यश्लोक॑ च भारत |
नैषधं वरयामास भैमी धर्मेण पाण्डव ।। २६ ।।
भरतकुलभूषण पाण्डुनन्दन! राजकुमारी दमयन्तीने उन देवताओं तथा पुण्यश्लोक
नलकी ओर पुनः दृष्टिपात करके धर्मके अनुसार निषधराज नलका ही वरण
किया ।। २६ ।।
विलज्जमाना वस्त्रान्तं जग्राहायतलोचना ।
स्कन्ध देशेडसृजत् तस्य स्रजं परमशो भनाम् ।। २७ ।।
वरयामास चैवैनं पतित्वे वरवर्णिनी ।
विशाल नेत्रोंवाली दमयन्तीने लजाते-लजाते नलके वस्त्रका छोर पकड़ लिया और
उनके गलेमें परम सुन्दर फूलोंका हार डाल दिया। इस प्रकार वरवर्णिनी दमयन्तीने राजा
नलका पतिरूपमें वरण कर लिया || २७३ ।।
ततो हाहेति सहसा मुक्त: शब्दो नराधिपै: || २८ ।।
फिर तो दूसरे राजाओंके मुखसे सहसा 'हाहाकार'-का शब्द निकल पड़ा ॥। २८ ।।
देवैर्महर्षिभिस्तत्र साधु साथ्विति भारत ।
विस्मितैरीरित: शब्द: प्रशंसद्धिर्नलं नृूपम् ।। २९ ।।
भारत! देवता और महर्षि वहाँ साधुवाद देने लगे। सबने विस्मित होकर राजा नलकी
प्रशंसा करते हुए इनके सौभाग्यको सराहा ।। २९ |।
दमयन्तीं तु कौरव्य वीरसेनसुतो नृपः ।
आश्वासयद् वरारोहां प्रहृष्टेनान्तरात्मना ।। ३० ।।
कुरुनन्दन! वीरसेनकुमार नलने उललसित हृदयसे सुन्दरी दमयन्तीको आश्वासन देते
हुए कहा-- || ३० ।।
यत् त्वं भजसि कल्याणि पुमांसं देवसंनिधौ ।
तस्मान्मां विद्धि भर्तारमेवं ते वचने रतम् ।। ३१ ।।
“कल्याणी! तुम देवताओंके समीप जो मुझ-जैसे पुरुषका वरण कर रही हो, इस
अलौकिक अनुरागके कारण अपने इस पतिको तुम सदा अपनी प्रत्येक आज्ञाके पालनमें
तत्पर समझो ।। ३१ ।।
यावच्च मे धरिष्यन्ति प्राणा देहे शुचिस्मिते ।
तावत् त्वयि भविष्यामि सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥। ३२ ।।
“पवित्र मुसकानवाली देवि! मेरे इस शरीरमें जबतक प्राण रहेंगे, तबतक तुममें मेरा
अनन्य अनुराग बना रहेगा, यह मैं तुमसे सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ! || ३२ ।।
दमयन्ती तथा वाग्भिरभिनन्द्य कृताज्जलि: ।
तौ परस्परत: प्रीतौ दृष्टवा त्वग्निपुरोगमान् ।। ३३ ।।
तानेव शरणं देवाञ्जग्मतुर्मनसा तदा ।
इसी प्रकार दमयन्तीने भी हाथ जोड़कर विनीत वचनोंद्वारा महाराज नलका
अभिनन्दन किया। वे दोनों एक-दूसरेको पाकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने सामने अग्नि आदि
देवताओंको देखकर मन-ही-मन उनकी ही शरण ली ।। ३३३ ।।
वृते तु नैषधे भैम्या लोकपाला महौजस: ।। ३४ ।।
प्रहृषष्टमनस: सर्वे नलायाष्टो वरान् ददु: ।
दमयन्तीने जब नलका वरण कर लिया, तब उन सब महातेजस्वी लोकपालोंने
प्रसन्नचित्त होकर नलको आठ वरदान दिये ।। ३४३ ।।
प्रत्यक्षदर्शनं यज्ञे गतिं चानुत्तमां शुभाम् ।। ३५ ।।
नैषधाय ददौ शक्र: प्रीयमाण: शचीपति: ।
शचीपति इन्द्रने प्रसन्न होकर निषधराज नलको यह वर दिया कि “मैं यज्ञमें तुम्हें प्रत्यक्ष
दर्शन दूँगा और अन्तमें सर्वोत्तम शुभ गति प्रदान करूँगा” ।। ३५३ ।।
अग्निरात्मभवं प्रादाद् यत्र वाउछति नैषथ: ।। ३६ ।।
लोकानात्मप्रभांश्वेव ददौ तस्मै हुताशन: ।
हविष्यभोक्ता अग्निदेवने नलको अपने ही समान तेजस्वी लोक प्रदान किये और यह
भी कहा कि 'राजा नल जहाँ चाहेंगे, वहीं मैं प्रकट हो जाऊँगा” ।। ३६६ ।।
यमस्त्वन्नरसं प्रादाद् धर्मे च परमां स्थितिम् ।। ३७ ।।
यमराजने यह कहा कि “राजा नलकी बनायी हुई रसोईमें उत्तमोत्तम रस एवं स्वाद
उपलब्ध होगा और धर्ममें इनकी दृढ़ निष्ठा बनी रहेगी” ।। ३७ ।।
अपां पतिरपां भावं यत्र वाउ्छति नैषध: ।
स्रजश्नोत्तमगन्धाद्या: सर्वे च मिथुन ददुः ।। ३८ ।।
जलके स्वामी वरुणने नलकी इच्छाके अनुसार जल प्रकट होनेका वर दिया और यह
भी कहा कि "तुम्हारी पुष्पमालाएँ सदा उत्तम गन्धसे सम्पन्न होंगी।/ इस प्रकार सब
देवताओंने दो-दो वर दिये || ३८ ।।
वरानेवं प्रदायास्य देवास्ते त्रिदिवं गता: ।
पार्थिवाश्चानु भूयास्य विवाहं विस्मयान्विता: ।। ३९ ।।
दमयन्त्याश्व मुदिता: प्रतिजग्मुर्यथागतम् ।
इस प्रकार राजा नलको वरदान देकर वे देवता-लोग स्वर्गलोकको चले गये। स्वयंवरमें
आये हुए राजा भी विस्मयविमुग्ध हो नल और दमयन्तीके विवाहोत्सवका-सा अनुभव करते
हुए प्रसन्नतापूर्वक जैसे आये थे, वैसे लौट गये ।। ३९६ ।।
गतेषु पार्थिवेन्द्रेषु भीम: प्रीतो महामना: ।। ४० ।।
विवाहं कारयामास दमयन्त्या नलस्य च ।
सब नरेशोंके विदा हो जानेपर महामना भीमने बड़ी प्रसन्नताके साथ नल-दमयन्तीका
शास्त्रविधिके अनुसार विवाह कराया || ४० ३ ।।
उष्य तत्र यथाकामं नैषधो द्विपदां वर: ।। ४१ ।।
भीमेन समनुज्ञातो जगाम नगरं स्वकम् |
मनुष्योंमें श्रेष्ठ निषधनरेश नल अपनी इच्छाके अनुसार कुछ दिनोंतक ससुरालमें रहे,
फिर विदर्भनरेश भीमकी आज्ञा ले (दमयन्तीसहित) अपनी राजधानीको चले गये ।। ४१६
||
अवाप्य नारीरल्नं तु पुण्यश्लोकोडपि पार्थिव: ।। ४२ ।।
रेमे सह तया राजज्छच्येव बलवृत्रहा ।
राजन! पुण्यश्लोक महाराज नलने भी उस रमणीरत्नको पाकर उसके साथ उसी
प्रकार विहार किया, जैसे शचीके साथ इन्द्र करते हैं || ४२३ ।।
अतीव मुदितो राजा भ्राजमानों5शुमानिव || ४३ ।।
अरज्जयत् प्रजा वीरो धर्मेण परिपालयन् |
राजा नल सूर्यके समान प्रकाशित होते थे। वीरवर नल अत्यन्त प्रसन्न रहकर अपनी
प्रजाका धर्मपूर्वक पालन करते हुए उसे प्रसन्न रखते थे || ४३ $ ।।
ईजे चाप्यश्वमेधेन ययातिरिव नाहुष: ।। ४४ ।।
अन्यैश्न बहुभिर्धीमान् क्रतुभिश्चाप्तदक्षिणै: |
उन बुद्धिमान् नरेशने नहुषनन्दन ययातिकी भाँति अश्वमेध तथा पर्याप्त दक्षिणावाले
दूसरे बहुत-से यज्ञोंका भी अनुष्ठान किया || ४४ ई ||
पुनश्चन रमणीयेषु वनेषूपवनेषु च ।। ४५ ।।
दमयन्त्या सह नलो विजहारामरोपम: ।
तदनन्तर देवतुल्य राजा नलने दमयन्तीके साथ रमणीय वनों और उपवनोंमें विहार
किया ।। ४५६ ||
जनयामास च ततो दमयन्त्यां महामना: ।
इन्द्रसेनं सुतं चापि इन्द्रसेनां च कन््यकाम् ।। ४६ ।।
महामना नलने दमयन्तीके गर्भसे इन्द्रसेन नामक एक पुत्र और इन्द्रसेना नामवाली एक
कन्याको जन्म दिया ।। ४६ ।।
एवं स यजमानश्ष् विहरंक्ष नराधिप: ।
ररक्ष वसुसम्पूर्णा वसुधां वसुधाधिप: ।। ४७ ।।
इस प्रकार यज्ञोंका अनुष्ठान तथा सुखपूर्वक विहार करते हुए महाराज नलने धन-
धान्यसे सम्पन्न वसुन्धराका पालन किया ।। ४७ |।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि दमयन्तीस्वयंवरे
सप्तपजञ्चाशत्तमो<ध्याय: ।। ५७ |।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत दमयन्ती-स्वयंवरविषयक सत्तावनवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥। ५७ ॥
हि >> आय ० | हि २ 7
अष्टपञज्चाशत्तमो< ध्याय:
देवताओंके द्वारा नलके गुणोंका गान और उनके निषेध
करनेपर भी नलके विरुद्ध कलियुगका कोप
बु॒हदश्व उवाच
वृते तु नैषथे भैम्या लोकपाला महौजस: ।
यान्तो ददृशुरायान्तं द्वापरं कलिना सह ।। १ ।।
बृहदश्च मुनि कहते हैं--राजन! भीमकुमारी दमयन्तीद्वारा निषधनरेश नलका वरण
हो जानेपर जब महातेजस्वी लोकपालगण स्वर्गलोकको जा रहे थे, उस समय मार्ममें उन्होंने
देखा कि कलियुगके साथ द्वापर आ रहा है ।। १ ।।
अथाब्रवीत् कलिं शक्र: सम्प्रेक्ष्य बलवृत्रहा ।
द्वापरेण सहायेन कले ब्रूहि क्व यास्यसि ।। २ ।।
कलियुगको देखकर बल और वृत्रासुरका नाश करनेवाले इन्द्रने पूछा--“कले! बताओ
तो सही द्वापरके साथ कहाँ जा रहे हो?” ।। २ ।।
ततो<ब्रवीत् कलि: शक्रं दमयन्त्या: स्वयंवरम् ।
गत्वा हि वरयिष्ये तां मनो हि मम तां गतम् ॥। ३ ।।
तब कलिने इन्द्रसे कहा--“देवराज! मैं दमयन्तीके स्वयंवरमें जाकर उसका वरण
करूँगा; क्योंकि मेरा मन उसके प्रति आसक्त हो गया है” ।। ३ ।।
तमब्रवीत् प्रहस्येन्द्रो निर्वृत्त: स स्वयंवर: ।
वृतस्तया नलो राजा पतिरस्मत्समीपत: ।। ४ ।।
तब इन्द्रने हँलँकर कहा--“वह स्वयंवर तो हो गया। हमारे समीप ही दमयन्तीने राजा
नलको अपना पति चुन लिया ।। ४ ।।
एवमुक्तस्तु शक्रेण कलि: कोपसमन्वित: ।
देवानामन्त्रय तान् सर्वनिवाचेदं वचस्तदा | ५ ||
इन्द्रके ऐसा कहनेपर कलियुगको क्रोध चढ़ आया और उसी समय उसने उन सब
देवताओंको सम्बोधित करके यह बात कही-- ।। ५ |।
देवानां मानुषं मध्ये यत् सा पतिमविन्दत ।
ततस्तस्या भवेन्न्याय्यं विपुलं दण्डधारणम् ।। ६ ।।
“दमयन्तीने देवताओंके बीचमें मनुष्यका पतिरूपमें वरण किया है। अतः उसे बड़ा
भारी दण्ड देना उचित प्रतीत होता है” ॥। ६ ।।
एवमुक्ते तु कलिना प्रत्यूचुस्ते दिवौकस: ।
अस्माभि: समनुज्ञाते दमयन्त्या नलो वृत: ।। ७ ।।
कलियुगके ऐसा कहनेपर देवताओंने उत्तर दिया--'दमयन्तीने हमारी आज्ञा लेकर
नलका वरण किया है ।।
का च सर्वगुणोपेतं नाश्रयेत नल॑ नृपम्
यो वेद धर्मानखिलान् यथावच्चरितव्रत: ।। ८ ।।
यो<थीते चतुरो वेदान् सर्वानाख्यानपञ्चमान् |
नित्यं तृप्ता गृहे यस्य देवा यज्ञेषु धर्मत: ।
अहिंसानिरतो यश्च सत्यवादी दृढव्रत: ।। ९ ।।
यस्मिन् दाक्ष्यं धृतिरज्ञानं तप: शौचं दम: शम: ।
ध्रुवाणि पुरुषव्याप्रे लोकपालसमे नृपे | १० ।।
एवंरूपं नल॑ यो वै कामयेच्छपितुं कले ।
आत्मानं स शपेन्मूढो हन्यादात्मानमात्मना || ११ ।।
“राजा नल सर्वगुणसम्पन्न हैं। कौन स्त्री उनका वरण नहीं करेगी? जिन्होंने भलीभाँति
ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करके चारों वेदों तथा पंचम वेद समस्त इतिहास-पुराणका भी
अध्ययन किया है, जो सब धर्मोंको जानते हैं, जिनके घरपर पंचयज्ञोंमें धर्मके अनुसार
सम्पूर्ण देवता नित्य तृप्त होते हैं, जो अहिंसा-परायण, सत्यवादी तथा दृढ़तापूर्वक व्रतका
पालन करनेवाले हैं, जिन नरश्रेष्ठ लोकपाल-सदृश तेजस्वी नलमें दक्षता, धैर्य, ज्ञान, तप,
शौच, शम और दम आदि गुण नित्य निवास करते हैं। कले! ऐसे राजा नलको जो मूढ़ शाप
देनेकी इच्छा रखता है, वह मानो अपनेको ही शाप देता है। अपने द्वारा अपना ही विनाश
करता है || ८--११ ।।
एवंगुणं नल॑ यो वै कामयेच्छपितुं कले ।
कृच्छे स नरके मज्जेदगाधे विपुले हृदे ।
एवमुक्त्वा कलिं देवा द्वापरं च दिवं ययु: ।। १२ ।।
“ऐसे सद्गुणसम्पन्न महाराज नलको जो शाप देनेकी कामना करेगा, वह कष्टसे भरे
हुए अगाध एवं विशाल नरककुण्डमें निमग्न होगा।” कलियुग और द्वापरसे ऐसा कहकर
देवतालोग स्वर्गमें चले गये || १२ ।।
ततो गतेषु देवेषु कलिब्द्वापरमब्रवीत् |
संहर्तु नोत्सहे कोपं नले वत्स्यामि द्वापर || १३ ।।
भ्रंशयिष्यामि तं राज्यान्न भैम्या सह रंस्यते ।
त्वमप्यक्षान् समाविश्य साहाय्य॑ कर्तुमहसि ।। १४ ।।
तदनन्तर देवताओंके चले जानेपर कलियुगने द्वापरसे कहा--'द्वापर! मैं अपने
क्रोधका उपसंहार नहीं कर सकता। नलके भीतर निवास करूँगा और उन्हें राज्यसे वंचित
कर दूँगा। जिससे वे दमयन्तीसे रमण नहीं कर सकेंगे। तुम्हें भी जूएके पासोंमें प्रवेश करके
मेरी सहायता करनी चाहिये” ।। १३-१४ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि कलिदेवसंवादे
अष्टपञज्चाशत्तमो5 ध्याय: ।। ५८ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें कलि-देवता-संवादविषयक
अद्लावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ५८ ॥
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एकोनषशष्टितमो< ध्याय:
नलमें कलियुगका प्रवेश एवं नल और पुष्करकी द्यूतक्रीडा,
प्रजा और दमयन्तीके निवारण करनेपर भी राजाका द्यूतसे
निवृत्त नहीं होना
ब॒हृदश्चव उवाच
एवं स समयं कृत्वा द्वापरेण कलि: सह ।
आजगाम ततत्तत्र यत्र राजा स नैषध: ।। १ ।।
बृहदश्च मुनि कहते हैं--राजन्! इस प्रकार द्वापरके साथ संकेत करके कलियुग उस
स्थानपर आया, जहाँ निषधराज नल रहते थे ।। १ ।।
स नित्यमन्तरप्रेप्सुर्निषधेष्ववसच्चिरम् ।
अथास्य द्वादशे वर्षे ददर्श कलिरन्तरम् ।। २ ।।
वह प्रतिदिन राजा नलका छिद्र देखता हुआ निषधदेशमें दीर्घकालतक टिका रहा।
बारह वर्षोके बाद एक दिन कलिको एक छिटद्र दिखायी दिया ।। २ ।।
कृत्वा मूत्रमुपस्पृश्य संध्यामन्वास्त नैषध: ।
अकृत्वा पादयो: शौचं तत्रैनं कलिराविशत् ।। ३ ।।
राजा नल उस दिन लघुशंका करके आये और हाथ-मुँह धोकर आचमन करनेके पश्चात्
संध्योपासना करने बैठ गये; पैरोंको नहीं धोया। यह छिद्र देखकर कलियुग उनके भीतर
प्रविष्ट हो गया ।। ३ ।।
स समाविश्य च नल॑ समीपं पुष्करस्य च ।
गत्वा पुष्करमाहेदमेहि दीव्य नलेन वै ।। ४ ।।
नलमें आविष्ट होकर कलियुगने दूसरा रूप धारण करके पुष्करके पास जाकर कहा
--“'चलो, राजा नलके साथ जूआ खेलो ।। ४ ।।
अक्षदय्यूते नल॑ जेता भवान् हि सहितो मया ।
निषधान् प्रतिपद्यस्व जित्वा राज्यं नल॑ नृपम् ।। ५ ।।
मेरे साथ रहकर तुम जूएमें अवश्य राजा नलको जीत लोगे। इस प्रकार महाराज
नलको उनके राज्यसहित जीतकर निषधदेशको अपने अधिकारमें कर लो' ।। ५ ।।
एवमुक्तस्तु कलिना पुष्करो नलमभ्ययात् |
कलिकश्वैव वृषो भूत्वा गवां पुष्करमभ्ययात् ।। ६ ।।
कलिके ऐसा कहनेपर पुष्कर राजा नलके पास गया। कलि भी साँड़ बनकर पुष्करके
साथ हो लिया ।। ६ |।
आसाद्य तु नलं वीर पुष्कर: परवीरहा ।
दीव्यावेत्यब्रवीद् भ्राता वृषेणेति मुहुर्मुहु: ।। ७ ।।
शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले पुष्करने वीरवर नलके पास जाकर उनसे बार-बार कहा
--हम दोनों धर्मपूर्वक जूआ खेलें।” पुष्कर राजा नलका भाई लगता था ।। ७ ।।
न चक्षमे ततो राजा समाह्वानं महामना: ।
वैदर्भ्या: प्रेक्षमाणाया: पणकालममन्यत ।। ८ ।।
महामना राजा नल द्यूतके लिये पुष्करके आह्वानको न सह सके। विदर्भराजकुमारी
दमयन्तीके देखते-देखते उसी क्षण जूआ खेलनेका उपयुक्त अवसर समझ लिया ।। ८ ।।
हिरण्यस्य सुवर्णस्य यानयुग्यस्य वाससाम् |
आविष्ट: कलिना दझ्यूते जीयते सम नलस्तदा ।। ९ |।
तमक्षमदसम्मत्तं सुहृदां न तु कश्चन ।
निवारणे5भवच्छक्तो दीव्यमानमरिंदमम् ।। १० ।।
तब कलियुगसे आविष्ट होकर राजा नल हिरण्य, सुवर्ण, रथ आदि वाहन और बहुमूल्य
वस्त्र दाँवपर लगाते तथा हार जाते थे। सुहृदोंमें कोई भी ऐसा नहीं था, जो द्यूतक्रीडाके
मदसे उन्मत्त शत्रुदमन नलको उस समय जूआ खेलनेसे रोक सके ।। ९-१० ।।
ततः पौरजना: सर्वे मन्त्रेभि: सह भारत ।
राजानं द्रष्टमागच्छन् निवारयितुमातुरम् ।। ११ ।।
भारत! तदनन्तर समस्त पुरवासी मनुष्य मन्त्रियोंके साथ राजासे मिलने तथा उन
आतुर नरेशको द्यूतक्रीडासे रोकनेके लिये वहाँ आये ।। ११ ।।
ततः सूत उपागम्य दमयन्त्यै न््यवेदयत् ।
एष पौरजनो देवि द्वारि तिष्ठति कार्यवान् । १२ ।।
इसी समय सारथिने महलमें जाकर महारानी दमयन्तीसे निवेदन किया--*देवि! ये
पुरवासीलोग कार्यवश राजद्वारपर खड़े हैं ।। १२ ।।
निवेद्यतां नैषधाय सर्वा: प्रकृतयः स्थिता: ।
अमृष्यमाणा व्यसन राज्ञो धर्मार्थदर्शिन: ।। १३ ।।
“आप निषधराजसे निवेदन कर दें। धर्म-अर्थका तत्त्व जाननेवाले महाराजके भावी
संकटको सहन न कर सकनेके कारण मन्त्रियोंसहित सारी प्रजा द्वारपर खड़ी है” || १३ ।।
ततः सा बाष्पकलया वाचा दु:खेन कर्शिता ।
उवाच नैषधं भेमी शोकोपहतचेतना ।। १४ ।।
यह सुनकर दु:खसे दुर्बल हुई दमयन्तीने शोकसे अचेत-सी होकर आँसू बहाते हुए
गदगदवाणीमें निषध-नरेशसे कहा-- ।। १४ ।।
राजन् पौरजनो द्वारि त्वां दिदृक्षुरवस्थित: ।
मन्त्रिभि: सहित: सर्वे राजभक्तिपुरस्कृत: ।। १५ ।।
त॑ द्रष्टमर्हसीत्येवं पुन: पुनरभाषत ।
त॑ं तथा रुचिरापाड़ीं विलपन्तीं तथाविधाम् ।। १६ ।।
आविष्ट: कलिना राजा नाभ्यभाषत किंचन ।
ततस्ते मन्त्रिण: सर्वे ते चैव पुरवासिन: ।। १७ ।।
नायमस्तीति दु:खार्ता व्रीडिता जग्मुरालयान् ।
तथा तदभवद् दूत॑ पुष्करस्य नलस्य च ।
युधिष्ठिर बहून् मासान् पुण्यश्लोकस्त्वजीयत ।। १८ ।।
“महाराज! पुरवासी प्रजा राजभक्तिपूर्वक आपसे मिलनेके लिये समस्त मन्त्रियोंके
साथ द्वारपर खड़ी है। आप उन्हें दर्शन दें।” दमयन्तीने इन वाक्योंको बार-बार दुहराया।
मनोहर नयनप्रान्तवाली विदर्भ-कुमारी इस प्रकार विलाप करती रह गयी, परंतु कलियुगसे
आविष्ट हुए राजाने उससे कोई बाततक न की। तब वे सब मन्त्री और पुरवासी दुःखसे
आतुर और लज्जित हो यह कहते हुए अपने-अपने घर चले गये कि “यह राजा नल अब
राज्यपर अधिक समयतक रहनेवाला नहीं है।” युधिष्ठिर! पुष्कर और नलकी वह द्यूतक्रीडा
कई महीनोंतक चलती रही। पुण्यश्लोक महाराज नल उसमें हारते ही जा रहे थे || १५--
१८ |।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि नलद्यूते एकोनषष्टितमो5 ध्याय: ।।
५९ ||
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत वनपवके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें नलझ्ूतविषयक उनसठवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥। ५९ ॥
हि मय ० (0) है 7
षष्टितमो< ध्याय:
दुःखित दमयन्तीका वार्ष्णेयके द्वारा कुमार-कुमारीको
कुण्डिनपुर भेजना
बृहृदश्चव उवाच
दमयन्ती ततो दृष्ट्वा पुण्यश्लोक॑ नराधिपम् |
उन्मत्तवदनुन्मत्ता देवने गतचेतसम् ।। १ ।।
भयशोकसमाविष्टा राजन् भीमसुता तत: ।
चिन्तयामास तत् कार्य सुमहत् पार्थिवं प्रति ॥। २ ।।
बृहदश्च मुनि कहते हैं--राजन्! तदनन्तर दमयन्तीने देखा कि पुण्यश्लोक महाराज
नल उन्मत्तकी भाँति द्यूतक्रीडामें आसक्त हैं। वह स्वयं सावधान थी। उनकी वैसी अवस्था
देख भीमकुमारी भय और शोकसे व्याकुल हो गयी और महाराजके हितके लिये किसी
महत्त्वपूर्ण कार्यका चिन्तन करने लगी ।। १-२ ।।
सा शड्कमाना तत् पापं चिकीर्षन्ती च तत्प्रियम् ।
नलं च हृतसर्वस्वमुपलभ्येदमब्रवीत् ।। ३ ।।
उसके मनमें यह आशंका हो गयी कि राजापर बहुत बड़ा कष्ट आनेवाला है। वह
उनका प्रिय एवं हित करना चाहती थी। अत: महाराजके सर्वस्वका अपहरण होता जान
धायको बुलाकर (इस प्रकार बोली) ।। ३ ।।
बृहत्सेनामतियशां तां धात्रीं परिचारिकाम् |
हितां सर्वार्थकुशलामनुरक्तां सुभाषिताम् ॥। ४ ।।
उसकी धायका नाम बृहत्सेना था। वह अत्यन्त यशस्विनी और परिचर्याके कार्यमें
निपुण थी। समस्त कार्योंके साधनमें कुशल, हितैषिणी, अनुरागिणी और मधुरभाषिणी
थी || ४ |।
बृहत्सेने व्रजामात्यानानाय्य नलशासनात् |
आचक्ष्व यद्धृतं द्रव्यमवशिष्टं च यद् वसु ।। ५ ।।
(दमयन्तीने उससे कहा)--“बृहत्सेने! तुम मन्त्रियोंक पास जाओ तथा राजा नलकी
आज्ञासे उन्हें बुला लाओ। फिर उन्हें यह बताओ कि अमुक-अमुक द्रव्य हारा जा चुका है
और अमुक धन अभी अवशिष्ट है! || ५ ।।
ततस्ते मन्त्रिण: सर्वे विज्ञाय नलशासनम् ।
अपि नो भागधेयं स्यादित्युक्त्वा नलमाव्रजन् ।। ६ ।।
तब वे सब मन्त्री राजा नलका आदेश जानकर “हमारा अहोभाग्य है', ऐसा कहते हुए
नलके पास आये ।।
तास्तु सर्वा: प्रकृतयो द्वितीयं समुपस्थिता: ।
न्यवेदयद् भीमसुता न च तत् प्रत्यनन्दत ।। ७ ।।
वे सारी (मन्त्री आदि) प्रकृतियाँ दूसरी बार राजद्वारपर उपस्थित हुईं। दमयन्तीने
इसकी सूचना महाराज नलको दी, परन्तु उन्होंने इस बातका अभिनन्दन नहीं
किया ।। ७ ।।
वाक्यमप्रतिनन्दन्तं भर्तारमभिवीक्ष्य सा ।
दमयन्ती पुनर्वेश्म ब्रीडिता प्रविवेश ह ॥। ८ ।।
निशम्य सतत चाक्षान् पुण्यश्लोकपराड्मुखान् ।
नलं च हृतसर्वस्वं धात्रीं पुनरुवाच ह ।। ९ ।।
बृहत्सेने पुनर्गच्छ वाष्णेयं नलशासनात् ।
सूतमानय कल्याणि महत् कार्यमुपस्थितम् ।। १० ।।
पतिको अपनी बातका प्रसन्नतापूर्वक उत्तर देते न देख दमयन्ती लज्जित हो पुनः
महलके भीतर चली गयी। वहाँ फिर उसने सुना कि सारे पासे लगातार पुण्यश्लोक राजा
नलके विपरीत पड़ रहे हैं और उनका सर्वस्व अपहृत हो रहा है। तब उसने पुनः धायसे कहा
--बृहत्सेने! फिर राजा नलकी आज्ञासे जाओ और वार्ष्णेय सूतको बुला लाओ।
कल्याणि! एक बहुत बड़ा कार्य उपस्थित हुआ है! || ८--१० ।।
बृहत्सेना तु सा श्रुत्वा दमयन्त्या: प्रभाषितम् ।
वा्ष्णेयमानयामास पुरुषैराप्तकारिभि: ।। ११ ।।
वाष्णेयं तु ततो भैमी सान्त्वयऊ“लक्ष्णया गिरा ।
उवाच देशकातलज्ञा प्राप्तकालमनिन्दिता ।। १२ ।।
बृहत्सेनाने दमयन्तीकी बात सुनकर विश्वसनीय पुरुषोंद्वारा वाष्णेयको बुलाया। तब
अनिन्द्य स्वभाववाली और देश-कालको जाननेवाली भीमकुमारी दमयन्तीने वार्ष्णेयको
मधुर वाणीमें सान्त्वना देते हुए यह समयोचित बात कही-- || ११-१२ ।।
जानीषे त्वं यथा राजा सम्यग वृत्त: सदा त्वयि |
तस्य त्वं विषमस्थस्य साहाय्यं कर्तुमहसि ।। १३ ।।
'सूत! तुम जानते हो कि महाराज तुम्हारे प्रति कैसा अच्छा बर्ताव करते थे। आज वे
विषम संकटमें पड़ गये हैं, अतः तुम्हें भी उनकी सहायता करनी चाहिये ।। १३ ॥।
यथा यथा हि नृपति: पुष्करेणैव जीयते ।
तथा तथास्य वै द्यूते रागो भूयोडभिवर्धते ।। १४ ।।
“राजा जैसे-जैसे पुष्करसे पराजित हो रहे हैं, वैसे-ही-वैसे जूएमें उनकी आसक्ति बढ़ती
जा रही है ।।
यथा च पुष्करस्याक्षा: पतन्ति वशवर्तिन: ।
तथा विपर्ययश्चापि नलस्याक्षेषु दृश्यते || १५ ।।
'जैसे पुष्करके पासे उसकी इच्छाके अनुसार पड़ रहे हैं, वैसे ही नलके पासे विपरीत
पड़ते देखे जा रहे हैं || १५ ।।
सुहृत्स्वजनवाक्यानि यथावन्न शृणोति च ।
ममापि च तथा वाक्य नाभिनन्दति मोहित: ।। १६ ।।
नूनं मनन्ये न दोषो5स्ति नैषधस्य महात्मन: ।
यत् तु मे वचनं राजा नाभिनन्दति मोहित: ।। १७ ।।
*वे सुहदों और स्वजनोंके वचन अच्छी तरह नहीं सुनते हैं। जूएने उन्हें ऐसा मोहित कर
रखा है कि इस समय वे मेरी बातका भी आदर नहीं कर रहे हैं। मैं इसमें महामना नैषधका
निश्चय ही कोई दोष नहीं मानती। जूएसे मोहित होनेके कारण ही राजा मेरी बातका
अभिनन्दन नहीं कर रहे हैं || १६-१७ ।।
शरणं त्वां प्रपन्नास्मि सारथे कुरु मद्गच: ।
न हि मे शुध्यते भाव: कदाचित् विनशेदपि ।। १८ ।।
'सारथे! मैं तुम्हारी शरणमें आयी हूँ, मेरी बात मानो। मेरे मनमें अशुभ विचार आते हैं,
इससे अनुमान होता है कि राजा नलका राज्यसे च्युत होना सम्भव है ।। १८ ।।
नलस्य दयितानश्वान् योजयित्वा मनोजवान् |
इदमारोप्य मिथुन कुण्डिनं यातुमरहसि ।। १९ ।।
“तुम महाराजके प्रिय, मनके समान वेगशाली अश्वोंको रथमें जोतकर उसपर इन दोनों
बच्चोंको बिठा लो और कुण्डिनपुरको चले जाओ” ।। १९ |।
मम ज्ञातिषु निक्षिप्य दारकौ स्यन्दनं तथा ।
अश्वांश्वेमान् यथाकामं वस वान्यत्र गच्छ वा । २० ।।
“वहाँ इन दोनों बालकोंको, इस रथको और इन घोड़ोंको भी मेरे भाई-बन्धुओंकी देख-
रेखमें सौंपकर तुम्हारी इच्छा हो तो वहीं रह जाना या अन्यत्र कहीं चले जाना” || २० ।।
दमयन्त्यास्तु तद् वाक्यं वाष्णेयो नलसारथि: ।
न्यवेदयदशेषेण नलामात्येषु मुख्यश: ।। २१ ।।
दमयन्तीकी यह बात सुनकर नलके सारथि वार्ष्णेयने नलके मुख्य-मुख्य मन्त्रियोंसे यह
सारा वृत्तान्त निवेदित किया ।। २१ ।।
तैः समेत्य विनिश्चित्य सो<नुज्ञातो महीपते ।
ययौ मिथुनमारोप्य विदर्भास्तेन वाहिना ।। २२ ।।
राजन्! उनसे मिलकर इस विषयपर भलीभाँति विचार करके उन मन्त्रियोंकी आज्ञा ले
सारथि वार्ष्णेयने दोनों बालकोंको रथपर बैठाकर विदर्भ देशको प्रस्थान किया ।। २२ ।।
हयांस्तत्र विनिक्षिप्य सूतो रथवरं च तम् |
इन्द्रसेनां च तां कन्यामिन्द्रसेनं च बालकम् ।। २३ ।।
आमन्त्र्य भीम॑ राजानमार्त: शोचन् नल॑ नृपम् ।
अटमानस्ततो<योध्यां जगाम नगरीं तदा ।। २४ ।।
वहाँ पहुँचकर उसने घोड़ोंको, उस श्रेष्ठ रथ-को तथा उस बालिका इन्द्रसेनाको एवं
राजकुमार इन्द्रसेनको वहीं रख दिया तथा राजा भीमसे विदा ले आर्तभावसे राजा नलकी
दुर्दशाके लिये शोक करता हुआ घूमता-घामता अयोध्या नगरीमें चला गया ।। २३-२४ ।।
ऋतुपर्ण स राजानमुपतस्थे सुदुःखित: ।
भृतिं चोपययौ तस्य सारथ्येन महीपते ।। २५ ।।
युधिष्ठिर! वह अत्यन्त दुःखी हो राजा ऋतुपर्णकी सेवामें उपस्थित हुआ और उनका
सारथि बनकर जीविका चलाने लगा ।। २५ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि कुण्डिनं प्रति कुमारयो: प्रस्थापने
षष्टितमो5 ध्याय: ।। ६० ।।
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत वनपवके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें नलकी कन्या और पुत्रको
कुण्डिनपुर भेजनेसे सम्बन्ध रखनेवाला साठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ६० ॥
हम () हि २ 7
एकषेष्टितमो< ध्याय:
नलका जूएमें हारकर दमयन्तीके साथ वनको जाना और
पक्षियोंद्वारा आपदग्रस्त नलके वस्त्रका अपहरण
बृहृदश्च उवाच
ततस्तु याते वार्ष्णेये पुण्यश्लोकस्य दीव्यत: ।
पुष्करेण हतं राज्यं यच्चान्यद् वसु किंचन ।। १ ।।
बृहदश्व मुनि कहते हैं--युधिष्ठिर! तदनन्तर वार्ष्णेयके चले जानेपर जूआ खेलनेवाले
पुण्यश्लोक महाराज नलके सारे राज्य और जो कुछ धन था, उन सबका जूएमें पुष्करने
अपहरण कर लिया ।। १ ॥।
ह्ृतराज्यं नलं राजन् प्रहसन् पुष्करो<ब्रवीत् |
द्यूत॑ं प्रवर्ततां भूय: प्रतिपाणो5स्ति कस्तव ।॥। २ ।।
राजन! राज्य हार जानेपर नलसे पुष्करने हँसते हुए कहा कि “क्या फिर जूआ आरम्भ
हो? अब तुम्हारे पास दाँवपर लगानेके लिये क्या है?” ।। २ ।।
शिष्टा ते दमयन्त्येका सर्वमन्यज्जितं मया ।
दमयन्त्या: पण: साधु वर्ततां यदि मन्यसे ।। ३ ।।
“तुम्हारे पास केवल दमयन्ती शेष रह गयी है और सब वस्तुएँ तो मैंने जीत ली हैं, यदि
तुम्हारी राय हो तो दमयन्तीको दाँवपर रखकर एक बार फिर जूआ खेला जाय” ।। ३ ।।
पुष्करेणैवमुक्तस्य पुण्यश्लोकस्य मन्युना |
व्यदीर्यतेव हृदयं न चैनं किंचिदब्रवीत् ।। ४ ।।
पुष्करके ऐसा कहनेपर पुण्यश्लोक महाराज नलका हृदय शोकसे विदीर्ण-सा हो गया,
परंतु उन्होंने उससे कुछ कहा नहीं ।। ४ ।।
ततः पुष्करमालोक्य नलः परममन्युमान् |
उत्सृज्य सर्वगात्रे भ्यो भूषणानि महायशा: ।। ५ ।।
एकवासा हासंवीत: सुहृच्छोकविवर्धन: ।
निश्चक्राम ततो राजा त्यक्त्वा सुविपुलां श्रियम् ।। ६ ।।
तदनन्तर महायशस्वी नलने अत्यन्त दुःखित हो पुष्करकी ओर देखकर अपने सब
अंगोंके आभूषण उतार दिये और केवल एक अधोवस्त्र धारण करके चादर ओढ़े बिना ही
अपनी विशाल सम्पत्तिको त्यागकर सुहृदोंका शोक बढ़ाते हुए वे राजभवनसे निकल
पड़े || ५-६ |।
दमयन्त्येकवस्त्राथ गच्छन्तं पृष्ठतो5न्वगात् ।
स तया बाह्ुतः सार्थ त्रिरात्रं नैघधोडवसत् ।। ७ ।।
दमयन्तीके शरीरपर भी एक ही वस्त्र था। वह जाते हुए राजा नलके पीछे हो ली। वे
उसके साथ नगरसे बाहर तीन राततक टिके रहे ।। ७ ।।
पुष्करस्तु महाराज घोषयामास वै पुरे ।
नले य: सम्यगातिछेत् स गच्छेद् वध्यतां मम ।। ८ ।।
महाराज! पुष्करने उस नगरमें यह घोषणा करा दी--डुग्गी पिटवा दी कि “जो नलके
साथ अच्छा बर्ताव करेगा, वह मेरा वध्य होगा” ।। ८ ।।
पुष्करस्य तु वाक्येन तस्य विद्वेषणेन च |
पौरा न तस्य सत्कारं कृतवन्तो युधिष्ठिर || ९ ।।
युधिष्ठिर! पुष्करके उस वचनसे और नलके प्रति पुष्करका द्वेष होनेसे पुरवासियोंने
राजा नलका कोई सत्कार नहीं किया |। ९ |।
स तथा नगराभ्याशे सत्काराहों न सस्कृतः ।
त्रिरात्रमुषितो राजा जलमात्रेण वर्तयन् ।। १० ।।
इस प्रकार राजा नल अपने नगरके समीप तीन राततक केवल जलमात्रका आहार
करके टिके रहे। वे सर्वथा सत्कारके योग्य थे तो भी उनका सत्कार नहीं किया
गया ।। १० ।।
पीड्यमान: क्षुधा तत्र फलमूलानि कर्षयन् |
प्रातिष्ठत ततो राजा दमयन्ती तमन्वगात् ।। ११ ।।
वहाँ भूखसे पीड़ित हो फल-मूल आदि जुटाते हुए राजा नल वहाँसे अन्यत्र चले गये।
केवल दमयन्ती उनके पीछे-पीछे गयी ।। ११ ।।
क्षुधया पीड्यमानस्तु नलो बहुतिथेडहनि ।
अपश्यच्छकुनान् कांश्रिद्धिरण्यसदृशच्छदान् ।। १२ ।।
इसी प्रकार नल बहुत दिनोंतक क्षुधासे पीड़ित रहे। एक दिन उन्होंने कुछ ऐसे पक्षी
देखे, जिनकी पाँखें सोनेकी-सी थीं ।। १२ ।।
स चिन्तयामास तदा निषधाधिपतिर्बली ।
अस्ति भक्ष्यो ममाद्यायं वसु चेदं भविष्यति ।। १३ ।।
उन्हें देखकर (क्षुधातुर और आपत्तिग्रस्त होनेके कारण) बलवान् निषधनरेशके मनमें
यह बात आयी कि “यह पक्षियोंका समुदाय ही आज मेरा भक्ष्य हो सकता है और इनकी ये
पाँखें मेरे लिये धन हो जायँगी” ।। १३ ।।
ततस्तान् परिधानेन वाससा स समावृणोत् |
तस्य तद् वस्त्रमादाय सर्वे जम्मुर्विहायसा ।। १४ ।।
तदनन्तर उन्होंने अपने अधोवस्त्रसे उन पक्षियोंको ढँक दिया। किंतु वे सब पक्षी उनका
वह वस्त्र लेकर आकाशमें उड़ गये ।। १४ ।।
उत्पतन्तः खगा वाक्यमेतदाहुस्ततो नलम् |
दृष्टवा दिग्वाससं भूमौ स्थितं दीनमधोमुखम् ।। १५ ।।
उड़ते हुए उन पक्षियोंने राजा नलको दीनभावसे नीचे मुँह किये धरतीपर नग्न खड़ा
देख उनसे कहा-- ।।
वयमक्षा: सुदुर्बुद्धे तव वासो जिहीर्षव: ।
आगता न हि न: प्रीति: सवाससि गते त्वयि ।। १६ ।।
'“ओ खोटी बुद्धिवाले नरेश! हम (पक्षी नहीं,) पासे हैं और तुम्हारा वस्त्र अपहरण
करनेकी इच्छासे ही यहाँ आये थे। तुम वस्त्र पहने हुए ही वहाँसे चले आये थे, इससे हमें
प्रसन्नता नहीं हुई थी” ।। १६ ।।
तान् समीपगतानक्षानात्मानं च विवाससम् |
पुण्यश्लोकस्तदा राजन् दमयन्तीमथाब्रवीत् ।। १७ ।।
येषां प्रकोपादैश्वर्यात् प्रच्युतो5हमनिन्दिते ।
प्राणयात्रां न विन्देयं दु:खित: क्षुधयान्वित: ।। १८ ।।
येषां कृते न सत्कारमकुर्वन् मयि नैषधा: ।
इमे ते शकुना भूत्वा वासो भीरु हरन्ति मे ।। १९ ।।
राजन्! उन पासोंको नजदीकसे जाते देख और अपने-आपको नग्नावस्थामें पाकर
पुण्यश्लोक नलने उस समय दमयन्तीसे कहा--'सती साध्वी रानी! जिनके क्रोधसे मेरा
ऐश्वर्य छिन गया, मैं क्षुधापीड़ित एवं दु:खित होकर जीवन-निर्वाहके लिये अन्नतक नहीं पा
रहा हूँ और जिनके कारण निषधदेशकी प्रजाने मेरा सत्कार नहीं किया, भीरु! वे ही ये पासे
हैं, जो पक्षी होकर मेरा वस्त्र लिये जा रहे हैं ।। १७--१९ ।।
वैषम्यं परम॑ प्राप्तो द:खितो गतचेतन: ।
भर्ता ते5हं निबोधेदं वचन हितमात्मन: ।। २० ||
“मैं बड़ी विषम परिस्थितिमें पड़ गया हूँ। दुःखके मारे मेरी चेतना लुप्त-सी हो रही है।
मैं तुम्हारा पति हूँ, अतः तुम्हारे हितकी बात बता रहा हूँ, इसे सुनो-- || २० ।।
एते गच्छन्ति बहव: पन्थानो दक्षिणापथम् |
अवन्तीमृक्षवन्तं च समतिक्रम्य पर्वतम् ।। २१ ।।
'ये बहुत-से मार्ग हैं, जो दक्षिण दिशाकी ओर जाते हैं। यह मार्ग ऋक्षवान् पर्वतको
लाँघकर अवन्ती-देशको जाता है ॥। २१ ।।
एष विन्ध्यो महाशैल: पयोष्णी च समुद्रगा ।
आश्रमाश्च महर्षीणां बहुमूलफलान्विता: ।। २२ ।।
एष पन्था विदर्भाणामसौ गच्छति कोसलान् |
अतः परं च देशो<यं दक्षिणे दक्षिणापथ: ।। २३ ।।
“यह महान् पर्वत विन्ध्य दिखायी दे रहा है और यह समुद्रगामिनी पयोष्णी नदी है। यहाँ
महर्षियोंके बहुत-से आश्रम हैं, जहाँ प्रचुर मात्रामें फल-मूल उपलब्ध हो सकते हैं। यह
विदर्भदेशका मार्ग है और वह कोसलदेशको जाता है। दक्षिण दिशामें इसके बादका देश
दक्षिणापथ कहलाता है” ।। २२-२३ ।।
एतद् वाक््यं नलो राजा दमयन्तीं समाहित: ।
उवाचासकृदार्तो हि भैमीमुद्दिश्य भारत ।। २४ ।।
भारत! राजा नलने एकाग्रचित्त होकर बड़ी आतुरताके साथ दमयन्तीसे उपर्युक्त बातें
बार-बार कहीं || २४ ।।
ततः सा बाष्पकलया वाचा दु:खेन कर्शिता ।
उवाच दमयन्ती तं नैषधं करुणं वच: ।। २५ ।।
तब दमयन्ती अत्यन्त दुःखसे दुर्बल हो नेत्रोंसे आँसू बहाती हुई गद्गद वाणीमें राजा
नलसे यह करुण वचन बोली-- || २५ ।।
उद्वेजते मे हृदयं सीदन्त्यड्रानि सर्वश:ः ।
तव पार्थिव संकल्पं चिन्तयन्त्या: पुन: पुन: ।। २६ ।।
ह्ृतराज्यं ह्ृतद्रव्यं विवस्त्र क्षुच्छूमान्वितम् ।
कथमुत्सृज्य गच्छेयमहं त्वां निर्जने वने | २७ ।।
“महाराज! आपका मानसिक संकल्प क्या है, इसपर जब मैं बार-बार विचार करती हूँ,
तब मेरा हृदय उद्विग्न हो उठता है और सारे अंग शिथिल हो उठते हैं। आपका राज्य छिन
गया। धन नष्ट हो गया। आपके शरीरपर वस्त्रतक नहीं रह गया तथा आप भूख और
परिश्रमसे कष्ट पा रहे हैं। ऐसी अवस्थामें इस निर्जन वनमें आपको असहाय छोड़कर मैं
कैसे जा सकती हूँ? ।।
भ्रान्तस्य ते क्षुधार्तस्य चिन्तयानस्यथ तत् सुखम् ।
वने घोरे महाराज नाशयिष्याम्यहं क्लमम् ।। २८ ।।
“महाराज! जब आप भयंकर वनमें थके-माँदे भूखसे पीड़ित हो अपने पूर्व सुखका
चिन्तन करते हुए अत्यन्त दुःखी होने लगेंगे, उस समय मैं सान्त्वनाद्वारा आपके संतापका
निवारण करूँगी ।। २८ ।।
न च भार्यासमं किंचिद् विद्यते भिषजां मतम् |
औषध॑ सर्वदु:खेषु सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ।। २९ ।।
“चिकित्सकोंका मत है कि समस्त दु:ःखोंकी शान्तिके लिये पत्नीके समान दूसरी कोई
औषध नहीं है; यह मैं आपसे सत्य कहती हूँ” ।। २९ ।।
नल उवाच
एवमेतद् यथा55त्थ त्वं दमयन्ति सुमध्यमे ।
नास्ति भार्यासमं मित्र नरस्यार्तस्य भेषजम् ।। ३० ।।
नलने कहा--सुमध्यमा दमयन्ती! तुम जैसा कहती हो वह ठीक है। दुःखी मनुष्यके
लिये पत्नीके समान दूसरा कोई मित्र या औषध नहीं है || ३० ।।
न चाहं त्यक्तकामस्त्वां किमलं भीरु शड्कसे ।
त्यजेयमहमात्मानं न चैव त्वामनिन्दिते || ३१ ।।
भीरु! मैं तुम्हें त्यागना नहीं चाहता, तुम इतनी अधिक शंका क्यों करती हो?
अनिन्दिते! मैं अपने शरीरका त्याग कर सकता हूँ, पर तुम्हें नहीं छोड़ सकता ।। ३१ ।।
दमयन्त्युवाच
यदि मां त्वं महाराज न विहातुमिहेच्छसि ।
तत् किमर्थ विदर्भाणां पन्था: समुपदिश्यते ॥। ३२ ।।
दमयन्तीने कहा--महाराज! यदि आप मुझे त्यागना नहीं चाहते तो विदर्भदेशका मार्ग
क्यों बता रहे हैं? ।। ३२ ।।
अवैमि चाहं नृपते न तु मां त्यक्तुमहसि ।
चेतसा त्वपकृष्टेन मां त्यजेथा महीपते ।। ३३ ।।
राजन! मैं जानती हूँ कि आप स्वयं मुझे नहीं त्याग सकते, परंतु महीपते! इस घोर
आपत्तिने आपके चित्तको आकर्षित कर लिया है, इस कारण आप मेरा त्याग भी कर
सकते हैं || ३३ ।।
पन्थानं हि ममाभीक्ष्णमाख्यासि च नरोत्तम ।
अतो निमित्तं शोकं मे वर्धयस्यमरोपम ।। ३४ ।।
नरश्रेष्ट! आप बार-बार जो मुझे विदर्भदेशका मार्ग बता रहे हैं। देवोपम आर्यपुत्र!
इसके कारण आप मेरा शोक ही बढ़ा रहे हैं || ३४ ।।
यदि चायमभिप्रायस्तव ज्ञातीन् व्रजेदिति ।
सहितावेव गच्छावो विदर्भान् यदि मन्यसे || ३५ ।।
यदि आपका यह अभिप्राय हो कि दमयन्ती अपने बन्धु-बान्धवोंके यहाँ चली जाय तो
आपकी सम्मति हो तो हम दोनों साथ ही विदर्भदेशको चलें ।। ३५ ।।
विदर्भराजत्तत्र त्वां पूजयिष्यति मानद ।
तेन त्वं पूजितो राजन् सुखं वत्स्यसि नो गृहे ।। ३६ ।।
मानद! वहाँ विदर्भनरेश आपका पूरा आदर-सत्कार करेंगे। राजन्! उनसे पूजित होकर
आप हमारे घरमें सुखपूर्वक निवास कीजियेगा ।। ३६ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि नलवनयात्रायामेकषष्टितमो< ध्याय:
॥ ६३ |।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें नलकी वनयात्राविषयक
इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ६१ ॥
#::73:.8 #::3-...7 (0) हि २ 7
द्विषष्टितमो<5 ध्याय:
राजा नलकी चिन्ता और दमयन्तीको अकेली सोती
छोड़कर उनका अन्यत्र प्रस्थान
नल उवाच
यथा राज्यं तव पितुस्तथा मम न संशय: ।
न तु तत्र गमिष्यामि विषमस्थ: कथंचन ।। १ ।।
नलने कहा--प्रिये! इसमें संदेह नहीं कि विदर्भराज्य जैसे तुम्हारे पिताका है, वैसे मेरा
भी है, तथापि आपकत्तिमें पड़ा हुआ मैं किसी तरह वहाँ नहीं जाऊँगा ।। १ ।।
कथं समृद्धो गत्वाहं तव हर्षविवर्धन: ।
परिच्युतो गमिष्यामि तव शोकविवर्धन: ।। २ ।।
एक दिन मैं भी समृद्धिशाली राजा था। उस अवस्थामें वहाँ जाकर मैंने तुम्हारे हर्षको
बढ़ाया था और आज उस राज्यसे वंचित होकर केवल तुम्हारे शोककी वृद्धि कर रहा हूँ,
ऐसी दशामें वहाँ कैसे जाऊँगा? ।। २ ।।
बृहदश्च उवाच
इति ब्रुवन् नलो राजा दमयन्तीं पुन: पुन: ।
सान्त्वयामास कल्याणीं वाससोअर्धेन संवृताम् ।। ३ ।।
तावेकवस्त्रसंवीतावटमानावितस्तत: ।
क्षुत्पिपासापरिश्रान्ती सभां कांचिदुपेयतु: ।। ४ ।।
बृहदश्च मुनि कहते हैं--राजन्! आधे वस्त्रसे ढकी हुई कल्याणमयी दमयन्तीसे बार-
बार ऐसा कहकर राजा नलने उसे सान्त्वना दी; क्योंकि वे दोनों एक ही वस्त्रसे अपने
अंगोंको ढककर इधर-उधर घूम रहे थे। भूख और प्याससे थके-माँदे वे दोनों दम्पति किसी
सभाभवन (धर्मशाला)-में जा पहुँचे || ३-४ ।।
तां सभामुपसम्प्राप्प तदा स निषधाधिप: ।
वैदर्भ्या सहितो राजा निषसाद महीतले ।। ५ ।।
तब उस धर्मशालामें पहुँचकर निषधनरेश राजा नल वैदर्भके साथ भूतलपर
बैठे ।। ५ ।।
स वै विवस्त्रो विकटो मलिन: पांसुगुण्ठित: ।
दमयन्त्या सह श्रान्तः सुष्वाप धरणीतले ।। ६ ।।
वे वस्त्रहीन, चटाई आदिसे रहित, मलिन एवं धूलि-धूसरित हो रहे थे। दमयन्तीके साथ
थककर भूमिपर ही सो गये ।। ६ ।।
दमयन्त्यपि कल्याणी निद्रयापहता तत: ।
सहसा दुःखमासाद्य सुकुमारी तपस्विनी ।। ७ ।।
सुकुमारी तपस्विनी कल्याणमयी दमयन्ती भी सहसा दुःखमें पड़ गयी थी। वहाँ
आनेपर उसे भी निद्राने घेर लिया | ७ ।।
सुप्तायां दमयन्त्यां तु नलो राजा विशाम्पते ।
शोकोन्मथितचित्तात्मा न सम शेते तथा पुरा ।। ८ ।।
राजन्! राजा नलका चित्त शोकसे मथा जा रहा था। वे दमयन्तीके सो जानेपर भी
स्वयं पहलेकी भाँति सो न सके ।। ८ ।।
स तद् राज्यापहरणं सुद्वत्त्यागं च सर्वश: ।
वने च त॑ परिध्वंसं प्रेक्ष्य चिन्तामुपेयिवान् ।। ९ ।।
राज्यका अपहरण, सुहृदोंका त्याग और वनमें प्राप्त होनेवाले नाना प्रकारके क्लेशपर
विचार करते हुए वे चिन्ताको प्राप्त हो गये ।। ९ ।।
किं नु मे स्यादिदं कृत्वा कि नु मे स्यादकुर्वत: ।
कि नु मे मरणं श्रेय: परित्यागो जनस्य वा ।। १० ।।
वे सोचने लगे "ऐसा करनेसे मेरा क्या होगा और यह कार्य न करनेसे भी क्या होगा।
मेरा मर जाना अच्छा है कि अपनी आत्मीया दमयन्तीको त्याग देना ।। १० ।।
मामियं हानुरक्तैवं दुःखमाप्रोति मत्कृते ।
मद्विहीना त्वियं गच्छेत् कदाचित् स्वजनं प्रति ।। ११ ।।
“यह मुझसे इस प्रकार अनुरक्त होकर मेरे ही लिये दुःख उठा रही है। यदि मुझसे अलग
हो जाय तो यह कदाचित् अपने स्वजनोंके पास जा सकती है ।। ११ ।।
मयि नि:संशयं दुःखमियं प्राप्स्यत्यनुव्रता ।
उत्सगें संशय: स्यात् तु विन्देतापि सुखं क्वचित् ।। १२ ।।
“मेरे पास रहकर तो यह पतित्रता नारी निश्चय ही केवल दुःख भोगेगी। यद्यपि इसे
त्याग देनेपर एक संशय बना रहेगा तो भी यह सम्भव है कि इसे कभी सुख मिल
जाय' ।। १२ ।।
स विनिश्चित्य बहुधा विचार्य च पुनः पुन: ।
उत्सर्ग मन्यते श्रेयो दमयन्त्या नराधिप ।। १३ ।।
राजन! नल अनेक प्रकारसे बार-बार विचार करके एक निश्चयपर पहुँच गये और
दमयन्तीका परित्याग कर देनेमें ही उसकी भलाई मानने लगे ।। १३ ।।
न चैषा तेजसा शक्या कैश्िद् धर्षयितुं पथि ।
यशस्विनी महाभागा मद्धक्तेयं पतिव्रता ।। १४ ।।
“यह महाभागा यशस्विनी दमयन्ती मेरी भक्त और पतित्रता है। पातिव्रत-तेजके कारण
मार्गमें कोई इसका सतीत्व नष्ट नहीं कर सकता” ।। १४ ।।
एवं तस्य तदा बुद्धिर्दमयन्त्यां न्यवर्तत ।
कलिना दुष्टभावेन दमयन्त्या विसर्जने ।। १५ ।।
ऐसा सोचकर उनकी बुद्धि दमयन्तीको अपने साथ रखनेके विचारसे निवृत्त हो गयी।
बल्कि दुष्ट स्वभाववाले कलियुगसे प्रभावित होनेके कारण दमयन्तीको त्याग देनेमें ही
उनकी बुद्धि प्रवृत्त हुई ।। १५ ।।
सो<वस्त्रतामात्मनश्व तस्याश्वाप्येकवस्त्रताम् ।
चिन्तयित्वाध्यगाद् राजा वस्त्रार्धस्यावकर्तनम् ।। १६ ।।
तदनन्तर राजाने अपनी वस्त्रहीनता और दमयन्तीकी एकवस्त्रताका विचार करके
उसके आधे वस्त्रको फाड़ लेना ही उचित समझा ॥। १६ |।
कथं वासो विकर्तेयं न च बुध्येत मे प्रिया ।
विचिन्त्यैवं नलो राजा सभां पर्यचरत्तदा ।। १७ ।।
फिर यह सोचकर कि “मैं कैसे वस्त्रको काटूँ, जिससे मेरी प्रियाकी नींद न टूटे।” राजा
नल धर्मशालामें (नंगे ही) इधर-उधर घूमने लगे ।। १७ ।।
परिधावन्नथ नल इतश्रैतश्ष भारत ।
आससाद सभोद्देशे विकोशं खड्गमुत्तमम् ।। १८ ।।
भारत! इधर-उधर दौड़-धूप करनेपर राजा नलको उस सभाभवनमें एक अच्छी-सी
नंगी तलवार मिल गयी ।। १८ ।।
तेनार्थ वाससश्कछित्त्वा निवस्य च परंतप: ।
सुप्तामुत्सृज्य वैदर्भी प्राद्रवद् गतचेतनाम् ।। १९ ।।
उसीसे दमयन्तीका आधा वस्त्र काटकर परंतप नलने उसके द्वारा अपना शरीर ढँक
लिया और अचेत सोती हुई विदर्भराजकुमारी दमयन्तीको वहीं छोड़कर वे शीघ्रतासे चले
गये ।। १९ ।।
ततो निवृत्तहदय: पुनरागम्य तां सभाम् |
दमयन्तीं तदा दृष्टवा रुरोद निषधाधिप: ।। २० ।।
कुछ दूर जानेपर उनके हृदयका विचार पलट गया और वे पुनः उसी सभाभवनमें लौट
आये। वहाँ उस समय दमयन्तीको देखकर निषधनरेश नल फूट-फूटकर रोने लगे || २० ।।
यां न वायुर्न चादित्य: पुरा पश्यति मे प्रियाम् ।
सेयमद्य सभामध्ये शेते भूमावनाथवत् ।। २१ ।।
(वे विलाप करते हुए कहने लगे--) “पहले जिस मेरी प्रियतमा दमयन्तीको वायु तथा
सूर्य देवता भी नहीं देख पाते थे, वही आज इस धर्मशालामें भूमिपर अनाथकी भाँति सो
रही है || २१ ।।
इयं वस्त्रावकर्तेन संवीता चारुहासिनी ।
उन्मत्तेव वरारोहा कथं बुद्ध्वा भविष्यति ।। २२ ।।
“यह मनोहर हास्यवाली सुन्दरी वस्त्रके आधे टुकड़ेसे लिपटी हुई सो रही है। जब
इसकी नींद खुलेगी, तब पगली-सी होकर न जाने यह कैसी दशाको पहुँच
जायगी ।। २२ ।।
कथमेका सती भैमी मया विरहिता शुभा ।
चरिष्यति वने घोरे मृगव्यालनिषेविते ।। २३ ।।
“यह भयंकर वन हिंसक पशुओं और सर्पोंसे भरा है। मुझसे बिछुड़कर शुभलक्षणा
सती दमयन्ती अकेली इस वनमें कैसे विचरण करेगी? ।। २३ ।।
आदित्या वसवो रुद्रा अश्विनौ समरुद्गणौ ।
रक्षन्तु त्वां महाभागे धर्मेणासि समावृता || २४ ।।
“महाभागे! तुम धर्मसे आवृत हो, आदित्य, वसु, रुद्र, अश्विनीकुमार और मरुठ्वण--ये
सब देवता तुम्हारी रक्षा करें! || २४ ।।
एवमुकक्त्वा प्रियां भार्या रूपेणाप्रतिमां भुवि |
कलिनापद्वतज्ञानो नल: प्रातिष्ठदुद्यत: ।। २५ ।।
इस भूतलपर रूप-सौन्दर्यमें जिसकी समानता करनेवाली दूसरी कोई स्त्री नहीं थी,
उसी अपनी प्यारी पत्नी दमयन्तीके प्रति इस प्रकार कहकर राजा नल वहाँसे उठे और चल
दिये। उस समय कलिने इनकी विवेकशक्ति हर ली थी ।। २५ ।।
गत्वा गत्वा नलो राजा पुनरेति सभा मुहुः ।
आकृष्यमाण: कलिना सौहृदेनावकृष्यते ।। २६ ।।
राजा नलको एक ओर कलियुग खींच रहा था और दूसरी ओर दमयन्तीका सौहार्द।
अतः: वे बार-बार जाकर फिर उस धर्मशालामें ही लौट आते थे ।। २६ ।।
द्विधेव हृदयं तस्य दुःखितस्याभवत् तदा |
दोलेव मुहुरायाति याति चैव सभां प्रति ॥। २७ ।।
उस समय दु:ःखी राजा नलका हृदय मानो दुविधामें पड़ गया था। जैसे झूला बार-बार
नीचे-ऊपर आता-जाता रहता है, उसी प्रकार उनका हृदय कभी बाहर जाता, कभी
सभाभवनमें लौट आता था ।। २७ ।।
अवकृष्टस्तु कलिना मोहित: प्राद्रवन्नल: ।
सुप्तामुत्सृज्य तां भार्या विलप्य करुणं बहु । २८ ।।
अन्तमें कलियुगने प्रबल आकर्षण किया, जिससे मोहित होकर राजा नल बहुत देरतक
करुण विलाप करके अपनी सोती हुई पत्नीको छोड़कर शीघ्रतासे चले गये || २८ ।।
नष्टात्मा कलिना स्पृष्टस्तत् तद् विगणयन् नृपः ।
जगामैकां वने शून्ये भार्यामुत्सृज्य दु:खित: ।। २९ ।।
कलियुगके स्पर्शसे उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी; अतः वे अत्यन्त दुःखी हो विभिन्न
बातोंका विचार करते हुए उस सूने वनमें अपनी पत्नीको अकेली छोड़कर चल
दिये || २९ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि दमयन्तीपरित्यागे
द्विषष्टितमो5 ध्याय: ।। ६२ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें दमयन्तीपरित्यागविषयक
बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ६२ ॥
हि मय >> (0) हि २ 7
त्रेषष्टितमोड् ध्याय:
दमयन्तीका विलाप तथा अजगर एवं व्याधसे उसके प्राण
एवं सतीत्वकी रक्षा तथा दमयन्तीके पातितव्रत्य धर्मके
प्रभावसे व्याधका विनाश
ब॒हृदश्चव उवाच
अपक्रान्ते नले राजन् दमयन्ती गतक्लमा ।
अबुध्यत वरारोहा संत्रस्ता विजने वने ।। १ ।।
अपश्यमाना भर्तारें शोकदुःखसमन्विता ।
प्राक्रोशदुच्चै: संत्रस्ता महाराजेति नैषधम् ।। २ ।।
बृहदश्वच मुनि कहते हैं--राजन्! नलके चले जानेपर जब दमयन्तीकी थकावट दूर हो
गयी, तब उसकी आँख खुली। उस निर्जन वनमें अपने स्वामीको न देखकर सुन्दरी दमयन्ती
भयातुर और दुःख-शोकसे व्याकुल हो गयी। उसने भयभीत होकर निषधनरेश नलको
“महाराज! आप कहाँ हैं?' यह कहकर बड़े जोरसे पुकारा ।। १-२ ।।
हा नाथ हा महाराज हा स्वामिन् कि जहासि माम् ।
हा हतास्मि विनष्टास्मि भीतास्मि विजने वने ।। ३ ।।
/हा नाथ! हा महाराज! हा स्वामिन्! आप मुझे क्यों त्याग रहे हैं? हाय! मैं मारी गयी,
नष्ट हो गयी, इस जनशून्य वनमें मुझे बड़ा भय लग रहा है ।। ३ ।।
ननु नाम महाराज धर्मज्ञ: सत्यवागसि ।
कथमुकत्वा तथा सत्यं सुप्तामुत्सूज्य कानने ।। ४ ।।
“महाराज! आप तो धर्मज्ञ और सत्यवादी हैं; फिर वैसी सच्ची प्रतिज्ञा करके आज
आप इस जंगलमें मुझे सोती छोड़कर कैसे चले गये? ।। ४ ।।
कथमुत्सृज्य गन्तासि दक्षां भार्यामनुव्रताम् ।
विशेषतो5नपकृते परेणापकृते सति ।। ५ ।।
“मैं आपकी सेवामें कुशल और अनुरक्त भार्या हूँ। विशेषतः मेरे द्वारा आपका कोई
अपराध भी नहीं हुआ है। यदि कोई अपराध हुआ है, तो वह दूसरेके ही द्वारा, मुझसे नहीं;
तो भी आप मुझे त्यागकर क्यों चले जा रहे हैं? ।। ५ ।।
शकक््यसे ता गिर: सम्यक् कर्तु मयि नरेश्वर ।
यास्तेषां लोकपालानां संनिधौ कथिता: पुरा ॥। ६ ।।
“नरेश्वर! आपने पहले स्वयंवरसभामें उन लोकपालोंके निकट जो बातें कहीं थीं, क्या
आप उन्हें आज मेरे प्रति सत्य सिद्ध कर सकेंगे? ।। ६ ।।
नाकाले विहितो मृत्युर्म्त्यानां पुरुषर्षभ ।
तत्र कान्ता त्वयोत्सृष्टा मुहूर्तमपि जीवति ॥। ७ ।।
“पुरुषशिरोमणे! मनुष्योंकी मृत्यु असमयमें नहीं होती, तभी तो आपकी यह प्रियतमा
आपसे परित्यक्त होकर दो घड़ी भी जी रही है || ७ ।।
पर्याप्त: परिहासो5यमेतावान् पुरुषर्षभ ।
भीताहमतिदुर्थर्ष दर्शयात्मानमीश्वर ।। ८ ।।
'पुरुषश्रेष्ठ! यहाँ इतना ही परिहास बहुत है। अत्यन्त दुर्धर्ष वीर! मैं बहुत डर गयी हूँ।
प्राणेश्वर! अब मुझे अपना दर्शन दीजिये ।। ८ ।।
दृश्यसे दृश्यसे राजन्नेष दृष्टोडईसि नैषध ।
आवार्य गुल्मैरात्मानं कि मां न प्रतिभाषसे ।। ९ ।।
“राजन्! निषधनरेश! आप दीख रहे हैं, दीख रहे हैं, यह दिखायी दिये। लताओंद्वारा
अपनेको छिपाकर आप मुझसे बात क्यों नहीं कर रहे हैं? ।। ९ ।।
नृशंसं बत राजेन्द्र यन्मामेवंगतामिह ।
विलपन्तीं समागम्य नाश्वासयसि पार्थिव ।। १० ।।
'राजेन्द्र! मैं इस प्रकार भय और चिन्तामें पड़कर यहाँ विलाप कर रही हूँ और आप
आकर आश्रासन भी नहीं देते! भूपाल! यह तो आपकी बड़ी निर्दयता है || १० ।।
न शोचाम्यहमात्मानं न चान्यदपि किंचन ।
कथं नु भवितास्येक इति त्वां नूप शोचिमि ।। ११ ।।
“नरेश्वर! मैं अपने लिये शोक नहीं करती। मुझे दूसरी किसी बातका भी शोक नहीं है।
मैं केवल आपके लिये शोक कर रही हूँ कि आप अकेले कैसी शोचनीय दशामें पड़
जायँगे! ।। ११ ।।
कथं नु राज॑स्तृषित: क्षुधित: श्रमकर्षित: ।
सायाह्ले वृक्षमूलेषु मामपश्यन् भविष्यसि ।। १२ ।।
“राजन! आप भूखे-प्यासे और परिश्रमसे थके-माँदे होकर जब सायंकाल किसी वृक्षके
नीचे आकर विश्राम करेंगे, उस समय मुझे अपने पास न देखकर आपकी कैसी दशा हो
जायगी?” ।। १२ ।।
ततः सा तीव्रशोकार्ता प्रदीप्तेव च मन्युना ।
इतश्वेतश्न रुदती पर्यधावत दु:खिता ।। १३ ।।
तदनन्तर प्रचण्ड शोकसे पीड़ित हो क्रोधाग्निसे दग्ध होती हुई-सी दमयन्ती अत्यन्त
दुःखी हो रोने और इधर-उधर दौड़ने लगी ।। १३ ।।
मुहुरुत्पतते बाला मुहुः पतति विह्वला ।
मुहुरालीयते भीता मुहुः क्रोशति रोदिति ।। १४ ।।
दमयन्ती बार-बार उठती और बार-बार विह्नल होकर गिर पड़ती थी। वह कभी
भयभीत होकर छिपती और कभी जोर-जोरसे रोने-चिल्लाने लगती थी ।। १४ ।।
अतीव शोकसंततप्ता मुहुर्नि:श्वस्य विद्नला ।
उवाच भैमी नि:श्वस्य रुदत्यथ पतिव्रता ।। १५ ।।
अत्यन्त शोकसंतप्त हो बार-बार लंबी साँसें खींचती हुई व्याकुल पतिव्रता दमयन्ती
दीर्घ नि:श्वास लेकर रोती हुई बोली-- ।। १५ ।।
यस्याभिशापाद् दुः:खारतों दुःखं विन्दति नैषध: ।
तस्य भूतस्य नो दुःखाद् दुःखमप्यधिकं भवेत् ।। १६ ।।
“जिसके अभिशापसे निषधनरेश नल दुःखसे पीड़ित हो क्लेश-पर-क्लेश उठाते जा रहे
हैं, उस प्राणीको हमलोगोंके दुःखसे भी अधिक दु:ख प्राप्त हो ।। १६ ।।
अपापचेतसं पापो य एवं कृतवान् नलम् |
तस्माद् दुःखतरं प्राप्प जीवत्वसुखजीविकाम् ।। १७ ।।
“जिस पापीने पुण्यात्मा राजा नलको इस दशामें पहुँचाया है, वह उनसे भी भारी
दुःखमें पड़कर दुःखकी ही जिंदगी बितावे” || १७ ।।
एवं तु विलपन्ती सा राज्ञो भार्या महात्मन: ।
अन्वेषमाणा भार्तरं बने श्वापदसेविते ।। १८ ।।
उन्मत्तवद् भीमसुता विलपन्ती इतस्तत: ।
हा हा राजन्निति मुहुरितश्वेतश्न धावति ।। १९ ।।
इस प्रकार विलाप करती तथा हिंख्र जन्तुओंसे भरे हुए वनमें अपने पतिको ढूँढ़ती हुई
महामना राजा नलकी पत्नी भीमकुमारी दमयन्ती उन्मत्त हुई रोती-बिलखती और “हा
राजन! हा महाराज” ऐसा बार-बार कहती हुई इधर-उधर दौड़ने लगी ।। १८-१९ ।।
तां क्रन्दमानामत्यर्थ कुररीमिव वाशतीम् |
करुणं बहु शोचन्तीं विलपन्तीं मुहुर्मुहु: |। २० ।।
सहसाभ्यागतां भैमीमभ्याशपरिवर्तिनीम् ।
जग्राहाजगरो ग्राहो महाकाय: क्षुधान्वित: ।। २१ ।।
वह कुररी पक्षीकी भाँति जोर-जोरसे करुण क्रन्दन कर रही थी और अत्यन्त शोक
करती हुई बार-बार विलाप कर रही थी। वहाँसे थोड़ी ही दूरपर एक विशालकाय भूखा
अजगर बैठा था। उसने बार-बार चक्कर लगाती सहसा निकट आयी हुई भीमकुमारी
दमयन्तीको (पैरोंकी ओरसे) निगलना आरम्भ कर दिया || २०-२१ |।
सा ग्रस्यमाना ग्राहेण शोकेन च परिप्लुता ।
नात्मानं शोचति तथा यथा शोचति नैषधम् ।। २२ ।।
शोकमें डूबी हुई वैदर्भीको अजगर निगल रहा था, तो भी वह अपने लिये उतना शोक
नहीं कर रही थी, जितना शोक उसे निषधनरेश नलके लिये था | २२ ।।
हा नाथ मामिह वने ग्रस्यमानामनाथवत् |
ग्राहेणानेन विजने किमर्थ नानुधावसि ।। २३ ।।
(वह विलाप करती हुई कहने लगी--) “हा नाथ! इस निर्जन वनमें यह अजगर सर्प
मुझे अनाथकी भाँति निगल रहा है। आप मेरी रक्षाके लिये दौड़कर आते क्यों नहीं
हैं? ।। २३ ।।
कथं भविष्यसि पुनर्मामनुस्मृत्य नैषध ।
कथं भवागञ्जगामाद्य मामुत्सृज्य वने प्रभो ।। २४ ।।
“निषधनरेश! यदि मैं मर गयी, तो मुझे बार-बार याद करके आपकी कैसी दशा हो
जायगी? प्रभो! आज मुझे वनमें छोड़कर आप क्यों चले गये? ।। २४ ।।
पापान्मुक्तः पुनर्लब्ध्वा बुद्धिं चेतो धनानि च ।
भ्रान्तस्य ते क्षुधार्तस्य परिग्लानस्य नैषध ।
कः श्रमं राजशार्दूल नाशयिष्यति तेडनघ ।। २५ ।।
“निष्पाप निषधनरेश! इस संकटसे मुक्त होनेपर जब आपको पुनः शुद्ध बुद्धि, चेतना
और धन आदिकी प्राप्ति होगी, उस समय मेरे बिना आपकी क्या दशा होगी? नृपप्रवर! जब
आप भूखसे पीड़ित हो थके-माँदे एवं अत्यन्त खिन्न होंगे, उस समय आपकी उस
थकावटको कौन दूर करेगा?” ।। २५ ।।
ततः कश्रनिन्मृगव्याधो विचरन् गहने वने ।
आक्रन्दमानां संश्रुत्य जवेनाभिससार ह ।। २६ ।।
इसी समय कोई व्याध उस गहन वनमें विचर रहा था। वह दमयन्तीका करुण क्रन्दन
सुनकर बड़े वेगसे उधर आया ।। २६ ।।
तां तु दृष्टवा तथा ग्रस्तामुरगेणायतेक्षणाम् ।
त्वरमाणो मृगव्याध: समभिक्रम्य वेगत: ।। २७ ।।
मुखत: पाटयामास शस्त्रेण निशितेन च ।
निर्विचेष्ट भुजड़ं तं विशस्यथ मृगजीवन: ।। २८ ।।
मोक्षयित्वा स तां व्याध: प्रक्षाल्य सलिलेन ह ।
समाश्वास्य कृताहारामथ पप्रच्छ भारत ।। २९ ।।
उस विशाल नयनोंवाली युवतीको अजगरके द्वारा उस प्रकार निगली जाती हुई देख
व्याधने बड़ी उतावलीके साथ वेगसे दौड़कर तीखे शस्त्रसे शीघ्र ही उस अजगरका मुख
फाड़ दिया। वह अजगर छटपटाकर चेष्टारहित हो गया। मृगोंको मारकर जीविका
चलानेवाले उस व्याधने सर्पके टुकड़े-टुकड़े करके दमयन्तीको छुड़ाया। फिर जलसे उसके
सर्पग्रस्त शरीरको धोकर उसे आश्वासन दे उसके लिये भोजनकी व्यवस्था कर दी। भारत!
जब वह भोजन कर चुकी, तब व्याधने उससे पूछा--- || २७--२९ |।
कस्य त्वं मृगशावाक्षि कथं चाभ्यागता वनम् |
कथं चेदं महत् कृच्छूं प्राप्तवत्यसि भाविनि ॥। ३० ।।
“मृगलोचने! तुम किसकी स्त्री हो और कैसे वनमें चली आयी हो? भामिनि! किस
प्रकार तुम्हें यह महान् कष्ट प्राप्त हुआ है?” ।। ३० ।।
दमयन्ती तथा तेन पृच्छयमाना विशाम्पते ।
सर्वमेतद् यथावृत्तमाचचक्षेडस्य भारत ।। ३१ ।।
भरतवंशी नरेश युधिष्ठिर! व्याधके पूछनेपर दमयन्तीने उसे सारा वृत्तान्त यथार्थरूपसे
कह सुनाया ।। ३१ ।।
तामर्धवस्त्रसंवीतां पीनश्रोणिपयोधराम् ।
सुकुमारानवद्याज़ीं पूर्णचन्द्रनिभाननाम् ।। ३२ ।।
अरालपक्ष्मनयनां तथा मधुरभाषिणीम् |
लक्षयित्वा मृगव्याध: कामस्य वशमीयिवान् ।। ३३ ।।
स्थूल नितम्ब और स्तनोंवाली विदर्भकुमारीने आधे वस्त्रसे ही अपने अंगोंको ढँक रखा
था। पूर्ण चन्द्रमाके समान मनोहर मुखवाली दमयन्तीका एक-एक अंग सुकुमार एवं निर्दोष
था। उसकी आँखें तिरछी बरौनियोंसे सुशोभित थीं और वह बड़े मधुर स्वरमें बोल रही थी।
इन सब बातोंकी ओर लक्ष्य करके वह व्याध कामके अधीन हो गया ।। ३२-३३ ।।
तामेवं श्लक्षणया वाचा लुब्धको मृदुपूर्वया ।
सान्त्वयामास कामार्तस्तदबुध्यत भाविनी ।। ३४ ।।
वह मधुर एवं कोमल वाणीसे उसे अपने अनुकूल बनानेके लिये भाँति-भाँतिके
आश्वासन देने लगा। वह व्याध उस समय कामवेदनासे पीड़ित हो रहा था। सती दमयन्तीने
उसके दूषित मनोभावको समझ लिया ।॥। ३४ ।।
दमयन्त्यपि त॑ दुष्टमुपल भ्य पतिव्रता ।
तीव्ररोषसमाविष्टा प्रजज्वालेव मन्युना ।। ३५ ।।
पतिव्रता दमयन्ती भी उसकी दुष्टताको समझकर तीव्र क्रोधके वशीभूत हो मानो
रोषाग्निसे प्रजवलित हो उठी || ३५ ।।
सती दमयन्तीके तेजसे पापी व्याधका विनाश
स तु पापमति): क्षुद्र: प्रधर्षयितुमातुर: ।
दुर्धर्षा तर्कयामास दीप्तामग्निशिखामिव ।। ३६ ।।
यद्यपि वह नीच पापात्मा व्याध उसपर बलात्कार करनेके लिये व्याकुल हो गया था,
परंतु दमयन्ती अग्निशिखाकी भाँति उद्दीप्त हो रही थी; अतः उसका स्पर्श करना उसको
अत्यन्त दुष्कर प्रतीत हुआ ।। ३६ ।।
दमयन्ती तु दुःखार्ता पतिराज्यविनाकृता ।
अतीतवाक्पथे काले शशापैनं रुषान्विता ।। ३७ ।।
पति तथा राज्य दोनोंसे वंचित होनेके कारण दमयन्ती अत्यन्त दुःखसे आतुर हो रही
थी। इधर व्याधकी कुचेष्टा वाणीद्वारा रोकनेपर रुक सके, ऐसी प्रतीत नहीं होती थी। तब
(उस व्याधपर अत्यन्त रुष्ट हो) उसने उसे शाप दे दिया-- || ३७ ।।
यद्यहं नैषधादन्यं मनसापि न चिन्तये ।
तथायं पततां क्षुद्रो परासुर्मुगजीवन: ।। ३८ ।।
“यदि मैं निषधराज नलके सिवा दूसरे किसी पुरुषका मनसे भी चिन्तन नहीं करती
होऊँ, तो इसके प्रभावसे यह तुच्छ व्याध प्राणशून्य होकर गिर पड़े” ।। ३८ ।।
उक्तमात्रे तु वचने तथा स मृगजीवन: ।
व्यसु: पपात मेदिन्यामग्निदग्ध इव द्रुम: ।। ३९ ।।
दमयन्तीके इतना कहते ही वह व्याध आगसे जले हुए वृक्षकी भाँति प्राणशून्य होकर
पृथ्वीपर गिर पड़ा ।। ३९ ।।
बह ब स्तर कम त्यपस त्ज््द्धच
||
कट ;र
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि अजगरग्रस्तदमयन्तीमोचने
त्रिषपष्टितमोड ध्याय: ।। ६३ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें
अजगरग्रस्तदमयन्तीमोचनविषयक तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ६३ ॥।
#::73:.8 #::3:..7 () हि २ 7
चतु:षष्टितमो<5 ध्याय:
दमयन्तीका विलाप और प्रलाप, तपस्वियोंद्वारा
दमयन्तीको आश्वासन तथा उसकी व्यापारियोंके दलसे भेंट
बृहृदश्च उवाच
सा निहत्य मृगव्याधं प्रतस्थे कमलेक्षणा ।
वन॑ प्रतिभयं शून्यं झेल्लिकागणनादितम् ।। १ ॥।
बृहदश्वच मुनि कहते हैं--राजन्! व्याधका विनाश करके वह कमलनयनी राजकुमारी
झिल्लियोंकी झंकारसे गूँजते हुए निर्जन एवं भयंकर वनमें आगे बढ़ी ।। १ ।।
सिंहद्वीपिरुरुव्याप्रमहिषर्क्षगणैर्युतम् ।
नानापक्षिगणाकीर्ण म्लेच्छतस्करसेवितम् ।। २ ।।
वह वन सिंह, चीतों, रुरुमृग, व्याप्र, भैंसों तथा रीछ आदि पशुओंसे युक्त एवं भाँति-
भाँतिके पक्षि-समुदायसे व्याप्त था। वहाँ म्लेच्छ और तस्करोंका निवास था ।। २ ।।
शालवेणुधवाश्वत्थतिन्दुकेड्गुदकिंशुकै: ।
अर्जुनारिष्टसंछन्नं स्यन्दनैश्व सशाल्मलै: ।। ३ ।।
जम्ब्वाग्नलो ध्रखदिरसालवेत्रसमाकुलम् ।
पद्मकामलकप्लक्षकदम्बोदुम्बरावृतम् ।। ४ ।।
बदरीबिल्वसंछन्न॑ न्यग्रोधैश्व समाकुलम् |
प्रियालतालखर्जूरहरीतकबिभीतकै: ।। ५ ।।
शाल, वेणु, धव, पीपल, तिन्दुक, इंगुद, पलाश, अर्जुन, अरिष्ट, स्यन्दन (तिनिश),
सेमल, जामुन, आम, लोध, खैर, साखू, बेंत, पद्मक, आँवला, पाकर, कदम्ब, गूलर, बेर,
बेल, बरगद, प्रियाल, ताल, खजूर, हर्रे तथा बहेड़े आदि वृक्षोंसे वह विशाल वन परिपूर्ण हो
रहा था ।।
नानाधातुशतैर्नद्धान् विविधानपि चाचलान् ।
निकुण्जान् परिसंघुष्टान् दरीश्वाद्भुतदर्शना: ॥। ६ ।।
दमयन्तीने वहाँ सैकड़ों धातुओंसे संयुक्त नाना प्रकारके पर्वत, पक्षियोंके कलरवोंसे
गुंजायमान कितने ही निकुंज और अद्भुत कन्दराएँ देखीं ।। ६ ।।
नदी: सरांसि वापीश्व विविधांश्व मृगद्धिजान् ।
सा बहून् भीमरूपांश्न॒ पिशाचोरगराक्षसान् ।। ७ ।।
पल्वलानि तडागानि गिरिकूटानि सर्वश: ।
सरितो निर्झराश्चैव ददर्शाद्भुतदर्शनान् ।। ८ ।।
कितनी ही नदियों, सरोवरों, बावलियों तथा नाना प्रकारके मृगों और पक्षियोंको देखा।
उसने बहुत-से भयानक रूपवाले पिशाच, नाग तथा राक्षस देखे। कितने ही गड्ढों, पोखरों
और पर्वतशिखरोंका अवलोकन किया। सरिताओं और अद्भुत झरनोंको देखा |। ७-८ ॥।
यूथशो ददृशे चात्र विदर्भाधिपनन्दिनी ।
महिषांश्व वराहांश्व ऋक्षांश्व॒ वनपन्नगान् ।। ९ ।।
तेजसा यशसा लक्ष्म्या स्थित्या च परया युता ।
वैदर्भी विचरत्येका नलमन्वेषती तदा ।। १० ।।
विदर्भराजनन्दिनीने उस वनमें झुंड-के-झुंड भैंसे, सूअर, रीछ और जंगली साँप देखे।
तेज, यश, शोभा और परम धैर्यसे युक्त विदर्भक़्रमारी उस समय अकेली विचरती और
नलको ढूँढ़ती थी ।। ९-१० ।।
नाबिभ्यत् सा नृपसुता भैमी तत्राथ कस्यचित् |
दारुणामटवीं प्राप्प भर्तृव्यसनपीडिता ।। ११ ।।
वह पतिके विरहरूपी संकटसे संतप्त थी। अतः राजकुमारी दमयन्ती उस भयंकर
वनमें प्रवेश करके भी किसी जीव-जन्तुसे भयभीत नहीं हुई ।। ११ ।।
विदर्भतनया राजन विललाप सुदुः:खिता ।
भर्तुशोकपरीताज़ी शिलातलमथाश्रिता ।। १२ ।।
राजन! विदर्भकुमारी दमयन्तीके अंग-अंगमें पतिके वियोगका शोक व्याप्त हो गया
था, इसलिये वह अत्यन्त दु:खित हो एक शिलाके नीचे भागमें बैठकर बहुत विलाप करने
लगी-- ।। १२ ।।
दमयन्त्युवाच
व्यूढोरस्क महाबाहो नैषधानां जनाधिप ।
क्व नु राजन् गतोअस्यद्य विसृज्य विजने वने ।। १३ ।।
अश्वमेधादिभिर्वीर क्रतुभिर्भूरिदक्षिणै: ।
कथमिष्ट्वा नरव्यात्र मयि मिथ्या प्रवर्तसे ।। १४ ।।
दमयन्ती बोली--चौड़ी छातीवाले महाबाहु निषधनरेश महाराज! आज इस निर्जन
वनमें (मुझ अकेलीको) छोड़कर आप कहाँ चले गये? नरश्रेष्ठ! वीरशिरोमणे! प्रचुर
दक्षिणावाले अश्वमेध आदि यज्ञोंका अनुष्ठान करके भी आप मेरे साथ मिथ्या बर्ताव क्यों
कर रहे हैं? ।। १३-१४ ।।
यत् त्वयोक्तं नरश्रेष्ठ तत् समक्ष महाद्ुते ।
स्मर्तुमहसि कल्याण वचन पार्थिवर्षभ ।। १५ ।।
महातेजस्वी कल्याणमय राजाओंमें उत्तम नरश्रेष्ठ। आपने मेरे सामने जो बात कही थी,
अपनी उस बातका स्मरण करना उचित है ।। १५ ।।
यच्चोक्त विहगैहसै: समीपे तव भूमिप ।
मत्समक्ष॑ यदुक्तं च तदवेक्षितुमहसि ।। १६ ।।
भूमिपाल! आकाशचारी हंसोंने आपके समीप तथा मेरे सामने जो बातें कही थीं,
उनपर विचार कीजिये ।। १६ ।।
चत्वार एकतो वेदा: साड्रोपाड़्ा: सविस्तरा: ।
स्वधीता मनुजव्याप्र सत्यमेक॑ किलैकत: ।। १७ ।।
नरसिंह! एक ओर अंग और उपांगोंसहित विस्तारपूर्वक चारों वेदोंका स्वाध्याय हो और
दूसरी ओर केवल सत्यभाषण हो तो वह निश्चय ही उससे बढ़कर है ।। १७ ।।
तस्मादर्हसि शत्रुघ्न सत्यं कर्तु नरेश्वर ।
उक्तवानसि यद् वीर मत्सकाशे पुरा वच: ।॥। १८ ।।
अतः शत्रुहन्ता नरेश्वर! वीर! आपने पहले मेरे समीप जो बातें कही हैं, उन्हें सत्य करना
चाहिये ।। १८ ।।
हा वीर नल नामाहं नष्टा किल तवानघ ।
अस्यामटण्यां घोरायां कि मां न प्रतिभाषसे ।। १९ ।।
हा निष्पाप वीर नल! आपकी मैं दमयन्ती इस भयंकर वनमें नष्ट हो रही हूँ, आप मेरी
बातका उत्तर क्यों नहीं देते? ।। १९ ।।
कर्षयत्येष मां रौद्रो व्यात्तास्यों दारुणाकृति: ।
अरुण्यराट् क्षुधाविष्ट: कि मां न त्रातुमहसि ।। २० ।।
यह भयानक आकृतिवाला क्रूर सिंह भूखसे पीड़ित हो मुँह बाये खड़ा है और मुझपर
आक्रमण करना चाहता है, क्या आप मेरी रक्षा नहीं कर सकते? ।। २० ।।
न मे त्वदन्या काचिद्ि प्रियास्तीत्यब्रवी: सदा ।
तामृतां कुरु कल्याण पुरोक्तां भारतीं नूप ।॥। २१ ।।
कल्याणमय नरेश! आप पहले जो सदा यह कहते थे कि तुम्हारे सिवा दूसरी कोई भी
स्त्री मुझे प्रिय नहीं है, अपनी उस बातको सत्य कीजिये ।। २१ ।।
उन्मत्तां विलपन्तीं मां भार्यामिष्टां नराधिप ।
ईप्सितामीप्सितो$सि त्वं कि मां न प्रतिभाषसे ।। २२ ।।
महाराज! मैं आपकी प्रिय पत्नी हूँ और आप मेरे प्रियतम पति हैं, ऐसी दशामें भी मैं
यहाँ उन्मत्त विलाप कर रही हूँ तो भी आप मेरी बातका उत्तर क्यों नहीं देते? ।। २२ ।।
कृशां दीनां विवर्णा च मलिनां वसुधाधिप ।
वस्त्रार्थप्रावतामेकां विलपन्तीमनाथवत् ।। २३ ।।
यूथभ्रष्टामिवैकां मां हरिणीं पृुथुलोचन ।
न मानयसि मामार्य रुदन्तीमरिकर्शन ।। २४ ।।
पृथ्वीनाथ! मैं दीन, दुर्बल, कान्तिहीन और मलिन होकर आधे वस्त्रसे अपने अंगोंको
ढककर अकेली अनाथ-सी विलाप कर रही हूँ। विशाल नेत्रोंवाले शत्रुसूदन आर्य! मेरी दशा
अपने झुंडसे बिछुड़ी हुई हरिणीकी-सी हो रही है। मैं यहाँ अकेली रो रही हूँ। परंतु आप मेरा
मान नहीं रखते हैं || २३-२४ ।।
महाराज महारण्ये अहमेकाकिनी सती ।
दमयन्त्यभिभाषे त्वां कि मां न प्रतिभाषसे || २५ ।।
महाराज! इस महान् वनमें मैं सती दमयन्ती अकेली आपको पुकार रही हूँ, आप मुझे
उत्तर क्यों नहीं देते? ।। २५ ।।
कुलशीलोपसम्पन्न चारुसर्वाड़्रशोभन ।
नाद्य त्वां प्रतिपश्यामि गिरावस्मिन् नरोत्तम ।। २६ ।।
नरश्रेष्ठ आप उत्तम कुल और श्रेष्ठ शीलस्वभावसे सम्पन्न हैं। आप अपने सम्पूर्ण
मनोहर अंगोंसे सुशोभित होते हैं। आज इस पर्वतशिखरपर मैं आपको नहीं देख पाती
हूँ ।। २६ |।
वने चास्मिन् महाघोरे सिंहव्याप्रनिषेविते |
शयानमुपविष्टं वा स्थितं वा निषधाधिप ।। २७ ।।
निषधनरेश! इस महाभयंकर वनमें, जहाँ सिंह-व्याप्र रहते हैं, आप कहीं सोये हैं, बैठे हैं
अथवा खड़े हैं? ।। २७ ।।
प्रस्थितं वा नरश्रेष्ठ मम शोकविवर्धन ।
क॑ नु पृच्छामि दुः:खार्ता त्वदर्थे शोककर्शिता ।। २८ ।।
मेरे शोकको बढ़ानेवाले नरश्रेष्ठ। आप यहीं हैं या कहीं अन्यत्र चल दिये, यह मैं किससे
पूछँ? आपके लिये शोकसे दुर्बल होकर मैं अत्यन्त दुःखसे आतुर हो रही हूँ ।। २८ ।।
कच्चिद् दृष्टस्त्वयारण्ये संगत्येह नलो नृप: ।
को नु मे वाथ प्रष्टव्यो वनेडस्मिन् प्रस्थितं नलम् ।। २९ ।।
“क्या तुमने इस वनमें राजा नलसे मिलकर उन्हें देखा है?” ऐसा प्रश्न अब मैं इस वनमें
प्रस्थान करनेवाले नलके विषयमें किससे करूँ? ।। २९ ।।
अभिरूपं महात्मानं परव्यूहविनाशनम् |
यमन्वेषसि राजानं नल॑ पद्मनिभेक्षणम् ।। ३० ।।
अयं स इति कस्याद्य श्रोष्यामि मधुरां गिरम्।
'शत्रुओंके व्यूहका नाश करनेवाले जिन परम सुन्दर कमलनयन महात्मा राजा नलको
तू खोज रही है, वे यही तो हैं, ऐसी मधुर वाणी आज मैं किसके मुखसे सुनूँगी?” || ३० $ई
||
अरण्यराडयं श्रीमां क्षतुर्दष्टोी महाहनु: ।॥ ३१ ।।
शार्टूलोडभिमुखो< भ्येति व्रजाम्येनमशड्किता ।
भवान् मृगाणामधिपस्त्वमस्मिन् कानने प्रभु: ।॥ ३२ ।।
वह वनका राजा कान्तिमान् सिंह मेरे सामने चला आ रहा है, इसके चार दाढ़ें और
विशाल ठोड़ी है। मैं निःशंक होकर इसके सामने जा रही हूँ और कहती हूँ, “आप मृगोंके
राजा और इस वनके स्वामी हैं || ३१-३२ ।।
विदर्भराजतनयां दमयन्तीति विद्धि माम्
निषधाधिपतेर्भार्या नलस्यामित्रघातिन: ।। ३३ ।।
“मैं विदर्भराजकुमारी दमयन्ती हूँ। मुझे शत्रुधाती निषधनरेश नलकी पत्नी
समझिये ।। ३३ ।॥।
पतिमन्वेषतीमेकां कृपणां शोककर्षिताम् ।
आश्वासय मृगेन्द्रेह यदि दृष्टस्त्वया नल: ।। ३४ ।।
“मृगेन्द्र! मैं इस वनमें अकेली पतिकी खोजमें भटक रही हूँ तथा शोकसे पीड़ित एवं
दीन हो रही हूँ। यदि आपने नलको यहाँ कहीं देखा हो तो उनका कुशल-समाचार बताकर
मुझे आश्वासन दीजिये ।। ३४ ।।
अथवा त्वं वनपते नल॑ यदि न शंससि ।
मां खादय मृगश्रेष्ठ दु:खादस्माद् विमोचय ।। ३५ ।।
“अथवा वनराज मृगश्रेष्ठी यदि आप नलके विषयमें कुछ नहीं बताते हैं तो मुझे खा
जायेँ और इस दुःखसे छुटकारा दे दें” || ३५ ।।
श्रुत्वारण्ये विलपितं न मामाश्वासयत्ययम् ।
यात्येतां स्वादुसलिलामापगां सागरंगमाम् ।। ३६ ।।
अहो! इस घोर वनमें मेरा विलाप सुनकर भी यह सिंह मुझे सान्त्वना नहीं देता। यह तो
स्वादिष्ट जलसे भरी हुई इस समुद्रगामिनी नदीकी ओर जा रहा है ।।
इमं शिलोच्चयं पुण्यं शज्जैर्बहुभिरुच्छितै: ।
विराजद्धिरिवानेकै्नैंकवर्णर्मनोरमै: ।। ३७ ।।
अच्छा, इस पवित्र पर्वतसे ही पूछती हूँ। यह बहुत-से ऊँचे-ऊँचे शोभाशाली बहुरंगे एवं
मनोरम शिखरोंद्वारा सुशोभित है ।। ३७ ।।
नानाधातुसमाकीर्ण विविधोपलभूषितम् ।
अस्यारण्यस्य महतः केतु भूतमिवोत्थितम् ।। ३८ ।।
अनेक प्रकारके धातुओंसे व्याप्त और भाँति-भाँतिके शिला-खण्डोंसे विभूषित है। यह
पर्वत इस महान् वनकी ऊपर उठी हुई पताकाके समान जान पड़ता है ।। ३८ ।।
सिंहशार्दूलमातड्भवराहर्क्षमृगायुतम् ।
पतत्र्त्रिभिबहुविधै: समन््तादनुनादितम् ।। ३९ ।।
यह सिंह, व्याप्र, हाथी, सूअर, रीछ और मृगोंसे परिपूर्ण है। इसके चारों ओर अनेक
प्रकारके पक्षी कलरव कर रहे हैं ।। ३९ ।।
किंशुकाशोकबकुलपुन्नागैरुपशोभितम् ।
कर्णिकारधवप्लक्षै: सुपुष्पैरपशोभितम् ।। ४० ||
पलाश, अशोक, बकुल, पुन्नाग, कनेर, धव तथा प्लक्ष आदि सुन्दर फूलोंवाले वृक्षोंसे
वह पर्वत सुशोभित हो रहा है || ४० ।।
सरिद्धि: सविहड्भजाभि: शिखरैश्न॒ समाकुलम् ।
गिरिराजमिमं तावत् पृच्छामि नृपतिं प्रति ।। ४१ ।।
यह पर्वत अनेक सरिताओं, सुन्दर पक्षियों और शिखरोंसे परिपूर्ण है। अब मैं इसी
गिरिराजसे महाराज नलका समाचार पूछती हूँ ।। ४१ ।।
भगवन्नचलश्रेष्ठ दिव्यदर्शन विश्ुत ।
शरण्य बहुकल्याण नमस्ते<स्तु महीधर ।। ४२ ।।
'भगवन्! अचलप्रवर! दिव्य दृष्टिवाले! विख्यात! सबको शरण देनेवाले परम
कल्याणमय महीधर! आपको नमस्कार है ।। ४२ ।।
प्रणमाम्यभिगम्याहं राजपुत्रीं निबोध माम् ।
राज्ञ: स्नुषां राजभार्या दमयन्तीति विश्रुताम् ।। ४३ ।।
“मैं निकट आकर आपके चरणोंमें प्रणाम करती हूँ। आप मेरा परिचय इस प्रकार जानें,
मैं राजाकी पुत्री, राजाकी पुत्रवधू तथा राजाकी ही पत्नी हूँ। मेरी “दमयन्ती” नामसे प्रसिद्धि
है ।। ४३ ।।
राजा विदर्भाधिपति: पिता मम महारथ: ।
भीमो नाम क्षितिपतिक्षातुर्वर्ण्यस्य रक्षिता ।। ४४ ।।
“विदर्भदेशके स्वामी महारथी भीम नामक राजा मेरे पिता हैं। वे पृथ्वीके पालक तथा
चारों वर्णोके रक्षक हैं ।। ४४ ।।
राजसूयाश्चदमेधानां क्रतूनां दक्षिणावताम् |
आहर्ता पार्थिवश्रेष्ठ: पृथुचार्वज्चितेक्षण: ।। ४५ ।।
उन्होंने (प्रचुर) दक्षिणावाले राजसूय तथा अश्वमेध नामक यज्ञोंका अनुष्ठान किया है।
वे भूमिपालोंमें श्रेष्ठ हैं। उनके नेत्र बड़े, चंचल और सुन्दर हैं || ४५ ।।
ब्रह्मण्य: साधुवृत्तश्न सत्यवागनसूयक: ।
शीलवान् वीर्यसम्पन्न: पृथुश्रीर्धर्मविच्छुचि: ।। ४६ ।।
'वे ब्राह्मणभक्त, सदाचारी, सत्यवादी, किसीके दोषको न देखनेवाले, शीलवान्,
पराक्रमी, प्रचुर सम्पत्तिके स्वामी, धर्मज्ञ तथा पवित्र हैं || ४६ ।।
सम्यग गोप्ता विदर्भाणां निर्जितारिगण: प्रभु: ।
तस्य मां विद्धि तनयां भगवंस्त्वामुपस्थिताम् ।। ४७ ।।
“वे विदर्भवेशकी जनताका अच्छी तरह पालन करनेवाले हैं। उन्होंने समस्त शत्रुओंको
जीत लिया है, वे बड़े शक्तिशाली हैं। भगवन्! मुझे उन्हींकी पुत्री जानिये। मैं आपकी सेवामें
(एक जिज्ञासा लेकर) उपस्थित हुई हूँ || ४७ ।।
निषधेषु महाराज: श्वशुरो मे नरोत्तम: ।
गृहीतनामा विख्यातो वीरसेन इति सम ह ।। ४८ ।।
“निषधदेशके महाराज मेरे श्वशुर थे, वे प्रात:-स्मरणीय नरश्रेष्ठ वीरसेनके नामसे
विख्यात थे ।। ४८ ।।
तस्य राज्ञ: सुतो वीर: श्रीमान् सत्यपराक्रम: ।
क्रमप्राप्तं पितु: स्वं यो राज्यं समनुशास्ति ह ।। ४९ ।।
उन्हीं महाराज वीरसेनके एक वीर पुत्र हैं, जो बड़े ही सुन्दर और सत्यपराक्रमी हैं। वे
वंशपरम्परासे प्राप्त अपने पिताके राज्यका पालन करते हैं ।। ४९ ।।
नलो नामारिहा श्याम: पुण्यश्लोक इति श्रुतः ।
ब्रह्मण्यो वेदविद् वाग्मी पुण्यकृत् सोमपो5ग्निमान् ।। ५० ||
“उनका नाम नल है। शत्रुदमन, श्यामसुन्दर राजा नल पुण्यश्लोक कहे जाते हैं। वे बड़े
ब्राह्मणभक्त, वेदवेत्ता, वक्ता, पुण्यात्मा, सोमपान करनेवाले और अग्निहोत्री हैं || ५० ।।
यष्टा दाता च योद्धा च सम्यक् चैव प्रशासिता ।
तस्य मामबलां श्रेष्ठां विद्धि भायामिहागताम् ।। ५१ ।।
त्यक्तश्रियं भर्तहीनामनाथां व्यसनान्विताम् ।
अन्वेषमाणां भर्तरं त्वं मां पर्वतसत्तम ।। ५२ ।।
“वे एक अच्छे यज्ञकर्ता, उत्तम दाता, शूरवीर योद्धा और श्रेष्ठ शासक हैं, आप मुझे
उन्हींकी श्रेष्ठ पत्नी समझ लीजिये। मैं अबला नारी आपके निकट यहाँ उन्हींकी कुशल
पूछनेके लिये आयी हूँ। गिरिराज! (मेरे स्वामी मुझे छोड़कर कहीं चले गये हैं।) मैं धन-
सम्पत्तिसे वंचित, पतिदेवसे रहित, अनाथ और संकटोंकी मारी हुई हूँ। इस वनमें अपने
पतिकी ही खोज कर रही हूँ || ५१-५२ ।।
समुल्लिखद्धिरेतैर्हि त्वया शूज्भशतैर्न॒प: ।
कच्चिद् दृष्टोडचलश्रेष्ठ वने5स्मिन् दारुणे नलः ।। ५३ ।।
'पर्वतश्रेष्ठ] क्या आपने इन सैकड़ों गगनचुम्बी शिखरोंद्वारा इस भयानक वनमें कहीं
राजा नलको देखा है? ।। ५३ ।।
गजेन्द्रविक्रमो धीमान् दीर्घबाहुरमर्षण: ।
विक्रान्त: सत्त्ववान् वीरो भर्ता मम महायशा: ।॥। ५४ ।।
निषधानामधिपति: कच्चिद् दृष्टस्त्वया नलः ।
विलपती किमेकां मां पर्वतश्रेष्ठ विद्दलाम् ।। ५५ ।।
गिरा नाश्वासयस्यद्य स्वां सुतामिव दु:ःखिताम् ।
“मेरे महायशस्वी स्वामी निषधराज नल गजराजकी-सी चालसे चलते हैं। वे बड़े
बुद्धिमान, महाबाहु, अमर्षशील (दुःखको न सह सकनेवाले), पराक्रमी, धैर्यवान् तथा वीर
हैं। क्या आपने कहीं उन्हें देखा है? गिरिश्रेष्ठ! मैं आपकी पुत्रीके समान हूँ और (पतिके
वियोगसे बहुत ही) दुःखी हूँ। क्या आप व्याकुल होकर अकेली विलाप करती हुई मुझ
अबलाको आज अपनी वाणीद्वारा आश्वासन न देंगे?” ।। ५४-५५ ३ ।।
वीर विक्रान्त धर्मज्ञ सत्यसंध महीपते ।। ५६ ।।
यद्यस्यस्मिन् वने राजन् दर्शयात्मानमात्मना ।
वीर! धर्मज्ञ! सत्यप्रतिज्ञ और पराक्रमी महीपाल! यदि आप इसी वनमें हैं तो राजन!
अपने-आपको प्रकट करके मुझे दर्शन दीजिये ।। ५६३६ ।।
कदा सुस्निग्धगम्भीरां जीमूतस्वनसंनिभाम् ।। ५७ ।।
श्रोष्यामि नैषधस्याहं वाचं ताममृतोपमाम् ।
वैदर्भीत्येव विस्पष्टां शुभां राज्ञो महात्मन: ।। ५८ ।।
आम्नायसारिणीमृद्धां मम शोकविनाशिनीम् ।
मैं कब निषधराज नलकी मेघ-गर्जनाके समान स्निग्ध, गम्भीर, अमृतोपम वह मधुर
वाणी सुनूँगी। उन महामना राजाके मुखसे “वैदर्भि!” इस सम्बोधनसे युक्त शुभ, स्पष्ट, वेदके
अनुकूल, सुन्दर पद और अर्थसे युक्त तथा मेरे शोकका विनाश करनेवाली वाणी मुझे कब
सुनायी देगी || ५७-५८ ह |।
भीतामाश्वासयत मां नृपते धर्मवत्सल ।। ५९ ||
धर्मवत्सल नरेश्वर! मुझ भयभीत अबलाको आश्वासन दीजिये ।। ५९ ।।
इति सा तं॑ गिरिश्रेष्ठमुक्त्वा पार्थिवनन्दिनी ।
दमयन्ती ततो भूयो जगाम दिशमुन्तराम् ।। ६० ।।
इस प्रकार उस श्रेष्ठ पर्वतसे कहकर वह राजकुमारी दमयन्ती फिर वहाँसे उत्तर
दिशाकी ओर चल दी ।। ६० ||
सा गत्वा त्रीनहोरात्रान् ददर्श परमाड़ना ।
तापसारण्यमतुलं दिव्यकाननशोभितम् ।। ६१ ।।
लगातार तीन दिन और तीन रात चलनेके पश्चात् उस श्रेष्ठ नारीने तपस्वियोंसे युक्त एक
वन देखा, जो अनुपम तथा दिव्य वनसे सुशोभित था ।। ६१ ।।
वसिष्ठ भग्वत्रिसमैस्तापसैरुपशोभितम् ।
नियतै: संयताहारैर्दमशैचसमन्वितै: ।। ६२ ।।
तथा वसिष्ठ, भूगु और अत्रिके समान नियम-परायण, मिताहारी तथा (शम,) दम, शौच
आदिसे सम्पन्न तपस्वियोंसे वह शोभायमान हो रहा था || ६२ ।।
अब्भक्षेवायुभक्षैश्ष पत्राहारैस्तथैव च |
जितेन्द्रियैर्महा भागै: स्वर्गमार्गदिदृक्षुभि: ।। ६३ ।।
वहाँ कुछ तपस्वीलोग केवल जल पीकर रहते थे और कुछ लोग वायु पीकर। कितने
ही केवल पत्ते चबाकर रहते थे। वे जितेन्द्रिय महाभाग स्वर्गलोकके मार्गका दर्शन करना
चाहते थे ।। ६३ ।।
वल्कलाजिनसंवीतैर्मुनिभि: संयतेन्द्रियै: ।
तापसाध्युषितं रम्यं दरदर्शाश्रममण्डलम् ।। ६४ ।।
वल्कल और मृगचर्म धारण करनेवाले उन जितेन्द्रिय मुनियोंसे सेवित एक रमणीय
आश्रममण्डल दिखायी दिया, जिसमें प्रायः तपस्वीलोग ही निवास करते थे ।। ६४ ।।
नानामृगगणैर्जुष्टं शाखामृगगणायुतम् ।
तापसै: समुपेतं च सा दृष्टवैव समाश्चसत् ।। ६५ ।।
उस आश्रममें नाना प्रकारके मृगों और वानरोंके समुदाय भी विचरते रहते थे। तपस्वी
महात्माओंसे भरे हुए उस आश्रमको देखते ही दमयन्तीको बड़ी सान्त्वना मिली ।। ६५ ।।
सुभ्रू: सुकेशी सुश्रोणी सुकुचा सुद्विजानना ।
वर्चस्विनी सुप्रतिष्ठा स्वसितायतलोचना ।। ६६ ।।
उसकी भौंहें बड़ी सुन्दर थीं। केश मनोहर जान पड़ते थे। नितम्बभाग, स्तन, दन्तपंक्ति
और मुख सभी सुन्दर थे। उसके मनोहर कजरारे नेत्र विशाल थे। वह तेजस्विनी और
प्रतिष्ठित थी ।। ६६ ।।
सा विवेशाश्रमपदं वीरसेनसुतप्रिया ।
योषिद्रत्नं महाभागा दमयन्ती तपस्विनी ।। ६७ ।।
महाराज वीरसेनकी पुत्रवधू रमणीशिरोमणि महाभागा तपस्विनी उस दमयन्तीने
आश्रमके भीतर प्रवेश किया ।। ६७ ।।
साभिवाद्य तपोवृद्धान् विनयावनता स्थिता ।
स्वागतं त इति प्रोक्ता तै: सर्वैस्तापसोत्तमै: ॥। ६८ ।।
वहाँ तपोवृद्ध महात्माओंको प्रणाम करके वह उनके समीप विनीतभावसे खड़ी हो
गयी। तब वहाँके सभी श्रेष्ठ तपस्वीजनोंने उससे कहा--'देवि! तुम्हारा स्वागत है” || ६८ ।।
पूजां चास्या यथान्यायं कृत्वा तत्र तपोधना: ।
आस्यतामित्यथोचुस्ते ब्रूहि कि करवामहे ।। ६९ ।।
तदनन्तर वहाँ दमयन्तीका यथोचित आदर-सत्कार करके उन तपोधनोंने कहा--'शुभे!
बैठो, बताओ, हम तुम्हारा कौन-सा कार्य सिद्ध करें" ।। ६९ ।।
तानुवाच वरारोहा कच्चिद् भगवतामिह ।
तपःस्वग्निषु धर्मेषु मृगपक्षिषु चानघा: ।। ७० ।।
कुशलं वो महाभागा: स्वधर्माचरणेषु च |
तैरुक्ता कुशलं भद्रे सर्वत्रेति यशस्विनि || ७१ ।।
उस समय सुन्दर अंगोंवाली दमयन्तीने उनसे कहा--“भगवन्! निष्पाप महाभागगण!
यहाँ तप, अन्निहोत्र, धर्म, मृग और पक्षियोंके पालन तथा अपने धर्मके आचरण आदि
विषयोंमें आपलोग सकुशल हैं न?' तब उन महात्माओंने कहा--“भद्रे! यशस्विनि! सर्वत्र
कुशल है || ७०-७१ ।।
ब्रृहि सर्वानवद्याड्धि का त्वं कि च चिकीर्षसि ।
दृष्टवैव ते परं रूप॑ं द्युतिं च परमामिह ।। ७२ ।।
विस्मयो न: समुत्पन्न: समाश्वसिहि मा शुच: ।
अस्यारण्यस्य देवी त्वमुताहो5स्य महीभूत: ।। ७३ ।।
'सर्वांगसुन्दरी! बताओ, तुम कौन हो और क्या करना चाहती हो? तुम्हारे उत्तम रूप
और परम सुन्दर कान्तिको यहाँ देखकर हमें बड़ा विस्मय हो रहा है। धैर्य धारण करो, शोक
न करो। तुम इस वनकी देवी हो या इस पर्वतकी अधिदेवता || ७२-७३ |।
अस्याश्षु नद्या: कल्याणि वद सत्यमनिन्दिते ।
साब्रवीत् तानृषीन् नाहमरण्यस्यास्य देवता ।। ७४ ।।
न चाप्यस्य गिरेविंप्रा नैव नद्याश्न देवता ।
मानुषीं मां विजानीत यूयं सर्वे तपोधना: ।। ७५ ।।
“अनिन्दिते! कल्याणि! अथवा तुम इस नदीकी अधिष्ठात्री देवी हो, सच-सच बताओ।'
दमयन्तीने उन ऋषियोंसे कहा--“तपस्याके धनी ब्राह्मणो! न तो मैं इस वनकी देवी हूँ, न
पर्ववकी अधिदेवता और न इस नदीकी ही देवी हूँ। आप सब लोग मुझे मानवी
समझें ।। ७४-७५ |।
विस्तरेणाभिधास्यामि तन्मे शृणुत सर्वश: ।
विदर्भेषु महीपालो भीमो नाम महीपति: ।। ७६ ।।
“मैं विस्तारपूर्वक अपना परिचय दे रही हूँ, आपलोग सुनें। विदर्भदेशमें भीम नामसे
प्रसिद्ध एक भूमिपाल हैं || ७६ ।।
तस्य मां तनयां सर्वे जानीत द्विजसत्तमा: ।
निषधाधिपतिर्धीमान् नलो नाम महायशा: || ७७ |।
वीर: संग्रामजिद् विद्वान् मम भर्ता विशाम्पति: ।
देवताभ्यर्चनपरो द्विजातिजनवत्सल: ।। ७८ ।।
'द्विजवरो! आप सब महात्मा जान लें, मैं उन्हीं महाराजकी पुत्री हूँ। निषधदेशके
स्वामी, संग्रामविजयी, वीर, विद्वान, बुद्धिमान, प्रजापालक महायशस्वी राजा नल मेरे पति
हैं। वे देवताओंके पूजनमें संलग्न रहते हैं और ब्राह्मणोंके प्रति उनके हृदयमें बड़ा स्नेह
है || ७७-७८ |।
गोप्ता निषधवंशस्य महातेजा महाबल: ।
सत्यवान् धर्मवित् प्राज्ञ: सत्यसंधोडरिमर्दन: || ७९ ।।
ब्रह्मण्यो दैवतपर: श्रीमान् परपुरंजय: ।
नलो नाम नृपश्रेष्ठो देवराजसमद्युति: ।। ८० ।।
मम भर्ता विशालाक्ष: पूर्णेन्दुवदनो5$रिहा ।
आहर्ता क्रतुमुख्यानां वेदवेदाड़पारग: ।। ८१ ।।
“वे निषधकुलके रक्षक, महातेजस्वी, महाबली, सत्यवादी, धर्मज्ञ, विद्वान, सत्यप्रतिज्ञ,
शत्रुमर्दन, ब्राह्मणभक्त, देवोपासक, शोभा और सम्पत्तिसे युक्त तथा शत्रुओंकी राजधानीपर
विजय पानेवाले हैं। मेरे स्वामी नृपश्रेष्ठ नल देवराज इन्द्रके समान तेजस्वी हैं। उनके नेत्र
विशाल हैं, उनका मुख पूर्ण चन्द्रमाके समान सुन्दर है, वे शत्रुओंका संहार करनेवाले, बड़े-
बड़े यज्ञोंके आयोजक और वेद-वेदांगोंके पारंगत विद्वान् हैं ।। ७९--८१ ।।
सपत्नानां मृथे हन्ता रविसोमसमप्रभ: ।
सर्वैश्षिन्निकृतिप्रज्ैरनायैरकृतात्मभि: ।। ८२ ।।
आहूय पृथिवीपाल: सत्यधर्मपरायण: ।
देवने कुशलैर्जिह्नौ्वतं राज्यं वसूनि च ।। ८३ ।।
'युद्धमें उन्होंने कितने ही शत्रुओंका संहार किया है। वे सूर्य और चन्द्रमाके समान
तेजस्वी और कान्तिमान् हैं। एक दिन कुछ कपटकुशल, अजितेन्द्रिय, अनार्य, कुटिल तथा
द्यूतनिपुण जुआरिओंने उन सत्य-धर्मपरायण महाराज नलको जूएके लिये आवाहन करके
उनके सारे राज्य और धनका अपहरण कर लिया ।।
तस्य मामवगच्छध्वं भार्या राजर्षभस्य वै ।
दमयन्तीति विख्यातां भर्तुर्दर्शनलालसाम् ।। ८४ ।।
“आप दमयन्ती नामसे विख्यात मुझे उन्हीं नृपश्रेष्ठ नलकी पत्नी जानें। मैं अपने
स्वामीके दर्शनके लिये उत्सुक हो रही हूँ ।। ८४ ।।
सा वनानि गिरींक्षैव सरांसि सरितस्तथा ।
पल्वलानि च सर्वाणि तथारण्यानि सर्वश: ।। ८५ ।।
अन्वेषमाणा भर्तारें नलं रणविशारदम् ।
महात्मानं कृतास्त्रं च विचरामीह दु:खिता ।। ८६ ।।
“मेरे पति महामना नल युद्धकलामें कुशल और सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंके विद्वान् हैं। मैं
उन्हींकी खोज करती हुई वन, पर्वत, सरोवर, नदी, गड्ढे और सभी जंगलोंमें दुःखी होकर
घूमती हूँ || ८५-८६ ।।
कच्चिद् भगवतां रम्यं तपोवनमिदं नृप: ।
भवेत् प्राप्तो नलो नाम निषधानां जनाधिप: ।। ८७ ।।
यत्कृते5हमिदं ब्रह्मन् प्रपन्ना भूशदारुणम् ।
वन॑ प्रतिभयं घोरं शार्टूलमृूगसेवितम् ।। ८८ ।।
“भगवन्! क्या आपके इस रमणीय तपोवनमें निषधनरेश नल आये थे? ब्रह्मन! जिनके
लिये मैं व्याप्र, सिंह आदि पशुओंसे सेवित अत्यन्त दारुण, भयंकर, घोर वनमें आयी
हूँ || ८७-८८ ।।
यदि कैश्िवहोरात्रैर्न द्रक्ष्यामि नल॑ नूपम् ।
आत्मानं श्रेयसा योक्ष्ये देहस्यास्य विमोचनात् ।। ८९ ।।
“यदि कुछ ही दिन-रातमें मैं राजा नलको नहीं देखूँगी तो इस शरीरका परित्याग करके
आत्माका कल्याण करूँगी ।। ८९ |।
को नु मे जीवितेनार्थस्तमृते पुरुषर्षभम् ।
कथं भविष्याम्यद्याहं भर्तुशोकाभिपीडिता ।। ९० ।।
“उन पुरुषरत्न नलके बिना जीवन धारण करनेसे मेरा क्या प्रयोजन है? अब मैं
पतिशोकसे पीड़ित होकर न जाने कैसी हो जाऊँगी?” || ९० ||
तथा विलपतीमेकामरण्ये भीमनन्दिनीम् ।
दमयन्तीमथोचुस्ते तापसा: सत्यदर्शिन: ।। ९१ ।।
इस प्रकार वनमें अकेली विलाप करती हुई भीमनन्दिनी दमयन्तीसे सत्यका दर्शन
करनेवाले उन तपस्वियोंने कहा-- ।। ९१ ।।
उदर्कस्तव कल्याणि कल्याणो भविता शुभे ।
वयं पश्याम तपसा क्षिप्रं द्रक्ष्म्सि नैषधम् ।॥। ९२ ।।
“कल्याणि! शुभे! हम अपने तपोबलसे देख रहे हैं, तुम्हारा भविष्य परम कल्याणमय
होगा। तुम शीघ्र ही निषधनरेश नलका दर्शन प्राप्त करोगी ।। ९२ ।।
निषधानामधिपतिं नल रिपुनिपातिनम् ।
भैमि धर्मभृतां श्रेष्ठ द्रक्ष्म्से विगतज्वरम् ।। ९३ ।।
'भीमकुमारी! तुम शत्रुओंका संहार करनेवाले निषधदेशके अधिपति और धर्मात्माओंमें
श्रेष्ठ राजा नलको सब प्रकारकी चिन्ताओंसे रहित देखोगी ।। ९३ ।।
विमुक्तं सर्वपापेभ्य: सर्वरत्नसमन्वितम् ।
तदेव नगर श्रेष्ठ प्रशासतमरिंदमम् ।। ९४ ।।
द्विषतां भयकर्तारें सुहदां शोकनाशनम् |
पति द्रक्ष्यसि कल्याणि कल्याणाभिजनं नृपम् । ९५ ।।
“तुम्हारे पति सब प्रकारके पापजनित दुखोंसे मुक्त और सम्पूर्ण रत्नोंसे सम्पन्न होंगे।
शत्रुदमन राजा नल फिर उसी श्रेष्ठ नगरका शासन करेंगे। वे शत्रुओंके लिये भयदायक और
सुहृदोंके लिये शोकका नाश करनेवाले होंगे। कल्याणि! इस प्रकार सत्कुलमें उत्पन्न अपने
पतिको तुम (नरेशके पदपर प्रतिष्ठित) देखोगी” || ९४-९५ ।।
एवमुक्क्त्वा नलस्येष्टां महिषीं पार्थिवात्मजाम् ।
अन्तर्हितास्तापसास्ते साग्निहोत्राश्रमास्तथा ।। ९६ ।।
नलकी प्रियतमा महारानी राजकुमारी दमयन्तीसे ऐसा कहकर वे सभी तपस्वी
अग्निहोत्र और आश्रमसहित अदृश्य हो गये ।। ९६ ।।
सा दृष्टवा महदाश्चर्य विस्मिता हृभवत् तदा ।
दमयन्त्यनवद्याज्ी वीरसेननृपस्नुषा || ९७ ।।
उस समय राजा वीरसेनकी पुत्रवधू सर्वांगसुन्दरी दमयन्ती वह महान् आश्वर्यकी बात
देखकर बड़े विस्मयमें पड़ गयी || ९७ ।।
कि नु स्वप्नो मया दृष्ट: को5यं विधिरिहाभवत् |
क्व नु ते तापसा: सर्वे क्व तदाश्रममण्डलम् ।। ९८ ।।
(उसने सोचा--) “क्या मैंने कोई स्वप्न देखा है? यहाँ यह कैसी अद्भुत घटना हो गयी?
वे सब तपस्वी कहाँ चले गये और वह आश्रममण्डल कहाँ है?” ।। ९८ ।।
क्व सा पुण्यजला रम्या नदी द्विजनिषेविता ।
क्व नु ते ह नगा हृद्या: फलपुष्पोपशोभिता: ।। ९९ ।।
“वह पुण्यसलिला रमणीय नदी, जिसपर पक्षी निवास कर रहे थे, कहाँ चली गयी?
फल और फूलोंसे सुशोभित वे मनोरम वृक्ष कहाँ विलीन हो गये!” ।। ९९ ।।
ध्यात्वा चिरं भीमसुता दमयन्ती शुचिस्मिता ।
भर्तुशोकपरा दीना विवर्णवदनाभवत् || १०० ||
पवित्र मुसकानवाली भीमपुत्री दमयन्ती बहुत देरतक इन सब बातोंपर विचार करती
रही। तत्पश्चात् वह पतिशोकपरायण और दीन हो गयी तथा उसके मुखपर उदासी छा
गयी ।। १०० ।।
सा गत्वाथापरां भूमिं बाष्पसंदिग्धया गिरा ।
विललापाश्रुपूर्णाक्षी दृष्टगाशोकतरुं तत: ।। १०१ ।।
उपगम्य तरुश्रेष्ठमशोकं पुष्पितं वने ।
पलल्लवापीडितं ह्ृद्यं विहज्जैरनुनादितम् ।। १०२ ।।
तदनन्तर वह दूसरे स्थानपर जाकर अश्रुगह्द वाणीसे विलाप करने लगी। उसने आँसू
भरे नेत्रोंसे देखा, वहाँसे कुछ ही दूरपर एक अशोकका वृक्ष था। दमयन्ती उसके पास गयी।
वह तरुवर अशोक-फूलोंसे भरा था। उस वनमें पल्लवोंसे लदा हुआ और पक्षियोंके
कलरवोंसे गुंजायमान वह वृक्ष बड़ा ही मनोरम जान पड़ता था ।। १०१-१०२ ।।
अहो बतायमगम: श्रीमानस्मिन् वनान्तरे |
आपीडैर्बहुभिभर्भाति श्रीमान् पर्वतराडिव ।। १०३ ।।
(उसे देखकर वह मन-ही-मन कहने लगी--) “अहो! इस वनके भीतर यह अशोक
बड़ा ही सुन्दर है। यह अनेक प्रकारके फल, फूल आदि अलंकारोंसे अलंकृत सुन्दर
गिरिराजकी भाँति सुशोभित हो रहा है” ।। १०३ ।।
विशोकां कुरु मां क्षिप्रमशोक प्रियदर्शन ।
वीतशोकभयाबाध॑ कच्चित् त्वं दृष्टवान् नृपम् ।। १०४ ।।
नल॑ नामारिदमनं दमयन्त्या: प्रियं पतिम् ।
निषधानामधिपेतिं दृष्टवानसि मे प्रियम् ।। १०५ ।।
(अब उसने अशोकसे कहा--) 'प्रियदर्शन अशोक! तुम शीघ्र ही मेरा शोक दूर कर
दो। क्या तुमने शोक, भय और बाधासे रहित शत्रुदमन राजा नलको देखा है? क्या मेरे
प्रियतम, दमयन्तीके प्राणवल्लभ, निषधनरेश नलपर तुम्हारी दृष्टि पड़ी
है? ।। १०४-१०५ |।
एकवत्त्रार्थसंवीतं सुकुमारतनुत्वचम् ।
व्यसनेनार्दितं वीरमरण्यमिदमागतम् ।। १०६ ।।
उन्होंने एक साड़ीके आधे टुकड़ेसे अपने शरीरको ढँक रखा है, उनके अंगोंकी त्वचा
बड़ी सुकुमार है। वे वीरवर नल भारी संकटसे पीड़ित होकर इस वनमें आये हैं || १०६ ।।
यथा विशोका गच्छेयमशोकनग तत् कुरु ।
सत्यनामा भवाशोक अशोक: शोकनाशन: ।। १०७ ||
“अशोकवृक्ष! तुम ऐसा करो, जिससे मैं यहाँसे शोकरहित होकर जाऊँ। अशोक उसे
कहते हैं, जो शोकका नाश करनेवाला हो, अत: अशोक! तुम अपने नामको सत्य एवं
सार्थक करो' || १०७ |।
एवं साशोकवृक्ष॑ तमार्ता वै परिगम्य ह ।
जगाम दारुणतरं देशं भैमी वराड़ना ।। १०८ ।।
इस प्रकार शोकार्त हुई सुन्दरी दमयन्ती उस अशोकवृक्षकी परिक्रमा करके वहाँसे
अत्यन्त भयंकर स्थानकी ओर गयी ।। १०८ ।।
सा ददर्श नगान् नैकान् नैकाश्न सरितस्तथा ।
नैकांश्व पर्वतान् रम्यान् नैकांश्व मृगपक्षिण: ।। १०९ |।
कन्दरांश्व नितम्बांश्न नदीश्वाद्भुतदर्शना: ।
ददर्श तान् भीमसुता पतिमन्वेषती तदा ॥। ११० ।।
गत्वा प्रकृष्टमध्वानं दमयन्ती शुचिस्मिता ।
ददर्शाथ महासार्थ हस्त्यश्वरथसंकुलम् ।। १११ ।।
उत्तरन्तं नदीं रम्यां प्रसन्नसलिलां शुभाम् |
सुशीततोयां विस्तीर्णा हृदिनीं वेतसैर्व॒ताम् ।। ११२ ।।
उसने अनेक प्रकारके वृक्ष, अनेकानेक सरिताओं, बहुसंख्यक रमणीय पर्वतों, अनेक
मृग-पक्षियों, पर्वतकी कन्दराओं तथा उनके मध्यभागों और हम देखा। पतिका
अन्वेषण करनेवाली दमयन्तीने उस समय पूर्वोक्त सभी वस्तुओंको देखा। इस तरह बहुत
दूरतकका मार्ग तय कर लेनेके बाद पवित्र मुसकानवाली दमयन्तीने एक बहुत बड़े सार्थ
(व्यापारियोंके दल)-को देखा, जो हाथी, घोड़े तथा रथसे व्याप्त था। वह व्यापारियोंका
समूह स्वच्छ जलसे सुशोभित एक सुन्दर रमणीय नदीको पार कर रहा था। नदीका जल
बहुत ठंडा था। उसका पाट चौड़ा था। उसमें कई कुण्ड थे और वह किनारेपर उगे हुए
बेंतके वृक्षोंसे आच्छादित हो रही थी ।। १०९--११२ ॥।
प्रोद्घुष्टां क्रो्चकुररैश्वक्रवाकोपकूजिताम् ।
कूर्मग्राहझषाकीर्णा विपुलद्वीपशोभिताम् ।। ११३ ।।
उसके तटपर क्रौंच, कुरर और चक्रवाक आदि पक्षी कूज रहे थे। कछुए, मगर और
मछलियोंसे भरी हुई वह नदी विस्तृत टापूसे सुशोभित हो रही थी ।। ११३ ।।
सा दृष्टवैव महासार्थ नलपत्नी यशस्विनी ।
उपसर्प्य वरारोहा जनमध्यं विवेश ह ।। ११४ ।।
उस बहुत बड़े समूहको देखते ही यशस्विनी नलपत्नी सुन्दरी दमयन्ती उसके पास
पहुँच कर लोगोंकी भीड़में घुस गयी ।। ११४ ।।
उन्मत्तरूपा शोकार्ता तथा बत्त्रार्थसंवृता ।
कृशा विवर्णा मलिना पांसुध्वस्तशिरोरुहा ।। ११५ ।।
उसका रूप उन्मत्त स्त्रीका-सा जान पड़ता था, वह शोकसे पीड़ित, दुर्बल, उदास और
मलिन हो रही थी। उसने आधे वस्त्रसे अपने शरीरको ढक रखा था और उसके केशोंपर
धूल जम गयी थी ।। ११५ ।।
तां दृष्टवा तत्र मनुजा: केचिद् भीताः: प्रदुद्रुवुः ।
केचिच्चिन्तापरा जग्मु: केचित् तत्र विचुक्रुशु: | ११६ ।।
वहाँ दमयन्तीको सहसा देखकर कितने ही मनुष्य भयसे भाग खड़े हुए। कोई-कोई
भारी चिन्तामें पड़ गये और कुछ लोग तो चीखने-चिल्लाने लगे ।। ११६ ।।
प्रहसन्ति सम तां केचिदभ्यसूयन्ति चापरे ।
अकुर्वत दयां केचित् पप्रच्छुश्नापि भारत ।। ११७ ।।
कुछ लोग उसकी हँसी उड़ाते थे और कुछ उसमें दोष देख रहे थे। भारत! उन्हींमें कुछ
लोग ऐसे भी थे, जिन्हें उसपर दया आ गयी और उन्होंने उसका समाचार पूछा
- || ११७ ||
कासि कस्यासि कल्याणि कि वा मृगयसे वने ।
त्वां दृष्टवा व्यथिता: स्मेह कच्चित् त्वमसि मानुषी || ११८ ।।
“कल्याणि! तुम कौन हो? किसकी स्त्री हो और इस वनमें क्या खोज रही हो? तुम्हें
देखकर हम बहुत दु:खी हैं। क्या तुम मानवी हो? ।। ११८ ।।
वद सत्यं वनस्यास्य पर्वतस्याथवा दिश: ।
देवता त्वं हि कल्याणि त्वां वयं शरणं गता: ।। ११९ ।।
“कल्याणि! सच बताओ, तुम इस वन, पर्वत अथवा दिशाकी अधिष्ठात्री देवी तो नहीं
हो? हम सब लोग तुम्हारी शरणमें आये हैं || ११९ ।।
यक्षी वा राक्षसी वा त्वमुताहो$सि वराड़ना ।
सर्वथा कुरु नः स्वस्ति रक्ष वास्माननिन्दिते || १२० ।।
यथायं सर्वथा सार्थ: क्षेमी शीघ्रमितो व्रजेत् ।
तथा विधत्स्व कल्याणि यथा श्रेयो हि नो भवेत् ।। १२१ ।।
“तुम यक्षी हो या राक्षसी अथवा कोई श्रेष्ठ देवांगना हो? अनिन्दिते! सर्वथा हमारा
कल्याण एवं संरक्षण करो। कल्याणि! यह हमारा समूह शीघ्र कुशलपूर्वक यहाँसे चला जाय
और हमलोगोंका सब प्रकारसे भला हो, ऐसी कृपा करो” || १२०-१२१ ।।
तथोक्ता तेन सार्थेन दमयन्ती नृपात्मजा ।
प्रत्युवाच ततः साध्वी भर्तृव्यसनपीडिता ।। १२२ ।।
उस यात्रीदलके द्वारा जब ऐसी बात कही गयी, तब पतिके वियोगजनित दुःखसे
पीड़ित साध्वी राजकुमारी दमयन्तीने उन सबको इस प्रकार उत्तर दिया-- || १२२ ।।
सार्थवाहं च सार्थ च जना ये चात्र केचन ।
युवस्थविरबालाश्न सार्थस्य च पुरोगमा: ।। १२३ ।।
मानुषीं मां विजानीत मनुजाधिपते: सुताम् ।
नृपस््नुषां राजभार्या भर्तृदर्शनलालसाम् ।। १२४ ।।
“इस जनसमुदायके जो सरदार हों, उनसे, इस जनसमूहसे तथा इसके (भीतर रहनेवाले
और) आगे चलनेवाले जो बाल-वृद्ध और युवक मनुष्य हों, उन सबसे मेरा यह कहना है कि
आप सब लोग मुझे मानवी समझें। मैं एक नरेशपुत्री, महाराजकी पुत्रवधू तथा राजपत्नी हूँ।
अपने स्वामीके दर्शनकी इच्छासे इस वनमें भटक रही हूँ || १२३-१२४ ।।
विदर्भराण्मम पिता भर्ता राजा च नैषध: ।
नलो नाम महाभागस्तं मृग्याम्यपराजितम् ।। १२५ ।।
“विदर्भराज भीम मेरे पिता हैं, निषधनरेश महाभाग राजा नल मेरे पति हैं। मैं उन्हीं
अपराजित वीर नलकी खोज कर रही हूँ ।। १२५ ।।
यदि जानीत नृपतिं क्षिप्रं शंसत मे प्रियम् ।
नलं॑ पुरुषशार्दूलममित्रगणसूदनम् ।। १२६ ।।
“यदि आपलोग शत्रुसमूहका संहार करनेवाले मेरे प्रियतम पुरुषसिंह महाराज नलके
विषयमें कुछ जानते हों तो शीघ्र बतावें' || १२६ ।।
तामुवाचानवद्याज़ीं सार्थस्य महतः प्रभु: ।
सार्थवाह: शुचिर्नाम शृणु कल्याणि मद्गच: ।। १२७ ।।
उस महान् समूहका मालिक और समस्त यात्रीदलका संचालक (वणिक्) शुचिनामसे
प्रसिद्ध था। उसने उस सुन्दरीसे कहा--“कल्याणि! मेरी बात सुनो'-- || १२७ ।।
अहं सार्थस्य नेता वै सार्थवाह: शुचिस्मिते ।
मनुष्यं नलनामानं न पश्यामि यशस्विनि ।। १२८ ।।
'शुचिस्मिते! मैं इस दलका नेता और संचालक हूँ। यशस्विनि! मैंने नल नामधारी किसी
मनुष्यको इस वनमें नहीं देखा है ।। १२८ ।।
कुञ्जरद्वीपिमहिषशार्दूलर्क्षमृगानपि ।
पश्याम्यस्मिन् वने कृत्स्ने हामनुष्यनिषेविते || १२९ ।।
“यह सम्पूर्ण वन मनुष्येतर प्राणियोंसे भरा है। इसके भीतर हाथियों, चीतों, भैंसों
सिंहों, रीछों और मृगोंको ही मैं देखता आ रहा हूँ ।। १२९ ।।
ऋते त्वां मानुषीं मर्त्य न पश्यामि महावने ।
तथा नो यक्षराडद्य मणिभद्र: प्रसीदतु || १३० ।।
“तुम-जैसी मानव-कन्याके सिवा और किसी मनुष्यको मैं इस विशाल वनमें नहीं देख
रहा हूँ। इसलिये यक्षराज मणिभद्र आज हमपर प्रसन्न हों! || १३० ।।
साब्रवीद् वणिज: सर्वान् सार्थवाहं च तं ततः ।
क्व नु यास्यति सार्थोडयमेतदाख्यातुमहसि ।। १३१ ।।
तब दमयन्तीने उन सब व्यापारियों तथा दलके संचालकसे कहा--“आपका यह दल
कहाँ जायगा? यह मुझे बताइये” ।। १३१ ।।
सार्थवाह उवाच
सार्थोडयं चेदिराजस्य सुबाहो: सत्यदर्शिन: ।
क्षिप्रं जनपदं गन्ता लाभाय मनुजात्मजे ।। १३२ ।।
सार्थवाहने कहा--राजकुमारी! हमारा यह दल शीघ्र ही सत्यदर्शी चेदिराज सुबाहुके
जनपद (नगर)-में विशेष लाभके उद्देश्यसे जायगा ।। १३२ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि दमयन्तीसार्थवाहसंगमे
चतु:षष्टितमो5 ध्याय: ।। ६४ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें दमयन्तीकी यार्थवाहसे
भेंटविषयक चौंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ६४ ॥।
हि न () हि २ 7
पजञज्चषष्टितमो< ध्याय:
जंगली हाथियोंद्वारा व्यापारियोंके दलका सर्वनाश तथा
दुःखित दमयन्तीका चेदिराजके भवनमें सुखपूर्वक निवास
बृहदश्चव उवाच
सा तच्छुत्वानवद्याज्ञी सार्थवाहवचस्तदा ।
जगाम सह तेनैव सार्थेन पतिलालसा ।। १ ||
बृहदश्व मुनि कहते हैं--राजन! दलके संचालककी वह बात सुनकर निर्दोष एवं
सुन्दर अंगोंवाली दमयन्ती पतिदेवके दर्शनके लिये उत्सुक हो व्यापारियोंके उस दलके साथ
ही यात्रा करने लगी ।। १ ।।
अथ काले बहुतिथे वने महति दारुणे ।
तडागं सर्वतोभद्रंं पच्मसौगन्धिकं महत् ।। २ ।।
ददृशुर्वणिजो रम्यं प्रभूतयवसेन्धनम् ।
बहुपुष्पफलोपेतं नानापक्षिनिषेवितम् ।। ३ ।।
तदनन्तर बहुत समयके बाद एक भयंकर विशाल वनमें पहुँचकर उन व्यापारियोंने एक
महान् सरोवर देखा, जिसका नाम था, पद्मसौगन्धिक। वह सब ओरसे कल्याणप्रद जान
पड़ता था। उस रमणीय सरोवरके पास घास और ईंधनकी अधिकता थी, फूल और फल
भी वहाँ प्रचुर मात्रामें उपलब्ध होते थे। उस तालाबपर बहुत-से पक्षी निवास करते
थे ।। २-३ ।।
निर्मलस्वादुसलिलं मनोहारि सुशीतलम् ।
सुपरिश्रान्तवाहास्ते निवेशाय मनो दधु: ।। ४ ।।
सरोवरका जल स्वच्छ और स्वादु था, वह देखनेमें बड़ा ही मनोहर और अत्यन्त शीतल
था। व्यापारियोंके वाहन बहुत थक गये थे। इसलिये उन्होंने वहीं पड़ाव डालनेका निश्चय
किया ।। ४ ।।
सम्मते सार्थवाहस्य विविशुर्वनमुत्तमम् ।
उवास सार्थ: सुमहान् वेलामासाद्य पश्चिमाम् ।। ५ ।।
समूहके अधिपतिसे अनुमति लेकर सब लोगोंने उस उत्तम वनमें प्रवेश किया और वह
महान् जनसमुदाय सरोवरके पश्चिम तटपर ठहर गया ।। ५ |।
अथार्धरात्रसमये नि:शब्दस्तिमिते तदा ।
सुप्ते सार्थे परिश्रान्ते हस्तियूथमुपागमत् ।। ६ ।।
पानीयार्थ गिरिनदीं मदप्रस्रवणाविलाम् ।
अथापश्यत सरर्थ तं॑ सार्थजान् सुबहून् गजान् ।। ७ ।।
तत्पश्चात् आधी रातके समय जब कहींसे भी कोई शब्द सुनायी नहीं देता था और उस
दलके सभी लोग थककर सो गये थे, उस समय गजराजोंके मदकी धारासे मलिन जलवाली
पहाड़ी नदीमें पानी पीनेके लिये (जंगली) हाथियोंका एक झुंड आ निकला। उस झुंडने
व्यापारियोंके सोये हुए दलको और उसके साथ आये हुए बहुत-से हाथियोंको भी
देखा ।। ६-७ ||
ते तान् ग्राम्यगजान् दृष्टवा सर्वे वनगजास्तदा ।
समाद्रवन्त वेगेन जिघांसन्तो मदोत्कटा: ।। ८ ।।
तब वनमें रहनेवाले उन सभी मदोन्मत्त गजोंने उन ग्रामीण हाथियोंको देखकर उन्हें
मार डालनेकी इच्छासे उनपर वेगपूर्वक आक्रमण किया ।। ८ ।।
तेषामापततां वेग: करिणां दुःसहो5भवत् |
नगाग्रादिव शीर्णानां शुद्रणां पततां क्षितौ ।। ९ ।।
पर्ववकी चोटीसे टूटकर पृथ्वीपर गिरनेवाले बड़े-बड़े शिखरोंके समान उन
आक्रमणकारी जंगली हाथियोंका वेग (उस यात्रीदलके लिये) अत्यन्त दुःसह था ।। ९ ।।
स्पन्दतामपि नागानां मार्गा नष्टा वनोद्धवा: ।
मार्ग संरुध्य संसुप्तं पद्मिन्या: सार्थमुत्तमम् ।। १० ।।
ग्रामीण हाथियोंपर आक्रमण करनेकी चेष्टावाले उन वनवासी गजराजोंके वन्य मार्ग
अवरुद्ध हो गये थे। सरोवरके तटपर व्यापारियोंका महान् समुदाय उनका मार्ग रोककर सो
रहा था ।। १० ||
ते त॑ ममर्दु: सहसा चेष्टमानं महीतले ।
हाहाकारं प्रमुड्चन्त: सार्थिका: शरणार्थिन: ।। ११ ||
वनगुल्मांश्व धावन्तो निद्रान्धा बहवो5भवन् |
केचिद् दत्तै: करै: केचित् केचित् पद्धयां हता गजै: ।। १२ ।।
उन हाथियोंने सहसा पहुँचकर समूचे दलको कुचल दिया। कितने ही मनुष्य धरतीपर
पड़े-पड़े छटपटा रहे थे। उस दलके कितने ही पुरुष हाहाकार करते हुए बचावकी जगह
खोजते हुए जंगलके पौधोंके समूहमें भाग गये। बहुत-से मनुष्य तो नींदके मारे अन्धे हो रहे
थे। हाथियोंने किन्हींको दाँतोंसे, किन्हींको सूड़ोंसे और कितनोंको पैरोंसे घायल कर
दिया ।। ११-१२ |।
निहतोष्टाश्वबहुला: पदातिजनसंकुला: ।
भयादाधावमानाश्ष् परस्परहतास्तदा ।। १३ ।।
घोरान् नादान् विमुञ्चन्तो निपेतुर्धरणीतले ।
वृक्षेष्वारुह्मु संरब्धा: पतिता विषमेषु च ।। १४ ।।
उनके बहुत-से ऊँट और घोड़े मारे गये और उस समुदायमें बहुत-से पैदल लोग भी थे।
वे सब लोग उस समय भयसे चारों ओर भागते हुए एक-दूसरेसे टकराकर चोट खा जाते थे।
घोर आर्तनाद करते हुए सभी लोग धरतीपर गिरने लगे। कुछ लोग बड़े वेगसे वृक्षोंपर चढ़ते
हुए नीचेकी विषम भूमियोंपर गिर पड़ते थे ।। १३-१४ ।।
एवं प्रकारैर्बहुभिर्देवेनाक्रम्य हस्तिभि: ।
राजन् विनिहतं सर्व समृद्ध सार्थमण्डलम् ।। १५ ।।
राजन्! इस प्रकार दैववश बहुतेरे जंगली हाथियोंने आक्रमण करके (प्रायः) उस
सम्पूर्ण समृद्धिशाली व्यापारियोंके समुदायको नष्ट कर दिया ।। १५ ।।
आराव: सुमहांश्चासीत् त्रलोक्यभयकारक: ।
एषो<ग्निरुत्थित: कष्टस्त्रायध्वं धावताधुना ।। १६ ।।
रत्नराशिविंशीर्णो<यं गृह्नी ध्वं कि प्रधावत ।
उस समय वहाँ तीनों लोकोंको भयमें डालनेवाला महान् आर्तनाद एवं चीत्कार हो रहा
था। कोई कहता--'अरे! इधर बड़े जोरकी आग प्रज्वलित हो उठी है। यह भारी संकट आ
गया (अब) दौड़ो और बचाओ।' दूसरा कहता--“अरे! ये ढेर-के-ढेर रत्न बिखरे पड़े हैं,
इन्हें सँभालकर रखो। इधर-उधर भागते क्यों हो?” | १६३६ ।।
सामान्यमेतद् द्रविणं न मिथ्यावचनं मम ।। १७ ।।
तीसरा कहता था--'भाई! इस धनपर सबका समान अधिकार है, मेरी यह बात झूठी
नहीं है” | १७ ।।
एवमेवाभिभाषणन्तो विद्रवन्ति भयात् तदा ।
पुनरेवाभिधास्यामि चिन्तयध्वं सुकातरा: ।। १८ ।।
कोई कहता--'ऐ कायरो! मैं फिर तुमसे बात करूँगा, अभी अपनी रक्षाकी चिन्ता
करो।' इस तरहकी बातें करते हुए सब लोग भयसे भाग रहे थे ।। १८ ।।
तस्मिंस्तथा वर्तमाने दारुणे जनसंक्षये ।
दमयन्ती च बुबुधे भयसंत्रस्तमानसा ।। १९ |।
इस प्रकार जब वहाँ भयानक नरसंहार हो रहा था, उसी समय दमयन्ती भी जाग उठी।
उसका हृदय भयसे संत्रस्त हो उठा ।। १९ |।
अपश्यद् वैशसं तत्र सर्वलोकभयंकरम् ।
अदृष्टपूर्व तद् दृष्टवा बाला पद्मनिभेक्षणा ।। २० ।।
संसक्तवदनाश्चासा उत्तस्थौ भयविद्धला ।
ये तु तत्र विनिर्मुक्ता: सार्थात् केचिदविक्षता: ॥। २३ ।।
तेडब्रुवन् सहिता: सर्वे कस्येदं कर्मण: फलम् ।
नूनं न पूजितो<स्माभिमणिभद्रो महायशा: ।। २२ ।।
तथा यक्षाधिप: श्रीमान् न वै वैश्रवण: प्रभु: ।
न पूजा विघ्नकर्तृणामथवा प्रथमं कृता ।। २३ ||
शकुनानां फलं वाथ विपरीतमिदं ध्रुवम् ।
ग्रहा न विपरीतास्तु किमन्यदिदमागतम् ।। २४ ।।
वहाँ उसने वह महासंहार अपनी आँखों देखा, जो सब लोगोंके लिये भयंकर था। उसने
ऐसी दुर्घटना पहले कभी नहीं देखी थी। यह सब देखकर वह कमलनयनी बाला भयसे
व्याकुल हो उठी। उसको कहींसे कोई सान्त्वना नहीं मिल रही थी। वह इस प्रकार स्तब्ध हो
रही थी, मानो धरतीसे सट गयी हो। तदनन्तर वह किसी प्रकार उठकर खड़ी हुई। दलके जो
लोग उस संकटसे मुक्त हो आघातसे बचे हुए थे, वे सब एकत्र हो कहने लगे कि “यह हमारे
किस कर्मका फल है? निश्चय ही हमने महायशस्वी मणिभद्रका पूजन नहीं किया है। इसी
प्रकार हमने श्रीमान् यक्षराज कुबेरकी भी पूजा नहीं की है अथवा विघ्नकर्ता विनायकोंकी
भी पहले पूजा नहीं कर ली थी। अथवा हमने पहले जो-जो शकुन देखे थे, उसका यह
विपरीत फल है। यदि हमारे ग्रह विपरीत न होते तो और किस हेतुसे यह संकट हमारे ऊपर
कैसे आ सकता था?” ॥| २०--२४ ।।
अपरे त्वब्लुवन् दीना ज्ञातिद्रव्यविनाकृता: ।
यासावद्य महासार्थ नारी हरुन्मत्तदर्शना ।। २५ ।।
प्रविष्टा विकृताकारा कृत्वा रूपममानुषम् ।
तयेयं विहिता पूर्व माया परमदारुणा ॥। २६ ।।
दूसरे लोग जो अपने कुटुम्बीजनों और धनके विनाशसे दीन हो रहे थे, वे इस प्रकार
कहने लगे--“आज हमारे विशाल जनसमूहके साथ वह जो उन्मत्त-जैसी दिखायी देनेवाली
नारी आ गयी थी, वह विकराल आकारवाली राक्षसी थी तो भी अलौकिक सुन्दर रूप
धारण करके हमारे दलमें घुस गयी थी। उसीने पहलेसे ही यह अत्यन्त भयंकर माया फैला
रखी थी || २५-२६ ।।
राक्षसी वा ध्रुवं यक्षी पिशाची वा भयंकरी ।
तस्या: सर्वमिदं पापं नात्र कार्या विचारणा ।। २७ ।।
पश्यामो यदि तां पापां सार्थघ्नीं नैकदु:खदाम् ।
लोष्टभि: पांसुभिश्चैव तृणै: काष्ठैश्न मुष्टिभि: ।। २८ ।।
अवश्यमेव हन्याम: सार्थस्य किल कृत्यकाम् |
“निश्चय ही वह राक्षसी, यक्षी अथवा भयंकर पिशाची थी--इसमें विचार करनेकी कोई
आवश्यकता नहीं कि यह सारा पापपूर्ण कृत्य उसीका किया हुआ है। उसने हमें अनेक
प्रकारका दुःख दिया और प्राय: सारे दलका विनाश कर डाला। वह पापिनी समूचे सार्थके
लिये अवश्य ही कृत्या बनकर आयी थी। यदि हम उसे देख लेंगे तो ढेलोंसे, धूल और
तिनकोंसे, लकड़ियों और मुक्कोंसे भी अवश्य मार डालेंगे || २७-२८ $ ।।
दमयन्ती तु तच्छुत्वा वाक््यं तेषां सुदारुणम् ।। २९ ।।
ह्वीता भीता च संविग्ना प्राद्रवद् यत्र काननम् ।
आशड्कमाना तत्पापमात्मानं पर्यदेवयत् ।। ३० ।।
“उनका वह अत्यन्त भयंकर वचन सुनकर दमयन्ती लज्जासे गड़ गयी और भयसे
व्याकुल हो उठी। उनके पापपूर्ण संकल्पके संघटित होनेकी आशंका करके वह उसी ओर
भाग गयी, जहाँ घना जंगल था। वहाँ जाकर अपनी इस परिस्थितिपर विचार करके वह
विलाप करने लगी-- || २९-३० |।
अहो ममोपरि विधे: संरम्भो दारुणो महान् ।
नानुबध्नाति कुशलं कस्येदं कर्मण: फलम् ॥। ३१ ।।
“अहो! मुझपर विधाताका अत्यन्त भयानक और महान् कोप है, जिससे मुझे कहीं भी
कुशल-क्षेमकी प्राप्ति नहीं होती। न जाने, यह हमारे किस कर्मका फल है? ।। ३१ ।।
न स्मराम्यशुभं किंचित् कृतं कस्यचिदण्वपि ।
कर्मणा मनसा वाचा कस्येदं कर्मण: फलम् ।। ३२ ।।
“मैंने मन, वाणी और क्रियाद्वारा कभी किसीका थोड़ा-सा भी अमंगल किया हो,
इसकी याद नहीं आती, फिर यह मेरे किस कर्मका फल मिल रहा है? ।। ३२ ।।
नूनं जन्मान्तरकृतं पापमापतितं महत् |
अपक्रिमामिमां कष्टामापदं प्राप्तवत्यहम् ।। ३३ ॥।
“निश्चय ही यह मेरे दूसरे जन्मोंके किये हुए पापका महान् फल प्राप्त हुआ है, जिससे
मैं इस अनन्त कष्टमें पड़ गयी हूँ ।। ३३ ।।
भर्त्राज्यापहरणं स्वजनाच्च पराजय: ।
भर्त्रां सह वियोगश्व तनयाभ्यां च विच्युति: ।। ३४ ।।
“मेरे स्वामीके राज्यका अपहरण हुआ, उन्हें आत्मीयजनसे ही पराजित होना पड़ा,
मेरा अपने पतिदेवसे वियोग हुआ और अपनी संतानोंके दर्शनसे भी वंचित हो गयी
हूँ ।। ३४ ।।
निर्नाथता वने वासो बहुव्यालनिषेविते ।
“इतना ही नहीं, असंख्य सर्प आदि जन्तुओंसे भरे हुए इस वनमें मुझे अनाथकी-सी
दशामें रहना पड़ता है” ।।
अथापरेद्यु: सम्प्राप्ते हतशिष्टा जनास्तदा ।। ३५ ||
देशात् तस्माद् विनिष्क्रम्प शोचन्ते वैशसं कृतम्
भ्रातरं पितरं पुत्रं सखायं च नराधिप ।। ३६ ।।
तदनन्तर दूसरा दिन प्रारम्भ होनेपर मरनेसे बचे हुए लोग उस स्थानसे निकलकर उस
विकट संहारके लिये शोक करने लगे। राजन्! कोई भाईके लिये दुःखी था, कोई पिताके
लिये; किसीको पुत्रका शोक था और किसीको मित्रका ।। ३५-३६ ।।
अशोचत् तत्र वैदर्भी कि नु मे दुष्कृतं कृतम् ।
योऊपि मे निर्जने5रण्ये सम्प्राप्तोडयं जनार्णव: ।। ३७ ।।
स हतो हस्तियूथेन मन्दभाग्यान्ममैव तत् |
प्राप्तव्यं सुचिरं दु:खं नूनमद्यापि वै मया ।। ३८ ।।
विदर्भराजकुमारी दमयन्ती भी इसके लिये शोक करने लगी कि “मैंने कौन-सा पाप
किया है, जिससे इस निर्जन वनमें मुझे जो यह समुद्रके समान जनसमुदाय प्राप्त हो गया
था, वह भी मेरे ही दुर्भाग्यसे हाथियोंके झुंडद्वारा मारा गया। निश्चय ही मुझे अभी
दीर्घकालतक दुःख-ही-दुःख भोगना है ।। ३७-३८ ॥।
नाप्राप्तकालो ग्रियते श्रुतं वृद्धानुशासनम् ।
या नाहमद्य मृदिता हस्तियूथेन दु:खिता ।। ३९ ।।
“जिसकी मृत्युका समय नहीं आया है, वह इच्छा होते हुए भी मर नहीं सकता। वृद्ध
पुरुषोंका यह जो उपदेश मैंने सुन रखा है, यह ठीक ही जान पड़ता है, तभी तो आज मैं
दुःखित होनेपर भी हाथियोंके झुंडसे कुचलकर मर न सकी ।। ३९ ।।
न हादैवकृतं किंचिन्नराणामिह विद्यते |
न च मे बालभावे5पि किंचित् पापकृतं कृतम् ।। ४० ।।
कर्मणा मनसा वाचा यदिदं दुःखमागतम् ।
“मनुष्योंको इस जगतमें कोई भी सुख या दुःख ऐसा नहीं मिलता, जो विधाताका दिया
हुआ न हो। मैंने बचपनमें भी मन, वाणी अथवा क्रियाद्वारा ऐसा पाप नहीं किया है, जिससे
मुझे यह दुःख प्राप्त होता || ४० ३ ।।
मन्ये स्वयंवरकृते लोकपाला: समागता: ।। ४१ ।।
प्रत्याख्याता मया तत्र नलस्यार्थाय देवता: ।
नूनं तेषां प्रभावेण वियोगं प्राप्तवत्यहम् ।। ४२ ।।
एवमादीनि दु:खार्ता सा विलप्य वराड़ना ।
प्रलापानि तदा तानि दमयन्ती पतिव्रता ।। ४३ ।।
“मैं समझती हूँ, स्वयंवरके लिये जो लोकपाल देवगण पधारे थे, नलके कारण मैंने
उनका तिरस्कार कर दिया था। अवश्य उन्हीं देवताओंके प्रभावसे आज मुझे वियोगका कष्ट
प्राप्त हुआ है।” इस प्रकार दुःखसे आतुर हुई सुन्दरी पतिव्रता दमयन्तीने उस समय अनेक
प्रकारसे विलाप एवं प्रलाप किये || ४ १--४३ ॥।
हतशेषै: सह तदा ब्राह्माणैवेंदपारगै: ।
अगच्छदू राजशार्दूल चन्द्रलेखेव शारदी ।। ४४ ।।
गच्छन्ती साचिरादू् बाला पुरमासादयन्महत् |
सायाद्वे चेदिराजस्य सुबाहो: सत्यदर्शिन: ।। ४५ ।।
नृपश्रेष्ठी तदनन्तर मरनेसे बचे हुए वेदोंके पारंगत दिद्वान् ब्राह्मणोंके साथ यात्रा करती
हुई शरत्कालके चन्द्रमाकी कलाके समान वह सुन्दरी युवती थोड़े ही समयमें संध्या होते-
होते सत्यदर्शी चेदिराज सुबाहुकी राजधानीमें जा पहुँची || ४४-४५ ।।
अथ बल्त्रार्थसंवीता प्रविवेश पुरोत्तमम् ।
त॑ विह्लां कृशां दीनां मुक्तकेशीममार्जिताम् ।। ४६ ।।
शरीरमें आधी साड़ीको लपेटे हुए ही उसने उस उत्तम नगरमें प्रवेश किया। वह विह्नल,
दीन और दुर्बल हो रही थी। उसके सिरके बाल खुले हुए थे। उसने स्नान नहीं किया
था ।। ४६ |।
उन्मत्तामिव गच्छन्तीं ददृूश: पुरवासिन: ।
प्रविशन्तीं तु तां दृष्टवा चेदिराजपुरीं तदा ।। ४७ ।।
अनुजममुस्तत्र बाला ग्रामिपुत्रा: कुतूहलात् ।
सा तैः परिवृतागच्छत् समीपं राजवेश्मन: ।। ४८ ।।
पुरवासियोंने उसे उन्मत्ताकी भाँति जाते देखा। चेदिनरेशकी राजधानीमें उसे प्रवेश
करते देख उस समय बहुत-से ग्रामीण बालक कौतूहलवश उसके साथ हो लिये थे। उनसे
घिरी हुई दमयन्ती राजमहलके समीप गयी || ४७-४८ ।।
तां प्रासादगतापश्यद् राजमाता जनैर्व॑ताम्
धात्रीमुवाच गच्छैनामानयेह ममान्तिकम् ।। ४९ ।।
उस समय राजमाताने उसे महलपरसे देखा। वह जनसाधारणसे घिरी हुई थी।
राजमाताने धायसे कहा--“जाओ, इस युवतीको मेरे पास ले आओ ।। ४९ ।।
जनेन क्लिश्यते बाला दुःखिता शरणार्थिनी ।
तादग् रूप॑ च पश्यामि विद्योतयति मे गृहम् । ५० ।।
“इसे लोग तंग कर रहे हैं। यह दु:खिनी युवती कोई आश्रय चाहती है। मुझे इसका रूप
ऐसा दिखायी देता है, जो मेरे घरको प्रकाशित कर देगा ।। ५० ।।
उन्मत्तवेषा कल्याणी श्रीरिवायतलोचना ।
सा जन वारयित्वा त॑ं प्रासादतलमुत्तमम् ।। ५१ ।।
आरोप्य विस्मिता राजन् दमयन्तीमपृच्छत ।
एवमप्यसुखाविष्टा बिभर्षि परमं वपु: ।। ५२ ।।
“इसका वेष तो उन्मत्तके समान है, परंतु यह विशाल नेत्रोंवाली युवती कल्याणमयी
लक्ष्मीके समान जान पड़ती है।” धाय उन सब लोगोंको हटाकर उसे उत्तम राजमहलकी
अट्टालिकापर चढ़ा ले आयी। राजन! तत्पश्चात् विस्मित होकर राजमाताने दमयन्तीसे पूछा
--अहो! तुम इस प्रकार दुःखसे दबी होनेपर भी इतना सुन्दर रूप कैसे धारण करती
हो? ।। ५१-५२ ।।
भासि विद्युदिवा भ्रेषु शंस मे कासि कस्य वा ।
नहि ते मानुषं रूपं भूषणैरपि वर्जितम् ।। ५३ ।।
असहाया नरेभ्यश्षु नोद्धिजस्यमरप्रभे ।
“मेघमालामें प्रकाशित होनेवाली बिजलीकी भाँति तुम इस दुःखमें भी कैसी तेजस्विनी
दिखायी देती हो। मुझसे बताओ, तुम कौन हो? किसकी स्त्री हो? यद्यपि तुम्हारे शरीरपर
कोई आभूषण नहीं है तो भी तुम्हारा यह रूप मानव-जगत्का नहीं जान पड़ता। देवताकी-
सी दिव्य कान्ति धारण करनेवाली वत्से! तुम असहाय-अवस्थामें होकर भी लोगोंसे डरती
क्यों नहीं हो?' ।।
तच्छुत्वा वचन तस्या भेमी वचनमत्रवीत् ॥। ५४ ।।
उसकी वह बात सुनकर भीमकुमारीने कहा-- ।। ५४ ।।
मानुषीं मां विजानीहि भर्तारं समनुव्रताम्
सैरन्ध्रीजातिसम्पन्नां भुजिष्यां कामवासिनीम् ।। ५५ ।।
“माताजी! आप मुझे मानव-कन्या ही समझिये। मैं अपने पतिके चरणोंमें अनुराग
रखनेवाली एक नारी हूँ। मेरी अन्तःपुरमें काम करनेवाली सैरन्ध्री जाति है। मैं सेविका हूँ
और जहाँ इच्छा होती है, वहीं रहती हूँ ।।
फलमूलाशनामेकां यत्रसायंप्रतिश्रयाम् ।
असंख्येयगुणो भर्ता मां च नित्यमनुव्रत: ।। ५६ ।।
“मैं अकेली हूँ, फल-मूल खाकर जीवन-निर्वाह करती हूँ और जहाँ साँझ होती है, वहीं
टिक जाती हूँ। मेरे स्वामीमें असंख्य गुण हैं, उनका मेरे प्रति सदा अत्यन्त अनुराग
है ।। ५६ ||
भक्ताहमपि तं॑ वीरं छायेवानुगता पथि ।
तस्य दैवात् प्रसज्रो5भूदतिमात्र सुदेवने || ५७ ।।
'जैसे छाया राह चलनेवाले पथिकके पीछे-पीछे चलती है, उसी प्रकार मैं भी अपने
वीर पतिदेवमें भक्तिभाव रखकर सदा उन्हींका अनुसरण करती हूँ। दुर्भाग्यवश एक दिन
मेरे पतिदेव जूआ खेलनेमें अत्यन्त आसक्त हो गये ।। ५७ ।।
द्यूते स निर्जितश्वैव वनमेक उपेयिवान् |
तमेकवसन वीरमुन्मत्तमिव विद्धलम् ।। ५८ ।।
आश्वासयन्ती भर्तारमहमप्यगमं वनम् |
स कदाचिद् वने वीर: कस्मिंश्वित् कारणान्तरे ।। ५९ |।
“और उसीमें अपना सब कुछ हारकर वे अकेले ही वनकी ओर चल दिये। एक वस्त्र
धारण किये उन्मत्त और विह्नल हुए अपने वीर स्वामीको सान्त्वना देती हुई मैं भी उनके
साथ वनमें चली आयी। एक दिनकी बात है, मेरे वीर स्वामी किसी कारणवश वनमें
गये ।। ५८-५९ ।।
क्षुत्परीतस्तु विमनास्तदप्येकं व्यसर्जयत् ।
तमेकवसना नग्नमुन्मत्तवदचेतसम् ।। ६० ।।
अनुव्रजन्ती बहुला न स्वपामि निशास्तदा |
ततो बहुतिथे काले सुप्तामुत्सृज्य मां क्वचित् ।। ६१ ।।
वाससोडर्थ परिच्छिद्य त्यक्तवान् मामनागसम् ।
त॑ मार्गमाणा भर्तारें दहमाना दिवानिशम् ॥। ६२ ।।
“उस समय वे भूखसे पीड़ित और अनमने हो रहे थे। अतः उन्होंने अपने उस एक
वस्त्रको भी कहीं वनमें ही छोड़ दिया। मेरे शरीरपर भी एक ही वस्त्र था। वे नग्न, उन्मत्त-
जैसे और अचेत हो रहे थे। उसी दशामें सदा उनका अनुसरण करती हुई अनेक रात्रियोंतक
कभी सो न सकी। तदनन्तर बहुत समयके पश्चात् एक दिन जब मैं सो गयी थी, उन्होंने मेरी
आधी साड़ी फाड़ ली और मुझ निरपराधिनी पत्नीको वहीं छोड़कर वे कहीं चल दिये। मैं
दिन-रात वियोगाग्निमें जलती हुई निरन्तर उन्हीं पतिदेवको दढूँढ़ती फिरती हूँ || ६०--
६२ ।।
साहं कमलगर्भाभमपश्यन्ती हृदि प्रियम् ।
न विन्दाम्यमरप्रख्य॑ प्रियं प्राणेश्वरं प्रभुम् । ६३ ।।
“मेरे प्रियतमकी कान्ति कमलके भीतरी भागके समान है। वे देवताओंके समान
तेजस्वी, मेरे प्राणोंके स्वामी और शक्तिशाली हैं। बहुत खोजनेपर भी मैं अपने प्रियको न तो
देख सकी हूँ और न उनका पता ही पा रही हूँ || ६३ ।।
तामश्रुपरिपूर्णाक्षी विलपन्तीं तथा बहु ।
राजमाताब्रवीदार्ता भैमीमार्तस्वरां स्वयम् ।। ६४ ।।
वसस्व मयि कल्याणि प्रीतिमें परमा त्वयि ।
मृगयिष्यन्ति ते भद्रे भर्तारं पुरुषा मम ।। ६५ ।।
भीमकुमारी दमयन्तीके नेत्रोंमें आँसू भरे हुए थे एवं वह आर्तस्वरसे बहुत विलाप कर
रही थी। राजमाता स्वयं भी उसके दुःखसे दुःखी हो बोली--“कल्याणि! तुम मेरे पास रहो।
तुमपर मेरा बहुत प्रेम है। भद्रे! मेरे सेवक तुम्हारे पतिकी खोज करेंगे || ६४-६५ ।।
अपि वा स्वयमागच्छेत् परिधावन्नितस्ततः ।
इहैव वसती भठद्रे भर्तारमुपलप्स्यसे ॥। ६६ ।।
“अथवा यह भी सम्भव है, वे इधर-उधर भटकते हुए स्वयं ही इधर आ निकलें। भद्रे!
तुम यहीं रहकर अपने पतिको प्राप्त कर लोगी” ।। ६६ ।।
राजमातुर्वच: श्रुत्वा दमयन्ती वचो<ब्रवीत् ।
समयेनोत्सहे वस्तुं त्वयि वीरप्रजायिनि ।। ६७ ।।
राजमाताकी यह बात सुनकर दमयन्तीने कहा--“वीरमात:! मैं एक नियमके साथ
आपके यहाँ रह सकती हूँ ।। ६७ ।।
उच्छिष्ट नैव भुज्जीयां न कुर्या पादधावनम् |
न चाहं पुरुषानन्यान् प्रभाषेयं कथंचन ।। ६८ ।।
“मैं किसीका जूठा नहीं खाऊँगी, किसीके पैर नहीं धोऊँगी और किसी भी दूसरे
पुरुषसे किसी तरह भी वार्तालाप नहीं करूँगी || ६८ ।।
प्रार्थयेद् यदि मां कश्चिद् दण्ड्यस्ते स पुमान् भवेत् |
वध्यश्न तेडसकृन्मन्द इति मे वब्रतमाहितम् ।। ६९ ।।
“यदि कोई पुरुष मुझे प्राप्त करना चाहे तो वह आपके द्वारा दण्डनीय हो और बार-बार
ऐसे अपराध करनेवाले मूढ़को आप प्राणदण्ड भी दें, यही मेरा निश्चित व्रत है ।। ६९ ।।
भर्तुरन्वेषणार्थ तु पश्येयं ब्राह्मणानहम् ।
यद्येवमिह वत्स्यामि त्वत्सकाशे न संशय: ।। ७० ।।
“मैं अपने पतिकी खोजके लिये केवल ब्राह्मणोंसे मिल सकती हूँ। यदि यहाँ ऐसी
व्यवस्था हो सके तो निश्चय ही आपके निकट निवास करूँगी। इसमें संशय नहीं है ।।
अतोडन्यथा न मे वासो वर्तते हृदये क्वचित् ।
तां प्रहवशेन मनसा राजमातेदमब्रवीत् ।। ७१ ।।
“यदि इसके विपरीत कोई बात हो तो कहीं भी रहनेका मेरे मनमें संकल्प नहीं हो
सकता।' यह सुनकर राजमाता प्रसन्नचित्त होकर उससे बोली-- || ७१ ।।
सर्वमेतत् करिष्यामि दिष्ट्या ते व्रतमीदृशम् ।
एवमुक्क्त्वा ततो भैमीं राजमाता विशाम्पते ।। ७२ ।।
उवाचेदं दुहितरं सुनन्दां नाम भारत |
सैरन्ध्रीमभिजानीष्व सुनन्दे देवरूपिणीम् ।। ७३ ।।
“बेटी! मैं यह सब करूँगी। सौभाग्यकी बात है कि तुम्हारा व्रत ऐसा उत्तम है।” राजा
युधिष्ठि! दमयन्तीसे ऐसा कहकर राजमाता अपनी पुत्री सुनन्दासे बोली--“सुनन्दे! इस
सैरन्ध्रीको तुम देवीस्वरूपा समझो ।। ७२-७३ ।।
वयसा तुल्यतां प्राप्ता सखी तव भवत्वियम् |
एतया सह मोदस्व निरुद्धिग्नमना: सदा ।। ७४ ।।
“यह अवस्थामें तुम्हारे समान है, अतः तुम्हारी सखी होकर रहे। तुम इसके साथ सदा
प्रसन्नचित्त एवं आनन्दमग्न रहो” || ७४ ।।
ततः परमसंदहृष्टा सुनन्दा गृहमागमत् |
दमयन्तीमुपादाय सखीभि: परिवारिता ।। ७५ ।।
तब सखियोंसे घिरी हुई सुनन्दा अत्यन्त हर्षोल्लासमें भरकर दमयन्तीको साथ ले
अपने भवनमें आयी || ७५ ।।
स तत्र पूज्यमाना वै दमयन्ती व्यनन्दत ।
सर्वकामै: सुविहितैर्निरुद्वेशावसत् तदा ।। ७६ ।।
सुनन्दा दमयन्तीके इच्छानुसार सब प्रकारकी व्यवस्था करके उसे बड़े आदर-सत्कारके
साथ रखने लगी। इससे दमयन्तीको बड़ी प्रसन्नता हुई और वह वहाँ उद्वेगरहित हो रहने
लगी ।। ७६ |।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि दमयन्तीचेदिराजगृहवासे
पज्चषष्टितमो<5 ध्याय: ।। ६५ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें दमयन्तीका चेदिराजके
भवनमें निवासविषयक पैंयठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ६५ ॥।
अऑडआ कर (0) है ०
षट्षष्टितमो<5 ध्याय:
राजा नलके द्वारा दावानलसे कर्कोटक नागकी रक्षा तथा
नागद्धवारा नलको आश्वासन
ब॒हदश्व उवाच
उत्सृज्य दमयन्तीं तु नलो राजा विशाम्पते ।
ददर्श दावं दहान्तं, महान्तं गहने वने ।। १ ।।
बृहदश्वच मुनि कहते हैं--युधिष्ठिर! दमयन्तीको छोड़कर जब राजा नल आगे बढ़ गये,
तब एक गहन वनमें उन्होंने महान् दावानल प्रज्वलित होते देखा ।। १ ।।
तत्र शुश्राव शब्दं वै मध्ये भूतस्य कस्यचित् ।
अभिधाव नलेत्युच्चै: पुण्यश्लोकेति चासकृत् ॥। २ ।।
मा भैरिति नलश्नोक्त्वा मध्यमग्ने: प्रविश्य तम् ।
ददर्श नागराजानं शयानं कुण्डलीकृतम् ।। ३ ।।
उसीके बीचमें उन्हें किसी प्राणीका यह शब्द सुनायी पड़ा--'पुण्यश्लोक महाराज
नल! दौड़िये, मुझे बचाइये।” उच्च स्वरसे बार-बार दुहरायी गयी इस वाणीको सुनकर राजा
नलने कहा--'डरो मत'। इतना कहकर वे आगके भीतर घुस गये। वहाँ उन्होंने देखा, एक
नागराज कुण्डलाकार पड़ा हुआ सो रहा है ।। २-३ ।।
स नाग: प्राञ्जलि भूत्वा वेपमानो नलं तदा |
उवाच मां विद्धि राजन् नाग॑ कर्कोटकं नृूप ।॥। ४ ।।
मया प्रलब्धो ब्रह्मर्षिनरिद: सुमहातपा: ।
तेन मन्युपरीतेन शप्तो5स्मि मनुजाधिप ।। ५ ।।
तिष्ठ त्वं स्थावर इव यावदेव नलः क्वचित् ।
इतो नेता हि तत्र त्वं शापान्मोक्ष्यसि मत्कृतात् ।। ६ ।।
उस नागने हाथ जोड़कर काँपते हुए नलसे उस समय इस प्रकार कहा--*राजन्! मुझे
कर्कोटक नाग समझिये। नरेश्वर! एक दिन मेरे द्वारा महातपस्वी ब्रह्मर्षि नारद ठगे गये, अतः
मनुजेश्वर! उन्होंने क्रोधसे आविष्ट होकर मुझे शाप दे दिया--“तुम स्थावर वृक्षकी भाँति एक
जगह पड़े रहो, जब कभी राजा नल आकर तुम्हें यहाँसे अन्यत्र ले जायँगे, तभी तुम मेरे
शापसे छुटकारा पा सकोगे” ।।
तस्य शापाजन्न शक्तो5स्मि पदाद् विचलितुं पदम् |
उपदेक्ष्यामि ते श्रेयस्त्रातुमहति मां भवान् ।। ७ ।।
“राजन! नारदजीके उस शापसे मैं एक पग भी चल नहीं सकता; आप मुझे बचाइये, मैं
आपको कल्याणकारी उपदेश दूँगा ।। ७ ।।
सखा च ते भविष्यामि मत्समो नास्ति पन्नग: ।
लघुश्न ते भविष्यामि शीघ्रमादाय गच्छ माम् ॥। ८ ।।
'साथ ही मैं आपका मित्र हो जाऊँगा। सर्पोमें मेरे-जैसा प्रभावशाली दूसरा कोई नहीं
है। मैं आपके लिये हलका हो जाऊँगा। आप शीघ्र मुझे लेकर यहाँसे चल दीजिये” ।। ८ ।।
एवमुक्त्वा स नागेन्द्रो बभूवाड्गुष्ठमात्रक: ।
त॑ गृहीत्वा नलः प्रायाद् देशं दावविवर्जितम् ।। ९ ।।
इतना कहकर नागराज कर्कोटक अँगूठेके बराबर हो गया। उसे लेकर राजा नल वनके
उस प्रदेशकी ओर चले गये, जहाँ दावानल नहीं था ।। ९ ।।
आकाशदेशमासाद्य विमुक्तं कृष्णवर्त्मना ।
उत्स्रष्टकामं त॑ नाग: पुन: कर्कोटको<ब्रवीत् ।। १० ||
अग्निके प्रभावसे रहित आकाश-देशमें पहुँचनेपर जब नलने उस नागको छोड़नेका
विचार किया, उस समय कर्कोटकने फिर कहा-- ।। १० ||
पदानि गणयन् गच्छ स्वानि नैषध कानिचित् |
तत्र ते5हं महाबाहों श्रेयो धास्यामि यत् परम् ।। ११ ।।
“नैषध! आप अपने कुछ पग गिनते हुए चलिये। महाबाहो! ऐसा करनेपर मैं आपके
लिये परम कल्याणका साधन करूँगा' ।। ११ ||
ततः संख्यातुमारब्धमदशदू दशमे पदे ।
तस्य दष्टस्य तद् रूप॑ क्षिप्रमन््तरधीयत ।। १२ ।।
तब राजा नलने अपने पग गिनने आरम्भ किये। पग गिनते-गिनते जब राजा नलने
“दश' कहा, तब नागने उन्हें डँस लिया। उसके डँसते ही उनका पहला रूप तत्काल
अन्तर्हित (होकर श्यामवर्ण) हो गया ।। १२ ।।
स दृष्टवा विस्मितस्तस्थावात्मानं विकृतं नलः ।
स्वरूपधारिणं नागं ददर्श स महीपति: ।। १३ ।।
अपने रूपको इस प्रकार विकृत (गौरवर्णसे श्यामवर्ण) हुआ देख राजा नलको बड़ा
विस्मय हुआ। उन्होंने अपने पूर्वस्वरूपको धारण करके खड़े हुए कर्कोटक नागको
देखा ।। १३ ।।
ततः कर्कोटको नाग: सान्त्वयन् नलमब्रवीत् ।
मया तेडन्तर्हितं रूप॑ न त्वां विद्युर्जजा इति ॥। १४ ।।
तब कर्कोटक नागने राजा नलको सान्त्वना देते हुए कहा--'राजन्! मैंने आपके पहले
रूपको इसलिये अदृश्य कर दिया है कि लोग आपको पहचान न सकें ।। १४ ।।
यत्कृते चासि निकृतो दुःखेन महता नल ।
विषेण स मदीयेन त्वयि दुःखं निवत्स्यति ।॥। १५ ।।
“महाराज नल! जिस कलियुगके कपटसे आपको महान् दुःखका सामना करना पड़ा
है, वह मेरे विषसे दग्ध होकर आपके भीतर बड़े कष्टसे निवास करेगा ।। १५ ।।
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विषेण संवृतैगत्रियवत् त्वां न विमोक्ष्यति ।
तावत् त्वयि महाराज दु:खं वै स निवत्स्यति ।। १६ ।।
“कलियुगके सारे अंग मेरे विषसे व्याप्त हो जायँगे। महाराज! वह जबतक आपको
छोड़ नहीं देगा, तबतक आपके भीतर बड़े दुःखसे निवास करेगा ।। १६ ।।
अनागा येन निकृतस्त्वमनहों जनाधिप ।
क्रोधादसूययित्वा तं रक्षा मे भवत: कृता ।। १७ ।।
“नरेश्वरर आप छल-कपदटद्वारा सताये जानेयोग्य नहीं थे, तो भी जिसने बिना किसी
अपराधके आपके साथ कपटका व्यवहार किया है, उसीके प्रति क्रोधसे दोषदृष्टि रखकर
मैंने आपकी रक्षा की है ।। १७ ।।
न ते भयं नरव्याघ्र दंष्टिभ्य: शत्रुतो5पि वा ।
ब्रह्मविद्धयश्न भविता मत्प्रसादान्नराधिप ।। १८ ।।
“नरव्याप्र महाराज! मेरे प्रसादसे आपको दाढ़ोंवाले जन्तुओं और शत्रुओंसे तथा
वेदवेत्ताओंके शाप आदिसे भी कभी भय नहीं होगा ।। १८ ।।
राजन् विषनिमित्ता च न ते पीडा भविष्यति ।
संग्रामेषु च राजेन्द्र शश्वज्जयमवाप्स्यसि ।। १९ |।
“राजन! आपको विषजनित पीड़ा कभी नहीं होगी। राजेन्द्र! आप युद्धमें भी सदा
विजय प्राप्त करेंगे || १९ ।।
गच्छ राजन्नितः सूतो बाहुको5हमिति ब्रुवन् ।
समीपमृतुपर्णस्य स हि चैवाक्षनैपुण: ।। २० ।।
“राजन! अब आप यहाँसे अपनेको बाहुक नामक सूत बताते हुए राजा ऋतुपर्णके
समीप जाइये। वे द्यूतविद्यामें बड़े निपुण हैं || २० ।।
अयोध्यां नगरीं रम्यामद्य वै निषधेश्वर ।
स तेक्षहृदयं दाता राजाश्वह्ददयेन वै ॥। २१ ।।
इक्ष्वाकुकुलज: श्रीमान् मित्र चैव भविष्यति ।
भविष्यसि यदाक्षज्ञ: श्रेयसा योक्ष्यसे तदा || २२ ।।
“निषधेश्वर! आप आज ही रमणीय अयोध्यापुरीको चले जाइये। इक्ष्वाकुकुलमें उत्पन्न
श्रीमान् राजा ऋतुपर्ण आपसे अश्वविद्याका रहस्य सीखकर बदलेमें आपको चद्यूतक्रीड़ाका
रहस्य बतलायेंगे और आपके मित्र भी हो जायँगे। जब आप द्यूतविद्याके ज्ञाता होंगे, तब
पुनः कल्याणभागी हो जायँगे || २१-२२ ।।
सममेष्यसि दारैस्त्वं मा सम शोके मन: कृथा: ।
राज्येन तनयाभ्यां च सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥। २३ ।।
“मैं सच कहता हूँ, आप एक ही साथ अपनी पत्नी, दोनों संतानों तथा राज्यको प्राप्त
कर लेंगे; अत: अपने मनमें चिन्ता न कीजिये ।। २३ ।।
स्वं रूपं च यदा द्रष्टमिच्छेथास्त्वं नराधिप ।
संस्मर्तव्यस्तदा ते5हं वासश्षेद॑ निवासये: ।। २४ ।।
“नरेश्वरर जब आप अपने (पहलेवाले) रूपको देखना चाहें, उस समय मेरा स्मरण करें
और इस कपड़ेको ओढ़ लें ।। २४ ।।
अनेन वाससाच्छन्न: स्वं रूप॑ प्रतिपत्स्यसे ।
इत्युक्त्वा प्रददौ तस्मै दिव्यं वासोयुगं तदा ।। २५ ।।
“इस वस्त्रसे आच्छादित होते ही आप अपना पहला रूप प्राप्त कर लेंगे।! ऐसा कहकर
नागने उन्हें दो दिव्य वस्त्र प्रदान किये || २५ ।।
एवं नलं च संदिश्य वासो दत्त्वा च कौरव ।
नागराजस्ततो राजंस्तत्रैवान्तरधीयत ।। २६ ।।
कुरुनन्दन युधिष्ठिर! इस प्रकार राजा नलको संदेश और वस्त्र देकर नागराज कर्कोटक
वहीं अन्तर्धान हो गया ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि नलकर्कोटकसंवादे
षट्षष्टितमो<5ध्याय: ।। ६६ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें नलककॉटिकसंवादविषयक
छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ६६ ॥।
हि >> आय >> (0) हि 2 7
सप्तषष्टितमो< ध्याय:
राजा नलका ऋतुपर्णके यहाँ अश्वाध्यक्षके पदपर नियुक्त
होना और वहाँ दमयन्तीके लिये निरन्तर चिन्तित रहना
तथा उनकी जीवलसे बातचीत
ब॒हदश्च उवाच
तस्मिन्नन्तर्हिते नागे प्रययौ नैषधो नल: ।
ऋतुपर्णस्य नगरं प्राविशद् दशमे5हनि ।। १ ।।
बृहदश्व मुनि कहते हैं--कर्कोटक नागके अन्तर्धान हो जानेपर निषधनरेश नलने
दसवें दिन राजा ऋतुपर्णके नगरमें प्रवेश किया ।। १ ।।
स राजानमुपातिष्ठद् बाहुको5हमिति ब्रुवन् ।
अश्वानां वाहने युक्त: पृथिव्यां नास्ति मत्सम: ।। २ ।॥।
वे बाहुक नामसे अपना परिचय देते हुए राजा ऋतुपर्णके यहाँ उपस्थित हुए और बोले
--'धोड़ोंको हाँकनेकी कलामें इस पृथ्वीपर मेरे समान दूसरा कोई नहीं है || २ ।।
अर्थकृच्छरेषु चैवाहं प्रष्टव्यो नैपुणेषु च ।
अन्नसंस्कारमपि च जानाम्यन्यैर्विशेषत: ।। ३ ।।
“मैं इन दिनों अर्थसंकटमें हूँ। आपको किसी भी कलाकी निपुणताके विषयमें सलाह
लेनी हो तो मुझसे पूछ सकते हैं। अन्न-संस्कार (भाँतिं-भाँतिकी रसोई बनानेका कार्य) भी मैं
दूसरोंकी अपेक्षा विशेष जानता हूँ ।। ३ ।।
यानि शिल्पानि लोके5स्मिन् यच्चैवान्यत् सुदुष्करम् |
सर्व यतिष्ये तत् कर्तुमृतुपर्ण भरस्व माम् ।। ४ ।।
“इस जगत्में जितनी भी शिल्पकलाएँ हैं तथा दूसरे भी जो अत्यन्त कठिन कार्य हैं, मैं
उन सबको अच्छी तरह करनेका प्रयत्न कर सकता हूँ। महाराज ऋतुपर्ण! आप मेरा भरण-
पोषण कीजिये' ।। ४ ।।
ऋचतुपर्ण उवाच
वस बाहुक भद्रं ते सर्वमेतत् करिष्यसि ।
शीघ्रयाने सदा बुद्धिर्ध्रियते मे विशेषत: ।। ५ ।।
ऋतुपर्णने कहा--बाहुक! तुम्हारा भला हो। तुम मेरे यहाँ निवास करो। ये सब कार्य
तुम्हें करने होंगे। मेरे मनमें सदा यही विचार विशेषतः रहता है कि मैं शीघ्रतापूर्वक कहीं भी
पहुँच सकूँ ।। ५ ।।
स त्वमातिष्ठ योगं त॑ येन शीघ्रा हया मम ।
भवेयुरश्वाध्यक्षोडसि वेतनं ते शतं शतम् ।। ६ ।।
अतः तुम ऐसा उपाय करो, जिससे मेरे घोड़े शीघ्रगामी हो जायँ। आजसे तुम हमारे
अश्वाध्यक्ष हो। दस हजार मुद्राएँ तुम्हारा वार्षिक वेतन है ।। ६ ।।
त्वामुपस्थास्यतश्रैव नित्यं वाष्णेयजीवलौ ।
एताभ्यां रंस्यसे सार्ध वस वै मयि बाहुक ।। ७ ।।
वार्ष्ण्य और जीवल--ये दोनों सारथि तुम्हारी सेवामें रहेंगे। बाहुक! इन दोनोंके साथ
तुम बड़े सुखसे रहोगे। तुम मेरे यहाँ रहो || ७ ।।
बृहृदश्च उवाच
एवमुक्तो नलस्तेन न््यवसत् तत्र पूजित: ।
ऋतुपर्णस्य नगरे सहवाष्णेयजीवल: ।। ८ ।।
बृहदश्च मुनि कहते हैं--राजन्! राजाके ऐसा कहनेपर नल वार्ष्णेय और जीवलके
साथ सम्मानपूर्वक ऋतुपर्णके नगरमें निवास करने लगे ।। ८ ।।
स वै तत्रावसद् राजा वैदर्भीमनुचिन्तयन् ।
सायं सायं सदा चेम॑ शलोकमेकं॑ जगाद ह ।। ९ ।।
वे दमयन्तीका निरन्तर चिन्तन करते हुए वहाँ रहने लगे। वे प्रतेदिन सायंकाल इस एक
श्लोकको पढ़ा करते थे-- ।। ९ ।।
क्व नु सा क्षुत्पिपासार्ता श्रान्ता शेते तपस्विनी ।
स्मरन्ती तस्य मन्दस्य कं वा साद्योपतिष्ठति ॥। १० ।।
'भूख-प्याससे पीड़ित और थकी-माँदी वह तपस्विनी उस मन्दबुद्धि पुरुषका स्मरण
करती हुई कहाँ सोती होगी तथा अब वह किसके समीप रहती होगी?” ।। १० ।।
एवं ब्रुवन्तं राजानं निशायां जीवलोड<ब्रवीत् ।
कामेनां शोचसे नित्यं श्रोतुमिच्छामि बाहुक ।। ११ ।।
एक दिन रात्रिके समय जब राजा इस प्रकार बोल रहे थे 'जीवलने पूछा--बाहुक! तुम
प्रतिदिन किस स्त्रीके लिये शोक करते हो, मैं सुनना चाहता हूँ | ११ ।।
आयुष्मन् कस्य वा नारी यामेवमनुशोचसि ।
तमुवाच नलो राजा मन्दप्रज्ञस्य कस्यचित् ।। १२ ।।
आसीदू बहुमता नारी तस्यादृढतरं वच: ।
स वै केनचिदर्थन तया मन्दो व्ययुज्यत ।। १३ ।।
'आयुष्मन्! वह किसकी पत्नी है, जिसके लिये तुम इस प्रकार निरन्तर शोकमग्न रहते
हो।' तब राजा नलने उससे कहा--'किसी अल्पबुद्धि पुरुषके एक स्त्री थी, जो उसके
अत्यन्त आदरकी पात्र थी। किंतु उस पुरुषकी बात अत्यन्त दृढ़ नहीं थी। वह अपनी
प्रतिज्ञास फिसल गया। किसी विशेष प्रयोजनसे विवश होकर वह भाग्यहीन पुरुष अपनी
पत्नीसे बिछुड़ गया ।। १२-१३ ।।
विप्रयुक्त: स मन्दात्मा भ्रमत्यसुखपीडित: ।
दहा[मान: स शोकेन दिवारात्रमतन्द्रित: ।। १४ ।।
'पत्नीसे विलग होकर वह मन्दबुद्धि मानव दिन-रात शोकाग्निसे दग्ध एवं दुःखसे
पीड़ित होकर आलस्यसे रहित हो इधर-उधर भटकता रहता है ।। १४ ।।
निशाकाले स्मरंस्तस्या: शलोकमेकं सम गायति ।
स विश्रमन् महीं सर्वा क्वचिदासाद्य किंचन ।। १५ ।।
वसत्यनर्हस्तद् दुःखं भूय एवानुसंस्मरन् ।
“रातमें उसीका स्मरण करके वह एक श्लोकको गाया करता है। सारी पृथ्वीका चक्कर
लगाकर वह कभी किसी स्थानमें पहुँचा और वहीं निरन्तर उस प्रियतमाका स्मरण करके
दुःख भोगता रहता है। यद्यपि वह उस दुःखको भोगनेके योग्य है नहीं ।। १५६ ।।
सातुतं पुरुषं नारी कृच्छेडप्पनुगता वने ।। १६ ।।
त्यक्ता तेनाल्पपुण्येन दुष्करं यदि जीवति ।
एका बालानभिशज्ञा च मार्गाणामतथोचिता ।। १७ ।।
“वह नारी इतनी पतिव्रता थी कि संकटकालमें भी उस पुरुषके पीछे-पीछे वनमें चली
गयी; किंतु उस अल्प पुण्यवाले पुरुषने उसे वनमें ही त्याग दिया। अब तो यदि वह जीवित
होगी तो बड़े कष्टसे उसके दिन बीतते होंगे। वह स्त्री अकेली थी। उसे मार्गका ज्ञान नहीं
था। जिस संकटमें वह पड़ी थी, उसके योग्य वह कदापि नहीं थी ।। १६-१७ ।।
क्षुत्पिपासापरीताजी दुष्करं यदि जीवति ।
श्वापदाचरिते नित्यं वने महति दारुणे ।। १८ ।।
त्यक्ता तेनाल्पभाग्येन मन्दप्रज्ञेन मारिष ।
इत्येवं नैषधो राजा दमयन्तीमनुस्मरन् ।।
अज्ञातवासं न्यवसदू राज्ञस्तस्य निवेशने ।। १९ ।।
“भूख और प्याससे उसके अंग व्याप्त हो रहे थे। उस दशामें परित्यक्त होकर वह यदि
जीवित भी हो तो भी उसका जीवित रहना बहुत कठिन है। आर्य जीवल! अत्यन्त भयंकर
विशाल वनमें जहाँ नित्य-निरन्तर हिंसक जन्तु विचरते रहते हैं, उस मन्दबुद्धि एवं
मन्दभाग्य पुरुषने उसका त्याग कर दिया था।” इस प्रकार निषधनरेश राजा नल दमयन्तीका
निरन्तर स्मरण करते हुए राजा ऋतुपर्णके यहाँ अज्ञातवास कर रहे थे ।। १८-१९ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि नलविलापे सप्तषष्टितमो< ध्याय:
॥। ६७ ||
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें नलविलापविषयक
सड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ६७ ॥/
आल “+(>9) #:६.# #2 5-7
अष्टषष्टितमो< ध्याय:
विदर्भराजका नल-दमयन्तीकी खोजके लिये ब्राह्मणोंको
भेजना, सुदेव ब्राह्णका चेदिराजके भवनमें जाकर मन-
ही-मन दमयन्तीके गुणोंका चिन्तन और उससे भेंट करना
ब॒हदश्व उवाच
हृतराज्ये नले भीम: सभार्ये च वन॑ गते ।
द्विजान् प्रस्थापयामास नलदर्शनकाड्क्षया ।। १ ।।
बृहदश्व मुनि कहते हैं--राजन! राज्यका अपहरण हो जानेपर जब राजा नल
पत्नीसहित वनमें चले गये, तब विदर्भनरेश भीमने नलका पता लगानेके लिये बहुत-से
ब्राह्मणोंको इधर-उधर भेजा ।। १ ।।
संदिदेश च तान् भीमो वसु दत्त्वा च पुष्कलम् |
मृगयध्वं नलं चैव दमयन्तीं च मे सुताम् ।। २ ।।
राजा भीमने प्रचुर धन देकर ब्राह्मणोंको यह संदेश दिया--“आपलोग राजा नल और
मेरी पुत्री दमयन्तीकी खोज करें ।। २ ।।
अस्मिन् कर्मणि सम्पन्ने विज्ञाते निषधाधिपे ।
गवां सहस्रं दास्यामि यो वस्तावानयिष्यति ।। ३ ।।
“निषधनरेश नलका पता लग जानेपर जब यह कार्य सम्पन्न हो जायगा, तब मैं
आपलोगोंमेंसे जो भी नल-दमयन्तीको यहाँ ले आयेगा, उसे एक हजार गौएँ दूँगा ।। ३ ।।
अग्रहारांश्व॒ दास्यामि ग्राम॑ं नगरसम्मितम् ।
न चेच्छक्याविहानेतुं दमयन्ती नलो5पि वा ।॥। ४ ।।
ज्ञातमात्रेडपि दास्यामि गवां दशशतं धनम् |
“साथ ही जीविकाके लिये अग्रहार (करमुक्त भूमि) दूँगा और ऐसा गाँव दे दूँगा, जो
आयमें नगरके समान होगा। यदि नल-दमयन्तीमेंसे किसी एकको या दोनोंको ही यहाँ ले
आना सम्भव न हो सके तो केवल उनका पता लग जानेपर भी मैं एक हजार गोधन दान
करूँगा' || ४६ |।
इत्युक्तास्ते ययु्ष्टा ब्राह्मणा: सर्वतो दिशम् ।। ५ ।।
पुरराष्ट्राणि चिन्वन्तो नैषधं सह भार्यया ।
नैव क्वापि प्रपश्यन्ति नलं वा भीमपुत्रिकाम् ।। ६ ।।
ततश्रैदिपुरीं रम्यां सुदेवो नाम वै द्विज: ।
विचिन्वानो5थ वैदर्भीमपश्यद् राजवेश्मनि ।। ७ ।।
राजाके ऐसा कहनेपर वे सब ब्राह्मण बड़े प्रसन्न होकर सब दिशाओंमें चले गये और
नगर तथा राष्ट्रोमें पत्नीसहित निषधनरेश नलका अनुसंधान करने लगे; परंतु कहीं भी वे
नल अथवा भीमकुमारी दमयन्तीको नहीं देख पाते थे। तदनन्तर सुदेव नामक ब्राह्मणने पता
लगाते हुए रमणीय चेदिनगरीमें जाकर वहाँ राजमहलमें विदर्भकुमारी दमयन्तीको
देखा || ५--७ ।।
पुण्याहवाचने राज्ञ: सुनन्दासहितां स्थिताम् ।
मन्दं प्रख्यायमानेन रूपेणाप्रतिमेन ताम् ।। ८ ।।
निबद्धां धूमजालेन प्रभामिव विभावसो: ।
तां समीक्ष्य विशालाक्षीमधिकं मलिनां कृशाम् |
तर्कयामास भैमीति कारणैरुपपादयन् ।। ९ ।।
वह राजाके पुण्याहवाचनके समय सुनन्दाके साथ खड़ी थी। उसका अनुपम रूप
(मैलसे आवृत होनेके कारण) मन्द-मन्द प्रकाशित हो रहा था, मानो अग्निकी प्रभा
धूमसमूहसे आवृत हो रही हो। विशाल नेत्रोंवाली उस राजकुमारीको अधिक मलिन और
दुर्बल देख उपर्युक्त कारणोंसे उसकी पहचान करते हुए सुदेवने निश्चय किया कि यह
भीमकुमारी दमयन्ती ही है ।। ८-९ ।।
युदेव उवाच
यथेयं मे पुरा दृष्टा तथारूपेयमज़ना ।
कृतार्थो<स्म्यद्य दृष्टवेमां लोककान्तामिव श्रियम् ।। १० ।।
सुदेव मन-ही-मन बोले--मैंने पहले जिस रूपमें इस कल्याणमयी राजकन्याको देखा
है, वैसी ही यह आज भी है। लोककमनीय लक्ष्मीकी भाँति इस भीमकुमारीको देखकर
आज मैं कृतार्थ हो गया हूँ || १० ।।
पूर्णचन्द्रनिभां श्यामां चारुवृत्तपयो धराम् |
कुर्वन्ती प्रभया देवीं सर्वा वितिमिरा दिश: ।। ११ ।।
यह श्यामा युवती पूर्ण चन्द्रमाके समान कान्तिमती है। इसके स्तन बड़े मनोहर हैं। यह
देवी अपनी प्रभासे सम्पूर्ण दिशाओंको आलोकित कर रही है || ११ ।।
चारुपग्रविशालाक्षीं मन्मथस्य रतीमिव ।
इष्टों समस्तलोकस्य पूर्णचन्द्रप्रभामिव ।। १२ ।।
उसके बड़े-बड़े नेत्र मनोहर कमलोंकी शोभाको लज्जित कर रहे हैं। यह कामदेवकी
रति-सी जान पड़ती है। पूर्णिमाके चन्द्रमाकी चाँदनीके समान यह सब लोगोंके लिये प्रिय
है ।। १२ ।।
विदर्भसरसस्तस्माद् दैवदोषादिवोद्धताम् ।
मलपड्कानुलिप्ताजुीं मृणालीमिव चोद्धृताम् ।। १३ ।।
पौर्णमासीमिव निशां राहुग्रस्तनिशाकराम् ।
पतिशोकाकुलां दीनां शुष्कस्रोतां नदीमिव ।। १४ ।।
विदर्भरूपी सरोवरसे यह कमलिनी मानो प्रारब्धके दोषसे निकाल ली गयी है। इसके
मलिन अंग कीचड़ लिपटी हुई नलिनीके समान प्रतीत होते हैं। यह उस पूर्णिमाकी रजनीके
समान जान पड़ती है, जिसके चन्द्रमापर मानो राहुने ग्रहण लगा रखा हो। पति-शोकसे
व्याकुल और दीन होनेके कारण यह सूखे जल-प्रवाहवाली सरिताके समान प्रतीत होती
है ।। १३-१४ ।।
विध्वस्तपर्णकमलां वित्रासितविहंगमाम् |
हस्तिहस्तपरामृष्टां व्याकुलामिव पद्मिनीम् ।। १५ ।।
इसकी दशा उस पुष्करिणीके समान दिखायी देती है, जिसे हाथियोंने अपने
शुण्डदण्डसे मथ डाला हो तथा जो नष्ट हुए पत्तोंवाले कमलसे युक्त हो एवं जिसके भीतर
निवास करनेवाले पक्षी अत्यन्त भयभीत हो रहे हों। यह दुःखसे अत्यन्त व्याकुल-सी प्रतीत
हो रही है ।। १५ ।।
सुकुमारी सुजाताज़ीं रत्नगर्भगृहोचिताम् ।
दह्यमानामिवार्केण मृणालीमिव चोद्धृताम् ।। १६ ।।
मनोहर अंगोंवाली यह सुकुमारी राजकन्या उन महलोंमें रहनेयोग्य है, जिनका भीतरी
भाग रत्नोंका बना हुआ है। (इस समय दुः:खने इसे ऐसा दुर्बल कर दिया है कि) यह
सरोवरसे निकाली और सूर्यकी किरणोंसे जलायी हुई कमलिनीके समान प्रतीत हो रही
है ।। १६ ||
रूपौदार्यगुणोपेतां मण्डनाहाममण्डिताम् ।
चन्द्रलेखामिव नवां व्योम्नि नीलाभ्रसंवृताम् ।। १७ ।।
यह रूप और उदारता आदि गुणोंसे सम्पन्न है। शृंगार धारण करनेके योग्य होनेपर भी
यह शंंगारशून्य है, मानो आकाशमें मेघोंकी काली घटासे आवृत नूतन चन्द्रकला
हो ।। १७ ।।
कामभोगै: प्रियैहीनां हीनां बन्धुजनेन च ।
देहं संधारयन्तीं हि भर्तृदर्शनकाड्क्षया ।। १८ ।।
यह राजकन्या प्रिय कामभोगोंसे वंचित है। अपने बन्धुजनोंसे बिछुड़ी हुई है और
पतिके दर्शनकी इच्छासे अपने (दीन-दुर्बल) शरीरको धारण कर रही है ।। १८ ।॥।
भर्ता नाम पर नार्या भूषणं भूषणैर्विना ।
एषा हि रहिता तेन शोभमाना न शोभते ।। १९ ||
वास्तवमें पति ही नारीका सबसे श्रेष्ठ आभूषण है। उसके होनेसे वह बिना आभूषणोंके
सुशोभित होती है; परंतु यह पतिरूप आभूषणसे रहित होनेके कारण शोभामयी होकर भी
सुशोभित नहीं हो रही है ।। १९ ।।
दुष्करं कुरुते5त्यन्तं हीनो यदनया नल: ।
धारयत्यात्मनो देहं न शोकेनापि सीदति ।। २० ।।
इससे विलग होकर राजा नल यदि अपने शरीरको धारण करते हैं और शोकसे शिथिल
नहीं हो रहे हैं तो यह समझना चाहिये कि वे अत्यन्त दुष्कर कर्म कर रहे हैं || २० ।।
इमामसितकेशान्तां शतपत्रायतेक्षणाम् |
सुखारहा दुःखितां दृष्टवा ममापि व्यथते मन: ।। २१ ।।
काले-काले केशों और कमलके समान विशाल नेत्रोंसे सुशोभित इस राजकन्याको, जो
सदा सुख भोगनेके ही योग्य है, दुःखित देखकर मेरे मनमें भी बड़ी व्यथा हो रही
है ।। २१ ||
कदा नु खलु दुःखस्य पारं यास्यति वै शुभा ।
भर्तु: समागमात् साध्वी रोहिणी शशिनो यथा ।। २२ ।।
जैसे रोहिणी चन्द्रमाके संयोगसे सुखी होती है, उसी प्रकार यह शुभलक्षणा साध्वी
राजकुमारी अपने पतिके समागमसे (संतुष्ट हो) कब इस दुःखके समुद्रसे पार हो
सकेगी ।। २२ ।।
अस्या नून॑ पुनर्लाभान्नैषध: प्रीतिमेष्यति ।
राजा राज्यपरिश्रष्ट: पुनर्लब्ध्वा च मेदिनीम् । २३ ।।
जैसे कोई राजा एक बार अपने राज्यसे च्युत होकर फिर उसी राज्यभूमिको प्राप्त कर
लेनेपर अत्यन्त आनन्दका अनुभव करता है, उसी प्रकार पुनः इसके मिल जानेपर
निषधनरेश नलको निश्चय ही बड़ी प्रसन्नता होगी || २३ ।।
तुल्यशीलवयोयुक्तां तुल्याभिजनसंवृताम् ।
नैषधो<हति वैदर्भी तं चेयमसितेक्षणा ।। २४ ।।
विदर्भकुमारी दमयन्ती राजा नलके समान शील और अवस्थासे युक्त है, उन्हींके तुल्य
उत्तम कुलसे सुशोभित है। निषधनरेश नल विदर्भकुमारीके योग्य हैं और यह कजरारे
नेत्रोंवाली वैदर्भी नलके योग्य है ।। २४ ।।
युक्त तस्याप्रमेयस्य वीर्यसत्त्ववतो मया ।
समाश्चासयितुं भार्या पतिदर्शनलालसाम् ।। २५ |।
राजा नलका पराक्रम और धैर्य असीम है। उनकी यह पत्नी पतिदर्शनके लिये
लालायित और उत्कण्ठित है, अतः मुझे इससे मिलकर इसे आश्वासन देना
चाहिये ।। २५ ।।
अहमाश्वासयाम्येनां पूर्णचन्द्रनिभाननाम् ।
अदृष्टपूर्वा दुःखस्य दु:खार्ता ध्यानतत्पराम् ।। २६ |।
इस पूर्णचन्द्रमुखी राजकुमारीने पहले कभी दुःखको नहीं देखा था। इस समय दुःखसे
आतुर हो पतिके ध्यानमें परायण है, अतः मैं इसे आश्वासन देनेका विचार कर रहा
हूँ ।। २६ ।।
बृहदश्च उवाच
एवं विमृश्य विविधै: कारणैर्लक्षणैश्न ताम् ।
उपागम्य ततो भैमीं सुदेवो ब्राह्म॒णोडब्रवीत् ।। २७ ।।
अहं सुदेवो वैदर्भि भ्रातुस्ते दयित: सखा ।
भीमस्य वचनादू् राज्ञस्त्वामन्वेष्टमिहागत: ।। २८ ।।
बृहदश्वच मुनि कहते हैं--युधिष्ठिर! इस प्रकार भाँति-भाँतिके कारणों और लक्षणोंसे
दमयन्तीको पहचानकर और अपने कर्तव्यके विषयमें विचार करके सुदेव ब्राह्मण उसके
समीप गये और इस प्रकार बोले--'विदर्भराजकुमारी! मैं तुम्हारे भाईका प्रिय सखा सुदेव
हूँ। महाराज भीमकी आज्ञासे तुम्हारी खोज करनेके लिये यहाँ आया हूँ || २७-२८ ।।
कुशली ते पिता राज्ञि जननी भ्रातरश्न ते ।
आयुष्मन्तौ कुशलिनौ तत्रस्थौ दारकौ च तौ ॥। २९ ।।
“निषधदेशकी महारानी! तुम्हारे पिता, माता और भाई सब सकुशल हैं और
कुण्डिनपुरमें जो तुम्हारे बालक हैं, वे भी कुशलसे हैं ।। २९ ।।
त्वत्कृते बन्धुवर्गाश्न॒ गतसत्त्वा इवासते ।
अन्वेष्टारो ब्राह्मणाश्व भ्रमन्ति शतशो महीम् ।। ३० ।।
“तुम्हारे बन्धु-बान्धव तुम्हारी ही चिन्तासे मृतक-तुल्य हो रहे हैं। (तुम्हारी खोज करनेके
लिये) सैकड़ों ब्राह्मण इस पृथ्वीपर घूम रहे हैं || ३० ।।
बृहृदश्च उवाच
अभिज्ञाय सुदेवं त॑ं दमयन्ती युधिष्ठिर ।
पर्यपृच्छत तान् सर्वान् क्रमेण सुहृृद: स्वकान् ।। ३१ ।।
बृहदश्व मुनि कहते हैं--युधिष्ठिर! सुदेवको पहचानकर दमयन्तीने क्रमश: अपने सभी
सगे-सम्बन्धियोंका कुशल समाचार पूछा ।। ३१ ।।
रुरोद च भृशं राजन् वैदर्भी शोककर्शिता ।
दृष्टवा सुदेवं सहसा क्षातुरिष्टं द्विजोत्तमम् ।। ३२ ।।
रुदतीं तामथो दृष्टवा सुनन्दा शोककर्शिता ।
सुदेवेन सहैकान्ते कथयन्तीं च भारत ।। ३३ ।।
राजन! अपने भाईके प्रिय मित्र द्विजश्रेष्ठ सुदंवको सहसा आया देख दमयन्ती शोकसे
व्याकुल हो फूट-फ़ूटकर रोने लगी। भारत! तदनन्तर उसे सुदेवके साथ एकान्तमें बात
करती तथा रोती देख सुनन्दा शोकसे व्याकुल हो उठी || ३२-३३ ।।
जनि>यै कथयामास सैरन्ध्री रोदितीति च ।
ब्राह्मणेन सहागम्य तां वेद यदि मन्यसे ।। ३४ ।।
उसने अपनी मातासे जाकर कहा--'माँ! सैरन्ध्री एक ब्राह्मणसे मिलकर बहुत रो रही
है। यदि तुम ठीक समझो तो इसका कारण जाननेकी चेष्टा करो” || ३४ ।।
अथ चेदिपते्माता राज्ञश्नान्त:ःपुरात् तदा ।
जगाम यत्र सा बाला ब्राह्मणेन सहाभवत् ।। ३५ ।।
तदनन्तर चेदिराजकी माता उस समय अन्तःपुरसे निकलकर उसी स्थानपर गयीं, जहाँ
राजकन्या दमयन्ती ब्राह्मणके साथ खड़ी थी ।। ३५ |।
ततः सुदेवमानाय्य राजमाता विशाम्पते ।
पप्रच्छ भार्या कस्येयं सुता वा कस्य भाविनी ।। ३६ ।।
कथं च नष्टा ज्ञातिभ्यो भर्तुर्वा वामलोचना ।
त्वया च विदिता विप्र कथमेवंगता सती ।। ३७ ।।
युधिष्ठिर! तब राजमाताने सुदेवको बुलाकर पूछा--“विप्रवर! जान पड़ता है, तुम इसे
जानते हो। बताओ, यह सुन्दरी युवती किसकी पत्नी अथवा किसकी पुत्री है? यह सुन्दर
नेत्रोंवाली सुन्दरी अपने भाई-बन्धुओं अथवा पतिसे किस प्रकार विलग हुई है? यह सती-
साध्वी नारी ऐसी दुरवस्थामें क्यों पड़ गयी? ।। ३६-३७ ।।
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं त्वत्त: सर्वमशेषत: ।
तत्त्वेन हि ममाचक्ष्व पृच्छन्त्या देवरूपिणीम् ॥। ३८ ।।
“ब्रह्मन्! इस देवरूपिणी नारीके विषयमें यह सारा वृत्तान्त मैं पूर्णरूपसे सुनना चाहती
हूँ। मैं जो कुछ पूछती हूँ, वह मुझे ठीक-ठीक बताओ” ।। ३८ ।।
एवमुक्तस्तया राजन् सुदेवो द्विजसत्तम: ।
सुखोपविष्ट आचष्ट दमयन्त्या यथातथम् ।। ३९ ।।
राजन्! राजमाताके इस प्रकार पूछनेपर वे द्विजश्रेष्ठ सुदेव सुखपूर्वक बैठकर
दमयन्तीका यथार्थ वृत्तान्त बताने लगे || ३९ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि दमयन्तीसुदेवसंवादे
अष्टषष्टितमो<5 ध्याय: ।। ६८ ।।
इस प्रकार श्रीमह्ा भारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें दमयन्ती-युदेव-
संवादविषयक अरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ६८ ॥।
हि लय ० () हि 2 7
एकोनसप्ततितमो< ध्याय:
दमयन्तीका अपने पिताके यहाँ जाना और वहाँसे नलको
ढूँढनेके लिये अपना संदेश देकर ब्राह्मणोंको भेजना
युदेव उवाच
विदर्भराजो धर्मात्मा भीमो नाम महाद्युति: ।
सुतेयं तस्य कल्याणी दमयन्तीति विश्रुता ॥। १ ।।
सुदेवने कहा--देवि! विदर्भदेशके राजा महा-तेजस्वी भीम बड़े धर्मात्मा हैं। यह
उन्हींकी पुत्री है। इस कल्याणस्वरूपा राजकन्याका नाम दमयन्ती है ।। १ ।।
राजा तु नैषधो नाम वीरसेनसुतो नलः ।
भार्येयं तस्य कल्याणी पुण्यश्लोकस्य धीमत: ।॥। २ ।।
वीरसेनपुत्र नल निषधदेशके सुप्रसिद्ध राजा हैं। उन्हीं (परम) बुद्धिमान पुण्यश्लोक
नलकी यह कल्याणमयी पत्नी है || २ ।।
स द्ूतेन जितो क्रात्रा हृतराज्यो महीपतिः ।
दमयन्त्या गतः सार्ध न प्राज्ञायत कस्यचित् ।। ३ ।।
एक दिन राजा नल अपने भाईके द्वारा जूएमें हार गये। उसीमें उनका सारा राज्य चला
गया। वे दमयन्तीके साथ वनमें चले गये। तबसे अबतक किसीको उनका पता नहीं
लगा ।। ३ ।।
ते वयं दमयन्त्यर्थे चराम: पृथिवीमिमाम् ।
सेयमासादिता बाला तव पुत्रनिवेशने ।। ४ ।।
हम अनेक ब्राह्मण दमयन्तीको ढूँढ़नेके लिये इस पृथ्वीपर विचर रहे हैं। आज आपके
पुत्रके महलमें मुझे यह राजकुमारी मिली है ।। ४ ।।
अस्या रूपेण सदृशी मानुषी न हि विद्यते ।
अस्या होष भ्रुवोर्मध्ये सहज: पिप्लुरुत्तम: ।। ५ ।।
रूपमें इसकी समानता करनेवाली कोई भी मानवकन्या नहीं है। इसके दोनों भौंहोंके
बीच एक जन्मजात उत्तम तिलका चिह्न है ।। ५ ।।
श्यामाया: पद्मसंकाशो लक्षितो<न्तर्हितो मया ।
मलेन संवृतो हास्याश्छन्नो 5 भ्रेणेव चन्द्रमा: ।। ६ ।।
मैंने देखा है, इस श्यामा राजकुमारीके ललाटमें वह कमलके समान चिह्न छिपा हुआ
है। मेघमालासे ढँके हुए चन्द्रमाकी भाँति उसका वह चिह्न मैलसे ढक गया है || ६ ।।
चिह्नभूतो विभूत्यर्थमयं धात्रा विनिर्मित: ।
प्रतिपत्कलुषस्येन्दोलेंखा नातिविराजते ॥। ७ ।।
न चास्या नश्यते रूप॑ वपुर्मलसमाचितम् ।
असंस्कृतमभिव्यक्त भाति काञ्चनसंनिभम् ।। ८ ।।
अनेन वपुषा बाला पिप्लुनानेन सूचिता ।
लक्षितेयं मया देवी निभृतो5ग्निरिवोष्मणा ।। ९ ||
विधाताके द्वारा निर्मित यह चिह्न इसके भावी ऐश्वर्यका सूचक है। इस समय यह
प्रतिपदाकी मलिन चन्द्रकलाके समान अधिक शोभा नहीं पा रही है। इसका सुवर्ण-जैसा
सुन्दर शरीर मैलसे व्याप्त और संस्कारशून्य (मार्जन आदिसे रहित) होनेपर भी स्पष्ट रूपसे
उद्धासित हो रहा है। इसका रूप-सौन्दर्य नष्ट नहीं हुआ है। जैसे छिपी हुई आग अपनी
गरमीसे पहचान ली जाती है, उसी प्रकार यद्यपि देवी दमयन्ती मलिन शरीरसे युक्त है तो भी
इस ललाटवर्ती तिलके चिह्नसे ही मैंने इसे पहचान लिया है || ७--९ ||
तच्छुत्वा वचन तस्य सुदेवस्य विशाम्पते |
सुनन्दा शोधयामास पिप्लुप्रच्छादनं मलम् ।। १० ।।
युधिष्ठिर! सुदेवका यह वचन सुनकर सुनन्दाने दमयन्तीके ललाटवर्ती चिह्नको
ढँकनेवाली मैल धो दी ॥। १० ।।
स मलेनापकृष्टेन पिप्लुस्तस्या व्यरोचत ।
दमयन्त्या यथा व्यभ्रे नभसीव निशाकर: ।। ११ ।।
मैल धुल जानेपर उसके ललाटका वह चिह्न उसी प्रकार चमक उठा, जैसे बादलरहित
आकाशकमें चन्द्रमा प्रकाशित होता है ।। ११ ।।
पिप्लुं दृष्टवा सुनन्दा च राजमाता च भारत ।
रुदत्यौ तां परिष्वज्य मुहूर्तमिव तस्थतु: ।। १२ ।।
भारत! उस चिह्नको देखकर सुनन्दा और राजमाता दोनों रोने लगीं और दमयन्तीको
हृदयसे लगाये दो घड़ीतक स्तब्ध खड़ी रहीं || १२ ।।
उत्सृज्य बाष्पं शनकै राजमातेदमब्रवीत् ।
भगिन्या दुहिता मे5सि पिप्लुनानेन सूचिता ।। १३ ।।
तत्पश्चात् राजमाताने आँसू बहाते हुए धीरेसे कहा--“बेटी! तुम मेरी बहिनकी पुत्री हो।
इस चिह्नके कारण मैंने भी तुम्हें पहचान लिया ।। १३ ।।
अहं च तव माता च राज्ञस्तस्य महात्मन: ।
सुते दशार्णाधिपते: सुदाम्नश्नारुदर्शने ।। १४ ।।
'सुन्दरी! मैं और तुम्हारी माता दोनों दशार्णदेशके स्वामी महामना राजा सुदामाकी
पुत्रियाँ हैं ।। १४ ।।
भीमस्य राज्ञ: सा दत्ता वीरबाहोरहं पुनः ।
त्वं तु जाता मया दृष्टा दशार्णेषु पितुर्गहिे | १५ ।।
तुम्हारी माँका ब्याह राजा भीमके साथ हुआ और मेरा चेदिराज वीरबाहुके साथ।
तुम्हारा जन्म दशाणंदिशमें मेरे पिताके ही घरपर हुआ और मैंने अपनी आँखों
देखा ॥। १५ ।।
यथैव ते पितुर्गेहं तथैव मम भामिनि ।
यथैव च ममैश्वर्य दमयन्ति तथा तव ।। १६ ।।
'भामिनि! तुम्हारे लिये जैसा पिताका घर है, वैसा ही मेरा घर है। दमयन्ती! यह सारा
ऐश्वर्य जैसे मेरा है, उसी प्रकार तुम्हारा भी है” || १६ ।।
तां प्रहटेन मनसा दमयन्ती विशाम्पते ।
प्रणम्य मातुर्भगिनीमिदं वचनमब्रवीत् ।। १७ ।।
युधिष्ठि!! तब दमयन्तीने प्रसन्न हृदयसे अपनी मौसीको प्रणाम करके कहा
-- | १७ ||
अज्ञायमानापि सती सुखमस्म्युषिता त्वयि ।
सर्वकामै: सुविहिता रक्षयमाणा सदा त्वया ।। १८ ।।
“माँ! यद्यपि तुम मुझे पहचानती नहीं थी, तब भी मैं तुम्हारे यहाँ बड़े सुखसे रही हूँ।
तुमने मेरी इच्छानुसार सारी सुविधाएँ कर दीं और सदा तुम्हारे द्वारा मेरी रक्षा होती
रही ।। १८ ।।
सुखात् सुखतरो वासो भविष्यति न संशय: ।
चिरविप्रोषितां मातर्मामनुज्ञातुमहसि ।। १९ ।।
“अब यदि मैं यहाँ रहूँ तो यह मेरे लिये अधिक-से-अधिक सुखदायक होगा, इसमें
संशय नहीं है, किंतु मैं बहुत दिनोंसे प्रवासमें भटक रही हूँ, अतः माताजी! मुझे विदर्भ
जानेकी आज्ञा दीजिये ।। १९ |।
दारकौ च हि मे नीतौ वसतस्तत्र बालकौ ।
पित्रा विहीनौ शोकार्तो मया चैव कथं नु तौ ।। २० ।।
“मैंने अपने बच्चोंको पहले ही कुण्डिनपुर भेज दिया था। वे वहीं रहते हैं। पितासे तो
उनका वियोग हो ही गया है; मुझसे भी वे बिछुड़ गये हैं, ऐसी दशामें वे शोकार्त बालक कैसे
रहते होंगे? ।। २० ।।
यदि चापि प्रियं किंचिन्मयि कर्तुमिहेच्छसि ।
विदर्भान् यातुमिच्छामि शीघ्रं मे यानमादिश || २१ ।।
बाढमित्येव तामुक्त्वा हृष्टा मातृष्वसा नृप ।
गुप्तां बलेन महता पुत्रस्यानुमते तत: ।। २२ ।।
प्रास्थापयद् राजमाता श्रीमतीं नरवाहिना ।
यानेन भरतश्रेष्ठ स्वन्नपानपरिच्छदाम् ।। २३ ।।
“माँ! यदि तुम मेरा कुछ भी प्रिय करना चाहती हो तो मेरे लिये शीघ्र किसी सवारीकी
व्यवस्था कर दो। मैं विदर्भदेश जाना चाहती हूँ।” राजन! तब “बहुत अच्छा” कहकर
दमयन्तीकी मौसीने प्रसन्नतापूर्वक अपने पुत्रकी राय लेकर सुन्दरी दमयन्तीको पालकीपर
बिठाकर विदा किया। उसकी रक्षाके लिये बहुत बड़ी सेना दे दी। भरतश्रेष्ठ! राजमाताने
दमयन्तीके साथ खाने-पीनेकी तथा अन्य आवश्यक सामग्रियोंकी अच्छी व्यवस्था कर
दी || २१--२३ ।।
ततः सा न चिरादेव विदर्भानगमत् पुनः ।
तां तु बन्धु जन: सर्व: प्रहष्ट समपूजयत् ।। २४ ।।
तदनन्तर वहाँसे विदा हो वह थोड़े ही दिनोंमें विदर्भदेशकी राजधानीमें जा पहुँची।
उसके आगमनसे माता-पिता आदि सभी बन्धु-बान्धव बड़े प्रसन्न हुए और सबने उसका
स्वागत-सत्कार किया ।। २४ ।।
सर्वान् कुशलिनो दृष्टवा बान्धवान् दारकौ च तौ ।
मातरं पितरं चोभौ सर्व चैव सखीजनम् ।। २५ ।।
देवता: पूजयामास ब्राह्मणांश्न यशस्विनी ।
परेण विधिना देवी दमयन्ती विशाम्पते ।। २६ ।।
राजन! समस्त बन्धु-बान्धवों, दोनों बच्चों, माता-पिता और सम्पूर्ण सखियोंको
सकुशल देखकर यशस्विनी देवी दमयन्तीने उत्तम विधिके साथ देवताओं और ब्राह्मणोंका
पूजन किया ।। २५-२६ ।।
अतर्पयत् सुदेवं च गोसहस््रेण पार्थिव: ।
प्रीतो दृष्टवैव तनयां ग्रामेण द्रविणेन च ।। २७ ।।
राजा भीम अपनी पुत्रीको देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने एक हजार गौ, एक गाँव
तथा धन देकर सुदेव ब्राह्मणको संतुष्ट किया ।। २७ ।।
सा व्युष्टा रजनीं तत्र पितुर्वेश्मनि भाविनी ।
विश्रान्ता मातरं राजन्निदं वचनमब्रवीत् ।। २८ ।।
युधिष्ठिर! भाविनी दमयन्तीने उस रातमें पिताके घरमें विश्राम किया। सबेरा होनेपर
उसने मातासे कहा-- || २८ ।।
दमयन्त्युवाच
मां चेदिच्छसि जीवन्तीं मातः सत्यं ब्रवीमि ते ।
नलस्य नरवीरस्य यतस्वानयने पुन: ।। २९ ।।
दमयन्ती बोली--माँ! यदि मुझे जीवित देखना चाहती हो तो मैं तुमसे सच कहती हूँ,
नरवीर महाराज नलकी खोज करानेका पुनः प्रयत्न करो || २९ ।।
दमयन्त्या तथोक्ता तु सा देवी भृशदुः:खिता ।
बाष्पेणापिहिता राज्ञी नोत्तरं किंचिदब्रवीत् ।। ३० ।।
दमयन्तीके ऐसा कहनेपर महारानीकी आँखें आँसुओंसे भर आयीं। वे अत्यन्त दुःखी
हो गयीं और तत्काल उसे कोई उत्तर न दे सकी ।। ३० ।।
तदवस्थां तु तां दृष्टवा सर्वमन्तःपुरं तदा ।
हाहाभूतमतीवासीद् भृशं च प्ररुरोद ह ।। ३१ ।।
तब महारानीकी यह दयनीय अवस्था देख उस समय सारे अन्तःपुरमें हाहाकार मच
गया। सब-के-सब फूट-फूटकर रोने लगे ।। ३१ ।।
ततो भीम॑ महाराजं भार्या वचनमब्रवीत् ।
दमयन्ती तव सुता भर्तारमनुशोचति ।। ३२ ।।
तदनन्तर महाराज भीमसे उनकी पत्नीने कहा--'प्राणनाथ! आपकी पुत्री दमयन्ती
अपने पतिके लिये निरन्तर शोकमें डूबी रहती है || ३२ ।।
अपकृष्य च लज्जां सा स्वयमुक्तवती नृप ।
प्रयतन्तां तव प्रेष्या: पुण्यश्लोकस्य मार्गणे || ३३ ।।
“नरेश्वरर उसने लाज छोड़कर स्वयं अपने मुँहसे कहा है, अतः आपके सेवक
पुण्यश्लोक महाराज नलका पता लगानेका प्रयत्न करें" ।। ३३ ।।
तया प्रदेशितो राजा ब्राह्मणान् वशवर्तिन: ।
प्रास्थापयद् दिश: सर्वा यतध्वं नलमार्गणे ।। ३४ ।।
महारानीसे प्रेरित हो राजा भीमने अपने अधीनस्थ ब्राह्मणोंको यह कहकर सब
दिशाओंमें भेजा कि 'आपलोग नलको दूँढ़नेकी चेष्टा करें! || ३४ ।।
ततो विदर्भाधिपतेर्नियोगाद् ब्राह्मणास्तदा ।
दमयन्तीमथो सृत्वा प्रस्थिता:स्मेत्यथाब्रुवन् । ३५ ।।
तत्पश्चात् विदर्भनरेशकी आज्ञासे ब्राह्मणलोग प्रस्थित हो दमयन्तीके पास जाकर बोले
--'राजकुमारी! हम सब नलका पता लगाने जा रहे हैं (क्या आपको कुछ कहना
है?) ।। ३५ ।।
अथ ताननब्रवीद् भैमी सर्वराष्ट्रेष्विदं वच: ।
ब्रुवध्वं जनसंसत्सु तत्र तत्र पुन: पुन: ।। ३६ ।।
तब भीमकुमारीने उन ब्राह्मणोंसे कहा--'सब राष्ट्रोमें घूम-घूमकर जनसमुदायमें
आपलोग बार-बार मेरी यह बात बोलें-- || ३६ ।।
क्व नु त्वं कितवच्छित्त्वा बस्त्रार्थ प्रस्थितो मम ।
उत्सृज्य विपिने सुप्तामनुरक्तां प्रियां प्रिय ।। ३७ ।।
'“ओ जुआरी प्रियतम! तुम वनमें सोयी हुई और अपने पतिमें अनुराग रखनेवाली मुझ
प्यारी पत्नीको छोड़कर तथा मेरे आधे वस्त्रको फाड़कर कहाँ चल दिये? ।। ३७ |।
सा वै यथा त्वया दृष्टा तथा<जस्ते त्वत्प्रतीक्षिणी ।
दहामाना भृशं बाला वस्त्रार्थेनाभिसंवृता ।। ३८ ।।
“उसे तुमने जिस अवस्थामें देखा था, उसी अवस्थामें वह आज भी है और तुम्हारे
आगमनकी प्रतीक्षा कर रही है। आधे वस्त्रसे अपने शरीरको ढँककर वह युवती तुम्हारी
विरहाग्निमें निरन्तर जल रही है || ३८ ।।
तस्या रुदत्या: सततं तेन शोकेन पार्थिव ।
प्रसादं कुरु वै वीर प्रतिवाक्यं ददस्व च ।। ३९ |।
“वीर भूमिपाल! सदा तुम्हारे शोकसे रोती हुई अपनी उस प्यारी पत्नीपर पुनः कृपा
करो और मुझे मेरी बातका उत्तर दो” | ३९ |।
एवमन्यच्च वक्तव्यं कृपां कुर्याद् यथा मयि ।
वायुना धूयमानो हि वनं दहति पावक:ः ।। ४० ।।
'ब्राह्मणो! ये तथा और भी बहुत-सी ऐसी बातें आप कहें, जिससे वे मुझपर कृपा करें।
वायुकी सहायतासे प्रज्वलित आग सारे वनको जला डालती है (इसी प्रकार विरहकी
व्याकुलता मुझे जला रही है) || ४० ।।
भर्तव्या रक्षणीया च पत्नी पत्या हि सर्वदा ।
तन्नष्टमुभयं कस्माद् धर्मज्ञस्य सतस्तव ।। ४१ ।।
'प्राणनाथ! पतिको उचित है कि वह सदा अपनी पत्नीका भरण-पोषण एवं संरक्षण
करे। आप धर्मज्ञ और साधु पुरुष हैं, आपके ये दोनों कर्तव्य सहसा नष्ट कैसे हो
गये? ।। ४१ ।।
ख्यात: प्राज्ञ: कुलीनश्न सानुक्रोशो भवान् सदा ।
संवृत्तो निरनुक्रोश: शड्के मद्धाग्यसंक्षयात् ।। ४२ ।।
“आप विख्यात विद्वान, कुलीन और सदा सबके प्रति दयाभाव रखनेवाले हैं, परंतु मेरे
हृदयमें यह संदेह होने लगा है कि आप मेरा भाग्य नष्ट होनेके कारण मेरे प्रति निर्दय हो गये
हैं ।। ४२ ।।
तत् कुरुष्व नरव्यात्र दयां मयि नरर्षभ ।
आनुृशंस्यं परो धर्मस्त्वत्त एव हि मे श्रुतः ।। ४३ ।।
“नरव्याप्र! नरोत्तम! मुझपर दया करो। मैंने तुम्हारे ही मुखसे सुन रखा है कि दयालुता
सबसे बड़ा धर्म है” || ४३ ।।
एवं ब्रुवाणान् यदि व: प्रतिब्रूयात् कथंचन ।
स नर: सर्वथा ज्ञेय: कश्नासौ क््व नु वर्तते ।। ४४ ।।
'ब्राह्मणो! यदि आपके ऐसी बातें कहनेपर कोई किसी प्रकार भी आपको उत्तर दे तो
उस मनुष्यका सब प्रकारसे परिचय प्राप्त कीजियेगा कि वह कौन है और कहाँ रहता है,
इत्यादि || ४४ ।।
यश्चैवं वचन श्रुत्वा ब्रूयात् प्रतिवचो नर: ।
तदादाय वचस्तस्य ममावेद्यं द्विजोत्तमा: ॥ ४५ ।।
“विप्रवरो! आपके इन वचनोंको सुनकर जो कोई मनुष्य जैसा भी उत्तर दे, उसकी वह
बात याद रखकर आपलोग मुझे बतावें ।। ४५ ।।
यथा च वो न जानीयाद् ब्रुवतो मम शासनात् |
पुनरागमनं चैव तथा कार्यमतन्द्रितै: ।। ४६ ।।
“किसीको भी यह नहीं मालूम होना चाहिये कि आपलोग मेरी आज्ञासे ये बातें कह रहे
हैं। जब कोई उत्तर मिल जाय, तब आप आलस्य छोड़कर पुनः यहाँ तुरंत लौट
आवें ।। ४६ ।।
यदि वासौ समृद्धः स्याद् यदि वाप्यधनो भवेत् |
यदि वाप्यसमर्थ: स्याज्ज्ञेयमस्य चिकीर्षितम् || ४७ ।।
उत्तर देनेवाला पुरुष धनवान् हो या निर्धन, समर्थ हो या असमर्थ, वह क्या करना
चाहता है, इस बातको जाननेका प्रयत्न कीजिये' || ४७ ।।
एवमुक्तास्त्वगच्छंस्ते ब्राह्मणा: सर्वतो दिशम्
नलं॑ मृगयितुं राजंस्तदा व्यसनिनं तथा ।। ४८ ।।
ते पुराणि सराष्ट्राणि ग्रामान् घोषांस्तथा55 श्रमान् ।
अन्वेषन्तो नलं राजन् नाधिजममुद्धिजातय: ।। ४९ ।।
राजन! दमयन्तीके ऐसा कहनेपर वे ब्राह्मण संकटमें पड़े हुए राजा नलको ढूँढ़नेके
लिये सब दिशाओंकी ओर चले गये। युधिष्छिर! उन ब्राह्मणोंने नगरों, राष्ट्रों, गाँवों, गोष्ठों तथा
आश्रमोंमें भी नलका अन्वेषण किया; किंतु उन्हें कहीं भी उनका पता न लगा ।। ४८-४९ ।।
तच्च वाक्यं तथा सर्वे तत्र तत्र विशाम्पते ।
श्रावयांचक्रिरे विप्रा दमयन्त्या यथेरितम् ।। ५० ।।
महाराज! दमयन्तीने जैसा बताया था, उस वाक्यको सभी ब्राह्मण भिन्न-भिन्न स्थानोंमें
जाकर लोगोंको सुनाया करते थे || ५० ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि नलान्वेषणे
एकोनसप्ततितमो< ध्याय: ।। ६९ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें नलकी खोजविषयक
उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ६९ ॥।
हम (_) ऑणआ 5
सप्ततितमो< ध्याय:
पर्णादका दमयन्तीसे बाहुकरूपधारी नलका समाचार
बताना और दमयन्तीका ऋतुपर्णके यहाँ सुदेव नामक
ब्राह्णको स्वयंवरका संदेश देकर भेजना
बृहदश्च उवाच
अथ दीर्घस्य कालस्य पर्णादो नाम वै द्विज: ।
प्रत्येत्य नगरं भैमीमिदं वचनमत्रवीत् ।। १ ।।
बृहदश्च मुनि कहते हैं--राजन्! तदनन्तर दीर्घ-कालके पश्चात् पर्णाद नामक ब्राह्मण
विदर्भदेशकी राजधानीमें लौटकर आये और दमयन्तीसे इस प्रकार बोले-- ।। १ ।।
नैषधं मृगयानेन दमयन्ति मया नलम् |
अयोध्यां नगरीं गत्वा भाड़ासुरिमुपस्थित: ।। २ ।।
“दमयन्ती! मैं निषधनरेश नलको दूँढ़ता हुआ अयोध्या नगरीमें गया और वहाँ राजा
ऋतुपर्णके दरबारमें उपस्थित हुआ ।। २ ।।
श्रावितश्न मया वाक्य त्वदीयं स महाजने ।
ऋतुपर्णो महाभागो यथोक्तं वरवर्णिनि ॥। ३ ।।
तच्छुत्वा नाब्रवीत् किंचिदृतुपर्णो नराधिप: ।
न च पारिषद: कश्चिद् भाष्यमाणो मयासकृत् ।। ४ ।।
“वहाँ बहुत लोगोंकी भीड़में मैंने तुम्हारा वाक्य महाभाग ऋतुपर्णको सुनाया।
वरवर्णिनि! उस बातको सुनकर राजा ऋतुपर्ण कुछ न बोले। मेरे बार-बार कहनेपर भी
उनका कोई सभासद् भी इसका उत्तर न दे सका ।। ३-४ ।।
अनुज्ञातं तु मां राज्ञा विजने कश्चिदब्रवीत् ।
ऋतुपर्णस्य पुरुषो बाहुको नाम नामत: ।। ५ ।।
'परंतु ऋतुपर्णके यहाँ बाहुक नामधारी एक पुरुष है, उसने जब मैं राजासे विदा लेकर
लौटने लगा, तब मुझसे एकान्तमें आकर तुम्हारी बातोंका उत्तर दिया || ५ |।
सूतस्तस्य नरेन्द्रस्य विरूपो हस्वबाहुक: ।
शीघ्रयानेषु कुशलो मृष्टकर्ता च भोजने ।। ६ ।।
“वह महाराज ऋतुपर्णका सारथि है। उसकी भुजाएँ छोटी हैं तथा वह देखनेमें कुरूप
भी है। वह घोड़ोंको शीघ्र हाँकनेमें कुशल है और अपने बनाये हुए भोजनमें बड़ा मिठास
उत्पन्न कर देता है ।। ६ ।।
स विनि:श्वस्य बहुशो रुदित्वा च पुनः पुनः ।
कुशल चैव मां पृष्टवा पश्चादिदमभाषत ।। ७ ।।
“बाहुकने बार-बार लंबी साँसें खींचकर अनेक बार रोदन किया और मुझसे कुशल-
समाचार पूछकर फिर वह इस प्रकार कहने लगा-- ।। ७ ।।
वैषम्यमपि सम्प्राप्ता गोपायन्ति कुलस्त्रिय: ।
आत्मानमात्मना सत्यो जित: स्वर्गों न संशय: ।। ८ ।॥।
“उत्तम कुलकी स्त्रियाँ बड़े भारी संकटमें पड़कर भी स्वयं अपनी रक्षा करती हैं। ऐसा
करके वे सत्य और स्वर्ग दोनोंपर विजय पा लेती हैं, इसमें संशय नहीं है ।। ८ ।।
रहिता भर्तभिश्चैव न कुप्यन्ति कदाचन ।
प्राणांश्वारित्रकवचान् धारयन्ति वरस्त्रिय: ।। ९ ।।
'श्रेष्ठ नारियाँ अपने पतियोंसे परित्यक्त होनेपर भी कभी क्रोध नहीं करतीं। वे
सदाचाररूपी कवचसे आवृत प्राणोंको धारण करती हैं ।। ९ ।।
विषमस्थेन मूढेन परिगभ्रष्टसुखेन च ।
यत् सा तेन परित्यक्ता तत्र न क्रोद्धुमहति ।। १० ।।
“वह पुरुष बड़े संकटमें था, सुखके साधनोंसे वंचित होकर किंकर्तव्यविमूढ हो गया
था। ऐसी दशामें यदि उसने अपनी पत्नीका परित्याग किया है तो इसके लिये पत्नीको
उसपर क्रोध नहीं करना चाहिये ।। १० ।।
प्राणयात्रां परिप्रेप्सो: शकुनै््तवासस: ।
आधिभिर्दह्यमानस्य श्यामा न क्रोद्धुमहति ।। ११ ।।
“जीविका पानेके लिये चेष्टा करते समय पक्षियोंने जिसके वस्त्रका अपहरण कर लिया
था और जो अनेक प्रकारकी मानसिक चिन्ताओंसे दग्ध हो रहा था, उस पुरुषपर श्यामाको
क्रोध नहीं करना चाहिये ।। ११ ।।
सत्कृतासत्कृता वापि पतिं दृष्टवा तथागतम् |
भ्रष्टराज्यं श्रिया हीन॑ क्षुधितं व्यसनाप्लुतम् ।। १२ ।।
“पतिने उसका सत्कार किया हो या असत्कार--उसे चाहिये कि पतिको वैसे संकटमें
पड़ा देखकर उसे क्षमा कर दे; क्योंकि वह राज्य और लक्ष्मीसे वंचित हो भूखसे पीड़ित एवं
विपत्तिके अथाह सागरमें डूबा हुआ था” || १२ ।।
तस्य तद् वचन श्रुत्वा त्वरितो5हमिहागत: ।
श्रुत्वा प्रमाणं भवती राज्ञश्चनैव निवेदय ।। १३ ।।
“बाहुककी वह बात सुनकर मैं तुरंत यहाँ चला आया। यह सब सुनकर अब
कर्तव्याकर्तव्यके निर्णयमें तुम्हीं प्रमाण हो। (तुम्हारी इच्छा हो तो) महाराजको भी ये बातें
सूचित कर दो” ।। १३ ।।
एतच्छुत्वाश्रुपूर्णाक्षी पर्णादस्य विशाम्पते ।
दमयन्ती रहो<भ्येत्य मातरं प्रत्यभाषत ।। १४ ।।
युधिष्ठिर! पर्णादका यह कथन सुनकर दमयन्तीके नेत्रोंमें आँसू भर आया। उसने
एकान्तमें जाकर अपनी मातासे कहा-- ।। १४ ।।
अयमर्थो न संवेद्यो भीमे मात: कदाचन ।
त्वत्संनिधौ नियोक्ष्ये5हं सुदेव॑ द्विजसत्तमम् ।। १५ ।।
यथा न नृपतिर्भीम: प्रतिपद्येत मे मतम्
तथा त्वया प्रकर्तव्यं मम चेत् प्रियमिच्छसि ।। १६ ।।
“माँ! पिताजीको यह बात कदापि मालूम न होनी चाहिये। मैं तुम्हारे ही सामने विप्रवर
सुदेवको इस कार्यमें लगाऊँगी। तुम ऐसी चेष्टा करो, जिससे पिताजीको मेरा विचार ज्ञात न
हो। यदि तुम मेरा प्रिय करना चाहती हो तो तुम्हें इसके लिये सचेष्ट रहना
होगा || १५-१६ ||
यथा चाहं समानीता सुदेवेनाशु बान्धवान् ।
तेनैव मड़लेनाशु सुदेवो यातु मा चिरम् ।। १७ ।।
समानेतुं नल॑ मातरयोध्यां नगरीमित: ।
'जैसे सुदेवने मुझे यहाँ लाकर बन्धु-बान्धवोंसे शीघ्र मिला दिया, उसी मंगलमय
उद्देश्यकी सिद्धिके लिये सुदेव ब्राह्मण फिर शीघ्र ही यहाँसे अयोध्या जायँ, देर न करें। माँ!
वहाँ जानेका उद्देश्य है, महाराज नलको यहाँ ले आना” ।। १७३ ।।
विश्रान्तं तु ततः पश्चात् पर्णादं द्विजसत्तमम् ॥। १८ ।।
अर्चयामास वैदर्भी धनेनातीव भाविनी ।
नले चेहागते तत्र भूयो दास्यामि ते वसु || १९ ।।
इतनेहीमें विप्रवर पर्णाद जब विश्राम कर चुके, तब विदर्भराजकुमारी दमयन्तीने बहुत
धन देकर उनका सत्कार किया और यह भी कहा--“महाराज नलके यहाँ पधारनेपर मैं
आपको और भी धन दूँगी ।। १८-१९ ।।
त्वया हि मे बहु कृतं यदन्यो न करिष्यति ।
यद् भर्त्राहं समेष्यामि शीघ्रमेव द्विजोत्तम || २० ।।
“विप्रवर! आपने मेरा बहुत बड़ा उपकार किया, जो दूसरा नहीं कर सकता; क्योंकि
अब मैं अपने स्वामीसे शीघ्र ही मिल सकूँगी” || २० ।।
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गृहानुपययौ चापि कृतार्थ: सुमहामना: || २१ ।।
दमयन्तीके ऐसा कहनेपर अत्यन्त उदार हृदयवाले पर्णाद अपने परम मंगलमय
आशीर्वादोंद्वारा उसे आश्वासन दे कृतार्थ हो अपने घर चले गये ।। २१ ।।
ततः सुदेवमाभाष्य दमयन्ती युधिष्िर ।
अब्रवीत् संनिधौ मातुर्दु:ः:खशोकसमन्विता ।। २२ ।।
युधिष्ठिर! तदनन्तर दमयन्तीने सुदेव ब्राह्मणको बुलाकर अपनी माताके समीप दुःख-
शोकसे पीड़ित होकर कहा-- ।। २२ ||
गत्वा सुदेव नगरीमयोध्यावासिनं नृपम् ।
ऋतुपर्ण वचो ब्रूहि सम्पतन्निव कामग: ।। २३ ।।
'सुदेवजी! आप इच्छानुसार चलनेवाले द्रुतगामी पक्षीकी भाँति शीघ्रतापूर्वक अयोध्या
नगरीमें जाकर वहाँके निवासी राजा ऋतुपर्णसे कहिये-- ।। २३ ।।
आस्थास्यति पुनर्भमी दमयन्ती स्वयंवरम् ।
तत्र गच्छन्ति राजानो राजपुत्राश्ष सर्वश: ।। २४ ।।
'भीमकुमारी दमयन्ती पुनः स्वयंवर करेगी। वहाँ बहुत-से राजा और राजकुमार सब
ओरसे जा रहे हैं || २४ ।।
तथा च गणित: काल: श्वोभूते स भविष्यति ।
यदि सम्भावनीयं ते गच्छ शीघ्रमरिंदम || २५ ।।
“उसके लिये समय नियत हो चुका है। कल ही स्वयंवर होगा। शत्रुदमन! यदि आपका
वहाँ पहुँचना सम्भव हो तो शीघ्र जाइये || २५ ।।
सूर्योदये द्वितीयं सा भर्तारें वरयिष्यति ।
न हि स ज्ञायते वीरो नलो जीवति वा न वा ।। २६ ।।
“कल सूर्योदय होनेके बाद वह दूसरे पतिका वरण कर लेगी; क्योंकि वीरवर नल
जीवित हैं या नहीं, इसका कुछ पता नहीं लगता है” || २६ ।।
एवं तया यथोक्तो वै गत्वा राजानमब्रवीत् |
ऋतुपर्ण महाराज सुदेवो ब्राह्मणस्तदा ।। २७ ।।
महाराज! दमयन्तीके इस प्रकार बतानेपर सुदेव ब्राह्मणने राजा ऋतुपर्णके पास
जाकर वही बात कही || २७ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि दमयन्तीपुन:स्वयंवरकथने
सप्ततितमो<5ध्याय: ।। ७० ||
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें दमयन्तीके पुनः स्वयंवरकी
चचसि सम्बन्ध रखनेवाला सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ७० ॥/
हि न हुक है
एकसप्ततितमो<्ध्याय:
राजा ऋतुपर्णका विदर्भदेशको प्रस्थान, राजा नलके
विषयमे वाष्णेयका विचार और बाहुककी अद्भुत
अश्वसंचालन-कलासे वाष्णेय और ऋतुपर्णका प्रभावित
होना
बृहृदश्च उवाच
श्रुत्वा वच: सुदेवस्य ऋतुपर्णो नराधिप: ।
सान्त्ययन् “लक्ष्णया वाचा बाहुकं प्रत्यभाषत ।। १ ।।
बृहदश्व मुनि कहते हैं--युधिष्ठिर! सुदेवकी वह बात सुनकर राजा ऋतुपर्णने मधुर
वाणीसे सान्त्वना देते हुए बाहुकसे कहा-- ।। १ ।।
विदर्भान् यातुमिच्छामि दमयन्त्या: स्वयंवरम् ।
एकाह्ला हयतत्त्वज्ञ मन्यसे यदि बाहुक ।। २ ।।
“बाहुक! तुम अश्वविद्याके तत्त्वज्ञ हो, यदि मेरी बात मानो तो मैं दमयन्तीके स्वयंवरमें
सम्मिलित होनेके लिये एक ही दिनमें विदर्भदेशकी राजधानीमें पहुँचना चाहता हूँ” || २ ।।
एवमुक्तस्य कौन्तेय तेन राज्ञा नलस्य ह ।
व्यदीर्यत मनो दुःखात् प्रदध्यौ च महामना: ।। ३ ।।
कुन्तीनन्दन! राजा ऋतुपर्णके ऐसा कहनेपर राजा नलका मन अत्यन्त दुःखसे विदीर्ण
होने लगा। महामना नल बहुत देरतक किसी भारी चिन्तामें निमग्न हो गये ।। ३ ।।
दमयन्ती वदेदेतत् कुर्याद् दुःखेन मोहिता ।
अस्मदर्थ भवेद् वायमुपायश्चिन्तितो महान् ।। ४ ।।
वे सोचने लगे--'“क्या दमयन्ती ऐसी बात कह सकती है? अथवा सम्भव है, दुःखसे
मोहित होकर वह ऐसा कार्य कर ले। कहीं ऐसा तो नहीं है कि उसने मेरी प्राप्तिके लिये यह
महान् उपाय सोच निकाला हो? ।। ४ ।।
नृशंसं बत वैदर्भी भर्तृकामा तपस्विनी ।
मया क्षुद्रेण निकृता कृपणा पापबुद्धिना ।। ५ ।।
स्त्रीस्वभावश्वलो लोके मम दोषश्नल दारुण: ।
स्यादेवमपि कुर्यात् सा विवासाद् गतसौहदा ।। ६ ।।
“तपस्विनी एवं दीन विदर्भराजकुमारीको मुझ नीच एवं पापबुद्धि पुरुषने धोखा दिया
है, इसीलिये वह ऐसा निष्ठछुर कार्य करनेको उद्यत हो गयी। संसारमें स्त्रीका चंचल स्वभाव
प्रसिद्ध है। मेरा अपराध भी भयंकर है। सम्भव है मेरे प्रवाससे उसका हार्दिक स्नेह कम हो
गया हो, अतः वह ऐसा भी कर ले ।। ५-६ ।।
मम शोकेन संविग्ना नैराश्यात् तनुमध्यमा ।
नैवं सा कर्हिचित् कुर्यात् सापत्या च विशेषत: ।। ७ ।।
“क्योंकि पतली कमरवाली वह युवती मेरे शोकसे अत्यन्त उद्विग्न हो उठी होगी और
मेरे मिलनेकी आशा न होनेके कारण उसने ऐसा विचार कर लिया होगा, परंतु मेरा हृदय
कहता है कि वह कभी ऐसा नहीं कर सकती। विशेषत: वह संतानवती है। इसलिये भी
उससे ऐसी आशा नहीं की जा सकती ।। ७ ।।
यदत्र सत्यं वासत्यं गत्वा वेत्स्यामि निश्चयम् ।
ऋतुपर्णस्य वै काममात्मार्थ च करोम्यहम् ।। ८ ।।
“इसमें कितना सत्य या असत्य है--इसे मैं वहाँ जाकर ही निश्चितरूपसे जान सकूँगा,
अतः मैं अपने लिये ही ऋतुपर्णकी इस कामनाको पूर्ण करूँगा' || ८ ।।
इति निश्चित्य मनसा बाहुको दीनमानस: ।
कृताञ्जलिर्वाचेदमृतुपर्ण जनाधिपम् ।। ९ ।।
प्रतिजानामि ते वाक््यं गमिष्यामि नराधिप ।
एकाह्वा पुरुषव्यात्र विदर्भनगरीं नूप ।। १० ।।
मन-ही-मन ऐसा निश्चय करके दीनहृदय बाहुकने दोनों हाथ जोड़कर राजा ऋतुपर्णसे
इस प्रकार कहा--“नरेश्वर! पुरुषसिंह! मैंने आपकी आज्ञा सुनी है, मैं प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ
कि मैं एक ही दिनमें विदर्भवेशकी राजधानीमें आपके साथ जा पहुँचूँगा" || ९-१० ।।
ततः परीक्षामश्चानां चक्रे राजन् स बाहुक: ।
अश्वशालामुपागम्य भाज़सुरिनृपाज्ञया ।। ११ ।।
युधिष्ठिर! तदनन्तर बाहुकने अश्वशालामें जाकर राजा ऋतुपर्णकी आज्ञासे अश्वोंकी
परीक्षा की || ११ ।।
स त्वर्यमाणो बहुश ऋतुपर्णेन बाहुकः ।
अश्वाज्जिज्ञासमानो वै विचार्य च पुन: पुनः ।
अध्यगच्छत् कृशानश्चान् समर्थानध्वनि क्षमान् ।। १२ ।।
ऋतुपर्ण बाहुकको बार-बार उत्तेजित करने लगे, अतः उसने अच्छी तरह विचार करके
अश्वोंकी परीक्षा कर ली और ऐसे अश्वोंको चुना, जो देखनेमें दुबले होनेपर भी मार्ग तय
करनेमें शक्तिशाली एवं समर्थ थे || १२ ।।
तेजोबलसमायुक्तान् कुलशीलसमन्वितान् ।
वर्जिताल्लक्षणैहीनि: पृथुप्रोथान् महाहनून् ।। १३ ।।
वे तेज और बलसे युक्त थे। वे अच्छी जातिके और अच्छे स्वभावके थे। उनमें अशुभ
लक्षणोंका सर्वथा अभाव था। उनकी नाक मोटी और थूथन (ठोड़ी) चौड़ी थी ।। १३ ।।
शूद्धान् दशभिरावर्ते: सिन्धुजान् वातरंहस: ।
दृष्टवा तानब्रवीद् राजा किंचित् कोपसमन्वित: ।। १४ ।।
वे वायुके समान वेगशाली सिन्धुदेशके घोड़े थे। वे दस आवर्त (भौँवरियों)-के चिह्ोंसे
युक्त होनेके कारण निर्दोष थे। उन्हें देखकर राजा ऋतुपर्णने कुछ कुपित होकर कहा
-- || १४ ।।
किमिदं प्रार्थितं कर्तु प्रलब्धव्या न ते वयम् ।
कथमल्पबलप्राणा वक्ष्यन्तीमे हया मम ।
महदध्वानमपि च गन्तव्यं कथमीदृशै: ।। १५ ।।
“क्या तुमसे ऐसे ही घोड़े चुननेके लिये कहा था, तुम मुझे धोखा तो नहीं दे रहे हो। ये
अल्प बल और शक्तिवाले घोड़े कैसे मेरा इतना बड़ा रास्ता तय कर सकेंगे? ऐसे घोड़ोंसे
इतनी दूरतक रथ कैसे ले जाया जायगा?' ।। १५ ।।
बाहुक उवाच
एको ललाटे द्वौ मूर्थ्नि द्वौ द्वौ पाश्चोपपार्श्चयो: ।
दौ दौ वक्षसि विज्ञेयौ प्रयाणे चैक एव तु ।। १६ ।।
बाहुकने कहा--राजन्! ललाटमें एक, मस्तकमें दो, पार्श्रभागमें दो, उपपार्श्वभागमें
भी दो, छातीमें दोनों ओर दो दो और पीठमें एक--इस प्रकार कुल बारह भँवरियोंको
पहचानकर घोड़े रथमें जोतने चाहिये ।। १६ ।।
एते हया गमिष्यन्ति विदर्भान् नात्र संशय: ।
यानन्यान् मन्यसे राजन् ब्रूहि तान् योजयामि ते ॥। १७ ।।
ये मेरे चुने हुए घोड़े अवश्य विदर्भदेशकी राजधानीतक पहुँचेंगे, इसमें संशय नहीं है।
महाराज! इन्हें छोड़कर आप जिनको ठीक समझें, उन्हींको मैं रथमें जोत दूँगा || १७ ।।
ऋचुपर्ण उवाच
त्वमेव हयतत्त्वज्ञ: कुशलो हासि बाहुक |
यान् मन्यसे समर्थास्त्वं क्षिप्रं तानेव योजय ।। १८ ।।
ऋतुपर्ण बोले--बाहुक! तुम अश्वविद्याके तत्त्वज्ञ और कुशल हो, अतः तुम जिन्हें इस
कार्यमें समर्थ समझो, उन्हींको शीघ्र जोतो || १८ ।।
ततः सददश्वांश्वतुर: कुलशीलसमन्वितान् |
योजयामास कुशलो जवयुक्तान् रथे नल: ।। १९ ।।
तब चतुर एवं कुशल राजा नलने अच्छी जाति और उत्तम स्वभावके चार वेगशाली
घोड़ोंको रथमें जोता ।। १९ ।।
ततो युक्त रथं राजा समारोहत् त्वरान्वित: ।
अथ पर्यपतन् भूमौ जानुभिस्ते हयोत्तमा: || २० ।।
जुते हुए रथपर राजा ऋतुपर्ण बड़ी उतावलीके साथ सवार हुए। इसलिये उनके चढ़ते
ही वे उत्तम घोड़े घुटनोंके बल पृथ्वीपर गिर पड़े || २० ।।
ततो नरवर: श्रीमान् नलो राजा विशाम्पते ।
सान्त्वयामास तानश्वांस्तेजोबलसमन्वितान् ।। २१ ।।
युधिष्ठिर! तब नरश्रेष्ठ श्रीमान् राजा नलने तेज और बलसे सम्पन्न उन घोड़ोंको
पुचकारा || २१ |।
रश्मिभिश्न समुद्यम्य नलो यातुमियेष स: ।
सूतमारोप्य वा्ष्णेयं जवमास्थाय वै परम् ।। २२ ।।
ते चोद्यमाना विधिवद् बाहुकेन हयोत्तमा: ।
समुत्पेतुरथाकाशं रथिनं मोहयजन्निव ।। २३ ।।
फिर अपने हाथमें बागडोर ले उन्हें काबूमें करके रथको आगे बढ़ानेकी इच्छा की।
वा्ष्णेय सारथिको रथपर बैठाकर अत्यन्त वेगका आश्रय ले उन्होंने रथ हाँक दिया।
बाहुकके द्वारा विधिपूर्वक हाँके जाते हुए वे उत्तम अश्व रथीको मोहित--से करते हुए इतने
तीव्र वेगसे चले, मानो आकाशमें उड़ रहे हों || २२-२३ ।।
तथा तु दृष्टवा तानश्वान् वहतो वातरंहस: ।
अयोध्याधिपति: श्रीमान् विस्मयं परमं ययौ ।। २४ ।।
उस प्रकार वायुके समान वेगसे रथका वहन करनेवाले उन अश्वोंको देखकर श्रीमान्
अयोध्यानरेशको बड़ा विस्मय हुआ ।। २४ ।।
रथघोषं तु त॑ श्रुत्वा हयसंग्रहणं च तत् ।
वार्ष्णेयश्चिन्तयामास बाहुकस्य हयज्ञताम् ॥। २५ ।।
कि नु स्यान्मातलिरयं देवराजस्य सारथि: ।
तथा तल्लक्षणं वीरे बाहुके दृश्यते महत् ।। २६ ।।
रथकी आवाज सुनकर और घोड़ोंको काबूमें करनेकी वह कला देखकर वार्ष्णेयने
बाहुकके अश्व-विज्ञानपर सोचना आरम्भ किया। “क्या यह देवराज इन्द्रका सारथि मातलि
है? इस वीर बाहुकमें मातलिका-सा ही महान् लक्षण देखा जाता है || २५-२६ ।।
शालिहोत्रो5थ किं नु स्याद्धयानां कुलतत्त्ववित्
मानुषं समनुप्राप्तो वपु: परमशोभनम् ।। २७ ||
“अथवा घोड़ोंकी जाति और उनके विषयकी ताच्विक बातें जाननेवाले ये आचार्य
शालिहोत्र तो नहीं हैं, जो परम सुन्दर मानव शरीर धारण करके यहाँ आ पहुँचे हैं || २७ ।।
उताहोस्विद् भवेद् राजा नल: परपुरंजय: ।
सो<यं नृपतिरायात इत्येवं समचिन्तयत् ।। २८ ।।
“अथवा शत्रुओंकी राजधानीपर विजय पानेवाले साक्षात् राजा नल ही तो इस रूपमें
नहीं आ गये हैं? अवश्य वे ही हैं, इस प्रकार वार्ष्णेयने चिन्तन करना प्रारम्भ
किया ।। २८ ।।
अथ चेह नलो विद्यां वेत्ति तामेव बाहुक: ।
तुल्यं हि लक्षये ज्ञानं बाहुकस्य नलस्य च ।। २९ ।।
“राजा नल इस जगत्में जिस विद्याको जानते हैं, उसीको बाहुक भी जानता है। बाहुक
और नल दोनोंका ज्ञान मुझे एक-सा दिखायी देता है || २९ |।
अपि चेदं वयस्तुल्यं बाहुकस्य नलस्य च ।
नायं नलो महावीर्यस्तद्विद्यक्ष भविष्यति ।। ३० ।।
“इसी प्रकार बाहुक और नलकी अवस्था भी एक है। यह महापराक्रमी राजा नल नहीं
है तो भी उनके ही समान विद्वान् कोई दूसरा महापुरुष होगा || ३० ।।
प्रच्छन्ना हि महात्मानश्वरन्ति पृथिवीमिमाम् ।
दैवेन विधिना युक्ता: शास्त्रोक्तैश्न निरूपणै: ।। ३१ ।।
“बहुत-से महात्मा प्रच्छन्न रूप धारण करके देवोचित विधि तथा शास्त्रोक्त नियमोंसे
युक्त होकर इस पृथ्वीपर विचरते रहते हैं || ३१ ।।
भवेन्न मतिभेदो मे गात्रवैरूप्यतां प्रति ।
प्रमाणात् परिहीनस्तु भवेदिति मतिर्मम ।। ३२ ।।
“इसके शरीरकी रूपहीनताको लक्ष्य करके मेरी बुद्धिमें यह भेद नहीं पैदा होता कि यह
नल नहीं है, परंतु राजा नलकी जो मोटाई है, उससे यह कुछ दुबला-पतला है। उससे मेरे
मनमें यह विचार होता है कि सम्भव है, यह नल न हो ।। ३२ ।।
वय:प्रमाणं तत्तुल्यं रूपेण तु विपर्यय: ।
नल॑ सर्वगुणैर्युक्ते मन््ये बाहुकमन्ततः ।। ३३ ।।
“इसकी अवस्थाका प्रमाण तो उन्हींके समान है, परंतु रूपकी दृष्टिसे तो अन्तर पड़ता
है। फिर भी अन्ततः मैं इसी निर्णयपर पहुँचता हूँ कि मेरी रायमें बाहुक सर्वगुणसम्पन्न राजा
नल ही हैं' || ३३ ।।
एवं विचार्य बहुशो वार्ष्णेय: पर्यचिन्तयत् ।
हृदयेन महाराज पुण्यश्लोकस्य सारथि: ।। ३४ ।।
महाराज युधिष्ठिर! इस प्रकार पुण्यश्लोक नलके सारथि वार्ष्णेयने बार-बार उपर्युक्त
रूपसे विचार करते हुए मन-ही-मन उक्त धारणा बना ली ।। ३४ ।।
ऋतुपर्णश्व राजेन्द्रो बाहुकस्य हयज्ञताम् |
चिन्तयन् मुमुदे राजा सहवाष्णेयसारथि: ।। ३५ ।।
महाराज ऋतुपर्ण भी बाहुकके अश्वसंचालन-विषयक ज्ञानपर विचार करके वार्ष्णेय
सारथिके साथ बहुत प्रसन्न हुए || ३५ ।।
ऐकाग्रयं च तथोत्साहं हयसंग्रहणं च तत् ।
परं यत्नं च सम्प्रेक्ष्य परां मुदमवाप ह ।। ३६ ।।
उसकी वह एकाग्रता, वह उत्साह, घोड़ोंको काबूमें रखनेकी वह कला और वह उत्तम
प्रयत्न देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई || ३६ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि ऋतुपर्णविदर्भगमने
एकसप्ततितमो<ध्याय: ।। ७३ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें ऋतुपर्णका विदर्भदिशमें
गमनविषयक इकहतत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ७१ ॥।
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द्विसप्ततितमो< ध्याय:
ऋतुपर्णके उत्तरीय वस्त्र गिरने और बहेड़ेके वृक्षके फलोंको
गिननेके विषयमें नलके साथ ऋतुपर्णकी बातचीत,
ऋतुपर्णसे नलको द्यूतविद्याके रहस्यकी प्राप्ति और उनके
शरीरसे कलियुगका निकलना
बृहदश्च उवाच
स नदी: पर्वतांश्षैव वनानि च सरांसि च |
अचिरेणातिचक्राम खेचर: खे चरजन्निव ।। १ ।।
बृहदश्व मुनि कहते हैं--युधिष्ठिर! जैसे पक्षी आकाशमें उड़ता है, उसी प्रकार बाहुक
(बड़े वेगसे) शीघ्रतापूर्वक कितनी ही नदियों, पर्वतों, वनों और सरोवरोंको लाँचघता हुआ
आगे बढ़ने लगा ।। १ ।।
तथा प्रयाते तु रथे तदा भाज़सुरिनृप: ।
उत्तरीयमधो<पश्यद् भ्रष्ट परपुरंजय: ।। २ ।।
जब रथ इस प्रकार तीव्र गतिसे दौड़ रहा था, उसी समय शत्रुओंके नगरोंको जीतनेवाले
राजा ऋतुपर्णने देखा, उनका उत्तरीय वस्त्र नीचे गिर गया है ।। २ ।।
ततः स त्वरमाणस्तु पटे निपतिते तदा ।
ग्रहीष्यामीति तं राजा नलमाह महामना: ।॥। ३ ।।
निगृह्लीष्व महाबुद्धे हपानेतान् महाजवान् ।
वार्ष्णेयो यावदेनं मे पटमानयतामिह ।। ४ ।।
उस समय वस्त्र गिर जानेपर उन महामना नरेशने बड़ी उतावलीके साथ नलसे कहा
--“महामते! इस वेगशाली घोड़ोंको (थोड़ी देरके लिये) रोक लो। मैं अपनी गिरी हुई चादर
लूँगा। जबतक यह वार्ष्णेय उतरकर मेरे उत्तरीय वस्त्रको ला दे, तबतक रथको रोके
रहो” ।। ३-४ ।।
नलस्तं प्रत्युवाचाथ दूरे भ्रष्ट: पटस्तव ।
योजनं समतिक्रान्तो नाहतु शक््यते पुन: ।। ५ ।।
यह सुनकर नलने उसे उत्तर दिया--“महाराज! आपका वस्त्र बहुत दूर गिरा है। मैं उस
स्थानसे चार कोस आगे आ गया हूँ। अब फिर वह नहीं लाया जा सकता” || ५ ।।
एवमुक्तो नलेनाथ तदा भाज़सुरिरनप: ।
आससाद वने राजन् फलवन्तं बिभीतकम् ।। ६ ।।
राजन्! नलके ऐसा कहनेपर राजा ऋतुपर्ण चुप हो गये। अब वे एक वनमें एक बहेड़ेके
वृक्षेके पास आ पहुँचे, जिसमें बहुत-से फल लगे थे ।। ६ ।।
तं दृष्टवा बाहुक॑ राजा त्वरमाणो5भ्यभाषत ।
ममापि सूत पश्य त्वं संख्याने परमं बलम् ।। ७ ।।
उस वृक्षको देखकर राजा ऋतुपर्णने तुरंत ही बाहुकसे कहा--'सूत! तुम देखो, मुझमें
भी गणना करने (हिसाब लगाने) की कितनी अद्भुत शक्ति है || ७ ।।
सर्व: सर्व न जानाति सर्वज्ञो नास्ति कश्षन |
नैकत्र परिनिष्ठास्ति ज्ञानस्य पुरुषे क्वचित् ।। ८ ।।
“सब लोग सभी बातें नहीं जानते। संसारमें कोई भी सर्वज्ञ नहीं है तथा एक ही पुरुषमें
सम्पूर्ण ज्ञानकी प्रतिष्ठा नहीं है ।। ८ ।।
वृक्षेडस्मिन् यानि पर्णानि फलान्यपि च बाहुक |
पतितान्यपि यान्यत्र तत्रैकमधिकं शतम् ।। ९ ।।
एकपत्राधिकं चात्र फलमेकं॑ च बाहुक ।
पञ्चकोट्यो<5थ पत्राणां द्ायोरपि च शाखयो: ।। १० ।।
प्रचिनुह्मास्य शाखे द्वे याश्चाप्यन्या: प्रशाखिका: ।
आशभ्यां फलसहसे द्वे पज्चोनं शतमेव च ।। १३१ ।।
“बाहुक! इस वृक्षपर जितने पत्ते और फल हैं, उन सबको मैं बताता हूँ। पेड़के नीचे जो
पत्ते और फल गिरे हुए हैं, उनकी संख्या एक सौ अधिक है, इसके सिवा एक पत्र तथा एक
फल और भी अधिक है; अर्थात् नीचे गिरे हुए पत्तों और फलोंकी संख्या वृक्षमें लगे हुए
पत्तों और फलोंसे एक सौ दो अधिक है। इस वृक्षकी दोनों शाखाओंमें पाँच करोड़ पत्ते हैं।
तुम्हारी इच्छा हो तो इन दोनों शाखाओं तथा इसकी अन्य प्रशाखाओं (को काटकर उन)-के
पत्ते गिन लो। इसी प्रकार इन शाखाओंमें दो हजार पंचानबे फल लगे हुए हैं ।।
ततो रथमवस्थाप्य राजानं बाहुको<ब्रवीत् ।
परोक्षमिव मे राजन् कत्थसे शत्रुकर्शन ।। १२ ।।
प्रत्यक्षमेतत् कर्तास्मि शातयित्वा बिभीतकम् |
अथात्र गणिते राजन् विद्यते न परोक्षता ।। १३ ||
प्रत्यक्ष ते महाराज शातयिष्ये बिभीतकम् |
अहं हि नाभिजानामि भवेदेवं न वेति वा ।। १४ ।।
यह सुनकर बाहुकने रथ खड़ा करके राजासे कहा--“शत्रुसूदन नरेश! आप जो कह
रहे हैं, वह संख्या परोक्ष है। मैं इस बहेड़ेके वृक्षको काटकर उसके फलोंकी संख्याको
प्रत्यक्ष करूँगा। महाराज! आपकी आँखोंके सामने इस बहेड़ेको का्टूँगा। इस प्रकार गणना
कर लेनेपर वह संख्या परोक्ष नहीं रह जायगी। बिना ऐसा किये मैं तो नहीं समझ सकता कि
(फलोंकी) संख्या इतनी है या नहीं | १२--१४ ।।
संख्यास्थामि फलान्यस्य पश्यतस्ते जनाधिप ।
मुहूर्तमपि वार्ष्णेयो रश्मीन् यच्छतु वाजिनाम् ।। १५ ।।
'जनेश्वर! यदि वारष्णेय दो घड़ीतक भी इन घोड़ोंकी लगाम सँभाले तो मैं आपके
देखते-देखते इसके फलोंको गिन लूँगा” ।। १५ ।।
तमब्रवीन्नप: सूतं नायं कालो विलम्बितुम् ।
बाहुकस्त्वब्रवीदेनं परं यत्न॑ं समास्थित: ।। १६ ।।
प्रतीक्षस्व मुहूर्त त्वमथवा त्वरते भवान् ।
एष याति शिव: पन्था याहि वार्ष्णेयसारथि: ।। १७ ।।
तब राजाने सारथिसे कहा--“यह विलम्ब करनेका समय नहीं है।” बाहुक बोला--मैं
प्रयत्नपूर्वक शीघ्र ही गणना समाप्त कर दूँगा। आप दो ही घड़ीतक प्रतीक्षा कीजिये।
अथवा यदि आपको बड़ी जल्दी हो तो यह विदर्भदेशका मंगलमय मार्ग है, वाष्णेयको
सारथि बनाकर चले जाइये' ।। १६-१७ ।।
अब्रवीदृतुपर्णस्तु सान्त्वयन् कुरुनन्दन ।
त्वमेव यन्ता नान्यो<5स्ति पृथिव्यामपि बाहुक ।। १८ ।।
कुरुनन्दन! तब ऋतुपर्णने उसे सान्त्वना देते हुए कहा--“बाहुक! तुम्हीं इन घोड़ोंको
हॉँक सकते हो। इस कलामें पृथ्वीपर तुम्हारे जैसा दूसरा कोई नहीं है ।। १८ ।।
त्वत्कृते यातुमिच्छामि विदर्भान् हयकोविद ।
शरणं त्वां प्रपन्नो5स्मि न विघ्नं कर्तुमहसि ।। १९ ।।
'घोड़ोंके रहस्यको जाननेवाले बाहुक! तुम्हारे ही प्रयत्नसे मैं विदर्भदेशकी राजधानीमें
पहुँचना चाहता हूँ। देखो, तुम्हारी शरणमें आया हूँ। इस कार्यमें विघ्न न डालो ।। १९ |।
कामं च ते करिष्यामि यन्मां वक्ष्यसि बाहुक |
विदर्भान् यदि यात्वाद्य सूर्य दर्शयितासि मे । २० ।।
“बाहुक! यदि आज विदर्भदेशमें पहुँचकर तुम मुझे सूर्यका दर्शन करा सको तो तुम जो
कहोगे, तुम्हारी वही इच्छा पूर्ण करूँगा” || २० ।।
अथाब्रवीद् बाहुकस्तं संख्याय च बिभीतकम् ।
ततो विदर्भान् यास्यामि कुरुष्वैवं वचो मम ।। २१ ।।
यह सुनकर बाहुकने कहा--“मैं बहेड़ेके फलोंको गिनकर विदर्भदेशको चलूँगा। आप
मेरी यह बात मान लीजिये” ।। २१ ।।
अकाम इव तं राजा गणयस्वेत्युवाच ह |
एकदेशं च शाखाया: समादिष्ट॑ मयानघ ।। २२ ||
गणयस्वाश्रृतत्त्वज्ञ ततस्त्वं प्रीतिमावह ।
सो<वतीर्य रथात् तूर्ण शातयामास त॑ टद्रुमम् ।। २३ ।।
राजाने मानो अनिच्छासे कहा--“अच्छा, गिन लो। अश्वविद्याके तत्त्वको जाननेवाले
निष्पाप बाहुक! मेरे बताये अनुसार तुम शाखाके एक ही भागको गिनो। इससे तुम्हें बड़ी
प्रसन्नता होगी'। बाहुकने रथसे उतरकर तुरंत ही उस वृक्षको काट डाला || २२-२३ ।।
ततः स विस्मयाविष्टो राजानमिदमत्रवीत् ।
गणयित्वा यथोक्तानि तावन्त्येव फलानि तु ।। २४ ।।
गिननेसे उसे उतने ही फल मिले। तब उसने विस्मित होकर राजा ऋतुपर्णसे कहा
-- || २४ ||
अत्यद्भुतमिदं राजन् दृष्टवानस्मि ते बलम् |
श्रोतुमिच्छामि तां विद्यां ययैतज्ज्ञायते नूप ।। २५ ।।
तमुवाच ततो राजा त्वरितो गमने नृप ।
विद्धयक्षहृददयज्ञं मां संख्याने च विशारदम् ।। २६ ।।
“राजन्! आपमें गणितकी यह अद्भुत शक्ति मैंने देखी है। नराधिप! जिस विद्यासे यह
गिनती जान ली जाती है, उसे मैं सुनना चाहता हूँ।' राजा तुरंत जानेके लिये उत्सुक थे,
अतः उन्होंने बाहुकसे कहा--“तुम मुझे द्यूत-विद्याका मर्मज्ञ और गणितमें अत्यन्त निपुण
समझो' || २५-२६ ||
बाहुकस्तमुवाचाथ देहि विद्यामिमां मम ।
मत्तोडपि चाश्वह्नदयं गृहाण पुरुषर्षभ ।। २७ ।।
बाहुकने कहा--'पुरुषश्रेष्ठ) तुम यह विद्या मुझे बतला दो और बदलेमें मुझसे भी
अश्व-विद्याका रहस्य ग्रहण कर लो” || २७ ।।
ऋतुपर्णस्ततो राजा बाहुक॑ कार्यगौरवात् ।
हयज्ञानस्य लोभाच्च तं तथेत्यब्रवीद् वच: ।। २८ ।।
तब राजा ऋतुपर्णने कार्यकी गुरुता और अश्व-विज्ञानके लोभसे बाहुकको आश्वासन
देते हुए कहा--“तथास्तु” ।। २८ ।।
यथोक्तं त्वं गृहाणेदमक्षाणां हृदयं परम्
निक्षेपो मे5श्वह्दयं त्वयि तिष्ठतु बाहुक ।
एवमुकक््त्वा ददौ विद्यामृतुपर्णो नलाय वै ।। २९ ।।
“बाहुक! तुम मुझसे द्यूत-विद्याका गूढ़ रहस्य ग्रहण करो और अभश्वविज्ञानको मेरे लिये
अपने ही पास धरोहरके रूपमें रहने दो।” ऐसा कहकर ऋतुपर्णने नलको अपनी विद्या दे
दी ।। २९ ||
तस्याक्षहृददयज्ञस्य शरीरान्नि:सृत: कलि: ।
कर्कोटकविषं तीक्ष्णं मुखात् सततमुद्धमन् ।। ३० ।।
कलेस्तस्य तदार्तस्य शापाग्नि: स विनि:सृत: ।
स तेन कर्शितो राजा दीर्घकालमनात्मवान् ।। ३१ ।।
द्यूत-विद्याका रहस्य जाननेके अनन्तर नलके शरीरसे कलियुग निकला। तब कर्कोटक
नागके तीखे विषको अपने मुखसे बार-बार उगल रहा था। उस समय कष्टमें पड़े हुए
कलियुगकी वह शापाग्नि भी दूर हो गयी। राजा नलको उसने दीर्घकालतक कष्ट दिया था
और उसीके कारण वे किंकर्तव्यविमूढ हो रहे थे || ३०-३१ ।।
ततो विषविमुक्तात्मा स्वं रूपमकरोत् कलि: ।
त॑ शप्तुमैच्छत् कुपितो निषधाधिपतिर्नलः ।। ३२ ।।
तदनन्तर विषके प्रभावसे मुक्त होकर कलियुगने अपने स्वरूपको प्रकट किया। उस
समय निषधनरेश नलने कुपित हो कलियुगको शाप देनेकी इच्छा की || ३२ ।।
तमुवाच कलिभ्भीतो वेपमान: कृताञज्जलि: ।
कोपं॑ संयच्छ नृपते कीर्ति दास्यामि ते पराम् ।। ३३ ।।
तब कलियुग भयभीत हो काँपता हुआ हाथ जोड़कर उनसे बोला--“महाराज! अपने
क्रोधको रोकिये। मैं आपको उत्तम कीर्ति प्रदान करूँगा ।। ३३ ।।
इन्द्रसेनस्थ जननी कुपिता माशपत् पुरा ।
यदा त्वया परित्यक्ता ततो5हं भूशपीडितः ।। ३४ ॥॥
“इन्द्रसेनकी माता दमयन्तीने, पहले जब उसे आपने वनमें त्याग दिया था, कुपित
होकर मुझे शाप दे दिया। उससे मैं बड़ा कष्ट पाता रहा हूँ ।। ३४ ।।
अवसं त्वयि राजेन्द्र सुदुः:खमपराजित ।
विषेण नागराजस्य दहा[मानो दिवानिशम् ॥। ३५ ।।
“किसीसे पराजित न होनेवाले महाराज! मैं आपके शरीरमें अत्यन्त दु:खित होकर
रहता था। नागराज कर्कोटकके विषसे मैं दिन-रात झुलसता जा रहा था (इस प्रकार मुझे
अपने कियेका कठोर दण्ड मिल गया है) ।। ३५ ।।
शरणं त्वां प्रपन्नो5स्मि शृणु चेदं॑ वचो मम ।
येच त्वां मनुजा लोके कीर्तयिष्यन्त्यतन्द्रिता: ।
मत्प्रसूतं भयं तेषां न कदाचिद् भविष्यति ।। ३६ ।।
भयार्त शरणं यात॑ यदि मां त्वं न शप्स्यसे ।
एवमुक्तो नलो राजा न्ययच्छत् कोपमात्मन: || ३७ ।।
“अब मैं आपकी शरणमें हूँ। आप मेरी यह बात सुनिये। यदि भयसे पीड़ित और
शरणमें आये हुए मुझको आप शाप नहीं देंगे तो संसारमें जो मनुष्य आलस्यरहित हो
आपकी कीर्ति-कथाका कीर्तन करेंगे, उन्हें मुझसे कभी भय नहीं होगा।” कलियुगके ऐसा
कहनेपर राजा नलने अपने क्रोधको रोक लिया ।। ३६-३७ ।।
ततो भीत: कलि: क्षिप्रं प्रविवेश बिभीतकम् |
कलिस्त्वन्यैस्तदादृश्य: कथयन् नैषधेन वै ॥। ३८ ।।
तदनन्तर कलियुग भयभीत हो तुरंत ही बहेड़ेके वृक्षमें समा गया। वह जिस समय
निषधराज नलके साथ बात कर रहा था, उस समय दूसरे लोग उसे नहीं देख पाते
थे ।। ३८ ।।
ततो गतज्वरो राजा नैषध: परवीरहा ।
सम्प्रणष्टे कलौ राजा संख्यायास्य फलान्युत ।। ३९ ।।
मुदा परमया युक्तस्तेजसाथ परेण वै ।
रथमारुह् तेजस्वी प्रययौं जवनैर्हयै: ।॥ ४० ।।
तदनन्तर कलियुगके अदृश्य हो जानेपर शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले निषधनरेश राजा
नल सारी चिन्ताओंसे मुक्त हो गये। बहेड़ेके फलोंको गिनकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। वे
उत्तम तेजसे युत्ह तेजस्वी रूप धारण करके रथपर चढ़े और वेगशाली घोड़ोंको हाँकते हुए
विदर्भदेशको चल दिये || ३९-४० ।।
बिभीतकश्षाप्रशस्त: संवृत्त: कलिसंश्रयात् ।
हयोत्तमानुत्पततो द्विजानिव पुन: पुन: ।। ४१ ।।
नल: संचोदयामास प्रहृष्टेनान्तरात्मना ।
विदर्भाभिमुखो राजा प्रययौ स महायशा: ।। ४२ ।।
कलियुगके आश्रय लेनेसे बहेड़ेका वृक्ष निन्दित हो गया। तदनन्तर राजा नलने
प्रसन्नचित्तसे पुनः घोड़ोंको हाँकना आरम्भ किया। वे उत्तम अश्व पक्षियोंकी तरह बार-बार
उड़ते हुए-से प्रतीत हो रहे थे। अब महायशस्वी राजा नल विदर्भदेशकी ओर (बड़े वेगसे
बढ़े) जा रहे थे || ४१-४२ ।।
नले तु समतिक्रान्ते कलिरप्यगमद् गृहम् ।
ततो गतज्वरो राजा नलो<भूत् पृथिवीपति: ।
विमुक्त: कलिना राजन् रूपमात्रवियोजित: ।। ४३ ।।
नलके चले जानेपर कलि अपने घर चले गये। राजन्! कलिसे मुक्त हो भूमिपाल राजा
नल सारी चिन्ताओंसे छुटकारा पा गये; किंतु अभीतक उन्हें अपना पहला रूप नहीं प्राप्त
हुआ था। उनमें केवल इतनी ही कमी रह गयी थी ।। ४३ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि कलिनिर्गमे द्विसप्ततितमो< ध्याय:
॥॥ ७२ ||
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें कलियुगनिर्गगनविषयक
बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ७२ ॥।
अऑरड..2 #23. | हि 7 मु
त्रिसप्ततितमो< ध्याय:
ऋतुपर्णका कुण्डिनपुरमें प्रवेश, दमयन्तीका विचार तथा
भीमके द्वारा ऋतुपर्णका स्वागत
बृहदश्चव उवाच
ततो विदर्भान् सम्प्राप्तं सायाह्ले सत्यविक्रमम् ।
ऋतुपर्ण जना राज्ञे भीमाय प्रत्यवेदयन् ॥। १ ।।
बृहदश्व मुनि कहते हैं--युधिष्ठिर! तदनन्तर शाम होते-होते सत्यपराक्रमी राजा
ऋतुपर्ण विदर्भराज्यमें जा पहुँचे। लोगोंने राजा भीमको इस बातकी सूचना दी ।। १ ।।
स भीमवचनाद्ू राजा कुण्डिनं प्राविशत् पुरम् ।
नादयन् रथघोषेण सर्वा: स विदिशों दिश: ।। २ ।।
भीमके अनुरोधसे राजा ऋतुपर्णने अपने रथकी घर्घराहटद्वारा सम्पूर्ण दिशा-
विदिशाओंको प्रतिध्वनित करते हुए कुण्डिनपुरमें प्रवेश किया ।। २ ।।
ततस्तं रथनिर्घोष॑ नलाश्चास्तत्र शुश्रुव॒ुः
श्रुत्वा तु समहृष्यन्त पुरेव नलसंनिधौ ।। ३ ।।
नलके घोड़े वहीं रहते थे, उन्होंने रथका वह घोष सुना। सुनकर वे उतने ही प्रसन्न और
उत्साहित हुए, जितने कि पहले नलके समीप रहा करते थे ।। ३ ।।
दमयन्ती तु शुश्राव रथघोष॑ नलस्य तम् |
यथा मेघस्य नदतो गम्भीरं जलदागमे ।। ४ ।।
दमयन्तीने भी नलके रथकी वह घर्घराहट सुनी, मानो वर्षाकालमें गरजते हुए मेघोंका
गम्भीर घोष सुनायी देता हो ।। ४ ।।
परं विस्मयमापन्ना श्रुत्वा नादं महास्वनम् |
नलेन संगृहीतेषु पुरेव नलवाजिषु ।
सदृशं रथनिर्घोषं मेने भौमी तथा हया: ।। ५ ।।
वह महाभयंकर रथनाद सुनकर उसे बड़ा विस्मय हुआ। पूर्वकालमें राजा नल जब
घोड़ोंकी बाग सँभालते थे, उन दिनों उनके रथसे जैसी गम्भीर ध्वनि प्रकट होती थी, वैसी
ही उस समयके रथकी घर्घराहट भी दमयन्ती और उसके घोड़ोंकोी जान पड़ी ।। ५ ।।
प्रासादस्थाश्ष शिखिन: शालास्थाश्रैव वारणा: ।
हयाश्व शुश्रुवुस्तस्य रथघोष॑ महीपते: ।। ६ ।।
महलपर बैठे हुए मयूरों, गजशालामें बँधे हुए गजराजों और अश्वशालाके अअश्रोंने
राजाके रथका वह अद्भुत घोष सुना || ६ ।।
तच्छुत्वा रथनिर्घोषं वारणा: शिखिनस्तथा ।
प्रणेदुरुन्मुखा राजन् मेघनाद इवोत्सुका: ।। ७ ।।
राजन्! रथकी उस आवाजको सुनकर हाथी और मयूर अपना मुँह ऊपर उठाकर उसी
प्रकार उत्कण्ठापूर्वक अपनी बोली बोलने लगे, जैसे वे मेघोंकी गर्जना होनेपर बोला करते
हैं | ७ ।।
दमयन्त्युवाच
यथासौ रथनिर्घोष: पूरयज्निव मेदिनीम् ।
ममाह्नवादयते चेतो नल एष महीपति: ।। ८ ।।
(उस समय) दमयन्तीने (मन-ही-मन) कहा--अहो! रथकी वह घर्घराहट इस
पृथ्वीको गुँजाती हुई जिस प्रकार मेरे मनको आह्वाद प्रदान कर रही है, उससे जान पड़ता
है, ये महाराज नल ही पधारे हैं || ८ ।।
अद्य चन्द्राभवक्त्र तं न पश्यामि नलं यदि ।
असंख्येयगुणं वीरं॑ विनड्क्षयामि न संशय: ।। ९ ।।
आज यदि असंख्य गुणोंसे विभूषित तथा चन्द्रमाके समान मुखवाले वीरवर नलको न
देखूँगी तो अपने इस जीवनका अन्त कर दूँगी, इसमें संशय नहीं है ।। ९ ।।
यदि वै तस्य वीरस्य बाह्दोनच्याहमन्तरम् ।
प्रविशामि सुखस्पर्श न भविष्याम्यसंशयम् ।। १० ।।
आज यदि मैं उन वीरशिरोमणि नलकी दोनों भुजाओंके मध्यभागमें, जिसका स्पर्श
अत्यन्त सुखद है, प्रवेश न कर सकी तो अवश्य जीवित न रह सकूँगी ।। १० ।।
यदि मां मेघनिर्घोषो नोपगच्छति नैषध: ।
अद्य चामीकरप्रख्य॑ प्रवेक्ष्यामि हुताशनम् ।। ११ ।।
यदि रथद्वारा मेघके समान गम्भीर गर्जना करनेवाले निषधदेशके स्वामी महाराज नल
आज मेरे पास नहीं पधारेंगे तो मैं सुवर्णके समान देदीप्यमान दहकती हुई आगमें प्रवेश कर
जाऊँगी ।। ११ ।।
यदि मां सिंहविक्रान्तो मत्तवारणविक्रम: ।
नाभिगच्छति राजेन्द्रो विनड्क्ष्यामि न संशय: ।। १२ ।।
यदि सिंहके समान पराक्रमी और मतवाले हाथीके समान मस्तानी चालसे चलनेवाले
राजराजेश्वर नल मेरे पास नहीं आयेंगे तो आज अपने जीवनको नष्ट कर दूँगी, इसमें संशय
नहीं है ।। १२ ।।
न स्मराम्यनृतं किंचिन्न स्मराम्यपकारताम् |
न च पर्युषितं वाक्यं स्वैरेष्वपि कदाचन ।। १३ ।।
मुझे याद नहीं कि स्वेच्छापूर्वक अर्थात् हँसी-मजाकमें भी मैं कभी झूठ बोली हूँ, स्मरण
नहीं कि कभी किसीका मेरेद्वारा अपकार हुआ हो तथा यह भी स्मरण नहीं कि मैंने प्रतिज्ञा
की हुई बातका उल्लंघन किया हो ।। १३ ।।
प्रभु: क्षमावान् वीरश्न दाता चाप्यधिको नृपैः ।
रहो<नीचानुवर्ती च क्लीबवन्मम नैषध: ।। १४ ।।
मेरे निषधराज नल शक्तिशाली, क्षमाशील, वीर, दाता, सब राजाओंसे श्रेष्ठ, एकान्तमें
भी नीच कर्मसे दूर रहनेवाले तथा परायी स्त्रीके लिये नपुंसकतुल्य हैं ।।
गुणांस्तस्य स्मरन्त्या मे तत्पराया दिवानिशम् |
ह्ृदयं दीर्यत इदं शोकात् प्रियविनाकृतम् ।। १५ ।।
मैं (सदा) उन्हींके गुणोंका स्मरण करती और दिन-रात उन्हींके परायण रहती हूँ।
प्रियतम नलके बिना मेरा यह हृदय उनके विरहशोकसे विदीर्ण-सा होता रहता है ।। १५ ।।
एवं विलपमाना सा नष्ट्संज्ञेव भारत |
आरुरोह महद् वेश्म पुण्यश्लोकदिदृक्षया ।। १६ ।।
भारत! इस प्रकार विलाप करती हुई दमयन्ती अचेत-सी हो गयी। वह पुण्यश्लोक
नलके दर्शनकी इच्छासे ऊँचे महलकी छतपर जा चढ़ी ।। १६ ।।
ततो मध्यमकक्षायां ददर्श रथमास्थितम् ।
ऋतुपर्ण महीपालं सहवाष्णेयबाहुकम् ।। १७ ।।
वहाँसे उसने देखा, वार्ष्णेय और बाहुकके साथ रथपर बैठे हुए महाराज ऋतुपर्ण
मध्यम कक्षा (परकोटे)-में पहुँच गये हैं ।। १७ ।।
ततो<वतीर्य वार्ष्णेयो बाहुकश्व रथोत्तमात् ।
हयांस्तानवमुच्याथ स्थापयामास वै रथम् ॥। १८ ।।
तदनन्तर वार्ष्णेय और बाहुकने उस उत्तम रथसे उतरकर घोड़े खोल दिये और रथको
एक जगह खड़ा कर दिया ।। १८ ।।
सो<वतीर्य रथोपस्थादृतुपर्णो नराधिप: ।
उपतस्थे महाराजं भीम॑ भीमपराक्रमम् ।। १९ ।।
इसके बाद राजा ऋतुपर्ण रथके पिछले भागसे उतरकर भयानक पराक्रमी महाराज
भीमसे मिले ।। १९ ।।
त॑ भीम: प्रतिजग्राह पूजया परया ततः ।
स तेन पूजितो राज्ञा ऋतुपर्णो नराधिप: ।। २० ।।
तदनन्तर भीमने बड़े आदर-सत्कारके साथ उन्हें अपनाया और राजा ऋतुपर्णका
भलीभाँति आदर-सत्कार किया || २० ।।
स तत्र कुण्डिने रम्ये वसमानो महीपतिः: ।
न च किंचित् तदापश्यत् प्रेक्षमाणो मुहुर्मुहुः ।
स तु राज्ञा समागम्य विदर्भपतिना तदा ।। २१ ।।
अकस्मात् सहसा प्राप्तं स्त्रीमन्त्रं न सम विन्दति ।
भूपाल ऋतुपर्ण रमणीय कुण्डिनपुरमें ठहर गये। उन्हें बार-बार देखनेपर भी वहाँ
(स्वयंवर-जैसी) कोई चीज नहीं दिखायी दी। वे विदर्भनरेशसे मिलकर सहसा इस बातको न
जान सके कि यह स्त्रियोंकी अकस्मात् गुप्त मन्त्रणामात्र थी || २१६ ।।
कि कार्य स्वागत ते<स्तु राज्ञा पृष्ट: स भारत ।। २२ ।।
भरतनन्दन युधिष्ठिर! विदर्भराजने स्वागत-पूर्वक ऋतुपर्णसे पूछा--“आपके यहाँ
पधारनेका क्या कारण है?” ।। २२ ।।
नाभिजज्ञे स नृपतिर्दुहित्रर्थे समागतम् ।
ऋतुपर्णोडपि राजा स धीमान् सत्यपराक्रम: ।। २३ ।।
राजा भीम यह नहीं जानते थे कि दमयन्तीके लिये ही इनका शुभागमन हुआ है। राजा
ऋतुपर्ण भी बड़े बुद्धिमान् और सत्यपराक्रमी थे || २३ ।।
राजानं राजपुत्रं वा न सम पश्यति कंचन ।
नैव स्वयंवरकथां न च विप्रसमागमम् ।। २४ ।।
ततो व्यगणयद् राजा मनसा कोसलाधिप: ।
आगतोडस्मीत्युवाचैनं भवन्तमभिवादक: ।। २५ ।।
उन्होंने वहाँ किसी भी राजा या राजकुमारको नहीं देखा। ब्राह्मणोंका भी वहाँ समागम
नहीं हो रहा था। स्वयंवरकी तो कोई चर्चातक नहीं थी। तब कोशलनरेशने मन-ही-मन कुछ
विचार किया और विदर्भराजसे कहा--'राजन्! मैं आपका अभिवादन करनेके लिये आया
हूँ" | २४-२५ ।।
राजापि च स्मयन् भीमो मनसा समचिन्तयन् ।
अधिकं योजनशतं तस्यागमनकारणम् ।। २६ ।।
ग्रामान् बहूनतिक्रम्य नाध्यगच्छद् यथातथम् |
अल्पकार्य विनिर्दिष्टं तस्यागमनकारणम् ।। २७ ।।
यह सुनकर राजा भीम भी मुसकरा दिये और मन-ही-मन सोचने लगे--'ये बहुत-से
गाँवोंको लाँधकर सौ योजनसे भी अधिक दूर चले आये हैं, किंतु कार्य इन्होंने बहुत
साधारण बतलाया है। फिर इनके आगमनका क्या कारण है, इसे मैं ठीक-ठीक न जान
सका || २६-२७ ||
पश्चादुदर्के ज्ञास्यामि कारणं यद् भविष्यति ।
नैतदेवं स नृपतिस्तं सत्कृत्य व्यसर्जयत् ।। २८ ।।
“अच्छा, जो भी कारण होगा पीछे मालूम कर लूँगा। ये जो कारण बता रहे हैं, इतना ही
इनके आगमनका हेतु नहीं है।' ऐसा विचारकर राजाने उन्हें सत्कारपूर्वक विश्रामके लिये
विदा किया ।। २८ ।।
विश्राम्यतामित्युवाच क्लान्तोडसीति पुन: पुनः ।
स सत्कृतः प्रह्ृष्टात्मा प्रीतः प्रीतेन पार्थिव: ।। २९ ।।
और कहा--“आप बहुत थक गये होंगे, अतः विश्राम कीजिये।” विदर्भनरेशके द्वारा
प्रसन्नतापूर्वक आदर-सत्कार पाकर राजा ऋतुपर्णको बड़ी प्रसन्नता हुई |। २९ ।।
राजप्रेष्यैरनुगतो दिष्टं वेश्म समाविशत् ।
ऋतुपर्णे गते राजन् वाष्णेयसहिते नृपे ।। ३० ।।
बाहुको रथमादाय रथशालामुपागमत् ।
स मोचयित्वा तानश्चानुपचर्य च शास्त्रत: ।। ३१ ।।
स्वयं चैतान् समाश्वास्य रथोपस्थ उपाविशत् |
फिर वे राजसेवकोंके साथ गये और बताये हुए भवनमें विश्रामके लिये प्रवेश किया।
राजन! वार्ष्णेयसहित ऋतुपर्णके चले जानेपर बाहुक रथ लेकर रथशालामें गया। उसने उन
घोड़ोंको खोल दिया और अश्वशास्त्रकी विधिके अनुसार उनकी परिचर्या करनेके बाद
घोड़ोंको पुचकारकर उन्हें धीरज देनेके पश्चात् वह स्वयं भी रथके पिछले भागमें जा
बैठा | ३०-३१ ६ ||
दमयन्त्यपि शोकार्ता दृष्टवा भाज़ासुरिं नृपम् ।। ३२ ।।
सूतपुत्रं च वाष्णेयं बाहुकं च तथाविधम् ।
चिन्तयामास वैदर्भी कस्यैष रथनि:स्वन: ।। ३३ ।।
दमयन्ती भी शोकसे आतुर हो राजा ऋतुपर्ण, सूतपुत्र वार्ष्णेय तथा पूर्वोक्त बाहुकको
देखकर सोचने लगी--“यह किसके रथकी घर्घराहट सुनायी पड़ती थी ।। ३२-३३ ।।
नलस्येव महानासीज्ञ च पश्यामि नैषधम् ।
वार्ष्णेयेन भवेन्नूनं विद्या सैवोपशिक्षिता ।। ३४ ।।
तेनाद्य रथनिर्घोषो नलस्येव महानभूत् ।
आहोस्विदृतुपर्णोडपि यथा राजा नलस्तथा ।
यथायं रथनिर्घोषो नैषधस्येव लक्ष्यते ।। ३५ ।।
“वह गम्भीर घोष तो महाराज नलके रथ-जैसा था; परंतु इन आगन्तुकोंमें मुझे
निषधराज नल नहीं दिखायी देते। वार्ष्पेयने भी नलके समान ही अश्वविद्या सीख ली हो,
निश्चय ही यह सम्भावना की जा सकती है। तभी आज रथकी आवाज बड़े जोरसे सुनायी दे
रही थी, जैसे नलके रथ हाँकते समय हुआ करती है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि राजा
ऋतुपर्ण भी वैसे ही अश्वविद्यामें निपुण हों, जैसे राजा नल हैं; क्योंकि नलके ही समान
इनके रथका भी गम्भीर घोष लक्षित होता है” || ३४-३५ ।।
एवं सा तर्कयित्वा तु दमयन्ती विशाम्पते ।
दूतीं प्रस्थापयामास नैषधान्वेषणे शुभा ।। ३६ ।।
युधिष्ठिर! इस प्रकार विचार करके शुभलक्षणा दमयन्तीने नलका पता लगानेके लिये
अपनी दूतीको भेजा ।। ३६ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि ऋतुपर्णस्य भीमपुरप्रवेशे
त्रिसप्ततितमो5ध्याय: ।। ७३ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपववके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें ऋतुपर्णका राजा भीमके
नगरमें प्रवेशविषयक तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ७३ ॥
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चतु:ःसप्ततितमो< ध्याय:
बाहुक-केशिनी-संवाद
दमयन्त्युवाच
गच्छ केशिनि जानीहि क एष रथवाहक: ।
उपविष्टो रथोपस्थे विकृतो हस्वबाहुक: ।। १ ।।
दमयन्ती बोली--केशिनी! जाओ और पता लगाओ कि यह छोटी-छोटी बाँहोंवाला
कुरूप रथवाहक, जो रथके पिछले भागमें बैठा है, कौन है? ।। १ ।।
अभ्येत्य कुशल भद्रे मृदुपूर्व समाहिता ।
पृच्छेथा: पुरुषं होनं यथातत्त्वमनिन्दिते ।॥। २ ।।
भद्रे! इसके निकट जाकर सावधानीके साथ मधुर वाणीमें कुशल पूछना। अनिन्दिते!
साथ ही इस पुरुषके विषयमें ठीक-ठीक बातें जाननेकी चेष्टा करना ।। २ ।।
अत्र मे महती शड़्का भवेदेष नलो नृप: ।
यथा च मनसस्तुष्टिहददयस्य च निर्वति: ।। ३ ।।
इसके विषयमें मुझे बड़ी भारी शंका है। सम्भव है, इस वेषमें राजा नल ही हों। मेरे
मनमें जैसा संतोष है और हृदयमें जैसी शान्ति है, इसे मेरी उक्त धारणा पुष्ट हो रही
है ।। ३ ।।
ब्रूयाश्वैनं कथान्ते त्वं पर्णादवचनं यथा ।
प्रतिवाक्यं च सुश्रोणि बुद्धयेथास्त्वमनिन्दिते ॥। ४ ।।
सुश्रोणि! तुम बातचीतके सिलसिलेमें इसके सामने पर्णाद ब्राह्मणवाली बात कहना
और अनिन्दिते! यह जो उत्तर दे, उसे अच्छी तरह समझना ।। ४ ।।
ततः समाहिता गत्वा दूती बाहुकमब्रवीत् ।
दमयन्त्यपि कल्याणी प्रासादस्था हरुपैक्षत ।॥। ५ ।।
तब वह दूती बड़ी सावधानीसे वहाँ जाकर बाहुकसे वार्तालाप करने लगी और
कल्याणी दमयन्ती भी महलमें उसके लौटनेकी प्रतीक्षामें बैठी रही || ५ ।।
केशिन्युवाच
स्वागतं ते मनुष्येन्द्र कुशल ते ब्रवीम्पहम् ।
दमयन्त्या वच: साधु निबोध पुरुषर्षभ ।। ६ ।।
केशिनीने कहा--नरेन्द्र! आपका स्वागत है! मैं आपका कुशल समाचार पूछती हूँ।
पुरुषश्रेष्ठी दमयन्तीकी कही हुई ये उत्तम बातें सुनिये |। ६ ।।
कदा वै प्रस्थिता यूयं किमर्थमिह चागता: ।
तत् व्वं ब्रूहि यथान्यायं वैदर्भी श्रोतुमिच्छति ।। ७ ।।
विदर्भराजकुमारी यह सुनना चाहती हैं कि आपलोग अयोध्यासे कब चले हैं और किस
लिये यहाँ आये हैं? आप न्यायके अनुसार ठीक-ठीक बतायें ।। ७ ।।
बाहुक उवाच
श्रुत: स्वयंवसे राज्ञा कोसलेन महात्मना ।
द्वितीयो दमयन्त्या वै भविता श्व इति द्विजात् ॥। ८ ।।
बाहुक बोला--महात्मा कोसलराजने एक ब्राह्मणके मुखसे सुना था कि कल
दमयन्तीका द्वितीय स्वयंवर होनेवाला है ।। ८ ।।
श्र॒ुत्वैतत् प्रस्थितो राजा शतयोजनयायिश्रि: ।
हयैर्वातजवैर्मुख्यैरहमस्य च सारथि: ।। ९ |।
यह सुनकर राजा हवाके समान वेगवाले और सौ योजनतक दौड़नेवाले अच्छे घोड़ोंसे
जुते हुए रथपर सवार हो विदर्भदेशके लिये प्रस्थित हो गये। इस यात्रामें मैं ही इनका सारथि
था।।९।।
केशिन्युवाच
अथ योअड्सौ तृतीयो व: स कुतः कस्य वा पुनः ।
त्वं च कस्य कथं चेदं त्वयि कर्म समाहितम् ।। १० ।।
केशिनीने पूछा--आपलोगोंमेंसे जो तीसरा व्यक्ति है, वह कहाँसे आया है अथवा
किसका सेवक है? ऐसे ही आप कौन हैं, किसके पुत्र हैं और आपपर इस कार्यका भार
कैसे आया है? ।। १० ।।
बाहुक उवाच
पुण्यश्लोकस्य वै सूतो वार्ष्णेय इति विश्रुत: ।
स नले विद्रुते भद्रे भाड़ासुरिमुपस्थित: ।। ११ ।।
बाहुक बोला--भद्रे! उस तीसरे व्यक्तिका नाम वार्ष्णेय है। वह पुण्यश्लोक राजा
नलका सारथि है। नलके वनमें निकल जानेपर वह ऋतुपर्णकी सेवामें चला गया
है ।। ११ ||
अहमप्यश्वकुशल: सूतत्वे च प्रतिष्ठित: ।
ऋतुपर्णेन सारथ्ये भोजने च वृतः स्वयम् ।। १२ ।।
मैं भी अश्वविद्यामें कुशल हूँ और सारथिके कार्यमें भी निपुण हूँ, इसलिये राजा
ऋतुपर्णने स्वयं ही मुझे वेतन देकर सारथिके पदपर नियुक्त कर लिया ।। १२ ।।
केशिन्युवाच
अथ जानाति वार्ष्णेय: क्व नु राजा नलो गत: ।
कथं च त्वयि वा तेन कथितं स्यात् तु बाहुक ।। १३ ।।
केशिनीने पूछा--बाहुक! क्या वार्ष्णेय यह जानता है कि राजा नल कहाँ चले गये,
उसने आपसे महाराजके सम्बन्धमें कैसी बात बतायी है? ।। १३ ।।
बाहक उवाच
इहैव पुत्रौ निक्षिप्प नलस्य शुभकर्मण: ।
गतस्ततो यथाकामं नैष जानाति नैषधम् ।। १४ ।।
बाहुक बोला--भद्रे! पुण्यकर्मा नलके दोनों बालकोंको यहीं रखकर वार्ष्णेय अपनी
रुचिके अनुसार अयोध्या चला गया था। यह नलके विषयमें कुछ नहीं जानता है ।। १४ ।।
न चान्य: पुरुष: वश्रिन्नलं वेत्ति यशस्विनि ।
गूढश्चरति लोके5स्मिन् नष्टरूपे महीपति: ॥। १५ ।।
यशस्विनि! दूसरा कोई पुरुष भी नलको नहीं जानता। राजा नलका पहला रूप अदृश्य
हो गया है। वे इस जगत्में गूढ़भावसे विचरते हैं || १५ ।।
आत्मैव तु नलं वेद या चास्य तदनन्तरा ।
न हि वै स्वानि लिड्रानि नल: शंसति कहिचित् ।। १६ ।।
परमात्मा ही नलको जानते हैं तथा उसकी जो अन्तरात्मा है, वह उन्हें जानती है,
दूसरा कोई नहीं; क्योंकि राजा नल अपने लक्षणों या चिह्लोंको कभी दूसरोंके सामने नहीं
प्रकट करते हैं || १६ ।।
केशिन्युवाच
यो5सावयोध्यां प्रथमं गतो5सौ ब्राह्मणस्तदा ।
इमानि नारीवाक्यानि कथयान: पुन: पुन: ।। १७ ।।
केशिनीने कहा--पहली बार अयोध्यामें जब वे ब्राह्मणदेवता गये थे, तब उन्होंने
स्त्रियोंकी सिखायी हुई निम्नांकित बातें बार-बार कही थीं-- ।। १७ ।।
क्व नु त्वं कितवच्छित्त्वा बस्त्रार्थ प्रस्थितो मम ।
उत्सृज्य विपिने सुप्तामनुरक्तां प्रियां प्रिय ।। १८ ।।
'“ओ जुआरी प्रियतम! तुम अपने प्रति अनुराग रखनेवाली वनमें सोयी हुई मुझ प्यारी
पत्नीको छोड़कर तथा मेरे आधे वस्त्रको फाड़कर कहाँ चल दिये? ।। १८ ।।
सा वै यथा समादिष्टा तथा<>स्ते त्वत्प्रतीक्षिणी ।
दहामाना दिवा रात्रौ वस्त्रार्थेनाभिसंवृता || १९ ।।
“उसे तुमने जिस अवस्थामें देखा था, उसी अवस्थामें वह आज भी है और तुम्हारे
आगमनकी प्रतीक्षा कर रही है। आधे वस्त्रसे अपने शरीरको ढककर वह युवती दिन-रात
तुम्हारी विरहाग्निमें जल रही है ।। १९ ।।
तस्या रुदन्त्या: सततं तेन दुःखेन पार्थिव ।
प्रसादं कुरु मे वीर प्रतिवाक्यं वदस्व च || २० ।।
“वीर भूमिपाल! सदा तुम्हारे शोकसे रोती हुई अपनी उसी प्यारी पत्नीपर पुनः कृपा
करो और मेरी बातका उत्तर दो” || २० ।।
तस्यास्तत् प्रियमाख्यानं प्रवदस्व महामते ।
तदेव वाक्यं वैदर्भी श्रोतुमिच्छत्यनिन्दिता || २१ ।।
“महामते! इसके उत्तरमें आप दमयन्तीको प्रिय लगनेवाली कोई बात कहिये। साध्वी
विदर्भकुमारी आपकी उसी बातको पुनः सुनना चाहती हैं! || २१ ।।
एतच्छुत्वा प्रतिवचस्तस्य दत्तं त्वया किल |
यत् पुरा तत् पुनस्त्वत्तो वैदर्भी श्रोतुमिच्छति ।। २२ ।।
बाहुक! ब्राह्मणके मुखसे यह वचन सुनकर पहले आपने जो उत्तर दिया था, उसीको
वैदर्भी आपके मुँहसे पुनः: सुनना चाहती हैं || २२ ।।
बृहृदश्च उवाच
एवमुक्तस्य केशिन्या नलस्य कुरुनन्दन ।
ह्ृदयं व्यथितं चासीदश्रुपूर्ण च लोचने ।। २३ ।।
बृहदश्च मुनि कहते हैं--युधिष्ठिर! केशिनीके ऐसा कहनेपर राजा नलके हृदयमें बड़ी
वेदना हुई। उनकी दोनों आँखें आँसुओंसे भर गयीं || २३ ।।
स निगृह्यात्मनो दुःखं दहुमानो महीपति: ।
वाष्पसंदिग्धया वाचा पुनरेवेदमब्रवीत् ।। २४ ।।
निषधनरेश शोकाग्निसे दग्ध हो रहे थे, तो भी उन्होंने अपने दुःखके वेगको रोककर
अश्रुगदगद वाणीमें पुनः: यों कहना आरम्भ किया || २४ ।।
बाहुक उवाच
वैषम्यमपि सम्प्राप्ता गोपायन्ति कुलस्त्रिय: ।
आत्मानमात्मना सत्यो जित: स्वर्गों न संशय: ।। २५ ।।
बाहुक बोला--उत्तम कुलकी स्त्रियाँ बड़े भारी संकटमें पड़कर भी स्वयं अपनी रक्षा
करती हैं। ऐसा करके वे स्वर्ग और सत्य दोनोंपर विजय पा लेती हैं, इसमें संशय नहीं
है || २५ |।
रहिता भर्त॑भिश्चापि न क्रुध्यन्ति कदाचन ।
प्राणांश्षारित्रकवचान् धारयन्ति वरस्त्रिय: | २६ ।।
श्रेष्ठ नारियाँ अपने पतियोंसे परित्यक्त होनेपर भी कभी क्रोध नहीं करतीं। वे सदा
सदाचाररूपी कवचसे आवृत प्राणोंको धारण करती हैं || २६ ।।
विषमस्थेन मूढेन परिगभ्रष्टसुखेन च ।
यत् सा तेन परित्यक्ता तत्र न क्रोद्धुमहति ।। २७ ।।
वह पुरुष बड़े संकटमें था तथा सुखके साधनोंसे वज्चित होकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो
गया था। ऐसी दशामें यदि उसने अपनी पत्नीका परित्याग किया है, तो इसके लिये पत्नीको
उसपर क्रोध नहीं करना चाहिये ।। २७ ।।
प्राणयात्रां परिप्रेप्सो: शकुनैर््तवासस: ।
आधिभिर्दह्युमानस्य श्यामा न क्रोद्धुमहति ।। २८ ।।
जीविका पानेके लिये चेष्टा करते समय पक्षियोंने जिसके वस्त्रका अपहरण कर लिया
था और जो अनेक प्रकारकी मानसिक चिन्ताओंसे दग्ध हो रहा था, उस पुरुषपर श्यामाको
क्रोध नहीं करना चाहिये || २८ ।।
सत्कृतासत्कृता वापि पतिं दृष्टवा तथाविधम् |
राज्यभ्रष्टं श्रिया हीन॑ क्षुधितं व्यसनाप्लुतम् ।। २९ ।।
पतिने उसका सत्कार किया हो या असत्कार; उसे चाहिये कि पतिको वैसे संकटमें
पड़ा देखकर उसे क्षमा कर दे; क्योंकि वह राज्य और लक्ष्मीसे वंचित हो भूखसे पीड़ित एवं
विपत्तिके अथाह सागरमें डूबा हुआ था ।। २९ ।।
एवं ब्रुवाणस्तद् वाक्यं नल: परमदुर्मना: ।
न वाष्पमशकत् सोढ़ुं प्रसरोद च भारत ।। ३० ।।
इस प्रकार पूर्वोक्त बातें कहते हुए नलका मन अत्यन्त उदास हो गया। भारत! वे अपने
उमड़ते हुए आँसुओंको रोक न सके तथा रोने लगे ।। ३० ।।
ततः सा केशिनी गत्वा दमयन्त्यै न्यवेदयत् ।
तत् सर्व कथितं चैव विकारं तस्य चैव तम् ।। ३१ ।।
तदनन्तर केशिनीने भीतर जाकर दमयन्तीसे यह सब निवेदन किया। उसने बाहुककी
कही हुई सारी बातों और उसके मनोविकारोंको भी यथावत् कह सुनाया ।। ३१ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि नलकेशिनीसंवादे
चतु:सप्ततितमो5ध्याय: ।। ७४ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें नल-केशिनीसंवादविषयक
चौहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ७४ ॥
हि आन (0) माप्टआ अप
पञ्चसप्ततितमोब ध्याय:
दमयन्तीके आदेशसे केशिनीद्धारा हज ककी परीक्षा तथा
बाहुकका अपने लड़के-लड़कियोंको उनसे प्रेम
करना
बृहृदश्च उवाच
दमयन्ती तु तच्छुत्वा भूशं शोकपरायणा ।
शड्-कमाना नल तं वै केशिनीमिदमब्रवीत् ॥। १ ॥।
बृहदश्व मुनि कहते हैं--युधिष्ठि!! यह सब सुनकर दमयन्ती अत्यन्त शोकमग्न हो
गयी। उसके हृदयमें निश्चितरूपसे बाहुकके नल होनेका संदेह हो गया और वह केशिनीसे
इस प्रकार बोली-- || १ ॥।
गच्छ केशिनि भूयस्त्वं परीक्षां कुरु बाहुके ।
अब्रुवाणा समीपस्था चरितान्यस्य लक्षय ।। २ ।।
“केशिनि! फिर जाओ और बाहुककी परीक्षा करो। अबकी बार तुम कुछ बोलना मत।
निकट रहकर उसके चरित्रोंपर दृष्टि रखना ।। २ ।।
यदा च किंचित् कुर्यात् स कारणं तत्र भामिनि ।
तत्र संचेष्टमानस्य लक्षयन्ती विचेष्टितम् ।। ३ ।।
'भामिनि! जब वह कोई काम करे तो उस कार्यको करते समय उसकी प्रत्येक चेष्टा
और उसके कारणपर लक्ष्य रखना ।। ३ ।।
न चास्य प्रतिबन्धेन देयोडग्निरपि केशिनि ।
याचते न जल देयं सर्वथा त्वरमाणया ।। ४ ।।
'“केशिनि! वह आग्रह करे तो भी उसे आग न देना और माँगनेपर भी किसी प्रकार
जल्दीमें आकर पानी भी न देना ।। ४ ।।
एतत् सर्व समीक्ष्य त्वं चरितं मे निवेदय ।
निमित्तं यत् त्वया दृष्टं बाहुके दैवमानुषम् ।। ५ ।।
यच्चान्यदपि पश्येथास्तच्चाख्येयं त्वया मम ।
“बाहुकके इन सब चरित्रोंकी समीक्षा करके फिर मुझे सब बात बताना। बाहुकमें यदि
तुम्हें कोई दिव्य अथवा मानवोचित विशेषता दिखायी दे तथा और भी जो कोई विशेषता
दृष्टिगोचर हो तो उसपर भी दृष्टि रखना और मुझे आकर बताना' || ५३ ||
दमयन्त्यैवमुक्ता सा जगामाथ च केशिनी ।। ६ ।।
निशम्याथ हयज्ञस्य लिड्रानि पुनरागमत् |
दमयन्तीके ऐसा कहनेपर केशिनी पुनः वहाँ गयी और अभ्वविद्याविशारद बाहुकके
लक्षणोंका अवलोकन करके वह फिर लौट आयी ।। ६३ ।।
सा तत् सर्व यथावृत्तं दमयन्त्यै न्यवेदयत् ।
निमित्तं यत् तया दृष्टं बाहुके दैवमानुषम् ।। ७ ।।
उसने बाहुकमें जो दिव्य अथवा मानवोचित विशेषताएँ देखीं, उनका यथावत् समाचार
पूर्णरूपसे दमयन्तीको बताया ।। ७ ।।
केशिन्युवाच
दृढं शुच्युपचारोडसौ न मया मानुष: क्वचित् |
दृष्टपूर्व: श्रुतो वापि दमयन्ति तथाविध: ।। ८ ।।
केशिनीने कहा--दमयन्ती! उसका प्रत्येक व्यवहार अत्यन्त पवित्र है। ऐसा मनुष्य तो
मैंने कहीं भी पहले न तो देखा है और न सुना ही है ।। ८ ।।
हस्वमासाद्य संचारं नासौ विनमते क्वचित् |
तं तु दृष्टया यथा5संगमुत्सपति यथासुखम् ।। ९ ।।
किसी छोटे-से-छोटे दरवाजेपर जाकर भी वह झुकता नहीं है। उसे देखकर बड़ी
आसानीके साथ दरवाजा ही इस प्रकार ऊँचा हो जाता है कि जिससे मस्तकका उससे स्पर्श
नहो।।९॥।।
संकटे<प्यस्य सुमहान् विवरो जायतेडधिक: ।
ऋतुपर्णस्य चार्थाय भोजनीयमनेकश: ।। १० ||
प्रेषितं तत्र राज्ञा तु मांसं चैव प्रभूतवत् ।
तस्य प्रक्षालनार्थाय कुम्भास्तत्रोपकल्पिता: ॥। ११ ।।
संकुचित स्थानमें भी उसके लिये बहुत बड़ा अवकाश बन जाता है। राजा भीमने
ऋतुपर्णके लिये अनेक प्रकारके भोज्य पदार्थ भेजे थे। उसमें प्रचुर मात्रामें केला आदि
फलोंका गूदा भी था,- उसको धोनेके लिये वहाँ खाली घड़े रख दिये थे || १०-११ ।।
ते तेनावेक्षिता: कुम्भा: पूर्णा एवाभवंस्तत: ।
ततः प्रक्षालनं कृत्वा समधिश्रित्य बाहुक: ।। १२ ।।
तृणमुष्टिं समादाय सवितुस्तं समादधत् ।
अथ प्रज्वलितस्तत्र सहसा हव्यवाहन: ।। १३ ।।
परंतु बाहुकके देखते ही वे सारे घड़े पानीसे भर गये। उससे खाद्य पदार्थोंकी धोकर
बाहुकने चूल्हेपर चढ़ा दिया। फिर एक मुद्ठी तिनका लेकर सूर्यकी किरणोंसे ही उसे उद्दीप्त
किया। फिर तो देखते-ही-देखते सहसा उसमें आग प्रज्वलित हो गयी || १२-१३ ।।
तदद्भुततमं दृष्टवा विस्मिताहमिहागता ।
अन्यच्च तस्मिन् सुमहदाश्षचर्य लक्षितं मया ।। १४ ।।
यह अद्भुत बात देखकर मैं आश्वर्यचकित होकर यहाँ आयी हूँ। बाहुकमें एक और भी
बड़े आश्चर्यकी बात देखी है ।। १४ ।।
यदग्निमपि संस्पृश्य नैवासौ दहाते शुभे ।
छन्देन चोदकं तस्य वहत्यावर्जितं द्रतम् ।। १५ ।।
शुभे! वह अग्निका स्पर्श करके भी जलता नहीं है। पात्रमें रखा हुआ थोड़ा-सा जल भी
उसकी इच्छाके अनुसार तुरंत ही प्रवाहित हो जाता है ।। १५ ।।
अतीव चान्यत् सुमहदाश्चर्य दृष्टवत्यहम् ।
यत् स पुष्पाण्युपादाय हस्ताभ्यां ममृदे शनै: ।। १६ ।।
मृद्यमानानि पाणिभ्यां तेन पुष्पाणि नान्यथा ।
भूय एव सुगन्धीनि हषितानि भवन्ति हि ।
एतान्यद्धुतलिड्डानि दृष्टवाहं द्रतमागता ।। १७ ।।
एक और भी अत्यन्त आश्चर्यजनक बात मुझे उसमें दिखायी दी है। वह फूल लेकर
उन्हें हाथोंसे धीरे-धीरे मसलता था। हाथोंसे मसलनेपर भी वे फूल विकृत नहीं होते थे
अपितु और भी सुगन्धित और विकसित हो जाते थे। ये अद्भुत लक्षण देखकर मैं
शीघ्रतापूर्वक यहाँ आयी हूँ || १६-१७ ।।
बृहृदश्चव उवाच
दमयन्ती तु तच्छुत्वा पुण्यश्लोकस्य चेष्टितम् ।
अमन्यत नल प्राप्तं कर्मचेष्टाभिसूचितम् ।। १८ ।।
बृहदश्व मुनि कहते हैं--युधिष्ठिर! दमयन्तीने पुण्यश्लोक महाराज नलकी-सी
बाहुककी सारी चेष्टाओंको सुनकर मन-ही-मन यह निश्चय कर लिया कि महाराज नल ही
आये हैं। अपने कार्यों और चेष्टाओंद्वारा वे पहचान लिये गये हैं || १८ ।।
सा शड्-कमाना भर्तरं बाहुकं पुनरिज्ञितैः ।
केशिनीं श्लक्षणया वाचा रुदती पुनरब्रवीत् ।। १९ ।।
पुनर्गच्छ प्रमत्तस्य बाहुकस्योपसंस्कृतम्
महानसादू ट्रुतं मांसमानयस्वेह भाविनि ।। २० ।।
सा गत्वा बाहुकस्याग्रे तन्मांसमपकृष्य च ।
अत्युष्णमेव त्वरिता तत्क्षणात् प्रियकारिणी ।। २१ ।।
चेष्टाओंद्वारा उसके मनमें यह प्रबल आशंका जम गयी कि बाहुक मेरे पति ही हैं। फिर
तो वह रोने लगी और मधुर वाणीमें केशिनीसे बोली--“सखि! एक बार फिर जाओ और
जब बाहुक असावधान हो तो उसके द्वारा विशेषविधिसे उबालकर तैयार किया गया
फलोंका गूदा रसोई घरमेंसे शीघ्र उठा लाओ।” केशिनी दमयन्तीकी प्रियकारिणी सखी थी।
वह तुरंत गयी और जब बाहुकका ध्यान दूसरी ओर गया तब उसके उबाले हुए गरम-गरम
फलोंके गूदेमेंसे थोड़ा-सा निकालकर तत्काल ले आयी ।। १९--२१ ।।
दमयन्त्यै तत: प्रादात् केशिनी कुरुनन्दन ।
सो चिता नलसिद्धस्य मांसस्य बहुश: पुरा ।। २२ ।।
कुरुनन्दन! केशिनीने वह फलोंका गूदा दमयन्तीको दे दिया। उसे पहले अनेक बार
नलके द्वारा उबाले हुए फलोंके गूदेके स्वादका अनुभव था ।। २२ ।।
प्राश्य मत्वा नल॑ सूंत प्राक्रोशद् भृशदु:खिता ।
वैक्लव्यं परम॑ गत्वा प्रक्षाल्य च मुखं ततः ।। २३ ।।
मिथुन प्रेषयामास केशिन्या सह भारत ।
इन्द्रसेनां सह भ्रात्रा समभिज्ञाय बाहुक: ।। २४ ।।
अभिद्रुत्य ततो राजा परिष्वज्याड्कमानयत् |
बाहुकस्तु समासाद्य सुतौ सुरसुतोपमौ ।। २५ ।।
भृशं दुःखपरीतात्मा सुस्वरं प्ररुरोद ह ।
नैषधो दर्शयित्वा तु विकारमसकृत् तदा ।
उत्सृज्य सहसो पुत्रौ केशिनीमिदमब्रवीत् ।। २६ ।।
उसे खाकर वह पूर्णरूपसे इस निश्चयपर पहुँच गयी कि बाहुक सारथि वास्तवमें राजा
नल हैं। फिर तो वह अत्यन्त दुखी होकर विलाप करने लगी। उस समय उसकी व्याकुलता
बहुत बढ़ गयी। भारत! फिर उसने मुँह धोकर केशिनीके साथ अपने बच्चोंको बाहुकके
पास भेजा। बाहुकरूपी राजा नलने इन्द्रसेना और उसके भाई इन्द्रसेनको पहचान लिया
और दौड़कर दोनों बच्चोंको छातीसे लगाकर गोदमें ले लिया। देवकुमारोंके समान उन दोनों
सुन्दर बालकोंको पाकर निषधराज नल अत्यन्त दुःखमग्न हो जोर-जोरसे रोने लगे। उन्होंने
बार-बार अपने मनोविकार दिखाये और सहसा दोनों बच्चोंको छोड़कर केशिनीसे इस
प्रकार कहा-- || २३--२६ ।।
हे पल |]
| | ।
08 | [ / । | न
इदं च सदृशं भद्ठे मिथुन मम पुत्रयो: ।
अतो दृष्टवैव सहसा बाष्पमुत्सृष्टवानहम् ।। २७ ।।
“भद्रे! ये दोनों बालक मेरे पुत्र और पुत्रीके समान हैं, इसीलिये इन्हें देखकर सहसा मेरे
नेत्रोंसे आँसू बहने लगे || २७ ।।
बहुश: सम्पतन्तीं त्वां जनः संकेतदोषतः ।
वयं च देशातिथयो गच्छ भद्रे यथासुखम् ।। २८ ।।
“भद्रे! तुम बार-बार आती-जाती हो, लोग किसी दोषकी आशंका कर लेंगे और
हमलोग इस देशके अतिथि हैं; अतः तुम सुखपूर्वक महलमें चली जाओ' || २८ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि कन्यापुत्रदर्शने
पडञ्चसप्ततितमो<ध्याय: ।। ७५ ||
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें नलका अपनी पुत्री और
पुत्रके देखनेसे सम्बन्ध रखनेवाला पचद्वत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ७५ ॥।
न
> 'मांस' शब्दका अर्थ 'संस्कृत-शब्दार्थ-कौस्तुभ' में फलका गूदा किया गया है।
षट्सप्ततितमो< ध्याय:
दमयन्ती और बाहुककी बातचीत, नलका प्राकट्य और
नल-दमयन्ती-मिलन
बृहदश्चव उवाच
सर्व विकार दृष्टवा तु पुण्यश्लोकस्य धीमत: ।
आगत्य केशिनी सर्व दमयन्त्यै न््यवेदयत् ।। १ ।।
बृहदश्व मुनि कहते हैं--युधिष्ठिर! परम बुद्धिमान् पुण्यश्लोक राजा नलके सम्पूर्ण
विकारोंको देखकर केशिनीने दमयन्तीको आकर बताया ।। १ |।
दमयन्ती ततो भूय: प्रेषयामास केशिनीम् ।
मानु: सकाशं दु:खार्ता नलदर्शनकाड्क्षया ।। २ ।।
अब दमयन्ती नलके दर्शनकी अभिलाषासे दुःखातुर हो गयी। उसने केशिनीको पुनः
अपनी माँके पास भेजा || २ ।।
परीक्षितो मे बहुशो बाहुको नलशड्कया ।
रूपे मे संशयस्त्वेक: स्वयमिच्छामि वेदितुम् ॥। ३ ।।
(और यह कहलाया--) “माँ! मेरे मनमें बाहुकके ही नलके होनेका संदेह था, जिसकी
मैंने बार-बार परीक्षा करा ली है और सब लक्षण तो मिल गये हैं। केवल नलके रूपमें संदेह
रह गया है। इस संदेहका निवारण करनेके लिये मैं स्वयं पता लगाना चाहती हूँ ।। ३ ।।
स वा प्रवेश्यतां मातर्मा वानुज्ञातुमहसि ।
विदितं वाथवा ज्ञातं॑ पितुर्मे संविधीयताम् ।। ४ ।।
“माताजी! या तो बाहुकको महलमें बुलाओ या मुझे ही बाहुकके निकट जानेकी आज्ञा
दो। तुम अपनी रुचिके अनुसार पिताजीसे सूचित करके अथवा उन्हें इसकी सूचना दिये
बिना इसकी व्यवस्था कर सकती हो” ।। ४ ।।
एवमुक्ता तु वैदर्भ्या सा देवी भीममब्रवीत् ।
दुहितुस्तमभिप्रायमन्वजानात् स पार्थिव: ।। ५ ।।
दमयन्तीके ऐसा कहनेपर महारानीने विदर्भनरेश भीमसे अपनी पुत्रीका यह अभिप्राय
बताया। सब बातें सुनकर महाराजने आज्ञा दे दी ।। ५ ।।
सा वै पित्राभ्यनुज्ञाता मात्रा च भरतर्षभ ।
नलं॑ प्रवेशयामास यत्र तस्या: प्रतिश्रय: ।। ६ ।।
तां सम दृष्टवैव सहसा दमयन्तीं नलो नृपः ।
आविष्ट: शोकदु:खाभ्यां बभूवाश्रुपरिप्लुत: ।। ७ ।।
भरतकुलभूषण! पिता और माताकी आज्ञा ले दमयन्तीने नलको राजभवनके भीतर
जहाँ वह स्वयं रहती थी, बुलवाया। दमयन्तीको सहसा सामने उपस्थित देख राजा नल
शोक और दु:खसे व्याप्त हो नेत्रोंसे आँसू बहाने लगे || ६-७ ।।
त॑ तु दृष्टवा तथायुक्तं दमयन्ती नलं तदा ।
तीव्रशोकसमाविष्टा बभूव वरवर्णिनी ।। ८ ।।
उस समय नलको उस अवस्थामें देखकर सुन्दरी दमयन्ती भी तीव्र शोकसे व्याकुल हो
गयी ।। ८ ।।
ततः काषायवसना जटिला मलपड्किनी ।
दमयन्ती महाराज बाहुकं वाक्यमत्रवीत् ।। ९ ।।
महाराज! तदनन्तर मलिन वस्त्र पहने, जटा धारण किये, मैल और पंकसे मलिन
दमयन्तीने बाहुकसे पूछा-- ।। ९ ।।
पूर्व दृष्टस्त्वया कश्चिद् धर्मज्ञो नाम बाहुक ।
सुप्तामुत्सृज्य विपिने गतो यः पुरुष: स्त्रियम् ।। १० ।।
“बाहुक! तुमने पहले किसी ऐसे धर्मज्ञ पुरुषको देखा है, जो अपनी सोयी हुई पत्नीको
वनमें अकेली छोड़कर चले गये थे ।। १० ।।
अनागसं प्रियां भार्या विजने श्रममोहिताम् ।
अपहाय तु को गच्छेत् पुण्यश्लोकमृते नलम् ।। ११ ।।
'पुण्यश्लोक महाराज नलके सिवा दूसरा कौन होगा, जो एकान्तमें थकावटके कारण
अचेत सोयी हुई अपनी निर्दोष प्रियतमा पत्नीको छोड़कर जा सकता हो ।। ११ ।।
किमु तस्य मया बाल्यादपराद्ध॑ महीपते: ।
यो मामुत्सृज्य विपिने गतवान् निद्रयार्दिताम् ।। १२ ।।
“न जाने उन महाराजका मैंने बचपनसे ही क्या अपराध किया था, जो नींदकी मारी हुई
मुझ असहाय अबलाको जंगलमें छोड़कर चल दिये ।। १२ ।।
साक्षाद् देवानपाहाय वृतो य: स पुरा मया |
अनुव्रतां साभिकामा पुत्रिणीं त्यक्तवान् कथम् ।। १३ ।।
“पहले स्वयंवरके समय साक्षात् देवताओंको छोड़कर मैंने उनका वरण किया था। मैं
उनकी अनुगत भक्त, निरन्तर उन्हें चाहनेवाली और पुत्रवती हूँ, तो भी उन्होंने कैसे मुझे
त्याग दिया? ।। १३ ।।
अग्नौ पार्णिं गृहीत्वा तु देवानामग्रतस्तथा ।
भविष्यामीति सत्य तु प्रतिश्रुत्य क्व तद् गतम् ।। १४ ।।
'“अग्निके समीप और देवताओंके समक्ष मेरा हाथ पकड़कर और “मैं तेरा ही अनुगत
होकर रहूँगा” ऐसी प्रतिज्ञा करके जिन्होंने मुझे अपनाया था, उनका वह सत्य कहाँ चला
गया?” ।। १४ ।।
दमयन्त्या ब्रुवन्त्यास्तु सर्वमेतदरिंदम ।
शोकजं वारि नेत्राभ्यामसुखं प्रास्रवद् बहु || १५ ।।
शत्रुदमन युधिष्ठिर! दमयन्ती जब ये सब बातें कह रही थी, उस समय नलके नेत्रोंसे
शोकजनित दुःखपूर्ण आँसुओंकी अजस््र धारा बहती जा रही थी ।। १५ ।।
अतीव कृष्णसाराशभ्यां रक्तान्ताभ्यां जल॑ तु तत्
परिस््रवन् नलो दृष्टवा शोकार्तामिदमब्रवीत् ।। १६ ।।
उनकी आँखोंकी पुतलियाँ काली थीं और नेत्रके किनारे कुछ-कुछ लाल थे। उनसे
निरन्तर अश्रुधारा बहाते हुए नलने दमयन्तीको शोकसे आतुर देख इस प्रकार कहा
-- || १६ ||
मम राज्यं प्रणष्टं यन्नाहं तत् कृतवान् स्वयम् ।
कलिना तत् कृतं भीरु यच्च त्वामहमत्यजम् ।। १७ ।।
'भीरु! मेरा जो राज्य नष्ट हो गया और मैंने जो तुम्हें त्याग दिया, वह सब कलियुगकी
करतूत थी। मैंने स्वयं कुछ नहीं किया था ।। १७ ।।
यत् त्वया धर्मकृच्छे तु शापेनाभिहत: पुरा ।
वनस्थया दुःखितया शोचन्त्या मां दिवानिशम् ।। १८ ।।
स मच्छरीरे त्वच्छापाद् दह्मुमानो&$वसत् कलि: ।
त्वच्छापदग्ध: सततं सो5ग्नावग्निरिवाहित: ।। १९ |।
“पहले जब तुम वनमें दुखी होकर दिन-रात मेरे लिये शोक करती थी और उस समय
धर्मसंकटमें पड़नेपर तुमने जिसे शाप दे दिया था, वही कलियुग मेरे शरीरमें तुम्हारी
शापग्निसे दग्ध होता हुआ निवास करता था, जैसे आगमें रखी हुई आग हो; उसी प्रकार
वह कलि तुम्हारे शापसे दग्ध हो सदा मेरे भीतर रहता था ।। १८-१९ ।।
मम च व्यवसायेन तपसा चैव निर्जित: ।
दुःखस्यान्तेन चानेन भवितव्यं हि नौ शुभे ॥। २० ।।
'शुभे! मेरे व्यवसाय (उद्योग) तथा तपस्यासे कलियुग परास्त हो चुका है। अतः अब
हमारे दुःखोंका अन्त हो जाना चाहिये ।। २० ।।
विमुच्य मां गत: पापस्ततो5हमिह चागत: ।
त्वदर्थ विपुलश्रोणि न हि मेडन्यत् प्रयोजनम् ।। २१ ।।
'सुन्दरी! पापी कलियुग मुझे छोड़कर चला गया, इसीसे मैं तुम्हारी प्राप्तिका उद्देश्य
लेकर यहाँ आया हूँ। इसके सिवा, मेरे आगमनका दूसरा कोई प्रयोजन नहीं है || २१ ।।
कथं नु नारी भर्तारमनुरक्तमनुव्रतम् ।
उत्सृज्य वरयेदन्यं यथा त्वं भीरु कहिचित् ।। २२ ।।
'भीरु! कोई भी स्त्री कभी अपने अनुरक्त एवं भक्त पतिको त्यागकर दूसरे पुरुषका
वरण कैसे कर सकती है? जैसा कि तुम करने जा रही हो || २२ ।।
दूताश्चरन्ति पृथिवीं कृत्स्नां नूपतिशासनात् ।
भेमी किल सम भर्तरं द्वितीयं वरयिष्यति ।। २३ ।।
“विदर्भनरेशकी आज्ञासे सारी पृथ्वीपर दूत विचरते हैं और यह घोषणा कर रहे हैं कि
दमयन्ती द्वितीय पतिका वरण करेगी ।। २३ ।।
स्वैरवृत्ता यथाकाममनुरूपमिवात्मन: ।
श्रुत्वैव चैवं त्वरितो भाड़ासुरिरुपस्थित: ।। २४ ।।
“दमयन्ती स्वेच्छाचारिणी है और अपनी रुचिके अनुसार किसी अनुरूप पतिका वरण
कर सकती है', यह सुनकर ही राजा ऋतुपर्ण बड़ी उतावलीके साथ यहाँ उपस्थित हुए
हैं! || २४ ।।
दमयन्ती तु तच्छुत्वा नलस्य परिदेवितम् ।
प्राउजलिवेपमाना च भीता वचनमत्रवीत् ।। २५ ।।
दमयन्ती नलका यह विलाप सुनकर काँप उठी और भयभीत हो हाथ जोड़कर यह
वचन बोली || २५ ।।
दमयन्त्युवाच
न मा्महसि कल्याण दोषेण परिशड्कितुम् ।
मया हि देवानुत्सृज्य वृतस्त्वं निषधाधिप ।। २६ ।।
दमयन्तीने कहा--कल्याणमय निषधनरेश! आपको मुझपर दोषारोपण करते हुए मेरे
चरित्रपर संदेह नहीं करना चाहिये। (आपके प्रति अनन्य प्रेमके कारण ही) मैंने देवताओंको
छोड़कर आपका वरण किया है ।। २६ ।।
तवाभिगमनार्थ तु सर्वतो ब्राह्मणा गता: ।
वाक्यानि मम गाथाभिग्गायमाना दिशो दश || २७ ।।
आपका पता लगानेके लिये ही चारों ओर ब्राह्मणलोग भेजे गये और वे मेरी कही हुई
बातोंको सब दिशाओंमें गाथाके रूपमें गाते फिरे | २७ ।।
ततत्त्वां ब्राह्मणो विद्वान् पर्णादो नाम पार्थिव ।
अभ्यगच्छत् कोसलायामृतुपर्णनिवेशने ।। २८ ।।
राजन! इसी योजनाके अनुसार पर्णाद नामक दिद्दान् ब्राह्मण अयोध्यापुरीमें ऋतुपर्णके
राजभवनमें गये थे ।।
तेन वाक्ये कृते सम्यक् प्रतिवाक्ये तथा$56वते ।
उपायो<यं मया दृष्टो नैषधानयने तव ।। २९ ।।
उन्होंने वहाँ मेरी बात उपस्थित की और वहाँसे आपके द्वारा प्राप्त हुआ ठीक-ठीक
उत्तर वे ले आये। निषधराज! इसके बाद आपको यहाँ बुलानेके लिये मुझे यह उपाय सूझा
(कि एक ही दिनके बाद होनेवाले स्वयंवरका समाचार देकर ऋतुपर्णको बुलाया
जाय) ।। २९ ।।
त्वामृते न हि लोकेडन्य एकाह्वा पृथिवीपते ।
समर्थो योजनशतं गन्तुम श्वैर्नराधिप ।। ३० ।।
नरेश्वर! पृथ्वीनाथ! मैं यह अच्छी तरह जानती हूँ कि इस जगत्में आपके सिवा दूसरा
कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो एक ही दिनमें घोड़े जुते हुए रथकी सवारीसे सौ योजन दूरतक
जानेमें समर्थ हो || ३० ।।
स्पृशेयं तेन सत्येन पादावेतौ महीपते ।
यथा नासत्कृतं किंचिन्मनसापि चराम्यहम् ।। ३१ ।।
महीपते! मैं मनसे भी कभी कोई असदाचरण नहीं करती हूँ और इसी सत्यकी शपथ
खाकर आपके इन दोनों चरणोंका स्पर्श करती हूँ ।। ३१ ।।
अयं चरति लोके5स्मिन् भूतसाक्षी सदागति: ।
एष मे मुछ्चतु प्राणान् यदि पापं चराम्यहम् ।। ३२ ।।
ये सदा गतिशील वायुदेवता इस जगत्में निरन्तर विचरते रहते हैं, अतः ये सम्पूर्ण
भूतोंके साक्षी हैं। यदि मैंने पाप किया है तो ये मेरे प्राणोंका हरण कर लें ।। ३२ ।।
यथा चरति तिग्मांशु: परेण भुवनं सदा |
स मुञ्चतु मम प्राणान् यदि पापं चराम्यहम् ।। ३३ ।।
प्रचण्ड किरणोंवाले सूर्यदेव समस्त भुवनोंके ऊपर विचरते हैं, (अतः वे भी सबके
शुभाशुभ कर्म देखते रहते हैं।) यदि मैंने पाप किया है तो ये मेरे प्राणोंका हरण कर
लें ।। ३३ ।।
चन्द्रमा: सर्वभूतानामन्तश्चरति साक्षिवत् |
स मुञ्चतु मम प्राणान् यदि पापं चराम्यहम् ।। ३४ ।।
चित्तके अभिमानी देवता चन्द्रमा समस्त प्राणियोंके अन्तःकरणमें साक्षीरूपसे विचरते
हैं। यदि मैंने पाप किया है तो वे मेरे प्राणोंका हरण कर लें ।। ३४ ।।
एते देवास्त्रय: कृत्स्नं त्रैलोक्यं धारयन्ति वै ।
विल्लुवन्तु यथा सत्यमेतद् देवास्त्यजन्तु माम् ।। ३५ |।
ये पूर्वोक्त तीन देवता सम्पूर्ण त्रिलोकीको धारण करते हैं। मेरे कथनमें कितनी सचाई
है, इसे देवतालोग स्वयं स्पष्ट करें। यदि मैं झूठ बोलती हूँ तो देवता मेरा त्याग कर
दें ।। ३५ ।।
एवमुक्तस्तथा वायुरन्तरिक्षादभाषत ।
नैषा कृतवती पापं नल सत्य ब्रवीमि ते ।। ३६ ।।
दमयन्तीके ऐसा कहनेपर अन्तरिक्षलोकसे वायु-देवताने कहा--“नल! मैं तुमसे सत्य
कहता हूँ, इस दमयन्तीने कभी कोई पाप नहीं किया है | ३६ ।।
राजज्छीलनिधि: स्फीतो दमयन्त्या सुरक्षित: ।
साक्षिणो रक्षिणश्चास्या वयं त्रीन् परिवत्सरान् ।। ३७ ।।
“राजन! दमयन्तीने अपने शीलकी उज्ज्वल निधिको सदा सुरक्षित रखा है। हमलोग
तीन वर्षोतक निरन्तर इसके रक्षक और साक्षी रहे हैं || ३७ ।।
उपायो विहितश्चायं त्वदर्थमतुलो5नया ।
न होकाह्वा शतं गन्ता त्वामृतेडन्य: पुमानिह ।। ३८ ।।
“तुम्हारी प्राप्तिके लिये दमयन्तीने यह अनुपम उपाय ढूँढ़ निकाला था; क्योंकि इस
जगतमें तुम्हारे सिवा दूसरा कोई पुरुष नहीं है, जो एक दिनमें सौ योजन (रथद्वारा) जा
सके ।। ३८ ।।
उपपन्ना त्वया भैमी त्वं च भैम्या महीपते ।
नात्र शड़्का त्वया कार्या संगच्छ सह भार्यया ।। ३९ ।।
“राजन! भीमकुमारी दमयन्ती तुम्हारे योग्य है और तुम दमयन्तीके योग्य हो। तुम्हें
इसके चरित्रके विषयमें कोई शंका नहीं करनी चाहिये। तुम अपनी पत्नीसे निःशंक होकर
मिलो” ।। ३९ |।
तथा ब्रुवति वायौ तु पुष्पवृष्टि: पपात ह ।
देवदुन्दुभयो नेदुर्ववी च पवन: शिव: ।। ४० ।।
वायुदेवके ऐसा कहते समय आकाशसे फूलोंकी वर्षा हो रही थी, देवताओंकी
दुन्दुभियाँ बज रही थीं और मंगलमय पवन चलने लगा ।। ४० ।।
तदद्भुतमयं दृष्टवा नलो राजाथ भारत |
दमयन्त्यां विशड्कां तामुपाकर्षदरिंदम: ।। ४१ ।।
युधिष्ठि!! यह अद्भुत दृश्य देखकर शत्रुसूदन राजा नलने दमयन्तीके विरुद्ध होनेवाली
शंकाको त्याग दिया ।। ४१ ।।
ततस्तदू वस्त्रमजरं प्रावणोद् वसुधाधिप: ।
संस्मृत्य नागराजं तं ततो लेभे स्वकं वपु: ।। ४२ ।।
तदनन्तर उन भूपालने नागराज कर्कोटकका स्मरण करके उसके दिये हुए अजीर्ण
वस्त्रको ओढ़ लिया। उससे उन्हें अपने पूर्वस्वरूपकी प्राप्ति हो गयी ।। ४२ ।।
स्वरूपिणं तु भर्तरें दृष्टवा भीमसुता तदा ।
प्राक्रोशदुच्चैरालिड्र्य पुण्यश्लोकमनिन्दिता ।। ४३ ।।
अपने वास्तविक रूपमें प्रकट हुए अपने पतिदेव पुण्यश्लोक महाराज नलको देखकर
सती साध्वी दमयन्ती उनके हृदयसे लगकर उच्च स्वरसे रोने लगी ।। ४३ ।।
भैमीमपि नलो राजा भ्राजमानो यथा पुरा ।
ससस््वजे स्वसुतौ चापि यथावतृ प्रत्यनन्दत ।। ४४ ।।
राजा नलका रूप पहलेकी ही भाँति ही प्रकाशित हो रहा था। उन्होंने भी दमयन्तीको
छातीसे लगा लिया और अपने दोनों बालकोंको भी प्यार-दुलार करके प्रसन्न
किया ।। ४४ ।।
ततः स्वोरसि विन्यस्य वक्त्रं तस्य शुभानना |
परीता तेन दुःखेन नि:शश्वासायतेक्षणा ।। ४५ ।।
तत्पश्चात् सुन्दर मुख और विशाल नेत्रोंवाली दमयन्ती नलके मुखको अपने
वक्ष:स्थलपर रखकर दु:खसे व्याकुल हो लंबी साँसे खींचने लगी || ४५ ।।
तथैव मलदिग्धाजुीं परिष्वज्य शुचिस्मिताम् ।
सुचिरं पुरुषव्याप्रस्तस्थौ शोकपरिप्लुत: ।। ४६ ।।
इसी प्रकार पवित्र मुसकान तथा मैलसे भरे हुए अंगोंवाली दमयन्तीको हृदयसे लगाकर
पुरुषसिंह नल बहुत देरतक शोकमग्न खड़े रहे || ४६ ।।
ततः सर्व यथावृत्तं दमयन्त्या नलस्य च ।
भीमायाकथयतु प्रीत्या वैदर्भ्या जननी नूप ।। ४७ ।।
“राजन! तदनन्तर (दमयन्तीके द्वारा मालूम होनेपर) दमयन्तीकी माताने अत्यन्त
प्रसन्नतापूर्वक राजा भीमसे नल-दमयन्तीका सारा वृत्तान्त यथावत् कह सुनाया" ।। ४७ ।।
ततोड<ब्रवीन्महाराज: कृतशौचमहं नलम् |
दमयन्त्या सहोपेतं कल्ये द्रष्टा सुखोषितम् ।। ४८ ।।
तब महाराज भीमने कहा--“आज नलको सुखपूर्वक यहीं रहने दो। कल सबेरे स्नान
आदिसे शुद्ध हुए दमयन्तीसहित नलसे मैं मिलूँगा” || ४८ ।।
ततस्तौ सहितौ रात्रिं कथयन्तौ पुरातनम् |
वने विचरितं सर्वमूषतुर्मुदिती नूप ।। ४९ ।।
राजन! तत्पश्चात् वे दोनों दम्पति रातभर वनमें रहनेकी पुरानी घटनाओंको एक-दूसरेसे
कहते हुए प्रसन्नतापूर्वक एक साथ रहे ।। ४९ ।।
गृहे भीमस्य नृपते: परस्परसुखैषिणौ |
वसेतां हृष्टसंकल्पौ वैदर्भी च नलश्ष ह ।। ५० ।।
एक-दूसरेको सुख देनेकी इच्छा रखनेवाले दमयन्ती और नल राजा भीमके महलमें
प्रसन्नचित्त होकर रहे || ५० ।।
स चतुर्थे ततो वर्षे संगम्य सह भार्यया ।
सर्वकामै: सुसिद्धार्थो लब्धवान् परमां मुदम् || ५१ ।।
चौथे वर्षमें अपनी प्यारी पत्नीसे मिलकर सम्पूर्ण कामनाओंसे सफलमनोरथ हो नल
अत्यन्त आनन्दमें निमग्न हो गये || ५१ ।।
दमयन्त्यपि भर्तारमासाद्याप्यायिता भृशम् |
अर्धसंजातसस्येव तोयं प्राप्प वसुंधरा || ५२ ।।
जैसे आधी जमी हुई खेतीसे भरी वसुधा वर्षाका जल पाकर उल्लसित हो उठती है,
उसी प्रकार दमयन्ती भी अपने पतिको पाकर बहुत संतुष्ट हुई || ५२ ।।
सैवं समेत्य व्यपनीय तन््द्रां
शान्तज्वरा हर्षविवृद्धसत्त्वा ।
रराज भैमी समवाप्तकामा
शीतांशुना रात्रिरिवोदितेन ।। ५३ ।।
जैसे चन्द्रोदयसे रात्रिकी शोभा बढ़ जाती है, उसी प्रकार भीमकुमारी दमयन्ती पतिसे
मिलकर आलस्यका त्याग करके निश्चिन्त और हर्षोल्लसित हृदयसे पूर्णकाम होकर अत्यन्त
शोभा पाने लगी ।। ५३ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि नलदमयन्तीसमागमे
षट्सप्ततितमो<्ध्याय: || ७६ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें नलदमयन्तीसमागमविषयक
छिह्त्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ७६ ॥
हि >> आय न () हि 7 आय
सप्तसप्ततितमो<ध्याय:
नलके प्रकट होनेपर विदर्भनगरमें महान् उत्सवका
आयोजन, 3453? (के पर्णके साथ नलका वार्तालाप और
ऋतुपर्णका अश्वविद्या सीखकर अयोध्या जाना
बृहृदश्च उवाच
अथ तां व्युषितो रात्रिं नलो राजा स्वलंकृतः ।
वैदर्भ्या सहितः काले ददर्श वसुधाधिपम् ।। १ ।।
बृहदश्वच मुनि कहते हैं--युधिष्ठि!! तदनन्तर वह रात बीतनेपर राजा नल
वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत हो दमयन्तीके साथ यथासमय राजा भीमसे मिले ।। १ ।।
ततो5भिवादयामास प्रयत: श्वशुरं नल: ।
ततो<5नु दमयन्ती च ववन्दे पितरं शुभा ।। २ ।।
स्नानादिसे पवित्र हुए राजा नलने विनीतभावसे श्वशुरको प्रणाम किया। तत्पश्चात्
शुभलक्षणा दमयन्तीने भी पिताकी वन्दना की || २ ।।
तं॑ भीम: प्रतिजग्राह पुत्रवत् परया मुदा ।
यथाहँ पूजयित्वा च समाश्चासयत प्रभु: ॥। ३ ।।
नलेन सहितां तत्र दमयन्तीं पतिव्रताम् ।
राजा भीमने बड़ी प्रसन्नताके साथ नलको पुत्रकी भाँति अपनाया और नलसहित
पतिव्रता दमयन्तीका यथायोग्य आदर-सत्कार करके उन्हें आश्वासन दिया || ३ $ ।।
तामर्हणां नलो राजा प्रतिगृह्य यथाविधि ।। ४ ।।
परिचर्या स्वकां तस्मै यथावत् प्रत्यवेदयत् ।
ततो बभूव नगरे सुमहान् हर्षज: स्वनः ।। ५ ।।
जनस्य सम्प्रहृष्टस्य नलं दृष्टवा तथा55गतम् ।
राजा नलने उस पूजाको विधिपूर्वक स्वीकार करके अपनी ओरसे भी श्वशुरका सेवा-
सत्कार किया। तदनन्तर विदर्भनगरमें राजा नलको इस प्रकार आया देख हर्षोल्लासमें भरी
हुई जनताका महान् आनन्दजनित कोलाहल होने लगा ।। ४-५६ ।।
अशोभयच्च नगरं पताकाध्वजमालिनम् ।। ६ ।।
सिक्ता: सुमृष्टपुष्पाब्या राजमार्गा: स्वलंकृता: ।
द्वारि द्वारि च पौराणां पुष्पभड़: प्रकल्पित: ।। ७ ।।
विदर्भनरेशने ध्वजा, पताकाओंकी पंक्तियोंसे कुण्डिनपुरको अद्भुत शोभासे सम्पन्न
किया। सड़कोंको खूब झाड़-बुहारकर उनपर छिड़काव किया गया था। फूलोंसे उन्हें अच्छी
तरह सजाया गया था। पुरवासियोंके द्वार-द्वारपर सुगंध फैलानेके लिये राशि-राशि फूल
बिखेरे गये थे ।। ६-७ ।।
अर्चितानि च सर्वाणि देवतायतनानि च ।
ऋतुपर्णोडपि शुभ्राव बाहुकच्छझिनं नलम् ।। ८ ।।
दमयन्त्या समायुक्तं जहषे च नराधिप: ।
सम्पूर्ण देवमन्दिरोंकी सजावट और देवमूर्तियोंकी पूजा की गयी थी। राजा ऋतुपर्णने
भी जब यह सुना कि बाहुकके वेषमें राजा नल ही थे और अब वे दमयन्तीसे मिले हैं, तब
उन्हें बड़ा हर्ष हुआ || ८६ ||
तमानाय्य नलं राजा क्षमयामास पार्थिवम् ।। ९ ।।
उन्होंने राजा नलको बुलवाकर उनसे क्षमा माँगी ।। ९ ।।
सचतंकक्षमयामास हेतुभिरद्धिसम्मित: ।
स सत्कृतो महीपालो नैषध॑ं विस्मितानन: ।। १० ।।
उवाच वाक्य तत्त्वज्ञो नैषधं वदतां वर: ।
बुद्धिमान् नलने भी अनेक युक्तियोंद्वारा उनसे क्षमा-याचना की। नलसे आदर-सत्कार
पाकर वक्ताओंमें श्रेष्ठ एवं तत्त्वज्ञ राजा ऋतुपर्ण मुसकराते हुए मुखसे बोले-- ।। १० $ ।।
दिष्ट्या समेतो दारै: स्वैर्भवानित्यभ्यनन्दत ।। ११ ।।
“निषधनरेश! यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि आप अपनी बिछुड़ी हुई पत्नीसे मिले।'
ऐसा कहकर उन्होंने नलका अभिनन्दन किया || ११ ।।
किंचित् तु नापराधं ते कृतवानस्मि नैषध ।
अज्ञातवासे वसतो मद्गृहे वसुधाधिप ।। १२ ।।
(और पुनः कहा--) “नैषध! भूपालशिरोमणे! आप मेरे घरपर जब अज्ञातवासकी
अवस्थामें रहते थे, उस समय मैंने आपका कोई अपराध तो नहीं किया है? ।। १२ ।।
यदि वाबुद्धिपूर्वाणि यदि बुद्धयापि कानिचित् |
मया कृतान्यकार्याणि तानि व्वं क्षन्तुमहसि ।। १३ ।।
“उन दिनों यदि मैंने बिना जाने या जान-बूझकर आपके साथ अनुचित बर्ताव किये हों
तो उन्हें आप क्षमा कर दें! ।। १३ ।।
नल उवाच
न मे5पराध॑ कृतवांस्त्वं स्वल्पमपि पार्थिव ।
कृते5डपि च न मे कोप: क्षन्तव्यं हि मया तव ।। १४ ।।
नलने कहा--'राजन्! आपने मेरा कभी थोड़ासा भी अपराध नहीं किया है और यदि
किया भी हो तो उसके लिये मेरे हृदयमें क्रोध नहीं है। मुझे आपके प्रत्येक बर्तावको क्षमा ही
करना चाहिये” ।। १४ ।।
पूर्व ह्ूपि सखा मे5सि सम्बन्धी च जनाधिप ।
अत ऊर्ध्व॑ तु भूयस्त्वं प्रीतिमाहर्तुमहसि ।। १५ ।।
जनेश्वरर आप पहले भी मेरे सखा और सम्बन्धी थे और इसके बाद भी आपको
मुझपर अधिक-से-अधिक प्रेम रखना चाहिये ।। १५ ।।
सर्वकामै: सुविहितै: सुखमस्म्युषितस्त्वयि |
न तथा स्वगृहे राजन् यथा तव गृहे सदा ।। १६ ।।
राजन! मेरी समस्त कामनाएँ वहाँ अच्छी तरह पूर्ण की गयीं और इसके कारण मैं सदा
आपके यहाँ सुखी रहा। महाराज! आपके भवनमें मुझे जैसा आराम मिला, वैसा अपने
घरमें भी नहीं मिला || १६ ।।
इदं चैव हयज्ञानं त्वदीयं मयि तिष्ठति ।
तदुपाकर्तुमिच्छामि मन्यसे यदि पार्थिव ।
एवमुकक््त्वा ददौ विद्यामृतुपर्णाय नैषध: ।। १७ ।।
आपका अभश्वविज्ञान मेरे पास धरोहरके रूपमें पड़ा है। राजन! यदि आप ठीक समझें
तो मैं उसे आपको देनेकी इच्छा रखता हूँ। ऐसा कहकर निषधराज नलने ऋतुपर्णको
अश्वविद्या प्रदान की || १७ ।।
सचतां प्रतिजग्राह विधिदृष्टेन कर्मणा |
गृहीत्वा चाश्वह्नदयं राजन् भाज़ासुरिनृप: ।। १८ ।।
निषधाधिपतेश्वापि दत्त्वाक्षहददयं नृप: ।
सूतमन्यमुपादाय ययौ स्वपुरमेव ह ।। १९ ।।
युधिष्ठिर! ऋतुपर्णने भी शास्त्रीय विधिके अनुसार उनसे अश्वविद्या ग्रहण की। अश्वोंका
रहस्य ग्रहण करके और निषधनरेश नलको पुनः द्यूतविद्याका रहस्य समझाकर दूसरा
सारथि साथ ले राजा ऋतुपर्ण अपने नगरको चले गये ।। १८-१९ ।।
ऋतुपर्णे गते राजन् नलो राजा विशाम्पते ।
नगरे कुण्डिने काल॑ नातिदीर्घमिवावसत् ।। २० ।।
राजन! ऋतुपर्णके चले जानेपर राजा नल कुण्डिनपुरमें कुछ समयतक रहे। वह काल
उन्हें थोड़े समयके समान ही प्रतीत हुआ ।। २० ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि ऋतुपर्णस्वदेशगमने
सप्तसप्ततितमो<ध्याय: ।। ७७ ||
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें ऋतुपर्णका
स्वदेशगमनविषयक सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ७७ ॥
हि मय ० (0) है ०
अष्टसप्ततितमो< ध्याय:
राजा नलका की आ जूएमें हताना और उसको
राजधानीमें अपने नगरमें प्रवेश करना
बृहदश्चव उवाच
स मासमुष्य कौन्तेय भीममामन्त्र्य नैषध: ।
पुरादल्पपरीवारो जगाम निषधान् प्रति ॥। १ ।।
बृहदश्व मुनि कहते हैं-युधिष्ठिर! निषध-नरेश एक मासतक कुण्डिनपुरमें रहकर
राजा भीमकी आज्ञा ले थोड़े-से सेवकोंसहित वहाँसे निषधदेशकी ओर प्रस्थित हुए ।। १ ।।
रथेनैकेन शुभ्रेण दन्तिभि: परिषोडशै: ।
पज्चाशद्/ि्यैश्वेव षघट्शतैश्व पदातिभि: ।। २ ।।
उनके साथ चारों ओरसे सोलह हाथियोंद्वारा घिरा हुआ एक सुन्दर रथ, पचास घोड़े
और छः: सौ पैदल सैनिक थे ।। २ ।।
स कम्पयन्न्रिव महीं त्वरमाणो महीपति: ।
प्रविवेशाथ संरब्धस्तरसैव महामना: ।। ३ ।।
महामना राजा नलने इन सबके द्वारा पृथ्वीको कम्पित-सी करते हुए बड़ी उतावलीके
साथ रोषावेशमें भरे वेगपूर्वक निषधदेशकी राजधानीमें प्रवेश किया ।। ३ ।।
ततः पुष्करमासाद्य वीरसेनसुतो नल: ।
उवाच दीव्याव पुनर्बहुवित्तं मयार्जितम् ।। ४ ।।
दमयन्ती च यच्चान्यन्मम किंचन विद्यते |
एष वै मम संन्यासस्तव राज्यं तु पुष्कर || ५ ।।
पुन: प्रवर्ततां द्यूतमिति मे निश्चिता मति: ।
एकपाणेन भद्रं ते प्राणयोश्व॒ पणावहे ।। ६ ।।
तदनन्तर वीरसेनपुत्र नलने पुष्करके पास जाकर कहा--“अब हम दोनों फिरसे जूआ
खेलें। मैंने बहुत धन प्राप्त किया है। दमयन्ती तथा अन्य जो कुछ भी मेरे पास है, यह सब
मेरी ओरसे दाँवपर लगाया जायगा और पुष्कर! तुम्हारी ओरसे सारा राज्य ही दाँवपर रखा
जायगा। इस एक पणके साथ हम दोनोंमें फिर जूएका खेल प्रारम्भ हो, यह मेरा निश्चित
विचार है। तुम्हारा भला हो, यदि ऐसा न कर सको तो हम दोनों अपने प्राणोंकी बाजी
लगावें ।। ४--६ ।।
जित्वा परस्वमाहृत्य राज्यं वा यदि वा वसु ।
प्रतिपाण: प्रदातव्य: परमो धर्म उच्यते ।। ७ ।।
'जूएके दाँवमें दूसरेका राज्य या धन जीतकर रख लिया जाय तो उसे यदि वह पुनः
खेलना चाहे तो प्रतिपण (बदलेका दाव) देना चाहिये, यह परम धर्म कहा गया है ।। ७ ।।
न चेद् वाञ्छसि त्वं द्यूतं युद्धद्यूत॑ प्रवर्तताम् ।
द्वैरथेनास्तु वै शान्तिस्तव वा मम वा नृप ।। ८ ।।
“यदि तुम पासोंसे जूआ खेलना न चाहो तो बाणोंद्वारा युद्धका जूआ प्रारम्भ होना
चाहिये। राजन! द्वैरथयुद्धके द्वारा तुम्हारी अथवा मेरी शान्ति हो जाय ।। ८ ।।
वंशभोज्यमिदं राज्यमर्थितव्यं यथा तथा ।
येन केनाप्युपायेन वृद्धानामिति शासनम् ।। ९ ।।
“यह राज्य हमारी वंशपरम्पराके उपभोगमें आनेवाला है। जिस-किसी उपायसे भी
जैसे-तैसे इसका उद्धार करना चाहिये; ऐसा वृद्ध पुरुषोंका उपदेश है ।। ९ ।।
द्वयोरेकतरे बुद्धि: क्रियतामद्य पुष्कर ।
कैतवेनाक्षवत्यां तु युद्धे वा ना ताम्यतां धनु: ।॥ १० ॥।
“पुष्कर! आज तुम दोमेंसे एकमें मन लगाओ। छलपूर्वक जूआ खेलो अथवा युद्धके
लिये धनुषपर प्रत्यज्चा चढ़ाओ” ।। १० ।।
नैषधेनैवमुक्तस्तु पुष्कर: प्रहसन्निव ।
ध्रुवमात्मजयं मत्वा प्रत्याह पृथिवीपतिम् ।। ११ ।।
निषधराज नलके ऐसा कहनेपर पुष्करने अपनी विजयको अवश्यम्भावी मानकर हँसते
हुए उनसे कहा-- || ११ ।।
दिष्ट्या त्वयार्जित वित्त प्रतिपाणाय नैषध ।
दिष्ट्या च दुष्कृतं कर्म दमयन्त्या: क्षयं गतम् ।। १२ ।।
“नैषध! सौभाग्यकी बात है कि तुमने दाँवपर लगानेके लिये धनका उपार्जन कर लिया
है। यह भी आनन्दकी बात है कि दमयन्तीके दुष्कर्मोंका क्षय हो गया ।। १२ ।।
दिष्ट्या च प्रियसे राजन् सदारोउद्य महाभुज |
धनेनानेन वै भेमी जितेन समलंकृता ।। १३ ।।
मामुपस्थास्यति व्यक्त दिवि शक्रमिवाप्सरा: ।
नित्यशो हि स्मरामि त्वां प्रतीक्षेषपि च नैषध ।। १४ ।।
“महाबाहु नरेश! सौभाग्यसे तुम पत्नीसहित अभी जीवित हो। इसी धनको जीत
लेनेपर दमयन्ती शृंगार करके निश्चय ही मेरी सेवामें उपस्थित होगी, ठीक उसी तरह, जैसे
स्वर्गलोककी अप्सरा देवराज इन्द्रकी सेवामें जाती है। नैषध! मैं प्रतिदिन तुम्हारी याद
करता हूँ और तुम्हारी राह भी देखा करता हूँ || १३-१४ ।।
देवनेन मम प्रीतिर्न भवत्यसुहद्रणै: ।
जित्वा त्वद्य वरारोहां दमयन्तीमनिन्दिताम् ।। १५ ।।
कृतकृत्यो भविष्यामि सा हि मे नित्यशो हृदि ।
'शत्रुओंके साथ जूआ खेलनेसे मुझे कभी तृप्ति ही नहीं होती। आज श्रेष्ठ अंगोंवाली
अनिन्द्य सुन्दरी दमयन्तीको जीतकर मैं कृतार्थ हो जाऊँगा; क्योंकि वह सदा मेरे
हृदयमन्दिरमें निवास करती है” ।। १५३ ।।
श्रुत्वा तु तस्य वा वाचो बह्नबद्धप्रलापिन: ।। १६ ।।
इयेष स शिरश्छेत्तुं खड्गेन कुपितो नल: ।
स्मयंस्तु रोषताम्राक्षस्तमुवाच नलो नृप: ।। १७ ।।
इस प्रकार बहुत-से असम्बद्ध प्रलाप करनेवाले पुष्करकी ये बातें सुनकर राजा नलको
बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने तलवारसे उसका सिर काट लेनेकी इच्छा की। रोषसे उनकी आँखें
लाल हो गयीं तो भी राजा नलने हँसते हुए उससे कहा-- || १६-१७ ।।
पणाव: किं व्याहरसे जितो न व्याहरिष्यसि ।
ततः प्रावर्तत द्यूतं पुष्करस्य नलस्य च ।। १८ ।।
एकपाणेन वीरेण नलेन स पराजित: ।
स रत्नकोशनिचयै: प्राणेन पणितो5पि च ।। १९ ।।
“अब हम दोनों जूआ प्रारम्भ करें, तुम अभी व्यर्थ बकवाद क्यों करते हो? हार जानेपर
ऐसी बातें न कर सकोगे।” तदनन्तर पुष्कर तथा राजा नलमें एक ही दाँव लगानेकी शर्त
रखकर जूएका खेल प्रारम्भ हुआ। तब वीर नलने पुष्करको हरा दिया। पुष्करने रत्न,
खजाना तथा प्राणोंतककी बाजी लगा दी थी || १८-१९ ।।
जित्वा च पुष्करं राजा प्रहसन्निदमब्रवीत् ।
मम सर्वमिदं राज्यमव्यग्रं हतकण्टकम् ।। २० ।।
वैदर्भी न त्वया शक््या राजापसद वीक्षितुम् |
तस्यास्त्वं सपरीवारो मूढ दासत्वमागत: ।। २१ ।।
पुष्करको परास्त करके राजा नलने हँसते हुए उससे कहा--“नृपाधम! अब यह शान्त
और अकण्टक सारा राज्य मेरे अधिकारमें आ गया। विदर्भकुमारी दमयन्तीकी ओर तू
आँख उठाकर देख भी नहीं सकता। मूर्ख! आजसे तू परिवारसहित दमयन्तीका दास हो
गया ।। २०-२१ ।।
न त्वया तत् कृतं कर्म येनाहं विजित: पुरा ।
कलिना तत् कृतं कर्म त्वं च मूढ न बुध्यसे ॥। २२ ।।
'पहले तेरे द्वारा जो मैं पराजित हो गया था, उसमें तेरा कोई पुरुषार्थ नहीं था। मूढ़!
वह सब कलियुगकी करतूत थी, जिसे तू नहीं जानता है || २२ ।।
नाहं परकृतं दोषं त्वय्याधास्थे कथंचन ।
यथासुखं वै जीव त्वं प्राणानवसृजामि ते ।। २३ ।।
“दूसरे (कलियुग)-के किये हुए अपराधको मैं किसी तरह तेरे मत्थे नहीं मदूँगा। तू
सुखपूर्वक जीवित रह। मैं तेरे प्राण तुझे वापस देता हूँ |। २३ ।।
तथैव सर्वसम्भारं स्वमंशं वितरामि ते ।
तथैव च मम प्रीतिस्त्वयि वीर न संशय: ।। २४ ।।
“तेरा सारा सामान और तेरे हिस्सेका धन भी तुझे लौटाये देता हूँ। वीर! तेरे ऊपर मेरा
पूर्ववत् प्रेम बना रहेगा, इसमें संशय नहीं है ।। २४ ।।
सौहार्द चापि मे त्वत्तो न कदाचित् प्रहास्यति ।
पुष्कर त्वं हि मे भ्राता संजीव शरद: शतम् ।। २५ ।।
तेरे प्रति जो मेरा सौहार्द रहा है, वह कभी मेरे हृदयसे दूर नहीं होगा। पुष्कर! तू मेरा
भाई है, जा, सौ वर्षोतक जीवित रह” ।। २५ ।।
एवं नल: सान्त्वयित्वा भ्रातरं सत्यविक्रम: ।
स्वपुरं प्रेषयामास परिष्वज्य पुन: पुन: ।। २६ ।।
इस प्रकार सत्यपराक्रमी राजा नलने अपने भाई पुष्करको सान्त्वना दे बार-बार
हृदयसे लगाकर उसकी राजधानीको भेज दिया || २६ ।।
सान्त्वितो नैषधेनैवं पुष्कर: प्रत्युवाच तम्
पुण्यश्लोकं तदा राजन्नभिवाद्य कृताउ्जलि: ।। २७ ।।
कीर्तिरस्तु तवाक्षय्या जीव वर्षशतं सुखी ।
यो मे वितरसि प्राणानधिष्ठानं च पार्थिव ।। २८ ।।
राजन्! निषधराजके इस प्रकार सान्त्वना देनेपर पुष्करने पुण्यश्लोक नलको हाथ
जोड़कर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा--'पृथ्वीनाथ! आप जो मुझे प्राण और
निवासस्थान भी वापस दे रहे हैं, इससे आपकी अक्षय कीर्ति बनी रहे। आप सौ वर्षोंतक
जीयें और सुखी रहें" || २७-२८ ।।
स तथा सत्कृतो राज्ञा मासमुष्य तदा नृप ।
प्रययौ पुष्करो हृष्ट:स्वपुरं स्वजनावृत: ।। २९ ।।
महत्या सेनया सार्ध विनीतै: परिचारकै: ।
भ्राजमान इवादित्यो वपुषा पुरुषर्षभ ।। ३० ।।
नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर! राजा नलके द्वारा इस प्रकार सत्कार पाकर पुष्कर एक मासतक वहाँ
टिका रहा और फिर आत्मीय जनोंके साथ प्रसन्नतापूर्वक अपनी राजधानीको चला गया।
उसके साथ विशाल सेना और विनयशील सेवक भी थे। वह शरीरसे सूर्यकी भाँति प्रकाशित
हो रहा था ।। २९-३० ।।
प्रस्थाप्य पुष्करं राजा वित्तवन्तमनामयम् |
प्रविवेश पुरं श्रीमानत्यर्थमुपशोभिताम् ।। ३१ ।।
पुष्करको धन--वित्तके साथ सकुशल घर भेजकर श्रीमान् राजा नलने अपने अत्यन्त
शोभासम्पन्न नगरमें प्रवेश किया ।। ३१ ।।
प्रविश्य सान्त्वयामास पौरांक्षु निषधाधिप: ।
पौरा जानपदाश्चापि सम्प्रहृष्टतनूरूहा: ।। ३२ ।।
प्रवेश करके निषधनरेशने पुरवासियोंको सान्त्वना दी। नगर और जनपदके लोग बड़े
प्रसन्न हुए। उनके शरीरमें रोमांच हो आया ।। ३२ ।।
ऊचुः: प्राज्जलय: सर्वे सामात्यप्रमुखा जना: ।
अद्य सम निर्वता राजन् पुरे जनपदेडपि च ।
उपासितुं पुनः प्राप्ता देवा इव शतक्रतुम् ।। ३३ ।।
मन्त्री आदि सब लोगोंने हाथ जोड़कर कहा--'महाराज! आज हम नगर और
जनपदके निवासी संतोषसे साँस ले सके हैं। जैसे देवता देवराज इन्द्रकी सेवामें उपस्थित
होते हैं, उसी प्रकार अब हमें पुन: आपकी उपासना करने--आपके पास बैठनेका शुभ
अवसर प्राप्त हुआ है” ।। ३३ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि पुष्करपरा भवपूर्वक॑
राज्यप्रत्यानयने अष्टसप्ततितमो<ध्याय: ।। ७८ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें पुष्करको हराकर राजा
नलके अपने नगरमें आनेसे सम्बन्ध रखनेवाला अठठ्ठत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ७८ ॥।
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एकोनाशीतितमो< ध्याय:
राजा नलके आख्यानके कीर्तनका महत्त्व, बृहदश्व मुनिका
युधिषछ्तटिरको आश्वासन देना तथा द्यूतविद्या और
अश्वविद्याका रहस्य बताकर जाना
बृहदश्च उवाच
प्रशान्ते तु पुरे हृष्टे सम्प्रवृत्ते महोत्सवे ।
महत्या सेनया राजा दमयन्तीमुपानयत् ।। १ ।।
बृहदश्च मुनि कहते हैं--युधिष्ठिर! जब नगरमें शान्ति छा गयी और सब लोग प्रसन्न हो
गये, सर्वत्र महान् उत्सव होने लगा, उस समय राजा नल विशाल सेनाके साथ जाकर
दमयन्तीको विदर्भदेशसे बुला लाये || १ |।
दमयन्तीमपि पिता सत्कृत्य परवीरहा ।
प्रास्थापयदमेयात्मा भीमो भीमपराक्रम: ।। २ ।।
दमयन्तीके पिता भयंकर पराक्रमी भीम अप्रमेय आत्मबलसे सम्पन्न थे, शत्रुपक्षके
वीरोंका हनन करनेमें समर्थ थे। उन्होंने अपनी पुत्री दमयन्तीको बड़े सत्कारके साथ विदा
किया ।। २ ।।
आगतायां तु वैदर्भ्या सपुत्रायां नलो नृपः ।
वर्तयामास मुदितो देवराडिव नन्दने ।। ३ ।।
तथा प्रकाशतां यातो जम्बुद्वीपे स राजसु ।
पुन: शशास तदू् राज्यं प्रत्याहृत्य महायशा: ।। ४ ।।
पुत्र और पुत्रीसहित दमयन्तीके आ जानेपर राजा नल सब बर्ताव-व्यवहार बड़े
आनन्दसे सम्पन्न करने लगे। जैसे नन््दनवनमें देवराज इन्द्र शोभा पाते हैं, उसी प्रकार वे
जम्बूद्वीपके समस्त राजाओंमें प्रकाशमान हो रहे थे। वे महायशस्वी नरेश अपने राज्यको
पुनः वापस लेकर उसका न्यायपूर्वक शासन करने लगे ।। ३-४ ।।
ईजे च विविधैर्यज्नैरविधिवच्चाप्तदक्षिणै: ।
तथा त्वमपि राजेन्द्र ससुह्दद् यक्ष्यसेडचिरात् ।। ५ ।।
उन्होंने पर्याप्त दक्षिणासे युक्त विविध प्रकारके यज्ञोंद्वारा विधिपूर्वक भगवान्का यजन
किया। राजेन्द्र! इसी प्रकार तुम भी पुनः अपना राज्य पाकर सुहृदोंसहित शीघ्र ही यज्ञका
अनुष्ठान करोगे ।। ५ ।।
दुःखमेतादृशं प्राप्तो नल: परपुरंजय: ।
देवनेन नरश्रेष्ठ सभायों भरतर्षभ ।। ६ ।।
भरतश्रेष्ठ! पुरुषोत्तम! शत्रुओंकी राजधानीपर विजय पानेवाले महाराज नल जूआ
खेलनेके कारण अपनी पत्नीसहित इस प्रकारके महान् संकटमें पड़ गये थे ।। ६ ।।
एकाकिनैव सुमहन्नलेन पृथिवीपते ।
दुःखमासादितं घोरें प्राप्तश्चाभ्युदय: पुन: ।। ७ ।।
पृथ्वीपते! राजा नलने अकेले ही यह भयंकर और महान् दु:ख प्राप्त किया था; उन्हें
पुनः अभ्युदयकी प्राप्ति हुई |। ७ ।।
त्वं पुनर्भावृसहित:ः कृष्णया चैव पाण्डव ।
रमसे5स्मिन् महारण्ये धर्ममेवानुचिन्तयन् ।। ८ ।।
पाण्डुनन्दन! तुम तो अपने सभी भाइयों और महारानी द्रौपदीके साथ इस महान् वनमें
भ्रमण करते हो और निरन्तर धर्मके ही चिन्तनमें लगे रहते हो || ८ ।।
ब्राह्मणैश्व महाभागैवेंदवेदाड़पारगै: |
नित्यमन्वास्यसे राजंस्तत्र का परिदेवना ।। ९ ।।
राजन! महान् भाग्यशाली वेद-वेदांगोंके पारंगत विद्वान् ब्राह्मण सदा तुम्हारे साथ रहते
हैं; फिर तुम्हारे लिये इस परिस्थितिमें शोककी क्या बात है? ।। ९ ।।
कर्कोटकस्य नागस्यथ दमयन्त्या नलस्य च ।
ऋतुपर्णस्य राजर्षे: कीर्तन॑ं कलिनाशनम् ।। १० ।।
कर्कोटक नाग, दमयन्ती, नल तथा राजर्षि ऋतुपर्णकी चर्चा कलियुगके दोषका नाश
करनेवाली है ।। १० ।।
इतिहासमिमं चापि कलिनाशनमच्युत ।
शक्यमाश्चसितु श्रुत्वा त्वद्विधेन विशाम्पते || ११ ।॥।
महाराज! तुम्हारे-जैसे लोगोंको यह कलिनाशक इतिहास सुनकर आश्वासन प्राप्त हो
सकता है || ११ ।।
अस्थिरत्वं च संचिन्त्य पुरुषार्थस्य नित्यदा ।
तस्योदये व्यये चापि न चिन्तयितुमरहसि ।। १२ ।।
पुरुषको प्राप्त होनेवाले सभी विषय सदा अस्थिर एवं विनाशशील हैं। यह सोचकर
उनके मिलने या नष्ट होनेपर तुम्हें तनिक भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये ।। १२ ।।
श्रुत्वेतिहासं नृपते समाश्चवसिहि मा शुच: ।
व्यसने त्वं महाराज न विषीदितुमहसि ।। १३ ।।
नरेश! इस इतिहासको सुनकर तुम धैर्य धारण करो, शोक न करो, महाराज! तुम्हें
संकटमें पड़नेपर विषादग्रस्त नहीं होना चाहिये || १३ ।।
विषमावस्थिते दैवे पौरुषेडफलतां गते ।
विषादयन्ति नात्मानं सत्त्वोपाश्रयिणो नरा: ।। १४ ।।
जब दैव ([प्रारब्ध) प्रतिकूल हो और पुरुषार्थ निष्फल हो जाय, उस समय भी
सत्त्वगगुणका आश्रय लेनेवाले मनुष्य अपने मनमें विषाद नहीं लाते || १४ ।।
ये चेद॑ कथयिष्यन्ति नलस्य चरितं महत् ।
श्रोष्यन्ति चाप्यभीक्ष्णं वै नालक्ष्मीस्तान् भजिष्यति ।। १५ ।।
अर्थास्तस्योपपत्स्यन्ते धन्यतां च गमिष्यति ।
जो राजा नलके इस महान् चरित्रका वर्णन करेंगे अथवा निरन्तर सुनेंगे, उन्हें दरिद्रता
नहीं प्राप्त होगी। उनके सभी मनोरथ सिद्ध होंगे और वे संसारमें धन्य हो जायँगे ।। १५३
||
इतिहासमिमं श्रुत्वा पुराणं शश्व॒दुत्तमम् ।। १६ ।।
पुत्रान् पौत्रान् पशूंश्चापि लभते नृषु चाग्र्यताम् ।
आरोग्यप्रीतिमांश्नेव भविष्यति न संशय: ।। १७ ।।
इस प्राचीन एवं उत्तम इतिहासका सदा ही श्रवण करके मनुष्य पुत्र, पौत्र, पशु तथा
मानवोंमें श्रेष्ठता प्राप्त कर लेता है। साथ ही वह नीरोग और प्रसन्न होता है, इसमें संशय
नहीं है ।। १६-१७ ।।
भयात् त्रस्यसि यच्च त्वमाह्नयिष्यति मां पुनः ।
अक्षज्ञ इति तत् ते5हं नाशयिष्यामि पार्थिव ।। १८ ||
राजन! तुम जो इस भयसे डर रहे हो कि कोई द्यूतविद्याका ज्ञाता मनुष्य पुनः मुझे
जूएके लिये बुलायेगा (उस दशामें पुनः पराजयका कष्ट देखना पड़ेगा)। तुम्हारे उस भयको
मैं दूर कर दूँगा ।। १८ ।।
वेदाक्षह्वदयं कृत्स्नमहं सत्यपराक्रम ।
उपपद्यस्व कौन्तेय प्रसन्नो5हं ब्रवीमि ते ।। १९ ।।
सत्यपराक्रमी कुन्तीनन्दन! मैं ह्यूतविद्याके सम्पूर्ण हृदय (रहस्य)-को जानता हूँ, तुम
उसे ग्रहण कर लो। मैं प्रसन्न होकर तुम्हें बतलाता हूँ ।। १९ ।।
वैशम्पायन उवाच
ततो ह्ृष्टमना राजा बृहदश्चमुवाच ह ।
भगवजन्नक्षहृदयं ज्ञातुमिच्छामि तत्त्वतः ॥। २० ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर राजा युधिष्ठिरने प्रसन्नचित्त हो
बृहदश्वसे कहा--'भगवन्! मैं द्यूतविद्याके रहस्यको यथार्थरूपसे जानना चाहता
हूँ" ।। २० ।।
ततो$क्षह्ददयं प्रादात् पाण्डवाय महात्मने ।
दत्त्वा चाश्वशिरो5गच्छदुपस्प्रष्ठं महातपा: ।। २१ ।।
तब महातपस्वी मुनिने महात्मा पाण्डुनन्दनको द्यूतविद्याका रहस्य बताया और उन्हें
अश्वविद्याका भी उपदेश देकर वे स्नान आदि करनेके लिये चले गये ।।
बृहदश्ने गते पार्थमश्रौषीत् सव्यसाचिनम् |
वर्तमान तपस्युग्रे वायुभक्षं मनीषिणम् ।। २२ ।।
ब्राह्मणेभ्यस्तपस्वि भ्य: सम्पतद्धभधयस्ततस्तत: ।
तीर्थशैलवने भ्यश्व समेतेभ्यो दृढव्रत: ।। २३ ।।
इति पार्थों महाबाहुर्दुरापं तप आस्थित: ।
न तथा दुष्टपूर्वोडन्य: कश्रिदुग्रतपा इति ॥। २४ ।।
बृहदश्व मुनिके चले जानेपर दृढव्रती राजा युधिष्ठिरने इधर-उधरके तीर्थों, पर्वतों और
वनोंसे आये हुए तपस्वी ब्राह्मणोंके मुखसे सव्यसाची अर्जुनका यह समाचार सुना कि
“मनीषी अर्जुन वायुका आहार करके कठोर तपस्यामें लगे हैं। महाबाहु कुन्तीकुमार बड़ी
दुष्कर तपस्यामें स्थित हैं। ऐसा कठोर तपस्वी आजसे पहले दूसरा कोई नहीं देखा गया
है || २२--२४ ।।
यथा धनंजय: पार्थस्तपस्वी नियतव्रतः ।
मुनिरेकचर: श्रीमान् धर्मो विग्रहवानिव ।। २५ ।।
“कुन्तीकुमार धनंजय जिस प्रकार नियम और व्रतका पालन करते हुए तपस्यामें संलग्न
हैं, वह अद्भुत है। वे मौनभावसे रहते और अकेले ही विचरते हैं। श्रीमान् अर्जुन धर्मके
मूर्तिमान् स्वरूप जान पड़ते हैं" ।।
त॑ श्रुत्वा पाण्डवो राजंस्तप्यमानं महावने ।
अन्वशोचत कौन्तेय: प्रियं वै भ्रातरं जयम् ।। २६ ।।
राजन! उस महान् वनमें अपने प्रिय भाई अर्जुनको तपस्या करते सुनकर पाण्डुनन्दन
युधिष्ठिर उनके लिये बार-बार शोक करने लगे ।। २६ ।।
दहामानेन तु हृदा शरणार्थी महावने ।
ब्राह्मणान् विविधज्ञानान् पर्यपृच्छद् युधिष्ठिर: ।। २७ ।।
अर्जुनके वियोगमें संतप्त हृदयवाले वे युधिष्ठिर निर्भय आश्रयकी इच्छा रखते हुए उस
महान् वनमें रहते थे और अनेक प्रकारके ज्ञानसे सम्पन्न ब्राह्मणोंस अपना मनोगत
अभिप्राय पूछा करते थे || २७ ।।
(प्रतिगृह्माक्षह्ददयं कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर: ।
आसीद्धृष्टमना राजन् भीमसेनादिभिरय्युत: ।।
राजन! द्यूतविद्याका रहस्य जानकर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर भीमसेन आदिके साथ मन-
ही-मन बड़े प्रसन्न हुए ।।
स्वभ्रातृन् सहितान् पश्यन् कुन्तीपुत्रों युधिष्ठिर: ।
अपश्यन्नर्जुनं तत्र बभूवाश्रुपरिप्लुत: ।
संतप्यमान: कौन्तेयो भीमसेनमुवाच ह ।।
उन्होंने एक साथ बैठे हुए सब भाइयोंकी ओर देखा, उस समय वहाँ अर्जुनको न
देखकर उनके नेत्रोंमें आँसू भर आये और वे अत्यन्त संतप्त हो भीमसेनसे बोले ।।
युधिछ्िर उवाच
कदा द्रक्ष्यामि वै भीम पार्थमत्र तवानुजम् ।
मत्कृते हि कुरुश्रेष्ठस्तप्यते दुश्चवर॑ तप: ।।
युधिष्ठिरने कहा--भीमसेन! मैं तुम्हारे छोटे भाई अर्जुनको कब देखूँगा? कुरुश्रेष्ठ
अर्जुन मेरे ही लिये अत्यन्त कठोर तपस्या करते हैं ।।
तस्याक्षहृदयज्ञानमाख्यास्यामि कदा न्वहम् |
स हि श्रुत्वाक्षह्दयं समुपात्तं मया विभो ।।
प्रहष्ट: पुरुषव्याप्रो भविष्यति न संशय: ।)
मैं उन्हें अक्षहृदय (द्यूतविद्याके रहस्य)-का ज्ञान कब कराऊँगा। भीम! मेरे द्वारा ग्रहण
किये हुए अक्षह्ृदयको सुनकर पुरुषसिंह अर्जुन बहुत प्रसन्न होंगे, इसमें संशय नहीं है।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि बृहदश्वगमने
एकोनाशीतितमो<ध्याय: ।। ७९ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें ब॒हदश्षयमनविषयक
उन्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ।॥। ७९ ॥
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ५ श्लोक मिलाकर कुल ३२ श्लोक हैं)
पडा नाप () ऑन अत
(तीर्थयात्रापर्व)
अशीतितमोअ<ध्याय:
अर्जुनके लिये द्रोपदीसहित पाण्डवोंकी चिन्ता
जनमेजय उवाच
भगवन् काम्यकात् पार्थे गते मे प्रपितामहे ।
वाण्डवा: किमकुर्वस्ते तमृते सव्यसाचिनम् ।। १ ।।
जनमेजयने पूछा--भगवन्! मेरे प्रपितामह अर्जुनके काम्यकवनसे चले जानेपर
उनसे अलग रहते हुए शेष पाण्डवोंने कौन-सा कार्य किया? ।। १ ।।
स हि तेषां महेष्वासो गतिरासीदनीकजित् ।
आदित्यानां यथा विष्णुस्तथैव प्रतिभाति मे ।। २ ।।
वे सैन्यविजयी, महान् धनुर्धर अर्जुन ही उन सबके आश्रय थे। जैसे आदित्योंमें विष्णु
हैं, वैसे ही पाण्डवोंमें मुझे धनंजय जान पड़ते हैं || २ ।।
तेनेन्द्रसमवीर्येण संग्रामेष्वनिवर्तिना ।
विनाभूता वने वीरा: कथमासन् पितामहा: ।। ३ ।।
वे संग्रामसे कभी पीछे न हटनेवाले और इन्द्रके समान पराक्रमी थे। उनके बिना मेरे
अन्य वीर पितामह वनमें कैसे रहते थे? ।। ३ ॥।
वैशम्पायन उवाच
गते तु पाण्डवे तात काम्यकात् सत्यविक्रमे ।
बभूवु: पाण्डवेयास्ते दु:ः:खशोकपरायणा: ।। ४ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--तात! सत्यपराक्रमी पाण्डुकुमार अर्जुनके काम्यकवनसे
चले जानेपर सभी पाण्डव उनके लिये दुःख और शोकमें मग्न रहने लगे || ४ ।।
आक्षिप्तसूत्रा मणयश्कछिन्नपक्षा इव द्विजा: |
अप्रीतमनस: सर्वे बभूवुरथ पाण्डवा: ।। ५ ।।
जैसे मणियोंकी मालाका सूत टूट जाय अथवा पक्षियोंके पंख कट जाये, वैसी दशामें
उन मणियों और पक्षियोंकी जो अवस्था होती है, वैसी ही अर्जुनके बिना पाण्डवोंकी थी।
उन सबके मनमें तनिक भी प्रसन्नता नहीं थी ।। ५ ।।
वन॑ तु तदभूत् तेन हीनमक्लिष्टकर्मणा ।
कुबेरेण यथा हीन वन चैत्ररथं तथा ।। ६ ।।
अनायास ही महान् कर्म करनेवाले अर्जुनके बिना वह वन उसी प्रकार शोभाशून्य-सा
हो गया, जैसे कुबेरके बिना चैत्ररथ वन || ६ ।।
तमृते ते नरव्यात्रा: पाण्डवा जनमेजय ।
मुदमप्राप्तुवन्तो वै काम्यके न्यवसंस्तदा ।। ७ ।।
जनमेजय! अर्जुनके बिना वे नरश्रेष्ठ पाण्डव आनन्दशून्य हो काम्यकवनमें रह रहे
थे।। ७ ।।
ब्राह्मणार्थे पराक्रान्ता: शुद्धैर्बाणैर्महार था: ।
निध्नन्तो भरतश्रेष्ठ मेध्यान् बहुविधान् मृगान् ।। ८ ।।
भरतश्रेष्ठ! वे महारथी वीर शुद्ध बाणोंद्वारा ब्राह्मणोंके (बाघम्बर आदिके) लिये पराक्रम
करके नाना प्रकारके पवित्र- मृगोंको मारा करते थे || ८ ।।
नित्यं हि पुरुषव्यात्रा वन््याहारमरिंदमा: ।
उपाकृत्य उपाहत्य ब्राह्मणेभ्यो न्यवेदयन् ।। ९ ।।
वे नरश्रेष्ठ और शत्रुदमन पाण्डव प्रतिदिन ब्राह्मणोंके लिये जंगली फल-मूलका आहार
संगृहीत करके उन्हें अर्पित करते थे ।। ९ ।।
सर्वे संन्यवसंस्तत्र सोत्कण्ठा: पुरुषर्षभा: |
अह्ृष्टमनस: सर्वे गते राजन् धनंजये ।। १० ।।
राजन्! धनंजयके चले जानेपर वे सभी नरश्रेष्ठ वहाँ खिन्नचित्त हो उन्हींके लिये
उत्कण्ठित होकर रहते थे ।। १० ।।
विशेषतस्तु पाउ्चाली स्मरन्ती मध्यमं पतिम् ।
उद्विग्नं पाण्डवश्रेष्ठमिदं वचनमब्रवीत् ।। ११ ।।
विशेषत: पांचालराजकुमारी द्रौपदी अपने मझले पति अर्जुनका स्मरण करती हुई सदा
उद्विग्न रहनेवाले पाण्डवशिरोमणि युधिष्ठिरसे इस प्रकार बोली-- ।। ११ ।।
योअर्र्जुनेनार्जुनस्तुल्यो द्विबाहुर्बहुबाहुना ।
तमृते पाण्डवश्रेष्ठ वन॑ न प्रतिभाति मे ।। १२ ।।
'पाण्डवश्रेष्ठ] जो दो भुजावाले अर्जुन सहस्रबाहु अर्जुनके समान पराक्रमी हैं, उनके
बिना यह वन मुझे अच्छा नहीं लगता ।। १२ ।।
शून्यामिव प्रपश्यामि तत्र तत्र महीमिमाम् |
बन्ाश्चर्यमिदं चापि वनं कुसुमितद्रुमम् ।। १३ ।।
न तथा रमणीयं वै तमृते सव्यसाचिनम् |
नीलाम्बुदसमप्रख्यं मत्तमातड्रगामिनम् ।। १४ ।।
तमृते पुण्डरीकाक्षं काम्यकं॑ नातिभाति मे |
यस्य वा धनुषो घोष: श्रूयते चाशनिस्वन: ।
न लभे शर्म वै राजन् स्मरन्ती सव्यसाचिनम् || १५ ।।
“मैं यत्र-तत्र यहाँकी जिस-जिस भूमिपर दृष्टि डालती हूँ, सबको सूनी-सी ही पाती हूँ।
यह अनेक आश्चर्यसे भरा हुआ और विकसित कुसुमोंसे अलंकृत वृक्षोंवाला काम्यकवन भी
सव्यसाची अर्जुनके बिना पहले-जैसा रमणीय नहीं जान पड़ता है। नीलमेघके समान
कान्ति और मतवाले गजराजकी-सी गतिवाले उन कमलनयन अर्जुनके बिना यह
काम्यकवन मुझे तनिक भी नहीं भाता है। राजन! जिनके धनुषकी टंकार बिजलीकी
गड़गड़ाहटके समान सुनायी देती है, उन सव्यसाचीकी याद करके मुझे तनिक भी चैन नहीं
मिलता' || १३--१५ ||
तथा लालप्यमानां तां निशम्य परवीरहा ।
भीमसेनो महाराज द्रौपदीमिदमब्रवीत् ।। १६ ।।
महाराज! इस प्रकार विलाप करती हुई द्रौपदीकी बात सुनकर शत्रुवीरोंका संहार
करनेवाले भीमसेनने उससे इस प्रकार कहा ।। १६ ।।
भीम उवाच
मन:प्रीतिकरं भद्ठे यद् ब्रवीषि सुमध्यमे ।
तन्मे प्रीणाति हृदयममृतप्राशनोपमम् ।। १७ ।।
भीमसेन बोले--भद्रे! सुमध्यमे! तुम जो कुछ कहती हो, वह मेरे मनको प्रसन्न
करनेवाला है। तुम्हारी बात मेरे हृदयको अमृतपानके तुल्य तृप्ति प्रदान करती है ।। १७ ।।
यस्य दीर्घौ समौ पीनौ भुजौ परिघसंनिभौ ।
मौर्वीकृतकिणौ वृत्ती खड्गायुधधनुर्थरी ।। १८ ।।
निष्काजड्दकृतापीडौ पञ्चशीर्षाविवोरगौ ।
तमृते पुरुषव्याप्र॑ नष्टसूर्यमिवाम्बरम् ।। १९ ।।
जिनकी दोनों भुजाएँ लम्बी, मोटी, बराबर-बराबर तथा परिघके समान सुशोभित
होनेवाली हैं, जिनपर प्रत्यज्चाकी रगड़का चिह्न बन गया है, जो गोलाकार हैं और जिनमें
खड्ग एवं धनुष सुशोभित होते हैं, सोनेके भुजबन्दोंसे विभूषित होकर जो पाँच-पाँच
फनवाले दो सर्पोंके समान प्रतीत होती है उन पाँचों अंगुलियोंसे युक्त दोनों भुजाओंसे
विभूषित नरश्रेष्ठ अर्जुनके बिना आज यह वन सूर्यहीन आकाशके समान श्रीहीन दिखलायी
देता है ।। १८-१९ |।
यमाश्रित्य महाबाहुं पाड्चाला: कुरवस्तथा ।
सुराणामपि मत्तानां पृतनासु न बिभ्यति ।। २० ।।
यस्य बाहू समाश्रित्य वयं सर्वे महात्मन: ।
मन्यामहे जितानाजोौ परानू् प्राप्तां च मेदिनीम् ।। २१ ।।
तमृते फाल्गुनं वीर॑ न लभे काम्यके धृतिम् ।
पश्यामि च दिश: सर्वास्तिमिरेणावृता इव ।
जिन महाबाहु अर्जुनका आश्रय लेकर पाज्चाल और कुरुवंशके वीर युद्धके लिये उद्यत
देवताओंकी सेनाका सामना करनेसे भी भयभीत नहीं होते हैं, जिन महात्माके बाहुबलके
भरोसे हम सब लोग युद्धमें अपने शत्रुओंको पराजित और इस पृथ्वीका राज्य अपने
अधिकारमें आया हुआ मानते हैं, उन वीरवर अर्जुनके बिना हमें काम्यकवनमें धैर्य नहीं
प्राप्त हो रहा है। मुझे सारी दिशाएँ अन्धकारसे आच्छन्न-सी दिखायी देती हैं | २०-२१३
||
ततोअब्रवीत् साश्रुकण्ठो नकुल: पाण्डुनन्दन: ।। २२ ।।
भीमसेनकी यह बात सुनकर पाण्डुनन्दन नकुल अश्रुगदूगदकण्ठसे बोले-- || २२ ।।
नकुल उवाच
यस्मिन् दिव्यानि कर्माणि कथयन्ति रणाजिरे |
देवा अपि युधां श्रेष्ठ तमृते का रतिर्वने ॥। २३ ।।
नकुलने कहा--जिन महावीर अर्जुनके विषयमें रणप्रांगणके भीतर देवताओं के द्वारा
भी दिव्य कर्मोंका वर्णन किया जाता है, उन योद्धाओंमें श्रेष्ठ धनंजयके बिना अब इस वनमें
हमें क्या प्रसन्नता है? || २३ ।।
उदीचीं यो दिशं गत्वा जित्वा युधि महाबलान् ।
गन्धर्वमुख्याञ्छतशो हयाँल्लेभे महाद्युति: ।। २४ ।।
जिन महातेजस्वीने उत्तर दिशामें जाकर महाबली मुख्य-मुख्य गन्धर्वोंको युद्धमें परास्त
करके उनसे सैकड़ों घोड़े प्राप्त किये || २४ ।।
राज्ञे तित्तिरिकल्माषाउछीमतोडनिलरंहस: ।
प्रादाद् भ्रात्रे प्रिय: प्रेमणा राजसूये महाक्रतौ ।। २५ ।।
जिन्होंने महायज्ञ राजसूयमें अपने प्यारे भाई धर्मराज युधिष्ठिरको प्रेमपूर्वक वायुके
समान वेगशाली तित्तिरिकल्माष नामक सुन्दर घोड़े भेंट किये थे || २५ ।।
तमृते भीमधन्वानं भीमादवरजं वने |
कामये काम्यके वासं नेदानीममरोपमम् ।। २६ ।।
भीमके छोटे भाई उन भयंकर थधनुर्धर देवोपम अर्जुनके बिना इस समय मुझे इस
काम्यकवनमें रहनेकी इच्छा नहीं होती ।। २६ ।।
सहदेव उवाच
यो धनानि च कन्याश्च युधि जित्वा महारथ: ।
आजहार पुरा राज्ञे राजसूये महाक्रतौ ।। २७ ।।
यः समेतान् मृथे जित्वा यादवानमितलद्युति: ।
सुभद्रामाजहारैको वासुदेवस्य सम्मते ।। २८ ।।
सहदेवने कहा--जिन महारथी वीरने पहले राजसूय महायज्ञके अवसरपर युद्धमें
जीतकर बहुत धन और कन्याएँ महाराज युधिष्ठिरको भेंट की थीं, जिन अनन्त तेजस्वी
धनंजयने भगवान् श्रीकृष्णकी सम्मतिसे युद्धके लिये एकत्र हुए समस्त यादवोंको अकेले ही
जीतकर सुभद्राका हरण कर लिया था || २७-२८ ।।
तस्य जिष्णोर्बूसीं दृष्टवा शून्यामिव निवेशने ।
ह्ृदयं मे महाराज न शाम्यति कदाचन ।। २९ ||
वनादस्माद् विवासं तु रोचये5हमरिंदम ।
न हि नस्तमृते वीर॑ं रमणीयमिदं वनम् ।। ३० ।।
महाराज! उन्हीं विजयी भ्राता धनंजयके आसनको अब अपनी कुटियामें सूना देखकर
मेरे हृदयको कभी शान्ति नहीं मिलती। अत: शत्रुदमन! मैं इस वनसे अन्यत्र चलना पसंद
करता हूँ। वीरवर अर्जुनके बिना अब यह वन रमणीय नहीं लगता ।। २९-३० ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि अर्जुनानुशोचने अशीतितमो<थध्याय: ।।
८० ||
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें अजुनके लिये पाण्डवॉका
अनुतापविषयक जअसीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ८० ॥
हि आय न [हुक है ०
- जिनके मारनेपर मारनेवाला पवित्र हो जाय, ऐसे हिंसक सिंह-व्याप्रादि पशुओंको पवित्र मृग कहा जाता है।
एकाशीतितमो<ध्याय:
युधिष्ठटिरके पास देवर्षि नारदका आगमन और तीर्थयात्राके
फलके सम्बन्धमें पूछनेपर नारदजीद्वारा भीष्म-पुलस्त्य-
संवादकी प्रस्तावना
वैशम्पायन उवाच
धनंजयोत्सुकानां तु भ्रातृणां कृष्णया सह ।
श्रुत्वा वाक्यानि विमना धर्मराजो5प्यजायत ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! धनंजयके लिये उत्सुक द्रौपदीसहित सब
भाइयोंके पूर्वोक्त वचन सुनकर धर्मराज युधिष्ठिरका भी मन बहुत उदास हो गया ।। १ ।।
अथापश्यन्महात्मान देवर्षि तत्र नारदम् ।
दीप्यमानं श्रिया ब्राह्म्या हुतार्चिषमिवानलम् ।। २ ।।
इतनेमें ही उन्होंने देखा, महात्मा देवर्षि नारद वहाँ उपस्थित हैं, जो अपने ब्राह्म तेजसे
देदीप्यमान हो घीकी आहुतिसे प्रज्वलित हुई अग्निके समान प्रकाशित हो रहे हैं || २ ।।
तमागतमभिप्रेक्ष्य भ्रातृभि: सह धर्मराट् ।
प्रत्युत्थाय यथान्यायं पूजां चक्रे महात्मने ।। ३ ।।
उन्हें आया देख भाइयोंसहित धर्मराजने उठकर उन महात्माका यथायोग्य सत्कार
किया ।। ३ ।।
स तै: परिवृतः श्रीमान् भ्रातृभि: कुरुसत्तम: ।
विबभावतिदीप्तौजा देवैरिव शतक्रतु: ।। ४ ।।
अपने भाइयोंसे घिरे हुए अत्यन्त तेजस्वी कुरुश्रेष्ठ श्रीमान् युधिष्ठिर देवताओंसे घिरे हुए
देवराज इन्द्रकी भाँति सुशोभित हो रहे थे ।। ४ ।।
यथा च वेदान् सावित्री याज्ञसेनी तथा पतीन् |
न जहीौ धर्मत: पार्थान् मेरुमर्कप्रभा यथा ।। ५ ।।
जैसे गायत्री चारों वेदोंका और सूर्यकी प्रभा मेरु पर्वतका त्याग नहीं करती, उसी प्रकार
याज्ञसेनी द्रौपदीने भी धर्मतः अपने पति कुन्तीकुमारोंका परित्याग नहीं किया ।। ५ ।।
प्रतिगृह्य च तां पूजां नारदो भगवानृषि: ।
आश्वासयद् धर्मसुतं युक्तरूपमिवानघ ।। ६ ।।
निष्पाप जनमेजय! उनकी वह पूजा ग्रहण करके देवर्षि भगवान् नारदने धर्मपुत्र
युधिष्ठिरको उचित सान्त्वना दी ।। ६ ।।
उवाच च महात्मानं धर्मराजं युधिष्ठिरम् ।
ब्रृहि धर्मभृतां श्रेष्ठ केनार्थ: कि ददानि ते ।। ७ ।।
तत्पश्चात् वे महात्मा धर्मराज युधिष्ठिरसे इस प्रकार बोले--:धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ नरेश!
बोलो, तुम्हें किस वस्तुकी आवश्यकता है? मैं तुम्हें क्या दूँ?” ।। ७ ।।
अथ धर्मसुतो राजा प्रणम्य भ्रातृभि: सह ।
उवाच प्राज्जलि र्भूत्वा नारदं देवसम्मितम् ।। ८ ।।
तब भाइयोंसहित धर्मनन्दन राजा युधिष्ठिरने देवतुल्य नारदजीको प्रणाम करके हाथ
जोड़कर कहा-- ।। ८ ।।
त्वयि तुष्टे महाभाग सर्वलोकाभिपूजिते ।
कृतमित्येव मन्ये5हं प्रसादात् तव सुव्रत ।। ९ ।।
“महाभाग! उत्तम व्रतका पालन करनेवाले सहर्षे! सम्पूर्ण विश्वके द्वारा पूजित आप
महात्माके संतुष्ट होनेपर मैं ऐसा समझता हूँ कि आपकी कृपासे मेरा सब कार्य पूरा हो
गया ।। ९ ।।
यदि त्वहमनुग्राह्मो भ्रातृभि: सहितो5नघ ।
संदेहं मे मुनिश्रेष्ठ तत्त्वतश्छेत्तुमहसि ।। १० ।।
“निष्पाप मुनिश्रेष्ठी यदि भाइयोंसहित मैं आपकी कृपाका पात्र होऊँ तो आप मेरे
संदेहको सम्यक् प्रकारसे नष्ट कर दीजिये” || १० ।।
प्रदक्षिणां यः कुरुते पृथिवीं तीर्थतत्पर: ।
कि फल तस्य कार्त्स्न्येन तद्भवान् वक्तुमहति ।। ११ ।।
“जो मनुष्य तीर्थयात्रामें तत्पर होकर इस पृथ्वीकी परिक्रमा करता है, उसे क्या फल
मिलता है? यह आप पूर्णरूपसे बतानेकी कृपा करें” ।। ११ ।।
नारद उवाच
शृणु राजन्नवहितो यथा भीष्मेण धीमता ।
पुलस्त्यस्य सकाशाद् वै सर्वमेतदुपश्रुतम् ।। १२ ।।
नारदजीने कहा--राजन्! सावधान होकर सुनो, बुद्धिमान् भीष्मजीने महर्षि
पुलस्त्यके मुखसे ये सब बातें जिस प्रकार सुनी थीं, वह सब मैं तुम्हें बता रहा हूँ ।। १२ ।।
पुरा भागीरथीतीरे भीष्मो धर्मभूतां वर: ।
पित्र्यं ब्रतं समास्थाय न्यवसन्मुनिभि: सह ।। १३ ।।
शुभे देशे तथा राजन पुण्ये देवर्षिसेविते ।
गड्ाद्वारे महाभाग देवगन्धर्वसेविते ।। १४ ।।
महाभाग! पहलेकी बात है, देवताओं और गन्धर्वोसे सेवित गंगाद्वार (हरिद्वार)-तीर्थमें
भागीरथीके पवित्र, शुभ एवं देवर्षिसेवित तट-प्रदेशमें श्रेष्ठ धर्मात्मा भीष्मजी पितृसम्बन्धी
(श्राद्ध, तर्पण आदि) व्रतका आश्रय ले महर्षियोंके साथ रहते थे ।। १३-१४ ।।
स पितृस्तर्पयामास देवांश्व॒ परमद्युतिः ।
ऋषींश्व॒ तर्पपामास विधिदृष्टेन कर्मणा ।। १५ ।।
परम तेजस्वी भीष्मजीने वहाँ शास्त्रीय विधिके अनुसार देवताओं, ऋषियों तथा
पितरोंका तर्पण किया || १५ ।।
कस्यचित् त्वथ कालस्य जपन्नेव महायशा: ।
ददर्शाद्भुतसंकाशं पुलस्त्यमृषिसत्तमम् ।। १६ ।।
कुछ समयके बाद जब महायशस्वी भीष्मजी जपमें लगे हुए थे, अपने पास ही उन्होंने
अद्भुत तेजस्वी मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यजीको देखा || १६ ।।
सतं दृष्टवोग्रतपसं दीप्यमानमिव श्रिया ।
प्रहर्षमतुलं लेभे विस्मयं परमं ययौ || १७ ।।
वे उग्र तपस्वी महर्षि तेजसे देदीप्यमान हो रहे थे। उन्हें देखकर भीष्मजीको अनुपम
प्रसन्नता प्राप्त हुई तथा वे बड़े आश्वर्यमें पड़ गये | १७ ।।
उपस्थितं महाभागं पूजयामास भारत ।
भीष्मो धर्मभृतां श्रेष्ठो विधिदृष्टेन कर्मणा ।। १८ ।।
भारत! धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ भीष्मने वहाँ उपस्थित हुए महाभाग महर्षिका शास्त्रोक्त
विधिसे पूजन किया ।।
शिरसा चार्घ्यमादाय शुचि: प्रयतमानस: ।
नाम संकीर्तयामास तस्मिन् ब्रह्मर्षिसत्तमे || १९ ।।
उन्होंने पवित्र एवं एकाग्रचित्त होकर (पुलस्त्यजीके दिये हुए) अर्घ्यको सिरपर धारण
करके जन ब्रह्मर्षिश्रेष्ठ पुलस्त्यजीको अपने नामका इस प्रकार परिचय दिया-- ।। १९ |।
भीष्मो5हमस्मि भद्रं ते दासो5स्मि तव सुव्रत ।
तव संदर्शनादेव मुक्तो5हं सर्वकिल्बिषै: ।। २० ।।
'सुवत्रत! आपका भला हो, मैं आपका दास भीष्म हूँ। आपके दर्शनमात्रसे मैं सब
पापोंसे मुक्त हो गया” ।।
एवमुक्त्वा महाराज भीष्मो धर्मभूतां वर: ।
वाग्यत: प्राउ्जलिर्भूत्वा तृष्णीमासीदू युधिष्ठिर || २१ ।।
महाराज युधिष्छिर! धनुर्धारियोंमें श्रेष्ठ एवं वाणीको संयममें रखनेवाले भीष्म ऐसा
कहकर हाथ जोड़े चुप हो गये ।। २१ ।।
त॑ दृष्टवा नियमेनाथ स्वाध्यायाम्नायकर्शितम् |
भीष्म कुरुकुलश्रेष्ठ मुनि: प्रीतमनाभवत् ।। २२ ।।
कुरुकुलशिरोमणि भीष्मको नियम, स्वाध्याय तथा वेदोक्त कर्मोंके अनुष्ठानसे दुर्बल
हुआ देख पुलस्त्य मुनि मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए || २२ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि पार्थनारदसंवादे एकाशीतितमो< ध्याय:
॥॥ ८१ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें युधिष्टिरनारदसंवादाविषयक
इकक््यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ८१ ॥।
अऑड हटर () है
द्रयशीतितमो< ध्याय:
भीष्मजीके पूछनेपर पुलस्त्यजीका उन्हें विभिन्न तीर्थोकी
यात्राका माहात्म्य बताना
घुलस्त्य उवाच
अनेन तव धर्मज्ञ प्रश्रयेण दमेन च ।
सत्येन च महाभाग तुष्टोडस्मि तव सुव्रत ।। १ ।।
पुलस्त्यजीने कहा--धर्मज्ञ! उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महाभाग! तुम्हारे इस
विनय, इन्द्रियसंयम और सत्यपालनसे मैं बहुत संतुष्ट हूँ |। १ ।।
यस्येदृशस्ते धर्मोड्यं पितृभक्त्याश्रितोडनघ ।
तेन पश्यसि मां पुत्र प्रीतिश्च॒ परमा त्वयि ।। २ ।।
निष्पाप वत्स! तुम्हारेद्वारा पितृभक्तिके आश्रित जो ऐसे उत्तम धर्मका पालन हो रहा है,
इसीके प्रभावसे तुम मेरा दर्शन कर रहे हो और तुमपर मेरा बहुत प्रेम हो गया है || २ ।।
अमोघदर्शी भीष्माहं ब्रूहि कि करवाणि ते ।
यद् वक्ष्यसि कुरुश्रेष्ठ तस्य दातास्मि तेडनघ ।। ३ ।।
निष्पाप कुरुश्रेष्ठ भीष्म! मेरा दर्शन अमोघ है। बोलो, मैं तुम्हारे किस मनोरथकी पूर्ति
करूँ? तुम जो माँगोगे, वही दूँगा ।। ३ ।।
भीष्म उवाच
प्रीते त्वयि महाभाग सर्वलोकाभिपूजिते ।
कृतमेतावता मन्ये यदहं दृष्टवान् प्रभुम् ।। ४ ।।
भीष्मजीने कहा--महाभाग! आप सम्पूर्ण लोकों-द्वारा पूजित हैं। आपके प्रसन्न हो
जानेपर मुझे क्या नहीं मिला? आप-जैसे शक्तिशाली महर्षिका मुझे दर्शन हुआ, इतनेहीसे
मैं अपनेको कृतकृत्य मानता हूँ ।। ४ ।।
यदि त्वहमनुग्राह्मुस्तव धर्मभूृतां वर ।
संदेहं ते प्रवक्ष्यामि तन्मे त्वं छेत्तुमहसि ।। ५ ।।
धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ महर्ष! यदि मैं आपकी कृपाका पात्र हूँ तो मैं आपके सामने अपना
संशय रखता हूँ। आप उसका निवारण करें || ५ ।।
अस्ति मे हृदये कश्रित् तीर्थभ्यो धर्मसंशय: ।
तमहं श्रोतुमिच्छामि तद् भवान् वक्तुमरहति ।। ६ ।।
मेरे मनमें तीर्थोंसे होनेवाले धर्मके विषयमें कुछ संशय हो गया है, मैं उसीका समाधान
सुनना चाहता हूँ; आप बतानेकी कृपा करें ।। ६ ।।
प्रदक्षिणां यः पृथिवीं करोत्यमरसंनिभ ।
कि फल तस्य विप्रर्षे तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ।। ७ ।।
देवतुल्य ब्रह्मर्ष! जो (तीर्थोंके उद्देश्यसे) सारी पृथ्वीकी परिक्रमा करता है, उसे क्या
फल मिलता है? यह निश्चित करके मुझे बताइये || ७ ।।
घुलस्त्य उवाच
हन्त ते कथयिष्यामि यदृषीणां परायणम् |
तदेकाग्रमना: पुत्र शृणु तीर्थेषु यत् फलम् ।। ८ ।।
पुलस्त्यजीने कहा--वत्स! तीर्थयात्रा ऋषियोंके लिये बहुत बड़ा आश्रय है। मैं इसके
विषयमें तुम्हें बताऊँगा। तीर्थोंके सेवनसे जो फल होता है, उसे एकाग्र होकर सुनो ।। ८ ।।
यस्य हस्तौ च पादौ च मनश्लैव सुसंयतम् |
विद्या तपश्च कीर्तिश्व॒ स तीर्थफलमश्चुते ।। ९ ।।
जिसके हाथ, पैर और मन अपने काबूमें हों तथा जो विद्या, तप और कीर्तिसे सम्पन्न
हो, वही तीर्थसेवनका फल पाता है || ९ ।।
प्रतिग्रहादपावृत्त: संतुष्टो येन केनचित् |
अहंकारनिवृत्तश्न स तीर्थफलमश्षुते ।। १० ।।
जो प्रतिग्रहसे दूर रहे तथा जो कुछ अपने पास हो, उसीसे संतुष्ट रहे और जिसमें
अहंकारका अभाव हो, वही तीर्थका फल पाता है ।। १० ।।
अकल्कको निरारम्भो लघ्वाहारो जितेन्द्रिय: ।
विमुक्त: सर्वपापेभ्य स तीर्थफलमश्षुते ।। ११ ।।
जो दम्भ आदि दोषोंसे दूर, कर्तृत्वके अहंकारसे शून्य, अल्पाहारी और जितेन्द्रिय हो,
वह सब पापोंसे विमुक्त हो तीर्थके वास्तविक फलका भागी होता है | ११ ।।
अक्रोधनश्न राजेन्द्र सत्यशीलो दृढव्रत: ।
आत्मोपमश्च भूतेषु स तीर्थफलमश्ञुते | १२ ।।
राजन! जिसमें क्रोध न हो, जो सत्यवादी और दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाला हो
तथा जो सब प्राणियोंके प्रति आत्मभाव रखता हो, वही तीर्थके फलका भागी होता
है ।। १२ ।।
ऋषिभि: क्रतव:ः प्रोक्ता देवेष्विह यथाक्रमम् |
फलं चैव यथातथ्यं प्रेत्य चेह च सर्वश: ।। १३ ।।
ऋषियोंने देवताओंके उद्देश्यसे यथायोग्य यज्ञ बताये हैं और उन यज्ञोंका यथावत् फल
भी बताया है, जो इहलोक और परलोकमें भी सर्वथा प्राप्त होता है ।। १३ ।।
न ते शक््या दरिद्रेण यज्ञा: प्राप्तुं महीपते ।
बहूपकरणा यज्ञा नानासम्भारविस्तरा: ।। १४ ।।
परंतु भूपाल! दरिद्र मनुष्य उन यज्ञोंका अनुष्ठान नहीं कर सकते; क्योंकि उनमें बहुत-
सी सामग्रियोंकी आवश्यकता होती है। नाना प्रकारके साथनोंका संग्रह होनेसे उनमें विस्तार
बहुत बढ़ जाता है ।। १४ ।।
प्राप्यन्ते पार्थिवैरेते समृद्धैर्वा नरैः क्वचित् ।
नार्थन्यूनैर्नावगणैरेकात्मभिरसा धनै: ।। १५ ।।
अतः राजालोग अथवा कहीं-कहीं कुछ समृद्धिशाली मनुष्य ही यज्ञोंका अनुष्ठान कर
सकते हैं। जिनके पास धनकी कमी और सहायकोंका अभाव है, जो अकेले और
साधनशून्य हैं, उनके द्वारा यज्ञोंका अनुष्ठान नहीं हो सकता ।। १५ ।।
यो दरिद्रैरपि विधि: शक: प्राप्तुं नरेश्वर ।
तुल्यो यज्ञफलै: पुण्यैस्तं निबोध युधां वर ।। १६ ।।
योद्धाओंमें श्रेष्ठ नरेश्वर! जो सत्कर्म दरिद्रलोग भी कर सकें और जो अपने पुण्योद्वारा
यज्ञोंके समान फलप्रद हो सके, उसे बताता हूँ, सुनो || १६ ।।
ऋषीणां परम॑ गुहय॒मिदं भरतसत्तम ।
तीर्थाभिगमन पुण्यं यज्जैरपि विशिष्यते ।। १७ ।।
भरतश्रेष्ठ! यह ऋषियोंका परम गोपनीय रहस्य है। तीर्थयात्रा बड़ा पवित्र सत्कर्म है।
वह यज्ञोंसे भी बढ़कर है || १७ ।।
अनुपोष्य त्रिरात्राणि तीर्थान्यनभिगम्य च ।
अदत्त्वा काज्चनं गाश्व दरिद्रो नाम जायते ।। १८ ।।
मनुष्य इसीलिये दरिद्र होता है कि वह (तीर्थोमें) तीन राततक उपवास नहीं करता,
तीर्थोंकी यात्रा नहीं करता और सुवर्णदान और गोदान नहीं करता ।। १८ ।।
अग्निष्टोमादिभिय्यजैरिष्टवा विपुलदक्षिणै: ।
न तत् फलमवाप्रोति तीर्थाभिगमनेन यत् ।। १९ ।।
मनुष्य तीर्थयात्रासे जिस फलको पाता है, उसे प्रचुर दक्षिणावाले अग्निष्टोम आदि
यज्ञोंद्वारा यजन करके भी नहीं पा सकता ।। १९ |।
नृलोके देवदेवस्य तीर्थ त्रैलोक्यविश्रुतम् ।
पुष्करं नाम विख्यातं महाभाग: समाविशेत् ॥। २० ।।
मनुष्यलोकमें देवाधिदेव ब्रह्माजीका त्रिलोक-विख्यात तीर्थ है, जो “पुष्कर' नामसे
प्रसिद्ध है। उसमें कोई बड़भागी मनुष्य ही प्रवेश कर पाता है || २० ।।
दशकोटिसहस््राणि तीर्थानां वै महामते ।
सांनिध्य॑ पुष्करे येषां त्रिसंध्यं कुरुनन्दन ।। २१ ।।
महामते कुरुनन्दन! पुष्करमें तीनों समय दस सहस्र कोटि (दस अरब) तीर्थोका निवास
रहता है ।।
आदित्या वसवो रुद्रा: साध्याक्ष समरुद्गणा: ।
गन्धर्वाप्सरसश्लैव नित्यं संनिहिता विभो ।। २२ ।।
विभो! वहाँ आदित्य, वसु, रुद्र, साध्य, मरुद्गण, गन्धर्व और अप्सराओंकी भी नित्य
संनिधि रहती है ।।
यत्र देवास्तपस्तप्त्वा दैत्या ब्रह्मर्षपस्तथा ।
दिव्ययोगा महाराज पुण्येन महतान्विता: ।। २३ ।।
महाराज! वहाँ तप करके देवता, दैत्य और ब्रह्मर्षि महान् पुण्यसे सम्पन्न दिव्य योगसे
युक्त होते हैं || २३ ।।
मनसाप्यभिकामस्य पुष्कराणि मनस्विन: ।
पूयन्ते सर्वपापानि नाकपृष्ठे च पूज्यते ।। २४ ।।
जो मनस्वी पुरुष मनसे भी पुष्कर तीर्थमें जानेकी इच्छा करता है, उसके स्वर्गके
प्रतिबन्धक सारे पाप मिट जाते हैं और वह स्वर्गलोकमें पूजित होता है ।।
तस्मिंस्तीर्थे महाराज नित्यमेव पितामह: ।
उवास परमप्रीतो भगवान् कमलासन: ।। २५ ||
महाराज! उस तीर्थमें कमलासन भगवान् ब्रह्माजी नित्य ही बड़ी प्रसन्नताके साथ
निवास करते हैं ।। २५ ।।
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पुष्करेषु महाभाग देवा: सर्षिगणा: पुरा |
सिद्धि समभिसम्प्राप्ता: पुण्येन महतान्विता: ।। २६ ।।
महाभाग! पुष्करमें पहले देवता तथा ऋषि महान् पुण्यसे सम्पन्न हो सिद्धि प्राप्त कर
चुके हैं || २६ ।।
तत्राभिषेकं यः कुर्यात् पितृदेवार्चने रत: ।
अश्वमेधाद् दशगुणं फल प्राहुरमनीषिण: ।। २७ ।।
जो वहाँ स्नान करता तथा देवताओं और पितरोंकी पूजामें संलग्न रहता है, उस
पुरुषको अश्वमेधसे दस गुना फल प्राप्त होता है; ऐसा मनीषीगण कहते हैं ।।
अप्येक॑ भोजयेद् विप्रं पुष्करारण्यमाश्रित: ।
तेनासौ कर्मणा भीष्म प्रेत्य चेह च मोदते ।। २८ ।।
भीष्म! पुष्करमें जाकर कम-से-कम एक ब्राह्मणको अवश्य भोजन कराये। उस
पुण्यकर्मसे मनुष्य इहलोक और परलोकमें भी आनन्दका भागी होता है ।। २८ ।।
शाकैर्मूलै: फलैर्वापि येन वर्तयते स्वयम् ।
तद् वै दद्याद् ब्राह्मणाय श्रद्धावाननसूयक: ।। २९ ।।
मनुष्य साग, फल तथा मूल जिसके द्वारा स्वयं प्राणयात्राका निर्वाह करता है, वही
श्रद्धाभावसे दूसरोंके दोष न देखते हुए ब्राह्मणको दान करे ।। २९ ।।
तेनैव प्राप्तुयात् प्राज्ञो हपयमेधफलं नर: ।
ब्राह्मणा: क्षत्रिया वैश्या: शूद्रा वा राजसत्तम ।। ३० ।।
न वै योनौ प्रजायते स्नातास्तीर्थे महात्मन: ।
उसीसे विद्वान् पुरुष अश्वमेधयज्ञका फल पाता है। नृपश्रेष्ठ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य
अथवा शूद्र जो कोई भी महात्मा ब्रह्माजीके तीर्थमें स्नान कर लेते हैं, वे फिर किसी योनिमें
जन्म नहीं लेते हैं || ३०६ ।।
कार्तिकीं तु विशेषण योडभिगच्छति पुष्करम् ।। ३१ ।।
प्राप्रुयात् स नरो लोकान् ब्रह्मण: सदने$क्षयान् |
विशेषतः कार्तिकमासकी पूर्णिमाको जो पुष्करतीर्थमें स्नानके लिये जाता है, वह
मनुष्य ब्रह्मधाममें अक्षय लोकोंको प्राप्त होता है ।। ३१६ ।।
सायं प्रातः स्मरेद् यस्तु पुष्कराणि कृताञज्जलि: ।। ३२ ।।
उपस्पृष्टं भवेत् तेन सर्वतीर्थेषु भारत ।
भारत! जो सायंकाल और प्रातःकाल हाथ जोड़कर तीनों पुष्करोंका स्मरण करता है,
उसने मानो सब तीर्थोंमें स्नान एवं आचमन कर लिया || ३२३६ ।।
जन्मप्रभृति यत् पापं स्त्रिया वा पुरुषेण वा ।। ३३ ।।
पुष्करे स्नातमात्रस्य सर्वमेव प्रणश्यति ।
स्त्री अथवा पुरुषने जन्मसे लेकर वर्तमान अवस्थातक जितने भी पाप किये हैं,
पुष्करतीर्थमें स्नान करनेमात्रसे वे सब पाप नष्ट हो जाते हैं || ३३३ ।।
यथा सुराणां सर्वेषामादिस्तु मधुसूदन: ।। ३४ ।।
तथैव पुष्कर राजंस्तीर्थानामादिरुच्यते ।
राजन! जैसे भगवान् मधुसूदन (विष्णु) सब देवताओंके आदि हैं, वैसे ही पुष्कर सब
तीर्थोंका आदि कहा जाता है || ३४ $ ||
उष्ट्वा द्वादश वर्षाणि पुष्करे नियत: शुचि: ॥। ३५ ।।
क्रतून् सर्वानिवाप्नोति ब्रह्मलोक॑ स गच्छति ।
पुष्करमें पवित्रतापूर्वक संयम-नियमके साथ बारह वर्षोतक निवास करके मानव
सम्पूर्ण यज्ञोंका फल पाता और ब्रह्मलोकको जाता है ।। ३५३ ||
यस्तु वर्षशतं पूर्णमग्निहोत्रमुपासते ।। ३६ ।।
कार्तिकीं वा वसेदेकां पुष्करे सममेव तत् ।। ३७ ।।
जो पूरे सौ वर्षोतक अग्निहोत्र करता है और जो कार्तिककी एक ही पूर्णिमाको
पुष्करमें वास करता है, दोनोंका फल बराबर है || ३६-३७ ।।
त्रीणि शृद्भाणि शुभ्राणि त्रीणि प्रद्रवणानि च ।
पुष्कराण्यादिसिद्धानि न विद्यस्तत्र कारणम् ।। ३८ ।।
तीन शुभ्र पर्वतशिखर, तीन सोते और तीन पुष्कर--ये आदिसिद्ध तीर्थ हैं। ये कब
किस कारणसे तीर्थ माने गये? इसका हमें पता नहीं है || ३८ ।।
दुष्करं पुष्करे गन्तुं दुष्करं पुष्करे तप: ।
दुष्करं पुष्करे दानं वस्तुं चैव सुदुष्करम् ।। ३९ ।।
पुष्करमें जाना अत्यन्त दुर्लभ है, पुष्करमें तप अत्यन्त दुर्लभ है, पुष्करमें दान देनेका
सुयोग तो और भी दुर्लभ है और उसमें निवासका सौभाग्य तो अत्यन्त ही दुष्कर
है || ३९ ||
उष्य द्वादशरात्र तु नियतो नियताशनः ।
प्रदक्षिणमुपावृत्य जम्बूमार्ग समाविशेत् ।। ४० ।।
वहाँ इन्द्रियसंयम और नियमित आहार करते हुए बारह रात रहकर तीर्थकी परिक्रमा
करनेके पश्चात् जम्बूमार्गको जाय || ४० ।।
जम्बूमार्ग समाविश्य देवर्षिपितृसेवितम् ।
अश्वमेधमवाप्रोति सर्वकामसमन्वित: || ४१ ।।
जम्बूमार्ग देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंसे सेवित तीर्थ है। उसमें जाकर मनुष्य समस्त
मनोवांछित भोगोंसे सम्पन्न हो अश्वमेधयज्ञका फल पाता है ।। ४१ ।।
तत्रोष्य रजनी: पज्च पूतात्मा जायते नर: ।
न दुर्गतिमवाप्रोति सिद्ध) प्राप्नोति चोत्तमाम् ।। ४२ ।।
वहाँ पाँच रात निवास करनेसे मनुष्यका अन्तःकरण पवित्र हो जाता है। उसे कभी
दुर्गति नहीं प्राप्त होती, वह उत्तम सिद्धि पा लेता है || ४२ ।।
जम्बूमार्गादुपावृत्य गच्छेत् तन्दुलिकाश्रमम् |
न दुर्गतिमवाप्रोति ब्रह्मलोक॑ च गच्छति ।। ४३ ।।
जम्बूमार्गसे लौटकर मनुष्य तन्दुलिकाश्रमको जाय। इससे वह दुर्गतिमें नहीं पड़ता और
अन्तमें ब्रह्मलोकको चला जाता है ।। ४३ ।।
आगर््त्यं सर आसाद्य पितृदेवार्चने रत: ।
त्रिरात्रोपोषितो राजन्नग्निष्टोमफलं लभेत् || ४४ ।।
राजन्! जो अगस्त्यसरोवर जाकर देवताओं और पितरोंके पूजनमें तत्पर हो तीन रात
उपवास करता है, वह अग्निष्टोमयज्ञका फल पाता है || ४४ ।।
शाकतवृत्ति: फलैर्वापि कौमारं विन्दते परम् ।
कण्वाश्रमं ततो गच्छेच्छीजुष्टं लोकपूजितम् ।। ४५ ।।
जो शाकाहार या फलाहार करके वहाँ रहता है, वह परम उत्तम कुमारलोक
(कार्तिकेयके लोक)-में जाता है। वहाँसे लोकपूजित कण्वके आश्रममें जाय, जो भगवती
लक्ष्मीके द्वारा सेवित है || ४५ ।।
धर्मारण्यं हि तत् पुण्यमाद्यं च भरतर्षभ |
यत्र प्रविष्टमात्रो वै सर्वपापै: प्रमुच्यते || ४६ ।।
भरतश्रेष्ठ। वह धर्मारण्य कहलाता है, उसे परम पवित्र एवं आदितीर्थ माना गया है।
उसमें प्रवेश करनेमात्रसे मनुष्य सब पापोंसे छुटकारा पा जाता है ।।
अर्चयित्वा पितृन् देवान् नियतो नियताशन: ।
सर्वकामसमृद्धस्य यज्ञस्य फलमश्लुते | ४७ ।।
जो वहाँ नियमपूर्वक मिताहारी होकर देवता और पितरोंकी पूजा करता है, वह सम्पूर्ण
कामनाओंसे सम्पन्न यज्ञका फल पाता है || ४७ ।।
प्रदक्षिणं तत: कृत्वा ययातिपतन व्रजेत् ।
हयमेधस्य यज्ञस्य फल प्राप्रोति तत्र वै ।। ४८ ।।
तदनन्तर उस तीर्थकी परिक्रमा करके वहाँसे ययातिपतन नामक तीर्थमें जाय। वहाँ
जानेसे यात्रीको अवश्य ही अश्वमेधयज्ञका फल मिलता है || ४८ ।।
महाकाल ततो गच्छेन्नियतो नियताशन: ।
कोटितीर्थमुपस्पृश्य हयमेधफलं लभेत् ।। ४९ ।।
वहाँसे महाकालतीर्थको जाय। वहाँ नियम-पूर्वक रहकर नियमित भोजन करे। वहाँ
कोटितीर्थमें आचमन (एवं स्नान) करनेसे अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त होता है ।। ४९ ।।
ततो गच्छेत धर्मज्ञ: स्थाणोस्तीर्थमुमापते: ।
नाम्ना भद्रवर्ट नाम त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ।। ५० ।।
वहाँसे धर्मज्ञ पुरुष उमावललभ भगवान् स्थाणु (शिव)-के उस तीर्थमें जाय, जो तीनों
लोकोंमें “भद्रवट” के नामसे प्रसिद्ध है || ५० ।।
तत्राभिगम्य चेशानं गोसहस्रफलं लभेत् |
महादेवप्रसादाच्च गाणपत्यं च विन्दति ।। ५३१ |।
समृद्धमसपत्नं च श्रिया युक्त नरोत्तम: ।
वहाँ भगवान् शिवका निकटसे दर्शन करके नरश्रेष्ठ यात्री एक हजार गोदानका फल
पाता है और महादेवजीके प्रसादसे वह गणोंका आधिपत्य प्राप्त कर लेता है, जो आधिपत्य
भारी समृद्धि और लक्ष्मीसे सम्पन्न तथा शत्रुजनित बाधासे रहित होता है || ५१३ ।।
नर्मदां तु समासाद्य नदी त्रैलोक्यविश्रुताम् । ५२ |।
तर्पयित्वा पितृन् देवानग्निष्टोमफलं लभेत् |
वहाँसे त्रिभुवनविख्यात नर्मदा नदीके तटपर जाकर देवताओं और पितरोंका तर्पण
करनेसे अग्निष्टोम-यज्ञका फल प्राप्त होता है ।। ५२ $ ।।
दक्षिणं सिन्धुमासाद्य ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय: ।। ५३ ।।
अग्निष्टोममवाप्रोति विमान चाधिरोहति ।
इन्द्रियोंको काबूमें रखकर ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए दक्षिण समुद्रकी यात्रा करनेसे
मनुष्य अग्निष्टोमयज्ञका फल और विमानपर बैठनेका सौभाग्य पाता है || ५३३ ||
चर्मण्वतीं समासाद्य नियतो नियताशन: ।
रन्तिदेवा भ्यनुज्ञातमग्निष्टोमफलं लभेत् ।। ५४ ।।
इन्द्रियसंयम या शौच-संतोष आदिके पालनपूर्वक नियमित आहारका सेवन करते हुए
चर्मण्वती (चंबल) नदीमें स्नान आदि करनेसे राजा रन्तिदेवद्वारा अनुमोदित
अग्निष्टोमयज्ञका फल प्राप्त होता है ।। ५४ ।।
ततो गच्छेत धर्मज्ञ हिमवत्सुतमर्बुदम् ।
पृथिव्यां यत्र वै छिद्रं पूर्वमासीद् युधिष्ठिर || ५५ ।।
धर्मज्ञ युधिष्ठिर-! वहाँसे आगे हिमालयपुत्र अर्बुद (आबू)-की यात्रा करे, जहाँ पहले
पृथ्वीमें विवर था || ५५ ।।
तत्राश्रमो वसिष्ठस्य त्रिषु लोकेषु विश्रुत: ।
तत्रोष्य रजनीमेकां गोसहस्रफलं लभेत् ।। ५६ ।।
वहाँ महर्षि वसिष्ठका त्रिलोकविख्यात आश्रम है, जिसमें एक रात रहनेसे सहस्र
गोदानका फल मिलता है ।। ५६ ।।
पिड़तीर्थमुपस्पृश्य ब्रह्म॒चारी जितेन्द्रिय: ।
कपिलानां नरश्रेष्ठ शतस्य फलमश्चुते ।। ५७ ।।
नरश्रेष्ठ! पिंगतीर्थमें स्नान एवं आचमन करके ब्रह्मचारी एवं जितेन्द्रिय मनुष्य सौ
कपिलाओंके-दानका फल प्राप्त कर लेता है || ५७ ।।
ततो गच्छेत राजेन्द्र प्रभासं तीर्थमुत्तमम् ।
तत्र संनिहितों नित्यं स््वयमेव हुताशन: ।। ५८ ।।
देवतानां मुखं वीर ज्वलनो5निलसारथि: ।
राजेन्द्र! तदनन्तर उत्तम प्रभासतीर्थमें जाय। वीर! उस तीर्थमें देवताओंके मुखस्वरूप
भगवान् अग्निदेव, जिनके सारथि वायु हैं, सदा निवास करते हैं |। ५८ ३ ।।
तस्मिंस्तीर्थे नर: स्नात्वा शुचि: प्रयतमानस: ।। ५९ ।।
अग्निष्टोमातिरात्राभ्यां फलं प्राप्रोति मानव: ।
उस तीर्थमें स्नान करके शुद्ध एवं संयत चित्त हो मानव अतिरात्र और अमग्निष्टोम
यज्ञोंका फल पाता है || ५९६ ||
ततो गत्वा सरस्वत्या: सागरस्य च संगमे ।। ६० ।।
गोसहस्रफलं तस्य स्वर्गलोकं च विन्दति ।
प्रभया दीप्यते नित्यमग्निवद् भरतर्षभ ।॥। ६१ ।।
तदनन्तर सरस्वती और समुद्रके संगममें जाकर स्नान करनेसे मनुष्य सहस्र गोदानका
फल और स्वर्गलोक पाता है। भरतश्रेष्ठ! वह पुण्यात्मा पुरुष अपने तेजसे सदा अग्निकी
भाँति प्रकाशित होता है || ६०-६१ ।।
तीर्थे सलिलराजस्य स्नात्वा प्रयतमानस: ।
त्रिरात्रमुषित: स्नातस्तर्पयेत् पितृदेवता: ॥। ६२ ।।
मनुष्य शुद्धचित्त हो जलोंके स्वामी वरुणके तीर्थ (समुद्र)-में स्नान करके वहाँ तीन रात
रहे और प्रतिदिन नहाकर देवताओं तथा पितरोंका तर्पण करे ।। ६२ ।।
प्रभासते यथा सोम: सो<श्चमेधं च विन्दति ।
वरदान ततो गच्छेत् तीर्थ भरतसत्तम || ६३ ।।
ऐसा करनेवाला यात्री चन्द्रमाके समान प्रकाशित होता है। साथ ही उसे अश्वमेधयज्ञका
फल मिलता है। भरतश्रेष्ठ! वहाँसे वरदानतीर्थमें जाय ।। ६३ ।।
विष्णोर्दुर्वाससा यत्र वरो दत्तो युधिष्िर ।
वरदाने नर: स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् ।॥। ६४ ।।
युधिष्ठि!! यह वह स्थान है, जहाँ मुनिवर दुर्वासाने श्रीकृष्णको वरदान दिया था।
वरदानतीर्थमें स्नान करनेसे मानव सहस्र गोदानका फल पाता है ।।
ततो द्वारवतीं गच्छेन्नियतो नियताशन: ।
पिण्डारके नर: स्नात्वा लभेद् बहु सुवर्णकम् ।। ६५ ।।
वहाँसे तीर्थयात्रीको द्वारका जाना चाहिये। वह नियमसे रहे और नियमित भोजन करे।
पिण्डारकतीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्यको अधिकाधिक सुवर्णकी प्राप्ति होती है ।। ६५ ।।
तस्मिंस्तीर्थे महाभाग पद्मलक्षणलक्षिता: |
उद्यापि मुद्रा दृश्यन्ते तदद्भुतमरिंदम ।। ६६ ।।
महाभाग! उस तीर्थमें आज भी कमलके चिह्ढोंसे चिह्नित सुवर्णमुद्राएँ देखी जाती हैं।
शत्रुदमन! यह एक अद्भुत बात है ।। ६६ ।।
त्रिशूलाड्कानि पद्मानि दृश्यन्ते कुरुनन्दन ।
महादेवस्य सांनिध्यं तत्र वै पुरुषर्षभ ।। ६७ ।।
पुरुषरत्न कुरुनन्दन! जहाँ त्रिशूलसे अंकित कमल दृष्टिगोचर होते हैं। वहीं
महादेवजीका निवास है ।। ६७ ।।
सागरस्य च सिन्धोशक्ष् संगमं प्राप्प भारत ।
तीर्थे सलिलराजस्य स्नात्वा प्रयतमानस: ।। ६८ ।।
तर्पयित्वा पितृन् देवानृषींश्व भरतर्षभ ।
प्राप्रोति वारुणं लोक॑ दीप्यमानं स्वतेजसा ।। ६९ ।।
भारत! सतर और सिंधु नदीके संगममें जाकर वरुणतीर्थमें स्नान करके शुद्धचित्त हो
देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंका तर्पण करे। भरतकुलतिलक! ऐसा करनेसे मनुष्य दिव्य
दीप्तिसे देदीप्यमान वरुणलोकको प्राप्त होता है | ६८-६९ ।।
शड्कुकर्णेश्वरं देवमर्चयित्वा युधिष्ठिर ।
अश्वमेधाद् दशगुणं प्रवदन्ति मनीषिण: ।॥ ७० ।।
युधिष्ठिर! वहाँ शंकुकर्णेश्वर शिवकी पूजा करनेसे मनीषी पुरुष अश्वमेधसे दस गुने
पुण्यफलकी प्राप्ति बताते हैं || ७० ।।
प्रदक्षिणमुपावृत्य गच्छेत भरतर्षभ ।
तीर्थ कुरुवरश्रेष्ठ त्रिषु लोकेषु विश्वुतम् ।। ७१ ।।
दमीति नाम्ना विख्यातं सर्वपापप्रणाशनम् ।
तत्र ब्रह्मादयो देवा उपासन्ते महेश्वरम् ।। ७२ ।।
भरतवंशावतंस कुरुश्रेष्ठी] उनकी परिक्रमा करके त्रिभुवन-विख्यात “दमी” नामक
तीर्थमें जाय, जो सब पापोंका नाश करनेवाला है। वहाँ ब्रह्मा आदि देवता भगवान्
महेश्वरकी उपासना करते हैं || ७१-७२ ।।
तत्र स्नात्वा च पीत्वा च रुद्रं देवगणैर्वृतम्
जन्मप्रभूति यत् पापं तत् स्नातस्य प्रणश्यति ।। ७३ ।।
वहाँ स्नान, जलपान और देवताओंसे घिरे हुए रुद्रदेवका दर्शन-पूजन करनेसे
स्नानकर्ता पुरुषके जन्मसे लेकर वर्तमान समयतकके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ।।
दमी चात्र नरश्रेष्ठ सर्वदेवैरभिष्टृत: ।
तत्र स्नात्वा नरव्यात्र हयमेधमवाप्तुयात् ।। ७४ ।।
नरश्रेष्ठ) भगवान् दमीका सभी देवता स्तवन करते हैं। पुरुषसिंह! वहाँ स्नान करनेसे
अश्वमेधयज्ञके फलकी प्राप्ति होती है ।। ७४ ।।
गत्वा यत्र महाप्राज्ञ विष्णुना प्रभविष्णुना ।
पुरा शौचं कृतं राजन हत्वा दैतेयदानवान् ।। ७५ ।।
महाप्राज्ञ नरेश! सर्वशक्तिमान् भगवान् विष्णुने पहले दैत्यों-दानवोंका वध करके इसी
तीर्थमें जाकर (लोकसंग्रहके लिये) शुद्धि की थी || ७५ ।।
ततो गच्छेत धर्मज्ञ वसोर्धारामभिष्टृताम् ।
गमनादेव तस्यां हि हयमेधफलं लभेत् ।। ७६ ।।
धर्मज्ञ! वहाँसे वसुधारातीर्थमें जाय, जो सबके द्वारा प्रशंसित है। वहाँ जानेमात्रसे
अश्वमेधयज्ञका फल मिलता है || ७६ |।
स्नात्वा कुरुवरश्रेष्ठ प्रयतात्मा समाहित: ।
तर्प्य देवान् पितृश्चैव विष्णुलोके महीयते ॥। ७७ ।।
कुरुश्रेष्ठ! वहाँ स्नान करके शुद्ध और समाहितचित्त होकर देवताओं और पितरोंका
तर्पण करनेसे मनुष्य विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है ।। ७७ ।।
तीर्थ चात्र सर: पुण्यं वसूनां भरतर्षभ ।
तत्र स्नात्वा च पीत्वा च वसूनां सम्मतो भवेत् ।। ७८ ।।
सिन्धूत्तममिति ख्यातं सर्वपापप्रणाशनम् ।
तत्र स्नात्वा नरश्रेष्ठ लभेद् बहु सुवर्णकम् ।। ७९ ।।
भरतश्रेष्ठ! उस तीर्थमें वसुओंका पवित्र सरोवर है। उसमें स्नान और जलपान करनेसे
मनुष्य वसु देवताओंका प्रिय होता है। नरश्रेष्ठ! वहीं सिन्धूत्तम नामसे प्रसिद्ध तीर्थ है, जो
सब पापोंका नाश करनेवाला है। उसमें स्नान करनेसे प्रचुर स्वर्णराशिकी प्राप्ति होती
है || ७८-७९ |।
भद्रतुड्गं समासाद्य शुचि: शीलसमन्वित: ।
ब्रद्मलोकमवाप्रोति गति च परमां व्रजेत् ।। ८० ।।
भद्रतुंगतीर्थमें जाकर पवित्र एवं सुशील पुरुष ब्रह्मलोकमें जाता और वहाँ उत्तम गति
पाता है |। ८० ।।
कुमारिकाणां शक्रस्य तीर्थ सिद्धनिषेवितम् ।
तत्र स्नात्वा नर: क्षिप्रं स्वर्गलोकमवाप्लनुयात् || ८१ ।।
शक्रकुमारिकातीर्थ सिद्ध पुरुषोंद्वारा सेवित है। वहाँ स्नान करके मनुष्य शीघ्र ही
स्वर्गलोक प्राप्त कर लेता है || ८१ ।।
रेणुकायाश्न तत्रैव तीर्थ सिद्धनिषेवितम् ।
तत्र स्नात्वा भवेद् विप्रो निर्मलश्चन्द्रमा यथा ।। ८२ ।।
वहीं सिद्धसेवित रेणुकातीर्थ है, जिसमें स्नान करके ब्राह्मण चन्द्रमाके समान निर्मल
होता है ।। ८२ ।।
अथ पउज्चनदं गत्वा नियतो नियताशन: ।
पज्चयज्ञानवाप्रोति क्रमशो येडनुकीर्तिता: ।। ८३ ।।
तदनन्तर शौच-संतोष आदि नियमोंका पालन और नियमित भोजन करते हुए
पंचनदतीर्थमें जाकर मनुष्य पंचमहायज्ञोंका फल पाता है जो कि शास्त्रोंमें क्रमश: बतलाये
गये हैं ।। ८३ ।।
ततो गच्छेत राजेन्द्र भीमाया: स्थानमुत्तमम् ।
तत्र स्नात्वा तु योन्यां वै नरो भरतसत्तम ।। ८४ ।।
देव्या: पुत्रो भवेद् राज॑स्तप्तकुण्डलविग्रह: ।
गवां शतसहस्रस्य फल प्राप्रोति मानव: ।। ८५ ।।
राजेन्द्र! वहाँसे भीमाके उत्तम स्थानकी यात्रा करे! भरतश्रेष्ठ! वहाँ योनितीर्थमें स्नान
करके मनुष्य देवीका पुत्र होता है। उसकी अंगकान्ति तपाये हुए सुवर्णकुण्डलके समान
होती है। राजन! उस तीर्थके सेवनसे मनुष्यको सहस्र गोदानका फल मिलता
है || ८४-८५ ।।
श्रीकुण्डं तु समासाद्य त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ।
पितामहं नमस्कृत्य गोसहस्रफलं लभेत् ।। ८६ ।।
त्रिभुवनविख्यात श्रीकुण्डमें जाकर ब्रह्माजीको नमस्कार करनेसे सहस्नर गोदानका फल
प्राप्त होता है ।।
ततो गच्छेत धर्मज्ञ विमल॑ तीर्थमुत्तमम्
अद्यापि यत्र दृश्यन्ते मत्स्या: सौवर्णराजता: ।। ८७ ।।
धर्मज्ञ! वहाँसे परम उत्तम विमलतीर्थकी यात्रा करे, जहाँ आज भी सोने और चाँदीके
रंगकी मछलियाँ दिखायी देती हैं || ८७ ।।
तत्र स्नात्वा नर: क्षिप्रं वासवं लोकमाप्नुयात् ।
सर्वपापविशुद्धात्मा गच्छेत परमां गतिम् ।। ८८ ।।
उसमें स्नान करनेसे मनुष्य शीघ्र ही इन्द्रलोकको प्राप्त होता है और सब पापोंसे शुद्ध
हो परमगति प्राप्त कर लेता है ।। ८८ ।।
वितस्तां च समासाद्य संतर्प्य पितृदेवता: ।
नर: फलमवाप्रोति वाजपेयस्य भारत ।। ८९ ।।
भारत! वितस्तातीर्थ (झेलम)-में जाकर वहाँ देवताओं और पितरोंका तर्पण करनेसे
मनुष्यको वाजपेययज्ञका फल प्राप्त होता है ।। ८९ ।।
काश्मीरेष्वेव नागस्य भवन तक्षकस्य च ।
वितस्ताख्यमिति ख्यातं सर्वपापप्रमोचनम् ।। ९० ।।
काश्मीरमें ही नागराज तक्षकका वितस्ता नामसे प्रसिद्ध भवन है, जो सब पापोंका
नाश करनेवाला है ।। ९० ।।
तत्र स्नात्वा नरो नूनं वाजपेयमवाप्नुयात् ।
सर्वपापविशुद्धात्मा गच्छेच्च परमां गतिम् ।। ९१ ।।
वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य निश्चय ही वाजपेययज्ञका फल प्राप्त करता है और सब
पापोंसे शुद्ध हो उत्तम गतिका भागी होता है ।। ९१ ।।
ततो गच्छेत वडवां त्रिषु लोकेषु विश्रुताम्
पश्चिमायां तु संध्यायामुपस्पृश्य यथाविधि ।। ९२ ।।
चरुं सप्तार्चिषे राजन् यथाशक्ति निवेदयेत् ।
पितृणामक्षयं दानं प्रवदन्ति मनीषिण: ।। ९३ ।।
वहाँसे त्रिभुवनविख्यात वडवातीर्थको जाय। वहाँ पश्चिम संध्याके समय विधिपूर्वक
स्नान और आचमन करके अग्निदेवको यथाशक्ति चरु निवेदन करे। वहाँ पितरोंके लिये
दिया हुआ दान अक्षय होता है; ऐसा मनीषी पुरुष कहते हैं | ९२-९३ ।।
ऋषय: पितरो देवा गन्धर्वाप्सरसां गणा: ।
गुहाका: किन्नरा यक्षा: सिद्धा विद्याधरा नरा: ।। ९४ ।।
राक्षसा दितिजा रुद्रा ब्रह्मा च मनुजाधिप ।
नियत: परमां दीक्षामास्थायाब्दसहस््रिकीम् ।। ९५ ।।
विष्णो: प्रसादन कुर्वश्चरुं च श्रपयंस्तथा ।
सप्तभि: सप्तभिश्वैव ऋग्भिस्तुष्टाव केशवम् ।। ९६ ।।
राजन! वहाँ देवता, ऋषि, पितर, गन्धर्व, अप्सरा, गुह्क, किन्नर, यक्ष, सिद्ध, विद्याधर,
मनुष्य, राक्षस, दैत्य, रुद्र और ब्रह्मा--इन सबने नियमपूर्वक सहस्र वर्षोंके लिये उत्तम दीक्षा
ग्रहण करके भगवान् विष्णुकी प्रसन्नताके लिये चरु अर्पण किया। ऋग्वेदके सात-सात
मन्त्रोंद्वारा सबने चरुकी सात-सात आहुतियाँ दीं और भगवान् केशवको प्रसन्न किया ।। ९४
-7९%६ ||
ददावष्टगुणैश्वर्य तेषां तुष्टस्तु केशव: ।
यथाभिलषितानन्यान् कामान् दत्त्वा महीपते ।। ९७ ।।
तत्रैवान्तर्दथे देवो विद्युदभ्रेषु वै यथा ।
नाम्ना सप्तचरुं तेन ख्यातं लोकेषु भारत ।। ९८ ।।
गवां शतसहस्रेण राजसूयशतेन च ।
अश्वमेधसहस्रेण श्रेयान् सप्तार्चिषे चरु: ।। ९९ ।।
ततो निवृत्तो राजेन्द्र रुद्रे पदमथाविशेत् ।
अर्चयित्वा महादेवमश्वमेधफलं लभेत् ।। १०० ।।
उनपर प्रसन्न होकर भगवानने उन्हें अष्टगुण-ऐश्वर्य अर्थात् अणिमा आदि आठ
सिद्धियाँ प्रदान कीं। महाराज! तत्पश्चात् उनकी इच्छाके अनुसार अन्यान्य वर देकर
भगवान् केशव वहाँसे उसी प्रकार अन्तर्धान हो गये, जैसे मेघोंकी घटामें बिजली तिरोहित
हो जाती है। भारत! इसीलिये वह तीर्थ तीनों लोकोंमें सप्तचरुके नामसे विख्यात है। वहाँ
अग्निके लिये दिया हुआ चरु एक लाख गोदान, सौ राजसूययज्ञ और सहस्र अश्वमेधयज्ञसे
भी अधिक कल्याणकारी है। राजेन्द्र! वहाँसे लौटकर रुद्रपद नामक तीर्थमें जाय। वहाँ
महादेवजीकी पूजा करके तीर्थयात्री पुरुष अश्वमेधका फल पाता है || ९७--१०० ।।
मणिमन्तं समासाद्य ब्रह्मचारी समाहित: ।
एकरात्रोषितो राजन्नग्निष्टोमफलं लभेत् ।। १०१ ।।
राजन! एकाग्रचित्त हो ब्रह्मचर्य-पालनपूर्वक मणिमान् तीर्थमें जाय और वहाँ एक रात
निवास करे। इससे अग्निष्टोमयज्ञका फल प्राप्त होता है ।। १०१ ।।
अथ गच्छेत राजेन्द्र देविकां लोकविश्रुताम् ।
प्रसूतिर्यत्र विप्राणां श्रूयते भरतर्षभ ।। १०२ ।।
भरतवंशशिरोमणे! राजेन्द्र! वहाँसे लोकविख्यात देविकातीर्थकी यात्रा करे, जहाँ
ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति सुनी जाती है ।। १०२ ।।
त्रिशूलपाणे: स्थान च त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ।
देविकायां नर: स्नात्वा समभ्यर्च्य महेश्वरम् ।। १०३ ।।
यथाशक्ति चरूं तत्र निवेद्य भरतर्षभ ।
सर्वकामसमृद्धस्य यज्ञस्य लभते फलम् ।। १०४ ।।
वहाँ त्रिशूलपाणि भगवान् शिवका स्थान है, जिसकी तीनों लोकोंमें प्रसिद्धि है।
देविकामें स्नान करके भगवान् महेश्वरका पूजन और उन्हें यथाशक्ति चरु निवेदन करके
सम्पूर्ण कामनाओंसे समृद्ध यज्ञके फलकी प्राप्ति होती है । १०३-१०४ ।।
कामाख्य॑ तत्र रुद्रस्य तीर्थ देवनिषेवितम् ।
तत्र स्नात्वा नरः क्षिप्रं सिद्धि प्राप्रोति भारत ।। १०५ ।।
वहाँ भगवान् शंकरका देवसेवित कामतीर्थ है। भारत! उसमें स्नान करके मनुष्य शीघ्र
मनोवाजञ्छित सिद्धि प्राप्त कर लेता है ।। १०५ ।।
यजनं याजनं चैव तथैव ब्रह्म बालुकाम् ।
पुष्पाम्भश्न उपस्पृश्य न शोचेन्मरणं गत: ।। १०६ ।।
वहाँ यजन, याजन तथा वेदोंका स्वाध्याय करके अथवा वहाँकी बालू, पुष्प एवं जलका
स्पर्श करके मृत्युको प्राप्त हुआ पुरुष शोकसे पार हो जाता है || १०६ ।।
अर्धयोजनविस्तारा पञचयोजनमायता |
एतावती वेदिका तु पुण्या देवर्षिसेविता ।। १०७ ।।
वहाँ पाँच योजन लंबी और आधा योजन चौड़ी पवित्र वेदिका है, जिसका देवता तथा
ऋषि-मुनि भी सेवन करते हैं || १०७ ।।
ततो गच्छेत धर्मज्ञ दीर्घसत्रं यथाक्रमम् ।
तत्र ब्रह्मादयो देवा: सिद्धाश्ष परमर्षय: ।। १०८ ।।
धर्मज्ञ! वहाँसे क्रमश: “दीर्घसत्र” नामक तीर्थमें जाय। वहाँ ब्रह्मा आदि देवता, सिद्ध
और महर्षि रहते हैं ।।
दीर्घसत्रमुपासन्ते दीक्षिता नियतव्रता: ।। १०९ ।।
वे नियमपूर्वक व्रतका पालन करते हुए दीक्षा लेकर दीर्घसत्रकी उपासना करते
हैं ।। १०९ ||
गमनादेव राजेन्द्र दीर्घसत्रमरिंदम ।
राजसूयाश्चदमेधाभ्यां फलं प्राप्नोति भारत ।। ११० ।।
शत्रुओंका दमन करनेवाले भरतवंशी राजेन्द्र! वहाँकी यात्रा करने मात्रसे मनुष्य
राजसूय और अश्वमेध यज्ञोंक समान फल पाता है || ११० ।।
ततो विनशनं गच्छेन्नियतो नियताशन: ।
गच्छत्यन्तर्हिता यत्र मेरुपूछले सरस्वती ।। १११ ।।
तदनन्तर शौच-संतोषादि नियमोंका पालन और नियमित आहार ग्रहण करते हुए
विनशनतीर्थमें जाय, जहाँ मेरुपृष्ठपर रहनेवाली सरस्वती अदृश्य भावसे बहती है ।।
चमसे<5थ शिवोद्धेदे नागोद्धेदे च दृश्यते ।
स्नात्वा तु चमसोद्धेदे अग्निष्टोमफलं लभेत् ।। ११२ ।।
वहाँ चमसोद्धेद, शिवोद्धेद और नागोद्धेदतीर्थमें सरस्वतीका दर्शन होता है।
चमसोद्धेदमें स्नान करनेसे अग्निष्टोमयज्ञका फल प्राप्त होता है ।। ११२ ।।
शिवोद्धेदे नर: स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् ।
नागोद्धेदे नर: स्नात्वा नागलोकमवाप्नुयात् ।। ११३ ।।
शिवोद्धेदमें स्नान करके मनुष्य सहख्र गोदानका फल पाता है। नागोद्धेदतीर्थमें स्नान
करनेसे उसे नागलोककी प्राप्ति होती है ।। ११३ ।।
शशयानं च राजेन्द्र तीर्थमासाद्य दुर्लभम् ।
शशरूपप्रतिच्छन्ना: पुष्करा यत्र भारत ।। ११४ ।।
सरस्वत्यां महाराज अनुसंवत्सरं च ते ।
दृश्यन्ते भरतश्रेष्ठ वृत्तां वै कार्तिकीं सदा || ११५ ।।
तत्र स्नात्वा नरव्याप्र द्योतते शशिवत् सदा ।
गोसहस्रफलं चैव प्राप्तुयाद् भरतर्षभ ।। ११६ ।।
राजेन्द्र! शशयान नामक तीर्थ अत्यन्त दुर्लभ है। उसमें जाकर स्नान करे। महाराज
भारत! वहाँ सरस्वती नदीमें प्रतिवर्ष कार्तिकी पूर्णिमाको शश (खरगोश)-के रूपमें छिपे
हुए पुष्करतीर्थ देखे जाते हैं। भरतश्रेष्ठ! नरव्याप्र! वहाँ स्नान करके मनुष्य सदा चन्द्रमाके
समान प्रकाशित होता है। भरतकुलतिलक! उसे सहस्न गोदानका फल भी मिलता
है ।। ११४--११६ |।
कुमारकोटिमासाद्य नियत: कुरुनन्दन ।
तत्राभिषेकं कुर्वीत पितृदेवार्चने रत: || ११७ ।।
कुरुनन्दन! वहाँसे कुमारकोटितीर्थमें जाकर वहाँ नियमपूर्वक स्नान करे और देवता
तथा पितरोंके पूजनमें तत्पर रहे || ११७ ।।
गवामयुतमाप्रोति कुलं चैव समुद्धरेत् ।
ततो गच्छेत धर्मज्ञ रुद्रकोटिं समाहित: ।। ११८ ।।
पुरा यत्र महाराज मुनिकोटि: समागता ।
हर्षेण महताविष्टा रुद्रदर्शनकाड्क्षया ।। ११९ ।।
अहं पूर्वमहं पूर्व द्रक्ष्यामि वृषभध्वजम् ।
एवं सम्प्रस्थिता राजन्नषय: किल भारत || १२० ||
ऐसा करनेसे मनुष्य दस हजार गोदानका फल पाता है और अपने कुलका उद्धार कर
देता है। धर्मज्ञ! वहाँसे एकाग्रचित्त हो रुद्रकोटितीर्थमें जाय। महाराज! रुद्रकोटि वह स्थान
है, जहाँ पूर्वकालमें एक करोड़ मुनि बड़े हर्षमें भरकर भगवान् रुद्रके दर्शनकी अभिलाषासे
आये थे। भारत! “भगवान् वृषभध्वजका दर्शन पहले मैं करूँगा, मैं करूँगा" ऐसा संकल्प
करके वे महर्षि वहाँके लिये प्रस्थित हुए थे ।। ११८--१२० ।।
ततो योगेश्वरेणापि योगमास्थाय भूपते ।
तेषां मन्युप्रणाशार्थमृषीणां भावितात्मनाम् ।। १२१ ।।
सृष्टा कोटीति रुद्राणामृषीणामग्रत: स्थिता ।
मया पूर्वतरं दृष्ट इति ते मेनिरे पृथक् ।। १२२ ।।
तेषां तुष्टो महादेवो मुनीनां भावितात्मनाम् |
भक््त्या परमया राजन वर तेषां प्रदिष्टवान् ।। १२३ ।।
राजन! तब योगेश्वर भगवान् शिवने भी योगका आश्रय ले, उन शुद्धात्मा महर्षियोंके
शोककी शान्तिके लिये करोड़ों शिवलिंगोंकी सृष्टि कर दी, जो उन सभी ऋषियोंके आगे
उपस्थित थे; इससे उन सबने अलग-अलग भगवान्का दर्शन किया। राजन! उन शुद्धचेता
मुनियोंकी उत्तम भक्तिसे संतुष्ट हो महादेवजीने उन्हें वर दिया || १२१--१२३ ।।
अद्य प्रभृति युष्माकं धर्मवृद्धिर्भविष्यति |
तत्र स्नात्वा नरव्याप्र रुद्रकोट्यां नर: शुचि: ।। १२४ ।।
अश्वमेधमवाप्रोति कुलं चैव समुद्धरेत् ।
महर्षियो! आजसे तुम्हारे धर्मकी उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहेगी। नरश्रेष्ठ) उस रुद्रकोटिमें
स्नान करके शुद्ध हुआ मनुष्य अश्वमेधयज्ञका फल पाता और अपने कुलका उद्धार कर देता
है ।। १२४३ ।।
ततो गच्छेत राजेन्द्र संगमं लोकविश्रुतम् ।। १२५ ।।
सरस्वत्या महापुण्यं केशवं समुपासते ।
यत्र ब्रह्मादयो देवा ऋषयश्न॒ तपोधना: ।। १२६ ।।
राजेन्द्र! तदनन्तर परम पुण्यमय लोकविख्यात सरस्वतीसंगमतीर्थमें जाय, जहाँ ब्रह्मा
आदि देवता और तपस्याके धनी महर्षि भगवान् केशवकी उपासना करते हैं ।।
अभिगच्छन्ति राजेन्द्र चैत्रशुक्लचतुर्दशीम् ।
तत्र स्नात्वा नरव्याप्र विन्देद् बहुसुवर्णकम् ।
सर्वपापविशुद्धात्मा ब्रह्मलोक॑ च गच्छति ।। १२७ ।।
राजेन्द्र! वहाँ लोग चैत्र शुक्ल चतुर्दशीको विशेषरूपसे जाते हैं। पुरुषसिंह! वहाँ स्नान
करनेसे प्रचुर सुवर्णराशिकी प्राप्ति होती है और सब पापोंसे शुद्धचित्त होकर मनुष्य
ब्रह्मलोकको जाता है || १२७ ||
ऋषीणां यत्र सत्राणि समाप्तानि नराधिप ।
तत्रावसानमासाद्य गोसहस्रफलं लभेत् ।। १२८ ।।
नरेश्वर! जहाँ ऋषियोंके सत्र समाप्त हुए हैं, वहाँ अवसानतीर्थमें जाकर मनुष्य सहस्र
गोदानका फल पाता है ।। १२८ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि पुलस्त्यती र्थयात्रायां
दयशीतितमो<्ध्याय: ।। ८२ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें पुलस्त्यकाथिततीर्थयात्राविषयक
बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ८२ ॥
हि मय न घुक हि २ 7
- यद्यपि यहाँ पुलस्त्यजी भीष्मजीको यह प्रसंग सुना रहे हैं, तथापि इस संवादको नारदजीने युधिष्ठिरके समक्ष
उपस्थित किया है; अतः नारदजी युधिष्ठिरको सम्बोधित करें, इसमें कोई अनुपपत्ति नहीं है।
त्रय्शीतितमो< ध्याय:
कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित अनेक तीर्थोंकी महत्ताका वर्णन
घुलस्त्य उवाच
ततो गच्छेत राजेन्द्र कुरुक्षेत्रमभिष्टतम् ।
पापेभ्यो यत्र मुच्यन्ते दर्शनात् सर्वजन्तवः ।। १ ।।
पुलस्त्यजी कहते हैं--राजेन्द्र! तदनन्तर ऋषियोंद्वारा प्रशंसित कुरुक्षेत्रकी यात्रा करे,
जिसके दर्शनमात्रसे सब जीव पापोंसे मुक्त हो जाते हैं ।। १ ।।
कुरुक्षेत्र गमिष्यामि कुरुक्षेत्र वसाम्पहम् |
य एवं सतत ब्रूयात् सर्वपापै: प्रमुच्यते |। २ ।।
“मैं कुरक्षेत्रमें जाऊँगा, कुरुक्षेत्रमें निवास करूँगा।” इस प्रकार जो सदा कहा करता है,
वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है ।। २ ।।
पांसवो5पि कुरुक्षेत्रे वायुना समुदीरिता: ।
अपि दुष्कृतकर्माणं नयन्ति परमां गतिम् ।। ३ ।।
वायुद्वारा उड़ाकर लायी हुई कुरुक्षेत्रकी धूल भी शरीरपर पड़ जाय, तो वह पापी
मनुष्यको भी परमगतिकी प्राप्ति करा देती है ।। ३ ।।
दक्षिणेन सरस्वत्या दृषद्धत्युत्तरेण च ।
ये वसन्ति कुरुक्षेत्रे ते वसन्ति त्रिविष्टपे || ४ ।।
जो सरस्वतीके दक्षिण और दृषद्वतीके उत्तर कुरुक्षेत्रमें वास करते हैं, वे मानो
स्वर्गलोकमें ही रहते हैं |। ४ ।।
तत्र मासं वसेद् धीर: सरस्वत्यां युधिष्िर ।
यत्र ब्रह्मादयो देवा ऋषय: सिद्धचारणा: ।। ५ ।।
गन्धर्वाप्सरसो यक्षा: पन्नगाश्न महीपते ।
ब्रद्मक्षेत्रे महापुण्यमभिगच्छन्ति भारत ।॥। ६ ।।
(नारदजी कहते हैं--) युधिष्ठिर! वहाँ सरस्वतीके तटपर धीर पुरुष एक मासतक
निवास करे; क्योंकि महाराज! ब्रह्मा आदि देवता, ऋषि, सिद्ध, चारण, गन्धर्व, अप्सरा, यक्ष
और नाग भी उस परम पुण्यमय ब्रह्मक्षेत्रको जाते हैं ।। ५-६ ।।
मनसाप्यभिकामस्य कुरुक्षेत्र युधिष्ठिर ।
पापानि विप्रणश्यन्ति ब्रह्मलोक॑ च गच्छति ।। ७ ।।
युधिष्ठिर! जो मनसे भी कुरुक्षेत्रमें जानेकी इच्छा करता है, उसके सब पाप नष्ट हो
जाते हैं और वह ब्रह्मलोकको जाता है ।। ७ ||
गत्वा हि श्रद्धया युक्त: कुरुक्षेत्र कुरूद्वह ।
फल प्राप्रोति च तदा राजसूयाश्चमेधयो: ।। ८ ।।
कुरुश्रेष्ठ! श्रद्धासे युक्त होकर कुरक्षेत्रकी यात्रा करनेपर मनुष्य राजसूय और
अश्वमेधयज्ञोंका फल पाता है || ८ ।।
ततो मचक्रुकं नाम द्वारपालं महाबलम् |
यक्षं समभिवाद्यैव गोसहस्रफलं लभेत् ।। ९ ।।
तदनन्तर, वहाँ मचक्कुक नामवाले द्वारपाल महाबली यक्षको नमस्कार करनेमात्रसे
सहस्र गोदानका फल मिल जाता है || ९ ।।
ततो गच्छेत धर्मज्ञ विष्णो: स्थानमनुत्तमम् |
सतत नाम राजेन्द्र यत्र संनिहितो हरि: ।। १० ।।
धर्मज्ञ राजेन्द्र! तत्पश्चात् भगवान् विष्णुके परम उत्तम सतत नामक तीर्थस्थानमें जाय,
जहाँ श्रीहरि सदा निवास करते हैं || १० ।।
तत्र स्नात्वा च नत्वा च त्रिलोकप्रभवं हरिम् ।
अश्वमेधमवाप्रोति विष्णुलोकं॑ च गच्छति ।। ११ ।।
ततः पारिप्लवं गच्छेत् तीर्थ त्रैलोक्यविश्रुतम् ।
अग्निष्टोमातिरात्राभ्यां फल प्राप्रोति भारत ।। १२ ।।
वहाँ स्नान और त्रिलोकभावन भगवान् श्रीहरिको नमस्कार करनेसे मनुष्य
अश्वमेधयज्ञका फल पाता और भगवान् विष्णुके लोकमें जाता है। इसके बाद
त्रिभुवनविख्यात पारिप्लव नामक तीर्थमें जाय। भारत! वहाँ स्नान करनेसे अग्निष्टोम और
अतितरात्रयज्ञोंका फल प्राप्त होता है ।। ११-१२ ।।
पृथिवीतीर्थमासाद्य गोसहस्रफलं लभेत् |
ततः शालूकिनी गत्वा तीर्थसेवी नराधिप ।। १३ ।।
दशाश्रवमेधे स्नात्वा च तदेव फलमाप्नुयात्
सर्पदेवीं समासाद्य नागानां तीर्थमुत्तमम् ।। १४ ।।
अग्निष्टोममवाप्रोति नागलोकं च विन्दति ।
ततो गच्छेत धर्मज्ञ द्वारपालं तरन्तुकम् ।। १५ ।।
तत्रोष्य रजनीमेकां गोसहस्रफलं लभेत् ।
ततः पञ्चनदं गत्वा नियतो नियताशन: ।। १६ ।।
कोटितीर्थमुपस्पृश्य हयमेधफलं लभेत् ।
अश्रिनोस्तीर्थमासाद्य रूपवानभिजायते ।। १७ ।।
महाराज! वहाँसे पृथिवीतीर्थमें जाकर स्नान करनेसे सहस्र गोदानका फल प्राप्त होता
है। राजन! वहाँसे तीर्थसेवी मनुष्य शालूकिनीमें जाकर दशाश्वमेधतीर्थमें स्नान करनेसे उसी
फलका भागी होता है। सर्पदेवीमें जाकर उत्तम नागतीर्थका सेवन करनेसे मनुष्य
अग्निष्टोमका फल पाता और नागलोकमें जाता है। धर्मज्ञ! वहाँसे तरन्तुक नामक
द्वारपालके पास जाय। वहाँ एक रात निवास करनेसे सहसख्र गोदानका फल होता है। वहाँसे
नियमपूर्वक नियमित भोजन करते हुए पंचनदतीर्थमें जाय और वहाँ कोटितीर्थमें स्नान करे।
इससे अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त होता है। अश्विनीतीर्थमें जाकर स्नान करनेसे मनुष्य
रूपवान् होता है || १३--१७ ।।
ततो गच्छेत धर्मज्ञ वाराहं तीर्थमुत्तमम्
विष्णुरवाराहरूपेण पूर्व यत्र स्थितो5$भवत् ।। १८ ।।
तत्र स्नात्वा नरश्रेष्ठ अग्निष्टोमफलं लभेत् |
धर्मज्ञ! वहाँसे परम उत्तम वाराहतीर्थको जाय, जहाँ भगवान् विष्णु पहले वाराहरूपसे
स्थित हुए थे। नरश्रेष्ठ! वहाँ स्नान करनेसे अग्निष्टोमयज्ञका फल मिलता है ।। १८३ ||
ततो जयन्त्यां राजेन्द्र सोमतीर्थ समाविशेत् ।। १९ ।।
स््नात्वा फलमवाप्रोति राजसूयस्य मानव: ।
राजेन्द्र! तदनन्तर जयन्तीमें सोमतीर्थके निकट जाय, वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य
राजसूययज्ञका फल पाता है ।। १९ # ||
एकहंसे नर: स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् ॥। २० ।।
कृतशौचं समासाद्य तीर्थसेवी नराधिप ।
पुण्डरीकमवाप्नोति कृतशौचो भवेच्च स: ।। २१ ।।
एकहंसतीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्य सहस्र गोदानका फल पाता है। नरेश्वर!
कृतशौचतीर्थमें जाकर तीर्थसेवी मनुष्य पुण्डरीकयागका फल पाता और शुद्ध हो जाता
है || २०-२१ ।।
ततो मुञ्जवटं नाम स्थाणो: स्थान महात्मन: ।
उपोष्य रजनीमेकां गाणपत्यमवाप्लनुयात् || २२ ।।
तदनन्तर महात्मा स्थाणुके मुजजवट नामक स्थानमें जाय। वहाँ एक रात रहनेसे मानव
गणपतिपद प्राप्त करता है || २२ ।।
तत्रैव च महाराज यक्षिणीं लोकविश्रुताम् ।
स््नात्वाभिगम्य राजेन्द्र सर्वान् कामानवाप्लुयात् ।। २३ ।।
महाराज! वहीं लोकविख्यात यक्षिणीतीर्थ है। राजेन्द्र! उसमें जानेसे और स्नान करनेसे
सम्पूर्ण कामनाओंकी पूर्ति होती है ।। २३ ।।
कुरुक्षेत्रस्य तद् द्वारं विश्रुतं भरतर्षभ ।
प्रदक्षिणमुपावृत्य तीर्थसेवी समाहित: ।। २४ ।।
सम्मितं पुष्कराणां च स्नात्वार्च्य पितृदेवता: ।
जामदग्न्येन रामेण कृतं तत् सुमहात्मना ।। २५ ।।
कृतकृत्यो भवेद् राजन्नश्वमेधं च विन्दति ।
भरतश्रेष्ठ! वह कुरुक्षेत्रका विख्यात द्वार है। उसकी परिक्रमा करके तीर्थयात्री मनुष्य
एकाग्रचित्त हो पुष्करतीर्थके तुल्य उस तीर्थमें स्नान करके देवताओं और पितरोंकी पूजा
करे। राजन! इससे तीर्थयात्री कृतकृत्य होता और अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त करता है।
उत्तम श्रेणीके महात्मा जमदग्निनन्दन परशुरामने उस तीर्थका निर्माण किया है ।। २४-२५
न !
ततो रामह्ददान् गच्छेत् तीर्थसेवी समाहित: ।। २६ ।।
तदनन्तर तीर्थयात्री एकाग्रचित्त हो परशुराम-कुण्डोंपर जाय ।। २६ ।।
तत्र रामेण राजेन्द्र तरसा दीप्ततेजसा ।
क्षत्रमुत्साद्य वीरेण हदा: पञच निवेशिता: ।। २७ ||
राजेन्द्र! वहाँ उद्दीप्त तेजस्वी वीरवर परशुरामने सम्पूर्ण क्षत्रियकुलका वेगपूर्वक संहार
करके पाँच कुण्ड स्थापित किये थे ।। २७ ।।
पूरयित्वा नरव्यात्र रुधिरेणेति विश्रुतम् ।
पितरस्तर्पिता: सर्वे तथैव प्रपितामहा: ।। २८ ।।
पुरुषसिंह! उन कुण्डोंको उन्होंने रक्तसे भर दिया था, ऐसा सुना जाता है। उसी रक्तसे
परशुरामजीने अपने पितरों और प्रपितामहोंका तर्पण किया ।। २८ ।।
ततस्ते पितर: प्रीता राममूचुर्नराधिप ।
राजन! तब वे पितर अत्यन्त प्रसन्न हो परशुरामजीसे इस प्रकार बोले-- || २८६ ।।
पितर ऊचु.
राम राम महाभाग प्रीता: सम तव भार्गव ॥। २९ ।।
अनया पितृभक््त्या च विक्रमेण च ते विभो ।
वरं वृणीष्व भद्रं ते किमिच्छसि महाद्युते || ३० ।।
पितरोंने कहा--महाभाग राम! परशुराम! भृगुनन्दन! विभो! हम तुम्हारी इस
पितृभक्तिसे और तुम्हारे पराक्रमसे भी बहुत प्रसन्न हुए हैं। महाद्युते! तुम्हारा कल्याण हो।
तुम कोई वर माँगो। बोलो, क्या चाहते हो? || २९-३० ।।
एवमुक्त: स राजेन्द्र राम: प्रहरतां वर: ।
अब्रवीत् प्राञ्जलिवर्क्यं पितृन् स गगने स्थितान् ।। ३१ ||
भवन्न्तो यदि मे प्रीता यद्यनुग्राहता मयि ।
पितृप्रसादमिच्छेयं तप आप्यायनं पुनः ।। ३२ ।।
राजेन्द्र! उनके ऐसा कहनेपर योद्धाओंमें श्रेष्ठ परशुरामने हाथ जोड़कर आकाशमें खड़े
हुए उन पितरोंसे कहा--'पितृगण! यदि आपलोग मुझपर प्रसन्न हैं और यदि मैं आपका
अनुग्रहपात्र होऊकँ तो मैं आपका कृपा-प्रसाद चाहता हूँ। पुनः मेरी तपस्या पूरी हो
जाय || ३१-३२ |।
यच्च रोषाभिभूतेन क्षत्रमुत्सादितं मया ।
ततश्न पापान्मुच्येयं युष्माकं तेजसाप्यहम् ।। ३३ ।।
हृदाश्व तीर्थभूता मे भवेयुर्भुवि विश्रुता: ।
“मैंने जो रोषके वशीभूत होकर सारे क्षत्रियकुलका संहार कर दिया है, आपके प्रभावसे
मैं उस पापसे मुक्त हो जाऊँ तथा मेरे ये कुण्ड भूमण्डलमें विख्यात तीर्थस्वरूप हो
जायेँ || ३३३ ।।
एतच्छुत्वा शुभं वाक््यं रामस्य पितरस्तदा ।। ३४ ।।
प्रत्यूचु: परमप्रीता राम॑ हर्षसमन्विता: ।
तपस्ते वर्धतां भूय: पितृभक्त्या विशेषत: ।। ३५ ।।
परशुरामजीका यह शुभ वचन सुनकर उनके पितर बड़े प्रसन्न हुए और हर्षमें भरकर
बोले--“वत्स! तुम्हारी तपस्या इस विशेष पितृभक्तिसे पुन: बढ़ जाय ।। ३४-३५ ।।
यच्च रोषाभिभूतेन क्षत्रमुत्सादितं त्वया ।
ततश्न पापान्मुक्तस्त्वं पतितास्ते स्वकर्मभि: ।। ३६ ।।
“तुमने जो रोषमें भरकर क्षत्रियकुलका संहार किया है, उस पापसे तुम मुक्त हो गये। वे
क्षत्रिय अपने ही कर्मसे मरे हैं || ३६ ।।
हृदाक्ष तव तीर्थत्वं गमिष्यन्ति न संशय: ।
हृदेषु तेषु यः स्नात्वा पितृन् संतर्पयिष्यति ।। ३७ ।।
पितरस्तस्य वै प्रीता दास्यन्ति भुवि दुर्लभम् ।
ईप्सितं च मन:काम॑ स्वर्गलोकं च शाश्वतम् ।। ३८ ।।
“तुम्हारे बनाये हुए ये कुण्ड तीर्थस्वरूप होंगे, इसमें संशय नहीं है। जो इन कुण्डोंमें
नहाकर पितरोंका तर्पण करेंगे, उन्हें तृप्त हुए पितर ऐसा वर देंगे, जो इस भूतलपर दुर्लभ
है। वे उसके लिये मनोवाजञ्छित कामना और सनातन स्वर्गलोक सुलभ कर
देंगे! || ३७-३८ ।।
एवं दत्त्वा वरान् राजन् रामस्य पितरस्तदा ।
आमन्त्र्य भार्गव प्रीत्या तत्रैवान्तरहितास्तत: ।। ३९ ||
एवं रामह्नदा: पुण्या भार्गवस्य महात्मन: ।
स्नात्वा हदेषु रामस्य ब्रह्मबचारी शुभव्रत: || ४० ।।
राममभ्यर्च्य राजेन्द्र लभेद् बहुसुवर्णकम् ।
वंशमूलकमासाद्य तीर्थसेवी कुरूद्गह || ४१ ।।
स्ववंशमुद्धरेद् राजन् स्नात्वा वै वंशमूलके ।
कायशोधनमासाद्य तीर्थ भरतसत्तम ।। ४२ ।।
शरीरशुद्धि: स्नातस्य तस्मिंस्तीर्थे न संशय: ।
शुद्धदेहश्व संयाति शुभाललोकाननुत्तमान् ।। ४३ ।।
राजन! इस प्रकार वर देकर परशुरामजीके पितर प्रसन्नतापूर्वक उनसे अनुमति ले वहीं
अन्तर्धान हो गये। इस प्रकार भृगुनन्दन महात्मा परशुरामके वे कुण्ड बड़े पुण्यमय माने गये
हैं। राजन्! जो उत्तम व्रत एवं ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए परशुरामजीके उन कुण्डोंके
जलमें स्नान करके उनकी पूजा करता है, उसे प्रचुर सुवर्णराशिकी प्राप्ति होती है। कुरुश्रेष्ठ!
तदनन्तर तीर्थसेवी मनुष्य वंशमूलकतीर्थमें जाय। राजन्! वंशमूलकमें स्नान करके मनुष्य
अपने कुलका उद्धार कर देता है। भरतश्रेष्ठ!] कायशोधनतीर्थमें जाकर स्नान करनेसे
शरीरकी शुद्धि होती है, इसमें संशय नहीं। शरीर शुद्ध होनेपर मनुष्य परम उत्तम
कल्याणमय लोकोंमें जाता है || ३९--४३ ।।
ततो गच्छेत धर्मज्ञ तीर्थ त्रैलोक्यविश्रुतम् ।
लोका यत्रोद्धता: पूर्व विष्णुना प्रभविष्णुना || ४४ ।।
लोकोद्धारं समासाद्य तीर्थ त्रैलोक्यपूजितम् ।
स्नात्वा तीर्थवरे राजँल्लोकानुद्धरते स्वकान् । ४५ ।।
धर्मज्ञ! तदनन्तर त्रिभुवनविख्यात लोकोद्धारतीर्थमें जाय, जो तीनों लोकोंमें पूजित है।
वहाँ पूर्वकालमें सर्वशक्तिमान् भगवान् विष्णुने कितने ही लोकोंका उद्धार किया था। राजन!
लोकोद्धारमें जाकर उस उत्तम तीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्य आत्मीय जनोंका उद्धार करता
है || ४४-४५ ।।
श्रीतीर्थ च समासाद्य स्नात्वा नियतमानस: ।
अर्चयित्वा पितृन् देवान् विन्दते श्रियमुत्तमाम् ।। ४६ ।।
मनको वशमें करके श्रीतीर्थमें जाकर स्नान करके देवताओं और पितरोंकी पूजा
करनेसे मनुष्य उत्तम सम्पत्ति प्राप्त करता है || ४६ ।।
कपिलातीर्थमासाद्य ब्रह्मचारी समाहित: ।
तत्र स्नात्वार्चयित्वा च 9९ १०8: [_ स्वान् दैवतान्यपि ।। ४७ ।।
कपिलानां सहस्रस्य फलं मानव: |
कपिला-तीर्थमें जाकर ब्रह्मचर्यके पालनपूर्वक एकाग्रचित्त हो वहाँ स्नान और देवता-
पितरोंका पूजन करके मानव सहस्र कपिला गौओंके दानका फल प्राप्त करता है || ४७६
||
सूर्यतीर्थ समासाद्य स्नात्वा नियतमानस: ।। ४८ ।।
अर्चयित्वा पितृन् देवानुपवासपरायण: ।
अग्निष्टोममवाप्रोति सूर्यलोक॑ च गच्छति ।। ४९ ।।
मनको वशमें करके सूर्यतीर्थमें जाकर स्नान और देवता-पितरोंका अर्चन करके
उपवास करनेवाला मनुष्य अग्निष्टोमयज्ञका फल पाता और सूर्यलोकमें जाता
है || ४८-४९ ।।
गवां भवनमासाद्य तीर्थसेवी यथाक्रमम् |
तत्राभिषेकं कुर्वाणो गोसहस्रफलं लभेत् ।। ५० ।।
तदनन्तर तीर्थसेवी क्रमश: गोभवनतीर्थमें जाकर वहाँ स्नान करे। इससे उसको सहस्र
गोदानका फल मिलता है || ५० ।।
शड्खिनीतीर्थमासाद्य तीर्थसेवी कुरूद्वह ।
देव्यास्तीर्थे नर: स्नात्वा लभते रूपमुत्तमम् ।। ५१ ।।
कुरुश्रेष्ठ! तीर्थयात्री पुरुष शंखिनीतीर्थमें जाकर वहाँ देवीतीर्थमें स्नान करनेसे उत्तम
रूप प्राप्त करता है ।।
ततो गच्छेत राजेन्द्र द्वारपालमरन्तुकम् ।
तच्च तीर्थ सरस्वत्यां यक्षेन्द्रस्य महात्मन: ।। ५२ ।।
तत्र स्नात्वा नरो राजन्नग्निष्टोमफलं लभेत् ।
राजेन्द्र! तदनन्तर अरन्तुक नामक द्वारपालके पास जाय। महात्मा यक्षराज कुबेरका
वह तीर्थ सरस्वती नदीमें है। राजन्! वहाँ स्नान करनेसे मनुष्यको अग्निष्टोमयज्ञका फल
प्राप्त होता है ।। ५२३ ।।
ततो गच्छेत राजेन्द्र ब्रह्मावर्त नरोत्तम: ।। ५३ ।।
ब्रह्मावर्ते नर: स्नात्वा ब्रह्मलोकमवाप्नुयात् ।
राजेन्द्र! तदनन्तर श्रेष्ठ मानव ब्रह्मावर्ततीर्थको जाय। ब्रह्मावर्तमें स्नान करके मनुष्य
ब्रह्मलोकको प्राप्त कर लेता है || ५३ ३ ।।
ततो गच्छेत राजेन्द्र सुतीर्थकमनुत्तमम् ।। ५४ ।।
तत्र संनिहिता नित्यं पितरो दैवतै: सह ।
तत्राभिषेकं कुर्वीत पितृदेवार्चने रत: ।। ५५ ।।
अश्वमेधमवाप्रोति पितृलोक॑ च गच्छति ।
राजेन्द्र! वहाँसे परम उत्तम सुतीर्थमें जाय। वहाँ देवतालोग पितरोंके साथ सदा
विद्यमान रहते हैं। वहाँ पितरों और देवताओंके पूजनमें तत्पर हो स्नान करे। इससे
तीर्थयात्री अश्वमेधयज्ञका फल पाता और पितृलोकमें जाता है || ५४-५५ ६ ।।
ततोअप्बुमत्यां धर्मज्ञ सुतीर्थकमनुत्तमम् ।। ५६ ।।
धर्मज्ञ! वहाँसे अम्बुमतीमें, जो परम उत्तम तीर्थ है, जाय || ५६ ।।
काशीथ्वरस्य तीर्थेषु स्नात्वा भरतसत्तम |
सर्वव्याधिविनिर्मुक्तो ब्रह्मलोके महीयते ।। ५७ ।।
भरतश्रेष्ठ! काशीश्वरके तीर्थोमें स्नान करके मनुष्य सब रोगोंसे मुक्त हो जाता और
ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है ।। ५७ ।।
मातृतीर्थ च तत्रैव यत्र स्नातस्य भारत |
प्रजा विवर्धते राजन्नतन्वीं श्रियमश्नुते || ५८ ।।
भरतवंशी महाराज! वहीं मातृतीर्थ है, जिसमें स्नान करनेवाले पुरुषकी संतति बढती है
और वह कभी क्षीण न होनेवाली सम्पत्तिका उपभोग करता है ।।
ततः सीतवनं गच्छेन्नियतो नियताशन: ।
तीर्थ तत्र महाराज महदन्यत्र दुर्लभम् ।। ५९ ।।
तदनन्तर नियमसे रहकर नियमित भोजन करते हुए सीतवनमें जाय। महाराज! वहाँ
महान् तीर्थ है, जो अन्यत्र दुर्लभ है ।। ५९ ।।
पुनाति गमनादेव दृष्टमेक॑ नराधिप ।
केशानभ्युक्ष्य वै तस्मिन् पूतो भवति भारत ।। ६० ।।
नरेश्वर! वह तीर्थ एक बार जाने या दर्शन करनेसे ही पवित्र कर देता है। भारत! उसमें
केशोंको धो लेने मात्रसे ही मनुष्य पवित्र हो जाता है ।। ६० ।।
तीर्थ तत्र महाराज श्वाविल्लोमापहं स्मृतम् ।
यत्र विप्रा नरव्याप्र विद्वांसस्तीर्थतत्परा: ।। ६१ ।।
प्रीतिं गच्छन्ति परमां स्नात्वा भरतसत्तम ।
श्वाविल्लोमापनयने तीर्थे भरतसत्तम || ६२ ।।
प्राणायामैर्निर्हरिन्ति स्वलोमानि द्विजोत्तमा: |
पूतात्मानश्न राजेन्द्र प्रयान्ति परमां गतिम् ।। ६३ ।।
महाराज! वहाँ श्वाविल्लोमापह नामक तीर्थ है। नरव्याप्र! उसमें तीर्थपरायण हुए
विद्वान ब्राह्मण स्नान करके बड़े प्रसन्न होते हैं। भरतसत्तम! श्वाविल्लोमापनयनतीर्थमें
प्राणायाम (योगकी क्रिया) करनेसे श्रेष्ठ द्विज अपने रोएँ झाड़ देते हैं तथा राजेन्द्र! वे
शुद्धचित्त होकर परमगतिको प्राप्त होते हैं ।। ६१--६३ ।।
दशाश्रमेधिकं चैव तस्मिंस्तीर्थे महीपते ।
तत्र स्नात्वा नरव्यापत्र गच्छेत परमां गतिम् ।। ६४ ।।
भूपाल! वहीं दशाश्वमेधिकतीर्थ भी है। पुरुषसिंह! उसमें स्नान करके मनुष्य उत्तम गति
प्राप्त करता है ।। ६४ ।।
ततो गच्छेत राजेन्द्र मानुषं लोकविश्रुतम् ।
यत्र कृष्णमृगा राजन् व्याधेन शरपीडिता: ।। ६५ ।।
विगाहा तस्मिन् सरसि मानुषत्वमुपागता: ।
तस्मिंस्तीर्थ नर: स्नात्वा ब्रह्मचारी समाहित: ।। ६६ ।।
सर्वपापविशुद्धात्मा स्वर्गलोके महीयते ।
राजेन्द्र! तदनन्तर लोकविख्यात मानुषतीर्थमें जाय। राजन! वहाँ व्याधके बाणोंसे
पीडित हुए कृष्णमृग उस सरोवरमें गोते लगाकर मनुष्य-शरीर पा गये थे, इसीलिये उसका
नाम मानुषतीर्थ है। ब्रह्मचर्यपालन-पूर्वक एकाग्रचित्त हो उस तीर्थमें स्नान करनेवाला मानव
सब पापोंसे मुक्त हो स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है ।। ६५-६६३ ।।
मानुषस्य तु पूर्वेण क्रोशमात्रे महीपते ।। ६७ ।।
आप गा नाम विख्याता नदी सिद्धनिषेविता ।
श्यामाकं भोजने तत्र यः प्रयच्छति मानव: ।। ६८ ।।
देवान् पितृन् समुद्दिश्य तस्य धर्मफलं महत् |
एकस्मिन् भोजिते विप्रे कोटिर्भवति भोजिता ।। ६९ ।।
राजन! मानुषतीर्थसे पूर्व एक कोसकी दूरीपर आपगा नामसे विख्यात एक नदी है, जो
सिद्धपुरुषोंसे सेवित है। जो मनुष्य वहाँ देवताओं और पितरोंके उद्देश्य्से भोजन कराते
समय श्यामाक (साँवा) नामक अन्न देता है, उसे महान् धर्मफलकी प्राप्ति होती है। वहाँ एक
ब्राह्मणगको भोजन करानेपर एक करोड़ ब्राह्मणोंको भोजन करानेका फल मिलता है ।। ६७
-:५5९ ||
तत्र स्नात्वार्चयित्वा च पितृन् वै दैवतानि च ।
उषित्वा रजनीमेकामग्निष्टोमफलं लभेत् ।। ७० ।।
वहाँ स्नान करके देवताओं और पितरोंके पूजनपूर्वक एक रात निवास करनेसे
अग्निष्टोमयज्ञका फल मिलता है || ७० |।
ततो गच्छेत राजेन्द्र ब्रह्मण: स्थानमुत्तमम् ।
ब्रह्मोदुम्बरमित्येव प्रकाशं भुवि भारत ।। ७१ ।।
भरतवंशी राजेन्द्र! तदनन्तर ब्रह्माजीके उत्तम स्थानमें जाय, जो इस पृथ्वीपर
ब्रह्मोदुम्बरतीर्थके नामसे प्रसिद्ध है || ७१ ।।
तत्र सप्तर्षिकुण्डेषु स्नातस्य नरपुड्भव ।
केदारे चैव राजेन्द्र कपिलस्य महात्मन: ।। ७२ ।।
ब्रह्माणमधिगम्याथ शुचि: प्रयतमानस: ।
सर्वपापविशुद्धात्मा ब्रह्मलोक॑ प्रपद्यते || ७३ ।।
कपिलस्य च केदारं समासाद्य सुदुर्लभम् ।
अन्तर्धानमवाप्रोति तपसा दग्धकिल्बिष: || ७४ ।।
वहाँ सप्तर्षिकुण्ड है। नरश्रेष्ठ महाराज! उन कुण्डोंमें तथा महात्मा कपिलके
केदारतीर्थमें स्नान करनेसे पुरुषको महान् पुण्यकी प्राप्ति होती है। वह मनुष्य ब्रह्माजीके
निकट जाकर उनका दर्शन करनेसे शुद्ध, पवित्रचित्त एवं सब पापोंसे रहित होकर
ब्रह्मलोकमें जाता है। कपिलका केदार भी अत्यन्त दुर्लभ है। वहाँ जानेसे तपस्याद्वारा सब
पाप नष्ट हो जानेके कारण मनुष्यको अन्तर्धानविद्याकी प्राप्ति हो जाती है ।।
ततो गच्छेत राजेन्द्र सरकं॑ लोकविश्रुतम् ।
कृष्णपक्षे चतुर्दश्यामभिगम्य वृषध्वजम् ।। ७५ ।।
लभेत सर्वकामान् हि स्वर्गलोक॑ च गच्छति ।
राजेन्द्र! तदनन्तर लोकविख्यात सरकतीर्थमें जाय। वहाँ कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको
भगवान् शंकरका दर्शन करनेसे मनुष्य सब कामनाओंको प्राप्त कर लेता और स्वर्गलोकमें
जाता है || ७५३ ।।
तिस््र: कोट्यस्तु तीर्थानां सरके कुरुनन्दन || ७६ ।।
कुरुनन्दन! सरकमें तीन करोड़ तीर्थ हैं || ७६ ।।
रुद्रकोट्यां तथा कूपे हृदेषु च महीपते ।
इलास्पदं च तत्रैव तीर्थ भरतसत्तम ।। ७७ ।।
तत्र स्नात्वार्चयित्वा च दैवतानि थ।
न दुर्गतिमवाप्रोति वाजपेयं च ॥। ७८ |।
राजन्! ये सब तीर्थ रुद्रकोटिमें, कूपमें और कुण्डोंमें हैं। भरतशिरोमणे! वहीं
इलास्पदतीर्थ है, जिसमें स्नान और देवता-पितरोंका पूजन करनेसे मनुष्य कभी दुर्गतिमें
नहीं पड़ता और वाजपेययज्ञका फल पाता है || ७७-७८ ||
किंदाने च नर: स्नात्वा किंजप्ये च महीपते ।
अप्रमेयमवाप्रोति दानं जप्यं च भारत ।। ७९ ।।
महीपते! वहाँ किंदान और किंजप्य नामक तीर्थ भी हैं। भारत! उनमें स्नान करनेसे
मनुष्य दान और जपका असीम फल पाता है ।। ७९ |।
कलश्यां वार्युपस्पृश्य श्रद्दधानो जितेन्द्रिय: ।
अग्निष्टोमस्य यज्ञस्य फल प्राप्रोति मानव: ॥। ८० ।।
कलशीतीर्थमें जलका आचमन करके श्रद्धालु और जितेन्द्रिय मानव अग्निष्टोमयज्ञका
फल पाता है ।।
सरकस्य तु पूर्वेण नारदस्य महात्मन: ।
तीर्थ कुरुकुलश्रेष्ठ अम्बाजन्मेति विश्रुतम् ।। ८१ ।।
कुरुकुलश्रेष्ठ! सरकतीर्थके पूर्वमें महात्मा नारदका तीर्थ है, जो अम्बाजन्मके नामसे
विख्यात है ।। ८१ ।।
तत्र तीर्थे नरः स्नात्वा प्राणानुत्सूज्य भारत ।
नारदेनाभ्यनुज्ञातो लोकान प्राप्रोत्यनुत्तमान् ।। ८२ ।।
भारत! उस तीर्थमें स्नान करके मनुष्य प्राणत्यागके पश्चात् नारदजीकी आज्ञाके
अनुसार परम उत्तम लोकोंमें जाता है ।। ८२ ।।
शुक्लपक्षे दशम्यां च पुण्डरीकं॑ समाविशेत् ।
तत्र स्नात्वा नरो राजन् पुण्डरीकफलं लभेत् ।। ८३ ।।
शुक्लपक्षकी दशमी तिथिको पुण्डरीकतीर्थमें प्रवेश करे। राजन्! वहाँ स्नान करनेसे
मनुष्यको पुण्डरीकयागका फल प्राप्त होता है ।। ८३ ।।
ततस्त्रिविष्टपं गच्छेत् त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ।
तत्र वैतरणी पुण्या नदी पापप्रणाशिनी ।। ८४ ।।
तदनन्तर तीनों लोकोंमें विख्यात त्रिविष्टपतीर्थमें जाय। वहाँ वैतरणी नामक पुण्यमयी
पापनाशिनी नदी है ।।
तत्र स्नात्वार्चयित्वा च शूलपारणिं वृषध्वजम् |
सर्वपापविशुद्धात्मा गच्छेत परमां गतिम् ।। ८५ ।।
उसमें स्नान करके शूलपाणि भगवान् शंकरकी पूजा करनेसे मनुष्य सब पापोंसे
शुद्धचित्त हो परम गतिको प्राप्त होता है ।। ८५ ।।
ततो गच्छेत राजेन्द्र फलकीवनमुत्तमम् |
तत्र देवा: सदा राजन् फलकीवनमरश्रिता: ।। ८६ ।।
तपश्चरन्ति विपुलं बहु वर्षमहस्रकम् ।
दृषद्व॒त्यां नर: स्नात्वा तर्पयित्वा च देवता: ।। ८७ ।।
अग्निष्टोमातिरात्रा भ्यां फलं विन्दति भारत |
तीर्थ च सर्वदेवानां स्नात्वा भरतसत्तम ।। ८८ ।।
गोसहस्रस्य राजेन्द्र फलं विन्दति मानव: ।
पाणिखाते नर: स्नात्वा तर्पयित्वा च देवता: ।। ८९ ।।
अग्निष्टोमातिरात्रा भ्यां फलं विन्दति भारत |
राजसूयमवाप्रोति ऋषिलोक॑ च विन्दति ।। ९० ।।
राजेन्द्र! वहाँसे फलकीवन नामक उत्तम तीर्थकी यात्रा करे। राजन्! देवतालोग
फलकीवनमें सदा निवास करते हैं और अनेक सहस वर्षोतक वहाँ भारी तपस्यामें लगे रहते
हैं। भारत! दृषद्वतीमें स्नान करके देवता-पितरोंका तर्पण करनेसे मनुष्य अग्निष्टोम और
अतितरात्र यज्ञोंका फल पाता है। भरतसत्तम राजेन्द्र! सर्वदेवतीर्थमें स्नान करनेसे मानव
सहस्र गोदानका फल पाता है। भारत! पाणिखाततीर्थमें स्नान करके देवता-पितरोंका तर्पण
करनेसे मनुष्य अग्निष्टोम और अतिरात्रयज्ञोंसे मिलनेवाले फलको प्राप्त कर लेता है; साथ
ही वह राजसूययज्ञका फल पाता एवं ऋषिलोकमें जाता है ।।
ततो गच्छेत राजेन्द्र मिश्रकं तीर्थमुत्तमम् ।
तत्र तीर्थानि राजेन्द्र मिश्रितानि महात्मना ।। ९१ ।।
व्यासेन नृपशार्दूल द्विजार्थमिति न: श्रुतम् ।
सर्वतीर्थेषु स सनाति मिश्रके सनाति यो नर: ।। ९२ ।।
राजेन्द्र! तत्पश्चात् परम उत्तम मिश्रकतीर्थमें जाय। महाराज! वहाँ महात्मा व्यासने
द्विजोंके लिये सभी तीर्थोका सम्मिश्रण किया है; यह बात मेरे सुननेमें आयी है। जो मनुष्य
मिश्रकतीर्थमें स्नान करता है, उसका वह स्नान सभी तीर्थोर्में स्नान करनेके समान
है || ९१-९२ |।
ततो व्यासवनं गच्छेन्नियतो नियताशन: ।
मनोजवे नर: स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् ।। ९३ ।।
तत्पश्चात् नियमपूर्वक रहते हुए मिताहारी होकर व्यासवनकी यात्रा करे। वहाँ
मनोजवतीर्थमें स्नान करके मनुष्य सहस्र गोदानका फल पाता है ।। ९३ ।।
गत्वा मधुवटीं चैव देव्यास्तीर्थे नर: शुचि: ।
तत्र स्नात्वार्चयित्वा च पितृन् देवांश्व॒ पूरुष: ।। ९४ ।।
स देव्या समनुज्ञातो गोसहस्रफलं लभेत् |
मधुवटीमें जाकर देवीतीर्थमें स्नान करके पवित्र हुआ मानव वहाँ देवता-पितरोंकी पूजा
करके देवीकी आज्ञाके अनुसार सहस्र गोदानका फल पाता है || ९४ ३ |।
कौशिक्या: संगमे यस्तु दृषद्धत्याश्व भारत ।। ९५ ।।
सस््नाति वै नियताहार: सर्वपापै: प्रमुच्यते ।
भारत! कौशिकी और दृषद्वतीके संगममें जो स्नान करता है तथा नियमपालनपूर्वक
संयमित भोजन करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है ।। ९५३ ।।
ततो व्यासस्थली नाम यत्र व्यासेन धीमता ।। ९६ ।।
पुत्रशोकाभितप्तेन देहत्यागे कृता मति: ।
ततो देवैस्तु राजेन्द्र पुनरुत्थापितस्तदा ।। ९७ ।।
अभिगत्वा स्थलीं तस्य गोसहस्रफलं लभेत् ।
तत्पश्चात् व्यासस्थलीमें जाय, जहाँ परम बुद्धिमान् व्यासने पुत्रशोकसे संतप्त हो शरीर
त्याग देनेका विचार किया था। राजेन्द्र! उस समय उन्हें देवताओंने पुनः उठाया था। उस
स्थलमें जानेसे सहख्न गोदानका फल मिलता है || ९६-९७ ३ ।।
किंदत्तं कूपमासाद्य तिलप्रस्थं प्रदाय च ।। ९८ ।।
गच्छेत परमां सिद्धिमृणैर्मुक्त: कुरूद्वह ।
वेदीतीर्थ नर: स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् ।। ९९ ।।
किंदत्त नामक कूपके समीप जाकर एक प्रस्थ अर्थात् सोलह मुट्ठी तिल दान करे।
कुरुश्रेष्ट! ऐसा करनेसे मनुष्य तीनों ऋणोंसे मुक्त हो परम सिद्धिको प्राप्त होता है।
वेदीतीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्य सहस्र गोदानका फल पाता है ।। ९८-९९ |।
अहश्न सुदिनं चैव द्वे तीर्थ लोकविश्रुते ।
तयो: स्नात्वा नरव्याप्र सूर्यलोकमवाप्लुयात् ।। १०० ।।
अहन् और सुदिन--ये दो लोकविख्यात तीर्थ हैं। नरश्रेष्ठ)! उन दोनोंमें स्नान करके
मनुष्य सूर्यलोकमें जाता है || १०० ।।
मृगधूमं ततो गच्छेत् त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्
तत्राभिषेकं कुर्वीत गज्जायां नृपसत्तम ।। १०१ ।।
नृपश्रेष्ठ तदनन्तर तीनों लोकोंमें विख्यात मृगधूम-तीर्थमें जाय और वहाँ गंगाजीमें
स्नान करे || १०१ |।
अर्चयित्वा महादेवमश्वमेधफलं लभेत् ।
देव्यास्तीर्थे नर: स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् ।। १०२ ।।
वहाँ महादेवजीकी पूजा करके मनुष्य अश्वमेध-यज्ञका फल पाता है। देवीतीर्थमें स्नान
करनेसे मनुष्यको सहस्र गोदानका फल मिलता है ।। १०२ ।।
ततो वामनकं गच्छेत् त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्
तत्र विष्णुपदे स्नात्वा अर्चयित्वा च वामनम् ।। १०३ |।
सर्वपापविशुद्धात्मा विष्णुलोकं॑ स गच्छति ।
कुलम्पुने नर: स्नात्वा पुनाति स्वकुलं ततः ।। १०४ ।।
तत्पश्चात् त्रिलोकविख्यात वामनतीर्थमें जाय। वहाँ विष्णुपदमें स्नान और
वामनदेवताका पूजन करनेसे मनुष्य सब पापोंसे शुद्ध हो भगवान् विष्णुके लोकमें जाता है।
कुलम्पुनतीर्थमें स्नान करके मानव अपने कुलको पवित्र कर देता है ।। १०३-१०४ ।।
पवनस्य हवदे स्नात्वा मरुतां तीर्थमुत्तमम् ।
तत्र स्नात्वा नरव्याप्र विष्णुलोके महीयते ।। १०५ ।।
नरव्याप्र! तदनन्तर पवनहृदमें स्नान करे। वह मरुद्गणोंका उत्तम तीर्थ है। वहाँ स्नान
करनेसे मानव विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है | १०५ ।।
अमराणां ह्वदे स्नात्वा समभ्यर्च्यामराधिपम् |
अमराणां प्रभावेण स्वर्गलोके महीयते ।। १०६ ।।
अमरह॒दमें स्नान करके अमरेश्वर इन्द्रका पूजन करे। ऐसा करके मनुष्य अमरोंके
प्रभावसे स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है ।। १०६ ।।
शालिहोगत्रस्य तीर्थे च शालिसूर्ये यथाविधि ।
स््नात्वा नरवरश्रेष्ठ गोसहस्रफलं लभेत् ।। १०७ ।।
नरश्रेष्ठ शालिहोत्रके शालिसूर्य नामक तीर्थमें विधिपूर्वक स्नान करके मनुष्य सहस्र
गोदानका फल पाता है || १०७ ।।
श्रीकुज्जं च सरस्वत्यास्तीर्थ भरतसत्तम ।
तत्र स्नात्वा नरश्रेष्ठ अग्निष्टोमफलं लभेत् ।। १०८ ।।
भरतसत्तम नरश्रेष्ठ) श्रीकूंज नामक सरस्वतीतीर्थमें स्नान करनेसे मानव
अग्निष्टोमयज्ञका फल प्राप्त कर लेता है || १०८ ।।
ततो नैमिषकुण्जं च समासाद्य कुरूद्धह |
ऋषय : किल राजेन्द्र नैमिषेयास्तपस्विन: ।। १०९ ।।
तीर्थयात्रां पुरस्कृत्य कुरुक्षेत्र गता: पुरा ।
ततः कुञ्ज: सरस्वत्या: कृतो भरतसत्तम ।॥। ११० ।।
कुरुश्रेष्ठ! तत्पश्चात् नैमिषकुठ्जकी यात्रा करे। राजेन्द्र! कहते हैं, नैमिषारण्यके निवासी
तपस्वी ऋषि पहले कभी तीर्थयात्राके प्रसंगसे कुरुक्षेत्रमें गये थे। भरतश्रेष्ठ] उसी समय
उन्होंने सरस्वतीकुंजका निर्माण किया था (वही नैमिषकुंज कहलाता है) || १०९-११० ||
ऋषीणामवकाश: स्याद् यथा तुष्टिकरो महान् ।
तस्मिन् कुण्जे नरः स्नात्वा अग्निष्टोमफलं लभेत् ।। १११ ।।
वह ऋषियोंका स्थान है, जो उनके लिये महान् संतोषजनक है। उस कुंजमें स्नान
करके मनुष्य अग्निष्टोमयज्ञका फल पाता है ।। १११ ।।
ततो गच्छेत धर्मज्ञ कन्यातीर्थमनुत्तमम् ।
कन्यातीर्थे नर: स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् ।। ११२ ।।
धर्मज्ञ! तदनन्तर परम उत्तम कन्यातीर्थकी यात्रा करे। कन्यातीर्थमें स्नान करनेसे मानव
सहस्र गोदानका फल पाता है || ११२ ।।
ततो गच्छेत राजेन्द्र ब्रह्मणस्तीर्थमुत्तमम् ।
तत्र वर्णावर: स्नात्वा ब्राह्मण्यं लभते नर: ।। ११३ ।।
ब्राह्मणश्व विशुद्धात्मा गच्छेत परमां गतिम् |
राजेन्द्र! तदनन्तर परम उत्तम ब्रह्मतीर्थमें जाय। वहाँ स्नान करनेसे ब्राह्मणेतर वर्णका
मनुष्य भी ब्राह्मणत्व लाभ करता है। ब्राह्मण होनेपर शुद्धचित्त हो वह परम गतिको प्राप्त
कर लेता है || ११३ ६ ।।
ततो गच्छेन्नरश्रेष्ठ सोमतीर्थमनुत्तमम् ।। ११४ ।।
तत्र स्नात्वा नरो राजन् सोमलोकमवाप्नुयात्
नरश्रेष्ठ! तत्पश्चात् उत्तम सोमतीर्थकी यात्रा करे। राजन! वहाँ स्नान करनेसे मानव
सोमलोकको जाता है ।। ११४ $ ।।
सप्तसारस्वतं तीर्थ ततो गच्छेन्नराधिप ।। ११५ ।।
यत्र मड़कणक: सिद्धो महर्षिलोंकविश्रुत: ।
पुरा मड़कणको राजन् कुशाग्रेणेति न: श्रुतम् ।। ११६ ।।
क्षत: किल करे राज॑स्तस्य शाकरसो5स्रवत् ।
स वै शाकरसं दृष्टवा हर्षाविष्ट:प्रनृत्तवान् ।। ११७ ।।
नरेश्वर! इसके बाद सप्तसारस्वत नामक तीर्थकी यात्रा करे, जहाँ लोकविख्यात महर्षि
मंकणकको सिद्धि प्राप्त हुई थी। राजन! हमारे सुननेमें आया है कि पहले कभी महर्षि
मंकणकके हाथमें कुशका अग्रभाग गड़ गया, जिससे उनके हाथमें घाव हो गया। महाराज!
उस समय उस हाथसे शाकका रस चूने लगा। शाकका रस चूता देख महर्षि हर्षावेशसे
मतवाले हो नृत्य करने लगे || ११५--११७ |।
ततस्तस्मिन् प्रनृत्ते तु स्थावरं जंगमं च यत् |
प्रनृत्तमुभयं वीर तेजसा तस्य मोहितम् ।। ११८ ।।
वीर! उनके नृत्य करते समय उनके तेजसे मोहित हो सारा चराचर जगत् नृत्य करने
लगा || ११८ ।।
ब्रह्मादिभि: सुरै राजन्नषिभिश्न तपोधनै: ।
विज्ञप्तो वै महादेव ऋषेरथ नराधिप ।। ११९ ।।
राजन! नरेश्वर! उस समय ब्रह्मा आदि देवता तथा तपोधन महर्षिगण--सबने मंकणक
मुनिके विषयमें महादेवजीसे निवेदन किया-- ।। ११९ ।।
नाय॑ नृत्येद् यथा देव तथा त्वं कर्तुमहसि ।
त॑ प्रनृत्त समासाद्य हर्षाविष्टेन चेतसा ।
सुराणां हितकामार्थमृषिं देवो5भ्यभाषत ।। १२० ।।
“देव! आप कोई ऐसा उपाय करें, जिससे इनका यह नृत्य बंद हो जाय।” महादेवजी
देवताओंके हितकी इच्छासे हर्षावेशसे नाचते हुए मुनिके पास गये और इस प्रकार बोले
-- || १२० ||
भो भो महर्षे धर्मज्ञ किमर्थ नृत्यते भवान् |
हर्षस्थानं किमर्थ वा तवाद्य मुनिपुज़व ।। १२१ ।।
“धर्मज्ञ महर्षे! मुनिप्रवरा आप किसलिये नृत्य कर रहे हैं? आज आपके इस
हर्षातिरेकका क्या कारण है? ।।
ऋषिरुवाच
तपस्विनो धर्मपथे स्थितस्य द्विजसत्तम |
कि न पश्यसि मे ब्रह्मन् कराच्छाकरसं ख्रुतम् ।। १२२ ।।
य॑ं दृष्टवा सम्प्रनृत्तो5हं हर्षण महतान्वित: ।
ऋषिने कहा--द्विजश्रेष्ठ! ब्रह्मन! मैं धर्मके मार्गपर स्थिर रहनेवाला तपस्वी हूँ। मेरे
हाथसे यह शाकका रस चू रहा है। क्या आप इसे नहीं देखते? इसीको देखकर मैं महान्
हर्षसे नाच रहा हूँ || १२२६ ।।
त॑ प्रहस्याब्रवीद् देव ऋषिं रागेण मोहितम् ॥। १२३ ।।
महर्षि रागसे मोहित हो रहे थे। महादेवजीने उनकी बात सुनकर हँसते हुए कहीं
-- | १२३ |।
अहं तु विस्मयं विप्र न गच्छामीति पश्य माम् |
एवमुक्त्वा नरश्रेष्ठ महादेवेन धीमता ।। १२४ ।।
अड्गुल्यग्रेण राजेन्द्र स्वावड्गुष्ठस्ताडितो 5नघ ।
ततो भस्म क्षताद् राजन् निर्गतं हिमसंनिभम् ।। १२५ ||
“विप्रवर! मुझे तो यह देखकर कोई आश्चर्य नहीं हो रहा है। मेरी ओर देखिये।'
नरश्रेष्ठ! निष्पाप राजेन्द्र! ऐसा कहकर परम बुद्धिमान् महादेवजीने अंगुलीके
अग्रभागसे अपने अँगूठेको ठोंका। राजन्! उनके चोट करनेपर उस अँगूठेसे बर्फके समान
सफेद भस्म गिरने लगा ।। १२४-१२५ ।।
तद् दृष्टवा व्रीडितो राजन् स मुनि: पादयोर्गत: ।
नान्यद् देवात् परं मेने रुद्रात् परतरं महत् ।। १२६ ।।
महाराज! यह अद्भुत बात देखकर मुनि लज्जित हो महादेवजीके चरणोंमें पड़ गये
और उन्होंने दूसरे किसी देवताको महादेवजीसे बढ़कर नहीं माननेका निश्चय
किया ।। १२६ ।।
सुरासुरस्य जगतो गतिस्त्वमसि शूलधृक् ।
त्वया सर्वमिदं सृष्ट त्रैलोक्यं सचराचरम् ।। १२७ ।।
वे बोले--'भगवन्! देवता और असुरोंसहित सम्पूर्ण जगत्के आश्रय आप ही हैं।
त्रिशूलधारी महेश्वरर आपने ही चराचर जीवोंसहित सम्पूर्ण त्रिलोकीको उत्पन्न किया
है || १२७ |।
त्वमेव सर्वान् ग्रससि पुनरेव युगक्षये ।
देवैरपि न शक्यस्त्वं परिज्ञातुं कुतो मया ।। १२८ ।।
'फिर प्रलयकाल आनेपर आप ही सब जीवोंको अपना ग्रास बना लेते हैं। देवता भी
आपके स्वरूपको नहीं जान सकते, फिर मेरी तो बात ही क्या? ।। १२८ ।।
त्वयि सर्वे प्रदृश्यन्ते सुरा ब्रह्मादयो 5नघ ।
सर्वस्त्वमसि लोकानां कर्ता कारयिता च ह ।। १२९ ।।
भगवान् शंकरका मंकणक मुनिको नृत्य करनेसे रोकना
“अनघ! ब्रह्मा आदि सब देवता आपटीमें दिखायी देते हैं। इस जगत्के करने और
करानेवाले सब कुछ आप ही हैं ।। १२९ ।।
त्वत्प्रसादात् सुरा: सर्वे मोदन््तीहाकुतो भया: ।
एवं स्तुत्वा महादेवमृषिर्वचनमत्रवीत् ।। १३० ।।
“आपके प्रसादसे सब देवता यहाँ निर्भय और प्रसन्न रहते हैं।” इस प्रकार स्तुति करके
ऋषिने फिर महादेवजीसे कहा-- ।। १३० ।।
त्वत्प्रसादान्महादेव तपो मे न क्षरेत वै ।
ततो देव:ः प्रह्मष्टात्मा ब्रह्मर्षिमिदमब्रवीत् ।। १३१ ।।
“महादेव! आपकी कृपासे मेरी तपस्या नष्ट न हो।” तब महादेवजीने प्रसन्नचित्त हो
महर्षिसे कहा-- || १३१ ।।
तपस्ते वर्धतां विप्र मत्प्रसादात् सहस्रधा ।
आश्रमे चेह वत्स्यामि त्वया सह महामुने ।। १३२ ।।
“ब्रह्मन्! मेरे प्रसादसे आपकी तपस्या हजारगुनी बढ़े। महामुने! मैं तुम्हारे साथ इस
आश्रममें रहूँगा | १३२ ।।
सप्तसारस्वते स्नात्वा अर्चयिष्यन्ति ये तु माम्
न तेषां दुर्लभ किंचिदिहलोके परत्र च || १३३ ।।
“जो सप्तसारस्वततीर्थमें स्नान करके मेरी पूजा करेंगे, उनके लिये इहलोक और
परलोकमें कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं होगी || १३३ ।।
सारस्वतं च ते लोक॑ गमिष्यन्ति न संशय: ।
एवमुक्त्वा महादेवस्तत्रैवान्तरधीयत ।। १३४ ।।
“इतना ही नहीं, वे सरस्वतीके लोकमें जायँगे, इसमें संशय नहीं है।। ऐसा कहकर
महादेवजी वहीं अन्तर्धान हो गये |। १३४ ।।
ततस्त्वौशनसं गच्छेत् त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ।
यत्र ब्रह्मादयो देवा ऋषयश्च॒ तपोधना: ।। १३५ ।।
तदनन्तर तीनों लोकोंमें विख्यात औशनसतीर्थकी यात्रा करे, जहाँ ब्रह्मा आदि देवता
तथा तपस्वी ऋषि रहते हैं || १३५ ।।
कार्तिकेयश्व भगवांस्त्रिसंध्यं किल भारत ।
सांनिध्यमकरोमज्नित्यं भार्गवप्रियकाम्यया || १३६ ।।
भारत! शुक्राचार्यजीका प्रिय करनेके लिये भगवान् कार्तिकेय भी वहाँ सदा तीनों
संध्याओंके समय उपस्थित रहते हैं || १३६ ।।
कपालमोचन तीर्थ सर्वपापप्रमोचनम् ।
तत्र स्नात्वा नरव्याप्र सर्वपापै: प्रमुच्यते || १३७ ।।
कपालमोचनतीर्थ सब पापोंसे छुड़ानेवाला है! नरश्रेष्ठ) वहाँ स्नान करके मनुष्य सब
पापोंसे मुक्त हो जाता है ।। १३७ ।।
अग्नितीर्थ ततो गच्छेत् तत्र स्नात्वा नरर्षभ ।
अग्निलोकमवाप्रोति कुलं चैव समुद्धरेत् ।। १३८ ।।
नरश्रेष्ठ वहाँसे अग्नितीर्थको जाय। उसमें स्नान करनेसे मनुष्य अग्निलोकमें जाता
और अपने कुलका उद्धार कर देता है || १३८ ।।
विश्वामित्रस्य तत्रैव तीर्थ भरतसत्तम ।
तत्र स्नात्वा नरश्रेष्ठ ब्राह्मण्यमधिगच्छति ।। १३९ ।।
भरतसत्तम! वहीं विश्वामित्रतीर्थ है। नरश्रेष्ठ। वहाँ स्नान करनेसे ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति
होती है ।। १३९ ।।
ब्रह्मययोनिं समासाद्य शुचि: प्रयतमानस: ।
तत्र स्नात्वा नरव्याघ्र ब्रह्मलोक॑ प्रपद्यते || १४० ।।
पुनात्यासप्तमं चैव कुल नास्त्यत्र संशय: ।
नरश्रेष्ठ! बह्मययोनितीर्थमें जाकर पवित्र एवं जितात्मा पुरुष वहाँ स्नान करनेसे ब्रह्मलोक
प्राप्त कर लेता है। साथ ही अपने कुलकी सात पीढ़ियोंतकको पवित्र कर देता है, इसमें
संशय नहीं है || १४० $ ।।
ततो गच्छेत राजेन्द्र तीर्थ त्रैलोक्यविश्रुतम् ।। १४१ ।।
पृथूदकमिति ख्यातं कार्तिकेयस्य वै नृप ।
तत्राभिषेकं कुर्वीत पितृदेवार्चने रत: ।। १४२ ।।
राजेन्द्र! तदनन्तर कार्तिकेयके त्रिभुवनविख्यात पृथूदकतीर्थकी यात्रा करे और वहाँ
स्नान करके देवताओं तथा पितरोंकी पूजामें संलग्न रहे || १४१-१४२ ।।
अज्ञानाजज्ञानतो वापि स्त्रिया वा पुरुषेण वा ।
यत् किंचिदशुभं कर्म कृतं मानुषबुद्धिना ।। १४३ ।।
तत् सर्व नश्यते तत्र स्नातमात्रस्थ भारत ।
अश्वमेधफलं चास्य स्वर्गलोक॑ च गच्छति ।। १४४ ।।
भारत! स्त्री हो या पुरुष, उसने मानव-बुद्धिसे अनजानमें या जान-बूझकर जो कुछ भी
पापकर्म किया है, वह सब पृथूदकतीर्थमें स्नान करनेमात्रसे नष्ट हो जाता है और तीर्थसेवी
पुरुषको अश्वमेधयज्ञके फल एवं स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है । १४३-१४४ ।।
पुण्यमाहु: कुरुक्षेत्र कुरुक्षेत्रात् सरस्वती ।
सरस्वत्याश्ष तीर्थानि तीर्थेभ्यश्व पृथूदकम् ।। १४५ ।।
कुरक्षेत्रतीर्थको सबसे पवित्र कहते हैं, कुरुक्षेत्रसे भी पवित्र है सरस्वती नदी,
सरस्वतीसे भी पवित्र हैं उसके तीर्थ और उन तीर्थोंसे भी पवित्र हैं पृधूदक ।। १४५ ।।
उत्तमं सर्वतीर्थानां यस्त्यजेदात्मनस्तनुम् ।
पृथूदके जप्यपरो नैव श्वो मरणं तपेत् ।। १४६ ।।
वह सब तीथर्थोमें उत्तम है, जो पृथूदकतीर्थमें जपपरायण होकर अपने शरीरका त्याग
करता है, उसे पुनर्मुत्युका भय नहीं होता ।। १४६ ।।
गीत॑ सनत्कुमारेण व्यासेन च महात्मना |
एवं स नियतं राजन्नभिगच्छेत् पृथूदकम् ।। १४७ ।।
यह बात भगवान् सनत्कुमार तथा महात्मा व्यासने कही है। राजन्! इस प्रकार
तीर्थयात्री नियमपूर्वक पृथूदकतीर्थकी यात्रा करे || १४७ ।।
पृथूदकात् तीर्थतमं नान्यत् तीर्थ कुरूद्गह |
तन्मेध्यं तत् पवित्र च पावनं च न संशय: ।। १४८ ।॥।
कुरुश्रेष्ठ! पृथूदकसे श्रेष्ठतम तीर्थ दूसरा कोई नहीं है। वही मेध्य, पवित्र और पावन है,
इसमें संशय नहीं है || १४८ ।।
तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति येडपि पापकृतो नरा: |
पृथूदके नरश्रेष्ठ एवमाहुर्मनीषिण: ।। १४९ ।।
नरश्रेष्ठ) पापी मनुष्य भी वहाँ पृथूदकतीर्थमें स्नान करनेसे स्वर्गलोकमें चले जाते हैं,
ऐसा मनीषी पुरुष कहते हैं || १४९ ।।
मधुस््रवं च तत्रैव तीर्थ भरतसत्तम ।
तत्र स्नात्वा नरो राजन् गोसहस्रफलं लभेत् ।। १५० ।।
भरतश्रेष्ठ! वहीं मधुस्रव तीर्थ है। राजन! उसमें स्नान करनेसे मनुष्यको सहस्र
गोदानका फल मिलता है || १५० ।।
ततो गच्छेत राजेन्द्र तीर्थ मेध्यं यथाक्रमम् ।
सरस्वत्यरुणायाश्व संगमं लोकविश्रुतम् ।। १५१ ।।
राजेन्द्र! तदनन्तर क्रमश: लोकविख्यात सरस्वती-अरुणासंगम नामक पवित्र तीर्थकी
यात्रा करे || १५१ ।।
त्रिरात्रोपोषित: स्नात्वा मुच्यते ब्रह्महत्यया ।
अग्निष्टोमातिरात्रा भ्यां फलं विन्दति मानव: ।॥। १५२ ।।
आसप्तमं कुलं चैव पुनाति भरतर्षभ |
वहाँ स्नान करके तीन रात उपवास करनेसे ब्रह्महत्यासे छुटकारा मिल जाता है। इतना
ही नहीं, वह मनुष्य अग्निष्टोम और अतितरात्रयज्ञोंसे मिलनेवाले फलको भी पा लेता है।
भरतश्रेष्ठ। वह अपने कुलकी सात पीढ़ियोंको पवित्र कर देता है || १५२ ई ||
अर्धकीलं च तत्रैव तीर्थ कुरुकुलोद्ह ।। १५३ ।।
विप्राणामनुकम्पार्थ दर्भिणा निर्मित पुरा ।
व्रतोपनयनाभ्यां चाप्युपवासेन वाप्युत ।। १५४ ।।
क्रियामन्त्रैश्व संयुक्तो ब्राह्मण: स्यान्न संशय: ।
क्रियामन्त्रविहीनो5पि तत्र स्नात्वा नरर्षभ |
चीर्णव्रतो भवेद् विद्वान् दृष्टमेतत् पुरातनै: ।। १५५ ।।
कुरुकुलशिरोमणे! वहीं अर्धकील नामक तीर्थ है, जिसे पूर्वकालमें दर्भी मुनिने
ब्राह्मणोंपर कृपा करनेके लिये प्रकट किया था। वहाँ व्रत, उपनयन और उपवास करनेसे
मनुष्य कर्मकाण्ड और मन्त्रोंका ज्ञाता ब्राह्मण होता है, इसमें संशय नहीं है। नरश्रेष्ठ!
क्रियाविहीन और मन्त्रहीन पुरुष भी उसमें स्नान करके व्रतका पालन करनेसे विद्वान् होता
है, यह बात प्राचीन महर्षियोंने प्रत्यक्ष देखी है । १५३--१५५ ।।
समुद्राश्चापि चत्वार: समानीताश्च दर्भिणा ।
तेषु सनातो नरश्रेष्ठ न दुर्गतिमवाप्रुयात् ।। १५६ ।।
फलानि गोसहस्राणां चतुर्णा विन्दते च सः |
दर्भी मुनि वहाँ चार समुद्रोंको भी ले आये हैं। नरश्रेष्ठ! उनमें स्नान करनेवाला मनुष्य
कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता और उसे चार हजार गोदानका भी फल मिलता है || १५६६ ।।
ततो गच्छेत धर्मज्ञ तीर्थ शतसहस्रकम् ।। १५७ ।।
साहसख््रकं च तत्रैव द्वे तीर्थे लोकविश्रुते ।
उभयोर्हि नर: स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् ।। १५८ ।।
दान॑ वाप्युपवासो वा सहस्रगुणितं भवेत् ।
धर्मज्ञ! तदनन्तर वहाँसे शतसहस्र और साहस्रक-तीर्थोंकी यात्रा करे। वे दोनों
लोकविख्यात तीर्थ हैं। उनमें स्नान करनेसे मनुष्यको सहस्र गोदानका फल प्राप्त होता है।
वहाँ किये हुए दान अथवा उपवासका महत्त्व अन्यत्रसे सहस्रगुना अधिक है || १५७-१५८
ई ||
ततो गच्छेत राजेन्द्र रेणुकातीर्थमुत्तमम् ।। १५९ ।।
तीर्थाभिषेकं कुर्वीत पितृदेवार्चने रत: ।
सर्वपापविशुद्धात्मा अग्निष्टोमफलं लभेत् ।। १६० ।।
राजेन्द्र! वहाँसे उत्तम रेणुकातीर्थकी यात्रा करे। पहले उस तीर्थमें स्नान करे; फिर
देवताओं और पितरोंकी पूजामें तत्पर हो जाय। उससे तीर्थयात्री सब पापोंसे शुद्ध हो
अग्निष्टोमयज्ञका फल पाता है ।। १५९-१६० ||
विमोचनमुपस्पृश्य जितमन्युर्जितिन्द्रिय: ।
प्रतिग्रहकृतैर्दोषै: सर्व: स परिमुच्यते ।। १६१ ।।
विमोचनतीर्थमें स्नान और आचमन करके क्रोध और इन्द्रियोंको काबूमें रखनेवाला
मनुष्य प्रतिग्रहजनित सारे दोषोंसे मुक्त हो जाता है ।। १६१ ।।
ततः पज्चवटीं गत्वा ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय: ।
पुण्येन महता युक्त: सतां लोके महीयते ।। १६२ ।।
तदनन्तर ब्रह्मचारी एवं जितेन्द्रिय पुरुष पंचवटी-तीर्थमें जाकर महान् पुण्यसे युक्त हो
सत्पुरुषोंके लोकमें प्रतिष्ठित होता है ।। १६२ ।।
यत्र योगेश्वर: स्थाणु: स्वयमेव वृषध्वज: ।
तमर्चयित्वा देवेशं गमनादेव सिध्यति ।। १६३ ।।
वहाँ योगेश्वर एवं वृषभध्वज स्वयं भगवान् शिव निवास करते हैं। उन देवेश्वरकी पूजा
करके मनुष्य वहाँ जानेमात्रसे सिद्ध हो जाता है ।। १६३ ।।
तैजसं वारुणं तीर्थ दीप्यमानं स्वतेजसा ।
यत्र ब्रह्मादिभिवेंवैर्लषिभिश्व तपोधनै: ॥। १६४ ।।
सैनापत्येन देवानामभिषिक्तो गुहस्तदा ।
तैजसस्य तु पूर्वेण कुरुतीर्थ कुरूद्वह ।। १६५ ।।
वहीं तैजस नामक वरुणदेवतासम्बन्धी तीर्थ है, जो अपने तेजसे प्रकाशित होता है।
जहाँ ब्रह्मा आदि देवताओं तथा तपस्वी ऋषियोंने कार्तिकेयको देवसेना-पतिके पदपर
अभिषिक्त किया था। कुरुश्रेष्ठ! तैजसतीर्थके पूर्वभागमें कुरुतीर्थ है । १६४-१६५ ।।
कुरुतीर्थ नर: स्नात्वा ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय: ।
सर्वपापविशुद्धात्मा ब्रह्मलोक॑ प्रपद्यते || १६६ ।।
जो मनुष्य ब्रह्मचर्यपालन और इन्द्रियसंयमपूर्वक कुरुतीर्थमें स्नान करता है, वह सब
पापोंसे शुद्ध होकर ब्रह्मलोकमें जाता है ।। १६६ ।।
स्वर्गद्वारं ततो गच्छेन्नियतो नियताशन: ।
स्वर्गलोकमवाप्रोति ब्रह्मलोक॑ च गच्छति ।। १६७ ।।
तदनन्तर नियमपरायण हो नियमित भोजन करते हुए स्वर्गद्वारको जाय। उस तीर्थके
सेवनसे मनुष्य स्वर्गलोक पाता और ब्रह्मलोकमें जाता है ।। १६७ ।।
ततो गच्छेदनरकं तीर्थसेवी नराधिप ।
तत्र स्नात्वा नरो राजन् न दुर्गतिमवाप्रुयात् ।। १६८ ।।
तत्र ब्रह्मा स्वयं नित्यं देवेः सह महीपते ।
अन्वास्ते पुरुषव्यात्र नारायणपुरोगमै: ।। १६९ ।।
नरेश्वर! तदनन्तर तीर्थसेवी पुरुष अनरकतीर्थमें जाय। राजन! उसमें स्नान करनेसे
मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता। महीपते! पुरुषसिंह! वहाँ स्वयं ब्रह्मा नारायण आदि
देवताओंके साथ नित्य निवास करते हैं ।।
सांनिध्य॑ तत्र राजेन्द्र रुद्रपत्न्या: कुरूद्गवह |
अभिगम्य च तां देवीं न दुर्गतिमवाप्रुयात् ।। १७० ।।
कुरुश्रेष्ठ! महाराज! वहाँ रुद्रपत्नी दुर्गीजीका स्थान भी है। उस देवीके निकट जानेसे
मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता || १७० ।।
तत्रैव च महाराज विश्वेश्वरमुमापतिम् ।
अभिगम्य महादेवं मुच्यते सर्वकिल्बिषै: || १७१ ।।
महाराज! वहीं विश्वनाथ उमावल्लभ महादेवजीका स्थान है। वहाँकी यात्रा करके
मनुष्य सब पापोंसे छूट जाता है ।। १७१ ।।
नारायणं चाभिगम्य पद्मना भमरिंदम |
राजमानो महाराज विष्णुलोकं च गच्छति ।। १७२ ।।
तीर्थेषु सर्वदेवानां स्नात: स पुरुषर्षभ ।
सर्वदुःखै: परित्यक्तो द्योतते शशिवन्नर: || १७३ ।।
शत्रुदमन महाराज! पद्मनाभ भगवान् नारायणके निकट जाकर (उनका दर्शन करके)
मनुष्य तेजस्वी रूप धारण करके भगवान् विष्णुके लोकमें जाता है। पुरुषरत्न! सब
देवताओंके तीर्थोंमें स्नान करके मनुष्य सब दु:खोंसे मुक्त हो चन्द्रमाके समान प्रकाशित
होता है || १७२-१७३ ।।
ततः स्वस्तिपुरं गच्छेत् तीर्थसेवी नराधिप ।
प्रदक्षिणमुपावृत्य गोसहस्रफलं लभेत् ।। १७४ ।।
नरेश्वर! तदनन्तर तीर्थसेवी पुरुष स्वस्तिपुरमें जाय, उसकी परिक्रमा करनेसे सहस्र
गोदानका फल मिलता है || १७४ ।।
पावन तीर्थमासाद्य तर्पयेत् पितृदेवता: ।
अग्निष्टोमस्य यज्ञस्य फल प्राप्नोति भारत ।। १७५ ।।
तत्पश्चात् पावनतीर्थमें जाकर देवताओं और पितरोंका तर्पण करे। भारत! ऐसा
करनेवाले पुरुषको अग्निष्टोमयज्ञका फल मिलता है || १७५ |।
गड्ाह्दश्न तत्रैव कृपश्च भरतर्षभ ।
तिस््र: कोट्यस्तु तीर्थानां तस्मिन् कूपे महीपते ।। १७६ ।।
भरतश्रेष्ठ! वहीं गंगाहद नामक कूप है। भूपाल! उस कूपमें तीन करोड़ तीर्थोका वास
है || १७६ |।
तत्र स्नात्वा नरो राजन् स्वर्गलोकं प्रपद्यते ।
आपगायां नरः स्नात्वा अर्चयित्वा महेश्वरम् ।। १७७ ।।
गाणपत्यमवाप्रोति कुलं चैव समुद्धरेत् ।
राजन! उसमें स्नान करके मानव स्वर्गलोकमें जाता है। जो मनुष्य आपगामें स्नान
करके महादेवजीकी पूजा करता है, वह गणपति-पद पाता और अपने कुलका उद्धार कर
देता है ।। १७७३ |।
ततः स्थाणुवर्ट गच्छेत् त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ।। १७८ ।।
तत्र स्नात्वा स्थितो रात्रि रुद्रलोकमवाप्नुयात् ।
तदनन्तर त्रिभुवनविख्यात स्थाणुवटतीर्थमें जाय, वहाँ स्नान करके रातभर निवास
करनेवाला मनुष्य रुद्रलोकमें जाता है || १७८ $ ।।
बदरीपाचनं गच्छेद् वसिष्ठस्याश्रमं ततः ।। १७९ ।।
बदरीं भक्षयेत् तत्र त्रिरात्रोपोषितो नर: ।
सम्यग् द्वादशवर्षाणि बदरीं भक्षयेत् तु यः ।। १८० ।।
त्रिरात्रोपोषितस्तेन भवेत् तुल्यो नराधिप ।
रुद्रमार्ग समासाद्य तीर्थसेवी नराधिप ।। १८१ ।।
अहोरात्रोपवासेन शक्रलोके महीयते ।
तदनन्तर बदरीपाचन नामसे प्रसिद्ध वसिष्ठके आश्रमपर जाय और वहाँ तीन रात
उपवासपूर्वक रहकर बेरका फल खाय। जो मनुष्य वहाँ बारह वर्षोतक भलीभाँति
त्रिरात्रोपवासपूर्वक बेरका फल खाता है, वह उन्हीं वसिष्ठके समान होता है। राजन! नरेश्वर!
तीर्थसेवी मनुष्य रुद्रमार्गमें जाकर एक दिन-रात उपवास करे। इससे वह इन्द्रलोकमें
प्रतिष्ठित होता है ।। १७९-१८१ | ।।
एकरात्र॑ समासाद्य एकरात्रोषितो नर: ।। १८२ ।।
नियत: सत्यवादी च ब्रह्मलोके महीयते ।
तदनन्तर एकरात्रतीर्थमें जाकर मनुष्य नियमपूर्वक और सत्यवादी होकर एक रात
निवास करनेपर ब्रह्मलोकमें पूजित होता है ।। १८२३ ।।
ततो गच्छेत राजेन्द्र तीर्थ त्रैलोक्यविश्रुतम् ।। १८३ ।।
आदित्यस्याश्रमो यत्र तेजोराशेमहात्मन: ।
तम्मिंस्तीर्थे नर: स्नात्वा पूजयित्वा विभावसुम् ।। १८४ ।।
आदित्यलोकं व्रजति कुलं चैव समुद्धरेत् ।
राजेन्द्र! तत्पश्चात् उस त्रैलोक्यविख्यात तीर्थमें जाय, जहाँ तेजोराशि महात्मा सूर्यका
आश्रम है। उसमें स्नान करके सूर्यदेवकी पूजा करनेसे मनुष्य सूर्यके लोकमें जाता और
अपने कुलका उद्धार करता है || १८३-१८४ ३ ||
सोमतीर्थे नर: स्नात्वा तीर्थसेवी नराधिप ।। १८५ ।।
सोमलोकमवाप्रोति नरो नास्त्यत्र संशय: ।
नरेश्वर! सोमतीर्थमें स्नान करके तीर्थसेवी मानव सोमलोकको प्राप्त कर लेता है, इसमें
संशय नहीं है || १८५६ ।।
ततो गच्छेत धर्मज्ञ दधीचस्य महात्मन: ।। १८६ ।।
तीर्थ पुण्यतमं राजन् पावन लोकविश्रुतम् ।
यत्र सारस्वतो यात: सोडड्विरास्तपसो निधि: | १८७ ।।
धर्मज्ञ राजन! तदनन्तर महात्मा दधीचके लोक-विख्यात परम पुण्यमय, पावन तीर्थकी
यात्रा करे। जहाँ तपस्याके भण्डार सरस्वतीपुत्र अंगिराका जन्म हुआ || १८६-१८७ ।।
तस्मिंस्तीर्थे नर: स्नात्वा वाजिमेधफलं लभेत् ।
सारस्वतीं गतिं चैव लभते नात्र संशय: ।। १८८ ।।
उस तीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्य अश्वमेधयज्ञका फल पाता है और सरस्वतीलोकको
प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है || १८८ ।।
ततः कन्याश्रमं गच्छेन्नियतो ब्रह्मचर्यवान् |
त्रिरात्रोपोषितो राजन् नियतो नियताशन: ।। १८९ ।।
लभेत् कन्याशतं दिव्यं स्वर्गलोक॑ च गच्छति ।
तदनन्तर नियमपूर्वक रहकर ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए कन्याश्रमतीर्थमें जाय।
राजन! वहाँ तीन रात उपवास करके नियमपालनपूर्वक नियमित भोजन करनेसे सौ दिव्य
कन्याओंकी प्राप्ति होती है और वह मनुष्य स्वर्गलोकमें जाता है ।। १८९३६ ।।
ततो गच्छेत धर्मज्ञ तीर्थ संनिहतीमपि ।। १९० ।।
धर्मज्ञ! तदनन्तर वहाँसे संनिहतीतीर्थकी यात्रा करे || १९० ।।
तत्र ब्रह्मादयो देवा ऋषयश्न तपोधना: ।
मासि मासि समायान्ति पुण्येन महतान्विता: ।। १९१ ।।
उस तीर्थमें ब्रह्मा आदि देवता और तपोधन महर्षि प्रतिमास महान् पुण्यसे सम्पन्न
होकर जाते हैं ।। १९१ ।।
संनिहत्यामुपस्पृश्य राहुग्रस्ते दिवाकरे ।
अश्वमेधशतं तेन तत्रेष्ट शाश्वतं भवेत् ।। १९२ ।।
सूर्यग्रहणके समय संनिहतीमें स्नान करनेसे सौ अश्वमेधयज्ञोंका अभीष्ट एवं शाश्वत
फल प्राप्त होता है ।। १९२ ||
पृथिव्यां यानि तीर्थानि अन्तरिक्षचराणि च ।
नद्यो हृदास्तडागाश्ष् सर्वप्र्नवणानि च ।। १९३ |।
उदपानानि वाप्यश्ष तीर्थान्यायतनानि च ।
नि:संशयममावास्यां समेष्यन्ति नराधिप ।। १९४ ।।
मासि मासि नरव्याप्र संनिहत्यां न संशय: ।
तीर्थसंनिहनादेव संनिहत्येति विश्रुता ।। १९५ ।।
पृथ्वीपर और आकाशमें जितने तीर्थ, नदी, हृद, तड़ाग, सम्पूर्ण झरने, उदपान, बावली,
तीर्थ और मन्दिर हैं, वे प्रत्येक मासकी अमावस्याको संनिहतीमें अवश्य पधारेंगे। तीर्थोका
संघात या समूह होनेके कारण ही वह संनिहती नामसे विख्यात है ।। १९३--१९५ ||
तत्र स्नात्वा च पीत्वा च स्वर्गलोके महीयते ।
अमावास्यां तु तत्रैव राहुग्रस्ते दिवाकरे ।। १९६ ।।
यः श्राद्ध कुरुते मर्त्यस्तस्य पुण्यफलं शृणु ।
अश्वमेधसहस्रस्य सम्यगिष्टस्थ यत् फलम् ।। १९७ ।।
स्नात एव समाप्रोति कृत्वा श्राद्ध च मानव: ।
यत् किंचिद् दुष्कृतं कर्म स्त्रिया वा पुरुषेण वा ।। १९८ ।।
स्नातमात्रस्य तत् सर्व नश्यते नात्र संशय: ।
पद्मवर्णेन यानेन ब्रह्मुलोकं प्रपद्यते || १९९ ।।
राजन! उसमें स्नान और जलपान करके मनुष्य स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। जो
सूर्यग्रहणके समय अमावास्याको वहाँ पितरोंका श्राद्ध करता है, उसके पुण्यफलका वर्णन
सुनो--। भलीभाँति सम्पन्न किये हुए सहस्र अश्वमेध यज्ञोंका जो फल होता है, उसे मनुष्य
उस तीर्थमें स्नानमात्र करके अथवा श्राद्ध करके पा लेता है। स्त्री या पुरुषने जो कुछ भी
दुष्कर्म किया हो, वह सब वहाँ स्नान करनेमात्रसे नष्ट हो जाता है; इसमें संशय नहीं है। वह
पुरुष कमलके समान रंगवाले विमानद्वारा ब्रह्मलोकमें जाता है ।। १९६--१९९ ||
अभिवाद्य ततो यक्षं द्वारपालं मचक्रुकम्
कोटितीर्थमुपस्पृश्य लभेद् बहुसुवर्णकम् ।। २०० ।।
तदनन्तर मचक्कुक नामक द्वारपाल यक्षको प्रणाम करके कोटितीर्थमें स्नान करनेसे
मनुष्यको प्रचुर सुवर्ण-राशिकी प्राप्ति होती है ।। २०० ।।
गड़ाह्दश्न तत्रैव तीर्थ भरतसत्तम ।
तत्र स्नायीत धर्मज्ञ ब्रह्मचारी समाहित: ।। २०१ ।।
राजसूयाश्चदमेधाभ्यां फलं विन्दति मानव: ।
धर्मज्ञ भरतश्रेष्ठ! वहीं गंगाह्दद नामक तीर्थ है, उसमें ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक एकाग्रचित्त हो
स्नान करे, इससे मनुष्यको राजसूय और अश्वमेध यज्ञोंद्वारा मिलनेवाले फलकी प्राप्ति होती
है | २०१६ ||
पृथिव्यां नैमिषं तीर्थमन्तरिक्षे च पुष्करम् ।। २०२ ।।
त्रयाणामपि लोकानां कुरुक्षेत्र विशिष्यते ।
पांसवो5पि कुरुक्षेत्राद् वायुना समुदीरिता: || २०३ ।।
अपि दुष्कृतकर्माणं नयन्ति परमां गतिम् |
दक्षिणेन सरस्वत्या उत्तरेण दृषद्वतीम् ।। २०४ ।।
ये वसन्ति कुरुक्षेत्रे ते वसन्ति त्रिविष्टपे
भूमण्डलके निवासियोंके लिये नैमिष, अन्तरिक्ष-निवासियोंके लिये पुष्कर और तीनों
लोकोंके निवासियोंके लिये कुरुक्षेत्र विशिष्ट तीर्थ हैं। कुरुक्षेत्रसे वायुद्वारा उड़ायी हुई धूल
भी पापी-से-पापी मनुष्यपर भी पड़ जाय तो उसे परमगतिको पहुँचा देती है। सरस्वतीसे
दक्षिण, दृषद्वतीसे उत्तर कुरक्षेत्रमें जो लोग निवास करते हैं, वे मानो स्वर्गलोकमें बसते
हैं | २०२--२०४ $ ||
कुरुक्षेत्रे गमिष्यामि कुरुक्षेत्र वसाम्पहम् | २०५ ।।
अप्येकां वाचमुत्सृज्य सर्वपापै: प्रमुच्यते ।
“मैं कुरुक्षेत्रमें जाऊँगा, कुरुक्षेत्रमें निवास करूँगा” ऐसी बात एक बार मुँहसे कह देनेपर
भी मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है ।। २०५६ ।।
ब्रह्मवेदी कुरुक्षेत्र पुण्य॑ ब्रह्मर्षिसेवितम् ।। २०६ ।।
तस्मिन् वसन्ति ये मर्त्या न ते शोच्या: कथंचन || २०७ ।।
कुरुक्षेत्र ब्रह्माजीकी वेदी है, इस पुण्यक्षेत्रका ब्रह्मर्षिगण सेवन करते हैं। जो मानव
उसमें निवास करते हैं, वे किसी प्रकार शोकजनक अवस्थामें नहीं पड़ते || २०६-२०७ ।।
तरन्तुकारन्तुकयोर्यदन्तरं
रामह्दानां च मचक्कुकस्य च ।
एतत् कुरुक्षेत्रसमन्तपञ्चकं
पितामहस्योत्तरवेदिरुच्यते || २०८ ।।
तरन्तुक और अरन्तुकके तथा रामहद और मचक़ुकके बीचका जो भूभाग है, यही
कुरुक्षेत्र एवं समन्तपठ्चक है। इसे ब्रह्माजीकी उत्तरवेदी कहते हैं | २०८ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि पुलस्त्यती र्थयात्रायां
त्रय्शीतितमो<5ध्याय: ।। ८३ ।॥
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपववके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें पुलस्त्यतीर्थयात्राविषयक
तिरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ८३ ॥।
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चतुरशीतितमो< ध्याय:
नाना प्रकारके तीर्थोकी महिमा
घुलस्त्य उवाच
ततो गच्छेन्महाराज धर्मतीर्थमनुत्तमम् ।
यत्र धर्मो महाभागस्तप्तवानुत्तमं तप: ।। १ ।।
पुलस्त्यजी कहते हैं--महाराज! तदनन्तर परम उत्तम धर्मतीर्थकी यात्रा करे, जहाँ
महाभाग धर्मने उत्तम तपस्या की थी ।। १ ।।
तेन तीर्थ कृतं पुण्यं स्वेन नाम्ना च विश्रुतम् ।
तत्र स्नात्वा नरो राजन् धर्मशील: समाहितः ।। २ ।।
आसप्तमं कुलं चैव पुनीते नात्र संशय: ।
राजन! उन्होंने ही अपने नामसे विख्यात पुण्य तीर्थकी स्थापना की है। वहाँ स्नान
करनेसे मनुष्य धर्मशील एवं एकाग्रचित्त होता है और अपने कुलकी सातवीं पीढ़ीतकके
लोगोंको पवित्र कर देता है; इसमें संशय नहीं है ।। २३ ।।
ततो गच्छेत राजेन्द्र ज्ञानपावनमुत्तमम् ।। ३ ।।
अग्निष्टोममवाप्रोति मुनिलोकं॑ च गच्छति ।
राजेन्द्र! तदनन्तर उत्तम ज्ञानपावन तीर्थमें जाय। वहाँ जानेसे मनुष्य अग्निष्टोमयज्ञका
फल पाता और मुनिलोकमें जाता है ।। ३६ ।।
सौगन्धिकवनं राजंस्ततो गच्छेत मानव: ।। ४ ।।
राजन! तत्पश्चात् मानव सौगन्धिक वनमें जाय ।। ४ ।।
तत्र ब्रह्मादयो देवा ऋषयश्न तपोधना: ।
सिद्धचारणगन्धर्वा: किंनराश्न महोरगा: ।। ५ ।।
वहाँ ब्रह्मा आदि देवता, तपोधन ऋषि, सिद्ध, चारण, गन्धर्व, किन्नर और बड़े-बड़े नाग
निवास करते हैं ।।
तद् वन प्रविशन्नेव सर्वपापै: प्रमुच्यते ।
ततश्चापि सरिच्छेष्ठा नदीनामुत्तमा नदी ।। ६ ।।
प्लक्षाद्वेवी खुता राजन् महापुण्या सरस्वती ।
तत्राभिषेकं कुर्वीत वल्मीकान्नि:सृते जले ।। ७ ।।
उस वनमें प्रवेश करते ही मानव सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। उससे आगे सरिताओंमें
श्रेष्ठ और नदियोंमें उत्तम नदी परम पुण्यमयी सरस्वतीदेवीका उदगम स्थान है, जहाँ वे प्लक्ष
(पकड़ी) नामक वृक्षकी जड़से टपक रही हैं। राजन! वहाँ बाँबीसे निकले हुए जलमें स्नान
करना चाहिये ।। ६-७ ।।
अर्चयित्वा पितृन् देवानश्वमेधफलं लभेत् ।
ईशानाध्युषितं नाम तत्र तीर्थ सुदुर्लभम् ।। ८ ।।
वहाँ देवताओं तथा पितरोंकी पूजा करनेसे मनुष्यको अश्वमेधयज्ञका फल मिलता है।
वहीं ईशानाध्युषित नामक परम दुर्लभ तीर्थ है ।। ८ ।।
षट्सु शम्यानिपातेषु वल्मीकादिति निश्चय: ।
कपिलानां सहस्रं च वाजिमेधं च विन्दति ।। ९ ।।
तत्र स्नात्वा नरव्याप्र दृष्टमेतत् पुरातनै: ।
जहाँ बाँबीका जल है, वहाँसे इसकी दूरी छ: शम्यानिपात- है। यह निश्चित माप बताया
गया है। नरश्रेष्ठ! उस तीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्यको सहस्र कपिलादान और अश्वमेधयज्ञका
फल प्राप्त होता है; इसे प्राचीन ऋषियोंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है ।। ९६ ।।
सुगन्धां शतकुम्भां च पठचयज्ञां च भारत ।। १० ||
अभिगम्य नरश्रेष्ठ स्वर्गलोके महीयते ।
भारत! पुरुषरत्न! सुगन्धा, शतकुम्भा तथा पंचयज्ञा तीर्थमें जाकर मानव स्वर्गलोकमें
प्रतिष्ठित होता है | १०६ ।।
त्रिशूलखातं तत्रैव तीर्थमासाद्य भारत ।। ११ ।।
तत्राभिषेकं कुर्वीत पितृदेवार्चने रत: ।
गाणपत्यं च लभते देहं त्यक्त्वा न संशय: ।। १२ ।।
भरतकुलतिलक! वहीं त्रिशूलखात नामक तीर्थ है; वहाँ जाकर स्नान करे और
देवताओं तथा पितरोंकी पूजामें लग जाय। ऐसा करनेवाला मनुष्य देहत्यागके अनन्तर
गणपति-पद प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है || ११-१२ ।।
ततो गच्छेत राजेन्द्र देव्या: स्थान सुदुर्लभम् ।
शाकम्भरीति विख्याता त्रिषु लोकेषु विश्रुता ।। १३ ।।
राजेन्द्र! वहाँसे परमदुर्लभ देवीस्थानकी यात्रा करे, वह देवी तीनों लोकोंमें शाकम्भरीके
नामसे विख्यात है ।। १३ ।।
दिव्यं वर्षमहस्नं हि शाकेन किल सुव्रता ।
आहारं सा कृतवती मासि मासि नराधिप ।। १४ ।।
ऋषयो भ्यागतास्तत्र देव्या भकत्या तपोधना: ।
आतिदथ्यं च कृतं तेषां शाकेन किल भारत ॥। १५ ||
नरेश्वर! कहते हैं उत्तम व्रतका पालन करनेवाली उस देवीने एक हजार दिव्य वर्षोतक
एक-एक महीनेपर केवल शाकका आहार किया था। देवीकी भक्तिसे प्रभावित होकर
बहुत-से तपोधन महर्षि वहाँ आये। भारत! उस देवीने उन महर्षियोंका आतिथ्य-सत्कार भी
शाकके ही द्वारा किया ।। १४-१५ |।
ततः शाकम्भरीत्येव नाम तस्या: प्रतिछ्ठितम् ।
शाकम्भरीं समासाद्य ब्रह्मचारी समाहित: ।। १६ ||
त्रिरात्रमुषित: शाकं भक्षयित्वा नर: शुचि: ।
शाकाहारस्य यत् किंचिद् वर्षद्वादिशभि: कृतम् ।। १७ ।।
तत् फलं तस्य भवति देव्याश्छन्देन भारत ।
भारत! तबसे उस देवीका “शाकम्भरी” ही नाम प्रसिद्ध हो गया। शाकम्भरीके समीप
जाकर मनुष्य ब्रह्मचर्य पालनपूर्वक एकाग्रचित्त और पवित्र हो वहाँ तीन राततक शाक
खाकर रहे तो बारह वर्षोतक शाकाहारी मनुष्यको जो पुण्य प्राप्त होता है, वह उसे देवीकी
इच्छासे (तीन ही दिनोंमें) मिल जाता है ।। १६-१७ ३ ।।
ततो गच्छेत् सुवर्णाख्यं त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ।। १८ ।।
तत्र विष्णु: प्रसादार्थ रुद्रमाराधयत् पुरा ।
वरांश्व सुबहूँल्लेभे दैवतेषु सुदुर्लभान् ।। १९ ।।
तदनन्तर त्रिभुवनविख्यात सुवर्णतीर्थकी यात्रा करे। वहाँ पूर्वकालमें भगवान् विष्णुने
रुद्रदेवकी प्रसन्नताके लिये उनकी आराधना की और उनसे अनेक देवदुर्लभ उत्तम वर प्राप्त
किये ।। १८-१९ ।।
उक्तश्न त्रिपुरघ्नेन परितुष्टेन भारत ।
अपि च त्वं प्रियतरो लोके कृष्ण भविष्यसि ।। २० ।।
त्वन्मुखं च जगत् सर्व भविष्यति न संशय: ।
तत्राभिगम्य राजेन्द्र पूजयित्वा वृषध्वजम् ।। २१ ।।
अश्वमेधमवाप्रोति गाणपत्यं च विन्दति ।
धूमावतीं ततो गच्छेत् त्रिरात्रोपोषितो नर: ।। २२ ।।
मनसा प्रार्थितान् कार्माॉल्ल भते नात्र संशय: ।
भारत! उस समय संतुष्टचित्त त्रिपुरारि शिवने श्रीविष्णुसे कहा--'श्रीकृष्ण! तुम मुझे
लोकमें अत्यन्त प्रिय होओगे। संसारमें सर्वत्र तुम्हारी ही प्रधानता होगी, इसमें संशय नहीं
है।' राजेन्द्र! उस तीर्थमें जाकर भगवान् शंकरकी पूजा करनेसे मनुष्य अश्वमेधयज्ञका फल
पाता और गणपतिपद प्राप्त कर लेता है। वहाँसे मनुष्य धूमावतीतीर्थको जार और तीन रात
उपवास करे। इससे वह निः:संदेह मनोवाजञ्छित कामनाओंको प्राप्त कर लेता है || २०--
२२३ ||
देव्यास्तु दक्षिणार्थेन रथावर्तो नराधिप ।। २३ ।।
तत्रारोहेत धर्मज्ञ श्रद्दधानो जितेन्द्रिय: ।
महादेवप्रसादाद्धि गच्छेत परमां गतिम् ।। २४ ।।
नरेश्वर! देवीसे दक्षिणार्ध भागमें रथावर्त नामक तीर्थ है। धर्मज्ञ! जो श्रद्धालु एवं
जितेन्द्रिय पुरुष उस तीर्थकी यात्रा करता है, वह महादेवजीके प्रसादसे परम गति प्राप्त कर
लेता है ।। २३-२४ ।।
प्रदक्षिणमुपावृत्य गच्छेत भरतर्षभ ।
धारां नाम महाप्राज्ञ: सर्वपापप्रमोचनीम् ।। २५ ।।
भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर महाप्राज्ञ पुरुष उस तीर्थकी परिक्रमा करके धाराकी यात्रा करे, जो
सब पापोंसे छुड़ानेवाली है ।। २५ ।।
तत्र स्नात्वा नरव्यात्र न शोचति नराधिप ।
नरव्याप्र! नराधिप! वहाँ स्नान करके मनुष्य कभी शोकमें नहीं पड़ता || २५६ ।।
ततो गच्छेत धर्मज्ञ नमस्कृत्य महागिरिम् ।। २६ ।।
स्वर्गद्वारेण यत् तुल्यं गड्ढाद्वारं न संशय: ।
तत्राभिषेकं कुर्वीत कोटितीर्थे समाहित: ।। २७ ।।
धर्मज्ञ! वहाँसे महापर्वत हिमालयको नमस्कार करके गंगाद्वार (हरिद्वार)-की यात्रा करे,
जो स्वर्गद्वारके समान है; इसमें संशय नहीं है। वहाँ एकाग्रचित्त हो कोटितीर्थमें स्नान
करे ।। २६-२७ ।।
पुण्डरीकमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत् ।
उष्यैकां रजनीं तत्र गोसहस्रफलं लभेत् ।। २८ ।।
ऐसा करनेवाला मनुष्य पुण्डरीकयज्ञका फल पाता और अपने कुलका उद्धार कर देता
है। वहाँ एक रात निवास करनेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है ।। २८ ।।
सप्तगड़े त्रिगड़े च शक्रावर्ते च तर्पयन् ।
देवान् 6 52 के, पुण्ये लोके महीयते ।। २९ ।।
सप्तगंग, त्रिगंग और शक्रावर्ततीर्थमें विधिपूर्वक देवताओं तथा पितरोंका तर्पण
करनेवाला मनुष्य पुण्य-लोकमें प्रतिष्ठित होता है ।। २९ ।।
ततः कनखले स्नात्वा त्रिरात्रोपोषितो नर: ।
अश्वमेधमवाप्रोति स्वर्गलोक॑ च गच्छति ।। ३० ।।
तदनन्तर कनखलमें स्नान करके तीन रात उपवास करनेवाला मनुष्य अश्वमेधयज्ञका
फल पाता और स्वर्ग-लोकमें जाता है ।। ३० ।।
कपिलावटरटं ततो गच्छेत् तीर्थसेवी नराधिप ।
उपोष्य रजनीं तत्र गोसहस्रफलं लभेत् ।। ३१ ।।
नरेश्वर! उसके बाद तीर्थसेवी मनुष्य कपिलावट-तीर्थमें जाय। वहाँ रातभर उपवास
करनेसे उसे सहस्र गोदानका फल मिलता है ।। ३१ ।।
नागराजस्य राजेन्द्र कपिलस्य महात्मन: ।
तीर्थ कुरुवरश्रेष्ठ सर्वलोकेषु विश्रुतम् ।। ३२ ।।
राजेन्द्र! कुरुश्रेष्ठ! वहीं नागराज महात्मा कपिलका तीर्थ है, जो सम्पूर्ण लोकोंमें
विख्यात है ।। ३२ ।।
तत्राभिषेकं कुर्वीत नागतीर्थे नराधिप ।
कपिलानां सहस्रस्य फलं विन्दति मानव: ।। ३३ ||
महाराज! वहाँ नागतीर्थमें स्नान करना चाहिये। इससे मनुष्यको सहस्र कपिलादानका
फल प्राप्त होता है ।। ३३ ।।
ततो ललितकं गच्छेच्छान्तनोस्तीर्थमुत्तमम् ।
तत्र स्नात्वा नरो राजन् न दुर्गतिमवाप्रुयात् ।। ३४ ।।
तत्पश्चात् शान्तनुके उत्तम तीर्थ ललितकमें जाय। राजन! वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य
कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता || ३४ ।।
गड्भायमुनयोर्म ध्ये स्नाति यः संगमे नरः ।
दशाश्वमेधानाप्रोति कुलं चैव समुद्धरेत् | ३५ ।।
जो मनुष्य गंगा-यमुनाके बीच संगम (प्रयाग)-में स्नान करता है, उसे दस
अश्वमेधयज्ञोंका फल मिलता है और वह अपने कुलका उद्धार कर देता है || ३५ ।।
ततो गच्छेत राजेन्द्र सुगन्धां लोकविश्रुताम् ।
सर्वपापविशुद्धात्मा ब्रह्मलोके महीयते ।। ३६ ।।
राजेन्द्र! तदनन्तर लोकविख्यात सुगन्धातीर्थकी यात्रा करे। इससे सब पापोंसे
विशुद्धचित्त हुआ मानव ब्रह्मलोकमें पूजित होता है || ३६ ।।
रुद्रावर्त ततो गच्छेत् तीर्थसेवी नराधिप ।
तत्र स्नात्वा नरो राजन् स्वर्गलोक॑ च गच्छति ।। ३७ ।।
नरेश्वर! तदनन्तर तीर्थसेवी पुरुष रुद्रावर्ततीर्थमें जाय। राजन! वहाँ स्नान करके मनुष्य
स्वर्गलोकमें जाता है || ३७ ।।
गड़ायाशक्षु नरश्रेष्ठ सरस्वत्याश्न॒ संगमे ।
स््नात्वाश्नमेधं प्राप्नोति स्वर्गलोकं॑ च गच्छति ।। ३८ ।।
नरश्रेष्ठ) गंगा और सरस्वतीके संगममें स्नान करनेसे मनुष्य अश्वमेधयज्ञका फल पाता
और स्वर्ग-लोकमें जाता है || ३८ ।।
भद्रकर्णेश्वरं गत्वा देवमर्च्य यथाविधि ।
न दुर्गतिमवाप्रोति नाकपृष्ठे च पूज्यते ।। ३९ ।।
भगवान् भद्रकर्णेश्वरके समीप जाकर विधिपूर्वक उनकी पूजा करनेवाला पुरुष कभी
दुर्गतिमें नहीं पड़ता और स्वर्गलोकमें पूजित होता है ।। ३९ ।।
ततः कुब्जाम्रकं गच्छेत् तीर्थसेवी नराधिप ।
गोसहस्रमवाप्रोति स्वर्गलोक॑ च गच्छति ।। ४० ।।
नरेन्द्र! तत्पश्चात् तीर्थसेवी मानव कुब्जाम्रक-तीर्थमें जाय। वहाँ उसे सहस्र गोदानका
फल मिलता है और अन्तमें वह स्वर्गलोकको जाता है || ४० ।।
अरुन्धतीवटं गच्छेत् तीर्थसेवी नराधिप ।
सामुद्रकमुपस्पृश्य ब्रह्मचारी समाहित: ।। ४१ ।।
अश्वमेधमवाप्रोति त्रिरात्रोपोषितो नर: ।
गोसहस्रफलं विद्यात् कुलं चैव समुद्धरेत् ।। ४२ ।।
नरपते! तत्पश्चात् तीर्थसेवी अरुन्धतीवटके समीप जाय और सामुद्रकतीर्थमें स्नान
करके ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक एकाग्रचित्त हो तीन रात उपवास करे। इससे मनुष्य अश्वमेधयज्ञ
और सहस््र गोदानका फल पाता तथा अपने कुलका उद्धार कर देता है || ४१-४२ ।।
ब्रह्मावर्त ततो गच्छेद् ब्रह्म॒चारी समाहित: ।
अश्वमेधमवाप्रोति सोमलोकं च गच्छति ।। ४३ ।।
तदनन्तर ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक चित्तको एकाग्र करके ब्रह्मावर्ततीर्थमें जाय। इससे वह
अश्वमेधयज्ञका फल पाता और सोमलोकको जाता है ।। ४३ ।।
यमुनाप्रभवं गत्वा समुपस्पृश्य यामुनम्
अश्वमेधफलं लब्ध्वा स्वर्गलोके महीयते ।। ४४ ।।
यमुनाप्रभव नामक तीर्थमें जाकर यमुनाजलमें स्नान करके अश्वमेधयज्ञका फल पाकर
मनुष्य स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है || ४४ ।।
दर्वीसंक्रमणं प्राप्य तीर्थ त्रैलोक्यपूजितम् ।
अश्वमेधमवाप्रोति स्वर्गलोक॑ च गच्छति ।। ४५ ।।
दर्वीसंक्रमण नामक त्रिभुवनपूजित तीर्थमें जानेसे तीर्थयात्री अश्वमेधयज्ञका फल पाता
और स्वर्गलोकमें जाता है || ४५ ।।
सिन्धोश्व प्रभवं गत्वा सिद्धगन्धर्वसेवितम् ।
तत्रोष्य रजनी: पज्च विन्देद् बहुसुवर्णकम् ।। ४६ ।।
सिंधुके उदगमस्थानमें जो सिद्ध-गन्धर्वोद्वारा सेवित है, जाकर पाँच रात उपवास
करनेसे प्रचुर सुवर्णराशिकी प्राप्ति होती है || ४६ ।।
अथ वेदीं समासाद्य नर: परमदुर्गमाम्
अश्वमेधमवाप्रोति स्वर्गलोक॑ च गच्छति ।। ४७ ।।
तदनन्तर मनुष्य परम दुर्गम वेदीतीर्थमें जाकर अश्वमेधयज्ञका फल पाता और
स्वर्गलोकमें जाता है || ४७ ।।
ऋषिकुल्यां समासाद्य वासिष्ठं चैव भारत |
वासिष्ठीं समतिक्रम्य सर्वे वर्णा द्विजातय: ।। ४८ ।।
भरतनन्दन! ऋषिकुल्या एवं वासिष्ठतीर्थमें जाकर स्नान आदि करके वासिष्ठीको
लाँघकर जानेवाले क्षत्रिय आदि सभी वर्णोके लोग द्विजाति हो जाते हैं || ४८ ।।
ऋषिकुल्यां समासाद्य नर: स्नात्वा विकल्मष: ।
देवान् पितृश्चार्चयित्वा ऋषिलोकं प्रपद्यते || ४९ ।।
ऋषिकुल्यामें जाकर स्नान करके पापरहित मानव देवताओं और पितरोंकी पूजा करके
ऋषिलोकमें जाता है || ४९ ।।
यदि तत्र वसेन्मासं शाकाहारो नराधिप ।
भगुतुज़ं समासाद्य वाजिमेधफलं लभेत् ।। ५० ।।
नरेश्वर! यदि मनुष्य भृगुतुंगमें जाकर शाकाहारी हो वहाँ एक मासतक निवास करे तो
उसे अश्वमेध-यज्ञका फल प्राप्त होता है | ५० ।।
गत्वा वीरप्रमोक्ष॑ं च सर्वपापै: प्रमुच्यते ।
कृत्तिकामघयोश्रैव तीर्थमासाद्य भारत ॥। ५१ ।।
अग्निष्टोमातिरात्राभ्यां फलमाप्नोति मानव: |
तत्र संध्यां समासाद्य विद्यातीर्थमनुत्तमम् ।। ५२ ।।
उपस्पृश्य च वै विद्यां यत्र तत्रोपपद्यते ।
महाश्रमे वसेद् रात्रिं सर्वपापप्रमोचने ।। ५३ ।।
एककालं निराहारो लोकानावसते शुभान् |
वीरप्रमोक्षतीर्थमें जाकर मनुष्य सब पापोंसे छुटकारा पा जाता है। भारत! कृत्तिका
और मधघाके तीर्थमें जाकर मानव अग्निष्टोम और अतितरात्र यज्ञोंका फल पाता है। वहीं
प्रात:-संध्याके समय परम उत्तम विद्यातीर्थमें जाकर स्नान करनेसे मनुष्य जहाँ-कहीं भी
विद्या प्राप्त कर लेता है। जो सब पापोंसे छुड़ानेवाले महाश्रमतीर्थमें एक समय उपवास
करके एक रात वहीं निवास करता है, उसे शुभ लोकोंकी प्राप्ति होती है ।। ५१-५३ ३ ।।
षष्ठकालोपवासेन मासमुष्य महालये ।। ५४ ।।
सर्वपापविशुद्धात्मा विन्देद् बहुसुवर्णकम् ।
दशापरान् दश पूर्वान् नरानुद्धरते कुलम् ।। ५५ ।।
जो छठे समय उपवासपूर्वक एक मासतक महालयतीर्थमें निवास करता है, वह सब
पापोंसे शुद्धचित्त हो प्रचुर सुवर्णराशि प्राप्त करता है। साथ ही दस पहलेकी और दस
बादकी पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है ।।
अथ वेतसिकां गत्वा पितामहनिषेविताम् |
अश्वमेधमवाप्रोति गच्छेदौशनसीं गतिम् ।। ५६ ।।
तत्पश्चात् ब्रह्माजीके द्वारा सेवित वेतसिकातीर्थमें जाकर मनुष्य अश्वमेधयज्ञका फल
पाता और शुक्राचार्यके लोकमें जाता है ।। ५६ ।।
अथ सुन्दरिकातीर्थ प्राप्प सिद्धनिषेवितम् ।
रूपस्यथ भागी भवति दृष्टमेतत् पुरातनै: ।। ५७ ।।
तदनन्तर सिद्धसेवित सुन्दरिकातीर्थमें जाकर मनुष्य रूपका भागी होता है, यह बात
प्राचीन ऋषियोंने देखी है |। ५७ ।।
ततो वै ब्राह्मणीं गत्वा ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय: ।
पद्मवर्णेन यानेन ब्रह्मुलोकं प्रपद्यते || ५८ ।।
इसके बाद इन्द्रियसंयम और ब्रह्मचर्यके पालनपूर्वक ब्राह्मणीतीर्थमें जानेसे मनुष्य
कमलके समान कान्तिवाले विमानद्वारा ब्रह्मलोकमें जाता है || ५८ ।।
ततस्तु नैमिषं गच्छेत् पुण्यं सिद्धनिषेवितम् ।
तत्र नित्यं निवसति ब्रह्मा देवगणै: सह ।। ५९ ।।
तदनन्तर सिद्धसेवित पुण्यमय नैमिष (नैमिषारण्य)-तीर्थमें जाय। वहाँ देवताओंके
साथ ब्रह्माजी नित्य निवास करते हैं ।। ५९ ||
नैमिषं मृगयानस्य पापस्यार्ध प्रणश्यति ।
प्रविष्टमात्रस्तु नर: सर्वपापै: प्रमुच्यते || ६० ।।
नैमिषकी खोज करनेवाले पुरुषका आधा पाप उसी समय नष्ट हो जाता है और उसमें
प्रवेश करते ही वह सारे पापोंसे छुटकारा पा जाता है ।। ६० ।।
तत्र मासं वसेद् धीरो नैमिषे तीर्थतत्पर: ।
पृथिव्यां यानि तीर्थानि तानि तीर्थानि नैमिषे || ६१ ।।
धीर पुरुष तीर्थसेवनमें तत्पर हो एक मासतक नैमिषमें निवास करे। पृथ्वीमें जितने
तीर्थ हैं, वे सभी नैमिषमें विद्यमान हैं || ६१ ।।
कृताभिषेकस्तत्रैव नियतो नियताशन: ।
गवां मेधस्य यज्ञस्य फल प्राप्नोति भारत ।। ६२ ।।
भारत! जो वहाँ स्नान करके नियमपालनपूर्वक नियमित भोजन करता है, वह
गोमेधयज्ञका फल पाता है ।। ६२ ।।
पुनात्यासप्तमं चैव कुलं भरतसत्तम ।
यस्त्यजेन्नैमिषे प्राणानुपवासपरायण: ।। ६३ ।।
स मोदेत् सर्वलोकेषु एवमाहुर्मनीषिण: ।
नित्यं मेध्यं च पुण्यं च नैमिषं नृपसत्तम ।। ६४ ।।
भरतश्रेष्ठ] अपने कुलकी सात पीढ़ियोंका भी वह उद्धार कर देता है। जो नैमिषमें
उपवासपूर्वक प्राणत्याग करता है, वह सब लोकोंमें आनन्दका अनुभव करता है; ऐसा
मनीषी पुरुषोंका कथन है। नृपश्रेष्ठ! नैमिषतीर्थ नित्य, पवित्र और पुण्यजनक
है ।। ६३-६४ ।।
गड़ोद्धेद॑ समासाद्य त्रिरात्रोपोषितो नर: ।
वाजपेयमवाप्रोति ब्रह्मभूतो भवेत् सदा ।। ६५ ।।
गंगोद्धेदतीर्थमें जाकर तीन रात उपवास करनेवाला मनुष्य वाजपेययज्ञका फल पाता
और सदाके लिये ब्रह्मीभूत हो जाता है ।। ६५ ।।
सरस्वतीं समासाद्य तर्पयेत् पितृदेवता: ।
सारस्वतेषु लोकेषु मोदते नात्र संशय: ।। ६६ ।।
सरस्वतीतीर्थमें जाकर देवता और पितरोंका तर्पण करे। इससे तीर्थयात्री
सारस्वतलोकोंमें जाकर आनन्दका भागी होता है; इसमें संशय नहीं है ।। ६६ ।।
ततश्च बाहुदां गच्छेद् ब्रह्मचारी समाहित: ।
तत्रोष्य रजनीमेकां स्वर्गलोके महीयते ।। ६७ ।।
देवसत्रस्य यज्ञस्य फल प्राप्रोति कौरव |
तदनन्तर बाहुदातीर्थमें जाय और ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक एकाग्रचित्त हो वहाँ एक रात
उपवास करे; इससे वह स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। कुरुनन्दन! उसे देवसत्रयज्ञका भी
फल प्राप्त होता है ।। ६७ | ||
ततः क्षीरवतीं गच्छेत् पुण्यां पुण्यतरैर्वृताम् ।। ६८ ।।
पितृदेवार्चनपरो वाजपेयमवाप्नुयात् ।
वहाँसे क्षीरवती नामक पुण्यतीर्थमें जाय, जो अत्यन्त पुण्यात्मा पुरुषोंसे भरी हुई है।
वहाँ स्नान करके देवता और पितरोंके पूजनमें लगा हुआ मनुष्य वाजपेययज्ञका फल पाता
है | ६८ ३ ||
विमलाशोकमासाद्य ब्रह्म॒चारी समाहित: ।। ६९ ||
तत्रोष्य रजनीमेकां स्वर्गलोके महीयते ।
वहीं विमलाशोक नामक उत्तम तीर्थ है, वहाँ जाकर ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक एकाग्रचित्त हो
एक रात निवास करनेसे मनुष्य स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है ।।
गोप्रतारं ततो गच्छेत् सरस्वास्तीर्थमुत्तमम् ।। ७० ।।
यत्र रामो गतः स्वर्ग सभृत्यबलवाहन: ।
स च वीरो महाराज तस्य तीर्थस्य तेजसा ।। ७१ ।।
वहाँसे सरयूके उत्तम तीर्थ गोप्रतारमें जाय। महाराज! वहाँ अपने सेवकों, सैनिकों और
वाहनोंके साथ गोते लगाकर उस तीर्थके प्रभावसे वे वीर श्रीरामचन्द्रजी अपने नित्यधामको
पधारे थे || ७०-७१ ।।
रामस्य च प्रसादेन व्यवसायाच्च भारत |
तम््मिंस्तीर्थे नर: स्नात्वा गोप्रतारे नराधिप ।। ७२ ।।
सर्वपापविशुद्धात्मा स्वर्गलोके महीयते ।
भरतनन्दन! नरेश्वर! उस सरयूके गोप्रतारतीर्थमें स्नान करके मनुष्य श्रीरामचन्द्रजीकी
कृपा और उद्योगसे सब पापोंसे शुद्ध होकर स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है ।।
रामतीर्थे नर: स्नात्वा गोमत्यां कुरुनन्दन ।। ७३ ।।
अश्वमेधमवाप्रोति पुनाति च कुलं नर: ।
कुरुनन्दन! गोमतीके रामतीर्थमें स्नान करके मनुष्य अश्वमेधयज्ञका फल पाता और
अपने कुलको पवित्र कर देता है || ७३ ३ |।
शतसाहस्रकं तीर्थ तत्रैव भरतर्षभ ।। ७४ ।।
तत्रोपस्पर्शनं कृत्वा नियतो नियताशन: ।
गोसहस्रफलं पुण्य प्राप्नोति भरतर्षभ ।। ७५ ।।
भरतकुलभूषण! वहीं शतसाहस्रकतीर्थ है। उसमें स्नान करके नियमपालनपूर्वक
नियमित भोजन करते हुए मनुष्य सहस्र गोदानका पुण्यफल प्राप्त करता है ।।
ततो गच्छेत राजेन्द्र भर्त॒स्थानमनुत्तमम् ।
अश्वमेधस्य यज्ञस्य फल प्राप्रोति मानव: ।। ७६ ।।
राजेन्द्र! वहाँसे परम उत्तम भर्तृस्थानको जाय। वहाँ जानेसे मनुष्यको अश्वमेधयज्ञका
फल प्राप्त होता है ।। ७६ ।।
कोटितीर्थे नर: स्नात्वा अर्चयित्वा गुहं नूप ।
गोसहस्रफलं विद्यात् तेजस्वी च भवेन्नर: ।। ७७ ।।
राजन! मनुष्य कोटितीर्थमें स्नान करके कार्तिकेयजीका पूजन करनेसे सहस्र गोदानका
फल पाता और तेजस्वी होता है || ७७ ।।
ततो वाराणसी गत्वा अर्चयित्वा वृषध्वजम् ।
कपिलाहवदे नर: स्नात्वा राजसूयमवाप्रुयात् ।। ७८ ।।
तदनन्तर वाराणसी (काशी)-तीर्थमें जाकर भगवान् शंकरकी पूजा करे और
कपिलाहदमें गोता लगाये; इससे मनुष्यको राजसूययज्ञका फल प्राप्त होता है ।। ७८ ।।
अविमुक्त समासाद्य तीर्थसेवी कुरूद्वह ।
दर्शनाद् देवदेवस्य मुच्यते ब्रह्म॒ुह॒त्यया | ७९ ।।
प्राणानुत्सृज्य तत्रैव मोक्ष प्राप्नोति मानव: ।
कुरुश्रेष्ठ! अविमुक्त तीर्थमें जाकर तीर्थसेवी मनुष्य देवदेव महादेवजीका दर्शनमात्र
करके ब्रह्महत्यासे मुक्त हो जाता है। वहीं प्राणोत्सर्ग करके मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता
है | ७९३ ||
मार्कण्डेयस्य राजेन्द्र तीर्थमासाद्य दुर्लभम् ।। ८० ।।
गोमतीगड़्योश्वैव संगमे लोकविश्रुते ।
अग्निष्टोममवाप्रोति कुलं चैव समुद्धरेत् | ८१ ।।
राजेन्द्र! गोमती और गंगाके लोकविख्यात संगमके समीप मार्कण्डेयजीका दुर्लभ तीर्थ
है। उसमें जाकर मनुष्य अग्निष्टोमयज्ञका फल पाता और अपने कुलका उद्धार कर देता
है || ८०-८१ ।।
ततो गयां समासाद्य ब्रह्मचारी समाहित: ।
अश्वमेधमवाप्रोति कुलं चैव समुद्धरेत् ।। ८२ ।।
तदनन्तर गयातीर्थमें जाकर ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक एकाग्रचित्त हो मनुष्य अश्वमेधयज्ञका
फल पाता और अपने कुलका उद्धार कर देता है || ८२ ।।
तत्राक्षयवटो नाम त्रिषु लोकेषु विश्रुत: ।
तत्र दत्त पितृभ्यस्तु भवत्यक्षयमुच्यते || ८३ ।।
वहाँ तीनों लोकोंमें विख्यात अक्षयवट है। उनके समीप पितरोंके लिये दिया हुआ सब
कुछ अक्षय बताया जाता है ।। ८३ ।।
महानद्यामुपस्पृश्य तर्पयेत् पितृदेवता: ।
अक्षयान प्राप्तुयाल्लोकान् कुलं चैव समुद्धरेत् || ८४ ।।
महानदीमें स्नान करके जो देवताओं और पितरोंका तर्पण करता है, वह अक्षय
लोकोंको प्राप्त होता और अपने कुलका उद्धार कर देता है ।। ८४ ।।
ततो ब्रह्मसरो गत्वा धर्मारण्योपशोभितम् |
ब्रद्मलोकमवाप्रोति प्रभातामेव शर्वरीम् ।। ८५ ।।
तदनन्तर धर्मरिण्यसे सुशोभित ब्रह्मसरोवरकी यात्रा करके वहाँ एक रात प्रात:कालतक
निवास करनेसे मनुष्य ब्रह्मलोकको प्राप्त कर लेता है || ८५ ।।
ब्रह्मणा तत्र सरसि यूपश्रेष्ठ: समुच्छित: ।
यूपं प्रदक्षिणं कृत्वा वाजपेयफलं लभेत् ।। ८६ ।।
ब्रह्माजीने उस सरोवरमें एक श्रेष्ठ यूपकी स्थापना की थी। उसकी परिक्रमा करनेसे
मानव वाजपेययज्ञका फल पा लेता है ।। ८६ ।।
ततो गच्छेत राजेन्द्र धेनुकं लोकविश्रुतम् ।
एकरात्रोषितो राजन् प्रयच्छेत् तिलधेनुकाम् || ८७ ।।
सर्वपापविशुद्धात्मा सोमलोकं व्रजेद् ध्रुवम्
राजेन्द्र! वहाँसे लोकविख्यात धेनुतीर्थमें जाय। महाराज! वहाँ एक रात रहकर तिलकी
गौका दान करे।- इससे तीर्थयात्री पुरुष सब पापोंसे शुद्धचित्त हो निश्चय ही सोमलोकमें
जाता है || ८७३ ||
तत्र चिह्न महद् राजन्नद्यापि सुमहद् भूशम् ॥। ८८ ।।
कपिलाया: सवत्सायाश्चरन्त्या: पर्वते कृतम्
सवत्साया: पदानि सम दृश्यन्तेडद्यापि भारत ॥। ८९ ।।
राजन! वहाँ एक पर्वतपर चरनेवाली बछड़ेसहित कपिला गौका विशाल चरणचिह्न
आज भी अंकित है। भरतनन्दन! बछड़ेसहित उस गौके चरणचिह्न आज भी वहाँ देखे जाते
हैं | ८८-८९ ।।
तेषूपस्पृश्य राजेन्द्र पदेषु नृपसत्तम ।
यत् किंचिदशुभं कर्म तत् प्रणश्यति भारत ।। ९० ।।
भारत! नृपश्रेष्ठ! राजेन्द्र! उन चरणचिह्नोंका स्पर्श करके मनुष्यका जो कुछ भी अशुभ
कर्म शेष रहता है, वह सब नष्ट हो जाता है | ९० ।।
ततो गृध्रवर्ट गच्छेत् स्थानं देवस्थ धीमत: ।
स्नायीत भस्मना तत्र अभिगम्य वृषध्वजम् ।। ९१ ।।
तदनन्तर परम बुद्धिमान् महादेवजीके गृधप्रवट नामक स्थानकी यात्रा करे और वहाँ
भगवान् शंकरके समीप जाकर भस्मसे स्नान करे (अपने शरीरमें भस्म लगाये) ।। ९१ ।।
ब्राह्मणेन भवेच्चीर्ण व्रतं द्वादशवार्षिकम् ।
इतरेषां तु वर्णानां सर्वपापं प्रणश्यति ।। ९२ ।।
वहाँ यात्रा करनेसे ब्राह्मणको बारह वर्षोंतक व्रतके पालन करनेका फल प्राप्त होता है
और अन्य वर्णके लोगोंके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ।। ९२ ।।
उद्यन्तं च ततो गच्छेत् पर्वतं गीतनादितम् |
सावितन्र्यास्तु पद तत्र दृश्यते भरतर्षभ ।। ९३ ।।
भरतकुलभूषण! तदनन्तर संगीतकी ध्वनिसे गूँजते हुए उदयगिरिपर जाय। वहाँ
सावित्रीका चरणचिह्न आज भी दिखायी देता है ।। ९३ ।।
तत्र संध्यामुपासीत ब्राह्मण: संशितव्रतः ।
तेन ह्युपास्ता भवति संध्या द्वादशवार्षिकी ।। ९४ ।।
उत्तम व्रतका पालन करनेवाला ब्राह्मण वहाँ संध्योपासना करे। इससे उसके द्वारा
बारह वर्षोतककी संध्योपासना सम्पन्न हो जाती है ।। ९४ ।।
योनिद्धारं च तत्रैव विश्रुतं भरतर्षभ ।
तत्राभिगम्य मुच्येत पुरुषो योनिसंकटात् ।। ९५ ।।
भरतश्रेष्ठ! वहीं विख्यात योनिद्वारतीर्थ है, जहाँ जाकर मनुष्य योनिसंकटसे मुक्त हो
जाता है--उसका पुनर्जन्म नहीं होता ।। ९५ ।।
कृष्णशुक्लावुभौ पक्षौ गयायां यो वसेन्नर: ।
पुनात्यासप्तमं राजन् कुल नास्त्यत्र संशय: ।। ९६ ।।
राजन्! जो मानव कृष्ण और शुक्ल दोनों पक्षोंमें गयातीर्थमें निवास करता है, वह
अपने कुलकी सातवीं पीढ़ीतकको पवित्र कर देता है, इसमें संशय नहीं है ।।
एष्टव्या बहव: पुत्रा यद्येको5पि गयां व्रजेत् ।
यजेत वाश्वमेधेन नील॑ वा वृषमुत्सूजेत् ।। ९७ ।।
बहुत-से पुत्रोंकी इच्छा करे। सम्भव है, उनमेंसे एक भी गयामें जाय या अश्वमेधयज्ञ
करे अथवा नील वृषका उत्सर्ग ही करे || ९७ ।।
ततः फल्गुं व्रजेद् राज॑स्तीर्थसेवी नराधिप ।
अश्वमेधमवाप्रोति सिद्धि च महतीं व्रजेत् ।। ९८ ।।
राजन! नरेश्वर! तदनन्तर तीर्थसेवी मानव फल्गुतीर्थमें जाय। वहाँ जानेसे उसे
अश्वमेधयज्ञका फल मिलता है और बहुत बड़ी सिद्धि प्राप्त होती है ।। ९८ ।।
ततो गच्छेत राजेन्द्र धर्मप्रस्थं समाहित: ।
तत्र धर्मो महाराज नित्यमास्ते युधिष्ठिर ।। ९९ ।।
महाराज! तदनन्तर एकाग्रचित्त हो मनुष्य धर्मप्रस्थकी यात्रा करे। युधिष्ठिर! वहाँ
धर्मराजका नित्य निवास है ।। ९९ |।
तत्र कूपोदकं कृत्वा तेन स्नात: शुचिस्तथा ।
पितृन् देवांस्तु संतर्प्य मुक्तपापो दिवं व्रजेत् ।। १०० ।।
वहाँ कुएँका जल लेकर उससे स्नान करके पवित्र हो देवताओं और पितरोंका तर्पण
करनेसे मनुष्यके सारे पाप छूट जाते हैं और वह स्वर्गलोकमें जाता है || १०० ।।
मतड़स्याश्रमस्तत्र महर्षेर्भावितात्मन: ।
त॑ प्रविश्याश्रमं श्रीमच्छूमशोकविनाशनम् ।। १०१ |।
गवामयनयज्ञस्य फल प्राप्रोति मानव: ।
धर्म तत्राभिसंस्पृश्य वाजिमेधमवाप्रुयात् ।। १०२ ।।
वहीं भावितात्मा महर्षि मतंगका आश्रम है। श्रम और शोकका विनाश करनेवाले उस
सुन्दर आश्रममें प्रवेश करनेसे मनुष्य गवामयनयज्ञका फल पाता है। वहाँ धर्मके निकट जा
उनके श्रीविग्रहका दर्शन और स्पर्श करनेसे अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त होता है ।।
ततो गच्छेत राजेन्द्र ब्रह्मस्थानमनुत्तमम् |
तत्राभिगम्य राजेन्द्र ब्रह्माणं पुरुषर्षभ ।। १०३ ।।
राजसूयाश्चदमेधाभ्यां फलं विन्दति मानव: ।
राजेन्द्र! तदनन्तर परम उत्तम ब्रह्मस्थानको जाय। महाराज! पुरुषोत्तम! वहाँ
ब्रह्माजीके समीप जाकर मनुष्य राजसूय और अभश्वमेधयज्ञोंका फल पाता है || १०३ ६ ।।
ततो राजगहं गच्छेत् तीर्थसेवी नराधिप ।। १०४ ।।
उपस्पृश्य ततस्तत्र कक्षीवानिव मोदते ।
यक्षिण्या नैत्यकं तत्र प्राश्नीत पुरुष: शुचि: ।। १०५ ।।
यक्षिण्यास्तु प्रसादेन मुच्यते ब्रह्म॒हत्यया ।
नरेश्वर! तदनन्तर तीर्थसेवी मनुष्य राजगृहको जाय। वहाँ स्नान करके वह कक्षीवान्के
समान प्रसन्न होता है। उस तीर्थमें पवित्र होकर पुरुष यक्षिणीदेवीका नैवेद्य भक्षण करे।
यक्षिणीके प्रसादसे वह ब्रह्महत्यासे मुक्त हो जाता है ।। १०४-१०५ ६ ।।
मणिनागं ततो गत्वा गोसहस्रफलं लभेत् ।। १०६ ।।
तदनन्तर मणिनागतीर्थमें जाकर तीर्थयात्री सहस्र गोदानका फल प्राप्त करे || १०६ ।।
तैर्थिकं भुज्जते यस्तु मणिनागस्थ भारत ।
दष्टस्याशीविषेणापि न तस्य क्रमते विषम् ।। १०७ ।।
तत्रोष्य जननीमेकां गोसहस्रफलं लभेत् ।
भरतनन्दन! जो मणिनागका तीर्थप्रसाद (नैवेद्य, चरणामृत आदि)-का भक्षण करता है,
उसे साँप काट ले तो भी उसपर विषका असर नहीं होता। वहाँ एक रात रहनेसे सहस्र
गोदानका फल मिलता है ।। १०७६ ।।
ततो गच्छेत ब्रह्मुर्षेगौतमस्य वन प्रियम् ।। १०८ ।।
अहल्याया हवदे स्नात्वा व्रजेत परमां गतिम् ।
अभिगम्याश्रमं राजन् विन्दते श्रियमात्मन: ।। १०९ ||
तत्पश्चात् ब्रह्मर्षि गौतमके प्रिय वनकी यात्रा करे। वहाँ अहल्याकुण्डमें स्नान करनेसे
मनुष्य परमगतिको प्राप्त होता है। राजन! गौतमके आश्रममें जाकर मनुष्य अपने लिये
लक्ष्मी प्राप्त कर लेता है ।। १०८-१०९ |।
तत्रोदपानं धर्मज्ञ त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ।
तत्राभिषेकं कृत्वा तु वाजिमेधमवाप्लुयात् ।। ११० ।।
धर्मज्ञ! वहाँ एक त्रिभुवनविख्यात कूप है, जिसमें स्नान करनेसे अश्वमेधयज्ञका फल
प्राप्त होता है ।। ११० ।।
जनकस्य तु राजर्षे: कूपस्त्रिदशपूजित: ।
तत्राभिषेकं कृत्वा तु विष्णुलोकमवाप्रुयात् ।। १११ ।।
राजर्षि जनकका एक कूप है, जिसका देवता भी सम्मान करते हैं। वहाँ स्नान करनेसे
मनुष्य विष्णुलोकमें जाता है ।। १११ ।।
ततो विनशनं गच्छेत् सर्वपापप्रमोचनम् ।
वाजपेयमवाप्रोति सोमलोकं च गच्छति ॥। ११२ ।।
तत्पश्चात् सब पापोंसे छुड़ानेवाले विनशनतीर्थको जाय, जिससे मनुष्य वाजपेययज्ञका
फल पाता और सोमलोकको जाता है ।। ११२ ।।
गण्डकीं तु समासाद्य सर्वतीर्थजलोद्धवाम् ।
वाजपेयमवाप्रोति सूर्यलोक॑ च गच्छति ।। ११३ ।।
गण्डकी नदी सब तीर्थोंके जलसे उत्पन्न हुई है। वहाँ जाकर तीर्थयात्री अश्वमेधयज्ञका
फल पाता और सूर्यलोकमें जाता है ।। ११३ ।।
ततो विशल्यामासाद्य नदी त्रैलोक्यविश्रुताम् ।
अग्निष्टोममवाप्रोति स्वर्गलोक॑ च गच्छति ।। ११४ ।।
तत्पश्चात् त्रिलोकीमें विख्यात विशल्या नदीके तटपर जाकर स्नान करे। इससे वह
अग्निष्टोमयज्ञका फल पाता और स्वर्गलोकमें जाता है ।। ११४ ।।
ततो<थिवड्ुं धर्मज्ञ समाविश्य तपोवनम् ।
गुहकेषु महाराज मोदते नात्र संशय: ।। ११५ ।।
धर्मज्ञ महाराज! तदनन्तर वंगदेशीय तपोवनमें प्रवेश करके तीर्थयात्री इस शरीरके
अन्तमें गुह्कलोकमें जाकर निःसंदेह आनन्दका भागी होता है || ११५ ।।
कम्पनां तु समासाद्य नदीं सिद्धनिषेविताम् ।
पुण्डरीकमवाप्रोति स्वर्गलोकं॑ च गच्छति ।। ११६ ।।
तत्पश्चात् सिद्धसेवित कम्पना नदीमें पहुँचकर मनुष्य पुण्डरीकयज्ञका फल पाता और
स्वर्गलोकमें जाता है || ११६ ।।
अथ माहेश्वरी धारां समासाद्य धराधिप ।
अश्वमेधमवाप्रोति कुलं चैव समुद्धरेत् ।। ११७ ।।
राजन! तत्पश्चात् माहेश्वरी धाराकी यात्रा करनेसे तीर्थयात्रीको अश्वमेधयज्ञका फल
मिलता है और वह अपने कुलका उद्धार कर देता है || ११७ ।।
दिवौकसां पुष्करिणीं समासाद्य नराधिप ।
न दुर्गतिमवाप्रोति वाजिमेधं च विन्दति ।। ११८ ।।
नरेश्वर! फिर देवपुष्करिणीमें जाकर मानव कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता और
अश्वमेधयज्ञका फल पाता है || ११८ ।।
अथ सोमपदं गच्छेद् ब्रह्मचारी समाहित: ।
माहेश्वरपदे स्नात्वा वाजिमेधफलं लभेत् ।। ११९ ।।
तदनन्तर ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक एकाग्रचित्त हो सोमपदतीर्थमें जाय। वहाँ माहेश्वरपदमें
स्नान करनेसे अश्वमेधयज्ञका फल मिलता है ।। ११९ |।
तत्र कोटिस्तु तीर्थानां विश्रुता भरतर्षभ ।
कूर्मरूपेण राजेन्द्र हासुरेण दुरात्मना ।। १२० ।।
ह्वियमाणा हृता राजन् विष्णुना प्रभविष्णुना |
तत्राभिषेकं कुर्वीत तीर्थकोट्यां युधिष्ठिर ।। १२१ ।।
पुण्डरीकमवाप्रोति विष्णुलोकं॑ च गच्छति ।
भरतकुलतिलक! वहाँ तीर्थोकी विख्यात श्रेणीको एक दुरात्मा असुर कूर्मरूप धारण
करके हरकर लिये जाता था। राजन! यह देख सर्वशक्तिमान् भगवान् विष्णुने उस
तीर्थश्रेणीका उद्धार किया। युधिष्ठिर! वहाँ उस तीर्थकोटिमें स्नान करना चाहिये। ऐसा
करनेवाले यात्रीको पुण्डरीकयज्ञका फल मिलता है और वह विष्णुलोकको जाता
है || १२०-१२१३ ||
ततो गच्छेत राजेन्द्र स्थानं नारायणस्य च ।। १२२ ।।
सदा संनिहितो यत्र विष्णुर्वसति भारत ।
यत्र ब्रह्मादयो देवा ऋषयश्च॒ तपोधना: ।। १२३ ।।
आदित्या वसवो रुद्रा जनार्दनमुपासते ।
शालग्राम इति ख्यातो विष्णुरद्भुतकर्मक: ।। १२४ ।।
राजेन्द्र! तदनन्तर नारायण-स्थानको जाय। भरतनन्दन! वहाँ भगवान् विष्णु सदा
निवास करते हैं। ब्रह्मा आदि देवता, तपोधन ऋषि, आदित्य, वसु तथा रुद्र भी वहाँ रहकर
जनार्दनकी उपासना करते हैं। उस तीर्थमें अद्भुतकर्मा भगवान् विष्णु शालग्रामके नामसे
प्रसिद्ध हैं ।।
अभिगम्य त्रिलोकेशं वरदं विष्णुमव्ययम् ।
अश्वमेधमवाप्रोति विष्णुलोकं॑ च गच्छति ।। १२५ ।।
तीनों लोकोंके स्वामी उन वरदायक अविनाशी भगवान् विष्णुके समीप जाकर मनुष्य
अश्वमेधयज्ञका फल पाता और विष्णुलोकमें जाता है ।। १२५ ।।
तत्रोदपानं धर्मज्ञ सर्वपापप्रमोचनम् ।
समुद्रास्तत्र चत्वार: कूपे संनिहिता: सदा ।। १२६ ।।
धर्मज्ञ! वहाँ एक कूप है, जो सब पापोंको दूर करनेवाला है। उसमें सदा चारों समुद्र
निवास करते हैं ।।
तत्रोपस्पृश्य राजेन्द्र न दुर्गतिमवाप्रुयात् ।
अभिगम्य महादेवं वरदं रुद्रमव्ययम् ।। १२७ ।।
विराजति यथा सोमो मेघैर्मुक्तो नराधिप ।
जातिस्मरमुपस्पृश्य शुचि: प्रयतमानस: ।। १२८ ।।
राजेन्द्र! उसमें निवास करनेसे मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता। सबको वर देनेवाले
अविनाशी महादेव रुद्रके समीप जाकर मनुष्य मेघोंके आवरणसे मुक्त हुए चन्द्रमाकी भाँति
सुशोभित होता है। नरेश्वर! वहीं जातिस्मरतीर्थ है; जिसमें स्नान करके मनुष्य पवित्र एवं
शुद्धचित्त हो जाता है। अर्थात् उसके शरीर और मनकी शुद्धि हो जाती है ।। १२७-१२८ ।।
जातिस्मरत्वमाप्रोति स्नात्वा तत्र न संशय: ।
माहेश्वरपुरं गत्वा अर्चयित्वा वृषध्वजम् ।। १२९ |।
ईप्सिताल्लँभते कामानुपवासान्न संशय: ।
ततस्तु वामनं गत्वा सर्वपापप्रमोचनम् ।। १३० ।।
अभिगम्य हरिं देवं न दुर्गतिमवाप्नुयात् ।
कुशिकस्याश्रमं गच्छेत् सर्वपापप्रमोचनम् ।। १३१ ।।
उस तीर्थमें स्नान करनेसे पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण करनेकी शक्ति प्राप्त हो जाती है,
इसमें संशय नहीं है। माहेश्वरपुरमें जाकर भगवान् शंकरकी पूजा और उपवास करनेसे
मनुष्य सम्पूर्ण मनोवांछित कामनाओं-को प्राप्त कर लेता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।
तत्पश्चात् सब पापोंको दूर करनेवाले वामनतीर्थकी यात्रा करके भगवान् श्रीहरिके निकट
जाय। उनका दर्शन करनेसे मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता। इसके बाद सब पापोंसे
छुड़ानेवाले कुशिकाश्रमकी यात्रा करे || १२९--१३१ ।।
कौशिकी तत्र गच्छेत महापापप्रणाशिनीम् ।
राजसूयस्य यज्ञस्य फल प्राप्रोति मानव: ।। १३२ ।।
वहीं बड़े-बड़े पापोंका नाश करनेवाली कौशिकी (कोशी) नदी है। उसके तटपर जाकर
स्नान करे। ऐसा करनेवाला मानव राजसूययज्ञका फल पाता है ।। १३२ ।।
ततो गच्छेत राजेन्द्र चम्पकारण्यमुत्तमम् |
तत्रोष्य रजनीमेकां गोसहस्रफलं लभेत् ।। १३३ ।।
राजेन्द्र! तदनन्तर उत्तम चम्पकारण्य (चम्पारन)-की यात्रा करे। वहाँ एक रात निवास
करनेसे तीर्थयात्रीको सहस्र गोदानका फल मिलता है ।। १३३ ।।
अथ ज्येछिलमासाद्य तीर्थ परमदुर्लभम् ।
तत्रोष्य रजनीमेकां गोसहस्रफलं लभेत् ।। १३४ ।।
तत्पश्चात् परम दुर्लभ ज्येष्लिलतीर्थमें जाकर एक रात निवास करनेसे मानव सहस्र
गोदानका फल पाता है ।। १३४ ।।
तत्र विश्वेश्वरं दृष्टवा देव्या सह महाद्युतिम् ।
मित्रावरुणयोलेंकानाप्रोति पुरुषर्षभ ।। १३५ ।।
त्रिरात्रोपोषितस्तत्र अग्निष्टोमफलं लभेत् |
पुरुषरत्न! वहाँ पार्वतीदेवीके साथ महातेजस्वी भगवान् विश्वेश्वरका दर्शन करनेसे
तीर्थयात्रीकोी मित्र और वरुण-देवताके लोकोंकी प्राप्ति होती है, वहाँ तीन रात उपवास
करनेसे अग्निष्टोमयज्ञका फल मिलता है ।। १३५३ ।।
कन्यासंवेद्यमासाद्य नियतो नियताशन: ।। १३६ ।।
मनो: प्रजापतेलोंकानाप्रोति पुरुषर्षभ ।
कन्यायां ये प्रयच्छन्ति दानमण्वपि भारत ।। १३७ ।।
तदक्षय्यमिति प्राहु#ऋषय: संशितव्रता: ।
पुरुषश्रेष्ठी इसके बाद नियमपूर्वक नियमित भोजन करते हुए तीर्थयात्रीको कन्यासंवेद्य
नामक तीर्थमें जाना चाहिये। इससे वह प्रजापति मनुके लोक प्राप्त कर लेता है।
भरतनन्दन! जो लोग कन्यासंवेद्यतीर्थमें थोड़ा-सा भी दान देते हैं, उनके उस दानको उत्तम
व्रतका पालन करनेवाले महर्षि अक्षय बताते हैं ।।
निश्चवीरां च समासाद्य त्रिषु लोकेषु विश्रुताम् । १३८ ।।
अश्वमेधमवाप्रोति विष्णुलोकं॑ च गच्छति ।
ये तु दानं॑ प्रयच्छन्ति निश्चीरासंगमे नरा: ।॥। १३९ ।।
ते यान्ति नरशार्दूल शक्रलोकमनामयम् ।
तत्राश्रमो वसिष्ठस्य त्रिषु लोकेषु विश्रुत: ।। १४० ।।
तदनन्तर त्रिलोकविख्यात निश्चीरा नदीकी यात्रा करे। इससे अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त
होता है और तीर्थयात्री पुरुष भगवान् विष्णुके लोकमें जाता है। नरश्रेष्ठ जो मानव
निश्वीरासंगममें दान देते हैं, वे रोग-शोकसे रहित इन्द्रलोकमें जाते हैं। वहीं तीनों लोकोंमें
विख्यात वसिष्ठ-आश्रम है || १३८--१४० ।।
तत्राभिषेकं कुर्वाणो वाजपेयमवाप्नुयात् ।
देवकूटं समासाद्य ब्रह्मर्षिगणसेवितम् ।। १४१ ।।
अश्वमेधमवाप्रोति कुलं चैव समुद्धरेत् ।
वहाँ स्नान करनेवाला मनुष्य वाजपेययज्ञका फल पाता है। तदनन्तर ब्रह्मर्षियोंसे
सेवित देवकूट-तीर्थमें जाकर स्नान करे। ऐसा करनेवाला पुरुष अश्वमेध-यज्ञका फल पाता
और अपने कुलका उद्धार कर देता है || १४१ $ ||
ततो गच्छेत राजेन्द्र कौशिकस्य मुने्हदम् ।। १४२ ।।
यत्र सिद्धि परां प्राप्तो विश्वामित्रो5$थ कौशिक: ।
तत्र मासं वसेद् वीर कौशिक्यां भरतर्षभ ।। १४३ ।।
राजेन्द्र! तत्पश्चात् कौशिक मुनिके कुण्डमें स्नानके लिये जाय, जहाँ कुशिकनन्दन
विश्वामित्रने उत्तम सिद्धि प्राप्त की थी। वीर! भरतकुलभूषण! उस तीर्थमें कौशिकी नदीके
तटपर एक मासतक निवास करे ।। १४२-१४३ ।।
अश्वमेधस्य यत् पुण्यं तन््मासेनाधिगच्छति ।
सर्वतीर्थवरे चैव यो वसेत महाह्दे || १४४ ।।
न दुर्गतिमवाप्नोति विन्देद् बहु सुवर्णकम् ।
ऐसा करनेसे एक मासमें ही अश्वमेधयज्ञका पुण्यफल प्राप्त हो जाता है। जो सब
तीर्थो्में उत्तम महाह्ृदमें स्नान करता है वह कभी दुर्गतिको नहीं प्राप्त होता और प्रचुर
सुवर्णराशि प्राप्त कर लेता है ।। १४४ ६ ।।
कुमारमभिगम्याथ वीराश्रमनिवासिनम् ।। १४५ ।।
अश्वमेधमवाप्रोति नरो नास्त्यत्र संशय: ।
तदनन्तर वीराश्रमनिवासी कुमार कार्तिकेयके निकट जाकर मनुष्य अश्वमेधयज्ञका
फल प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है ।। १४५६ ।।
अग्निधारां समासाद्य त्रिषु लोकेषु विश्रुताम् ।। १४६ ।।
तत्राभिषेकं कुर्वाणो हाग्निष्टोममवाप्नुयात् ।
अग्निधारातीर्थ तीनों लोकोंमें विख्यात है। वहाँ जाकर स्नान करनेवाला पुरुष
अग्निष्टोमयज्ञका फल पाता है ।। १४६ ३ ||
अधिगम्य महादेवं वरदं विष्णुमव्ययम् ।। १४७ ।।
वहाँ वर देनेवाले महान् देवता अविनाशी भगवान् विष्णुके निकट जाकर उनका दर्शन
और पूजन करे ।। १४७ ||
पितामहसरो गत्वा शैलराजसमीपत: ।
तत्राभिषेकं कुर्वाणो हाग्निष्टोममवाप्रुयात् || १४८ ।।
गिरिराज हिमालयके निकट पितामहसरोवरमें जाकर स्नान करनेवाले पुरुषको
अग्निष्टोमयज्ञका फल मिलता है ।। १४८ ।।
पितामहस्य सरस: प्रख्बुता लोकपावनी ।
कुमारधारा तत्रैव त्रिषु लोकेषु विश्रुता | १४९ ।।
पितामहसरोवरसे सम्पूर्ण जगत्को पवित्र करनेवाली एक धारा प्रवाहित होती है, जो
तीनों लोकोंमें कुमारधाराके नामसे विख्यात है ।। १४९ ।।
यत्र स्नात्वा कृतार्थो5स्मीत्यात्मानमवगच्छति ।
षष्ठकालोपवासेन मुच्यते ब्रह्म॒हत्यया ।। १५० ।।
उसमें स्नान करके मनुष्य अपने-आपको कृतार्थ मानने लगता है। वहाँ रहकर छठे
समय उपवास करनेसे मनुष्य ब्रह्महत्यासे छुटकारा पा जाता है ।। १५० ।।
ततो गच्छेत धर्मज्ञ तीर्थसेवनतत्पर: ।
शिखर वै महादेव्या गौयस्त्रिलोक्यविश्रुतम् ।। १५१ ।।
धर्मज्ञ! तदनन्तर तीर्थसेवनमें तत्पर मानव महादेवी गौरीके शिखरपर जाय, जो तीनों
लोकोंमें विख्यात है ।। १५१ ।।
समारुहा[ नरश्रेष्ठ स्तनकुण्डेषु संविशेत् ।
स्तनकुण्डमुपस्पृश्य वाजपेयफलं लभेत् ।। १५२ ।।
नरश्रेष्ठ उस शिखरपर चढ़कर मानव स्तनकुण्डमें स्नान करे। स्तनकुण्डमें अवगाहन
करनेसे वाजपेययज्ञका फल प्राप्त होता है ।। १५२ ।।
तत्राभिषेकं कुर्वाण: पितृदेवार्चने रत: ।
हयमेधमवाप्रोति शक्रलोकं॑ च गच्छति ।। १५३ ।।
उस तीर्थमें स्नान करके देवताओं और पितरोंकी पूजा करनेवाला पुरुष अश्वमेधयज्ञका
फल पाता और इन्द्रलोकमें पूजित होता है ।। १५३ ।।
ताग्रारुणं समासाद्य ब्रह्मचारी समाहित: ।
अश्वमेधमवाप्रोति ब्रह्मलोक॑ च गच्छति ।। १५४ ।।
तदनन्तर ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक एकाग्रचित्त हो ताम्रारुणतीर्थकी यात्रा करनेसे मनुष्य
अश्वमेधयज्ञका फल पाता और ब्रह्मलोकमें जाता है ।। १५४ ।।
नन्दिन्यां च समासाद्य कूपं देवनिषेवितम् |
नरमेधस्य यत् पुण्यं तदाप्रोति नराधिप ।। १५५ ।।
नन्दिनीतीर्थमें देवताओंद्वारा सेवित एक कूप है। नरेश्वर! वहाँ जाकर स्नान करनेसे
मानव नरमेधयज्ञका पुण्यफल प्राप्त करता है ।। १५५ ।।
कालिकासंगमे स्नात्वा कौशिक्यरुणयोर्गत: ।
त्रिरात्रोपोषितो राजन् सर्वपापै: प्रमुच्यते || १५६ ।।
राजन्! कौशिकी-अरुणा-संगम और कालिका-संगममें स्नान करके तीन रात उपवास
करनेवाला मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है ।। १५६ ।।
उर्वशीतीर्थमासाद्य तत: सोमाश्रमं बुध: ।
कुम्भकर्णाश्रमं गत्वा पूज्यते भुवि मानव: ।। १५७ ।।
तदनन्तर उर्वशीतीर्थ, सोमाश्रम और कुम्भ-कर्णाश्रमकी यात्रा करके मनुष्य इस
भूतलपर पूजित होता है || १५७ ||
कोकामुखमुपस्पृश्य ब्रह्मचारी यतव्रत: ।
जातिस्मरत्वमाप्रोति दृष्टमेतत् पुरातनै: ।। १५८ ।।
कोकामुखतीर्थमें स्नान करके ब्रह्मचर्य एवं संयम-नियमका पालन करनेवाला पुरुष
पूर्वजन्मकी बातोंको स्मरण करनेकी शक्ति प्राप्त कर लेता है। यह बात प्राचीन पुरुषोंने
प्रत्यक्ष देखी है ।। १५८ ।।
प्राइनदीं च समासाद्य कृतात्मा भवति द्विज: |
सर्वपापविशुद्धात्मा शक्रलोक॑ च गच्छति ।। १५९ ।।
प्राइनदीतीर्थमें जानेसे द्विज कृतार्थ हो जाता है। वह सब पापोंसे शुद्धचित्त होकर
इन्द्रलोकमें जाता है ।।
ऋषभद्दीपमासाद्य मेध्यं क्रौड्चनिष्दनम् ।
सरस्वत्यामुपस्पृश्य विमानस्थो विराजते ।। १६० ।।
तीर्थसेवी मनुष्य पवित्र ऋषभद्वीप और क्रौज्चनिषूदनतीर्थमें जाकर सरस्वतीमें स्नान
करनेसे विमानपर विराजमान होता है ॥। १६० ।।
औद्दालकं महाराज तीर्थ मुनिनिषेवितम् ।
तत्राभिषेकं कृत्वा वै सर्वपापै: प्रमुच्यते || १६१ ।।
महाराज! मुनियोंसे सेवित औद्यदालकतीर्थमें स्नान करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो
जाता है ॥। १६१ ।।
धर्मतीर्थ समासाद्य पुण्य ब्रह्मर्षिसेवितम् ।
वाजपेयमवाप्रोति विमानस्थश्व पूज्यते | १६२ ।।
परम पवित्र ब्रह्मर्षिसेवित धर्मतीर्थमें जाकर स्नान करनेवाला मनुष्य वाजपेययज्ञका
फल पाता और विमानपर बैठकर पूजित होता है || १६२ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि पुलस्त्यती र्थयात्रायां
चतुरशीतितमो<ध्याय: ।। ८४ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपव्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें पुलस्त्यकी तीर्थयात्रासे सम्बन्ध
रखनेवाला चौरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ८४ ॥।
न लक
- शम्याका अर्थ है डंडा। कोई बलवान पुरुष डंडेको खूब जोर लगाकर फेंके तो वह जहाँ गिरे, उतनी दूरके स्थानको
एक शम्यानिपात कहते हैं। ऐसे ही छ: शम्यानिपातकी दूरी समझ लेनी चाहिये।
> तिलोंसे गौकी आकृति बनाकर उसका दान करे।
पञ्चाशीतितमोब<् ध्याय:
गंगासागर, अयोध्या, चित्रकूट, प्रयाग आदि विभिन्न
तीर्थोकी महिमाका वर्णन और गंगाका माहात्म्य
पुलस्त्य उवाच
अथ संध्यां समासाद्य संवेद्यं तीर्थमुत्तमम् ।
उपस्पृश्य नरो विद्यां लभते नात्र संशय: ।। १ ।।
पुलस्त्यजी कहते हैं--भीष्म! तदनन्तर प्रात:-संध्याके समय उत्तम संचवेद्यतीर्थमें
जाकर स्नान करनेसे मनुष्य विद्यालाभ करता है; इसमें संशय नहीं है ।। १ ।।
रामस्य च प्रभावेण तीर्थ राजन् कृतं पुरा ।
तल्लौहित्यं समासाद्य विन्द्याद् बहु सुवर्णकम् ।। २ ।।
राजन! पूर्वकालमें श्रीरामके प्रभावसे जो तीर्थ प्रकट हुआ उसका नाम लौहित्यतीर्थ है।
उसमें जाकर स्नान करनेसे मनुष्यको बहुत-सी सुवर्णराशि प्राप्त होती है ।। २ ।।
करतोयां समासाद्य त्रिरात्रोपोषितो नरः ।
अश्वमेधमवाप्रोति प्रजापतिकृतो विधि: ।। ३ ।।
करतोयामें जाकर स्नान करके तीन रात उपवास करनेवाला मनुष्य अश्वमेधयज्ञका
फल पाता है। यह ब्रह्माजीद्वारा की हुई व्यवस्था है ।। ३ ।।
गड्जायास्तत्र राजेन्द्र सागरस्य च संगमे ।
अश्वमेधं दशगुणं प्रवदन्ति मनीषिण: ।। ४ ।।
राजेन्द्र! वहाँ गंगासागरसंगममें स्नान करनेसे दस अश्वमेधयज्ञोंके फलकी प्राप्ति होती
है, ऐसा मनीषी पुरुष कहते हैं || ४ ।।
गज़जायास्त्वपरं पारं प्राप्प यः स्नाति मानव: ।
त्रिरात्रमुषितो राजन् सर्वपापै: प्रमुच्यते ।। ५ ।।
राजन्! जो मानव गंगासागरसंगममें गंगाके दूसरे पार पहुँचकर स्नान करता है और
तीन रात वहाँ निवास करता है, वह सब पापोंसे छूट जाता है || ५ ।।
ततो वैतरणीं गच्छेत् सर्वपापप्रमोचनीम् |
विरजं तीर्थमासाद्य विराजति यथा शशी ।। ६ ।।
तदनन्तर सब पापोंसे छुड़ानेवाली वैतरणीकी यात्रा करे। वहाँ विरजतीर्थमें जाकर
स्नान करनेसे मनुष्य चन्द्रमाके समान प्रकाशित होता है ।। ६ ।।
प्रतरेच्च कुलं पुण्यं सर्वपापं व्यपोहति ।
गोसहस्रफलं लब्ध्वा पुनाति स्वकुलं नर: ।। ७ ।।
उसका पुण्यमय कुल संसारसागरसे तर जाता है। वह अपने सब पापोंका नाश कर
देता है और सहस्र गोदानका फल प्राप्त करके अपने कुलको पवित्र कर देता है || ७ ।।
शोणस्य ज्योतिरथ्याया: संगमे नियत: शुचि: ।
तर्पयित्वा पितृन् देवानग्निष्टोमफलं लभेत् ।। ८ ।।
शोण और ज्योतिरथ्याके संगममें स्नान करके जितेन्द्रिय एवं पवित्र पुरुष यदि
देवताओं और पितरोंका तर्पण करे तो वह अग्निष्टोमयज्ञका फल पाता है ।। ८ ।।
शोणस्य नर्मदायाश्च प्रभवे कुरुनन्दन ।
वंशगुल्म उपस्पृश्य वाजिमेधफलं लभेत् ।। ९ ।।
कुरुनन्दन! शोण और नर्मदाके उत्पत्तिस्थान वंशगुल्मतीर्थमें स्नान करके तीर्थयात्री
अश्वमेधयज्ञका फल पाता है || ९ ।।
ऋषभं तीर्थमासाद्य कोसलायां नराधिप ।
वाजपेयमवाप्रोति त्रिरात्रोपोषितो नर: ।। १० ।।
गोसहस्रफलं विन्द्यात् कुलं चैव समुद्धरेत्
नरेश्वरर कोसला (अयोध्या)-में ऋषभतीर्थमें जाकर स्नानपूर्वक तीन रात उपवास
करनेवाला मानव वाजपेययज्ञका फल पाता है। इतना ही नहीं, वह सहस्र गोदानका फल
पाता और अपने कुलका भी उद्धार कर देता है || १०३ ।।
कोसलां तु समासाद्य कालतीर्थमुपस्पृशेत् । ११ ।।
वृषभैकादशफलं लभते नात्र संशय: ।
पुष्पवत्यामुपस्पृश्य त्रिरात्रोपोषितो नर: ।। १२ ।।
गोसहस्रफलं लब्ध्वा पुनाति स्वकुलं नृप ।
कोसला नगरी (अयोध्या)-में जाकर कालतीर्थमें स्नान करे। ऐसा करनेसे ग्यारह वृषभ-
दानका फल मिलता है, इसमें संशय नहीं है। पुष्पवतीमें स्नान करके तीन रात उपवास
करनेवाला मनुष्य सहस्र गोदानका फल पाता और अपने कुलको पवित्र कर देता
है || ११-१२६३ ||
ततो बदरिकातीर्थ स्नात्वा भरतसत्तम ।। १३ ।।
दीर्घमायुरवाप्रोति स्वर्गलोक॑ च गच्छति ।
भरतकुलभूषण! तदनन्तर बदरिकातीर्थमें स्नान करके मनुष्य दीर्घायु पाता और
स्वर्गलोकमें जाता है ।।
अथ चम्पां समासाद्य भागीरथ्यां कृतोदक: ।। १४ ।।
दण्डाख्यमभिगम्यैव गोसहस्रफलं लभेत् ।
तत्पश्चात् चम्पामें जाकर भागीरथीमें तर्पण करे और दण्ड नामक तीर्थमें जाकर सहस्र
गोदानका फल प्राप्त करे || १४६ ।।
लपेटिकां ततो गच्छेत् पुण्यां पुण्योपशोभिताम् ॥। १५ ।।
वाजपेयमवाप्रोति देवै: सर्वैश्व पूज्यते ।
तदनन्तर पुण्यशोभिता पुण्यमयी लपेटिकामें जाकर स्नान करे। ऐसा करनेसे तीर्थयात्री
वाजपेययज्ञका फल पाता और सम्पूर्ण देवताओंद्वारा पूजित होता है ।। १५६ ।।
ततो महेन्द्रमासाद्य जामदग्न्यनिषेवितम् ।। १६ ।।
रामतीर्थ नर: स्नात्वा अश्वमेधफलं लभेत् ।
इसके बाद परशुरामसेवित महेन्द्रपर्वतपर जाकर वहाँके रामतीर्थमें स्नान करनेसे
मनुष्यको अश्वमेधयज्ञका फल मिलता है || १६६ ||
मतड़स्य तु केदारस्तत्रैव कुरुनन्दन ।। १७ ।।
तत्र स्नात्वा कुरुश्रेष्ठ गोसहस्रफलं लभेत् |
कुरुश्रेष्ठ कुरुनन्दन! वहीं मतंगका केदार है, उसमें स्नान करनेसे मनुष्यको सहस्र
गोदानका फल मिलता है || १७३६ ।।
श्रीपर्वत॑ं समासाद्य नदीतीरमुपस्पृशेत् ।। १८ ।।
अश्वमेधमवाप्रोति पूजयित्वा वृषध्वजम् |
श्रीपर्वतपर जाकर वहाँकी नदीके तटपर स्नान करे। वहाँ भगवान् शंकरकी पूजा करके
मनुष्यको अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त होता है ।। १८३ ।।
श्रीपर्वते महादेवो देव्या सह महाद्युति: ।। १९ ।।
न्यवसत् परमप्रीतो ब्रह्मा च त्रिदशै: सह ।
तत्र देवहदे स्नात्वा शुचि: प्रयतमानस: ।। २० ||
अश्वमेधमवाप्रोति परां सिद्धि च गच्छति ।
ऋषभं पर्वतं गत्वा पाण्ड्ये दैवतपूजितम् ।
वाजपेयमवाप्रोति नाकपृष्ठे च मोदते ।। २१ ।।
श्रीपर्वतपर देवी पार्वतीके साथ महातेजस्वी महादेवजी बड़ी प्रसन्नताके साथ निवास
करते हैं। देवताओंके साथ ब्रह्माजी भी वहाँ रहते हैं। वहाँ देवकुण्डमें स्नान करके पवित्र हो
जितात्मा पुरुष अश्वमेधयज्ञका फल पाता और परम सिद्धि लाभ करता है। पाड्यदेशमें
देवपूजित ऋषभ पर्वतपर जाकर तीर्थयात्री वाजपेययज्ञका फल पाता और स्वर्गलोकमें
आनन्दित होता है ।। १९--२१ ।।
ततो गच्छेत कावेरीं वृतामप्सरसां गणै: ।
तत्र स्नात्वा नरो राजन् गोसहस्रफलं लभेत् ।। २२ ।।
राजन्! तदनन्तर अप्सराओंसे आवृत कावेरी नदीकी यात्रा करे। वहाँ स्नान करनेसे
मनुष्य सहस्र गोदानका फल पाता है || २२ ।।
ततस्तीरे समुद्रस्यथ कन्यातीर्थमुपस्पृशेत् ।
तत्रोपस्पृश्य राजेन्द्र सर्वपापै: प्रमुच्यते | २३ ।।
राजेन्द्र! तत्पश्चात् समुद्रके तटपर विद्यमान कन्यातीर्थ (कन्याकुमारी)-में जाकर स्नान
करे। उस तीर्थमें स्नान करते ही मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है ।। २३ ।।
अथ गोकर्णमासाद्य त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ।
समुद्रमध्ये राजेन्द्र सर्वलोकनमस्कृतम् ।। २४ ।।
यत्र ब्रह्मादयो देवा ऋषयश्न तपोधना: ।
भूतयक्षपिशाचाश्व किंनरा: समहोरगा: ।। २५ ।।
सिद्धचारणगन्धर्वमानुषा: पन्नगास्तथा |
सरित: सागरा: शैला उपासन्त उमापतिम् ॥। २६ ।।
महाराज! इसके बाद समुद्रके मध्यमें विद्यमान त्रिभुवनविख्यात अखिल लोकवन्दित
गोकर्णतीर्थमें जाकर स्नान करे। जहाँ ब्रह्मा आदि देवता, तपोधन महर्षि, भूत, यक्ष,
पिशाच, किन्नर, महानाग, सिद्ध, चारण, गन्धर्व, मनुष्य, सर्प, नदी, समुद्र और पर्वत--ये
सभी उमावलल्लभ भगवान् शंकरकी उपासना करते हैं | २४--२६ ।।
तत्रेशानं समभ्यर्च्य त्रिरात्रोपोषितो नर: ।
अश्वमेधमवाप्रोति गाणपत्यं च विन्दति ॥। २७ ।।
वहाँ भगवान् शिवकी पूजा करके तीन रात उपवास करनेवाला मनुष्य अश्वमेधयज्ञका
फल पाता और गणपतिपद प्राप्त कर लेता है || २७ ।।
उष्य द्वादशरात्रं तु पूतात्मा च भवेन्नर: ।
तत एव च गायद्र्या: स्थानं त्रैलोक्यपूजितम् ।। २८ ।।
वहाँ बारह रात निवास करनेसे मनुष्यका अन्त:ःकरण पवित्र हो जाता है। वहीं
गायत्रीका त्रिलोक-पूजित स्थान है ।। २८ ।।
त्रिरात्रमुषितस्तत्र गोसहस्रफलं लभेत् |
निदर्शनं च प्रत्यक्ष ब्राह्मणानां नराधिप ।। २९ ||
वहाँ तीन रात निवास करनेवाला पुरुष सहस्र गोदानका फल प्राप्त करता है। नरेश्वर!
ब्राह्मणोंकी पहचानके लिये वहाँ प्रत्यक्ष उदाहरण है ।। २९ |।
गायत्रीं पठते यस्तु योनिसंकरजस्तथा ।
गाथा च गाथिका चापि तस्य सम्पद्यते नूप ।। ३० ।।
राजन! जो वर्णसंकर योनिमें उत्पन्न हुआ है, वह यदि गायत्रीमन्त्रका पाठ करता है तो
उसके मुखसे वह गाथा या गीतकी तरह स्वर और वर्णोके नियमसे रहित होकर निकलती
है; अर्थात् वह गायत्रीका उच्चारण ठीक नहीं कर सकता ।। ३० |।
अब्राह्मणस्य सावित्रीं पठतस्तु प्रणश्यति ।
जो सर्वथा ब्राह्मण नहीं है, ऐसा मनुष्य यदि वहाँ गायत्रीमन्त्रका पाठ करे तो वहाँ वह
मन्त्र लुप्त हो जाता है; अर्थात् उसे भूल जाता है || ३० ३ ।।
संवर्तस्य तु विप्रषेर्वापीमासाद्य दुर्लभाम् ।। ३१ ।।
रूपस्यथ भागी भवति सुभगश्च प्रजापते ।
राजन! वहाँ ब्रह्मर्षि संवर्तकी दुर्लभ बावली है। उसमें स्नान करके मनुष्य सुन्दररूपका
भागी और सौभाग्यशाली होता है ।| ३१६ ।।
ततो वेणां समासाद्य त्रिरात्रोपोषितो नर: ।। ३२ ।।
मयूरहंससंयुक्तं विमानं लभते नर: ।
तदनन्तर वेणा नदीके तटपर जाकर तीन रात उपवास करनेवाला मनुष्य (मृत्युके
पश्चात) मोर और हंसोंसे जुता हुआ विमानको प्राप्त करता है ।। ३२३ ।।
ततो गोदावरीं प्राप्य नित्यं सिद्धनिषेविताम् ।। ३३ ।।
गवां मेधमवाप्रोति वासुकेलोकमुत्तमम् ।
वेणाया: संगमे स्नात्वा वाजिमेधफलं लभेत् ।। ३४ ।।
तत्पश्चात् सदा सिद्ध पुरुषोंसे सेवित गोदावरीके तटपर जाकर स्नान करनेसे तीर्थयात्री
गोमेधयज्ञका फल पाता और वासुकिके लोकमें जाता है | वेणासंगममें स्नान करके मनुष्य
अश्वमेधयज्ञके फलका भागी होता है ।।
वरदासंगमे स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् ।
ब्रह्मस्थानं समासाद्य त्रिरात्रोपोषितो नर: ।। ३५ ।।
गोसहस्रफलं विन्द्यात् स्वर्गलोक॑ च गच्छति ।
वरदासंगमतीर्थमें स्नान करनेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है। ब्रह्मस्थानमें जाकर
तीन रात उपवास करनेवाला मनुष्य सहस्र गोदानका फल पाता और स्वर्गलोकमें जाता
है ।। ३५३ ||
कुशप्लवनमासाद्य ब्रह्मचारी समाहित: ।। ३६ ।।
त्रिरात्रमुषितः स्नात्वा अश्वमेधफलं लभेत् ।
कुशप्लवनतीर्थमें जाकर स्नान करके ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक एकाग्रचित्त हो तीन रात
निवास करनेवाला पुरुष अश्वमेधयज्ञका फल पाता है || ३६६ ।।
ततो देवह्नदे5रण्ये कृष्णवेणाजलोद्धवे ।। ३७ ।।
जातिस्मरह्ददे स्नात्वा भवेज्जातिस्मरो नर: ।
तदनन्तर कृष्णवेणाके जलसे उत्पन्न हुए रमणीय देवकुण्डमें, जिसे जातिस्मर हृद
कहते हैं, स्नान करे। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य जातिस्मर (पूर्वजन्मकी बातोंको स्मरण
करनेकी शक्तिवाला) होता है || ३७६ ।।
यत्र क्रतुशतैरिष्टवा देवराजो दिवं गत: ।। ३८ ।।
अग्निष्टोमफल विन्द्यादू गमनादेव भारत ।
सर्वदेवह्नदे स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् ।। ३९ ।।
वहीं सौ यज्ञोंका अनुष्ठान करके देवराज इन्द्र स्वर्गके सिंहासनपर आसीन हुए थे।
भरतनन्दन! वहाँ जानेमात्रसे यात्री अग्निष्टोमयज्ञका फल पा लेता है। तत्पश्चात् सर्वदेवहदमें
स्नान करनेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है ।। ३८-३९ ||
ततो वापीं महापुण्यां पयोष्णीं सरितां वराम् ।
पितृदेवार्चनरतो गोसहस्रफलं लभेत् ।। ४० ।।
तदनन्तर परम पुण्यमयी वापी और सरिताओंमें श्रेष्ठ पयोष्णीमें जाकर स्नान करे और
देवताओं तथा पितरोंके पूजनमें तत्पर रहे, ऐसा करनेसे तीर्थसेवीको सहस्र गोदानका फल
मिलता है || ४० ।।
दण्डकारण्यमासाद्य पुण्यं राजन्नुपस्पृशेत् ।
गोसहस्रफलं तस्य स्नातमात्रस्य भारत ।। ४१ ।।
राजन्! भरतनन्दन! जो दण्डकारण्यमें जाकर स्नान करता है, उसे स्नान करनेमात्रसे
सहस्र गोदानका फल प्राप्त होता है || ४१ ।।
शरभज्जश्रमं गत्वा शुकस्य च महात्मन: ।
न दुर्गतिमवाप्रोति पुनाति च कुल नरः ।। ४२ ।।
शरभंग मुनि तथा महात्मा शुकके आश्रमपर जानेसे मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता
और अपने कुलको पवित्र कर देता है || ४२ ।।
ततः शूर्पारकं गच्छेज्जामदग्न्यनिषेवितम् ।
रामतीर्थ नर: स्नात्वा विन्द्याद् बहुसुवर्णकम् ।। ४३ ।।
तदनन्तर परशुरामसेवित शूर्पारकतीर्थकी यात्रा करे। वहाँ रामतीर्थमें स्नान करनेसे
मनुष्यको प्रचुर सुवर्णराशिकी प्राप्ति होती है ।। ४३ ।।
सप्तगोदावरे स्नात्वा नियतो नियताशन: ।
महत् पुण्यमवाप्रोति देवलोक॑ च गच्छति ।। ४४ ।।
सप्तगोदावरतीर्थमें स्नान करके नियमपालनपूर्वक नियमित भोजन करनेवाला पुरुष
महान् पुण्यलाभ करता और देवलोकमें जाता है || ४४ ।।
ततो देवपथं गत्वा नियतो नियताशन: ।
देवसत्रस्य यत् पुण्यं तदेवाप्रोति मानव: ।। ४५ ।।
तत्पश्चात् नियमपालनके साथ-साथ नियमित आहार ग्रहण करनेवाला मानव देवपथमें
जाकर देवसत्रका जो पुण्य है, उसे पा लेता है || ४५ ।।
तुड्गकारण्यमासाद्य ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय: ।
वेदानध्यापयत् तत्र ऋषि: सारस्वत: पुरा ।। ४६ ।।
तुंगकारण्यमें जाकर ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए इन्द्रियोंकों अपने वशमें रखे।
प्राचीनकालमें वहाँ सारस्वत ऋषिने अन्य ऋषियोंको वेदोंका अध्ययन कराया था || ४६ ।।
तत्र वेदेषु नष्टेषु मुनेरड्धिरस: सुतः ।
ऋषीणामुत्तरीयेषु सूपविष्टो यथासुखम् ।। ४७ ।।
एक समय उन ऋषियोंको सारा वेद भूल गया। इस प्रकार वेदोंके नष्ट होने (भूल
जाने)-पर अंगिरा मुनिका पुत्र ऋषियोंके उत्तरीय वस्त्रों (चादरों)-में छिपकर सुखपूर्वक बैठ
गया (और विधिपूर्वक 3कारका उच्चारण करने लगा) ।। ४७ ।।
ओड्कारेण यथान्यायं सम्यगुच्चारितेन ह ।
येन यत् पूर्वमभ्यस्तं तत् सर्व समुपस्थितम् ।। ४८ ।।
नियमके अनुसार 5कारका ठीक-ठीक उच्चारण होनेपर, जिसने पूर्वकालमें जिस
वेदका अध्ययन एवं अभ्यास किया था, उसे वह सब स्मरण हो आया ।। ४८ ।।
ऋषयस्तत्र देवाश्व॒ वरुणोडग्नि: प्रजापति: ।
हरिरनारायणस्तत्र महादेवस्तथैव च ।। ४९ ।।
उस समय वहाँ बहुत-से ऋषि, देवता, वरुण, अग्नि, प्रजापति, भगवान् नारायण और
महादेवजी भी उपस्थित हुए ।। ४९ ।।
पितामहश्न भगवान् देवै: सह महाद्युति: ।
भगुं नियोजयामास याजनार्थ महाद्युतिम् ।। ५० ।।
महातेजस्वी भगवान् ब्रह्माने देवताओंके साथ जाकर परम कान्तिमान् भृगुको यज्ञ
करानेके कामपर नियुक्त किया ।। ५० ।।
ततः स चक्रे भगवानृषीणां विधिवत् तदा ।
सर्वेषां पुनराधानं विधिदृष्टेन कर्मणा ।। ५१ ।।
आज्यभागेन तत्राग्निं तर्पयित्वा यथाविधि ।
देवा: स्वभवनं याता ऋषयश्च यथाक्रमम् ।। ५२ ।।
तदनन्तर भगवान् भृगुने वहाँ सब ऋषियोंके यहाँ शास्त्रीय विधिके अनुसार पुनः
भलीभाँति अग्निस्थापन कराया। उस समय आज्यभागके द्वारा विधिपूर्वक अग्निको तृप्त
करके सब देवता और ऋषि क्रमश: अपने-अपने स्थानको चले गये ।। ५१-५२ ।।
तदरण्यं प्रविष्टस्य तुड़क॑ राजसत्तम ।
पापं प्रणश्यत्यखिलं स्त्रियो वा पुरुषस्य वा ।। ५३ ।।
नृपश्रेष्ठट उस तुंगकारण्यमें प्रवेश करते ही स्त्री या पुरुष सबके पाप नष्ट हो जाते
हैं ।। ५३ ।।
तत्र मासं वसेद् धीरो नियतो नियताशन: ।
ब्रहद्मलोकं व्रजेद् राजन् कुलं चैव समुद्धरेत् ।। ५४ ।।
धीर पुरुषको चाहिये कि वह नियमपालनपूर्वक नियमित भोजन करते हुए एक
मासतक वहाँ रहे। राजन् ऐसा करनेवाला तीर्थयात्री ब्रह्मलोकमें जाता और अपने कुलका
उद्धार कर देता है ।। ५४ ।।
मेधाविकं समासाद्य पितृन् देवांश्व॒ तर्पयेत् |
अग्निष्टोममवाप्रोति स्मृतिं मेधां च विन्दति || ५५ ।।
तत्पश्चात् मेधाविकतीर्थमें जाकर देवताओं और पितरोंका तर्पण करे; ऐसा करनेवाला
पुरुष अग्निष्टोमयज्ञका फल पाता और स्मृति एवं बुद्धिको प्राप्त कर लेता है ।।
अत्र कालगज्जरं नाम पर्वतं लोकविश्रुतम् ।
तत्र देवहदे स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् ।। ५६ ।।
इस तीर्थमें कालंजर नामक लोकविख्यात पर्वत है, वहाँ देवह्दद नामक तीर्थमें स्नान
करनेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है || ५६ ।।
यो: स्नात: साधयेत् तत्र गिरौ कालण्जरे नृप ।
स्वर्गलोके महीयेत नरो नास्त्यत्र संशय: ।। ५७ ।।
राजन! जो कालंजर पर्वतपर स्नान करके वहाँ साधन करता है, वह मनुष्य स्वर्गलोकमें
प्रतिष्ठित होता है; इसमें संशय नहीं है || ५७ ।।
ततो गिरिवरश्रेष्ठे चित्रकूटे विशाम्पते ।
मन्दाकिनीं समासाद्य सर्वपापप्रणाशिनीम् ।। ५८ ।।
तत्राभिषेकं कुर्वाण: पितृदेवार्चने रत: ।
अश्वमेधमवाप्रोति गतिं च परमां व्रजेत् ।। ५९ ।।
राजन! तदनन्तर पर्वतश्रेष्ठ चित्रकूटमें सब पापोंका नाश करनेवाली मन्दाकिनीके
तटपर पहुँचकर उसमें स्नान करे और देवताओं तथा पितरोंकी पूजामें लग जाय। इससे वह
अश्वमेधयज्ञका फल पाता और परम गतिको प्राप्त होता है ।। ५८-५९ ।।
ततो गच्छेत धर्मज्ञ भर्त॒स्थानमनुत्तमम् ।
यत्र नित्यं महासेनो गुह: संनिहितो नूप ॥। ६० ।।
तत्र गत्वा नृपश्रेष्ठ गमनादेव सिध्यति ।
धर्मज्ञ नरेश! तत्पश्चात् तीर्थयात्री परम उत्तम भर्तुस्थानकी यात्रा करे, जहाँ महासेन
कार्तिकेयजी निवास करते हैं। नृपश्रेष्ठ! वहाँ जानेमात्रसे सिद्धि प्राप्त होती है || ६० ३ ।।
कोटितीर्थ नरः स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् ।। ६१ ।।
प्रदक्षिणमुपावृत्य ज्येष्ठस्थानं व्रजेन्नर: ।
अभिगम्य महादेवं विराजति यथा शशी ।। ६२ ।।
कोटितीर्थमें स्नान करके मनुष्य सहस्र गोदानका फल पाता है। उसकी परिक्रमा करके
तीर्थयात्री मानव ज्येष्ठस्थानको जाय। वहाँ महादेवजीका दर्शन-पूजन करनेसे वह चन्द्रमाके
समान प्रकाशित होता है ।।
तत्र कूपे महाराज विश्लुता भरतर्षभ ।
समुद्रास्तत्र चत्वारो निवसन्ति युधिष्ठिर || ६३ ।।
भरतकुलभूषण महाराज युधिष्ठिर! वहाँ एक कूप है जिसमें चारों समुद्र निवास करते
हैं ।। ६३ ।।
तत्रोपस्पृश्य राजेन्द्र पितृदेवार्चने रत: ।
नियतात्मा नर: पूतो गच्छेत परमां गतिम् ॥। ६४ ।।
राजेन्द्र! उसमें स्नान करके देवताओं और पितरोंके पूजनमें तत्पर रहनेवाला जितात्मा
पुरुष पवित्र हो परमगतिको प्राप्त होता है ।। ६४ ।।
ततो गच्छेत राजेन्द्र शृज़धवेरपुरं महत् ।
यत्र तीर्णो महाराज रामो दाशरथि: पुरा || ६५ ।।
राजेन्द्र! वहाँसे महान् शुड्गभवेरपुरकी यात्रा करे। महाराज! पूर्वकालमें दशरथनन्दन
श्रीरामचन्द्रजीने वहीं गंगा पार की थी || ६५ ।।
तम्मिंस्तीर्थे महाबाहो स्नात्वा पापै: प्रमुच्यते ।
गड्जायां तु नरः स्नात्वा ब्रह्मचारी समाहित: ।। ६६ ।।
विधूतपाप्मा भवति वाजपेयं च विन्दति ।
महाबाहो! उस तीर्थमें स्नान करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है।
ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक एकाग्र हो गंगाजीमें स्नान करके मनुष्य पापरहित होता तथा
वाजपेययज्ञका फल पाता है || ६६३ ।।
ततो मुज्जवटं गच्छेत् स्थानं देवस्थ धीमत: ।। ६७ ।।
अभिगम्य महादेवमभिवाद्य च भारत |
प्रदक्षिणमुपावृत्य गाणपत्यमवाप्रुयात् ।। ६८ ।।
तम्मिंस्तीर्थे तु जाह्वव्यां स्नात्वा पापै: प्रमुच्यते ।
तदनन्तर तीर्थयात्री परम बुद्धिमान् महादेवजीके मुंजवट नामक तीर्थको जाय।
भरतनन्दन उस तीर्थमें महादेवजीके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके परिक्रमा करनेसे मनुष्य
गणपतिपद प्राप्त कर लेता है। उक्त तीर्थमें जाकर गंगामें स्नान करनेसे मनुष्य सब पापोंसे
छुटकारा पा जाता है || ६७-६८ $ ||
ततो गच्छेत राजेन्द्र प्रयागमृषिसंस्तुतम् ।। ६९ ।।
तत्र ब्रह्मादयो देवा दिशश्न सदिगीश्वरा: ।
लोकपालाश्न साध्याक्षु पितरो लोकसम्मता: || ७० ।।
सनत्कुमारप्रमुखास्तथैव परमर्षय: ।
अज्धिर:प्रमुखाश्वैव तथा ब्रह्मर्षयो5मला: ।। ७१ ।।
तथा नागा: सुपर्णाश्च सिद्धाश्चक्रचरास्तथा ।
सरित: सागराश्षैव गन्धर्वाप्सरसो5डपि च ।। ७२ ||
हरिश्व भगवानास्ते प्रजापतिपुरस्कृत: ।
तत्र त्रीण्यग्निकुण्डानि येषां मध्येन जाह्नवी ।। ७३ ।।
वेगेन समतिक्रान्ता सर्वतीर्थपुरस्कृता ।
तपनस्य सुता देवी त्रिषु लोकेषु विश्रुता || ७४ ।।
यमुना गड़या सार्थ संगता लोकपावनी ।
गड़्ायमुनयोर्म ध्यं पृथिव्या जघनं स्मृतम् ।। ७५ ।।
राजेन्द्र! तत्पश्चात् महर्षियोंद्वारा प्रशंसित प्रयागतीर्थमें जाय। जहाँ ब्रह्मा आदि देवता,
दिशा, दिक्पाल, लोकपाल, साध्य, लोकसम्मानित पितर, सनत्कुमार आदि महर्षि, अंगिरा
आदि निर्मल ब्रह्मर्षि, नाग, सुपर्ण, सिद्ध, सूर्य, नदी, समुद्र, गन्धर्व, अप्सरा तथा
ब्रह्माजीसहित भगवान् विष्णु निवास करते हैं। वहाँ तीन अग्निकुण्ड हैं जिनके बीचसे सब
तीर्थोंसे सम्पन्न गंगा वेगपूर्वक बहती हैं। त्रिभुवनविख्यात सूर्यपुत्री लोकपावनी यमुनादेवी
वहाँ गंगाजीके साथ मिली हैं। गंगा और यमुनाका मध्यभाग पृथ्वीका जघन माना गया
है || ६९--७५ ||
प्रयागं जघनस्थानमुपस्थमृषयो विदु: ।
प्रयागं सप्रतिष्ठानं कम्बलाश्वतरौ तथा ।। ७६ ।।
तीर्थ भोगवती चैव वेदिरेषा प्रजापते: ।
तत्र वेदाश्न यज्ञाश्च मूर्तिमन्तो युधिष्ठिर || ७७ ।।
प्रजापतिमुपासन्ते ऋषयश्न तपोधना: ।
यजन्ते क्रतुभिर्देवास्तथा चक्रधरा नृपा: ।। ७८ ।।
ततः पुण्यतमं नाम त्रिषु लोकेषु भारत ।
प्रयागं सर्वतीर्थेभ्य: प्रवदन्त्यधिकं विभो ।। ७९ ।।
गमनात् तस्य तीर्थस्य नामसंकीर्तनादपि ।
मृत्युकालभयाच्चापि नर: पापात् प्रमुच्यते ।। ८० ।।
ऋषियोंने प्रयागको जघनस्थानीय उपस्थ बताया है। प्रतिष्ठानपुर (झूसी)-सहित प्रयाग,
कम्बल और अश्वतर नाग तथा भोगवतीतीर्थ यह ब्रह्माजीकी वेदी है। युधिष्ठिर! उस तीर्थमें
वेद और यज्ञ मूर्तिमान् होकर रहते हैं और प्रजापतिकी उपासना करते हैं। तपोधन ऋषि,
देवता तथा चक्रधर नृपतिगण वहाँ यज्ञोंद्वारा भगवानका यजन करते हैं। भरतनन्दन!
इसीलिये तीनों लोकोंमें प्रयागको सब तीर्थोकी अपेक्षा श्रेष्ठ एवं पुण्यतम बताते हैं। उस
तीर्थमें जानेसे अथवा उसका नाम लेनेमात्रसे भी मनुष्य मृत्युकालके भय और पापसे मुक्त
हो जाता है || ७६--८० ।।
तत्राभिषेकं यः कुर्यात् संगमे लोकविश्रुते ।
पुण्यं स फलमाप्रोति राजसूयाश्वमेधयो: ।। ८१ ।।
वहाँके विश्वविख्यात संगममें जो स्नान करता है वह राजसूय और अश्वमेधयज्ञोंका
पुण्यफल प्राप्त कर लेता है || ८१ ।।
एषा यजनभूमिर्हि देवानामभिसंस्कृता ।
तत्र दत्तं सूक्ष्म्मपि महद् भवति भारत ।। ८२ ।।
भरतनन्दन! यह देवताओंकी संस्कार की हुई यज्ञभूमि है। यहाँ दिया हुआ थोड़ा-सा
भी दान महान होता है | ८२ ।।
न वेदवचनात् तात न लोकवचनादपि ।
मतिरुत्क्रमणीया ते प्रयागमरणं प्रति ।। ८३ ।।
तात! तुम्हें किसी वैदिक वचनसे या लौकिक वचनसे भी प्रयागमें मरनेका विचार नहीं
त्यागना चाहिये || ८३ ।।
दश तीर्थसहस्राणि षष्टि: कोट्यस्तथापरा: ।
येषां सांनिध्यमत्रैव कीर्तितं कुरुनन्दन ।। ८४ ।।
चतुर्विद्ये च यत् पुण्यं सत्यवादिषु चैव यत् ।
स््नात एव तदाप्रोति गड़ायमुनसंगमे ।। ८५ ।।
कुरुनन्दन! साठ करोड़ दस हजार तीर्थोका निवास केवल इस प्रयागमें ही बताया गया
है। चारों विद्याओंके ज्ञानसे जो पुण्य होता है तथा सत्य बोलनेवाले व्यक्तियोंको जिस
पुण्यकी प्राप्ति होती है वह सब गंगा-यमुनाके संगममें स्नान करनेमात्रसे प्राप्त हो जाता
है || ८४-८५ ।।
तत्र भोगवती नाम वासुकेस्ती र्थमुत्तमम् ।
तत्राभिषेकं यः कुर्यात् सो5श्वमेधफलं लभेत् ।। ८६ ।।
प्रयागमें भोगवती नामसे प्रसिद्ध वासुकि नागका उत्तम तीर्थ है। जो वहाँ स्नान करता
है, उसे अश्वमेधयज्ञका फल मिलता है || ८६ ||
तत्र हंसप्रपतनं तीर्थ त्रैलोक्यविश्रुतम् ।
दशाश्वमेधिकं चैव गज्जायां कुरुनन्दन ।। ८७ ।।
कुरुनन्दन! वहीं त्रिलोकविख्यात हंसप्रपतन नामक तीर्थ है और गंगाके तटपर
दशाश्वमेधिक तीर्थ है ।। ८७ ।।
कुरुक्षेत्रसमा गड्जा यत्र तत्रावगाहिता ।
विशेषो वै कनखले प्रयागे परमं महत् ।। ८८ ।।
गंगामें जहाँ कहीं भी स्नान किया जाय वह कुरुक्षेत्रके समान पुण्यदायिनी है।
कनखलनमें गंगाका स्नान विशेष माहात्म्य रखता है और प्रयागमें गंगा-स्नानका माहात्म्य
सबकी अपेक्षा बहुत अधिक है ।। ८८ ।।
यद्यकार्यशतं कृत्वा कृतं गड़्ाभिषेचनम् ।
सर्व तत् तस्य गड्ढजाम्भो दहत्यग्निरिवेन्धनम् ।। ८९ ।।
सर्व कृतयुगे पुण्यं त्रेतायां पुष्करं स्मृतम् ।
द्वापरेडपि कुरुक्षेत्र गड़ा कलियुगे स्मृता ।। ९० ।।
पुष्करे तु तपस्तप्येद् दानं दद्यान्महालये ।
मलये त्वग्निमारोहेद् भगुतुज़े त्वनाशनम् ।। ९१ ।।
जैसे अग्नि ईंधनको जला देती है, उसी प्रकार सैकड़ों निषिद्ध कर्म करके भी यदि
गंगास्नान किया जाय तो उसका जल उन सब पापोंको भस्म कर देता है। सत्ययुगमें सभी
तीर्थ पुण्यदायक होते हैं। त्रेतामें पुष्करका महत्त्व है। द्वापरमें कुरुक्षेत्र विशेष पुण्यदायक है
और कलियुगमें गंगाकी अधिक महिमा बतायी गयी है। पुष्करमें तप करे, महालयमें दान दे,
मलय पर्वतमें अग्निपर आरूढ हो और भृगुतुंगमें उपवास करे || ८९--९१ ।।
पुष्करे तु कुरुक्षेत्रे गड़ायां मध्यमेषु च ।
स्नात्वा तारयते जन्तु: सप्तसप्तावरांस्तथा ।। ९२ |।
पुष्कर, कुरुक्षेत्र, गंगा तथा प्रयाग आदि मध्यवर्ती तीर्थोमें स्नान करके मनुष्य अपने
आगे-पीछेकी सात-सात पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है ।। ९२ ।।
पुनाति कीर्तिता पापं दृष्टा भद्रं प्रयच्छति ।
अवगाढा च पीता च पुनात्यासप्तमं कुलम् ॥। ९३ ।।
गंगाजीका नाम लिया जाय तो वह सारे पापोंको धो-बहाकर पवित्र कर देती है। दर्शन
करनेपर कल्याण प्रदान करती है तथा स्नान और जलपान करनेपर वह मनुष्यकी सात
पीढ़ियोंको पावन बना देती है ।। ९३ ।।
यावदस्थि मनुष्यस्य गड़ाया: स्पृशते जलम् |
तावत् स पुरुषो राजन् स्वर्गलोके महीयते ।। ९४ ।।
राजन! मनुष्यकी हड्डी जबतक गंगाजलका स्पर्श करती है, तबतक वह पुरुष
स्वर्गलोकमें पूजित होता है ।। ९४ ।।
यथा पुण्यानि तीर्थानि पुण्यान्यायतनानि च ।
उपास्य पुण्यं लब्ध्वा च भवत्यमरलोकभाक् ॥। ९५ ||
जितने पुण्य तीर्थ हैं और जितने पुण्य मन्दिर हैं, उन सबकी उपासना (सेवन)-से
पुण्यलाभ करके मनुष्य देवलोकका भागी होता है ।। ९५ ।।
न गड़ासदृशं तीर्थ न देव: केशवात् पर: ।
ब्राह्मणेभ्य: पर॑ नास्ति एवमाह पितामह: ।। ९६ |।
गंगाके समान कोई तीर्थ नहीं, भगवान् विष्णुसे बढ़कर कोई देवता नहीं और ब्राह्मणोंसे
उत्तम कोई वर्ण नहीं है; ऐसा ब्रह्माजीका कथन है ।। ९६ ||
यत्र गड़ा महाराज स देशस्तत् तपोवनम् ।
सिद्धिक्षेत्रं च तज्ज्ञेयं गड्जातीरसमाश्रितम् ।। ९७ ।।
महाराज! जहाँ गंगा बहती हैं वही उत्तम देश है; और वही तपोवन है। गंगाके तटवर्ती
स्थानको सिद्धिक्षेत्र समझना चाहिये ।। ९७ ।।
इदं सत्यं द्विजातीनां साधूनामात्मजस्य च ।
सुहृदां च जपेत् कर्णे शिष्यस्यानुगतस्य च ।। ९८ ।।
इस सत्य सिद्धान्तको ब्राह्मण आदि द्विजों, साधु पुरुषों, पुत्र, सुहृदों, शिष्यवर्ग तथा
अपने अनुगत मनुष्योंके कानमें कहना चाहिये ।। ९८ ।।
इदं धन्यमिदं मेध्यमिदं स्वर्ग्यमनुत्तमम् ।
इदं पुण्यमिदं रम्यं पावन धर्म्यमुत्तमम् ।। ९९ ।।
यह गंगा-माहात्म्य धन्य, पवित्र, स्वर्गप्रद और परम उत्तम है। यह पुण्यदायक, रमणीय,
पावन, उत्तम, धर्मसंगत और श्रेष्ठ है ।। ९९ ।।
महर्षीणामिदं गुह्ां सर्वपापप्रमोचनम् |
अधीत्य द्विजमध्ये च निर्मल: स्वर्गमाप्तुयात् ।। १०० ।।
यह महर्षियोंका गोपनीय रहस्य है। सब पापोंका नाश करनेवाला है। द्विजमण्डलीमें
इस गंगा-माहात्म्यका पाठ करके मनुष्य निर्मल हो स्वर्गलोकमें पहुँच जाता है || १०० ।।
श्रीमत् स्वर्ग्य तथा पुण्यं सपत्नशमनं शिवम् |
मेधाजननमग्रयं वै तीर्थवंशानुकीर्तनम् ।। १०१ ।।
यह तीर्थसमूहोंकी महिमाका वर्णन परम उत्तम, सम्पत्तिदायक, स्वर्गप्रद, पुण्यकारक,
शत्रुओंका निवारण करनेवाला, कल्याणकारक तथा मेधाशक्तिको उत्पन्न करनेवाला
है ।। १०१ |।
अपुत्रो लभते पुत्रमधनो धनमाप्नुयात् |
महीं विजयते राजा वैश्यो धनमवाप्लनुयात् ।। १०२ ।।
इस तीर्थ-माहात्म्यका पाठ करनेसे पुत्रहीनको पुत्र प्राप्त होता है, धनहीनको धन
मिलता है, राजा इस पृथ्वीपर विजय पाता है और वैश्यको व्यापारमें धन मिलता
है ।। १०२ |।
शूद्रो यथेप्सितान् कामान् ब्राह्मण: पारग: पठन् |
यश्नेदं शृणुयान्नित्यं तीर्थपुण्यं नरः शुचि: ।। १०३ ।।
जाती: स स्मरते बद्दीर्नाकपृष्ठे च मोदते ।
गम्यान्यपि च तीर्थानि कीर्तितान्यगमानि च ।। १०४ ।।
शूद्र मनोवांछित वस्तुएँ पाता है और ब्राह्मण इसका पाठ करे तो वह समस्त शास्त्रोंका
पारंगत विद्वान होता है। जो मनुष्य तीर्थोके इस पुण्य माहात्म्यको प्रतिदिन सुनता है वह
पवित्र हो पहलेके अनेक जन्मोंकी बातें याद कर लेता है और देहत्यागके पश्चात् स्वर्गलोकमें
आनन्दका अनुभव करता है। भीष्म! मैंने यहाँ गम्य और अगम्य सभी प्रकारके तीर्थोंका
वर्णन किया है ।।
मनसा तानि गच्छेत सर्वतीर्थसमी क्षया ।
एतानि वसुभि: साध्यैरादित्यैर्मरुदश्विभि: | १०५ ।।
ऋषिभिदर्देवकल्पैश्न स्नातानि सुकृतैषिभि: ।
एवं त्वमपि कौरव्य विधिनानेन सुव्रत ।। १०६ ।।
व्रज तीर्थानि नियत: पुण्यं पुण्येन वर्धयन् ।
भावितै: करणै: पूर्वमास्तिक्याच्छुतिदर्शनात् ।। १०७ ।।
प्राप्यन्ते तानि तीर्थानि सद्धिः शास्त्रानुदर्शिभि: |
नाव्रती नाकृतात्मा च नाशुचिर्न च तस्कर: ।। १०८ ।।
स्नाति तीर्थेषु कौरव्य न च वक्रमतिर्नर: |
त्वया तु सम्यग्वृत्तेन नित्यं धर्मार्थदर्शिना ।। १०९ |।
पिता पितामहश्नैव सर्वे च प्रपितामहा: ।
पितामहपुरोगाश्च देवा: सर्षिगणा नृूप ।। ११० ।।
तव धर्मेण धर्मज्ञ नित्यमेवाभितोषिता: ।
अवाप्स्यसि त्वं लोकान् वै वसूनां वासवोपम ।
कीर्ति च महतीं भीष्म प्राप्स्यसे भुवि शाश्वतीम् ।। १११ ।।
सम्पूर्ण तीर्थोंके दर्शनकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये मनुष्य जहाँ जाना सम्भव न हो उन
अगम्य तीर्थोमें मनसे यात्रा करे, अर्थात् मनसे उन तीर्थोंका चिन्तन करे। वसुगण, साध्यगण,
आदित्यगण, मरुद्गण, दोनों अश्विनीकुमार तथा देवोपम महर्षियोंने भी पुण्य लाभकी
इच्छासे उन तीर्थोमें स्नान किया है। उत्तम व्रतका पालन करनेवाले कुरुनन्दन! इसी प्रकार
तुम भी विधिपूर्वक शौच-संतोषादि नियमोंका पालन करते और पुण्यसे पुण्यको बढ़ाते हुए
उन तीर्थोंकी यात्रा करो। आस्तिकता और वेदोंके अनुशीलनसे पहले अपने इन्द्रियोंको
पवित्र करके शास्त्रज्ञ साधु पुरुष ही उन तीर्थोंको प्राप्त करते हैं। कुरुनन्दन! जो ब्रह्मचर्य
आदि व्रतोंका पालन नहीं करता, जिसने अपने चित्तको वशमें नहीं किया, जो अपवित्र
आचार-विचारवाला और चोर है, जिसकी बुद्धि वक्र है, ऐसा मनुष्य श्रद्धा न होनेके कारण
तीर्थोर्में स्नान नहीं करता। तुम धर्म और अर्थके ज्ञाता तथा नित्य सदाचारमें तत्पर रहनेवाले
हो। धर्मज्ञ! तुमने पिता-पितामह-प्रपितामह, ब्रह्मा आदि देवता तथा महर्षिगण इन सबको
सदा स्वधर्मपालनसे संतुष्ट किया है, अतः इन्द्रके समान तेजस्वी नरेश! तुम वसुओंके
लोकमें जाओगे। भीष्म! तुम्हें इस पृथ्वीपर विशाल एवं अक्षय कीर्ति प्राप्त होगी || १०५--
१११ ||
नारद उवाच
एवमुकक््त्वाभ्यनुज्ञाय पुलस्त्यो भगवानृषि: ।
प्रीत: प्रीतेन मनसा तत्रैवान्तरधीयत ।। ११२ ।।
नारदजी कहते हैं--युधिष्ठि!र![ ऐसा कहकर भीष्मजीकी अनुमति ले संतुष्ट हुए
भगवान् पुलस्त्य मुनि प्रसन्नमनसे वहीं अन्तर्धान हो गये || ११२ ।।
भीष्मश्न कुरुशार्दूल शास्त्रतत्त्वार्थदर्शिवान् ।
पुलस्त्यवचनाच्चैव पृथिवीं परिचक्रमे ।। ११३ ।।
कुरुश्रेष्ठ! शास्त्रके ताच्चिक अर्थको जाननेवाले भीष्मने महर्षि पुलस्त्यके वचनसे
(तीर्थयात्राके लिये) सारी पृथ्वीकी परिक्रमा की ।। ११३ ।।
एवमेषा महाभाग प्रतिष्ठाने प्रतिछ्ठिता ।
तीर्थयात्रा महापुण्या सर्वपापप्रमोचनी ।। ११४ ।।
महाभाग! इस प्रकार यह सब पापोंको दूर करनेवाली महापुण्यमयी तीर्थयात्रा
प्रतिष्ठानपुर (प्रयाग)-में प्रतिष्ठित है ।। ११४ ।।
अनेन विधिना यस्तु पृथिवीं संचरिष्यति ।
अश्वमेधशतस्याग्रयं फल प्रेत्य स भोक्ष्यति ।। ११५ ।।
जो इस विधिसे ([तीर्थयात्राके उद्देश्यसे) सारी पृथ्वीकी परिक्रमा करेगा, वह सौ
अश्वमेधयज्ञोंसे भी उत्तम पुण्यफल पाकर देहत्यागके पश्चात् उसका उपभोग
करेगा ।। ११५ ।।
ततश्वाष्टगुणं पार्थ प्राप्स्यसे धर्ममुत्तमम् ।
भीष्म: कुरूणां प्रवरो यथापूर्वमवाप्तवान् ।। ११६ ।।
कुन्तीनन्दन! कुरुप्रवर भीष्मने पहले जिस प्रकार तीर्थयात्राजनित पुण्य प्राप्त किया
था, उससे भी आठगुने उत्तम धर्मकी उपलब्धि तुम्हें होगी || ११६ ।।
नेता च त्वमृषीन् यस्मात् तेन तेडष्टगुणं फलम् ।
रक्षोगणविकीर्णानि तीर्थान्येितानि भारत ।
न गतानि मनुष्येन्द्रेस्त्वामृते कुरुमन्दन || ११७ ।।
तुम अपने साथ इन सब ऋषियोंको ले जाओगे, इसीलिये तुम्हें आठगुना पुण्यफल
प्राप्त होगा। भरतकुल-भूषण कुरुनन्दन! इन सभी तीथ्थोमें राक्षसोंके समुदाय फैले हुए हैं।
तुम्हारे सिवा, दूसरे नरेशोंने वहाँकी यात्रा नहीं की है || ११७ ।।
इदं देवर्षिचरितं सर्वतीर्थाभिसंवृतम् ।
यः पठेत् कल्यमुत्थाय सर्वपापै: प्रमुच्यते | ११८ ।।
जो मनुष्य सबेरे उठकर देवर्षि पुलस्त्यद्वारा वर्णित सम्पूर्ण तीर्थोंके माहात्म्यसे संयुक्त
इस प्रसंगका पाठ करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है ।।
ऋषिमुख्या: सदा यत्र वाल्मीकिस्त्वथ कश्यप: ।
आत्रेय: कुण्डजठरो विश्वामित्रो5थ गौतम: ।। ११९ ।।
असितो देवलश्नैव मार्कण्डेयो5थ गालव: ।
भरद्वाजो वसिष्ठश्न मुनिरुद्दालकस्तथा ।। १२० ।।
शौनक: सह पुत्रेण व्यासश्न॒ तपतां वर: ।
दुर्वासाश्च मुनिश्रेष्ठो जाबालिश्व महातपा: ।। १२१ ।।
एते ऋषिवरा: सर्वे त्वत्प्रतीक्षास्तपोधना: ।
एभि: सह महाराज तीथर्थान्यितान्यनुव्रज ।। १२२ ।।
महाराज! ऋषिप्रवर वाल्मीकि, कश्यप, आत्रेय, कुण्डजठर, विश्वामित्र, गौतम, असित,
देवल, मार्कण्डेय, गालव, भरद्वाज, वसिष्ठ, उद्दालक मुनि, शौनक तथा पुत्रसहित
तपोधनप्रवर व्यास, मुनिश्रेष्ठ दुर्वाला और महातपस्वी जाबालि--ये सभी महर्षि जो
तपस्याके धनी हैं, तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। इन सबके साथ उक्त तीर्थोमें जाओ ।। ११९
--१२२ ||
एष ते लोमशो नाम महर्षिरमितद्युति: |
समेष्यति महाराज तेन सार्धमनुव्रज ।। १२३ ।।
महाराज! ये अमिततेजस्वी महर्षि लोमश तुम्हारे पास आनेवाले हैं, उन्हें साथ लेकर
यात्रा करो || १२३ ।।
मयापि सह धर्मज्ञ तीर्थान्यितान्यनुक्रमात् ।
प्राप्स्यसे महतीं कीर्ति यथा राजा महाभिष: ।। १२४ ।।
धर्मज्ञ! इस यात्रामें मैं भी तुम्हारा साथ दूँगा। प्राचीन राजा महाभिषके समान तुम भी
क्रमश: इन तीर्थोमें भ्रमण करते हुए महान् यश प्राप्त करोगे || १२४ ।।
यथा ययातिर्धर्मात्मा यथा राजा पुरूरवा: ।
तथा त्वं राजशार्दूल स्वेन धर्मेण शोभसे ।। १२५ ।।
यथा भगीरथो राजा यथा रामश्व विश्रुत: ।
तथा त्वं सर्वराजभ्यो भ्राजसे रश्मिवानिव ।। १२६ ।।
नृपश्रेष्ठ! जैसे धर्मात्मा ययाति तथा राजा पुरूरवा थे वैसे ही तुम भी अपने धर्मसे
सुशोभित हो रहे हो। जैसे राजा भगीरथ तथा विख्यात महाराज श्रीराम हो गये हैं, उसी
प्रकार तुम भी सूर्यकी भाँति सब राजाओंसे अधिक शोभा पा रहे हो || १२५-१२६ ।।
यथा मनुर्यथेक्ष्वाकुर्यथा पूरुर्महायशा: ।
यथा वैन्यो महाराज तथा त्वमपि विश्रुत: || १२७ ।।
यथा च वृत्रहा सर्वान् सपत्नान् निर्दहन् पुरा ।
त्रैलोक्यं पालयामास देवराड् विगतज्वर: || १२८ ।।
तथा शत्रुक्षयं कृत्वा त्वं प्रजा: पालयिष्यसि ।
स्वधर्मविजितामुर्वी प्राप्प राजीवलोचन ।। १२९ ।।
ख्यातिं यास्यसि धर्मेण कार्तवीर्यार्जुनो यथा ।। १३० ।।
महाराज! जैसे मनु, जैसे इक्ष्वाकु, जैसे महायशस्वी पूरु और जैसे वेननन्दन पृथु हो
गये हैं वैसी ही तुम्हारी भी ख्याति है। पूर्वकालमें वृत्रासुरविनाशक देवराज इन्द्रने जैसे सब
शत्रुओंका संहार करते हुए निश्चिन्त होकर तीनों लोकोंका पालन किया था, उसी प्रकार तुम
भी शत्रुओंका नाश करके प्रजाका पालन करोगे। कमलनयन नरेश! तुम अपने धर्मसे जीती
हुई पृथ्वीपर अधिकार प्राप्त करके स्वधर्मपालनद्वारा कार्तवीर्य अर्जुनके समान विख्यात
होओगे ।। १२७--१३० ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमाथश्वास्य राजानं नारदो भगवानृषि: ।
अनुज्ञाप्य महाराज तत्रैवान्तरधीयत ।। १३१ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--महाराज जनमेजय! देवर्षि नारद इस प्रकार राजा
युधिष्ठिरको आश्वासन देकर उनकी आज्ञा ले वहीं अन्तर्धान हो गये || १३१ ।।
युधिष्ठिरो5पि धर्मात्मा तमेवार्थ विचिन्तयन् ।
तीर्थयात्राश्रितं पुण्यमृषीणां प्रत्यवेदयत् ।। १३२ ।।
धर्मात्मा युधिष्ठिने भी इसी विषयका चिन्तन करते हुए अपने पास रहनेवाले
महर्षियोंसे तीर्थयात्रासम्बन्धी महान् पुण्यके विषयमें निवेदन किया || १३२ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि पुलस्त्यतीर्थयात्रायां नारदवाक्ये
पज्चाशीतितमो<ध्याय: ।। ८५ ||
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत वनपवके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें महार्षि पुलस्त्यकी तीर्थयात्राके
सम्बन्धरें नारदवाक्यविषयक पचासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ८५ ॥/
हि आय न [हुक हि 7 आम
षडशीतितमो<्ध्याय:
युधिष्ठिरका धौम्य मुनिसे पुण्य तपोवन, आश्रम एवं नदी
आदिके विषयमें पूछना
वैशम्पायन उवाच
भ्रातृणां मतमाज्ञाय नारदस्य च धीमत: ।
पितामहसमं धौम्यं प्राह राजा युधिष्ठिर: ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! अपने भाइयों तथा परम बुद्धिमान देवर्षि
नारदकी सम्मति जानकर राजा युधिष्ठिरने पितामहके समान प्रभावशाली पुरोहित
धौम्यजीसे कहा-- ।। १ ।।
मया स पुरुषव्याप्रो जिष्णु: सत्यपराक्रम: ।
अस्त्रहेतोर्महाबाहुरमितात्मा विवासित: ।। २ ।।
“ब्रह्मन! मैंने अस्त्रप्राप्तिके लिये विजयी सत्य-पराक्रमी, महामना एवं प्रतापी पुरुषसिंह
महाबाहु अर्जुनको निर्वासित कर रखा है ।। २ ।।
स हि वीरोअ<नुरक्तश्न समर्थश्च॒ तपोधन: ।
कृती च भृशमप्यस्त्रे वासुदेव इव प्रभु: ।। ३ ।।
“वह वीर मुझमें अनुराग रखनेवाला, सामर्थ्यशाली, तपस्याका धनी, पुण्यात्मा और
अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञानमें भगवान् श्रीकृष्णकी भाँति प्रभावशाली है ।। ३ ।।
अहं होतावुभौ ब्रह्मन् कृष्णावरिविघातिनौ ।
अभिजानामि विक्रान्तौ तथा व्यास: प्रतापवान् ।। ४ ।।
“विप्रवर! मैं इन दोनों कृष्णनामधारी वीरोंको शत्रुओंका संहार करनेमें समर्थ और
महापराक्रमी समझता हूँ। महाप्रतापी वेदव्यासजीकी भी यही धारणा है ।। ४ ।।
त्रियुगौ पुण्डरीकाक्षौ वासुदेवधनंजयौ ।
नारदो5पि तथा वेद यो5प्यशंसत् सदा मम ॥। ५ ||
“कमलके समान नेत्रोंवाले भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन तीन युगोंसे सदा साथ रहते
आये हैं। नारदजी भी इन दोनोंको इसी रूपमें जानते हैं; और सदा मुझसे इस बातकी चर्चा
करते रहते हैं ।। ५ ।।
तथाहमपि जानामि नरनारायणावृषी ।
शक्तो5यमित्यतो मत्वा मया स प्रेषितो$र्जुन: ।। ६ ।।
इन्द्रादनवर: शक्रं सुरसूनु: सुराधिपम् ।
द्रष्टमस्त्राणि चादातुमिन्द्रादिति विवासित: ।। ७ ।।
भीष्मद्रोणावतिरथौ कृपो द्रौणिश्न दुर्जय: ।
धृतराष्ट्रस्य पुत्रेण वृता युधि महारथा: ।। ८ ।।
“मैं भी ऐसा ही समझता हूँ कि श्रीकृष्ण और अर्जुन सुप्रसिद्ध नर-नारायण ऋषि हैं।
अर्जुनको शक्तिशाली समझकर ही मैंने उसे दिव्यास्त्रोंकी प्राप्तिके लिये भेजा है। देवपुत्र
अर्जुन इन्द्रसे कम नहीं हैं। यह जानकर ही मैंने उसे देवराज इन्द्रका दर्शन करने और उनसे
दिव्यास्त्रोंको प्राप्त करनेके लिये भेजा है। भीष्म और द्रोण अतिरथी वीर हैं। कृपाचार्य तथा
अश्वत्थामाको भी जीतना कठिन है। धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनने इन सभी महारथियोंको युद्धके
लिये वरण कर लिया है ।। ६--८ ।।
सर्वे वेदविद: शूरा: सर्वास्त्रविदुषस्तथा ।
योद्धुकामाश्च पार्थन सततं ये महाबला: ।
सच दिव्यास्त्रवित् कर्ण: सूतपुत्रो महारथ: ।। ९ ।।
“वे सब-के-सब वेदज्ञ, शूरवीर, सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञाता, महाबली और सदा
अर्जुनके साथ युद्धकी अभिलाषा रखनेवाले हैं। वह सूतपुत्र महारथी कर्ण भी दिव्यास्त्रोंका
ज्ञाता है ।। ९ ।।
योअस्त्रवेगानिलबल: शरार्चिस्तलनि:स्वन: ।
रजोधूमो<स्त्रसम्पातो धार्तराष्ट्रिनिलोद्धत: ।। १० ।।
निसृष्ट इव कालेन युगान्ते ज्वलनो महान् |
मम सैन्यमयं कक्ष प्रधक्ष्यति न संशय: ।। ११ ।।
“कालने उसे प्रलयकालीन संवर्तक नामक महान् अग्निके समान उत्पन्न किया है।
अस्त्रोंका वेग ही उसका वायुतुल्य बल है। बाण ही उसकी ज्वाला हैं। हथेलीसे होनेवाली
आवाज ही उस दाहक अग्निका शब्द है। युद्धमें उठनेवाली धूल ही उस कर्णरूपी अग्निका
धूम है। अस्त्रोंकी वर्षा ही उसकी लपटोंका लगना है। धृतराष्ट्र-पुत्ररूपी वायुका सहारा
पाकर वह और भी उद्धत एवं प्रज्वलित हो उठा है। इसमें संदेह नहीं कि वह मेरी सेनाको
सूखे तिनकोंकी राशिके समान भस्म कर डालेगा ।। १०-११ |।
त॑ं स कृष्णानिलोद्धूतो दिव्यास्त्रज्वलनो महान् ।
श्वेतवाजिबलाकाभृद् गाण्डीवेन्द्रायुधोल्बण: ।। १२ ।।
संरब्ध: शरधाराभि: सुदीप्तं कर्णपावकम् ।
अर्जुनोदीरितो मेघ: शमयिष्यति संयुगे ।। १३ ।।
स साक्षादेव सर्वाणि शक्रात् परपुरंजय: ।
दिव्यान्यस्त्राणि बीभत्सुस्ततश्च प्रतिपत्स्यते | १४ ।।
“उस आगको युद्धमें अर्जुन नामक महामेघ ही बुझा सकेगा। श्रीकृष्णरूपी वायुका
सहारा पाकर ही वह मेघ उठेगा। दिव्यास्त्रोंका प्रकाश ही उसमें बिजलीकी चमक होगी।
रथके श्वेत घोड़े ही उसके निकट उड़नेवाली बकपंक्तियोंकी भाँति सुशोभित होंगे। गाण्डीव
धनुष ही इन्द्रधनुषके समान दुःसह दृश्य उपस्थित करनेवाला होगा। वह क्रोधमें भरकर
बाणरूपी जलकी धारासे कर्णरूपी प्रज्वलित अग्निको निश्चय ही शान्त कर देगा।
शत्रुओंकी राजधानीपर विजय पानेवाला अर्जुन साक्षात् इन्द्रसे सारे दिव्यास्त्र प्राप्त
करेगा ।। १२--१४ ।।
अलं स तेषां सर्वेषामिति मे धीयते मति: ।
नास्ति त्वतिकृतार्थानां रणे5रीणां प्रतिक्रिया ।। १५ ।।
“धृतराष्ट्र-पक्षके उक्त सभी महारथियोंको जीतनेके लिये वह अकेला ही पर्याप्त होगा;
ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। अन्यथा अत्यन्त कृतार्थताका अनुभव करनेवाले शत्रुओंको
दबानेका और कोई उपाय नहीं है ।।
ते वयं पाण्डवं सर्वे गृहीतास्त्रमरिंदमम् ।
द्रष्टारो न हि बीभत्सुर्भारमुद्यम्य सीदति ।। १६ ।।
“अतः हम शत्रुहन्ता पाण्डुनन्दन अर्जुनको अवश्य ही सब दिव्यास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त
करके आया हुआ देखेंगे; क्योंकि वह वीर किसी कार्य-भारको उठाकर उसे पूर्ण किये बिना
कभी श्रान्त नहीं होता ।। १६ ।।
वयं तु तमृते वीरं वने5स्मिन् द्विपदां वर ।
अवधानं न गच्छाम: काम्यके सह कृष्णया ।। १७ ।।
“नरश्रेष्ठ] इस काम्यकवनमें वीर अर्जुनके बिना द्रौपदीसहित हम सब पाण्डवोंका मन
बिलकुल नहीं लग रहा है || १७ ।।
भवानन्यद् वन॑ साधु बद्धन्नं फलवच्छुचि ।
आखूयातु रमणीयं च सेवितं पुण्यकर्मभि: ।। १८ ।।
“इसलिये आप हमें किसी ऐसे रमणीय वनका पता बतायें जो बहुत अच्छा, पवित्र,
प्रचुर अन्न और फलसे सम्पन्न तथा पुण्यात्मा पुरुषोंद्वारा सेवित हो ।। १८ ।।
यत्र कंचिद् वयं कालं वसनन््तः सत्यविक्रमम् ।
प्रतीक्षामोर<्ड्जुनं वीरं वृष्टिकामा इवाम्बुदम् ।। १९ |।
“यहाँ हमलोग कुछ काल रहकर सत्यपराक्रमी वीर अर्जुनके आगमनकी उसी प्रकार
प्रतीक्षा करें, जैसे वृष्टिकी इच्छा रखनेवाले किसान बादलोंकी राह देखते हैं ।। १९ ।।
विविधानाश्रमान् कांश्रिद् द्विजातिभ्य: प्रतिश्रुतान् ।
सरांसि सरितश्नैव रमणीयांश्व॒ पर्वतान् ।। २० ।।
आचक्ष्व न हि मे ब्रह्मन् रोचते तमृते$र्जुनम्
वने5स्मिन् काम्यके वासो गच्छामो<न््यां दिशं प्रति ।। २१ ।।
“ब्रह्म! आप दूसरे ब्राह्मणोंसे सुने हुए नाना प्रकारके कतिपय आश्रमों, सरोवरों,
सरिताओं तथा रमणीय पर्वतोंका पता बताइये। अर्जुनके बिना अब काम्यकवनमें रहना हमें
अच्छा नहीं लगता; इसलिये अब दूसरी दिशाको चलेंगे” ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि धौम्यतीर्थयात्रायां
षडशीतितमो<ध्याय: ।। ८६ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें धौम्यकी तीर्थयात्राविषयक
छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ८६ ॥।
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सप्ताशीतितमो< ध्याय:
धौम्यद्वारा पूर्वदिशाके तीर्थोंका वर्णन
वैशम्पायन उवाच
तान् सर्वनित्सुकान् दृष्टवा पाण्डवान् दीनचेतस: ।
आश्चासयंस्तथा धौम्यो बृहस्पतिसमो<ब्रवीत् ।। १ ।।
ब्राह्मणानुमतान् पुण्यानाश्रमान् भरतर्षभ ।
दिशस्तीर्थानि शैलांश्व शूणु मे वदतो5नघ ।। २ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! पाण्डवोंका चित्त अर्जुनके लिये
अत्यन्त दीन हो रहा था। वे सब-के-सब उनसे मिलनेको उत्सुक थे। उनकी ऐसी
अवस्था देखकर बृहस्पतिके समान तेजस्वी महर्षि धौम्यने उन्हें सान्त्वना देते
हुए कहा--'पापरहित भरतकुलभूषण! ब्राह्मणलोग जिन्हें आदर देते हैं, उन
पुण्य आश्रमों, दिशाओं, तीर्थों और पर्वतोंका मैं वर्णन करता हूँ, सुनो ।।
याउछुत्वा गदतो राजन् विशोको भवितासि ह |
द्रौपद्या चानया सार्थ भ्रातृभिश्न नरेश्वर ।। ३ ।।
“नरेश्वर! राजन! मेरे मुखसे उन सबका वर्णन सुनकर तुम द्रौपदी तथा
भाइयोंके साथ शोकरहित हो जाओगे ।। ३ ।।
श्रवणाच्चैव तेषां त्वं पुण्यमाप्स्यसि पाण्डव |
गत्वा शतगुणं चैव तेभ्य एव नरोत्तम || ४ ।।
“नरश्रेष्ठ पाण्डुनन्दन! उनका श्रवण करनेमात्रसे तुम्हें उनके सेवनका पुण्य
प्राप्त होगा; और वहाँ जानेसे सौगुने पुण्यकी प्राप्ति होगी || ४ ।।
पूर्व प्राचीं दिशं राजन् राजर्षिगणसेविताम् ।
रम्यां ते कथयिष्यामि युधिषछ्िर यथास्मृति ।। ५ ।।
“महाराज युधिष्ठिर! मैं अपनी स्मरणशक्तिके अनुसार सबसे पहले
राजर्षिगणोंद्वारा सेवित रमणीय प्राची दिशाका वर्णन करूँगा ।। ५ |।
तस्यां देवर्षिजुष्टायां नैमिषं नाम भारत |
यत्र तीर्थानि देवानां पुण्यानि च पृथक् पृथक् ।। ६ ।।
“भरतनन्दन! देवर्षिसेवित प्राची दिशामें नैमिष नामक तीर्थ है, जहाँ भिन्न-
भिन्न देवताओंके अलग-अलग पुण्यतीर्थ हैं ।। ६ ।।
यत्र सा गोमती पुण्या रम्या देवर्षिसेविता ।
यज्ञभूमिश्च देवानां शामित्रं च विवस्वत: ।। ७ ।।
“जहाँ देवर्षिसेवित परम रमणीय पुण्यमयी गोमती नदी है। देवताओंकी
यज्ञभूमि और सूर्यका यज्ञपात्र विद्यमान है || ७ ।।
तस्यां गिरिवर: पुण्यो गयो राजर्षिसत्कृत: ।
शिवं ब्रह्मसरो यत्र सेवितं त्रिदशर्षिभि: ॥। ८ ।।
'प्राची दिशामें ही पुण्य पर्वतश्रेष्ठ गय है जो राजर्षि गयके द्वारा सम्मानित
हुआ है। वहाँ कल्याणमय ब्रह्मसरोवर है जिसका देवर्षिगण सेवन करते
हैं ।। ८ ।।
यदर्थे पुरुषव्याप्र कीर्तयन्ति पुरातना: ।
एष्टव्या बहव: पुत्रा यद्येको5पि गयां व्रजेत् । ९ ।।
यजेत वाश्वमेधेन नीलं वा वृषमुत्सूजेत् ।
उत्तारयति संतत्या दशपूर्वान् दशावरान् ॥। १० ।।
'पुरुषसिंह! उस गयाके विषयमें ही प्राचीनलोग यह कहा करते हैं कि
“बहुत-से पुत्रोंकी इच्छा करनी चाहिये; सम्भव है उनमेंसे एक भी गया जाय या
अश्वमेधयज्ञ करे अथवा नीलवृषका- उत्सर्ग करे। ऐसा पुरुष अपनी संततिद्वारा
दस पहलेकी और दस बादकी पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है” || ९-१० ।।
महानदी च तत्रैव तथा गयशिरो नृप ।
यत्रासौ कीर्त्यते विप्रैरक्षय्यकरणो वट: ।। ११ ।।
'राजन्! वहीं महानदी और गयशीर्षतीर्थ है, जहाँ ब्राह्मणोंने अक्षयवटकी
स्थिति बतायी है जिसके जड़ और शाखा आदि उपकरण कभी नष्ट नहीं
होते ।। ११ ।।
यत्र दत्त पितृभ्योऊन्नमक्षय्यं भवति प्रभो ।
सा च पुण्यजला तत्र फल्गुर्नाम महानदी ।। १२ ।।
बहुमूलफला चापि कौशिकी भरतर्षभ ।
विश्वामित्रो5 ध्यगाद् यत्र ब्राह्मणत्वं तपोधन: ।। १३ ।।
'प्रभो! वहाँ पितरोंके लिये दिया हुआ अन्न अक्षय होता है। भरतश्रेष्ठ! वहीं
फल्गु नामवाली पुण्यसलिला महानदी है और वहीं बहुत-से फल-मूलोंवाली
कौशिकी नदी प्रवाहित होती है जहाँ तपोधन विश्वामित्र ब्राह्मणत्वको प्राप्त हुए
थे ।। १२-१३ ।।
गड्जा यत्र नदी पुण्या यस्यास्तीरे भगीरथ: ।
अयजतू तत्र बहुभि: क्रतुभिर्भूरिदक्षिणै: ।। १४ ।।
'पूर्वदिशामें ही पुण्यनदी गड़ा बहती है, जिसके तटपर राजा भगीरथने प्रचुर
दक्षिणावाले बहुत-से यज्ञोंका अनुष्ठान किया था ।। १४ ।।
पज्चालेषु च कौरव्य कथयन्त्युत्पलावनम् ।
विश्वामित्रोडयजद् यत्र पुत्रेण सह कौशिक: ।। १५ ||
“कुरुनन्दन! पंचालदेशमें ऋषिलोग उत्पलावन बतलाते हैं, जहाँ
कुशिकनन्दन विश्वामित्रने अपने पुत्रके साथ यज्ञ किया था || १५ ।।
यत्रानुवंशं भगवाञ्जामदग्न्यस्तथा जगौ ।
विश्वामित्रस्य तां दृष्टवा विभूतिमतिमानुषीम् ।। १६ ।।
'उसी यज्ञमें विश्वामित्रका अलौकिक वैभव देखकर जमदग्निनन्दन
परशुरामने उनके वंशके अनुरूप यशका वर्णन किया था ।। १६ ।।
कान्यकुब्जेडपिबत् सोममिन्द्रेण सह कौशिक: ।
ततः क्षत्रादपाक्रामद् ब्राह्मणो5स्मीति चाब्रवीत् ।। १७ ।।
विश्वामित्रजीने कान्यकुब्जदेशमें इन्द्रके साथ सोमपान किया; वहीं वे
क्षत्रियत्वसे ऊपर उठ गये और “मैं ब्राह्मण हूँ” यह बात घोषित कर दी ।। १७ ।।
पवित्रमृषिभिर्जुष्ट पुण्यं पावनमुत्तमम् ।
गड़्ायमुनयोववीर संगमं लोकविश्रुतम् ।। १८ ।।
“वीरवर! गंगा और यमुनाका परम उत्तम पुण्यमय पवित्र संगम सम्पूर्ण
जगत्में विख्यात है और बड़े-बड़े महर्षि उसका सेवन करते हैं || १८ ।।
यत्रायजत भूतात्मा पूर्वमेव पितामह: ।
प्रयागमिति विख्यातं तस्माद् भरतसत्तम ।। १९ |।
“जहाँ समस्त प्राणियोंके आत्मा भगवान् ब्रह्माजीने पहले ही यज्ञ किया था।
भरतकुलभूषण! ब्रह्माजीके उस प्रकृष्टयागसे ही उस स्थानका नाम “प्रयाग” हो
गया ।।
अगस्त्यस्य तु राजेन्द्र तत्राश्रमवरो नृप ।
तत् तथा तापसारण्यं तापसैरुपशोभितम् ।। २० ।।
'राजेन्द्र! वहाँ महर्षि अगस्त्यका श्रेष्ठ आश्रम है। इसी प्रकार तापसारण्य
तपस्वीजनोंसे सुशोभित है || २० ।।
हिरण्यबिन्दु: कथितो गिरी कालज्जरे महान् |
आगरए््त्यपर्वतो रम्य: पुण्यो गिरिवर: शिव: ।। २१ ।।
“कालग्जर पर्वतपर हिरण्यबिन्दु नामसे प्रसिद्ध महान् तीर्थ बताया गया है।
आगर््त्यपर्वत बहुत ही रमणीय, पवित्र, श्रेष्ठ एवं कल्याणस्वरूप है || २१ ।।
महेन्द्रो नाम कौरव्य भार्गवस्य महात्मन: ।
अयजत् तत्र कौन्तेय पूर्वमेव पितामह: ।। २२ ।।
“कुरुनन्दन! महात्मा भार्गवका निवासस्थान महेन्द्र-पर्वत है। कुन्तीनन्दन!
वहाँ ब्रह्माजीने पूर्वकालमें यज्ञ किया था || २२ ।।
यत्र भागीरथी पुण्या सरस्यासीद् युधिष्ठिर ।
यत्र सा ब्रह्मशालेति पुण्या ख्याता विशाम्पते ।। २३ ।।
धूतपाप्मभिराकीर्णा पुण्यं तस्याश्न दर्शनम्
'युधिष्ठिर! जहाँ पुण्यसलिला भागीरथी गंगा सरोवरमें स्थित थी। महाराज!
जहाँपर उन्हें 'ब्रह्मशाला” यह पवित्र नाम दिया गया है। वह पुण्यतीर्थ निष्पाप
मनुष्योंसे व्याप्त है; उसका दर्शन पुण्यमय बताया गया है ।।
पवित्रो मड्नलीयश्व ख्यातो लोके महात्मन: ।। २४ ।।
केदारक्ष मतड्स्य महानाश्रम उत्तम: ।
कुण्डोद: पर्वतो रम्यो बहुमूलफलोदक: ।। २५ ।।
नैषधस्तृषितो यत्र जलं शर्म च लब्धवान् ।
“वहीं महात्मा मतंगऋषिका महान् एवं उत्तम आश्रम केदारतीर्थ है। वह
परम पवित्र, मंगलकारी और लोकमें विख्यात है। कुण्डोद नामक रमणीय पर्वत
बहुत फल-मूल और जलसे सम्पन्न है, जहाँ प्यासे हुए निषधनरेशको जल और
शान्तिकी उपलब्धि हुई थी ।।
यत्र देववनं पुण्यं तापसैरुपशोभितम् ।। २६ ।।
बाहुदा च नदी यत्र नन्दा च गिरिमूर्थनि ।
“वहीं तपस्वीजनोंसे सुशोभित पवित्र देववन नामक पुण्यक्षेत्र है, जहाँ
पर्वतके शिखरपर बाहुदा और नन्दा नदी बहती हैं || २६३ ।।
तीर्थानि सरित: शैला: पुण्यान्यायतनानि च ।। २७ ।।
प्राच्यां देशि महाराज कीर्तितानि मया तव ।
तिसृष्वन्यानि पुण्यानि दिक्षु तीर्थानि मे शृणु ।
सरितः: पर्वतांश्चैव पुण्यान्यायतनानि च ।। २८ ।।
“महाराज! पूर्वदिशामें जो बहुत-से तीर्थ, नदियाँ, पर्वत और पुण्य मन्दिर
आदि हैं, उनका मैंने तुमसे (संक्षेपमें) वर्णन किया है। अब शेष तीन दिशाओंके
सरिताओं, पर्वतों और पुण्यस्थानोंका वर्णन करता हूँ, सुनो" || २७-२८ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि धौम्यतीर्थयात्रायां
सप्ताशीतितमो<ध्याय: ।। ८७ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपववके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें
धौम्यतीर्थयात्राविषयक सत्तासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ८७ ॥
&:...6 ८5. (9) ४८६३ ००६०
> लोहितो यस्तु वर्णेन पुच्छाग्रेण तु पाण्डुरः । श्वेतः खुरविषाणाभ्यां स नीलो वृष उच्यते ।।
जिसका रंग तो लाल हो पर पूँछका अग्रभाग सफेद हो एवं खुर और सींग भी सफेद हों, वह नील वृष
कहा जाता है।
अष्टाशीतितमो< ध्याय:
धौम्यमुनिके द्वारा दक्षिण दिशावर्ती तीर्थोंका वर्णन
धौम्य उवाच
दक्षिणस्यां तु पुण्यानि शृणु तीर्थानि भारत ।
विस्तरेण यथाबुद्धि कीर्त्यमानानि तानि वै ।। १ ।।
धौम्यजी कहते हैं--भरतवंशी युधिष्ठिर! अब मैं अपनी बुद्धिके अनुसार
दक्षिणदिशावर्ती पुण्यतीर्थोंका विस्तारपूर्वक वर्णन करता हूँ, सुनो-- ।। १ ।।
यस्यामाख्यायते पुण्या दिशि गोदावरी नदी ।
बह्वदारामा बहुजला तापसाचरिता शिवा ॥। २ ।।
दक्षिणमें पुण्यमयी गोदावरी नदी बहुत प्रसिद्ध है, जिसके तटपर अनेक बगीचे
सुशोभित हैं। उसके भीतर अगाध जल भरा हुआ है। बहुत-से तपस्वी उसका सेवन करते हैं
तथा वह सबके लिये कल्याण-स्वरूपा है ।। २ ।।
वेणा भीमरथी चैव नद्यौ पापभयापहे ।
मृगद्धिजसमाकीर्णे तापसालयभूषिते ।। ३ ।।
वेणा और भीमरथी--ये दो नदियाँ भी दक्षिणमें ही हैं जो समस्त पापभयका नाश
करनेवाली हैं। उसके दोनों तट अनेक प्रकारके पशु-पक्षियोंसे व्याप्त और तपस्वीजनोंके
आश्रमोंसे विभूषित हैं ।। ३ ।।
राजर्षेस्तस्य च सरिन्नृगस्य भरतर्षभ ।
रम्यतीर्था बहुजला पयोष्णी द्विजसेविता ॥। ४ ।।
भरतकुलभूषण! राजा नृगकी नदी पयोष्णी भी उधर ही है जो रमणीय तीर्थों और
अगाध जलसे सुशोभित है। द्विज उसका सेवन करते हैं ।। ४ ।।
अपि चात्र महायोगी मार्कण्डेयो महायशा: ।
अनुवंश्यां जगौ गाथां नृगस्य धरणीपते: ।। ५ ।।
नृगस्य यजमानस्थ प्रत्यक्षमिति नः श्रुतम् ।
अमाद्यदिन्द्र: सोमेन दक्षिणाभिद्धिजातय: ।। ६ ।।
पयोष्ण्यां यजमानस्य वाराहे तीर्थ उत्तमे |
उद्धुतं भूतलस्थं वा वायुना समुदीरितम्
पयोष्ण्या हरते तोयं पापमामरणान्तिकम् ।। ७ ।।
इस विषयमें हमारे सुननेमें आया है कि महायोगी एवं महायशस्वी मार्कण्डेयने यजमान
राजा नृगके सामने उनके वंशके योग्य यशोगाथाका वर्णन इस प्रकार किया था
--'पयोष्णीके तटपर उत्तम वाराहतीर्थमें यज्ञ करनेवाले राजा नृगके यज्ञमें इन्द्र सोमपान
करके मस्त हो गये थे और प्रचुर दक्षिणा पाकर ब्राह्मणलोग भी हर्षोल्लाससे पूर्ण हो गये
थे।” पयोष्णीका जल हाथसे उठाया गया हो या धरतीपर पड़ा हो अथवा वायुके वेगसे
उछलकर अपने ऊपर पड़ गया हो तो वह जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त किये हुए समस्त
पापोंको हर लेता है || ५--७ ।।
स्वर्गादुत्तुज़ममलं विषाणं यत्र शूलिन: ।
स्वमात्मविदितं दृष्टवा मर्त्य: शिवपुरं व्रजेत् ।। ८ ॥।
जहाँ भगवान् शंकरका स्वयं ही अपने लिये बनाया हुआ शुंग नामक वाद्यविशेष स्वर्गसे
भी ऊँचा और निर्मल है, उसका दर्शन करके मरणधर्मा मानव शिवधाममें चला जाता
है ।। ८ ।।
एकत:ः सरित: सर्वा गड़ाद्या: सलिलोच्चया: ।
पयोष्णी चैकत: पुण्या तीर्थेभ्यो हि मता मम ।। ९ |।
एक ओर अगाध जलराशिसे भरी हुई गंगा आदि सम्पूर्ण नदियाँ हों और दूसरी ओर
केवल पुण्यसलिला पयोष्णी नदी हो तो वही अन्य सब नदियोंकी अपेक्षा श्रेष्ठ है; ऐसा मेरा
विचार है ॥। ९ ।।
माठरस्य वन॑ पुण्यं बहुमूलफलं शिवम् ।
यूपश्च भरतश्रेष्ठ वरुणस्रोतसे गिरौ ।। १० ।।
भरतश्रेष्ठ! दक्षिणमें पवित्र माठरवन है, जो प्रचुर फलमूलसे सम्पन्न और
कल्याणस्वरूप है। वहाँ वरुण-स्रोतस नामक पर्वतपर माठर (सूर्यके पार्श्ववर्ती देवता) का
विजय-स्तम्भ सुशोभित होता है ।। १० ।।
प्रवेण्युत्तरमार्गे तु पुण्ये कण्वाश्रमे तथा ।
तापसानामरण्यानि कीर्तितानि यथाश्रुति ।। ११ ।।
यह स्तम्भ प्रवेणी नदीके उत्तरवर्ती मार्गमें कण्वके पुण्यमय आश्रममें है। इस प्रकार
जैसा कि मैंने सुन रखा था, तपस्वी महात्माओंके निवासयोग्य वनोंका वर्णन किया
है ।। ११ ।।
वेदी शूपरिके तात जमदग्नेर्महात्मन: ।
रम्या पाषाणतीर्था च पुनश्नन्द्रा च भारत ॥। १२ ।।
तात! शूर्परिवक्षेत्रमें महात्मा जमदग्निकी वेदी है। भारत! वहीं रमणीय पाषाणतीर्था
और पुनश्नन्द्रा नामक तीर्थ-विशेष हैं ।। १२ ।।
अशोकतीर्थ तत्रैव कौन्तेय बहुलाअ्मम् ।
अगस्त्यतीर्थ पाण्ड्येषु वारुणं च युधिछ्िर ।। १३ ।।
कुमार्य: कथिता: पुण्या: पाण्ड्येष्वेव नरर्षभ ।
ताम्रपर्णी तु कौन्तेय कीर्तयिष्यामि तां शुणु ।। १४ ।।
कुन्तीनन्दन! उसी क्षेत्रमें अशोकतीर्थ है, जहाँ महर्षियोंके बहुत-से आश्रम हैं।
युधिष्ठिर! पाण्ड्यदेशमें अगस्त्यतीर्थ और वारुणतीर्थ है। नरश्रेष्ठ। पाण्ड्यदेशके भीतर
पवित्र कुमारी कन्याएँ (कन्याकुमारी तीर्थ) कही गयी हैं। कुन्तीकुमार! अब मैं तुमसे
ताम्रपर्णी नदीकी महिमाका वर्णन करूँगा, सुनो || १३-१४ ।।
यत्र देवैस्तपस्तप्तं॑ महदिच्छद्धिराश्रमे ।
गोकर्ण इति विख्यातस्त्रिषु लोकेषु भारत ।। १५ ।।
भरतनन्दन! वहाँ मोक्ष पानेकी इच्छासे देवताओंने आश्रममें रहकर बड़ी भारी तपस्या
की थी। वहाँका गोकर्णतीर्थ तीनों लोकोंमें विख्यात है || १५ ।।
शीततोयो बहुजल: पुण्यस्तात शिव: शुभ: |
हृद: परमदुष्प्रापो मानुषैरकृतात्मभि: ।। १६ ।।
तात! गोकर्णतीर्थमें शीतल जल भरा रहता है। उसकी जलराशि अनन्त है। वह पवित्र,
कल्याणमय और शुभ है। जिनका अन्त:करण शुद्ध नहीं है, ऐसे मनुष्योंके लिये गोकर्णतीर्थ
अत्यन्त दुर्लभ है ।। १६ ।।
तत्र वृक्षतृणद्यैश्व सम्पन्न: फलमूलवान् |
आश्रमो5गस्त्यशिष्यस्य पुण्यो देवसमो गिरि: ।। १७ ।।
वहाँ अगस्त्यके शिष्यका पुण्यमय आश्रम है, जो वृक्षों और तृण आदिसे सम्पन्न एवं
फल-मूलोंसे परिपूर्ण है। देवसम नामक पर्वत ही वह आश्रम है ।। १७ ।।
वैदूर्यपर्वतस्तत्र श्रीमान् मणिमय: शिव: ।
अगस्त्यस्याश्रमश्वैव बहुमूलफलोदक: ।। १८ ।।
वहाँ परम सुन्दर मणिमय वैदूर्यपर्वत है जो शिवस्वरूप है। उसीपर महर्षि अगस्त्यका
आश्रम है जो प्रचुर फल-मूल और जलसे सम्पन्न है | १८ ।।
सुराष्ट्रेष्वपि वक्ष्यामि पुण्यान्यायतनानि च ।
आश्रमान् सरितश्वैव सरांसि च नराधिप ।। १९ ।।
नरेश्वर! अब मैं सुराष्ट्र (सौराष्ट्र)-देशीय पुण्य-स्थानों, मन्दिरों, आश्रमों, सरिताओं और
सरोवरोंका वर्णन करता हूँ ।। १९ ।।
चमसोद्ठेदनं विप्रास्तत्रापि कथयन्त्युत ।
प्रभासं चोदधौ तीर्थ त्रिदशानां युधिछ्िर |। २० ।।
विप्रगण! वहीं चमसोद्धेदतीर्थकी चर्चा की जाती है। युधिष्ठिर! सुराष्ट्रमें ही समुद्रके
तटपर प्रभासक्षेत्र है जो देवताओंका तीर्थ कहा गया है || २० ।।
तत्र पिण्डारकं॑ नाम तापसाचरितं शिवम् |
उज्जयन्तश्न शिखरी क्षिप्रं सिद्धिकरो महान् ।। २१ ।।
वहीं पिण्डारक नामक तीर्थ है जो तपस्वी जनोंद्वारा सेवित और कल्याणस्वरूप है।
उधर ही उज्जयन्त नामक महानू् पर्वत है जो शीघ्र सिद्धि प्रदान करनेवाला है ।। २१ ।।
तत्र देवर्षिवर्येण नारदेनानुकीर्तित: ।
पुराण: श्रूयते श्लोकस्तं निबोध युधिछिर ।। २२ ।।
युधिष्ठिर! उसके विषयमें देवर्षिप्रवर श्रीनारदजीके द्वारा कहा हुआ एक प्राचीन श्लोक
सुना जाता है, उसको मुझसे सुनो ।। २२ ।।
पुण्ये गिरौ सुराष्ट्रेषु मृगपक्षिनिषेविते ।
उज्जयन्ते सम तप्ताड़ो नाकपृष्ठे महीयते ।। २३ ।।
सुराष्ट्र देशमें मृगों और पक्षियोंसे सेवित उज्जयन्त नामक पुण्यपर्वतपर तपस्या
करनेवाला पुरुष स्वर्गलोकमें पूजित होता है ।। २३ ।।
पुण्या द्वारवती तत्र यत्रासौ मधुसूदन: ।
साक्षाद देव: पुराणोडसौ स हि धर्म: सनातन: | २४ ।।
उज्जयन्तके ही आस-पास पुण्यमयी द्वारकापुरी है जहाँ साक्षात् पुराणपुरुष भगवान्
मधुसूदन निवास करते हैं। वे ही सनातन धर्मस्वरूप हैं || २४ ।।
ये च वेदविदो विप्रा ये चाध्यात्मविदो जना: ।
ते वदन्ति महात्मानं कृष्णं धर्म सनातनम् ।। २५ ।।
जो वेदवेत्ता और अध्यात्मशास्त्रके विद्वान् ब्राह्मण हैं, वे परमात्मा श्रीकृष्णको ही
सनातन धर्मरूप बताते हैं ।। ५४ ।।
पवित्राणां हि गोविन्द: पवित्र परमुच्यते |
पुण्यानामपि पुण्योडसौ मड़लानां च मड़लम् |
त्रैलोक्ये पुण्डरीकाक्षो देवदेवः सनातन: || २६ ।।
अव्ययात्मा व्ययात्मा च क्षेत्रज्ञ: परमेश्वर: ।
आस्ते हरिरचिन्त्यात्मा तत्रैव मधुसूदन: ।। २७ ।।
भगवान् गोविन्द पवित्रोंको भी पावन करनेवाले परम पवित्र कहे जाते हैं। वे पुण्योंके
भी पुण्य और मंगलोंके भी मंगल हैं। कमलनयन देवाधिदेव सनातन श्रीहरि अविनाशी
परमात्मा, व्ययात्मा (क्षरपुरुष), क्षेत्रज्ष और परमेश्वर हैं। वे अचिन्त्यस्वरूप भगवान्
मधुसूदन वहीं द्वारकापुरीमें विराजमान हैं || २६-२७ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि
धौम्यतीर्थयात्रायामष्टाशीतितमो5 ध्याय: ।। ८८ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें धौम्यतीर्थयात्राविषयक
अठासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ८८ ॥
हम () अऑपआ अपा८
एकोननवतितमो<ध्याय:
धौम्यद्वारा पश्चिम दिशाके तीर्थोंका वर्णन
धौम्य उवाच
आनर्तेषु प्रतीच्यां वै कीर्तयिष्यामि ते दिशि ।
यानि तत्र पवित्राणि पुण्यान्यायतनानि च ।। १ ।।
धौम्यजी कहते हैं--युधिष्ठटिर! अब मैं पश्चिम दिशाके आनर्तदेशमें जो-जो पवित्र तीर्थ
और पुण्यस्वरूप देवालय हैं, उन सबका वर्णन करूँगा || १ ।।
प्रियड्ग्वाम्रवणोपेता वानीरफलमालिनी ।
प्रत्यक्स्रोता नदी पुण्या नर्मदा तत्र भारत ।। २ ।।
भरतनन्दन! पश्चिम दिशामें पुण्यमयी नर्मदा नदी प्रवाहित होती है, जिसकी धारा पूर्वसे
पश्चिमकी ओर है। उसके तटपर प्रियंगु और आमके वृक्षोंका वन है। बेंत तथा फलवाले
वृक्षोंकी श्रेणियाँ भी उसकी शोभा बढ़ाती हैं ।। २ ।।
त्रैलोक्ये यानि तीर्थानि पुण्यान्यायतनानि च ।
सरिद्वनानि शैलेन्द्रा देवाश्ष सपितामहा: ।। ३ ।।
नर्मदायां कुरुश्रेष्ठ सह सिद्धर्षिचारणै: ।
स्नातुमायान्ति पुण्यौचै: सदा वारिषु भारत ।। ४ ।।
भरतनन्दन कुरुश्रेष्ठ! त्रिलोकीमें जो-जो पुण्यतीर्थ, मन्दिर, नदी, वन, पर्वत, ब्रह्मा
आदि देवता, सिद्ध, ऋषि, चारण एवं पुण्यात्माओंके समूह हैं, वे सब सदा नर्मदाके जलमें
स्नान करनेके लिये आया करते हैं ।। ३-४ ।।
निकेत: श्रूयते पुण्यो यत्र विश्रवसो मुने: ।
जज्ञे धनपतिर्यत्र कुबेरो नरवाहन: ।। ५ ।।
वहीं मुनिवर विश्रवाका पवित्र आश्रम सुना जाता है, जहाँ नरवाहन धनाध्यक्ष कुबेरका
जन्म हुआ था ।। ५ |
वैदूर्यशिखरो नाम पुण्यो गिरिवर: शिव: ।
नित्यपुष्पफलास्तत्र पादपा हरितच्छदा: ।। ६ ।।
वैदूर्यशिखर नामक मंगलमय पवित्र पर्वत भी नर्मदा-तटपर है, वहाँ हरे-हरे पत्तोंसे
सुशोभित सदा फल और फूलोंके भारसे लदे हुए वृक्ष शोभा पाते हैं ।।
तस्य शैलस्य शिखरे सर: पुण्यं महीपते ।
फुल्लपद्म॑ महाराज देवगन्धर्वसेवितम् ।। ७ ।।
राजन्! उस पर्वतके शिखरपर एक पुण्य सरोवर है जिसमें सदा कमल खिले रहते हैं।
महाराज! देवता और गन्धर्व भी उस पुण्यतीर्थका सेवन करते हैं |। ७ ।।
बह्दाश्चर्य महाराज दृश्यते तत्र पर्वते ।
पुण्ये स्वर्गोपमे चैव देवर्षिगणसेविते ।। ८ ।।
राजन! देवर्षिगणोंसे सेवित वह पुण्यपर्वत स्वर्गके समान सुन्दर एवं सुखद है। वहाँ
अनेक आश्चर्यकी बातें देखी जाती हैं |। ८ ।।
हृदिनी पुण्यतीर्था च राजर्षेस्तत्र वै सरित् |
विश्वामित्रनदी राजन् पुण्या परपुरंजय ।। ९ ।।
यस्यास्तीरे सतां मध्ये ययातिर्नहुषात्मज: ।
पपात स पुनर्लोकॉल्ले भे धर्मान् सनातनान् ॥। १० |।
शत्रुओंकी राजधानीपर विजय पानेवाले नरेश! वहाँ राजर्षि विश्वामित्रकी तपस्यासे
प्रकट हुई एक पुण्यमयी नदी है, जो परम पवित्र तीर्थ मानी गयी है। उसीके तटपर
नहुषनन्दन राजा ययाति स्वर्गसे साधु पुरुषोंके बीचमें गिरे थे और पुनः सनातन धर्ममय
लोकोंमें चले गये थे || ९-१० ।।
तत्र पुण्यो हृद: ख्यातो मैनाकश्नैव पर्वत: ।
बहुमूलफलोपेतस्त्वसितो नाम पर्वत: ।। ११ ।।
वहाँ पुण्यसरोवर, विख्यात मैनाक पर्वत और प्रचुर फलमूलोंसे सम्पन्न असित नामक
पर्वत है ।। ११ ।।
आश्रम: कक्षसेनस्य पुण्यस्तत्र युधिष्ठिर ।
च्यवनस्याश्रमश्चैव विख्यातस्तत्र पाण्डव ।। १२ ।।
युधिष्ठिर! उसी पर्वतपर कच्छसेनका पुण्यदायक आश्रम है। पाण्डुनन्दन! महर्षि
च्यवनका सुविख्यात आश्रम भी वहीं है || १२ ।।
तत्राल्पेनैव सिध्यन्ति मानवास्तपसा विभो ।
जम्बूमार्गो महाराज ऋषीणां भावितात्मनाम् ।। १३ ।।
आश्रम: शाम्यतां श्रेष्ठ मृगद्धिजनिषेवित: ।
प्रभो! वहाँ थोड़ी ही तपस्यासे मनुष्य सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। महाराज! पश्चिम
दिशामें ही जम्बूमार्ग है, जहाँ शुद्ध अन्तःकरणवाले महर्षियोंका आश्रम है। शान्त पुरुषोंमें
श्रेष्ठ युधिष्ठि! वह आश्रम पशु-पक्षियोंसे सेवित है ।। १३ $ ।।
ततः पुण्यतमा राजन् सततं तापसैर्युता ।। १४ ।।
केतुमाला च मेध्या च गड्जाद्वारं च भूमिप ।
ख्यातं च सैन्धवारण्यं पुण्यं द्विजनिषेवितम् ।। १५ ।।
राजन्! उधर ही सदा तपस्वीजनोंसे भरे हुए पुण्यतम तीर्थ--केतुमाला, मेध्या और
गंगाद्वार (हरिद्वार) हैं। भूपाल! द्विजोंसे सेवित सुप्रसिद्ध सैन्धवारण्य भी उधर ही है ।।
पितामहसर: पुण्यं पुष्करं नाम नामतः ।
वैखानसानां सिद्धानामृषीणामाश्रम: प्रिय: ॥। १६ ।।
ब्रह्माजीका पुण्यदायक सरोवर पुष्कर भी पश्चिम दिशामें ही है, जो वानप्रस्थों, सिद्धों
और महर्षियोंका प्रिय आश्रम है || १६ ।।
अप्यत्र संश्रयार्थाय प्रजापतिरथो जगौ ।
पुष्करेषु कुरुश्रेष्ठ गाथां सुकृतिनां वर ।। १७ ।।
पुण्यवानोंमें प्रधान कुरुश्रेष्ठ! पुष्करमें निवास करनेके लिये प्रजापति ब्रह्माजीने एक
गाथा गायी है, जो इस प्रकार है || १७ ।।
मनसाप्यभिकामस्य पुष्कराणि मनस्विन: ।
विप्रणश्यन्ति पापानि नाकपृछे च मोदते ।। १८ ।।
“जो मनस्वी पुरुष मनसे भी पुष्करतीर्थमें निवास करनेकी इच्छा करता है, उसके सारे
पाप नष्ट हो जाते हैं और वह स्वर्गलोकमें आनन्द भोगता है” || १८ ।॥।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि धौम्यतीर्थयात्रायां
एकोननवतितमो<ध्याय: ॥। ८९ |।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें धौग्यतीर्थयात्राविषयक
नवासीवाँ अध्याय प्रा हुआ ॥/ ८९ ॥।
हि आय ० (0) हि २ 7
नवतितमो< ध्याय:
धौम्यद्वारा उत्तर दिशाके तीर्थोंका वर्णन
धौम्य उवाच
उदीच्यां राजशार्दूल दिशि पुण्यानि यानि वै ।
तानि ते कीर्तयिष्यामि पुण्यान्यायतनानि च ॥। १ ।।
शृणुष्वावहितो भूत्वा मम मन्त्रयत: प्रभो ।
कथाप्रतिग्रहो वीर श्रद्धां जनयते शुभाम् ।। २ ।।
धौम्यजी कहते हैं--नृपश्रेष्ठ! उत्तर दिशामें जो पुण्यप्रद तीर्थ और देवालय आदि हैं,
उनका तुमसे वर्णन करता हूँ। प्रभो! तुम सावधान होकर वह सब मेरे मुखसे सुनो। वीरवर!
तीर्थोकी कथाका प्रसंग उनके प्रति मंगलमयी श्रद्धा उत्पन्न करता है ।। १-२ ।।
सरस्वती महापुण्या हृदिनी तीर्थमालिनी ।
समुद्रगा महावेगा यमुना यत्र पाण्डव ।। ३ ।।
तीर्थोंकी पंक्तिसे सुशोभित सरस्वती नदी बड़ी पुण्यदायिनी है। पाण्डुनन्दन! समुद्रमें
मिलनेवाली महावेगशालिनी यमुना भी उत्तर दिशामें ही हैं | ३ ।।
यत्र पुण्यतरं तीर्थ प्लक्षावतरणं शुभम् ।
यत्र सारस्वतैरिष्टवा गच्छन्त्यव भृथैद्धिजा: ।। ४ ।।
उधर ही अत्यन्त पुण्यमय प्लक्षावतरण नामक मंगलकारक तीर्थ है; जहाँ ब्राह्मणगणण
यज्ञ करके सरस्वतीके जलसे अवभूथस्नान करते और अपने स्थानको जाते हैं ।। ४ ।।
पुण्यं चाख्यायते दिव्यं शिवमग्निशिरोडनघ ।
सहदेवो5यजद् यत्र शम्याक्षेपेण भारत ।। ५ ।।
उधर ही अग्निशिर नामक दिव्य, कल्याणमय, पुण्यतीर्थ बताया जाता है। निष्पाप
भरतनन्दन! उसी तीर्थमें सहदेवने शमीका डंडा फेंकवाकर, जितनी दूरीमें वह डंडा पड़ा था
उतनी दूरीमें, मण्डप बनवाकर उसमें यज्ञ किया ।। ५ ।।
एतस्मिन्नेव चार्थेडसाविन्द्रगीता युधिष्ठिर
गाथा चरति लोकेडस्मिन् गीयमाना द्विजातिभि: ।। ६ ।।
युधिष्ठिर! इसी विषयमें इन्द्रकी गायी हुई एक गाथा लोकमें प्रचलित है, जिसे ब्राह्मण
गाया करते हैं ।। ६ ।।
अग्नय: सहदेवेन सेविता यमुनामनु ।
ते तस्य कुरुशार्टूल सहस्रशतदक्षिणा: ।। ७ ।।
कुरुश्रेष्ठ! सहदेवने यमुना-तटपर लाख स्वर्ण-मुद्राओंकी दक्षिणा देकर अग्निकी
उपासना की थी- | ७ ।।
तत्रैव भरतो राजा चक्रवर्ती महायशा: ।
विंशति: सप्त चाष्टी च हयमेधानुपाहरत् ।। ८ ।।
वहीं महायशस्वी चक्रवर्ती राजा भरतने पैंतीस अश्वमेधयज्ञोंका अनुष्ठान किया ।। ८ ।।
कामकृद् यो द्विजातीनां श्रुतस्तात यथा पुरा ।
अत्यन्तमाश्रम: पुण्य: शरभंगस्य विश्रुत: ॥। ९ ।।
तात! प्राचीनकालमें राजा भरत ब्राह्मणोंकी मनोवाञ्छाको पूर्ण करनेवाला राजा सुना
गया है। उत्तराखण्डमें ही महर्षि शरभड़का अत्यन्त पुण्यदायक आश्रम विख्यात है ।। ९ ।।
सरस्वती नदी सद्धि: सततं पार्थ पूजिता ।
बालखिल्यैर्महाराज यत्रेष्टमृषिभि: पुरा ।। १० ।।
कुन्तीनन्दन! साधु पुरुषोंने सरस्वती नदीकी सदा उपासना की है। महाराज!
पूर्वकालमें बालखिल्य ऋषियोंने वहाँ यज्ञ किया था ।। १० ।॥।
दृषद्वती महापुण्या यत्र ख्याता युधिष्ठिर ।
न्यग्रोधाख्यस्तु पुण्याख्य: पाज्चाल्यो द्विपदां वर ।। ११ ।।
दाल्भ्यघोषश्न दाल्भ्यक्ष धरणीस्थो महात्मन: ।
कौन्तेयानन्तयशस: सुव्रतस्यामितौजस: ।। १२ ।।
आश्रम: ख्यायते पुण्यस्त्रिषु लोकेषु विश्रुत: ।
युधिष्ठिर! परम पुण्यमयी दृषद्गवती नदी भी उधर ही बतायी गयी है। मनुष्योंमें श्रेष्ठ
युधिष्ठिर! वहीं न्यग्रोध, पुण्य, पाञ्चाल्य, दाल्भ्यघोष और दाल्भ्य--ये पाँच आश्रम हैं तथा
अनन्तकीर्ति एवं अमिततेजस्वी महात्मा सुव्रतका पुण्य आश्रम भी उत्तराखण्डमें ही बताया
जाता है, जो पृथ्वीपर रहकर भी तीनों लोकोंमें विख्यात है ।।
एतावर्णाववर्णो च विश्रुती मनुजाधिप ।। १३ ।।
नरेश्वर! उत्तराखण्डमें ही विख्यात मुनि नर और नारायण हैं, जो एतावर्ण (श्यामवर्ण--
साकार) होते हुए भी वास्तवमें अवर्ण (निराकार) ही हैं | १३ ।।
वेदज्ञौ वेदविद्वांसौ वेदविद्याविदावु भौ ।
ईजाते क्रतुभिर्मुख्यै: पुण्यैर्भरतसत्तम ।। १४ ।।
भरतश्रेष्ठ! ये दोनों मुनि वेदज्ञ, वेदके मर्मज्ञ तथा वेदविद्याके पूर्ण जानकार हैं। इन्होंने
पुण्यदायक उत्तम यज्ञोंद्वारा शंकरका यजन किया है ।। १४ ।।
समेत्य बहुशो देवा: सेन्द्रा: सवरुणा: पुरा ।
विशाखयूपे5तप्यन्त तेन पुण्यतमश्न सः ।। १५ ।।
पूर्वकालमें इन्द्र, वरुण आदि बहुत-से देवताओंने मिलकर विशाखयूप नामक स्थानमें
तप किया था, अतः वह अत्यन्त पुण्यप्रद स्थान है ।। १५ ।।
ऋषिर्महान् महा भागो जमदग्निर्महायशा: ।
पलाशकेषु पुण्येषु रम्येष्वयजत प्रभु: ।। १६ ।।
महाभाग, महायशस्वी और महाप्रभावशाली महर्षि जमदग्निने परम सुन्दर तथा
पुण्यप्रद पलाशवनमें यज्ञ किया था ।। १६ ।।
यत्र सर्वा: सरिच्छेष्ठा: साक्षात् तमृषिसत्तमम् |
स्वं स्वं तोयमुपादाय परिवार्योपतस्थिरे ।। १७ ।।
जिसमें सब श्रेष्ठ नदियाँ मूर्तिमती हो अपना-अपना जल लेकर उन मुनिश्रेष्ठके पास
आयीं और उन्हें सब ओरसे घेरकर खड़ी हुई थीं ।। १७ ।।
अपि चात्र महाराज स्वयं विश्वावसुर्जगौ ।
इमं श्लोक॑ तदा वीर प्रेक्ष्य दीक्षां महात्मन: ।। १८ ।।
वीर महाराज! यहाँ महात्मा जमदग्निकी वह यज्ञदीक्षा देखकर स्वयं गन्धर्वराज
विश्वावसुने इस श्लोकका गान किया था ।। १८ ।।
यजमानस्य वै देवाञज्जमदग्नेर्महात्मन: ।
आगम्य सरितो विप्रान् मधुना समतर्पयन् ॥। १९ ।।
“महात्मा जमदग्नि जब यज्ञद्वारा देवताओंका यजन कर रहे थे, उस समय उनके यज्ञमें
सरिताओंने आकर मधुसे ब्राह्मणोंको तृप्त किया” ।। १९ ।।
गन्धर्वयक्षरक्षोभिरप्सरोभि श्व॒ सेवितम् ।
किरातकिन्नरावासं शैलं शिखरिणां वरम् ॥। २० ।।
बिभेद तरसा गज गज्जद्वारं युधिष्ठिर ।
पुण्यं तत् ख्यायते राजन ब्रह्मर्षिगणसेवितम् ।। २१ ।।
युधिष्ठिर! गिरिश्रेष्ठ हिमालय किरातों और किन्नरोंका निवासस्थान है। गन्धर्व, यक्ष,
राक्षस और अप्सराएँ उसका सदा सेवन करती हैं। गंगाजी अपने वेगसे उस शैलराजको
फोड़कर जहाँ प्रकट हुई हैं, वह पुण्यस्थान गंगाद्वार (हरिद्वार)-के नामसे विख्यात है।
राजन! उस तीर्थका ब्रह्मर्षिणण सदा सेवन करते हैं || २०-२१ ।।
सनत्कुमार: कौरव्य पुण्यं कनखलं तथा ।
पर्वतश्न पुरुर्नाम यत्र यात: पुरूरवा: ।॥। २२ ।।
कुरुनन्दन! पुण्यमय कनखलमें पहले सनत्कुमारने यात्रा की थी। वहीं पुरु नामसे
प्रसिद्ध पर्वत है, जहाँ पूर्वकालमें पुरूरवाने यात्रा की थी || २२ ।।
भृगुर्यत्र तपस्तेपे महर्षिगणसेविते ।
राजन् स आश्रम: ख्यातो भृगुतुड़ो महागिरि: || २३ ।।
राजन! महर्षियोंसे सेवित जिस महान् पर्वतपर भृगुने तपस्या की थी वह भृगुतुंग
आश्रमके नामसे विख्यात है || २३ ।।
यः स भूतं भविष्यच्च भवच्च भरतर्षभ |
नारायण: प्रभुर्विष्णु: शाश्वत: पुरुषोत्तम: | २४ ।।
तस्यातियशस: पुण्यां विशालां बदरीमनु |
आश्रम: ख्यायते पुण्यस्त्रिषु लोकेषु विश्रुत: | २५ ।।
भरतश्रेष्ठ! भूत, भविष्य और वर्तमान जिनका स्वरूप है, जो सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापी,
सनातन एवं पुरुषोत्तम नारायण हैं उन अत्यन्त यशस्वी श्रीहरिकी पुण्यमयी विशालापुरी
बदरीवनके निकट है। वह नर-नारायणका आश्रम कहा गया है, वह पुण्यप्रद बदरिका श्रम
तीनों लोकोंमें विख्यात है ।। २४-२५ ।।
उष्णतोयवहा गड़ा शीततोयवहा पुरा ।
सुवर्णसिकता राजन् विशालां बदरीमनु || २६ ।।
राजन! पूर्वकालसे ही विशाला बदरीके समीप गंगा कहीं गरम जल तथा कहीं शीतल
जल प्रवाहित करती हैं। उनकी बालू सुवर्णकी भाँति चमकती रहती है || २६ ।।
ऋषयो यत्र देवाश्न महाभागा महौजस: ।
प्राप्प नित्यं नमस्यन्ति देवं नारायणं प्रभुम् ।। २७ ।।
यत्र नारायणो देव: परमात्मा सनातन: ।
तत्र कृत्स्नं जगत् सर्व तीर्थान्यायतनानि च ।। २८ ।।
वहाँ महाभाग एवं महातेजस्वी देवता तथा महर्षि प्रतेदिन जाकर अमित प्रभावशाली
भगवान् नारायणको नमस्कार करते हैं। जहाँ सनातन परमात्मा भगवान् नारायण
विराजमान हैं वहाँ सम्पूर्ण जगत् है और समस्त तीर्थ तथा देवालय हैं || २७-२८ ।।
तत् पुण्यं परम॑ ब्रह्म तत् तीर्थ तत् तपोवनम् ।
तत् परं परम॑ देवं भूतानां परमेश्वरम् ।। २९ ।।
वह बदरिकाश्रम पुण्यक्षेत्र और परत्रह्मस्वरूप है। वही तीर्थ है, वही तपोवन है, वही
सम्पूर्ण भूतोंका परमदेव परमेश्वर है ।। २९ ।।
शाश्व॒तं परम चैव धातारं परमं पदम् |
य॑ं विदित्वा न शोचन्ति विद्वांस: शास्त्रदृष्टय: ।। ३० ।।
तत्र देवर्षय: सिद्धा: सर्वे चैव तपोधना: ।
वही सनातन परमधाता एवं परमपद है, जिसे जान लेनेपर शास्त्रदर्शी विद्वान् कभी
शोक नहीं करते हैं। वहीं देवर्षि सिद्ध और समस्त तपोधन महात्मा निवास करते हैं |। ३० ३
||
आदिदेवो महायोगी यत्रास्ते मधुसूदन: ।। ३१ ।।
पुण्यानामपि तत् पुण्यमत्र ते संशयोअस्तु मा ।
एतानि राजन् पुण्यानि पृथिव्यां पृथिवीपते || ३२ ।।
कीर्तितानि नरश्रेष्ठ तीर्थान्यायतनानि च ।
एतानि वसुभि: साध्यैरादित्यैर्मरुदश्विभि: ।। ३३ ।।
ऋषिभिद्देवकलल्पैश्नव सेवितानि महात्मभि: ।
चरच्नेतानि कौन्तेय सहितो ब्राह्मणर्षभै: ।
भ्रातृभिश्च महाभागैरुत्कण्ठां विहरिष्यसि ।। ३४ ।।
जहाँ महायोगी आदिदेव भगवान् मधुसूदन विराजमान हैं वह स्थान पुण्योंका भी पुण्य
है। इस विषयमें तुम्हें संशय नहीं होना चाहिये। राजन! पृथ्वीपते! नरश्रेष्ठ) ये भूमण्डलके
पुण्यतीर्थ और आश्रम आदि कहे गये वसु, साध्य, आदित्य, मरुद्गण, अश्विनीकुमार तथा
देवोपम महात्मा मुनि इन सब तीर्थोंका सेवन करते हैं। कुन्तीनन्दन! तुम श्रेष्ठ ब्राह्मणों और
महान् सौभाग्यशाली भाइयोंके साथ इन तीर्थोमें विचरते रहोगे तो अर्जुनके लिये तुम्हारी
मिलनेकी उत्कट इच्छा अर्थात् विरहव्याकुलता शान्त हो जायगी || ३१--३४ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि धौम्यतीर्थयात्रायां नवतितमो< ध्याय:
॥।। ९० ||
इस प्रकार श्रीमह्ा भारत वनपवकि अन्तर्गत तीथ्यात्रापर्वमें धौम्यतीर्थयात्राविषयक नब्बेवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥। ९० ॥
अऑडज आर | आओ अप
- ये सहदेव सुप्रसिद्ध राजा सूंजयके पुत्र थे--'सहदेव: सूंजयपुत्र:" इति नीलकण्ठी।
एकनवतितमो< ध्याय:
महर्षि लोमशका आगमन और युधिष्ठिरसे अर्जुनके
पाशुपत आदि दिव्यास्त्रोंकी प्राप्तिका वर्णन तथा इन्द्रका
संदेश सुनाना
वैशम्पायन उवाच
एवं सम्भाषमाणे तु धौम्ये कौरवनन्दन ।
लोमश: स महातेजा ऋषिस्तत्राजगाम ह ।। १ ।।
तं॑ पाण्डवाग्रजो राजा सगणो ब्राह्मणाश्न ते ।
उपातिष्ठन्महा भागं दिवि शक्रमिवामरा: ।। २ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--कौरवनन्दन! जब धौम्य ऋषि इस प्रकार कह रहे थे, उसी
समय महातेजस्वी महर्षि लोमश वहाँ आये। जैसे स्वर्गमें इन्द्रके आनेपर समस्त देवता
उठकर खड़े हो जाते हैं, उसी प्रकार ज्येष्ठ पाण्डव राजा युधिष्ठिर, उनके समुदायके अन्य
लोग तथा वे ब्राह्मण भी उन महाभाग लोमशको आया देख उनके स्वागतके लिये उठकर
खड़े हो गये ।। १-२ ।।
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समभ्यर्च्य यथान्यायं धर्मपुत्रो युधिष्ठिर: ।
पप्रच्छागमने हेतुमटने च प्रयोजनम् ।। ३ ।।
धर्मनन्दन युधिष्ठिरने यथायोग्य उनका पूजन करके उन्हें आसनपर बिठाया और वहाँ
आने तथा वनमें घूमनेका प्रयोजन पूछा ।। ३ ।।
स पृष्ट: पाण्डुपुत्रेण प्रीयमाणो महामना: ।
उवाच श्लक्ष्णया वाचा हर्षयन्निव पाण्डवान् ।। ४ ।।
पाणए्डुपुत्र युधिष्ठिरके इस प्रकार पूछनेपर महामना महर्षि लोमश बड़े प्रसन्न हुए और
अपनी मधुर वाणीद्वारा पाण्डवोंका हर्ष बढ़ाते हुए-से बोले-- ।। ४ ।।
संचरजन्नस्मि कौन्तेय सर्वाल्लॉकान् यदृच्छया ।
गत: शक्रस्य भवन तत्रापश्य॑ सुरेश्वरम् ।। ५ ।।
“कुन्तीनन्दन! मैं यों ही इच्छानुसार सम्पूर्ण लोकोंमें विचरण करता हूँ। एक दिन मैं
इन्द्रके भवनमें गया और वहाँ देवराज इन्द्रसे मिला ।। ५ ।।
तव च भ्रातरं वीरमपश्यं सव्यसाचिनम् |
शक्रस्यार्धासनगतं तत्र मे विस्स्मयो महान् ।। ६ ।।
“वहाँ मैंने तुम्हारे वीर भ्राता सव्यसाची अर्जुनको भी देखा, जो इन्द्रके आधे
सिंहासनपर बैठे हुए थे। वहाँ उन्हें इस दशामें देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ ।। ६ ।।
आसीत् पुरुषशार्दूल दृष्टवा पार्थ तथागतम् |
आह मां तत्र देवेशो गच्छ पाण्डुसुतान् प्रति ।। ७ ।।
'पुरुषसिंह युधिष्ठिर! तुम्हारे भाई अर्जुनको इन्द्रके सिंहासनपर बैठा देख जब मैं
आश्चर्यचकित हो रहा था, उसी समय देवराज इन्द्रने मुझसे कहा--“मुने! तुम पाण्डवोंके
पास जाओ' ।। ७ ।।
सो5हमभ्यागतः क्षिप्रं दिदृक्षुस्त्वां सहानुजम् ।
वचनात् पुरुहृतस्य पार्थस्य च महात्मन: ।। ८ ।।
“उन इन्द्रके आदेशसे मैं भाइयोंसहित तुम्हें देखनेके लिये शीघ्रतापूर्वक यहाँ आया हूँ।
इसके लिये इन्द्रने तो मुझसे कहा ही था, महात्मा अर्जुनने भी अनुरोध किया था ।। ८ ।।
आख््यास्ये ते प्रियं तात महत् पाण्डवनन्दन ।
ऋषिभि: सहितो राजन् कृष्णया चैव तच्छूणु || ९ ।।
यत् त्वयोक्तो महाबाहुरस्त्रार्थ भरतर्षभ ।
तदस्त्रमाप्तं पार्थेन रुद्रादप्रतिमं विभो ।॥ १० ।।
“तात! पाण्डवोंको आनन्दित करनेवाले युधिष्छिर! मैं तुम्हें बड़ा प्रिय समाचार
सुनाऊँगा। राजन! तुम इन महर्षियों और द्रौपदीके साथ मेरी बात सुनो। भरतकुलभूषण
विभो! तुमने महाबाहु अर्जुनको दिव्यास्त्रोंकी प्राप्तिके लिये जो आदेश दिया था, उसके
विषयमें यह निवेदन करना है कि अर्जुनने भगवान् शंकरसे उनका अनुपम अस्त्र (पाशुपत)
प्राप्त कर लिया है ।। ९-१० ।।
यत् तद् ब्रह्मशिरों नाम तपसा रुद्रमागमत् ।
अमृतादुत्थितं रौद्रं तल्लब्धं सव्यसाचिना ।। ११ ।।
'जो ब्रह्मशिर नामक अस्त्र अमृतसे प्रकट होकर तपस्याके प्रभावसे भगवान् शंकरको
मिला था, वही पाशुपतास्त्र सव्यसाची अर्जुनने प्राप्त कर लिया है ।। ११ ।।
तत् समन्त्रं ससंहारं सप्रायश्रित्तमड्रलम् ।
वज्मस्त्राणि चान्यानि दण्डादीनि युधिष्ठिर || १२ ।।
'युधिष्ठिर! रुद्र देवताका वह वज्रके समान दुर्भद्य अस्त्र मन्त्र, उपसंहार, प्रायश्चित्त और
मंगलसहित अर्जुनने पा लिया है। साथ ही, दण्ड आदि अन्य अस्त्र भी उन्होंने हस्तगत कर
लिये हैं || १२ ।।
यमात् कुबेराद् वरुणादिन्द्राच्च कुरुनन्दन ।
अस्त्राण्यधीतवान् पार्थो दिव्यान्यमितविक्रम: ।। १३ ।।
“कुरुनन्दन! अमित पराक्रमी अर्जुनने यम, कुबेर, वरुण और इन्द्रसे दिव्यास्त्रोंका
अध्ययन किया है ।। १३ ।।
विश्वावसोस्तु तनयाद् गीत॑ नृत्यं च साम च ।
वादित्रं च यथान्यायं प्रत्यविन्दद् यथाविधि ।। १४ ।।
“इतना ही नहीं, उन्होंने विश्वावसुके पुत्रसे नृत्य, गीत, सामगान और वाद्यकलाकी भी
विधिपूर्वक यथोचित शिक्षा प्राप्त कर ली है ।। १४ ।।
एवं कृतास्त्र: कौन्तेयो गान्धर्व वेदमाप्तवान् ।
सुखं वसति बीभत्सुरनुजस्यानुजस्तव ।। १५ ।।
“इस प्रकार अस्त्रविद्यामें निपुणता प्राप्त करके कुन्तीकुमारने गान्धर्ववेद (संगीतविद्या)
को भी प्राप्त कर लिया है। अब तुम्हारे छोटे भाई भीमसेनके छोटे भाई अर्जुन वहाँ बड़े
सुखसे रह रहे हैं ।। १५ ।।
यदर्थ मां सुरश्रेष्ठ इंदे वचनमत्रवीत् ।
तच्च ते कथयिष्यामि युधिछ्विर निबोध मे ।। १६ ।।
'युधिष्ठिर! देवश्रेष्ठ इन्द्रने मुझसे तुम्हारे लिये जो संदेश कहा था, उसे अब तुम्हें बता
रहा हूँ, सुनो |। १६ ।।
भवान् मनुष्यलोकेडपि गमिष्यति न संशय: ।
ब्रूयाद् युधिष्ठिरं तत्र वचनान्मे द्विजोत्तम ।। १७ ।।
आगमिष्यति ते भ्राता कृतास्त्र: क्षिप्रमर्जुन: ।
सुरकार्य महत् कृत्वा यदशकक््यं दिवौकसाम् ।। १८ ।।
तपसापि त्वमात्मानं योजय भ्रातृभिः सह |
तपसो हि परं नास्ति तपसा विन्दते महत् ।। १९ ।।
“उन्होंने मुझसे कहा--द्विजोत्तम! इसमें संदेह नहीं कि आप घूमते-घामते मनुष्यलोकमें
भी जायूँगे; अतः मेरे अनुरोधसे आप राजा युधिष्ठिरके पास जाकर यह बात कह दीजियेगा
--'राजन! तुम्हारे भाई अर्जुन अस्त्र-विद्यामें निपुण हो चुके हैं। अब वे देवताओंका एक
बहुत बड़ा कार्य, जिसे देवता स्वयं नहीं कर सकते, सिद्ध करके शीघ्र तुम्हारे पास आ
जायँगे; तबतक तुम भी अपने भाइयोंके साथ स्वयंको तपस्यामें लगाओ; क्योंकि तपस्यासे
बढ़कर दूसरा कोई साधन नहीं है। तपस्यासे महान् फलकी प्राप्ति होती है ।। १७--१९ ।।
अहं च कर्ण जानामि यथावद् भरतर्षभ |
सत्यसंधं महोत्साहं महावीर्य महाबलम् ।। २० ।।
“भरतश्रेष्ठ! मैं कर्णको अच्छी तरह जानता हूँ। वह सत्यप्रतिज्ञ, अत्यन्त उत्साही,
महापराक्रमी और महाबली है ।। २० ।।
महाहवेष्वप्रतिमं महायुद्धविशारदम् ।
महाथनुर्धरं वीरं महास्त्रं वरवर्णिनम् ।। २१ ।।
महेश्वरसुतप्रख्यमादित्यतनयं प्रभुम् ।
तथार्जुनमतिस्कन्दं सहजोल्बणपौरुषम् ।। २२ ।।
न स पार्थस्य संग्रामे कलामहति षोडशीम् |
यच्चापि ते भयं कर्णान्मनसिस्थमरिंदम ।। २३ |।
तच्चाप्यपहरिष्यामि सव्यसाचिन्युपागते ।
यच्च ते मानसं वीर तीर्थयात्रामिमां प्रति ।
स महर्षिलोमशस्ते कथयिष्यत्यसंशयम् ।। २४ ।।
“बड़े-बड़े संग्रामोंमें उसकी समानता करनेवाला कोई नहीं है। वह महान् युद्धविशारद,
महाधनुर्धर, अस्त्र-शस्त्रोंका महान ज्ञाता, श्रेष्ठ, सुन्दर महेश्वरपुत्र कार्तिकेयके समान
पराक्रमी, सूर्यदेवताका पुत्र और शक्तिशाली वीर है। इसी प्रकार मैं अर्जुनको भी जानता हूँ।
वह कार्तिकेयसे भी बढ़कर है, उसमें स्वभावसे ही दुःसह पुरुषार्थ भरा हुआ है। युद्धमें कर्ण
अर्जुनकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं है। शत्रुदमन! तुम्हारे मनमें जिस बातको लेकर
कर्णसे भय बना रहता है, मैं अर्जुनके लौटनेपर तुम्हारे उस भयको भी दूर कर दूँगा।
वीरवर! तीर्थयात्राके विषयमें जो तुम्हारा मानसिक संकल्प है, उसके विषयमें महर्षि लोमश
निश्चय ही तुमसे सब कुछ बतावेंगे ।।
यच्च किंचित् तपोयुक्त फल॑ तीर्थेषु भारत ।
ब्रद्मर्षिरिष ब्रूयात् ते तच्छुद्धेयं न चान्यथा ।। २५ ।।
“भरतनन्दन! तीर्थोंमें जो कुछ तपस्यायुक्त फल प्राप्त होता है, वह सब ये ब्रह्मर्षि
लोमश तुम्हें बतायेंगे, तुम्हें उसपर विश्वास करना चाहिये। उसमें अन्यथाबुद्धि नहीं करनी
चाहिये” ।। २५ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशसंवादे एकनवतितमो<ध्याय: ।।
९१ ||
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपववके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें युधिष्ठटिरलोमश-संवादविषयक
इक्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ९१ ॥
#८2:8 #:23:.:7 (0) मपिटम अा८्
द्विनवतितमो< ध्याय:
महर्षि लोमशके मुखसे इन्द्र और अर्जुनका संदेश सुनकर
युधिष्ठिरका प्रसन्न होना और तीर्थयात्राके लिये उद्यत हो
अपने अधिक साथियोंको विदा करना
लोमश उवाच
धनंजयेन चाप्युक्त यत् तच्छृूणु युधिष्ठिर ।
युधिष्टिरं भ्रातरं मे योजयेर्धर्म्यया श्रिया ।। १ ।।
त्वं हि धर्मान् परान् वेत्थ तपांसि च तपोधन ।
श्रीमतां चापि जानासि धर्म राज्ञां सनातनम् ॥। २ ।।
लोमश मुनि कहते हैं--युधिष्ठिर! जब मैं आने लगा, तब अर्जुनने भी मुझसे जो बात
कही थी, वह सुनो। वे बोले--'तपोधन! आप मेरे बड़े भैया युधिष्ठिरको धर्मानुकूल
राजलक्ष्मीसे संयुक्त कीजिये। आप उत्कृष्ट धर्मों और तपस्याओंको जानते हैं। श्रीसम्पन्न
राजाओंका जो सनातनधर्म है, उसका भी आपको पूर्ण ज्ञान है || १-२ ।।
स भवान् परम॑ वेद पावन पुरुषं प्रति ।
तेन संयोजयेथास्त्वं तीर्थपुण्येन पाण्डवान् ।। ३ ।।
“पुरुषको पवित्र बनानेवाला जो उत्तम साधन है, उसे आप जानते हैं। अतः आप
पाण्डवोंको तीर्थयात्रा-जनित पुण्यसे सम्पन्न कीजिये ।। ३ ।।
यथा तीर्थानि गच्छेत गाश्न दद्यात् स पार्थिव: ।
तथा सर्वात्मना कार्यमिति मामर्जुनो5ब्रवीत् ।। ४ ।।
“महाराज युधिष्ठिर जिस प्रकार तीर्थो्में जायँ और वहाँ गोदान करें, वैसा सब प्रकारसे
प्रयत्न कीजियेगा।” यह बात अर्जुनने मुझसे कही थी ।। ४ ।।
भवता चानुगुप्तोडसौ चरेत् तीर्थानि सर्वश: ।
रक्षोभ्यो रक्षितव्यश्न दुर्गेषु विषमेषु च ।। ५ ।।
उन्होंने यह भी कहा--“महाराज युधिष्ठिर आपसे सुरक्षित रहकर सब तीर्थोमें विचरण
करें। दुर्गग स्थानों और विषम अवसरोंमें आप राक्षसोंसे उनकी रक्षा करें ।।
दधीच इव देवेन्द्र यथा चाप्यड्धिरा रविम्
तथा रक्षस्व कौन्तेयान् राक्षसेभ्यो द्विजोत्तम ।। ६ ।।
'द्विजश्रेष्ठ! जैसे दधीचने देवराज इन्द्रकी और महर्षि अंगिराने सूर्यकी रक्षा की है, उसी
प्रकार आप राक्षसोंसे कुन्तीकुमारोंकी रक्षा कीजिये” ।। ६ ।।
यातुधाना हि बहवो राक्षसा: पर्वतोपमा: ।
त्वयाभिगुप्तं कौन्तेयं न विवर्तेयुरन्तिकम् ।। ७ ।।
“बहुत-से पिशाच तथा राक्षस, जो पर्वतोंके समान विशालकाय हैं, आपसे सुरक्षित
राजा युधिष्ठिरके पास नहीं आ सकेंगे” ।। ७ ।।
सो5हमिन्द्रस्य वचनान्नियोगादर्जुनस्य च |
रक्षमाणो भयेभ्यस्त्वां चरिष्यामि त्वया सह ।। ८ ।।
राजन! इस प्रकार मैं इन्द्रके कथन और अर्जुनके अनुरोधसे सब प्रकारके भयसे
तुम्हारी रक्षा करते हुए तुम्हारे साथ-साथ तीर्थोमें विचरण करूँगा ।। ८ ।।
द्विस्तीर्थानि मया पूर्व दृष्टानि कुरुनन्दन ।
इदं तृतीयं द्रक्ष्यामि तान्येव भवता सह ।। ९ ।।
कुरुनन्दन! पहले दो बार मैंने सब तीर्थोंके दर्शन कर लिये; अब तीसरी बार तुम्हारे
साथ पुनः उनका दर्शन करूँगा ।। ९ ।।
इयं राजर्षिभियता पुण्यकृद्धिर्युधिष्ठिर ।
मन्वादिभिम्महाराज तीर्थयात्रा भयापहा ।। १० ।।
महाराज युधिष्ठिर! यह तीर्थयात्रा सब प्रकारके भयका नाश करनेवाली है। मनु आदि
पुण्यात्मा राजर्षियोंने इस तीर्थयात्रारूपी धर्मका पालन किया है ।। १० ।।
नानजुर्नाकृतात्मा च नाविद्यो न च पापकृत्
स्नाति तीर्थेषु कौरव्य न च वक्रमतिर्नर: ।। ११ ।।
कुरुनन्दन! जो सरल नहीं है, जिसने अपने मन और इन्द्रियोंको वशमें नहीं किया है,
जो विद्याहीन और पापात्मा है तथा जिसकी बुद्धि कुटिलतासे भरी हुई है, ऐसा मनुष्य
(श्रद्धा न होनेके कारण) तीर्थोंमें स्नान नहीं करता ।। ११ ।।
त्वं तु धर्ममतिर्नित्यं धर्मज्ञ: सत्यसंगर: ।
विमुक्त: सर्वसड्भेभ्यो भूय एव भविष्यसि ।। १२ ।।
तुम तो सदा धर्ममें मन लगाये रखनेवाले, धर्मज्ञ, सत्यप्रतिज्ञ और सब प्रकारकी
आसक्तियोंसे शून्य हो और आगे भी तुममें अधिकाधिक इन गुणोंका विकास होगा ।।
यथा भगीरथो राजा राजानश्न गयादय: ।
यथा ययाति: कौन्तेय तथा त्वमपि पाण्डव ।। १३ ।।
कुन्तीकुमार पाण्डुनन्दन! जैसे राजा भगीरथ हो गये हैं, जैसे गय आदि राजर्षि हो चुके
हैं तथा जैसे महाराज ययाति हुए हैं, वैसे ही तुम भी विख्यात हो ।।
युधिछिर उवाच
न हर्षात् सम्प्रपश्यामि वाक्यस्यास्योत्तरं क्वचित् |
स्मरेद्धि देवराजो यं को नामाभ्यधिकस्तत: ।। १४ ।।
युधिष्ठिर बोले--महर्ष! आपके दर्शन और आपकी बातोंके सुननेसे मुझे इतना
अधिक हर्ष हुआ है कि मुझे इन वचनोंका कोई उत्तर नहीं सूझता। देवराज इन्द्र जिसका
स्मरण करते हों उससे बढ़कर इस संसारमें कौन है? ।।
भवता संगमो यस्य भ्राता चैव धनंजय: ।
वासव: स्मरते यस्य को नामाभ्यधिकस्तत: ।। १५ ।।
जिसे आपका संग प्राप्त हो, जिसके अर्जुन-जैसा भाई हो और जिसे इन्द्र याद करते
हों, उससे बढ़कर सौभाग्यशाली और कौन है? ।॥। १५ ।।
यच्च मां भगवानाह तीर्थानां दर्शन प्रति ।
धौम्यस्य वचनादेषा बुद्धि: पूर्व कृतेव मे ।। १६ ।।
भगवन्! आपने मुझे तीर्थोंके दर्शनके लिये जो उत्साह प्रदान किया है, वह ठीक है।
मैंने पहलेसे ही धौम्यजीके आदेशसे तीर्थोमें जानेका विचार कर रखा है ।।
तद् यदा मन्यसे ब्रह्मन् गमन तीर्थदर्शने
तदैव गन्तास्मि तीर्थान्यिष मे निश्चय: पर: ।। १७ ।।
अतः ब्रह्म! आप जब ठीक समझें तभी मैं तीर्थोंके दर्शनके लिये चल दूँगा; यही मेरा
अन्तिम निश्चय है ।। १७ ।।
वैशम्पायन उवाच
गमने कृतबुद्धि तु पाण्डवं लोमशो<ब्रवीत् |
लघुर्भव महाराज लघु: स्वैरं गमिष्यसि ॥। १८ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तीर्थयात्राके लिये जिन्होंने निश्चित विचार कर
लिया था, उन पाण्डु-नन्दन युधिष्ठिरसे महर्षि लोमशने कहा--“महाराज! लोकसमूहसे आप
हलके हो जाइये--थोड़े ही लोगोंको साथ रखिये; क्योंकि थोड़े संगी-साथी होनेपर आप
इच्छानुसार सर्वत्र जा सकेंगे || १८ ।।
युधिछिर उवाच
भिक्षाभुजो निवर्तन्तां ब्राह्मणा यतयश्न ये ।
क्षुत्तृडध्वश्रमायासशीतार्तिमसहिष्णव: ।। १९ ||
युधिष्ठिर बोले--जो भिक्षाभोजी ब्राह्मण और संन्यासी हैं तथा जो भूख-प्यास,
परिश्रम-थकावट और सर्दीकी पीड़ा सहन न कर सकें, उन्हें लौट जाना चाहिये || १९ |।
ते सर्वे विनिवर्तन्तां ये च मिष्टभुजो द्विजा: ।
पक््वान्नलेहापानानां मांसानां च विकल्पका: ॥। २० ।।
जो द्विज मिष्टान्नभोजी हैं वे भी लौट जायँ। जो पक्वान्न, चटनी, पेय पदार्थ और मांस
आदि खानेवाले मनुष्य हों, वे भी लौट जायूँ ।। २० ।।
तेडपि सर्वे निवर्तन्तां ये च सूदानुयायिन: ।
मया यथोचिताजीव्यै: संविभक्ताश्न वृत्तिभि: ।। २१ ।।
जो लोग रसोइयोंकी अपेक्षा रखनेवाले हैं तथा जिन्हें मैंने अलग-अलग बाँटकर उचित-
उचित आजीविकाकी व्यवस्था कर दी है, वे सब लोग घर लौट जायेँ ।। २१ ।।
ये चाप्यनुरता: पौरा राजभक्तिपुर:सरा: ।
धृतराष्ट्र महाराजमभिगच्छन्तु ते च वै ।। २२ ।।
स दास्यति यथाकालमुचिता यस्य या भृति: ।
स चेद् यथोचितां वृत्तिं न दद्यान्मनुजेश्वर: ।। २३ ।।
अस्मत्प्रियहितार्थाय पाज्चाल्यो व: प्रदास्यति ।। २४ ।।
जो पुरवासी राजभक्तिवश मेरे पीछे-पीछे चले आये हैं, वे अब महाराज धूृतराष्ट्रके पास
चले जायँ। वे उनके लिये यथासमय समुचित आजीविका प्रदान करेंगे। यदि राजा धृतराष्ट्र
उचित जीविकाकी व्यवस्था न करें तो पांचालनरेश ट्रुपद हमारा प्रिय और हित करनेके लिये
अवश्य आपलोगोंको जीविका देंगे || २२--२४ ।।
वैशमग्पायन उवाच
ततो भूयिष्ठश: पौरा गुरुभारप्रपीडिता: ।
विप्राश्न॒ यतयो मुख्या जम्मुर्नागपुरं प्रति | २५ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तब बहुत-से नागरिक, ब्राह्मण और यति
मानसिक दु:खके भारी भारसे पीड़ित हो हस्तिनापुरको चले गये ।। २५ ।।
तान् सर्वान् धर्मराजस्य प्रेम्णा राजाम्बिकासुत: ।
प्रतिजग्राह विधिवद् धनैश्व समतर्पयत् ।। २६ ।।
अम्बिकानन्दन राजा धुृतराष्ट्रने धर्मराज युधिष्ठिरके स्नेहवश उन सबको विधिपूर्वक
अपनाया और उन्हें धन देकर तृप्त किया ।। २६ ।।
ततः कुन्तीसुतो राजा लघुभिन्रह्णै: सह ।
लोमशेन च सुप्रीतस्त्रिरात्रं काम्यकेडवसत् ।। २७ ।।
तदनन्तर कुन्तीनन्दन राजा युधिष्छिर थोड़े-से ब्राह्मणों और लोमशजीके साथ अत्यन्त
प्रसन्नतापूर्वक तीन राततक काम्यक वनमें टिके रहे || २७ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां
द्विनवतितमो<ध्याय: ।। ९२ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्चमें लोमशतीर्थयात्राविषयक
बानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ९२ ॥
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त्रिनवतितमो<्थ्याय:
ऋषियोंको नमस्कार करके पाण्डवोंका तीर्थयात्राके लिये
विदा होना
वैशम्पायन उवाच
ततः प्रयान्तं कौन्तेयं ब्राह्मणा वनवासिन: ।
अभिगम्य तदा राजन्निदं वचनमन्रुवन् ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन! कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरको तीर्थयात्राके लिये उद्यत जान
काम्य-कवनके निवासी ब्राह्मण उनके निकट आकर इस प्रकार बोले-- ।। १ ।।
राजंस्तीर्थानि गन्तासि पुण्यानि भ्रातृभि: सह ।
ऋषिणा चैव सहितो लोमशेन महात्मना ।। २ ।।
“महाराज! आप अपने भाइयों तथा महात्मा लोमश मुनिके साथ पुण्यतीर्थोंमें जानेवाले
हैं ।। २ ।।
अस्मानपि महाराज नेतुमरहसि पाण्डव ।
अस्माभिहिं न शक्यानि त्वदृते तानि कौरव ।। ३ ।।
“कुरुकुलतिलक पाण्डुनन्दन! हमें भी अपने साथ ले चलें। महाराज! आपके बिना
हमलोग उन तीथर्थोंकी यात्रा नहीं कर सकते ।। ३ ।।
श्वापदेरुपसृष्टानि दुर्गाणि विषमाणि च ।
अगम्यानि नरैरल्पैस्तीर्थानि मनुजेश्वर ।। ४ ।।
“मनुजेश्वर! वे सभी तीर्थ हिंसक जन्तुओंसे भरे पड़े हैं। दुर्गण और विषम भी हैं। थोड़े
से मनुष्य वहाँकी यात्रा नहीं कर सकते ।। ४ ।।
भवतो भ्रातर: शूरा धनुर्धरवरा: सदा |
भवद्धिः पालिता: शूरैर्गच्छामो वयमप्युत ।। ५ ।।
“आपके भाई शूरवीर हैं और सदा श्रेष्ठ धनुष धारण किये रहते हैं। आप-जैसे शूरवीरोंसे
सुरक्षित होकर हम भी उन तीर्थोंकी यात्रा पूरी कर लेंगे ।। ५ ।।
भवत्प्रसादाद्धि वयं प्राप्रुयाम सुखं फलम् |
तीर्थानां पृथिवीपाल वनानां च विशाम्पते ।। ६ ।।
'भूपाल! प्रजानाथ! आपके प्रसादसे हमलोग भी उन तीर्थों और वनोंकी यात्राका फल
अनायास ही पा लेंगे ।। ६ ।।
तव वीर्यपरित्राता: शुद्धास्तीर्थपरिप्लुता: ।
भवेम धूतपाप्मानस्तीर्थसंदर्शनान्नप ।। ७ ।।
“नरेश्वरर आपके बल-पराक्रमसे सुरक्षित हो हम भी तीर्थोमें स्नान करके शुद्ध हो
जायँगे और उन तीर्थोंके दर्शनसे हमारे सब पाप धुल जायूँगे ।। ७ ।।
भवानपि नरेन्द्रस्य कार्तवीर्यस्थ भारत ।
अष्टकस्य च राजर्षेलॉमपादस्य चैव ह ।। ८ ।।
भरतस्य च वीरस्य सार्वभौमस्य पार्थिव ।
ध्रुव॑ प्राप्स्यसि दुष्प्रापाललोकांस्तीर्थपरिप्लुत: ।। ९ ।।
'भूपाल! भरतनन्दन! आप भी तीर्थोमें नहाकर राजा कार्तवीर्य अर्जुन, राजर्षि अष्टक,
लोमपाद और भूमण्डलमें सर्वत्र विदित सम्राट् वीरवर भरतको मिलनेवाले दुर्लभ लोकोंको
अवश्य प्राप्त कर लेंगे ।। ८-९ ।।
प्रभासादीनि तीर्थानि महेन्द्रादीं श्ष॒ पर्वतान्
गज्ाद्या: सरितश्लैव प्लक्षादींश्व॒ वनस्पतीन् ।। १० ।।
त्वया सह महीपाल द्रष्टमिच्छामहे वयम् ।
यदि ते ब्राह्मणेष्वस्ति काचित् प्रीतिर्जनाधिप ।। ११ ।।
कुरु क्षिप्रं वचो5स्माकं तत: श्रेयोडभिपत्स्यसे ।
“महीपाल! प्रभास आदि तीथर्थों, महेन्द्र आदि पर्वतों, गंगा आदि नदियों तथा प्लक्ष
आदि वृक्षोंका हम आपके साथ दर्शन करना चाहते हैं। जनेश्वर! यदि आपके मनमें
ब्राह्मणोंके प्रति कुछ प्रेम है तो आप हमारी बात शीघ्र मान लीजिये; इससे आपका कल्याण
होगा || १०-११ ६ ||
तीर्थानि हि महाबाहो तपोविघ्नकरै: सदा ।। १२ ।।
अनुकीणर्णानि रक्षोभिस्तेभ्यो नस्त्रातुमरहसि ।
“महाबाहो! तपस्यामें विघ्न डालनेवाले बहुत-से राक्षस उन तीथ्थोंमें भरे पड़े हैं, उनसे
आप हमारी रक्षा करनेमें समर्थ हैं' | १२३ ।।
तीर्थान्युक्तानि धौम्येन नारदेन च धीमता ।। १३ ।।
यान्युवाच च देवर्षिलोमश: सुमहातपा: ।
विधिवत् तानि सर्वाणि पर्यटस्व नराधिप ।। १४ ।।
धूतपाप्मा सहास्माभिलोंमशेनाभिपालित: ।
“नरेश्वर! आप पापरहित हैं, धौम्य मुनि, परम बुद्धिमान् नारदजी तथा महातपस्वी
देवर्षि लोमशने जिन-जिन तीर्थोंका वर्णन किया है, उन सबमें आप महर्षि लोमशजीसे
सुरक्षित हो हमारे साथ विधिपूर्वक भ्रमण करें” ।। १३-१४ $ ।।
स राजा पूज्यमानस्तैहर्षादश्रुपरिप्लुत: ।। १५ ।।
भीमसेनादिभिरवर्वरिर््रातृभि: परिवारित: ।
बाढमित्यब्रवीत् सर्वास्तानृषीन् पाण्डवर्षभ: ।। १६ ।।
लोमशं समनुज्ञाप्य धौम्यं चैव पुरोहितम् ।
पाण्डवश्रेष्ठ युधिष्ठिर अपने वीर भ्राता भीमसेन आदिसे घिरकर खड़े थे। उन
ब्राह्मणोंद्वारा इस प्रकार सम्मानित होनेपर उनके नेत्रोंमें हर्षके आँसू भर आये। उन्होंने
देवर्षि लोमश तथा पुरोहित धौम्यजीकी आज्ञा लेकर उन सब ऋषियोंसे “बहुत अच्छा'
कहकर उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया || १५-१६ ३६ ।।
ततः स पाण्डवश्रेष्ठो भ्रातृभि: सहितो वशी ।। १७ ।।
द्रौपद्या चानवद्याड़्या गमनाय मनो दधे ।
तदनन्तर मन-इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले पाण्डवश्रेष्ठ युधिष्ठिरने भाइयों तथा सुन्दर
अंगोंवाली द्रौपदीके साथ यात्रा करनेका मन-ही-मन निश्चय किया ।। १७३६ ।।
अथ व्यासो महाभागस्तथा पर्वतनारदौ ।। १८ ।।
काम्यके पाण्डवं द्रष्ट समाजग्मुर्मनीषिण: ।
तेषां युधिष्ठिरो राजा पूजां चक्रे यथाविधि ।
सत्कृतास्ते महाभाग युधिष्ठिरमथाब्रुवन् ।। १९ ।।
इतनेहीमें महाभाग व्यास, पर्वत और नारद आदि मनीषीजन काम्यकवनमें पाण्डुनन्दन
युधिष्ठिससे मिलनेके लिये आये। राजा युधिष्ठिरने उनकी विधिपूर्वक पूजा की। उनसे सत्कार
पाकर वे महाभाग महर्षि महाराज युधिष्ठिरसे इस प्रकार बोले || १८-१९ ।।
ऋषय ऊचु:
युधिष्ठिर यमौ भीम मनसा कुरुतार्जवम् |
मनसा कृतशौचा वै शुद्धास्तीर्थानि यास्यथ ।। २० ।।
ऋषियोंने कहा--युधिष्ठिर! भीमसेन! नकुल! और सहदेव! तुमलोग तीथ्थोंके प्रति
मनसे श्रद्धापूर्वक सरलभाव रखो। मनसे शुद्धिका सम्पादन करके शुद्धचित्त होकर तीथोॉमें
जाओ ।। २० ||
शरीरनियमं प्राहुब्राह्मिणा मानुषं व्रतम् ।
मनोविशुद्धां बुद्धि च दैवमाहुर्त्रतं द्विजा: ।। २१ ।।
ब्राह्मणलोग शरीर-शुद्धिके नियमको “मानुषव्रत” बताते हैं और मनके द्वारा शुद्ध की
हुई बुद्धिको 'दैवव्रत' कहते हैं || २१ ।।
मनो हादुष्टं शौचाय पर्याप्तं वै नराधिप ।
मैत्रीं बुद्धिं समास्थाय शुद्धास्तीर्थानि द्रक्ष्यथ ।। २२ ।।
नरेश्वर! यदि मन राग-द्वेषसे दूषित न हो तो वह शुद्धिके लिये पर्याप्त माना गया है।
सब प्राणियोंके प्रति मैत्री-बुद्धिका आश्रय ले शुद्धभावसे तीर्थोंका दर्शन करो || २२ ।।
ते यूयं मानसै: शुद्धा: शरीरनियमव्रतै: ।
दैव॑ं ब्रत॑ं समास्थाय यथोक्तं फलमाप्स्यथ ।। २३ ।।
तुम मानसिक और शारीरिक नियमत्रतोंसे शुद्ध हो। दैवव्रतका आश्रय ले यात्रा करोगे
तो तीर्थोंका तुम्हें यथावत् फल प्राप्त होगा || २३ ।।
ते तथेति प्रतिज्ञाय कृष्णया सह पाण्डवा: ।
कृतस्वस्त्ययना: सर्वे मुनिभिर्दिव्यमानुषै: ।। २४ ।।
महर्षियोंके ऐसा कहनेपर द्रौपदीसहित पाण्डवोंने “बहुत अच्छा” कहकर (उनकी
आज्ञाएँ शिरोधार्य कीं और उनके बताये हुए नियमोंका पालन करनेकी) प्रतिज्ञा की।
तत्पश्चात् उन दिव्य और मानव महर्षियोंने उन सबके लिये स्वस्तिवाचन किया ।। २४ ।।
लोमशस्योपसंगृहा[ पादौ द्वैपायनस्य च ।
नारदस्य च राजेन्द्र देवर्षे: पर्वतस्य च ।। २५ ।।
धौम्येन सहिता वीरास्तथा तैर्वनवासिभि: ।
मार्गशीर्ष्पामतीतायां पुष्येण प्रययुस्तत: ।। २६ ।।
राजेन्द्र! तदनन्तर महर्षि लोमश, द्वैपायन व्यास, देवर्षि नारद और पर्वतके चरणोंका
स्पर्श करके वनवासी ब्राह्मणों, पुरोहित धौम्य और लोमश आदिके साथ वीर पाण्डव
तीर्थयात्राके लिये निकले। मार्गशीर्षकी पूर्णिमा व्यतीत होनेपर जब पुष्य नक्षत्र आया तब
उसी नक्षत्रमें उन्होंने यात्रा प्रारम्भ की || २५-२६ ।।
कठिनानि समादाय चीराजिनजटाधरा: ।
अभेद्यै: कवचैरयुक्तास्तीर्थान्यन्वचरंस्तत: ।। २७ ।।
उन सबने शरीरपर फटे-पुराने वस्त्र या मृगचर्म धारण कर रखे थे। उनके मस्तकपर
जटाएँ थीं। उनके अंग अभेद्य कवचोंसे ढके हुए थे। वे सूर्यप्रदत्त बटलोई आदि पात्र लेकर
वहाँ तीर्थोमें विचरण करने लगे ।। २७ ।।
इन्द्रसेनादिभिर्भुत्यै रथै: परिचतुर्दशै: ।
महानस्व्यापृतैश्न तथान्यै: परिचारकै: ।। २८ ।।
उनके साथ इन्द्रसेन आदि चौदहसे अधिक सेवक रथ लिये पीछे-पीछे जा रहे थे।
रसोईके काममें संलग्न रहनेवाले अन्यान्य सेवक भी उनके साथ थे ।। २८ ।।
सायुधा बद्धनिस्त्रिंशास्तूणवन्त: समार्गणा: ।
प्राडमुखा: प्रययुर्वीरा: पाण्डवा जनमेजय ।। २९ ।।
जनमेजय! वीर पाण्डव आवश्यक अस्त्र-शस्त्र ले कमरमें तलवार बाँधकर पीठपर
तरकस कसे हुए हाथोंमें बाण लिये पूर्वदिशाकी ओर मुँह करके वहाँसे प्रस्थित
हुए ।। २९ ||
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां
त्रिनवतितमो<5ध्याय: ।। ९३ ।।
इस प्रकार श्रीमह्ाा भारत वनप्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशतीर्थयात्राविषयक
तिरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ९३ ॥।
#::3:.8 #::3:..7 (0) हि २ 7
चतुर्नवतितमो< ध्याय:
देवताओं और धर्मात्मा राजाओंका उदाहरण देकर महर्षि
लोमशका युधिष्ठिरको अधर्मसे हानि बताना और
तीर्थयात्राजनित पुण्यकी महिमाका वर्णन करते हुए
आश्वासन देना
युधिछिर उवाच
न वै निर्गुणमात्मानं मन्ये देवर्षिसत्तम ।
तथास्मि दुःखसंतप्तो यथा नान्यो महीपति: ।। १ ।।
युधिष्ठिर बोले--देवर्षिप्रवर लोमश! मेरी समझसे मैं अपनेको सात्त्विक गुणोंसे हीन
नहीं मानता तो भी दु:ःखोंसे इतना संतप्त होता रहता हूँ जितना दूसरा कोई राजा नहीं हुआ
होगा ।। १ ।।
परांश्व निर्गुणान् मनन््ये न च धर्मगतानपि ।
ते च लोमश लोकेऊस्मिन्नृध्यन्ते केन हेतुना ।। २ ।।
इसके सिवा, दुर्योधनादि शत्रुओंको सात्त्विक गुणोंसे रहित समझता हूँ। साथ ही यह
भी जानता हूँ कि वे धर्म-परायण नहीं हैं तो भी वे इस लोकमें उत्तरोत्तर समृद्धिशाली होते
जा रहे हैं, इसका क्या कारण है? ।। २ ।।
लोगश उवाच
नात्र दुःखं त्वया राजन् कार्य पार्थ कथंचन ।
यदधर्मेण वर्धेयुरधर्मरुचयो जना: ।। ३ ।।
लोमशजीने कहा--राजन्! कुन्तीनन्दन! अधर्ममें रुचि रखनेवाले लोग यदि उस
अधर्मके द्वारा बढ़ रहे हों तो इसके लिये तुम्हें किसी प्रकार दुःख नहीं मानना
चाहिये ।। ३ ।।
वर्धत्यधर्मेण नरस्ततो भद्राणि पश्यति ।
ततः सपत्नाज्जयति समूलस्तु विनश्यति ।। ४ ।।
पहले अधर्मद्वारा मनुष्य बढ़ सकता है, फिर अपने मनो5नुकूल सुख-सम्पत्तिरूप
अभ्युदयको देख सकता है, तत्पश्चात् वह शत्रुओंपर विजय पा सकता है और अन्तमें जड़
मूलसहित नष्ट हो जाता है || ४ ।।
मया हि दृष्टा दैतेया दानवाश्न महीपते ।
वर्धमाना ह्ुधर्मेण क्षयं चोपगता: पुन: ।। ५ ।।
महीपाल! मैंने दैत्यों और दानवोंको अधर्मके द्वारा बढ़ते और पुनः नष्ट होते भी देखा
है ।। ५ |।
पुरा देवयुगे चैव दृष्टं सर्व मया विभो ।
अरोचयनू् सुरा धर्म धर्म तत्यजिरेडसुरा: ।। ६ ।।
प्रभो! पहले देवयुगमें ही मैंने यह सब अपनी आँखों देखा है। देवताओंने धर्मके प्रति
अनुराग किया और असुरोंने उसका परित्याग कर दिया ।। ६ |।
तीर्थानि देवा विविशुर्नाविशन् भारतासुरा: ।
तानधर्मकृतो दर्प: पूर्वमेव समाविशत् ।। ७ ।।
भरतनन्दन! देवताओंने स्नानके लिये तीर्थोमें प्रवेश किया, परंतु असुर उनमें नहीं गये।
अधर्मजनित दर्प असुरोंमें पहलेसे ही समा गया था ।। ७ ।।
दर्पान्मान: समभवन्मानात् क्रोधो व्यजायत ।
क्रोधादह्वीस्ततो5लज्जा वृत्तं तेषां ततोडनशत् ।। ८ ।।
दर्पसे मान हुआ और मानसे क्रोध उत्पन्न हुआ। क्रोधसे निर्लज्जता आयी और
निर्लज्जताने उनके सदाचारको नष्ट कर दिया || ८ ।।
तानलज्जान् गतद्वलीकान् हीनवृत्तान् वृथाव्रतान् |
क्षमा लक्ष्मी: स्वधर्मश्व न चिरात् प्रजहुस्ततः ।। ९ ।।
लक्ष्मीस्तु देवानगमदलक्ष्मीरसुरान् नृप ।
तानलक्ष्मीसमाविष्टान् दर्पोपहतचेतस: ।। १० |।
दैतेयान् दानवांश्नैव कलिरप्याविशत् ततः ।
तानलक्ष्मीसमाविष्टान् दानवान् कलिना हतान् ।। ११ ।।
दर्पाभिभूतान् कौन्तेय क्रियाहीनानचेतस: ।
मानाभिभूतानचिराद् विनाश: समपद्यत ।। १२ ।।
इस प्रकार लज्जा, संकोच और सदाचारसे हीन एवं निष्फल व्रतका आचरण करनेवाले
उन असुरोंको क्षमा, लक्ष्मी और स्वधर्मने शीघ्र त्याग दिया। राजन! लक्ष्मी देवताओंके पास
चली गयी और अलक्ष्मी असुरोंके यहाँ। अलक्ष्मीके आवेशसे युक्त होनेपर उनका चित्त दर्प
और अभिमानसे दूषित हो गया। उस दशामें उन दैत्यों और दानवोंमें कलिका भी प्रवेश हो
गया। जब वे दानव अलक्ष्मीसे संयुक्त, कलिसे तिरस्कृत और अभिमानसे अभिभूत हो
सत्कर्मोंसे शून्य, विवेकरहित और मानसे उन्मत्त हो गये, तब शीघ्र ही उनका विनाश हो
गया || ९--१२ ||
निर्यशस्कास्तथा दैत्या: कृत्स्नशो विलयं गता: ।
देवास्तु सागरांश्वैव सरितश्च॒ सरांसि च ।। १३ ।।
अभ्यगच्छन् धर्मशीला: पुण्यान्यायतनानि च ।
तपोभि: क्रतुभिदानिराशीवदिश्व॒ पाण्डव ।। १४ ।।
प्रजहुः सर्वपापानि श्रेयश्व प्रतिपेदिरे ।
एवमादानवन्तश्न निरादानाश्च सर्वश: ।। १५ ।।
तीर्थान्यगच्छन् विबुधास्तेनापुर्भूतिमुत्तमाम् ।
(यत्र धर्मेण वर्तन्ते राजानो राजसत्तम ।
सर्वान् सपत्नान् बाधनते राज्यं चैषां विवर्धते ।।)
तथा त्वमपि राजेन्द्र स्नात्वा तीर्थेषु सानुज: ।। १६ ।।
पुनर्वेत्स्यसि तां लक्ष्मीमेष पन्था: सनातन: ।
यशोहीन दैत्य पूर्णतः विनष्ट हो गये, किंतु धर्मशील देवताओंने पवित्र समुद्रों,
सरिताओं, सरोवरों और पुण्यप्रद आश्रमोंकी यात्रा की। पाण्डुनन्दन! वहाँ तपस्या, यज्ञ और
दान आदि करके महात्माओंके आशीर्वादसे वे सब पापोंसे मुक्त हो कल्याणके भागी हुए।
इस प्रकार उत्तम नियम ग्रहण करके किसीसे भी कोई प्रतिग्रह न लेकर देवताओंने तीर्थोमें
विचरण किया; इससे उन्हें उत्तम ऐश्वर्यकी प्राप्ति हुई। नृपश्रेष्ठ! जहाँ राजा धर्मके अनुसार
बर्ताव करते हैं वहाँ वे सब शत्रुओंको नष्ट कर देते हैं और उनका राज्य भी बढ़ता रहता है।
राजेन्द्र! इसलिये तुम भी भाइयोंसहित तीर्थोमें स्नान करके खोयी हुई राजलक्ष्मी प्राप्त कर
लोगे। यही सनातन मार्ग है ।। १३--१६ ३ ||
यथैव हि नूगो राजा शिबिरौशीनरो यथा ॥। १७ ।।
भगीरथो वसुमना गय: पूरु: पुरूरवा: ।
चरमाणास्तपो नित्य॑ स्पर्शनादम्भसक्ष ते ।। १८ ।।
तीर्थाभिगमनात् पूता दर्शनाच्च महात्मनाम् |
अलभन्त यश: पुण्यं धनानि च विशाम्पते ।। १९ ।।
तथा त्वमपि राजेन्द्र लब्धासि विपुलां श्रियम् ।
जैसे राजा नृग, उशीनरपुत्र शिबि, भगीरथ, वसुमना, गय, पूरु तथा पुरूरवा आदि
नरेशोंने सदा तपस्यापूर्वक तीर्थयात्रा करके वहाँके जलके स्पर्श और महात्माओंके दर्शनसे
पावन यश और प्रचुर धन प्राप्त किये थे; उसी प्रकार तुम भी तीर्थयात्राके पुण्यसे विपुल
सम्पत्ति प्राप्त कर लोगे । १७--१९ | ।।
यथा चेक्ष्वाकुरभवत् सपुत्रजनबान्धव: ।। २० ||
मुचुकुन्दो5थ मान्धाता मरुत्तश्न महीपति: ।
कीर्ति पुण्यामविन्दन्त यथा देवास्तपोबलात् ।। २१ ।।
देवर्षयश्न कार्त्स्न्येन तथा त्वमपि वेत्स्यसि ।
धार्रराष्ट्रास्त्वर्मेण मोहेन च वशीकृता: ।
न चिराद् वै विनड्क्ष्यन्ति दैत्या इव न संशय: ।॥ २२ ।।
जैसे पुत्र, सेवक तथा बन्धु-बान्धवोंसहित राजा इक्ष्वाकु, मुचुकुन्द, मान्धाता तथा
महाराज मरुत्तने पुण्यकीर्ति प्राप्त की थी, जैसे देवताओं और देवर्षियोंने तपोबलसे यश
और ऐश्वर्य प्राप्त किया था; उसी प्रकार तुम भी पूर्णरूपसे यश और धन-सम्पत्ति प्राप्त
करोगे। धृतराष्ट्रके पुत्र पाप और मोहके वशीभूत हैं; अतः वे दैत्योंकी भाँति शीघ्र नष्ट हो
जायँगे; इसमें संशय नहीं है ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां
चतुर्नवतितमो< ध्याय: ।। ९४ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्चमें लोमशतीर्थयात्राविषयक
चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ९४ ॥
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २३ श्लोक हैं)
हि आय न (0) हि २ 7
पञ्चनवतितमो< ध्याय:
पाण्डवोंका नैमिषारण्य आदि तीर्थोमें जाकर प्रयाग तथा
गयातीर्थमें जाना और गय राजाके महान् यज्ञोंकी महिमा
सुनना
वैशग्पायन उवाच
ते तथा सहिता वीरा वसन्तस्तत्र तत्र ह |
क्रमेण पृथिवीपाल नैमिषारण्यमागता: ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्! इस प्रकार वे वीर पाण्डव विभिन्न स्थानोंमें निवास
करते हुए क्रमश: नैमिषारण्यतीर्थमें आये || १ ।।
ततसस््तीर्थेषु पुण्येषु गोमत्या: पाण्डवा नृप ।
कृताभिषेका: प्रददुर्गाश्च॒ वित्त च भारत ।। २ ।।
भरतनन्दन! नरेश्वर! तदनन्तर गोमतीके पुण्य तीर्थोमें स्नान करके पाण्डवोंने वहाँ
गोदान और धनदान किया |।। २ ।।
तत्र देवान् पितृन् विप्रांस्तर्पयित्वा पुन: पुनः ।
कन्यातीर्थे5श्वतीर्थे च गवां तीर्थेच भारत ।
कालकोयट्यां वृषप्रस्थे गिरावुष्य च पाण्डवा: ।। ३ ।।
बाहुदायां महीपाल चक्र: सर्वेडभिषेचनम् ।
प्रयागे देवयजने देवानां पृथिवीपते ।। ४ ।।
ऊषुराप्लुत्य गात्राणि तपश्चातस्थुरुत्तमम् ।
गड्ायमुनयोश्रैव संगमे सत्यसंगरा: ।। ५ ।।
भारत! भूपाल! वहाँ देवताओं, पितरों तथा ब्राह्मणोंको बार-बार तृप्त करके
कन््यातीर्थ, अश्वतीर्थ, गोतीर्थ, कालकोटि तथा वृषप्रस्थगिरिमें निवास करते हुए उन सब
पाण्डवोंने बाहुदा नदीमें स्नान किया। पृथ्वीपते! तदनन्तर उन्होंने देवताओंकी यज्ञभूमि
प्रयागमें पहुँचकर वहाँ गंगा-यमुनाके संगममें स्नान किया। सत्यप्रतिज्ञ पाण्डव वहाँ स्नान
करके कुछ दिनोंतक उत्तम तपस्यामें लगे रहे || ३--५ ।।
विपाप्मानो महात्मानो वित्रेभ्य: प्रददुर्वसु ।
तपस्विजनजुष्टां च ततो वेदीं प्रजापते: ।। ६ ।।
जग्मु: पाण्डुसुता राजन् ब्राह्मणैः सह भारत ।
तत्र ते न््यवसन् वीरास्तपश्चातस्थुरुत्तमम् ।। ७ ।।
संतर्पयन्त: सततं वन्येन हविषा द्विजान् |
उन पापरहित महात्माओंने (त्रिवेणीतटपर) ब्राह्मणोंको धन दान किया। भरतनन्दन!
तत्पश्चात् पाण्डव ब्राह्मणोंके साथ ब्रह्माजीकी वेदीपर गये, जो तपस्वीजनोंसे सेवित है। वहाँ
उन वीरोंने उत्तम तपस्या करते हुए निवास किया। वे सदा कन्द-मूल-फल आदि वन्य
हविष्यद्वारा ब्राह्मणोंको तृप्त करते रहते थे ।। ६-७ ३ ।।
ततो महीधरं जम्मुर्थर्मज्षेनाभिसंस्कृतम् ।। ८ ।।
राजर्षिणा पुण्यकृता गयेनानुपमझ्ुते ।
अनुपम तेजस्वी जनमेजय! प्रयागसे चलकर पाण्डव पुण्यात्मा एवं धर्मज्ञ राजर्षि
गयके द्वारा यज्ञ करके शुद्ध किये हुए उत्तम पर्वतसे उपलक्षित गयातीर्थमें गये ।। ८३ ।।
नगो गयशिरो यत्र पुण्या चैव महानदी ।। ९ ।।
वानीरमालिनी रम्या नदी पुलिनशोभिता ।
जहाँ गयशिर नामक पर्वत और बेंतकी पंक्तियोंसे घिरी हुई रमणीय महानदी है, जो
अपने दोनों तटोंसे विशेष शोभा पाती है ।। ९६ ।।
दिव्यं पवित्रकूटं च पवित्रं धरणीधरम् ।। १० ।।
ऋषिजुष्टं सुपुण्यं तत् तीर्थ ब्रह्मसरोत्तमम् ।
अगस्त्यो भगवान् यत्र गतो वैवस्वतं प्रति ।। ११ ।।
वहाँ महर्षियोंसे सेवित, पावन शिखरोंवाला, दिव्य एवं पवित्र दूसरा पर्वत भी है जो
अत्यन्त पुण्यदायक तीर्थ है। वहीं उत्तम ब्रह्मसरोवर है जहाँ भगवान् अगस्त्यमुनि वैवस्वत
यमसे मिलनेके लिये पधारे थे || १०-११ ।।
उवास च स्वयं तत्र धर्मराज: सनातन: ।
सर्वासां सरितां चैव समुद्भेदो विशाम्पते ।। १२ ।।
क्योंकि सनातन धर्मराज वहाँ स्वयं निवास करते हैं। राजन! वहाँ सम्पूर्ण नदियोंका
प्राकट्य हुआ है ।।
यत्र संनिहितो नित्यं महादेव: पिनाकधृक् ।
तत्र ते पाण्डवा वीराश्षातुर्मास्यैस्तदेजिरे || १३ ।।
ऋषियज्ञेन महता यत्राक्षयवटो महान् ।
पिनाकपाणि भगवान् महादेव उस तीर्थमें नित्य निवास करते हैं। वहाँ वीर पाण्डवोंने
उन दिनों चातुर्मास्यव्रत ग्रहण करके महान् ऋषियज्ञ अर्थात् वेदादि सतशास्त्रोंके
स्वाध्यायद्वारा भगवान्की आराधना की। वहीं महान् अक्षयवट है ।। १३६ ।।
अक्षये देवयजने अक्षयं यत्र वै फलम् ।। १४ ।।
देवताओंकी वह यज्ञभूमि अक्षय है और वहाँ किये हुए प्रत्येक सत्कर्मका फल अक्षय
होता है ।। १४ ।।
ते तु तत्रोपवासांस्तु चक्रु्निश्चितमानसा: ।
ब्राह्मणास्तत्र शतश: समाजग्मुस्तपोधना: ।। १५ |।
अविचल चित्तवाले पाण्डवोंने उस तीर्थमें कई उपवास किये। उस समय वहाँ सैकड़ों
तपस्वी ब्राह्मण पधारे ।। १५ ।।
चातुर्मास्येनायजन्त आर्षेण विधिना तदा ।
तत्र विद्यातपोवृद्धा ब्राह्मणा वेदपारगा: ।
कथां प्रचक्रिरे पुण्यां सदसिस्था महात्मनाम् ।। १६ ।।
उन्होंने शास्त्रोक्त विधिपूर्वक चातुर्मास्य यज्ञ किया। वहाँ आये हुए ब्राह्मण विद्या और
तपस्यामें बढ़े-चढ़े तथा वेदोंके पारंगत विद्वान थे। उन्होंने परस्पर मिलकर सभामें बैठकर
महात्मा पुरुषोंकी पवित्र कथाएँ कहीं ।। १६ ।।
तत्र विद्याव्रतस्नात: कौमारं व्रतमास्थित: ।
शमठो5कथयद् राजजन्नामूर्तरयसं गयम् ।। १७ ।।
उनमें शमठ नामक एक दिद्वान् ब्राह्मण थे जो विद्याध्ययनका व्रत समाप्त करके
स्नातक हो चुके थे। उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्यपालनका व्रत ले रखा था। राजन्! शमठने
वहाँ अमूर्तरयाके पुत्र महाराज गयकी कथा इस प्रकार कही ।। १७ ।।
शमठ उवाच
अमूर्तरयस: पुत्रो गयो राजर्षिसत्तम: ।
पुण्यानि यस्य कर्माणि तानि मे शूणु भारत ॥। १८ ।।
शमठ बोले--भरतनन्दन युधिष्ठिर! अमूर्तरयाके पुत्र गय राजर्षियोंमें श्रेष्ठ थे। उनके
कर्म बड़े ही पवित्र एवं पावन थे। मैं उनका वर्णन करता हूँ, सुनो-- ।।
यस्य यज्ञो बभूवेह बद्धन्नो बहुदक्षिण: ।
यत्रान्नपर्वता राजन् शतशोडथ सहस्रश: ।। १९ |।
घृतकुल्याश्व दध्नश्न नद्यो बहुशतास्तथा ।
व्यज्जनानां प्रवाहाश्न महार्हाणां सहस्रश: ।। २० ।।
राजन! यहाँ राजा गयने बड़ा भारी यज्ञ किया था। उसमें बहुत अन्न खर्च हुआ था और
असंख्य दक्षिणा बाँटी गयी थी। उस यज्ञमें अन्नके सैकड़ों और हजारों पर्वत लग गये थे।
घीके कई सौ कुण्ड और दहीकी नदियाँ बहती थीं। सहस्रों प्रकारके उत्तमोत्तम व्यज्जनोंकी
बाढ़-सी आ गयी थी ।। १९-२० ।।
अहन्यहनि चाप्येवं याचतां सम्प्रदीयते ।
अन्ये च ब्राह्मणा राजन् भुज्जतेऊन्नं सुसंस्कृतम् ।। २१ ।।
याचकोंको प्रतिदिन इसी प्रकार भोजन और दान दिया जाता था। राजन! अन्यान्य
ब्राह्मण भी वहाँ उत्तम रीतिसे तैयारकी हुई रसोई जीमते थे ।। २१ ।।
तत्र वै दक्षिणाकाले ब्रह्म॒घोषो दिवं गत: ।
नच प्रज्ञायते किंचिद् ब्रह्मशब्देन भारत ।। २२ ।।
भरतनन्दन! उस यज्ञमें दक्षिणा देते समय जो वेदमन्त्रोंकी ध्वनि होती थी वह
स्वर्गलोकतक गूँज उठती थी। उस वेदध्वनिके सामने दूसरा कोई शब्द नहीं सुनायी पड़ता
था ।। २२ ।।
पुण्येन चरता राजन् भूर्दिश: खं नभस्तथा |
आपूर्णमासीच्छब्देन तदप्यासीन्महाद्भुतम् ।। २३ ।।
यत्र सम गाथा गायन्ति मनुष्या भरतर्षभ ।
अन्नपानै: शुभैस्तृप्ता देशे देशे सुवर्चस: ।। २४ ।।
राजन! वहाँ सब ओर फैले हुए पुण्यमय शब्दसे पृथ्वी, दिशाएँ, स्वर्ग और आकाश
परिपूर्ण हो गये। यह बड़ी ही अद्भुत बात थी। भरतश्रेष्ठ) उस यज्ञमें सब मनुष्य यह गाथा
गाते रहते थे कि “इस यज्ञमें देश-देशके अत्यन्त तेजस्वी पुरुष उत्तम अन्नपानसे तृप्त हो रहे
हैं! || २३-२४ ।।
गयस्य यज्ञे के त्वद्य प्राणिनो भोक्तुमीप्सव: ।
तत्र भोजनशिष्टस्य पर्वता: पठचविंशति: ।। २५ ।।
“गयके यज्ञमें लोग यही पूछते फिरते थे कि “कौन-कौन ऐसे प्राणी रह गये हैं जो अभी
भोजन करना चाहते हैं?” वहाँ खानेसे बचे हुए अन्नके पचीस पर्वत शेष रह गये थे || २५ ।।
न तत् पूर्वे जनाश्नक्रुर्न करिष्यन्ति चापरे ।
गयो यदकरोद् यज्ञे राजर्षिरमितद्युति: ।। २६ ।।
“अमिततेजस्वी राजर्षि गयने अपने यज्ञमें जो व्यय किया था, वह पहलेके राजाओंने
भी नहीं किया था और भविष्यमें भी कोई दूसरे कर सकेंगे, ऐसा सम्भव नहीं है ।।
कथं तु देवा हविषा गयेन परितर्पिता: ।
पुन: शक्ष्यन्त्युपादातुमन्यैर्दत्तानि कानिचित् ।। २७ ।।
“गयने सम्पूर्ण देवताओंको हविष्यसे भलीभाँति तृप्त कर दिया है, अब वे दूसरोंके दिये
हुए हविष्यको कैसे ग्रहण कर सकेंगे? || २७ ।।
सिकता वा यथा लोके यथा वा दिवि तारका: ।
यथा वा वर्षतो धारा असंख्येया: सम केनचित् ।
तथा गणयितुं शक््या गययज्ञे न दक्षिणा: ।। २८ ।।
'जैसे लोकमें बालूके कण, आकाशके तारे और बरसते हुए बादलोंकी जलधाराएँ
किसीके द्वारा भी गिनी नहीं जा सकतीं, उसी प्रकार गयके यज्ञमें दी हुई दक्षिणाओंकी भी
कोई गणना नहीं कर सकता था ।। २८ ।।
एवंविधा: सुबहवस्तस्य यज्ञा महीपते: ।
बभूवुरस्य सरस: समीपे कुरुनन्दन ।। २९ |।
कुरुनन्दन! महाराज गयके ऐसे ही बहुत-से यज्ञ इस ब्रह्मसरोवरके समीप सम्पन्न हुए
हैं ।। २९ |।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां गययज्ञक थने
पञ्चनवतितमो<ध्याय: ।। ९५ |।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्चमें लोमश-ती ्थयात्राके प्रसंगमें
गयके यज्ञका वर्णन'-विषयक पंचानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ९५ ॥।
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- यहाँ पाण्डवोंके द्वारा गोदान और धनदान करनेके विषयमें यह शंका होती है कि इनके पास ये सब कहाँसे आये पर
ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि वनपर्वके बारहवें अध्यायमें आता है कि काम्यकवनमें पाण्डवोंसे मिलनेके लिये
भगवान् श्रीकृष्ण एवं भोजवंशी, वृष्णिवंशी और अन्धककुलके राजागण तथा ट्रुपद, धृष्टद्युम्न, धृष्टकेतु एवं केकय
राजकुमार आये थे। उनका पाण्डवोंसे मिलकर अपने-अपने राज्यमें लौट जानेका भी वर्णन वनपर्वके बाईसवें अध्यायमें
आया है। इससे अनुमान होता है कि इन राजाओंने पाण्डवोंको भेंटमें प्रचुर धन दिया होगा।
षण्णवतितमोब< ध्याय:
इल्वचल और वातापिका वर्णन, महर्षि अगस्त्यका पितरोंके
उद्धारके लिये विवाह करनेका विचार तथा विदर्भराजका
महर्षि अगस्त्यसे एक कन्या पाना
वैशम्पायन उवाच
ततः सम्प्रस्थितो राजा कौन्तेयो भूरिदक्षिण: ।
अगस्त्याश्रममासाद्य दुर्जयायामुवास ह ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर प्रचुर दक्षिणा देनेवाले कुन्तीनन्दन
राजा युधिष्ठिरने गयासे प्रस्थान किया और अगस्त्याश्रममें जाकर दुर्जय मणिमती नगरीमें
निवास किया ।। १ ।।
तत्रैव लोमशं राजा पप्रच्छ वदतां वर: ।
अगस्त्येनेह वातापि: किमर्थमुपशामित: ।॥॥ २ ॥।
वहीं वक्ताओंमें श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिरने महर्षि लोमशसे पूछा--“ब्रह्मन्! अगस्त्यजीने यहाँ
वातापिको किसलिये नष्ट किया? ।। २ ।।
आसीद्दा कि प्रभावश्लू स दैत्यो मानवान्तक: ।
किमर्थ चोदितो मन्युरगस्त्यस्य महात्मन: ।। ३ ।।
“मनुष्योंका विनाश करनेवाले उस दैत्यका प्रभाव कैसा था? और महात्मा
अगस्त्यजीके मनमें क्रोधका उदय कैसे हुआ”? ।। ३ ।।
लोगश उवाच
इल्वलो नाम दैतेय आसीत् कौरवनन्दन ।
मणिमत्यां पुरि पुरा वातापिस्तस्य चानुज: ।। ४ ।।
लोमशजीने कहा--कौरवनन्दन! पूर्वकालकी बात है, इस मणिमती नगरीमें इल्वल
नामक दैत्य रहता था। वातापि उसीका छोटा भाई था ।। ४ ।।
स ब्राह्मणं तपोयुक्तमुवाच दितिनन्दन: ।
पुत्र मे भगवानेकमिन्द्रतुल्यं प्रयच्छतु ।। ५ ।।
तस्मै स ब्राह्मणो नादात् पुत्रं वासवसम्मितम् ।
चुक्रोध सो5सुरस्तस्य ब्राह्मणस्य ततो भूशम् ।। ६ ।।
तदाप्रभृति राजेन्द्र इल्वलो ब्रह्महासुर: ।
मन्युमान् भ्रातरं छागं मायावी हाकरोत् ततः ।। ७ ।।
मेषरूपी च वातापि: कामरूप्यभवत् क्षणात् |
संस्कृत्य च भोजयति ततो विप्रं जिघांसति ।। ८ ।।
एक दिन दितिनन्दन इल्वलने एक तपस्वी ब्राह्मणसे कहा--“भगवन्! आप मुझे ऐसा
पुत्र दें, जो इन्द्रके समान पराक्रमी हो।' उन ब्राह्मणदेवताने इल्चलको इन्द्रके समान पुत्र नहीं
दिया। इससे वह असुर उन ब्राह्मणदेवतापर बहुत कुपित हो उठा। राजन्! तभीसे इल्वल
दैत्य क्रोधमें भरकर ब्राह्मणोंकी हत्या करने लगा। वह मायावी अपने भाई वातापिको
मायासे बकरा बना देता था। वातापि भी इच्छानुसार रूप धारण करनेमें समर्थ था! अतः
वह क्षणभरमें भेड़ा और बकरा बन जाता था। फिर इल्वल उस भेड़ या बकरेको पकाकर
उसका मांस राँधता और किसी ब्राह्मणको खिला देता था। इसके बाद वह ब्राह्मणको
मारनेकी इच्छा करता था ।। ५--८ ।।
स चाह्दयति यं वाचा गतं वैवस्वतक्षयम् |
स पुनर्देहमास्थाय जीवन् सम प्रत्यदृश्यत ।। ९ ।।
इल्वलमें यह शक्ति थी कि वह जिस किसी भी यमलोकमें गये हुए प्राणीको उसका
नाम लेकर बुलाता वह पुन: शरीर धारण करके जीवित दिखायी देने लगता था ।। ९ ।।
ततो वातापिमसुरं छागं कृत्वा सुसंस्कृतम् ।
त॑ ब्राह्मणं भोजयित्वा पुनरेव समाह्दयत् ।। १० ।।
उस दिन वातापि दैत्यको बकरा बनाकर इल्वल उसके मांसका संस्कार किया और उन
ब्राह्मणदेवको वह मांस खिलाकर पुन: अपने भाईको पुकारा || १० ।।
तामिल्वलेन महता स्वरेण वाचमीरिताम् ।
श्रुत्वातिमायो बलवान क्षिप्रं ब्राह्मगकण्टक: || ११ ।।
तस्य पार्श्च विनिर्भिद्य ब्राह्मणस्य महासुर: ।
वातापि: प्रहसन् राजन् निश्चक्राम विशाम्पते ।। १२ ।॥।
राजन! इल्वलके द्वारा उच्चस्वरसे बोली हुई वाणी सुनकर वह अत्यन्त मायावी
ब्राह्मणशत्रु बलवान् महादैत्य वातापि उस ब्राह्मणकी पसलीको फाड़कर हँसता हुआ निकल
आया || ११-१२ ||
एवं स ब्राह्मणान् राजन् भोजयित्वा पुन: पुन: ।
हिंसयामास दैतेय इल्वलो दुष्टचेतन: ।। १३ ।।
राजन! इस प्रकार दुष्टहृदय इल्वल दैत्य बार-बार ब्राह्मगोंको भोजन कराकर अपने
भाईद्वारा उनकी हिंसा करा देता था (इसीलिये अगस्त्यमुनिने वातापिको नष्ट किया
था) ।। १३ ।।
अगस्त्यश्लापि भगवानेतस्मिन् काल एव तु ।
पितृन् ददर्श गर्ते वै लम्बमानानधोमुखान् ।। १४ ।।
इन्हीं दिनों भगवान् अगस्त्यमुनि कहीं चले जा रहे थे। उन्होंने एक जगह अपने
पितरोंको देखा जो एक गड़ढेमें नीचे मुँह किये लटक रहे थे || १४ ।।
सो<पृच्छल्लम्बमानांस्तान् भवन्त इव कम्पिता: ।
(किमर्थ वेह लम्बध्वं गर्ते यूयमधोमुखा: ।)
संतानहेतोरिति ते प्रत्यूचुब्रह्मयतादिन: ।। १५ ।।
तब उन लटकते हुए पितरोंसे अगस्त्यजीने पूछा--“आपलोग यहाँ किसलिये नीचे मुँह
किये काँपते हुए-से लटक रहे हैं? यह सुनकर उन वेदवादी पितरोंने उत्तर दिया
--'संतानपरम्पराके लोपकी सम्भावनाके कारण हमारी यह दुर्दशा हो रही है” || १५ ।।
ते तस्मै कथयामासुर्वयं ते पितर: स्वका: ।
गर्तमेतमनुप्राप्ता लम्बाम: प्रसवार्थिन: ।। १६ ।।
उन्होंने अगस्त्यके पूछनेपर बताया कि “हम तुम्हारे ही पितर हैं। संतानके इच्छुक होकर
इस गड़्ढेमें लटक रहे हैं! || १६ ।।
यदि नो जनयेथास्त्वमगस्त्यापत्यमुत्तमम् |
स्यान्नोअस्मान्निरयान्मोक्षस्त्वं च पुत्राप्तुया गतिम् ।। १७ ।।
“अगस्त्य! यदि तुम हमारे लिये उत्तम संतान उत्पन्न कर सको तो हम इस नरकसे
छुटकारा पा सकते हैं और बेटा! तुम्हें भी सदगति प्राप्त होगी” || १७ ।।
स तानुवाच तेजस्वी सत्यधर्मपरायण: ।
करिष्ये पितर: काम॑ व्येतु वो मानसो ज्वर: ।। १८ ।।
तब सत्यधर्मपरायण तेजस्वी अगस्त्यने उनसे कहा--'पितरो! मैं आपकी इच्छा पूर्ण
करूँगा। आपकी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये” ।। १८ ।॥।
ततः प्रसवसंतानं चिन्तयन् भगवानृषि: ।
आत्मन: प्रसवस्यार्थे नापश्यत् सदृशीं स्त्रियम् ।। १९ ।।
तब भगवान् महर्षि अगस्त्यने संतानोत्पादनकी चिन्ता करते हुए अपने अनुरूप
संतानको गर्भमें धारण करनेके लिये योग्य पत्नीका अनुसंधान किया, परंतु उन्हें कोई योग्य
स्त्री दिखायी नहीं दी || १९ ।।
स तस्य तस्य सच्त्वस्य तत् तदड़मनुत्तमम् |
संगृहा तत्समैरड्रैनिरमिमे स्त्रियमुत्तमाम् ।। २० |।
तब उन्होंने एक-एक जन्तुके उत्तमोत्तम अंगोंका भावनाद्वारा संग्रह करके उन सबके
द्वारा एक परम सुन्दर स्त्रीका निर्माण किया || २० ।।
सतां विदर्भराजस्य पुत्रार्थ तप्यतस्तप: ।
निर्मितामात्मनो<र्थाय मुनि: प्रादान्महातपा: ।। २१ ।।
उन दिनों विदर्भराज पुत्रके लिये तपस्या कर रहे थे। महातपस्वी अगस्त्यमुनिने अपने
लिये निर्मित की हुई वह स्त्री राजाको दे दी || २१ ।।
सा तत्र जज्ञे सुभगा विद्युत् सौदामनी यथा ।
विभ्राजमाना वपुषा व्यवर्धत शुभानना ।। २२ ।।
उस सुन्दरी कन्याका उस राजभवनमें बिजलीके समान प्रादुर्भाव हुआ। वह शरीरसे
प्रकाशमान हो रही थी। उसका मुख बहुत सुन्दर था, वह राजकन्या वहाँ दिनोदिन बढ़ने
लगी ।। २२ ।।
जातमात्रां च तां दृष्टवा वैदर्भ: पृथिवीपति: ।
प्रहर्षेण द्विजातिभ्यो न्न्यवेदयत भारत ।। २३ ।।
भरतनन्दन! राजा विदर्भने उस कन्याके उत्पन्न होते ही हर्षमें भरकर ब्राह्मणोंको यह
शुभ संवाद सुनाया ।।
अभ्यनन्दन्त तां सर्वे ब्राह्मणा वसुधाधिप ।
लोपामुद्रेति तस्याश्न॒ चक्रिरे नाम ते द्विजा: ।। २४ ।।
राजन्! उस समय सब ब्राह्मणोंने रुजाका अभिनन्दन किया और उस कन्याका नाम
“'लोपामुद्रा” रख दिया ।। २४ ।।
ववृधे सा महाराज बिश्रती रूपमुत्तमम् ।
अप्स्विवोत्पलिनी शीघ्रमग्नेरिव शिखा शुभा ।। २५ ।।
महाराज! उत्तम रूप धारण करनेवाली वह राजकुमारी जलमें कमलिनी तथा
यज्ञवेदीपर प्रज्वलित शुभ्र अग्निशिखाकी भाँति शीघ्रतापूर्वक बढ़ने लगी || २५ ।।
तां यौवनस्थां राजेन्द्र शतं कन्या: स्वलंकृता: ।
दास्य: शतं च कल्याणीमुपातस्थुर्वशानुगा: ॥। २६ ।।
राजेन्द्र! जब उसने युवावस्थामें पदार्पण किया, उस समय उस कल्याणी कन्याको
वस्त्राभूषणोंसे विभूषित सौ सुन्दरी कन्याएँ और सौ दासियाँ उसकी आज्ञाके अधीन होकर
घेरे रहतीं और उसकी सेवा किया करती थीं ।। २६ ।।
सा सम दासीशतवृता मध्ये कन्याशतस्य च ।
आस्ते तेजस्विनी कन्या रोहिणीव दिवि प्रभा ।। २७ ।।
सौ दासियों और सौ कन्याओंके बीचमें वह तेजस्विनी कन्या आकाशमें सूर्यकी प्रभा
तथा नक्षत्रोंमें रोहिणीके समान सुशोभित होती थी || २७ ।।
यौवनस्थामपि च तां शीलाचारसमन्विताम् |
न वव्रे पुरुष: कश्चिद् भयात् तस्य महात्मन: ।। २८ ।।
यद्यपि वह युवती और शील एवं सदाचारसे सम्पन्न थी तो भी महात्मा अगस्त्यके भयसे
किसी राजकुमारने उसका वरण नहीं किया ।। २८ ।।
सा तु सत्यवती कन्या रूपेणाप्सरसो<प्यति |
तोषयामास पितरं शीलेन स्वजनं तथा ।। २९ ।।
वह सत्यवती राजकुमारी रूपमें अप्सराओंसे भी बढ़कर थी। उसने अपने शील-
स्वभावसे पिता तथा स्वजनोंको संतुष्ट कर दिया था ।। २९ ।।
वैदर्भी तु तथायुक्तां युवती प्रेक्ष्य वै पिता ।
मनसा चिन्तयामास कस्मै दद्यामिमां सुताम् ।। ३० ।।
पिता विदर्भराजकुमारीको युवावस्थामें प्रविष्ट हुई देख मन-ही-मन यह विचार करने
लगे कि “इस कन्याका किसके साथ विवाह करूँ” || ३० ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां अगस्त्योपाख्याने
षण्णवतितमो<ध्याय: ।। ९६ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशतीर्थयात्राके प्रसंगमें
अगस्त्योपाख्यानविषयक छानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६ ॥।
[दाक्षिणात्य अधिक पाठका ३ “लोक मिलाकर कुल ३०३६ “लोक हैं]
८-० 05० () अत मा
सप्तनवतितमो< ध्याय:
महर्षि अगस्त्यका 29255 6 द्रासे विवाह, गंगाद्वारमें तपस्या
एवं पत्नीकी इच्छासे धनसंग्रहके लिये प्रस्थान
लोगश उवाच
यदा त्वमन्यतागस्त्यो गार्हस्थ्ये तां क्षमामिति ।
तदाभिगम्य प्रोवाच वैदर्भ पृथिवीपतिम् ।। १ ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठिर! जब मुनिवर अगस्त्यजीको यह मालूम हो गया कि
विदर्भराजकुमारी मेरी गृहस्थी चलानेके योग्य हो गयी है, तब वे विदर्भ-नरेशके पास जाकर
बोले-- ।। १ |।
राजन निवेशे बुद्धिमें वर्तते पुत्रकारणात् ।
वरये त्वां महीपाल लोपामुद्रां प्रयच्छ मे ।। २ ।।
“राजन! पुत्रोत्पत्तिके लिये मेरा विवाह करनेका विचार है। अतः महीपाल! मैं आपकी
कन्याका वरण करता हूँ। आप लोपामुद्राको मुझे दे दीजिये” || २ ।।
एवमुक्त: स मुनिना महीपालो विचेतन: ।
प्रत्याख्यानाय चाशक्तः प्रदातुं चैव नैच्छत ।। ३ ।।
मुनिवर अगस्त्यके ऐसा कहनेपर विदर्भराजके होश उड़ गये। वे न तो अस्वीकार कर
सके और न उन्होंने अपनी कन्या देनेकी इच्छा ही की ।। ३ ।।
ततः स भार्यामभ्येत्य प्रोवाच पृथिवीपति: ।
महर्षिवीर्यवानेष क्रुद्ध: शापाग्निना दहेत् । ४ ।।
तब विदर्भनरेश अपनी पत्नीके पास जाकर बोले--'प्रिये! ये महर्षि अगस्त्य बड़े
शक्तिशाली हैं। यदि कुपित हों तो हमें शापकी अग्निसे भस्म कर सकते हैं" || ४ ।।
तं॑ तथा दु:खितं दृष्टवा सभार्य पृथिवीपतिम् ।
लोपामुद्राभिगम्येदं काले वचनमब्रवीत् ।। ५ ।।
रानीसहित महाराजको इस प्रकार दुःखी देख लोपामुद्रा उनके पास गयी और समयके
अनुसार इस प्रकार बोली-- || ५ |।
न मत्कृते महीपाल पीडामभ्येतुमहसि ।
प्रयच्छ मामगस्त्याय त्राह्मात्मानं मया पित: ।। ६ ।।
“राजन! आपको मेरे लिये दुःख नहीं मानना चाहिये। पिताजी! आप मुझे
अगस्त्यजीकी सेवामें दे दें और मेरे द्वारा अपनी रक्षा करें” ।। ६ ।।
दुहितुर्वचनाद् राजा सोडगस्त्याय महात्मने ।
लोपामुद्रां ततः प्रादाद् विधिपूर्व विशाम्पते ।। ७ ।।
युधिष्ठिर! पुत्रीकी यह बात सुनकर राजाने महात्मा अगस्त्यमुनिको विधिपूर्वक अपनी
कन्या लोपामुद्रा ब्याह दी || ७ ।।
प्राप्प भार्यामगस्त्यस्तु लोपामुद्रामभाषत ।
महाहण्युत्सूजैतानि वासांस्याभरणानि च ।। ८ ।।
लोपामुद्राको पत्नीरूपमें पाकर महर्षि अगस्त्यने उससे कहा--'ये तुम्हारे वस्त्र और
आभूषण बहुमूल्य हैं। इन्हें उतार दो” ।। ८ ।।
ततः सा दर्शनीयानि महाहाणि तनूनि च ।
समुत्ससर्ज रम्भोरुर्वसनान्यायतेक्षणा ।। ९ ।।
ततश्लीराणि जग्राह वल्कलान्यजिनानि च ।
समानव्रतचर्या च बभूवायतलोचना ।। १० ।।
तब कदलीके समान जाँघ तथा विशाल नेत्रोंवाली लोपामुद्राने अपने बहुमूल्य, महीन
एवं दर्शनीय वस्त्र उतार दिये और फटे-पुराने वस्त्र तथा वलकल और मृगचर्म धारण कर
लिये। वह विशालनयनी बाला पतिके समान ही व्रत और आचारका पालन करनेवाली हो
गयी ।। ९-१० ।।
गड्जाद्वारमथागम्य भगवानृषिसत्तम: |
उग्रमातिष्ठत तप: सह पत्न्यानुकूलया ।। ११ ।।
तदनन्तर मुनिश्रेष्ठ भगवान् अगस्त्य अपनी अनुकूल पत्नीके साथ गंगाद्वार (हरिद्वार)-
में आकर घोर तपस्यामें संलग्न हो गये || ११ ।।
सा प्रीता बहुमानाच्च पतिं पर्यचरत् तदा ।
अगस्त्यश्न परां प्रीतिं भार्यायामचरत् प्रभु: ।। १२ ।।
लोपामुद्रा बड़ी ही प्रसन्नता और विशेष आदरके साथ पतिदेवकी सेवा करने लगी।
शक्तिशाली महर्षि अगस्त्यजी भी अपनी पत्नीपर बड़ा प्रेम रखते थे || १२ ।।
ततो बहुतिथे काले लोपामुद्रां विशाम्पते ।
तपसा द्योतितां स््नातां ददर्श भगवानृषि: ।। १३ ।।
स तस्या: परिचारेण शौचेन च दमेन च ।
श्रिया रूपेण च प्रीतो मैथुनायाजुहाव ताम् ।। १४ ।।
राजन! जब इसी प्रकार बहुत समय व्यतीत हो गया, तब एक दिन भगवान्
अगस्त्यमुनिने ऋतुस्नानसे निवृत्त हुई पत्नी लोपामुद्राको देखा। वह तपस्याके तेजसे
प्रकाशित हो रही थी। महर्षिने अपनी पत्नीकी सेवा, पवित्रता, इन्द्रियसंयम, शोभा तथा
रूप-सौन्दर्यसे प्रसन्न होकर उसे मैथुनके लिये पास बुलाया ।। १३-१४ ।।
ततः सा प्राञ्जलि र्भूत्वा लज्जमानेव भाविनी ।
तदा सप्रणयं वाक्यं भगवन्तमथाब्रवीत् ।। १५ ।।
तब अनुरागिणी लोपामुद्रा कुछ लज्जित-सी हो हाथ जोड़कर बड़े प्रेमसे भगवान्
अगस्त्यसे बोली-- ।। १५ ।।
असंशयं प्रजाहेतोर्भाया पतिरविन्दत |
या तु त्वयि मम प्रीतिस्तामृषे कर्तुमहसि ।। १६ ।।
“महर्षे! इसमें संदेह नहीं कि पतिदेवने अपनी इस पत्नीको संतानके लिये ही ग्रहण
किया है, परंतु आपके प्रति मेरे हृदयमें जो प्रीति है, वह भी आपको सफल करनी
चाहिये ।। १६ ।।
यथा पितुर्ग॒हे विप्र प्रासादे शयनं मम ।
तथाविधे त्वं शयने मामुपैतुमिहाहसि ।। १७ ।।
“ब्रह्मन! मैं अपने पिताके घर उनके महलमें जैसी शय्यापर सोया करती थी, वैसी ही
शय्यापर आप मेरे साथ समागम करें ।। १७ ।।
इच्छामि त्वां स्रग्विणं च भूषणैश्न विभूषितम् ।
उपसर्तु यथाकामं दिव्याभरणभूषिता ।। १८ ।।
“मैं चाहती हूँ कि आप सुन्दर हार और आभूषणोंसे विभूषित हों और मैं भी दिव्य
अलंकारोंसे अलंकृत हो इच्छानुसार आपके साथ समागम-सुखका अनुभव करूँ ।। १८ ।।
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अन्यथा नोपतिष्ठेयं चरिकाषायवासिनी ।
नैवापवित्रो विप्रर्षे भूषणो5यं कथंचन ।। १९ ।।
“अन्यथा मैं यह जीर्ण-शीर्ण काषाय-वस्त्र पहनकर आपके साथ समागम नहीं करूँगी।
ब्रह्म! तपस्वीजनोंका यह पवित्र आभूषण किसी प्रकार सम्भोग आदिके द्वारा अपवित्र
नहीं होना चाहिये” ।। १९ ।।
अगस्त्य उवाच
न ते धनानि विद्यन्ते लोपामुद्रे तथा मम ।
यथाविधानि कल्याणि पितुस्तव सुमध्यमे || २० ।।
अगस्त्यजीने कहा--सुन्दर कटिप्रदेशवाली कल्याणी लोपामुद्रे! तुम्हारे पिताके घरमें
जैसे धन-वैभव हैं, वे न तो तुम्हारे पास हैं और न मेरे ही पास (फिर ऐसा कैसे हो सकता
है?) ।। २० ।।
लोपामुद्रोवाच
ईशो5सि तपसा सर्व समाहर्तु तपोधन ।
क्षणेन जीवलोके यद् वसु किंचन विद्यते || २१ ।।
लोपामुद्रा बोली--तपोधन! इस जीव-जगत्में जो कुछ भी धन है, वह सब क्षणभरमें
आप अपनी तपस्याके प्रभावसे जुटा लेनेमें समर्थ हैं || २१ ।।
अगस्त्य उवाच
एवमेतद् यथा5<त्थ त्वं तपोव्ययकरं तु तत् ।
यथा तु मे न नश्येत तपस्तन्मां प्रचोदय ।। २२ ।।
अगस्त्यजीने कहा-्रिये! तुम्हारा कथन ठीक है। परंतु ऐसा करनेसे तपस्याका क्षय
होगा। मुझे ऐसा कोई उपाय बताओ, जिससे मेरी तपस्या क्षीण न हो || २२ ।।
लोपामुद्रोवाच
अल्पावशिष्ट: कालो<यमृतोर्मम तपोधन ।
न चान्यथाहमिच्छामि त्वामुपैतुं कथंचन ।। २३ ।।
लोपामुद्रा बोली--तपोधन! मेरे ऋतुकालका थोड़ा ही समय शेष रह गया है। मैं जैसा
बता चुकी हूँ, उसके सिवा और किसी तरह आपसे समागम नहीं करना चाहती || २३ ।।
न चापि धर्ममिच्छामि विलोप्तुं ते कथंचन ।
एवं तु मे यथाकामं सम्पादयितुमहसि ।। २४ ।।
साथ ही मेरी यह भी इच्छा नहीं है कि किसी प्रकार आपके धर्मका लोप हो। इस
प्रकार अपने तप एवं धर्मकी रक्षा करते हुए जिस तरह सम्भव हो उसी तरह आप मेरी
इच्छा पूर्ण करें || २४ ।।
अगस्त्य उवाच
यद्येष काम: सुभगे तव बुद्धया विनिश्चित: ।
हर्तु गच्छाम्यहं भद्रे चर काममिह स्थिता ।। २५ ।।
अगस्त्यजीने कहा--सुभगे! यदि तुमने अपनी बुद्धिसे यही मनोरथ पानेका निश्चय
कर लिया है तो मैं धन लानेके लिये जाता हूँ, तुम यहीं रहकर इच्छानुसार धर्माचरण
करो ।। २५ ||
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायामगस्त्योपाख्याने
सप्तनवतितमो<ध्याय: ।। ९७ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोगशती र्थयात्राके प्रसंगमें
अगस्त्योपाख्यानविषयक सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ९७ ॥
हि आम [चुके हि २
अष्टनवतितमोब् ध्याय:
धन प्राप्त करनेके लिये अगस्त्यका श्रुतर्वा, ब्रध्नश्व और
त्रसदस्यु आदिके पास जाना
लोगश उवाच
ततो जगाम कौरव्य सो5गस्त्यो भिक्षितुं वसु ।
श्रुतर्वाणं महीपालं यं वेदाभ्यधिकं नृपैः ।। १ ।।
लोमशजी कहते हैं--कुरुनन्दन! तदनन्तर अगस्त्यजी धन माँगनेके लिये महाराज
श्रुतर्वाके पास गये, जिन्हें वे सब राजाओंसे अधिक वैभवसम्पन्न समझते थे ।। १ ।।
स विदित्वा तु नृपतिः कुम्भयोनिमुपागतम् ।
विषयान्ते सहामात्य: प्रत्यगृह्नात् सुसत्कृतम् ।। २ ।।
राजाको जब यह मालूम हुआ कि महर्षि अगस्त्य मेरे यहाँ आ रहे हैं, तब वे मन्त्रियोंके
साथ अपने राज्यकी सीमापर चले आये और बड़े आदर-सत्कारसे उन्हें अपने साथ लिवा
ले गये ।। २ ।।
तस्मै चार््य यथान्यायमानीय पृथिवीपति: ।
प्राउ्जलि: प्रयतो भूत्वा पप्रच्छागमने<र्थिताम् ।। ३ ।।
भूपाल श्रुतर्वाने उनके लिये यथायोग्य अर्घ्य निवेदन करके विनीतभावसे हाथ जोड़कर
उनके पधारनेका प्रयोजन पूछा ।। ३ ।।
अगस्त्य उवाच
वित्तार्थिनमनुप्राप्तं विद्धि मां पृथिवीपते ।
यथाशवक्त्यविहिंस्यान्यान् संविभागं प्रयच्छ मे ।॥ ४ ।।
तब अगस्त्यजीने कहा--पृथ्वीपते! आपको मालूम होना चाहिये कि मैं धन माँगनेके
लिये आपके यहाँ आया हूँ। दूसरे प्राणियोंको कष्ट न देते हुए यथाशक्ति अपने धनका
जितना अंश मुझे दे सकें, दे दें ।। ४ ।।
लोगश उवाच
तत आयदब्ययौ पूर्णो तस्मै राजा न्यवेदयत् ।
अतो विद्वन्नुपादत्स्व यदत्र वसु मन््यसे ।। ५ ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठिर! तब राजा श्रुतर्वाने महर्षिके सामने अपने आय-
व्ययका पूरा ब्योरा रख दिया और कहा--'ज्ञानी महर्षे! इस धनमेंसे जो आप ठीक समझें,
वह ले लें! || ५ ।।
तत आयब्ययौ दृष्टवा समौ सममतिर्द्धिज: ।
सर्वथा प्राणिनां पीडामुपादानादमन्यत ।। ६ ।।
ब्रह्मर्षि अगस्त्यकी बुद्धि सम थी। उन्होंने आय और व्यय दोनोंको बराबर देखकर यह
विचार किया कि इसमेंसे थोड़ा-सा भी धन लेनेपर दूसरे प्राणियोंको सर्वथा कष्ट हो सकता
है।। ६ ।।
स श्रुतर्वाणमादाय ब्रथ्नश्वमगमत् ततः ।
सच तौ विषयस्यान्ते प्रत्यगृह्लाद् यथाविधि ।। ७ ।।
तब वे श्रुतर्वाको साथ लेकर राजा ब्रध्नश्वके पास गये। उन्होंने भी अपने राज्यकी
सीमापर आकर उन दोनों सम्माननीय अतिथियोंकी अगवानी की और विधिपूर्वक उन्हें
अपनाया ।। ७ ||
तयोररघ्य च पाद्य॑ च ब्रथ्नश्वः प्रत्यवेदयत् ।
अनुज्ञाप्य च पप्रच्छ प्रयोजनमुपक्रमे ।। ८ ।।
ब्रध्नश्चने उन दोनोंको अर्घ्य और पाद्य निवेदन किये, फिर उनकी आज्ञा ले अपने यहाँ
पधारनेका प्रयोजन पूछा ।। ८ ।।
अगस्त्य उवाच
वित्तकामाविह प्राप्ती विद्धयावां पृथिवीपते ।
यथाशव/्त्यविहिंस्यान्यान् संविभागं प्रयच्छ नौ ।। ९ ।।
अगस्त्यजीने कहा--पृथ्वीपते! आपको विदित हो कि हम दोनों आपके यहाँ धनकी
इच्छासे आये हैं। दूसरे प्राणियोंको कष्ट न देते हुए जो धन आपके पास बचता हो, उसमेंसे
यथाशक्ति कुछ भाग हमें भी दीजिये ।। ९ ।।
लोगश उवाच
तत आयवब्ययौ पूर्ण ताभ्यां राजा न्यवेदयत् ।
अतो ज्ञात्वा तु गृह्नीतं यदत्र व्यतिरिच्यते ।। १० ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठिर! तब राजा ब्रध्नश्वने भी उन दोनोंके सामने आय और
व्ययका पूरा विवरण रख दिया और कहा--“आप दोनोंको इसमें जो धन अधिक जान
पड़ता हो, वह ले लें! ॥| १० ।।
तत आयब्ययौ दृष्टवा समौ सममतिर्द्धिज: ।
सर्वथा प्राणिनां पीडामुपादानादमन्यत ।। ११ ।।
तब समान बुद्धिवाले ब्रह्मर्षि अगस्त्यने उस विवरणमें आय और व्यय बराबर देखकर
यह निश्चय किया कि इसमेंसे यदि थोड़ा-सा भी धन लिया जाय तो दूसरे प्राणियोंको सर्वथा
कष्ट हो सकता है ।। ११ ।।
पौरुकुत्सं ततो जम्मुस्त्रसदस्युं महाधनम् |
अगस्त्यश्ष श्रुतर्वा च ब्रध्नश्वश्न महीपति: ।। १२ ।।
तब अगस्त्य, श्रुतर्वा और ब्रध्नश्च--तीनों पुरुकुत्सनन्दन-महाधनी त्रसदस्युके पास
गये ।। १२ ।।
त्रसदस्युस्तु तान् दृष्टवा प्रत्यगृह्नाद् यथाविधि ।
अभिगम्य महाराज विषयान्ते महामना: ।। १३ |।
अर्चयित्वा यथान्यायमिक्ष्वाकू राजसत्तम: ।
समस्तांश्व॒ ततो5पृच्छत् प्रयोजनमुपक्रमे ।। १४ ।।
महाराज! भूपालोंमें श्रेष्ठ इक्ष्वाकुवंशी महामना त्रसदस्युने उन्हें आते देख राज्यकी
सीमापर पहुँचकर विधिपूर्वक उन सबका स्वागत-सत्कार किया और उन सबसे अपने यहाँ
पधारनेका प्रयोजन पूछा ।। १३-१४ ।।
अगस्त्य उवाच
वित्तकामानिह प्राप्तान् विद्धि नः पृथिवीपते ।
यथाशव/षत्यविहिंस्यान्यान् संविभागं प्रयच्छ न: ।। १५ ।।
अगस्त्यने कहा--पृथ्वीपते! आपको विदित हो कि हम धनकी कामनासे यहाँ आये
हैं। आप दूसरे प्राणियोंको पीड़ा न देते हुए यथाशक्ति अपने धनका कुछ भाग हम सबको
दीजिये ।। १५ ।।
लोगश उवाच
तत आयदब्ययौ पूर्ण तेषां राजा न्यवेदयत् ।
एतज्ज्ञात्वा ह्ुपादध्वं यदत्र व्यतिरिच्यते ।। १६ ।।
तत आयब्ययौ दृष्टवा समौ सममतिर्द्धिज: ।
सर्वथा प्राणिनां पीडामुपादानादमन्यत ।। १७ ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठिर! तब राजाने उन्हें अपने आय-व्ययका पूरा विवरण दे
दिया और कहा--'इसे समझकर जो धन शेष बचता हो, वह आपलोग ले लें।'
समबुद्धिवाले महर्षि अगस्त्यने वहाँ भी आय-व्ययका लेखा बराबर देखकर यही माना कि
इसमेंसे धन लिया जाय तो दूसरे प्राणियोंको सर्वथा कष्ट हो सकता है ।। १६-१७ ।।
ततः सर्वे समेत्याथ ते नृपास्तं महामुनिम् ।
इदमूचुर्महाराज समवेक्ष्य परस्परम् ।। १८ ।।
महाराज! तब वे सब राजा परस्पर मिलकर एक-दूसरेकी ओर देखते हुए महामुनि
अगस्त्यसे इस प्रकार बोले-- || १८ ।।
अयं वै दानवो ब्रद्म॒न्निल्वलो वसुमान् भुवि ।
तमतिक्रम्य सर्वेड्द्य वयं चार्थामहे वसु ।। १९ ।।
“ब्रह्म! यह इल्वल दानव इस पृथ्वीपर सबसे अधिक धनी है। हम सब लोग उसीके
पास चलकर आज धन माँगें' ।। १९ ।।
लोगश उवाच
तेषां तदासीदुचितमिल्वलस्यैव भिक्षणम् |
ततस्ते सहिता राजन्निल्चलं समुपाद्रवन् ।। २० ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठिर! उस समय उन सबको इल्वलके यहाँ याचना करना ही
ठीक जान पड़ा, अतः वे एक साथ होकर इल्वलके यहाँ शीघ्रतापूर्वक गये || २० ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायामगस्त्योपाख्याने
अष्टनवतितमो<ध्याय: ।। ९८ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रस॑ंगमें
अगस्त्योपाख्यानविषयक अद्ठदानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ९८ ॥
हम आय न () हि २ 7
एकोनशततमो<ध्याय:
अगस्त्यजीका इल्वलके यहाँ धनके लिये जाना, वातापि
तथा इल्वलका वध, लोपामुद्राको पुत्रकी प्राप्ति तथा
श्रीरामके द्वारा हरे हुए तेजकी परशुरामजीको
तीर्थस्नानद्वारा पुनः प्राप्ति
लोगमश उवाच
इल्वलस्तान् विदित्वा तु महर्षिसहितान् नृपान् ।
उपस्थितान् सहामात्यो विषयान्ते हपूजयत् ।। १ ।।
लोमशजी कहते हैं--राजन्! इल्वलने महर्षिसहित उन राजाओंको आता जान
मन्त्रियोंके साथ अपने राज्यकी सीमापर उपस्थित होकर उन सबका पूजन किया ।।
तेषां ततो<सुरश्रेष्ठस्त्वातिथ्यमकरोत् तदा ।
सुसंस्कृतेन कौरव्य भ्रात्रा वातापिना यदा ।। २ ॥।
कुरुनन्दन! उस समय असुरश्रेष्ठ इल्वलने अपने भाई वातापिका मांस राँधकर उसके
द्वारा उन सबका आतिथ्य किया || २ ।।
ततो राजर्षय: सर्वे विषण्णा गतचेतस: ।
वातापिं संस्कृतं॑ दृष्टवा मेषभूतं महासुरम् ।। ३ ।।
भेड़के रूपमें महान् दैत्य वातापिको ही राँधा गया देख उन सभी राजर्षियोंका मन
खिन्न हो गया और वे अचेतसे हो गये ।। ३ ।।
अथाब्रवीदगस्त्यस्तान् राजर्षनृषिसत्तम: ।
विषादो वो न कर्तव्यो हाहं भोक्ष्ये महासुरम् ।। ४ ।।
धुर्यासनमथासाद्य निषसाद महानृषि: ।
त॑ पर्यवेषद् दैत्येन्द्र इल्वल: प्रहसन्निव ।। ५ ।।
तब ऋषिश्रेष्ठ अगस्त्यने उन राजर्षियोंसे (आश्वासन देते हुए) कहा--“तुमलोगोंको
चिन्ता नहीं करनी चाहिये। मैं ही इस महादैत्यको खा जाऊँगा।' ऐसा कहकर महर्षि
अगस्त्य प्रधान आसनपर जा बैठे और दैत्यराज इल्वलने हँसते हुए-से उन्हें वह मांस परोस
दिया || ४-५ ||
अगस्त्य एव कृत्स्नं तु वातापिं बुभुजे ततः ।
भुक्तवत्यसुरो55ह्लानमकरोत् तस्य चेल्वल: ।। ६ ।।
अगस्त्यजी ही वातापिका सारा मांस खा गये; जब वे भोजन कर चुके, तब असुर
इल्वलने वातापिका नाम लेकर पुकारा ।। ६ |।
ततो वायु: प्रादुरभूदधस्तस्य महात्मन: ।
शब्देन महता तात गर्जन्निव यथा घन: ।। ७ ।।
तात! उस समय महात्मा अगस्त्यकी गुदासे गर्जते हुए मेघकी भाँति भारी आवाजके
साथ अधोवायु निकली || ७ ।।
वातापे निष्क्रमस्वेति पुन: पुनरुवाच ह ।
त॑ प्रहस्याब्रवीद् राजन्नगस्त्यो मुनिसत्तम: || ८ ।।
इल्वल बार-बार कहने लगा--'वातापे! निकलो-निकलो।” राजन्! तब मुनिश्रेष्ठ
अगस्त्यने उससे हँसकर कहा-- ।। ८ ।।
कुतो निष्क्रमितुं शक्तो मया जीर्णस्तु सो5सुर: ।
इल्वलस्तु विषण्णो<भूद् दृष्टवा जीर्ण महासुरम् ।। ९ ।।
“अब वह कैसे निकल सकता है, मैंने (लोकहितके लिये) उस असुरको पचा लिया है।'
महादैत्य वातापिको पच गया देख इल्चलको बड़ा खेद हुआ ।। ९ ।।
प्राउजलिश्न सहामात्यैरिदं वचनमब्रवीत् |
किमर्थमुपयाता: स्थ ब्रूत कि करवाणि व: ।। १० ।।
उसने मन्त्रियोंसहित हाथ जोड़कर उन अतिथियोंसे यह बात पूछी--“आपलोग किस
प्रयोजनसे यहाँ पधारे हैं, बताइये, मैं आपलोगोंकी क्या सेवा करूँ?” ।। १० ।।
प्रत्युवाच ततो5गस्त्य: प्रहसन्निल्चलं तदा ।
ईशं हासुर विद्मस्त्वां वयं सर्वे धनेश्वरम् ।। ११ ।।
तब महर्षि अगस्त्यने हँ-कर इल्वलसे कहा--“असुर! हम सब लोग तुम्हें शक्तिशाली
शासक एवं धनका स्वामी समझते हैं ।। ११ ।।
एते च नातिधनिनो धनार्थश्च॒ महान् मम ।
यथाशव]त्यविहिंस्यान्यान् संविभागं प्रयच्छ न: ।। १२ ।।
'ये नरेश अधिक धनवान् नहीं हैं और मुझे बहुत धनकी आवश्यकता आ पड़ी है। अतः
दूसरे जीवोंको कष्ट न देते हुए अपने धनमेंसे यथाशक्ति कुछ भाग हमें दो” ।। १२ ।।
ततो$भिवाद्य तमृषिमिल्वलो वाक्यमब्रवीत् ।
दित्सितं यदि वेत्सि त्वं ततो दास्यामि ते वसु । १३ ||
तब इल्वलने महर्षिको प्रणाम करके कहा--'मैं कितना धन देना चाहता हूँ? यह बात
यदि आप जान लें तो मैं आपको धन दूँगा" || १३ ।।
अगस्त्य उवाच
गवां दशसहस्त्राणि राज्ञामेकेकशो5सुर ।
तावदेव सुवर्णस्य दित्सितं ते महासुर || १४ ।।
अगस्त्यजीने कहा--महान् असुर! तुम इनमेंसे एक-एक राजाको दस-दस हजार
गौएँ तथा इतनी ही (दस-दस हजार) सुवर्णमुद्राएँ देना चाहते हो || १४ ।।
महां ततो वै द्विगुणं रथश्वैव हिरण्मय: ।
मनोजवोौ वाजिनौ च दित्सितं ते महासुर ।। १५ ।।
इन राजाओंकी अपेक्षा दूनी गौएँ और सुवर्ण-मुद्राएँ तुमने मेरे लिये देनेका विचार किया
है। महादैत्य! इसके सिवा एक स्वर्णमय रथ, जिसमें मनके समान तीव्रगामी दो घोड़े जुते
हों, तुम मुझे और देना चाहते हो || १५ ।।
(लोमश उवाच
इल्वलस्तु मुनि प्राह सर्वमस्ति यथा55तथ माम् |
रथं तु यमवोचो मां नैनं विद्यो हिरण्मयम् ।।
लोमशजी कहते हैं--राजन्! इसपर इल्वलने अगस्त्य मुनिसे कहा कि “आपने मुझसे
जो कुछ कहा है, वह सब सत्य है; किंतु आपने जो मुझसे रथकी बात कही है, उस रथको
हमलोग सुवर्णमय नहीं समझते हैं'।
अगस्त्य उवाच
न मे वागनृता काचिदुक्तपूर्वा महासुर ।)
जिज्ञास्यतां रथ: सद्यो व्यक्त एष हिरण्मय: ।
अगस्त्यजीने कहा--महादैत्य! मेरे मुँहसे पहले कभी कोई बात झूठी नहीं निकली है,
अतः शीघ्र पता लगाओ, यह रथ निश्चय ही सोनेका है ।।
लोगमश उवाच
जिज्ञास्यमान: स रथ: कौन्तेयासीद्धिरण्मय: ।
ततः प्रव्यथितो दैत्यो ददावभ्यधिकं वसु ।। १६ ।।
लोमशजी कहते हैं--कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! पता लगानेपर वह रथ सोनेका ही
निकला, तब मनमें (भाईकी मृत्युसे) व्यथित हुए उस दैत्यने महर्षिको बहुत अधिक धन
दिया ।। १६ ।।
विरावश्व सुरावश्व तस्मिन् युक्तौ रथे हयौ |
ऊहतुः सवसूनाशु तावगस्त्याश्रमं प्रति | १७ ।।
सर्वान् राज्ञ: सहागस्त्यान् निमेषादिव भारत ।
(इल्वलस्त्वनुगम्यैनमगस्त्यं हन्तुमैच्छत ।
भस्म चक्रे महातेजा हुंकारेण महासुरम् ।।
मुनेराश्रममश्चौ तौ निन्यतुर्वातरंहसौ ।)
अगस्त्येनाभ्यनुज्ञाता जग्मू राजर्षयस्तदा ।
कृतवांश्व मुनि: सर्व लोपामुद्राचिकीर्षितम् ।। १८ ।।
उस रथमें विराव और सुराव नामक दो घोड़े जुते हुए थे। वे धनसहित राजाओं तथा
अगस्त्य मुनिको शीघ्र ही मानो पलक मारते ही अगस्त्याश्रमकी ओर ले भागे। उस समय
इल्वल असुरने अगस्त्य मुनिके पीछे जाकर उनको मारनेकी इच्छा की, परंतु महातेजस्वी
अगस्त्यमुनिने उस महादैत्य इल्वलको हुंकारसे ही भस्म कर दिया। तदनन्तर उन वायुके
समान वेगवाले घोड़ोंने उन सबको मुनिके आश्रमपर पहुँचा दिया। भरतनन्दन! फिर
अगस्त्यजीकी आज्ञा ले वे राजर्षिगण अपनी-अपनी राजधानीको चले गये और महर्षिने
लोपामुद्राकी सभी इच्छाएँ पूर्ण कीं || १७-१८ ।।
लोपामुद्रोवाच
कृतवानसि तत् सर्व भगवन् मम काड्क्षितम् ।
उत्पादय सकृन्मह्ममपत्यं वीर्यवत्तरम् ।। १९ ।।
लोपामुद्रा बोली--भगवन्! मेरी जो-जो अभिलाषा थी, वह सब आपने पूर्ण कर दी।
अब मुझसे एक अत्यन्त शक्तिशाली पुत्र उत्पन्न कीजिये ।। १९ ।।
अगस्त्य उवाच
तुष्टो*हमस्मि कल्याणि तव वृत्तेन शोभने ।
विचारणामपत्ये तु तव वक्ष्यामि तां शृणु ।। २० ।।
अगस्त्यजीने कहा--शोभामयी कल्याणी! तुम्हारे सद्व्यवहारसे मैं बहुत संतुष्ट हूँ।
पुत्रके सम्बन्धमें तुम्हारे सामने एक विचार उपस्थित करता हूँ, सुनो || २० ।।
सहसंरं तेअस्तु पुत्राणां शतं वा दशसम्मितम् ।
दश वा शततुल्या: स्युरेको वापि सहस्रजित् ।। २१ ।।
क्या तुम्हारे गर्भसे एक हजार या एक सौ पुत्र उत्पन्न हों, जो दसके ही समान हों?
अथवा दस ही पुत्र हों, जो सौ पुत्रोंकी समानता करनेवाले हों? अथवा एक ही पुत्र हो, जो
हजारोंको जीतनेवाला हो? ।। २१ ।।
लोपामुद्रोवाच
सहस्नसम्मित: पुत्र एको<प्यस्तु तपोधन ।
एको हि बहुभि: श्रेयान् विद्वान् साधुरसाधुभि: || २२ ।।
लोपामुद्रा बोली--तपोधन! मुझे सहस्रोंकी समानता करनेवाला एक ही श्रेष्ठ पुत्र
प्राप्त हो; क्योंकि बहुत-से दुष्ट पुत्रोंकी अपेक्षा एक ही विद्दान् एवं श्रेष्ठ पुत्र उत्तम माना गया
है ।। २२ ।।
लोगश उवाच
स तथेति प्रतिज्ञाय तया समभवन्मुनि: ।
समये समशीलिन्या श्रद्धावाउ्छुद्दधधानया ।। २३ ।।
लोमशजी कहते हैं--राजन्! तब “तथास्तु” कहकर श्रद्धालु महात्मा अगस्त्यने समान
शील-स्वभाववाली श्रद्धालु पत्नी लोपामुद्राके साथ यथासमय समागम किया ।। २३ ।।
तत आधाय गर्भ तमगमद् वनमेव स: ।
तस्मिन् वनगते गर्भो ववृधे सप्त शारदान् ।। २४ ।।
गर्भाधान करके अगस्त्यजी फिर वनमें ही चले गये। उनके वनमें चले जानेपर वह गर्भ
सात वर्षोंतक माताके पेटमें ही पलता और बढ़ता रहा ।। २४ ।।
सप्तमेडब्दे गते चापि प्राच्यवत् स महाकवि: ।
ज्वलन्निव प्रभावेण दृढस्युर्नाम भारत ।। २५ ।।
भारत! सात वर्ष बीतनेपर अपने तेज और प्रभावसे प्रज्वलित होता हुआ वह गर्भ
उदरसे बाहर निकला। वही महादिद्दान् दृढस्युके नामसे विख्यात हुआ ।। २५ ।।
साड्रोपनिषदान् वेदाञ्जपन्निव महातपा: ।
तस्य पुत्रो5$भवदृषे: स तेजस्वी महाद्विज: ।। २६ ।।
महर्षिका वह महातपस्वी और तेजस्वी पुत्र जन्म-कालसे ही अंग और उपनिषदोंसहित
सम्पूर्ण वेदोंका स्वाध्याय-सा करता जान पड़ा। दृढस्यु ब्राह्मणोंमें महान् माने गये || २६ ।।
स बाल एव तेजस्वी पितुस्तस्य निवेशने ।
इध्मानां भारमाजद्ठे इध्मवाहस्ततो5भवत् ।। २७ ।।
पिताके घरमें रहते हुए तेजस्वी दृढस्यु बाल्य-कालसे ही इध्म (समिधा)-का भार वहन
करके लाने लगे; अतः “इध्मवाह” नामसे विख्यात हो गये || २७ ।।
तथायुक्तं तु तं दृष्टवा मुमुदे स मुनिस्तदा ।
एवं स जनयामास भारतापत्यमुत्तमम् ।। २८ ।।
अपने पुत्रको स्वाध्याय और समिधानयनके कार्यमें संलग्न देख महर्षि अगस्त्य उस
समय बहुत प्रसन्न हुए। भारत! इस प्रकार अगस्त्यजीने उत्तम संतान उत्पन्न की || २८ ।।
लेभिरे पितरश्नलास्य लोकान् राजन् यथेप्सितान् ।
तत ऊर्ध्वमयं ख्यातस्त्वगस्त्यस्याश्रमो भुवि ।। २९ ।।
राजन्! तदनन्तर उनके पितरोंने मनोवांछित लोक प्राप्त कर लिये। उसके बादसे यह
स्थान इस पृथ्वीपर अगस्त्याश्रमके नामसे विख्यात हो गया ।। २९ ।।
प्राह्नादिरेवं वातापिरगस्त्येनोपशामित: ।
तस्यायमाश्रमो राजन् रमणीयैर्गुणैर्युत: ।। ३० ।।
वातापि प्रह्नादके गोत्रमें उत्पन्न हुआ था, जिसे अगस्त्यजीने इस प्रकार शान्त कर
दिया। राजन! यह उन्हींका रमणीय गुणोंसे युक्त आश्रम है ।। ३० ।।
एषा भागीरथी पुण्या देवगन्धर्वसेविता ।
वातेरिता पताकेव विराजति नभस्तले ।। ३१ ।।
इसके-समीप यह वही देव-गन्धर्वसेवित पुण्यसलिला भागीरथी है, जो आकाशमें
वायुकी प्रेरणासे फहरानेवाली श्वेत पताकाके समान सुशोभित हो रही है ।। ३१ ।।
प्रतार्यमाणा कूटेषु यथा निम्नेषु नित्यश: ।
शिलातलेषु संत्रस्ता पन्नगेन्द्रवधूरिव ।। ३२ ।।
यह क्रमशः नीचे-नीचेके शिखरोंपर गिरती हुई सदा तीव्रगतिसे बहती है और
शिलाखण्डोंके नीचे इस प्रकार समायी जाती है, मानो भयभीत सर्पिणी बिलमें घुसी जा
रही हो ।। ३२ ।।
दक्षिणां वै दिशं सर्वा प्लावयन्ती च मातृवत् ।
पूर्व शम्भोर्जटा भ्रष्टा समुद्रमहिषी प्रिया ।
अस्यां नद्यां सुपुण्यायां यथेष्टमवगाह[ुताम् ।। ३३ ।।
पहले भगवान् शंकरकी जटासे गिरकर प्रवाहित होनेवाली समुद्रकी प्रियतमा महारानी
गंगा सम्पूर्ण दक्षिण दिशाको इस प्रकार आप्लावित कर रही है, मानो माता अपनी संतानको
नहला रही हो। इस परम पवित्र नदीमें तुम इच्छानुसार स्नान करो || ३३ ।।
युधिष्ठिर निबोधेदं त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ।
भृगोस्तीर्थ महाराज महर्षिगणसेवितम् ।। ३४ ।।
महाराज युधिष्ठिर! इधर ध्यान दो, यह महर्षि-गणसेवित भृगुतीर्थ है, जो तीनों लोकोंमें
विख्यात है ।।
यत्रोपस्पृष्टवान् रामो हृतं तेजस्तदा55प्तवान् ।
अत्र त्वं भ्रातृभि: सार्थ कृष्णया चैव पाण्डव ।। ३५ ।।
दुर्योधनहृतं तेज: पुनरादातुमर्हसि ।
कृतवैरेण रामेण यथा चोपदहृतं पुनः ।। ३६ ।।
जहाँ परशुरामजीने स्नान किया और उसी क्षण अपने खोये हुए तेजको पुनः प्राप्त कर
लिया। पाण्डुनन्दन! तुम अपने भाइयों और द्रौपदीके साथ इसमें स्नान करके दुर्योधनद्वारा
छीने हुए अपने तेजको पुनः प्राप्त कर सकते हो। जैसे दशरथनन्दन श्रीरामसे वैर करनेपर
उनके द्वारा अपहृत हुए तेजको परशुरामने यहाँ स्नानके प्रभावसे पुनः पा लिया
था || ३५-३६ ||
वैशम्पायन उवाच
सतत्र भ्रातृभिश्वैव कृष्णया चैव पाण्डव: ।
स्नात्वा देवान् पितृश्चिव तर्पपामास भारत ।। ३७ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तब राजा युधिष्ठिरने अपने भाइयों और
द्रौपदीके साथ उस तीर्थमें स्नान करके देवताओं और पितरोंका तर्पण किया ।। ३७ ।।
तस्य तीर्थस्य रूप॑ वै दीप्ताद् दीप्ततरं बभौ ।
अप्रधृष्यतरश्नासीच्छात्रवाणां नरर्षभ ।। ३८ ।।
नरश्रेष्ठ) उस तीर्थमें स्नान कर लेनेपर राजा युधिष्ठिरका रूप अत्यन्त तेजोयुक्त हो
प्रकाशमान हो गया। अब वे शत्रुओंके लिये परम दुर्धर्ष हो गये || ३८ ।।
अपृच्छच्चैव राजेन्द्र लोमशं पाण्डुनन्दन: ।
भगवन् किमर्थ रामस्य हृतमासीद् वपु: प्रभो |
कथं प्रत्याहृतं चैव एतदाचक्ष्व पृच्छत: ।। ३९ ।।
राजेन्द्र! उस समय पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरने महर्षि लोमशसे पूछा--“भगवन्!
परशुरामजीके तेजका अपहरण किसलिये किया गया था और प्रभो! वह इन्हें पुन: किस
प्रकार प्राप्त हो गया? यह मैं जानना चाहता हूँ। आप कृपा करके इस प्रसंगका वर्णन
करें! ।। ३९ |।
लोमश उवाच
शृणु रामस्य राजेन्द्र भार्गवस्य च धीमत: ।
जातो दशरथस्यासीत् पुत्रो रामो महात्मन: ।। ४० ।।
विष्णु: स्वेन शरीरेण रावणस्य वधाय वै |
पश्यामस्तमयोध्यायां जातं दाशरथिं तत: ।। ४१ ।।
लोमशजीने कहा--राजेन्द्र! तुम दशरथनन्दन श्रीराम तथा परम बुद्धिमान् भृगुनन्दन
परशुरामजीका चरित्र सुनो। पूर्वकालमें महात्मा राजा दशरथके यहाँ साक्षात् भगवान् विष्णु
अपने ही सच्चिदानन्दमय विग्रहसे श्रीरामरूपमें अवतीर्ण हुए थे। उनके अवतारका उद्देश्य
था--पापी रावणका विनाश। अयोध्यामें प्रकट हुए दशरथनन्दन श्रीरामका हम लोग प्राय:
दर्शन करते रहते थे || ४०-४१ ।।
ऋचीकनन्दनो रामो भार्गवो रेणकासुत: ।
तस्य दाशरथे: श्रुत्वा रामस्याक्लिष्टकर्मण: ।। ४२ ।।
कौतूहलान्वितो रामस्त्वयोध्यामगमत् पुनः ।
धनुरादाय तद् दिव्यं क्षत्रियाणां निबर्हणम् ।। ४३ ।।
अनायास ही महान् कर्म करनेवाले दशरथकुमार श्रीरामका भारी पराक्रम सुनकर भृगु
तथा ऋचीकके वंशज रेणुकानन्दन परशुराम उन्हें देखनेके लिये उत्सुक हो क्षत्रियसंहारक
दिव्य धनुष लिये अयोध्यामें आये || ४२-४३ ।।
जिज्ञासमानो रामस्य वीर्य दाशरथेस्तदा ।
त॑ वै दशरथ: श्रुत्वा विषयान्तमुपागतम् ।। ४४ ।।
प्रेषयामास रामस्य राम॑ पुत्र पुरस्कृतम् ।
स तमभ्यागतं दृष्टवा उद्यतास्त्रमवस्थितम् ।। ४५ ।।
प्रहसन्निव कौन्तेय रामो वचनमत्रवीत् ।
कृतकाल हि राजेन्द्र धनुरेतन्मया विभो ।। ४६ ।।
समारोपय यत्नेन यदि शक््नोषि पार्थिव ।
उनके शुभागमनका उद्देश्य था दशरथनन्दन श्रीरामके बल-पराक्रमकी परीक्षा करना।
महाराज दशरथने जब सुना कि परशुरामजी हमारे राज्यकी सीमापर आ गये हैं, तब उन्होंने
मुनिकी अगवानीके लिये अपने पुत्र श्रीरामको भेजा। कुन्तीनन्दन! श्रीरामचन्द्रजी धनुष-
बाण हाथमें लिये आकर खड़े हैं, यह देखकर परशुरामजीने हँसते हुए कहा--'राजेन्द्र!
प्रभो! भूपाल! यदि तुममें शक्ति हो तो यत्नपूर्वक इस धनुषपर प्रत्यज्चा चढ़ाओ। यह वह
धनुष है जिसके द्वारा मैंने क्षत्रियोंका संहार किया है” || ४४-४६ $ ।।
इत्युक्तस्त्वाह भगवंस्त्वं नाधिक्षेप्तुमहसि ।। ४७ ।।
उनके ऐसा कहनेपर श्रीरामचन्द्रजीने कहा--“भगवन्! आपको इस तरह आक्षेप नहीं
करना चाहिये ।।
नाहमप्यधमो धर्मे क्षत्रियाणां द्विजातिषु ।
इक्ष्वाकूणां विशेषेण बाहुवीर्यें न कत्थनम् ।। ४८ ।।
“मैं भी समस्त द्विजातियोंमें क्षत्रियरर्मका पालन करनेमें अधम नहीं हूँ। विशेषतः
इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रिय अपने बाहुबलकी प्रशंसा नहीं करते” || ४८ ।।
तमेवंवादिनं तत्र रामो वचनमत्रवीत् |
अलं वै व्यपदेशेन धनुरायच्छ राघव ।। ४९ ।।
श्रीरामचन्द्रजीके ऐसा कहनेपर परशुरामजी बोले--“रघुनन्दन! बातें बनानेकी कोई
आवश्यकता नहीं। यह धनुष लो और इसपर प्रत्यज्चा चढ़ाओ' ।। ४९ ।।
ततो जग्राह रोषेण क्षत्रियर्षभसूदनम् ।
रामो दाशरअथिर्दिव्यं हस्तादू रामस्य कार्मुकम् ।। ५० ।।
धनुरारोपयामास सलील इव भारत ।
ज्याशब्दमकरोच्चैव स्मयमान: स वीर्यवान् ।। ५१ ।।
तब दशरथनन्दन श्रीरामजीने रोषपूर्वक परशुरामका वह वीर क्षत्रियोंका संहारक दिव्य
धनुष उनके हाथसे ले लिया। भारत! उन्होंने लीलापूर्वक प्रत्यज्चा चढ़ा दी। तत्पश्चात्
पराक्रमी श्रीरामचन्द्रजीने मुसकराते हुए धनुषकी टंकार फैलायी || ५०-५१ ।।
तस्य शब्दस्य भूतानि वित्रसन्त्यशनेरिव ।
अथाब्रवीत् तदा रामो रामं॑ दाशरथिस्तदा ।। ५२ ।।
इदमारोपितं ब्रह्मन् किमन्यत् करवाणि ते ।
तस्य रामो ददौ दिव्यं जामदग्न्यो महात्मन: ।
शरमाकर्णदेशान्तमयमाकृष्यतामिति ।। ५३ ।।
बिजलीकी गड़गड़ाहटके समान उस टंकार-ध्वनिको सुनकर सब प्राणी घबरा उठे। उस
समय दशरथनन्दन श्रीरामने परशुरामजीसे कहा--“ब्रह्मन! यह धनुष तो मैंने चढ़ा दिया
अब और आपका कौन-सा कार्य करूँ?” तब जमदग्निनन्दन परशुरामने महात्मा
श्रीरामचन्द्रजीको एक दिव्य बाण दे दिया और कहा--“इसे धनुषपर रखकर अपने कानके
पासतक खींचिये” ।।
लोगश उवाच
एतच्छुत्वाब्रवीद् राम: प्रदीप्त इव मन्युना ।
श्रूयते क्षम्यते चैव दर्पपूर्णोईसि भार्गव ।। ५४ ।।
लोमशजी कहते हैं--राजन्! इतना सुनते ही श्रीरामचन्द्रजी मानो क्रोधसे प्रज्वलित
हो उठे और बोले--'भृगुनन्दन! तुम बड़े घमण्डी हो। मैं तुम्हारी कठोर बातें सुनता हूँ फिर
क्षमा कर लेता हूँ ।। ५४ ।।
त्वया हाुधिगतं तेज: क्षत्रियेभ्यो विशेषत: ।
पितामहप्रसादेन तेन मां क्षिपसि श्रुवम् ।। ५५ ।।
“तुमने अपने पितामह ऋचीकके प्रभावसे क्षत्रियोंको जीतकर विशेष तेज प्राप्त किया
है, निश्चय ही, इसीलिये मुझपर आक्षेप करते हो ।। ५५ ।।
पश्य मां स्वेन रूपेण चक्षुस्ते वितराम्पहम् ।
ततो रामशरीरे वै राम: पश्यति भार्गव: ।। ५६ ।।
आदित्यान् सवसून् रुद्रान् साध्यांश्व समरुद्रणान् ।
पितरो हुताशनश्लैव नक्षत्राणि ग्रहास्तथा ।। ५७ ।।
गन्धर्वा राक्षसा यक्षा नद्यस्तीर्थानि यानि च ।
ऋषयो बालखिल्याश्न ब्रह्म भूता: सनातना: ।। ५८ ।।
देवर्षयश्न कार्त्स्न्येन समुद्रा: पर्वतास्तथा ।
वेदाश्न सोपनिषदों वषट्करै: सहाध्वरै: ।। ५९ ||
चेतोमन्ति च सामानि धरनुर्वेदश्न भारत ।
मेघवृन्दानि वर्षाणि विद्युतश्न युधिछ्विर ।। ६० ।।
"लो! मैं तुम्हें दिव्यदृष्टि देता हूँ। उसके द्वारा मेरे यथार्थ स्वरूपका दर्शन करो।' तब
भुगुवंशी परशुरामजीने श्रीरामचन्द्रजीके शरीरमें बारह आदित्य, आठ वसु, ग्यारह रुद्र,
साध्य देवता, उनचास मरुद्गण, पितृगण, अग्निदेव, नक्षत्र, ग्रह, गन्धर्व, राक्षस, यक्ष,
नदियाँ, तीर्थ, सनातन ब्रह्मभूत बालखिल्य ऋषि, देवर्षि, सम्पूर्ण समुद्र, पर्वत,
उपनिषदोंसहित वेद, वषट्कार, यज्ञ, साम और धरनुर्वेद, इन सभीको चेतनरूप धारण किये
हुए प्रत्यक्ष देखा। भरतनन्दन युधिष्ठिर! मेघोंके समूह, वर्षा और विद्युत्का भी उनके भीतर
दर्शन हो रहा था || ५६--६० ।।
ततः स भगवान् विष्णुस्तं वै बाणं मुमोच ह ।
शुष्काशनिसमाकीर्ण महोल्काभि श्ष भारत ।। ६१ ।।
पांसुवर्षेण महता मेघवर्षश्व भूतलम् ।
भूमिकम्पैश्न निर्धातिनदिश्व विपुलैरपि ।। ६२ ।।
तदनन्तर भगवान् विष्णुरूप श्रीरामचन्द्रजीने उस बाणको छोड़ा। भारत! उस समय
सारी पृथ्वी बिना बादलकी बिजली और बड़ी-बड़ी उल्काओंसे व्याप्त-सी हो उठी। बड़े
जोरकी आँधी उठी और सब ओर धूलकी वर्षा होने लगी। फिर मेघोंकी घटा घिर आयी और
भूतलपर मूसलाधार वर्षा होने लगी। बार-बार भूकम्प होने लगा। मेघगर्जन तथा अन्य
भयानक उत्पातसूचक शब्द गूँजने लगे || ६१-६२ ।।
सरामं विह्नलं कृत्वा तेजश्चाक्षिप्प केवलम् |
आगच्छज्ज्वलितो बाणो रामबाहुप्रचोदित: ।। ६३ ।।
श्रीरामचन्द्रजीकी भुजाओंसे प्रेरित हुआ वह प्रज्वलित बाण परशुरामजीको व्याकुल
करके केवल उनके तेजको छीनकर पुन: लौट आया ।। ६३ ||
स तु विद्धलतां गत्वा प्रतिलभ्य च चेतनाम् ।
राम: प्रत्यागतप्राण: प्राणमद् विष्णुतेजसम् ।। ६४ ।।
विष्णुना सो<भ्यनुज्ञातो महेन्द्रमगमत् पुन: ।
भीतस्तु तत्र न्यवसद् व्रीडितस्तु महातपा: ।। ६५ ।।
परशुरामजी एक बार मूर्च्छित होकर जब पुन: होशमें आये तब मरकर जी उठे हुए
मनुष्यकी भाँति उन्होंने विष्णुतेज धारण करनेवाले भगवान् श्रीरामको नमस्कार किया।
तत्पश्चात् भगवान् विष्णु श्रीरामकी आज्ञा लेकर वे पुनः महेन्द्रपर्वतपर चले गये। वहाँ
भयभीत और लज्जित हो महान् तपस्यामें संलग्न होकर रहने लगे || ६४-६५ ।।
ततः संवत्सरे5तीते हृतौजसमवस्थितम् |
निर्मदं दु:खितं दृष्टवा पितरो राममनत्रुवन् ।। ६६ ।।
तदनन्तर एक वर्ष व्यतीत होनेपर तेजोहीन और अभिमानशून्य होकर रहनेवाले
परशुरामको दुःखी देखकर उनके पितरोंने कहा ।। ६६ ।।
पितर ऊचु.
न वै सम्यगिदं पुत्र विष्णुमासाद्य वै कृतम् ।
स हि पूज्यश्व मान्यश्न त्रिषु लोकेषु सर्वदा || ६७ ।।
पितर बोले--तुमने भगवान् विष्णुके पास जाकर जो बर्ताव किया है वह ठीक नहीं
था। वे तीनों लोकोंमें सर्वदा पूजनीय और माननीय हैं ।। ६७ ।।
गच्छ पुत्र नदीं पुण्यां वधूसरकृताह्वयाम् ।
तत्रोपस्पृश्य तीर्थेषु पुनर्वपुरवाप्स्यसि ।। ६८ ।।
बेटा! अब तुम वधूसर नामक पुण्यमयी नदीके तटपर जाओ। वहाँ तीर्थोंमें स्नान करके
पूर्ववत् अपना तेजोमय शरीर पुनः प्राप्त कर लोगे || ६८ ।।
दीप्तोदं नाम तत् तीर्थ यत्र ते प्रपितामह: ।
भृगुर्देवयुगे राम तप्तवानुत्तमं तप: ।। ६९ ।।
राम! वह दीप्तोदक नामक तीर्थ है, जहाँ देवयुगमें तुम्हारे प्रपितामह भृगुने उत्तम
तपस्या की थी ।। ६९ ।।
तत् तथा कृतवान् राम: कौन्तेय वचनात् पितु: ।
प्राप्तवांश्व॒ पुनस्तेजस्तीर्थेंडस्मिन् पाण्डुनन्दन || ७० ।।
कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! पितरोंके कहनेसे परशुरामजीने वैसा ही किया। पाण्डुनन्दन!
इस तीर्थमें नहाकर पुन: उन्होंने अपना तेज प्राप्त कर लिया || ७० ।।
एतदीदृशकं तात रामेणाक्लिष्टकर्मणा ।
प्राप्तमासीन्महाराज विष्णुमासाद्य वै पुरा || ७१ ।।
तात महाराज युधिष्छिर! इस प्रकार पूर्वकालमें अनायास ही महान् कर्म करनेवाले
परशुराम विष्णुस्वरूप श्रीरामचन्द्रजीसे भिड़कर इस दशाको प्राप्त हुए थे || ७१ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां
जामदग्न्यतेजोहानिकथने एकोनशततमो<ध्याय: ।। ९९ ||
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोगशती ्थयात्राके प्रसंगमें
परशुरामके तेजकी हानिविषयक +िन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ९९ ॥
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ श्लोक मिलाकर कुल ७४ श्लोक हैं)
अऑरड..2 #९23. | हि २ 7
शततमो< ध्याय:
वृत्रासुरसे त्रस््त देवताओंको महर्षि दधीचका अस्थिदान एवं
वज्रका निर्माण
युधिछिर उवाच
भूय एवाहमिच्छामि महर्षेस्तस्य धीमत: ।
कर्मणां विस्तरं श्रोतुमगस्त्यस्य द्विजोत्तम ।। १ ।।
युधिष्ठिरने कहा-दद्विजश्रेष्ठ! मैं पुनः बुद्धिमान् महर्षि अगस्त्यजीके चरित्रका
विस्तारपूर्वक वर्णन सुनना चाहता हूँ ।। १ ।।
लोगमश उवाच
शृणु राजन् कथां दिव्यामद्भुतामतिमानुषीम् ।
अगस्त्यस्य महाराज प्रभावममितौजस: ।। २ ।।
लोमशजीने कहा--महाराज! अमिततेजस्वी महर्षि अगस्त्यकी कथा दिव्य, अद्भुत
और अलौकिक है। उनका प्रभाव महान् है। मैं उसका वर्णन करता हूँ, सुनो || २ ।।
आसन कृतयुगे घोरा दानवा युद्धदुर्मदा: ।
कालकेया इति ख्याता गणा: परमदारुणा: ।॥। ३ ।।
सत्ययुगकी बात है, दैत्योंके बहुत-से भयंकर दल थे जो कालकेय नामसे विख्यात थे।
उनका स्वभाव अत्यन्त निर्दय था। वे युद्धमें उन््मत्त होकर लड़ते थे ।। ३ ।।
ते तु वृत्रं समाश्रित्य नानाप्रहरणोद्यता: ।
समन्तात् पर्यधावन्त महेन्द्रप्रमुखान् सुरान् ।। ४ ।।
उन सबने एक दिन वृत्रासुरकी शरण ले उसकी अध्यक्षतामें नाना प्रकारके आयुधोंसे
सुसज्जित हो महेन्द्र आदि देवताओंपर चारों ओरसे आक्रमण किया ।। ४ ।।
ततो वृत्रवधे यत्नमकुर्वस्त्रिदशा: पुरा ।
पुरंदरं पुरस्कृत्य ब्रह्माणमुपतस्थिरे ।। ५ ।।
तब समस्त देवता वृत्रासुरके वधके प्रयत्नमें लग गये। वे देवराज इन्द्रको आगे करके
ब्रह्माजीके पास गये ।। ५ ।।
कृताञ्जलीस्तु तान् सर्वान् परमेष्ठीत्युवाच ह ।
विदितं मे सुरा: सर्व यद् वः कार्य चिकीर्षितम् ।। ६ ।।
वहाँ पहुँचकर सब देवता हाथ जोड़कर खड़े हो गये। तब ब्रह्माजीने उनसे कहा
--देवताओ! तुम जो कार्य सिद्ध करना चाहते हो वह सब मुझे मालूम है || ६ ।।
तमुपायं प्रवक्ष्यामि यथा वृत्रं वधिष्यथ ।
दधीच इति विख्यातो महानृषिरुदारधी: ।। ७ ।॥।
त॑ गत्वा सहिता: सर्वे वरं वै सम्प्रयाचत ।
स वो दास्यति धर्मात्मा सुप्रीतेनान्तरात्मना ।। ८ ।।
“मैं तुम्हें एक उपाय बता रहा हूँ, जिससे तुम वृत्रासुरका वध कर सकोगे। दधीच नामसे
विख्यात जो उदारचेता महर्षि हैं, उनके पास जाकर तुम सब लोग एक साथ एक ही वर
माँगो। वे बड़े धर्मात्मा हैं। अत्यन्त प्रसन्नमनसे तुम्हें मुँहमाँगी वस्तु देंगे || ७-८ ।।
स वाच्य: सहितै: सर्वैर्भवद्धिर्जयकाड्क्षिभि: ।
स्वान्यस्थीनि प्रयच्छेति त्रैलोक्यस्य हिताय वै ।। ९ ।।
“जब वे वर देना स्वीकार कर लें तब विजयकी अभिलाषा रखनेवाले तुम सब लोग
उनसे एक साथ यों कहना--“महात्मन्! आप तीनों लोकोंके हितके लिये अपने शरीरकी
हड्डियाँ प्रदान करें" ।। ९ ।।
स शरीर समुत्सज्य स्वान्यस्थीनि प्रदास्यति ।
तस्यास्थिभिर्महाघोरं वजन संस्क्रियतां दृढम् ।। १० ।।
“तुम्हारे माँगनेपर वे शरीर त्यागकर अपनी हड्डियाँ दे देंगे। उनकी उन हलड्डियोंद्वारा
तुमलोग सुदृढ़ एवं अत्यन्त भयंकर वज्रका निर्माण करो ।। १० ।।
महच्छत्रुहणं घोरं षडश्र॑ भीमनि:स्वनम् ।
तेन वज्नेण वै वृत्रं वधिष्यति शतक्रतु: ।। ११ ।।
देवराज इन्द्रका वजके प्रहारसे वृत्रासुरका वध करना
“उसकी आकृति षट्कोणके समान होगी। वह महान् एवं घोर शत्रुनाशक अस्त्र भयंकर
गड़गड़ाहट पैदा करनेवाला होगा। उस वचज्के द्वारा इन्द्र निश्चय ही वृत्रासुरका वध कर
डालेंगे || ११ ।।
एतद् व: सर्वमाख्यातं तस्माच्छीघ्रं विधीयताम् ।
एवमुक्तास्ततो देवा अनुज्ञाप्प पितामहम् ।। १२ ।।
नारायणं पुरस्कृत्य दधीचस्वाश्रमं ययु: ।
सरस्वत्या: परे पारे नानाद्रुमलतावृतम् ।। १३ ।।
'ये सब बातें मैंने तुम्हें बता दी हैं। अतः अब शीघ्रता करो।' ब्रह्माजीके ऐसा करनेपर
सब देवता उनकी आज्ञा ले भगवान् नारायणको आगे करके दधीचके आश्रमपर गये। वह
आश्रम सरस्वती नदीके उस पार था। अनेक प्रकारके वृक्ष और लताएँ उसे घेरे हुए
थीं।। १२-१३ ।।
षट्पदोदगीतनिनदैर्विघुष्टं सामगैरिव ।
पुंस्कोकिलरवोन्मिश्र॑ं जीव॑ं जीवकनादितम् ।। १४ ।।
भ्रमरोंके गीतोंकी ध्वनिसे वह स्थान इस प्रकार गूँज रहा था, मानो सामगान करनेवाले
ब्राह्मणोंद्वारा सामवेदका पाठ हो रहा हो। कोकिलके कलरवोंसे कूजित और दूसरे जन्तुओं
(पशु-पक्षियों) के शब्दोंसे कोलाहलपूर्ण बना हुआ वह आश्रम सजीव-सा जान पड़ता
था || १४ ||
महिषैश्न वराहैश्न सृमरैश्वमरैरपि ।
तत्र तत्रानुचरितं शार्टूलभयवर्जिति: ।। १५ ।।
भैंसे, सूअर, बालमृग और चवँरी गायें बाघ-सिंहोंके भयसे रहित हो उस आश्रमके
आस-पास विचर रही थीं || १५ ।।
करेणुभिवररिणैश्व प्रभिन्नकरटामुखै: ।
सरो<वगाढै: क्रीडद्धि:ः समन््तादनुनादितम् ।। १६ ।।
अपने कपोलोंसे मदकी धारा बहानेवाले हाथी और हथिनियाँ वहाँ सरोवरके जलनमें
गोते लगाकर क्रीड़ाएँ कर रहे थे, जिससे आश्रमके चारों ओर कोलाहल-सा हो रहा
था || १६ ||
सिंहव्याप्रैर्महानादान्नदद्धिरनुनादितम् ।
अपरैश्नापि संलीनैर्गुहाकन्दरशायिभि: ।। १७ ।।
पर्वतोंकी गुफाओं तथा कन्दराओंमें लेटे, झाड़ियोंमें छिपे और वनमें विचरते हुए जोर-
जोरसे दहाड़नेवाले सिंहों और व्याप्रोंकी गर्जनासे वह स्थान गूँज रहा था ।।
तेषु तेष्ववकाशेषु शोभितं सुमनोरमम् ।
त्रिविष्टपसमप्रख्यं दधीचाश्रममागमन् ।। १८ ।।
विभिन्न स्थानोंमें अधिक शोभा पानेवाला महर्षि दधीचका वह मनोरम आश्रम स्वर्गके
समान प्रतीत होता था। देवता लोग वहाँ आ पहुँचे || १८ ।।
तत्रापश्यन् दधीचं ते दिवाकरसमद्युतिम् |
जाज्वल्यमानं वपुषा यथा लक्ष्म्या पितामहम् । १९ ।।
उन्होंने देखा, महर्षि दधीच भगवान् सूर्यके समान तेजसे प्रकाशित हो रहे हैं। अपने
शरीरकी दिव्य कान्तिसे साक्षात॒ ब्रह्माजीके समान जान पड़ते हैं ।। १९ ।।
तस्य पादौ सुरा राजन्नभिवाद्य प्रणम्य च |
अयाचन्त वरं सर्वे यथोक्तं परमेछ्टिना || २० ||
राजन! उस समय सब देवताओंने महर्षिके चरणोंमें अभिवादन एवं प्रणाम करके
ब्रह्माजीने जैसे कहा था, उसी प्रकार उनसे वर माँगा || २० ।।
ततो दधीच: परमप्रतीत:
सुरोत्तमांस्तानिदम भ्युवाच ।
करोमि यद् वो हितमद्य देवा:
स्वं चापि देहं स्वयमुत्सूजामि || २१ ।।
तब महर्षि दधीचने अत्यन्त प्रसन्न होकर उन श्रेष्ठ देवताओंसे इस प्रकार कहा
--देवगण! आज मैं वही करूँगा, जिससे आपलोगोंका हित हो। अपने इस शरीरको मैं
स्वयं ही त्याग देता हूँ! ।। २१ ।।
स एवमुकक्त्वा द्विपदां वरिष्ठ:
प्राणान् वशी स्वान् सहसोत्ससर्ज |
ततः सुरास्ते जगृहुः परासो-
रस्थीनि तस्याथ यथोपदेशम् ।। २२ ।।
ऐसा कहकर मनुष्योंमें श्रेष्ठ, जितेन्द्रिय महर्षि दधीचने सहसा अपने प्राणोंका त्याग कर
दिया। तब देवताओंने ब्रह्माजीके उपदेशके अनुसार महर्षिके निर्जीव शरीरसे हड्डियाँ ले
लीं ।। २२ ।।
प्रह्ृष्टरूपा कश्ष॒ जयाय देवा-
स्त्वष्टारमागम्य तमर्थमूचु: ।
त्वष्टा तु तेषां वचन निशम्य
प्रह्ृष्टरूप: प्रयत: प्रयत्नात् ।। २३ ।।
चकार वजं भृशमुग्ररूप॑ं
कृत्वा च शक्रं स उवाच हृष्ट: ।
अनेन वज्प्रवरेण देव
भस्मीकुरुष्वाद्य सुरारिमुग्रम् ।। २४ ।।
इसके बाद वे हर्षोल्लाससे भरकर विजयकी आशा लिये त्वष्टा प्रजापतिके पास आये
और उनसे अपना प्रयोजन बताया। देवताओंकी बात सुनकर त्वष्टा प्रजापति बड़े प्रसन्न
हुए। उन्होंने एकाग्रचित्त हो प्रयत्नपूर्वक अत्यन्त भयंकर वज्रका निर्माण किया। तत्पश्चात् वे
हर्षमें भरकर इन्द्रसे बोले--'देव! इस उत्तम वज़से आप आज ही भयंकर देवद्रोही
वृत्रासुरको भस्म कर डालिये ।।
ततो हतारि: सगण: सुखं वै
प्रशाधि कृत्स्नं त्रिदिवं दिविष्ठ: ।
त्वष्टा तथोक्तस्तु पुरंदरस्तद्
वज् प्रद्ृष्ट: प्रयतो हागृह्नात् ।। २५ ।।
“इस प्रकार शत्रुके मारे जानेपर आप देवगणोंके साथ स्वर्गमें रहकर सुखपूर्वक सम्पूर्ण
स्वर्गका शासन एवं पालन कीजिये।” त्वष्टा प्रजापतिके ऐसा कहनेपर इन्द्रको बड़ी प्रसन्नता
हुई। उन्होंने शुद्धचित्त होकर उनके हाथसे वह वज्र ले लिया | २५ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां वजनिर्माणक थने
शततमो<ध्याय: ।। १०० ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोगशती र्थयात्राके प्रसंगमें
वज्ननिर्माणमकथनविषयक सौवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०० ॥/
अपना स२ (0 अवज असल
एकाधिकशततमो< ध्याय:
वृत्रासुरका वध और असुरोंकी भयंकर मन्त्रणा
लोगश उवाच
ततः स वज्री बलिभिवदैंवतैरभिरक्षित: ।
आससाद ततो वृत्रं स्थितमावृत्य रोदसी || १ ।।
लोमशजी कहते हैं--राजन्! तदनन्तर वज्रधारी इन्द्र बलवान् देवताओंसे सुरक्षित हो
वृत्रासुरके पास गये। वह असुर भूलोक और आकाशको घेरकर खड़ा था ।। १ ।।
कालकेयैर्महाकायै: समन्तादभिरक्षितम् ।
समुद्यतप्रहरणै: सशृज्जैरिव पर्वतैः ।। २ ।।
कालकेय नामवाले विशालकाय दैत्य, जो हाथोंमें हथियार लिये होनेके कारण शुंगयुक्त
पर्वतोंके समान जान पड़ते थे, चारों ओरसे उसकी रक्षा कर रहे थे ।।
ततो युद्ध समभवद् देवानां दानवैः सह ।
मुहूर्त भरतश्रेष्ठ लोकत्रासकरं महत् ।। ३ ।।
भरतश्रेष्ठ! इन्द्रके आते ही देवताओंका दानवोंके साथ दो घड़ीतक बड़ा भीषण युद्ध
हुआ जो तीनों लोकोंको त्रसा करनेवाला था ।। ३ ।।
उद्यतप्रतिपिष्टानां खड्गानां वीरबाहुभि: ।
आसीत् सुतुमुल: शब्द: शरीरेष्वभिपात्यताम् ।। ४ ।।
वीरोंकी भुजाओंके साथ उठे हुए खड्ग शत्रुके शरीरोंपर पड़ते और विपक्षी योद्धओंके
घातक प्रहारोंसे टूटकर चूर-चूर हो जाते थे, उस समय उनका अत्यन्त भयंकर शब्द सुन
पड़ता था ।। ४ ।।
शिरोश्रि: प्रपतद्धिश्चाप्यन्तरिक्षान्महीतलम् |
तालैरिव महाराज व॒न्ताद् भ्रष्टरदृश्यत ।। ५ ।।
महाराज! अपने मूल स्थानसे टूटकर गिरे हुए ताल-फलोंके समान आकाशसे गिरते हुए
योद्धाओंके मस्तकों-द्वारा वहाँकी भूमि आच्छादित दिखायी देती थी ।। ५ ।।
ते हेमकवचा भूत्वा कालेया: परिघायुधा: ।
त्रिदशानभ्यवर्तन्त दावदग्धा इवाद्रय: ।। ६ ।।
कालकेयोंने सोनेके कवच धारण करके हाथोंमें परिघ लिये देवताओंपर धावा किया।
उस समय वे दानव दावानलसे दग्ध हुए पर्वतोंकी भाँति दिखायी देते थे ।।
तेषां वेगवतां वेगं साभिमानं प्रधावताम् |
न शेकुस्त्रिदशा: सोढुं ते भग्ना: प्राद्रवनू भयात् ।। ७ ।।
अभिमानपूर्वक आक्रमण करनेवाले उन वेगशाली दैत्योंका वेग देवताओंके लिये
असहा हो गया। वे अपने दलसे बिछुड़कर भयसे भागने लगे ।। ७ ।।
तान् दृष्टवा द्रवतो भीतान् सहस्राक्ष: पुरंदर: ।
वृत्रे विवर्धभाने च कश्मलं महदाविशत् ।। ८ ।।
देवताओंको डरकर भागते देख वृत्रासुरकी प्रगतिका अनुमान करके सहस्र नेत्रोंवाले
इन्द्रपर महान् मोह छा गया ।। ८ ।।
कालेयभयसंत्रस्तो देव: साक्षात् पुरंदर: |
जगाम शरणं शीघ्र तं तु नारायणं प्रभुम् ।। ९ ।।
कालेयोंके भयसे त्रस्त हुए साक्षात् इन्द्रदेवने सर्व-शक्तिमान् भगवान् नारायणकी
शीघ्रतापूर्वक शरण ली ।।
तं शक्रं कश्मलाविष्टं दृष्टवा विष्णु: सनातन: ।
स्वतेजो व्यदधाच्छक्रे बलमस्य विवर्धयन् ।। १० ।।
इन्द्रको इस प्रकार मोहाच्छन्न होते देख सनातन भगवान् विष्णुने उनका बल बढ़ाते हुए
उनमें अपना तेज स्थापित कर दिया ।। १० |।
विष्णुना गोपितं शक्रं दृष्टवा देवगणास्तत: ।
सर्वे तेज: समादध्युस्तथा ब्रह्म॒र्षयोडमला: ।। ११ ।।
देवताओंने देखा इन्द्र भगवान् विष्णुके द्वारा सुरक्षित हो गये हैं, तब उन सबने तथा
शुद्ध अन्तःकरणवाले ब्रह्मर्षियोंने भी देवराज इन्द्रमें अपना-अपना तेज भर दिया ।। ११ ।।
स समाप्यायित: शक्रो विष्णुना दैवतै: सह ।
ऋषिभिश्न महाभागैर्बलवान् समपद्यत ।। १२ ।।
ज्ञात्वा बलस्थं त्रिदशाधिपं तु
ननाद वृत्रो महतो निनादान् |
तस्य प्रणादेन धरा दिशश्व
खं द्यौर्नगाश्नापि चचाल सर्वम् ।। १३ ।।
देवताओंसहित श्रीविष्णु तथा महाभाग महर्षियोंके तेजसे परिपूर्ण हो देवराज इन्द्र
अत्यन्त बलशाली हो गये। देवेश्वर इन्द्रको बलसे सम्पन्न जान वृत्रासुरने बड़ी विकट गर्जना
की। उसके सिंहनादसे भूलोक, सम्पूर्ण दिशाएँ, आकाश, स्वर्गलोक तथा पर्वत सब-के-सब
काँप उठे ।। १२-१३ ।।
ततो महेन्द्र: परमाभितप्त:
श्रुत्वा रव॑ घोररूपं महान्तम् ।
भये निमग्नस्त्वरितो मुमोच
वज्ज॑ महत् तस्य वधाय राजन ।। १४ ।।
राजन्! उस समय उस अत्यन्त भयानक गर्जनाको सुनकर देवराज इन्द्र बहुत संतप्त
हो उठे और भयभीत होकर उन्होंने बड़ी उतावलीके साथ वृत्रासुरके वधके लिये अपने
महान् वज्रका प्रहार किया || १४ ।।
स शक्रवज्जाभिहत: पपात
महासुर: काउ्चनमाल्यधारी ।
यथा महाशैलवर: पुरस्तात्
स मन्दरो विष्णुकराद विमुक्त: ॥। १५ ।।
इन्द्रके वज़से आहत होकर सुवर्णमालाधारी वह महान् असुर पूर्वकालमें भगवान्
विष्णुके हाथसे छूटे हुए महान् पर्वत मन्दरकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ा ।। १५ ।।
तस्मिन् हते दैत्यवरे भयार्त:
शक्र: प्रदुद्राव सर: प्रवेष्टम् ।
वज्ं स मेने न कराद् विमुक्तं
वृत्रं भयाच्चापि हतं न मेने ।। १६ ।।
महादैत्य वृत्रके मारे जानेपर भी इन्द्र भयसे पीड़ित हो (छिपनेकी इच्छासे) तालाबमें
प्रवेश करने दौड़े। उन्हें भयके कारण यह विश्वास नहीं होता था कि वज्र मेरे हाथसे छूट
चुका है और वृत्रासुर भी अवश्य मारा गया है ।। १६ ।।
सर्वे च देवा मुदिता: प्रह्ृष्टा
महर्षयश्रेन्द्रमभिष्टवन्त: ।
सर्वाश्ष दैत्यांस्त्वरिता: समेत्य
जघ्नु: सुरा वृत्रवधाभितप्तान् ।। १७ ।।
उस समय सब देवता बड़े प्रसन्न हुए। महर्षिगण भी हर्षोल्लासमें भरकर इन्द्रदेवकी
स्तुति करने लगे। तत्पश्चात् सब देवताओंने मिलकर वृत्रासुरके वधसे संतप्त हुए समस्त
दैत्योंको तुरंत मार भगाया || १७ ।।
तैस्त्रास्यमानास्त्रिदशै: समेतैः
समुद्रमेवाविविशुर्भयार्ता: ।
प्रविश्य चैवोदधिमप्रमेयं
झषाकुलं नक्रसमाकुलं च ।। १८ ।।
तदा सम मन्त्र सहिता:ः प्रचक्रु-
स्त्रैलोक्यनाशार्थमभिस्मयन्त: ।
तत्र सम केचिन्मतिनिश्षयज्ञा-
स्तांस्तानुपायानुपवर्णयन्ति ।। १९ ।।
संगठित देवताओंद्वारा त्रास दिये जानेपर वे सब दैत्य भयसे आतुर हो समुद्रमें ही प्रवेश
कर गये। मत्स्यों और मगरोंसे भरे हुए उस अपार महासागरमें प्रविष्ट हो वे सम्पूर्ण दानव
तीनों लोकोंका नाश करनेके लिये बड़े गर्वसे एक साथ मन्त्रणा करने लगे। उनमेंसे कुछ
दैत्य जो अपनी बुद्धिके निश्चयको स्पष्टरूपसे जाननेवाले थे; (जगत्के विनाशके लिये)
उपयोगी विभिन्न उपायोंका वर्णन करने लगे ।। १८-१९ ||
तेषां तु तत्र क्रमकालयोगाद्
घोरा मतिकश्रिन्तयतां बभूव ।
ये सन्ति विद्यातपसोपपतन्ना-
स्तेषां विनाश: प्रथम तु कार्य: ।। २० ।।
लोका हि सर्वे तपसा प्रियन्ते
तस्मात् त्वरध्वं तपस: क्षयाय ।
ये सन्ति केचिच्च वसुंधरायां
तपस्विनो धर्मविदश्ल तज्ज्ञा: । २३ ||
तेषां वध: क्रियतां क्षिप्रमेव
तेषु प्रणष्टेषु जगत् प्रणष्टम् ।
एवं हि सर्वे गतबुद्धिभावा
जगद्धिनाशे परमप्रहृष्टा: ।। २२ ।।
दुर्ग समाश्रित्य महोर्मिमन्तं
रत्नाकरं वरुणस्यालयं सम ।। २३ ।।
वहाँ क्रमश: दीर्घकालतक उपायचिन्तनमें लगे हुए उन असुरोंने यह घोर निश्चय किया
कि जो लोग विद्वान् और तपस्वी हों, सबसे पहले उन्हींका विनाश करना चाहिये। सम्पूर्ण
लोग तपसे ही टिके हुए हैं। अतः तुम सब लोग तपस्याके विनाशके लिये शीघ्रतापूर्वक कार्य
करो। भूमण्डलमें जो कोई भी तपस्वी, धर्मज्ञ एवं उन्हें जानने-माननेवाले लोग हों, उन
सबका तुरंत वध कर डालो। उनके नष्ट होनेपर सारा जगत् नष्ट हो जायगा। इस प्रकार बुद्धि
और विचारसे हीन वे समस्त दैत्य संसारके विनाशकी बात सोचकर अत्यन्त हर्षका अनुभव
करने लगे। उत्ताल तरंगोंसे भरे हुए वरुणके निवासस्थान रत्नाकर समुद्ररूप दुर्गका आश्रय
लेकर वे उसमें निर्भय होकर रहने लगे || २०--२३ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां वृत्रवधोपाख्याने
एकाधिकशततमो<ध्याय: ।। १०१३१ |।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रसंगमें
वृत्रवधोपाख्यानविषयक एक सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०१ ॥
अऑरड..2' ९23: () हि २ 7
द्र्याधेकशततमो< ध्याय:
कालेयोंद्वारा तपस्वियों, मुनियों और ब्रह्म॒चारियों आदिका
संहार तथा देवताओंद्वारा भगवान् विष्णुकी स्तुति
लोगश उवाच
समुद्र ते समाश्रित्य वारुणं निधिमम्भस: ।
कालेया: सम्प्रवर्तन्त त्रैलोक्यस्य विनाशने ।। १ ।।
लोमशजी कहते हैं--राजन्! वरुणके निवासस्थान जलनिधि समुद्रका आश्रय लेकर
कालेय नामक दैत्य तीनों लोकोंके विनाश-कार्यमें लग गये ।। १ ।।
ते रात्रौ समभिक्रुद्धा भक्षयन्ति सदा मुनीन् ।
आश्रमेषु च ये सन्ति पुण्येष्वायतनेषु च ।। २ ।।
वे सदा रातमें कुपित होकर आते और आश्रमों तथा पुण्य-स्थानोंमें जो निवास करते थे
उन मुनियोंकोी खा जाते थे || २ ।।
वसिष्ठस्याश्रमे विप्रा भक्षितास्तैर्दुरात्मभि: ।
अशीति: शतमष्टौ च नव चान्ये तपस्विन: ।। ३ ।।
उन दुरात्माओंने वसिष्ठके आश्रममें निवास करनेवाले एक सौ अट्ठासी ब्राह्मणों तथा
नौ दूसरे तपस्वियोंको अपना आहार बना लिया ।। ३ ।।
च्यवनस्याश्रमं गत्वा पुण्यं द्विजनिषेवितम् ।
फलमूलाशनानां हि मुनीनां भक्षितं शतम् ।। ४ ।।
च्यवन मुनिके पवित्र आश्रममें, जहाँ बहुत-से द्विज निवास करते थे, जाकर उन दैत्योंने
फल-मूलका आहार करनेवाले सौ मुनियोंका भक्षण कर लिया ।। ४ ।।
एवं रात्रौ सम कुर्वन्ति विविशुश्वार्णवं दिवा ।
भरद्वाजाश्रमे चैव नियता ब्रह्मचारिण: ।। ५ ।।
वाय्वाहाराम्बुभक्षाश्ष विंशति: संनिषूदिता: ।
एवं क्रमेण सर्वास्तानाश्रमान् दानवास्तदा ।। ६ ।।
निशायां परिबाधन्ते मत्ता भुजबलाश्रयात् ।
कालोपसृष्टा: कालेया घ्नन्तो द्विजगणान् बहून् ।। ७ ।।
न चैनानन्वबुध्यन्त मनुजा मनुजोत्तम ।
एवं प्रवृत्तान् दैत्यांस्तांस्तापसेषु तपस्विषु ।। ८ ।।
इस प्रकार वे रातमें तपस्वी मुनियोंका संहार करते और दिनमें समुद्रके जलमें प्रवेश
कर जाते थे। भरद्वाज मुनिके आश्रममें वायु और जल पीकर संयम-नियमके साथ रहनेवाले
बीस ब्रह्मचारियोंको कालेयोंने कालके गालमें डाल दिया। इस तरह क्रमशः सभी आश्रमोंमें
जाकर अपने बाहुबलके भरोसे उन्मत्त रहनेवाले दानव रातमें वहाँके निवासियोंको सर्वथा
कष्ट पहुँचाया करते थे। नरश्रेष्ठ. कालेय दानव कालके अधीन हो रहे थे; इसीलिये वे
असंख्य ब्राह्मणोंकी हत्या करते चले जा रहे थे। मनुष्योंको उनके इस षड्यन्त्रका पता नहीं
लगता था। इस प्रकार वे तपस्याके धनी तापसोंके संहारमें प्रवृत्त हो रहे थे | ५--८ ।।
प्रभाते समदृश्यन्त नियताहारकर्शिता: ।
महीतलस्था मुनय: शरीरैर्गतजीवितै: ।। ९ ।।
प्रातः:काल आनेपर नियमित आहारसे दुर्बल मुनिगण अपने अस्थिमात्रावशिष्ट निष्प्राण
शरीरोंसे पृथ्वीपर पड़े दिखायी देते थे ।। ९ ।।
क्षीणमांसैरविरुधिरैविंमज्जान्त्रैविसंधिभि: ।
आकीर्णराबभौ भूमि: शड्खानामिव राशिभि: ।। १० ।।
राक्षसोंके द्वारा भक्षण करनेके कारण उनके शरीरोंका मांस तथा रक्त क्षीण हो चुका
था। वे मज्जा, आँतें और संधिस्थानों (घुटने आदि)-से रहित हो गये थे। इस तरह सब ओर
फैली हुई सफेद हड्डियोंके कारण वहाँकी भूमि शंखराशिसे आच्छादित-सी प्रतीत होती
थी ।। १० ।।
कलशैविंप्रविद्धै श्व खुवैर्भग्नैस्तथैव च |
विकीर्णरन्निहोत्रैश्व भूर्बभूव समावृता ।। ११ ।।
उलटे-पुलटे पड़े हुए कलशों, टूटे-फ़ूटे खुदों तथा बिखरी पड़ी हुई अग्निहोत्रकी
सामग्रियोंसे उन आश्रमोंकी भूमि आच्छादित हो रही थी ।। ११ ।।
निःस्वाध्यायवषट्कारं नष्टयज्ञोत्सवक्रियम् ।
जगदासीकत्निरुत्साहं कालेयभयपीडितम् ।। १२ ।।
स्वाध्याय और वषट्त्कार बंद हो गये। यज्ञोत्सव आदि कार्य नष्ट हो गये। कालेयोंके
भयसे पीड़ित हुए सम्पूर्ण जगतमें कहीं कोई उत्साह नहीं रह गया था ।।
एवं संक्षीयमाणाश्न मानवा मनुजेश्वर ।
आत्मत्राणपराभीता: प्राद्रवन्त दिशो भयात् ।। १३ ।।
नरेश्वर! इस प्रकार दिन-दिन नष्ट होनेवाले मनुष्य भयभीत हो अपनी रक्षाके लिये चारों
दिशाओंमें भाग गये ।। १३ ।।
केचिद् गुहा: प्रविविशुर्निर्सिरांश्चापरे तथा ।
अपरे मरणोद्विग्ना भयात् प्राणान् समुत्सूजन् ।। १४ ।।
कुछ लोग गुफाओंमें जा छिपे। कितने ही मानव झरनोंके आस-पास रहने लगे और
कितने ही मनुष्य मृत्युसे इतने घबरा गये कि भयसे ही उनके प्राण निकल गये ।। १४ ।।
केचिदत्र महेष्वासा: शूरा: परमहर्षिता: ।
मार्गमाणा: परं यत्नं दानवानां प्रचक्रिरे || १५ ।।
इस भूतलपर कुछ महान् धनुर्धर शूरवीर भी थे, जो अत्यन्त हर्ष और उत्साहसे युक्त हो
दानवोंके स्थानका पता लगाते हुए उनके दमनके लिये भारी प्रयत्न करने लगे || १५ ।।
न चैतानधिजग्मुस्ते समुद्र समुपाश्रितान् ।
श्रमं जग्मुश्न परममाजग्मु: क्षयमेव च ।। १६ ।।
परंतु समुद्रमें छिपे हुए दानवोंको वे पकड़ नहीं पाते। उन्होंने बहुत परिश्रम किया और
अन्तमें थककर वे पुनः अपने घरको ही लौट आये ।। १६ ।।
जगत्युपशमं याते नष्टयज्ञोत्सवक्रिये |
आज म्मु: परमामार्ति त्रिदशा मनुजेश्वर ।। १७ ।।
मनुजेश्वर! यज्ञोत्सव आदि कार्योके नष्ट हो जानेपर जब जगत्का विनाश होने लगा,
तब देवताओंको बड़ी पीड़ा हुई ।। १७ ।।
समेत्य समहेन्द्रा श्ष भयान्मन्त्र प्रचक्रिरे
शरण्यं शरणं देव॑ नारायणमजं विभुम् ।। १८ ।।
तेडभिगम्य नमस्कृत्य वैकुण्ठमपराजितम् ।
ततो देवा: समस्तास्ते तदोचुर्मधुसूदनम् ।। १९ ।।
इन्द्र आदि सब देवताओंने मिलकर भयसे मुक्त होनेके लिये मन्त्रणा की। फिर वे
समस्त देवता सबको शरण देनेवाले, शरणागतवत्सल, अजन्मा एवं सर्वव्यापी, अपराजित
वैकुण्ठनाथ भगवान् नारायणदेवकी शरणमें गये और नमस्कार करके उन मधुसूदनसे बोले
-- ||
त्वं नः स्रष्टा च भर्ता च हर्ता च जगत: प्रभो ।
त्वया सृष्टमिदं विश्वं यच्चेड़ं यच्च नेड़ति ।। २० ।।
'प्रभो! आप ही हमारे स्रष्टा और पालक हैं। आप ही सम्पूर्ण जगत्का संहार करनेवाले
हैं। इस स्थावर और जंगम सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि आपने ही की है ।।
त्वया भूमि: पुरा नष्टा समुद्रात् पुष्करेक्षण ।
वाराहं वपुराश्रित्य जगदर्थ समुद्धृता ।। २१ ।।
“कमलनयन! पूर्वकालमें आपने वाराहरूप धारण करके सम्पूर्ण जगत्के हितके लिये
समुद्रके जलसे इस खोयी हुई पृथ्वीका उद्धार किया था || २१ ।।
आदिदैत्यो महावीर्यो हिरण्यकशिपु: पुरा ।
नारसिंहं वपु: कृत्वा सूदितः पुरुषोत्तम || २२ ।।
“पुरुषोत्तम! प्राचीनकालमें आपने ही नृसिंह-शरीर धारण करके महापराक्रमी
आदिदैत्य हिरण्यकशिपुका वध किया था ।। २२ ।।
अवध्य: सर्वभूतानां बलिश्चापि महासुर: ।
वामन वपुराश्रित्य त्रैलोक्याद् भ्रंशितस्त्वया || २३ ।।
“सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये अवध्य महादैत्य बलिको भी आपने ही वामनरूप धारण
करके त्रिलोकीके राज्यसे वंचित किया || २३ ।।
असुरश्न महेष्वासो जम्भ इत्यभिविश्रुत: ।
यज्ञक्षोभकर: क्रूरस्त्वयैव विनिपातित: ।। २४ ।।
'यज्ञोंका नाश करनेवाले क्रूरकर्मा महाधनुर्धर जम्भ नामसे विख्यात असुरको भी
आपने ही मार गिराया था || २४ ।।
एवमादीनि कर्माणि येषां संख्या न विद्यते ।
अस्माकं भयभीतानां त्वं गतिर्मधुसूदन ।। २५ ।।
'ऐसे-ऐसे आपके अनेक कर्म हैं, जिनकी कोई संख्या नहीं है। मधुसूदन! हम भयभीत
देवताओंके एकमात्र आश्रय आप ही हैं || २५ ।।
तस्मात् त्वां देवदेवेश लोकार्थ ज्ञापयामहे ।
रक्ष लोकांश्व देवांश्ष शक्रं च महतो भयात् ।। २६ ।।
*देवदेवेश्वर! इसीलिये लोकहितके उद्देश्यसे हम यह निवेदन कर रहे हैं कि आप सम्पूर्ण
जगतके प्राणियों, देवताओं और इन्द्रकी भी महान् भयसे रक्षा कीजिये” ।। २६ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां विष्णुस्तवे
दयधिकशततमो<्थध्याय: ।। १०२ |।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती ्थयात्राके प्रसंगमें
विष्णुस्तुतिविषयक एक सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०२ ॥।
हि आय न [हुक हि 7 >>
ग>र्योाधिकशततमो< ध्याय:
भगवान् विष्णुके आदेशसे देवताओंका महर्षि अगस्त्यके
आश्रमपर जाकर उनकी स्तुति करना
देवा ऊचु:
तव प्रसादाद् वर्धन्ते प्रजा: स्वश्षितुर्विधा: ।
ता भाविता भावयन्ति हव्यकव्यैर्दिवौकस: ।। १ ।।
देवता कहते हैं--प्रभो! जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्धिज्ज--इन चार भेदोंवाली
सम्पूर्ण प्रजा आपकी कृपासे ही वृद्धिको प्राप्त होती है। अभ्युदयशील होनेपर वे (मानव)
प्रजाएँ ही हव्य और कदव्योंद्वारा देवताओंका भरण-पोषण करती हैं ।। १ ।।
लोका होवं विवर्धन्ते ह्ुन्योन्यं समुपाश्रिता: ।
त्वत्प्रसादान्निरुद्धिग्नास्त्वयैव परिरक्षिता: ।। २ ।।
इदं च समनुप्राप्तं लोकानां भयमुन्तमम् |
न च जानीम केनेमे रात्रौ वध्यन्ति ब्राह्मणा: ।। ३ ।।
इसी प्रकार सब लोग एक-दूसरेके सहारे उन्नति करते हैं। आपकी ही कृपासे सब प्राणी
उद्वेगरहित जीवन बिताते और आपके द्वारा ही सर्वथा सुरक्षित रहते हैं। भगवन्! मनुष्योंके
समक्ष यह बड़ा भारी भय उपस्थित हुआ है। न जाने कौन रातमें आकर इन ब्राह्मणोंका वध
कर रहा है ।। २-३ ।।
क्षीणेषु च ब्राह्मणेषु पृथिवी क्षयमेष्यति ।
ततः पृथिव्यां क्षीणायां त्रिदिवं क्षयमेष्यति ।। ४ ।।
ब्राह्मणोंके नष्ट होनेपर सारी पृथ्वी नष्ट हो जायगी और पृथ्वीका नाश होनेपर स्वर्ग भी
नष्ट हो जायगा ।। ४ ।।
त्वत्प्रसादान्महाबाहो लोका: सर्वे जगत्पते ।
विनाशं नाधिगच्छेयुस्त्वया वै परिरक्षिता: ।। ५ ।।
महाबाहो! जगत्पते! आप ऐसी कृपा करें, जिससे आपके द्वारा सुरक्षित होकर सब
लोग विनाशको न प्राप्त हों ।। ५ ।।
विष्णुरुवाच
विदितं मे सुरा: सर्व प्रजानां क्षयकारणम् ।
भवतां चापि वक्ष्यामि शृणुध्वं विगतज्वरा: ।। ६ ।।
भगवान् विष्णु बोले--देवताओ! प्रजाके विनाशका जो कारण उपस्थित हुआ है वह
सब मुझे ज्ञात है। मैं तुमलोगोंको भी बता रहा हूँ; निश्चिन््त होकर सुनो ।। ६ ।।
कालेय इति विख्यातो गण: परमदारुण: ।
तैश्व वृत्रं समाश्रित्य जगत् सर्व प्रमाथितम् ।। ७ ।।
दैत्योंका एक अत्यन्त भयंकर दल है जो कालेय नामसे विख्यात है। उन दैत्योंने
वृत्रासुरका सहारा लेकर सारे संसारमें तहलका मचा दिया था ।। ७ ।।
ते वृत्र निहतं दृष्टवा सहस्राक्षेण धीमता ।
जीवितं परिरक्षन्त: प्रविष्टा वरुणालयम् ।। ८ ।।
॥ ९ 4 के. )
। # ८(४॥ हि.
॥[|| |॥ (॥॥/ 7 0, है का ॥॥
परम बुद्धिमान् इन्द्रके द्वारा वृत्रासुरको मारा गया देख वे अपने प्राण बचानेके लिये
समुद्रमें जाकर छिप गये हैं ।। ८ ।।
ते प्रविश्योदर्धि घोरं नक्रग्राहसमाकुलम् |
उत्सादनार्थ लोकानां रात्रौ घ्नन्ति ऋषीनिह ।। ९ ।।
नाक और ग्राहोंसे भरे हुए भयंकर समुद्रमें घुसकर वे सम्पूर्ण जगत्का संहार करनेके
लिये रातमें निकलते तथा यहाँ ऋषियोंकी हत्या करते हैं ।। ९ ।।
न तु शक्या: क्षयं नेतुं समुद्राभ्रयगा हि ते ।
समुद्रस्य क्षये बुद्धिर्भवद्धि: सम्प्रधार्यताम् ।। १० ।।
उन दानवोंका संहार नहीं किया जा सकता; क्योंकि वे दुर्गम समुद्रके आश्रयमें रहते हैं।
अतः तुम-लोगोंको समुद्रको सुखानेका विचार करना चाहिये ।। १० ।।
अगस्त्येन विना को हि शक्तोडन्योडर्णवशोषणे ।
अन्यथा हि न शक््यास्ते विना सागरशोषणम् ।। ११ ।।
महर्षि अगस्त्यके सिवा दूसरा कौन है जो समुद्रका शोषण करनेमें समर्थ हो। समुद्रको
सुखाये बिना वे दानव काबूमें नहीं आ सकते ।। ११ ।।
हक कक विष्णुना समुदाह्तम् ।
अगस्त्यस्याश्रमं ययु: ।॥ १२ ।।
भगवान् विष्णुकी कही हुई यह बात सुनकर देवता ब्रह्माजीकी आज्ञा ले अगस्त्यके
आश्रमपर गये ।।
तत्रापश्यन् महात्मानं वारुणिं दीप्ततेजसम् |
उपास्यमानमृषिभिर्देवैरिव पितामहम् ।। १३ ।।
वहाँ उन्होंने मित्रावरुणके पुत्र महात्मा अगस्त्यजीको देखा। उनका तेज उद्धासित हो
रहा था। जैसे देवतालोग ब्रह्माजीके पास बैठते हैं, उसी प्रकार बहुत-से ऋषि-मुनि उनके
निकट बैठे थे ।। १३ ।।
तेडभिगम्य महात्मान॑ मैत्रावरुणिमच्युतम् ।
आश्रमस्थं तपोराशिं कर्मभि: स्वैरभिष्टवन् ।। १४ ।।
अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले मित्रावरुण नन््दन तपोराशि महात्मा अगस्त्य
आश्रममें ही विराजमान थे। देवताओंने समीप जाकर उनके अद्भुत कर्मोंका वर्णन करते हुए
स्तुति प्रारम्भ की ।। १४ ।।
देवा ऊचु
नहुषेणाभितप्तानां त्वं लोकानां गति: पुरा ।
भ्रंशितश्न सुरैश्चर्यात् स््वलॉकाल्लोककण्टक: ।। १५ ||
देवता बोले--भगवन्! पूर्वकालमें राजा नहुषके अन्यायसे संतप्त हुए लोकोंकी आपने
ही रक्षा की थी। आपने ही उस लोककण्टक नरेशको देवेन्द्रपद तथा स्वर्गसे नीचे गिरा दिया
था ।। १५ ||
क्रोधात् प्रवृद्ध;/ सहसा भास्करस्य नगोत्तम: |
वचस्तवानतिक्रामन् विन्ध्य: शैलो न वर्धते ।। १६ ।।
पर्वतोंमें श्रेष्ठ विन्ध्य सूर्यदेवपर क्रोध करके जब सहसा बढ़ने लगा तब आपने ही उसे
रोका था। आपकी आज्ञाका उल्लंघन न करते हुए विन्ध्यगिरि आज भी बढ़ नहीं रहा
है ।। १६ ||
तमसा चावृते लोके मृत्युनाभ्यर्दिता: प्रजा: ।
त्वामेव नाथमासाद्य निर्व॒तिं परमां गता: । १७ ।।
विन्ध्यगिरिके बढ़नेसे जब सारे जगत्में अन्धकार छा गया और सारी प्रजा मृत्युसे
पीड़ित होने लगी। उस समय आपको ही अपना रक्षक पाकर सबने अत्यन्त हर्षका अनुभव
किया था ।। १७ |।
अस्माकं भयभीतानां नित्यशो भगवान् गति: ।
ततत्त्वार्ता: प्रयाचामो वरं त्वां वरदो हासि ।। १८ ।।
सदा आप ही हम भयभीत देवताओंके लिये आश्रय होते आये हैं। अत: इस समय भी
संकटमें पड़कर हम आपसे वर माँग रहे हैं; क्योंकि आप ही वर देनेके योग्य हैं || १८ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि
लोमशतीर्थयात्रायामगस्त्यमाहात्म्यकथने ->यधिकशततमो<ध्याय: ।। १०३ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रसंगमें
अगस्त्यमाहात्म्य-वर्णणविषयक एक सौ तीनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०३ ॥
हि आय न [हुक है आम
चतुर्राधिकशततमो< ध्याय:
अगस्त्यजीका विन्ध्यपर्वतको बढ़नेसे रोकना और
देवताओंके साथ सागर-तटपर जाना
युधिछिर उवाच
किमर्थ सहसा विन्ध्य: प्रवृद्ध: क्रोधमूर्च्छित: ।
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं विस्तरेण महामुने ।। १ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--महामुने! विन्ध्यपर्वत किसलिये क्रोधसे मूर्छति हो सहसा बढ़ने
लगा था? मैं इस प्रसंगको विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ ।। १ ।।
लोमश उवाच
अद्विराजं महाशैलं मेरुं कनकपर्वतम् ।
उदयास्तमने भानु: प्रदक्षिणमवर्तत ।। २ ।।
लोमशजीने कहा--राजन्! सूर्यदेव सुवर्णमय महान् पर्वत गिरिराज मेरुकी उदय और
अस्तके समय परिक्रमा किया करते हैं |। २ ।।
तं तु दृष्टवा तथा विन्ध्य: शैल: सूर्यमथाब्रवीत् ।
यथा हि मेरुर्भवता नित्यश: परिगम्यते ।। ३ ।।
प्रदक्षिणश्व॒ क्रियते मामेवं कुरु भास्कर ।
एवमुक्तस्तत: सूर्य: शैलेन्द्रं प्रत्यभाषत ।। ४ ।।
नाहमात्मेच्छया शैलं करोम्येनं प्रदक्षिणम्
एष मार्ग: प्रदिष्टो मे यैरिदं निर्मितं जगत् ।। ५ ।।
उन्हें ऐसा करते देख विन्ध्यगिरिने उनसे कहा--'भास्कर! जैसे आप मेरुकी प्रतिदिन
परिक्रमा करते हैं, उसी तरह मेरी भी कीजिये।' यह सुनकर भगवान् सूर्यने गिरिराज
विन्ध्यसे कहा--'गिरिश्रेष्ठ! मैं अपनी इच्छासे मेरुगिरिकी परिक्रमा नहीं करता हूँ। जिन्होंने
इस संसारकी सृष्टि की है, उन विधाताने मेरे लिये यही मार्ग निश्चित किया है" || ३--५ ।।
एवमुक्तस्तत: क्रोधात् प्रवृद्ध/ सहसाचल: ।
सूर्याचन्द्रमसोर्मार्ग रोद्धुमिच्छन् परंतप ।। ६ ।।
परंतप युधिष्ठिर! सूर्यदेवके ऐसा कहनेपर विन्ध्य-पर्वत सहसा कुपित हो सूर्य और
चन्द्रमाका मार्ग रोक लेनेकी इच्छासे बढ़ने लगा ।। ६ ।।
ततो देवा: सहिता: सर्व एव
विन्ध्यं समागम्य महाद्विराजम् ।
निवारयामासुरुपायतस्तं
न च सम तेषां वचनं चकार ।। ७ ।।
यह देख सब देवता एक साथ मिलकर महान् पर्वतराज विन्ध्यके पास गये और अनेक
उपायोंद्वारा उसके क्रोधका निवारण करने लगे; परंतु उसने उनकी बात नहीं मानी ।। ७ ।।
अथाभिजममुर्मुनिमा श्रमस्थं
तपस्विनं धर्मभृतां वरिष्ठम्
अगस्त्यमत्यद्भुतवीर्यवन्तं
त॑ चार्थमूचु: सहिता: सुरास्ते ।। ८ ।।
तब वे सब देवता मिलकर अपने आश्रमपर विराजमान धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ तपस्वी
अगस्त्य मुनिके पास गये, जो अद्भुत प्रभावशाली थे। वहाँ जाकर उन्होंने अपना प्रयोजन
कह सुनाया ।। ८ ।।
देवा ऊचु
सूर्याचन्द्रमसोर्मार्ग नक्षत्राणां गतिं तथा ।
शैलराजो वृणोत्येष विन्ध्य: क्रोधवशानुग: ।। ९ ।।
त॑ निवारयितुं शक्तो नानन््य: कक्रिद् द्विजोत्तम ।
ऋते त्वां हि महाभाग तस्मादेनं निवारय ।। १० ।।
देवता बोले--द्विजश्रेष्ठ। यह पर्वतराज विन्ध्य क्रोधके वशीभूत होकर सूर्य और
चन्द्रमाके मार्ग तथा नक्षत्रोंकी गतिको रोक रहा है। महाभाग! आपके सिवा दूसरा कोई
इसका निवारण नहीं कर सकता। अत: आप चलकर इसे रोकिये || ९-१० ।।
तच्छुत्वा वचन विप्र: सुराणां शैलमभ्यगात् ।
सो$भिगम्याब्रवीद् विन्ध्यं सदार: समुपस्थित: ।। ११ ।।
देवताओंकी यह बात सुनकर विप्रवर अगस्त्य अपनी पत्नी लोपामुद्राके साथ
विन्ध्यपर्वतके समीप गये और वहाँ उपस्थित हो उससे इस प्रकार बोले-- || ११ ।।
मार्गमिच्छाम्यहं दत्त भवता पर्वतोत्तम |
दक्षिणामभिगन्तास्मि दिशं कार्येण केनचित् ।। १२ ।।
'पर्वतश्रेष्ठ! मैं किसी कार्यसे दक्षिण दिशाको जा रहा हूँ, मेरी इच्छा है, तुम मुझे मार्ग
प्रदान करो ।। १२ ।।
यावदागमनं महां तावत् त्वं प्रतिपालय ।
निवृत्ते मयि शैलेन्द्र ततो वर्धस्व कामत: ।। १३ ।।
“जबतक मैं पुन: लौटकर न आऊँ तबतक मेरी प्रतीक्षा करते रहो। शैलराज! मेरे लौट
आनेपर तुम पुनः इच्छानुसार बढ़ते रहना” ।। १३ ।।
एवं स समयं कृत्वा विन्ध्येनामित्रकर्शन ।
अद्यापि दक्षिणाद्वेशाद् वारुणिर्न निवर्तते ।। १४ ।।
शत्रुसूदन! विन्ध्यके साथ ऐसा नियम करके मित्रावरुणनन्दन अगस्त्यजी चले गये और
आजतक दक्षिण प्रदेशसे नहीं लौटे || १४ ।।
एतत् ते सर्वमाख्यातं यथा विन्ध्यो न वर्धते ।
अगस्त्यस्य प्रभावेण यन्मां त्वं परिपृच्छसि ।। १५ ।।
राजन! तुम मुझसे जो बात पूछ रहे थे, वह सब प्रसंग मैंने कह दिया। महर्षि अगस्त्यके
ही प्रभावसे विन्ध्यपर्वत बढ़ नहीं रहा है ।। १५ ।।
कालेयास्तु यथा राजन सुरै: सर्वैर्निषूदिता: ।
अगस्त्याद् वरमासाद्य तनन््मे निगदत: शूणु ।। १६ ।।
राजन! सब देवताओंने अगस्त्यसे वर पाकर जिस प्रकार कालेय नामक दैत्योंका संहार
किया, वह बता रहा हूँ, सुनो-- || १६ ।।
त्रिदशानां वच: श्र॒त्वा मैत्रावरुणिरब्रवीत् ।
किमर्थमभियाता: स्थ वरं मत्त: कमिच्छथ ।
एवमुक्तास्ततस्तेन देवता मुनिमब्रुवन् ।। १७ ।।
(सर्वे प्राउजलयो भूत्वा पुरन्दरपुरोगमा: ।)
देवताओंकी बात सुनकर मित्रावरुणनन्दन अगस्त्यने पूछा--'देवताओ! आपलोग
किसलिये यहाँ पधारे हैं और मुझसे कौन-सा वर चाहते हैं?” उनके इस प्रकार पूछनेपर
इन्द्रको आगे करके सब देवताओंने हाथ जोड़कर मुनिसे कहा-- ।। १७ ।।
एवं त्वयेच्छाम कृतं हि कार्य
महार्णवं पीयमानं महात्मन् |
ततो वधिष्याम सहानुबन्धान्
कालेयसंज्ञान् सुरविद्धिषस्तान् ।। १८ ।।
“महात्मन्! हम आपके द्वारा यह कार्य सम्पन्न कराना चाहते हैं कि आप सारे
महासागरके जलको पी जायँ। तदनन्तर हमलोग देवद्रोही कालेय नामक दानवोंका उनके
बन्धु-बान्धवोंसहित वध कर डालेंगे” ।। १८ ।।
त्रिदशानां वच: श्रुत्वा तथेति मुनिरत्रवीत् ।
करिष्ये भवतां काम॑ लोकानां च महत् सुखम् ।। १९ ।।
देवताओंका यह कथन सुनकर महर्षि अगस्त्यने कहा--“बहुत अच्छा” मैं आपलोगोंका
मनोरथ पूर्ण करूँगा। इससे सम्पूर्ण लोकोंको महान् सुख प्राप्त होगा || १९ ।।
एवमुक्त्वा ततो5गच्छत् समुद्र सरितां पतिम्
ऋषिभिश्न तपःसिद्धे: सार्ध देवैश्व सुब्रत । २० ।।
सुव्रत! ऐसा कहकर अगस्त्यजी देवताओं तथा तपःसिद्ध ऋषियोंके साथ नदीपति
समुद्रके तटपर गये ।।
मनुष्योरगगन्धर्वयक्षकिंपुरुषास्तथा ।
अनुजममुर्महात्मानं द्रष्टकामास्तदद्भुतम् ॥। २१ ।।
उस समय मनुष्य, नाग, गन्धर्व, यक्ष और किन्नर सभी उस अद्धुत दृश्यको देखनेके
लिये उन महात्माके पीछे चल दिये || २१ ।।
ततो<भ्यगच्छन् सहिता: समुद्र भीमनि:स्वनम् ।
नृत्यन्तमिव चोर्मीभिववल्गन्तमिव वायुना ।। २२ ।।
फिर वे सब लोग एक साथ भयंकर गर्जना करनेवाले समुद्रके समीप गये, जो अपने
उत्ताल तरंगोंद्वारा मानो नृत्य कर रहा था; और वायुके द्वारा उछलता-कूदता-सा जान पड़ता
था ।। २२ ||
हसन्तमिव फेनौघै: स्खलन्तं कन्दरेषु च |
नानाग्राहसमाकीर्ण नानाद्विजगणान्वितम् ।। २३ ।।
वह फेनोंके समुदायद्वारा मानो अपनी हास्यछटा बिखेर रहा था; और कन्दराओंसे
टकराता-सा जान पड़ता था। उसमें नाना प्रकारके ग्राह आदि जलजन्तु भरे हुए थे, तथा
बहुत-से पक्षी निवास करते थे ।। २३ ।।
अगस्त्यसहिता देवा: सगन्धर्वमहोरगा: ।
ऋषयश्न महाभागा: समासेदुर्महोदधिम् ।। २४ ।।
अगस्त्यजीके साथ देवता, गन्धर्व, बड़े-बड़े नाग और महाभाग ऋषिगण सभी
महासागरके तटपर जा पहुँचे || २४ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायामगस्त्योदधिगमने
चतुरधिकशततमो<ध्याय: ।। १०४ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रस॑ंगमें
अगस्त्यका समुद्रतटटपर गमनविषयक एक सौ चारवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०४ ॥/
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका ३ *लोक मिलाकर कुल २४ ३ “लोक हैं)
3 #ासल ९) अपन अभल
पञ्चाधिकशततमोब< ध्याय:
अगस्त्यजीके द्वारा समुद्रपान और देवताओंका कालेय
देत्योंका वध करके ब्रह्माजीसे समुद्रको पुनः भरनेका उपाय
पूछना
लोगश उवाच
समुद्रं स समासाद्य वारुणिर्भगवानृषि: ।
उवाच सहितान् देवानृषींश्वैव समागतान् ।। १ ।।
अहं लोकहितार्थ वै पिबामि वरुणालयम् ।
भवद्धिर्यदनुछ्ठेयं तच्छीच्रं संविधीयताम् ।। २ ।।
लोमशजी कहते हैं--राजन! समुद्रके तटपर जाकर मित्रावरुण-नन्दन भगवान्
अगस्त्यमुनि वहाँ एकत्र हुए देवताओं तथा समागत ऋषियोंसे बोले--“मैं लोकहितके लिये
समुद्रका जल पी लेता हूँ। फिर आपलोगोंको जो कार्य करना हो उसे शीघ्र पूरा कर
लें! || १-२ ।।
एतावदुक्त्वा वचन मैत्रावरुणिरच्युत: ।
समुद्रमपिबत् क्रुद्ध: सर्वलोकस्य पश्यत: ।। ३ ।।
अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले मित्रा-वरुण-कुमार अगस्त्यजी कुपित हो सब
लोगोंके देखते-देखते समुद्रको पीने लगे || ३ ।।
पीयमानं समुद्र तं दृष्टवा सेन्द्रास्तदामरा: ।
विस्मयं परमं जग्मु: स्तुतिभिश्चाप्पपूजयन् ।। ४ ।।
उन्हें समुद्र-पान करते देख इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता बड़े विस्मित हुए और स्तुतियोंद्वारा
उनका समादर करने लगे ।। ४ ।।
त्वं नस्त्राता विधाता च लोकानां लोकभावन ।
त्वत्प्रसादात् समुच्छेद॑ न गच्छेत् सामरं जगत् ।। ५ ।।
“लोकभावन महर्षे! आप हमारे रक्षक तथा सम्पूर्ण लोकोंके विधाता हैं। आपकी
कृपासे अब देवताओंसहित सम्पूर्ण जगत् विनाशको नहीं प्राप्त होगा' || ५ ।।
स पूज्यमानत्त्रिदशैर्महात्मा
गन्धर्वतूर्येषु नदत्सु सर्वश: ।
दिव्यैश्व पुष्पैरवकीर्यमाणो
महार्णवं नि:सलिलं चकार ।। ६ ।।
इस प्रकार जब देवता महात्मा अगस्त्यकी प्रशंसा कर रहे थे, सब ओर गन्धर्वोंके
वाद्योंकी ध्वनि फैल रही थी और अगस्त्यजी पर दिव्य फूलोंकी बौछार हो रही थी, उसी
समय अगस्त्यजीने सम्पूर्ण महासागरको जलशून्य कर दिया ।। ६ ।।
दृष्टवा कृतं निः:सलिलं महार्णवं
सुरा: समस्ता: परमप्रहृष्टा: ।
प्रगृह्य दिव्यानि वरायुधानि
तान् दानवाञ्जघ्नुरदीनसत्त्वा: ।। ७ ||
उस महासमुद्रको निर्जल हुआ देख सब देवता बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने दिव्य एवं
श्रेष्ठ आयुध लेकर अत्यन्त उत्साहसे सम्पन्न हो दानवोंपर आक्रमण किया ।। ७ ।।
ते वध्यमानास्त्रिदशैर्महात्मभि-
महाबलैवेंगिभिरुन्नदद्धि: ।
न सेहिरे वेगवतां महात्मनां
वेगं तदा धारयितुं दिवौकसाम् ।। ८ ।।
महान् बलवान् वेगशाली और महाबुद्धिमान् देवता जब सिंहगर्जना करते हुए दैत्योंको
मारने लगे उस समय वे उन वेगवान् महामना देवताओंका वेग न सह सके ।। ८ ।।
ते वध्यमानास्त्रिदशैर्दानवा भीमनि:स्वना: ।
चक्रुः सुतुमुलं युद्ध मुहूर्तमिव भारत ।। ९ ।।
भरतनन्दन! देवताओंकी मार पड़नेपर दानवोंने भी भयंकर गर्जना करते हुए दो
घड़ीतक उनके साथ घोर युद्ध किया ।। ९ ।।
ते पूर्व तपसा दग्धा मुनिभिर्भावितात्मभि: ।
यतमाना: परं शक्त्या त्रिदशैर्विनिषूदिता: ।॥ १० ।।
उन दैत्योंको शुद्ध अन्तःकरणवाले मुनियोंने अपनी तपस्याद्वारा पहलेसे ही दग्ध-सा
कर रखा था, अतः पूरी शक्ति लगाकर अधिक-से-अधिक प्रयास करनेपर भी देवताओंद्वारा
वे मार डाले गये ।। १० ।।
ते हेमनिष्काभरणा: कुण्डलाड्भदधारिण: ।
निहता बह्नशोभन्त पुष्पिता इव किंशुका: ।। ११ ।।
सोनेकी मोहरोंकी मालाओंसे भूषित तथा कुण्डल एवं बाजूबंदधारी दैत्य वहाँ मारे
जाकर खिले हुए पलाशके वृक्षोंकी भाँति अधिक शोभा पा रहे थे || ११ ।।
हतशेषास्तत: केचित् कालेया मनुजोत्तम ।
विदार्य वसुधां देवीं पातालतलमास्थिता: ।। १२ ।।
नरश्रेष्ठ! मरनेसे बचे हुए कुछ कालेय दैत्य वसुन्धरा देवीको विदीर्ण करके पातालमें
चले गये ।। १२ ।।
निहतान् दानवान् दृष्ट्वा त्रिदशा मुनिपुड्रवम् |
तुष्टवुर्विविधैर्वाक्यैरिदं वचनमन्नरुवन् ।। १३ |।
सब दानवोंको मारा गया देख देवताओंने नाना प्रकारके वचनोंद्वारा मुनिवर
अगस्त्यजीका स्तवन किया और यह बात कही-- ।। १३ ।।
त्वत्प्रसादान्महाभाग लोकै: प्राप्त महत् सुखम् ।
त्वत्तेजसा च निहता: कालेया: क्रूरविक्रमा: ॥। १४ ।।
“महाभाग! आपकी कृपासे समस्त लोकोंने महान् सुख प्राप्त किया है; क्योंकि
क्रूरतापूर्ण पराक्रम दिखानेवाले कालेय दैत्य आपके तेजसे दग्ध हो गये ।। १४ ।।
पूरयस्व महाबाहो समुद्र लोकभावन ।
यत् त्वया सलिल॑ पीत॑ तदस्मिन् पुनरुत्सूज ।। १५ ।।
“मुने! आपकी बाँहें बड़ी हैं। आप नूतन संसारकी सृष्टि करनेमें समर्थ हैं। अब आप
समुद्रको फिर भर दीजिये। आपने जो इसका जल पी लिया है उसे फिर इसीमें छोड़
दीजिये” || १५ ।।
एवमुक्त: प्रत्युवाच भगवान् मुनिपुड्भव: ।
(तांस्तदा सहितान् देवानगस्त्य: सपुरन्दरान् ।)
जीर्ण तद्धि मया तोयमुपायो<न्य:प्रचिन्त्यताम् ।। १६ ।।
पूरणार्थ समुद्रस्य भवद्धिर्यत्नमास्थितै: ।
एतच्छुत्वा तु वचन महर्षेभावितात्मन: ।। १७ ।।
विस्मिताश्न विषण्णाश्न बभूवु: सहिता: सुरा: ।
परस्परमनुज्ञाप्य प्रणम्य मुनिपुजड्रवम् ।। १८ ।।
उनके ऐसा कहनेपर मुनिप्रवर भगवान् अगस्त्यने वहाँ एकत्र हुए इन्द्र आदि समस्त
देवताओंसे उस समय यों कहा--'देवगण! वह जल तो मैंने पचा लिया, अतः समुद्रको
भरनेके लिये सतत प्रयत्नशील रहकर आपलोग कोई दूसरा ही उपाय सोचें।” शुद्ध
अन्तःकरणवाले महर्षिका यह वचन सुनकर सब देवता बड़े विस्मित हो गये; उनके मनमें
विषाद छा गया। वे आपसमें सलाह करके मुनिवर अगस्त्यजीको प्रणाम कर वहाँसे चल
दिये || १६--१८ ।।
प्रजा: सर्वा महाराज विप्रजग्मुर्यथागतम् ।
त्रिदशा विष्णुना सार्थमुपजग्मु: पितामहम् ।। १९ |।
महाराज! फिर सारी प्रजा जैसे आयी थी, वैसे ही लौट गयी। देवतालोग भगवान्
विष्णुके साथ ब्रह्माजीके पास गये ।। १९ ।।
पूरणार्थ समुद्रस्य मन्त्रयित्वा पुन: पुन: ।
(ते धातारमुपागम्य त्रिदशा: सह विष्णुना ।)
ऊचुः प्राज्जलय: सर्वे सागरस्थाभिपूरणम् ।। २० ।।
समुद्रको भरनेके उद्देश्यसे बार-बार आपसमें सलाह करके श्रीविष्णुसहित सब देवता
ब्रह्माजीके निकट जा हाथ जोड़कर यह पूछने लगे कि *समुद्रको पुनः भरनेके लिये क्या
उपाय किया जाय” || २० ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायामगस्त्योपाख्याने
पजञ्चाधिकशततमो<ध्याय: ।। १०५ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपवके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोगशतीर्थयात्राके प्रसंगमें
अगस्त्योपाख्यानविषयक एक सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०५ ॥।
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २१ श्लोक हैं)
#::73:.8 #::3:..7 () हि २ 7
षर्डाधिकशततमोब< ध्याय:
राजा सगरका संतानके लिये तपस्या करना और शिवजीके
द्वारा वरदान पाना
लोगश उवाच
तानुवाच समेतांस्तु ब्रह्मा लोकपितामह: ।
गच्छथ्वं विबुधा: सर्वे यथाकामं यथेप्सितम् ।। १ ।।
लोमशजी कहते हैं--राजन्! तब लोकपितामह ब्रह्माजीने अपने पास आये हुए सब
देवताओंसे कहा--“देवगण! इस समय तुम सब लोग इच्छानुसार अभीष्ट स्थानको चले
जाओ ।। १ ।।
महता कालयोगेन प्रकृतिं यास्यतेडर्णव: ।
ज्ञातींश्र कारणं कृत्वा महाराजो भगीरथ: ।। २ ।।
पूरयिष्यति तोयौघधै: समुद्र निधिमम्भसाम् |
“अब दीर्घकालके पश्चात् समुद्र फिर अपनी स्वाभाविक अवस्थामें आ जायगा।
महाराज भगीरथ अपने कुट॒म्बी जनों (प्रपितामहों)-के उद्धारका उद्देश्य लेकर जलनिधि
समुद्रको पुन: अगाध जलराशिसे भर देंगे” || २६ ।।
पितामहवच: श्रुत्वा सर्वे विबुधसत्तमा: ।
कालयोगें प्रतीक्षन्तो जग्मुश्नापि यथागतम् ।। ३ ।।
ब्रह्माजीकी यह बात सुनकर सम्पूर्ण श्रेष्ठ देवता अवसरकी प्रतीक्षा करते हुए जैसे आये
थे, वैसे ही चले गये ।। ३ ।।
युधिछिर उवाच
कथं वै ज्ञातयो ब्रह्मन् कारणं चात्र कि मुने ।
कथं समुद्र: पूर्णश्ष भगीरथप्रतिश्रयात् ।। ४ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--“ब्रह्मन्! भगीरथके कुटुम्बीजन समुद्रकी पूर्तिमें निमित्त क्योंकर
बने? मुने! उनके निमित्त बननेका कारण क्या है? और भगीरथके आश्रयसे किस प्रकार
समुद्रकी पूर्ति हुई? ।। ४ ।।
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं विस्तरेण तपोधन ।
कथ्यमानं त्वया विप्र राज्ञां चरितमुत्तमम् ।। ५ ।।
तपोधन! विप्रवर! मैं यह प्रसंग, जिसमें राजाओंके उत्तम चरित्रका वर्णन है, आपके
मुखसे विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ ।। ५ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमुक्तस्तु विप्रेन्द्रो धर्मराज्ञा महात्मना ।
कथयामास माहात्म्यं सगरस्य महात्मन: ।। ६ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! महात्मा धर्मराजके इस प्रकार पूछनेपर विप्रवर
लोमशने महात्मा राजा सगरका माहात्म्य बतलाया ।। ६ ।।
लोगश उवाच
इक्ष्वाकूणां कुले जात: सगरो नाम पार्थिव: ।
रूपसत्त्वबलोपेत: स चापुत्र: प्रतापवान् ।। ७ ।।
लोमशजी कहते हैं--राजन्! इक्ष्वाकुवंशमें सगर नामसे प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं।
वे रूप, धैर्य और बलसे सम्पन्न तथा बड़े प्रतापी थे, परंतु उनके कोई पुत्र न था || ७ ।।
स हैहयान् समुत्साद्य तालजड्घांश्व भारत |
वशे च कृत्वा राजन्यान् स्वराज्यमन्वशासत ।। ८ ।।
भारत! उन्होंने हैहय तथा तालजंघ नामक क्षत्रियोंका संहार करके सब राजाओंको
अपने वशमें कर लिया और अपने राज्यका शासन करने लगे ।। ८ ।।
तस्य भार्ये त्वभवतां रूपयौवनदर्पिति ।
वैदर्भी भरतश्रेष्ठ शैब्या च भरतर्षभ ।। ९ ।।
भरतश्रेष्ठ) राजा सगरके दो पत्नियाँ थीं, वैदर्भी और शैब्या। उन दोनोंको ही अपने रूप
और यौवनका बड़ा अभिमान था ।। ९ ||
स पुत्रकामो नृपतिस्तप्यते सम महत्तपः ।
पत्नीभ्यां सह राजेन्द्र कैलासं गिरिमाश्रित: ।। १० ।।
स तप्यमान: सुमहत् तपो योगसमन्वित: ।
आससाद महात्मानं त्र्यक्षं त्रिपुरमर्दनम् ।। ११ ।।
शंकरं भवमीशानं शूलपारणिं पिनाकिनम् ।
त्रयम्बकं शिवमुग्रेशं बहुरूपमुमापतिम् ।। १२ ।।
राजेन्द्र! राजा सगर अपनी दोनों पत्नियोंके साथ कैलास पर्वतपर जाकर पुत्रकी
इच्छासे बड़ी भारी तपस्या करने लगे। योगयुक्त होकर महान् तपमें लगे हुए महाराज
सगरको त्रिपुरनाशक, त्रिनेत्रधारी, शंकर, भव, ईशान, शूलपाणि, पिनाकी, >यम्बक, उग्रेश,
बहुरूप और उमापति आदि नामोंसे प्रसिद्ध महात्मा भगवान् शिवका दर्शन हुआ ।। १०--
१२ ||
सतं दृष्टवैव वरदं पत्नीभ्यां सहितो नृप: ।
प्रणिपत्य महाबाहु: पुत्रार्थे समयाचत ।। १३ ।।
तं॑ प्रीतिमान् हर: प्राह सभार्य नृपसत्तमम् |
यस्मिन् वृतो मुहूर्तेडहं त्वयेह नूपते वरम् ।। १४ ।।
वरदायक भगवान् शिवको देखते ही महाबाहु राजा सगरने दोनों पत्नियोंसहित प्रणाम
किया और पुत्रके लिये याचना की। तब भगवान् शिवने प्रसन्न होकर पत्नीसहित नृपश्रेष्ठ
सगरसे कहा--'राजन्! तुमने यहाँ जिस मुहूर्तमें वर माँगा है, उसका परिणाम यह
होगा ।। १३-१४ ।।
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षष्टि: पुत्रसहस्राणि शूरा: परमदर्पिता: ।
एकस्यां सम्भविष्यन्ति पत्न्यां नरवरोत्तम ।। १५ ।।
ते चैव सर्वे सहिता: क्षयं यास्यन्ति पार्थिव |
एको वंशधर: शूर एकस्यां सम्भविष्यति ।। १६ ।।
“नरश्रेष्ठ! तुम्हारी एक पत्नीके गर्भसे अत्यन्त अभिमानी साठ हजार शूरवीर पुत्र होंगे,
परंतु वे सब-के-सब एक ही साथ नष्ट हो जायँगे। भूपाल! तुम्हारी जो दूसरी पत्नी है, उसके
गर्भसे एक ही शूरवीर वंशधर पुत्र उत्पन्न होगा” | १५-१६ ।।
एवमुक्त्वा तु त॑ रुद्रस्तत्रैवान्तरथधीयत ।
स चापि सगरो राजा जगाम स्वं निवेशनम् ।। १७ ।।
पत्नीभ्यां सहितस्तत्र सो5तिदहृष्टमनास्तदा |
तस्य ते मनुजश्रेष्ठ भार्ये कमललोचने ।। १८ ।।
वैदर्भी चैव शैब्या च गर्भिण्यौ सम्बभूवतु: ।
ततः कालेन वैदर्भी गर्भालाबुं व्यजायत ।। १९ ।।
शैब्या च सुषुवे पुत्र कुमारं देवरूपिणम् ।
तदालाबुं समुत्स्रष्ठ मनश्नक्रे स पार्थिव: ।। २० ।।
ऐसा कहकर भगवान् शंकर वहीं अन्तर्धान हो गये। राजा सगर भी अत्यन्त प्रसन्नचित्त
हो पत्नियोंसहित अपने निवासस्थानको चले गये। नरश्रेष्ठ! तदनन्तर उनकी वे दोनों
कमलनयनी पत्नियाँ वैदर्भी और शैब्या गर्भवती हुईं। फिर समय आनेपर वैदर्भीने अपने
गर्भसे एक तूँबी उत्पन्न की और शैब्याने देवताके समान सुन्दर रूपवाले एक पुत्रको जन्म
दिया। राजा सगरने उस तूंबीको फेंक देनेका विचार किया || १७--२० ।।
अथान्तरिक्षाच्छुश्राव वाचं गम्भीरनि:स्वनाम् ।
राजन् मा साहसं कार्षी: पुत्रान् न त्यक्तुमहसि ।। २१ ।।
अलाबुमध्यान्निष्कृष्य बीजं यत्नेन गोप्यताम् ।
सोपस्वेदेषु पात्रेषु घृतपूर्णेषु भागश: ।। २२ ।।
इसी समय आकाशसे एक गम्भीर वाणी सुनायी दी--'“राजन्! ऐसा दुःसाहस न करो।
अपने इन पुत्रोंका त्याग करना तुम्हारे लिये उचित नहीं है। इस तूँबीमें से एक-एक बीजको
निकालकर घीसे भरे हुए गरम घड़ोंमें अलग-अलग रक््खो और यत्नपूर्वक इन सबकी रक्षा
करो || २१-२२ ।।
ततः पुत्रसहस््राणि षष्टिं प्राप्स्यसि पार्थिव ।
महादेवेन दिट्टं ते पुत्रजन्म नराधिप ।
अनेन क्रमयोगेन मा ते बुद्धिरतोडन्यथा ।। २३ ।।
'पृथ्वीपते! ऐसा करनेसे तुम्हें साठ हजार पुत्र प्राप्त होंगे। नरश्रेष्ठ! महादेवजीने तुम्हारे
लिये इसी क्रमसे पुत्रजन्म होनेका निर्देश किया है; अतः तुम्हें कोई अन्यथा विचार नहीं
होना चाहिये ।। २३ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां सगरसंततिक थने
षडधिकशततमो<ध्याय: ।। १०६ ||
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्चमें लोमशती र्थयात्राके प्रसड्रमें
सगरसंततिवर्णनविषयक एक सौ छठाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०६ ॥
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सप्ताधिकशततमो< ध्याय:
सगरके पुत्रोंकी उत्पत्ति, साठ हजार सगरपुत्रोंका कपिलकी
क्रोधाग्निसे भस्म होना, असमञ्जसका परित्याग,
अंशुमानके प्रयत्नसे सगरके यज्ञकी पूर्ति, अंशुमानसे
दिलीपको और दिलीपसे भगीरथको राज्यकी प्राप्ति
लोगश उवाच
एतच्छुत्वान्तरिक्षाच्च स राजा राजसत्तम: |
यथोक्त तच्चकाराथ श्रद्दधद् भरतर्षभ ।। १ ।।
लोमशजी कहते हैं--भरतश्रेष्ठ. यह आकाशवाणी सुनकर भूपालशिरोमणि राजा
सगरने उसपर विश्वास करके उसके कथनानुसार सब कार्य किया || १ ।।
एकैकशस्तत: कृत्वा बीजं बीज॑ नराधिप: ।
घृतपूर्णेषु कुम्भेषु तान् भागान् विदधे ततः ॥। २ ।।
नरेशने एक-एक बीजको अलग करके उन सबको घीसे भरे हुए घड़ोंमें रखा ।। २ ।।
धात्रीश्चैकेकश: प्रादात् पुत्ररक्षणतत्पर: ।
ततः कालेन महता समुत्तस्थुर्महाबला: ।। ३ ।।
षष्टि: पुत्रसहस्राणि तस्याप्रतिमतेजस: ।
रुद्रप्रसादाद् राजर्षे: समजायन्त पार्थिव ।। ४ ।।
फिर पुत्रोंकी रक्षाके लिये तत्पर हो सबके लिये पृथक्-पृथक् धायें नियुक्त कर दीं।
तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् उस अनुपम तेजस्वी नरेशके साठ हजार महाबली पुत्र उन
घड़ोंमेंसे निकल आये। युधिष्छिर! राजर्षि सगरके वे सभी पुत्र भगवान् शिवकी कृपासे ही
उत्पन्न हुए थे ।। ३-४ ।।
ते घोरा: क्रूरकर्माण आकाशपरिसर्पिण: ।
बहुत्वाच्चावजानन्त:सर्वाललोकान् सहामरान् ।। ५ ।।
वे सब-के-सब भयंकर स्वभाववाले और क्रूरकर्मा थे। आकाशमें भी सब ओर घूम-
फिर सकते थे। उनकी संख्या अधिक होनेके कारण वे देवताओंसहित सम्पूर्ण लोकोंकी
अवहेलना करते थे ।। ५ ।।
त्रिदशांश्षाप्पबाधन्त तथा गन्धर्वराक्षसान् |
सर्वाणि चैव भूतानि शूरा: समरशालिन: ।। ६ ।।
समरभूमिमें शोभा पानेवाले वे शूरवीर राजकुमार देवताओं, गन्धर्वों, राक्षसों तथा
सम्पूर्ण प्राणियोंको कष्ट दिया करते थे ।। ६ ।।
वध्यमानास्ततो लोका:ः सागरैर्मन्दबुद्धिभि: ।
ब्रह्माणं शरणं जग्मु: सहिता: सर्वदेवतै: ।। ७ ।।
मन्दबुद्धि सगरपुत्रोंद्वारा सताये हुए सब लोग सम्पूर्ण देवताओंके साथ ब्रह्माजीकी
शरणमें गये ।। ७ ।।
तानुवाच महाभाग: सर्वलोकपितामह: ।
गच्छध्वं त्रिदशा: सर्वे लोकै: सार्ध यथागतम् ।। ८ ।।
उस समय सर्वलोकपितामह महाभाग ब्रह्माने उनसे कहा--“देवताओ! तुम सभी इन
सब लोगोंके साथ जैसे आये हो, वैसे लौट जाओ ।। ८ ।।
नातिदीर्घेण कालेन सागराणां क्षयो महान् |
भविष्यति महाघोर: स्वकृतै: कर्मभि: सुरा: ।। ९ ।।
“अब थोड़े ही दिनोंमें अपने ही किये हुए अपराधोंद्वारा इन सगरपुत्रोंका अत्यन्त घोर
और महान् संहार होगा” ।। ९ ।।
एवमुक्तास्तु ते देवा लोकाश्न मनुजेश्वर ।
पितामहमनुज्ञाप्य विप्रजग्मुर्यथागतम् ।। १० ।।
नरेश्वर! उनके ऐसा कहनेपर सब देवता तथा अन्य लोग ब्रह्माजीकी आज्ञा ले जैसे
आये थे वैसे लौट गये || १० ।।
ततः काले बहुतिथे व्यतीते भरतर्षभ ।
दीक्षित: सगरो राजा हयमेधेन वीर्यवान् ।। ११ ।।
भरतश्रेष्ठ] तदनन्तर बहुत समय बीत जानेपर पराक्रमी राजा सगरने अश्वमेधयज्ञकी
दीक्षा ली ।। ११ |।
तस्याश्वो व्यचरद् भूमिं पुत्र: स परिरक्षित: ।
(सर्वरेव महोत्साहै: स्वच्छन्दप्रचरो नृप ।)
समुद्रं स समासाद्य निस्तोयं भीमदर्शनम् ।। १२ ।।
रक्ष्यमाण: प्रयत्नेन तत्रैवान्तरधीयत ।
ततस्ते सागरास्तात हतं मत्वा हयोत्तमम् ।। १३ ।।
आगम्य पितुराचख्युरदृश्यं तुरगं हृतम् ।
तेनोक्ता दिक्षु सर्वासु सर्वे मार्गत वाजिनम् ।। १४ ।।
(ससमुद्रवनद्वीपां विचरन्तो वसुन्धराम् ।)
राजन्! उनका यज्ञिय अश्व उनके अत्यन्त उत्साही सभी पुत्रोंद्वारा सुरक्षित हो
स्वच्छन्दगतिसे पृथ्वीपर विचरने लगा। जब वह अश्व भयंकर दिखायी देनेवाले जलशून्य
समुद्रके तटपर आया, तब प्रयत्नपूर्वक रक्षित होनेपर भी वहाँ सहसा अदृश्य हो गया। तात!
तब उस उत्तम अश्वको अपहृत जानकर सगरपुत्रोंने पिताके पास आकर कहा--/हमारे
यज्ञिय अश्वको किसीने चुरा लिया, अब वह दिखायी नहीं देता।/ यह सुनकर राजा सगरने
कहा--“तुम सब लोग समुद्र, वन और द्वीपोंसहित सारी पृथ्वीपर विचरते हुए सम्पूर्ण
दिशाओंमें जाकर उस अश्वका पता लगाओ” ।। १२--१४ ।।
ततस्ते पितुराज्ञाय दिक्षु सर्वासु तं हयम् ।
अमार्गन्त महाराज सर्व च पृथिवीतलम् ।। १५ ।।
ततस्ते सागरा: सर्वे समुपेत्य परस्परम् ।
नाध्यगच्छन्त तुरगमश्च॒हर्तारमेव च ।। १६ ।।
महाराज! तदनन्तर वे पिताकी आज्ञा ले इस सम्पूर्ण भूतलमें सभी दिशाओंमें अश्वकी
खोज करने लगे। खोजते-खोजते सभी सगरपुत्र एक-दूसरेसे मिले, परंतु वे अश्व तथा
अश्वहर्ताका पता न लगा सके ।। १५-१६ ।।
आगम्य पितरं चोचुस्तत: प्राउजजलयोडग्रत: ।
ससमुद्रवनद्वीपा सनदीनदकन्दरा || १७ ।।
सपर्वतवनोद्देशा निखिलेन मही नृप ।
अस्माभिविंचिता राजज्छासनात् तव पार्थिव ।। १८ ।।
नचाश्वमधिगच्छामो नाश्रृहर्तारमेव च ।
श्रुत्वा तु वचन तेषां स राजा क्रोधमूर्च्छित: ।। १९ ।।
उवाच वचन सर्वास्तदा दैववशान्नूप ।
अनागमाय गच्छथ्वं भूयो मार्गत वाजिनम् ।। २० ।।
यज्ञियं तं विना हाश्वं नागन्तव्यं हि पुत्रका: ।
प्रतिगृहा तु संदेशं पितुस्ते सगरात्मजा: ।। २१ ।।
भूय एव महीं कृत्स्नां विचेतुमुपचक्रमु: ।
अथापश्यन्त ते वीरा: पृथिवीमवदारिताम् ।॥। २२ ।।
तब वे पिताके पास आकर उनके आगे हाथ जोड़कर बोले--'“महाराज! हमने आपकी
आज्ञासे समुद्र, वन, द्वीप, नदी, नद, कन्दरा, पर्वत और वन्य प्रदेशोंसहित सारी पृथ्वी खोज
डाली, परंतु हमें न तो अश्व मिला न उसका चुरानेवाला ही।” युधिष्ठिर![ उनकी यह बात
सुनकर राजा सगर क्रोधसे मूर्च्छित हो उठे और उस समय दैववश उन सबसे इस प्रकार
बोले--“'जाओ, लौटकर न आना। पुनः घोड़ेका पता लगाओ। पुत्रो! उस यज्ञके अश्वको
लिये बिना वापस न आना।” पिताका वह संदेश शिरोधार्य करके सगरपुत्रोंने फिर सारी
पृथ्वीपर अश्वको ढूँढ़ना आरम्भ किया। तदनन्तर उन वीरोंने एक स्थानपर पृथ्वीमें दरार
पड़ी हुई देखी || १७--२२ ।।
समासाद्य बिलं तच्चाप्यखनन् सगरात्मजा: ।
कुद्दालै हैं षुकै श्वैव समुद्र यत्नमास्थिता: ।। २३ ।।
उस बिलके पास पहुँचकर सगरपुत्रोंने कुदालों और फावड़ोंसे समुद्रको प्रयत्नपूर्वक
खोदना आरम्भ किया ।।
स खन््यमान: सहितै: सागरैर्वरुणालय: ।
अगच्छत् परमामार्ति दीर्यमाण: समन्ततः || २४ ।।
असुरोरगरक्षांसि सत्त्वानि विविधानि च ।
आर्तनादमकुर्वन्त वध्यमानानि सागरै: ।। २५ ।।
एक साथ लगे हुए सगरकुमारोंके खोदनेपर सब ओरसे विदीर्ण होनेवाले समुद्रको बड़ी
पीड़ाका अनुभव होता था। सगरपुत्रोंके हाथों मारे जाते हुए असुर, नाग, राक्षस और नाना
प्रकारके जन्तु बड़े जोरसे आर्तनाद करते थे || २४-२५ ।।
छिन्नशीर्षा विदेहाश्न भिन्नत्वगस्थिसंधय: ।
प्राणिन: समदृश्यन्त शतशो5थ सहस्रश: ।। २६ ।।
सैकड़ों और हजारों ऐसे प्राणी दिखायी देने लगे जिनके मस्तक कट गये थे, शरीर
छिन्न-भिन्न हो गये थे, चमड़े छिल गये थे तथा हड्डियोंके जोड़ टूट गये थे || २६ ।।
एवं हि खनतां तेषां समुद्रं वरुणालयम् ।
व्यतीत: सुमहान् कालो न चाश्व:ः समदृश्यत ।। २७ ।।
इस प्रकार वरुणके निवासभूत समुद्रकी खुदाई करते-करते उनका बहुत समय बीत
गया, परंतु वह अश्व कहीं दिखायी नहीं दिया || २७ ।।
ततः पूर्वोत्तरे देशे समुद्रस्य महीपते ।
विदार्य पातालमथ संक्रुद्धा: सगरात्मजा: ।। २८ ।।
अपश्यन्त हयं तत्र विचरन्तं महीतले ।
कपिलं च महात्मानं तेजोराशिमनुत्तमम् |
तेजसा दीप्यमानं तु ज्वालाभिरिव पावकम् ॥। २९ |।
राजन! तदनन्तर क्रोधमें भरे हुए सगरपुत्रोंने समुद्रके पूर्वोत्तर प्रदेशमें पाताल फोड़कर
प्रवेश किया और वहाँ उस यज्ञिय अश्वको पृथ्वीपर विचरते देखा। वहीं तेजकी परम उत्तम
राशि महात्मा कपिल बैठे थे, जो अपने दिव्य तेजसे उसी प्रकार उद्धासित हो रहे थे, जैसे
लपटोंसे अग्नि || २८-२९ ।।
ते तं दृष्टवा हयं राजन् सम्प्रहृष्टतनूरुहा: ।
अनादृत्य महात्मानं कपिलं कालचोदिता: ।। ३० ।।
संक्रुद्धा: सम्प्रधावन्त अश्वग्रहणकाड्क्षिण: ।
ततः क्रुद्धो महाराज कपिलो मुनिसत्तम: || ३१ ।।
राजन्! उस अश्वको देखकर उनके शरीरमें हर्षजनित रोमाज्च हो आया। वे कालसे
प्रेरित हो क्रोधमें भरकर महात्मा कपिलका अनादर करके उस अश्व॒को पकड़नेके, लिये
दौड़े। महाराज! तब मुनिश्रेष्ठ कपिल कुपित हो उठे || ३०-३१ ।।
महर्षि कपिलकी क्रोधाग्निमें सगरपुत्रोंका भस्म होना
महर्षि अगस्त्यका समुद्रपान
वासुदेवेति य॑ प्राहु: कपिल मुनिपुड्भवम् ।
स चक्षुविकृतं कृत्वा तेजस्तेषु समुत्सूजन् । ३२ ।।
ददाह सुमहातेजा मन्दबुद्धीन् स सागरान् |
मुनिप्रवर कपिल वे ही भगवान् विष्णु हैं जिन्हें वासुदेव कहते हैं। उन महातेजस्वीने
विकराल आँखें करके अपना तेज उनपर छोड़ दिया और मन्दबुद्धि सगरपुत्रोंकी जला
दिया ।। ३२३ ।।
तान् दृष्टवा भस्मसाद् भूतान् नारद: सुमहातपा: ।। ३३ ।।
सगरान्तिकमागच्छत् तच्च तस्मै न््यवेदयत् ।
स ० कद वचो घोरं राजा मुनिमुखोद्गतम् ।। ३४ ।।
मुहूर्त भूत्वा स्थाणोर्वाक्यमचिन्तयत् ।
(स पुत्रनिधनोद््भूतदु:ःखेन समभिप्लुत: ।
आत्मानमात्मना55श्वास्य हयमेवान्वचिन्तयत् ।।)
अंशुमन्तं समाहुय असमञ्ज:सुतं तदा ।। ३५ ।।
पौत्रं भरतशार्दूल इदं वचनमतब्रवीत् ।
षष्टिस्तानि सहस््राणि पुत्रणाममितौजसाम् ।। ३६ ।।
कापिलं तेज आसाद्य मत्कृते निधनं गता: ।
तव चापि पिता तात परित्यक्तो मयानघ ।
धर्म संरक्षमाणेन पौरणां हितमिच्छता ।। ३७ ।।
उन्हें भस्म हुआ देख महातपस्वी नारदजी राजा सगरके समीप आये और उनसे सब
समाचार निवेदित किया। मुनिके मुखसे निकले हुए इस घोर वचनको सुनकर राजा सगर दो
घड़ीतक अनमने हो महादेवजीके कथनपर विचार करते रहे। पुत्रकी मृत्युजनित वेदनासे
अत्यन्त दुखी हो स्वयं ही अपने-आपको सान्त्वना दे उन्होंने अश्वको ही दूँढ़नेका विचार
किया। भरतश्रेष्ठ] तदनन्तर असमञ्जसके पुत्र अपने पौत्र अंशुमान्को बुलाकर यह बात
कही--“तात! मेरे अमिततेजस्वी साठ हजार पुत्र मेरे ही लिये महर्षि कपिलकी क्रोधाग्निमें
पड़कर नष्ट हो गये। अनघ! पुरवासियोंके हितकी रक्षा रखकर धर्मकी रक्षा करते हुए मैंने
तुम्हारे पिताको भी त्याग दिया है” || ३३--३७ ।।
युधिछिर उवाच
किमर्थ राजशार्दूल: सगर: पुत्रमात्मजम् |
त्यक्तवान् दुस्त्यजं वीरं तन्मे ब्रूहि तपोधन ।। ३८ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--तपोधन! नृपश्रेष्ठ सगरने किसलिये अपने दुस्त्यज वीर पुत्रका त्याग
किया था, यह मुझे बताइये ।। ३८ ।।
लोगमश उवाच
असमज्जा इति ख्यात: सगरस्य सुतो हाभूत् |
यं शैब्या जनयामास पौराणां स हि दारकान् ॥। ३९ |।
(क्रीडत: सहसा55साद्य तत्र तत्र महीपते ।)
गलेषु क्रोशतो गृहा नद्यां चिक्षेप दुर्बलान्
ततः पौरा: समाजम्मुर्भयशोकपरिप्लुता: ।। ४० ।।
सगरं चाभ्यभाषन्त सर्वे प्राजजलय: स्थिता: ।
त्वं नस्त्राता महाराज परचक्रादिभिभ्भयात् || ४१ ।।
लोमशजीने कहा--राजन्! सगरका वह पुत्र जिसे रानी शैब्याने उत्पन्न किया था,
असमज्जसके नामसे विख्यात हुआ। वह जहाँ-तहाँ खेल-कूदमें लगे हुए पुरवासियोंके
दुर्बल बालकोंके समीप सहसा पहुँच जाता और चीखते-चिल्लाते रहनेपर भी उनका गला
पकड़कर उन्हें नदीमें फेंक देता था। तब समस्त पुरवासी भय और शोकमें मग्न हो राजा
सगरके पास आये और हाथ जोड़े खड़े हो इस प्रकार कहने लगे--“महाराज! आप
शत्रुसेना आदिके भयसे हमारी रक्षा करनेवाले हैं | ३९--४१ ।।
असमजग्जोभयाद् घोरात् ततो नस्त्रातुमरहसि ।
पौराणां वचन श्रुत्वा घोरं नृपतिसत्तम: ।। ४२ ।।
मुहुर्त विमना भूत्वा सचिवानिदमब्रवीत् ।
असमज्जा: पुरादद्य सुतो मे विप्रवास्यताम् ।। ४३ ।।
“अत: असमंजसके घोर भयसे आप हमारी रक्षा करें!” पुरवासियोंका यह भयंकर
वचन सुनकर नृपश्रेष्ठ सगर दो घड़ीतक अनमने होकर बैठे रहे। फिर मन्त्रियोंसे इस प्रकार
बोले--'आज मेरे पुत्र असमंजसको मेरे घरसे बाहर निकाल दो” ।। ४२-४३ ।।
यदि वो मत्प्रियं कार्यमेतच्छीघ्रं विधीयताम् ।
एवमुक्ता नरेन्द्रेण सचिवास्ते नराधिप ।। ४४ ।।
यथोक्तं त्वरिताश्षक्रुर्यथथा55ज्ञापितवान् नृप: ।
एतत् ते सर्वमाख्यातं यथा पुत्रो महात्मना ।। ४५ ।।
पौराणां हितकामेन सगरेण विवासित: ।
अंशुमांस्तु महेष्वासो यदुक्त: सगरेण हि |
तत् ते सर्व प्रवक्ष्यामि कीर्त्यमानं निबोध मे ।। ४६ ।।
“यदि तुम्हें मेरा प्रिय कार्य करना है तो मेरी इस आज्ञाका शीघ्र पालन होना चाहिये।”
राजन्! महाराज सगरके ऐसा कहनेपर मन्त्रियोंने शीघ्र वैसा ही किया, जैसा उनका आदेश
था। युधिष्छिर! पुरवासियोंके हित चाहनेवाले महात्मा सगरने जिस प्रकार अपने पुत्रको
निर्वासित किया था, वह सब प्रसंग मैंने तुमसे कह सुनाया। अब महाधनुर्धर अंशुमानसे
राजा सगरने जो कुछ कहा, वह सब तुम्हें बता रहा हूँ, मेरे मुखसे सुनो || ४४--४६ ।।
सगर उवाच
पितुश्न ते5हं त्यागेन पुत्राणां निधनेन च |
अलाभेन तथाश्व॒स्य परितप्यामि पुत्रक || ४७ ।।
सगर बोले--बेटा! तुम्हारे पिताको त्याग देनेसे, अन्य पुत्रोंकी मृत्यु हो जानेसे तथा
यज्ञसम्बन्धी अश्वके न मिलनेसे मैं सर्वथा संतप्त हो रहा हूँ || ४७ ।।
तस्माद् दुःखाभिसंतप्तं यज्ञविघ्नाच्च मोहितम् |
हयस्यानयनात् पौत्र नरकान्मां समुद्धर ।। ४८ ।।
अतः पौत्र! यज्ञमें विघ्न पड़ जानेसे मैं मोहित और दु:खसे संतप्त हूँ। तुम अश्वको ले
आकर नरकसे मेरा उद्धार करो ।। ४८ ।।
अंशुमानेवमुक्तस्तु सगरेण महात्मना |
जगाम दु:खात् तं देशं यत्र वै दारिता मही ।। ४९ ।।
महात्मा सगरके ऐसा कहनेपर अंशुमान् बड़े दुःखसे उस स्थानपर गये जहाँ पृथ्वी
विदीर्ण की गयी थी ।। ४९ ।।
स तु तेनैव मार्गेण समुद्र प्रविवेश ह ।
अपश्यच्च महात्मानं कपिल॑ तुरगं च तम् ।। ५० ।।
उन्होंने उसी मार्गसे समुद्रमें प्रवेश किया और महात्मा कपिल तथा यज्ञिय अश्वको
देखा ।। ५० ।।
स दृष्टवा तेजसो राशिं पुराणमृषिसत्तमम् |
प्रणम्य शिरसा भूमौ कार्यमस्मै न्यवेदयत् ।। ५१ ।।
तेजोराशि मुनिप्रवर पुराणपुरुष कपिलजीका दर्शन करके अंशुमानने धरतीपर माथा
टेककर प्रणाम किया और उनसे अपना कार्य बताया ।। ५१ ।।
ततः प्रीतो महाराज कपिलों5शुमतो5भवत् |
उवाच चैन धर्मात्मा वरदो5स्मीति भारत ।। ५२ ।।
भरतवंशी महाराज! इससे धर्मात्मा कपिलजी अंशुमानपर प्रसन्न हो गये और बोले
-- मैं तुम्हें वर देनेको उद्यत हूँ || ५२ ।।
स वत्रे तुरगं तत्र प्रथमं यज्ञकारणात् ।
द्वितीयं वरक॑ वत्रे पितृणां पावनेच्छया ।। ५३ ।।
अंशुमानने पहले तो यज्ञकार्यकी सिद्धिके लिये वहाँ उस अश्वके लिये प्रार्थना की और
दूसरा वर अपने पितरोंको पवित्र करनेकी इच्छासे माँगा || ५३ ।।
तमुवाच महातेजा: कपिलो मुनिपुड्भव: ।
ददानि तव भद्र ते यद् यत् प्रार्थयसेडनघ ।। ५४ ।।
त्वयि क्षमा च धर्मश्न सत्यं चापि प्रतिक्ठितम् ।
त्वया कृतार्थ: सगर: पुत्रवांश्व त्वया पिता ॥। ५५ ।।
तब मुनिश्रेष्ठ महातेजस्वी कपिलने अंशुमान्से कहा--“अनघ! तुम्हारा कल्याण हो।
तुम जो कुछ माँगते हो वह सब तुम्हें दूँगा। तुममें क्षमा, धर्म और सत्य सब कुछ प्रतिष्ठित है।
तुम-जैसे पौत्रको पाकर राजा सगर कृतार्थ हैं और तुम्हारे पिता तुम्हींसे वस्तुतः पुत्रवान्
हैं || ५४-५५ ।।
तव चैव प्रभावेण स्वर्ग यास्यन्ति सागरा: ।
(शलभत्वं गता होते मम क्रोधहुताशने ।)
पौत्रश्न ते त्रिपथगां त्रिदिवादानयिष्यति ।। ५६ ।।
पावनार्थ सागराणां तोषयित्वा महेश्वरम् ।
हयं नयस्व भद्ठ ते यज्ञियं नरपुड़व ।। ५७ ।।
“तुम्हारे ही प्रभावसे सगरके सारे पुत्र जो मेरी क्रोधाग्निमें शलभकी भाँति भस्म हो गये
हैं, स्वर्गलोकमें चले जायँगे। तुम्हारा पौत्र भगवान् शंकरको संतुष्ट करके सगरपुत्रोंकों पवित्र
करनेके लिये स्वर्गलोकसे यहाँ गंगाजीको ले आयेगा। नरश्रेष्ठ! तुम्हारा भला हो। तुम इस
यज्ञिय अश्वको ले जाओ ।। ५६-५७ |।
यज्ञ: समाप्यतां तात सगरस्य महात्मन: ।
अंशुमानेवमुक्तस्तु कपिलेन महात्मना ।। ५८ ।।
आजगाम हयं गृह यज्ञवार्ट महात्मन: ।
सो5भिवाद्य तत: पादौ सगरस्य महात्मन: ।। ५९ |।
मूर्थ्नि तेनाप्युपाप्रातस्तस्मै सर्व न्यवेदयत् ।
यथा दृष्ट॑ श्रुते चापि सागराणां क्षयं तथा ।। ६० ।।
त॑ चास्मै हयमाचष्ट यज्ञवाटमुपागतम् ।
तच्छुत्वा सगरो राजा पुत्र॒जं दुःखमत्यजत् ।। ६१ ।।
“तात! महात्मा सगरका यज्ञ पूर्ण करो।” महात्मा कपिलके ऐसा कहनेपर अंशुमान् उस
अश्वको लेकर महामना सगरके यज्ञमण्डपमें आये और उनके चरणोंमें प्रणाम करके उनसे
सब समाचार निवेदन किया। सगरने भी स्नेहसे अंशुमान्का मस्तक सूँघा। अंशुमानने सगर-
पुत्रोंका विनाश जैसा देखा और सुना था, वह सब बताया, साथ ही यह भी कहा कि *यज्ञिय
अश्व यज्ञममण्डपमें आ गया है।” यह सुनकर राजा सगरने पुत्रोंके मरनेका दुःख त्याग
दिया || ५८--६१ ।।
अंशुमन्तं च सम्पूज्य समापयत त॑ क्रतुम् |
समाप्तयज्ञ: सगरो देवै: सर्व: सभाजित: ।। ६२ ।।
और अंशुमानकी प्रशंसा करते हुए अपने उस यज्ञको पूर्ण किया। यज्ञ पूर्ण हो जानेपर
सब देवताओंने सगरका बड़ा सत्कार किया ।। ६२ |।
पुत्रत्वे कल्पयामास समुद्रं वरुणालयम् |
प्रशास्य सुचिरं काल॑ राज्यं राजीवलोचन: ।। ६३ ।।
पौत्रे भारं समावेश्य जगाम त्रिदिवं तदा |
अंशुमानपि धर्मात्मा महीं सागरमेखलाम् ।। ६४ ।।
प्रशशास महाराज यथैवास्य पितामह: ।
तस्य पुत्र: समभवद् दिलीपो नाम धर्मवित् ।। ६५ ।।
कमलके समान नेत्रोंवाले सगरने वरुणालय समुद्रको अपना पुत्र माना और
दीर्घकालतक राज्यशासन करके अन्तमें अपने पौत्र अंशुमानूपर राज्यका सारा भार रखकर
वे स्वर्गलेकको चले गये। महाराज! धर्मात्मा अंशुमान् भी अपने पितामहसगरके समान ही
समुद्रसे घिरी हुई इस वसुधाका पालन करते रहे। उनके एक पुत्र हुआ जिसका नाम दिलीप
था। वह भी धर्मका ज्ञाता था ।। ६३--६५ |।
तस्मै राज्यं समाधाय अंशुमानपि संस्थित: ।
दिलीपस्तु ततः श्रुत्वा पितृणां निधनं महत् ।। ६६ ।।
पर्यतप्यत दुःखेन तेषां गतिमचिन्तयत् ।
गड्भावतरणे यत्नं सुमहच्चाकरोन्नूप: || ६७ ।।
दिलीपको राज्य देकर अंशुमान् भी परलोक-वासी हुए। दिलीपने जब अपने पितरोंके
महान् संहारका समाचार सुना, तब वे दुःखसे संतप्त हो उठे और उनकी सद्गतिका उपाय
सोचने लगे। राजा दिलीपने गंगाजीको इस भूतलपर उतारनेके लिये महान प्रयत्न
किया ।। ६६-६७ ।।
न चावतारयामास चेष्टमानो यथाबलम् |
तस्य पुत्र: समभवच्छीमान् धर्मपरायण: ।। ६८ ।।
भगीरथ इति ख्यात: सत्यवागनसूयक: ।
अभिषिच्य तु तं राज्ये दिलीपो वनमाश्रित: ।। ६९ ।।
(भगीरथं महात्मानं सत्यधर्मपरायणम् ।)
यथाशक्ति चेष्टा करनेपर भी वे गंगाको पृथ्वीपर उतार न सके। दिलीपके भगीरथ
नामसे विख्यात एक पुत्र हुआ जो परम कान्तिमान्, धर्मपरायण, सत्यवादी और अदोषदर्शी
था। सत्यधर्मपरायण महात्मा भगीरथका राज्याभिषेक करके दिलीप वनमें चले
गये ।। ६८-६९ ।।
तपःसिद्धिसमायोगात् स राजा भरतर्षभ ।
वनाज्जगाम त्रिदिवं कालयोगेन भारत ।। ७० ।।
भरतश्रेष्ठ] राजा दिलीप तपस्याजनक सिद्धिसे संयुक्त हो अन्तकाल आनेपर वनसे
स्वर्गलोकको चले गये ।। ७० ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि
लोमशतीर्थयात्रायामगस्त्यमाहात्म्यकथने सप्ताधिकशततमो< ध्याय: ।। १०७ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रसंगमें
अगस्त्यमाहात्म्यवर्णणविषयक एक सौ सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १०७ ॥।
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ ६ श्लोक मिलाकर कुल ७३ ३ “लोक हैं)
हू... “+(>9) #2:.# #25-२
अष्टाधिकशततमोब् ध्याय:
भगीरथका हिमालयपर तपस्याद्वारा गंगा और
महादेवजीको प्रसन्न करके उनसे वर प्राप्त करना
लोगश उवाच
स तु राजा महेष्वासश्नक्रवर्ती महारथ: ।
बभूव सर्वलोकस्य मनोनयननन्दन: ।। १ |।
लोमशजी कहते हैं--राजन्! महान् धनुर्धर महारथी राजा भगीरथ चक्रवर्ती नरेश थे।
वे सब लोगोंके मन और नेत्रोंको आनन्द प्रदान करनेवाले थे || १ ।।
स सुश्राव महाबाहुः कपिलेन महात्मना ।
पितृणां निधन घोरमप्राप्तिं त्रिदिवस्य च ।। २ ।।
स राज्यं सचिवे न्यस्य हृदयेन विदूयता ।
जगाम हिमवत्पाश्वं तपस्तप्तुं नरेश्वर ।। ३ ।।
नरेश्वरर! उन महाबाहुने जब यह सुना कि महात्मा कपिलद्दधारा हमारे (साठ हजार)
पितरोंकी भयंकर मृत्यु हुई है और वे स्वर्गप्राप्तिसे वंचित रह गये हैं तब उन्होंने व्यथित
हृदयसे अपना राज्य मन्त्रीको सौंप दिया और स्वयं हिमालयके शिखरपर तपस्या करनेके
लिये प्रस्थान किया ।। २-३ ।।
आरिराधयिषुर्गड्रां तपसा दग्धकिल्बिष: |
सो5पश्यत नरश्रेष्ठ हिमवन्तं नगोत्तमम् ।। ४ ।।
शज्जैर्बहुविधाकारैर्धातुमद्धिरलंकृतम् ।
पवनालम्बिभिममेंघै: परिषिक्ते समन््ततः ।। ५ |
नरेश्वरर! तपस्यासे सारा पाप नष्ट करके वे गंगाजीकी आराधना करना चाहते थे।
उन्होंने देखा कि गिरिराज हिमालय विविध धातुओंसे विभूषित नाना प्रकारके शिखरोंसे
अलंकृत है। वायुके आधारपर उड़नेवाले मेघ चारों ओरसे उसका अभिषेक कर रहे
हैं ।। ४-५ ।।
नदीकुण्जनिमम्बैश्व प्रासादैरुपशोभितम् ।
गुहाकन्दरसंलीनसिंहव्याप्रनिषेवितम् । ६ ।।
अनेकानेक नदियों, निकुण्जों, घाटियों और प्रासादों (मन्दिरों)-से इसकी बड़ी शोभा हो
रही है। गुफाओं और कन्दराओंमें छिपे हुए सिंह तथा व्याप्रोंसे यह पर्वत सदा सेवित होता
है।। ६ |।
शकुनैश्न विचित्राज्: कूजद्धिविविधा गिर: ।
भड़राजैस्तथा हंसैर्दात्यूहैर्जलकुक्कुटै: ।। ७ ।।
मयूरै: शतपत्रैश्न जीवं जीवककोकिलै: ।
चकोरैरसितापाज्जैस्तथा पुत्रप्रियेरपि ।। ८ ।।
भाँति-भाँतिके कलरव करते हुए विचित्र अंगोंवाले पक्षी, भृंगराज, हंस, चातक,
जलमुर्ग, मोर, शतपत्र नामक पक्षी, चक्रवाक, कोकिल, चकोर, असितापांग और पुत्रप्रिय
आदि इस पर्वतकी शोभा बढ़ाते हैं || ७-८ ।।
जलस्थानेषु रम्येषु पद्मिनीभिश्व संकुलम् ।
सारसानां च मधुरैव्यद्वति: समलंकृतम् ।। ९ ।।
किन्नरैरप्सरोभिश्न निषेवितशिलातलम् ।
दिग्वारणविषाणाग्रै: समन्ताद् धृष्टपादपम् ।। १० ।।
विद्याधरानुचरितं नानारत्नसमाकुलम् ।
विषोल्बणभुजंगैश्व दीप्तजिद्दैर्निषिवितम् ।। ११ ।।
क्वचित् कनकसंकाशं क्वचिद् रजतसंनि भम् ।
क्वचिदजञ्जनपुड्जाभं हिमवन्तमुपागमत् ।। १२ ।।
स तु तत्र नरश्रेष्स्तपो घोरं समाश्रितः ।
फलमूलाम्बुसम्भक्ष: सहस्रपरिवत्सरान् ।। १३ ।।
संवत्सरसहस्रे तु गते दिव्ये महानदी ।
दर्शयामास तं गड्जा तदा मूर्तिमती स्वयम् ॥। १४ ।।
वहाँके रमणीय जलाशयोंमें पद्मसमूह भरे हुए हैं। सारसोंके मधुर कलरव उस पर्वतीय
प्रदेशको सुशोभित कर रहे हैं। हिमालयकी शिलाओंपर किन्नर और अप्सराएँ बैठी हैं।
वहाँके वृक्षोंपर चारों ओरसे दिग्गजोंके दाँतोंकी रगड़ दिखायी देती है। हिमालयके इन
शिखरोंपर विद्याधरगण विचर रहे हैं। नाना प्रकारके रत्न सब ओर व्याप्त हैं। प्रज्वलित
जिह्वावाले भयंकर विषधर सर्प इस गिरिप्रदेशका सेवन करते हैं। यह शैलराज कहीं तो
सुवर्णके समान उद्धासित होता है, कहीं चाँदीके समान चमकता है और कहीं
कज्जलराशिके समान काला दिखायी देता है। नरश्रेष्ठ भगीरथ उस हिमवान् पर्वतपर गये
और घोर तपस्यामें लग गये। उन्होंने सहस्र वर्षोतक फल, मूल और जलका आहार किया।
एक हजार दिव्य वर्ष बीत जानेपर महानदी गंगाने स्वयं साकार होकर उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन
दिया ।। ९--१४ ।।
गड़ोवाच
किमिच्छसि महाराज मत्त: कि च ददानि ते ।
तद् ब्रवीहि नरश्रेष्ठ करिष्यामि वचस्तव ।। १५ ।।
गंगाजीने कहा--महाराज! तुम मुझसे क्या चाहते हो, मैं तुम्हें क्या दूँ? नरश्रेष्ठ!
बताओ, मैं तुम्हारी याचना पूर्ण करूँगी ।। १५ ।।
एवमुक्त: प्रत्युवाच राजा हैमवर्ती तदा ।
(नदीं भगीरथो राजन् प्रणिपत्य कृताञ्जलि: ।)
पितामहा मे वरदे कपिलेन महानदि ।। १६ ।।
अन्वेषमाणास्तुरगं नीता वैवस्वतक्षयम् ।
षष्टिस्तानि सहस्राणि सागराणां महात्मनाम् ।। १७ ।।
कपिल देवमासाद्य क्षणेन निधनं गता: ।
तेषामेवं विनष्टानां स्वर्गे वासो न विद्यते ।। १८ ।।
यावत् तानि शरीराणि त्वं जलै्नाभिषिज्चसि ।
तावत् तेषां गतिरनास्ति सागराणां महानदि ।। १९ |।
स्वर्ग नय महाभागे मत्पितृन् सगरात्मजान् |
तेषामर्थेन याचामि त्वामहं वै महानदि ।। २० ।।
राजन! उनके ऐसा कहनेपर राजा भगीरथने हिमालयनन्दिनी गंगाको हाथ जोड़कर
प्रणाम किया और इस प्रकार कहा--“वरदायिनी महानदी! मेरे पितामह यज्ञसम्बन्धी
अश्वका पता लगाते हुए कपिलके कोपसे यमलोकको जा पहुँचे हैं। वे सब महात्मा सगरके
पुत्र थे और उनकी संख्या साठ हजार थी। भगवान् कपिलके निकट जाकर वे सब-के-सब
क्षणभरमें भस्म हो गये। इस प्रकार दुर्मुत्युसे मरनेके कारण उन्हें स्वर्गमें निवास नहीं प्राप्त
हुआ है। महानदी! जबतक तुम अपने जलसे उनके भस्म हुए शरीरोंको सींच न दोगी
तबतक उन सगरपुत्रोंकी सदगति नहीं हो सकती। महाभागे! मेरे पितामह सगरकुमारोंको
स्वर्गमें पहुँचा दो। महानदी! मैं उन्हींके उद्धारके लिये तुमसे याचना करता हूँ || १६--
२० ||
लोगश उवाच
एतच्छुत्वा वचो राज्ञो गड़्ा लोकनमस्कृता ।
भगीरथमिदं वाक्य सुप्रीता समभाषत ।। २१ ।।
लोमशजी कहते हैं--राजन्! राजा भगीरथकी यह बात सुनकर विश्ववन्दिता गंगा
अत्यन्त प्रसन्न हुईं और उनसे इस प्रकार बोलीं-- || २१ ।।
करिष्यामि महाराज वचतस्ते नात्र संशय: ।
वेग॑ं तु मम दुर्धार्य पतन्त्या गगनाद् भुवम् ।। २२ ।।
“महाराज! मैं तुम्हारी बात मानूँगी, इसमें संशय नहीं है; परंतु आकाशसे पृथ्वीपर गिरते
समय मेरे वेगको रोकना बहुत कठिन है || २२ ।।
न शक्तस्त्रिषु लोकेषु कश्चिद् धारयितुं नूप ।
अन्यत्र विबुधश्रेष्ठान्नीलकण्ठान्महेश्वरात् ।। २३ ।।
“राजन! देवश्रेष्ठ महेश्वर नीलकण्ठको छोड़कर तीनों लोकोंमें कोई भी मेरा वेग धारण
नहीं कर सकता ।। २३ ।।
त॑ तोषय महाबाहो तपसा वरदं हरम् ।
सतु मां प्रच्युतां देवः शिरसा धारयिष्यति ॥। २४ ।।
“महाबाहो! तुम तपस्याद्वारा उन्हीं वरदायक भगवान् शिवको संतुष्ट करो। स्वर्गसे गिरते
समय वे ही मुझे अपने मस्तकपर धारण करेंगे ।। २४ ।।
स करिष्यति ते काम॑ पितृणां हितकाम्यया |
(तपसा<55राधित: शम्भुर्भगवॉल्लोकभावन: ।)
“विश्वभावन भगवान् शंकर तपस्याद्वारा आराधना करनेपर तुम्हारे पितरोंके हितकी
इच्छासे अवश्य तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करेंगे” || २४३ ।।
एतच्छुत्वा ततो राजन् महाराजो भगीरथः ।॥। २५ ।।
कैलासं पर्वतं गत्वा तोषयामास शंकरम् |
तपस्तीव्रमुपागम्य कालयोगेन केनचित् ।। २६ ।।
राजन! यह सुनकर महाराज भगीरथ कैलासपर्वतपर गये और वहाँ उन्होंने तीव्र
तपस्या करके कुछ समयके बाद भगवान् शंकरको प्रसन्न किया || २५-२६ ।।
अगृलह्लाच्च वरं तस्माद् गड़ाया धारणे नृप ।
स्वर्गे वासं समुद्धिश्य पितृणां स नरोत्तम: ।। २७ ।।
नरेश्वर! तत्पश्चात् गंगाजीकी प्रेरणाके अनुसार नरश्रेष्ठ भगीरथने अपने पितरोंको
स्वर्गलोककी प्राप्ति करानेके उद्देश्यसे महादेवजीसे गंगाजीके वेगको धारण करनेके लिये
वरकी याचना की ।। २७ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायामगस्त्योपाख्याने
अष्टाधिकशततमो< ध्याय: ॥। १०८ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रसंगमें
अगस्त्योपाख्यानविषयक एक सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०८ ॥।
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २८ श्लोक हैं)
नस आञज () अपन आओ
नवाधिकशततमो<्ध्याय:
पृथ्वीपर गंगाजीके उतरने और समुद्रको जलसे भरनेका
विवरण तथा सगरपुत्रोंका उद्धार
लोगश उवाच
भगीरथवच: श्रुत्वा प्रियार्थ च दिवौकसाम् |
एवमस्त्विति राजानं भगवान् प्रत्यभाषत ।। १ ।।
धारयिष्ये महाभाग गगनात् प्रच्युतां शिवाम् ।
दिव्यां देवनदीं पुण्यां त्वत्कृते नृपसत्तम ॥। २ ।।
लोमशजी कहते हैं--राजन्! राजा भगीरथकी बात सुनकर देवताओंका प्रिय करनेके
लिये भगवान् शिवने कहा--'एवमस्तु” महाभाग! मैं तुम्हारे लिये आकाशसे गिरती हुई
कल्याणमयी पुण्यस्वरूपा दिव्य देवनदी गंगाको अवश्य धारण करूँगा” ।। १-२ ।।
एवमुक््त्वा महाबाहो हिमवन्तमुपागमत् |
वृतः पारिषदैघेरैन्नानाप्रहरणोद्यतै: ।। ३ ।।
महाबाहो! ऐसा कहकर भगवान् शिव भाँति-भाँतिके अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित अपने
भयंकर पार्षदोंसे घिरे हुए हिमालयपर आये ।। ३ ।।
तत्र स्थित्वा नरश्रेष्ठ भगीरथमुवाच ह ।
प्रयाचस्व महाबाहो शैलराजसुतां नदीम् ।। ४ ।।
(पितृणां पावनार्थ ते तामहं मनुजाधिप ।)
पतमानां सरिच्छेष्ठां धारयिष्ये त्रिविष्टपात्
वहाँ ठहरकर उन्होंने नरश्रेष्ठ भगीरथसे कहा--“महाबाहो! गिरिराजनन्दिनी महानदी
गंगासे भूतलपर उतरनेके लिये प्रार्थना करो। नरेश्वर! मैं तुम्हारे पितरोंको पवित्र करनेके
लिये स्वर्गसे उतरती हुई सरिताओंमें श्रेष्ठ गड़ाको सिरपर धारण करूँगा” ।। ४३ ।।
एतच्छुत्वा वचो राजा शर्वेण समुदाह्मतम् ।। ५ ।।
प्रयत: प्रणतो भूत्वा गड़ां समनुचिन्तयत् ।
ततः पुण्यजला रम्या राज्ञा समनुचिन्तिता ।। ६ ।।
ईशानं च स्थितं दृष्टवा गगनात् सहसा च्युता ।
तां प्रच्युतामथो दृष्टवा देवा: सार्थ महर्षिभि: ।। ७ ।।
गन्धर्वोरगयक्षाश्न॒ समाजम्मुर्दिदृक्षव: ।
ततः पपात गगनाद् गड़ा हिमवतः सुता । ८ ।।
भगवान् शंकरकी कही हुई यह बात सुनकर राजा भगीरथने एकाग्रचित्त हो प्रणाम
करके गंगाजीका चिन्तन किया। राजाके चिन्तन करनेपर भगवान् शंकरको खड़ा हुआ देख
पुण्यसलिला रमणीय नदी गंगा सहसा आकाशशसे नीचे गिरीं। उन्हें गिरती देख दर्शनके लिये
उत्सुक हो महर्षियोंसहित देवता, गन्धर्व, नाग और यक्ष वहाँ आ गये। तदनन्तर
हिमालयनन्दिनी गंगा आकाशसे वहाँ आ गिरी || ५--८ ।।
समुद्धृतमहावर्ता मीनग्राहसमाकुला |
तां दधार हरो राजन् गड़ां गगनमेखलाम् ।। ९ ।।
ललाटदेशे पतितां मालां मुक्तामयीमिव ।
उस समय उनके जलमें बड़ी-बड़ी भँवरें और तरंगे उठ रही थीं। मत्स्य और ग्राह भरे
हुए थे। राजन! आकाशकी मेखलारूप गंगाको भगवान् शिवने अपने ललाटदेशमें पड़ी हुई
मोतियोंकी मालाकी भाँति धारण कर लिया ।। ९३ ।।
सा बभूव विसर्पन्ती त्रिधा राजन् समुद्रगा || १० ।।
फेनपुञज्जाकुलजला हंसानामिव पडुक्तय: ।
क्वचिदाभोगकुटिला प्रस्खलन्ती क्वचित् क्वचित् ।॥। ११ ।।
सा फेनपटसंवीता मत्तेव प्रमदाव्रजत् |
क्वचित् सा तोयनिनदैर्नदन्ती नादमुत्तमम् ।। १२ ।।
एवंप्रकारान् सुबहून् कुर्वती गगनाच्च्युता ।
पृथिवीतलमासाद्य भगीरथमथाब्रवीत् ।। १३ ।।
महाराज! नीचे गिरती हुई फेनपुञ्जसे व्याप्त हुए जलवाली समुद्रगामिनी गंगा तीन
धाराओंमें बँटकर हंसोंकी पंक्तियोंके समान सुशोभित होने लगी। वह मतवाली स्त्रीकी भाँति
इस प्रकार आयी कि कहीं तो सर्प-शरीरकी भाँति कुटिल गतिसे बहती थी और कहीं-कहीं
ऊँचेसे नीचे गिरकर चट्टानोंसे टकराती जाती थी एवं श्वेत वस्त्रोंके समान प्रतीत होनेवाले
फेनपुंज उसे आच्छादित किये हुए थे। कहीं-कहीं वह जलके कल-कल नादसे उत्तम
संगीत-सा गा रही थी। इस प्रकार अनेक रूप धारण करनेवाली गंगा आकाशसे गिरी और
भूतलपर पहुँचकर राजा भगीरथसे बोली--- || १०--१३ ।।
दर्शयस्व महाराज मार्ग केन व्रजाम्यहम् ।
त्वदर्थमवतीर्णास्मि पृथिवीं पृथिवीपते ।। १४ ।।
“महाराज! रास्ता दिखाओ मैं किस मार्गसे चलूँ? पृथ्वीपते! तुम्हारे लिये ही मैं इस
भूतलपर उतरी हूँ! ।। १४ ।।
एतच्छुत्वा वचो राजा प्रातिष्ठत भगीरथ: ।
यत्र तानि शरीराणि सागराणां महात्मनाम् ।। १५ ।।
प्लावनार्थ नरश्रेष्ठ पुण्येन सलिलेन च ।
यह सुनकर राजा भगीरथ जहाँ महात्मा सगरपुत्रोंके शरीर पड़े थे, वहाँ गंगाजीके
पावन जलसे उन शरीरोंको प्लावित करनेके लिये उस स्थानसे प्रस्थित हुए ।। १५६ ।।
गड्जाया धारणं कृत्वा हटो लोकनमस्कृत: ।। १६ ।।
कैलासं पर्वतश्रेष्ठं जगाम त्रिदशै: सह ।
समासाद्य समुद्र च गड़या सहितो नृप: ।। १७ ।।
पूरयामास वेगेन समुद्रं वरुणालयम् ।
दुहितृत्वे च नूपतिर्गड्रां समनुकल्पयत् ।। १८ ।।
विश्ववन्दित भगवान् शंकर गंगाजीको सिरपर धारण करके देवताओंके साथ पर्वतश्रेष्ठ
कैलासको चले गये। राजा भगीरथने गंगाजीके साथ समुद्रतटपर जाकर वरुणालय समुद्रको
बड़े वेगसे भर दिया और गंगाजीको अपनी पुत्री बना लिया || १६--१८ ।।
पितृणां चोदकं तत्र ददौ पूर्णमनोरथ: ।
एतत् ते सर्वमाख्यातं गड़ा त्रिपथगा यथा ॥। १९ ।।
तत्पश्चात् वहाँ उन्होंने पितरोंके लिये जलदान किया और पितरोंका उद्धार होनेसे वे
सफल मनोरथ हो गये। युधिष्ठिर! जिस प्रकार गंगा त्रिपथगा (स्वर्ग, पाताल और पृथ्वीपर
गमन करनेवाली) हुई, वह सब प्रसंग मैंने तुम्हें सुना दिया || १९ ।।
पूरणार्थ समुद्रस्य पृथिवीमवतारिता ।
(कालेयाश्न यथा राजंस्त्रिदशैर्विनिपातिता:)
समुद्रश्न यथा पीत: कारणार्थ महात्मना ।। २० ।।
वातापिश्न यथा नीत: क्षयं स ब्रह्म॒हा प्रभो ।
अगस्त्येन महाराज यन्मां त्वं परिपृच्छसि ।। २१ ।।
महाराज! समुद्रको भरनेके लिये ही गंगा पृथ्वीपर उतारी गयी थी। राजन्! देवताओं ने
कालेय नामक दैत्योंको जिस प्रकार मार गिराया और कारणवश महात्मा अगस्त्यने जिस
प्रकार समुद्र पी लिया तथा उन्होंने ब्राह्मणोंकी हत्या करनेवाले वातापि नामक दैत्यको जिस
प्रकार नष्ट किया, वह सब प्रसंग, जिसके विषयमें तुमने पूछा था, मैंने बता
दिया || २०-२१ ||
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि
लोमशतीर्थयात्रायामगस्त्यमाहात्म्यकथने नवाधिकशततमो<ध्याय: ।। १०९ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रसंगमें
अगस्त्यमाहात्म्यकथनविषयक एक सौ नवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०९ ॥
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २२ श्लोक हैं)
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दशाधिकशततमो<् ध्याय:
नन््दा तथा कौशिकीका माहात्म्य, ऋष्यश्रृंग मुनिका
उपाख्यान और उनको अपने राज्यमें लानेके लिये राजा
लोमपादका प्रयत्न
वैशम्पायन उवाच
ततः प्रयात: कौन्तेय: क्रमेण भरतर्षभ ।
नन्दामपरनन्दां च नद्यौ पापभयापहे ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर क्रमश: आगे
बढ़ने लगे। उन्होंने पाप और भयका निवारण करनेवाली नन््दा और अपरनन्दा--इन दो
नदियोंकी यात्रा की || १ ।।
पर्वतं स समासाद्य हेमकूटमनामयम् |
अचिन्त्यानद्भुतान् भावान् ददर्श सुबहून् नृप: ॥। २ ।।
तत्पश्चात् रोग-शोकसे रहित हेमकूट पर्वतपर पहुँचकर राजा युधिष्ठिरने वहाँ बहुत-सी
अचिन्त्य एवं अद्भुत बातें देखीं ।। २ ।।
वाताबद्धा भवन्मेघा उपलाश्षन सहस्रश: ।
नाशवनुवंस्तमारोढुं विषण्णमनसो जना: ।। ३ ।।
वहाँ वायुका सहारा लिये बिना ही बादल उत्पन्न हो जाते और अपने-आप हजारों
पत्थर (ओले) पड़ने लगते थे। जिनके मनमें खेद भरा होता था ऐसे मनुष्य उस पर्वतपर
चढ़ नहीं सकते थे || ३ ।॥।
वायुर्नित्यं ववौ तत्र नित्यं देवश्न वर्षति ।
स्वाध्यायघोषश्न तथा श्रूयते न च दृश्यते ।। ४ ।।
सायं प्रातश्च भगवान् दृश्यते हव्यवाहन: ।
मक्षिकाश्नादशंस्तत्र तपस: प्रतिघातिका: ।। ५ ।।
निर्वेदो जायते तत्र गृहाणि स्मरते जन: ।
एवं बहुविधान् भावानद्धुतान् वीक्ष्य पाण्डव: ।
लोमशं पुनरेवाथ पर्यपृच्छत् तदद्भुतम् ।। ६ ।।
वहाँ प्रतेदिन हवा चलती और रोज-रोज मेघ वर्षा करता था। वेदोंके स्वाध्यायकी
ध्वनि तो सुनायी पड़ती; परंतु स्वाध्याय करनेवालेका दर्शन नहीं होता था। सायंकाल और
प्रातःकाल भगवान् अग्निदेव प्रज्वलित दिखायी देते थे। तपस्यामें विघ्न डालनेवाली
मक्खियाँ वहाँ लोगोंको डंक मारती रहती थीं, अतः वहाँ विरक्ति होती और लोग घरोंकी
याद करने लगते थे। इस प्रकार बहुत-सी अद्भुत बातें देखकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरने
लोमशजीसे पुनः इस अद्भुत अवस्थाके विषयमें पूछा ।।
(युधिष्टिर उवाच
यदेतद् भगवंश्रित्र॑ पर्वतेडस्मिन् महौजसि ।
एतन्मे सर्वमाचक्ष्व विस्तरेण महाद्युते ।।)
युधिष्ठिने कहा--महातेजस्वी भगवन्! इस परम तेजोमय पर्वतपर जो ये
आश्चर्यजनक बातें होती हैं, इसका क्या रहस्य है? यह सब विस्तारपूर्वक मुझे बताइये।
लोगमश उवाच
यथाश्रुतमिदं पूर्वमस्माभिररिकर्शन ।
तदेकाग्रमना राजन् निबोध गदतो मम ।। ७ ।।
तब लोमशजीने कहा--शत्रुसूदन! हमने पूर्वकालमें जैसा सुन रखा है वैसा बताया
जाता है। तुम एकाग्रचित्त हो मेरे मुखसे इसका रहस्य सुनो ।। ७ ।।
अस्मिन्नृषभकूटे5 भूदूषभो नाम तापस: ।
अनेकशतवर्षायुस्तपस्वी कोपनो भृशम् ॥। ८ ।।
पहलेकी बात है, इस ऋषभकूटपर ऋषभनामसे प्रसिद्ध एक तपस्वी रहते थे। उनकी
आयु कई सौ वर्षोकी थी। वे तपस्वी होनेके साथ ही बड़े क्रोधी थे ।।
स वै सम्भाष्यमाणो<न्यै: कोपाद् गिरिमुवाच ह |
य इह व्याहरेत् कश्िदुपलानुत्सूजेस्तथा ।। ९ ।।
वातं चाहूय मा शब्दमित्युवाच स तापस: ।
व्याहरंश्वेह पुरुषो मेघशब्देन वार्यते || १० ।।
एवमेतानि कर्माणि राजंस्तेन महर्षिणा ।
कृतानि कानिचित् क्रोधात् प्रतिषिद्धानि कानिचित् ।। ११ ।।
उन्होंने दूसरोंके बुलानेपर कुपित होकर उस पर्वतसे कहा--“जो कोई यहाँपर बातचीत
करे उसपर तू ओले बरसा।' इसी प्रकार वायुको भी बुलाकर उन तपस्वी मुनिने कहा
--'देखो, यहाँ किसी प्रकारका शब्द नहीं होना चाहिये।” तबसे जो कोई पुरुष यहाँ बोलता
है उसे मेघकी गर्जनाद्वारा रोका जाता है। राजन! इस प्रकार उन महर्षिने ही ये अद्भुत कार्य
किये हैं। उन्होंने क्रोधवश कुछ कार्योका विधान और कुछ बातोंका निषेध कर दिया है ।। ९
१३९ ||
नन्दां त्वभिगता देवा: पुरा राजन्निति श्रुति: ।
अन्वपद्यन्त सहसा पुरुषा देवदर्शिन: ।। १२ ।।
राजन! यह सुना जाता है कि प्राचीन कालमें देवतालोग नन््दाके तटपर आये थे, उस
समय उनके दर्शनकी इच्छासे बहुतेरे मनुष्य सहसा वहाँ आ पहुँचे || १२ ।।
ते दर्शनं त्वनिच्छन्तो देवा: शक्रपुरोगमा: ।
दुर्ग चक्कुरिमं देशं गिरिं प्रत्यूहरूपकम् ।। १३ ।।
इन्द्र आदि देवता उन्हें दर्शन देना नहीं चाहते थे, अतः विधघ्नस्वरूप इस पर्वतीय
प्रदेशको उन्होंने जनसाधारणके लिये दुर्गम बना दिया ।। १३ ।।
तदाप्रभृति कौन्तेय नरा गिरिमिमं सदा |
नाशवनुवन्नभिद्रष्टं कुत एवाधिरोहितुम् ।। १४ ।।
कुन्तीनन्दन! तभीसे साधारण मनुष्य इस पर्वतको देख भी नहीं सकते, चढ़ना तो
दूरकी बात है ।। १४ ।।
नातप्ततपसा शकक््यो द्रष्टमेष महागिरि: ।
आरोढुं वापि कौन्तेय तस्मान्नियतवाग् भव ।। १५ ।।
कुन्तीकुमार! जिसने तपस्या नहीं की है वह मनुष्य इस महान् पर्वतको न तो देख
सकता है और न चढ़ ही सकता है; अतः तुम मौन व्रत धारण करो || १५ ।।
इह देवास्तदा सर्वे यज्ञानाजहुरुत्तमान्
तेषामेतानि लिड्जानि दृश्यन्तेद्यापि भारत ।। १६ ।।
उन दिनों सम्पूर्ण देवताओंने यहाँ आकर उत्तम यज्ञोंका अनुष्ठान किया था। भारत!
उनके ये चिह्न आज भी प्रत्यक्ष देखे जाते हैं ।। १६ ।।
कुशाकारेव दूर्वेयं संस्तीर्णेव च भूरियम् ।
यूपप्रकारा बहवो वृक्षाश्वेमे विशाम्पते ।। १७ ।।
यह दूर्वा कुशके आकारकी दिखायी देती है और यह भूमि ऐसी लगती है मानो इसपर
कुश बिछाये गये हों। महाराज! ये वृक्ष भी यज्ञयूपके समान जान पड़ते हैं || १७ ।।
देवाक्ष ऋषयश्नैव वसन्त्यद्यापि भारत ।
तेषां सायं तथा प्रातर्दश्यते हव्यवाहन: ।। १८ ।।
भारत! आज भी यहाँ देवता तथा ऋषि निवास करते हैं। सायंकाल और प्रात:काल
यहाँ उनके द्वारा प्रजजलित की हुई अग्निका दर्शन होता है ।। १८ ।।
इहाप्लुतानां कौन्तेय सद्यः पाप्माभिहन्यते ।
कुरुश्रेष्ठाभिषेकं॑ वै तस्मात् कुरु सहानुज: ।। १९ ।।
कुन्तीनन्दन! इस तीर्थमें गोता लगानेवाले मानवोंका सारा पाप तत्काल नष्ट हो जाता
है। अतः कुरुश्रेष्ठी तुम अपने भाइयोंके साथ यहाँ स्नान करो ।। १९ |।
ततो नन्दाप्लुताड्स्त्वं कौशिकीमभियास्यसि ।
विश्वामित्रेण यत्रोग्रं तपस्तप्तमनुत्तमम् ।। २० ।।
ननन््दामें गोता लगानेके पश्चात् तुम्हें कौशिकीके तटपर चलना होगा जहाँ महर्षि
विश्वामित्रजीने उत्तम एवं उग्र तपस्या की थी ।। २० ।।
वैशम्पायन उवाच
ततस्तत्र समाप्लुत्य गात्राणि सगणो नृप: ।
जगाम कौशिकी पुण्यां रम्यां शीतजलां शुभाम् ।। २३१ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--तदनन्तर राजा युधिष्ठिर अपने दल-बलके साथ नन््दामें
गोता लगाकर रमणीय एवं शीतल जलवाली शुभ पुण्यमयी कौशिकीके तटपर गये ।।
लोगश उवाच
एषा देवनदी पुण्या कौशिकी भरतर्षभ ।
विश्वामित्रा श्रमो रम्य एष चात्र प्रकाशते ।। २२ ।।
वहाँ लोमशजीने कहा--भरतगश्रेष्ठ! यह देवताओंकी नदी पुण्यसलिला कौशिकी है
और यह विश्वामित्रका रमणीय आश्रम है, जो यहाँ प्रकाशित हो रहा है ।। २२ ।।
आश्रमश्रैव पुण्याख्य: काश्यपस्य महात्मन: ।
ऋष्यशूड़ः सुतो यस्य तपस्वी संयतेन्द्रिय: ।। २३ ।।
तपसो य: प्रभावेण वर्षयामास वासवम् ।
अनावृष्ट्यां भयाद् यस्य ववर्ष बलवृत्रहा || २४ ।।
यहीं कश्यपगोत्रीय महात्मा विभाण्डकका “पुण्य” नामक आश्रम है। इन्हींके तपस्वी
एवं जितेन्द्रिय पुत्र महात्मा ऋष्यशंग हैं, जिन्होंने अपनी तपस्याके प्रभावसे इन्द्रद्वारा वर्षा
करवायी थी। उन दिनों देशमें घोर अनावृष्टि फैल रही थी, वैसे समयमें ऋष्यशृंग मुनिके
भयसे बल और वृत्रासुरके विनाशक देवराज इन्द्रने उस देशमें वर्षा की थी ।। २३-२४ ।।
मृग्यां जात: स तेजस्वी काश्यपस्य सुतः प्रभु: ।
विषये लोमपादस्य यश्चकाराद्धुतं महत् । २५ ।।
वे तेजस्वी एवं शक्तिशाली मुनि मृगीके पेटसे पैदा हुए थे और कश्यपनन्दन
विभाण्डकके पुत्र थे। उन्होंने राजा लोमपादके राज्यमें अत्यन्त अद्भुत कार्य किया
था ।। २५ ||
निर्वर्तितेषु सस्येषु यस्मै शान्तां ददौ नृप: ।
लोमपादो दुहितरं सावित्रीं सविता यथा ।। २६ ।।
जब वर्षासे खेती अच्छी तरह लहलहा उठी तब राजा लोमपादने अपनी पुत्री शान्ता
ऋष्यशृंगको ब्याह दी; ठीक उसी तरह, जैसे सूर्यदेवने अपनी बेटी सावित्रीका ब्रह्माजीके
साथ ब्याह किया था ॥। २६ ।।
युधिछिर उवाच
ऋष्यश्ड्र: कथं मृग्यामुत्पन्न: काश्यपात्मज: ।
विरुद्धे योनिसंसगे कथं च तपसा युतः । २७ ।।
किमर्थ च भयाच्छक्रस्तस्य बालस्य धीमत: ।
अनावृष्ट्यां प्रवृत्तायां ववर्ष बलवृत्रहा ।। २८ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--भगवन्! कश्यपनन्दन विभाण्डकके पुत्र ऋष्यशुंग मृगीके पेटसे
कैसे उत्पन्न हुए? मनुष्यका पशुयोनिसे संसर्ग करना तो शास्त्र और व्यवहार दोनों ही
दृष्टियोंसे विरुद्ध है। ऐसे विरुद्ध योनि-संसर्गसे उत्पन्न हुआ बालक तपस्वी कैसे हो सका?
उस बुद्धिमान् बालकके भयसे बल और वृत्रासुरका विनाश करनेवाले देवराज इन्द्रने
अनावृष्टिके समय वर्षा कैसे की? ।। २७-२८ ।।
कथंरूपा च सा शान्ता राजपुत्री यतव्रता ।
लोभयामास या चेतो मृगभूतस्य तस्य वै । २९ ।।
लोमपाददश्न राजर्षिययदाश्रूयत धार्मिक: ।
कथं वै विषये तस्य नावर्षत् पाकशासन: ।। ३० ।।
नियम और व्रतका पालन करनेवाली राजकुमारी शान्ता भी कैसी थी, जिसने
मृगस्वरूप मुनिका भी मन मोह लिया। राजर्षि लोमपाद तो बड़े धर्मात्मा सुने गये हैं, फिर
उनके राज्यमें इन्द्र वर्षा क्यों नहीं करते थे? || २९-३० ।।
एतन्मे भगवन् सर्व विस्तरेण यथातथम् ।
वक्तुमहसि शुश्रूषोरऋष्यशृज्गस्य चेष्टितम् ।। ३१ ।।
भगवन्! ये सब बातें आप विस्तारपूर्वक यथार्थ-रूपसे बताइये। मैं महर्षि ऋष्यशुंगके
चरित्रको सुनना चाहता हूँ ।। ३१ ।।
लोगश उवाच
विभाण्डकस्य विप्रर्षेस्तपसा भावितात्मन: ।
अमोघवीर्यस्य सत: प्रजापतिसमद्युते: ।। ३२ ।।
शृणु पुत्रो यथा जात ऋष्यशुड़ प्रतापवान् |
महाहस्य महातेजा बाल: स्थविरसम्मत: ।। ३३ |।
लोमशजीने कहा--राजन! ब्रह्मर्षि विभाण्डकका अन्तःकरण तपस्यासे पवित्र हो
गया था। वे प्रजापतिके समान तेजस्वी और अमोघवीर्य महात्मा थे। उनके प्रतापी पुत्र
ऋष्यशृंगका जन्म कैसे हुआ, यह बताता हूँ, सुनो। जैसे विभाण्डक मुनि परम पूजनीय थे,
वैसे ही उनका पुत्र भी बड़ा तेजस्वी हुआ। वह बाल्यावस्थामें भी वृद्ध पुरुषोंद्वारा सम्मानित
होता था | ३२-३३ ।।
महाह्द समासाद्य काश्यपस्तपसि स्थित: ।
दीर्घकालं परिश्रानन््त ऋषि: स देवसम्मित: ।। ३४ ।।
कश्यपगोत्रीय विभाण्डक मुनि देवताओंके समान सुन्दर थे। वे एक बहुत बड़े कुण्डमें
प्रविष्ट होकर तपस्या करने लगे। उन्होंने दीर्घकालतक महान् क्लेश सहन किया ।। ३४ ।।
तस्य रेत: प्रचस्कन्द दृष्टवाप्सरसमुर्वशीम् ।
अप्सूपस्पृशतो राजन् मृगी तच्चापिबत् तदा ।। ३५ ।।
सह तोयेन तृषिता गर्भिणी चाभवत् ततः ।
सा पुरोक्ता भगवता ब्रह्मणा लोककर्तणा ।। ३६ ।।
देवकन्या मृगी भूत्वा मुनिं सूय विमोक्ष्यसे ।
अमोघत्वाद् विधेश्वैव भावित्वाद् दैवनिर्मितात् ।। ३७ ।।
तस्यां मृग्यां समभवत् तस्य पुत्रो महानृषि: ।
ऋष्यशूज्गस्तपोनित्यो वन एवाभ्यवर्तत ।। ३८ ।।
राजन्! एक दिन जब वे जलमें स्नान कर रहे थे, उर्वशी अप्सराको देखकर उनका वीर्य
स्खलित हो गया। उसी समय प्याससे व्याकुल हुई एक मृगी वहाँ आयी और पानीके साथ
उस वीर्यको भी पी गयी। इससे उसके गर्भ रह गया। वह पूर्वजन्ममें एक देवकन्या थी।
लोकस्रष्टा भगवान् ब्रह्माने उसे यह वचन दिया था कि तू मृगी होकर एक मुनिको जन्म
देनेके पश्चात् उस योनिसे मुक्त हो जायगी। ब्रह्माजीकी वाणी अमोघ है और दैवके
विधानको कोई टाल नहीं सकता, इसलिये विभाण्डकके पुत्र महर्षि ऋष्यशृंगका जन्म
मृगीके ही पेटसे हुआ। वे सदा तपस्यामें संलग्न रहकर वनमें ही निवास करते
थे || ३५-३८ ।।
तस्यर्षे: शुड़ं शिरसि राजन्नासीन्महात्मन: ।
तेनर्ष्पशूज़ इत्येवं तदा स प्रथितो5भवत् ।। ३९ ।।
राजन! उन महात्मा मुनिके सिरपर एक सींग था, इसलिये उस समय उनका ऋष्यशुग
नाम प्रसिद्ध हुआ ।। ३९ ।।
न तेन दृष्टपूर्वोउन्य: पितुरन्यत्र मानुष: ।
तस्मात् तस्य मनो नित्य ब्रह्मचर्येडभवन्नूप ।। ४० ।।
नरेश्वर! उन्होंने अपने पिताके सिवा दूसरे किसी मनुष्यको पहले कभी नहीं देखा था,
इसलिये उनका मन सदा स्वभावसे ही ब्रह्मचर्यमें संलग्न रहता था | ४० ।।
एतस्मिन्नेव काले तु सखा दशरथस्य वै ।
लोमपाद इति ख्यातो हाज्रानामीश्वरो5भवत् ।। ४१ ।।
इन्हीं दिनों राजा दशरथके मित्र लोमपाद अंगदेशके राजा हुए ।। ४१ ।।
तेन कामात् कृतं भिथ्या ब्राह्मणस्येति न: श्रुति: ।
स ब्राह्मणै: परित्यक्तस्ततो वै जगत: पति: ।। ४२ ।।
पुरोहितापचाराच्च तस्य राज्ञो यदृच्छया ।
न ववर्ष सहस्राक्षस्ततो5पीड्यन्त वै प्रजा: ।। ४३ ।॥
उन्होंने जान-बूझकर एक ब्राह्मणके साथ मिथ्या व्यवहार किया--यह बात हमारे
सुननेमें आयी है। इसी अपराधके कारण ब्राह्मणोंने राजा लोमपादको त्याग दिया था।
राजाने पुरोहितपर मनमाना दोषारोपण किया था, इसलिये इन्द्रने उनके राज्यमें वर्षा बंद
कर दी। इस अनावृष्टिके कारण प्रजाको बड़ा कष्ट होने लगा || ४२-४३ ।।
स ब्राह्मणान् पर्यपृच्छत् तपोयुक्तान् मनीषिण: ।
प्रवर्षणे सुरेन्द्रस्य समर्थान् पृथिवीपते ।॥। ४४ ।।
युधिष्ठिर! तब राजाने तपस्वी, मेधावी और इन्द्रसे वर्षा करवानेमें समर्थ ब्राह्मणोंको
बुलाकर इस संकटके निवारणका उपाय पूछा ।। ४४ ।।
कथं प्रवर्षेत् पर्जन्य उपाय: परिदृश्यताम् ।
तमूचुश्नोदितास्ते तु स््वमतानि मनीषिण: || ४५ ||
“विप्रगण! मेघ कैसे वर्षा करे--यह उपाय सोचिये।” उनके पूछनेपर मनीषी
महात्माओंने अपना-अपना विचार बताया ।। ४५ |।
तत्र त्वेको मुनिवरस्तं राजानमुवाच ह ।
कुपितास्तव राजेन्द्र ब्राह्मणा निष्कृतिं चर || ४६ ।।
उन्हीं ब्राह्मणोंमें एक श्रेष्ठ महर्षि भी थे। उन्होंने राजासे कहा--'राजेन्द्र! तुम्हारे ऊपर
ब्राह्मण कुपित हैं; इसके लिये तुम प्रायश्चित्त करो" || ४६ ।।
ऋष्यश्ड़ूं मुनिसुतमानयस्व च पार्थिव ।
वानेयमनभिज्ञं च नारीणामार्जवे रतम् ।। ४७ ।।
स चेदवतरेद् राजन विषयं ते महातपा: ।
सद्यः प्रवर्षेत् पर्जन्य इति मे नात्र संशय: ।। ४८ ।।
'भूपाल! साथ ही हम तुम्हें यह सलाह देते हैं कि अपने राज्यमें महर्षि विभाण्डकके
पुत्र वनवासी ऋष्यशृंगको बुलाओ। वे स्त्रियोंसे सर्वया अपरिचित हैं और सदा सरल
व्यवहारमें ही तत्पर रहते हैं। महाराज! वे महातपस्वी ऋष्यशुड़् यदि आपके राज्यमें
पदार्पण करें तो तत्काल ही मेघ वर्षा करेगा इस विषयमें मुझे तनिक भी संदेह नहीं
है! || ४७-४८ ।।
एतच्छुत्वा वचो राजन् कृत्वा निष्कृतिमात्मन: ।
स गत्वा पुनरागच्छत् प्रसन्नेषु द्विजातिषु || ४९ ।।
“राजन्! यह सुनकर राजा लोमपाद अपने अपराधका प्रायश्ित्त करके ब्राह्मणोंके पास
गये और जब वे प्रसन्न हो गये तब पुन: अपनी राजधानीको लौट आये” ।। ४९ ।।
राजानमागरतं श्रुत्वा प्रतिसंजहृषु: प्रजा: ।
ततो$ज्भपतिराहूय सचिवान् मन्त्रकोविदान् ।। ५० ।।
ऋष्यशृज्भरागमे यत्नमकरोन्मन्त्रनिश्चये ।
सो<ध्यगच्छदुपायं तु तैरमात्यै: सहाच्युत: ।। ५१ ।।
शास्त्रज्ैरलमर्थज्ञै्नीत्यां च परिनिष्ठितै: ।
ततश्नानाययामास वारमुख्या महीपति: ।। ५२ ।।
वेश्या: सर्वत्र निष्णातास्ता उवाच स पार्थिव: ।
ऋष्यश्ज्भमृषे: पुत्रमानयध्वमुपायत: ।। ५३ |।
राजाका आगमन सुनकर प्रजाजनोंको बड़ा हर्ष हुआ। तदनन्तर अंगराज मन्त्रकुशल
मन्त्रियोंको बुलाकर उनसे सलाह करके एक निश्चयपर पहुँच जानेके बाद मुनिकुमार
ऋष्यशृंगको अपने यहाँ ले आनेके प्रयत्नमें लग गये। राजाके मन्त्री शास्त्रज्ञ, अर्थशास्त्रके
विद्वान् और नीतिनिपुण थे। अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले नरेशने उन मन्त्रियोंके
साथ विचार करके एक उपाय जान लिया। तत्पश्चात् भूपाल लोमपादने दूसरोंको लुभानेकी
सब कलाओंमें कुशल प्रधान-प्रधान वेश्याओंको बुलाया और कहा--“तुमलोग कोई उपाय
करके मुनिकुमार ऋष्यशृंंगको यहाँ ले आओ || ५०--५३ ।।
लोभयित्वाभिविश्वास्य विषयं मम शोभना: ।
ता राजभयभीताश्चन शापभीताक्षु योषित: ।। ५४ ।।
अशक्यमूचुस्तत् कार्य विवर्णा गतचेतस: ।
तत्र त्वेका जरद्योषा राजानमिदमब्रवीत् ।। ५५ ।।
'सुन्दरियो! तुम लुभाकर उन्हें सब प्रकारसे सुख-सुविधाका विश्वास दिलाकर मेरे
राज्यमें ले आना।” महाराजकी यह बात सुनते ही वेश्याओंका रंग फीका पड़ गया। वे
अचेत-सी हो गयीं। एक ओर तो उन्हें राजाका भय था और दूसरी ओर वे मुनिके शापसे
डरी हुई थीं; अतः उन्होंने इस कार्यको असम्भव बताया। उन सबमें एक बूढ़ी स्त्री थी। उसने
राजासे इस प्रकार कहा-- || ५४-५५ ||
प्रयतिष्ये महाराज तमानेतुं तपोधनम् ।
अभिप्रेतांस्तु मे कामांस्त्वमनुज्ञातुमहसि ।। ५६ ।।
ततः शक्ष्याम्यानयितुमृष्यशूड्रमृषे: सुतम् ।
तस्या: सर्वमभिप्रेतमन्वजानात् स पार्थिव: ।। ५७ ।।
“महाराज! मैं उन तपोधन मुनिकुमारको लानेका प्रयत्न करूँगी; परंतु आप यह आज्ञा
दें कि मैं इसके लिये मनचाही व्यवस्था कर सकूँ। यदि मेरी इच्छा पूर्ण हुई तो मैं मुनिपुत्र
ऋष्यशृंगको यहाँ लानेमें सफल हो सकूँगी।” राजाने उसकी इच्छाके अनुसार व्यवस्था
करनेकी आज्ञा दे दी || ५६-५७ ।।
धनं च प्रददौ भूरि रत्नानि विविधानि च |
ततो रूपेण सम्पन्ना वयसा च महीपते ।
स्त्रिय आदाय काश्चित् सा जगाम वनमज्जसा ॥। ५८ ।।
साथ ही उसे प्रचुर धन और नाना प्रकारके रत्न भी दिये। युधिष्ठिर! तदनन्तर वह वेश्या
रूप और यौवनसे सम्पन्न कुछ सुन्दरी स्त्रियोंको साथ लेकर शीघ्रतापूर्वक वनकी ओर चल
दी || ५८ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायामृष्यशृंगोपाख्याने
दशाधिकशततमो<ध्याय: ।। ११० ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोगशती र्थयात्राके प्रसंगमें
ऋष्यशूंगोपाख्यानविषयक एक सौ दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १९० ॥।
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एकादरशाधिकशततमोड< ध्याय:
वेश्याका ऋष्यशृंगको लुभाना और विभाण्डक मुनिका
आश्रमपर आकर अपने पुत्रकी चिन्ताका कारण पूछना
लोगश उवाच
सातु नाव्याश्रमं चक्रे राजकार्यार्थसिद्धये ।
संदेशाच्चैव नृपते: स्वबुद्धया चैव भारत ।। १ ।।
लोमशजी कहते हैं--भरतनन्दन! उस वेश्याने राजाकी आज्ञाके अनुसार और अपनी
बुद्धिसे भी उनका कार्य सिद्ध करनेके लिये नावपर एक सुन्दर आश्रम बनाया ।। १ ॥।
नानापुष्पफलैव॑क्षै: कृत्रिमैरुपशोभितै: ।
नानागुल्मलतोपेतै: स्वादुकामफल प्रदै: ।। २ ।।
वह आश्रम भाँति-भाँतिके पुष्प और फलोंसे सुशोभित कृत्रिम वृक्षोंसे घिरा हुआ था।
उन वृक्षोंपर नाना प्रकारके गुल्म और लतासमूह फैले हुए थे और वे वृक्ष स्वादिष्ट एवं
वांछनीय फल देनेवाले थे ॥। २ ।।
अतीव रमणीयं तदतीव च मनोहरम् ।
चक्रे नाव्याश्रमं रम्यमद्भुतोपमदर्शनम् ।। ३ ।।
उन वृक्षोंक कारण वह आश्रम अत्यन्त रमणीय और परम मनोहर दिखायी देता था।
वेश्याने उस नावपर जिस सुन्दर आश्रमका निर्माण किया था, वह देखनेमें अद्भुत-सा
था।।३।।
ततो निबध्य तां नावमदूरे काश्यपाश्रमात् |
चारयामास पुरुषैर्विहारं तस्य वै मुने: ।। ४ ।।
तदनन्तर उसने अपनी उस नावको काश्यप गोत्रीय विभाण्डक मुनिके आश्रमसे थोड़ी
ही दूरपर बाँध दिया और गुप्तचरोंको भेजकर यह पता लगा लिया कि इस समय
विभाण्डक मुनि अपनी कुटियासे बाहर गये हैं ।। ४ ।।
ततो दुहितरं वेश्यां समाधायेतिकार्यताम् ।
दृष्टवान्तरं काश्यपस्य प्राहिणोद् बुद्धिसम्मताम् ।। ५ ।।
तदनन्तर विभाण्डक मुनिको दूर गया देख उस वेश्याने अपनी परम बुद्धिमती पुत्रीको
जो उसीकी भाँति वेश्यावृति अपनाये हुए थी, कर्तव्यकी शिक्षा देकर मुनिके आश्रमपर
भेजा || ५ ||
सा तत्र गत्वा कुशला तपोनित्यस्य संनिधौ |
आश्रमं तं समासाद्य ददर्श तमृषे: सुतम् ।। ६ ।।
वह भी कार्यसाधनमें कुशल थी। उसने वहाँ जाकर निरन्तर तपस्यामें लगे रहनेवाले
ऋषिकुमार ऋष्यशुंगके समीप उस आश्रममें पहुँचकर उनको देखा ।। ६ ।।
वेश्योवाच
कच्चिन्मुने कुशलं तापसानां
कच्चिच्च वो मूलफल प्रभूतम् ।
कच्चिद् भवान् रमते चाश्रमे<स्मिं-
स्त्वां वै द्रष्ट साम्प्रतमागतो5स्मि ।। ७ ।।
'तत्पश्चात्' वेश्याने कहा--मुने! तपस्वीलोग कुशलसे तो हैं न? आपलोगोंको पर्याप्त
फल-मूल तो मिल जाते हैं न? आप इस आश्रममें प्रसन्न तो हैं न? मैं इस समय आपके
दर्शनके लिये ही यहाँ आयी हूँ ।। ७ ।।
कच्चित् तपो वर्धते तापसानां
पिता च ते कच्चिदहीनतेजा: ।
कच्चित् त्वया प्रीयते चैव विप्र
कच्चित् स्वाध्याय: क्रियते चर्ष्यशुड्र ।। ८ ।।
क्या तपस्वीलोगोंकी तपस्या उत्तरोत्तर बढ़ रही है? आपके पिताका तेज क्षीण तो नहीं
हो रहा है? ब्रह्मन! आप मजेमें हैं न? ऋष्यशृंगजी! आपके स्वाध्यायका क्रम चल रहा है
न? ।। ८ ।।
ऋष्यशुड्र उवाच
ऋद्धया भवाउ्ज्योतिरिव प्रकाशते
मन्ये चाहं त्वामभिवादनीयम् ।
पाद्यं वै ते सम्प्रदास्यामि कामाद्
यथाधर्म फलमूलानि चैव ।। ९ ।।
ऋष्यशृंग बोले--ब्रह्मम! आप अपनी समृद्धिसे ज्योतिकी भाँति प्रकाशित हो रहे हैं।
मैं आपको अपने लिये वन्दनीय मानता हूँ और स्वेच्छासे धर्मके अनुसार आपके लिये पाद्य-
अर्घ्य एवं फल-मूल अर्पण करता हूँ || ९ ।।
कौश्यां बृष्यामास्स्व यथोपजोषं
कृष्णाजिनेनावृतायां सुखायाम् ।
क्व चाश्रमस्तव किं नाम चेदं
व्रतं ब्रह्मं श्वरसि हि देववत् त्वम् ।। १० ।।
इस कुशासनपर आप सुखलपूर्वक बैठें। इसपर काला मृगचर्म बिछाया गया है, इसलिये
इसपर बैठनेमें आराम रहेगा। आपका आश्रम कहाँ है? और आपका नाम क्या है? ब्रह्मन!
आप देवताके समान यह किस व्रतका आचरण कर रहे हैं? ।। १० ।।
वेश्योवाच
ममाश्रम: काश्यपपुत्र रम्य-
स्त्रियोजनं शैलमिमं परेण ।
तत्र स्वधर्मो नाभिवादन मे
न चोदकं पाद्यमुपस्पृशामि ।। ११ ।।
वेश्या बोली--काश्यपनन्दन! मेरा आश्रम बड़ा मनोहर है। वह इस पर्वतके उस पार
तीन योजनकी दूरीपर स्थित है। वहाँ मेरा जो अपना धर्म है उसके अनुसार आपको मेरा
अभिवादन (प्रणाम) नहीं करना चाहिये। मैं आपके दिये हुए अर्घ्य और पाद्यका स्पर्श नहीं
करूँगी ।। ११ ।।
भवता नाभिवाद्यो5हमभिवाद्यों भवान् मया ।
व्रतमेतादृशं ब्रह्मन् परिष्वज्यो भवान् मया ।। १२ ।।
मैं आपके लिये वन्दनीय नहीं हूँ। आप ही मेरे वन्दनीय हैं। ब्रह्मन! मेरा यह नियम है,
जिसके अनुसार मुझे आपका आलिंगन करना चाहिये ।। १२ ।।
ऋष्यशुड्र उवाच
फलानि पक््वानि ददानि ते*हं
भल्लातकान्यामलकानि चैव ।
करूषकाणीड्गुदधन्वनानि
पिप्पलानां कामकारं कुरुष्व ।। १३ ।।
ऋष्यशृंगने कहा--ब्रह्मन! मैं तुम्हें पके फल दे रहा हूँ। ये भिलावा, आँवले, करूषक
(फालसा), इंगुद (हिंगोट), धन्वन (धामिन) और पीपलके फल प्रस्तुत हैं--इन सबका
इच्छानुसार उपयोग कीजिये ।। १३ ।।
लोगश उवाच
सा तानि सर्वाणि विवर्जयित्वा
भक्ष्याण्यनहाणि ददौ ततो<स्य ।
तान्यृष्यशुड्रस्य महारसानि
भृशं सुरूपाणि रुचिं ददुर्हि ।। १४ ।।
लोमशजी कहते हैं--राजन्! तदनन्तर वेश्याने उन सब फलोंको छोड़कर स्वयं
ऋष्यशूंगको अत्यन्त सुन्दर और अमूल्य भक्ष्य पदार्थ (फल आदि) दिये। उन परम सरस
फलोंने उनकी रुचिको बढ़ाया ।। १४ ।।
ददौ च माल्यानि सुगन्धवन्ति
चित्राणि वासांसि च भानुमन्ति ।
पेयानि चाग्रयाणि ततो मुमोद
चिक्रीड चैव प्रजहास चैव ।। १५ ।।
सा कन्दुकेनारमतास्य मूले
विभज्यमाना फलिता लतेव ।
गात्रैश्न गात्राणि निषेवमाणा
समाश्लिषच्चासकृदृष्यशूड्रम् ।। १६ ।।
साथ ही सुगन्धित मालाएँ तथा विचित्र एवं चमकीले वस्त्र प्रदान किये। इतना ही नहीं,
उसने मुनिकुमारको अच्छी श्रेणीके पेय पिलाये जिससे वे बहुत प्रसन्न हुए। वे उसके साथ
खेलने और जोर-जोरसे हँसने लगे। वेश्या ऋष्यशृंगके पास ही गेंद खेलने लगी। वह अपने
अंगोंको मोड़ती हुई फलोंके भारसे लदी लताकी भाँति झुक जाती और ऋष्यशुंग मुनिको
बार-बार अपने अंकमें भर लेती थी। साथ ही अपने अंगोंसे उनके अंगोंको इस प्रकार
दबाती मानो उनके भीतर समा जायगी ।। १५-१६ ।।
सर्जानशोकांस्तिलकांभश्व वृक्षान्
सुपुष्पितानवनाम्यावभज्य ।
विलज्जमानेव मदाभिभूता
प्रलोभयामास सुतं महर्षे: ।। १७ ।।
वहाँ शाल, अशोक और तिलकके वृक्ष खूब फूले हुए थे। उनकी डालियोंको झुकाकर
वह मदोन्मत्त वेश्या लज्जाका नाट्य-सा करती हुई महर्षिके उस पुत्रको लुभाने
लगी || १७ ||
अथर्ष्यशूड़ूं विकृतं समीक्ष्य
पुन: पुनः पीड्य च कायमस्य ।
अवेक्ष्यमाणा शनकैर्जगाम
कृत्वाग्निहोत्रस्य तदापदेशम् ॥। १८ ।।
ऋष्यशृंगकी आकृतिमें किंचित् विकार देखकर उसने बार-बार उनके शरीरको
आलिंगनके द्वारा दबाया और अग्निहोत्रका बहाना बनाकर वह उनके द्वारा देखी जाती हुई
धीरे-धीरे वहाँसे चली गयी ।। १८ ।।
तस्यां गतायां मदनेन मत्तो
विचेतनश्वाभवदृष्यशृड्रः ।
तामेव भावेन गतेन शून्ये
विनि:श्वसन्नार्तरूपो बभूव ।। १९ ।।
उसके चले जानेपर उसके अनुरागसे उन्मत्त मुनिकुमार ऋष्यशृंग अचेत-से हो गये।
उस निर्जन स्थानमें उनकी मनोवृति उसीकी ओर लगी रही और वे लंबी साँस खींचते हुए
अत्यन्त व्यथित हो उठे ।। १९ ।।
ततो मुहूर्ताद्धरिपिड्जनलाक्ष:
प्रवेष्टितो रोमभिरानखाग्रात् ।
स्वाध्यायवान् वृत्तसमाधियुक्तो
विभाण्डक: काश्यप: प्रादुरासीत् | २० ।।
तदनन्तर दो घड़ीके बाद हरे-पीले नेत्रोंवाले काश्यपनन्दन विभाण्डक मुनि वहाँ आ
पहुँचे। वे सिरसे लेकर पैरोंके नखोंतक रोमावलियोंसे भरे हुए थे। महात्मा विभाण्डक
स्वाध्यायशील, सदाचारी तथा समाधिनिष्ठ महर्षि थे || २० ।।
सो<पश्यदासीनमुपेत्य पुत्र
ध्यायन्तमेक॑ विपरीतचित्तम् ।
विनि:श्वसन्तं मुहुरूर्ध्वदृष्टिं
विभाण्डक: पुत्रमुवाच दीनम् ।। २१ ।।
न कल्प्यन्ते समिथ: कि नु तात
कच्चिद्धुतं चाग्निहोत्रं त्वयाद्य ।
सुनिर्णिक्त ख्ुक्खुवं होमधेनु:
कच्चित् सवत्साद्य कृता त्वया च ।। २२ ।।
न वै यथापूर्वमिवासि पुत्र
चिन्तापरक्षासि विचेतनश्न ।
दीनो>तिमात्र त्वमिहाद्य किं नु
पृच्छामि त्वां क इहाद्यागतो5भूत् ।। २३ ।।
निकट आनेपर उन्होंने अपने पुत्रको अकेला उदासीन भावसे चिन्तामग्न होकर बैठा
देखा। उसके चित्तकी दशा विपरीत थी। वह बार-बार ऊपरकी ओर दृष्टि किये उच्छवास ले
रहा था। इस दयनीय दशामें पुत्रको देखकर विभाण्डक मुनिने पूछा--“तात! आज तुम
अग्निकुण्डमें समिधाएँ क्यों नहीं रख रहे हो! क्या तुमने अग्निहोत्र कर लिया? खुक्ु और
खुवा आदि यज्ञपात्रोंको भलीभाँति शुद्ध करके रखा है न? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि
तुमने हवनके लिये दूध देनेवाली गायका बछड़ा खोल दिया हो जिससे वह सारा दूध पी
गया हो। बेटा! आज तुम पहले-जैसे दिखायी नहीं देते। किसी भारी चिन्तामें निमग्न हो,
अपनी सुध-बुध खो बैठे हो। क्या कारण है जो आज तुम अत्यन्त दीन हो रहे हो। मैं तुमसे
पूछता हूँ, बताओ, आज यहाँ कौन आया था?” ।। २१--२३ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायामृष्यशूड्रोपाख्याने
एकादशाधिकशततमो< ध्यायय: ।। १११ ।।
इस प्रकार श्रीमह्ााभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशतीर्थयात्राके प्रसंगमें
ऋष्यशूंगोपाख्यानविषयक एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ११९१ ॥।
हि मय ० (0) है 7
दादशाधिकशततमो< ध्याय:
5 6 पिताको अपनी चिन्ताका कारण बताते हुए
धारी वेश्याके स्वरूप और आचरणका वर्णन
ऋष्यशुड्र उवाच
इहागतो जटिलो ब्रह्मचारी
न वै हस्वो नातिदीर्घो मनस्वी ।
सुवर्णवर्ण: कमलायताक्ष:
स्वत: सुराणामिव शोभमान: ।। १ ।।
ऋष्यशूृंगने कहा--पिताजी! यहाँ एक जटाधारी ब्रह्मचारी आया था। वह न तो छोटा
था और न बहुत बड़ा ही। उसका हृदय बहुत उदार था। उसके शरीरकी कान्ति सुवर्णके
समान थी और बड़ी-बड़ी आँखें कमलोंके सदृश जान पड़ती थीं। वह स्वयं देवताओंके
समान सुशोभित हो रहा था ।। १ ।।
समृद्धरूप: सवितेव दीप्त:
सुश्लक्षणकृष्णाक्षिरतीव गौर: ।
नील: प्रसन्नाश्न॒ जटा: सुगन्धा
हिरण्यरज्जुग्रथिता: सुदीर्घा: । २ ।।
उसका रूप बड़ा सुन्दर था। वह सूर्यदेवकी भाँति उद्धासित हो रहा था। उसके नेत्र
स्वच्छ, चिकने एवं कजरारे थे। वह बड़ा गोरा दिखाई देता था। उसकी जटाएँ बहुत लम्बी,
साफ-सुथरी और नीले रंगकी थीं। उनसे बड़ी मधुर गन्ध फैल रही थी। वे सारी जटाएँ एक
सुनहरी रस्सीसे गुँथी हुई थीं ।। २ ।।
आश्चर्यरूपा पुनरस्यथ कण्ठे
विभ्राजते विद्युदिवान्तरिक्षे |
दौ चास्य पिण्डावधरेण कण्ठा-
दजातरोमौ सुमनोहरौ च ।। ३ ।।
उसके गलेमें एक ऐसा आश्चर्यजनक आभूषण (कण्ठा) था, जो आकाशमें बिजलीकी
भाँति चमक रहा था। उसके गलेसे नीचे (वक्ष:स्थलपर) दो मांसपिण्ड थे, जिनपर रोएँ नहीं
उगे थे। वे अत्यन्त मनोहर जान पड़ते थे ।। ३ ॥।
विलग्नमध्यक्ष स नाभिदेशे
कटिश्व तस्यातिकृतप्रमाणा ।
तथास्य चीरान्तरत: प्रभाति
हिरण्मयी मेखला मे यथेयम् ।। ४ ।।
उस ब्रह्मचारीके नाभिदेशके समीप जो शरीरका मध्य भाग था, वह बहुत पतला था
और उसका नितम्बभाग अत्यन्त स्थूल था। जैसे मेरे कौपीनके नीचे यह मूँजकी मेखला
बँधी है, इसी प्रकार उसके कटि-प्रदेशमें भी एक सोनेकी मेखला (करधनी) थी, जो उसके
चीरके भीतरसे चमकती रहती थी ।। ४ ।।
अन्यच्च तस्याद्धुतदर्शनीयं
विकूजितं पादयो: सम्प्रभाति ।
पाण्योश्व तद्धत् स्वनवन्निबद्धौ
कलापकावक्षमाला यथेयम् ॥। ५ ।।
उसकी अन्य सब बातें भी अद्भुत एवं दर्शनीय थीं। पैरोंमें (पायलकी) छम-छम ध्वनि
बड़ी मधुर प्रतीत होती थी। इसी प्रकार हाथोंकी कलाइयोंमें मेरी इस रुद्राक्षकी मालाकी
भाँति उसने दो कलापक (कंगन) बाँध रखे थे, उनसे भी बड़ी मधुर ध्वनि होती रहती
थी।। ५।।
विचेष्टमानस्य च तस्य तानि
कूजन्ति हंसा: सरसीव मत्ता: ।
चीराणि तस्याद्भधुतदर्शनानि
नेमानि तद्धन्मम रूपवन्ति ।। ६ ।।
वह ब्रह्मचारी जब तनिक भी चलता-फिरता या हिलता-डुलता था, उस समय उसके
आभूषण बड़ी मनोहर झनकार उत्पन्न करते थे, मानो सरोवरमें मतवाले हंस कलरव कर
रहे हों। उसके चीर भी अद्भुत दिखायी देते थे। मेरी कौपीनके ये वल्कलवस्त्र वैसे सुन्दर
नहीं हैं || ६ ।।
वक्त्र॑ च तस्याद्भुतदर्शनीयं
प्रव्याह्ृतं ह्वादयतीव चेत: ।
पुंस्कोकिलस्थेव च तस्य वाणी
तां शृण्वतो मे व्यथितो<न्तरात्मा ।। ७ ।।
उसका मुख भी देखने ही योग्य था। उसकी अद्भुत शोभा थी। ब्रह्मचारीकी एक-एक
बात मनको आनन्द-सिन्धुमें निमग्न-सा कर देती थी। उसकी वाणी कोकिलके समान थी,
जिसे एक बार सुन लेनेपर अब पुनः सुननेके लिये मेरी अन्तरात्मा व्यथित हो उठी
है ।। ७ ।।
यथा वन॑ माधवमासि मध्ये
समीरितं श्वसनेनेव भाति ।
तथा स भात्युत्तमपुण्यगन्धी
निषेव्यमाण: पवनेन तात ।। ८ ।।
तात! जैसे माधवमास (वैशाख या वसंत ऋतु) में (सौरभयुक्त मलय-) समीरसे सेवित
वन-उपवनकी शोभा होती है, उसी प्रकार पवनदेवसे सेवित वह ब्रह्मचारी उत्तम एवं पवित्र
गन्धसे सुवासित और सुशोभित हो रहा था ।। ८ ।।
सुसंयताश्चापि जटा विषक्ता
दैधीकृता नातिसमा ललाटे ।
कर्णो च चित्रैरिव चक्रवाकै:
समावृतौ तस्य सुरूपवद्धि: ।। ९ ।।
उसकी जटा सटी हुई और अच्छी प्रकार बँधी हुई थी, जो ललाटप्रदेशमें दो भागोंमें
विभक्त थी; किंतु बराबर नहीं थी। उसके कुण्डलमण्डित कान सुन्दर एवं विचित्र
चक्रवाकोंसे घिरे हुए-से जान पड़ते थे ।। ९ ।।
तथा फल वृत्तमथो विचित्र
समाहरत् पाणिना दक्षिणेन ।
तद् भूमिमासाद्य पुनः पुनश्न
३-2 438 - 07ख पद च्चै: ।। १० ।।
उसके पास एक गोलाकार फल (गेंद) था, जिसपर वह अपने दाहिने हाथसे
आघात करता था। वह फल (गेंद) पृथ्वीपर जाकर बार-बार ऊँचेकी ओर उछलता था; उस
समय उसका रूप अद्भुत दिखायी देता था || १० ।।
तच्चाभिह्वत्य परिवर्ततेडसौ
वातेरितो वृक्ष इवावघूर्णन् |
त॑ प्रेक्षत: पुत्रमिवामराणां
प्रीति: परा तात रतिश्षु जाता ।॥। ११ ।॥।
उस फल (गेंद) को मारकर वह चारों ओर घूमने लगता था, मानो वृक्ष हवाका झोंका
खाकर झूम रहा हो। तात! देवपुत्रके समान उस ब्रह्मचारीको देखते समय मेरे हृदयमें बड़ा
प्रेम और आनन्द उमड़ रहा था और मेरी उसके प्रति आसक्ति हो गयी है ।। ११ ।।
स मे समाश्शलिष्य पुन: शरीरं
जटासु गृह्माभ्यवनाम्य वक्त्रम् ।
वक्त्रेण वक्त्र प्रणिधाय शब्दं
चकार तन्मे5जनयत् प्रहर्षम् ।। १२ ।।
वह बार-बार मेरे शरीरका आलिंगन करके मेरी जटा पकड़ लेता और मेरे मुखको
झुकाकर उसपर अपना मुख रख देता था, इस प्रकार मुख-से-मुख मिलाकर उससे एक
ऐसा शब्द किया, जिसने मेरे हृदयमें अत्यन्त आनन्द उत्पन्न कर दिया ।। १२ ।।
न चापि पाद्यं बहु मन्यते5सौ
फलानि चेमानि मया55हृतानि ।
एवंव्रतो5स्मीति च मामवोचत्
फलानि चान्यानि समाददन्मे ।। १३ ।।
मैंने जो पाद्य अर्पण किया, उसको उसने बहुत महत्त्व नहीं दिया। मेरे दिये हुए ये फल
भी उसने स्वीकार नहीं किये और मुझसे कहा--“मेरा ऐसा ही नियम है।” साथ ही उसने मेरे
लिये दूसरे-दूसरे फल दिये ।। १३ ।।
मयोपयुक्तानि फलानि यानि
नेमानि तुल्यानि रसेन तेषाम् ।
न चापि तेषां त्वगियं यथैषां
साराणि नैषामिव सन्ति तेषाम् ।। १४ ।।
मैंने उसके दिये हुए जिन फलोंका उपयोग किया है, उनके समान रस हमारे इन फलोंमें
नहीं है। उन फलोंके छिलके भी ऐसे नहीं थे, जैसे इन जंगली फलोंके हैं। इन फलोंके गूदे
जैसे हैं, वैसे उसके दिये हुए फलोंके नहीं थे (वे सर्वथा विलक्षण थे) ।। १४ ।।
तोयानि चैवातिरसानि महां
प्रादात् स वै पातुमुदाररूप: ।
पीत्वैव यान्यभ्यधिकः: प्रहर्षो
ममाभवद् भूश्वलितेव चासीत् ।। १५ ।।
उदारताके मूर्तिमान् स्वरूप उस ब्रह्मचारीने मुझे पीनेके लिये अत्यन्त स्वादिष्ट जल भी
दिया था। उस जलको पीते ही मेरे हर्षकी सीमा न रही। मुझे यह धरती डोलती-सी जान
पड़ने लगी ।। १५ ।।
इमानि चित्राणि च गन्धवन्ति
माल्यानि तस्योदग्रथितानि पट्टेः ।
यानि प्रकीर्येह गत: स्वमेव
स आश्रमं तपसा द्योतमान: ।। १६ ।।
ये विचित्र सुगन्धित मालाएँ उसीने रेशमी डोरोंसे गूँथकर बनायी थीं, जिन्हें यहाँ
बिखेरकर तपस्यासे प्रकाशित होनेवाला वह ब्रह्मचारी अपने आश्रमको चला गया
था ।। १६ ||
गतेन तेनास्मि कृतो विचेता
गात्रं च मे सम्परिदह्मतीव ।
इच्छामि तस्यान्तिकमाशोु गन्तुं
त॑ चेह नित्यं परिवर्तमानम् ।। १७ ।।
उसके चले जानेसे मैं अचेत हो गया हूँ। मेरा शरीर जलता-सा जान पड़ता है। मैं
चाहता हूँ, शीघ्र उसके पास ही चला जाऊँ अथवा वही यहाँ नित्य मेरे पास रहे || १७ ।।
गच्छामि तस्यान्तिकमेव तात
का नाम सा ब्रह्म॒चर्या च तस्य ।
इच्छाम्यहं चरितुं तेन सार्ध
यथा तप: स चरत्यार्यधर्मा || १८ ।।
पिताजी! मैं उसीके पास जाता हूँ, देखूँ, उसकी ब्रह्मचर्यकी साधना कैसी है? वह
आर्यधर्मका पालन करनेवाला ब्रह्मचारी जिस प्रकार तप करता है, उसके साथ रहकर मैं भी
वैसी ही तपस्या करना चाहता हूँ ।। १८ ।।
चर्तु तथेच्छा हृदये ममास्ति
दुनोति चित्त यदि त॑ न पश्ये ।। १९ ।।
वैसा ही तप करनेकी इच्छा मेरे हृदयमें भी है। यदि उसे नहीं देखूँगा तो मेरा यह चित्त
संतप्त होता रहेगा ।। १९ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायामृष्यशुज्रोपाख्याने
द्वादशशाधिकशततमो<ध्याय: ।। ११२ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोगशती ्थयात्राके प्रसंगमें
ऋष्यशूंगोपाख्यानविषयक एक सौ बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ११२ ॥
हि >> आय ० (0) हि २ 7
त्रयोदशाधिकशततमो< ध्याय:
ऋष्यशृंगका अंगराज लोमपादके यहाँ जाना, राजाका उन्हें
अपनी कन्या देना, राजाद्वारा विभाण्डक मुनिका सत्कार
तथा उनपर मुनिका प्रसन्न होना
विभाण्डक उवाच
रक्षांसि चैतानि चरन्ति पुत्र
रूपेण तेनाद्भुतदर्शनेन ।
अतुल्यवीर्याण्यभिरूपवन्ति
विघ्नं सदा तपसभश्रिन्तयन्ति ।। १ ॥।
विभाण्डकने कहा--बेटा! इस प्रकार अद्भुत दर्शनीय रूप धारण करके तो राक्षस ही
इस वनमें विचरा करते हैं। ये अनुपम पराक्रमी और मनोहर रूप धारण करनेवाले होते हैं,
तथा ऋषि-मुनियोंकी तपस्यामें सदा विघ्न डालनेका ही उपाय सोचते रहते हैं ।। १ ।।
सुरूपरूपाणि च तानि तात
प्रलोभयन्ते विविधैरुपायै: ।
सुखाच्च लोकाच्च निपातयन्ति
तान्युग्ररूपाणि मुनीन् वनेषु ।। २ ।।
तात! वे मनोहर रूपधारी राक्षस नाना प्रकारके उपायोंद्वारा मुनिलोगोंको प्रलोभनमें
डालते रहते हैं। फिर वे ही भयानक रूप धारण करके वनमें निवास करनेवाले मुनियोंको
आनन्दमय लोकोंसे नीचे गिरा देते हैं ।। २ ।।
न तानि सेवेत मुनिर्यतात्मा
सतां लोकान् प्रार्थयान: कथंचित् |
कृत्वा विघ्नं तापसानां रमन्ते
पापाचारास्तापसस्तान् न पश्येत् ।। ३ ।।
अतः जो साधु पुरुषोंको मिलनेवाले पुण्यलोकोंको पाना चाहता है, वह मुनि मनको
संयममें रखकर उन राक्षसोंका (जो मोहक रूप बनाकर धोखा देनेके लिये आते हैं) किसी
प्रकार सवेन न करे। वे पापाचारी निशाचर तपस्वी मुनियोंके तपमें विघध्न डालकर प्रसन्न
होते हैं, अतः तपस्वीको चाहिये कि वह उनकी ओर आँख उठाकर देखे ही नहीं ।। ३ ।।
असज्जनेनाचरितानि पुत्र
पापान्यपेयानि मधूनि तानि ।
माल्यानि चैतानि न वै मुनीनां
स्मृतानि चित्रोज्ज्वलगन्धवन्ति ।। ४ ।।
वत्स! जिसे तुम जल समझते थे, वह मद्य था। वह पापजनक और अपेय है, उसे कभी
नहीं पीना चाहिये। दुष्ट पुरुष उसका उपयोग करते हैं तथा ये विचित्र, उज्ज्वल और
सुगन्धित पुष्पमालाएँ भी मुनियोंके योग्य नहीं बतायी गयी हैं ।। ४ ।।
रक्षांसि तानीति निवार्य पुत्र
विभाण्डकस्तां मृगयाम्बभूव ।
नासादयामास यदा तःयहेण
तदा स पर्याववृते55श्रमाय ।। ५ ।।
'ऐसी वस्तुएँ लानेवाले राक्षस ही हैं।। ऐसा कहकर विभाण्डक मुनिने पुत्रको उससे
मिलने-जुलनेसे मना कर दिया और स्वयं उस वेश्याकी खोज करने लगे। तीन दिनोंतक
ढूँढ़नेपर भी जब वे उसका पता न लगा सके, तब आश्रमपर लौट आये ।। ५ |।
यदा पुनः काश्यपो वै जगाम
फलान्याहर्तु विधिना$5श्रमात् सः ।
तदा पुनर्लोभयितुं जगाम
सा वेशयोषा मुनिमृष्यशृड्रम् ।। ६ ।।
जब काश्यपनन्दन विभाण्डक मुनि आश्रमसे पुनः विधिके अनुसार फल लानेके लिये
वनमें गये, तब वह वेश्या ऋष्यशृंग मुनिको लुभानेके लिये फिर उनके आश्रमपर
आयी ।। ६ |।
दृष्टवैव तामृष्यश्ड्: प्रह्ृष्ट:
सम्भ्रान्तरूपो5भ्यपतत् तदानीम् |
प्रोवाच चैनां भवत: श्रमाय
गच्छाव यावन्न पिता ममैति ।। ७ ।।
उसे देखते ही ऋष्यशुंग मुनि हर्ष-विभोर हो उठे और घबराकर तुरंत उसके पास दौड़
गये। निकट जाकर उन्होंने कहा--'ब्रह्मन! मेरे पिताजी जबतक लौटकर नहीं आते,
तभीतक मैं और आप--दोनों आपके आश्रमकी ओर चल दें” ।। ७ ।।
ततो राजन् काश्यपस्यैकपुत्र
प्रवेश्य योगेन विमुच्य नावम् ।
प्रमोदयन्त्यो विविधैरुपायै-
राजग्मुरज्राधिपते: समीपम् ।। ८ ।।
राजन! तदनन्तर विभाण्डक मुनिके इकलौते पुत्रको युक्तिसे नावमें ले जाकर वेश्याने
नाव खोल दी। फिर सभी युवतियाँ भाँति-भाँतिके उपायोंद्वारा उनका मनोरंजन करती हुई
अंगराजके समीप आयीं ।। ८ ।।
संस्थाप्य तामाश्रमदर्शने तु
संतारितां नावमथातिशु भ्राम् ।
नीरादुपादाय तथैव चक्रे
नाव्याश्रमं नाम वन विचित्रम् । ९ ।।
नाविकोंद्वारा संचालित उस अत्यन्त उज्ज्वल नौकाको जलसे बाहर निकालकर राजाने
एक स्थानपर स्थापित कर दिया और जितनी दूरीसे वह नौकागत आश्रम दिखायी देता था,
उतनी दूरीके विस्तृत मैदानमें उन्होंने ऋष्यशृंग मुनिके आश्रम-जैसे ही एक विचित्र वनका
निर्माण करा दिया, जो '“नाव्याश्रम” के नामसे प्रसिद्ध हुआ ।। ९ ।।
अन्त:पुरे तं तु निवेश्य राजा
विभाण्डकस्यात्मजमेकपुत्रम् ।
ददर्श देवं सहसा प्रवृष्ट-
मापूर्यमाणं च जगज्जलेन ।। १० ।।
राजा लोमपादने विभाण्डक मुनिके इकलौते पुत्रको महलके भीतर रनिवासमें ठहरा
दिया और देखा, सहसा उसी क्षण इन्द्रदेवने वर्षा आरम्भ कर दी तथा सारा जगत् जलसे
परिपूर्ण हो गया ।। १० ।।
स लोमपाद: परिपूर्णकाम:
सुतां ददावृष्यशृज्भाय शान्ताम् |
क्रोधप्रतीकारकरं च चक्रे
गाश्जैव मार्गेषु च कर्षणानि ।। ११ ।।
लोमपादकी कामना पूरी हुई। उन्होंने प्रसन्न होकर अपनी पुत्री शान्ता ऋष्यशृंग मुनिको
ब्याह दी। फिर विभाण्डक मुनिके क्रोधके निवारणका भी उपाय कर दिया। जिस रास्तेसे
महर्षि आनेवाले थे, उसमें स्थान-स्थानपर बहुत-से गाय-बैल रखवा दिये और किसानोंद्वारा
खेतोंकी जुताई आरम्भ करा दी | ११ |।
विभाण्डकस्याव्रजत: स राजा
पशून् प्रभूतान् पशुपांश्न वीरान्
समादिशत् पुत्रगृद्धी महर्षि-
विभाण्डक: परिपृच्छेद् यदा व: ।। १२ ।।
स वक्तव्य: प्राउ्जलिभियर्भवद्धि:
पुत्रस्य ते पशव: कर्षणं च |
किं ते प्रियं वै क्रियतां महर्षे
दासा: सम सर्वे तव वाचि बद्धा: ।। १३ ।।
राजाने विभाण्डक मुनिके आगमन-पथमें बहुत-से पशु तथा वीर पशुरक्षक भी नियुक्त
कर दिये और सबको यह आदेश दे दिया था कि जब पुत्रकी अभिलाषा रखनेवाले महर्षि
विभाण्डक तुमसे पूछें तब हाथ जोड़कर उन्हें इस प्रकार उत्तर देना--“ये सब आपके पुत्रके
ही पशु हैं, ये खेत भी उन्हींके जोते जा रहे हैं। महर्षे! आज्ञा दें, हम आपका कौन-सा प्रिय
कार्य करें। हम सब लोग आपके आज्ञापालक दास हैं" || १२-१३ ।।
अथोपायात् स मुनिश्चण्डकोप:
स्वमाश्रमं मूलफल गृहीत्वा ।
अन्वेषमाणश्च न तत्र पुत्र
ददर्श चुक्रोध ततो भूशं सः: ।। १४ ।।
इधर प्रचण्ड कोपधारी महात्मा विभाण्डक फल-मूल लेकर अपने आश्रमपर आये।
वहाँ बहुत खोज करनेपर भी जब अपना पुत्र उन्हें दिखायी न दिया, तब वे अत्यन्त क्रोधमें
भर गये ।। १४ ।।
ततः स कोपेन विदीर्यमाण
आशड्कमानो नृपतेर्विधानम् ।
जगाम चम्पां प्रति धक्ष्यमाण-
स्तमड्राजं सपुरं सराष्ट्रम ।। १५ ।।
कोपसे उनका हृदय विदीर्ण-सा होने लगा। उनके मनमें यह संदेह हुआ कि कहीं राजा
लोमपादकी तो यह करतूत नहीं है। तब वे चम्पानगरीकी ओर चल दिये, मानो अंगराजको
उनके राष्ट्र और नगरसहित जला देना चाहते हों ।। १५ ।।
स वै श्रान्त: क्षुधित: काश्यपस्तान्
घोषान् समासादितवान् समृद्धान् ।
गोपैश्न तैर्विधिवत् पूज्यमानो
राजेव तां रात्रिमुवास तत्र ।। १६ ।।
थककर भूखसे पीड़ित होनेपर विभाण्डक मुनि सायंकालनमें उन्हीं समृद्धिशाली गोष्ठोंमें
गये। गोपगणोंने उनकी विधिपूर्वक पूजा की। वे राजाकी भाँति सुख-सुविधाके साथ वहीं
रातभर रहे ।। १६ |।
अवाप्य सत्कारमतीव तेभ्य:
प्रोवाच कस्य प्रथिता: स्थ गोपा: ।
ऊचुस्ततस्ते< भ्युपगम्य सर्वे
धनं तवेदं विहितं सुतस्य ।। १७ ।।
गोपगणोंसे अत्यन्त सत्कार पाकर मुनिने पूछा--“तुम किसके गोपालक हो?” तब उन
सबने निकट आकर कहा--'यह सारा धन आपके पुत्रका ही है” ।।
देशेषु देशेषु स पूज्यमान-
स्तांश्वैव शृण्वन् मधुरान् प्रलापान्
प्रशान्तभूयिष्ठरजा: प्रह्ृष्ट:
समाससादाजझ्भपतिं पुरस्थम् | १८ ।।
देश-देशमें सम्मानित हो वे ही मधुर वचन सुनते-सुनते मुनिका रजोगुणजनित
अत्यधिक क्रोध बिलकुल शान्त हो गया। वे प्रसन्नतापूर्वक राजधानीमें जाकर अंगराजसे
मिले || १८ ।।
स पूजितस्तेन नरर्षभेण
ददर्श पुत्र॑ दिवि देवं यथेन्द्रम् ।
शान्तां स्नुषां चैव ददर्श तत्र
सौदामनीमुच्चरन्ती यथैव ।। १९ ।।
>> उप:
र्स्क
| ७०
| (४३)
नरश्रेष्ठ लोमपादसे पूजित हो मुनिने अपने पुत्रको उसी प्रकार ऐश्वर्यसम्पन्न देखा, जैसे
देवराज इन्द्र स्वर्गलोकमें देखे जाते हैं। पुत्रके पास ही उन्होंने बहू शान्ताको भी देखा, जो
विद्युतके समान उद्धासित हो रही थी ।। १९ ।।
ग्रामांश्व घोषांश्व॒ सुतस्य दृष्टवा
शान्तां च शान्तो5स्य पर: स कोप: ।
चकार तस्यैव परं प्रसाद
विभाण्डको भूमिपतेनरिन्द्र || २० ।।
अपने पुत्रके अधिकारमें आये हुए ग्राम, घोष और बहू शान्ताको देखकर उनका महान्
कोप शान्त हो गया। युधिष्ठिर! उस समय विभाण्डक मुनिने राजा लोमपादपर बड़ी कृपा
की ।॥। २० ।।
स तत्र निक्षिप्य सुतं महर्षि-
रुवाच सूर्याग्निसमप्रभाव: ।
जाते च पुत्रे वनमेवात्रजेथा
राज्ञ: प्रियाण्यस्य सर्वाणि कृत्वा ।। २१ ।।
सूर्य और अग्निके समान प्रभावशाली महर्षिने अपने पुत्रको वहीं छोड़ दिया और कहा
--<बेटा! पुत्र उत्पन्न हो जानेपर इन अंगराजके सारे प्रिय कार्य सिद्ध करके फिर वनमें ही
आ जाना” ।। २१ ||
स तद्वच: कृतवानृष्यश्ज्ो
ययौ च यत्रास्य पिता बभूव ।
शान्ता चैन पर्यचरन्नरेन्द्र
खे रोहिणी सोममिवानुकूला ।। २२ ।।
ऋष्यशुंगने पिताकी आज्ञाका अक्षरश: पालन किया। अन्तमें वे पुनः: उसी आश्रममें
चले गये जहाँ उनके पिता रहते थे। नरेन्द्र! शान्ता उसी प्रकार अनुकूल रहकर उनकी सेवा
करती थी जैसे आकाशमें रोहिणी चन्द्रमाकी सेवा करती है || २२ ।।
अरुन्धती वा सुभगा वसिष्ठं
लोपामुद्रा वा यथा हाुगस्त्यम् ।
नलस्य वै दमयन्ती यथा भूद्
यथा शची वज्रधरस्य चैव ।। २३ ।।
अथवा जैसे सौभाग्यशालिनी अरुन्धती वसिष्ठजीकी, लोपामुद्रा अगस्त्यजीकी,
दमयन्ती नलकी तथा शची वज्रधारी इन्द्रकी सेवा करती है || २३ ।।
नारायणी चेन्द्रसेना बभूव
वश्या नित्यं मुद्रलस्पाजमीढ ।
(यथा सीता दाशरयथेमहात्मनो
यथा तव द्रौपदी पाण्डुपुत्र ।)
तथा शान्ता ऋष्यशुड्रं वनस्थं
प्रीत्या युक्ता पर्यचरत्नरेन्द्र || २४ ।।
युधिष्ठि!! जैसे नारायणी इन्द्रसेना सदा महर्षि मुद्लके अधीन रहती थी तथा
पाण्डुनन्दन! जैसे सीता महात्मा दशरथनन्दन श्रीरामके अधीन रही हैं और द्रौपदी सदा
तुम्हारे वशमें रहती आयी है, उसी प्रकार शान्ता भी सदा अधीन रहकर वनवासी
ऋष्यशुंगकी प्रसन्नतापूर्वक सेवा करती थी ।। २४ ।।
तस्याश्रम: पुण्य एषो5वभाति
महाहदं शोभयन् पुण्यकीर्ति: ।
अत्र स्नात: कृतकृत्यो विशुद्ध-
स्तीर्थान्यन्यान्यनुसंयाहि राजन् ।। २५ ।।
उनका यह पुण्यमय आश्रम, जो पवित्र कीर्तिसे युक्त है, इस महान् कुण्डकी शोभा
बढ़ाता हुआ प्रकाशित हो रहा है, राजन! यहाँ स्नान करके शुद्ध एवं कृतकृत्य होकर अन्य
तीर्थोंकी यात्रा करो || २५ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायामृष्यशूड्रोपाख्याने
त्रयोदशाधिकशततमो< ध्याय: ।। ११३ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रस॑ंगमें
ऋष्यशुंगोपाख्या0/गविषयक एक सौ तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ११३ ॥
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका आधा श्लोक मिलाकर कुल २५६ श्लोक हैं)
हब. “(9 #2५:..# #2:५::.१
चतुर्दशाधिकशततमो< ध्याय:
युधिष्ठिरका कौशिकी, गंगासागर एवं वैतरणी नदी होते हुए
महेन्द्रपर्वतपर गमन
वैशम्पायन उवाच
ततः प्रयात: कौशिक्या: पाण्डवो जनमेजय ।
आनुपूर्व्येण सर्वाणि जगामायतनान्यथ ।। १ ।।
स सागरं समासाद्य गड़ाया: संगमे नृप ।
नदीशतानां पज्चानां मध्ये चक्रे समाप्लवम् ।। २ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरने कौशिकी
नदीके तटवर्ती सभी तीर्थों और मन्दिरोंकी क्रमश: यात्रा की। राजन! उन्होंने गंगा-
सागरसंगमतीर्थमें समुद्रतटपर पहुँचकर पाँच सौ नदियोंके जलमें स्नान किया ।। १-२ ।।
ततः: समुद्रतीरेण जगाम वसुधाधिप: ।
भ्रातृभि: सहितो वीर: कलिड्रान् प्रति भारत ।। ३ ।।
भारत! तत्पश्चात् वीर भूपाल युधिष्ठिर अपने भाइयोंके साथ कलिंगदेश (उड़ीसा) में
गये ।। ३ ।।
लोगमश उवाच
एते कलिज्जा: कौन्तेय यत्र वैतरणी नदी ।
यत्रायजत धर्मोडपि देवाउ्छरणमेत्य वै ।। ४ ।।
तब लोमशजीने कहा--कुन्तीकुमार! यह कलिंग देश है, जिसमें वैतरणी नदी बहती
है। जहाँ धर्मने भी देवताओंकी शरणमें जाकर यज्ञ किया था ।। ४ ।।
ऋषिभि: समुपायुक्त यज्ञियं गिरिशोभितम् ।
उत्तरं तीरमेतद्धि सततं द्विजसेवितम् ।। ५ ।।
यह पर्वतमालाओंसे सुशोभित वैतरणीका वही उत्तर तट है जहाँ यज्ञका आयोजन
किया गया था। बहुत-से ऋषि तथा ब्राह्मणलोग सदा इस उत्तर तटका सेवन करते आये
हैं ।। ५ |।
समान देवयानेन पथा स्वर्गमुपेयुष: ।
अत्र वै ऋषयो<न्न्येडपि पुरा क्रतुभिरीजिरे ।। ६ ।।
स्वर्गलोककी प्राप्ति करनेवाले पुण्यात्मा मनुष्यके लिये यह स्थान 'देवयान” मार्गके
समान है। प्राचीन कालमें ऋषियों तथा अन्य लोगोंने भी यहाँ बहुत-से यज्ञोंका अनुष्ठान
किया था |। ६ ।।
अन्नैव रुद्रो राजेन्द्र पशुमादत्तवान् मखे ।
पशुमादाय राजेन्द्र भागोडयमिति चाब्रवीत् ।। ७ ।।
राजेन्द्र! यहीं रुद्रदेवने यज्ञमें पशुको ग्रहण कर लिया था। उस पशुको ग्रहण करके
उन्होंने कहा--“यह तो मेरा हिस्सा है” || ७ ।।
ह्ृते पशौ तदा देवास्तमूचुर्भरतर्षभ ।
मा परस्वमभिद्रोग्धा मा धर्मानू सकलान् वशी: ।॥। ८ ।।
भरतश्रेष्ठी] पशुका अपहरण हो जानेपर देवताओंने उनसे कहा--“आप दूसरोंके धनसे
द्रोह न करें (दूसरोंके हिस्सेको न लें) धर्मके साधनभूत समस्त यज्ञभागोंको लेनेकी इच्छा न
करें! || ८ ।।
ततः कल्याणरूपाभिववग्भिस्ते रुद्रमस्तुवन् ।
इष्ट्या चैनं तर्पयित्वा मानयांचक्रिरे तदा ।। ९ ।।
यों कहकर उन्होंने कल्याणमय वचनोंद्वारा भगवान् रुद्रका स्तवन किया और इष्टिद्वारा
उन्हें तृप्त करके उस समय उनका विशेष सम्मान किया ।। ९ ।।
ततः स पशुमुत्सृज्य देवयानेन जग्मिवान् ।
तत्रानुवंशो रुद्रस्य तं निबोध युधिछिर ।। १० ।।
तब वे उस पशुको वहीं छोड़कर देवयान मार्गसे चले गये। युधिष्ठिर! यज्ञमें भगवान्
रुद्रकी भागपरम्पराका बोधक एक श्लोक है, उसे बताता हूँ, सुनो-- ।। १० ।।
अयातयामं सर्वेभ्यो भागेभ्यो भागमुत्तमम् ।
देवा: संकल्पयामासुर्भयाद् रुद्रस्य शाश्वतम् ।। ११ ।।
'देवताओंने रुद्रदेवके भयसे उनके लिये शीघ्र ही सब भागोंकी अपेक्षा उत्तम एवं
सनातन भाग देनेका संकल्प किया” || ११ ।।
इमां गाथामत्र गायन्नपः स्मृशति यो नर: ।
देवयानो<स्य पन्थाश्च चक्षुषाभिप्रकाशते ।। १२ ।।
जो मनुष्य यहाँ इस गाथाका गान करते हुए वैतरणीके जलका स्पर्श करता है उसकी
दृष्टिमें देवयान मार्ग प्रकाशित हो जाता है ।। १२ ।।
वैशम्पायन उवाच
ततो वैतरणीं सर्वे पाण्डवा द्रौपदी तथा ।
अवतीर्य महाभागास्तर्पयांचक्रिरे पितृन्ू | १३ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्! तदनन्तर महान् भाग्यशाली समस्त पाण्डवों और
द्रौपदीने वैतरणीके जलमें उतरकर अपने पितरोंका तर्पण किया ।। १३ ।।
युधिछिर उवाच
उपस्पृश्येह विधिवदस्यां नद्यां तपोबलात् ।
मानुषादस्मि विषयादपेत: पश्य लोमश ।। १४ ।।
उस समय युधिष्ठिर बोले--लोमशजी! देखिये, इस वैतरणी नदीमें विधिपूर्वक स्नान
करनेसे मुझे तपोबल प्राप्त हुआ है, जिसके प्रभावसे मैं मानवीय विषयोंसे दूर हो गया
हूँ ।। १४ ।।
सर्वाल्लोकान् प्रपश्यामि प्रसादात् तव सुव्रत ।
वैखानसानां जपतामेष शब्दो महात्मनाम् ।। १५ ||
सुव्रत! आपकी कृपासे इस समय मुझे सम्पूर्ण लोकोंका दर्शन हो रहा है। यह जप और
स्वाध्यायमें लगे हुए महात्मा वैखानस ऋषियोंका शब्द है || १५ ।।
लोमश उवाच
त्रिशतं वै सहस्नाणि योजनानां युधिष्ठिर ।
यत्र ध्वनिं शृणोष्येनं तृष्णीमास्स्व विशाम्पते || १६ ।।
लोमशजीने कहा--राजा युधिष्ठिर! जहाँसे आती हुई इस ध्वनिको तुम सुन रहे हो वह
स्थान यहाँसे तीन लाख योजन दूर है; अत: अब चुप रहो ।। १६ ।।
एतत् स्वयम्भुवो राजन् वन दिव्यं प्रकाशते ।
यत्रायजत राजेन्द्र विश्वकर्मा प्रतापवान् ।। १७ ।।
राजन! यह ब्रह्माजीका दिव्य वन प्रकाशित हो रहा है; राजेन्द्र! यहीं प्रतापी विश्वकर्मानि
यज्ञ किया है ।। १७ ।।
यस्मिन् यज्ञे हि भूर्दत्ता कश्यपाय महात्मने |
सपर्वतवनोद्देशा दक्षिणार्थे स्वयम्भुवा ।। १८ ।।
उस यज्ञमें ब्रह्माजीने पर्वत और वनप्रान्तसहित यह सारी पृथ्वी महात्मा कश्यपको
दक्षिणारूपमें दे दी थी ।। १८ ।।
अवासीदच्च कौन्तेय दत्तमात्रा मही तदा ।
उवाच चापि कुपिता लोकेश्वरमिदं प्रभुम् ।। १९ ।।
न मां मर्त्याय भगवन् कस्मैचिद् दातुम्हसि ।
प्रदानं मोघधमेतत् ते यास्याम्येषा रसातलम् ।॥। २० ।।
कुन्तीकुमार! उनके द्वारा अपना दान होते ही पृथ्वी बहुत दुःखी हो गयी और कुपित हो
लोकनाथ प्रभु ब्रह्मासे इस प्रकार बोली--“भगवन्! आप मुझे किसी मनुष्यको न सौँपें।
यदि मुझे मनुष्यको सौंपेंगे तो वह व्यर्थ होगा, क्योंकि मैं अभी रसातलको चली
जाऊँगी' || १९-२० ।।
विषीदन्तीं तु तां दृष्टवा कश्यपो भगवानृषि: ।
प्रसादयाम्बभूवाथ ततो भूमिं विशाम्पते ।। २१ ।।
राजन! पृथ्वी देवीको विषाद करती देख महर्षि भगवान् कश्यपने प्रार्थनाद्वारा उन्हें
प्रसन्न किया || २१ ।।
ततः प्रसन्ना पृथिवी तपसा तस्य पाण्डव ।
पुनरुन्नह्ा सलिलाद् वेदीरूपा स्थिता बभौ ।। २२ ।।
पाण्डुनन्दन! उनकी तपस्यासे प्रसन्न हुई पृथ्वी पुन जलसे ऊपर उठकर वेदीके रूपमें
स्थित हो गयी ।।
सैषा प्रकाशते राजन् वेदी संस्थानलक्षणा ।
आरुद्मात्र महाराज वीर्यवान् वै भविष्यसि ।। २३ ।।
राजन! वह पृथ्वी देवी ही यहाँ इस मिट्टीकी वेदीके रूपमें प्रकाशित हो रही है।
महाराज! इसपर आरुढ़ होकर तुम बल-पराक्रमसे सम्पन्न हो जाओगे || २३ ।।
सैषा सागरमासाद्य राजन् वेदी समाश्रिता |
एतामारुहा[ भद्रें ते त्वमेकस्तर सागरम् ।। २४ ।।
युधिष्ठिर! वही यह वेदीस्वरूपा पृथ्वी समुद्रका आश्रय लेकर स्थित है; तुम्हारा कल्याण
हो। तुम अकेले ही इसपर चढ़कर समुद्रको पार करो ।। २४ ।।
अहं च ते स्वस्त्ययन प्रयोक्ष्ये
यथा त्वमेनामधिरोहसेड्द्य ।
स्पृष्टा हि मर्त्येन ततः समुद्र-
मेषा वेदी प्रविशत्याजमीढ ।। २५ ।।
मैं तुम्हारे लिये स्वस्तिवाचन करूँगा, जिससे तुम आज इस वेदीपर चढ़ सको;
अजमीढकुलनन्दन! नहीं तो मनुष्यके द्वारा स्पर्श हो जानेपर यह वेदी समुद्रमें प्रवेश कर
जाती है |। २५ ।।
३० नमो विश्वगुप्ताय नमो विश्वपराय ते |
सांनिध्यं कुरु देवेश सागरे लवणाम्भसि ।। २६ ।।
(समुद्रमें स्नान करते समय उसकी प्रार्थनाके लिये निम्नांकित मन्त्रका उच्चारण करना
चाहिये--) जिनमें यह सम्पूर्ण विश्व लीन होता है तथा जो सबसे श्रेष्ठ हैं, उन भगवान्
विष्णुको नमस्कार है। देवेश्वर! आप खारे समुद्रमें निवास करें || २६ ।।
अन्निर्मित्रो योनिरापो5थ देव्यो
विष्णो रेतस्त्वममृतस्य नाभि: ।
एवं ब्रुवन् पाण्डव सत्यवाक्यं
वेदीमिमां त्वं तरसाधिरोह ।। २७ ।।
हे समुद्र! अग्नि, मित्र (सूर्य) और दिव्य जल--ये सब तुम्हारी योनि (उत्पत्ति-कारण)
हैं। तुम सर्वव्यापी परमात्माके रेतस् (वीर्य या शक्ति) हो और तुम्हीं अमृतकी उत्पत्तिके
स्थान हो।” पाण्डुनन्दन! इस सत्य वाक्यका उच्चारण करते हुए तुम शीघ्रतापूर्वक इस
वेदीपर आरूढ़ हो जाओ || २७ ।।
अभ्निश्च ते योनिरिडा च देहो
रेतोधा विष्णोरमृतस्य नाभि: ।
एवं जपन् पाण्डव सत्यवाक्यं
ततो<5वगाहेत पतिं नदीनाम् ।। २८ ।।
“हे महासागर! अग्नि तुम्हारी योनि (कारण) है और यज्ञ शरीर है, तुम भगवान्
विष्णुकी शक्तिके आधार और मोक्षके साधन हो।/' पाण्डुपुत्र! इस सत्य वचनको बोलते हुए
नदियोंके स्वामी समुद्रमें स्नान करना चाहिये || २८ ।।
अन्यथा हि कुरुश्रेष्ठ देवयोनिरपां पति: ।
कुशाग्रेणापि कौन्तेय न स्प्रष्टव्यो महोदधि: ।। २९ ।।
कुरुश्रेष्ठ! जलका स्वामी समुद्र देवताओंका अधिष्ठान है। कुन्तीनन्दन! ऊपर बतायी
हुई रीतिके सिवा दूसरे किसी प्रकारसे इस महासागरका कुशके अग्रभागद्वारा भी स्पर्श नहीं
करना चाहिये ।। २९ ।।
वैशम्पायन उवाच
ततः कृतस्वस्त्ययनो महात्मा
युधिष्ठिर: सागरमभ्यगच्छत् ।
कृत्वा च तच्छासनमस्य सर्व
महेन्द्रमासाद्य निशामुवास || ३० ||
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर लोमशजीके स्वस्तिवाचन करनेके
पश्चात् महात्मा राजा युधिष्ठिरने उनकी बतायी हुई सारी विधियोंका पालन करते हुए
समुद्रमें स्नान करनेके लिये प्रवेश किया। इसके बाद महेन्द्रपर्वतपर जाकर रात्रि
बितायी ।। ३० ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां महेन्द्राचलगमने
चतुर्दशाधिकशततमो<ध्याय: ।। ११४ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रसंगमें
महेन्द्राचलगमनविषयक एक सौ चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ११४ ॥।
हि >> आय न [हुक हि 7 आम
पञ्चदशाधिकशततमो< ध्याय:
अकृतव्रणके द्वारा युधिष्ठिससे परशुरामजीके उपाख्यानके
प्रसंगमें ऋचीक मुनिका गाधिकन्याके साथ विवाह और
भूगुऋषिकी कृपासे जमदग्निकी उत्पत्तिका वर्णन
वैशम्पायन उवाच
स तत्र तामुषित्वैकां रजनीं पृथिवीपति: ।
तापसानां परं चक्रे सत्कारं भ्रातृभि: सह ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! उस पर्वतपर एक रात निवास करके
भाइयोंसहित राजा युधिष्ठिरने तपस्वी मुनियोंका बहुत सत्कार किया ।। १ ।।
लोमशस्तस्य तान् सर्वानाचख्यौ तत्र तापसान् |
भगूनज्विरसश्वैव वसिष्ठानथ काश्यपान् ।। २ ।।
लोमशजीने युधिष्ठिस्से उन सभी तपस्वी महात्माओंका परिचय कराया। उनमें भृगु,
अंगिरा, वसिष्ठ तथा कश्यपगोत्रके अनेक संत महात्मा थे ।। २ ।।
तान् समेत्य स राजर्षिरभिवाद्य कृताज्जलि: ।
रामस्यानुचरं वीरमपृच्छदकृतव्रणम् ।। ३ ।।
कदा तु रामो भगवांस्तापसान् दर्शयिष्यति ।
तेनैवाहं प्रसंगेन द्रष्टमिच्छामि भार्गवम् ।। ४ ।।
उन सबसे मिलकर राजर्षि युधिष्ठिरने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और
परशुरामजीके सेवक वीरवर अकृतत्रणसे पूछा--“भगवान् परशुरामजी इन तपस्वी
महात्माओंको कब दर्शन देंगे? उसी निमित्तसे मैं भी उन भगवान् भार्गवका दर्शन करना
चाहता हूँ! | ३-४ ।।
अकृतव्रण उवाच
आयानेवासि विदितो रामस्य विदितात्मन: ।
प्रीतिस्त्वयि च रामस्य क्षिप्रं त्वां दर्शयिष्यति ।। ५ ।।
चतुर्दशीमष्टमीं च राम॑ पश्यन्ति तापसा: |
अस्यां रात्र्यां व्यतीतायां भवित्री श्वश्चतुर्दशी ॥॥ ६ ।।
अकृतव्रणने कहा--राजन! आत्मज्ञानी परशुरामजीको पहले ही यह ज्ञात हो गया था
कि आप आ रहे हैं। आपपर उनका बहुत प्रेम है, अतः वे शीघ्र ही आपको दर्शन देंगे। ये
तपस्वीलोग प्रत्येक चतुर्दशी और अष्टमीको परशुरामजीका दर्शन करते हैं। आजकी रात
बीत जानेपर कल सबेरे चतुर्दशी हो जायगी || ५-६ ।।
युधिछिर उवाच
भवाननुगतो रामं॑ जामदग्न्यं महाबलम् ।
प्रत्यक्षदर्शी सर्वस्य पूर्ववृत्तस्य कर्मण: ।। ७ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--मुने! आप महाबली परशुरामजीके अनुगत भक्त हैं। उन्होंने पहले
जो-जो कार्य किये हैं, उन सबको आपने प्रत्यक्ष देखा है ।। ७ ।।
स भवान् कथयत्वद्य यथा रामेण निर्जिता: ।
आहवे क्षत्रिया: सर्वे कथं केन च हेतुना ।। ८ ।।
अतः हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि परशुरामजीने किस प्रकार और किस
कारणसे समस्त क्षत्रियोंकों युद्धमें पपाजित किया था। आप वह सब वृत्तान्त आज मुझे
बताइये ।। ८ ।।
अकृतव्रण उवाच
हन्त ते कथयिष्यामि महदाख्यानमुत्तमम् |
भगूणां राजशार्दूल वंशे जातस्य भारत ।। ९ ।।
अकृतब्रणने कहा--भरतकुलभूषण नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिर! भूगुवंशी परशुरामजीकी कथा
बहुत बड़ी और उत्तम है, मैं आपसे उसका वर्णन करूँगा || ९ ।।
रामस्य जामदग्न्यस्य चरितं देवसम्मितम् |
हैहयाधिपतेश्नैव कार्तवीर्यस्य भारत ।। १० ||
भारत! जमदग्निकुमार परशुराम तथा हैहयराज कार्तवीर्यका चरित्र देवताओंके तुल्य
है ।। १० ।।
रामेण चार्जुनो नाम हैहयाधिपतिहत: ।
तस्य बाहुशतान्यासंस्त्रीणि सप्त च पाण्डव ।। ११ ।।
पाण्डुनन्दन! परशुरामजीने अर्जुन नामसे प्रसिद्ध जिस हैहयराज कार्तवीर्यका वध
किया था, उसके एक हजार भुजाएँ थीं ।। ११ ।।
दत्तात्रेयप्रसादेन विमानं काउ्चनं तथा ।
ऐश्वर्य सर्वभूतेषु पृथिव्यां पृथिवीपते ।। १२ ।।
पृथ्वीपते! श्रीदत्तात्रयजीकी कृपासे उसे एक सोनेका विमान मिला था और भूतलके
सभी प्राणियोंपर उसका प्रभुत्व था ।। १२ ।।
अव्याहतगतिकश्नैव रथस्तस्य महात्मन: ।
रथेन तेन तु सदा वरदानेन वीर्यवान् ।। १३ ।।
मर्मर्द देवान् यक्षांश्व ऋषीं श्वैव समन्तत: ।
भूतांश्नैव स सर्वास्तु पीडयामास सर्वतः ।। १४ ।।
महामना कार्तवीर्यके रथकी गतिको कोई भी रोक नहीं सकता था। उस रथ और वरके
प्रभावसे शक्तिसम्पन्न हुआ कार्तवीर्य अर्जुन सब ओर घूमकर सदा देवताओं, यक्षों तथा
ऋषियोंको रौंदता फिरता था और सम्पूर्ण प्राणियोंकों भी सब प्रकारसे पीड़ा देता
था || १३-१४ ।।
ततो देवा: समेत्याहु#षयश्न महाव्रता: ।
देवदेवं सुरारिघ्नं विष्णुं सत्यपराक्रमम् ।। १५ ।।
भगवन् भूतरक्षार्थमर्जुनं जहि वै प्रभो ।
विमानेन च दिव्येन हैहयाधिपति: प्रभु: १६ ।।
शचीसहायं क्रीडन्तं धर्षषामास वासवम् |
ततस्तु भगवान् देव: शक्रेण सहितस्तदा ।
कार्तवीर्यविनाशार्थ मन्त्रयामास भारत ।। १७ |।
कार्तवीर्यका ऐसा अत्याचार देख देवता तथा महान् व्रतका पालन करनेवाले ऋषि
मिलकर दैत्योंका विनाश करनेवाले सत्यपराक्रमी देवाधिदेव भगवान् विष्णुके पास जा इस
प्रकार बोले--“भगवन्! आप समस्त प्राणियोंकी रक्षाके लिये कृतवीर्यकुमार अर्जुनका वध
कीजिये।” एक दिन शक्तिशाली हैहयराजने दिव्य विमानद्वारा शचीके साथ क्रीड़ा करते हुए
देवराज इन्द्रपर आक्रमण किया। भारत! तब भगवान् विष्णुने कार्तवीर्य अर्जुनका नाश
करनेके सम्बन्धमें इन्द्रके साथ विचार-विनिमय किया ।। १५-१७ ।।
यत् तद् भूतहितं कार्य सुरेन्द्रेण निवेदितम् ।
सम्प्रतिश्रुत्य तत् सर्व भगवॉल्लोकपूजित: ।। १८ ।।
जगाम बदरीं रम्यां स्वमेवाश्रममण्डलम् ।
समस्त प्राणियोंके हितके लिये जो कार्य करना आवश्यक था उसे देवेन्द्रने बताया।
तत्पश्चात् विश्ववन्दित भगवान् विष्णुने वह सब कार्य करनेकी प्रतिज्ञा करके अत्यन्त
रमणीय बदरीतीर्थकी यात्रा की, जहाँ उनका अपना ही विस्तृत आश्रम था || १८६ ।।
एतस्मिन्नेव काले तु पृथिव्यां पृथिवीपति: ।। १९ ।।
कान्यकुब्जे महानासीत् पार्थिव: सुमहाबल: ।
गाधीति विश्रुतो लोके वनवासं जगाम ह ।। २० ।।
वने तु तस्य वसत: कन्या जज्ञेडप्सर:समा |
ऋचीको भार्गवस्तां च वरयामास भारत ।। २१ ।।
इसी समय इस भूतलपर कान्यकुब्जदेशमें एक महाबली महाराज शासन करते थे जो
गाधिके नामसे विख्यात थे। वे राजधानी छोड़कर वनमें गये और वहीं रहने लगे। उनके
वनवासकालमें ही एक कन्या उत्पन्न हुई जो अप्सराके समान सुन्दरी थी। भारत! विवाहके
योग्य होनेपर भृगुपुत्र ऋचीक मुनिने उसका वरण किया ।। १९--२१ ।।
तमुवाच ततो गाधिर्त्राह्मणं संशितव्रतम् ।
उचितं नः कुले किंचित् पूर्वर्यत् सम्प्रवर्तितम् ।। २२ ।।
एकत: श्यामकर्णानां पाण्डुराणां तरस्विनाम् ।
सहसतं वाजिनां शुल्कमिति विद्धि द्विजोत्तम ।। २३ ।।
उस समय राजा गाधिने कठोर व्रतका पालन करनेवाले ब्रह्मर्षि ऋचीकसे कहा
-- द्विजश्रेष्ठ! हमारे कुलमें पूर्वजोंने जो कुछ शुल्क लेनेका नियम चला रखा है, उसका
पालन करना हमलोगोंके लिये भी उचित है। अतः आप यह जान लें कि इस कन्याके लिये
एक सहसख्र वेगशाली अश्व शुल्करूपमें देने पड़ेंगे, जिनके शरीरका रंग तो सफेद और पीला
मिला हुआ-सा और कान एक ओरसे काले रंगके हों || २२-२३ ।।
न चापि भगवान् वाच्यो दीयतामिति भार्गव ।
देया मे दुहिता चैव त्वद्विधाय महात्मने ।। २४ ।।
'भगुनन्दन! आप कोई निन्दनीय तो हैं नहीं, यह शुल्क चुका दीजिये, फिर आप-जैसे
महात्माको मैं अवश्य अपनी कन्या ब्याह दूँगा" || २४ ।।
ऋचीक उवाच
एकत: श्यामकर्णाना पाण्डुराणां तरस्विनाम् |
दास्याम्यश्वसहस्ं ते मम भार्या सुतास्तु ते || २५ ।।
ऋचीक बोले--राजन्! मैं आपको एक ओरसे श्याम कर्णवाले पाण्डुरंगके वेगशाली
अश्व एक हजारकी संख्यामें अर्पित करूँगा। आपकी पुत्री मेरी धर्मपत्नी बने || २५ ।।
अकृतव्रण उवाच
स तथेति प्रतिज्ञाय राजन् वरुणमब्रवीत् ।
एकत: श्यामकर्णानां पाण्डुराणां तरस्विनाम् ।। २६ ।।
सहस्र॑ं वाजिनामेकं शुल्कार्थ मे प्रदीयताम्
तस्मै प्रादात् सहस््न॑ं वै वाजिनां वरुणस्तदा ।। २७ ।।
अकृतबत्रण कहते हैं--राजन्! इस प्रकार शुल्क देनेकी प्रतिज्ञा करके ऋचीक मुनिने
वरुणके पास जाकर कहा--'देव! मुझे शुल्कमें देनेके लिये एक हजार ऐसे अश्व प्रदान करें,
जिनके शरीरका रंग पाण्डुर और कान एक ओरसे श्याम हों। साथ ही वे सभी अश्व
तीव्रगामी होने चाहिये।। उस समय वरुणने उनकी इच्छाके अनुसार एक हजार श्यामकर्ण
घोड़े दे दिये ।।
तदश्वतीर्थ विख्यातमुत्थिता यत्र ते हया: ।
गज्जायां कान्यकुब्जे वै ददौ सत्यवतीं तदा ॥। २८ ।।
ततो गाधि: सुतां चास्मै जन्याश्वासन् सुरास्तदा |
लब्ध्वा हयसहसंर॑ तु तांश्न दष्टवा दिवौकस: ।। २९ |।
जहाँ वे श्यामकर्ण घोड़े प्रकट हुए थे, वह स्थान अश्वतीर्थके नामसे विख्यात हुआ।
तत्पश्चात् राजा गाधिने शुल्करूपमें एक हजार श्यामकर्ण घोड़े प्राप्त करके गंगातटपर
कान्यकुब्ज नगरमें ऋचीक मुनिको अपनी पुत्री सत्यवती ब्याह दी! उस समय देवता बराती
बने थे। देवता उन सबको देखकर वहाँसे चले गये || २८-२९ ।।
धर्मेण लब्ध्वा तां भार्यामचीको द्विजसत्तम: ।
यथाकामं यथाजोषं तया रेमे सुमध्यया ।। ३० ।।
विप्रवर ऋचीकने धर्मपूर्वक सत्यवतीको पत्नीरूपमें प्राप्त करके उस सुन्दरीके साथ
अपनी इच्छाके अनुसार सुखपूर्वक रमण किया ।। ३० ।।
त॑ विवाहे कृते राजन् सभार्यमवलोकक: ।
आजगाम भृगुः श्रेष्ठ पुत्रं दृष्टया ननन्द ह ।। ३१ ।।
राजन! विवाह करनेके पश्चात् पत्नीसहित ऋचीकको देखनेके लिये महर्षि भृगु उनके
आश्रमपर आये और अपने श्रेष्ठ पुत्रको विवाहित देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए || ३१ ।।
भार्यापती तमासीन॑ गुरुं सुरगणार्चितम् ।
अर्चित्वा पर्युपासीनौ प्राउ्जली तस्थतुस्तदा ।। ३२ ।।
उन दोनों पति-पत्नीने पवित्र आसनपर विराजमान देववृन्दवन्दित गुरु (पिता एवं
श्वशुर)-का पूजन किया और उनकी उपासनामें संलग्न हो वे हाथ जोड़े खड़े रहे || ३२ ।।
ततः स्नुषां स भगवान प्रह्ृष्टो भुगुरब्रवीत् |
वरं वृणीष्व सुभगे दाता हास्मि तवेप्सितम् ।। ३३ ।।
भगवान् भृगुने अत्यन्त प्रसन्न होकर अपनी पुत्रवधूसे कहा--“सौभाग्यवती बहू! कोई
वर माँगो, मैं तुम्हारी इच्छाके अनुरूप वर प्रदान करूँगा” ।। ३३ ।।
सा वै प्रसादयामास त॑ गुरुं पुत्रकारणात् |
आत्मनश्रैव मातुश्च प्रसादं च चकार स: ।। ३४ ।।
सत्यवतीने श्वशुरको अपने और अपनी माताके लिये पुत्र-प्राप्तिका उद्देश्य रखकर
प्रसन्न किया। तब भूगुजीने उसपर कृपादृष्टि की ।। ३४ ।।
भूगुरुवाच
ऋतौ त्वं चैव माता च स्नाते पुंसवनाय वै ।
आलिड्रेतां पृथग वृक्षौ साश्व॒त्थं त्वमुदुम्बरम् । ३५ ।।
भगुजी बोले--बहू! ऋतुकालमें स्नान करनेके पश्चात् तुम और तुम्हारी माता पुत्र-
प्राप्तिके उद्देश्यसे दो भिन्न-भिन्न वृक्षोंका आलिंगन करो। तुम्हारी माता तो पीपलका और
तुम गूलरका आलिंगन करना ।। ३५ |।
चरुद्धयमिदं भद्ठे जनन्याश्व॒ तवैव च ।
विश्वमावर्तयित्वा तु मया यत्नेन साधितम् ॥। ३६ ।।
भद्रे! मैंने विराट् पुरुष परमात्माका चिन्तन करके तुम्हारे और तुम्हारी माताके लिये
यत्नपूर्वक दो चरु तैयार किये हैं ।। ३६ ।।
प्राशितव्यं प्रयत्नेन चेत्युक्त्वादर्शनं गत: ।
आलिड्ने चरौ चैव चक्रतुस्ते विपर्ययम् ।। ३७ ।।
तुम दोनों प्रयत्नपूर्वक अपने-अपने चरुका भक्षण करना; ऐसा कहकर भृगुजी
अन्तर्धान हो गये। इधर सत्यवती और उसकी माताने वृक्षोंक आलिंगन और चरु-भक्षणमें
उलट-फेर कर दिया ।। ३७ ।।
ततः पुनः स भगवान् काले बहुतिथे गते ।
दिव्यज्ञानाद् विदित्वा तु भगवानागत: पुन: ॥। ३८ ।।
तदनन्तर बहुत दिन बीतनेपर भगवान् भृगु अपनी दिव्य ज्ञानशक्तिसे सब बातें जानकर
पुनः वहाँ आये ।। ३८ ।।
अथोवाच महातेजा भृगुः सत्यवतीं स्नुषाम् |
उपयुक्तश्चरुर्भद्रे वृक्षे चालिड्रनं कृतम् ।। ३९ ।।
विपरीतेन ते सुभूर्मात्रा चैवासि वज्चिता ।
ब्राह्मण: क्षत्रवृत्तिवैं तव पुत्रो भविष्यति || ४० ।।
उस समय महातेजस्वी भृूगु अपनी पुत्रवधू सत्यवतीसे बोले--“भद्रे! तुमने जो
चरुभक्षण और वृक्षोंका आलिड्रन किया है, उसमें उलट-फेर करके तुम्हारी माताने तुम्हें ठग
लिया। सुभ्रू!][ इस भूलके कारण तुम्हारा पुत्र ब्राह्मण होकर भी क्षत्रियोचित आचार-
विचारवाला होगा” ।। ३९-४० ।।
क्षत्रियो ब्राह्म॒णाचारो मातुस्तव सुतो महान् |
भविष्यति महावीर्य: साधूनां मार्गमास्थित: ।। ४१ ।।
“और तुम्हारी माताका पुत्र क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मणोचित आचार-विचारका पालन
करनेवाला होगा। वह महापराक्रमी बालक साधु-महात्माओंके मार्गका अवलम्बन
करेगा” || ४१ ।।
ततः प्रसादयामास श्वशुरं सा पुन: पुनः ।
न मे पुत्रो भवेदीदृक् काम॑ पौत्रो भवेदिति ॥। ४२ ।।
तब सत्यवतीने बारंबार प्रार्थना करके पुनः अपने श्वशुरको प्रसन्न किया और कहा
--“भगवन! मेरा पुत्र ऐसा न हो। भले ही, पौत्र क्षत्रियस्वभावका हो जाय” ।। ४२ ।।
एवमस्त्विति सा तेन पाण्डव प्रतिनन्दिता ।
जमदर्ग्निं ततः पुत्र॑ं जज्ञे सा काल आगते ।। ४३ ।।
पाण्डुनन्दन! तब 'एवमस्तु” कहकर भृगुजीने अपनी पुत्रवधूका अभिनन्दन किया।
तत्पश्चात् प्ररवका समय आनेपर सत्यवतीने जमदग्निनामक पुत्रको जन्म दिया ।। ४३ ।।
तेजसा वर्चसा चैव युक्त भार्गवनन्दनम् |
स वर्धमानस्तेजस्वी वेदस्याध्ययनेन च ।। ४४ ।।
बहूनूषीन् महातेजा: पाण्डवेयात्यवर्तत ।
भार्गवनन्दन जमदग्नि तेज और ओज (बल) दोनोंसे सम्पन्न थे। युधिष्ठिर! बड़े होनेपर
महातेजस्वी जमदग्नि मुनि वेदाध्ययनद्वारा अन्य बहुत-से ऋषियोंसे आगे बढ़ गये ।। ४४ $ई
||
तं तु कृत्स्नो धरनुर्वेद: प्रत्यभाद् भरतर्षभ ।
चतुर्विधानि चास्त्राणि भास्करोपमवर्चसम् ।। ४५ ।।
भरतश्रेष्ठ! सूर्यके समान तेजस्वी जमदग्निकी बुद्धिमें सम्पूर्ण धनुर्वेद और चारों
प्रकारके अस्त्र स्वतः स्फुरित हो गये || ४५ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां कार्तवीर्योपाख्याने
पजञ्चदशाधिकशततमो<ध्याय: ।। ११५ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोगशती र्थयात्राके प्रसंगमें
कार्तवीर्योपाख्यानविषयक एक सौ पन्द्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ११५ ॥
28 03.2 (9) #25:.# #25-7
षोडशाधिकशततमोब<्ध्याय:
पिताकी आज्ञासे परशुरामजीका अपनी माताका
मस्तक काटना और उन्हींके वरदानसे पुनः
जिलाना, परशुरामजीद्धारा कार्तवीर्य-अर्जुनका वध
और उसके पुत्रोंद्वारा जमदग्नि मुनिकी हत्या
अकृतव्रण उवाच
स वेदाध्ययने युक्तो जमदग्निर्महातपा: ।
तपस्तेपे ततो देवान् नियमाद् वशमानयत् ।। १ ।।
अकृतब्रण कहते हैं--राजन्! महातपस्वी जमदग्निने वेदाध्ययनमें तत्पर
होकर तपस्या आस्मभ की। तदनन्तर शौचसंतोषादि नियमोंका पालन करते हुए
उन्होंने सम्पूर्ण देवताओंको अपने वशमें कर लिया- ।। १ |।
स प्रसेनजितं राजन्नधिगम्य नराधिपम् |
रेणुकां वरयामास स च तस्मै ददौ नृप: ॥। २ ।।
युधिष्ठिर! फिर राजा प्रसेनजितके पास जाकर जमदग्नि मुनिने उनकी पुत्री
रेणुकाके लिये याचना की और राजाने मुनिको अपनी कन्या ब्याह दी || २ ।।
रेणुकां त्वथ सम्प्राप्य भार्या भार्गवनन्दन: ।
आश्रमस्थस्तया सार्ध तपस्तेपेडनुकूलया ।। ३ ।।
भगुकुलका आनन्द बढ़ानेवाले जमदग्नि राजकुमारी रेणुकाको पत्नीरूपमें
पाकर आश्रमपर ही रहते हुए उसके साथ तपस्या करने लगे। रेणुका सदा सब
प्रकारसे पतिके अनुकूल चलनेवाली स्त्री थी ।। ३ ।।
तस्या: कुमाराश्षत्वारो जज्ञिरे रामपज्चमा: ।
सर्वेषामजघन्यस्तु राम आसीज्जघन्यज: ।। ४ ।।
उसके गर्भसे क्रमश: चार पुत्र हुए, फिर पाँचवें पुत्र परशुरामजीका जन्म
हुआ। अवस्थाकी दृष्टिसे भाइयोंमें छोटे होनेपर भी वे गुणोंमें उन सबसे बढ़े-चढ़े
थे।। ४ ।।
फलाहारेषु सर्वेषु गतेष्वथ सुतेषु वै ।
रेणुका सनातुमगमत् कदाचिन्नियतव्रता ।। ५ ।।
एक दिन जब सब पुत्र फल लानेके लिये वनमें चले गये तब नियमपूर्वक
उत्तम व्रतका पालन करनेवाली रेणुका स्नान करनेके लिये नदी-तटपर
गयी ।। ५ |।
सा तु चित्ररथं नाम मार्तिकावतकं नृपम्
ददर्श रेणुका राजन्नागच्छन्ती यदृच्छया ।। ६ ।।
क्रीडन्तं सलिले दृष्टवा सभार्य पद्ममालिनम् |
ऋद्धिमन्तं ततस्तस्य स्पृहयामास रेणुका ।। ७ ।।
राजन्! जब वह स्नान करके लौटने लगी उस समय अकस्मात् उसकी दृष्टि
मार्तिकावत देशके राजा चित्ररथपर पड़ी, जो कमलोंकी माला धारण करके
अपनी पत्नीके साथ जलनमें क्रीड़ा कर रहा था। उस समृद्धिशाली नरेशको उस
अवस्थामें देखकर रेणुकाने उसकी इच्छा की ।। ६-७ ।।
व्यभिचाराच्च तस्मात् सा क्लिन्नाम्भसि विचेतना ।
प्रविवेशाश्रमं त्रस्ता तां वै भर्तान्वबुध्यत ।। ८ ।।
उस समय इस मानसिक विकारसे द्रवित हुई रेणुका जलमें बेहोश-सी हो
गयी। फिर त्रस्त होकर उसने आश्रमके भीतर प्रवेश किया। परंतु पतिदेव उसकी
सब बातें जान गये ।। ८ ।।
सतां दृष्टवा च्युतां धैर्याद् ब्राह्मया लक्ष्म्या विवर्जिताम् |
धिकक््छब्देन महातेजा गर्हयामास वीर्यवान् ॥। ९ ।।
उसे धैर्यसे च्युत और ब्रह्मतेजसे वंचित हुई देख उन महातेजस्वी शक्तिशाली
महर्षिने धिक््कारपूर्ण वचनोंद्वारा उसकी निन््दा की || ९ ।।
ततो ज्येष्ठो जामदग्न्यो रुमण्वान् नाम नामत: ।
आजगाम सुषेणश्च वसुर्विश्वावसुस्तथा ।। १० ।।
इसी समय जमदग्निके ज्येष्ठ पुत्र रुमण्वान् वहाँ आ गये। फिर क्रमशः
सुषेण, वसु और विश्वावसु भी आ पहुँचे ।। १० ।।
तानानुपूर्व्याद् भगवान् वधे मातुरचोदयत् |
न च ते जातसंस्नेहा: किंचिदूचुविचेतस: ।। ११ ।।
भगवान् जमदग्निने बारी-बारीसे उन सभी पुत्रोंको यह आज्ञा दी कि तुम
अपनी माताका वध कर डालो, परंतु मातृस्नेह उमड़ आनेसे वे कुछ भी बोल न
सके--बेहोश-से खड़े रहे || ११ ।।
ततः शशाप तानू् क्रोधात् ते शप्ताश्चेतनां जहु: ।
मृगपक्षिसधर्माण: क्षिप्रमासज्जडोपमा: ।। १२ ।।
तब महर्षिने कुपित हो उन सब पुत्रोंको शाप दे दिया। शापग्रस्त होनेपर वे
अपनी चेतना (विचार-शक्ति) खो बैठे और तुरंत मृग एवं पक्षियोंके समान
जडबुद्धि हो गये || १२ ।।
ततो रामो<भ्ययात् पश्चादाश्रमं परवीरहा ।
तमुवाच महाबाहुर्जमदग्निर्महातपा: ।। १३ ।।
तदनन्तर शत्रुपक्षेके वीरोंका संहार करनेवाले परशुरामजी सबसे पीछे
आश्रमपर आये। उस समय महातपस्वी महाबाहु जमदग्निने उनसे कहा
-ा || ३३ ||
जहीमां मातरं पापां मा च पुत्र व्यथां कृथा: ।
तत आदाय परशुं रामो मातु: शिरोड5हरत् ।। १४ ।।
“बेटा! अपनी इस पापिनी माताको अभी मार डालो और इसके लिये मनमें
किसी प्रकारका खेद न करो।' तब परशुरामजीने फरसा लेकर उसी क्षण
माताका मस्तक काट डाला ।। १४ ।।
ततस्तस्य महाराज जमदमग्नेर्महात्मन: ।
कोपो< भ्यगच्छत् सहसा प्रसन्नश्चाब्रवीदिदम् || १५ ।।
महाराज! इससे महात्मा जमदग्निका कोप सहसा शान्त हो गया और
उन्होंने प्रसन्न होकर कहा-- ।। १५ ।।
ममेदं वचनात् तात कृतं ते कर्म दुष्करम्
वृणीष्व कामान् धर्मज्ञ यावतों वाउ्छसे हृदा ।। १६ ।।
स वत्रे मातुरुत्थानमस्मृतिं च वधस्य वै ।
पापेन तेन चास्पर्श भ्रातृणां प्रकृति तथा ।। १७ ।।
अप्रतिद्वन्धतां युद्धे दीर्घमायुश्न भारत ।
ददौ च सर्वान् कामांस्ताञ्जमदग्निर्महातपा: ।। १८ ।।
“तात! तुमने मेरे कहनेसे यह कार्य किया है, जिसे करना दूसरोंके लिये बहुत
कठिन है। तुम धर्मके ज्ञाता हो। तुम्हारे मनमें जो-जो कामनाएँ हों, उन सबको
माँग लो।” तब परशुरामजीने कहा--'पिताजी! मेरी माता जीवित हो उठें, उन्हें
मेरे द्वारा मारे जानेकी बात याद न रहे, वह मानस-पाप उनका स्पर्श न कर सके,
मेरे चारों भाई स्वस्थ हो जायाँ, युद्धमें मेरा सामना करनेवाला कोई न हो और मैं
बड़ी आयु प्राप्त करूँ।” भारत! महातपस्वी जमदग्निने वरदान देकर उनकी वे
सभी कामनाएँ पूर्ण कर दीं ।। १६--१८ ।।
कदाचित् तु तथैवास्य विनिष्क्रान्ता: सुता: प्रभो ।
अथानूपपतिर्वीर: कार्तवीर्यो5भ्यवर्तत ।। १९ ।।
युधिष्ठिर! एक दिन इसी तरह उनके सब पुत्र बाहर गये हुए थे। उसी समय
अनूपदेशका वीर राजा कार्तवीर्य अर्जुन उधर आ निकला ।। १९ ||
तमाश्रमपदं प्राप्तमृषेर्भार्या समार्चयत् ।
स युद्धमदसम्मत्तो नाभ्यनन्दत् तथार्चनम् । २० ।।
प्रमथ्य चाश्रमात् तस्माद्धोमधेनोस्तथा बलात् |
जहार वत्सं क्रोशन्त्या बभज्ज च महाद्रुमान् ।। २१ ।।
आश्रममें आनेपर ऋषिपत्नी रेणुकाने उसका यथोचित आतिथ्य-सत्कार
किया। कार्तवीर्य अर्जुन युद्धके मदसे उन्मत्त हो रहा था। उसने उस सत्कारको
आदरपूर्वक ग्रहण नहीं किया। उलटे मुनिके आश्रमको तहस-नहस करके वहाँसे
डकराती हुई होमधेनुके बछड़ेको बलपूर्वक हर लिया और आश्रमके बड़े-बड़े
वृक्षोंको भी तोड़ डाला || २०-२१ ।।
आगताय च रामाय तदाचष्ट पिता स्वयम् |
गां च रोरुदतीं दृष्टवा कोपो रामं समाविशत् ।। २२ ।।
जब परशुरामजी आश्रममें आये तब स्वयं जमदग्निने उनसे सारी बातें कहीं।
बारंबार डकराती हुई होमकी धेनुपर भी उनकी दृष्टि पड़ी। इससे वे अत्यन्त
कुपित हो उठे | २२ ।।
स मृत्युवशमापन्नं कार्तवीर्यमुपाद्रवत् ।
तस्याथ युधि विक्रम्य भार्गव: परवीरहा ।। २३ ।।
चिच्छेद निशितैर्भल्लैर्बाहून् परिघसंनिभान् ।
सहस्नसम्मितान् राजन् प्रगृह्म रुचिरं धनु: ।॥ २४ ।।
और कालके वशीभूत हुए कार्तवीर्य अर्जनपर धावा बोल दिया। शत्रुवीरोंका
संहार करनेवाले भृगुनन्दन परशुरामजीने अपना सुन्दर धनुष ले युद्धमें महान्
पराक्रम दिखाकर पैने बाणोंद्वारा उसकी परिघसदृश सहस्र भुजाओंको काट
डाला || २३-२४ ।।
अभिभूत: स रामेण संयुक्त: कालधर्मणा ।
अर्जुनस्याथ दायादा रामेण कृतमन्यव: ।। २५ ।।
इस प्रकार परशुरामजीसे परास्त हो कार्तवीर्य अर्जुन कालके गालमें चला
गया। पिताके मारे जानेसे अर्जनके पुत्र परशुरामजीपर कुपित हो उठे || २५ ।।
आश्रमस्थं विना रामं जमदग्निमुपाद्रवन् ।
ते तं जध्नुर्महावीर्यमयुध्यन्तं तपस्विनम् ।। २६ ।।
और एक दिन परशुरामजीकी अनुपस्थितिमें जब आश्रमपर केवल
जमदग्निजी ही रह गये थे, वे उन्हींपर चढ़ आये। यद्यपि जमदग्निजी महान्
शक्तिशाली थे तो भी तपस्वी ब्राह्मण होनेके कारण युद्धमें प्रवृत्त नहीं हुए। इस
दशामें भी कार्तवीर्यके पुत्र उनपर प्रहार करने लगे || २६ ।।
असकृद्ू रामरामेति विक्रोशन्तमनाथवत् |
कार्तवीर्यस्य पुत्रास्तु जमदग्निं युधिष्ठिर || २७ ।।
पीडयित्वा शरैर्जग्मुर्यथागतमरिंदमा: ।
अफफक्रान्तेषु वै तेषु जमदग्नौ तथा गते ।। २८ ।।
समित्पाणिरुपागच्छदाश्रमं भृगुनन्दन: ।
स दृष्टा पितरं वीरस्तथा मृत्युवशं गतम् ।
अनर्हनतं तथाभूतं विललाप सुदु:ःखित: ।। २९ ।।
युधिष्ठिर! वे महर्षि अनाथकी भाँति “राम! राम!!” की रट लगा रहे थे, उसी
अवस्थामें कार्तवीर्य अर्जुनके पुत्रोंने उन्हें बाणोंसे घायल करके मार डाला। इस
प्रकार मुनिकी हत्या करके वे शत्रुसंहारक क्षत्रिय जैसे आये थे, उसी प्रकार लौट
गये। जमदग्निके इस तरह मारे जानेके बाद जब वे कार्तवीर्य-पुत्र भाग गये, तब
भृगुनन्दन परशुरामजी हाथोंमें समिधा लिये आश्रममें आये। वहाँ अपने पिताको
इस प्रकार दुर्दशापूर्वक मरा देख उन्हें बड़ा दुःख हुआ। उनके पिता इस प्रकार
मारे जानेके योग्य कदापि नहीं थे, परशुरामजी उन्हें याद करके विलाप करने
लगे ।। २७--२९ |।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां
कार्तवीर्योपाख्याने जमदग्निवधे षोडशाधिकशततमो<ध्याय: ।। ११६ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्चमें लोमशतीर्थयात्राके
प्रसंगनें कार्तवीर्योपाख्यानमें जमदग्निवधविषयक एक सौ सोलहवाँ अध्याय पूरा
हुआ ॥। ११६ ॥।
छः. “5 (>>) 2५.3 #25:
> यहाँ कुछ प्रतियोंमें 'देवान' की जगह 'वेदान” पाठ मिलता है। उस दशामें यह अर्थ होगा कि “वेदोंको
वशमें कर लिया।” परंतु वेदोंको वशमें करनेकी बात असंगत-सी लगती है। देवताओंको वशमें करना ही
सुसंगत जान पड़ता है, इसलिये हमने “देवान” यही पाठ रखा है। काश्मीरकी देवनागरी लिपिवाली
हस्तलिखित पुस्तकमें यहाँ तीन श्लोक अधिक मिलते हैं। उनसे भी “देवान” पाठका ही समर्थन होता है। वे
श्लोक इस प्रकार हैं--
तं तप्यमानं ब्रह्मर्षिमूचुदेवा: सबान्धवा: । किमर्थ तप्यसे ब्रह्मन् कः काम: प्रार्थितस्तव ।।
एवमुक्तः: प्रत्युवाच देवान् ब्रह्मर्षिसत्तम: । स्वर्गहेतोस्तपस्तप्ये लोकाश्र स्युर्ममाक्षया: ।।
तच्छुत्वा वचन तस्य तदा देवास्तमूचिरे । नासंततेर्भवेल्लोकः कृत्वा धर्मशतान्यपि ।।
स श्रुत्वा वचन तेषां त्रिदशानां कुरूद्वह ।।
इन श्लोकोंद्वारा देवताओंके प्रकट होकर वरदान देनेका प्रसंग सूचित होता है, अतः ““““ततो देवान्
नियमाद् वशमानयत्” यही पाठ ठीक है।
सप्तदशाधिकशततमो< ध्याय:
परशुरामजीका पिताके लिये विलाप और पृथ्वीको इक्कीस
बार निःक्षत्रिय करना एवं महाराज युधिष्ठिरके द्वारा
परशुरामजीका पूजन
राम उवाच
ममापराधात् तै: क्षुद्रैर्हतस्त्वं तात बालिशै: ।
कार्तवीर्यस्य दायादैर्वने मृग इवेषुभि: ।। १ ।।
परशुरामजी बोले--हा तात! मेरे अपराधका बदला लेनेके लिये कार्तवीर्यके उन नीच
और पामर पुत्रोंने वनमें बाणोंद्वारा मारे जानेवाले मृगकी भाँति आपकी हत्या की है || १ ।।
धर्मज्ञस्य कथं तात वर्तमानस्य सत्पथे ।
मृत्युरेवंविधो युक्त: सर्वभूतेष्वनागस: ।। २ ।।
पिताजी! आप तो धर्मज्ञ होनेके साथ ही सन्मार्गपर चलनेवाले थे, कभी किसी भी
प्राणीके प्रति कोई अपराध नहीं करते थे, फिर आपकी ऐसी मृत्यु कैसे उचित हो सकती
है? ।। २ ।।
कि नु तैर्न कृतं पापं यैर्भवांस्तपसि स्थित: ।
अयुध्यमानो वृद्ध: सन् हतः शरशतै: शितै: ।। ३ ।।
आप तपस्यामें संलग्न, युद्धसे विरत और वृद्ध थे तो भी जिन्होंने सैकड़ों तीखे
बाणोंद्वारा आपकी हत्या की है, उन्होंने कौन-सा पाप नहीं किया? ।। ३ ।।
॥।
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४८८४४ ८ २४ 6: को “९2६४
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नई]
कि नु ते तत्र वक्ष्यन्ति सचिवेषु सुहृत्सु च ।
अयुध्यमानं धर्मज्ञमेकं हत्वानपत्रपा: || ४ ।।
वे निर्लज्ज राजकुमार युद्धसे दूर रहनेवाले आप-जैसे धर्मज्ञ एवं असहाय पुरुषको
मारकर अपने सुहृदों और मन्त्रियोंके सामने क्या कहेंगे? ।। ४ ।।
विलप्यैवं सकरुणं बहु नानाविध॑ नृप ।
प्रेतकार्याणि सर्वाणि पितुश्नक्रे महातपा: ।। ५ ।।
ददाह पितरं चाग्नौ राम: परपुरंजय: ।
प्रतिजज्ञे वधं चापि सर्वक्षत्रस्य भारत ।। ६ ।।
राजन! इस प्रकार भाँति-भाँतिसे अत्यन्त करुणा-जनक विलाप करके शत्रुओंकी
राजधानीपर विजय पानेवाले महातपस्वी परशुरामजीने अपने पिताके समस्त प्रेतकर्म
किये। भारत! पहले तो उन्होंने विधिपूर्वक अग्निमें पिताका दाह-संस्कार किया, तत्पश्चात्
सम्पूर्ण क्षत्रियोंके वधकी प्रतिज्ञा की || ५-६ ।।
संक्रुद्धोइतिबल: संख्ये शस्त्रमादाय वीर्यवान् |
जघ्निवान् कार्तवीर्यस्य सुतानेकी5न्तकोपम: || ७ ।।
अत्यन्त बलवान् एवं पराक्रमी परशुरामजी क्रोधके आवेशमें साक्षात् यमराजके समान
हो गये। उन्होंने युद्धमें शस्त्र लेकर अकेले ही कार्तवीर्यके सब पुत्रोंकोी मार डाला ।। ७ ।।
तेषां चानुगता ये च क्षत्रिया: क्षत्रियर्षभ ।
तांश्व सर्वानवामृद्नाद् राम: प्रहरतां वर: ।। ८ ।।
क्षत्रियशिरोमणे! उस समय जिन-जिन क्षत्रियोंने उनका साथ दिया, उन सबको भी
योद्धाओंमें श्रेष्ठ परशुरामजीने मिट्टीमें मिला दिया || ८ ।।
त्रि:सप्तकृत्व: पृथिवीं कृत्वा नि:क्षत्रियां प्रभु: ।
समनतपज्चके पञ्च चकार रुधिरद्ददान् ।। ९ ।।
इस प्रकार भगवान् परशुरामने इस पृथ्वीको इक्कीस बार क्षत्रियोंसे सूनी करके उनके
रक्तसे समन्तपञ्चक क्षेत्रमें पाँच रुधिर-कुण्ड भर दिये ।। ९ ।।
स तेषु तर्पयामास भृगून् भगुकुलोद्वह: ।
साक्षाद् ददर्श चर्चीक॑ स च राम॑ न्यवारयत् ।। १० ।।
भगुकुलभूषण रामने उन कुण्डोंमें भूगुवंशी पितरोंका तर्पण किया और उस समय
साक्षात् प्रकट हुए महर्षि ऋचीकको देखा। उन्होंने परशुरामको इस घोर कर्मसे
रोका ॥। १० ।।
ततो यज्ञेन महता जामदग्न्य: प्रतापवान् |
तर्पयामास देवेन्द्रमृत्विग्भ्य: प्रददौ महीम् ।। ११ ।।
तदनन्तर प्रतापी जमदग्निकुमारने एक महान् यज्ञ करके देवराज इन्द्रको तृप्त किया
तथा ऋत्विजोंको दक्षिणारूपमें भूमि दी || ११ ।।
वेदीं चाप्पयददद्धैमीं कश्यपाय महात्मने ।
दशव्यामायतां कृत्वा नवोत्सेधां विशाम्पते ।। १२ ।।
युधिष्ठिर! उन्होंने महात्मा कश्यपको एक सोनेकी वेदी प्रदान की, जिसकी लम्बाई-
चौड़ाई दस-दस व्याम (चालीस-चालीस हाथ)-की थी। ऊँचाईमें भी वह वेदी नौ व्याम
(छत्तीस हाथ)-की थी ।। १२ ।।
तां कश्यपस्यानुमते ब्राह्मणा: खण्डशस्तदा ।
व्यभजंस्ते तदा राजन् प्रख्याता: खाण्डवायना: ।। १३ ||
राजन! उस समय कश्यपजीकी आज्ञासे ब्राह्मणोंने उस स्वर्णवेदीको खण्ड-खण्ड
करके बाँट लिया, अत: वे खाण्डवायन नामसे प्रसिद्ध हुए ।। १३ ।।
स प्रदाय महीं तस्मै कश्यपाय महात्मने ।
अस्मिन् महेन्द्रे शैलेन्द्रे वसत्यमितविक्रम: ।। १४ ।।
इस प्रकार सारी पृथ्वी महात्मा कश्यपको देकर अमित पराक्रमी परशुरामजी इस
पर्वतराज महेन्द्रपर निवास करते हैं ।। १४ ।।
एवं वैरमभूत् तस्य क्षत्रियैलोकवासिभि: ।
पृथिवी चापि विजिता रामेणामिततेजसा ।। १५ ।।
इस तरह उनका सम्पूर्ण जगतके क्षत्रियोंक साथ वैर हुआ था और उसी समय अमित
तेजस्वी परशुरामजीने सारी पृथ्वी जीती थी ।। १५ ।।
वैशम्पायन उवाच
ततश्षतुर्दशी राम: समयेन महामना: ।
दर्शयामास तान् विप्रान् धर्मराजं च सानुजम् ।। १६ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर चतुर्दशी तिथिको निश्चित समयपर
महामना परशुरामजीने उस पर्वतपर रहनेवाले उन ब्राह्मणों तथा भाइयोंसहित युधिष्ठिरको
दर्शन दिया ।। १६ ।।
स तमानर्च राजेन्द्र भ्रातृभि: सहित: प्रभु: ।
द्विजानां च परां पूजां चक्रे नृपतिसत्तम: ।। १७ ।।
राजेन्द्र! उस समय प्रभावशाली नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिरने भाइयोंके साथ श्रद्धापूर्वक भगवान्
परशुरामजीकी पूजा की तथा अन्य ब्राह्मणोंका भी बहुत आदर-सत्कार किया ।। १७ ।।
अर्चित्वा जामदग्न्यं स पूजितस्तेन चोदित: ।
महेन्द्र उष्य तां रात्रि प्रययौ दक्षिणामुख: ।। १८ ।।
जमदग्निनन्दन परशुरामजीकी पूजा करके स्वयं भी उनके द्वारा सम्मानित हो वे
उन्हींकी आज्ञासे उस रातको महेन्द्रपर्वतपर ही रहे, फिर सबेरे उठकर दक्षिण दिशाकी ओर
चल दिये ।। १८ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां कार्तवीर्योपाख्याने
सप्तदशाधिकशततमो<ध्याय: ।। ११७ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रस॑ंगमें
कार्तवीर्योपाख्यानविषयक एक सौ सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ११७ ॥।
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अष्टादशाधिकशततमोब&् ध्याय:
युधिष्ठिरका विभिन्न तीथॉमें 24% प्रभासक्षेत्रमें पहुँचकर
तपस्यामें प्रवृत्त होना और [का पाण्डवोंसे मिलना
वैशम्पायन उवाच
गच्छन् स तीर्थानि महानुभाव:
पुण्यानि रम्याणि ददर्श राजा |
सर्वाणि विप्रैरुषशोभितानि
क्वचित् क्वचिद् भारत सागरस्य ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! आगे जाते हुए महानुभाव राजा युधिष्छिरने
समुद्रतटके समस्त पुण्य तीर्थोंका दर्शन किया। वे सभी तीर्थ परम मनोहर थे। उनमें कहीं-
कहीं ब्राह्मणलोग निवास करते थे, जिससे उन तीर्थोंकी बड़ी शोभा होती थी ।। १ ।।
स वृत्तवांस्तेषु कृताभिषेक:
सहानुजः: पार्थिवपुत्रपौत्र: ।
समुद्रगां पुण्यतमां प्रशस्तां
जगाम पारिक्षित पाण्डुपुत्र: ।। २ ।।
परीक्षितनन्दन! सदाचारी पाण्डुकुमार युधिष्ठिर कश्यपपुत्र सूर्यदेवके पौत्र थे (क्योंकि
उनकी उत्पत्ति सूर्यकुमार धर्मसे हुई थी)। वे भाइयोंसहित उन तीर्थोमें स्नान करके
समुद्रगामिनी पुण्यमयी प्रशस्ता नदीके तटपर गये ।। २ ।।
तत्रापि चाप्लुत्य महानुभाव:
संतर्पयामास सका सुरांश्व ।
द्विजातिमुख्येषु धनं
गोदावरीं सागरगामगच्छत् ।। ३ ।।
महानुभाव युधिष्ठटिरने वहाँ भी स्नान करके देवताओं और पितरोंका तर्पण किया तथा
श्रेष्ठ ब्राह्यणोंको धन दान करके सागरगामिनी गोदावरी नदीकी ओर प्रस्थान किया ।। ३ ॥।
ततो विपाप्मा द्रविडेषु राजन्
समुद्रमासाद्य च लोकपुण्यम् ।
अगस्त्यतीर्थ च महापवित्रं
नारीतीर्थान्यथ वीरो ददर्श || ४ ।।
जनमेजय! गोदावरीमें स्नान करके पवित्र हो वे वहाँसे द्रविड़देशमें घूमते हुए संसारके
पुण्यमय तीर्थ समुद्रके तटपर गये। वहाँ स्नानादि करनेके पश्चात् वीर पाण्डुकुमारने आगे
बढ़कर परम पवित्र अगस्त्यतीर्थ तथा -नारीतीर्थोंका दर्शन किया ।। ४ ।।
तत्रार्जुनस्थाग्रय धनुर्धरस्य
निशम्य तत् कर्म नरैरशक्यम् |
सम्पूज्यमान: परमर्षिसड्घै:
परां मुर्द पाण्डुसुत: स लेभे ।। ५ ।।
स तेषु तीर्थेष्वभिषिक्तगात्र:
कृष्णासहाय: सहितो<्नुजैश्न ।
सम्पूजयन् विक्रममर्जुनस्य
रेमे महीपाल पति: पृथिव्या: ।। ६ ।।
वहाँ श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुनके उस पराक्रमको, जो दूसरे मनुष्योंके लिये असम्भव था,
सुनकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरको बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई। उन तीर्थोमें बड़े-बड़े ऋषिगण भी
उनका सत्कार करते थे। जनमेजय! द्रौपदी तथा भाइयोंके साथ राजा युधिष्ठिरने उन पाँचों
तीर्थोमें स्नान करके अर्जुनके पराक्रमकी प्रशंसा करते हुए बड़े हर्षका अनुभव
किया ।। ५-६ ।।
ततः सहस्राणि गवां प्रदाय
तीर्थेषु तेष्वम्बुधरोत्तमस्य ।
हृष्ट: सह भ्रातृभिरर्जुनस्य
संकीर्तयामास गवां प्रदानम् ।। ७ ।।
तदनन्तर समुद्रतटवर्ती उन सभी तीर्थोर्में सहस्रों गोदान करके भाइयोंसहित युधिष्छिरने
प्रसन्नतापूर्वक अर्जुनके द्वारा किये हुए गोदानका बारंबार वर्णन किया ।। ७ ।।
स तानि तीर्थानि च सागरस्य
पुण्यानि चान्यानि बहूनि राजन ।
क्रमेण गच्छन् परिपूर्णकाम:
शूर्पारक॑ पुण्यतमं ददर्श || ८ ।।
राजन! समुद्रसम्बन्धी तथा अन्य बहुत-से पुण्य तीर्थो्में क्रमश: भ्रमण करते हुए
पूर्णकाम राजा युधिष्ठिरने अत्यन्त पुण्यमय शूर्पारकतीर्थका दर्शन किया ।। ८ ।।
तत्रोदथे: कंचिदतीत्य देशं
ख्यातं पृथिव्यां वनमाससाद ।
तप्तं सुरैस्तत्र तपः पुरस्ता-
दिष्टं तथा पुण्यपरैनरिन्द्रै: ।। ९ ।॥।
वहाँ समुद्रके कुछ भागको लाँघकर वे एक ऐसे वनमें आये जो भूमण्डलमें सर्वत्र
विख्यात था। वहाँ पूर्वकालमें देवताओंने तपस्या की थी और पुण्यात्मा नरेशोंने यज्ञोंका
अनुष्ठान किया था | ९ ||
स तत्र तामग्रयधनुर्धरस्य
वेदीं ददर्शायतपीनबाहु: ।
ऋचीकपुत्रस्थ तपस्विसड्चै:
समावृतां पुण्यकृदर्चनीयाम् ।। १० ।।
लम्बी और मोटी भुजाओंवाले युधिष्ठिरने उस वनमें धनुर्धरशिरोमणि ऋचीकवंशी
परशुरामजीकी वेदी देखी, जो पुण्यात्मा पुरुषोंके लिये पूजनीय थी तथा तपस्वियोंके
समुदाय उसे सदा घेरे रहते थे |। १० ।।
ततो वसूनां वसुधाधिप: स
मरुठ्गणानां च तथाश्रिनोशक्ष ।
वैवस्वतादित्य धने श्वराणा-
मिन्द्रस्य विष्णो: सवितुर्विभोश्व ।। ११ ।।
भवस्य चन्द्रस्य दिवाकरस्य
पतेरपां साध्यगणस्य चैव ।
धातु: पितृणां च तथा महात्मा
रुद्रस्य राजन् सगणस्य चैव ।। १२ ।।
सरस्वत्या: सिद्धगणस्य चैव
पुण्याश्न ये चाप्यमरास्तथान्ये ।
पुण्यानि चाप्यायतनानि तेषां
ददर्श राजा सुमनोहराणि ।। १३ ।।
राजन! तत्पश्चात् उन महात्मा नरेशने वसु, मरुठ्वण, अश्विनीकुमार, यम, आदित्य,
कुबेर, इन्द्र, विष्णु, भगवान् सविता, शिव, चन्द्रमा, सूर्य, वरुण, साध्यगण, धाता, पितृगण,
अपने गणोंसहित रुद्र, सरस्वती, सिद्धसमुदाय तथा अन्य पुण्यमय देवताओंके परम पवित्र
और मनोहर मन्दिरोंके दर्शन किये || ११--१३ ।।
तेषूपवासान् विबुधानुपोष्य
दत्त्वा च रत्नानि महान्ति राजा ।
तीर्थेषु सर्वेषु परिप्लुताड़:
पुन: स शूर्पारकमाजगाम ।। १४ ।।
उन तीर्थोंके निकट निवास करनेवाले दिद्वान् ब्राह्मणोंको वस्त्राभूषणोंसे आच्छादित
एवं विभूषित करके उन्हें बहुमूल्य रत्नोंकी भेंट दे वहाँके सभी तीर्थोमें सनान करके महाराज
युधिष्ठिर पुनः शूर्परिक-क्षेत्रमें लौट आये ।। १४ ।।
स तेन तीर्थन तु सागरस्य
पुन: प्रयातः सह सोदरीयै: ।
द्विजै: पृथिव्यां प्रथितं महद्ि-
स्तीर्थ प्रभासं समुपाजगाम ।। १५ ।।
वहाँसे प्रस्थित हो वे भाइयोंसहित सागरतटवर्ती तीर्थोंके मार्गसे होते हुए फिर
प्रभासक्षेत्र आये जो श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके कारण भूमण्डलमें अधिक प्रसिद्ध है ।। १५ ।।
तत्राभिषिक्त: पृथुलोहिताक्ष:
सहानुजैर्देवगणान् पितृश्न ।
संतर्पयामास तथैव कृष्णा
ते चापि विप्रा: सह लोमशेन ।। १६ ।।
वहाँ भाइयोंसहित स्नान करके विशाल एवं लाल नेत्रोंवाले राजा युधिष्ठिरने देवताओं
और पितरोंका तर्पण किया। इसी प्रकार द्रौपदीने, साथ आये हुए उन ब्राह्मणोंने तथा महर्षि
लोमशने भी वहाँ स्नान एवं तर्पण किये ।। १६ ।।
स द्वादशाहं जलवायुभक्ष:
कुर्वन् क्षपाह:सु तदाभिषेकम् ।
समन्ततोःग्नीनुपदीपयित्वा
तेपे तपो धर्मभूतां वरिष्ठ: ।। १७ ।।
धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिर वहाँ बारह दिनोंतक केवल जल और वायु पीकर रहते हुए
दिनमें और रातमें भी स्नान करते तथा अपने चारों ओर आग जलाकर तपस्यामें लगे रहते
थे।। १७ |।
तमुग्रमास्थाय तपश्चरन्तं
शुश्राव रामश्न जनार्दनश्व ।
तौ सर्ववृष्णिप्रवरौ ससैन्यौ
युधिष्ठिरं जग्मतुराजमीढम् ।। १८ ।।
इसी समय वृष्णिवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामने सुना कि महाराज
युधिष्ठिर प्रभासक्षेत्रमें उग्र तपस्या कर रहे हैं; तब वे अपने सैनिकोंसहित
अजमीढकुलभूषण युधिष्ठिरसे मिलनेके लिये गये ।। १८ ।।
ते वृष्णय: पाण्डुसुतान् समीक्ष्य
भूमौ शयानान् मलदिग्धगात्रान्
अनर्तहतीं द्रौपदी चापि दृष्टवा
सुदु:खिताश्लुक्रुशुरातनादम् ।। १९ ।।
वहाँ जाकर वृष्णिवंशियोंने देखा, पाण्डवलोग पृथ्वीपर सो रहे हैं, उनके सारे अंग
धूलसे सने हुए हैं तथा कष्टसहनके अयोग्य द्रौपदी भी भारी दुर्दशा भोग रही है। यह सब
देखकर वे बड़े दुःखी हुए और आर्त स्वरसे रोने लगे || १९ |।
ततः स रामं॑ च जनार्दनं च
कार्ष्णि च साम्बं च शिनेश्व पौत्रम्
अन्यांश्व वृष्णीनुपगम्य पूजां
चक्रे यथाधर्ममहीनसत्त्व: || २० ||
(उस महान् संकटमें भी) महाराज युधिष्ठिरने अपना धैर्य नहीं छोड़ा था। उन्होंने
बलराम, श्रीकृष्ण, प्रद्युम्न, साम्ब, सात्यकि तथा अन्यान्य वृष्णिवंशियोंके पास जा-जाकर
धर्मानुसार उन सबका आदर-सत्कार किया || २० ||
ते चापि सर्वान् प्रतिपूज्य पार्था-
स्तै: सत्कृता: पाण्डुसुतैस्तथैव ।
युधिष्ठिरं सम्परिवार्य राज-
न्लुपाविशन् देवगणा यथेन्द्रम् । २१ ।।
राजन! पाण्थुपुत्रोंद्वारा सत्कृत होकर यादवोंने भी उन सबका यथोचित सत्कार किया
और फिर देवता जैसे इन्द्रके चारों ओर बैठ जाते हैं उसी प्रकार वे धर्मराज युधिष्ठिरको सब
ओरसे घेरकर बैठ गये ।। २१ ।।
तेषां स सर्व चरित॑ परेषां
वने च वासं परमप्रतीत: ।
अस्त्रार्थमिन्द्रस्य गतं च पार्थ
निवेशनं हृष्टमना: शशंस || २२ ।।
तत्पश्चात् राजा युधिष्ठिरने अत्यन्त विश्वस्त होकर यादवोंसे शत्रुओंकी सारी करतूतें कह
सुनायीं और अपने वनवासका भी सब समाचार बताया। साथ ही बड़ी प्रसन्नताके साथ यह
भी सूचित किया कि अर्जुन दिव्यास्त्रोंकी प्राप्तिके लिये इन्द्रलोकमें गये हैं | २२ ।।
श्रुत्वा तु ते तस्य वच: प्रतीता-
स्तांक्षापि दृष्टवा सुकुशानतीव ।
नेत्रोद्धवं सम्मुमुचुर्महार्हा
दुःखार्तिजं वारि महानुभावा: ।। २३ ।।
युधिष्ठिरका यह वचन सुनकर उन्हें कुछ सान्त्वना मिली। परंतु पाण्डवोंको अत्यन्त
दुर्बल देखकर वे परम पूजनीय महानुभाव यादव वीर दुःख और वेदनासे पीड़ित हो आँसू
बहाने लगे || २३ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां प्रभासे
यादवपाण्डवसमागमे अष्टादशाधिकशततमो<ध्याय: ।। ११८ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशतीर्थयात्राके प्रसंगमें
प्रभासक्षेत्रके भीतर यादव-पाण्डव-समायगमविषयक एक सौ अठारहवाँ अध्याय पूरा
हुआ ॥। ११८ ॥
हि >> आय न [हुक माप्टआ अप्ा८्
- पाँच अप्सराओं के तीर्थ।
भगवान् परशुरामद्वारा सहस्रार्जुनका वध
प्रभास क्षेत्रमें पाण्डवोंकी यादवोंसे भेंट
एकोनविशर्त्याधिकशततमो< ध्याय:
प्रभासतीर्थमें बलरामजीके पाण्डवोंके प्रति
सहानुभूतिसूचक दु:खपूर्ण उद्बार
जनमेजय उवाच
प्रभासतीर्थमासाद्य पाण्डवा वृष्णयस्तथा ।
किमकुर्वन् कथाश्रैषां कास्तत्रासंस्तपोधन ।। १ ।।
ते हि सर्वे महात्मान: सर्वशास्त्रविशारदा: ।
वृष्णय: पाण्डवाश्रैव सुहृदश्च॒ परस्परम् ।। २ ।।
जनमेजयने पूछा--तपोधन! प्रभासतीर्थमें पहुँचकर पाण्डवों तथा वृष्णिवंशियोंने
क्या किया? वहाँ उनमें कैसी बातचीत हुई? वे सब महात्मा यादव और पाण्डव सम्पूर्ण
शास्त्रोंके विद्वान और एक-दूसरेका हित चाहनेवाले थे, (अतः उनमें क्या बात हुई? यह मैं
जानना चाहता हूँ) ।। १-२ ।।
वैशम्पायन उवाच
प्रभासतीर्थ सम्प्राप्य पुण्यं तीर्थ महोदथे: ।
वृष्णय: पाण्डवान् वीरा: परिवार्योपतस्थिरे ॥। ३ ।।
वैशम्पायनजीने कहा--राजन्! प्रभासक्षेत्र समुद्र-तटवर्ती एक पुण्यमय तीर्थ है। वहाँ
जाकर वृष्णिवंशी वीर पाण्डवोंको चारों ओरसे घेरकर बैठ गये ।। ३ ।।
ततो गोक्षीरकुन्देन्दुमूणालरजतप्रभ: ।
वनमाली हली रामो बभाषे पुष्करेक्षणम् ।। ४ ।।
तदनन्तर गोदुग्ध, कुन्दकुसुम, चन्द्रमा, मृणाल (कमलनाल) तथा चाँदीकी-सी
कान्तिवाले वनमाला-विभूषित हलधर बलरामने कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णसे
कहा ।। ४ ।।
बलदेव उवाच
न कृष्ण धर्मश्चरितो भवाय
जन्तोरधर्मश्षु पराभवाय ।
युधिष्छिरो यत्र जटी महात्मा
वनाश्रय: क्लिश्यति चीरवासा: ।। ५ ।।
बलदेवजी बोले--श्रीकृष्ण! जान पड़ता है आचरणमें लाया हुआ धर्म भी प्राणियोंके
अभ्युदयका कारण नहीं होता; और उनका किया हुआ अधर्म भी पराजयकी प्राप्ति
करानेवाला नहीं होता, क्योंकि महात्मा युधिष्ठिरको (जो सदा धर्मका ही पालन करते हैं)
जटाधारी होकर वल्कल वस्त्र पहने वनमें रहते हुए महान् क्लेश भोगना पड़ रहा है || ५ ।।
दुर्योधनश्नापि महीं प्रशास्ति
न चास्य भूमिर्विवरं ददाति ।
धर्मादधर्मश्षरितो वरीया-
नितीव मन्येत नरोडल्पबुद्धि: ।। ६ ।।
दुर्योधने चापि विवर्धमाने
युधिष्ठिरे चासुखमात्तराज्ये ।
किं त्वत्र कर्तव्यमिति प्रजाभि:
शड़्का मिथ: संजनिता नराणाम् ॥। ७ ।।
उधर, दुर्योधन (अधर्मपरायण होनेपर भी) पृथ्वीका शासन कर रहा है। उसके लिये यह
पृथ्वी भी नहीं फटती है। इससे तो मन्द बुद्धिवाले मनुष्य यही समझेंगे कि धर्माचरणकी
अपेक्षा अधर्मका आचरण ही श्रेष्ठ है। दुर्योधन निरन्तर उन्नति कर रहा है और युधिष्छिर
छलसे राज्य छिन जानेके कारण दुःख उठा रहे हैं। (युधिष्ठिर और दुर्योधनके दृष्टान्तको
सामने रखकर) मनुष्योंमें परस्पर महान् संदेह खड़ा हो गया है। प्रजा यह सोचने लगी है कि
हमें क्या करना चाहिये--हमें धर्मका आश्रय लेना चाहिये या अधर्मका? ।। ६-७ ।।
अयं स धर्मप्रभवो नरेन्द्रो
धर्मे धृत: सत्यधृति: प्रदाता ।
चलेद्धि राज्याच्च सुखाच्च पार्थो
धर्मादपेतस्तु कथं विवर्धेत् ।। ८ ।॥।
ये राजा युधिष्ठिर साक्षात् धर्मके पुत्र हैं। धर्म ही इनका आधार है। ये सदा सत्यका
आश्रय लेते और दान देते रहते हैं। कुन्तीकुमार युधिष्ठिर राज्य और सुख छोड़ सकते हैं,
(परंतु धर्मका त्याग नहीं कर सकते) भला, धर्मसे दूर होकर कोई कैसे अभ्युदयका भागी हो
सकता है? ।। ८ ।।
कथं नु भीष्मश्न कृपश्च विप्रो
द्रोणश्न॒ राजा च कुलस्य वृद्धः ।
प्रव्राज्य पार्थान् सुखमाप्रुवन्ति
धिक् पापबुद्धीन् भरतप्रधानान् ।। ९ ।।
पितामह भीष्म, ब्राह्मण कृपाचार्य, द्रोण तथा कुलके बड़े-बूढ़े राजा धृतराष्ट्र--ये
कुन्तीके पुत्रोंको राज्यसे निकालकर कैसे सुख पाते हैं? भरतकुलके इन प्रधान व्यक्तियोंको
धिक्कार है! क्योंकि इनकी बुद्धि पापमें लगी हुई है ।। ९ ।।
कि नाम वक्ष्यत्यवनिप्रधान:
पितृन् समागम्य परत्र पाप: ।
पुत्रेषु सम्यक् चरितं मयेति
पुत्रानपापान् व्यपरोप्य राज्यात् ।। १० ।।
पापी राजा धृतराष्ट्र परलोकमें पितरोंसे मिलनेपर उनके सामने कैसे यह कह सकेगा
कि “मैंने अपने और भाई पाण्डुके पुत्रोंके साथ न्याययुक्त बर्ताव किया है।” जबकि उसने
इन निर्दोष पुत्रोंको राज्यसे वज्चित कर दिया है ।। १० ।।
नासौ धिया सम्प्रति पश्यति सम
कि नाम कृत्वाहमचक्षुरेवम् ।
जात: पृथिव्यामिति पार्थिवेषु
प्रत्राज्य कौन्तेयमिति सम राज्यात् ।। ११ ।।
वह अब भी अपने बुद्धिरूप नेत्रोंसे यह नहीं देख पाता कि कौन-सा पाप करनेके
कारण मुझे इस प्रकार अन्धा होना पड़ा है और आगे कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरको राज्यसे
निकालकर जब मैं भूतलके राजाओंमें फिरसे जन्म लूँगा, तब मेरी दशा कैसी
होगी? ।। ११ ।।
नूनं समृद्धान् पितृलोक भूमौ
चामीकराभान् क्षितिजान् प्रफुल्लान् |
विचित्रवीर्यस्य सुतः सपुत्र:
कृत्वा नृशंसं बत पश्यति सम ।। १२ ||
विचित्रवीर्यका पुत्र धृतराष्ट्र और उसके पुत्र दुर्योधन आदि यह क्रूर कर्म करके (स्वप्नमें)
निश्चय ही पितृलोककी भूमिमें सुवर्णके समान चमकनेवाले समृद्धिशाली एवं पुष्पित
वृक्षोंको देख रहे हैं. || १२ ।।
व्यूढोत्तरांसान् पृथुलोहिताक्षान्
नेमान् सम पृच्छन् स शूणोति नूनम् ।
प्रास्थापयद् यत् सवनं सशड्को
युधिष्ठिरं सानुजमात्तशस्त्रम् ।। १३ ।।
धृतराष्ट्र सुदृढ़ कंधे तथा विशाल एवं लाल नेत्रोंवाले इन भीष्म आदिसे कोई बात पूछता
तो है, परंतु निश्चय ही उनकी बात सुनकर मानता नहीं है, तभी तो भाइयोंसहित शस्त्रधारी
युधिष्ठिरके प्रति भी मनमें शंका रखकर इन्हें उसने वनमें भेज दिया है || १३ ।।
यो<यं परेषां पृतनां समृद्धां
निरायुधो दीर्घभुजो निहन्यात् |
श्रुत्वैव शब्दं हि वृकोदरस्य
मुछ्चन्ति सैन्यानि शकृत् समूत्रम् ।। १४ ।।
(भला! वे कौरव इन पाण्डवोंका सामना कैसे कर सकते हैं?) ये बड़ी-बड़ी
भुजाओंवाले भीमसेन बिना अस्त्र-शस्त्रोंके ही शत्रुओंकी शक्तिशाली सेनाका संहार कर
सकते हैं। भीमका तो सिंहनाद सुनकर ही विरोधी दलके सैनिक मल-मूत्र करने लगते
हैं ।। १४ ।।
स क्षुत्पिपासाध्वकृशस्तरस्वी
समेत्य नानायुधबाणपाणि: ।
वने स्मरन् वासमिमं सुघोरं
शेषं न कुर्यादिति निश्चितं मे ।। १५ ।।
वे ही वेगशाली भीम इन दिनों भूख-प्यास और रास्ता चलनेकी थकावटसे दुर्बल हो गये
हैं। इस भयंकर वनवासका स्मरण करते हुए जब ये हाथोंमें अनेक प्रकारके अस्त्र-शस्त्र एवं
धनुष-बाण लिये शत्रुओंपर आक्रमण करेंगे, उस समय किसीको भी जीता न छोड़ेंगे--यह
मेरा निश्चय है | १५ ।।
न हास्य वीर्येण बलेन कश्रित्
सम: पृथिव्यामपि विद्यतेडन्य: ।
स शीतवातातपकर्शिताड्रो
न शेषमाजावसुद्वत्सु कुर्यात् ।। १६ ।।
इनके समान पराक्रमी और बलवान् वीर इस पृथ्वीपर कोई नहीं है। इस समय सर्दी-
गरमी और वायुके कष्टसे यद्यपि इनका शरीर दुबला हो गया है तो भी समरमें शत्रुओंमेंसे
किसीको भी ये शेष नहीं रहने देंगे || १६ ।।
प्राच्यां नृूपानेकरथेन जित्वा
वृकोदर: सानुचरान् रणेषु ।
स्वस्त्यागमद् योडतिरथस्तरस्वी
सो<यं वने क्लिश्यति चीरवासा: ।। १७ ।।
यः सिन्धुकूले व्यजयन्नूदेवान्
समागतान् दाक्षिणात्यान् महीपान् |
तं पश्यतेमं सहदेवमद्य
तरस्विनं तापसवेषरूपम् ।। १८ ।।
जो पूर्वदिशामें (दिग्विजयकी यात्राके समय) केवल एक रथ लेकर युद्धमें बहुत-से
राजाओंको सेवकोंसहित परास्त करके सकुशल लौट आये थे, वे ही अतिरथी और
वेगशाली वीर वृकोदर आज वनमें वल्कल वस्त्र पहनकर कष्ट भोग रहे हैं। जिसने समुद्र-
तटपर सामना करनेके लिये आये हुए दक्षिण दिशाके सम्पूर्ण राजाओंपर विजय पायी थी,
उसी वेगवान् वीर इस सहदेवको देखो--यह आज तपस्वीकी-सी वेषभूषा धारण किये हुए
दुःख पा रहा है ।। १७-१८ ।।
यः पार्थिवानेकरथेन जिग्ये
दिशं प्रतीचीं प्रति युद्धशौण्ड: ।
सो<यं वने मूलफलेन जीव-
उ्जटी चरत्यद्य मलाचिताड्र: ।। १९ ।।
जिस युद्धकुशल नकुलने एकमात्र रथकी सहायतासे पश्चिम दिशाके समस्त भूपालोंको
जीत लिया था, वही आज वनमें फल-मूलसे जीवन-निर्वाह करता हुआ सिरपर जटा धारण
किये मलिन शरीरसे विचर रहा है ।। १९ |।
सत्रे समृद्धेडतिरथस्य राज्ञो
वेदीतलादुत्पतिता सुता या ।
सेयं वने वासमिमं सुदुःखं
कथं सहत्यद्य सती सुखाहा ।। २० ।।
जो अतिरथी राजा द्रुपदके समृद्धिशाली यज्ञमें वेदीसे प्रकट हुई थी, वही यह सुख
भोगनेके योग्य सती-साध्वी द्रौपदी वनवासके इस महान् दुःखको कैसे सहन करती
है? ।। २० ।।
त्रिवर्गमुख्यस्थ समीरणस्य
देवेश्वरस्याप्यथवाश्रिनोश्र ।
एषां सुराणां तनया: कथं नु
वने5चरन् हास्तसुखा: सुखाहा: ।। २१ ।।
धर्म, वायु, इन्द्र और अश्विनीकुमारों-जैसे देवताओंके ये पुत्र सुख भोगनेके योग्य होते
हुए भी आज सब प्रकारके सुखोंसे वज्चित हो वनमें कैसे विचरण कर रहे हैं? ।। २१ ।।
जिते हि धर्मस्य सुते सभार्ये
सभ्रातृके सानुचरे निरस्ते ।
दुर्योधने चापि विवर्धमाने
कथं न सीदत्यवनि: सशैला || २२ ।।
पत्नीसहित धर्मराज युधिष्ठिर जूएमें हार गये और भाइयों एवं सेवकोंसहित राज्यसे
बाहर कर दिये गये, उधर दुर्योधन (अनीतिपरायण होकर भी दिनोदिन) बढ़ रहा है, ऐसी
दशामें पर्वतोंसहित यह पृथ्वी क्यों नहीं फट जाती? ।। २२ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां बलरामवाक्ये
एकोनविंशत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। ११९ |।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रसंगमें
बलरामवाक्यविषयक एक सौ उतन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ११९ ॥।
अप ऋषाज [हुक है आम
- इस प्रकारके वृक्षोंको प्रत्यक्ष देखना मृत्युसूचक माना गया है।
विशर्त्याधिकशततमो< ध्याय:
सात्यकिके शॉौर्यपूर्ण उद्बार तथा युधिष्ठिरद्वारा श्रीकृष्णके
वचनोंका अनुमोदन एवं पाण्डवोंका पयोष्णी नदीके तटपर
निवास
सात्यकिरुवाच
न राम काल: परिदेवनाय
यदुत्तरं त्वत्र तदेव सर्वे
समाचरामो हानतीतकालं
युधिष्ठिरो यद्यपि नाह किंचित् ।। १ ।।
सात्यकिने कहा--बलरामजी! यह समय बैठकर विलाप करनेका नहीं है। अब आगे
जो कुछ करना है उसीको हम सब लोग मिलकर करें। यद्यपि महाराज युधिष्ठटिर हमसे कुछ
नहीं कहते हैं तो भी हमें अब व्यर्थ समय न बिताकर कौरवोंको उचित उत्तर देना चाहिये ।।
ये नाथवन्तोडद्य भवन्ति लोके
ते नात्मना कर्म समारभन्ते ।
तेषां तु कार्येषु भवन्ति नाथा:
शिब्यादयो राम यथा ययाते: ॥॥ २ ।।
इस संसारमें जो लोग सनाथ हैं--जिनके बहुत-से सहायक हैं--वे स्वयं कोई कार्य
आरम्भ नहीं करते हैं। उनके सभी कार्योंमें वे सहायक एवं सुहृद् ही सहयोगी होते हैं, जैसे
ययातिके उद्धार-कार्यमें शिबि आदि उनके नातियोंने योगदान किया था ।। २ ।।
येषां तथा राम समारभन्न्ते
कार्याणि नाथा: स्वमतेन लोके ।
ते नाथवन्तः पुरुषप्रवीरा
नानाथवत् कृच्छुमवाप्लुवन्ति ॥। ३ ।॥।
बलरामजी! जगतमें जिनके कार्य उनके सहायक अपने ही विचारसे प्रारम्भ करते हैं, वे
पुरुषश्रेष्ठ सनाथ माने जाते हैं। वे अनाथकी भाँति कभी कष्टमें नहीं पड़ते || ३ ।।
कस्मादिमौ रामजनार्दनौ च
प्रद्युम्नसाम्बी च मया समेतौ ।
वसन्त्यरण्ये सहसोदरीयै-
स्त्रैलोक्पनाथानभिगम्य पार्था: ।। ४ ।।
आप दोनों भाई बलराम और श्रीकृष्ण, मेरेसहित ये प्रद्युम्म और साम्ब सब-के-सब
मौजूद हैं। इन त्रिभुवनपतियोंसे मिलकर भी ये कुन्तीके पुत्र अभीतक अपने भाइयोंके साथ
वनमें क्यों निवास करते हैं? ।। ४ ।।
निर्यातु साध्वद्य दशार्हसेना
प्रभूतनानायुधचित्रवर्मा |
यमक्षयं गच्छतु धार्त॑राष्ट्र:
सबान्धवो वृष्णिबलाभिभूत: ।। ५ ।।
त्वं होव कोपात् पृथिवीमपीमां
संवेष्टयेस्तिष्ठतु शार्ड्र्धन्चा ।
स धार्तराष्ट्रं जहि सानुबन्ध॑
वृत्रं यथा देवपतिम॑हिन्द्र: ।। ६ ।।
उत्तम तो यह है कि आज ही यदुवंशियोंकी सेना नाना प्रकारके प्रचुर अस्त्र-शस्त्र और
विचित्र कवच धारण करके युद्धके लिये प्रस्थान करे। धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन वृष्णिवंशियोंके
पराक्रमसे पराजित हो बन्धु-बान्धवोंसहित यमलोक चला जाय। बलरामजी! भगवान्
श्रीकृष्ण अलग खड़े रहें, केवल आप ही चाहें तो इस समूची पृथ्वीको भी अपनी
क्रोधाग्निकी लपटोंमें लपेट सकते हैं। जैसे देवराज इन्द्रने वृत्रासुरका वध किया था उसी
प्रकार आप भी दुर्योधनको उसके सगे-सम्बन्धियों-सहित मार डालिये ।। ५-६ ।।
भ्राता च मे य:ः स सखा गुरुश्न
जनार्दनस्यात्मसममश्ष पार्थ: ।
यदर्थमैच्छन् मनुजा: सुपुत्रं
शिष्यं गुरुश्नाप्रतिकूलवादम् ।। ७ ।।
जो मेरे भाई, सखा और गुरु हैं, जो भगवान् श्रीकृष्णके आत्मतुल्य सुहृद् हैं, वे
कुन्तीकुमार अर्जुन भी अलग रहें। मनुष्य जिस उद्देश्यसे अच्छे पुत्रकी और गुरु प्रतिकूल न
बोलनेवाले शिष्यकी कामना करते हैं, उसे सफल करनेका समय आ गया है ।। ७ ।।
यदर्थमभ्युद्यतमुत्तमं तत्
करोति कर्माग्रयमपारणीयम् ।
तस्यास्त्रवर्षाण्यहमुत्तमास्त्रै-
विंहत्य सर्वाणि रणेडभिभूय ।। ८ ।।
जिसके लिये सुयोग्य शिष्य या पुत्र उत्तम अस्त्र-शस्त्र उठाता है तथा युद्धमें श्रेष्ठ एवं
अपार पराक्रम कर दिखाता है, उसकी पूर्तिका यही अवसर है। मैं संग्रामभूमिमें अपने उत्तम
आयुधोंद्वारा शत्रुओंकी सारी अस्त्र-वर्षाको नष्ट करके उनके समस्त सैनिकोंको परास्त कर
दूँगा | ८ ।।
कायाच्छिर: सर्पविषाग्निकल्पै:
शरोत्तमैरुन्मथितास्मि राम ।
खड्गेन चाहं निशितेन संख्ये
कायाच्छिरस्तस्य बलात् प्रमथ्य ।। ९ ।।
बलरामजी! सर्प, विष एवं अग्निके समान भयंकर उत्तम बाणोंद्वारा शत्रुके सिरको
धड़से अलग कर दूँगा, साथ ही उस समरांगणमें शत्रुमण्डलीको मैं बलपूर्वक रौंदकर तीखी
तलवारद्वारा उसका मस्तक उड़ा दूँगा ।। ९ ।।
ततो<स्य सर्वाननुगान् हनिष्ये
दुर्योधन चापि कुरूँश्व॒ सर्वान्
आत्तायुधं मामिह रौहिणेय
पश्यन्तु भैमा युधि जातहर्षा: ।। १० |।
तदनन्तर उसके समस्त सेवकोंसहित दुर्योधन और समस्त कौरवोंको भी मार डालूँगा।
रोहिणीनन्दन! युद्धमें भयानक पराक्रम दिखानेवाले योद्धा हर्ष और उत्साहमें भरकर आज
मुझे हाथमें अस्त्र लिये पूर्वोक्त पराक्रम करते हुए प्रत्यक्ष देखें | १० ।।
निघ्नन्तमेक॑ कुरुयो धमुख्या-
नग्निं महाकक्षमिवान्तकाले ।
प्रद्युम्नमुक्तान् निशितान् न शक्ता:
सोढुं कृपद्रोणविकर्णकर्णा: ।। ११ ।।
जैसे प्रलयकालीन अग्नि सूखे घासकी राशिको जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार
मैं अकेला ही कौरवदलके प्रधान वीरोंका संहार कर डालूँगा और ऐसा करते हुए सब लोग
मुझे प्रत्यक्ष देखेंगे। प्रद्युम्मके छोड़े हुए तीखे बाणोंको सहन करनेकी शक्ति कृपाचार्य,
द्रोणाचार्य, विकर्ण और कर्ण--किसीमें नहीं है ।। ११ ।।
जानामि वीर्य च जयात्मजस्य
कार्ष्णिर्भवत्येष यथा रणस्थ: ।
साम्ब: ससूतं सरथं भुजाभ्यां
दुःशासन शास्तु बलात् प्रमथ्य ।। १२ |।
मैं अर्जुनकुमार अभिमन्युके भी पराक्रमको जानता हूँ। वह समरभूमिमें खड़ा होनेपर
साक्षात् श्रीकृष्णनन्दन प्रद्युम्मके ही समान जान पड़ता है। वीरवर साम्ब बलपूर्वक
शत्रुसेनको मथकर अपनी दोनों भुजाओंसे रथ और सारथिसहित दुःशासनका दमन
करें ।। १२ ।।
न विद्यते जाम्बवतीसुतस्य
रणे विषदह्ां हि रणोत्कटस्य ।
एतेन बालेन हि शम्बरस्य
दैत्यस्य सैन्यं सहसा प्रणुन्नम् ।। १३ ।।
जाम्बवतीनन्दन साम्ब रणभूमिमें बड़े प्रचण्ड पराक्रमशाली बन जाते हैं। उस समय
इनके लिये कुछ भी असहा नहीं है। इन्होंने बाल्यावस्थामें ही सहसा शम्बरासुरकी सेनाको
नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था ।। १३ ।।
वृत्तोरुरत्यायतपीनबाहु-
रेतेन संख्ये निहतो<श्वचक्र: ।
को नाम साम्बस्य महारथस्य
रणे समक्ष रथमभ्युदीयात् ।। १४ ।।
इनकी जाँघें गोल हैं, भुजाएँ लंबी और मोटी हैं; इन्होंने युद्धमें अश्वारोहियोंकी कितनी
ही सेनाओंका संहार किया है। भला, संग्रामभूमिमें महारथी साम्बके रथके सम्मुख कौन आ
सकता है? ।। १४ ।।
यथा प्रविश्यान्तरमन्तकस्य
काले मनुष्यो न विनिष्क्रमेत |
तथा प्रविश्यान्तरमस्य संख्ये
को नाम जीवन पुनरात्रजेत ।। १५ ।।
जैसे अन्तकाल आनेपर यमराजकी भुजाओंमें पड़ा हुआ मनुष्य कदापि वहाँसे निकल
नहीं सकता, उसी प्रकार रणक्षेत्रमें वीरवर साम्बके वशमें आया हुआ कौन ऐसा योद्धा होगा,
जो पुनः जीवित लौट सके ।। १५ ।।
द्रोणं च भीष्मं च महारथौ तौ
सुतैर्वृत॑ चाप्पथ सोमदत्तम् ।
सर्वाणि सैन्यानि च वासुदेव:
प्रधक्ष्यते सायकवल्लिजालै: ।। १६ ।।
वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण चाहें तो अपने बाणरूपी अग्निकी लपटोंसे द्रोण और
भीष्म--इन दोनों प्रसिद्ध महारथियोंको, पुत्रोंसहित सोमदत्तको तथा सारी कौरवसेनाको
भी भस्म कर डालेंगे ।। १६ ।।
कि नाम लोकेष्वविषह्ाुमस्ति
कृष्णस्य सर्वेषु सदेवकेषु ।
आत्तायुथस्योत्तमबाणपाणे-
श्रक्रायुधस्याप्रतिमस्य युद्धे || १७ ।।
देवताओंसहित सम्पूर्ण लोकोंमें कौन-सी ऐसी वस्तु है, जो हाथोंमें हथियार, उत्तम बाण
तथा चक्र धारण करके युद्धमें अनुपम पराक्रम प्रकट करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णके लिये
असहा हो ।। १७ ।।
ततोडनिरुद्धो5प्यसिचर्मपाणि-
महीमिमां धार्तराष्ट्रविसंज्ञै: ।
ह्वतोत्तमाड्रैन्निहतै: करोतु
कीर्णा कुशैवेदिमिवाध्वरेषु ।। १८ ।।
गदोल्मुकौ बाहुकभानुनीथा:
शूरश्न संख्ये निशठ: कुमार: ।
रणोत्कटौ सारणचारुदेष्णौ
कुलोचितं विप्रथयन्तु कर्म ।। १९ ।।
ढाल-तलवार लिये हुए वीरवर अनिरुद्ध भी, जैसे यज्ञोंमें कुशाओंद्वारा यज्ञकी वेदी ढक
दी जाती है, उसी प्रकार युद्धमें सिर कटाकर मरे और अचेत पड़े हुए धृतराष्ट्रपुत्रोंद्ारा इस
भूमिको ढक दें। गद, उल्मुक, बाहुक, भानु, नीथ, युद्धमें शूरवीर कुमार निशठ तथा
रणभूमिमें प्रचण्ड पराक्रमी सारण और चारुदेष्ण--ये सब लोग अपने कुलके अनुरूप
पराक्रम प्रकट करें || १८-१९ ।।
सवृष्णि भोजान्धकयो धमुख्या
समागता सात्वतशूरसेना ।
हत्वा रणे तान् धृतराष्ट्रपुत्रा-
ल्लोके यश: स्फीतमुपाकरोतु ।। २० ।।
यदुवंशियोंकी शौर्यपूर्ण सेना, जिसमें वृष्णि, भोज और अन्धकवंशी योद्धाओंकी
प्रधानता है, आक्रमण करके युद्धमें धृतराष्ट्रपत्रोंको मार डाले और संसारमें अपने उज्ज्वल
यशका विस्तार करे || २० ।।
ततो<भिमन्यु: पृथिवीं प्रशास्तु
यावद् व्रतं धर्मभृतां वरिष्ठ: ।
युधिष्ठिर: पारयते महात्मा
द्यूते यथोक्त कुरुसत्तमेन ।। २१ ।।
धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ महात्मा युधिष्ठिस जबतक अपने उस व्रतको, जिसे इन
कुरुकुलभूषणने जूएके समय प्रतिज्ञापूर्वक स्वीकार किया था, पूर्ण न कर लें, तबतक
अभिमन्यु इस पृथ्वीका शासन करे ।। २१ ।।
अस्मप्प्रमुक्तिविशिखैर्जितारि-
स्ततो महीं भोक्ष्यति धर्मराज: ।
निर्धार्तराष्ट्रां हतसूतपुत्रा-
मेतद्धि नः कृत्यतमं यशस्यथम् ।। २२ ।।
तदनन्तर अपना व्रत समाप्त करके हमारे द्वारा छोड़े हुए बाणोंसे ही शत्रुओंपर विजय
पाकर धर्मराज युधिष्ठिर इस पृथ्वीका राज्य भोगेंगे। उस समयतक यह पृथ्वी धृतराष्ट्रके
पुत्रोंसे रहित हो जायगी और सूतपुत्र कर्ण भी मर जायगा। यदि ऐसा हुआ तो यह हमारे
लिये महान् यशोवर्धक कार्य होगा ।। २२ ।।
वायुदेव उवाच
असंशयं माधव सत्यमेतद्
गृह्नीम ते वाक्यमदीनसत्त्व ।
स्वाभ्यां भुजाभ्यामजितां तु भूमिं
नेच्छेत् कुरूणामृषभ: कथंचित् ।। २३ ।।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले--उदारहृदय मधुकुलभूषण सात्यके! तुम्हारी यह बात सत्य
है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। हम तुम्हारे इन वचनोंको स्वीकार करते हैं; परंतु ये
कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर किसी भी ऐसी भूमिको किसी तरह लेना नहीं चाहेंगे, जिसे इन्होंने अपनी
भुजाओंद्वारा न जीता हो || २३ ।।
न होष कामाजन्न भयान्न लोभाद्
युधिष्ठटिरो जातु जह्यात् स्वधर्मम्
भीमार्जुनौ चातिरथौ यमौ च
तथैव कृष्णा द्रुपदात्मजेयम् ।। २४ ।।
कामना, भय अथवा लोभ किसी भी कारणसे युधिष्ठिर अपना धर्म कदापि नहीं छोड़
सकते। उसी तरह अतिरथी वीर भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव तथा यह द्रुपदकुमारी कृष्णा
भी अपना धर्म नहीं छोड़ सकती ।। २४ ।।
उभौ हि युद्धे5प्रतिमौ पृथिव्यां
वृकोदरश्रैव धनंजयश्न ।
कस्मान्न कृत्स्नां पृथिवीं प्रशासे-
न्माद्रीसुताभ्यां च पुरस्कृतोडयम् । २५ ।।
भीमसेन और अर्जन--ये दोनों वीर युद्धमें इस पृथ्वीपर अपना सानी नहीं रखते। इनसे
और दोनों माद्रीकुमारोंसे संयुक्त होनेपर ये युधिष्ठिर सारी पृथ्वीका शासन कैसे नहीं कर
सकते? ।। २५ ।।
यदा तु पञ्चालपतिर्महात्मा
सकेकयश्षेदिपतिर्वयं च ।
युध्येम विक्रम्य रणे समेता-
स्तदैव सर्वे रिपवो हि न स्यु: । २६ ।।
जब महात्मा पांचालराज, केकय, चेदिराज और हम सब लोग एक साथ होकर रणमें
पराक्रम दिखायेंगे, उसी समय हमारे सारे शत्रुओंका अस्तित्व मिट जायगा ।। २६ ।।
युधिछिर उवाच
नेदं चित्र माधव यद् ब्रवीषि
सत्य॑ तु मे रक्ष्यतमं न राज्यम् ।
कृष्णस्तु मां वेद यथावदेक:
कृष्णं च वेदाहमथो यथावत् ।। २७ ।।
युधिष्ठिरने कहा--सात्यके! तुम जो कुछ कह रहे हो वह तुम्हारे-जैसे वीरके लिये
कोई आश्चर्यकी बात नहीं है, परंतु मेरे लिये सत्यकी रक्षा ही प्रधान है, राज्यकी प्राप्ति नहीं।
केवल श्रीकृष्ण ही मुझे अच्छी तरह जानते हैं और मैं भी कृष्णके स्वरूपको यथार्थ-रूपसे
जानता हूँ || २७ ।।
यदैव काल पुरुषप्रवीरो
वेत्स्यत्ययं माधव विक्रमस्य ।
तदा रणे त्वं च शिनिप्रवीर
सुयोधनं जेष्यसि केशवश्व ।। २८ ।।
शिनिवंशके प्रधान वीर माधव! ये पुरुषरत्न श्रीकृष्ण जभी पराक्रम दिखानेका अवसर
आया समझेंगे, तभी तुम और भगवान् केशव मिलकर युद्धमें दुर्योधनको जीत
सकोगे ।। २८ ।।
प्रतिप्रयान्त्वद्य दशार्हवीरा
दृष्टोडस्मि नाथैर्नरलोकनाथी: ।
धर्मेडप्रमादं कुरुताप्रमेया
द्रष्टास्मि भूय: सुखिन: समेतान् ।। २९ ।।
अब ये यदुवंशी वीर द्वारकाको लौट जायँ। आपलोग मेरे नाथ या सहायक तो हैं ही,
सम्पूर्ण मनुष्य-लोकके भी रक्षक हैं, आपलोगोंसे मिलना हो गया, यह बड़े आनन्दकी बात
है। अनुपम शक्तिशाली वीरो! आपलोग धर्मपालनकी ओरसे सदा सावधानी रखें। मैं पुनः
आप सभी सुखी मित्रोंको एकत्र हुआ देखूँगा || २९ ।।
तेडन्योन्यमामन्त्रय तथाभिवाद्य
वृद्धान् परिष्वज्य शिशुंश्व॒ सर्वान् ।
यदुप्रवीरा: स्वगृहाणि जग्मु-
स््ते चापि तीर्थान्यनुसंविचेरु: ॥। ३० ।।
तत्पश्चात् वे यादव-पाण्डव वीर एक दूसरेकी अनुमति ले, वृद्धोंको प्रणाम करके,
बालकोंको हृदयसे लगाकर तथा अन्य सबसे यथायोग्य मिलकर अपने अभीष्ट स्थानको
चल दिये। यादववीर अपने घर गये और पाण्डवलोग पूर्ववत् तीर्थोंमें विचरने लगे || ३० ।।
विसृज्य कृष्णं त्वथ धर्मराजो
विदर्भराजोपचितां सुतीर्थाम्
जगाम पुण्यां सरितं पयोष्णीं
सभ्रातृभृत्य: सह लोमशेन ।। ३१ ।।
श्रीकृष्णको विदा करके धर्मराज युधिष्ठिर लोमशजी, भाइयों और सेवकोंके साथ
विदर्भनरेशद्वारा पूजित, उत्तम तीर्थोंवाली पुण्य नदी पयोष्णीके तटपर गये ।। ३१ ।।
सुतेन सोमेन विमिश्रतोयां
पय: पयोष्णीं प्रति सो5ध्युवास ।
द्विजातिमुख्यैर्मुदितैर्महात्मा
संस्तूयमान: स्तुतिभिर्वराभि: ।। ३२ ।।
उसके जलमें यज्ञसम्बन्धी सोमरस मिला हुआ था। पयोष्णीके तटपर जा उन्होंने
उसका जल पीकर वहाँ निवास किया। उस समय प्रसन्नतासे भरे हुए श्रेष्ठ द्विज उत्तम
स्तुतियोंद्वारा उन महात्मा नरेशकी स्तुति कर रहे थे |। ३२ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां यादवगमने
विंशत्यधिकशततमो<ध्याय: ॥। १२० ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती थयात्राप्रसंगमें
यादवगमनविषयक एक सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२० ॥
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एकविशर्त्याधेकशततमो< ध्याय:
राजा गयके यज्ञकी प्रशंसा, पयोष्णी, वैदूर्य पर्वत और
नर्मदाके माहात्म्य तथा च्यवन-सुकन्याके चरित्रका आरम्भ
लोगश उवाच
नृगेण यजमानेन सोमेनेह पुरंदर: ।
तर्पित: श्रूयते राजन् स तृप्तो मुदमभ्यगात् ।। १ ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठिर! सुना जाता है कि इस पयोष्णी नदीके तटपर राजा
नृगने यज्ञ करके सोमरसके द्वारा देवराज इन्द्रको तृप्त किया था। उस समय इन्द्र पूर्णतः
तृप्त होकर आनन्दमग्न हो गये थे ।। १ ।।
इह देवै: सहेन्द्रैश्ष॒ प्रजापतिभिरेव च ।
इष्ट बहुविधेर्यज्ञैर्महद्धिभभूरिदक्षिणै: ।। २ ।।
यहीं इन्द्रसहित देवताओंने और प्रजापतियोंने भी प्रचुर दक्षिणासे युक्त अनेक प्रकारके
बड़े-बड़े यज्ञोंद्वारा भगवानूका यजन किया है ।। २ ।।
आमूर्तरयसश्रेह राजा वज्रधरं प्रभुम् ।
तर्पयामास सोमेन हयमेथेषु सप्तसु || ३ ।।
अमूर्तरयाके पुत्र राजा गयने भी यहाँ सात अश्वमेधयज्ञोंका अनुष्ठान करके उनमें
सोमरसके द्वारा वज्रधारी इन्द्रको संतुष्ट किया था ।। ३ ।।
तस्य सप्तसु यज्ञेषु सर्वमासीद्धिरण्मयम् ।
वानस्पत्यं च भौम॑ च यद् द्रव्यं नियतं मखे ।। ४ ।।
यज्ञमें जो वस्तुएँ नियमितरूपसे काष्ठ और मिट्टीकी बनी हुई होती हैं, ये सब-की सब
राजा गयके उक्त सातों यज्ञोंमें सुवर्णसे बनायी गयी थीं ।। ४ ।।
चषालयूपचमसा: स्थाल्य: पात्र्य: खुच: सख्रुवा:
तेष्वेव चास्य यज्ञेषु प्रयोगा: सप्त विश्रुता: । ५ ।।
प्राय: यज्ञोंमें चषाल, ->यूप, 3चमस, <स्थाली, “पात्री, “*सखुक् और »खुवा--ये सात
साधन उपयोगमें लाये जाते हैं। राजा गयके पूर्वोक्त सातों यज्ञोंमें ये सभी उपकरण सुवर्णके
ही थे, ऐसा सुना जाता है ।। ५ ।।
सप्तैकैकस्य यूपस्य चषालाश्लोपरि स्थिता: ।
तस्य सम यूपान् यज्ञेषु भ्राजमानान् हिरण्मयान् ॥। ६ ।।
स्वयमुत्थापयामारसुर्देवा: सेन्द्रा युधिष्ठिर ।
तेषु तस्य मखाग्रयेषु गयस्य पृथिवीपते: ।। ७ ।।
अमाद्यदिन्द्र: सोमेन दक्षिणाभिद्धिजातय: ।
प्रसंख्यानानसंख्येयान् प्रत्यगृह्लनन् द्विजातय: ।। ८ ।।
सात यूपोंमेंसे प्रत्येकके ऊपर सात-सात चषाल थे। युधिष्ठिर! उन यज्ञोंमें जो चमकते
हुए सुवर्णमय यूप थे, उन्हें इन्द्र आदि देवताओंने स्वयं खड़ा किया था। राजा गयके उन
उत्तम यज्ञोंमें इन्द्र सोमपान करके और ब्राह्मण बहुत-सी दक्षिणा पाकर हर्षोन्मत्त हो गये
थे। ब्राह्मणोंने दक्षिणामें जो बहुसंख्यक धनराशि प्राप्त की थी, उसकी गणना नहीं की जा
सकती थी ।। ६--८ ।।
सिकता वा यथा लोके यथा वा दिवि तारका: ।
यथा वा वर्षतो धारा असंख्येया: सम केनचित् ।। ९ ।।
तथैव तदसंख्येयं धनं यत् प्रददौ गय:ः ।
सदस्येभ्यो महाराज तेषु यज्ञेषु सप्तसु । १० ।।
महाराज! राजा गयने सातों यज्ञोंमें सदस्योंको, जो असंख्य धन प्रदान किया था,
उसकी गणना उसी प्रकार नहीं हो सकती थी, जैसे इस जगत्में कोई बालूके कणों,
आकाशके तारों और वर्षाकी धाराओंको नहीं गिन सकता ।। ९-१० |।
भवेत् संख्येयमेतद्धि यदेतत् परिकीर्तितम् ।
न तस्य शक््या: संख्यातुं दक्षिणा दक्षिणावत: ।। ११ ।।
उपर्युक्त बालूके कण आदि कदाचित् गिने भी जा सकते हैं, परंतु दक्षिणा देनेवाले राजा
गयकी दक्षिणाकी गणना करना सम्भव नहीं है || ११ ।।
हिरण्मयीभिगें भिश्व कृताभिवविश्वकर्मणा ।
ब्राह्मणांस्तर्पयामास नानादिग्भ्य: समागतान् ॥। १२ ।।
अल्पावशेषा पृथिवी चैत्यैरासीन्महात्मन: ।
गयस्य यजमानस्य तत्र तत्र विशाम्पते ।। १३ ।।
उन्होंने विश्वकर्माकी बनायी हुई सुवर्णमयी गौएँ देकर विभिन्न दिशाओंसे आये हुए
ब्राह्मणोंको संतुष्ट किया था। युधिष्ठिर! भिन्न-भिन्न स्थानोंमें यज्ञ करनेवाले महामना राजा
गयके राज्यकी थोड़ी ही भूमि ऐसी बच गयी थी जहाँ यज्ञके मण्डप न हों ।। १२-१३ ।।
स लोकान प्राप्तवानैन्द्रान् कर्मणा तेन भारत ।
सलोकतां तस्य गच्छेत् पयोष्ण्यां य उपस्पृशेत् ।। १४ ।।
भारत! उस यज्ञकर्मके प्रभावसे गयने इन्द्रादि लोकोंको प्राप्त किया। जो इस पयोष्णी
नदीमें स्नान करता है वह भी राजा गयके समान पुण्यलोकका भागी होता है ।। १४ ।।
तस्मात् त्वमत्र राजेन्द्र भ्रातृभि: सहितो<च्युत ।
उपस्पृश्य महीपाल धूतपाप्मा भविष्यसि ।। १५ ।।
अतः राजेन्द्र! तुम भाइयोंसहित इसमें स्त्रान करके सब पापोंसे मुक्त हो
जाओगे ।। १५ ।।
वैशम्पायन उवाच
स पयोष्ण्यां नरश्रेष्ठ: स्नात्वा वै भ्रातृभि: सह ।
वैदूर्यपर्वतं चैव नर्मदां च महानदीम् ।। १६ ।।
(उदिश्य पाण्डवश्रेष्ठ: स प्रतस्थे महीपति: ।)
समागमत तेजस्वी भ्रातृभि: सहितोडनघ ।
तत्रास्य सर्वाण्याचख्यौ लोमशो भगवानृषि: ।। १७ ।।
तीर्थानि रमणीयानि पुण्यान्यायतनानि च ।
यथायोगं यथाप्रीति प्रययौ भ्रातृभि: सह ।
तत्र तत्राददाद् वित्तं ब्राह्मणेभ्य: सहस्रश: ।। १८ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--निष्पाप जनमेजय! पाण्डवप्रवर नरश्रेष्ठ राजा युधिष्छिर
भाइयोंसहित पयोष्णी नदीमें स्नान करके वैदूर्यपर्वत और महानदी नर्मदाके तटपर जानेका
उद्देश्य लेकर वहाँसे चल दिये और वे तेजस्वी नरेश सब भाइयोंको साथ लिये यथासमय
अपने गन्तव्य स्थानपर पहुँच गये। वहाँ भगवान् लोमश मुनिने उनसे समस्त रमणीय तीथर्थों
और पवित्र देवस्थानोंका परिचय कराया। तत्पश्चात् राजाने अपनी सुविधा और प्रसन्नताके
अनुसार सहसौरों ब्राह्यगोंको धनका दान किया और भाइयोंसहित उन सब स्थानोंकी यात्रा
की || १६--१८ ।।
लोगश उवाच
देवानामेति कौन्तेय तथा राज्ञां सलोकताम् |
वैदूर्यपर्वतं दृष्टवा नर्मदामवतीर्य च ।। १९ ।।
लोमशजीने कहा--कुन्तीनन्दन! वैदूर्यपर्वतका दर्शन करके नर्मदामें उतरनेसे मनुष्य
देवताओं तथा पुण्यात्मा राजाओंके समान पवित्र लोकोंको प्राप्त कर लेता है ।। १९ ।।
संधिरेष नरश्रेष्ठ त्रेताया द्वापरस्य च ।
एनमासाद्य कौन्तेय सर्वपापै: प्रमुच्यते || २० ।।
नरश्रेष्ठ! यह वैदूर्यपर्वत त्रेता और द्वापरकी सन्धिमें प्रकट हुआ है, इसके निकट जाकर
मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है || २० ।।
एष शर्यातियज्ञस्य देशस्तात प्रकाशते ।
साक्षाद् यत्रापिबत् सोममश्रिभ्यां सह कौशिक: ॥। २१ ।।
तात! यह राजा शर्यातिके यज्ञका स्थान प्रकाशित हो रहा है जहाँ साक्षात् इन्द्रने
अश्विनीकुमारोंक साथ बैठकर सोमपान किया था ।। २१ ।।
चुकोप भार्गवश्वापि महेन्द्रस्य महातपा: ।
संस्तम्भयामास च तं वासवं च्यवन: प्रभु: |
सुकन्यां चापि भार्या स राजपुत्रीमवाप्तवान् ।। २२ ।।
(नासत्यौ च महाभाग कृतवान् सोमपीथिनौ ।)
महाभाग! यहीं महातपस्वी भृगुनन्दन भगवान् च्यवन देवराज इन्द्रपर कुपित हुए थे
और यहीं उन्होंने इन्द्रको स्तम्भित भी कर दिया था। इतना ही नहीं, मुनिवर च्यवनने यहीं
अश्विनीकुमारोंको यज्ञमें सोमपानका अधिकारी बनाया था। और इसी स्थानपर राजकुमारी
सुकन्या उन्हें पत्नीरूपमें प्राप्त हुई थी || २२ ।।
युधिछिर उवाच
कथं विष्टम्भितस्तेन भगवान् पाकशासन: ।
किमर्थ भार्गवश्चलापि कोप॑ चक्रे महातपा: ।। २३ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--मुने! महातपस्वी भृगुपुत्र महर्षि च्यवनने भगवान् इन्द्रका स्तम्भन
कैसे किया? उन्हें इन्द्रपर क्रोध किसलिये हुआ? ।। २३ ।।
नासत्यौ च कथं ब्रह्मन् कृतवान् सोमपीथिनौ ।
एतत् सर्व यथावृत्तमाख्यातु भगवान् मम ।। २४ ।।
तथा ब्रह्मन! उन्होंने अश्विनीकुमारोंको यज्ञ़में सोमपानका अधिकारी किस प्रकार
बनाया? ये सब बातें आप यथार्थरूपसे मुझे बतावें || २४ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां सौकन्ये
एकविंशत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १२१ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रसंगमें
युकन्योपाख्यानविषयक एक सौ इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२९ ॥।
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २५ श्लोक हैं)
2.3 अपर () है ०
३. यूपके ऊपरका गोलाकार काष्ठ। २. यूप--यज्ञस्तम्भ। 3. चमस--सोमपानका पात्र। ४. बटलोई। ५. पकी-पकायी
रखनेका सामग्री-पात्र। ६. हविष्य अर्पण करनेका उपकरण। ७. घृत आदिकी आहुति डालनेका साधन।
द्वाविशर्त्याधेकशततमो< ध्याय:
महर्षि च्यवनको सुकन्याकी प्राप्ति
लोगश उवाच
भगोर्महर्षे: पुत्रो5 भूच्च्यवनो नाम भारत |
समीपे सरसस्तस्य तपस्तेपे महाद्युति: ।। १ ।।
स्थाणुभूतो महातेजा वीरस्थानेन पाण्डव ।
अतिष्ठत चिरं कालमेकदेशे विशाम्पते ।। २ ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठिर! महर्षि भृगुके पुत्र च्यवन मुनि हुए, जो महान् तेजस्वी
थे। उन्होंने उस सरोवरके समीप तपस्या आरम्भ की। पाण्डुनन्दन! परम तेजस्वी महात्मा
च्यवन वीरासनसे बैठकर ढूँठे काठके समान जान पड़ते थे। राजन्! वे एक ही स्थानपर
दीर्घकालतक अविचलभावसे बैठे रहे || १-२ ।।
स वल्मीको5भवदृषिर्लताभिरिव संवृतः ।
कालेन महता राजन् समाकीर्ण: पिपीलिकै: ।। ३ ॥।
धीरे-धीरे अधिक समय बीतनेपर उनका शरीर चींटियोंसे व्याप्त हो गया। वे महर्षि
लताओंसे आच्छादित हो गये और बाँबीके समान प्रतीत होने लगे ।। ३ ।।
तथा स संवृतो धीमान् मृत्पिण्ड इव सर्वश: ।
तप्यते सम तपो घोरं वल्मीकेन समावृत: ।। ४ ।।
इस प्रकार लता-वेलोंसे आच्छादित हो बुद्धिमान् च्यवन मुनि सब ओरसे केवल मिट्टीके
लोंदेके समान जान पड़ने लगे। दीमकोंद्वारा जमा की हुई मिट्टीके ढेरसे ढके हुए वे बड़ी
भारी तपस्या कर रहे थे ।। ४ ।।
अथ दीर्घस्य कालस्य शर्यातिर्नाम पार्थिव: |
आजगाम सरो रम्यं विहर्तुमिदमुत्तमम् ।। ५ ।।
इस प्रकार दीर्घकाल व्यतीत होनेपर राजा शर्याति इस उत्तम एवं रमणीय सरोवरके
तटपर विहारके लिये आये ।। ५ ।।
तस्य स्त्रीणां सहस््राणि चत्वार्यासन् परिग्रहे ।
एकैव च सुता सुभ्रू: सुकन्या नाम भारत ।। ६ ।।
युधिष्ठिर! उनके अन्तःपुरमें चार हजार स्त्रियाँ थीं, परंतु संतानके नामपर केवल एक ही
सुन्दरी पुत्री थी, जिसका नाम सुकन्या था ।। ६ |।
सा सर्खीभि: परिवृता दिव्याभरणभूषिता ।
चंक्रम्पमाणा वल्मीकं भार्गवस्य समासदत् ।। ७ ।।
वह कन्या दिव्य वस्त्राभूषणोंसे विभूषित हो सखियोंसे घिरी हुई वनमें इधर-उधर घूमने
लगी। घूमती-घामती वह भृगुनन्दन च्यवनकी बाँबीके पास जा पहुँची ।। ७ ।।
सा वै वसुमतीं तत्र पश्यन्ती सुमनोरमाम् ।
वनस्पतीन् विचिन्वन्ती विजहार सखीवृता ।। ८ ।।
वहाँकी भूमि उसे बड़ी मनोहर दिखायी दी। वह सखियोंके साथ वृक्षोंके फल-फूल
तोड़ती हुई चारों ओर घूमने लगी ।। ८ ।।
रूपेण वयसा चैव मदनेन मदेन च ।
बभज्ज वनवृक्षाणां शाखा: परमपुष्पिता: ।। ९ ।।
तां सखीरहितामेकामेकवस्त्रामलंकृताम् ।
ददर्श भार्गवो धीमांश्वरन्तीमिव विद्युतम् ।। १० ।।
सुन्दर रूप, नयी अवस्था, कामभावके उदय और यौवनके मदसे प्रेरित हो सुकन्याने
उत्तम फूलोंसे भरी हुई वन-वृक्षोंकी बहुत-सी शाखाएँ तोड़ लीं। वह सखियोंका साथ
छोड़कर अकेली टहलने लगी। उस समय उसके शरीरपर एक ही वस्त्र था और वह भाँति-
भाँतिके अलंकारोंसे अलंकृत थी। बुद्धिमान् च्यवन मुनिने उसे देखा। वह चमकती हुई
विद्युतके समान चारों ओर विचर रही थी ।। ९-१० ।।
तां पश्यमानो विजने स रेमे परमद्युति: ।
क्षामकण्ठश्न विप्रर्षिस्तपोबलसमन्वित: ।। ११ ।।
उसे एकान्तमें देखकर परम कान्तिमानू, तपोबल-सम्पन्न एवं दुर्बल कण्ठवाले ब्रह्मर्षि
च्यवनको बड़ी प्रसन्नता हुई ।। ११ ।।
तामाबभाषे कल्याणीं सा चास्य न शृणोति वै ।
ततः: सुकन्या वल्मीके दृष्टवा भार्गवचक्षुषी || १२ ।।
कौतूहलात् कण्टकेन बुद्धिमोहबलात्कृता ।
कि नु खल्विदमित्युक्त्वा निर्बिभेदास्य लोचने ।। १३ ।।
अक्रुध्यत् स तया विद्धे नेत्रे परममन्युमान् ।
ततः शर्यातिसैन्यस्य शकृन्मूत्रे समावृणोत् || १४ ।।
ततो रुद्धे शकन्मूत्रे सैन्यमानाहदु:खितम् ।
तथागतमभ्िप्रेक्ष्य पर्यपृच्छत् स पार्थिव: ।। १५ ।।
तपोनित्यस्य वृद्धस्य रोषणस्य विशेषत: ।
केनापकृतमग्येह भार्गवस्य महात्मन: ।। १६ ।।
ज्ञातं वा यदि वज्ञातं तद् द्रुतं ब्रूत मा चिरम् ।
तमूचु: सैनिका: सर्वे न विद्योड5पकृतं वयम् ।। १७ ।।
उन्होंने उस कल्याणमयी राजकन्याको पुकारा; परंतु वह (त्रह्मर्षिका कण्ठ दुर्बल
होनेके कारण) उनकी आवाज नहीं सुनती थी। उस बाँबीमें मुनिवर च्यवनकी चमकती हुई
आँखोंको देखकर उसे बहुत कौतूहल हुआ। उसकी बुद्धिपर मोह छा गया और उसने विवश
होकर यह कहती हुई कि “देखूँ यह क्या है?” एक काँटेसे उन्हें छेद दिया। उसके द्वारा आँखें
बिंध जानेके कारण परम क्रोधी ब्रह्मर्षि च्यवन अत्यन्त कुपित हो उठे। फिर तो उन्होंने
शर्यातिकी सेनाके मल-मूत्र बंद कर दिये। मल-मूत्रका द्वार बंद हो जानेसे मलावरोधके
कारण सारी सेनाको बहुत दुःख होने लगा। सैनिकोंकी ऐसी अवस्था देखकर राजाने सबसे
पूछा--“यहाँ नित्य-निरन्तर तपस्यामें संलग्न रहनेवाले वयोवृद्ध महामना च्यवन रहते हैं। वे
स्वभावतः बड़े क्रोधी हैं। उनका जानकर या बिना जाने आज किसने अपकार किया है?
जिन लोगोंने भी ब्रह्मर्षिका अपराध किया हो, वे तुरंत सब कुछ बता दें, विलम्ब न करें।'
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तब सम्पूर्ण सैनिकोंने उनसे कहा--“महाराज! हम नहीं जानते कि किसके द्वारा उनका
अपराध हुआ है? ।। १२--१७ ।।
सर्वोपायैर्यथाकामं भवांस्तदधिगच्छतु ।
ततः स पृथिवीपाल: साम्ना चोग्रेण च स्वयम् ।। १८ ।।
पर्यपृच्छत् सुद्ृद्वर्ग पर्यजानन्न चैव ते ।
आनाहार्त ततो दृष्टवा तत्सैन्यमसुखार्दितम् ।। १९ ।।
पितरं दुःखितं दृष्टवा सुकन्येदमथाब्रवीत् ।
मयावन्त्येह वल्मीके दृष्टं सत्व्मभिज्वलत् ।। २० ।।
खद्योतवदभिज्ञातं तनन््मया विद्धमन्तिकात् ।
एतच्छुत्वा तु वल्मीकं शर्यातिस्तूर्णम भ्ययात् ।। २१ ।।
तत्रापश्यत् तपोवृद्धं वयोवृद्धं च भार्गवम् ।
अयाचदथ सैन्यार्थ प्राउ्जलि: पृथिवीपति: ।। २२ ।।
“आप अपनी रुचिके अनुसार सभी उपायोंद्वारा इसका पता लगावें।” तब राजा
शर्यातिने साम और उग्रनीतिके द्वारा सभी सुहृदोंसे पूछा; परंतु वे भी इसका पता न लगा
सके। तदनन्तर सुकन्याने सारी सेनाको मलावरोधके कारण दुःखसे पीड़ित और पिताको
भी चिन्तित देख इस प्रकार कहा--“तात! मैंने इस वनमें घूमते समय एक बाँबीके भीतर
कोई चमकीली वस्तु देखी, जो जुगनूके समान जान पड़ती थी। उसके निकट जाकर मैंने
उसे काँटेसे बींध दिया।” यह सुनकर शर्याति तुरंत ही बाँबीके पास गये। वहाँ उन्होंने
तपस्यामें बढ़े-चढ़े वयोवृद्ध महात्मा च्यवनको देखा और हाथ जोड़कर अपने सैनिकोंका
कष्ट निवारण करनेके लिये याचना की-- || १८--२२ ।।
अज्ञानाद् बालया यत् ते कृतं तत् क्षन्तुमरहसि ।
ततोअब्रवीन्महीपालं च्यवनो भार्गवस्तदा ।। २३ ।।
अपमानादहं विद्धो हानया दर्पपूर्णया ।
रूपौदार्यसमायुक्तां लोभमोहबलात्कृताम् ।। २४ ।।
तामेव प्रतिगृह्माहं राजन् दुहितरं तव ।
क्षंस्यामीति महीपाल सत्यमेतद् ब्रवीमि ते || २५ ।।
“भगवन्! मेरी बालिकाने अज्ञानवश जो आपका अपराध किया है, उसे आप
कृपापूर्वक क्षमा करें।” उनके ऐसा कहनेपर भृगुनन्दन च्यवनने राजासे कहा--“राजन्!
तुम्हारी इस पुत्रीने अहंकारवश अपमानपूर्वक मेरी आँखें फोड़ी हैं, अत: रूप और उदारता
आदि गुणोंसे युक्त तथा लोभ और मोहके वशीभूत हुई तुम्हारी इस कन्याको पत्नीरूपमें
प्राप्त करके ही मैं इसका अपराध क्षमा कर सकता हूँ। भूपाल! यह मैं तुमसे सच्ची बात
कहता हूँ ।। २३--२५ ।।
लोगमश उवाच
ऋषेवचनमाज्ञाय शर्यातिरविचारयन् |
ददौ दुहितरं तस्मै च्यवनाय महात्मने ।। २६ ।।
लोमशजी कहते हैं--च्यवन ऋषिका यह वचन सुनकर राजा शर्यातिने बिना कुछ
विचार किये ही महात्मा च्यवनको अपनी पुत्री दे दी | २६ ।।
प्रतिगृह्य च तां कन््यां भगवान् प्रससाद ह ।
प्राप्पप्रसादो राजा वै ससैन्य: पुरमाव्रजत् ।। २७ ।।
उस राजकन्याको पाकर भगवान् च्यवन मुनि प्रसन्न हो गये। तत्पश्चात् उनका
कृपाप्रसाद प्राप्त करके राजा शर्याति सेनासहित सकुशल अपनी राजधानीको लौट
आये || २७ ।।
सुकन्यापि पतिं लब्ध्वा तपस्विनमनिन्दिता ।
नित्यं पर्यचरत् प्रीत्या तपसा नियमेन च ।। २८ ।।
सुकन्या भी तपस्वी च्यवनको पतिरूपमें पाकर प्रतिदिन प्रेमपूर्वकत तप और नियमका
पालन करती हुई उनकी परिचर्या करने लगी || २८ ।।
अग्नीनामतिथीनां च शुश्रूषुरनसूयिका ।
समाराधयत क्षिप्रं च्यवनं सा शुभानना ।। २९ ।।
सुमुखी सुकन्या किसीके गुणोंमें दोष नहीं देखती थी। वह त्रिविध अग्नियों और
अतिथियोंकी सेवामें तत्पर हो शीघ्र ही महर्षि च्यवनकी आराधनामें लग गयी ।। २९ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां सौकन्ये
द्वाविंशत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १२२ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रसंगमें
युकन्योपाख्यानविषयक एक सौ बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२२ ॥।
हि आय न हुक है 7
त्रयोविशर्त्याधिकशततमो< ध्याय:
अश्विनीकुमारोंकी कृपासे महर्षि च्यवनको सुन्दर रूप और
युवावस्थाकी प्राप्ति
लोगश उवाच
कस्यचित् त्वथ कालस्य त्रिदशावश्चिनौ नृप ।
कृताभिषेकां विवृतां सुकन्यां तामपश्यताम् ।। १ ।।
तां दृष्टवा दर्शनीयाड़ूरीं देवराजसुतामिव ।
ऊचतु: समभिद्रुत्य नासत्यावश्वचिनाविदम् ।। २ ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठि! तदनन्तर कुछ कालके बाद जब एक समय सुकन्या
स्नान कर चुकी थी, उस समय उसके सब अंग ढके हुए नहीं थे। इसी अवस्थामें दोनों
अश्विनीकुमार देवताओंने उसे देखा। साक्षात् देवराज इन्द्रकी पुत्रीके समान दर्शनीय
अंगोंवाली उस राजकन्याको देखकर नासत्यसंज्ञक अश्विनीकुमारोंने उसके पास जा यह
बात कही-- ।॥। १-२ |।
कस्य त्वमसि वामोरु वने5स्मिन् कि करोषि च ।
इच्छाव भगद्रे ज्ञातुं त्वां तत्तमाख्याहि शोभने ।। ३ ।।
“वामोरु! तुम किसकी पुत्री और किसकी पत्नी हो? इस वनमें क्या करती हो? भगद्रे!
हम तुम्हारा परिचय प्राप्त करना चाहते हैं। शोभने! तुम सब बातें ठीक-ठीक
बताओ” | ३ ।।
ततः सुकन्या सब्रीडा तावुवाच सुरोत्तमौ |
शर्यातितनयां वित्तं भार्या मां च्यवनस्थ च ।। ४ ।।
तब सुकन्याने लज्जित होकर उन दोनों श्रेष्ठ देवताओंसे कहा--'देवेश्वरो! आपको
विदित होना चाहिये कि मैं राजा शर्यातिकी पुत्री और महर्षि च्यवनकी पत्नी हूँ ।। ४ ।।
(नाम्ना चाहं सुकन्यास्मि नूलोके5स्मिन् प्रतिष्ठिता
साहं सर्वात्मना नित्यं पतिं प्रति सुनिछिता ।।)
अथाश्रिनौ प्रहस्यैतामब्रूतां पुनरेव तु ।
कथं त्वमसि कल्याणि पित्रा दत्ता गताध्वने ।। ५ ।।
भ्राजसे5स्मिन् वने भीरु विद्युत्सौदामनी यथा |
न देवेष्वपि तुल्यां हि त्वया पश्याव भाविनि ।। ६ ।।
“मेरा नाम इस जगतमें सुकन्या प्रसिद्ध है। मैं सम्पूर्ण हृदयसे सदा अपने पतिदेवके
प्रति निष्ठा रखती हूँ।” यह सुनकर अश्विनीकुमारोंने पुनः हँसते हुए कहा--“कल्याणि!
तुम्हारे पिताने इस अत्यन्त बूढ़े पुरुषके साथ तुम्हारा विवाह कैसे कर दिया? भीरु! इस
वनमें तुम विद्युतकी भाँति प्रकाशित हो रही हो। भामिनि! देवताओंके यहाँ भी तुम-जैसी
सुन्दरीको हम नहीं देख पाते हैं || ५-६ ।।
अनाभरणसम्पन्ना परमाम्बरवर्जिता |
शोभयस्यधिकं भद्रे वनमप्यनलंकृता ।। ७ ।।
“भद्रे! तुम्हारे अंगोंपर आभूषण नहीं है। तुम उत्तम वस्त्रोंसे भी वज्चित हो और तुमने
कोई शुंगार भी नहीं धारण किया है तो भी इस वनकी अधिकाधिक शोभा बढ़ा रही
हो ।। ७ ||
सर्वाभरणसम्पन्ना परमाम्बरधारिणी ।
शोभसे त्वनवद्याज्ि न त्वेवे मलपड़किनी ।। ८ ।।
“निर्दोष अंगोंवाली सुन्दरी! यदि तुम समस्त भूषणोंसे भूषित हो जाओ और अच्छे-
अच्छे वस्त्र पहन लो तो उस समय तुम्हारी जो शोभा होगी, वैसी इस मल और पंकसे युक्त
मलिन वेशमें नहीं हो रही है ।। ८ ।।
कस्मादेवंविधा भूत्वा जराजर्जरितं पतिम् |
त्वमुपास्से ह कल्याणि कामभोगबहिष्कृतम् ।। ९ ।।
“कल्याणि! तुम ऐसी अनुपम सुन्दरी होकर कामभोगसे शून्य इस जरा-जर्जर बूढ़े
पतिकी उपासना कैसे करती हो? ।। ९ ।।
असमर्थ परित्राणे पोषणे तु शुचिस्मिते ।
सा त्वं च्यवनमुत्सृूज्य वरयस्वैकमावयो: ।॥। १० ।।
“पवित्र मुसकानवाली देवि! वह बूढ़ा तो तुम्हारी रक्षा और पालन-पोषणमें भी समर्थ
नहीं है। अतः तुम च्यवनको छोड़कर हम दोनोंमेंसे किसी एकको अपना पति चुन
लो ।। १० ।।
पत्यर्थ देवगर्भाभे मा वृथा यौवन कृथा: ।
एवमुक्ता सुकन्यापि सुरौ ताविदमब्रवीत् ।। ११ ।।
“देवकन्याके समान सुन्दरी राजकुमारी! बूढ़े पतिके लिये अपनी इस जवानीको व्यर्थ न
गँवाओ।” उनके ऐसा कहनेपर सुकन्याने उन दोनों देवताओंसे कहा-- ।। ११ ।।
रताहं च्यवने पत्यौ मैवं मां पर्यशड्कतम् ।
तावब्रूतां पुनस्त्वेनामावां देवभिषग्वरी ।। १२ ।।
युवानं रूपसम्पन्नं करिष्याव: पतिं तव ।
ततस्तस्यावयोश्रैव वृणीष्वान्यतमं पतिम् ।। १३ ।।
एतेन समयेनैनमामन्त्रय पतिं शुभे |
'देवेश्वरो! मैं अपने पतिदेव च्यवनमुनिमें ही पूर्ण अनुराग रखती हूँ, अतः आप मेरे
विषयमें इस प्रकारकी अनुचित आशंका न करें।' तब उन दोनोंने पुनः सुकन्यासे कहा
--'शुभे! हम देवताओंके श्रेष्ठ वैद्य हैं। तुम्हारे पतिको तरुण और मनोहर रूपसे सम्पन्न बना
देंगे। तब तुम हम तीनोंमेंसे किसी एकको अपना पति बना लेना। इस शर्तके साथ तुम चाहो
तो अपने पतिको यहाँ बुला लो” || १२-१३ $ ||
सा तयोर्वचनाद् राजन्नुपसंगम्य भार्गवम् ।। १४ ।।
उवाच वाक्यं यत् ताभ्यामुक्तं भगुसुतं प्रति ।
तच्छुत्वा च्यवनो भार्यामुवाच क्रियतामिति ।। १५ ।।
राजन! उन दोनोंकी यह बात सुनकर सुकन्या च्यवन मुनिके पास गयी और
अश्विनीकुमारोंने जो कुछ कहा था, वह सब उन्हें कह सुनाया। यह सुनकर च्यवनने अपनी
पत्नीसे कहा--प्रिये! देववैद्योंने जैसा कहा है, वैसा करो” || १४-१५ ।।
(सा भर्त्रां समनुज्ञाता क्रियतामिति चाब्रवीत् ।
श्रुत्वा तदश्विनौ वाक््यं तस्यास्तत् क्रियतामिति ।।)
ऊचतू राजपुत्रीं तां पतिस्तव विशत्वप: ।
ततो>म्भश्ष्यवन: शीघ्र रूपार्थी प्रविवेश ह ।। १६ ।।
पतिकी यह आज्ञा पाकर सुकन्याने अश्विनीकुमारोंसे कहा--“आप मेरे पतिको रूप
और यौवनसे सम्पन्न बना दें।! उसका यह कथन सुनकर अश्विनीकुमारोंने राजकुमारी
सुकन्यासे कहा--'तुम्हारे पतिदेव इस जलनमें प्रवेश करें।" तब च्यवन मुनिने सुन्दर रूपकी
अभिलाषा लेकर शीघ्रतापूर्वक उस सरोवरके जलमें प्रवेश किया ।। १६ ।।
अश्विनावपि तद् राजन् सर: प्राविशतां तदा ।
ततो मुहूर्तादुत्तीर्णा: सर्वे ते सरसस्तदा ।। १७ ।।
दिव्यरूपधरा: सर्वे युवानो मृष्टकुण्डला: ।
तुल्यवेषधराश्वैव मनस: प्रीतिवर्धना: ॥। १८ ।।
राजन! उनके साथ ही दोनों अश्विनीकुमार भी उस सरोवरमें प्रवेश कर गये। तदनन्तर
दो घड़ीके पश्चात् वे सब-के-सब दिव्य रूप धारण करके सरोवरसे बाहर निकले। उन
सबकी युवावस्था थी। उन्होंने कानोंमें चमकीले कुण्डल धारण कर रखे थे। वेष-भूषा भी
उनकी एक-सी ही थी और वे सभी मनकी प्रीति बढ़ानेवाले थे || १७-१८ ।।
तेडब्रुवन् सहिता: सर्वे वृणीष्वान्यतमं शुभे ।
अस्माकमीप्सितं भद्रे पतित्वे वरवर्णिनि । १९ ।।
सरोवरसे बाहर आकर उन सबने एक साथ कहा--'शुभे! भद्रे! वरवर्णिनि! हममेंसे
किसी एकको जो तुम्हारी रुचिके अनुकूल हो, अपना पति बना लो ।। १९ |।
यत्र वाप्यभिकामासि त॑ वृणीष्व सुशोभने ।
सा समीक्ष्य तु तान् सर्वास्तुल्यरूपधरान् स्थितान् ।। २० ।।
निश्चित्य मनसा बुद्धया देवी वत्रे स््वकं पतिम् ।
लब्ध्वा तु च्यवनो भार्या वयो रूपं च वाजञ्छितम् ॥। २१ ।।
हृष्टोडब्रवीन्महातेजास्तौ नासत्याविदं वच: ।
यथाहं रूपसम्पन्नो वयसा च समन्वित: ।। २२ ।।
कृतो भवद्धयां वृद्ध: सन् भार्या च प्राप्तवानिमाम् |
तस्माद् युवां करिष्यामि प्रीत्याहं सोमपीथिनौ ।
मिषतो देवराजस्य सत्यमेतद् ब्रवीमि वाम् ।। २३ ।।
“अथवा शोभने! जिसको भी तुम मनसे चाहती होओ, उसीको पति बनाओ।' देवी
सुकन्याने उन सबको एक-जैसा रूप धारण किये खड़े देख मन और बुद्धिसे निश्चय करके
अपने पतिको ही स्वीकार किया। महातेजस्वी च्यवन मुनिने अनुकूल पत्नी, तरुण अवस्था
और मनोवाञ्छित रूप पाकर बड़े हर्षका अनुभव किया और दोनों अश्विनीकुमारोंसे कहा
--आप दोनोंने मुझ बूढ़ेको रूपवान् और तरुण बना दिया, साथ ही मुझे अपनी यह भार्या
भी मिल गयी; इसलिये मैं प्रसन्न होकर आप दोनोंको यज्ञमें देवराज इन्द्रके सामने ही
सोमपानका अधिकारी बना दूँगा। यह मैं आपलोगोंसे सत्य कहता हूँ” || २०--२३ ।।
तच्छुत्वा हृष्टमनसौ दिवं तौ प्रतिजग्मतुः ।
च्यवनश्नव सुकन्या च सुराविव विजद्वतु: । २४ ।।
यह सुनकर दोनों अश्विनीकुमार प्रसन्नचित्त हो देवलोकको लौट गये और च्यवन तथा
सुकन्या देवदम्पतिकी भाँति विहार करने लगे ।। २४ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां सौकन्ये
त्रयोविंशत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १२३ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्चमें लोमशती'र्थयात्राप्रसंगमें
युकन्योपाख्यानविषयक एक सौ तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १२३ ॥।
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल २६ श्लोक हैं)
#::73:.7 #::3:.7 (0) हि २ 7
चतुर्विशर्त्याधेकशततमो< ध्याय:
शर्यातिके यज्ञमें च्यवनका इन्द्रपर कोप करके वज्ञको
स्तम्भित करना और उसे मारनेके लिये मदासुरको उत्पन्न
करना
लोगश उवाच
ततः शुश्राव शर्यातिर्वयस्थं च्यवनं कृतम् ।
सुद्ृष्ट: सेनया सार्धमुपायाद् भार्गवाश्रमम् ।। १ ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठिर! तदनन्तर राजा शर्यातिने सुना कि महर्षि च्यवन
युवावस्थाको प्राप्त हो गये; इस समाचारसे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। वे सेनाके साथ महर्षि
च्यवनके आश्रमपर आये ।। १ ।।
च्यवनं च सुकन्यां च दृष्टवा देवसुताविव ।
रेमे सभार्य: शर्याति: कृत्स्नां प्राप्प महीमिव ।। २ ।।
ऋषिणा सत्कृतस्तेन सभार्य: पृथिवीपति: ।
उपोपविष्ट: कल्याणी: कथाश्षक्रे मनोरमा: ।। ३ ।।
च्यवन और सुकनन््याको देवकुमारोंके समान सुखी देखकर पत्नीसहित शर्यातिको
महान् हर्ष हुआ, मानो उन्हें सम्पूर्ण पृथ्वीका राज्य मिल गया हो। च्यवन ऋषिने
रानियोंसहित राजाका बड़ा आदर-सत्कार किया और उनके पास बैठकर मनको प्रिय
लगनेवाली कल्याणमयी कथाएँ सुनायीं ।। २-३ ।।
अथीैनं भार्गवो राजन्नुवाच परिसान्त्वयन् ।
याजयिष्यामि राजंस्त्वां सम्भारानवकल्पय ।। ४ ।।
युधिष्ठिर! तत्पश्चात् भृूगुनन्दन च्यवनने उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा--'राजन्! मैं
आपसे यज्ञ कराऊँगा। आप सामग्री जुटाइये” ।। ४ ।।
ततः परमसंदहृष्ट: शर्यातिरवनीपति: ।
च्यवनस्य महाराज तदू वाक्यं प्रत्यपूजयत् ।। ५ ।।
महाराज! यह सुनकर राजा शर्याति बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने च्यवन मुनिके उस
वचनकी बड़ी सराहना की ।। ५ ।।
प्रशस्ते5हनि यज्ञीये सर्वकामसमृद्धिमत् ।
कारयामास शर्यातिर्यज्ञायतनमुत्तमम् ।। ६ ।।
तदनन्तर यज्ञके लिये उपयोगी शुभ दिन आनेपर शर्यातिने एक उत्तम यज्ञमण्डप तैयार
करवाया, जो सम्पूर्ण मनोवाञ्छित समृद्धियोंसे सम्पन्न था || ६ ।।
तत्रैनं च्यवनो राजन् याजयामास भार्गव: ।
अद्भुतानि च तत्रासन् यानि तानि निबोध मे । ७ ।।
राजन! भृगुपुत्र च्यवनने उस यज्ञमण्डपमें राजासे यज्ञ करवाया। उस यज्ञमें जो अद्भुत
बातें हुई थीं, उन्हें मुझसे सुनो |। ७ ।।
अगृलह्लाच्च्यवन: सोममश्रिनोर्देवयोस्तदा ।
तमिन्द्रो वारयामास गृह्नानं स तयोग्रहम् ।। ८ ।।
महर्षि च्यवनने उस समय दोनों अश्विनीकुमारों-को देनेके लिये सोमरसका भाग हाथमें
लिया। उन दोनोंके लिये सोमका भाग ग्रहण करते समय इन्द्रने मुनिको मना किया ।। ८ ।।
इन्द्र उवाच
उभावेतौ न सोमार्हौ नासत्याविति मे मति: ।
भिषजोौ दिवि देवानां कर्मणा तेन नाहत: ।। ९ ।।
इन्द्र बोले--मुने! मेरा यह सिद्धान्त है कि ये दोनों अश्विनीकुमार यज्ञमें सोमपानके
अधिकारी नहीं हैं; क्योंकि ये द्युलोकनिवासी देवताओंके वैद्य हैं और उस वैद्यवृत्तिके कारण
ही इन्हें यज्ञमें सोमपानका अधिकार नहीं रह गया है ।। ९ |।
च्यवन उवाच
महोत्साहौ महात्मानौ रूपद्रविणवत्तरौ ।
यौ चक्रतुर्मा मघवन् वृन्दारकमिवाजरम् ॥। १० ।।
ऋते त्वां विबुधांश्वान्यान् कथं वै नाहत: सवम् |
अश्रिनावपि देवेन्द्र देवौ विद्धि पुरंदर || ११ ।॥।
च्यवनने कहा--मघवन! ये दोनों अश्विनीकुमार बड़े उत्साही और महान् बुद्धिमान हैं।
रूप-सम्पत्तिमें भी सबसे बढ़-चढ़कर हैं। इन्होंने ही मुझे देवताओंके समान दिव्य रूपसे
युक्त और अजर बनाया है। देवराज! फिर तुम्हारे या अन्य देवताओंके सिवा इन्हें यज्ञमें
सोमरसका भाग पानेका अधिकार क्यों नहीं है? पुरंदर! इन अश्विनीकुमारोंको भी देवता ही
समझो || १०-११ ||
इन्द्र वाच
चिकित्सकौ कर्मकरौ कामरूपसमन्वितौ ।
लोके चरन्तौ मर्त्यानां कथं सोममिहाहत: ।। १२ ।।
इन्द्र बोले--ये दोनों चिकित्सा-कार्य करते हैं और मनमाना रूप धारण करके
मृत्युलोकमें भी विचरते रहते हैं, फिर इन्हें इस यज्ञमें सोमपानका अधिकार कैसे प्राप्त हो
सकता है? ।। १२ |।
लोगश उवाच
एतदेव यदा वाक्यमाम्रेडयति देवराट् ।
अनादृत्य ततः शक्रं ग्रह जग्राह भार्गव: ।। १३ ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठटिर! जब देवराज इन्द्र बार-बार यही बात दुहराने लगे तब
भृगुनन्दन च्यवनने उनकी अवहेलना करके अश्विनीकुमारोंको देनेके लिये सोमरसका भाग
ग्रहण किया ।। १३ ।।
ग्रहीष्यन्तं तु तं सोममश्रिनोरुत्तमं तदा ।
समीक्ष्य बलभिद् देव इदं वचनमब्रवीत् ।। १४ ।।
उस समय देववैद्योंके लिये उत्तम सोमरस ग्रहण करते देख इन्द्रने च्यवन मुनिसे इस
प्रकार कहा-- ।।
आशभ्यामर्थाय सोम॑ त्वं ग्रहीष्यसि यदि स्वयम् ।
वज्ं ते प्रहरिष्पामि घोररूपमनुत्तमम् ।। १५ ।।
ब्रह्म! यदि तुम इन दोनोंके लिये स्वयं सोमरस ग्रहण करोगे तो मैं तुमपर अपना परम
उत्तम भयंकर वज्र छोड़ दूँगा ।। १५ ।।
एवमुक्त: स्मयन्निन्द्रमभिवीक्ष्य स भार्गव: ।
जग्राह विधिवत् सोममश्रिभ्यामुत्तमं ग्रहम् ।। १६ ।।
उनके ऐसा कहनेपर च्यवन मुनिने मुसकराते हुए इन्द्रकी ओर देखकर
अश्विनीकुमारोंके लिये विधिपूर्वक उत्तम सोमरस हाथमें लिया ।। १६ ।।
ततोअस्मै प्राहरद् वज्ज॑ घोररूपं शचीपति: ।
तस्य प्रहरतो बाहुं स्तम्भयामास भार्गव: ।। १७ ।।
तब शचीपति इन्द्र उनके ऊपर भयंकर वज्र छोड़ने लगे, परंतु वे जैसे ही प्रहार करने
लगे, भृगुनन्दन च्यवनने उनकी भुजाको स्तंभित कर दिया ।। १७ ।।
त॑ स्तम्भयित्वा च्यवनो जुहुवे मन्त्रतो5नलम् ।
कृत्यार्थी सुमहातेजा देवं हिंसितुमुद्यत: ।। १८ ।।
इस प्रकार उनकी भुजा स्तंभित करके महातेजस्वी च्यवन ऋषिने मन्त्रोच्चारणपूर्वक
अग्निमें आहुति दी। वे देवराज इन्द्रको मार डालनेके लिये उद्यत होकर कृत्या उत्पन्न करना
चाहते थे || १८ ।।
ततः कृत्याथ संजज्ञे मुनेस्तस्य तपोबलात् ।
मदो नाम महावीर्यों बृहत्कायो महासुर: ।। १९ ।।
शरीर यस्य निर्देप्टमशक््यं तु सुरासुरै: ।
तस्यास्थमभवद् घोरं तीक्ष्णाग्रदशनं महत् ।। २० ।।
हनुरेका स्थिता त्वस्य भूमावेका दिवं गता ।
चतस्त्रश्नायता दंष्टा योजनानां शतं शतम् ।। २१ ।।
च्यवन ऋषिके तपोबलसे वहाँ कृत्या प्रकट हो गयी। उस कृत्याके रूपमें महापराक्रमी
विशालकाय महादैत्य मदका प्रादुर्भाव हुआ। जिसके शरीरका वर्णन देवता तथा असुर भी
नहीं कर सकते। उस असुरका विशाल मुख बड़ा भयंकर था। उसके आगेके दाँत बड़े तीखे
दिखायी देते थे। उसका ठोड़ीसहित नीचेका ओषछ्ठ धरतीपर टिका हुआ था और दूसरा
स्वर्गलोकतक पहुँच गया था। उसकी चार दाढ़ें सौ-मौ योजनतक फैली हुई थीं || १९--
२१ ||
इतरे तस्य दशना बभूवुर्दशयोजना: ।
प्रासादशिखराकारा: शूलाग्रसमदर्शना: ।। २२ ।।
उस दैत्यके दूसरे दाँत भी दस-दस योजन लम्बे थे। उनकी आकृति महलोंके कँगूरोंके
समान थी। उनका अग्रभाग शूलके समान तीखा दिखलायी देता था || २२ ।।
बाहू पर्वतसंकाशावायतावयुतं समौ |
नेत्रे रविशशिप्रख्ये वकत्रं कालाग्निसंनिभम् ।। २३ ।।
लेलिहज्जिह्नया वक्त्रं विद्युच्चपललोलया ।
व्यात्ताननो घोरदृष्टिग्रसन्निव जगद् बलात् ।। २४ ।।
स भक्षयिष्यन् संक्रुद्ध: शतक्रतुमुपाद्रवत् ।
महता घोररूपेण लोकाउञ्छब्देन नादयन् ।। २५ ।।
दोनों भुजाएँ दो पर्वतोंके समान प्रतीत होती थीं। दोनोंकी लंबाई एक समान दस-दस
हजार योजनकी थी। उसके दोनों नेत्र चन्द्रमा और सूर्यके समान प्रज्वलित हो रहे थे।
उसका मुख प्रलयकालकी अग्निके समान जाज्वल्यमान जान पड़ता था। उसकी
लपलपाती हुई चञ्चल जीभ विद्युतके समान चमक रही थी और उसके द्वारा वह अपने
जबड़ोंको चाट रहा था। उसका मुख खुला हुआ था और दृष्टि भयंकर थी; ऐसा जान पड़ता
था, मानो वह सारे जगत्को बलपूर्वक निगल जायगा। वह दैत्य कुपित हो अपनी अत्यन्त
भयंकर गर्जनासे सम्पूर्ण जगत॒को गुँजाता हुआ इन्द्रको खा जानेके लिये उनकी ओर
दौड़ा | २३--२५ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां सौकन्ये
चतुर्विशत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १२४ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोगशती र्थयात्राके प्रसंगमें
सुकन्योपाख्यानविषयक एक सौ चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२४ ॥।
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पजञ्चविशर्त्याधिकशततमो< ध्याय:
अश्िनीकुमारोंका यज्ञमें भाग स्वीकार कर लेनेपर इन्द्रका
संकट-मुक्त होना तथा लोमशजीके द्वारा अन्यान्य तीर्थोंके
महत्त्वका वर्णन
लोगमश उवाच
तं॑ दृष्टवा घोरवदनं मर्द देव: शतक्रतुः ।
आयान्तं भक्षयिष्यन्तं व्यात्ताननमिवान्तकम् ।। १ ।।
भयात् संस्तम्भितभुज: सृक्किणी लेलिहन् मुहुः ।
ततोअब्रवीद् देवराजश्व्यवनं भयपीडित: ।। २ ।।
सोमाहविश्विनावेतावद्यप्रभृति भार्गव ।
भविष्यत: सत्यमेतद् वचो विप्र: प्रसीद मे ।। ३ ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठिर! मुँह बाये हुए यमराजकी भाँति भयंकर मुखवाले उस
मदासुरको निगलनेके लिये आते देख देवराज इन्द्र भयसे व्याकुल हो गये। जिनकी भुजाएँ
स्तब्ध हो गयी थीं, वे इन्द्र मृत्युके डरसे घबराकर बार-बार ओएष्ठप्रान्त चाटने लगे। उसी
अवस्थामें उन्होंने महर्षि च्यवनसे कहा--'भृगुनन्दन! ये दोनों अश्विनीकुमार आजसे
सोमपानके अधिकारी होंगे। मेरी यह बात सत्य है, अतः आप मुझपर प्रसन्न हों || १--३ ।।
न ते मिथ्या समारम्भो भवत्वेष परो विधि: ।
जानामि चाह ं विप्रर्षे न मिथ्या त्वं करिष्यसि ।। ४ ।।
सोमाहविश्चिनावेतौ यथा वाद्य कृतौ त्वया ।
भूय एव तु ते वीर्य प्रकाशेदिति भार्गव ॥। ५ ।।
सुकन्याया: पितुश्नास्य लोके कीर्ति: प्रथेदिति ।
अतो मयैतद् विहितं तव वीर्यप्रकाशनम् ।। ६ ।।
तस्मात् प्रसाद कुरु मे भवत्वेवं यथेच्छसि ।
“आपके द्वारा किया हुआ यह यज्ञका आयोजन मिथ्या न हो। आपने जो कर दिया वही
उत्तम विधान हो। ब्रह्मर्षे! मैं जानता हूँ, आप अपना संकल्प कभी मिथ्या न होने देंगे। आज
आपने इन अश्विनीकुमारोंको जैसे सोमपानका अधिकारी बनाया है उसी प्रकार मेरा भी
कल्याण कीजिये। भृूगुनन्दन! आपकी अधिक-से-अधिक शक्ति प्रकाशमें आवे तथा
जगत्में सुकन््या और इसके पिताकी कीर्तिका विस्तार हो। इस उद्देश्यसे मैंने यह आपके
बल-वीर्यको प्रकाशित करनेवाला कार्य किया है। अतः आप प्रसन्न होकर मेरे ऊपर कृपा
करें। आप जैसा चाहते हैं, वैसा ही होगा” || ४--६३ ।।
एवमुक्तस्य शक्रेण भार्गवस्य महात्मन: ।। ७ ।।
स मन्युर्व्यगमच्छीघ्रं मुमोच च पुरंदरम् ।
मर्द च व्यभजद् राजन पाने स्त्रीषु च वीर्यवान् ।। ८ ।।
अक्षेषु मृगयायां च पूर्वसृष्टं पुनः पुन: ।
तदा मद विनिक्षिप्य शक्रं संतर्प्प चेन्दुना ।। ९ ।।
अश्रिभ्यां सहितान् देवान् याजयित्वा च त॑ नृपम् ।
विख्याप्य वीर्य लोकेषु सर्वेषु वदतां वर: ।। १० ।।
सुकन्यया सहारण्ये विजहारानुकूलया ।
तस्यैतद् द्विजसंघुष्टं सरो राजन् प्रकाशते ।। ११ ।।
इन्द्रके ऐसा कहनेपर भृगुनन्दन महामना च्यवनका क्रोध शीघ्र शान्त हो गया और
उन्होंने देवेन्द्रको (उसी क्षण) सम्पूर्ण दुःखोंसे, मुक्त कर दिया। राजन! उन शक्तिशाली
ऋषिने मदको, जिसे पहले उन्होंने ही उत्पन्न किया था, मद्यपान, स्त्री, जूआ और मृगया
(शिकार)--इन चार स्थानोंमें पृथक्ू-पृथक् बाँट दिया। इस प्रकार मदको दूर हटाकर उन्होंने
देवराज इन्द्र और अश्विनीकुमारोंसहित सम्पूर्ण देवताओंको सोमरससे तृप्त किया तथा
राजा शर्यातिका यज्ञ पूर्ण कराकर समस्त लोकोंमें अपनी अद्भुत शक्तिको विख्यात करके
वक्ताओंमें श्रेष्ठ च्यवन ऋषि अपनी मनोनुकूल पत्नी सुकन्याके साथ वनमें विहार करने
लगे। युधिष्ठिर! यह जो पक्षियोंके कलरवसे गूँजता हुआ सरोवर सुशोभित हो रहा है, महर्षि
च्यवनका ही है || ७--११ ।।
अत्र त्वं सह सोदर्य: पितृन् देवांश्व॒ तर्पय ।
एतद् दृष्टवा महीपाल सिकताक्षं च भारत ।। १२ ।।
सैन्धवारण्यमासाद्य कुल्यानां कुरु दर्शनम् |
पुष्करेषु महाराज सर्वेषु च जल॑ स्पृश ।। १३ ।।
स्थाणोर्मन्त्राणि च जपन् सिद्धि प्राप्स्यसि भारत ।
संधिद्वयोर्नरश्रेष्ठ त्रेताया द्वापरस्य च ।। १४ ।।
तुम भाइयोंसहित इसमें स्नान करके देवताओं और पितरोंका तर्पण करो। भूपाल!
भरतनन्दन! इस सरोवरका और सिकताक्षतीर्थका दर्शन करके सैन्धवारण्यमें पहुँचकर
वहाँकी छोटी-छोटी नदियोंके दर्शन करना। महाराज! यहाँके सभी तालाबमें जाकर जलका
स्पर्श करो। भारत! स्थाणु (शिव)-के मन्त्रोंका जप करते हुए उन तीर्थोंमें स्नान करनेसे तुम्हें
सिद्धि प्राप्त होगी। नरश्रेष्ठ! यह त्रेता और द्वापरकी संधिके समय प्रकट हुआ तीर्थ है ।। १२
-१४ ।।
अयं हि दृश्यते पार्थ सर्वपापप्रणाशन: ।
अत्रोपस्पृश्य चैव त्वं सर्वपापप्रणाशने ।। १५ ।।
युधिष्ठिर! यह सब पापोंका नाश करनेवाला तीर्थ दिखायी देता है। इस सर्वपापनाशन
तीर्थमें स्नान करके तुम शुद्ध हो जाओगे ।। १५ ।।
आर्चीकपर्वतश्चैव निवासो वै मनीषिणाम् |
सदाफल: सदास्रोतो मरुतां स्थानमुत्तमम् ।। १६ ।।
इसके आगे आर्चीक पर्वत है, जहाँ मनीषी पुरुष निवास करते हैं। वहाँ सदा फल लगे
रहते हैं और निरन्तर पानीके झरने बहते हैं। इस पर्वतपर अनेक देवताओंके उत्तम स्थान
हैं ।। १६ ।।
चैत्याश्वैते बहुविधास्त्रिदशानां युधिष्ठिर ।
एतच्चन्द्रमसस्तीर्थमृषय: पर्युपासते ।
वैखानसा बालखिल्या: पावका वायुभोजना: ।। १७ ||
शृज्भाणि त्रीणि पुण्यानि त्रीणि प्रस्रवणानि च ।
सर्वाण्यनुपरिक्रम्प यथाकाममुपस्पृश ।। १८ ।।
युधिष्ठिर! ये देवताओंके अनेकानेक मन्दिर दिखायी देते हैं, जो नाना प्रकारके हैं। यह
चन्द्रतीर्थ है, जिसकी बहुत-से ऋषिलोग उपासना करते हैं। यहाँ बालखिल्य नामक
वैखानस महात्मा रहते हैं जो वायुका आहार करनेवाले और परम पावन हैं। यहाँ तीन
पवित्र शिखर और तीन झरने हैं। इन सबकी इच्छानुसार परिक्रमा करके स्नान
करो ।। १७-१८ ।।
शान्तनुश्नात्र राजेन्द्र शुनकश्न नराधिप: ।
नरनारायणौ चोभौ स्थान प्राप्ताः:सनातनम् ।। १९ ।।
राजेन्द्र! यहाँ राजा शान्तनु, शुनक और नर-नारायण--ये सभी नित्य धाममें गये
हैं ।। १९ ।।
इह नित्यशया देवा: पितरश्न महर्षिभि: ।
आर्चीकपर्वते तेपुस्तानू यजस्व युधिछिर ।। २० ।।
युधिष्ठिर! इस आर्चीक पर्वतपर नित्य निवास करते हुए महर्षियोंसहित जिन देवताओं
और पितरोंने तपस्या की है, तुम उन सबकी पूजा करो || २० ।।
इह ते वै चरून् प्राश्नन्नषयश्न विशाम्पते ।
यमुना चाक्षयस्रोता कृष्णश्वेह तपोरत: ।। २१ ।।
यमौ च भीमसेनश्व कृष्णा चामित्रकर्शन |
सर्वे चात्र गमिष्यामस्त्वयैव सह पाण्डव ।। २२ ।।
एतत् प्रस्रवर्णं पुण्यमिन्द्रस्य मनुजेश्वर ।
यत्र धाता विधाता च वरुणश्षोर्ध्वमागता: ।। २३ ।।
राजन! यहाँ देवताओं और ऋषियोंने चरुभोजन किया था। इसके पास ही अक्षय
प्रवाहवाली यमुना नदी बहती है। यहीं भगवान् कृष्णने भी तपस्या की है। शत्रुदमन! नकुल,
सहदेव, भीमसेन, द्रौपदी और हम सब लोग तुम्हारे साथ इसी स्थानपर चलेंगे। पाण्डुनन्दन!
यह इन्द्रका पवित्र झरना है। नरेश्वर! यह वही स्थान है जहाँ धाता, विधाता और वरुण
ऊर्ध्वलोक गये हैं | २१--२३ ।।
इह ते5प्यवसन् राजन क्षान्ता: परमधर्मिण: ।
मैत्राणामृजुबुद्धीनामयं गिरिवर: शुभ: ।। २४ ।।
राजन! वे क्षमाशील और परम धर्मात्मा पुरुष यहीं रहते थे। सरल बुद्धि तथा सबके
प्रति मैत्रीभाव रखनेवाले सत्पुरुषोंके लिये यह श्रेष्ठ पर्वत शुभ आश्रय है ।। २४ ।।
एषा सा यमुना राजन् महर्षिगणसेविता ।
नानायज्ञचिता राजन् पुण्या पापभयापहा ॥। २५ ।।
अत्र राजा महेष्वासो मान्धातायजत स्वयम् |
साहदेविश्व कौन्तेय सोमको ददतां वर: ।। २६ ।।
राजन! यही वह महर्षिगणसेवित पुण्यमयी यमुना है जिसके तटपर अनेक यज्ञ हो चुके
हैं। यह पापके भयको दूर भगानेवाली है। कुन्तीनन्दन! यहीं महान् धनुर्धर राजा मान्धाताने
स्वयं यज्ञ किया था। दानिशिरोमणि सहदेव-कुमार सोमकने भी इसीके तटपर यज्ञानुष्ठान
किया ।। २५-२६ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां सौकन्ये
पज्चविंशत्यधिकशततमो< ध्याय: ।। १२५ |।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रसंगमें
युकन्योपाख्यानविषयक एक सौ पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२५ ॥।
हम () अऑणआ आह
षड्विशरत्याधेकशततमो< ध्याय:
राजा मान्धाताकी उत्पत्ति और संक्षिप्त चरित्र
युधिछिर उवाच
मान्धाता राजशार्दूलस्त्रिषु लोकेषु विश्लुत: ।
कथं जातो महाब्रद्यन् यौवनाश्वो नृपोत्तम: ।। १ ।।
युधिष्ठिरने पूछा-ब्राह्मणश्रेष्ठ! युवनाश्वके पुत्र नृपश्रेष्ठ मान्धाता तीनों लोकोंमें
विख्यात थे। उनकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई थी? ।। १ ।।
कथं चैनां परां काष्ठां प्राप्तवानमितद्युति: ।
यस्य लोकास्त्रयो वश्या विष्णोरिव महात्मन: ।। २ ।।
अमित तेजस्वी मान्धाताने यह सर्वोच्च स्थिति कैसे प्राप्त कर ली थी? सुना है,
परमात्मा विष्णुके समान महाराज मान्धाताके वशमें तीनों लोक थे ।। २ ।।
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं चरितं तस्य धीमत:ः ।
(सत्यकीर्तेहि मान्धातु: कथ्यमानं त्वयानघ ।)
यथा मान्धातृशब्दश्न॒ तस्य शक्रसमद्युते: ।
जन्म चाप्रतिवीर्यस्य कुशलो हासि भाषितुम् ।। ३ ।।
निष्पाप महर्षे! मैं आपके मुखसे उन सत्यकीर्ति एवं बुद्धिमान् राजा मान्धाताका वह
सब चरित्र सुनना चाहता हूँ। इन्द्रके समान तेजस्वी और अनुपम पराक्रमी उन नरेशका
'मान्धाता” नाम कैसे हुआ? और उनके जन्मका वृत्तान्त क्या है? बताइये; क्योंकि आप ये
सब बातें बतानेमें कुशल हैं ।। ३ ।।
लोमश उवाच
शृणुष्वावहितो राजनू् राज्ञस्तस्य महात्मन: ।
यथा मान्धातृशब्दो वै लोकेषु परिगीयते ।। ४ ।।
लोमशजीने कहा--राजन्! लोकमें उन महामना नरेशका “*मान्धाता” नाम कैसे
प्रचलित हुआ? यह बतलाता हूँ, ध्यान देकर सुनो ।। ४ ।।
इक्ष्वाकुवंशप्रभवो युवनाश्वो महीपति: ।
सो5यजत् पृथिवीपाल: क्रतुभिर्भूरिदक्षिणै: ।। ५ ।।
इक्ष्वाकुवंशमें युवनाश्व॒ नामसे प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं। भूपाल युवनाश्चने प्रचुर
दक्षिणावाले बहुत-से यज्ञोंका अनुष्ठान किया ।। ५ ।।
अश्वमेधसहस््रं च प्राप्य धर्मभृतां वर: ।
अन्यैश्न क्रतुभिर्मुख्यैरयजत् स्वाप्तदक्षिणै: ।। ६ ।।
वे धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ थे। उन्होंने एक सहस्र अश्वमेधयज्ञ पूर्ण करके बहुत दक्षिणाके
साथ दूसरे-दूसरे श्रेष्ठ यज्ञोंद्वारा भी भगवानकी आराधना की ।। ६ ।।
अनपत्यस्तु राजर्षि: स महात्मा महाव्रत: ।
मन्त्रिष्वाधाय तद् राज्यं वननित्यो बभूव ह ।। ७ ।।
शास्त्रदृष्टेन विधिना संयोज्यात्मानमात्मवान् |
स कदाचिजन्नूपो राजन्नुपवासेन दु:ःखित: ।। ८ ।।
पिपासाशुष्कहृदय: प्रविवेशाश्रमं भृगो: ।
तामेव रात्रि राजेन्द्र महात्मा भुगुनन्दन: ।। ९ ।।
इष्टिं चकार सौद्युम्नेर्महर्षि: पुत्रकारणात् ।
सम्भूृतो मन्त्रपूतेन वारिणा कलशो महान् ॥। १० ।।
वे महामना राजर्षि महान् व्रतका पालन करनेवाले थे तो भी उनके कोई संतान नहीं
हुई। तब वे मनस्वी नरेश राज्यका भार मन्त्रियोंपर रखकर शास्त्रीय विधिके अनुसार अपने-
आपको परमात्म-चिन्तनमें लगाकर सदा वनमें ही रहने लगे। एक दिनकी बात है, राजा
युवनाश्व उपवासके कारण दु:खित हो गये। प्याससे उनका हृदय सूखने लगा। उन्होंने जल
पीनेकी इच्छासे रातके समय महर्षि भूगुके आश्रममें प्रवेश किया। राजेन्द्र! उसी रातमें
महात्मा भृगुनन्दन महर्षि च्यवनने सुद्युम्नकुमार युवनाश्वको पुत्रकी प्राप्ति करानेके लिये
एक इष्टि की थी। उस इष्टिके समय महर्षिने मन्त्रपूत जलसे एक बहुत बड़े कलशको
भरकर रख दिया था || ७--१० ।।
तत्रातिष्ठत राजेन्द्र पूर्वमेव समाहित: ।
यत् प्राश्य प्रसवेत् तस्य पत्नी शक्रसमं सुतम् ।। ११ ।।
महाराज! वह कलशका जल पहलेसे ही आश्रमके भीतर इस उद्देश्यसे रखा गया था
कि उसे पीकर राजा युवनाश्वकी रानी इन्द्रके समान शक्तिशाली पुत्रको जन्म दे
सके ।। ११ ।।
त॑ न्यस्य वेद्यां कलशं सुषुपुस्ते महर्षय: ।
रात्रिजागरणाच्छान्तान् सौद्युम्नि: समतीत्य तान् ।। १२ ।।
उस कलशको वेदीपर रखकर सभी महर्षि सो गये थे। रातमें देरतक जागनेके कारण वे
सब-के-सब थके हुए थे। युवनाश्व उन्हें लाँचघकर आगे बढ़ गये ।। १२ ।।
शुष्ककण्ठ: पिपासार्त: पानीयार्थी भृशं नृप: ।
त॑ प्रविश्याश्रमं शान्त: पानीयं सो5भ्ययाचत ।। १३ ।।
वे प्याससे पीड़ित थे। उनका कण्ठ सूख गया था। पानी पीनेकी अत्यन्त अभिलाषासे
वे उस आश्रमके भीतर गये और शान्तभावसे जलके लिये याचना करने लगे ।। १३ ।।
तस्य श्रान्तस्य शुष्केण कण्ठेन क्रोशतस्तदा ।
नाश्रौषीत् कश्नन तदा शकुनेरिव वाशत: ।। १४ ।।
राजा थककर सूखे कण्ठसे पानीके लिये चिल्ला रहे थे, परंतु उस समय चें-चें
करनेवाले पक्षीकी भाँति उनकी चीख-पुकार कोई भी न सुन सका ।। १४ ।।
ततस्तं कलशं दृष्टवा जलपूर्ण स पार्थिव: ।
अभ्यद्रवत वेगेन पीत्वा चाम्भो व्यवासृजत् ।। १५ ।।
तदनन्तर जलसे भरे हुए पूर्वोक्त कलशपर उनकी दृष्टि पड़ी। देखते ही वे बड़े वेगसे
उसकी ओर दौड़े और (इच्छानुसार) पीकर उन्होंने बचे हुए जलको वहीं गिरा
दिया ।। १५ ।।
स पीत्वा शीतल तोयं पिपासार्तों महीपति: ।
निर्वाणमगमद् धीमान् सुसुखी चाभवत् तदा ।। १६ ।।
राजा युवनाश्व प्याससे बड़ा कष्ट पा रहे थे। वह शीतल जल पीकर उन्हें बड़ी शान्ति
मिली। वे बुद्धिमान् नरेश उस समय जल पीनेसे बहुत सुखी हुए ।। १६ ।।
ततस्ते प्रत्यबुध्यन्त मुनय: सतपोधना: ।
निस्तोयं तं च कलशं ददृशु: सर्व एव ते ।। १७ ।।
तत्पश्चात् तपोधन च्यवन मुनिके सहित सब मुनि जाग उठे। उन सबने उस कलशको
जलसे शून्य देखा ।।
कस्य कर्मेदमिति ते पर्यपृच्छन् समागता: ।
युवनाश्वो ममेत्येवं सत्यं समभिपद्यत ।। १८ ।।
फिर तो वे सब एकत्र हो गये और एक-दूसरेसे पूछने लगे--“यह किसका कर्म है?'
युवनाश्वने सामने आकर कहा--“यह मेरा ही कर्म है।' इस प्रकार उन्होंने सत्यको स्वीकार
कर लिया ।। १८ ।।
न युक्तमिति तं॑ प्राह भगवान् भार्गवस्तदा ।
सुतार्थ स्थापिता ह्यापस्तपसा चैव सम्भूता: ।। १९ ।।
मया द्वात्राहितं ब्रह्म तप आस्थाय दारुणम् |
पुत्रार्थ तव राजर्षे महाबलपराक्रम ।। २० ।।
तब भगवान् च्यवनने कहा--“महान् बल और पराक्रमसे सम्पन्न राजर्षि युवनाश्व! यह
तुमने ठीक नहीं किया। इस कलभमें मैंने तुम्हें ही पुत्र प्रदान करनेके लिये तपस्यासे
संस्कारयुक्त किया हुआ जल रखा था और कठोर तपस्या करके उसमें ब्रह्मतेजकी स्थापना
की थी ।। १९-२० ।।
महाबलो महावीर्यस्तपोबलसमन्वित: ।
य: शक्रमपि वीर्येण गमयेद् यमसादनम् ।। २१ ।।
अनेन विधिना राजन् मयैतदुपपादितम् ।
अब्भक्षणं त्वया राजन् न युक्त कृतमद्य वै ।। २२ ।॥।
“राजन! उक्त विधिसे इस जलको मैंने ऐसा शक्तिसम्पन्न कर दिया था कि इसको
पीनेसे एक महाबली, महापराक्रमी और तपोबल सम्पन्न पुत्र उत्पन्न हो जो अपने बल-
पराक्रमसे देवराज इन्द्रको भी यमलोक पहुँचा सके। उसी जलको तुमने आज पी लिया, यह
अच्छा नहीं किया || २१-२२ ।।
न त्वद्य शक््यमस्माभिरेतत् कर्तुमतो$न्यथा ।
नूनं दैवकृतं होतद् यदेव॑ कृतवानसि ।। २३ ।।
“अब हमलोग इसके प्रभावको टालने या बदलनेमें असमर्थ हैं। तुमने जो ऐसा कार्य
कर डाला है, इसमें निश्चय ही दैवकी प्रेरणा है || २३ ।।
पिपासितेन या: पीता विधिमन्त्रपुरस्कृता: ।
आपस्त्वया महाराज मत्तपोवीर्यसम्भूता: ।। २४ ।।
ताभ्यस्त्वमात्मना पुत्रमीदृ्शं जनयिष्यसि ।
विधास्यामो वयं तत्र तवेष्टिं परमाद्भुताम् ।। २५ ।।
यथा शक्रसमं पुत्र॑ं जनयिष्यसि वीर्यवान् ।
गर्भधारणजं वापि न खेदं समवाप्स्यसि ।। २६ ।।
“महाराज! तुमने प्याससे व्याकुल होकर जो मेरे तपोबलसे संचित तथा विधिपूर्वक
मन्त्रसे अभिमन्त्रित जलको पी लिया है, उसके कारण तुम अपने ही पेटसे तथाकथित
इन्द्रविजयी पुत्रको जन्म दोगे। इस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये हम तुम्हारी इच्छाके अनुरूप
अत्यन्त अद्भुत यज्ञ करायेंगे जिससे तुम स्वयं भी शक्तिशाली रहकर इन्द्रके समान पराक्रमी
पुत्र उत्पन्न कर सकोगे और गर्भधारणजनित कष्टका भी तुम्हें अनुभव न होगा" ॥| २४--
२६ ||
ततो वर्षशते पूर्णे तस्य राज्ञो महात्मन: ।
वाम॑ पार्श्व॑ विनिर्भिद्य सुत: सूर्य इव स्थित: ।। २७ ।।
निश्चक्राम महातेजा न च तं मृत्युराविशत् ।
युवनाश्वचं नरपतिं तदद्भुतमिवाभवत् ।। २८ ।।
तदनन्तर पूरे सौ वर्ष बीतनेपर उन महात्मा राजा युवनाश्वकी बायीं कोख फाड़कर एक
सूर्यके समान महातेजस्वी बालक बाहर निकला तथा राजाकी मृत्यु भी नहीं हुई। यह एक
अद्भुत-सी बात हुई || २७-२८ ।।
तत: शक्रो महातेजास्तं दिदृक्षुरुपागमत् ।
ततो देवा महेन्द्र तमपृच्छन् धास्यततीति किम् ।। २९ |।
तत्पश्चात् महातेजस्वी इन्द्र उस बालकको देखनेके लिये वहाँ आये। उस समय
देवताओंने महेन्द्रसे पूछा--यह बालक क्या पीयेगा? ।। २९ ।।
हल नमः की 20८2 )३४३
प्रदेशिनीं ततो5स्यास्ये शक्र: समभिसंदधे ।
मामयं धास्यतीत्येवं भाषिते चैव वज्चिणा ।। ३० ।।
मान्धातेति च नामास्य चक्रुः सेन्द्रा दिवौकस: ।। ३१ ।।
प्रदेशिनीं शक्रदत्तामास्वाद्य स शिशुस्तदा ।
अवर्धत महातेजा: किष्कून् राजंस्त्रयोदश ।। ३२ ।।
तब इन्द्रने अपनी तर्जनी अंगुली बालकके मुँहमें डाल दी और कहा--“माम् अयं
धाता ।” “अर्थात् यह मुझे ही पीयेगा” वज्रधारी इन्द्रके ऐसा कहनेपर इन्द्र आदि सब
देवताओंने मिलकर उस बालकका नाम “मान्धाता” रख दिया। राजन! इन्द्रकी दी हुई
प्रदेशिनी (तर्जनी) अंगुलिका रसास्वादन करके वह महातेजस्वी शिशु तेरह बित्ता बढ़
गया ।। ३०--३२ ।।
वेदास्तं सथरनुर्वेदा दिव्यान्यस्त्राणि चेश्वरम् |
उपतस्थुर्महाराज ध्यातमात्रस्य सर्वश: ।। ३३ ।।
महाराज! उस समय शक्तिशाली मान्धाताके चिन्तन करनेमात्रसे ही धनुर्वेदसहित
सम्पूर्ण वेद और दिव्य अस्त्र (ईश्वरकी कृपासे) उपस्थित हो गये ।। ३३ ।।
आजगवं नाम धनु: शतः शड्ोेद्धवाश्न ये
अभेद्यं कवचं चैव सद्यस्तमुपशिश्रियु: ।। ३४ ।।
आजगव नामक धनुष, सींगके बने हुए बाण और अभेद्य कवच--सभी तत्काल उनकी
सेवामें आ गये ।।
सो5भिषिक्तो मघवता स्वयं शक्रेण भारत ।
धर्मेण व्यजयल्लोकांस्त्रीन् विष्णुरिव विक्रमै: ।। ३५ ।।
भारत! साक्षात् देवराज इन्द्रने मान्धाताका राज्याभिषेक किया। भगवान् विष्णुने जैसे
तीन पगोंद्वारा त्रिलोकीको नाप लिया था, उसी प्रकार मान्धाताने भी धर्मके द्वारा तीनों
लोकोंको जीत लिया ॥। ३५ |।
तस्याप्रतिहतं चक्र प्रावर्तत महात्मन: ।
रत्नानि चैव राजर्षि स्वयमेवोपतस्थिरे ।। ३६ ।।
उन महात्मा नरेशका शासनचक्र सर्वत्र बेरोक-टोक चलने लगा। सारे रत्न राजर्षि
मान्धाताके यहाँ स्वयं उपस्थित हो जाते थे || ३६ ।।
तस्यैवं वसुसम्पूर्णा वसुधा वसुधाधिप ।
तेनेष्टं विविधैर्यज्ैर्बहुभि: स्वाप्तदक्षिणै: ।। ३७ ।।
युधिष्ठिर! इस प्रकार उनके लिये यह सारी पृथ्वी धन-रत्नोंसे परिपूर्ण थी। उन्होंने
पर्याप्त दक्षिणावाले नाना प्रकारके बहुसंख्यक यज्ञोंद्वारा भगवानकी समाराधना
की ।। ३७ ।।
चितचैत्यो महातेजा धर्मान् प्राप्प च पुष्कलान् |
शक्रस्यार्धासनं राजँल्लब्धवानमितद्युति: ।। ३८ ।।
राजन्! महातेजस्वी एवं परम कान्तिमान् राजा मान्धाताने यज्ञमण्डपोंका निर्माण
करके पर्याप्त धर्मका सम्पादन किया और उसीके फलसे स्वर्गलोकमें इन्द्रका आधा
सिंहासन प्राप्त कर लिया ।। ३८ ।।
एकाहात् पृथिवी तेन धर्मनित्येन धीमता ।
विजिता शासनादेव सरत्नाकरपत्तना ॥। ३९ |।
उन धर्मपरायण बुद्धिमान् नरेशने केवल शासनमात्रसे एक ही दिनमें समुद्र, खान और
नगरोंसहित सारी पृथ्वीपर विजय प्राप्त कर ली ।। ३९ ।।
तस्य चैत्यैर्महाराज क्रतूनां दक्षिणावताम् |
चतुरन्ता मही व्याप्ता नासीत् किंचिदनावृतम् || ४० ।।
महाराज! उनके दक्षिणायुक्त यज्ञोंके चैत्यों (यज्ञमण्डपों)-से चारों ओरकी पृथ्वी भर
गयी थी, कहीं कोई भी स्थान ऐसा नहीं था जो उनके यज्ञमण्डपोंसे घिरा न हो || ४० ।।
तेन पद्मसहसत्राणि गवां दश महात्मना ।
ब्राह्मणानां महाराज दत्तानीति प्रचक्षते ।। ४१ ।।
महाराज! महात्मा राजा मान्धाताने दस हजार पद्म गौएँ ब्राह्मणोंको दानमें दी थीं, ऐसा
जानकार-लोग कहते हैं || ४१ ।।
तेन द्वादशवार्षिक्यामनावृष्ट्यां महात्मना ।
वृष्टं सस्यविवृद्धयर्थ मिषतो वज़पाणिन: ।। ४२ ।।
उन महामना नरेशने बारह वर्षोतक होनेवाली अनावृष्टिके समय वज्रधारी इन्द्रके
देखते-देखते खेतीकी उन्नतिके लिये स्वयं पानीकी वर्षा की थी || ४२ ।।
तेन सोमकुलोत्पन्नो गान्धाराधिपतिर्महान् ।
गर्जन्निव महामेघ: प्रमथ्य निहत: शरै: ।। ४३ ।।
उन्होंने महामेघके समान गर्जते हुए महापराक्रमी चन्द्रवंशी गान्धारराजको बाणोंसे
घायल करके मार डाला था || ४३ ।।
प्रजाश्षतुर्विधास्तेन त्राता राजन् कृतात्मना |
तेनात्मतपसा लोकास्तापिताश्षातितेजसा ।। ४४ ।।
युधिष्ठिर! वे अपने मनको वशमें रखते थे। उन्होंने अपने तपोबलसे देवता, मनुष्य,
तिर्यक् और स्थावर--चार प्रकारकी प्रजाकी रक्षा की थी; साथ ही अपने अत्यन्त तेजसे
सम्पूर्ण लोकोंको संतप्त कर दिया था ।।
तस्यैतद् देवयजनं स्थानमादित्यवर्चस: ।
पश्य पुण्यतमे देशे कुरुक्षेत्रस्य मध्यत: ।। ४५ ।।
(तथा त्वमपि राजेन्द्र मान्धातेव महीपति: ।
धर्म कृत्वा महीं रक्षन् स्वर्गलोकमवाप्स्यसि ।।)
सूर्यके समान तेजस्वी उन्हीं महाराज मान्धाताके देवयज्ञका यह स्थान है जो
कुरुक्षेत्रक्री सीमाके भीतर परम पवित्र प्रदेशमें स्थित है, इसका दर्शन करो। राजेन्द्र!
महाराज मान्धाताकी भाँति तुम भी धर्मपूर्वक पृथ्वीकी रक्षा करते रहनेपर अक्षय स्वर्गलोक
प्राप्त कर लोगे ।।
एतत् ते सर्वमाख्यातं मान्धातुश्चरितं महत् ।
जन्म चाग्रयं महीपाल यन्मां त्वं परिपृच्छसि ।। ४६ ।।
भूपाल! तुम मुझसे जिसके विषयमें पूछ रहे थे, वह मान्धाताका उत्तम जन्मवृत्तान्त
और उनका महान् चरित्र सब कुछ तुम्हें सुना दिया || ४६ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमुक्त: स कौन्तेयो लोमशेन महर्षिणा ।
पप्रच्छानन्तरं भूय: सोमकं प्रति भारत ।। ४७ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--भारत! महर्षि लोमशके ऐसा कहनेपर कुन्तीनन्दन
युधिष्ठिरने पुन: सोमकके विषयमें प्रश्न किया | ४७ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां मान्धातोपाख्याने
षड्विंशत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १२६ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रसंगमें
मान्धातोपाख्यानविषयक एक सौ छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १२६ ॥/
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १६ श्लोक मिलाकर कुल ४८३ “लोक हैं)
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सप्तविशर्त्याधिकशततमो<5 ध्याय:
सोमक और जन्तुका उपाख्यान
युधिछिर उवाच
कथं वीर्य: स राजाभूत् सोमको वदतां वर ।
कर्माण्यस्य प्रभावं च श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ।। १ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--वक्ताओंमें श्रेष्ठ महर्ष! राजा सोमकका बल-पराक्रम कैसा था? मैं
उनके कर्म और प्रभावका यथार्थ वर्णन सुनना चाहता हूँ || १ ।।
लोगश उवाच
युधिष्ठिरासीन्रपति: सोमको नाम धार्मिक: ।
तस्य भार्याशतं राजन् सदृशीनामभूत् तदा ।। २ ।।
लोमशजीने कहा--युधिष्ठिर! सोमक नामसे प्रसिद्ध एक धर्मात्मा राजा राज्य करते
थे। उनकी सौ रानियाँ थीं। वे सभी रूप-अवस्था आदिदमें प्रायः एक समान थीं ।। २ ।।
स वै यत्नेन महता तासु पुत्र महीपति: ।
कंचिन्नासादयामास कालेन महता हापि ।। ३ ॥॥
परंतु दीर्घकालतक महान् प्रयत्न करते रहनेपर भी वे अपनी उन रानियोंके गर्भसे कोई
पुत्र न प्राप्त कर सके ।। ३ ।।
कदाचित् तस्य वृद्धस्य घटमानस्य यत्नतः ।
जन्तुर्नाम सुतस्तस्मिन् स्त्रीशते समजायत ।। ४ ।।
राजा सोमक वृद्धावस्थामें भी इसके लिये निरन्तर यत्नशील थे; अत: किसी समय
उनकी सौ स्ट्रियोंमेंसे किसी एकके गर्भसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम था
जन्तु | ४ ।।
त॑ जातं मातर: सर्वा: परिवार्य समासत ।
सततं पृष्ठतः कृत्वा कामभोगान् विशाम्पते ।। ५ ।।
राजन! उसके जन्म लेनेके पश्चात् सभी माताएँ काम-भोगकी ओरसे मुँह मोड़कर सदा
उसी बच्चेके पास उसे सब ओरसे घेरकर बैठी रहती थीं ।। ५ ।।
ततः पिपीलिका जन््तुं कदाचिददशत् स्फिचि ।
स दष्टो व्यनदन्नादं तेन दुःखेन बालक: ।। ६ ।।
एक दिन एक चींटीने जन्तुके कटिभागमें डँस लिया। चींटीके काटनेपर उसकी पीड़ासे
विकल हो जन्तु सहसा रोने लगा ।। ६ ।।
ततस्ता मातर: सर्वा: प्राक्रोशन् भृशदु:खिता: ।
प्रवार्य जन्तुं सहसा स शब्दस्तुमुलो5भवत् ।। ७ ।।
इससे उसकी सब माताएँ भी सहसा जनन््तुके शरीरसे चींटीको हटाकर अत्यन्त दुखी हो
जोर-जोरसे रोने लगीं। उनके रोदनकी वह सम्मिलित ध्वनि बड़ी भयंकर प्रतीत हुई ।। ७ ।।
तमार्तनादं सहसा शुआ्राव स महीपति: ।
अमात्यपर्षदो मध्ये उपविष्ट: सहर्त्विजा ।। ८ ।।
उस समय राजा सोमक पुरोहितके साथ मन्त्रियोंकी सभामें बैठे थे। उन्होंने अकस्मात्
वह आर्तनाद सुना ।।
ततः प्रस्थापयामास किमेतदिति पार्थिव: ।
तस्मै क्षत्ता यथावृत्तमाचचक्षे सुतं प्रति ।। ९ ।।
सुनकर राजाने “यह क्या हो गया?” इस बातका पता लगानेके लिये द्वारपालको भेजा।
द्वारपालने लौटकर राजकुमारसे सम्बन्ध रखनेवाली पूर्वोक्त घटनाका यथावत् वृत्तान्त कह
सुनाया ।। ९ ।।
त्वरमाण: स चोत्थाय सोमक: सह मन्त्रिभि: ।
प्रविश्यान्त:पुरं पुत्रमाश्चासयदरिंदम: ।॥ १० ।।
तब शत्रुदमन राजा सोमकने मन्त्रियोंसहित उठकर बड़ी उतावलीके साथ अन्तःपुरमें
प्रवेश किया और पुत्रको आश्वासन दिया ।। १० ।।
सान्त्वयित्वा तु त॑ पुत्र निष्क्रम्यान्त:पुरान्रूप: ।
ऋत्विजा सहितो राजन् सहामात्य उपाविशत् ।। १३१ ।।
बेटेको सान्त्वना देकर राजा अन्तःपुरसे बाहर निकले और पुरोहित तथा मन्त्रियोंके
साथ पुनः मन्त्रणा-गृहमें जा बैठे || ११ ।।
सोमक उवाच
धिगस्त्विहैकपुत्रत्वमपुत्रत्वं वरं भवेत् ।
नित्यातुरत्वाद् भूतानां शोक एवैकपुत्रता ॥। १२ ।।
उस समय सोमकने कहा--इस संसारमें किसी पुरुषके एक ही पुत्रका होना
धिक््कारका विषय है। एक पुत्र होनेकी अपेक्षा तो पुत्रहीन रह जाना ही अच्छा है। एक ही
संतान हो तो सब प्राणी उसके लिये सदा आकुल-व्याकुल रहते हैं, अतः एक पुत्रका होना
शोक ही है ।।
इदं भार्याशतं ब्रह्मन् परीक्ष्य सदृशं प्रभो ।
पुत्रार्थिना मया वोढं न तासां विद्यते प्रजा ।। १३ ।।
ब्रह्मन! मैंने अच्छी तरह जाँच-बूझकर पुत्रकी इच्छासे अपने योग्य सौ स्त्रियोंके साथ
विवाह किया, किंतु उनके कोई संतान नहीं हुई ।। १३ ।।
एक: कथंचिदुत्पन्नः पुत्रो जन्तुरयं मम ।
यतमानासु सर्वासु कि नु दुः:खमत: परम् ।। १४ ।।
यद्यपि मेरी सभी रानियाँ संतानके लिये यत्नशील थीं, तथापि किसी तरह मेरे यही एक
पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम जन्तु है। इससे बढ़कर दुःख और क्या हो सकता
है? ।। १४ ।।
वयश्नलू समतीतं मे सभार्यस्य द्विजोत्तम |
आसां प्राणा: समायत्ता मम चात्रैकपुत्रके ।। १५ ।।
द्विजश्रेष्ठ! मेरी तथा इन रानियोंकी अधिक अवस्था बीत गयी, किंतु अभीतक मेरे और
उन पत्नियोंके प्राण केवल इस एक पुत्रमें ही बसते हैं || १५ ।।
स्यात्तु कर्म तथा युक्त येन पुत्रशतं भवेत् ।
महता लघुना वापि कर्मणा दुष्करेण वा ।। १६ ।।
क्या कोई ऐसा उपयोगी कर्म हो सकता है जिससे मेरे सौ पुत्र हो जायँ। भले ही वह
कर्म महान् हो, लघु हो अथवा अत्यन्त दुष्कर हो || १६ ।।
ऋत्विगुवाच
अस्ति चैतादृशं कर्म येन पुत्रशतं भवेत् ।
यदि शक्नोषि तत् कर्तुमथ वक्ष्यामि सोमक ।। १७ ।।
पुरोहितने कहा--सोमक! ऐसा कर्म है जिससे तुम्हें सौ पुत्र हो सकते हैं। यदि तुम
उसे कर सको तो बताऊँगा ।। १७ ।।
सोमक उवाच
कार्य वा यदि वाकार्य येन पुत्रशतं भवेत् ।
कृतमेवेति तद् विद्धि भगवान् प्रब्रवीतु मे ।। १८ ।।
सोमकने कहा--भगवन्! आप वह कर्म मुझे बताइये जिससे सौ पुत्र हो सकते हैं।
वह करनेयोग्य हो या न हो, मेरेद्वारा उसे किया हुआ ही जानिये ।। १८ ।॥।
ऋत्विगुवाच
यजस्व जन्तुना राजंस्त्वं मया वितते क्रतौ ।
ततः पुत्रशतं श्रीमद् भविष्यत्यचिरेण ते ।। १९ ।।
पुरोहितने कहा--राजन्! मैं एक यज्ञ आरम्भ करवाऊँगा, उसमें तुम अपने पुत्र
जन्तुकी आहुति देकर यजन करो। इससे शीघ्र ही तुम्हें सौ परम सुन्दर पुत्र प्राप्त
होंगे ।। १९ ।।
वपायां हूयमानायां धूममाप्राय मातर: ।
ततस्ता: सुमहावीर्याञ्जनयिष्यन्ति ते सुतान् ।। २० ।।
जिस समय उसकी चर्बीकी आहुति दी जायगी उस समय उसके धूएँको सूँघ लेनेपर
सब माताएँ (गर्भवती हो) आपके लिये अत्यन्त पराक्रमी पुत्रोंको जन्म देंगी || २० ।।
तस्यामेव तु ते जन्तुर्भविता पुनरात्मज: ।
उत्तरे चास्य सौवर्ण लक्ष्म पारश्व भविष्यति ।। २३ ।।
आपका पुत्र जन्तु पुनः: अपनी माताके ही पेटसे उत्पन्न होगा। उस समय उसकी बायीं
पसलीमें एक सुनहरा चिह्न होगा || २१ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां जन्तूपाख्याने
सप्तविंशत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १२७ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रसंगमें
जन्तूपाख्यानविषयक एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२७ ॥।
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अष्टाविशर्त्याधेकशततमो< ध्याय:
सोमकको सौ पुत्रोंकी प्राप्ति तथा सोमक और पुरोहितका
समानरूपसे नरक और पुण्यलोकोंका उपभोग करना
सोमक उवाच
ब्रह्मन् यद् यद् यथा कार्य तत् कुरुष्व तथा तथा ।
पुत्रकामतया सर्व करिष्यामि वचस्तव ।। १ ।।
सोमकने कहा--ब्रह्मन! जो-जो कार्य जैसे-जैसे करना हो, वह उसी प्रकार कीजिये।
मैं पुत्रकी कामनासे आपकी समस्त आज्ञाओंका पालन करूँगा ।। १ ।।
लोगमश उवाच
तत: स याजयामास सोमकं तेन जन्तुना |
मातरस्तु बलात् पुत्रमपाकर्षु: कृपान्विता: ॥ २ ।।
हा हता: स्मेति वाशन्त्यस्तीव्रशोकसमाहता: ।
रुदन्त्य: करुणं वापि गृहीत्वा दक्षिणे करे ।। ३ ।।
सव्ये पाणौ गृहीत्वा तु याजको5पि सम कर्षति ।
कुररीणामिवार्तानां समाकृष्य तु त॑ं सुतम् ।। ४ ।।
विशस्य चैनं विधिवद् वपामस्य जुहाव सः ।
वपायां हूयमानायां गन्धमाप्राय मातर: || ५ ।।
आर्ता निपेतु: सहसा पृथिव्यां कुरुनन्दन |
सर्वाश्ष गर्भानलभंस्ततस्ता: परमाड़्ना: ।। ६ ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठिर! तब पुरोहितने राजा सोमकसे जन्तुकी बलि देकर
किये जानेवाले यज्ञको प्रारम्भ करवाया। उस समय करुणामयी माताएँ अत्यन्त शोकसे
व्याकुल हो “हाय! हम मारी गयीं” ऐसा कहकर रोती हुई अपने पुत्र जन्तुको बलपूर्वक
अपनी ओर खींच रही थीं। वे करुण स्वरमें रोती हुई बालकके दाहिने हाथको पकड़कर
खींचती थीं और पुरोहितजी उसके बायें हाथको पकड़कर अपनी ओर खींच रहे थे। सब
रानियाँ शोकसे आतुर हो कुररी पक्षीकी भाँति विलाप कर रही थीं और पुरोहितने उस
बालकको छीनकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले तथा विधिपूर्वक उसकी चर्बियोंकी आहुति
दी। कुरुनन्दन! चर्बीकी आहुतिके समय बालककी माताएँ धूमकी गन्ध सूँघकर सहसा
शोकपीडित हो पृथ्वीपर गिर पड़ीं। तदनन्तर वे सब सुन्दरी रानियाँ गर्भवती हो गयीं ।। २
-५ ||
ततो दशसु मासेषु सोमकस्य विशाम्पते ।
जज्ञे पुत्रशतं पूर्ण तासु सर्वासु भारत ।। ७ ।।
युधिष्ठि!! तदनन्तर दस मास बीतनेपर उन सबके गर्भसे राजा सोमकके सौ पुत्र
हुए || ७ |।
जन्तुर्ज्येष्ठ: समभवज्जनित्र्यामेव पार्थिव ।
स तासामिष्ट एवासीन्न तथा ते निजा: सुता: ।। ८ ।।
राजन्! सोमकका उज्येष्ठ पुत्र जन्तु अपनी माताके ही गर्भसे प्रकट हुआ, वही उन सब
रानियोंको विशेष प्रिय था। उन्हें अपने पुत्र उतने प्यारे नहीं लगते थे ।। ८ ।।
तच्च लक्षणमस्यासीत् सौवर्ण पार्श्व उत्तरे ।
तस्मिन् पुत्रशते चाग्रय: स बभूव गुणैरपि ।। ९ ।।
उसकी दाहिनी पसलीमें पूर्वोक्त सुनहरा चिह्न स्पष्ट दिखायी देता था। राजाके सौ
पुत्रोमें अवस्था और गुणोंकी दृष्टिसे भी वही श्रेष्ठ था ।। ९ ।।
ततः स लोकमगमत् सोमकस्य गुरु: परम् ।
अथ काले व्यतीते तु सोमको5प्यगमत् परम् ।। १० ||
अथ तं नरके घोरे पच्यमानं ददर्श सः ।
तमपृच्छत् किमर्थ त्वं नरके पच्यसे द्विज ।। ११ ।।
तदनन्तर कुछ कालके पश्चात् सोमकके पुरोहित परलोकवासी हो गये। थोड़े दिनोंके
बाद राजा सोमक भी परलोकवासी हो गये। यमलोकमें जानेपर सोमकने देखा, पुरोहितजी
घोर नरककी आगमें पकाये जा रहे हैं। उन्हें उस अवस्थामें देखकर सोमकने पूछा
--“ब्रह्मनन]! आप नरककी आगमें कैसे पकाये जा रहे हैं?” ।।
तमब्रवीद् गुरु: सोडथ पच्यमानो5ग्निना भूशम् |
त्वं मया याजितो राजंस्तस्येदं कर्मण: फलम् ।। १२ ।।
एतच्छुत्वा स राजर्षिध्धर्मराजमथाब्रवीत् ।
अठमत्र प्रवेक्ष्यामि मुच्यतां मम याजक: ।। १३ ।।
मत्कृते हि महाभाग: पच्यते नरकाग्निना ।
(सो5हमात्मानमाधास्ये नरकान्मुच्यतां गुरु: ।)
तब नरकाग्निसे अधिक संतप्त होते हुए पुरोहितने कहा--“राजन! मैंने तुम्हें जो
(तुम्हारे पुत्रकी आहुति देकर) यज्ञ करवाया था, उसी कर्मका यह फल है' यह सुनकर
राजर्षि सोमकने धर्मराजसे कहा--“भगवन्! मैं इस नरकमें प्रवेश करूँगा। आप मेरे
पुरोहितको छोड़ दीजिये। वे महाभाग मेरे ही कारण नरकाग्निमें पक रहे हैं। अतः मैं अपने-
आपको नरकमें रखूँगा, परंतु मेरे गुरुजीको उससे छुटकारा मिल जाना चाहिये” ।। १२-१३
न !
धर्म उवाच
नान्य: कर्तु: फलं राजन्नुपभुड्धक्ते कदाचन ।
इमानि तव दृश्यन्ते फलानि वदतां वर ।॥। १४ ।।
धर्मने कहा--राजन्! कताके सिवा दूसरा कोई उसके किये हुए कर्मोका फल कभी
नहीं भोगता है। वक्ताओंमें श्रेष्ठ महाराज! तुम्हें अपने पुण्यकर्मोंके फलस्वरूप जो ये पुण्य
लोक प्राप्त हुए हैं, प्रत्यक्ष दिखायी देते हैं || १४ ।।
सोमक उवाच
पुण्यान्न कामये लोकानृते<हं ब्रह्मवादिनम् ।
इच्छाम्यहमनेनैव सह वस्तुं सुरालये || १५ ।।
नरके वा धर्मराज कर्मणास्य समो हाहम् ।
पुण्यापुण्यफलं देव सममस्त्वावयोरिदम् ।। १६ ।।
सोमक बोले--धर्मराज! मैं अपने वेदवेत्ता पुरोहितके बिना पुण्यलोकोंमें जानेकी
इच्छा नहीं रखता। स्वर्गलोक हो या नरक--मैं कहीं भी इन्हींके साथ रहना चाहता हूँ। देव!
मेरे पुण्यकर्मोंपर इनका मेरे समान ही अधिकार है। हम दोनोंको यह पुण्य और पापका फल
समानरूपसे मिलना चाहिये ।। १५-१६ ।।
धर्मराज उवाच
यद्येवमीप्सितं राजन् भुड्क्ष्वास्य सहित: फलम् |
तुल्यकालं सहानेन पश्चात् प्राप्स्यसि सदगतिम् ।। १७ ।।
धर्मराज बोले--राजन्! यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो इनके साथ रहकर उतने ही
समयतक तुम भी पापकर्मोंका फल भोगो, इसके बाद तुम्हें उत्तम गति प्राप्त
होगी ।। १७ ।।
लोगश उवाच
स चकार तथा सर्व राजा राजीवलोचन: ।
क्षीणपापश्च तस्मात् स विमुक्तो गुरुणा सह ।। १८ ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठटि! तब कमलनयन राजा सोमकने धर्मराजके
कथनानुसार सब कार्य किया और भोगद्वारा पाप नष्ट हो जानेपर वे पुरोहितके साथ ही
नरकसे छूट गये ।। १८ ।।
लेभे कामाउ्शुभान् राजन् कर्मणा निर्जितान् स्वयम् ।
सह तेनैव विप्रेण गुरुणा स गुरुप्रिय: ।। १९ ।।
तत्पश्चात् उन गुरुप्रेमी नरेशने अपने गुरुके साथ ही पुण्यकर्मोद्वारा स्वयं प्राप्त किये हुए
पुण्य-लोकके शुभ भोगोंका उपभोग किया ।। १९ |।
एष तस्याश्रम: पुण्यो य एषो25ग्रे विराजते ।
क्षान्त उष्यात्र षड्ात्र॑ प्राप्नोति सुगतिं नर: ॥। २० ।।
यह उन्हीं राजा सोमकका पवित्र आश्रम है जो सामने ही सुशोभित हो रहा है। यहाँ
क्षमाशील होकर छ: रात निवास करनेसे मनुष्य उत्तम गति प्राप्त कर लेता है ।।
एतस्मिन्नपि राजेन्द्र वत्स्यामो विगतज्वरा: ।
षड्जात्रं नियतात्मान: सज्जीभव कुरूद्धह ।। २१ ।।
कुरुश्रेष्ठ हम सब लोग इस आश्रममें छ: राततक मन और इन्द्रियोंपर संयम रखते हुए
निश्चिन्त होकर निवास करेंगे। तुम इसके लिये तैयार हो जाओ ।। २१ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां जन्तूपाख्याने
अष्टाविंशत्यधिकशततमो<ध्याय: ॥। १२८ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोगशती र्थयात्राके प्रसंगमें
जन्तूपाख्यानविषयक एक सौ अद्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२८ ॥
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका ३ “लोक मिलाकर कुल २१३ “लोक हैं)
कह. &+( 9) #2५:..# #2:5:.१
एकोनत्रिशर्दाधिकशततमो<् ध्याय:
कुरुक्षेत्रके द्वारभूत प्लक्षप्र्रवण नामक यमुनातीर्थ एवं
सरस्वतीतीर्थकी महिमा
लोगश उवाच
अस्मिन् किल स्वयं राजन्निष्टवान् वै प्रजापति: ।
सत्रमिष्टीकृतं नाम पुरा वर्षमहस्नरिकम् ।। १ ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठिर! पूर्वकालमें यहाँ साक्षात् प्रजापतिने इष्टीकृत नामक
सत्रका एक सहस्र वर्षोतक चालू रहनेवाला अनुष्ठान किया था ।। १ ।।
अम्बरीषश्व नाभाग इष्टवान् यमुनामनु ।
यत्रेष्टवा दश पद्मानि सदस्येभ्योडभिसृष्टवान् ।। २ ।।
यज्ैश्न तपसा चैव परां सिद्धिमवाप सः |
यहीं यमुनाके तटपर नाभागपुत्र अम्बरीषने भी यज्ञ किया था और यज्ञ पूर्ण होनेके
पश्चात् सदस्योंको दस पद्म मुद्राएँ दान की थीं तथा यज्ञों और तपस्याद्वारा परम सिद्धि प्राप्त
कर ली थीं ।। २६ ।।
देशश्व नाहुषस्थायं यज्वन: पुण्यकर्मण: ।। ३ ।।
सार्वभौमस्य कौन्तेय ययातेरमितौजस: ।
स्पर्धमानस्य शक्रेण तस्येदं यज्ञवास्त्विह ।। ४ ।।
कुन्तीनन्दन! यह नहुषकुमार ययातिका देश है, जो पुण्यकर्मा, याज्ञिक, महातेजस्वी
और सार्वभौम सम्राट थे। वे सदा इन्द्रके साथ ईर्ष्या रखते थे। यहाँ यह उन्हींकी यज्ञभूमि
है || ३-४ ।।
पश्य नानाविधाकारैरग्निभिन्निचितां महीम् ।
मज्जन्तीमिव चाक्रान्तां ययातेर्यज्ञकर्मभि: ।। ५ ।।
देखो, यहाँ अग्नियोंसे युक्त नाना प्रकारकी वेदियाँ हैं, जिनसे यह सारी भूमि व्याप्त हो
रही है; मानो पृथ्वी ययातिके यज्ञकर्मोंसे आक्रान्त हो उनकी पुण्य-धारामें डूबी जा रही
है ।। ५ |।
एषा शम्येकपत्रा या सरकं चैतदुत्तमम् |
पश्य रामह्ददानेतान् पश्य नारायणाश्रमम् ।। ६ ।।
यह एक पत्तेवाली शमीका अवशेष अंश है तथा यह उत्तम सरोवर है। देखो, ये
परशुरामजीके कुण्ड हैं और यह नारायणाश्रम है ।। ६ ।।
एतच्चर्चीकपुत्रस्य योगैर्विचरतो महीम् ।
प्रसर्पणं महीपाल रौप्पायाममितौजस: ।। ७ ।।
महाराज! योगशक्तिसे सारी पृथ्वीपर विचरनेवाले महातेजस्वी ऋचीकनन्दन
जमदग्निका प्रसर्पण (घूमने-फिरनेका स्थान) तीर्थ है जो रौप्या नामक नदीके समीप
सुशोभित है || ७ ।।
अन्रानुवंशं पठत: शृणु मे कुरुनन्दन ।
उलूखलैराभरणै: पिशाची यदभाषत ।। ८ ।।
कुरुनन्दन! इस तीर्थके विषयमें एक परम्परा-प्राप्त कथाको सूचित करनेवाले कुछ
श्लोक हैं जिन्हें मैं पढ़ता हूँ, तुम मेरे मुखसे सुनो--(प्राचीनकालकी बात है, कोई स्त्री अपने
पुत्रके साथ इस तीर्थमें निवास करनेके लिये आयी थी, उससे) एक भयंकर पिशाचीने,
जिसने ओखली-जैसे आभूषण पहन रखे थे, उन श्लोकोंको कहा था-- ।। ८ ॥।
युगन्धरे दधि प्राश्य उषित्वा चाच्युतस्थले ।
तद्वद् भूतलये स्नात्वा सपुत्रा वस्तुमरहसि ।। ९ ।।
श्लोक (का भाव) इस प्रकार है--'अरी! तू युगन्धरमें दही खाकर- अच्युतस्थलमें
निवास करकेः* और भूतलयमें नहाकरः यहाँ पुत्रसहित निवास करनेकी अधिकारिणी कैसे
हो सकती है? ॥। ९ ।।
एकरात्रमुषित्वेह द्वितीयं यदि वत्स्यसि |
एतद् वै ते दिवावृत्तं रात्रौ वृत्तमतोडन्यथा ।। १० ।।
(अच्छा, आयी है तो एक रात रह ले,) यदि एक रात यहाँ रह लेनेके पश्चात् दूसरी
रातमें भी रहेगी तो दिनमें तो तेरा यह हाल है (आज दिनमें तो तुमको यह कष्ट दिया गया
है) और रातमें तेरे साथ अन्यथा बर्ताव होगा (विशेष कष्ट दिया जायगा)' ।। १० ।।
अद्य चात्र निवत्स्याम: क्षपां भरतसत्तम ।
द्वारमेतत् तु कौन्तेय कुरुक्षेत्रस्य भारत ।। ११ ।।
भरतश्रेष्ठ! (इस किंवदन्तीके अनुसार किसीको भी यहाँ एक ही रात रहना चाहिये)
अतः हमलोग केवल आजकी रातमें ही यहाँ निवास करेंगे। युधिष्ठिर! यह तीर्थ कुरुक्षेत्रका
द्वार बताया गया है ।। ११ ।।
अत्रैव नाहुषो राजा राजन् क्रतुभिरिष्टवान् ।
ययातिर्बहुरत्नौधैर्यत्रेन्द्रो मुदमभ्यगात् ।। १२ ।।
राजन्! नहुषनन्दन राजा ययातिने यहीं प्रचुर रत्नराशिकी दक्षिणासे युक्त अनेक
यज्ञोंद्वारा भगवानका यजन किया था। उन यज्ञोंमें इन्द्रको बड़ी प्रसन्नता हुई थी ।। १२ ।।
एतत् प्लक्षावतरणं यमुनातीर्थमुत्तमम् ।
एतद् वै नाकपृष्ठस्य द्वारमाहुर्मनीषिण: ।। १३ ।।
यह यमुनाजीका प्लक्षावतरण नामक उत्तम तीर्थ है। मनीषी पुरुष इसे स्वर्गलोकका
द्वार बताते हैं ।। १३ ।।
अत्र सारस्वतैर्यज्नैरीजाना: परमर्षय: ।
यूपोलूखलिकास्तात गच्छन्त्यवभूथप्लवम् ।। १४ ।।
यहीं यूप और ओखली आदि यज्ञ-साधनोंका संग्रह करनेवाले महर्षियोंने सारस्वत
यज्ञोंका अनुष्ठान करके अवभृथ स्नान किया था ।। १४ ।।
अत्र वै भरतो राजा राजन् क्रतुभिरिष्टवान्
हयमेधेन यज्ञेन मेध्यमश्वमवासृजत् ।। १५ ।।
असकृत् कृष्णसारुजूं धर्मेणाप्य च मेदिनीम् ।
अन्रैव पुरुषव्याप्र मरुत्त: सत्रमुत्तमम् ।। १६ ।।
प्राप चैवर्षिमुख्येन संवर्तेनाभिपालित: ।
अत्रोपस्पृश्य राजेन्द्र सर्वाल्लोकान् प्रपश्यति ।
पूयते दुष्कृताच्चैव अत्रापि समुपस्पृश || १७ ।।
राजन! राजा भरतने धर्मपूर्वक वसुधाका राज्य पाकर यहीं बहुत-से यज्ञ किये थे और
यहीं अश्वमेधयज्ञके उद्देश्यसे उन्होंने अनेक बार कृष्णमृगके समान रंगवाले यज्ञसम्बन्धी
श्यामकर्ण अश्वकों भूतलपर भ्रमणके लिये छोड़ा था। नरश्रेष्ठ इसी तीर्थमें ऋषिप्रवर
संवर्तसे सुरक्षित हो महाराज मरुत्तने उत्तम यज्ञका अनुष्ठान किया। राजेन्द्र! यहाँ स्नान
करके शुद्ध हुआ मनुष्य सम्पूर्ण लोकोंको प्रत्यक्ष देखता है और पापसे मुक्त हो पवित्र हो
जाता है; अतः तुम इसमें भी स्नान करो || १५--१७ ।।
वैशम्पायन उवाच
तत्र सभ्रातृकः स्नात्वा स्तूयमानो महर्षिभि: ।
लोमशं पाण्डवश्रेष्ठ इंदे वचनमब्रवीत् । १८ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर भाइयोंसहित स्नान करके
महर्षियोंद्वारा प्रशंसित हो पाण्डवश्रेष्ठ युधिष्ठिरने लोमशजीसे इस प्रकार कहा-- ।। १८ ।।
सर्वाल्लॉकान् प्रपश्यामि तपसा सत्यविक्रम ।
इहस्थ: पाण्डवश्रेष्ठं पश्यामि श्वेतवाहनम् ।। १९ ।।
“मुनीश्वर! तपोबलसे सम्पन्न होनेके कारण वस्तुतः आप ही यथार्थ पराक्रमी हैं।
आपकी कृपासे आज मैं इस प्लक्षावतरणके जलमें स्थित होकर सब लोकोंको प्रत्यक्ष देख
रहा हूँ। यहींसे मुझे पाण्डवश्रेष्ठ श्वेतवाहन अर्जुन भी दिखायी देते हैं ।। १९ ।।
लोगश उवाच
एवमेतन्महाबाहो पश्यन्ति परमर्षय: ।
(इह स्नात्वा तपोयुक्तांस्त्रील्लॉकान् सचराचरान्)
सरस्वतीमिमां पुण्यां पुण्यैकशरणावृताम् ।। २० ।।
लोमशजीने कहा--महाबाहो! तुम ठीक कहते हो। यहाँ स्नान करके तपःशक्तिसम्पन्न
श्रेष्ठ ऋषिगण इसी प्रकार चराचर प्राणियोंसहित तीनों लोकोंका दर्शन करते हैं। अब इस
पुण्यसलिला सरस्वतीका दर्शन करो जो एकमात्र पुण्यका ही आश्रय लेनेवाले पुरुषोंसे घिरी
हुई है | २० ।।
यत्र स्नात्वा नरश्रेष्ठ धूतपाप्मा भविष्यसि ।
इह सारस्वतैयय॑ज्ञैरिष्टवन्त: सुरर्षय: ।
ऋषयश्नैव कौन्तेय तथा राजर्षयोडपि च ।। २३ ।।
नरश्रेष्ठ! इसमें स्नान करनेसे तुम्हारे सारे पाप धुल जायँगे। कुन्तीनन्दन! यहाँ अनेक
देवर्षि, ब्रह्मर्षि तथा राजर्षियोंने सारस्वत यज्ञोंका अनुष्ठान किया है | २१ ।।
वेदी प्रजापतेरेषा समन््तात् पज्चयोजना ।
कुरोर्वे यज्ञशीलस्य क्षेत्रमेतन्न्महात्मन: ।। २२ ।।
यह सब ओर पाँच योजन फैली हुई प्रजापतिकी यज्ञवेदी है। यही यज्ञपरायण महात्मा
राजा कुरुका क्षेत्र है ।। २२ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि
लोमशतीर्थयात्रायामेकोनत्रिंशदधिकशततमो 5 ध्याय: ।। १२९ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्चमें लोमशतीर्थयात्राविषयक एक सौ
उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२९ ॥
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका $ “लोक मिलाकर कुल २२३ “लोक हैं)
>५० #+० () अत हा
- युगन्धर एक पर्वत या प्रदेशका नाम है, जहाँके लोग ऊँटनी और गदहीतकके दूधका दही जमा लेते हैं। उस स्त्रीने
कभी वहाँ जाकर दही खाया था। धर्मशास्त्रमें ऊँट और एक खुरवाले पशुओंके दूधको मदिराके तुल्य बताया गया है
--'ऑऔष्टमेकशफं क्षीरं सुरातुल्यम् ।” इति।
३. प्राचीनकालमें अच्युतस्थल नामक गाँव वर्णसंकरजातीय अन्त्यजों एवं चाण्डालोंका निवासस्थान था। उस स्त्रीने
उस गाँवमें किसी समय निवास किया था। धर्म-शास्त्रके अनुसार वर्णसंकरोंके संसर्गमें आनेपर प्रायश्ित्तरूपसे प्राजापत्य
व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये--'संसृज्य संकरै: सार्ध प्राजापत्य॑ं व्रतं चरेत् ।” इति।
२. 'भूतलय” नामक गाँव चोरों और डाकुओंका अड्डा था। वहाँ एक नदी थी, जिसमें मुर्दे बहाये जाते थे। उस स्त्रीने
उसी दूषित जलमें स्नान किया था। धर्मशास्त्रके अनुसार उस गाँवमें रहनेमात्रसे प्राजापत्य व्रत करनेकी आवश्यकता है
--'प्रोष्य भूतलये विप्र: प्राजापत्यं व्रतं चरेत् ।” इति ।। इन तीनों दोषोंसे युक्त होनेके कारण वह स्त्री तीर्थवासकी
अधिकारिणी नहीं रह गयी थी।
त्रेशरदाधिकशततमो<्ध्याय:
विभिन्न तीर्थोकी महिमा और राजा उशीनरकी कथाका
आरम्भ
लोगश उवाच
इह मर्त्यस्तनूस्त्यक्त्वा स्वर्ग गच्छन्ति भारत ।
मर्तुकामा नरा राजन्निहायान्ति सहस्रश: ।। १ ।।
लोमशजी कहते हैं--भारत! यहाँ शरीर छूट जानेपर मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं;
इसलिये हजारों इस तीर्थमें मरनेके लिये आकर निवास करते हैं ।। १ ।।
एवमाशी: प्रयुक्ता हि दक्षेण यजता पुरा ।
इह ये वै मरिष्यन्ति ते वै स्वर्गजितो नरा: ।। २ ।।
एषा सरस्वती रम्या दिव्या चौधवती नदी ।
एतद् विनशनं नाम सरस्वत्या विशाम्पते ।। ३ ।।
प्राचीनकालमें प्रजापति दक्षने यज्ञ करते समय यह आशीर्वाद दिया था कि जो मनुष्य
यहाँ मरेंगे वे स्वर्गलोकपर अधिकार प्राप्त कर लेंगे। यह रमणीय, दिव्य और तीव्र
प्रवाहवाली सरस्वती नदी है और यह सरस्वतीका विनशन नामक तीर्थ है ।। २-३ ।।
द्वारं निषादराष्ट्रस्य येषां दोषात् सरस्वती ।
प्रविष्टा पृथिवीं वीर मा निषादा हि मां विदु: ।। ४ ।।
एष वै चमसोद्धेदो यत्र दृश्या सरस्वती ।
यत्रैनामभ्यवर्तन्त सर्वा: पुण्या: समुद्रगा: ।। ५ ।।
यह निषादराजका द्वार है। वीर युधिष्ठिर! उन निषादोंके ही संसर्गदोषसे सरस्वती नदी
यहाँ इसलिये पृथ्वीके भीतर प्रविष्ट हो गयी कि निषाद मुझे जान न सकें। यह
चमसोद्धेदतीर्थ है; जहाँ सरस्वती पुनः प्रकट हो गयी है। यहाँ समुद्रमें मिलनेवाली सम्पूर्ण
पवित्र नदियाँ इसके सम्मुख आयी हैं ।। ४-५ ।।
एतत् सिन्धोर्महत् तीर्थ यत्रागस्त्यमरिंदम ।
लोपामुद्रा समागम्य भर्तारमवृणीत वै ।। ६ ।।
शत्रुमन! यह सिन्धुका महान् तीर्थ है; जहाँ जाकर लोपामुद्राने अपने पति
अगस्त्यमुनिका वरण किया था ।। ६ ।।
एतत् प्रकाशते तीर्थ प्रभासं भास्करद़्ुते ।
इन्द्रस्य दयितं पुण्यं पवित्रं पापनाशनम् ।। ७ ।।
सूर्यके समान तेजस्वी नरेश! यह प्रभासतीर्थ- प्रकाशित हो रहा है, जो इन्द्रको बहुत
प्रिय है। यह पुण्यमय क्षेत्र सब पापोंका नाश करनेवाला और परम पवित्र है || ७ ।।
एतदू विष्णुपद॑ं नाम दृश्यते तीर्थमुत्तमम् ।
एषा रम्या विपाशा च नदी परमपावनी ।। ८ ।।
अत्र वै पुत्रशोकेन वसिष्ठो भगवानृषि: ।
बद्ध्वा55त्मानं निपतितो विपाश: पुनरुत्थित: ।। ९ ।।
यह विष्णुपद नामवाला उत्तम तीर्थ दिखायी देता है तथा यह परम पावन और मनोरम
विपाशा (व्यास) नदी है। यहीं भगवान् वसिष्ठ मुनि पुत्रशोकसे पीड़ित हो अपने शरीरको
पाशोंसे बाँधकर कूद पड़े थे, परंतु पुनः विपाश (पाशमुक्त) होकर जलसे बाहर निकल
आये ।। ८-९ ||
काश्मीरमण्डलं चैतत् सर्वपुण्यमरिंदम ।
महर्षिभिश्नाध्युषितं पश्येदं भ्रातृभि: सह ।। १० ।।
यत्रोत्तराणां सर्वेषामृषीणां नाहुषस्य च ।
अम्नेश्लैवात्र संवाद: काश्यपस्य च भारत ।। १३ ।।
शत्रुदमन! यह पुण्यमय काश्मीरमण्डल है, जहाँ बहुत-से महर्षि निवास करते हैं। तुम
भाइयोंसहित इसका दर्शन करो। भारत! यह वही स्थान है जहाँ उत्तरके समस्त ऋषि,
नहुषकुमार ययाति, अग्नि और काश्यपका संवाद हुआ था ।। १०-११ ।।
एतद् द्वारं महाराज मानसस्य प्रकाशते ।
वर्षमस्य गिरेर्मध्ये रामेण श्रीमता कृतम् ।। १२ ।।
महाराज! यह मानससरोवरका द्वार प्रकाशित हो रहा है। इस पर्वतके मध्यभागमें
परशुरामजीने अपना आश्रम बनाया था ।। १२ ।।
एष वातिकषण्डो वै प्रख्यात: सत्यविक्रम: ।
नात्यवर्तत यदद्धारं विदेहादुत्तरं च यः: ।। १३ ।।
युधिष्ठिर! परशुरामजी सर्वत्र विख्यात हैं। वे सत्यपराक्रमी हैं। उनके इस आश्रमका द्वार
विदेह देशसे उत्तर है। यह बवंडर (वायुका तूफान) भी उनके इस द्वारका कभी उल्लंघन
नहीं कर सकता है (फिर औरोंकी तो बात ही क्या है) ।। १३ ।।
इदमाश्चर्यमपरं देशेडस्मिन् पुरुषर्षभ ।
क्षीणे युगे तु कौन्तेय शर्वस्य सह पार्षदै: ।॥ १४ ।।
सहोमया च भवति दर्शनं कामरूपिण: ।
अस्मिन् सरसि सम्रैवैं चैत्रे मासि पिनाकिनम् ।। १५ ।।
यजन्ते याजका: सम्यक् परिवारं शुभार्थिन: ।
अन्रोपस्पृश्य सरसि श्रद्दधानो जितेन्द्रिय: ।। १६ ।।
क्षीणपाप: शुभाल्लोंकान प्राप्तुते नात्र संशय: ।
एष उज्जानको नाम पावकिर्यत्र शान्तवान् |
अरुन्धतीसहायश्व वसिष्ठो भगवानृषि: ।। १७ ।।
नरश्रेष्ठ) इस देशमें दूसरी आश्वर्यकी बात यह है कि यहाँ निवास करनेवाले साधकको
युगके अन्तमें पार्षदों तथा पार्वतीसहित इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले भगवान् शंकरका
प्रत्यक्ष दर्शन होता है। इस सरोवरके तटपर चैत्र मासमें कल्याणकामी याजक पुरुष अनेक
प्रकारके यज्ञोंद्वारा परिवारसहित पिनाकधारी भगवान् शिवकी आराधना करते हैं। इस
तालाबमें श्रद्धापूर्वक स्नान एवं आचमन करके पापमुक्त हुआ जितेन्द्रिय पुरुष शुभ लोकोंमें
जाता है; इसमें संशय नहीं है। यह सरोवर उज्जानक नामसे प्रसिद्ध है। यहाँ भगवान् स्कन्द
तथा अरुन्धतीसहित महर्षि वसिष्ठने साधना करके सिद्धि एवं शान्ति प्राप्त की है ।। १४--
१७ ||
हृदश्न कुशवानेष यत्र पद्म॑ कुशेशयम् |
आश्रमश्चैव रुक्मिण्या यत्राशाम्यदकोपना ।। १८ |।
यह कुशवान् नामक हृद है, जिसमें कुशेशय नामवाले कमल खिले रहते हैं। यहीं
रुक्मिणीदेवीका आश्रम है जहाँ उन्होंने क्रोधको जीतकर शान्तिका लाभ किया था |।
समाधीनां समासस्तु पाण्डवेय श्रुतस्त्वया ।
त॑ द्रक्ष्यसि महाराज भृगुतुड़ंं महागिरिम् ।। १९ ।।
पाण्डुनन्दन! महाराज! तुमने जिसके विषयमें यह सुन रखा है कि वह योगसिद्धिका
संक्षिप्त स्वरूप है--जिसके दर्शनमात्रसे समाधिरूप फलकी प्राप्ति हो जाती है, उस
भगुतुंग नामक महान् पर्वतका अब तुम दर्शन करोगे ।। १९ ।।
वितस्तां पश्य राजेन्द्र सर्वपापप्रमोचनीम् ।
महर्षिभिश्चाध्युषितां शीततोयां सुनिर्मलाम् ।। २० ।।
राजेन्द्र! वितस्ता (झेलम) नदीका दर्शन करो जो सब पापोंसे मुक्त करनेवाली है।
इसका जल बहुत शीतल और अत्यन्त निर्मल है। इसके तटपर बहुत-से महर्षिगण निवास
करते हैं ।। २० ।।
जलां चोपजलां चैव यमुनामभितो नदीम् |
उशीनरो वै यत्रेष्टवा वासवादत्यरिच्यत ।। २१ ।।
यमुना नदीके दोनों पार्श्वमें जला और उपजला नामकी दो नदियोंका दर्शन करो, जहाँ
राजा उशीनरने यज्ञ करके इन्द्रसे भी ऊँचा स्थान प्राप्त किया था || २१ ।।
तां देवसमितिं तस्य वासवश्न विशाम्पते ।
अभ्यागच्छन्नपवरं ज्ञातुमग्निश्च भारत ।। २२ ।।
महाराज भरतनन्दन! नृपश्रेष्ठ उशीनरके महत्त्वको समझनेके लिये किसी समय इन्द्र
और अग्नि उनकी राजसभामें गये ।। २२ ।।
जिज्ञासमानौ वरदौ महात्मानमुशीनरम् ।
इन्द्र: श्येन: कपोतो<ग्निर्भूत्वा यज्ञेडभिजग्मतु: ।। २३ |।
वे दोनों वरदायक महात्मा उस समय उशीनरकी परीक्षा लेना चाहते थे; अतः इन्द्रने
बाज पक्षीका रूप धारण किया और अग्निने कबूतरका। इस प्रकार वे राजाके यज्ञमण्डपमें
गये ।। २३ ।।
ऊरू राज्ञ: समासाद्य कपोत: श्येनजाद भयात् ।
शरणार्थी तदा राजन् निलिल्ये भयपीडित: ।। २४ ।।
अपनी रक्षाके लिये आश्रय चाहनेवाला कबूतर बाजके भयसे डरकर राजाकी गोदीमें
जा छिपा ।। २४ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां श्येनकपोतीये
त्रिंशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १३० ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रसंगमें
श्येनकपोतीयोपाख्यानविषयक एक सौ तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३० ॥।
हि आय न () है
> 'प्रभास' की जगह 'हाटक' पाठभेद भी मिलता है।
एकत्रिशदाधिकशततमो< ध्याय:
राजा उशीनरद्वारा बाजको अपने शरीरका मांस देकर
शरणमें आये हुए कबूतरके प्राणोंकी रक्षा करना
श्येन उवाच
धर्मात्मानं त्वाहुरेकं सर्वे राजन् महीक्षित: ।
सर्वधर्मविरुद्ध त्वं कस्मात् कर्म चिकीर्षसि ।। १ ।।
विहितं भक्षणं राजन् पीड्यमानस्य मे क्षुधा ।
मा रक्षीर्धर्मलो भेन धर्ममुत्सृष्टवानसि ।। २ ।।
तब बाजने कहा--राजन्! समस्त भूपाल केवल आपको ही धर्मात्मा बताते हैं। फिर
आप यह सम्पूर्ण धर्मोंसे विरुद्ध कर्म कैसे करना चाहते हैं। महाराज! मैं भूखसे कष्ट पा रहा
हूँ और कबूतर मेरा आहार नियत किया गया है। आप धर्मके लोभसे इसकी रक्षा न करें।
वास्तवमें इसे आश्रय देकर आपने धर्मका परित्याग ही किया है ।। १-२ ।।
राजोवाच
संत्रस्तरूपस्त्राणार्थी त्वत्तो भीतो महाद्विज ।
मत्सकाशमनुप्राप्त: प्राणगृध्नुर॒यं द्विज: ।। ३ ।।
एवमभ्यागतस्थेह कपोतस्या भयार्थिन: ।
अप्रदाने परं धर्म कथं श्येन न पश्यसि ।। ४ ।।
राजा बोले--पक्षिराज! यह कबूतर तुमसे डरकर घबराया हुआ है और अपने प्राण
बचानेकी इच्छासे मेरे समीप आया है। यह अपनी रक्षा चाहता है। बाज! इस प्रकार अभय
चाहनेवाले इस कबूतरको यदि मैं तुमको नहीं सौंप रहा हूँ, यह तो परम धर्म है। इसे तुम
कैसे नहीं देख रहे हो? ।। ३-४ ।।
प्रस्पन्दमान: सम्भ्रान्त: कपोत: श्येन लक्ष्यते ।
मत्सकाशं जीवितार्थी तस्य त्यागो विगर्हित: ।। ५ ।।
यो हि कश्रिद् द्विजान् हन्याद् गां वा लोकस्य मातरम् ।
शरणागतं च त्यजते तुल्यं तेषां हि पातकम् ॥। ६ ।।
बाज! देखो तो यह बेचारा कबूतर किस प्रकार भयसे व्याकुल हो थर-थर काँप रहा है।
इसने अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये ही मेरी शरण ली है। ऐसी दशामें इसे त्याग देना बड़ी ही
निन्दाकी बात है। जो मनुष्य ब्राह्मणोंकी हत्या करता है, जो जगन्माता गौका वध करता है
तथा जो शरणमें आये हुए को त्याग देता है, इन तीनोंको समान पाप लगता है ।। ५-६ ।।
श्येन उवाच
आहारात् सर्वभूतानि सम्भवन्ति महीपते |
आहारेण विवर्धन्ते तेन जीवन्ति जन्तव: ।। ७ ।।
बाजने कहा--महाराज! सब प्राणी आहारसे ही उत्पन्न होते हैं, आहारसे ही उनकी
वृद्धि होती है और आहारसे ही जीवित रहते हैं ।। ७ ।।
शक््यते दुस्त्यजे<प्यर्थे चिररात्राय जीवितुम् ।
न तु भोजनमुत्सृज्य शक्यं वर्तयितुं चिरम् ।। ८ ।।
जिसको त्यागना बहुत कठिन है, उस अर्थके बिना भी मनुष्य बहुत दिनोंतक जीवित
रह सकता है, परंतु भोजन छोड़ देनेपर कोई भी अधिक समयतक जीवन धारण नहीं कर
सकता ।। ८ ।।
भक्ष्याद् वियोजितस्याद्य मम प्राणा विशाम्पते ।
विसृज्य कायमेष्यन्ति पन्थानमकुतोभयम् ।। ९ ।।
प्रमृते मयि धर्मात्मन् पुत्रदारादि नड्क्ष्यति |
रक्षमाण: कपोतं त्वं बहून् प्राणान् न रक्षसि ।। १० ।।
प्रजानाथ! आज आपने मुझे भोजनसे वंचित कर दिया है, इसलिये मेरे प्राण इस
शरीरको छोड़कर अकुतोभय-पथ ([मृत्यु)-को प्राप्त हो जायँगे। धर्मात्मन्! इस प्रकार मेरी
मृत्यु हो जानेपर मेरे स्त्री-पुत्र आदि भी (असहाय होनेके कारण) नष्ट हो जायँगे। इस तरह
आप एक कबूतरकी रक्षा करके बहुत-से प्राणियोंकी रक्षा नहीं कर रहे हैं || ९-१० ।।
धर्म यो बाधते धर्मो न स धर्म: कुधर्म तत्
अविरोधात् तु यो धर्म: स धर्म: सत्यविक्रम ।। ११ ।।
सत्यपराक्रमी नरेश! जो धर्म दूसरे धर्मका बाधक हो वह धर्म नहीं, कुधर्म है। जो दूसरे
किसी धर्मका विरोध न करके प्रतिष्ठित होता है वही वास्तविक धर्म है ।।
विरोधिषु महीपाल निश्चित्य गुरुलाघवम् ।
न बाधा विद्यते यत्र तं धर्म समुपाचरेत् ।। १२ ।।
परस्परविरुद्ध प्रतीत होनेवाले धर्मोमें गौरव-लाघवका विचार करके, जिसमें दूसरोंके
लिये बाधा न हो उसी धर्मका आचरण करना चाहिये ।। १२ ।।
गुरुलाघवमादाय धर्माधर्मविनिश्चये ।
यतो भूयांस्ततो राजन् कुरुष्व धर्मनिश्चयम् ।। १३ ।।
राजन! धर्म और अधर्मका निर्णय करते समय पुण्य और पापके गौरव-लाघवपर ही
दृष्टि रखकर विचार कीजिये तथा जिसमें अधिक पुण्य हो उसीको आचरणमें लाने योग्य
धर्म ठहराइये ।। १३ ।।
राजोवाच
बहुकल्याणसंयुक्तं भाषसे विहगोत्तम |
सुपर्ण: पक्षिराट् किं त्वं धर्मज्ञश्नास्यसंशयम् ।। १४ ।।
राजाने कहा--पक्षिश्रेष्ठ! तुम्हारी बातें अत्यन्त कल्याणमय गुणोंसे युक्त हैं। तुम
साक्षात् पक्षिराज गरुड़ तो नहीं हो? इसमें संदेह नहीं कि तुम धर्मके ज्ञाता हो ।। १४ ।।
तथा हि धर्मसंयुक्तं बहु चित्र च भाषसे ।
न ते>स्त्यविदितं किंचिदिति त्वां लक्षयाम्पहम् ।। १५ ।।
तुम जो बातें कह रहे हो वे बड़ी ही विचित्र और धर्मसंगत हैं। मुझे लक्षणोंसे ऐसा जान
पड़ता है कि ऐसी कोई बात नहीं है जो तुम्हें ज्ञात न हो ।। १५ ।।
शरणैषिपरित्यागं कथं साध्विति मन्यसे ।
आहारार्थ समारम्भस्तव चायं॑ विहंगम ।। १६ ।।
तो भी तुम शरणागतके त्यागको कैसे अच्छा मानते हो? यह मेरी समझमें नहीं आता।
विहंगम! वास्तवमें तुम्हारा यह उद्योग केवल भोजन प्राप्त करनेके लिये है ।।
शव्यश्चाप्यन्यथा कर्तुमाहारो5प्यधिकस्त्वया |
गोवृषो वा वराहो वा मृगो वा महिषो5पि वा ।
त्वदर्थमद्य क्रियतां यच्चान्यदिह काड्क्षसि ।। १७ ।।
परंतु तुम्हारे लिये आहारका प्रबन्ध तो दूसरे प्रकारसे भी किया जा सकता है और वह
इस कबूतरकी अपेक्षा अधिक हो सकता है। सूअर, हिरन, भैंसा या कोई उत्तम पशु अथवा
अन्य जो कोई भी वस्तु तुम्हें अभीष्ट हो वह तुम्हारे लिये प्रस्तुत की जा सकती है ।। १७ ।।
श्येन उवाच
न वराहं न चोक्षाणं न मृगान् विविधांस्तथा ।
भक्षयामि महाराज कि ममान्येन केनचित् ॥। १८ ।।
बाज बोला--महाराज! मैं न सूअर खाऊँगा, न कोई उत्तम पशु और न भाँति-भाँतिके
मृगोंका ही आहार करूँगा। दूसरी किसी वस्तुसे भी मुझे क्या लेना है? ।।
यस्तु मे देवविहितो भक्ष:ः क्षत्रियपुड़व ।
तमुत्सूज महीपाल कपोतमिममेव मे ।। १९ ।।
क्षत्रियशिरोमणे! विधाताने मेरे लिये जो भोजन नियत किया है वह तो यह कबूतर ही
है; अत: भूपाल! इसीको मेरे लिये छोड़ दीजिये || १९ ।।
श्येन: कपोतानत्तीति स्थितिरेषा सनातनी ।
मा राजन् सारमज्ञात्वा कदलीस्कन्धमाश्रय ।। २० ।।
यह सनातन कालसे चला आ रहा है कि बाज कबूतरोंको खाता है। राजन! धर्मके
सारभूत तत्त्वको न जानकर आप केलेके खम्भे (-जैसे सारहीन धर्म) का आश्रय न
लीजिये || २० ।॥।
राजोवाच
राष्ट्र शिबीनामृद्धं वै ददानि तव खेचर ।
यं वा कामयसे कामं॑ श्येन सर्व ददानि ते |। २१ ।।
राजाने कहा--विहंगम! मैं शिविदेशका समृद्धिशाली राज्य तुम्हें सौंप दूँगा, और भी
जिस वस्तुकी तुम्हें इच्छा होगी वह सब दे सकता हूँ || २१ ।।
विनेम॑ पक्षिणं श्येन शरणार्थिनमागतम् ।
येनेम॑ वर्जयेथास्त्वं कर्मणा पक्षिसत्तम ।
तदाचक्ष्व करिष्यामि न हि दास्ये कपोतकम् ।। २२ ।।
किंतु शरण लेनेकी इच्छासे आये हुए इस पक्षीको नहीं त्याग सकता। पक्षिश्रेष्ठ श्येन!
जिस कामके करनेसे तुम इसे छोड़ सको, वह मुझे बताओ; मैं वही करूँगा, किंतु इस
कबूतरको तो नहीं दूँगा || २२ ।।
श्येन उवाच
उशीनर कपोते ते यदि स्नेहो नराधिप ।
आत्मनो मांसमुत्कृत्य कपोततुलया धृतम् ।। २३ ।।
यदा सम॑ कपोतेन तव मांसं नृपोत्तम |
तदा देयं तु तन्महां सा मे तुष्टिर्भविष्यति ॥। २४ ।।
बाज बोला--महाराज उशीनर! यदि आपका इस कबूतरपर स्नेह है तो इसीके बराबर
अपना मांस काटकर तराजूमें रखिये। नृपश्रेष्ठी जब वह तौलमें इस कबूतरके बराबर हो
जाय तब वही मुझे दे दीजियेगा, उससे मेरी तृप्ति हो जायगी || २३-२४ ।।
शरीरका मांस काटकर देना
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राजा
अनुग्रहमिमं मन्ये श्येन यन्माभियाचसे ।
तस्मात् तेड्द्य प्रदास्यामि स्वमांसं तुलया धृतम् ।। २५ ।।
राजाने कहा--बाज! तुम जो मेरा मांस माँग रहे हो इसे मैं अपने ऊपर तुम्हारी बहुत
बड़ी कृपा मानता हूँ, अतः मैं अभी अपना मांस तराजूपर रखकर तुम्हें दिये देता
हूँ ।। २५ ।।
लोगमश उवाच
उत्कृत्य स स्वयं मांसं राजा परमधर्मवित् |
तोलयामास कौन्तेय कपोतेन सम॑ विभो ।। २६ ।।
लोमशजी कहते हैं--कुन्तीनन्दन! तत्पश्चात् परम धर्मज्ञ राजा उशीनरने स्वयं अपना
मांस काटकर उस कबूतरके साथ तौलना आरम्भ किया ।। २६ ||
पुनश्चोत्कृत्य मांसानि राजा प्रादादुशीनर: || २७ ।।
न विद्यते यदा मांसं कपोतेन सम॑ धृतम् ।
तत उत्कृत्तमांसोडसावारुरोह स्वयं तुलाम् ।। २८ ।।
किंतु दूसरे पलड़ेमें रखा हुआ कबूतर उस मांसकी अपेक्षा अधिक भारी निकला, तब
महाराज उशीनरने पुनः अपना मांस काटकर चढ़ाया। इस प्रकार बार-बार करनेपर भी जब
वह मांस कबूतरके बराबर न हुआ, तब सारा मांस काट लेनेके पश्चात् वे स्वयं ही तराजूपर
चढ़ गये ।। २७-२८ ।।
श्येन उवाच
इन्द्रोडहमस्मि धर्मज्ञ कपोतो हव्यवाडयम् ।
जिज्ञासमानोौ धर्म त्वां यज्ञवाटमुपागतौ ।। २९ ।।
बाज बोला--धर्मज्ञ नरेश! मैं इन्द्र हूँ और यह कबूतर साक्षात् अग्निदेव हैं। हम दोनों
आपके धर्मकी परीक्षा लेनेके लिये इस यज्ञशालामें आपके निकट आये थे ।।
यत् ते मांसानि गात्रेभ्य उत्कृत्तानि विशाम्पते ।
एषा ते भास्वती कीर्तिलोकानभिभविष्यति ।। ३० ।।
प्रजानाथ! आपने अपने अंगोंसे जो मांस काटकर चढ़ाये हैं, उससे फैली हुई आपकी
प्रकाशमान कीर्ति सम्पूर्ण लोगोंसे बढ़कर होगी ।। ३० ।।
यावल्लोके मनुष्यास्त्वां कथयिष्यन्ति पार्थिव ।
तावत् कीर्तिश्व लोकाश्च स्थास्यन्ति तव शाश्वता: ।। ३१ ।।
राजन! संसारके मनुष्य इस जगत्में जबतक आपकी चर्चा करेंगे, तबतक आपकी
कीर्ति और सनातन लोक स्थिर रहेंगे || ३१ ।।
इत्येवमुक्त्वा राजानमारुरोह दिवं पुन: ।
उशीनरोअपि धर्मात्मा धर्मेणावृत्य रोदसी ।। ३२ |।
विभ्राजमानो वपुषाप्यारुरोह त्रिविष्टपम् ।
तदेतत् सदन राजन् राज्ञस्तस्य महात्मन: ।। ३३ ।।
पश्यस्वैतन्मया सार्ध पुण्यं पापप्रमोचनम् ।
तत्र वै सततं देवा मुनयश्व॒ सनातना: ।
दृश्यन्ते ब्राह्मणै राजन् पुण्यवद्भिर्महात्मभि: ।। ३४ ।।
राजासे ऐसा कहकर इन्द्र फिर देवलोकमें चले गये तथा धर्मात्मा राजा उशीनर भी
अपने धर्मसे पृथ्वी और आकाशको व्याप्त कर देदीप्यमान शरीर धारण करके स्वर्गलोकमें
चले गये। राजन्! यही उन महात्मा राजा उशीनरका आश्रम है जो पुण्यजनक होनेके साथ
ही समस्त पापोंसे छुटकारा दिलानेवाला है। तुम मेरे साथ इस पवित्र आश्रमका दर्शन करो।
महाराज! वहाँ पुण्यात्मा महात्मा ब्राह्मणोंको सदा सनातन देवता तथा मुनियोंका दर्शन
होता रहता है || ३२-३४ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां श्येनकपोतीये
एकत्रिंशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १३१३१ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपवके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशतीर्थयात्राके प्रसंगमें
श्येनकपोतीयोपाख्यानविषयक एक सौ इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३१ ॥
अपना स२ (0 अवज असल
द्वात्रिशर्दाधिकशततमो< ध्याय:
अष्टावक्रके जन्मका वृत्तान्त और उनका राजा
जनकके दरबारमें जाना
लोगमश उवाच
यः कथ्यते मन्त्रविदग्थबुद्धि-
रौद्दालकि: श्वेतकेतु: पृथिव्याम् ।
तस्याश्रमं पश्य नरेन्द्र पुण्यं
सदाफलैरुपपन्न महीजै: ।। १ ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठिर! उद्दालकके पुत्र श्वेतकेतु हो गये हैं, जो इस
भूतलपर मन्त्र-शास्त्रमें अत्यन्त निपुण कहे जाते थे, देखो यह पवित्र आश्रम
उन्हींका है। जो सदा फल देनेवाले वृक्षोंसे हरा-भरा दिखायी देता है || १ ।।
साक्षादत्र श्वेतकेतुर्ददर्श
सरस्वती मानुषदेहरूपाम् |
वेत्स्यामि वाणीमिति सम्प्रवृत्तां
सरस्वती श्वेतकेतुर्बभाषे ।। २ ।।
इस आश्रममें श्वेतकेतुने मानवरूपधारिणी सरस्वती देवीका प्रत्यक्ष दर्शन
किया था और अपने निकट आयी हुई उन सरस्वतीसे यह कहा था कि “मैं
वाणीस्वरूपा आपके तत्त्वको यथार्थरूपसे जानना चाहता हूँ ।। २ ।।
तस्मिन् युगे ब्रह्मकृतां वरिष्ठा-
वास्तां मुनी मातुलभागिनेयौ ।
अष्टावक्रश्वचैव कहोडसूनु-
रौद्दालकि: श्वेतकेतु: पृथिव्याम् ।। ३ ।।
उस युगमें कहोड मुनिके पुत्र अष्टावक्र और उद्दालकनन्दन श्वेतकेतु ये दोनों
महर्षि समस्त भूमण्डलके वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ थे। वे आपसमें मामा और भानजा
लगते थे (इनमें श्वेतकेतु ही मामा था) ।। ३ ।।
विदेहराजस्य महीपतेस्तौ
विप्रावुभी मातुलभागिनेयौ ।
प्रविश्य यज्ञायतनं विवादे
बर्न्दि निजग्राहतुरप्रमेयौ ।। ४ ।।
एक समय वे दोनों मामा-भानजे विदेहराजके यज्ञमण्डपमें गये। दोनों ही
ब्राह्मण अनुपम विद्दान् थे। वहाँ शास्त्रार्थ होनेपर उन दोनोंने अपने (विपक्षी)
बन्दीको जीत लिया ।। ४ ।।
उपास्स्व कौन्तेय सहानुजस्त्व॑
तस्याश्रमं पुण्यतमं प्रविश्य ।
अष्टाकक्रं यस्य दौहित्रमाहु-
यॉ5सौ बरन्दि जनकस्याथ यज्ञे ।। ५ ।।
वादी विप्राग्रयो बाल एवाभिगम्य
वादे भड़कत्वा मज्जयामास नद्याम् ।। ६ ।।
कुन्तीनन्दन! विप्रशिरोमणि अष्टावक्र वाद-विवादमें बड़े निपुण थे। उन्होंने
बाल्यावस्थामें ही महाराज जनकके यज्ञमण्डपमें पधारकर अपने प्रतिवादी
बन्दीको पराजित करके नदीमें डलवा दिया था। वे अष्टावक्र मुनि जिन महात्मा
उद्दालकके दौहित्र (नाती) बताये जाते हैं, उन््हींका यह परम पवित्र आश्रम है।
तुम अपने भाइयोंसहित इसमें प्रवेश करके कुछ देरतक उपासना
(भगवच्चिन्तन) करो ।। ५-६ ||
युधिछिर उवाच
कथ्थंप्रभाव: स बभूव विप्र-
स्तथाभूतं यो निजग्राह बन्दिम् ।
अष्टावक्र: केन चासौ बभूव
तत् सर्व मे लोमश शंस तत्त्वम् ।। ७ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--लोमशजी! उन ब्रह्मर्षिका कैसा प्रभाव था, जिन्होंने
बन्दी-जैसे सुप्रसिद्ध विद्वानको भी जीत लिया। वे किस कारणसे अष्टावक्र
(आठों अड्ोंसे टेढ़े-मेढ़े) हो गये। ये सब बातें मुझे यथार्थरूपसे बताइये ।। ७ ।।
लोगश उवाच
उद्दालकस्य नियत: शिष्य एको
नाम्ना कहोड इति विश्लुतो5भूत् ।
शुश्रूषुराचार्यवशानुवर्ती
दीर्घ कालं सो5ध्ययनं चकार ॥। ८ ।।
लोमशजीने कहा--राजन्! महर्षि उद्दालकका कहोड नामसे विख्यात एक
शिष्य था जो बड़े संयम-नियमसे रहकर आचार्यकी सेवा किया करता था। उसने
गुरुकी आज्ञाके अंदर रहकर दीर्घकालतक अध्ययन किया ।। ८ ।।
त॑ वै विप्र: पर्यचरत् सशिष्य-
स््तां च ज्ञात्वा परिचर्या गुरु: सः ।
तस्मै प्रादात् सद्य एव श्रुतं च
भार्या च वै दुहितरं स्वां सुजाताम् ।। ९ ।।
विप्रवर “कहोड' एक विनीत शिष्यकी भाँति उद्दालक मुनिकी परिचर्यामें
संलग्न रहते थे। गुरुने शिष्यकी उस सेवाके महत्त्वको समझकर शीघ्र ही उन्हें
सम्पूर्ण वेद-शास्त्रोंका ज्ञान करा दिया और अपनी पुत्री सुजाताको भी उन्हें
पत्नीरूपसे समर्पित कर दिया || ९ |।
तस्या गर्भ: समभवदग्निकल्प:
सो<धीयानं पितरं चाप्युवाच ।
सर्वा रात्रिमध्ययनं करोषि
नेदं पितः सम्यगिवोपवर्तते ।। १० ।॥<
कुछ कालके बाद सुजाता गर्भवती हुई, उसका वह गर्भ अग्निके समान
तेजस्वी था। एक दिन स्वाध्यायमें लगे हुए अपने पिता कहोड मुनिसे उस
गर्भस्थ बालकने कहा, “पिताजी! आप रातभर वेदपाठ करते हैं तो भी आपका
वह अध्ययन अच्छी प्रकारसे शुद्ध उच्चारणपूर्वक नहीं हो पाता” || १० ।॥।
उपालब्ध: शिष्यमध्ये महर्षि:
स त॑ं कोपादुदरस्थं शशाप ।
यस्मात् कुक्षौ वर्तमानो ब्रवीषि
तस्माद् वक्रो भवितास्यष्टकृत्व: ।। ११ ।।
शिष्योंके बीचमें बैठे हुए महर्षि कहोड इस प्रकार उलाहना सुनकर
अपमानका अनुभव करते हुए कुपित हो उठे और उस गर्भस्थ बालकको शाप
देते हुए बोले, “अरे! तू अभी पेटमें रहकर ऐसी टेढ़ी बातें बोलता है, अतः तू
आठों अंगोंसे टेढ़ा हो जायगा' || ११ ।।
स वै तथा वक्र एवाभ्यजाय-
दष्टावक्र: प्रथितो वै महर्षि: |
अस्यासीद् वै मातुल: श्वेतकेतु:
स तेन तुल्यो वयसा बभूव ।। १२ ।।
उस शापके अनुसार वे महर्षि आठों अंगोंसे टेढ़े होकर पैदा हुए। इसलिये
अष्टावक्र नामसे उनकी प्रसिद्धि हुई। श्वेतकेतु उनके मामा थे, परंतु अवस्थामें
उन्हींके बराबर थे ।। १२ ।।
सम्पीड्यमाना तु तदा सुजाता
सा वर्धमानेन सुतेन कुक्षौ ।
उवाच भर्तारमिदं रहोगता
प्रसाद्य हीनं वसुना धनार्थिनी ।। १३ ।।
जब पेटमें गर्भ बढ़ रहा था, उस समय सुजाताने उससे पीड़ित होकर
एकान्तमें अपने निर्धन पतिसे धनकी इच्छा रखकर कहा-- ।। १३ ।।
कथं करिष्याम्यधुना महर्षे
मासक्षायं दशमो वर्तते मे ।
नैवास्ति ते वसु किंचित् प्रजाता
येनाहमेतामापदं निस्तरेयम् ।। १४ ।।
“महर्षे! यह मेरे गर्भका दसवाँ महीना चल रहा है। मैं धनहीन नारी खर्चकी
कैसे व्यवस्था करूँगी। आपके पास थोड़ा-सा भी धन नहीं है जिससे मैं
प्रसवकालके इस संकटसे पार हो सकूँ” ।। १४ ।।
उक्तस्त्वेवं भार्यया वै कहोडो
वित्तस्यार्थे जनकमथाभ्यगच्छत् ।
स वै तदा वादविदा निगृहा
निमज्जितो बन्दिनेहाप्सु विप्र: ।। १५ ।।
पत्नीके ऐसा कहनेपर कहोड मुनि धनके लिये राजा जनकके दरबारमें गये।
उस समय शात्त्रार्थी पण्डित बन्दीने उन ब्रह्मर्षिको विवादमें हराकर जलमें डुबो
दिया ।। १५ ||
उद्दालकस्तं तु तदा निशम्य
सूतेन वादे5प्सु निमज्जितं तथा ।
उवाच तां तत्र ततः सुजाता-
मष्टावक्रे गृहितव्योड्यमर्थ: ।। १६ ।।
जब उद्दालकको यह समाचार मिला कि “कहोड मुनि शात्त्रार्थमें पराजित
होनेपर सूत (बन्दी)-के द्वारा जलमें डुबो दिये गये।” तब उन्होंने सुजातासे सब
कुछ बता दिया और कहा, “बेटी! अपने बच्चेसे इस वृत्तान्तको सदा ही गुप्त
रखना” ।। १६ |।
ररक्ष सा चापि तमस्य मन्त्र
जातो>प्यसौ नैव शुश्राव विप्र: ।
उद्दालकं पितृवच्चापि मेने
तथाष्टावक्रो भ्रातृवच्छवेतकेतुम् ।। १७ ।।
सुजाताने भी अपने पुत्रसे उस गोपनीय समाचारको गुप्त ही रखा। इसीसे
जन्म लेनेके बाद भी उस ब्राह्मण-बालकको इसके विषयमें कुछ भी पता न
लगा। अष्टावक्र अपने नाना उद्दालकको ही पिताके समान मानते थे और
श्वेतकेतुको अपने भाईके समान समझते थे ।। १७ ।।
ततो वर्षे द्वादशे श्वेतकेतु-
रष्टावक्रं पितुरड्के निषण्णम् |
अपाकर्षद् गृह पाणौ रुदन्तं
नायं तवाड्कः: पितुरित्युक्तवांश्व ।। १८ ।।
तदनन्तर एक दिन, जब अष्टावक्रकी आयु बारह वर्षकी थी और वे
पितृतुल्य उद्दालक मुनिकी गोदमें बैठे हुए थे, उसी समय श्वेतकेतु वहाँ आये
और रोते हुए अष्टावक्रका हाथ पकड़कर उन्हें दूर खींच ले गये। इस प्रकार
अष्टावक्रको दूर हटाकर श्वेतकेतुने कहा--'यह तेरे बापकी गोदी नहीं
है! ॥| १८ ।।
यत् तेनोक्तं दुरुक्त तत् तदानीं
ह्ृदि स्थितं तस्य सुदुःखमासीत् |
गृहं गत्वा मातरं सो5भिगम्य
पप्रच्छेद॑ क्व नु तातो ममेति ।। १९ ।।
ब्ेतकेतुकी उस कटूक्तिने उस समय अष्टावक्रके हृदयमें गहरी चोट
पहुँचायी। इससे उन्हें बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने घरमें माताके पास जाकर पूछा
--'माँ! मेरे पिताजी कहाँ हैं?” ।। १९ ।।
ततः सुजाता परमार्तरूपा
शापाद् भीता सर्वमेवाचचक्षे ।
तद् वै तत्त्वं सर्वमाज्ञाय रात्रा-
वित्यब्रवीच्छवेतकेतुं स विप्र: ।। २० ।।
गच्छाव यज्ञ जनकस्य राज्ञो
बन्दाश्चर्य: श्रूयते तस्य यज्ञ: ।
श्रोष्यावोजत्र ब्राह्मणानां विवाद-
मर्थ चाग्रयं तत्र भोक्ष्यावहे च ।। २१ ।।
बालकके इस प्रश्नसे सुजाताके मनमें बड़ी व्यथा हुई, उसने शापके भयसे
घबराकर सब बात बता दी। यह सब रहस्य जानकर उन्होंने रातमें श्वेतकेतुसे
इस प्रकार कहा--'हम दोनों राजा जनकके यज्ञमें चलें। सुना जाता है, उस
यजञ्ञमें बड़े आश्वर्यकी बातें देखनेमें आती हैं। हम दोनों वहाँ विद्वान ब्राह्मणोंका
शास्त्रार्थ सुनेंगे और वहीं उत्तम पदार्थ भोजन करेंगे || २०-२१ ।।
विचक्षणत्वं च भविष्यते नौ
शिवश्न सौम्यश्न हि ब्रह्मघोष: ।। २२ ।।
“वहाँ जानेसे हमलोगोंकी प्रवचनशक्ति एवं जानकारी बढ़ेगी और हमें
सुमधुर स्वरमें वेद-मन्त्रोंका कल्याणकारी घोष सुननेका अवसर
मिलेगा” ।। २२ ।।
तौ जम्मतुर्मातुलभागिनेयौ
यज्ञ समृद्धं जनकस्य राज्ञ: ।
अष्टावक्र: पथि राज्ञा समेत्य
प्रोत्सार्यमाणो वाक्यमिदं जगाद ।। २३ |।
ऐसा निश्चय करके वे दोनों मामा-भानजे राजा जनकके समृद्धिशाली यज्ञमें
गये। अष्टावक्रकी यज्ञ-मण्डपके मार्ममें ही राजासे भेंट हो गयी। उस समय
राजसेवक उन्हें रास्तेसे दूर हटाने लगे, तब वे इस प्रकार बोले ।। २३ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि
लोमशतीर्थयात्रायामष्टावक्रीये द्वात्रिशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १३२ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्चमें लोमशतीर्थयात्राके
प्रसंगें अष्टावक्रीयोपाख्यानविषयक एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय पूरा
हुआ ॥। १३२ ॥।
&5+ #+० ()) ४३ #<
- किसी-किसी पुस्तकमें यहाँ एक श्लोक अधिक मिलता है, जो इस प्रकार है--
वेदान् साड़ान् सर्वशास्त्रैरुपेतानधीतवानस्मि तव प्रसादात् ।
इहैव गर्भे तेन पितर्ब्रवीमि नेद॑ त्वत्त: सम्यगिवोपवर्तते ।।
त्रयस्त्रिंशर्दाधिकशततमो< ध्याय:
अष्टावक्रका द्वारपाल तथा राजा जनकसे वार्तालाप
अष्टावक्र उवाच
अन्धस्य पन्था बधिरस्य पन्था:
स्त्रिय: पन्था भारवाहस्य पन्था: ।
राज्ञ: पन्था ब्राह्मणेनासमेत्य
समेत्य तु ब्राह्मणस्यैव पनथा: ।। १ ।।
अष्टावक्र बोले--राजन! जबतक ब्राह्मणसे सामना न हो तबतक अंधेका मार्ग,
बहरेका मार्ग, स्त्रीका मार्ग, बोझ ढोनेवालेका मार्ग तथा राजाका मार्ग उस-उसके जानेके
लिये छोड़ देना चाहिये; परंतु यदि ब्राह्मण सामने मिल जाय तो सबसे पहले उसीको मार्ग
देना चाहिये ।। १ ।।
राजोवाच
पन्था अयं तेड्द्य मयातिदिष्टो
येनेच्छसि तेन काम॑ व्रजस्व ।
न पावको विद्यते वै लघीया-
निन्द्रोडपि नित्यं नमते ब्राह्मणानाम् ।। २ ।।
राजाने कहा--ब्राह्मणकुमार! लो मैंने तुम्हारे लिये आज यह मार्ग दे दिया है। तुम
जिससे जाना चाहो उसी मार्गसे इच्छानुसार चले जाओ। आग कभी छोटी नहीं होती।
देवराज इन्द्र भी सदा ब्राह्मणोंके आगे मस्तक झुकाते हैं ।। २ ।।
अष्टावक्र उवाच
प्राप्तौ स्व यज्ञ नृप संदिदृक्षू
कौतूहलं नौ बलवन्नरेन्द्र ।
प्राप्ताविहावामतिथी प्रवेशं
काडक्षावहे द्वारपतेस्तवाज्ञाम् ।। ३ ।।
अष्टावक्र बोले--राजन्! हम दोनों आपका यज्ञ देखनेके लिये आये हैं। नरेन्द्र! इसके
लिये हम दोनोंके हृदयमें प्रबल उत्कण्ठा है। हम दोनों यहाँ अतिथिके रूपमें उपस्थित हैं
और इस यज्ञमें प्रवेश करनेके लिये हम तुम्हारे द्वारपालकी आज्ञा चाहते हैं ।। ३ ।।
ऐन्द्रद्ुम्ने यज्ञद्शाविहावां
विवक्षू वै जनकेन्द्रं दिदृक्षू ।
तौ वै क्रोधव्याधिना दहामाना-
वयं च नौ द्वारपालो रुणद्धि ।। ४ ।।
इन्द्रद्यममकुमार जनक! हम दोनों यहाँ यज्ञ देखनेके लिये आये हैं और आप
जनकराजसे मिलना तथा बात करना चाहते हैं, परंतु यह द्वारपाल हमें रोकता है; अत: हम
क्रोधरूप व्याधिसे दग्ध हो रहे हैं || ४ ।।
दारपाल उवाच
बन्दे: समादेशकरा वयं सम
निबोध वाक््यं च मये्यमाणम् |
न वै बाला: प्रविशन्त्यत्र विप्रा
वृद्धा विदग्धा: प्रविशन्त्यत्र विप्रा: ।। ५ ।।
द्वारपाल बोला--ब्राह्मणकुमार! सुनो, हम बंदीके आज्ञापालक हैं। आप हमारी कही
हुई बात सुनिये। इस यज्ञशालामें बालक ब्राह्मण नहीं प्रवेश करने पाते हैं। जो बूढ़े और
बुद्धिमान ब्राह्मण हैं, उन्हींका यहाँ प्रवेश होता है ।।
अष्टावक्र उवाच
यद्यत्र वृद्धेषु कृत: प्रवेशो
युक्त प्रवेष्ठं मम द्वारपाल ।
वयं हि वृद्धाश्नरितव्रताश्च
वेदप्रभावेण समन्विताक्ष ।। ६ ।।
अष्टावक्र बोले--द्वारपाल! यदि यहाँ वृद्ध ब्राह्मणोंके लिये प्रवेशका द्वार खुला है, तब
तो हमारा प्रवेश होना भी उचित ही है; क्योंकि हमलोग वृद्ध ही हैं, हमने ब्रह्मचर्यव्रतका
पालन किया है तथा हम वेदके प्रभावसे भी सम्पन्न हैं || ६ |।
शुश्रूषवश्चापि जितेन्द्रिया श्न
ज्ञानागमे चापि गताः सम निष्ठाम्
न बाल इत्यवमन्तव्यमाहु-
बलि प्यन्निर्दहति स्पृश्यमान: ।। ७ ।।
साथ ही, हम गुरुजनोंके सेवक, जितेन्द्रिय तथा ज्ञानशास्त्रमें परिनिष्ठित भी हैं।
अवस्थामें बालक होनेके कारण ही किसी ब्राह्मणको अपमानित करना उचित नहीं बताया
गया है; क्योंकि आगकी छोटी-सी चिनगारी भी यदि छू जाय तो वह जला डालती
है।।७।।
दारपाल उवाच
सरस्वतीमीरय वेदजुष्टा-
मेकाक्षरां बहुरूपां विराजम् ।
अज्जभात्मानं समवेक्षस्व बाल॑
कि शलाघसे दुर्लभो वै मनीषी ।। ८ ।।
द्वारपालने कहा-ब्राह्मणकुमार! तुम वेद-प्रतिपादित, एकाक्षरत्रह्मयका बोध
करानेवाली, अनेक रूपवाली, सुन्दर वाणीका उच्चारण करो और अपने-आपको बालक ही
समझो, स्वयं ही अपनी प्रशंसा क्यों करते हो? इस जगत्में ज्ञानी दुर्लभ हैं ।। ८ ।।
अष्टावक्र उवाच
न ज्ञायते कायवृद्धया विवद्धि-
्यथाष्ठीला शाल्मले: सम्प्रवृद्धा
हस्वो5ल्ल्पकाय: फलितो विवृद्धो
यश्चाफलस्तस्य न वृद्धभाव: ।। ९ ।।
अष्टावक्र बोले--द्वारपाल! केवल शरीर बढ़ जानेसे किसीकी बढ़ती नहीं समझी
जाती है। जैसे सेमलके फलकी गाँठ बढ़नेपर भी सारहीन होनेके कारण वह व्यर्थ ही है।
छोटा और दुबला-पतला वृक्ष भी यदि फलोंके भारसे लदा है तो उसे ही वृद्ध (बड़ा) जानना
चाहिये। जिसमें फल नहीं लगते, उस वृक्षका बढ़ना भी नहीं के बराबर है ।। ९ ।।
द्वारपाल उवाच
वृद्धेभ्य एवेह मतिं सम बाला
गृह्लन्ति कालेन भवन्ति वृद्धा: |
न हि ज्ञानमल्पकालेन शक््यं
कस्माद् बाल: स्थविर इव प्रभाषसे ।। १० ।।
द्वारपालने कहा--बालक बड़े-बूढ़ोंसे ही ज्ञान प्राप्त करते हैं और समयानुसार वे भी
वृद्ध होते हैं। थोड़े समयमें ज्ञानकी प्राप्ति असम्भव है, अतः तुम बालक होकर भी क्यों
वृद्धकी-सी बातें करते हो? ।। १० ।।
अष्टावक्र उवाच
न तेन स्थविरो भवति येनास्य पलितं शिर: ।
बालो<पि य: प्रजानाति त॑ देवा: स्थविरं विदु: || ११ ।।
अष्टावक्र बोले--अमुक व्यक्तिके सिरके बाल पक गये हैं, इतने ही मात्रसे वह बूढ़ा
नहीं होता है, अवस्थामें बालक होनेपर भी जो ज्ञानमें बढ़ा-चढ़ा है, उसीको देवगण वृद्ध
मानते हैं ।। ११ ।।
न हायनैर्न पलितैर्न वित्तेन न बन्धुभि: ।
ऋषयश्षक्रिरे धर्म योडनूचान: स नो महान् ।। १२ ।।
अधिक वर्षोकी अवस्था होनेसे, बाल पकनेसे, धन बढ़ जानेसे और अधिक भाई-बन्धु
हो जानेसे भी कोई बड़ा हो नहीं सकता; ऋषियोंने ऐसा नियम बनाया है कि हम ब्राह्मणोंमें
जो अंगोंसहित सम्पूर्ण वेदोंका स्वाध्याय करनेवाला तथा वक्ता है, वही बड़ा है || १२ ।।
दिदृक्षुरस्मि सम्प्राप्तो बन्दिनं राजसंसदि ।
निवेदयस्व मां द्वा:स्थ राज्ञे पुष्करमालिने ।। १३ ।।
द्वारपाल! मैं राजसभामें बन्दीसे मिलनेके लिये आया हूँ। तुम कमलपुष्पकी माला
धारण किये हुए महाराज जनकको मेरे आगमनकी सूचना दे दो ।। १३ ।।
द्रष्टास्यद्य वदतो<स्मान् द्वारपाल मनीषिशभि: ।
सह वादे विवृद्धे तु बन्दिनं चापि निर्जितम् ।। १४ ।।
द्वारपाल! आज तुम हमें विद्वानोंके साथ शास्त्रार्थ करते देखोगे, साथ ही विवाद बढ़
जानेपर बंदीको परास्त हुआ पाओगे ।। १४ ।।
पश्यन्तु विप्रा: परिपूर्णविद्या:
सहैव राज्ञा सपुरोधमुख्या: ।
उताहो वाप्युच्चतां नीचतां वा
तृष्णीं भूतेष्वेव सर्वेष्वथाद्य ।। १५ ।।
आज सम्पूर्ण सभासद् चुपचाप बैठे रहें तथा राजा और उनके प्रधान पुरोहितोंके साथ
पूर्णतः विद्वान् ब्राह्मण मेरी लघुता अथवा श्रेष्ठताको प्रत्यक्ष देखें || १५ ।।
द्वारपाल उवाच
कथं यज्ञं दशवर्षो विशेस्त्व॑
विनीतानां विदुषां सम्प्रवेशम् ।
उपायत: प्रयतिष्ये तवाहं
प्रवेशने कुरु यत्नं यथावत् ।। १६ ।।
द्वारपालने कहा--जहाँ सुशिक्षित विद्वानोंका प्रवेश होता है; उस यज्ञमण्डपमें तुम-
जैसे दस वर्षके बालकका प्रवेश होना कैसे सम्भव है। तथापि मैं किसी उपायसे तुम्हें उसके
भीतर प्रवेश करानेका प्रयत्न करूँगा, तुम भी भीतर जानेके लिये यथोचित प्रयत्न
करो ।। १६ ।।
(एष राजा संश्रवणे स्थितस्ते
स्तुहोनं त्वं वचसा संस्कृतेन ।
स चानुज्ञां दास्यति प्रीतियुक्तः
प्रवेशने यच्च किंचित् तवेष्टम् ।।)
ये नरेश तुम्हारी बात सुन सकें, इतनी ही दूरीपर यज्ञमण्डपमें स्थित हैं, तुम अपने शुद्ध
वचनोंद्वारा इनकी स्तुति करो। इससे ये प्रसन्न होकर तुम्हें प्रवेश करनेकी आज्ञा दे देंगे तथा
तुम्हारी और भी कोई कामना हो तो वे पूरी करेंगे ।।
अष्टावक्र उवाच
भो भो राजञ्जनकानां वरिष्ठ
त्वं वै सम्राट् त्वयि सर्व समृद्धम् ।
त्वं वा कर्ता कर्मणां यज्ञियानां
ययातिरेको नृपतिर्वा पुरस्तात् ।। १७ ।।
अष्टावक्र बोले--राजन्! आप जनकवंशके श्रेष्ठ पुरुष हैं, सम्राट हैं। आपके यहाँ सभी
प्रकारके ऐश्वर्य परिपूर्ण हैं, वर्तमान समयमें केवल आप ही उत्तम यज्ञकर्मोंका अनुष्ठान
करनेवाले हैं; अथवा पूर्वकालमें एकमात्र राजा ययाति ऐसे हो चुके हैं || १७ ।।
वृद्धान् बन्दी वादविदो निगृहा
वादे भग्नानप्रतिशड्कमान: ।
त्वयाभिसूष्टे: पुरुषैराप्तकृद्धि-
जले सर्वान् मज्जयतीति न: श्रुतम् ।। १८ ।।
हमने सुना है कि आपके यहाँ बन्दी नामसे प्रसिद्ध कोई विद्वान् हैं जो वाद-विवादके
मर्मको जाननेवाले कितने ही वृद्ध ब्राह्मणोंको शास्त्रार्थमें हराकर वशमें कर लेते हैं और फिर
आपके ही दिये हुए विश्वसनीय पुरुषोंद्वारा उन सबको निःशंक होकर पानीमें डुबवा देते
हैं ।। १८ ।।
सो ुहं श्रुत्वा ब्राह्मणानां सकाशाद्
ब्रह्माद्वैतं कथयितुमागतो<स्मि ।
क्वासौ बन्दी यावदेनं समेत्य
नक्षत्राणीव सविता नाशयामि ।। १९ ।।
मैं ब्राह्णोंक समीप यह समाचार सुनकर अद्दैत ब्रह्मके विषयमें वर्णन करनेके लिये
यहाँ आया हूँ। वे बन्दी कहाँ हैं? मैं उनसे मिलकर उनके तेजको उसी प्रकार शान्त कर दूँगा,
जैसे सूर्य ताराओंकी ज्योतिको विलुप्त कर देते हैं ।। १९ ।।
राजोवाच
आशंससे बन्दिनं वै विजेतु-
मविज्ञाय त्वं वाक्यबलं परस्य ।
विज्ञातवीर्य: शक््यमेवं प्रवक्तुं
दृष्टश्नासौ ब्राह्मणैवेंदशीलै: ।। २० ।।
राजा बोले--ब्राह्मणकुमार! तुम अपने विपक्षीकी प्रवचन-शक्तिको जाने बिना ही
बन्दीको जीतनेकी इच्छा रखते हो। जो प्रतिवादीके बलको जानते हों वे ही ऐसी बातें कह
सकते हैं। वेदोंका अनुशीलन करनेवाले बहुत-से ब्राह्मण बन्दीका प्रभाव देख चुके
हैं || २० ।।
आशंससे त्वं बन्दिनं वै विजेतु-
मविज्ञाय तु बल॑ बन्दिनो5स्य ।
समागता ब्राह्मणास्तेन पूर्व
न शोभन्ते भास्करेणेव तारा: । २१ ।।
तुम्हें इस बन्दीकी शक्तिका कुछ भी ज्ञान नहीं है। इसीलिये उसे जीतनेकी इच्छा कर
रहे हो। आजसे पहले कितने ही दिद्वान् ब्राह्मण बन्दीसे मिले हैं और जैसे सूर्यके सामने
ताराओंका प्रकाश फीका पड़ जाता है उसी प्रकार वे बन्दीके सामने हतप्रभ हो गये
2204. 4 ५॥
आशंसन्तो बन्दिनं जेतुकामा-
स्तस्यान्तिकं प्राप्प विलुप्तशोभा: ।
विज्ञानमत्ता निःसृताश्चैव तात
कथं सदस्यैर्वचनं विस्तरेयु: ।। २२ ।।
तात! कितने ही ज्ञानोन्मत्त ब्राह्मण बन्दीको जीतनेकी अभिलाषा रखकर शास्त्रार्थकी
घोषणा करते हुए आये हैं; किंतु उनके निकट पहुँचते ही उनका प्रभाव नष्ट हो गया है।
इतना ही नहीं, वे पराजित एवं तिरस्कृत हो चुपचाप राजसभासे निकल गये हैं। फिर वे
अन्य सदस्योंके साथ वार्तालाप ही कैसे कर सकते हैं | २२ ।।
अष्टावक्र उवाच
विवादितो5सौ न हि मादशैहि
सिंहीकृतस्तेन वदत्यभीत: ।
समेत्य मां निहतः शेष्यतेड्द्य
मार्गे भग्नं शकटमिवाचलाक्षम् ।। २३ ।।
अष्टावक्र बोले--महाराज! अभी बन्दीको हम-जैसोंके साथ शाम्त्रार्थ करनेका
अवसर नहीं मिला है, इसीलिये वह सिंह बना हुआ है और निडर होकर बातें करता है।
आज मुझसे जब उसकी भेंट होगी, उस समय वह पराजित होकर मुर्देकी भाँति सो
जायगा। ठीक उसी तरह, जैसे रास्तेमें टूटा हुआ छकड़ा जहाँ-का-तहाँ पड़ा रह जाता है--
उसका पहिया एक पग भी आगे नहीं बढ़ता ।। २३ ।।
राजोवाच
त्रिंशकद्धादशांशस्य चतुर्विशतिपर्वण: ।
यस्त्रिषष्टिशतारस्य वेदार्थ स पर: कवि: ।। २४ ।।
तब राजाने परीक्षा लेनेके लिये कहा--जो पुरुष तीस अवयव, बारह अंश, चौबीस
पर्व और तीन सौ साठ अरोंवाले पदार्थको जानता है--उसके प्रयोजनको समझता है, वह
उच्चकोटिका ज्ञानी है ।। २४ ।।
अद्टावक्र उवाच
चतुर्विशतिपर्व त्वां षण्नाभि द्वादशप्रधि ।
तत् त्रिषष्टिशतारं वै चक्र पातु सदागति ।। २५ ।।
अष्टावक्र बोले--राजन्! जिसमें बारह अमावास्या और बारह पूर्णिमारूपी चौबीस
पर्व, ऋतुरूप छ: नाभि, मासरूप बारह अंश और दिनरूप तीन सौ साठ अरे हैं, वह
निरन्तर घूमनेवाला संवत्सररूप कालचक्र आपकी रक्षा करे || २५ ।।
राजोवाच
वडवे इव संयुक्ते श्येनपाते दिवौकसाम् |
कस्तयोर्गर्भमाधत्ते गर्भ सुषुवतुश्च कम् ।। २६ ।।
राजाने पूछा--जो दो घोड़ियोंकी भाँति संयुक्त रहती हैं; एवं जो बाज पक्षीकी भाँति
हठात् गिरनेवाली हैं उन दोनोंके गर्भको देवताओंमेंसे कौन धारण करता है तथा वे दोनों
किस गर्भको उत्पन्न करती हैं? ।। २६ ।।
अद्टावक्र उवाच
मा स्म ते ते गृहे राजज्छात्रवाणामपि ध्रुवम् ।
वातसारथिरागन्ता गर्भ सुषुवतुश्चव॒ तम् ।। २७ ।।
अष्टावक्र बोले--राजन्! वे दोनों तुम्हारे शत्रुओंके घरपर भी कभी न गिरें। वायु
जिसका सारथि है वह मेघरूप देव ही इन दोनोंके गर्भको धारण करनेवाला है और ये दोनों
उस मेघरूप गर्भको उत्पन्न करनेवाले हैं- || २७ ।।
राजोवाच
किंस्वित् सुप्तं न निमिषति किंस्विज्जातं न चोपति |
कस्य स्विद्धुदयं नास्ति किं स्विद् वेगेन वर्धते ॥। २८ ।।
राजाने पूछा--सोते समय कौन नेत्र नहीं मूँदता, जन्म लेनेके बाद किसमें गति नहीं
होती, किसके हृदय नहीं होता और कौन वेगसे बढ़ता है? ।। २८ ।।
अष्टावक्र उवाच
मत्स्य: सुप्तो न निमिषत्यण्डं जातं न चोपति ।
अश्मनो हृदयं नास्ति नदी वेगेन वर्धते ।। २९ ।।
अष्टावक्र बोले--मछली सोते समय भी आँख नहीं मूँदती, अण्डा उत्पन्न होनेपर चेष्टा
नहीं करता, पत्थरके हृदय नहीं होता और नदी वेगसे बढ़ती है || २९ ।।
राजोवाच
नत्वां मन्ये मानुषं देवसत्त्वं
न त्वं बाल: स्थविर: सम्मतो मे ।
न ते तुल्यो विद्यते वाक्प्रलापे
तस्मात् द्वारं वितराम्येष बन्दी || ३० ॥।
राजाने कहा--ब्रह्म! आपकी शक्ति तो देवताओंके समान है, मैं आपको मनुष्य नहीं
मानता; आप बालक भी नहीं हैं। मैं तो आपको वृद्ध ही समझता हूँ। वाद-विवाद करनेमें
आपके समान दूसरा कोई नहीं है, अतः आपको यज्ञ-मण्डपमें जानेके लिये द्वार प्रदान
करता हूँ। यही बन्दी हैं (जिनसे आप मिलना चाहते थे) ।। ३० ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायामष्टावक्रीये
त्रयस्त्रिंयदधिकशततमो<ध्याय: ।। १३३ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रसंगमें
अष्टावक्रीयोपाख्यानविषयक एक सौ तैतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३३ ॥।
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ३१ श्लोक हैं)
#ड.7 ऋण (_) हि ०
चतुस्त्रिंशर्दाधिकशततमो< ध्याय:
बन्दी और अष्टावक्रका शानच्त्रार्थ, बन्दीकी पराजय
तथा समड़्ामें स्सनानसे अष्टावक्रके अंगोंका सीधा
होना
सअद्टावक्र उवाच
अत्रोग्रसेन समितेषु राजन्
समागतेष्वप्रतिमेषु राजसु ।
नावैमि बर्न्दिं वरमत्र वादिनां
महाजले हंसमिवाददामि ।। १ ।।
अष्टावक्र बोले--भयंकर सेनाओंसे युक्त महाराज जनक! इस सभामें सब
ओरसे अप्रतिम प्रभावशाली राजा आकर एकत्र हुए हैं; परंतु मैं इन सबके
बीचमें वादियोंमें प्रधान बन्दीको नहीं पहचान पाता हूँ। यदि पहचान लूँ तो
अगाध जलमें हंसकी भाँति उन्हें अवश्य पकड़ लूँगा ।। १ ।।
न मेड्द्य वक्ष्यस्यतिवादिमानिन्
ग्लहं प्रपन्न: सरितामिवागम: ।
हुताशनस्येव समिद्धतेजस:
स्थिरो भवस्वेह ममाद्य बन्दिन् । २ ।।
अपनेको अतिवादी माननेवाले बन्दी! तुमने पराजित हुए पण्डितोंको पानीमें
डुबवा देनेका नियम कर रखा है, किंतु आज मेरे सामने तुम्हारी बोली बंद हो
जायगी। जैसे प्रलयकालके प्रज्वलित अग्निके समीप नदियोंका प्रवाह सूख
जाता है, उसी प्रकार मेरे सामने आनेपर तुम भी सूख जाओगे--तुम्हारी
वादशक्ति नष्ट हो जायगी। बन्दी! आज मेरे सामने स्थिर होकर बैठो || २ ।।
बन्द्ुवाच
व्याप्रं शयानं प्रति मा प्रबोधय
आशीविषं सृक्किणी लेलिहानम् ।
पदाहतस्येह शिरो5भिहत्य
नादष्टो वै मोक्ष्यसे तन्निबोध ।। ३ ।।
बन्दीने कहा--मुझे सोता हुआ सिंह समझकर न जगाओ (न छेड़ो), अपने
जबड़ोंको चाटता हुआ विषैला सर्प मानो। तुमने पैरोंसे ठोकर मारकर मेरे
मस्तकको कुचल दिया है। अब जबतक तुम डँस लिये नहीं जाते तबतक तुम्हें
छुटकारा नहीं मिल सकता, इस बातको अच्छी तरह समझ लो ।। ३ ।।
यो वै दर्पात् संहननोपपन्न:
सुदुर्बल: पर्वतमाविहन्ति ।
तस्यैव पाणि: सनखो विदीर्यते
न चैव शैलस्य हि दृश्यते व्रण: ।। ४ ।।
जो देहधारी अत्यन्त दुर्बल होकर भी अहंकारवश अपने हाथसे पर्वतपर
चोट करता है, उसीके हाथ और नख विदीर्ण हो जाते हैं। उस चोटसे पर्वतमें
घाव होता नहीं देखा जाता है || ४ ।।
अद्टावक्र उवाच
सर्वे राज्ञो मैथिलस्य मैनाकस्येव पर्वता: ।
निकृष्टभूता राजानो वत्सा अनडुहो यथा ॥। ५ ।।
अष्टावक्र बोले--जैसे सब पर्वत मैनाकसे छोटे हैं, सारे बछड़े बैलोंसे
लघुतर हैं, उसी प्रकार भूमण्डलके समस्त राजा मिथिलानरेश महाराज
जनककी अपेक्षा निम्न श्रेणीमें हैं ।। ५ ।।
यथा महेन्द्र: प्रवर: सुराणां
नदीषु गड्जा प्रवरा यथैव ।
तथा नृपाणां प्रवरस्त्वमेको
बन्दिं समभ्यानय मत्सकाशम् ।। ६ ।।
राजन! जैसे देवताओंमें महेन्द्र श्रेष्ठ हैं और नदियोंमें गंगा श्रेष्ठ हैं, उसी
प्रकार सब राजाओंमें एकमात्र आप ही उत्तम हैं। अब बन्दीको मेरे निकट
बुलवाइये ।। ६ |।
लोगमश उवाच
एवमष्टावक्र: समितौ हि गर्जन्-
जातक्रोधो बन्दिनमाह राजन् ।
उक्ते वाक्ये चोत्तरं मे ब्रवीहि
वाक्यस्य चाप्युत्तरं ते ब्रवीमि ।। ७ ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठिर! (बन्दीके सामने आ जानेपर) राजसभामें
गर्जते हुए अष्टावक्रने बन्दीसे कुपित होकर इस प्रकार कहा--'मेरी पूछी हुई
बातका उत्तर तुम दो और तुम्हारी बातका उत्तर मैं देता हूँ” ।। ७ ।।
बन्द्युवाच
एक एवाग्निर्बहुधा समिध्यते
एक: सूर्य: सर्वमिदं विभाति ।
एको वीरो देवराजो5रिहन्ता
यम: पितृणामीश्वरश्वैक एव ॥। ८ ।।
तब बन्दीने कहा--अष्टावक्र! एक ही अग्नि अनेक प्रकारसे प्रकाशित
होती है, एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण जगत्को प्रकाशित करता है। शत्रुओंका नाश
करनेवाला देवराज इन्द्र एक ही वीर है तथा पितरोंका स्वामी यमराज भी एक
ही है ।। ८ ।।
जअद्टाावक्र उवाच
द्वाविन्द्राग्नी चरतो वै सखायौ
द्वौ देवर्षी नारदपर्वतौ च ।
द्वावश्विनौ द्वे रथस्यापि चक्रे
भार्यापती द्वौ विहितौ विधात्रा ।। ९ ।।
अष्टावक्र बोले--जो दो मित्रोंकी भाँति सदा साथ विचरते हैं, वे इन्द्र और
अग्नि दो देवता हैं। परस्पर मित्रभाव रखनेवाले देवर्षि नारद और पर्वत भी दो ही
हैं। अश्विनीकुमारोंकी भी संख्या दो ही है, रथके पहिये भी दो ही होते हैं तथा
विधाताने (एक-दूसरेके जीवनसंगी) पति और पत्नी भी दो ही बनाये हैं ।। ९ |।
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बन्द्ुवाच
त्रि: सूयते कर्मणा वै प्रजेय॑
त्रयो युक्ता वाजपेयं वहन्ति ।
अध्वर्यवस्त्रिसवनानि तन्वते
त्रयो लोकास्त्रीणि ज्योतींषि चाहु: ।। १० ।।
बन्दीने कहा--यह सम्पूर्ण प्रजा कर्मवश देवता, मनुष्य और तिर्यक्रूप
तीन प्रकारका जन्म धारण करती है, ऋक्ू, साम, और यजु--ये तीन वेद ही
परस्पर संयुक्त हो बाजपेय आदि यज्ञ-कर्मोका निर्वाह करते हैं। अध्वर्युलोग भी
प्रातः:सवन, मध्याह्मॉसलवन और सायंसवनके भेदसे तीन सवनों (यज्ञों)-का ही
अनुष्ठान करते हैं। (कर्मानुसार प्राप्त होनेवाले भोगोंके लिये) स्वर्ग, मृत्यु और
नरक-ये लोक भी तीन ही बताये गये हैं और मुनियोंने सूर्य, चन्द्र और
अग्निरूप तीन ही प्रकारकी ज्योतियाँ बतलायी हैं ।। १० ।।
अष्टावक्र उवाच
चतुष्टयं ब्राह्मणानां निकेत॑ं
चत्वारो वर्णा यज्ञमिमं वहन्ति ।
दिशश्वतस्रो वर्णचतुष्टयं च
चतुष्पदा गौरपि शश्रचदुक्ता || ११ ।।
अष्टावक्र बोले--ब्राह्मणोंके लिये आश्रम चार हैं। वर्ण: भी चार ही हैं जो
इस यज्ञका भार वहन करते हैं। मुख्य दिशाएँः भी चार ही हैं। वर्ण“ भी चार ही
हैं तथा गो अर्थात् वाणी भी सदा चार ही चरणोंसे* युक्त बतायी गयी
है ।। ११ ||
बन्द्ुवाच
पज्चाग्नय: पञ्चपदा च पड्क्ति-
्यज्ञा: पञज्चैवाप्यथ पज्चेन्द्रियाणि ।
दृष्टा वेदे पज्चचूडाप्सराश्न
लोके ख्यातं पञ्चनदं च पुण्यम् ।। १२ ।।
बन्दीने कहा--यज्ञकी अग्नि गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि, आहवनीय, सभ्य और
आवसश्यके भेदसे पाँच प्रकारकी कही गयी है। पंक्ति छन््द भी पाँच पादोंसे ही
बनता है, यज्ञ भी पाँच ही हैं--देवयज्ञ, पितृयज्ञ, ऋषियज्ञ, भूतयज्ञ और
मनुष्ययज्ञ। इसी प्रकार इन्द्रियोंकी संख्या भी पाँच ही हैं?। वेदमें पाँच वेणीवाली
(पंचचूड़ा“) अप्सराका वर्णन देखा गया है तथा लोकमें पाँच” नदियोंसे विशिष्ट
पुण्यमय पठ्चनद प्रदेश विख्यात है ।। १२ ।।
अष्टावक्र उवाच
षडाधाने दक्षिणामाहुरेके
षट् चैवेमे ऋतव: कालचक्रम् ।
षडिन्न्द्रियाण्युत षट् कृत्तिकाश्न
षट् साद्यस्का: सर्ववेदेषु दृष्टा: ।। १३ ।।
अष्टावक्र बोले--कुछ विद्वानोंका मत है कि अग्निकी स्थापनाके समय
दक्षिणामें छः गौ ही देनी चाहिये। ये छः ऋतुएँ ही संवत्सररूप कालचक्रकी
सिद्धि करती हैं। मनसहित ज्ञानेन्द्रियाँ भी छः ही हैं। कृत्तिकाओंकी संख्या छः:
ही है तथा सम्पूर्ण वेदोंमें साद्यस्क नामक यज्ञ भी छः: ही देखे गये हैं || १३ ।।
बन्द्ुवाच
सप्त ग्राम्या: पशव: सप्त वन्या:
सप्तच्छन्दांसि क्रतुमेक॑ वहन्ति ।
सप्तर्षय: सप्त चाप्यर्हणानि
सप्ततन्त्री प्रथिता चैव वीणा ।। १४ ।।
बन्दीने कहा-ग्राम्य पशु सात हैं (जिनके नाम इस प्रकार हैं)--गाय, भैंस,
बकरी, भेंड़, घोड़ा, कुत्ता और गदहा। जंगली पशु भी सात हैं (यथा--सिंह,
बाघ, भेड़िया, हाथी, वानर, भालू और मृग)। गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टप, बृहती,
पंक्ति, त्रिष्टप् और जगती--ये सात ही छन््द एक-एक यज्ञका निर्वाह करते हैं।
सप्तर्षि नामसे प्रसिद्ध ऋषियोंकीः संख्या भी सात ही है (यथा--मरीचि, अत्रि,
पुलह, पुलस्त्य, क्रतु, अंगिरा और वसिष्ठ), पूजनके संक्षिप्त उपचार भी सात हैं
(यथा--गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, आचमन और ताम्बूल) तथा वीणाके भी
सात ही तार विख्यात हैं ।। १४ ।।
अष्टावक्र उवाच
अष्टौ शाणा: शतमानं वहन्ति
तथाष्टपाद: शरभ: सिंहघाती ।
अष्टौ वसूज्शुश्रुम देवतासु
यूपश्चाष्टस्रिविहित: सर्वयज्ञे || १५ ।।
अष्टावक्र बोले--तराजूमें लगी हुई सनकी डोरियाँ भी आठ ही होती हैं, जो
सैकड़ोंका मान (तौल) करती हैं। सिंहको भी मार गिरानेवाले शरभके आठ ही
पैर होते हैं। देवताओंमें वसुओंकी* संख्या भी आठ ही सुनी गयी है और सम्पूर्ण
यज्ञोंमें आठ कोणके ही यूपका निर्माण किया जाता है ।। १५ ।।
बन्द्ुवाच
नवैवोक्ता: सामिधेन्य: पितृणां
तथा प्राहुर्नवयोगं विसर्गम् |
नवाक्षरा बृहती सम्प्रदिष्टा
नवयोगो गणनामेति शश्वत् ।। १६ ।।
बन्दीने कहा--पितृयज्ञमें समिधा देकर अग्निको उद्दीप्त करनेके लिये जो
मन्त्र पढ़े जाते हैं उन्हें सामिधेनी ऋचा कहते हैं, उनकी संख्या नौ ही बतायी
गयी है। यह जो नाना प्रकारकी सृष्टि दिखायी देती है, इसमें प्रकृति, पुरुष,
महत्तत्त्व, अहंकार तथा पज्चतन्मात्रा--इन नौ पदार्थोंका संयोग कारण है, ऐसा
विज्ञ पुरुषोंका कथन है। बृहती-छन्दके प्रत्येक चरणमें नौ अक्षर बताये गये हैं
और एकसे लेकर नौ अंकोंका योग ही सदा गणनाके उपयोगमें आता
है ।। १६ ।।
अष्टावक्र उवाच
दिशो दशोक्ता: पुरुषस्य लोके
सहस्रमाहुर्दशपूर्ण शतानि ।
दशैव मासान् बिश्रति गर्भवत्यो
दशैरका दश दाशा दशार्हा: ।। १७ ।।
अष्टावक्रने कहा--पुरुषके लिये संसारमें दस दिशाएँ बतायी गयी हैं। दस
सौ मिलकर ही पूरा एक सहस्र कहा जाता है, गर्भवती स्त्रियाँ दस मासतक ही
गर्भ धारण करती हैं, निन्दक भी दसः ही होते हैं, शरीरकी अवस्थाएँ भी दसः हैं
तथा पूजनीय पुरुष भी दसः ही बताये गये हैं ।। १७ ।।
बन्द्ुवाच
एकादशैकादशिन: पशूना-
मेकादशैवात्र भवन्ति यूपा: ।
एकादश प्राणभृतां विकारा
एकादशोक्ता दिवि देवेषु रुद्रा: ।। १८ ।।
बन्दीने कहा--प्राणधारी पशुओं (जीवों)-के लिये ग्यारह विषयः हैं। उन्हें
प्रकाशित करनेवाली इन्द्रियाँ भी ग्यारह ही हैं, यज्ञ, याग आदियमें यूप भी ग्यारह
ही होते हैं, प्राणियोंके विकारः भी ग्यारह हैं, तथा स्वर्गीय देवताओंमें जो रुद्र+
कहलाते हैं; उनकी संख्या भी ग्यारह ही है ।। १८ ।।
अद्टावक्र उवाच
संवत्सरं द्वादशमासमाहु-
ज॑गत्या: पादो द्वादशैवाक्षराणि ।
द्वादशाह: प्राकृतो यज्ञ उक्तो
द्वादशादित्यान् कथयन्तीह धीरा: ।। १९ |।
अष्टावक्र बोले--एक संवत्सरमें बारह महीने बताये गये हैं, जगती छन््दका
प्रत्येक पाद बारह अक्षरोंका होता है, प्राकृत यज्ञ बारह दिनोंका माना गया है,
ज्ञानी पुरुष यहाँ बारहरें आदित्योंका वर्णन करते हैं |। १९ ।।
बन्द्युवाच
त्रयोदशी तिथिरुक्ता प्रशस्ता
त्रयोदशद्वीपवती मही च ।
बन्दीने कहा--त्रयोदशी तिथि उत्तम बतायी गयी है तथा यह पृथ्वी तेरह
द्वीपोंसे युक्त है।
लोगश उवाच
एतावदुक्त्वा विर॒राम बन्दी
श्लोकस्यार्ध व्याजहाराष्ट्रवक्र: ।
लोमशजी कहते हैं--इतना कहकर बन्दी चुप हो गया। तब शेष आधे
श्लोककी पूर्ति अष्टावक्रने इस प्रकार की।
अद्टावक्र उवाच
त्रयोदशाहानि ससार केशी
त्रयोदशादीन्यतिच्छन्दांसि चाहु: ।। २० ।।
अष्टावक्र बोले--केशी नामक दानवने भगवान् विष्णुके साथ तेरह*
दिनोंतक युद्ध किया था। वेदमें जो अतिशब्द-विशिष्ट छन््द बताये गये हैं, उनका
एक-एक पाद तेरह आदि अक्षरोंसे सम्पन्न होता है (अर्थात् अतिजगती छन््दका
एक पाद तेरह अक्षरोंका, अतिशक्वरीका एक पाद पन्न्द्रह अक्षरोंका, अत्यष्टिका
प्रत्येक पाद सत्रह अक्षरोंका तथा अतिधृतिका हर एक पाद उन्नीस अक्षरोंका
होता है) |। २० ।।
ततो महानुदतिष्ठन्निनाद-
स्तृष्णींभूतं सूतपुत्र॑ निशम्य |
अधोमुखं ध्यानपरं तदानी-
मष्टावक्रं चाप्युदीर्यन्तमेव ।। २१ ।।
लोमशजी कहते हैं--इतना सुनते ही सूतपुत्र बन्दी चुप हो गया और मुँह
नीचा किये किसी भारी सोच-विचारमें पड़ गया। इधर अष्टावक्र बोलते ही रहे,
यह सब देख दर्शकों और श्रोताओंमें महान् कोलाहल मच गया ।। २१ ।।
तस्मिंस्तथा संकुले वर्तमाने
स्फीते यज्ञे जनकस्योत राज्ञ: |
अष्टावक्रं पूजयन्तो< भ्युपेयु-
विंप्रा: सर्वे प्राजजलय: प्रतीता: ।। २२ ।।
महाराज जनकके उस समृद्धिशाली यज्ञमें जबकि चारों ओर कोलाहल
व्याप्त हो रहा था, सब ब्राह्मण हाथ जोड़े हुए श्रद्धापूर्वक अष्टावक्रके समीप
आये और उनका आदर-सत्कारपूर्वक पूजन किया ।। २२ ।।
अष्टावक्र उवाच
अनेनैव ब्राह्मणा: शुश्रुवांसो
वादे जित्वा सलिले मज्जिता: प्राक् ।
तानेव धर्मानयमद्य बन्दी
प्राप्रोतु गृह्दाप्सु निमज्जयैनम् ।। २३ ।।
तत्पश्चात् अष्टावक्रने कहा--महाराज! इस बन्दीने पहले बहुत-से शास्त्रज्ञ
(विद्वान) ब्राह्मणोंको शास्त्रार्थमें पराजित करके पानीमें डुबवाया है, अत: इसकी
भी वही गति होनी चाहिये जो इसके द्वारा दूसरोंकी हुई। इसलिये इसे पकड़कर
शीघ्र पानीमें डुबवा दीजिये || २३ ।।
बन्द्ुवाच
अहं पुत्रो वरुणस्योत राज्ञ-
स्तत्रास सत्रं द्वादशवार्षिकं वै ।
सत्रेण ते जनक तुल्यकालं
तदर्थ ते प्रहिता मे द्विजाग्रया: ।। २४ ।।
बन्दी बोला--महाराज जनक! मैं राजा वरुणका पुत्र हूँ। मेरे पिताके यहाँ
भी आपके इस यज्ञके समान ही बारह वर्षोमें पूर्ण होनेवाला यज्ञ हो रहा था।
उस यज्ञके अनुष्ठानके लिये ही (जलमें डुबानेके बहाने) कुछ चुने हुए श्रेष्ठ
ब्राह्मणोंको मैंने वरूणलोकमें भेज दिया था || २४ ।।
ते तु सर्वे वरुणस्योत यज्ञं
द्रष्ट गता इह आयान्ति भूय: ।
अष्टावक्रं पूजये पूजनीयं
यस्य हेतोर्जनितारं समेष्ये || २५ ।।
वे सब-के-सब वरुणका यज्ञ देखनेके लिये गये हैं और अब पुनः लौटकर
आ रहे हैं। मैं पूजनीय ब्राह्मण अष्टावक्रजीका सत्कार करता हूँ; जिनके कारण
मेरा अपने पिताजीसे मिलना होगा || २५ ।।
अद्टावक्र उवाच
विप्रा: समुद्राम्भसि मज्जिता ये
वाचा जिता मेधया वा विदाना: ।
तां मेधया वाचमथोज्जहार
यथा वाचमवचिन्वन्ति सन्त: ।। २६ ।।
अष्टावक्र बोले--राजन्! बन्दीने अपनी जिस वाणी (प्रवचनपटुता अथवा
मेधा--बुद्धिबल)-से विद्वान् ब्राह्मणोंको भी परास्त किया और समुद्रके जलमें
डुबोया है, उसकी उस वाकृशक्तिको मैंने अपनी बुद्धिसे किस प्रकार उखाड़
फेंका है, यह सब इस सभामें बैठे हुए विद्वान् पुरुष मेरी बातें सुनकर ही जान
गये होंगे || २६ ।।
अन्निर्दहज्जातवेदा: सतां गृहान्
विसर्जयंस्तेजसा न सम धाक्षीत्
बालेषु पुत्रेषु कृपणं वदत्सु
तथा वाचमवचिन्वन्ति सन्त: ।। २७ |।
अग्नि स्वभावसे ही दहन करनेवाला है तो भी वह ज्ञेय विषयको तत्काल
जाननेमें समर्थ है। इस कारण परीक्षाके समय जो सदाचारी और सत्यवादी होते
हैं उनके घरोंको (शरीरोंको) छोड़ देता है, जलाता नहीं। वैसे ही संतलोग भी
विनम्रभावसे बोलनेवाले बालक पुत्रोंके वचनोंमेंसे जो सत्य और हितकर बात
होती है, उसे चुन लेते हैं--(उसे मान लेते हैं, उनकी अवहेलना नहीं करते)।
भाव यह कि तुमको मेरे वचनोंका भाव समझकर उन्हें ग्रहण करना
चाहिये ।। २७ ।।
श्लेष्मातकी क्षीणवर्चा: शृणोषि
उताहो त्वां स्तुतयों मादयन्ति ।
हस्तीव त्वं जनक विनुद्यमानो
न मामिकां वाचमिमां शूणोषि ।। २८ ।।
राजन! जान पड़ता है, तुमने लसोड़ेके पत्तोंपर भोजन किया है या उसका
फल खा लिया है, इसीसे तुम्हारा तेज क्षीण हो गया है; अतः तुम बन्दीकी बात
सुन रहे हो, अथवा इस बन्दीद्वारा की गयी स्तुतियाँ तुम्हें उन््मत्त कर रही हैं। यही
कारण है कि अंकुशकी मार खाकर भी न माननेवाले मतवाले हाथीकी भाँति
तुम मेरी इन बातोंको नहीं सुन रहे हो || २८ ।।
जनक उवाच
शृणोमि वाचं तव दिव्यरूपा-
ममानुषीं दिव्यरूपो5सि साक्षात् |
अजैषीर्यद् बन्दिनं त्वं विवादे
निसृष्ट एष तव कामोउद्य बन्दी ।। २९ ।।
जनकने कहा--ब्रह्मन्! मैं आपकी दिव्य एवं अलौकिक वाणी सुन रहा हूँ,
आप साक्षात् दिव्यस्वरूप हैं, आपने शात्त्रार्थमें बन्दीको जीत लिया है। आपकी
इच्छा अभी पूरी की जा रही है। देखिये यह है आपके द्वारा जीता हुआ
बन्दी || २९ |।
अष्टावक्र उवाच
नानेन जीवता कक्रिदर्थों मे बन्दिना नूप ।
पिता यद्यस्य वरुणो मज्जयैनं जलाशये ।। ३० ।।
अष्टावक्र बोले--महाराज! इस बन्दीके जीवित रहनेसे मेरा कोई प्रयोजन
नहीं है। यदि इसके पिता वरुणदेव हैं तो उनके पास जानेके लिये इसे निश्चय ही
जलाशयमें डुबो दीजिये || ३० ।।
बन्द्युवाच
अहं पुत्रो वरुणस्योत राज्ञो
न मे भयं विद्यते मज्जितस्य ।
इमं मुहूर्त पितरं द्रक्ष्यते5य-
मष्टावक्रश्चिरनष्टं कहोडम् ।। ३१ ।।
बन्दीने कहा--राजन! मैं वास्तवमें राजा वरुणका पुत्र हूँ, अत: जलमें
डुबाये जानेका मुझे कोई भय नहीं है। ये अष्टावक्र दीर्घकालसे नष्ट हुए अपने
पिता कहोडको इसी समय देखेंगे || ३१ ।।
लोगश उवाच
ततस्ते पूजिता विप्रा वरुणेन महात्मना ।
उदतिष्ठंस्तत: सर्वे जनकस्य समीपत: ।। ३२ ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठिर! तदनन्तर महामना वरुणद्वारा पूजित हुए वे
समस्त ब्राह्मण (जो बन्दीद्वारा जलमें डुबोये गये थे) सहसा राजा जनकके
समीप प्रकट हो गये ।। ३२ ।।
कहोड उवाच
इत्यर्थमिच्छन्ति सुताञउ्जना जनक कर्मणा ।
यदहं नाशकं कर्तु तत् पुत्र: कृतवान् मम ।। ३३ ||
उस समय कहोडने कहा--जनकराज! लोग इसीलिये अच्छे कर्मोद्वारा
पुत्र पानेकी इच्छा रखते हैं, क्योंकि जो कार्य मैं नहीं कर सका, उसे मेरे पुत्रने
कर दिखाया ।। ३३ ।।
उताबलस्य बलवानुत बालस्य पण्डित: ।
उत वाविदुषो विद्वान् पुत्रो जनक जायते ।। ३४ ।।
जनकराज! कभी-कभी निर्बलके भी बलवान, मूर्खके भी पण्डित तथा
अज्ञानीके भी ज्ञानी पुत्र उत्पन्न हो जाता है ।। ३४ ।।
शितेन ते परशुना स्वयमेवान्तको नृप ।
शिरांस्यपाहरत्वाजौ रिपूणां भद्रमस्तु ते || ३५ ।।
राजन्! आपका कल्याण हो, युद्धमें स्वयं ही यमराज तीखे फरसेसे आपके
शत्रुओंके मस्तक काटते रहें ।। ३५ ।।
महदौक्थ्यं गीयते साम चाग्रयं
सम्यक् सोम: पीयते चात्र सत्रे
शुचीन् भगान् प्रतिजगृहुश्न हृष्टा:
साक्षाद् देवा जनकस्योत राज्ञ: ।। ३६ ।।
महाराज जनकके इस यज्ञमें उत्तम एवं महत्त्वपूर्ण और औक्थ्य- सामका
गान किया जाता है, विधिपूर्वक सोमरसका पान हो रहा है, देवगण प्रत्यक्ष दर्शन
देकर बड़े हर्षके साथ अपने-अपने पवित्र भाग ग्रहण कर रहे हैं || ३६ ।।
लोगश उवाच
समुत्थितेष्वथ सर्वेषु राजन्
विप्रेषु तेष्वधिकं सुप्रभेषु ।
अनुज्ञातो जनकेनाथ राज्ञा
विवेश तोयं सागरस्योत बन्दी ।। ३७ ||
लोमशजी कहते हैं--राजन! बन्दीद्वारा जलमें डुबोये हुए वे सभी ब्राह्मण
जब वहाँ अधिक तेजस्वी रूपसे प्रकट हो गये, तब राजाकी आज्ञा लेकर बन्दी
स्वयं ही समुद्रके जलमें समा गया ।। ३७ ।।
अष्टावक्र: पितरं पूजयित्वा
सम्पूजितो ब्राह्मणैस्तैर्यथावत् ।
प्रत्याजगामाश्रममेव चाग्रयं
जित्वा सौतिं सहितो मातुलेन ।। ३८ ।।
अष्टावक्र अपने पिताकी पूजा करके स्वयं भी दूसरे ब्राह्मणोंद्वारा
यथोचितरूपसे सम्मानित हुए; और इस प्रकार बन्दीपर विजय पाकर पिता एवं
मामाके साथ अपने श्रेष्ठ आश्रमपर ही लौट आये ।। ३८ ।।
ततोडष्टावक्रमातुरथान्तिके पिता
नदीं समड्जां शीघ्रमिमां विशस्व ।
प्रोवाच चैनं स तथा विवेश
समैरद्जैश्वापि बभूव सद्य: ।। ३९ |।
तदनन्तर पिता कहोडने अष्टावक्रकी माता सुजाताके निकट पुत्र अष्टावक्रसे
कहा--“बेटा! तुम शीघ्र ही इस “समंगा” नदीमें स्नानके लिये प्रवेश करो।'
पिताकी आज्ञाके अनुसार उन्होंने उस नदीमें स्नानके लिये प्रवेश किया। उसके
जलका स्पर्श होनेपर तत्काल ही उनके सब अंग सीधे हो गये ।। ३९ ।।
नदी समड् च बभूव पुण्या
यस्यां स्नातो मुच्यते किल्बिषाद्धि |
त्वमप्येनां सनानपानावगाहै:
सभ्रातृक: सहभारयों विशस्व ।। ४० ।।
युधिष्ठिर! इसीसे समंगा नदी पुण्यमयी हो गयी। इसमें स्नान करनेवाला
मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। तुम भी स्नान, पान (आचमन) और
अवगाहनके लिये अपनी पत्नी और भाइयोंके साथ इस नदीमें प्रवेश
करो ।। ४० ।।
अत्र कौन्तेय सहितो भ्रातृभिस्त्व॑
सुखोषित: सह विप्रै: प्रतीत: ।
पुण्यान्यन्यानि शुचिकर्मैकभक्ति-
मया सार्थ चरितस्याजमीढ ।। ४१ ।।
अजमीढकुलभूषण कुन्तीनन्दन! तुम विश्वासपूर्वक अपने भाइयों और
ब्राह्मणोंके साथ यहाँ एक रात सुखसे रहकर कलसे पुनः मेरे साथ पवित्र कर्मोमें
अविचल श्रद्धा-भक्ति रखते हुए दूसरे-दूसरे पुण्यतीर्थोकी यात्रा करना ।। ४१ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि
लोमशतीर्थयात्रायामष्टावक्रीये चतुस्त्रिंशयदाधिकशततमो<ध्याय: ।। १३४ ।।
इस प्रकार श्रीमह़्ा भारत वनपव्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापरवमें लोमशती र्थयात्राके
प्रसंगें अष्टावक्रीयोपाख्यानविषयक एक सौ चौंतीसवाँ अध्याय पूरा
हुआ ॥। १३४ ॥।
ह... “+(>) #:६-3 #2६.०
- यहाँ अष्टावक्रजीने परोक्षरूपमें ही प्रश्नका उत्तर दिया है। भाव यह है कि दो तत्त्व, जिनको वैदिक
भाषामें रयि और प्राणके नामसे कहा है (देखिये प्रश्नोपनिषद् १।४) एवं अंग्रेजीमें जिनको पोजिटिव
(अनुलोम) और निगेटिव (प्रतिलोम) कहते हैं, स्वभावसे ही संयुक्त रहनेवाले हैं। इनका ही व्यक्त रूप
विद्युत-शक्ति है। उसे गर्भकी भाँति मेघ धारण किये रहता है। संघर्षसे वह प्रकट होती है और आकर्षण
होनेपर बाजकी भाँति गिरती है। जहाँ गिरती है वहाँ सबको भस्म कर देती है; इसलिये यह कहा गया कि
वह कभी आपके शत्रुओंके घरपर भी न पड़े। इन दो तत्त्वोंकी संयुक्त शक्तिसे ही मेघकी उत्पत्ति होती है।
इसलिये यह कहा गया कि उस मेघरूप गर्भको ये उत्पन्न करते हैं।
$- ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास। २- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। ३- पूर्व, दक्षिण,
पश्चिम तथा उत्तर। ४- हस्व, दीर्घ, प्लुत और हल्। ५- परा, पश्यन्ती मध्यमा और वैखरी--ये वाणीके चार
पैर हैं। ६- आठ-आठ अक्षरके पाँच पादोंसे पंक्तिछन्दकी सिद्धि होती है। ७- त्वचा, श्रोत्र, नेत्र, रसना और
नासिका--ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। ८- पंचचूड़ा अप्सराका उल्लेख महाभारतके अनुशासनपर्वमें ३८वें
अध्यायमें भी आया है। ९- विपाशा (व्यास), इरावती (रावी), वितस्ता (झेलम), चन्द्रभागा (चिनाव) और
शतद्रू (शतलज) ये ही पञ्चनद प्रदेशकी पाँच नदियाँ हैं।
३- हिरन, शूकर, खरगोश, गीदड़ आदि जन्तुओंका ग्रहण मृग नामसे ही हो जाता है।
२- सप्तर्षि ये हैं--
मरीचिरड्िराश्षात्रि: पुलस्त्य: पुलह: क्रतु: । वसिष्ठ इति सप्तैते मानसा निर्मिता हि ते ।।
(महा० शान्ति० ३४०।६९)
“(भगवानने स्वयं ब्रह्माजीसे कहा है कि) मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ--ये
सातों महर्षि तुम्हारे (ब्रह्माजीके) द्वारा ही अपने मनसे रचे हुए हैं।'
3- धरो ध्रुवश्च सोमश्न अहश्वैवानिलोडनल: । प्रत्यूषश्न प्रभासश्व॒ वसवोडष्टौ प्रकीर्तिता: ।।
(महा० आदि० ६६।१८)
“धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास--ये आठ वसु कहे गये हैं।'
४- यथा रोगी, दरिद्र, शोकार्त्त, राजदण्डित, शठ, खल, वृत्तिसे वंचित, उन्मत्त, ई्ष्यापरायण और कामी
>-ये दस निन्दक होते हैं। जैसा कि निम्नांकित श्लोकसे सिद्ध होता है--“आमयी दुर्मतः शोकी
दण्डितश्न शठ: खल: । नष्टवृत्तिर्मदी चेष्यीं कामी च दश निन्दका: ॥। ” (इति नीतिशास्त्रोक्ति:) ५- उन
दसों अवस्थाओंके नाम इस प्रकार हैं--गर्भवास, जन्म, बाल्य, कौमार, पौगण्ड, कैशोर, यौवन, प्रौद़,
वार्द्धक्य तथा मृत्यु। ६- अध्यापक, पिता, ज्येष्ठ भ्राता, राजा, मामा, श्वशुर, नाना, दादा, अपनेसे बड़ी
अवस्थावाले कुट॒म्बी तथा पितृव्य (चाचा-ताऊ)--ये दस पूजनीय पुरुष माने गये हैं। जैसा कि
कूर्मपुराणका वचन है--उपाध्याय: पिता ज्येष्ठश्राता चैव महीपति: । मातुल: श्वशुरश्वैव
मातामहपितामहौ ।। बन्धुर्जेष्ठ: पितृव्यश्न पुंस्येते गुरवो मता: ।।
३- वाक्य बोलना, ग्रहण करना, चलना-फिरना, मलत्याग करना और मैथुनजनित सुखका अनुभव
करना--ये पाँच कर्मेन्द्रियोंके विषय हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध--ये पाँच ज्ञानेन्द्रियोंके विषय हैं
और इन सबका मनन--मनका विषय है। इस प्रकार कुल मिलाकर ग्यारह विषय हैं।
२- काम-क्रोध, लोभ-मोह, मद-मत्सर, हर्ष-शोक, राग-द्वेष और अहंकार--ये ग्यारह विकार होते हैं।
3- एकादश रुद्र ये हैं--
मृगव्याधश्च सर्पश्च निर्क्रतिश्ष महायशा: । अजैकपादहिर्बु धन्य: पिनाकी च परंतप: ।।
दहनोअथेश्वरश्वैव कपाली च महाद्युति: । स्थाणुर्भवश्च भगवान् रुद्रा एकादश स्मृता: ।।
(महाभारत आदि० ६६।२-३)
“मृगव्याध, सर्प, महायशस्वी निर्क्रति, अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, शत्रु-संतापन पिनाकी, दहन, ईश्वर,
परमकान्तिमान् कपाली, स्थाणु और भगवान् भव--ये ग्यारह रुद्र माने गये हैं।'
४- द्वादश आदित्य ये हैं--
धाता मित्रोडर्यमा शक्रो वरुणस्त्वंश एव च । भगो विवस्वान् पूषा च सविता दशमस्तथा ।।
एकादशस्तथा त्वष्टा द्वादशो विष्णुरुच्यते ।
(महा० आदि० ६५।१५-१६)
“धाता, मित्र, अर्यमा, इन्द्र, वरुण, अंश, भग, विवस्वान्, पूषा, दसवें सविता, ग्यारहवें त्वष्टा और बारहवें
विष्णु कहे गये हैं।'
५- नृसिंहपुराणमें यही बात कही गयी है--“युयुधे विष्णुना सार्ध त्रयोदश दिनान्यसौ ।”
> उक्थ नाम यज्ञविशेषमें गाये जानेयोग्य सामको औक्थ्य कहते हैं।
पजञ्चत्रिशदधिकशततमो< ध्याय:
कर्दमिलक्षेत्र आदि तीर्थोंकी महिमा, रैभ्य एवं भरद्वाजपुत्र
यवक्रीत मुनिकी कथा तथा ऋषियोंका अनिष्ट करनेके
कारण मेधावीकी मृत्यु
लोगश उवाच
एषा मधुविला राजन् समड्जा सम्प्रकाशते ।
एतत् कर्दमिलं नाम भरतस्याभिषेचनम् ।। १ ।।
लोमशजी कहते हैं--राजन्! यह मधुविला नदी प्रकाशित हो रही है। इसीका दूसरा
नाम समंगा है और यह कर्दमिल नामक क्षेत्र है, जहाँ राजा भरतका अभिषेक किया गया
था।। १॥।
अलक्ष्म्या किल संयुक्तो वृत्रं हत्वा शचीपति: ।
आप्लुत: सर्वपापेभ्य: समज्ायां व्यमुच्यत ।। २ ॥।
कहते हैं, वृत्रासुरका वध करके जब शचीपति इन्द्र श्रीहीन हो गये थे, उस समय उस
समंगा नदीमें गोता लगाकर ही वे अपने सब पापोंसे छुटकारा पा सके थे ।। २ ।।
एतदू् विनशनं कुक्षौ मैनाकस्य नरर्षभ ।
अदितिर्य॑त्र पुत्रार्थ तदन्नमपचत् पुरा ।। ३ ।।
नरश्रेष्ठ) मैनाक पर्वतके कुक्षिभागमें यह विनशन नामक तीर्थ है, जहाँ पूर्वकालमें
अदिति देवीने पुत्र-प्राप्तिके लिये साध्य देवताओंके उद्देश्यसे अन्न- तैयार किया था ।। ३ ।।
एनं॑ पर्वतराजानमारुह्म भरतर्षभा: ।
अयशस्यामसंशब्द्यामलक्ष्मीं व्यपनोत्स्यथ ।। ४ ।।
भरतवंशके श्रेष्ठ पुरुषो! इस पर्वतराज हिमालयपर आरूढ़ होकर तुम सब अयश
फैलानेवाली और नाम लेनेके अयोग्य अपनी श्रीहीनताको शीघ्र ही दूर भगा दोगे ।। ४ ।।
एते कनखला राजन्नृषीणां दयिता नगा: ।
एषा प्रकाशते गड़ा युधिष्ठिर महानदी ।। ५ ।।
युधिष्ठिर! ये कनखलकी पर्वत-मालाएँ हैं जो ऋषियोंको बहुत प्रिय लगती हैं। ये
महानदी गंगा सुशोभित हो रही हैं ।। ५ ।।
सनत्कुमारो भगवानत्र सिद्धिमगात् पुरा ।
आजमीढावगाहौनां सर्वपापै: प्रमोक्ष्यसे || ६ ।।
यहीं पूर्वकालमें भगवान् सनत्कुमारने सिद्धि प्राप्त की थी। अजमीढनन्दन! इस गंगामें
स्नान करके तुम सब पापोंसे छुटकारा पा जाओगे ।। ६ ।।
अपां हदं च पुण्याख्यं भृगुतुड़ूं च पर्वतम् ।
उष्णीगज़े च कौन्तेय सामात्य: समुपस्पृश ।। ७ ।।
कुन्तीकुमार! जलके इस पुण्य सरोवर, भृगुतुंग पर्वतपर तथा “उष्णीगंग” नामक तीर्थमें
जाकर तुम अपने मन्त्रियोंसहित स्नान और आचमन करो ।। ७ ।।
आश्रम: स्थूलशिरसो रमणीय: प्रकाशते ।
अत्र मानं च कौन्तेय क्रोधं चैव विवर्जय ।। ८ ।।
यह स्थूलशिरा मुनिका रमणीय आश्रम शोभा पा रहा है। कुन्तीनन्दन! यहाँ अहंकार
और क्रोधको त्याग दो ।। ८ ।।
एष रैभ्याश्रम: श्रीमान् पाण्डवेय प्रकाशते ।
भारद्वाजो यत्र कविर्यवक्रीतो व्यनश्यत ।। ९ ।।
पाण्डुनन्दन! यह रैभ्यका सुन्दर आश्रम प्रकाशित हो रहा है, जहाँ विद्वान् भरद्वाजपुत्र
यवक्रीत नष्ट हो गये थे ।। ९ ।।
युधिछिर उवाच
कथं युक्तो5भवदृषिर्भरद्वाज: प्रतापवान् |
किमर्थ च यवक्रीत: पुत्रोडनश्यत वै मुनेः ।। १० ।।
युधिष्ठिरने पूछा--ब्रह्मन्! प्रतापी भरद्वाज मुनि कैसे योगयुक्त हुए थे और उनके पुत्र
यवक्रीत किसलिये नष्ट हो गये थे? ।। १० ।॥।
एतत् सर्व यथावृत्तं श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ।
कर्मभिददेवकल्पानां कीर्त्यमानैर्भृशं रमे ।। ११ ।।
ये सब बातें मैं यथार्थरूपसे ठीक-ठीक सुनना चाहता हूँ। उन देवोपम मुनियोंके
चरित्रोंका वर्णन सुनकर मेरे मनको बड़ा सुख मिलता है || ११ ।।
लोमश उवाच
भरद्वाजश्न रैभ्यश्व सखायौ सम्बभूवतु: ।
तावूषतुरिहात्यन्तं प्रीयमाणावनन्तरम् ।। १२ ।।
लोमशजीने कहा--राजन्! भरद्वाज तथा रैभ्य दोनों एक-दूसरेके सखा थे और
निरन्तर इसी आश्रममें बड़े प्रेमसे रहा करते थे | १२ ।।
रैभ्यस्य तु सुतावास्तामर्वावसुपरावसू ।
आसीद्ू यवक्री: पुत्रस्तु भरद्वाजस्य भारत ।। १३ ।।
रैभ्यके दो पुत्र थे--अर्वावसु और परावसु। भारत! भरद्वाजके पुत्रका नाम “यवक्री'
अथवा “यवक्रीत' था ।। १३ ।।
रैभ्यो विद्वान् सहापत्यस्तपस्वी चेतरो5भवत् |
तयाश्षाप्यतुला कीर्तिबल्यात् प्रभृति भारत ।। १४ ।।
भारत! पुत्रोंसहित रैभ्य बड़े विद्वान थे, परंतु भरद्वाज केवल तपस्यामें संलग्न रहते थे।
युधिष्ठिर! बाल्यावस्थासे ही इन दोनों महात्माओंकी अनुपम कीर्ति सब ओर फैल रही
थी ।। १४ ।।
यवक्री: पितरं दृष्टवा तपस्विनमसत्कृतम् ।
दृष्टवा च सत्कृतं विप्रै रैभ्यं पुत्रै: सहानघ ।। १५ ।।
निष्पाप युधिष्ठिर! यवक्रीतने देखा, मेरे तपस्वी पिताका लोग सत्कार नहीं करते हैं;
परंतु पुत्रोंसहित रैभ्यका ब्राह्मणोंद्वारा बड़ा आदर होता है || १५ ।।
पर्यतप्यत तेजस्वी मन्युनाभिपरिप्लुत: ।
तपस्तेपे ततो घोरं वेदज्ञानाय पाण्डव ।। १६ ।।
यह देख तेजस्वी यवक्रीतको बड़ा संताप हुआ। पाण्डुनन्दन! वे क्रोधसे आविष्ट हो
वेदोंका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये घोर तपस्यामें लग गये || १६ ।।
स समिद्धे महत्यग्नौ शरीरमुपतापयन् ।
जनयामास संतापमिन्द्रस्य सुमहातपा: ।। १७ ।।
उन महातपस्वीने अत्यन्त प्रज्ज्वलित अग्निमें अपने शरीरको तपाते हुए इन्द्रके मनमें
संताप उत्पन्न कर दिया ।।
तत इन्द्रो यवक्रीतमुपगम्य युधिष्िर ।
अब्रवीत् कस्य हेतोस्त्वमास्थितस्तप उत्तमम् ।। १८ ।।
युधिष्ठिर! तब इन्द्र यवक्रीतके पास आकर बोले--“तुम किसलिये यह उच्चकोटिकी
तपस्या कर रहे हो?” ।। १८ ।।
यवक्रीत उवाच
द्विजानामनधीता वै वेदा: सुरगणार्चित ।
प्रतिभान्त्विति तप्येडहमिदं परमकं तप: ।। १९ ।।
यवक्रीतने कहा--देववृन्दपूजित महेन्द्र! मैं यह उच्चकोटिकी तपस्या इसलिये करता
हूँ कि द्विजातियोंको बिना पढ़े ही सब वेदोंका ज्ञान हो जाय ।। १९ ||
स्वाध्यायार्थ समारम्भो ममायं पाकशासन |
तपसा ज्ञातुमिच्छामि सर्वज्ञानानि कौशिक ।। २० |।।
पाकशासन! मेरा यह आयोजन स्वाध्यायके लिये ही है। कौशिक! मैं तपस्याद्वारा सब
बातोंका ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ ।। २० ।।
कालेन महता वेदा: शक््या गुरुमुखाद् विभो ।
प्राप्तुं तस्मादयं यत्न: परमो मे समास्थित: ।। २१ ।।
प्रभो! गुरुके मुखसे दीर्घकालके पश्चात् वेदोंका ज्ञान हो सकता है। अतः मेरा यह महान्
प्रयत्न शीघ्र ही सम्पूर्ण वेदोंका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये है ।। २१ ।।
इन्द्र उवाच
अमार्ग एष विदप्रर्षे येन त्वं यातुमिच्छसि ।
कि विघातेन ते विप्र गच्छाधीहि गुरोर्मुखात् ।। २२ ।।
इन्द्र बोले--विप्ररषे! तुम जिस राहसे जाना चाहते हो, वह अध्ययनका मार्ग नहीं है।
स्वाध्यायके समुचित मार्गको नष्ट करनेसे तुम्हें क्या लाभ होगा? अतः: जाओ गुरुके मुखसे
ही अध्ययन करो || २२ ।।
लोमश उवाच
एवमुक्त्वा गत: शक्रो यवक्रीरपि भारत ।
भूय एवाकरोदू यत्नं तपस्यमितविक्रम: ।। २३ ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठिर! ऐसा कहकर इन्द्र चले गये; तब अत्यन्त पराक्रमी
यवक्रीतने भी पुनः तपस्याके लिये ही घोर प्रयास आरम्भ कर दिया ।। २३ ।।
घोरेण तपसा राजंस्तप्यमानो महत् तपः ।
संतापयामास भृशं देवेन्द्रमिति नः श्रुतम् ।। २४ ।।
राजन! उसने घोर तपस्याद्वारा महान् तपका संचय करते हुए देवराज इन्द्रको अत्यन्त
संतप्त कर दिया; यह बात हमारे सुननेमें आयी है || २४ ।।
त॑ तथा तप्यमानं तु तपस्तीव्रं महामुनिम् ।
उपेत्य बलभिद् देवो वारयामास वै पुन: ।। २५ ।।
अशक्योडर्थ: समारब्धो नैतद् बुद्धिकृतं तव ।
प्रतिभास्यन्ति वै वेदास्तव चैव पितुश्न ते । २६ ।।
महामुनि यवक्रीतको इस प्रकार तपस्या करते देख इन्द्रने उनके पास जाकर पुनः मना
किया और कहा--'मुने! तुमने ऐसे कार्यका आरम्भ किया है जिसकी सिद्धि होनी असम्भव
है। तुम्हारा यह (द्विजमात्रके लिये बिना पढ़े वेदका ज्ञान होनेका) आयोजन बुद्धि-संगत नहीं
है; किंतु केवल तुमको और तुम्हारे पिताको ही वेदोंका ज्ञान होगा” || २५-२६ ।।
यवक्रीत उवाच
न चैतदेवं क्रियते देवराज ममेप्सितम् ।
महता नियमेनाहं तप्स्ये घोरतरं तप: ।। २७ ।।
यवक्रीतने कहा--देवराज! यदि इस प्रकार आप मेरे इष्ट मनोरथकी सिद्धि नहीं करते
हैं तो मैं और भी कठोर नियम लेकर अत्यन्त भयंकर तपस्यामें लग जाऊँगा ।। २७ ।।
समिद्धेडग्नावुपकृत्याड्रमड़ूं
होष्यामि वा मघवंस्तन्निबोध ।
यद्येतदेवं न करोषि काम॑
ममेप्सितं देवराजेह सर्वम् ।। २८ ।।
देवराज इन्द्र! यदि आप यहाँ मेरी सारी मनोवांछित कामना पूरी नहीं करते हैं तो मैं
प्रज्वलित अग्निमें अपने एक-एक अंगको होम दूँगा। इस बातको आप अच्छी तरह समझ
लें ।। २८ ।।
लोगश उवाच
निश्चयं तमभिज्ञाय मुनेस्तस्य महात्मन: ।
प्रतिवारणहेत्वर्थ बुद्धया संचिन्त्य बुद्धिमान् ।। २९ ।।
तत इन्द्रोडकरोद् रूपं ब्राह्मणस्य तपस्विन: ।
अनेकशतवर्षस्य दुर्बलस्यथ सयक्ष्मण: ।। ३० ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठिर! उन महामुनिके उस निश्चयको जानकर बुद्धिमान्
इन्द्रने उन्हें रोकनेके लिये बुद्धिपूर्वक कुछ विचार किया और एक ऐसे तपस्वी ब्राह्मणका
रूप धारण कर लिया जिसकी उम्र कई सौ वर्षोकी थी, तथा जो यक्ष्माका रोगी और दुर्बल
दिखायी देता था || २९-३० ।।
यवक्रीतस्य यत् तीर्थमुचितं शौचकर्मणि ।
भागीर थ्यां तत्र सेतुं वालुकाभिश्चवकार स: ।। ३१ ।।
गंगाके जिस तीर्थमें यवक्रीत मुनि स्नान आदि किया करते थे, उसीमें वे ब्राह्मण देवता
बालूद्वारा पुल बनाने लगे ।। ३१ ।।
यदास्य वदतो वाक्य न स चक्रे द्विजोत्तम: |
वालुकाभिस्तत: शक्रो गड़ां समभिपूरयन् ।। ३२ ।।
द्विजश्रेष्ठ यवक्रीतने जब इन्द्रका कहना नहीं माना, तब वे बालूसे गंगाजीको भरने
लगे ।। ३२ ।।
वालुकामुष्टिमनिशं भागीरथ्यां व्यसर्जयत् ।
सेतुमभ्यारभच्छक्रो यवक्रीतं निदर्शयन् ।। ३३ ।।
वे निरन्तर एक-एक मुट्ठी बालू गंगाजीमें छोड़ते थे और इस प्रकार उन्होंने यवक्रीतको
दिखाकर पुल बाँधनेका कार्य आरम्भ कर दिया ।। ३३ ।।
त॑ं ददर्श यवक्रीतो यत्नवन्तं निबन्धने ।
प्रहसंश्चाब्रवीद् वाक्यमिदं स मुनिपुड्गभवः ।। ३४ ।।
मुनिवर यवक्रीतने देखा, ब्राह्मण देवता पुल बाँधनेके लिये बड़े यत्नशील हैं, तब उन्होंने
हँसते हुए इस प्रकार कहा-- ।। ३४ ।।
किमिदं वर्तते ब्रह्मन् कि च ते ह चिकीर्षितम् |
अतीव हि महान् यत्न: क्रियतेडयं निरर्थक: ।। ३५ ।।
“ब्रह्म! यह क्या है? आप क्या करना चाहते हैं? आप प्रयत्न तो महान् कर रहे हैं,
परंतु यह व्यर्थ है! ।।
इन्द्र रवाच
बन्धिष्ये सेतुना गड़ां सुख: पन्था भविष्यति |
क्लिश्यते हि जनस्तात तरमाण: पुन: पुन: ।। ३६ ।।
इन्द्र बोले--तात! मैं गंगाजीपर पुल बाँधूँगा। इससे पार जानेके लिये सुखद मार्ग बन
जायगा; क्योंकि पुलके न होनेसे इधर आने-जानेवाले लोगोंको बार-बार तैरनेका कष्ट
उठाना पड़ता है ।। ३६ ।।
यवक्रीत उवाच
नायं शक््यस्त्वया बद्धुं महानोघस्तपोधन ।
अशक्याद विनिवर्तस्व शक््यमर्थ समारभ ।। ३७ ||
यवक्रीतने कहा--तपोधन! यहाँ अगाध जलराशि भरी है; अतः तुम पुल बाँधनेमें
सफल नहीं हो सकोगे। इसलिये इस असम्भव कार्यसे मुँह मोड़ लो और ऐसे कार्यमें हाथ
डालो जो तुमसे हो सके ।। ३७ ।।
इन्द्र रवाच
यथैव भवता चेदं तपो वेदाथमुद्यतम् ।
अशक्यं तद्वदस्माभिरयं भार: समाहित: ।। ३८ ।।
इन्द्र बोले--मुने! जैसे आपने बिना पढ़े वेदोंका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये यह तपस्या
प्रारम्भ की है जिसकी सफलता असम्भव है, उसी प्रकार मैंने भी यह पुल बाँधनेका भार
उठाया है || ३८ ।।
यवक्रीत उवाच
यथा तव निरथोंडयमारम्भस्त्रिदशेश्वर ।
तथा यदि ममापीदं मन्यसे पाकशासन ।। ३९ |।
क्रियतां यद् भवेच्छक्यं त्वया सुरगणेश्वर ।
वरांश्व मे प्रयच्छान्यान् यैरन्यान् भवितास्म्यति || ४० ।।
यवक्रीतने कहा--देवेश्वर पाकशासन! जैसे आपका यह पुल बाँधनेका आयोजन
व्यर्थ है, उसी प्रकार यदि मेरी इस तपस्याको भी आप निरर्थक मानते हैं तो वही कार्य
कीजिये जो सम्भव हो, मुझे ऐसे उत्तम वर प्रदान कीजिये, जिनके द्वारा मैं दूसरोंसे बढ़-
चढ़कर प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकूँ ।। ३९-४० ।।
लोगश उवाच
तस्मै प्रादाद् वरानिन्द्र उक्तवान् यान् महातपा: ।
प्रतिभास्यन्ति ते वेदा: पित्रा सह यथेप्सिता: ।। ४१ ।।
यच्चान्यत् काडुक्षसे काम॑ यवक्रीर्गम्यतामिति ।
स लब्धकाम: पितरं समेत्याथेदमब्रवीत् ।। ४२ ।।
लोमशजी कहते हैं--राजन्! तब इन्द्रने महातपस्वी यवक्रीतके कथनानुसार उन्हें वर
देते हुए कहा--“यवक्रीत! तुम्हारे पितासहित तुम्हें वेदोंका यथेष्ट ज्ञान प्राप्त हो जायगा।
साथ ही और भी जो तुम्हारी कामना हो, वह पूर्ण हो जायगी। अब तुम तपस्या छोड़कर
अपने आश्रमको लौट जाओ।' इस प्रकार पूर्णकाम होकर, यवक्रीत अपने पिताके पास गये
और इस प्रकार बोले || ४१-४२ ।।
यवक्रीत उवाच
प्रतिभास्यन्ति वै वेदा मम तातस्य चोभयो: ।
अति चान्यान् भविष्यावो वरा लब्धास्तदा मया ।। ४३ ।।
यवक्रीतने कहा--पिताजी! आपको और मुझे दोनोंको ही सम्पूर्ण वेदोंका ज्ञान हो
जायगा। साथ ही हम दोनों दूसरोंसे ऊँची स्थितिमें हो जायँगे--ऐसा वर मैंने प्राप्त किया
है ।। ४३ ||
भरद्वाज उवाच
दर्पस्ते भविता तात वरॉल्लब्ध्वा यथेप्सितान् ।
स दर्पपूर्ण: कृपण: क्षिप्रमेव विनड्क्ष्यसि | ४४ ।।
भरद्वाज बोले--तात! इस तरह मनोवाञ्छित वर प्राप्त करनेके कारण तुम्हारे मनमें
अहंकार उत्पन्न हो जायगा और अहंकारसे युक्त होनेपर तुम कृपण होकर शीघ्र ही नष्ट हो
जाओगे ।। ४४ ।।
अत्राप्युदाहरन्तीमा गाथा देवैरुदाह्वता: ।
मुनिरासीत् पुरा पुत्र बालधिनाम वीर्यवान् ।। ४५ ।।
इस विषयमें विज्ञजन देवताओंकी कही हुई यह गाथा सुनाया करते हैं--प्राचीनकालमें
बालधि नामसे प्रसिद्ध एक शक्तिशाली मुनि थे || ४५ ।।
स पुत्रशोकादुद्धिग्नस्तपस्तेपे सुदुष्करम् ।
भवेन्मम सुतोअमर्त्य इति तं लब्धवांक्ष सः ।। ४६ ।।
उन्होंने पुत्रशोकसे संतप्त होकर अत्यन्त कठोर तपस्या की। तपस्याका उद्देश्य यह था
कि मुझे देवोपम पुत्र प्राप्त हो। अपनी उस अभिलाषाके अनुसार बालधिको एक पुत्र प्राप्त
हुआ ।। ४६ ||
तस्य प्रसादो वै देवै: कृतो न त्वमरै: सम: ।
नामर्त्यों विद्यते मर्त्यों निमित्तायुर्भविष्यति || ४७ ।।
देवताओंने उनपर कृपा अवश्य की, परंतु उनके पुत्रको देवतुल्य नहीं बनाया और
वरदान देते हुए यह कहा “कि मरणधर्मा मनुष्य कभी देवताके समान अमर नहीं हो सकता।
अतः उसकी आयु निमित्त (कारण)-के अधीन होगी” ।। ४७ ।।
बालधिरुवाच
यथेमे पर्वता: शश्वत् तिष्ठन्ति सुरसत्तमा: ।
अक्षयास्तन्निमित्तं मे सुतस्यायुर्भविष्यति ।। ४८ ।।
बालधि बोले--देववरो! जैसे ये पर्वत सदा अक्षयभावसे खड़े रहते हैं, वैसे ही मेरा पुत्र
भी सदा अक्षय बना रहे। ये पर्वत ही उसकी आयुके निमित्त होंगे अर्थात् जबतक ये पर्वत
यहाँ बने रहें तबतक मेरा पुत्र भी जीवित रहे || ४८ ।।
भरद्वाज उवाच
तस्य पुत्रस्तदा जज्ञे मेधावी क्रोधनस्तदा ।
स तच्छुत्वाकरोद् दर्पमृषींश्चैवावमन्यत ।। ४९ ।।
भरद्वाज कहते हैं--यवक्रीत! तदनन्तर बालधिके पुत्रका जन्म हुआ, जो मेधायुक्त
होनेके कारण मेधावी नामसे विख्यात था। वह स्वभावका बड़ा क्रोधी था। अपनी आयुके
विषयमें देवताओंके वरदानकी बात सुनकर मेधावी घमण्डमें भर गया और ऋषियोंका
अपमान करने लगा ।। ४९ |।
विकुर्वाणो मुनीनां च व्यचरत् स महीमिमाम् |
आससाद महावीर धनुषाक्षं मनीषिणम् ।। ५० ।।
इतना ही नहीं, वह ऋषि-मुनियोंको सतानेके उद्देश्यसे ही इस पृथ्वीपर सब ओर विचरा
करता था। एक दिन मेधावी महान् शक्तिशाली एवं मनीषी धनुषाक्षके पास जा
पहुँचा || ५० ।।
तस्यापचक्रे मेधावी तं शशाप स वीर्यवान् ।
भव भस्मेति चोक्त: स न भस्म समपद्यत ।। ५१ ।।
और उनका तिरस्कार करने लगा। तब तपोबल-सम्पन्न ऋषि धनुषाक्षने उसे शाप देते
हुए कहा--'अरे, तू जलकर भस्म हो जा।” परंतु उनके कहनेपर भी वह भस्म नहीं
हुआ ।। ५१ ||
धनुषाक्षस्तु तं दृष्टयवा मेधाविनमनामयम् ।
निमित्तमस्य महिषैभेंदयामास वीर्यवान् || ५२ ।।
शक्तिशाली धनुषाक्षने ध्यानमें देखा कि मेधावी रोग एवं मृत्युसे रहित है। तब उसकी
आयुके निमित्तभूत पर्वतोंको उन्होंने भैंसोंद्वारा विदीर्ण करा दिया ।। ५२ ।।
स निमित्ते विनष्टे तु ममार सहसा शिशु: ।
त॑ मृतं पुत्रमादाय विललाप ततः पिता ।। ५३ ।।
निमित्तका नाश होते ही उस मुनिकुमारकी सहसा मृत्यु हो गयी। तदनन्तर पिता उस
मरे हुए पुत्रको लेकर अत्यन्त विलाप करने लगे ।। ५३ ।।
लालप्यमानं तं दृष्टवा मुनय:ः परमार्तवत् ।
ऊचुर्वेदविद: सर्वे गाथां यां तां निबोध मे ।। ५४ ।।
अधिक पीड़ित मनुष्योंकी भाँति उन्हें विलाप करते देख वहाँके समस्त वेदवेत्ता
मुनिगण एकत्र हो जिस गाथाको गाने लगे, उसे बताता हूँ, सुनो || ५४ ।।
न दिष्टमर्थमत्येतुमीशो मर्त्य: कथंचन ।
महिषैभेंदयामास धनुषाक्षो महीधरान् ।। ५५ ।।
“मरणधर्मा मनुष्य किसी तरह दैवके विधानका उल्लंघन नहीं कर सकता, तभी तो
धनुषाक्षने उस बालककी आयुके निमित्तभूत पर्वतोंका भैंसोंद्वारा भेदन करा
दिया” || ५५ |।
एवं लब्ध्वा वरान् बाला दर्पपूर्णास्तपस्विन: ।
क्षिप्रमेव विनश्यन्ति यथा न स्थात् तथा भवान् ।। ५६ ।।
इस प्रकार बालक तपस्वी वर पाकर घमण्डमें भर जाते हैं और (अपने दुर्व्यवहारोंके
कारण) शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। तुम्हारी भी यही अवस्था न हो (इसलिये सावधान किये
देता हूँ) ।। ५६ ।।
एष रैभ्यो महावीर्य: पुत्रो चास्य तथाविधौ ।
त॑ यथा पुत्र नाभ्येषि तथा कुर्यास्त्वतन्द्रित: ।। ५७ ।।
ये रैभ्यमुनि महान् शक्तिशाली हैं। इनके दोनों पुत्र भी इन्हींके समान हैं। बेटा! तुम उन
रैभ्यमुनिके पास कदापि न जाना और आलस्य छोड़कर इसके लिये सदा प्रयत्नशील
रहना || ५७ ||
स हि क्रुद्धः समर्थस्त्वां पुत्र पीडयितुं रुषा ।
रैभ्यश्वापि तपस्वी च कोपनश्च महानृषि: ।। ५८ ।।
बेटा! तुम्हें सावधान करनेका कारण यह है कि शक्तिशाली तपस्वी महर्षि रैभ्य बड़े
क्रोधी हैं। वे कुपित होकर रोषसे तुम्हें पीड़ा दे सकते हैं || ५८ ।।
यवक्रीत उवाच
एवं करिष्ये मा ताप॑ं तात कार्षी: कथंचन ।
यथा हि मे भवान् मान्यस्तथा रैभ्य: पिता मम ।। ५९ |।
यवक्रीत बोले--पिताजी! मैं ऐसा ही करूँगा, आप किसी तरह मनमें संताप न करें।
जैसे आप मेरे माननीय हैं, वैसे रैभ्यमुनि मेरे लिये पिताके समान हैं ।। ५९ ।।
लोगश उवाच
उक्त्वा स पितरं श्लक्ष्णं यवक्रीरकुतो भय: ।
विप्रकुर्वनूषीनन्यानतुष्यत् परया मुदा ।। ६० ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठि! पितासे यह मीठी बातें कहकर यवक्रीत निर्भय
विचरने लगे। दूसरे ऋषियोंको सतानेमें उन्हें अधिक सुख मिलता था। वैसा करके वे बहुत
संतुष्ट रहते थे || ६० ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां यवक्रीतोपाख्याने
पज्चत्रिंशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १३५ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रसंगमें
यवक्रीतोपाख्यानविषयक एक सौ पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३५ ॥।
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- इस अन्नको ब्रह्मौदन कहते हैं, जैसा कि श्रुतिका कथन है--'साध्येभ्यो देवेभ्यो ब्रह्मौदनमपचत्” इति।
षट्त्रिशर्दाधकशततमो< ध्याय:
यवक्रीतका रैभ्यमुनिकी पुत्रवधूके साथ व्यभिचार और
रैभ्यमुनिके क्रोधसे उत्पन्न राक्षसके द्वारा उसकी मृत्यु
लोगश उवाच
चड्क्रम्पमाण: स तदा यवक्रीरकुतो भय: ।
जगाम माधवे मासि रैभ्याश्रमपदं प्रति ॥। १ ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठिर! उन दिनों यवक्रीत सर्वथा भयशून्य होकर चारों ओर
चक्कर लगाता था। एक दिन वैशाखमासमें वह रैभ्यमुनिके आश्रममें गया ।। १ ।।
स ददर्शाश्रमे रम्ये पुष्पितद्रुम भूषिते ।
विचरन्तीं स्नुषां तस्य किन्नरीमिव भारत ।। २ ।।
भारत! वह आश्रम खिले हुए वृक्षोंकी श्रेणियोंसे सुशोभित हो अत्यन्त रमणीय प्रतीत
होता था। उस आश्रममें रैभ्यमुनिकी पुत्रवधू किन्नरीके समान विचर रही थी। यवक्रीतने उसे
देखा ।। २ ।।
यवक्रीस्तामुवाचेदमुपातिष्ठस्व मामिति ।
निर्लज्जो लज्जया युक्तां कामेन हृतचेतन: ।। ३ ।।
देखते ही वह कामदेवके वशीभूत हो अपनी विचारशक्ति खो बैठा और लजाती हुई उस
मुनि-वधूसे निर्लज्ज होकर बोला--'सुन्दरी! तू मेरी सेवामें उपस्थित हो” ।। ३ ।।
सा तस्य शीलमाज्ञाय तस्माच्छापाच्च बिभ्यती ।
तेजस्वितां च रैभ्यस्य तथेत्युक्त्वा55जगाम ह ।॥। ४ ।।
वह यवक्रीतके शील-स्वभावको जानकर भी उसके शापसे डरती थी। साथ ही उसे
रैभ्यमुनिकी तेजस्विताका भी स्मरण था। अतः “बहुत अच्छा” कहकर उसके पास चली
आयी ।। ४ ।।
तत एकान्तमुन्नीय मज्जयामास भारत ।
आजगाम तदा रैभ्य: स्वमाश्रममरिंदम ।। ५ ||
शत्रुविनाशन भारत! तब यवक्रीतने उसे एकान्तमें ले जाकर पापके समुद्रमें डुबो दिया।
(उसके साथ रमण किया।) इतनेहीमें रैभ्यमुनि अपने आश्रममें आ गये ।। ५ ।।
रुदतीं च स्नुषां दृष्टवा भार्यामार्ता परावसो: ।
सान्त्वयन् शलक्ष्णया वाचा पर्यपृच्छद् युधिष्ठिर || ६ ।।
सा तस्मै सर्वमाचष्ट यवक्रीभाषितं शुभा ।
प्रत्युक्ते च यवक्रीतं प्रेक्षापूर्व तथा55त्मना ।। ७ ।।
आकर उन्होंने देखा कि मेरी पुत्रवधू एवं परावसुकी पत्नी आर्तभावसे रो रही है।
युधिष्ठिर! यह देखकर रैभ्यने मधुर वाणीद्वारा उसे सान्त्वना दी तथा रोनेका कारण पूछा।
उस शुभलक्षणा बहूने यवक्रीतकी कही हुई सारी बातें श्वशुरके सामने कह सुनायीं एवं स्वयं
उसने भलीभाँति सोच-विचारकर यवक्रीतकी बातें माननेसे जो अस्वीकार कर दिया था, वह
सारा वृत्तान्त भी बता दिया ।। ६-७ ।।
शृण्वानस्यैव रैभ्यस्य यवक्रीत विचेष्टितम् ।
दहन्निव तदा चेत: क्रोध: समभवन्महान् ।। ८ ।।
यवक्रीतकी यह कुचेष्टा सुनते ही रैभ्यके हृदयमें क्रोधकी प्रचण्ड अग्नि प्रज्वलित हो
उठी, जो उनके अन्त:करणको मानो भस्म किये दे रही थी ।। ८ ।।
स तदा मन्युना5<विष्टस्तपस्वी कोपनो भृशम् |
अवलुच्य जटामेकां जुहावाग्नौ सुसंस्कृते ।। ९ ।।
तपस्वी रैभ्य स्वभावसे ही बड़े क्रोधी थे, तिसपर भी उस समय उनके ऊपर क्रोधका
आवेश छा रहा था। अतः उन्होंने अपनी एक जटा उखाड़कर संस्कारपूर्वक स्थापित की हुई
अग्निमें होम दी ।। ९ ।।
ततः समभवन्नारी तस्या रूपेण सम्मिता ।
अवलुच्यापरां चापि जुहावाग्नौ जटां पुन: ।। १० ।।
उससे एक नारीके रूपमें कृत्या प्रकट हुई, जो रूपमें उनकी पुत्रवधूके ही समान थी।
तत्पश्चात् एक-दूसरी जटा उखाड़कर उन्होंने पुनः उसी अग्निमें डाल दी ।। १० ।।
ततः समभवद् रक्षो घोराक्षं भीमदर्शनम् ।
अब्रूतां तौ तदा रैभ्यं कि कार्य करवावहै ।। ११ ।।
उससे एक राक्षस प्रकट हुआ, जिसकी आँखें बड़ी डरावनी थीं। वह देखनेमें बड़ा
भयानक प्रतीत होता था। उस समय उन दोनोंने रैभ्य मुनिसे पूछा--“'हम आपकी किस
आज्ञाका पालन करें?” ।। ११ ।।
तावब्रवीदृषि: क्रुद्धों यवक्रीर्वध्यतामिति ।
जग्मतुस्तौ तथेत्युक्त्वा यवक्रीतजिघांसया ।। १२ ।।
तब क्रोधमें भरे हुए महर्षिने कहा--“यवक्रीतको मार डालो।' उस समय “बहुत अच्छा'
कहकर वे दोनों यवक्रीतके वधकी इच्छासे उसका पीछा करने लगे ।। १२ ।।
ततस्तं समुपास्थाय कृत्या सृष्टा महात्मना ।
कमण्डलुं जहारास्य मोहयित्वेव भारत ।। १३ ।।
भारत! महामना रैभ्यकी रची हुई कृत्यारूप सुन्दरी नारीने पहले यवक्रीतके पास
उपस्थित हो उसे मोहमें डालकर उसका कमण्डलु हर लिया ।। १३ ।।
उच्छिष्ट तु यवक्रीतमपकृष्टकमण्डलुम् ।
तत उद्यतशूल: स राक्षस: समुपाद्रवत् ।। १४ ।।
कमण्डलु खो जानेसे यवक्रीतका शरीर उच्छिष्ट (जूठा या अपवित्र) रहने लगा। उस
दशामें वह राक्षस हाथमें त्रिशूल उठाये यवक्रीतकी ओर दौड़ा ।। १४ ।।
तमापततन्तं सम्प्रेक्ष्य शूलहस्तं जिघांसया ।
यवक्री: सहसोत्थाय प्राद्रवद् येन वै सर: ।। १५ ।।
राक्षस शूल हाथमें लिये मुझे मार डालनेकी इच्छासे मेरी और दौड़ा आ रहा है, यह
देखकर यवक्रीत सहसा उठे और उस मार्गसे भागे जो एक सरोवरकी ओर जाता
था ।। १५ ||
जलहीन सरो दृष्टवा यवक्रीस्त्वरित: पुन: ।
जगाम सरितः: सर्वास्ताश्चाप्पासन् विशोषिता: ।। १६ ।।
इसके जाते ही सरोवरका पानी सूख गया। सरोवरको जलहीन हुआ देख यवक्रीत फिर
तुरंत ही समस्त सरिताओंके पास गया; परंतु इसके जानेपर वे सब भी सूख गयीं ।। १६ ।।
स काल्यमानो घोरेण शूलहस्तेन रक्षसा ।
अगन्निहोत्रं पितुर्भीत: सहसा प्रविवेश ह ।। १७ ।।
तब हाथमें शूल लिये उस भयानक राक्षसके खदेड़नेपर यवक्रीत अत्यन्त भयभीत हो
सहसा अपने पिताके अग्निहोत्रगृहमें घुसने लगा ।। १७ ।।
स वै प्रविशमानस्तु शूद्रेणान्धेन रक्षिणा ।
निगृहीतो बलाद् द्वारि सोडवातिष्ठत पार्थिव ॥। १८ ।।
राजन्! उस समय अमग्निहोत्रगृहके अंदर एक शूद्र-जातीय रक्षक नियुक्त था, जिसकी
दोनों आँखें अंधी थीं। उसने दरवाजेके भीतर घुसते ही यवक्रीतको बलपूर्वक पकड़ लिया
और यवक्रीत वहीं खड़ा हो गया ।। १८ ।।
निगृहीतं तु शूद्रेण यवक्रीतं स राक्षस: ।
ताडयामास शूलेन स भिन्नहृदयो5पतत् ।। १९ ।।
शूद्रके द्वारा पकड़े गये यवक्रीतपर उस राक्षसने शूलसे प्रहार किया। इससे उसकी
छाती फट गयी और वह प्राणशून्य होकर वहीं गिर पड़ा ।। १९ ।।
यवक्रीतं स हत्वा तु राक्षसो रैभ्यमागमत् |
अनुज्ञातस्तु रैभ्येण तया नार्या सहावसत् ।। २० ।।
इस प्रकार यवक्रीतको मारकर राक्षस रैभ्यके पास लौट आया और उनकी अज्ञा ले
उस कृत्यास्वरूपा रमणीके साथ उनकी सेवामें रहने लगा || २० ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां यवक्रीतोपाख्याने
षट्त्रिंयाधिकशततमो<्ध्याय: ।। १३६ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रस॑ंगमें
यवक्रीतोपाख्यानविषयक एक सौ छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३६ ॥।
अपना स२ (0 अवज असल
सप्तत्रिशर्दाधिकशततमोब< ध्याय:
भरद्वाजका पुत्रशोकसे विलाप करना, रैभ्यमुनिको शाप
देना एवं स्वयं अग्निमें प्रवेश करना
लोगश उवाच
भरद्वाजस्तु कौन्तेय कृत्वा स्वाध्यायमाद्विकम् |
समित्कलापमादाय प्रविवेश स्वमाश्रमम् ।। १ ।।
त॑ सम दृष्टवा पुरा सर्वे प्रत्युत्तिष्ठन्ति पावका: ।
न त्वेनमुपतिष्ठन्ति हतपुत्र॑ं तदाग्नय: ।। २ ।॥।
लोमशजी कहते हैं--कुन्तीनन्दन! भरद्वाज मुनि प्रतिदिनका स्वाध्याय पूरा करके
बहुत-सी समिधाएँ लिये आश्रममें आये। उस दिनसे पहले सभी अग्नियाँ उनको देखते ही
उठकर स्वागत करती थीं, परंतु उस समय उनका पुत्र मारा गया था, इसलिये अशौचयुक्त
होनेके कारण उनका अग्नियोंने पूर्ववत् खड़े होकर स्वागत नहीं किया ।। १२ ।।
वैकृतं त्वग्निहोत्रे स लक्षयित्वा महातपा: ।
तमन्ध॑ शूद्रमासीनं गृहपालमथाब्रवीत् ॥। ३ ।।
अग्निहोत्रगृहमें यह विकृति देखकर उन महातपस्वी भरद्वाजने वहाँ बैठे हुए अन्धे
गृहरक्षक शूद्रसे पूछा-- ।।
कि नु मे नाग्नय: शूद्र प्रतिनन्दन्ति दर्शनम् ।
त्वं चापि न यथापूर्व कच्चित् क्षेममिहाश्रमे ।। ४ ।।
कच्चिन्न रैभ्यं पुत्रो मे गतवानल्पचेतन: ।
एतदाचक्ष्व मे शीघ्रं न हि शुद्धयति मे मन: ।। ५ ।।
“दास! क्या कारण है कि आज अग्नियाँ पूर्ववत् मेरा दर्शन करके प्रसन्नता नहीं प्रकट
करती हैं। इधर तुम भी पहले-जैसे समादरका भाव नहीं दिखाते हो। इस आश्रममें कुशल
तो है न? कहीं मेरा मन्दबुद्धि पुत्र रैभ्यके पास तो नहीं चला गया? यह बात मुझे शीघ्र
बताओ; क्योंकि मेरा मन शान्त नहीं हो रहा है” ।। ५ ।।
शूद्र बवाच
रैभ्यं यातो नूनमयं पुत्रस्ते मन्दचेतन: ।
तथा हि निहत: शेते राक्षसेन बलीयसा ।। ६ ।।
शूद्र बोला--भगवन्! अवश्य ही आपका यह मन्दमति पुत्र रैभ्यके यहाँ गया था।
उसीका यह फल है कि एक महाबली राक्षसके द्वारा मारा जाकर पृथ्वीपर पड़ा है ।। ६ ।।
प्रकाल्यमानस्तेनायं शूलहस्तेन रक्षसा ।
अग्न्यागारं प्रति द्वारि मया दोर्भ्या निवारित: ।। ७ ।।
राक्षस अपने हाथमें शूल लेकर इसका पीछा कर रहा था और यह अग्निशालामें घुसा
जा रहा था। उस समय मैंने दोनों हाथोंसे पकड़कर इसे द्वारपर ही रोक लिया ।। ७ ।।
ततः स विहताशो<त्र जलकामो<शुचिर्ध्रुवम् ।
निहतः सो$तिवेगेन शूलहस्तेन रक्षसा ।। ८ ।।
निश्चय ही अपवित्र होनेके कारण यह शुद्धिके लिये जल लेनेकी इच्छा रखकर यहाँ
आया था, परंतु मेरे रोक देनेसे यह हताश हो गया। उस दशामें उस शूलधारी राक्षसने इसके
ऊपर बड़े वेगसे प्रहार करके इसे मार डाला ।। ८ ।।
भरद्वाजस्तु तच्छुत्वा शूद्रस्य विप्रियं महत् ।
गतासुं पुत्रमादाय विललाप सुदुःखित: ।। ९ ।।
शूद्रका कहा हुआ यह अत्यन्त अप्रिय वचन सुनकर भरद्वाज बड़े दुखी हो गये और
अपने प्राणशून्य पुत्रको लेकर विलाप करने लगे ।। ९ ।।
भरद्वाज उवाच
ब्राह्मणानां किलार्थाय ननु त्वं तप्तवांस्तप: |
द्विजानामनथधीता वै वेदा: सम्प्रतिभान्त्विति ।। १० ।।
भरद्वाजने कहा--बेटा! तुमने ब्राह्मणोंके हितके लिये भारी तपस्या की थी। तुम्हारी
तपस्याका यह उद्देश्य था कि द्विजोंको बिना पढ़े ही सब वेदोंका ज्ञान हो जाय || १० |।
तथा कल्याणशीलस्त्व॑ ब्राह्म॒णेषु महात्मसु ।
अनागा: सर्वभूतेषु कर्कशत्वमुपेयिवान् ।। ११ ।।
इस प्रकार महात्मा ब्राह्मणोंके प्रति तुम्हारा स्वभाव अत्यन्त कल्याणकारी था। किसी
भी प्राणीके प्रति तुम कोई अपराध नहीं करते थे। फिर भी तुम्हारा स्वभाव कुछ कठोर हो
गया था ।। ११ ।।
प्रतिषिद्धो मया तात रैभ्यावसथदर्शनात् |
गतवानेव त॑ द्रष्टं कालान्तकयमोपमम् ।। १२ ।।
य:ः स जानन् महातेजा वृद्धस्यैकं ममात्मजम् |
गतवानेव कोपस्य वशं परमदुर्मति: ।। १३ ।।
तात! मैंने तुम्हें बार-बार मना किया था कि तुम रैभ्यके आश्रमकी ओर न देखना, परंतु
तुम उसे देखने चले ही गये और वह तुम्हारे लिये काल, अन्तक एवं यमराजके समान हो
गया। महान् तेजस्वी होनेपर भी उसकी बुद्धि बड़ी खोटी है। वह जानता था कि मुझ बूढ़ेके
तुम एक ही पुत्र हो तो भी वह दुष्ट क्रोधके वशीभूत हो ही गया ।। १२-१३ ।।
पुत्रशोकमनुप्राप्त एष रैभ्यस्य कर्मणा ।
त्यक्ष्यामि त्वामृते पुत्र प्राणानिष्टतमान् भुवि ।। १४ ।।
बेटा! आज रैभ्यके इस कठोर कर्मसे मुझे पुत्रशोक प्राप्त हुआ है। तुम्हारे बिना मैं इस
पृथ्वीपर अपने परम प्रिय प्राणोंका भी परित्याग कर दूँगा || १४ ।।
यथाहं पुत्रशोकेन देहं त्यक्ष्यामि किल्बिषी ।
तथा ज्येष्ठ: सुतो रैभ्यं हिंस्पाच्छीघ्रमनागसम् ।। १५ ।।
जैसे मैं पापी अपने पुत्रके शोकसे व्याकुल हो अपने शरीरका त्याग कर रहा हूँ, उसी
प्रकार रैभ्यका ज्येष्ठ पुत्र अपने निरपराध पिताकी शीघ्र हत्या कर डालेगा ।। १५ ।।
सुखिनो वै नरा येषां जात्या पुत्रो न विद्यते ।
ते पुत्रशोकमप्राप्य विचरन्ति यथासुखम् ।। १६ ।।
संसारमें वे मनुष्य सुखी हैं, जिन्हें पुत्र पैदा ही नहीं हुआ है; क्योंकि वे पुत्रशोकका
अनुभव न करके सदा सुखपूर्वक विचरते हैं ।। १६ ।।
ये तु पुत्रकृताच्छोकाद् भुशं व्याकुलचेतस: ।
शपन्तीष्टान् सखीनारततस्तिभ्य: पापतरो नु कः ।। १७ ।।
जो पुत्रशोकसे मन-ही-मन व्याकुल हो गहरी व्यथाका अनुभव करते हुए अपने प्रिय
मित्रोंको भी शाप दे डालते हैं, उनसे बढ़कर महापापी दूसरा कौन हो सकता है? ।। १७ |।
परासुश्न सुतो दृष्ट: शप्तश्नेष्ट: सखा मया ।
ईदृशीमापदं कोजत्र द्वितीयोडनुभविष्यति ।। १८ ।।
मैंने अपने पुत्रकी मृत्यु देखी और प्रिय मित्रको शाप दे दिया। मेरे सिवा संसारमें दूसरा
कौन-सा मनुष्य है जो ऐसी विपत्तिका अनुभव करेगा ।। १८ ।।
लोगमश उवाच
विलप्यैवं बहुविधं भरद्वाजो5दहत् सुतम् ।
सुसमिद्धं ततः पश्चात् प्रविवेश हुताशनम् ।। १९ ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठि!! इस तरह भाँति-भाँतिके विलाप करके भरद्वाजने
अपने पुत्रका दाह-संस्कार किया। तत्पश्चात् स्वयं भी वे जलती आगमें प्रवेश कर गये ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां यवक्रीतोपाख्याने
सप्तत्रिंशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १३७ ।।
इस प्रकार श्रीमह्ााभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशतीर्थयात्राके प्रसंगमें
यवक्रीतोपाख्यानविषयक एक सौ सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३७ ॥
हि >> आय न [हुक हि 7 आम
अष्टात्रिशर्दाधिकशततमो< ध्याय:
अर्वावसुकी तपस्याके प्रभावसे परावसुका ब्रह्महत्यासे मुक्त
होना और रैभ्य, भरद्वाज तथा यवक्रीत आदिका
पुनर्जीवित होना
लोगश उवाच
एतस्मिन्नेव काले तु बृहद्द्युम्नो महीपति: ।
सत्र तेने महाभागो रैभ्ययाज्य: प्रतापवान् ॥। १ ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठिर! इन्हीं दिनों महान् सौभाग्यशाली एवं प्रतापी नरेश
बृहद्द्युम्नने एक यज्ञका अनुष्ठान आरम्भ किया। वे रैभ्यके यजमान थे ।। १ ।।
तेन रैभ्यस्य वै पुत्रावर्वावसुपरावसू ।
वृतौ सहायौ सत्रार्थ बृहद्द्युम्नेन धीमता ।। २ ।।
बुद्धिमान बृहद्द्युम्नने यज्ञकी पूर्तिके लिये रैभ्यके दोनों पुत्र अर्वावसु तथा परावसुको
सहयोगी बनाया ।। २ ।।
तत्र तौ समनुज्ञातौ पित्रा कौन्तेय जग्मतु:ः ।
आश्रमे त्वभवद् रैभ्यो भार्या चैव परावसो: ।। ३ ।।
अथावलोककोडगच्छद् गृहानेक: परावसु: ।
कृष्णाजिनेन संवीतं ददर्श पितरं वने ।। ४ ।।
कुन्तीनन्दन! पिताकी आज्ञा पाकर वे दोनों भाई राजाके यज्ञमें चले गये। आश्रममें
केवल रैभ्य मुनि तथा उनके पुत्र परावसुकी पत्नी रह गयी। एक दिन घरकी देख-भाल
करनेके लिये परावसु अकेले ही आश्रमपर आये। उस समय उन्होंने काले मृगचर्मसे ढके
हुए अपने पिताको वनमें देखा ।। ३-४ ।।
जघन्यरात्रे निद्रान्ध: सावशेषे तमस्यपि ।
चरन्तं गहने5रण्ये मेने स पितरं मृगम् ।। ५ ।।
रातका पिछला पहर बीत रहा था और अभी अन्धकार शेष था। परावसु नींदसे अन्धे
हो रहे थे; अतः उन्होंने गहन वनमें विचरते हुए अपने पिताको हिंसक पशु ही
समझा || ५ ||
मृगं तु मन्यमानेन पिता वै तेन हिंसितः ।
अकामयानेन तदा शरीरत्राणमिच्छता ।। ६ ।।
और उसे हिंसक पशु समझकर धोखेसे ही उन्होंने अपने पिताकी हत्या कर डाली।
यद्यपि वे ऐसा करना नहीं चाहते थे, तथापि हिंसक पशुसे अपने शरीरकी रक्षाके लिये
उनके द्वारा यह क्रूरतापूर्ण कार्य बन गया ।। ६ ।।
तस्य स प्रेतकार्याणि कृत्वा सर्वाणि भारत ।
पुनरागम्य तत् सत्रमब्रवीद् भ्रातरं वच: ।। ७ ।।
इदं कर्म न शक्तस्त्वं वोढुमेक: कथंचन ।
मया तु हिंसितस्तातो मन्यमानेन त॑ मृगम् ।। ८ ।।
सोअस्मदर्थ व्रतं तात चर त्वं ब्रह्महिंसनम् ।
समर्थो5प्यहमेकाकी कर्म कर्तुमिदं मुने ।। ९ ।।
भारत! उसने पिताके समस्त प्रेतकर्म करके पुनः यज्ञमण्डपमें आकर अपने भाई
अर्वावसुसे कहा--'भैया! वह यज्ञकर्म तुम अकेले किसी प्रकार निभा नहीं सकते। इधर मैंने
हिंसक पशु समझकर धोखेसे पिताजीकी हत्या कर डाली है; इसलिये तात! तुम तो मेरे
लिये ब्रह्महत्यानिवारणके हेतु व्रत करो और मैं राजाका यज्ञ कराऊँगा। मुने! मैं अकेला भी
इस कार्यका सम्पादन करनेमें समर्थ हूँ" || ७--९ ।।
अववियुरुवाच
करोतु वै भवान् सत्र बृहद्द्युम्नस्य धीमत: ।
ब्रह्मवध्यां चरिष्ये5हं त्वदर्थ नियतेन्द्रिय: ।॥ १० ।॥।
अर्वावसु बोले--भाई! आप परम बुद्धिमान् राजा बृहद्द्युम्नका यज्ञकार्य सम्पन्न करें
और मैं आपके लिये इन्द्रियसंयमपूर्वक ब्रह्महत्याका प्रायश्चित्त करूँगा ।।
लोगश उवाच
स तस्य ब्रह्मुवध्याया: पारं गत्वा युधिष्ठिर ।
अर्वावसुस्तदा सत्रमाजगाम पुनर्मुनि: ।। ११ ।।
ततः परावसूुर्दष्टवा भ्रातरं समुपस्थितम् ।
बृहद्द्युम्नमुवाचेदं वचन हर्षगद्गदम् ।। १२ ।।
एष ते ब्रह्महा यज्ञं मा द्रष्टूं प्रविशेदिति ।
ब्रह्माहा प्रेक्षितेनापि पीडयेत् त्वामसंशयम् ।। १३ ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठिर! अर्वावसु मुनि भाईके लिये ब्रह्महत्याका प्रायश्ित्त पूरा
करके पुनः उस यज्ञमें आये। परावसुने अपने भाईको वहाँ उपस्थित देखकर राजा
बृहद्द्युम्नसे हर्षगदगद वाणीमें कहा--'राजन! यह ब्रह्महत्यारा है। अतः इसे आपका यज्ञ
देखनेके लिये इस मण्डपमें प्रवेश नहीं करना चाहिये। ब्रह्मघाती मनुष्य अपनी दृष्टिमात्रसे
भी आपको महान् कष्टमें डाल सकता है, इसमें संशय नहीं है” || ११--१३ ।।
लोगश उवाच
तच्छुत्वैव तदा राजा प्रेष्यानाह स विट्पते ।
प्रेष्यैरुत्सार्यमाणस्तु राजन्नर्वावसुस्तदा ।। १४ ।।
न मया ब्रह्माहत्येयं कृतेत्याह पुन: पुन: ।
उच्चमानो<5सकृप्प्रेष्यैर््रह्मह॒ज्निति भारत ।। १५ ।।
लोमशजी कहते हैं--प्रजानाथ! परावसुकी यह बात सुनते ही राजाने अपने
सेवकोंको यह आज्ञा दी कि “अर्वावसुको भीतर न आने दो।” राजन्! उस समय सेवकोंद्वारा
हटाये जानेपर अर्वावसुने बार-बार यह कहा कि -मैंने ब्रह्महत्या नहीं की है।' भारत! तो भी
राजाके सेवक उन्हें ब्रह्महत्यारा कहकर ही सम्बोधित करते थे ।। १४-१५ ।।
नैव सम प्रतिजानाति ब्रह्मवध्यां स्वयंकृताम् ।
मम क्रात्रा कृतमिदं मया स परिमोक्षित: ।। १६ ।।
अर्वावसु किसी तरह उस ब्रह्महत्याको अपनी की हुई स्वीकार नहीं करते थे। उन्होंने
बार-बार यही बतानेकी चेष्टा की कि "मेरे भाईने ब्रह्महत्या की है। मैंने तो प्रायश्षित्त करके
उन्हें पापसे छुड़ाया है” || १६ ।।
स तथा प्रवदन् क्रोधात् तैश्न प्रेष्यै: प्रभाषित: ।
तूष्णीं जगाम ब्रद्य॒र्षिवनमेव महातपा: ।। १७ ।।
उनके ऐसा कहनेपर भी राजाके सेवकोंने उन्हें क्रोधपूर्वक फटकार दिया। तब वे
महातपस्वी ब्रह्मर्षि चुपचाप वनको ही चले गये ।। १७ ।।
उग्र॑ं तप: समास्थाय दिवाकरमथाश्रित: ।
रहस्यवेदं कृतवान् सूर्यस्य द्विजसत्तम: ।। १८ ।।
मूर्तिमांस्तं ददर्शाथ स्वयमग्रभुगव्यय: ।
वहाँ जाकर उन्होंने भगवान् सूर्यकी शरण ली और बड़ी उग्र तपस्या करके उन
ब्राह्मणशिरोमणिने सूर्यसम्बन्धी रहस्यमय वैदिक मन्त्रका अनुष्ठान किया। तदनन्तर
अग्रभोजी एवं अविनाशी साक्षात् भगवान् सूर्यने साकाररूपमें प्रकट हो अर्वावसुको दर्शन
दिया ।। १८३ |।
लोगमश उवाच
प्रीतास्तस्याभवन् देवा: कर्मणार्वावसोर्नूप ।। १९ ।।
त॑ ते प्रवरयामासुर्निरासुश्च॒ परावसुम् ।
ततो देवा वरं तस्मै ददुरग्निपुरोगमा: | २० ।।
लोमशजी कहते हैं--राजन्! अर्वावसुके उस कार्यसे सूर्य आदि सब देवता उसपर
प्रसन्न हो गये। उन्होंने अर्वावसुका यज्ञमें वरण कराया एवं परावसुको निकलवा दिया।
तत्पश्चात् अग्नि-सूर्य आदि देवताओंने उन्हें वर देनेकी इच्छा प्रकट की || १९-२० ।।
स चापि वरयामास पितुरुत्थानमात्मन: ।
अनागस्त्वं ततो भ्रातुः पितुश्नास्मरणं वधे ।। २१ ।।
तब अर्वावसुने यह वर माँगा कि “मेरे पिताजी जीवित हो जायाँ। मेरे भाई निर्दोष हों
और उन्हें पिताके वधकी बात भूल जाय' ।। २१ ।।
भरद्वाजस्य चोत्थानं यवक्रीतस्य चो भयो: ।
प्रतिष्ठां चापि वेदस्य सौरस्य द्विजसत्तम: ।
एवमस्त्विति तं देवा: प्रोचुश्नापि वरान् ददु: ।। २२ ।।
साथ ही उन्होंने यह भी माँगा कि “भरद्वाज तथा यवक्रीत दोनों जी उठें और इस
सूर्यदेवतासम्बन्धी रहस्यमय वेदमन्त्रकी प्रतिष्ठा हो।' द्विजश्रेष्ठ अर्वावसुके इस प्रकार वर
माँगनेपर देवता बोले--'ऐसा ही हो।” इस प्रकार उन्होंने पूर्वोक्त सभी वर दे दिये || २२ ।।
ततः प्रादुर्बभूवुस्ते सर्व एव युधिष्ठिर ।
अथाब्रवीद् यवक्रीतो देवानग्निपुरोगमान् ।। २३ ।।
समधीतं मया ब्रह्म व्रतानि चरितानि च |
कथं च रैभ्य: शक्तो मामधीयानं तपस्विनम् ।। २४ ।।
तथायुक्तेन विधिना निहन्तुममरोत्तमा: ।
युधिष्ठिर! इसके बाद पूर्वोक्त सभी मुनि जीवित हो गये। उस समय यवक्रीतने अग्नि
आदि सम्पूर्ण देवताओंसे पूछा--*देवेश्वरो! मैंने वेदका अध्ययन किया है, वेदोक्त व्रतोंका
अनुष्ठान भी किया है। मैं स्वाध्यायशील और तपस्वी भी हूँ, तो भी रैभ्यमुनि इस प्रकार
अनुचित रीतिसे मेरा वध करनेमें कैसे समर्थ हो सके” || २३-२४ ३ ।।
देवा ऊचु
मैवं कृथा यवक्रीत यथा वदसि वै मुने ।
ऋते गुरुमधीता हि सुखं वेदास्त्वया पुरा ।। २५ ।।
अनेन तु गुरून् दुःखात् तोषयित्वा55त्मकर्मणा ।
कालेन महता क्लेशाद् ब्रह्माधिगतमुत्तमम् ।। २६ ।।
देवताओंने कहा--मुनि यवक्रीत! तुम जैसी बात कहते हो, वैसा न समझो। तुमने
पूर्वकालमें बिना गुरुके ही सुखपूर्वक सब वेद पढ़े हैं और इन रैभ्यमुनिने बड़े क्लेश उठाकर
अपने व्यवहारसे गुरुजनोंको संतुष्ट करके दीर्घकालतक कष्टसहनपूर्वक उत्तम वेदोंका ज्ञान
प्राप्त किया है ।। २५-२६ ।।
लोगमश उवाच
यवक्रीतमथोकत्वैवं देवा: साग्निपुरोगमा: ।
संजीवयित्वा तानू् सर्वान् पुनर्जग्मुस्त्रिविष्टपम् ।। २७ ।।
लोमशजी कहते हैं--राजन्! अग्नि आदि देवताओंने यवक्रीतसे ऐसा कहकर उन
सबको नूतन जीवन प्रदान करके पुन: स्वर्गलोकको प्रस्थान किया || २७ ।।
आश्रमस्तस्य पुण्यो5यं सदापुष्पफलद्रुम: |
अन्रोष्य राजशार्दूल सर्व पापं प्रमोक्ष्यसि ।। २८ ।।
नृपश्रेष्ठ! यह उन्हीं रैभ्यमुनिका पवित्र आश्रम है। यहाँके वृक्ष सदा फ़ूल और फलोंसे
लदे रहते हैं। यहाँ एक रात निवास करके तुम सब पापोंसे छूट जाओगे ।। २८ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां यवक्रीतोपाख्याने
अष्टात्रिंशधिकशततमो< ध्याय: । १३८ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोगशती र्थयात्राके प्रसंगमें
यवक्रीतोपाख्यानविषयक एक सौ अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३८ ॥
हि >> न () है
एकोनचत्वारिशर्दाधिकशततमो< ध्याय:
पाण्डवोंकी उत्तराखण्ड-यात्रा और लोमशजीद्वारा उसकी
दुर्गमताका कथन
लोगश उवाच
उशीरबीजं मैनाकं गिरिं श्वेतं च भारत ।
समतीतो5सि कौन्तेय कालशैलं च पार्थिव ।। १ ।।
लोमशजी कहते हैं--भरतनन्दन युधिष्ठिर! अब तुम उशीरबीज, मैनाक, श्वेत और
कालशैल नामक पहाड़ोंको लाँघधकर आगे बढ़ आये ।। १ ।।
एषा गड़ा सप्तविधा राजते भरतर्षभ ।
स्थानं विरजसं पुण्य यत्राग्निर्नित्यमिध्यते ।। २ ।।
भरतश्रेष्ठ। यह देखो गंगाजी सात धाराओंसे सुशोभित हो रही हैं। यह रजोगुणरहित
पुण्यतीर्थ है, जहाँ सदा अग्निदेव प्रज्वलित रहते हैं |। २ ।।
एतद् वै मानुषेणाद्य न शव्यं द्रष्टमद्भुतम् ।
समाधिं कुरुताव्यग्रास्तीर्थान्येतानि द्रक्ष्यथ ।। ३ ।॥।
यह अद्भुत तीर्थ कोई मनुष्य नहीं देख सकता, अतः तुम सब लोग एकाग्रचित्त हो
जाओ । व्यग्रताशून्य हृदयसे तुम इन सब तीर्थोंका दर्शन कर सकोगे ।। ३ ।।
एतद् द्रक्ष्यसि देवानामाक्रीडं चरणाडुकितम् ।
अतिक्रान्तोडसि कौन्तेय कालशैलं च पर्वतम् ।। ४ ।।
श्वेतं गिरिं प्रवेक्ष्यामो मन्दरं चैव पर्वतम् ।
यत्र माणिवरो यक्ष: कुबेरश्वैव यक्षराट् ।। ५ ।।
यह देवताओंकी क्रीडास्थली है, जो उनके चरणचिह्नोंसे अंकित है। एकाग्रचित्त होनेपर
तुम्हें इसका भी दर्शन होगा। कुन्तीकुमार! अब तुम कालशैल पर्वतको लाँघकर आगे बढ़
आये। इसके बाद हम श्वेतगिरि (कैलास) तथा मन्दराचल पर्वतमें प्रवेश करेंगे, जहाँ
माणिवर यक्ष और यक्षराज कुबेर निवास करते हैं ।।
अष्टाशीतिसहस््राणि गन्धर्वा: शीघ्रगामिन: ।
तथा किंपुरुषा राजन यक्षाश्वैव चतुर्गुणा: ।। ६ ।।
अनेकरूपसंस्थाना नानाप्रहरणाश्ष ते ।
यक्षेन्द्र मनुजश्रेष्ठ माणिभद्रमुपासते ।। ७ ।।
राजन! वहाँ तीव्रगतिसे चलनेवाले अद्बासी हजार गन्धर्व और उनसे चौगुने किन्नर तथा
यक्ष रहते हैं। उनके रूप एवं आकृति अनेक प्रकारकी हैं। वे भाँति-भाँतिके अस्त्र-शस्त्र
धारण करते हैं और यक्षराज माणिभद्रकी उपासनामें संलग्न रहते हैं || ६-७ ।।
तेषामृद्धिरतीवात्र गतौ वायुसमाश्न ते ।
स्थानात् प्रच्यावयेयुयें देवराजमपि ध्रुवम् ।। ८ ।।
यहाँ उनकी समृद्धि अतिशय बढ़ी हुई है। तीव्रगतिमें वे वायुकी समानता करते हैं। वे
चाहें तो देवराज इन्द्रको भी निश्चय ही अपने स्थानसे हटा सकते हैं ।। ८ ।।
तैस्तात बलिभिर्गुप्ता यातुधानैश्व रक्षिता: ।
दुर्गमा: पर्वता: पार्थ समाधि परमं कुरु ।। ९ ।।
तात युधिष्ठिर! उन बलवान् यक्ष और राक्षसोंसे सुरक्षित रहनेके कारण ये पर्वत बड़े
दुर्गम हैं। अतः तुम विशेषरूपसे एकाग्रचित्त हो जाओ ।। ९ ।।
कुबेरसचिवाश्रान्ये रौद्रा मैत्राश्न राक्षसा: ।
तै: समेष्याम कौन्तेय संयतो विक्रमेण च ।। १० ।।
कुबेरके सचिवगण तथा अन्य रौद्र और मैत्र नामक राक्षसोंका हमें सामना करना
पड़ेगा; अतः तुम पराक्रमके लिये तैयार रहो ।। १० ।।
कैलास: पर्वतो राजन् षड्योजनसमुच्छित: ।
यत्र देवा समायान्ति विशाला यत्र भारत ।। ११ ।।
राजन्! उधर छ: योजन ऊँचा कैलासपर्वत दिखायी देता है जहाँ देवता आया करते हैं।
भारत! उसीके निकट विशालापुरी (बदरिकाश्रमतीर्थ) है ।। ११ ।।
असंख्येयास्तु कौन्तेय यक्षराक्षसकिन्नरा: ।
नागा: सुपर्णा गन्धर्वा: कुबेरसदनं प्रति ॥। १२ ।।
कुन्तीनन्दन! कुबेरके भवनमें अनेक यक्ष, राक्षस, किन्नर, नाग, सुपर्ण तथा गन्धर्व
निवास करते हैं ।। १२ ।।
तान् विगाहस्व पार्थद्य तपसा च दमेन च ।
रक्ष्यमाणो मया राजन् भीमसेनबलेन च ।। १३ ।।
महाराज कुन्तीनन्दन! तुम भीमसेनके बल और मेरी तपस्यासे सुरक्षित हो तप एवं
इन्द्रियसंयमपूर्वक रहते हुए आज उन तीर्थोमें स्नान करो ।। १३ ।।
स्वस्ति ते वरुणो राजा यमश्षु समितिंजय: ।
गड़ा च यमुना चैव पर्वतश्न दधातु ते ।। १४ ।।
राजा वरुण, युद्धविजयी यमराज, गंगा-यमुना तथा यह पर्वत तुम्हें कल्याण प्रदान
करें ।। १४ ।।
मरुतश्न सहश्रि भ्यां सरितश्ष सरांसि च ।
स्वस्ति देवासुरेभ्यश्व वसुभ्यश्च महाद्युते | १५ ।।
महाद्युते! मरुदगण, अश्विनीकुमार, सरिताएँ और सरोवर भी तुम्हारा मंगल करें।
देवताओं, असुरों तथा वसुओंसे भी तुम्हें कल्याणकी प्राप्ति हो ।। १५ ।।
इन्द्रस्य जाम्बूनदपर्वताद् वै
शृणोमि घोषं तव देवि गज्ले ।
गोपायैनं त्वं सुभगे गिरिभ्य:
सर्वाजमीढापचितं नरेन्द्रम् ।। १६ ।।
देवि गंगे। मैं इन्द्रके सुवर्णमय मेरुपर्वतसे तुम्हाशा कलकलनाद सुन रहा हूँ।
सौभाग्यशालिनि! ये राजा युधिष्ठिर अजमीढवंशी क्षत्रियोंक लिये आदरणीय हैं। तुम
पर्वतोंसे इनकी रक्षा कराओ ।। १६ ।।
ददस्व शर्म प्रविविक्षतो 5स्य
शैलानिमाञ्छैलसुते नृपस्य ।
उक्त्वा तथा सागरगां स विप्रो
यत्तो भवस्वेति शशास पार्थम् ।। १७ ।।
'शैलपुत्रि! ये इन पर्वतमालाओंमें प्रवेश करना चाहते हैं। तुम इन्हें कल्याण प्रदान
करो।' समुद्रगामिनी गंगानदीसे ऐसा कहकर विप्रवर लोमशने कुन्तीकुमार युधिष्ठिरको यह
आदेश दिया कि “अब तुम एकाग्रचित्त हो जाओ” ।। १७ ।।
युधिछिर उवाच
अपूर्वोडयं सम्भ्रमो लोमशस्य
कृष्णां च सर्वे रक्षत मा प्रमादम् |
देशो हाय॑ दुर्गतमो मतो5स्य
तस्मात् परं शौचमिहाचरध्वम् ।। १८ ।।
युधिष्ठिर बोले--बन्धुओ! आज महर्षि लोमशको बड़ी घबराहट हो रही है। यह एक
अभूतपूर्व घटना है। अतः तुम सब लोग सावधान होकर द्रौपदीकी रक्षा करो। प्रमाद न
करना। लोमशजीका मत है कि यह प्रदेश अत्यन्त दुर्गम है। अतः यहाँ अत्यन्त शुद्ध
आचार-विचारसे रहो ।। १८ ।।
वैशम्पायन उवाच
ततो<ब्रवीद् भीममुदारवीर्य
कृष्णां यत्त: पालय भीमसेन ।
शून्येडर्जुनेडसंनिहिते च तात
त्वामेव कृष्णा भजते भयेषु ।। १९ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर राजा युधिष्ठिर महाबली भीमसे इस
प्रकार बोले--“भैया भीमसेन! तुम सावधान रहकर द्रौपदीकी रक्षा करो। तात! किसी
निर्जन प्रदेशमें जबकि अर्जुन हमारे समीप नहीं हैं भयका अवसर उपस्थित होनेपर द्रौपदी
तुम्हारा ही आश्रय लेती है” || १९ ।।
ततो महात्मा स यमौ समेत्य
मूर्थन्युपाप्राय विमृज्य गात्रे ।
उवाच तौ बाष्पकलं स राजा
मा भैष्टमागच्छतमप्रमत्तौ ।। २० ।।
तत्पश्चात् महात्मा राजा युधिष्ठिरने नकुल-सहदेवके पास जाकर उनका मस्तक सूँघा
और शरीरपर हाथ फेरा। फिर नेत्रोंसे आँसू बहाते हुए कहा--'भैया! तुम दोनों भय न करो
और सावधान होकर आगे बढ़ो” || २० ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां
कैलासादिगिरिप्रवेशे एकोनचत्वारिंशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १३९ ||
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोगशती र्थयात्राके प्रसंगमें
पाण्डवॉका कैलास आदि पर्वतमालाओंगें प्रवेशविषयक एक सौ उनतालीसवाँ अध्याय पूरा
हुआ ॥ १३९ ॥
हि >> आय न हुक है
चत्वारिशर्दाधिकशततमोब ध्याय:
भीमसेनका उत्साह तथा पाण्डवोंका कुलिन्दराज सुबाहुके
राज्यमें होते हुए गन्धमादन और हिमालय पर्वतको प्रस्थान
युधिछिर उवाच
अन्तर्हितानि भूतानि बलवन्ति महान्ति च ।
अग्निना तपसा चैव शकक््यं गन्तुं वकोदर ।। १ ।।
युधिष्ठिर बोले--भीमसेन! यहाँ बहुत-से बलवान् और विशालकाय राक्षस छिपे रहते
हैं; अतः अग्निहोत्र एवं तपस्याके प्रभावसे ही हमलोग यहाँसे आगे बढ़ सकते हैं ।। १ ।।
संनिवर्तय कौन्तेय क्षुत्पिपासे बलाश्रयात् ।
ततो बलं च दाक्ष्यं च संश्रयस्व वृकोदर ।। २ ।।
वृकोदर! तुम बलका आश्रय लेकर अपनी भूख-प्यास मिटा दो। फिर शारीरिक शक्ति
और चतुरताका सहारा लो | २ ।।
ऋषेस्त्वया श्रुतं वाक््यं कैलासं पर्वत प्रति ।
बुद्धया प्रपश्य कौन्तेय कथं कृष्णा गमिष्यति ।। ३ ।।
भैया! कैलास पर्वतके विषयमें महर्षिने जो बात कही है, वह तुमने भी सुना ही है; अब
स्वयं अपनी बुद्धिसे विचार करके देखो, द्रौपदी इस दुर्गम प्रदेशमें कैसे चल
सकेगी? ।। ३ ।।
अथवा सहदेवेन धौम्येन च सम॑ विभो ।
सूतै: पौरोगवैश्वैव सर्वैश्व॒ परिचारकै: ।। ४ ।।
रथैरश्वैश्व ये चान्ये विप्रा: क्लेशासहा: पथि ।
सर्वैस्त्वं सहितो भीम निवर्तस्वायतेक्षण ।। ५ ||
अथवा विशालनेत्रोंवाले भीम! तुम सहदेव, धौम्य, सारथि, रसोइये, समस्त सेवकगण,
रथ, घोड़े तथा मार्गके कष्टको सहन न कर सकनेवाले जो अन्य ब्राह्मण हैं, उन सबके साथ
यहींसे लौट जाओ || ४-५ ।।
त्रयो वयं गमिष्यामो लघ्वाहारा यतव्रता: ।
अहं च नकुलश्चैव लोमशश्न महातपा: ।। ६ ।।
ममागमनमाकाड्क्षन् गड़ाद्वारे समाहित: ।
वसेह द्रौपदी रक्षन् यावदागमनं मम | ७ ।।
केवल मैं, नकुल तथा महातपस्वी लोमशजी--ये तीन व्यक्ति ही संयम और व्रतका
पालन करते हुए यहाँसे आगेकी यात्रा करेंगे। हम तीनों ही स्वल्पाहारसे जीवन-निर्वाह
करेंगे। तुम गंगाद्वार (हरिद्वार)-में एकाग्रचित्त हो मेरे आगमनकी प्रतीक्षा करो और जबतक
मैं लौटकर न आऊँ, तबतक द्रौपदीकी रक्षा करते हुए वहीं निवास करो ।। ६-७ ।।
भीम उवाच
राजपुत्री श्रमेणार्ता दुःखार्ता चैव भारत ।
ब्रजत्येव हि कल्याणी श्वेतवाहदिदृक्षया ।। ८ ।।
भीमसेनने कहा--भारत! राजकुमारी द्रौपदी यद्यपि रास्तेकी थकावटसे और
मानसिक दु:खसे भी पीड़ित है; तो भी यह कल्याणमयी देवी अर्जुनको देखनेकी इच्छासे
उत्साहपूर्वक हमारे साथ चल ही रही है || ८ ।।
तव चाप्यरतिस्तीव्रा वर्तते तमपश्यत: ।
गुडाकेशं महात्मान संग्रामेष्वपपलायिनम् ।। ९ ।।
संग्राममें कभी पीठ न दिखानेवाले निद्राविजयी महात्मा अर्जुनको न देखनेके कारण
आपके मनमें भी अत्यन्त खिन्नता हो रही है ।। ९ ।।
कि पुन: सहदेवं च मां च कृष्णां च भारत ।
द्विजा: काम॑ निवर्तन्तां सर्वे च परिचारका: ।। १० |।
सूता: पौरोगवाश्रैव यं च मन्येत नो भवान् |
न हाहं हातुमिच्छामि भवन्तमिह कहिचित् ।। ११ ।।
शैले5स्मिन् राक्षसाकीर्णे दुर्गेषु विषमेषु च ।
इयं चापि महाभागा राजपुत्री पतिव्रता ।। १२ ।।
त्वामृते पुरुषव्यात्र नोत्सहेद् विनिवर्तितुम् |
तथैव सहदेवो<यं सतत त्वामनुव्रत: ।। १३ ।।
न जातु विनिवर्तेत मनोज्ञो हाहमस्य वै ।
अपि चात्र महाराज सव्यसाचिदिदृक्षया ।। १४ ।।
सर्वे लालसभूता: सम तस्माद् यास्यामहे सह ।
यद्यशक््यो रथैर्गन्तुं शैलो5यं बहुकन्दर: ।। १५ ।।
पद्धिरेव गमिष्यामो मा राजन् विमना भव |
अहं वहिष्ये पाञ्चालीं यत्र यत्र न शक्ष्यति ।। १६ ।।
फिर सहदेवके, मेरे तथा द्रौपदीके लिये तो कहना ही क्या है? भारत! ये ब्राह्मणलोग
चाहें तो यहाँसे लौट सकते हैं। समस्त सेवक, सारथि, रसोइये तथा हममेंसे और जिस-
जिसको आप लौटाना उचित समझें-वे सभी जा सकते हैं। राक्षसोंसे भरे हुए इस पर्वतपर
तथा ऊँचे-नीचे दुर्गम प्रदेशोंमें मैं आपको कदापि अकेला छोड़ना नहीं चाहता। नरश्रेष्ठ! यह
परम सौभाग्यवती पतिव्रता राजकुमारी कृष्णा भी आपको छोड़कर लौटनेको कभी तैयार
न होंगी। इसी प्रकार यह सहदेव भी आपमें सदा अनुराग रखनेवाला है, आपको छोड़कर
कभी नहीं लौटेगा। मैं इसके मनकी बात जानता हूँ। महाराज! सव्यसाची अर्जुनको
देखनेकी इच्छासे हम सभी लालायित हो रहे हैं; अत: सब साथ ही चलेंगे। राजन! अनेक
कन्दराओंसे युक्त इस पर्वतपर यदि रथोंके द्वारा यात्रा सम्भव न हो तो हम पैदल ही चलेंगे।
आप इसके लिये उदास न हों। जहाँ-जहाँ द्रौपदी नहीं चल सकेगी वहाँ-वहाँ मैं स्वयं इसे
कंधेपर चढ़ाकर ले जाऊँगा ।। १०--१६ ।।
इति मे वर्तते बुद्धिर्मा राजन् विमना भव |
सुकुमारौ तथा वीरौ माद्रीनन्दिकरावुभौ ।
दुर्गे संतारयिष्यामि यत्राशक्तौ भविष्यत: ।। १७ ।।
राजन! मेरा ऐसा ही विचार है, आप उदास न हों। वीर माद्रीकुमार नकुल और सहदेव
दोनों सुकुमार हैं। जहाँ कहीं दुर्गम स्थानमें ये असमर्थ हो जायँगे वहाँ मैं इन्हें पार
लगाऊँगा ।। १७ |।
युधिछिर उवाच
एवं ते भाषमाणस्य बल॑ भीमाभिवर्धताम् |
यत् त्वमुत्सहसे वोढुं पाउ्चालीं च यशस्विनीम् ।। १८ ।।
यमजोौ चापि भद्रं ते नैतदन्यत्र विद्यते ।
बल॑ तव यशश्नैव धर्म: कीर्तिश्व वर्धताम् ।। १९ ।।
यत् त्वमुत्सहसे नेतुं भ्रातरौ सह कृष्णया ।
मा ते ग्लानिर्महाबाहो मा च ते<5स्तु पराभव: ।। २० ।।
युधिष्ठिर बोले--भीमसेन! इस प्रकार (उत्साहपूर्ण) बातें करते हुए तुम्हारा बल बढ़े,
क्योंकि तुम यशस्विनी द्रौपदी तथा नकुल-सहदेवको भी वहन करके ले चलनेका उत्साह
रखते हो। तुम्हारा कल्याण हो। यह साहस तुम्हारे सिवा और किसीमें नहीं है। तुम्हारे बल,
यश, धर्म और कीर्तिका विस्तार हो। महाबाहो! तुम द्रौपदीसहित दोनों भाई नकुल-
सहदेवको भी स्वयं ही ले चलनेकी शक्ति रखते हो, इसलिये कभी तुम्हें ग्लानि न हो तथा
किसीसे भी तुम्हें तिरस्कृत न होना पड़े || १८--२० ॥।
वैशम्पायन उवाच
ततः कृष्णाब्रवीद् वाक््य॑ं प्रहसन्ती मनोरमा ।
गमिष्यामि न संताप: कार्यो मां प्रति भारत ।। २३ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तब सुन्दरी द्रौपदीने हँसते हुए कहा--“भारत!
मैं आपके साथ ही चलूँगी; आप मेरे लिये चिन्ता न करें” || २१ ।।
लोगश उवाच
तपसा शकक््यते गन्तुं पर्वतो गन्धमादन: ।
तपसा चैव कौन्तेय सर्वे योक्ष्यामहे वयम् || २२ ।।
नकुलः सहदेवश्न भीमसेनश्च पार्थिव ।
अहं च त्वं च कौन्तेय द्रक्ष्याम: श्वेतवाहनम् ।। २३ ।।
लोमशजीने कहा--कुन्तीनन्दन! गन्धमादन पर्वतपर तपस्याके बलसे ही जाया जा
सकता है। हम सब लोगोंको तपःशक्तिका संचय करना होगा। महाराज! नकुल, सहदेव,
भीमसेन, मैं और तुम सभी लोग तपोबलसे ही अर्जुनको देख सकेंगे || २२-२३ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवं सम्भाषमाणास्ते सुबाहुविषयं महत् ।
ददृशुर्मुदिता राजन् प्रभूतगजवाजिमत् ।। २४ ।।
किराततड्गणाकीर्ण पुलिन्दशतसंकुलम् |
हिमवत्यमरैर्जुष्टं बद्दाश्चर्यसमाकुलम् |
सुबाहुश्चापि तान् दृष्टवा पूजया प्रत्यगृह्नत ।। २५ ।।
विषयान्ते कुलिन्दानामी श्वर: प्रीतिपूर्वकम् ।
ततस्ते पूजितास्तेन सर्व एव सुखोषिता: ।। २६ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! इस प्रकार बातचीत करते हुए वे सब लोग आगे
बढ़े। कुछ दूर जानेपर उन्हें कुलिन्दराज सुबाहुका विशाल राज्य दिखायी दिया, जहाँ हाथी-
घोड़ोंकी बहुतायत थी, और सैकड़ों किरात, तंगण एवं कुलिन्द आदि जंगली जातियोंके
लोग निवास करते थे। वह देवताओंसे सेवित देश हिमालयके अत्यन्त समीप था। वहाँ
अनेक प्रकारकी आश्चर्यजनक वस्तुएँ दिखायी देती थीं। सुबाहुका वह राज्य देखकर उन
सबको बड़ी प्रसन्नता हुई। कुलिन्दोंके राजा सुबाहुको जब यह पता लगा कि मेरे राज्यमें
पाण्डव आये हैं, तब उसने राज्यकी सीमापर जाकर बड़े आदर-सत्कारके साथ उन्हें
अपनाया। उसके द्वारा प्रेमसे पूजित होकर वे सब लोग बड़े सुखसे वहाँ रहे || २४--२६ ।।
प्रतस्थुर्विमले सूर्ये हिमवन्तं गिरिं प्रति ।
इन्द्रसेनमुखां श्वापि भृत्यान् पौरोगवांस्तथा | २७ ।।
सूदांश्व पारिबहश्चि द्रौपद्या: सर्वशो नृप ।
राज्ञ: कुलिन्दाधिपते: परिदाय महारथा: ।। २८ ।।
पद्धिरेव महावीर्या ययु: कौरवनन्दना: ।
ते शनै: प्राद्रवन् सर्वे कृष्णया सह पाण्डवा: ।
तस्माद् देशात् सुसंहृष्टा द्रष्टकामा धनंजयम् ।। २९ ।।
दूसरे दिन निर्मल प्रभातकालमें सूर्योदय होनेपर उन सबने हिमालय पर्वतकी ओर
प्रस्थान किया। जनमेजय! इन्द्रसेन आदि सेवकों, रसोइयों और पाक-शालाके अध्यक्षको
तथा द्रौपदीके सारे सामानोंको कुलिन्दराज सुबाहुके यहाँ सौंपकर वे महापराक्रमी महारथी
कुरुकुलनन्दन पाण्डव द्रौपदीके साथ धीरे-धीरे पैदल ही चल दिये। उनके मनमें अर्जुनको
देखनेकी बड़ी उत्कण्ठा थी। अतः वे बड़े हर्ष और उलल्लासके साथ उस देशसे प्रस्थित
हुए || २७--२९ ||
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां गन्धमादनप्रवेशे
चत्वारिंशदाधिकशततमो< ध्याय: ।। १४० ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रसंगमें
गन्धमादनप्रवेशविषयक एक सौ चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४० ॥।
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एकचत्वारिंशर्दाधिकशततमो< ध्याय:
युधिष्ठिरका भीमसेनसे अर्जुनको न देखनेके कारण
मानसिक चिन्ता प्रकट करना एवं उनके गुणोंका स्मरण
करते हुए गन्धमादन पर्वतपर जानेका दृढ़ निश्चय करना
युधिछिर उवाच
भीमसेन यमौ चोभौ पाञज्चालि च निबोधत ।
नास्ति भूतस्य नाशो वै पश्यतास्मान् वनेचरान् ।। १ ।।
युधिष्ठिर बोले--भीमसेन, नकुल-सहदेव और द्रौपदी! तुम सब लोग ध्यान देकर
सुनो। यह निश्चय है कि पूर्वकृत कर्मोका बिना भोगे कभी नाश नहीं होता। देखो, उन्हींके
कारण आज हम राजकुमार होकर भी वन-वनमें भटक रहे हैं ।। १ ।।
दुर्बला: क्लेशिता: स्मेति यद् ब्रुवामेतरेतरम् ।
अशक्येडपि व्रजामो यद् धनंजयदिदृक्षया ।। २ ।।
यद्यपि हमलोग दुर्बल हैं, क्लेशमें पड़े हुए हैं, तथापि जो एक-दूसरेसे उत्साहपूर्वक बातें
करते हैं और जहाँ जाना सम्भव नहीं उस मार्गपर भी आगे बढ़ते जा रहे हैं, उसमें एक ही
कारण है, हम सबके हृदयमें अर्जुनको देखनेके लिये प्रबल उत्कण्ठा है ।। २ ।।
तन्मे दहति गात्राणि तूलराशिमिवानल: ।
यच्च वीरं न पश्यामि धनंजयमुपान्तिकात् ।। ३ ।।
इतना प्रयास करनेपर भी मैं वीर धनंजयको जो अबतक अपने समीप नहीं देख पा
रहा हूँ, इसकी चिन्ता मेरे सम्पूर्ण अंगोंको उसी प्रकार दग्ध कर रही है, जैसे आग रूईके
ढेरको जलाती रहती है ।। ३ ।।
तस्य दर्शनतृष्णं मां सानुजं वनमास्थितम् ।
याज्ञसेन्या: परामर्श: स च वीर दहत्युत ।। ४ ।।
उसीके दर्शनकी प्यास लेकर मैं भाइयोंसहित इस वनमें आया हूँ। वीर भीमसेन!
दुःशासनने जो द्रौपदीके केश पकड़ लिये थे, वह घटना याद आकर मुझे और भी शोकसे
दग्ध कर देती है ।। ४ ।।
नकुलात् पूर्वजं पार्थ न पश्याम्यमितौजसम् |
अजेयमुग्रधन्वानं तेन तप्ये वृकोदर ।। ५ ।।
वृकोदर! भयंकर धनुष धारण करनेवाले अजेय वीर अमिततेजस्वी अर्जुनको जो
नकुलसे पहले उत्पन्न हुआ है, मैं अबतक नहीं देख रहा हूँ, इसके कारण मुझे बड़ा संताप
हो रहा है ।। ५ ।।
तीर्थानि चैव रम्याणि वनानि च सरांसि च ।
चरामि सह युष्माभिस्तस्य दर्शनकाड्क्षया ।। ६ ।।
अर्जुनको देखनेकी ही अभिलाषासे मैं तुमलोगोंके साथ विभिन्न तीर्थोर्में, रमणीय
वनोंमें और सुन्दर सरोवरोंके तटपर विचर रहा हूँ ।। ६ ।।
पज्चवर्षाण्यहं वीरं सत्यसंधं धनंजयम् ।
यन्न पश्यामि बीभत्सुं तेन तप्ये वृकोदर ।। ७ ।।
भीमसेन! आज पाँच वर्ष हो गये, मैं अपने वीर भाई सत्यप्रतिज्ञ अर्जुनके दर्शनसे
वंचित हो गया हूँ। इसके कारण मुझे बड़ी चिन्ता हो रही है ।। ७ ।।
त॑ वै श्याम गुडाकेशं सिंहविक्रान्तगामिनम् |
न पश्यामि महाबाहुं तेन तप्ये वृकोदर ।। ८ ।।
वृकोदर! सिंहके समान मस्तानी चालसे चलनेवाले, निद्राविजयी, श्यामवर्ण, महाबाहु
अर्जुनको नहीं देख पा रहा हूँ, इसलिये मेरे मनमें बड़ा संताप हो रहा है ।। ८ ।।
कृतास्त्र निपुणं युद्धे5प्रतिमानं धनुष्मताम् ।
न पश्यामि कुरुश्रेष्ठ तेन तप्ये वृकोदर ।। ९ ।।
कुरुश्रेष्ठ भीमसेन! अस्त्रविद्यामें प्रवीण, युद्धुकुशल और अनुपम धनुर्धर उस अर्जुनको
नहीं देखता हूँ, इस कारण मुझे बड़ा कष्ट होता है ।। ९ ।।
चरन्तमरिसंघेषु काले क्रुद्धमिवान्तकम् ।
प्रभिन्नमिव मातडुं सिंहस्कन्ध॑ं धनंजयम् ।। १० ।।
जो युद्धके समय शत्रुओंके समूहमें कुपित यमराजकी भाँति विचरता है, जिसके कंधे
सिंहके समान हैं तथा जो मदकी धारा बहानेवाले मत्त गजराजके समान शोभा पाता है, उस
वीर धनंजयसे अबतक भेंट न हो सकी; इसका मुझे बड़ा दुःख है || १० ।।
यः स शक्रादनवरो वीर्येण द्रविणेन च ।
यमयो: पूर्वज: पार्थ: श्वेताश्वोडमितविक्रम: ।। ११ ।।
दुःखेन महताविष्टस्तं न पश्यामि फाल्गुनम् ।
अजेयमुग्रधन्वानं तेन तप्ये वृकोदर ।। १२ ।।
वृकोदर! जो पराक्रम और सम्पत्तिमें देवराज इन्द्रसे तनिक भी कम नहीं है, जिसके
रथके घोड़े श्वेत रंगके हैं, जो नकुल-सहदेवसे अवस्थामें बड़ा है, जिसके पराक्रमकी कोई
सीमा नहीं है तथा जो उग्र धनुर्धर एवं अजेय है, उस वीरवर अर्जुनके दर्शनसे मैं वंचित हूँ;
इसके लिये मुझे महान कष्ट हो रहा है। मैं चिन्ताकी आगमें जला जा रहा हूँ ।। ११-१२ ।।
सततं य: क्षमाशील: क्षिप्पमाणो5प्यणीयसा ।
ऋजुमार्गप्रपन्नस्य शर्मदाताभयस्य च ।। १३ ।।
सतु जिद्दाप्रवृत्तस्य माययाभिजिघांसत: ।
अपि वज्रधरस्यापि भवेत् कालविषोपम: ।। १४ ।।
जो छोटे लोगोंके आक्षेप करनेपर भी सदा क्षमाशील होनेके कारण उस आक्षेपको सह
लेता है तथा सरल मार्गसे अपनी शरणमें आनेवाले लोगोंको सुख पहुँचाकर उन्हें अभयदान
देता है, वही अर्जुन, जब कोई कुटिल मार्गका आश्रय ले छल-कपटसे उसपर आघात करना
चाहता है तब वह वज्धारी इन्द्र ही क्यों न हो, उसके लिये काल और विषके समान भयंकर
हो जाता है ।। १३-१४ ।।
शत्रोरपि प्रपन्नस्य सोडनृशंस: प्रतापवान् ।
दाताभयस्य बीभत्सुरमितात्मा महाबल: ।। १५ ।।
सर्वेषामाश्रयो<स्माकं रणे<४रीणां प्रमर्दिता ।
आहर्ता सर्वरत्नानां सर्वेषां न: सुखावह: ।। १६ ।।
यदि शत्रु भी शरणमें आ जाय तो वह प्रतापी वीर उसके प्रति दयालु हो जाता और उसे
निर्भय कर देता है। वह महाबली महामना अर्जुन ही हमलोगोंका सहारा है। वही
समरांगणमें हमारे शत्रुओंको रौंद डालनेकी शक्ति रखता है। उसीने हमारे लिये सब प्रकारके
रत्न लाकर सुलभ किये थे और वही हम सबको सदा सुख पहुँचानेवाला है || १५-१६ ।।
रत्नानि यस्य वीर्येण दिव्यान्यासन् पुरा मम |
बहूनि बहुजातीनि यानि प्राप्त: सुयोधन: ।। १७ ।।
जिसके पराक्रमसे हमारे पास पहले अनेक प्रकारकी असंख्य रत्नराशि संचित हो गयी
थी, जिसे सुयोधनने ले लिया ।। १७ ।।
यस्य बाहुबलाद वीर सभा चासीत् पुरा मम |
सर्वरत्नमयी ख्याता त्रिषु लोकेषु पाण्डव ।। १८ ।।
वीर भीमसेन! जिसके बाहुबलसे पहले मेरे अधिकारमें सम्पूर्ण रत्नोंकी बनी हुई
त्रिभुवनविख्यात सभा थी ।। १८ ।।
वासुदेवसमं वीर्ये कार्तवीर्यसमं युधि ।
अजेयममितं युद्धे तं न पश्यामि फाल्गुनम् । १९ ।।
जो पराक्रममें भगवान् श्रीकृष्ण और युद्धमें कार्तवीर्य अर्जुनके समान है; तथा जो
समरभूमिमें एक होकर भी असंख्य-सा प्रतीत होता है, उस अजेय वीर अर्जुनको मैं बहुत
दिनोंसे नहीं देख पाता हूँ ।। १९ ।।
संकर्षणं महावीर्य त्वां च भीमापराजितम् ।
अनुयात: स्ववीर्येण वासुदेवं च शत्रुहा ।। २० ।।
भीमसेन! शत्रुनाशक अर्जुन अपने पराक्रमसे महाबली बलरामकी, तुझ अपराजित
वीरकी और वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्णकी समानता कर सकता है ।। २० ।।
यस्य बाहुबले तुल्य: प्रभावे च पुरंदर: ।
जवे वायुर्मुखे सोम: क्रोधे मृत्यु: सनातन: ।। २१ ।।
ते वयं त॑ नरव्याप्रं सर्वे वीर दिदृक्षव: ।
प्रवेक्ष्यामो महाबाहो पर्वतं गन्धमादनम् ।। २२ ।।
महाबाहो! जो बाहुबल और प्रभावमें देवराज इन्द्रके समान है, जिसके वेगमें वायु,
मुखमें चन्द्रमा और क्रोधमें सनातन मृत्युका निवास है, उसी नरश्रेष्ठ अर्जुनको देखनेके लिये
उत्सुक होकर हम सब लोग आज गन्धमादन पर्वतकी घाटियोंमें प्रवेश करेंगे || २१-२२ ।।
विशाला बदरी यत्र नरनारायणाश्रम: ।
त॑ सदाध्युषितं यक्षैद्रेक्ष्यामो गिरिमुत्तमम् ।। २३ |।
कुबेरनलिनीं रम्यां राक्षसैरभिसेविताम् ।
पद्धिरेव गमिष्यामस्तप्यमाना महत् तप: ।। २४ ।।
गन्धमादन वही है, जहाँ विशाल बदरीका वृक्ष और भगवान् नर-नारायणका आश्रम है;
उस उत्तम पर्वतपर सदा यक्षणण निवास करते हैं; हमलोग उसका दर्शन करेंगे। इसके
सिवा, राक्षसोंद्वारा सेवित कुबेरकी सुरम्य पुष्करिणी भी है जहाँ हमलोग भारी तपस्या करते
हुए पैदल ही चलेंगे || २३-२४ ।।
न च यानवता शक्यो गन्तुं देशो वृकोदर ।
न नृशंसेन लुब्धेन नाप्रशान्तेन भारत ।। २५ ।।
भरतनन्दन! वृकोदर! उस प्रदेशमें किसी सवारीसे नहीं जाया जा सकता तथा जो क्र्र,
लोभी और अशान्त है, ऐसे मनुष्यके लिये श्रद्धाकी कमीके कारण उस स्थानपर जाना
असम्भव है || २५ ।।
तत्र सर्वे गमिष्यामो भीमार्जुनगवेषिण: ।
सायुधा बद्धनिस्त्रिंशा: सार्ध विप्रैर्महाव्रतै: ।। २६ ।।
भीमसेन! हम सब लोग अर्जुनकी खोज करते हुए तलवार बाँधकर अस्त्र-शस्त्रोंसे
सुसज्जित हो इन महान् व्रतधारी ब्राह्मणोंके साथ वहाँ चलेंगे || २६ ।।
मक्षिकादंशमशकानू् सिंहान् व्याप्रान् सरीसूपान् |
प्राप्रोत्यनियत: पार्थ नियतस्तान् न पश्यति ।। २७ ।।
भीमसेन! जो अपने मन और इन्द्रियोंपर संयम नहीं रखता, ऐसे मनुष्यको वहाँ जानेपर
मक्खी, डाँस, मच्छर, सिंह, व्याप्र और सर्पोका सामना करना पड़ता है, परंतु जो संयम-
नियमसे रहनेवाला है, उसे उन जन्तुओंका दर्शनतक नहीं होता ।। २७ ।।
ते वयं नियतात्मान: पर्वतं गन्धमादनम् ।
प्रवेक्ष्यामो मिताहारा धनंजयदिदृक्षव: ।। २८ ।।
अतः हमलोग भी अर्जुनको देखनेकी इच्छासे अपने मनको संयममें रखकर स्वल्पाहार
करते हुए गन्धमादनकी पर्वतमालाओंमें प्रवेश करेंगे || २८ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशती र्थयात्रायां गन्धमादनप्रवेशे
एकचत्वारिंशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १४१ ।।
इस प्रकार श्रीमह्ा भारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापवरमें लोगशती र्थयात्राके प्रसंगमें
गन्धमादनप्रवेशविषयक एक सौ इकलीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४१ ॥।
अपर अप हूँ... आपके अप:
द्विचत्वारिशर्दाधिकशततमो< ध्याय:
पाण्डवोंद्वारा गंगाजीकी वन्दना, लोमशजीका नरकासुरके
वध और भगवान् वाराहद्वारा वसुधाके उद्धारकी कथा
कहना
लोगश उवाच
द्रष्टार: पर्वता: सर्वे नद्य: सपुरकानना: ।
तीर्थानि चैव श्रीमन्ति स्पृष्टं च सलिलं करै: ।। १ ।।
लोमशजीने कहा--तीर्थदर्शी पाण्डुकुमारो! तुमने सब पर्वतोंके दर्शन कर लिये।
नगरों और वनोंसहित नदियोंका भी अवलोकन किया। शोभाशाली तीर्थोंके भी दर्शन किये
और उन सबके जलका अपने हाथोंसे स्पर्श भी कर लिया ।। १ ।।
पर्वतं मन्दरं दिव्यमेष पन्था: प्रयास्यति ।
समाहिता निरुद्धिग्ना: सर्वे भवत पाण्डवा: ।। २ ।।
अयं देवनिवासो वै गन्तव्यो वो भविष्यति ।
ऋषीणां चैव दिव्यानां निवास: पुण्यकर्मणाम् ॥। ३ ।।
पाण्डवो! यह मार्ग दिव्य मन्दराचलकी ओर जायगा। अब तुम सब लोग उद्धेगशून्य
और एकाग्रचित्त हो जाओ। यह देवताओंका निवासस्थान है, जिसपर तुम्हें चलना होगा।
यहाँ पुण्यकर्म करनेवाले दिव्य ऋषियोंका भी निवास है ।। २-३ ।।
एषा शिवजला पुण्या याति सौम्य महानदी ।
बदरीप्रभवा राजन् देवर्षिगणसेविता ।। ४ ।।
सौम्य स्वभाववाले नरेश! यह कल्याणमय जलसे भरी हुई पुण्यस्वरूपा महानदी
अलकनन्दा (गंगा) प्रवाहित होती है, जो देवर्षियोंके समुदायसे सेवित है। इसका प्रादुर्भाव
बदरिकाश्रमसे ही हुआ है ।। ४ ।।
एषा वैहायसैर्नित्यं बालखिल्यैर्महात्मभि: ।
अर्चिता चोपयाता च गन्धर्वैश्न महात्मभि: ।। ५ ।।
आकाशचारी महात्मा बालखिल्य तथा महामना गन्धर्वगण भी नित्य इसके तटपर
आते-जाते हैं और इसकी पूजा करते हैं ।। ५ ।।
अत्र साम सम गायन्ति सामगा: पुण्यनि:स्वना: |
मरीचि: पुलहश्चैव भुगुश्चैवाड्धिरास्तथा ।। ६ ।।
सामगान करनेवाले विद्वान् वेदमन्त्रोंकी पुण्यमयी ध्वनि फैलाते हुए यहाँ सामवेदकी
ऋचाओंका गान करते हैं। मरीचि, पुलह, भूगु तथा अंगिरा भी यहाँ जप एवं स्वाध्याय करते
हैं ।। ६ ।।
अत्राह्निकं सुरश्रेष्ठो जपते समरुदूगण: ।
साध्याक्षैवाश्विनौ चैव परिधावन्ति तं॑ तदा ।। ७ ।।
देवश्रेष्ठ इन्द्र भी मरुदुगणोंके साथ यहाँ आकर प्रतिदिन नियमपूर्वक जप करते हैं। उस
समय साध्य तथा अश्विनीकुमार भी उनकी परिचर्यामें रहते हैं |। ७ ।।
चन्द्रमा: सह सूर्येण ज्योतींषि च ग्रहै: सह ।
अहोरात्रविभागेन नदीमेनामनुव्रजन् ।। ८ ।।
चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह और नक्षत्र भी दिन-रातके विभागपूर्वक इस पुण्य नदीकी यात्रा करते
हैं ।। ८ ।।
एतस्या: सलिल मूर्थ्नि वृषाडुक: पर्यधारयत् ।
गड़ाद्वारे महाभाग येन लोकस्थितिर्भवेत् ।। ९ ।।
महाभाग! गंगाद्वार (हरिद्वार)-में साक्षात् भगवान् शंकरने इसके पावन जलको अपने
मस्तकपर धारण किया है, जिससे जगत्की रक्षा हो ।। ९ ।।
एतां भगवतीं देवीं भवन्त: सर्व एव हि ।
प्रयतेनात्मना तात प्रतिगम्याभिवादत ।। १० ।।
तात! तुम सब लोग मनको संयममें रखते हुए इस ऐश्वर्यशालिनी दिव्य नदीके तटपर
चलकर इसे सादर प्रणाम करो ।। १० ।।
तस्य तद् वचन श्रुत्वा लोमशस्य महात्मन: ।
आकाशगड्जां प्रयता: पाण्डवास्ते5भ्यवादयन् ।। ११ ।।
महात्मा लोमशका यह वचन सुनकर सब पाण्डवोंने संयतचित्तसे भगवती आकाशगंगा
(अलकनन्दा) को प्रणाम किया ।। ११ ।।
अभिवाद्य च ते सर्वे पाण्डवा धर्मचारिण: ।
पुन: प्रयाता: संहृष्टा: सर्वे्रषिगणै: सह ।। १२ ।।
प्रणाम करके धर्मका आचरण करनेवाले वे समस्त पाण्डव पुनः सम्पूर्ण ऋषि-मुनियोंके
साथ हर्षपूर्वक आगे बढ़े ।। १२ ।।
ततो दूरात् प्रकाशन्तं पाण्डुरं मेरुसंनिभम् |
ददृशुस्ते नरश्रेष्ठा विकीर्ण सर्वतोदिशम् ।। १३ ।।
तदनन्तर उन नरश्रेष्ठ पाण्डवोंने एक श्वेत पर्वत-सा देखा जो मेरुगिरिके समान दूरसे ही
प्रकाशित हो रहा था। वह सम्पूर्ण दिशाओंमें बिखरा जान पड़ता था ।। १३ ।।
तान् प्रष्टकामान् विज्ञाय पाण्डवान् स तु लोमश: ।
उवाच वाक्यं वाक्यज्ञ: शृणुध्वं पाण्डुनन्दना: ।। १४ ।।
लोमशजी ताड़ गये कि पाण्डवलोग उस श्वेत पर्वताकार वस्तुके विषयमें कुछ पूछना
चाहते हैं, तब प्रवचनकी कला जाननेवाले उन महर्षिने कहा--*पाण्डवो! सुनो || १४ ।।
एतद् विकीर्ण सुश्रीमत् कैलासशिखरोपमम् ।
यत् पश्यसि नरश्रेष्ठ पर्वतप्रतिमं स्थितम् ।। १५ ।।
एतान्यस्थीनि दैत्यस्य नरकस्य महात्मन: ।
पर्वतप्रतिमं भाति पर्वतप्रस्तराश्रितम् ।। १६ ।।
“नरश्रेष्ठ यह जो सब ओर बिखरी हुई कैलासशिखरके समान सुन्दर प्रकाशयुक्त
पर्वताकार वस्तु देख रहे हो, ये सब विशालकाय नरकासुरकी हडियाँ हैं। पर्वत और
शिलाखण्डोंपर स्थित होनेके कारण ये भी पर्वतके समान ही प्रतीत होती हैं || १५-१६ ।।
पुरातनेन देवेन विष्णुना परमात्मना |
दैत्यो विनिहतस्तेन सुरराजहितैषिणा ।। १७ ।।
“पुरातन परमात्मा श्रीविष्णुदेवने देवराज इन्द्रका हित करनेकी इच्छासे उस दैत्यका
वध किया था ।। १७ ।।
दशवर्षसहस््त्राणि तपस्तप्यन् महामना: ।
ऐन्द्रं प्रार्थयते स्थानं तप:स्वाध्यायविक्रमात् ॥। १८ ।।
“वह महामना दैत्य दस हजार वर्षोतक कठोर तपस्या करके तप, स्वाध्याय और
पराक्रमसे इन्द्रका स्थान लेना चाहता था ।। १८ ।।
तपोबलेन महता बाहुवेगबलेन च ।
नित्यमेव दुराधर्षो धर्षयन् स दिते: सुत: ।। १९ |।
“अपने महान् तपोबल तथा वेगयुक्त बाहुबलसे वह देवताओंके लिये सदा अजेय बना
रहता था और स्वयं सब देवताओंको सताया करता था ।। १९ |।
स तु तस्य बल ज्ञात्वा धर्मे च चरितव्रतम् ।
भयाभिभूत: संविग्न: शक्र आसीत् तदानघ ।। २० ।।
“निष्पाप युधिष्ठिर! नरकासुर बलवान तो था ही, धर्मके लिये भी उसने कितने ही उत्तम
व्रतोंका आचरण किया था, यह सब जानकर इन्द्रको बड़ा भय हुआ, वे घबरा उठे ।। २० ।।
तेन संचिन्तितो देवो मनसा विष्णुरव्यय: ।
सर्वत्रग: प्रभु: श्रीमानागतश्न स्थितो बभौ ।। २१ ।।
“तब उन्होंने मन-ही-मन अविनाशी भगवान् विष्णुका चिन्तन किया, उनके स्मरण
करते ही सर्वव्यापी भगवान् श्रीपति वहाँ उपस्थित हो प्रकाशित हुए ।। २१ ।।
ऋषयश्चापि त॑ सर्वे तुष्ठवुश्न दिवौकस: ।
त॑ दृष्टवा ज्वलमानश्रीर्भगवान् हव्यवाहन: ।। २२ ।।
नष्टतेजा: समभवत् तस्य तेजो5भिभर्त्सित: |
त॑ दृष्टवा वरदं देवं विष्णुं देवगणेश्वरम् ।। २३ ।।
प्राउजलि: प्रणतो भूत्वा नमस्कृत्य च वज्रञभृत् ।
प्राह वाक््यं ततस्तत्त्वं यतस्तस्य भयं भवेत् ।। २४ ।।
“उस समय सभी देवताओं तथा ऋषियोंने उनकी स्तुति की। उन्हें देखते ही प्रज्वलित
कान्तिसे सुशोभित भगवान् अग्निदेवका तेज नष्ट-सा हो गया। वे श्रीहरिके तेजसे तिरस्कृत
हो गये। समस्त देवसमुदायके स्वामी एवं वरदायक भगवान् विष्णुका दर्शन करके वज्रधारी
इन्द्रने उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया और बार-बार मस्तक झुकाया। तदनन्तर वे सारी
बातें भगवानसे कह सुनायीं, जिनके कारण उन्हें उस दैत्यसे भय हो रहा था” | २२--
२४ ।।
विष्णुरुवाच
जानामि ते भयं शक्र दैत्येन्द्रान्नकात् ततः ।
ऐन्द्रं प्रार्थयते स्थानं तप:सिद्धेन कर्मणा ।। २५ ।।
तब भगवान् विष्णुने कहा--इन्द्र! मैं जानता हूँ, तुम्हें दैत्यराज नरकासुरसे भय प्राप्त
हुआ है। वह अपने तपःसिद्ध कर्मोद्वारा इन्द्रपदको लेना चाहता है || २५ ।।
सो5हमेनं तव प्रीत्या तप:सिद्धमपि ध्रुवम् ।
वियुनज्मि देहाद् देवेन्द्र मुहूर्त प्रतिपालय ।॥ २६ ।।
देवेन्द्र! यद्यपि तपस्याद्वारा उसे सिद्धि प्राप्त हो चुकी है तो भी मैं तुम्हारे प्रेमवश निश्चय
ही उस दैत्यको मार डालूगा, तुम थोड़ी देर और प्रतीक्षा करो || २६ ।।
तस्य विष्णुर्महातेजा: पाणिना चेतनां हरत् ।
स पपात ततो भूमौ गिरिराज इवाहतः || २७ ।।
ऐसा कहकर महातेजस्वी भगवान् विष्णुने हाथसे मारकर उस दैत्यके प्राण हर लिये
और वह वच्रके मारे हुए गिरिराजकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ा ।। २७ ।।
तस्यैतदस्थिसंघातं मायाविनिहतस्य वै ।
इदं द्वितीयमपरं विष्णो: कर्म प्रकाशते ।। २८ ।।
इस प्रकार मायाद्वारा मारे गये उस दैत्यकी हड्डियोंका यह समूह दिखायी देता है। अब
मैं भगवान् विष्णुका यह दूसरा पराक्रम बता रहा हूँ, जो सर्वत्र प्रकाशमान है || २८ ।।
नष्टा वसुमती कृत्स्ना पाताले चैव मज्जिता ।
पुनरुद्धरिता तेन वाराहेणैकशृद्धिणा ।। २९ ।।
एक समय सारी पृथ्वी एकार्णवके जलमें ड्रबकर अदृश्य हो गयी, पातालमें डूब गयी।
उस समय भगवान् विष्णुने पर्वतशिखरके सदृश एक दाँतवाले वाराहका रूप धारण करके
पुनः इसका उद्धार किया था ।। २९ ।।
युधिछिर उवाच
भगवन् विस्तरेणेमां कथां कथय तत्त्वतः ।
कथं तेन सुरेशेन नष्टा वसुमती तदा ।। ३० ।।
योजनानां शतं ब्रह्मन् पुनरुद्धरिता तदा |
केन चैव प्रकारेण जगतो धरणी श्लुवा || ३१ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--भगवन्! देवेश्वर भगवान् विष्णुने पातालमें सैकड़ों योजन नीचे डूबी
हुई इस पृथ्वीका पुनरुद्धार किस प्रकार किया? आप इस कथाको यथार्थरूपसे और
विस्तारपूर्वक कहिये। जगत्का भार धारण करनेवाली इस अचला पृथ्वीका उद्धार करनेके
लिये उन्होंने किस उपायका अवलम्बन किया? || ३०-३१ ।।
शिवा देवी महाभागा सर्वसस्यप्ररोहिणी ।
कस्य चैव प्रभावाद्धि योजनानां शतं गता ।। ३२ ।।
सम्पूर्ण शस्योंका उत्पादन करनेवाली यह कल्याणमयी महाभागा वसुधादेवी किसके
प्रभावसे सैकड़ों योजन नीचे धँस गयी थी || ३२ ।।
केन तद् वीर्यसर्वस्वं दर्शितं परमात्मन: ।
एतत् सर्व यथातत्त्वमिच्छामि द्विजसत्तम |
श्रोतुं विस्तरश: सर्व त्वं हि तस्य प्रतिश्रय: ।। ३३ ।।
परमात्माके उस अद्भुत पराक्रमका दर्शन (ज्ञान) किसने कराया था? द्विजश्रेष्ठ! यह
सब मैं यथार्थरूपसे विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ। आप इस वृत्तान्तके आश्रय (ज्ञाता)
हैं || ३३ ।।
लोगमश उवाच
यत् ते$हं परिपृष्टो5स्मि कथामेतां युधिष्िर ।
तत् सर्वमखिलेनेह श्रूयतां मम भाषत: ।। ३४ ।।
लोमशजीने कहा--युधिष्ठिर! तुमने जिसके विषयमें मुझसे प्रश्न किया है, वह कथा
--वह सारा वृत्तान्त मैं बता रहा हूँ, सुनो || ३४ ।।
पुरा कृतयुगे तात वर्तमाने भयंकरे ।
यमत्वं कारयामास आदिदेव: पुरातन: ।। ३५ ।।
तात! इस कल्पके प्रथम सत्ययुगकी बात है, एक समय बड़ी भयंकर परिस्थिति उत्पन्न
हो गयी थी। उस समय आदिदेव पुरातन पुरुष भगवान् श्रीहरि ही यमराजका भी कार्य
सम्पन्न करते थे || ३५ ।।
यमत्वं कुर्वतस्तस्य देवदेवस्य धीमत: ।
न तत्र म्रियते कश्चिज्जायते वा तथाप्युत ।। ३६ ।।
युधिष्ठिर! परम बुद्धिमान् देवदेव भगवान् श्रीहरिके यमराजका कार्य सँभालते समय
किसी भी प्राणीकी मृत्यु नहीं होती थी; परंतु उत्पत्तिका कार्य पूर्ववत् चलता रहा ।।
वर्धन्ते पक्षिसंघाश्व तथा पशुगवेडकम् |
गवाश्चं च मृगाश्नचैव सर्वे ते पिशिताशना: ।। ३७ ।।
फिर तो पक्षियोंके समूह बढ़ने लगे। गाय, बैल, भेड़-बकरे आदि पशु, घोड़े, मृग तथा
मांसाहारी जीव सभी बढ़ने लगे || ३७ ।।
तथा पुरुषशार्दूल मानुषाश्न परंतप |
सहस्रशो हायुतशो वर्धन्ते सलिलं यथा ।। ३८ ।।
शत्रुओंको संताप देनेवाले नरश्रेष्ठ जैसे बरसातमें पानी बढ़ता है, उसी प्रकार मनुष्य
भी हजार एवं दस हजार गुनी संख्यामें बढ़ने लगे || ३८ ।।
एतस्मिन् संकुले तात वर्तमाने भयंकरे |
अतिभाराद् वसुमती योजनानां शतं गता ॥। ३९ ।।
तात! इस प्रकार सब प्राणियोंकी वृद्धि होनेसे जब बड़ी भयंकर अवस्था आ गयी तब
अत्यन्त भारसे दबकर यह पृथ्वी सैकड़ों योजन नीचे चली गयी ।। ३९ ।।
सा वै व्यथितसर्वाज्डी भारेणाक्रान्तचेतना ।
नारायणं वरं देवं प्रपन्ना शरणं गता ।। ४० ।।
भारी भारके कारण पृथ्वी देवीके सम्पूर्ण अंगोंमें बड़ी पीड़ा हो रही थी। उसकी चेतना
लुप्त होती जा रही थी। अतः वह सर्वश्रेष्ठ देवता भगवान् नारायणकी शरणमें
गयी ।। ४० ।।
पृथिव्युवाच
भगवंस्त्वत्प्रसादाद्धि तिछ्ेयं सुचिरं त्विह ।
भारेणास्मि समाक्रान्ता न शकनोमि सम वर्तितुम् ।। ४१ ।।
पृथ्वी बोली--भगवन्! आप ऐसी कृपा करें जिससे मैं दीर्घ कालतक यहाँ स्थिर रह
सकूँ। इस समय मैं भारसे इतनी दब गयी हूँ कि जीवन धारण नहीं कर सकती ।। ४१ ।।
ममेम॑ भगवन् भार व्यपनेतुं त्वमहसि ।
शरणागतास्मि ते देव प्रसादं कुरु मे विभो ।। ४२ ।।
भगवन्! मेरे इस भारको आप दूर करनेकी कृपा करें। देव! मैं आपकी शरणमें आयी
हूँ। विभो! मुझपर कृपाप्रसाद कीजिये ।। ४२ ।।
तस्यास्तद् वचन श्रुत्वा भगवानक्षर: प्रभु: |
प्रोवाच वचन हद्ृष्ट: श्रव्याक्षरसमीरितम् ।। ४३ ।।
पृथ्वीका यह वचन सुनकर अविनाशी भगवान् नारायणने प्रसन्न होकर श्रवणमधुर
अक्षरोंसे युक्त मीठी वाणीमें कहा || ४३ ।।
विष्णुरुवाच
न ते महि भयं कार्य भारातें वसुधारिणि ।
अहमेवं तथा कुर्मि यथा लघ्वी भविष्यसि ।। ४४ ।।
भगवान् विष्णु बोले--वसुधे! तू भारसे पीड़ित है; किंतु अब उसके लिये भय न कर।
मैं अभी ऐसा उपाय करता हूँ जिससे तू हलकी हो जायगी ।। ४४ ।।
लोमश उवाच
सतां विसर्जयित्वा तु वसुधां शैलकुण्डलाम् |
ततो वराह: संवृत्त एकशुड्रो महाद्युति: ।। ४५ ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठिर! पर्वतरूपी कुण्डलोंसे विभूषित वसुधादेवीको विदा
करके महातेजस्वी भगवान् विष्णुने वाराहका रूप धारण कर लिया। उस समय उनके एक
ही दाँत था, जो पर्वत-शिखरके समान सुशोभित होता था ।। ४५ ।।
रक्ताभ्यां नयनाभ्यां तु भयमुत्पादयन्निव ।
धूमं च ज्वलयॉल्लक्ष्म्या तत्र देशे व्यवर्धत ।। ४६ ।।
वे अपने लाल-लाल नेत्रोंसे मानो भय उत्पन्न कर रहे थे और अपनी अंगकान्तिसे धूम
प्रकट करते हुए उस स्थानपर बढ़ने लगे ।। ४६ ।।
स गृहीत्वा वसुमतीं शृज्जेणैकेन भास्वता ।
योजनानां शतं वीर समुद्धरति सो$क्षर: ।। ४७ ।।
वीर युधिष्ठिर! अविनाशी भगवान् विष्णुने अपने एक ही तेजस्वी दाँतके द्वारा पृथ्वीको
थामकर उसे सौ योजन ऊपर उठा दिया ।। ४७ ।।
तस्यां चोद्धार्यमाणायां संक्षो भ: समजायत ।
देवा: संक्षुभिता: सर्वे ऋषयश्न तपोधना: ।। ४८ ।।
पृथ्वीको उठाते समय सब ओर भारी हलचल मच गयी। सम्पूर्ण देवता तथा तपस्वी
ऋषि क्षुब्ध हो उठे ।।
हाहाभूतम भूत् सर्व त्रिदिवं व्योम भूस्तथा ।
न पर्यवस्थित: कश्चिद् देवो वा मानुषो5पि वा ।। ४९ ।।
ततो ब्रह्माणमासीनं ज्वलमानमिव श्रिया ।
देवा: सर्षिगणाश्वैव उपतस्थुरनेकश: ।। ५० |।
स्वर्ग, अन्तरिक्ष तथा भूलोक सबमें अत्यन्त हाहाकार मच गया। कोई भी देवता या
मनुष्य स्थिर नहीं रह सका। तब अनेक देवता और ऋषि ब्रह्माजीके समीप गये। उस समय
वे अपने आसनपर बैठकर दिव्य कान्तिसे प्रकाशित हो रहे थे || ४९-५० ।।
उपसर्प्य च देवेशं ब्रह्माणं लोकसाक्षिकम् |
भूत्वा प्राजजलय: सर्वे वाक्यमुच्चारयंस्तदा ।। ५१ ।।
लोकसाक्षी देवेश्वर ब्रह्माके निकट पहुँचकर सबने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और
कहा-- || ५१ ||
लोकाः: संक्षुभिता: सर्वे व्याकुलं च चराचरम् ।
समुद्राणां च संक्षोभस्त्रिदशेश प्रकाशते ।। ५२ ।।
'देवेश्वर! सम्पूर्ण लोकोंमें हलचल मच गयी है। चर और अचर सभी प्राणी व्याकुल हैं।
समुद्रोंमें बड़ा भारी क्षोभ दिखायी दे रहा है || ५२ ।।
सैषा वसुमती कृत्स्ना योजनानां शतं गता ।
किमेतद् कि प्रभावेण येनेदं व्याकुलं जगत् ।
अख्यातु नो भवान् शीघ्र विसंज्ञा: स्मेह सर्वश: ।। ५३ ।।
“यह सारी पृथ्वी सैकड़ों योजन नीचे चली गयी थी, अब यह किसके प्रभावसे कौन-सी
अद्भुत घटना घटित हो रही है जिससे सारा संसार व्याकुल हो उठा है। आप शीजत्र हमें
इसका कारण बताइये। हम सब लोग अचेत-से हो रहे हैं" || ५३ ।।
ब्रह्मोवाच
असुरेभ्यो भयं नास्ति युष्माकं कुत्रचित् क्वचित् |
श्रूयतां यत्कृतेष्वेष संक्षोभो जायतेडमरा: ।। ५४ ।।
योअसौ सर्वत्रग: श्रीमानक्षरात्मा व्यवस्थित:।
तस्य प्रभावात् संक्षोभस्त्रिदिवस्य प्रकाशते ।। ५५ ।।
ब्रह्माजीने कहा--देवताओ! तुम्हें असुरोंस कभी और कोई भय नहीं है। यह जो चारों
ओर क्षोभ फैल रहा है, इसका क्या कारण है? वह सुनो। वे जो सर्वव्यापी अक्षरस्वरूप
श्रीमान् भगवान् नारायण हैं, उन्हींके प्रभावसे यह स्वर्गलोकमें क्षोभ प्रकट हो रहा
है ।। ५४-५५ ||
यैषा वसुमती कृत्स्ना योजनानां शतं गता ।
समुद्धृता पुनस्तेन विष्णुना परमात्मना ।। ५६ ।।
यह सारी पृथ्वी, जो सैकड़ों योजन नीचे चली गयी थी, इसे परमात्मा श्रीविष्णुने पुनः
ऊपर उठाया है ।। ५६ ||
तस्यामुद्धार्यमाणायां संक्षो भ: समजायत ।
एवं भवन्न्तो जानन्तु छिद्यतां संशयश्व व: ।। ५७ ।।
इस पृथ्वीका उद्धार करते समय ही सब ओर यह महान क्षोभ प्रकट हुआ है। इस
प्रकार तुम्हें इस विश्वव्यापी हलचलका यथार्थ कारण ज्ञात होना और तुम्हारा आन्तरिक
संशय दूर हो जाना चाहिये ।। ५७ ।।
देवा ऊचु
क्व तद् भूतं वसुमतीं समुद्धरति हृष्टवत् ।
त॑ देशं भगवन् ब्रूहि तत्र यास्यामहे वयम् ।। ५८ ।।
देवता बोले--भगवन्! वे वाराहरूपधारी भगवान् प्रसन्न-से होकर कहाँ पृथ्वीका
उद्धार कर रहे हैं, उस प्रदेशका पता हमें बताइये; हम सब लोग वहाँ जायँगे ।। ५८ ।।
ब्रह्मोवाच
हन्त गच्छत भद्रं वो नन्दने पश्यत स्थितम् |
एषोअत्र भगवान् श्रीमान् सुपर्ण: सम्प्रकाशते ।। ५९ ।।
वाराहेणैव रूपेण भगवॉँल्लोकभावन: ।
कालानल इवाभाति पृथिवीतलमुद्धरन् ।। ६० ।।
ब्रह्माजीनी कहा--देवताओ! बड़े हर्षकी बात है, जाओ। तुम्हारा कल्याण हो।
भगवान् नन्दनवनमें विराजमान हैं। वहीं उनका दर्शन करो। उस वनके निकट ये स्वर्णके
समान सुन्दर रोमवाले परम कान्तिमान् विश्वभावन भगवान् श्रीविष्णु वाराहरूपसे प्रकाशित
हो रहे हैं। भूतलका उद्धार करते हुए वे प्रलयकालीन अग्निके समान उद्धासित होते
हैं || ५९-६० ।।
एतस्योरसि सुव्यक्तं श्रीवत्समभिराजते ।
पश्यध्वं विबुधा: सर्वे भूतमेतदनामयम् ।। ६१ ।।
इनके वक्षःस्थलमें स्पष्टरूपसे श्रीवत्सचिह्न प्रकाशित हो रहा है। देवताओ! ये रोग-
शोकसे रहित साक्षात् भगवान् ही वाराहरूपसे प्रकट हुए हैं, तुम सब लोग इनका दर्शन
करो ।। ६१ ।।
लोगश उवाच
ततो दृष्टवा महात्मान श्रुत्वा चामन्त्रय चामरा: ।
पितामहं पुरस्कृत्य जम्मुर्देवा यथागतम् ॥। ६२ ।।
लोमशजी कहते हैं--युधिष्ठटिर! तदनन्तर देवताओंने जाकर वाराहरूपधारी परमात्मा
श्रीविष्णुका दर्शन किया, उनकी महिमा सुनी और उनकी आज्ञा लेकर वे ब्रह्माजीको आगे
करके जैसे आये थे वैसे लौट गये ।। ६२ ।।
वैशग्पायन उवाच
श्रुत्वा तु तां कथां सर्वे पाण्डवा जनमेजय ।
लोमशादेशितेनाशु पथा जम्मु: प्रहृष्टटत् ।। ६३ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! यह कथा सुनकर सब पाण्डव बड़े प्रसन्न हुए
और लोमशजीके बताये हुए मार्गसे शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ गये ।। ६३ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां गन्धमादनप्रवेशे
द्विचत्वारिंशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १४२ |।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रस॑ंगमें
गन्धमादनप्रवेशविषयक एक सौ बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४२ ॥।
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त्रिचत्वारिशर्दाधिकशततमो< ध्याय:
गन्धमादनकी यात्राके समय पाण्डवोंका आँधी-पानीसे
सामना
वैशम्पायन उवाच
ते शूरास्ततथन्वानस्तृणवन्त: समार्गणा: ।
बद्धगोधाड्गुलित्राणा: खड्गवन्तोडमितौजस: ।। १ |।
परिगृहा द्विजश्रेष्ठाजज्येष्ठा: सर्वधनुष्मताम् ।
पाञज्चालीसहिता राजन् प्रययुर्गन्धमान्दनम् ।। २ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर सम्पूर्ण थनुर्धरोंमें अग्रगणय वे
अमिततेजस्वी शूरवीर पाण्डव धनुष, बाण, तरकश, ढाल और तलवार लिये, हाथोंमें गोहके
चमड़ेके बने दस्ताने पहने और श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको आगे किये द्रौपदीके साथ गन्धमादन
पर्वतकी ओर प्रस्थित हुए ।। १-२ ।।
सरांसि सरितश्नैव पर्वतांक्ष वनानि च |
वृक्षांश्ष बहुलच्छायान् ददृशुर्गिरिमूर्धनि ।। ३ ।।
पर्वतके शिखरपर उन्होंने बहुत-से सरोवर, सरिताएँ, पर्वत, वन तथा घनी छायावाले
वृक्ष देखे |। ३ ।।
नित्यपुष्पफलान् देशान् देवर्षिगणसेवितान् |
आत्मन्यात्मानमाधाय वीरा मूलफलाशिन: ।। ४ ।।
चेरुरुच्चावचाकारान् देशान् विषमसंकटान् |
पश्यन्तो मृगजातानि बहूनि विविधानि च ।। ५ ।।
उन्हें कितने ही ऐसे स्थान दृष्टिगोचर हुए जहाँ सदा फ़ूल और फलोंकी बहुतायत रहती
थी। उन प्रदेशोंमें देवर्षियोंके समुदाय निवास करते थे। वीर पाण्डव अपने मनको
परमात्माके चिन्तनमें लगाकर फल-मूलका आहार करते हुए ऊँचे-नीचे विषम-संकटपूर्ण
स्थानोंमें विचर रहे थे। मार्गमें उन्हें नाना प्रकारके मृगसमूह दिखायी देते थे जिनकी संख्या
बहुत थी ।। ४-५ ।।
ऋषिसिद्धामरयुतं गन्धर्वाप्सरसां प्रियम् ।
विविशुस्ते महात्मान: किन्नराचरितं गिरिम् ।। ६ ।।
इस प्रकार उन महात्मा पाण्डवोंने गन्धर्वों और अप्सराओंकी प्रिय भूमि, किन्नरोंकी
क्रीडास्थली तथा ऋषियों, सिद्धों और देवताओंके निवासस्थान गन्धमादन पर्वतकी घाटीमें
प्रवेश किया ।। ६ ।।
प्रविशत्स्वथ वीरेषु पर्वतं गन्धमादनम् |
चण्डवातं महद् वर्ष प्रादुरासीद् विशाम्पते || ७ ।।
राजन! वीर पाण्डवोंके गन्धमादन पर्वतपर पदार्पण करते ही प्रचण्ड आँधीके साथ
बड़े जोरकी वर्षा होने लगी || ७ ।।
ततो रेणु: समुद्धूत: सपत्रबहुलो महान् ।
पृथिवीं चान्तरिक्षं च द्यां चैव सहसा55वृणोत् ॥। ८ ।।
फिर धूल और पत्तोंसे भरा हुआ बड़ा भारी बवंडर (आँधी) उठा, जिसने पृथ्वी,
अन्तरिक्ष तथा स्वर्गको भी सहसा आच्छादित कर दिया ।। ८ ।।
न सम प्रज्ञायते किंचिदावृते व्योम्नि रेणुना ।
न चापि शेकुस्तत् कर्तुमन्योन्यस्थाभिभाषणम् ।। ९ ।।
न चापश्यंस्ततो<न्योन्यं तमसावृतचक्षुष: ।
आकृष्यमाणा वातेन साभश्मचूर्णेन भारत ।। १० ।।
धूलसे आकाशके ढक जानेसे कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था; इसीलिये वे एक-दूसरेसे
बातचीत भी नहीं कर पाते थे। अन्धकारने आँखोंपर पर्दा डाल दिया था; जिससे
पाण्डवलोग एक-दूसरेके दर्शनसे भी वज्चित हो गये थे। भारत! पत्थरोंका चूर्ण बिखेरती
हुई वायु उन्हें कहीं-से-कहीं खींच लिये जाती थी || ९-१० ।।
द्रुमाणां वातभग्नानां पततां भूतलेडनिशम् ।
अन्येषां च महीजानां शब्द: समभवन्महान् ।। ११ ।।
प्रचण्ड वायुके वेगसे टूटकर निरन्तर धरतीपर गिरनेवाले वृक्षों तथा अन्य झाड़ोंका
भयंकर शब्द सुनायी पड़ता था ।। ११ ।।
द्यौ: स्वित् पतति कि भूमिर्दीर्यते पर्वतो नु किम् ।
इति ते मेनिरे सर्वे पवनेनापि मोहिता: ।। १२ ।।
हवाके झोंकेसे मोहित होकर वे सब-के-सब मन-ही-मन सोचने लगे कि आकाश तो
नहीं फट पड़ा है। पृथ्वी तो नहीं विदीर्ण हो रही है अथवा कोई पर्वत तो नहीं फटा जा रहा
है ।। १२ ।।
ते पथानन्तरान् वृक्षान् वल्मीकान् विषमाणि च ।
पाणिकश्रि: परिमार्गन्तो भीता वायोर्निलिल्यिरे ।। १३ ।।
तत्पश्चात् वे रास्तेके आस-पासके वृक्षों, मिट्टीके ढेरों और ऊँचे-नीचे स्थानोंको हाथोंसे
ट्टोलते हुए हवासे डरकर यत्र-तत्र छिपने लगे ।। १३ ।।
ततः कार्मुकमादाय भीमसेनो महाबल: ।
कृष्णामादाय संगम्य तस्थावाश्रित्य पादपम् ।। १४ ।।
उस समय महाबली भीमसेन हाथमें धनुष लिये द्रौपदीको अपने साथ रखकर एक
वृक्षके सहारे खड़े हो गये |। १४ ।।
धर्मराजश्न धौम्यश्न निलिल्याते महावने ।
अग्निहोत्राण्युपादाय सहदेवस्तु पर्वते ।। १५ ।।
धर्मराज युधिष्ठिर और पुरोहित धौम्य अग्निहोत्रकी सामग्री लिये उस महान् वनमें कहीं
जा छिपे। सहदेव पर्वतपर ही (कहीं सुरक्षित स्थानमें) छिप गये ।। १५ ।।
नकुलो ब्राह्मणाश्चान्ये लोमशश्न महातपा: ।
वृक्षानासाद्य संत्रस्तास्तत्र तत्र निलिल्यिरे | १६ ।।
नकुल, अन्यान्य ब्राह्मणलोग तथा महातपस्वी लोमशजी भी भयभीत होकर जहाँ-तहाँ
वृक्षोंकी आड़ लेकर छिपे रहे || १६ ।।
मन्दीभूते तु पवने तस्मिन् रजसि शाम्यति ।
महद्विर्जलधारौघैर्वर्षमभ्याजगाम ह ।। १७ ।।
भृशं चटचटाशब्दो वच्ञाणां क्षिप्पतामिव |
ततस्ताश्चज्चलाभास श्रेरुर भ्रेषु विद्युत: ॥। १८ ।।
थोड़ी देरमें जब वायुका वेग कुछ कम हुआ और धूल उड़नी बंद हो गयी, उस समय
बड़ी भारी जलधारा बरसने लगी। तदनन्तर वज्रपातके समान मेघोंकी गड़गड़ाहट होने लगी
और मेघमालाओंमें चारों ओर चंचल चमकवाली बिजलियाँ संचरण करने
लगीं || १७-१८ ।।
ततो5श्मसहिता धारा: संवृण्वन्त्य: समन्ततः ।
प्रपेतुरनिशं तत्र शीघ्रवातसमीरिता: ।। १९ |।
तत्पश्चात् तीव्र वायुसे प्रेरित हो समस्त दिशाओंको आच्छादित करती हुई ओलोंसहित
जलकी धाराएँ अविराम गतिसे गिरने लगीं ।। १९ ।।
तत्र सागरगा हयाप: कीर्यमाणा: समन्ततः ।
प्रादुरासन् सकलुषा: फेनवत्यो विशाम्पते ।। २० ।।
महाराज! वहाँ चारों ओर बिखरी हुई जलराशि समुद्रगामिनी नदियोंके रूपमें प्रकट हो
गयी जो मिट्टी मिल जानेसे मलिन दीख पड़ती थी। उसमें झाग उठ रहे थे ।। २० ।।
वहन्त्यो वारि बहुलं फेनोडुपपरिप्लुतम्
परिससुर्महाशब्दा: प्रकर्षन्त्यो महीरुहान् ।। २१ ।।
फेनरूपी नौकासे व्याप्त अगाध जलसमूहको बहाती हुई सरिताएँ टूटकर गिरे हुए
वृक्षोंकी अपनी लहरोंसे समेटकर जोर-जोरसे “हर-हर' ध्वनि करती हुई बह रही
थीं ।। २१ ।।
तस्मिन्नुपरते शब्दे वाते च समतां गते ।
गते हाम्भसि निम्नानि प्रादुर्भूते दिवाकरे || २२ ।।
निर्जग्मुस्ते शनै: सर्वे समाजम्मुश्न भारत ।
प्रतस्थिरे पुनर्वीरा: पर्वत॑ गन्धमादनम् ।। २३ ।।
भारत! थोड़ी देर बाद जब तूफानका कोलाहल शान्त हुआ, वायुका वेग कम एवं सम
हो गया, पर्वतका सारा जल बहकर नीचे चला गया और बादलोंका आवरण दूर हो जानेसे
सूर्यदेव प्रकाशित हो उठे, उस समय वे समस्त वीर पाण्डव धीरे-धीरे अपने स्थानसे निकले
और गन्धमादन पर्वतकी ओर प्रस्थित हो गये || २२-२३ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां गन्धमादनप्रवेशे
त्रिचत्वारिंशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १४३ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रसंगमें
गन्धमादनप्रवेशविषयक एक सौ तैतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४३ ॥।
हि मय न (0) है ४
चतुश्नत्वारिशर्दाधिकशततमो< ध्याय:
द्रौपदीकी मूर्छा, पाण्डवोंके उपचारसे उसका सचेत होना
तथा भीमसेनके स्मरण करनेपर घटोत्कचका आगमन
वैशम्पायन उवाच
क्रोशमात्र प्रयातेषु पाण्डवेषु महात्मसु ।
पद्धयामनुचिता गन्तुं द्रौपदी समुपाविशत् ।। १ ।।
श्रान्ता दुःखपरीता च वातवर्षेण तेन च ।
सौकुमार्याच्च पाज्चाली सम्मुमोह तपस्विनी ।। २ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! महात्मा पाण्डव अभी कोसभर ही गये होंगे कि
पांचालराजकुमारी तपस्विनी द्रौपदी सुकुमारताके कारण थककर बैठ गयी। वह पैदल
चलनेयोग्य कदापि नहीं थी। उस भयानक वायु और वर्षसे पीड़ित हो दुःखमग्न होकर वह
मूर्छित होने लगी थी ।। १-२ ।।
सा कम्पमाना मोहेन बाहुभ्यामसितेक्षणा ।
वृत्ताभ्यामनुरूपा भ्यामूरन समवलम्बत ।। ३ ।।
घबराहटसे काँपती हुई कजरारे नेत्रोंवाली कृष्णाने अपने गोल-गोल और सुन्दर हाथोंसे
दोनों जाँघोंको थाम लिया ।। ३ ।।
आलम्बमाना सहितावूरू गजकरोपमौ ।
पपात सहसा भूमौ वेपन्ती कदली यथा ।। ४ ।।
तां पतन्तीं वरारोहां भज्यमानां लतामिव ।
नकुल: समभिद्रुत्य परिजग्राह वीर्यवान् ।। ५ ।।
हाथीकी सूँड़के समान चढ़ाव-उतारवाली परस्पर सटी हुई जाँघोंका सहारा ले केलेके
वृक्षकी भाँति काँपती हुई वह सहसा पृथ्वीपर गिर पड़ी। सुन्दर अंगोंवाली द्रौपदीको टूटी
हुई लताकी भाँति गिरती देख बलशाली नकुलने दौड़कर थाम लिया ।। ४-५ ।।
नकुल उवाच
राजन् पञज्चालराजस्य सुतेयमसितेक्षणा ।
श्रान्ता निपतिता भूमौ तामवेक्षस्व भारत ।। ६ ।।
तत्पश्चात् नकुलने कहा--भरतकुलभूषण महाराज! यह श्याम नेत्रवाली
पांचालराजकुमारी द्रौपदी थककर धरतीपर गिर पड़ी है, आप आकर इसे देखिये ।। ६ ।।
अदुःखार्हा परं दु:खं प्राप्तेयं मृदुगामिनी ।
आश्वासय महाराज तामिमां श्रमकर्शिताम् ।। ७ ।।
राजन! यह मन्दगतिसे चलनेवाली देवी दुःख सहन करनेके योग्य नहीं है; तो भी
इसपर महान् दुःख आ पड़ा है। रास्तेके परिश्रमसे यह दुर्बल हो गयी है। आप आकर इसे
सान्त्वना दें ।। ७ ।।
वैशम्पायन उवाच
राजा तु वचनात् तस्य भृशं दुःखसमन्वित: ।
भीमश्न सहदेवश्व सहसा समुपाद्रवन् ।। ८ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! नकुलकी यह बात सुनकर राजा युधिष्छिर
अत्यन्त दुखी हो गये और भीम तथा सहदेवके साथ सहसा वहाँ दौड़े आये ।। ८ ।।
तामवेक्ष्य तु कौन्तेयो विवर्णवदनां कृशाम् ।
अड्-कमानीय धर्मात्मा पर्यदेवयदातुर: ।। ९ ।।
धर्मात्मा कुन्तीनन्दनने देखा--द्रौपदीके मुखकी कान्ति फीकी पड़ गयी है और उसका
शरीर कृश हो गया है। तब वे उसे अंकमें लेकर शोकातुर हो विलाप करने लगे ।। ९ ।।
युधिछिर उवाच
कथं वेश्मसु गुप्तेषु स्वास्तीर्णशयनोचिता ।
भूमौ निपतिता शेते सुखाहा वरवर्णिनी ।। १० ।।
युधिषछ्टिर बोले--अहो! जो सुरक्षित सदनोंमें सुसज्जित सुकोमल शय्यापर शयन
करनेयोग्य है, वह सुख भोगनेकी अधिकारिणी परम सुन्दरी कृष्णा आज पृथ्वीपर कैसे सो
रही है? ।। १० ।।
सुकुमारौ कथं पादौ मुखं च कमलप्रभम् ।
मत्कृतेड्द्य वरार्हाया: श्यामतां समुपागतम् ।। ११ ।।
जो सुखके श्रेष्ठ साधनोंका उपभोग करनेयोग्य है, उसी द्रौपदीके ये दोनों सुकुमार चरण
और कमलकी कान्तिसे सुशोभित मुख आज मेरे कारण कैसे काले पड़ गये हैं? ।। ११ ।।
किमिदं द्यूतकामेन मया कृतमबुद्धिना ।
आदाय कृष्णां चरता वने मृगगणायुते ।। १२ ।।
मुझ मूर्खने द्यूतक्रीड़ाकी कामनामें फँसकर यह क्या कर डाला? अहो! सहसोरों
मृगसमूहोंसे भरे हुए इस भयानक वनमें द्रौपदीको साथ लेकर हमें विचरना पड़ा
है || १२ ।।
सुखं प्राप्स्यसि कल्याणि पाण्डवान् प्राप्प वै पतीन् |
इति द्रुपदराजेन पित्रा दत्ता5डयतेक्षणा ।। १३ ।।
तत् सर्वमनवाप्येयं श्रमशोकाध्वकर्शिता ।
शेते निपतिता भूमौ पापस्य मम कर्मभि: ।। १४ ।।
इसके पिता राजा द्रुपदने इस विशाललोचना द्रौपदीको यह कहकर हमें प्रदान किया
था कि “कल्याणि! तुम पाण्डवोंको पतिरूपमें पाकर सुखी होगी।' परंतु मुझ पापीकी
करतूतोंसे वह सब न पाकर यह परिश्रम, शोक और मार्गके कष्टसे कृश होकर आज
पृथ्वीपर पड़ी सो रही है ।। १३-१४ ।।
वैशम्पायन उवाच
तथा लालप्यमाने तु धर्मराजे युधिष्ठिरे ।
धौम्यप्रभृतय: सर्वे तत्राजम्मुद्धिजोत्तमा: ।। १५ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! धर्मराज युधिष्ठिर जब इस प्रकार विलाप कर
रहे थे, उसी समय धौम्य आदि समस्त श्रेष्ठ ब्राह्मण भी वहाँ आ पहुँचे ।। १५ ।।
ते समाश्वासयामासुराशीर्भिश्चाप्पपूजयन् ।
रक्षोघ्नांश्न॒ तथा मन्त्राउ्जेपुश्नक्रुश्च ते क्रिया: ।। १६ ।।
उन्होंने महाराजको आश्वासन दिया और अनेक प्रकारके आशीर्वाद देकर उन्हें
सम्मानित किया। तत्पश्चात् वे राक्षमोंका विनाश करनेवाले मन्त्रोंका जप तथा शान्तिकर्म
करने लगे ।। १६ ।।
पठ्यमानेषु मन्त्रेषु शान्त्यर्थ परमर्षिभि: ।
स्पृश्यमाना करै: शीतैः: पाण्डवैश्व मुहुर्मुहु: ।। १७ ।।
महर्षियोंद्वारा शान्तिके लिये मन्त्रपाठ होते समय पाण्डवोंने अपने शीतल हाथोंसे बार-
बार द्रौपदीके अंगोंको सहलाया ।। १७ ।।
सेव्यमाना च शीतेन जलमिश्रेण वायुना ।
पाञ्चाली सुखमासाद्य लेभे चेत: शनै: शनै: ।। १८ ।।
जलका स्पर्श करके बहती हुई शीतल वायुने भी उसे सुख पहुँचाया। इस प्रकार कुछ
आराम मिलनेपर पांचालराजकुमारी द्रौपदीको धीरे-धीरे चेत हुआ ।। १८ ।।
परिगृहा च तां दीनां कृष्णामजिनसंस्तरे |
पार्था विश्रामयामासुर्लब्धसंज्ञां तपस्विनीम् ।। १९ ।।
तस्या यमौ रक्ततलौ पादौ पूजितलक्षणौ ।
कराभ्यां किणजाताभ्यां शनकै: संववाहतु: ।। २० ।।
होशमें आनेपर दीनावस्थामें पड़ी हुई तपस्विनी द्रौपदीको पकड़कर पाण्डवोंने
मृगचर्मके बिस्तरपर सुलाया और उसे विश्राम कराया। नकुल और सहदेवने धनुषकी
रगड़के चिह्लसे सुशोभित दोनों हाथोंद्वारा उसके लाल तलवोंसे युक्त और उत्तम लक्षणोंसे
अलंकृत दोनों चरणोंको धीरे-धीरे दबाया || १९-२० ।।
पर्याश्चासयदप्येनां धर्मराजो युधिष्ठिर: ।
उवाच च कुरुश्रेष्ठो भीमसेनमिदं वच: ।। २१ ।।
फिर कुरुश्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिरने भी द्रौपदीको बहुत आश्वासन दिया और भीमसेनसे
इस प्रकार कहा-- ।।
बहव: पर्वता भीम विषमा हिमदुर्गमा: ।
तेषु कृष्णा महाबाहो कथं नु विचरिष्यति ।। २२ ।।
“महाबाहु भीम! यहाँ बहुत-से ऊँचे-नीचे पर्वत हैं, जिनपर चलना बर्फके कारण
अत्यन्त कठिन है। उनपर द्रौपदी कैसे जा सकेगी?” ।। २२ ।।
भीमसेन उवाच
त्वां राजन् राजपुत्रीं च यमौ च पुरुषर्षभ ।
स्वयं नेष्यामि राजेन्द्र मा विषादे मन: कृथा: ।। २३ ।।
भीमसेनने कहा--पुरुषरत्न! महाराज! आप मनमें खेद न करें। मैं स्वयं राजकुमारी
द्रौपदी, नकुल-सहदेव और आपको भी ले चलूँगा ।। २३ ।।
हैडिम्बश्न महावीयों विहगो मद्धलोपम: ।
वहेदनघ सर्वान्नो वचनात् ते घटोत्कच: ।। २४ ।।
हिडिम्बाका पुत्र घटोत्कच भी महान् पराक्रमी है। वह मेरे ही समान बलवान् है और
आकाशमें चल-फिर सकता है। अनधघ! आपकी आज्ञा होनेपर वह हम सबको अपनी
पीठपर बिठाकर ले चलेगा ।। २४ ।।
वैशम्पायन उवाच
अनुज्ञातो धर्मराज्ञा पुत्र॑ सस्मार राक्षसम् |
घटोत्कचस्तु धर्मात्मा स्मृतमात्र: पितुस्तदा || २५ ।।
कृताञ्जलिरुपातिष्ठदभिवाद्याथ पाण्डवान् |
ब्राह्मणांश्व महाबाहु:ः स च तैरभिनन्दित: ।। २६ ।।
उवाच भीमसेनं स पितरं भीमविक्रमम् ।
स्मृतो5स्मि भवता शीघ्र शुश्रूषुरहमागत: ।। २७ ।।
आज्ञापय महाबाहो सर्व कर्तास्म्यसंशयम् ।
तच्छुत्वा भीमसेनस्तु राक्षसं परिषस्वजे ।। २८ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्! तदनन्तर धर्मराजकी आज्ञा पाकर भीमसेनने अपने
राक्षसपुत्रका स्मरण किया। पिताके स्मरण करते ही धर्मात्मा घटोत्कच हाथ जोड़े हुए वहाँ
उपस्थित हुआ। उस महाबाहु वीरने पाण्डवों तथा ब्राह्मणोंको प्रणाम करके उनके द्वारा
सम्मानित हो अपने भयंकर पराक्रमी पिता भीमसेनसे कहा--“महाबाहो! आपने मेरा
स्मरण किया है और मैं शीघ्र ही सेवाकी भावनासे आया हूँ, आज्ञा कीजिये; मैं आपका सब
कार्य अवश्य ही पूर्ण करूँगा।” यह सुनकर भीमसेनने राक्षस घटोत्कचको हृदयसे लगा
लिया || २५--२८ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां गन्धमादनप्रवेशे
चतुश्नत्वारिंशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १४४ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रस॑ंगमें
गन्धमादनप्रवेशविषयक एक सौ चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४४ ॥
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पजञज्चचत्वारिशर्दाधिकशततमो< ध्याय:
घटोत्कच और उसके साथियोंकी सहायतासे पाण्डवोंका
गन्धमादन पर्वत एवं बदरिकाश्रममें प्रवेश तथा बदरीवृक्ष,
नर-नारायणाश्रम और गंगाका वर्णन
युधिष्ठिर उवाच
धर्मज्ञो बलवान् शूर: सत्यो राक्षसपुज्भव: ।
भक्तो5स्मानौरस: पुत्रो भीम गृह्नातु मा चिरम् ।। १ ।।
तव भीम सुतेनाहमतिभीमपराक्रम ।
अक्षत: सह पाज्चाल्या गच्छेयं गन्धमादनम् ।। २ ।।
युधिष्ठिर बोले--अत्यन्त भयानक पराक्रम दिखानेवाले भीम! तुम्हारा औरस पुत्र
राक्षसश्रेष्ठ घटोत्कच धर्मज्ञ, बलवान, शूरवीर, सत्यवादी तथा हमलोगोंका भक्त है। यह हमें
शीघ्र उठा ले चले। जिससे भीमसेन! तुम्हारे पुत्र घटोत्कचद्वारा शरीरसे किसी प्रकारकी
क्षति उठाये बिना ही मैं द्रौपदीसहित गनन््धमादन पर्वतपर पहुँच जाऊँ ।। १-२ ।।
वैशम्पायन उवाच
भ्रातुर्वचनमाज्ञाय भीमसेनो घटोत्कचम् ।
आदिदेश नरव्याप्रस्तनयं शत्रुकर्शनम् ।। ३ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्! भाईकी इस आज्ञाको शिरोधार्य करके नरश्रेष्ठ
भीमसेनने अपने पुत्र शत्रुसूदन घटोत्कचको इस प्रकार आज्ञा दी || ३ ।।
भीमसेन उवाच
हैडिम्बेय परिश्रान्ता तव मातापराजित ।
त्वं च कामगमस्तात बलवान् वह तां खग ।॥। ४ ।।
भीमसेन बोले--अपराजित और आकाशचारी हिडिम्बानन्दन! तुम्हारी माता द्रौपदी
बहुत थक गयी है। तुम बलवान एवं इच्छानुसार सर्वत्र जानेमें समर्थ हो; अतः इसे
(आकाशमार्गसे) ले चलो || ४ ।।
स्कन्धमारोप्य भद्र|ं ते मध्येडस्माकं विहायसा ।
गच्छ नीचिकया गत्या यथा चैनां न पीडये: ।। ५ ।।
बेटा! तुम्हारा कल्याण हो। इसे कंधेपर बैठाकर हम लोगोंके बीच रहते हुए
आकाशकभमार्गसे इस प्रकार धीरे-धीरे ले चलो, जिससे इसे तनिक भी कष्ट न हो ।। ५ ।।
घटोत्कच उवाच
धर्मराजं च धौम्यं च कृष्णां च यमजौ तथा ।
एको<प्यहमल वोढुं किमुताद्य सहायवान् ।। ६ ।।
अन्ये च शतश: शूरा विहड्रा: कामरूपिण: ।
सर्वान् वो ब्राह्मणै: सार्ध वक्ष्यन्ति सहितानघ ।। ७ ।।
घटोत्कच बोला--अनघ! मैं अकेला रहूँ तो भी धर्मराज युधिष्ठिर, पुरोहित धौम्य,
माता द्रौपदी और चाचा नकुल-सहदेवको भी वहन कर सकता हूँ; फिर आज तो मेरे और
भी बहुत-से संगी-साथी मौजूद हैं। इस दशामें आप लोगोंको ले चलना कौन बड़ी बात है?
मेरे सिवा दूसरे भी सैकड़ों शूरवीर, आकाशचारी और इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले
राक्षस मेरे साथ हैं। वे ब्राह्मगोंसहित आप सब लोगोंको एक साथ वहन करेंगे ।। ६-७ ।।
एवमुक्क्त्वा ततः कृष्णामुवाह स घटोत्कच: ।
पाण्डूनां मध्यगो वीर: पाण्डवानपि चापरे ।। ८ ।।
ऐसा कहकर वीर घटोत्कच तो द्रौपदीको लेकर पाण्डवोंके बीचमें चलने लगा और
दूसरे राक्षस पाण्डवोंको भी (अपने-अपने कंधेपर बिठाकर) ले चले ।। ८ ।।
लोमश: सिद्धमार्गेण जगामानुपमझद्युति: ।
स्वेनैव स प्रभावेण द्वितीय इव भास्कर: ।। ९ |।
अनुपम तेजस्वी महर्षि लोमश अपने ही प्रभावसे दूसरे सूर्यकी भाँति सिद्धमार्ग अर्थात्
आकाशभमार्गसे चलने लगे ।। ९ ।।
ब्राह्मणांश्वापि तान् सर्वान् समुपादाय राक्षसा: |
नियोगाद् राक्षसेन्द्रस्थ जग्मुर्भीमपराक्रमा: ।। १० ।।
राक्षसराज घटोत्कचकी आज्ञासे अन्य सब ब्राह्मणोंको भी अपने-अपने कंधेपर
चढ़ाकर वे भयंकर पराक्रमी राक्षस साथ-साथ चलने लगे ।। १० ।।
एवं सुरमणीयानि वनान्युपवनानि च ।
आलोकयमन्तस्ते जम्मुर्विशालां बदरीं प्रति ।। ११ ।।
इस प्रकार अत्यन्त रमणीय वन और उपवनोंका अवलोकन करते हुए वे सब लोग
विशाला बदरी (बदरिकाश्रम तीर्थ)-की ओर प्रस्थित हुए ।। ११ ।।
ते त्वाशुगतिभिरवर्वीरा राक्षसैस्तैर्महाजवै: ।
उहामाना ययु: शीघ्र दीर्घमध्वानमल्पवत् ।। १२ ।।
उन महावेगशाली और तीव्र गतिसे चलनेवाले राक्षसोंपर सवार हो वीर पाण्डवोंने उस
विशाल मार्गको इतनी शीघ्रतासे तय कर लिया मानो वह बहुत छोटा हो || १२ ।।
देशान् म्लेच्छजनाकीर्णान् नानारत्नाकरायुतान् ।
ददृशुर्गिरिपादांश्व नानाधातुसमाचितान् ।। १३ ।।
विद्याधरसमाकीर्णान् युतान् वानरकिन्नरै: ।
तथा किंपुरुषैश्नैव गन्धर्वैश्व॒ समन्तत: ।। १४ ।।
उस यात्रामें उन्होंने म्लेच्छोंसे भरे हुए बहुत-से ऐसे देश देखे जो नाना प्रकारकी
रत्नोंकी खानोंसे युक्त थे। वहाँ उन्हें नाना प्रकारके धातुओंसे व्याप्त कितने ही शाखापर्वत
दृष्टिगोचर हुए। उन पर्वतीय शिखरोंपर बहुत-से विद्याधर, वानर, किन्नर, किम्पुरुष और
गन्धर्व चारों ओर निवास करते थे ।। १३-१४ ।।
मयूरैश्नमरैश्वैव वानरै रुरुभिस्तथा ।
वराहैर्गवयैश्वैव महिषैश्व समावृतान् ।। १५ ।।
मोर, चमरी गाय, बंदर, रुरुमृग, सूअर, गवय- और भैंस आदि पशु वहाँ विचर रहे
थे।। १५ |।
नदीजालसमाकीर्णान् नानापक्षियुतान् बहून् ।
नानाविधम्गैर्जुष्टान् वानरैश्वोपशोभितान् ।। १६ ।।
वहाँ सब ओर बहुत-सी नदियाँ बह रही थीं। अनेक प्रकारके असंख्य पक्षी विचर रहे
थे। वह स्थान नाना प्रकारके मृगोंसे सेवित और वानरोंसे सुशोभित था ।। १६ |।
समदैश्वापि विहगै: पादपैरन्वितास्तथा ।
तेवतीर्य बहुन् देशानुत्तमर्च्छिसमन्वितान् । १७ ।।
ददृशुर्विविधाश्चर्य कैलासं पर्वतोत्तमम्
तस्याभ्याशे तु ददृशुर्नरनारायणाश्रमम् ।। १८ ।।
उपेतं पादपैर्दिव्यै: सदापुष्पफलोपगै: ।
ददृशुस्तां च बदरीं वृत्तस्कन्धां मनोरमाम् ।। १९ ।।
स्निग्धामविरलच्छायां श्रिया परमया युताम् |
पत्रै: स्निग्धैरविरलैरुपेतां मृदुभि: शुभाम् ।। २० ।।
वह पर्वतीय प्रदेश मतवाले विहंगों और अगणित वृक्षोंसे युक्त था। पाण्डवोंने उत्तम
समृद्धिसे सम्पन्न बहुत-से देशोंको लाँधकर भाँति-भाँतिके आश्वर्यजनक दृश्योंसे सुशोभित
पर्वतश्रेष्ठ कैलासका दर्शन किया। उसीके निकट उन्हें भगवान् नर-नारायणका आश्रम
दिखायी दिया, जो नित्य फल-फूल देनेवाले दिव्य वृक्षोंसे अलंकृत था। वहीं वह विशाल एवं
मनोरम बदरी भी दिखायी दी, जिसका स्कनन््ध (तना) गोल था। वह वृक्ष बहुत ही चिकना,
घनी छायासे युक्त और उत्तम शोभासे सम्पन्न था। उस शुभ वृक्षके सघन कोमल पत्ते भी
बहुत चिकने थे || १७--२० ।।
विशालशाखां विस्तीर्णामतिद्युतिसमन्विताम् ।
फलैरुपचिवीर्दिव्यैराचितां स्वादुभिर्भुशम् ।। २१ ।।
मधुस्रवै: सदा दिव्यां महर्षिगणसेविताम् ।
मदप्रमुदितैर्नित्यं नानाद्विजगणैर्युताम् ।। २२ ।।
उसकी डालियाँ बहुत बड़ी और बहुत दूरतक फैली हुई थीं। वह वृक्ष अत्यन्त कान्तिसे
सम्पन्न था। उसमें अत्यन्त स्वादिष्ट दिव्य फल अधिक मात्रामें लगे हुए थे। उन फलोंसे
मधुकी धारा बहती रहती थी। उस दिव्य वृक्षके नीचे महर्षियोंका समुदाय निवास करता
था। वह वृक्ष सदा मदोन्मत्त एवं आनन्दविभोर पक्षियोंसे परिपूर्ण रहता था || २१-२२ ।।
अदंशमशके देशे बहुमूलफलोदके ।
नीलशाद्धलसंच्छन्ने देवगन्धर्वसेविते |। २३ ।।
सुसमीकृतभूभागे स्वभावविहिते शुभे ।
जातां हिममृदुस्पर्शे देशेषपहतकण्टके ।। २४ ।।
उस प्रदेशमें डॉस और मच्छरोंका नाम नहीं था। फल-मूल और जलकी बहुतायत थी।
वहाँकी भूमि हरी-हरी घाससे ढकी हुई थी। देवता और गन्धर्व वहाँ वास करते थे। उस
प्रदेशका भूभाग स्वभावतः समतल और मंगलमय था। उस हिमाच्छादित भूमिका स्पर्श
अत्यन्त मृदु था। उस देशमें काँटोंका कहीं नाम नहीं था। ऐसे पावन प्रदेशमें वह विशाल
बदरी वृक्ष उत्पन्न हुआ था || २३-२४ ।।
तामुपेत्य महात्मान: सह तैब्रहद्विणर्षभै: ।
अवतेरुस्तत: सर्वे राक्षसस्कन्धत: शनै: ।। २५ ।।
उसके पास पहुँचकर ये सब महात्मा पाण्डव जन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके साथ राक्षसोंके
कंधोंसे धीरे-धीरे उतरे || २५ ।।
ततस्तमाश्रमं रम्यं नरनारायणश्रितम् ।
ददृशु: पाण्डवा राजन् सहिता द्विजपुड़वै:ः ।। २६ ।।
राजन्! तदनन्तर ब्राह्मणोंसहित पाण्डवोंने एक साथ भगवान् नर-नारायणके उस
रमणीय स्थानका दर्शन किया ।। २६ ।।
तमसा रहित॑ पुण्यमनामृष्टं रवे: करै: ।
क्षुत्ृट्शीतोष्णदोषैक्ष वर्जित शोकनाशनम् ।। २७ ।।
जो अन्धकार एवं तमोगुणसे रहित तथा पुण्यमय था। (वृक्षोंकी सघनताके कारण)
सूर्यकी किरणें उसका स्पर्श नहीं कर पाती थीं। वह आश्रम भूख, प्यास, सर्दी और गरमी
आदि दोषोंसे रहित और सम्पूर्ण शोकोंका नाश करनेवाला था ।। २७ |।
महर्षिगणसम्बाधं ब्राह्मया लक्ष्म्या समन्वितम् ।
दुष्प्रवेशं महाराज नरैर्धर्मबहिष्कृतैः ।। २८ ।।
महाराज! वह पावन तीर्थ महर्षियोंके समुदायसे भरा हुआ और ब्राह्मी श्रीसे सुशोभित
था। धर्महीन मनुष्योंका वहाँ प्रवेश पाना अत्यन्त कठिन था ।। २८ ।।
बलिहोमार्चितं दिव्यं सुसम्मृष्टानुलेपनम् ।
दिव्यपुष्पोपहारैश्व सर्वती 5भिविराजितम् ।। २९ |।
वह दिव्य आश्रम देव-पूजा और होमसे अर्चित था। उसे झाड़-बुहारकर अच्छी तरह
लीपा गया था। दिव्य पुष्पोंक उपहार सब ओरसे उसकी शोभा बढ़ा रहे थे ।। २९ ।।
विशालैरग्निशरणै: सख॒ग्भाण्डैराचितं शुभै: ।
महद्विस्तोयकलशै: कठिनैश्वोपशोभितम् ।। ३० ।।
विशाल अमन्निहोत्रगृहों और खुक्, खुवा आदि सुन्दर यज्ञपात्रोंसे व्याप्त वह पावन
आश्रम जलसे भरे हुए बड़े-बड़े कलशों और बर्तनोंसे सुशोभित था ।। ३० ।।
शरण्यं सर्वभूतानां ब्रह्मघोषनिनादितम् |
दिव्यमाश्रयणीयं तमाश्रमं श्रमनाशनम् ।। ३१ ।।
वह सब प्राणियोंके शरण लेनेयोग्य था। वहाँ वेदमन्त्रोंकी ध्वनि गूँजती रहती थी। वह
दिव्य आश्रम सबके रहनेयोग्य और थकावटको दूर करनेवाला था ।।
श्रिया युतमनिर्देश्यं देवचर्योपशोभितम् ।
फलमूलाशनैददन्तैश्वारुकृष्णाजिनाम्बरै: || ३२ ।।
सूर्यवैश्वानरसमैस्तपसा भावितात्मभि: ।
महर्षिभिमोक्षपरैर्यतिभिर्नियतेन्द्रिये: ।। ३३ ।।
ब्रह्म भूतैर्महा भागैरुपेत॑ ब्रह्म॒वादिभि: ।
सो<भ्यगच्छन्महातेजास्तानृषीन् प्रयत: शुचि: ।। ३४ ।।
भ्रातृभि: सहितो धीमान् धर्मपुत्रो युधिष्ठिर: ।
दिव्यज्ञानोपपन्नास्ते दृष्टवा प्राप्त युधिष्ठिरम् ।। ३५ ।।
अभ्यगच्छन्त सुप्रीता: सर्व एव महर्षय: ।
आशीव॑दान् प्रयुञ्जाना: स्वाध्यायनिरता भृशम् ।। ३६ ।।
प्रीतास्ते तस्य सत्कारं विधिना पावकोपमा: ।
उपाजहुश्न सलिल पुष्पमूलफलं शुचि ।। ३७ ।।
वह शोभासम्पन्न आश्रम अवर्णनीय था। देवोचित कार्योंका अनुष्ठान उसकी शोभा
बढ़ाता था। उस आश्रममें फल-मूल खाकर रहनेवाले, कृष्णमृगचर्मधारी, जितेन्द्रिय, अग्नि
तथा सूर्यके समान तेजस्वी और तपःपूत अन्तःकरणवाले महर्षि, मोक्षपरायण, इन्द्रिय-
संयमी संन््यासी तथा महान् सौभाग्यशाली ब्रह्मवादी ब्रह्मभूत महात्मा निवास करते थे।
महातेजस्वी, बुद्धिमान धर्मपुत्र युधिष्ठिर पवित्र और एकाग्रचित्त होकर भाइयोंके साथ उन
आश्रमवासी महर्षियोंके पास गये। युधिष्ठिरको आश्रममें आया देख वे दिव्यज्ञानसम्पन्न सब
महर्षि अत्यन्त प्रसन्न होकर उनसे मिले और उन्हें अनेक प्रकारके आशीर्वाद देने लगे। सदा
वेदोंके स्वाध्यायमें तत्पर रहनेवाले उन अग्नितुल्य तेजस्वी महात्माओंने प्रसन्न होकर
युधिष्ठिरका विधिपूर्वक सत्कार किया और उनके लिये पवित्र फल-मूल, पुष्प और जल
आदि सामग्री प्रस्तुत की || ३२--३७ ।।
स तै: प्रीत्याथ सत्कारमुपनीतं महर्षिभि: ।
प्रयत: प्रतिगृह्मयाथ धर्मराजो युधिष्ठिर: । ३८ ।।
महर्षियोंद्वारा प्रेमपूर्वक प्रस्तुत किये हुए उस आतिथ्य-सत्कारको शुद्ध हृदयसे ग्रहण
करके धर्मराज युधिष्ठिर बड़े प्रसन्न हुए ।। ३८ ।।
त॑ं शक्रसदनप्रख्यं दिव्यगन्ध॑ मनोरमम् ।
प्रीत: स्वर्गोपमं पुण्यं पाण्डव: सह कृष्णया ।। ३९ ।।
विवेश शोभया युक्त भ्रातृभिश्च सहानघ ।
ब्राह्माणैवेंदवेदाड़पारगैश्व सहस्रश: || ४० ||
उन्होंने भाइयों तथा द्रौपदीके साथ इन्द्रभवनके समान मनोरम और दिव्य सुगन्धसे
परिपूर्ण उस स्वर्ग-सदृश शोभाशाली पुण्यमय नर-नारायण आश्रममें प्रवेश किया। अनघ!
उनके साथ ही वेद-वेदांगोंके पारंगत विद्वान् सहस्ौ्रों ब्राह्मण भी प्रविष्ट हुए || ३९-४० ।।
तत्रापश्यत धर्मात्मा देवदेवर्षिपूजितम् ।
नरनारायणस्थानं भागीरथ्योपशोभितम् ।। ४१ ।।
धर्मात्मा युधिष्ठिरने वहाँ भगवान् नर-नारायणका स्थान देखा, जो देवताओं और
देवर्षियोंसे पूजित तथा भागीरथी- गंगासे सुशोभित था ।। ४१ ।।
पश्यन्तस्ते नरव्याप्रा रेमिरे तत्र पाण्डवा: ।
मधुस्रवफल दिव्य॑ ब्रह्मर्षिणणसेवितम् ।। ४२ ।।
तदुपेत्य महात्मानस्ते5वसन ब्राह्मणै:ः सह ।
मुदा युक्ता महात्मानो रेमिरे तत्र ते तदा ।। ४३ ।।
नरश्रेष्ठ पाण्डव उस स्थानका दर्शन करते हुए वहाँ सब ओर सुखपूर्वक घूमने-फिरने
लगे। ब्रह्मर्षियों-द्वारा सेवित जो अपने फलोंसे मधुकी धारा बहानेवाला दिव्य वृक्ष था,
उसके निकट जाकर महात्मा पाण्डव ब्राह्मणोंके साथ वहाँ निवास करने लगे। उस समय वे
सब महात्मा बड़ी प्रसन्नताके साथ वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे || ४२-४३ ।।
आलोकयमन्तो मैनाकं नानाद्विजगणायुतम् ।
हिरण्यशिखरं चैव तच्च बिन्दुसर: शिवम् ।। ४४ ।।
तस्मिन् विहरमाणाश्न पाण्डवा: सह कृष्णया ।
मनोज्ञे काननवरे सर्वर्तुकुसुमोज्ज्वले ।। ४५ ।।
वहाँ सुवर्णमय शिखरोंसे सुशोभित और अनेक प्रकारके पक्षियोंसे युक्त मैनाक पर्वत
था। वहीं शीतल जलसे सुशोभित बिन्दुसर नामक तालाब था। वह सब देखते हुए पाण्डव
द्रौपदीके साथ उस मनोहर उत्तम वनमें विचरने लगे, जो सभी ऋतुओंके फूलोंसे सुशोभित
हो रहा था || ४४-४५ ||
पादपै: पुष्पविकचै: फलभारावनामिश्रि: |
शोभिते सर्वतो रम्यै: पुंस्कोकिलगणायुतै: ।। ४६ ।।
उस वनमें सब ओर सुरम्य वृक्ष दिखायी देते थे, जो विकसित फूलोंसे युक्त थे। उनकी
शाखाएँ फलोंके बोझसे झुकी हुई थीं। कोकिल पक्षियोंसे युक्त बहुसंख्यक वृक्षोंके कारण
उस वनकी बड़ी शोभा होती थी || ४६ ।।
स्निग्धपत्रैरविरलै: शीतच्छायैर्मनोरमै: ।
सरांसि च विचित्राणि प्रसन्नसनलिलानि च ।। ४७ ।।
उपर्युक्त वृक्षोंके पत्ते चिकने और सघन थे। उनकी छाया शीतल थी। वे मनको बड़े ही
रमणीय लगते थे। उस वनमें कितने ही विचित्र सरोवर भी थे, जो स्वच्छ जलसे भरे हुए
थे।। ४७ |।
कमलेै: सोत्पलैश्नैव भ्राजमानानि सर्वश: |
पश्यन्तश्षारुरूपाणि रेमिरे तत्र पाण्डवा: ।। ४८ ।।
खिले हुए उत्पल और कमल सब ओरसे उनकी शोभाका विस्तार करते थे। उन मनोहर
सरोवरोंका दर्शन करते हुए पाण्डव वहाँ सानन्द विचरने लगे ।। ४८ ।।
पुण्यगन्ध:सुखस्पर्शो ववौ तत्र समीरण: ।
ह्वादयन् पाण्डवान् सर्वान् द्रौपद्या सहितान् प्रभो ।। ४९ ।।
जनमेजय! गन्धमादन पर्वतपर पवित्र सुगन्धसे वासित सुखदायिनी वायु चल रही थी,
जो द्रौपदीसहित पाण्डवोंको आनन्द-निमग्न किये देती थी ।। ४९ ।।
भागीरथीं सुतीर्था च शीतां विमलपड्कजाम् ।
मणिप्रवालप्रस्तारां पादपरुपशोभिताम् ।। ५० ।।
दिव्यपुष्पसमाकीर्णा मन:प्रीतिविवर्धिनीम् ।
वीक्षमाणा महात्मानो विशालां बदरीमनु ।। ५१ ।।
तस्मिन् देवर्षिचरिते देशे परमदुर्गमे ।
भागीरथीपुण्यजले तर्पयांचक्रिरे तदा ।। ५२ ।।
देवानषींश्व कौन्तेया: परमं शौचमास्थिता: ।
तत्र ते तर्पयन्तश्न जपन्तश्न कुरूद्वहा: ।। ५३ ।।
ब्राह्मणै:ः सहिता वीरा हवसन् पुरुषर्षभा: ।
कृष्णायास्तत्र पश्यन्त: क्रीडितान्यमरप्रभा: ।
विचित्राणि नरव्याघ्रा रेमिरे तत्र पाण्डवा: ।। ५४ ।।
पूर्वोक्त विशाल बदरीवृक्षके समीप उत्तम तीर्थोंसे सुशोभित शीतल जलवाली भागीरथी
गंगा बह रही थी, उसमें सुन्दर कमल खिले हुए थे। उसके घाट मणियों और मूँगोंसे आबद्ध
थे। अनेक प्रकारके वृक्ष उसके तटप्रान्तकी शोभा बढ़ा रहे थे। वह दिव्य पुष्पोंसे आच्छादित
हो हृदयके हर्षोल्लासकी वृद्धि कर रही थी। उसका दर्शन करके महात्मा पाण्डवोंने उस
अत्यन्त दुर्गम देवर्षिसेवित प्रदेशमें भागीरथीके पवित्र जलमें स्थित हो परम पवित्रताके
साथ देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंका तर्पण किया। इस प्रकार प्रतिदिन तर्पण और जप
आदि करते हुए वे पुरुषश्रेष्ठ कुरुकुल-शिरोमणि वीर पाण्डव वहाँ ब्राह्मणोंके साथ रहने
लगे। देवताओंके समान कान्तिमान् नरश्रेष्ठ पाण्डव वहाँ द्रौपदीकी विचित्र क्रीड़ाएँ देखते
हुए सुखपूर्वक रमण करने लगे || ५०--५४ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां गन्धमादनप्रवेशे
पजञ्चचत्वारिंशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १४५ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रसंगमें
गन्धमादनप्रवेशविषयक एक सौ पैतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४५ ॥।
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- गौके समान एक प्रकारका जंगली पशु, जिसके गलकंबल नहीं होता।
- हिमालयपर गिरनेके बाद भागीरथी गंगा अनेक धाराओंमें विभक्त होकर बहने लगीं। उनकी सीधी धारा तो
गंगोत्तरीसे देवप्रयाग होती हुई हरिद्वार आयी है और अन्य धाराएँ अन्य मार्गोंसे प्रवाहित होकर पुनः गंगामें ही मिल गयी
हैं। उन्हींकी जो धारा कैलास और बदरिकाश्रमके मार्गसे बहती आयी है, उसका नाम अलकनन्दा है। वह देवप्रयागमें
आकर सीधी धारामें मिल गयी है। इस प्रकार यद्यपि नर-नारायणका स्थान अलकनन्दाके ही तटपर है, तथापि वह मूलतः
भागीरथीसे अभिन्न ही है; इसीलिये यहाँ मूलमें 'भागीरथी” नामसे ही उसका उल्लेख किया गया है।
षट्चत्वारिशर्दाधिकशततमो< ध्याय:
भीमसेनका सौगन्धिक कमल लानेके लिये जाना और
कदलीवनमें उनकी हनुमानजीसे भेंट
वैशम्पायन उवाच
तत्र ते पुरुषव्याप्रा: परमं शौचमास्थिता: ।
षड़ात्रमवसन् वीरा धनंजयदिदृक्षव: || १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! वे पुरुषसिंह वीर पाण्डव अर्जुनके दर्शनके लिये
उत्सुक हो वहाँ परम पवित्रताके साथ छ: रात रहे ।। १ ।।
द्रौपदीका भीमसेनको सौगन्धिक पुष्प भेंट करके वैसे ही और पुष्प लानेका आग्रह
ततः पूर्वोत्तरे वायु: प्लवमानो यदृच्छया ।
सहस्रपत्रमर्काभं दिव्यं पद्ममुपाहरत् ।। २ ।।
तदनन्तर ईशानकोणकी ओरसे अकस्मात् वायु चली। उसने सूर्यके समान तेजस्वी एक
दिव्य सहस्रदल कमल लाकर वहाँ डाल दिया ।। २ ।।
तदवैक्षत पाञ्चाली दिव्यगन्धं॑ मनोरमम् ।
अनिलेनाहतं भूमौ पतितं जलजं शुचि ॥। ३ ।।
तच्छुभा शुभमासाद्य सौगन्धिकमनुत्तमम् ।
अतीव मुदिता राजन् भीमसेनमथाब्रवीत् ।। ४ ।।
जनमेजय! वह कमल बड़ा मनोरम था, उससे दिव्य सुगन्ध फैल रही थी। शुभलक्षणा
द्रौपदीने उसे देखा और वायुके द्वारा लाकर पृथ्वीपर डाले हुए उस पवित्र, शुभ एवं परम
उत्तम सौगन्धिक कमलके पास पहुँचकर अत्यन्त प्रसन्न हो भीमसेनसे इस प्रकार कहा
-- || ३-४ ||
पश्य दिव्यं सुरुचिरं भीम पुष्पमनुत्तमम् ।
गन्धसंस्थानसम्पन्नं मनसो मम नन्दनम् ।। ५ ।।
इदं च धर्मराजाय प्रदास्थामि परंतप ।
हरेदं॑ मम कामाय काम्यके पुनराश्रमे ।। ६ ।।
'भीम! देखो तो, यह दिव्य पुष्प कितना अच्छा और कैसा सुन्दर है! मानो सुगन्ध ही
इसका स्वरूप है। यह मेरे मनको आनन्द प्रदान कर रहा है। परंतप! मैं इसे धर्मराजको भेंट
करूँगी। तुम मेरी इच्छाकी पूर्तिके लिये काम्यकवनके आश्रममें इसे ले चलो” || ५-६ ।।
यदि तेऊहं प्रिया पार्थ बहूनीमान्युपाहर ।
तान्यहं नेतुमिच्छामि काम्यकं पुनराश्रमम् ।। ७ ।।
“कुन्तीनन्दन! यदि मेरे ऊपर तुम्हारा (विशेष) प्रेम है, तो मेरे लिये ऐसे ही बहुत-से फ़ूल
ले आओ मैं इन्हें काम्यक वनमें अपने आश्रमपर ले चलना चाहती हूँ || ७ ।।
एवमुक्त्वा शुभापाड़ी भीमसेनमनिन्दिता ।
जगाम पुष्पमादाय धर्मराजाय तत् तदा ।। ८ ।।
उस समय मनोहर नेत्रप्रान्तवाली अनिन््द्य सुन्दरी (सती-साध्वी) द्रौपदी भीमसेनसे ऐसा
कहकर और वह पुष्प लेकर धर्मराज युधिष्ठिरको देनेके लिये चली गयी ।। ८ ।।
अभिप्रायं तु विज्ञाय महिष्या: पुरुषर्षभ: ।
प्रियाया: प्रियकाम: स प्रायाद् भीमो महाबल: ।। ९ |।
पुरुषशिरोमणि महाबली भीम अपनी प्यारी रानीके मनोभावको जानकर उसका प्रिय
करनेकी इच्छासे वहाँसे चल दिये ।। ९ |।
वातं तमेवाभिमुखो यतस्तत् पुष्पमागतम् |
आजिद्दीर्षुर्जगामाशु स पुष्पाण्यपराण्यपि ।। १० ।।
वे उसी तरहके और भी फूल ले आनेकी अभिलाषासे तुरंत पूर्वोक्त वायुकी ओर मुख
करके उसी ईशान कोणमें आगे बढ़े, जिधरसे वह फूल आया था ।। १० ||
रुक्मपृष्ठं धनुर्गृह्म शरांश्वाशीविषोपमान् ।
मृगराडिव संक्रुद्धः प्रभिन्न इव कुज्जर: ।। ११ ।।
उन्होंने हाथमें वह अपना धनुष ले लिया जिसके पृष्ठभागमें सुवर्ण जड़ा हुआ था। साथ
ही विषधर सर्पोके समान भयंकर बाण भी तरकसमें रख लिये। फिर क्रोधमें भरे हुए सिंह
तथा मदकी धारा बहानेवाले मतवाले गजराजकी भाँति निर्भय होकर आगे बढ़े || ११ ॥।
ददृशु: सर्वभूतानि महाबाणधनुर्धरम्
न ग्लानिर्न च वैक्लव्यं न भयं न च सम्भ्रम: ।। १२ ।।
कदाचिज्जुषते पार्थमात्मजं मातरिश्वन: ।
महान् धनुष-बाण लेकर जाते हुए भीमसेनको उस समय सब प्राणियोंने देखा। उन
वायुपुत्र कुन्ती-कुमारको कभी ग्लानि, विकलता, भय अथवा घबराहट नहीं होती थी ।। १२
हे ||
द्रौपद्या: प्रियमन्विच्छन् स बाहुबलमाश्रित: ।। १३ ।।
व्यपेतभयसम्मोह: शैलमभ्यपतद् बली ।
स ते ट्रुमलतागुल्मच्छन्नं नीलशिलातलम् ।। १४ ।।
गिरिं चचारारिहर: किन्नराचरितं शुभम् ।
नानावर्णधरैश्षित्रं धातुद्रुममृगाण्डजै: ।। १५ ।।
द्रौपदीका प्रिय करनेकी इच्छासे अपने बाहुबलका भरोसा करके भय और मोहसे
रहित बलवान् भीमसेन सामनेके शैल-शिखरपर चढ़ गये। वह पर्वत वृक्षों, लताओं और
झाड़ियोंसे आच्छादित था। उसकी शिलाएँ नीले रंगकी थीं। वहाँ किन्नरलोग भ्रमण करते
थे। शत्रुसंहारी भीमसेन उस सुन्दर पर्वतपर विचरने लगे। बहुरंगे धातुओं, वृक्षों, मृगों और
पक्षियोंसे उसकी विचित्र शोभा हो रही थी || १३--१५ ।।
सर्वभूषणसम्पूर्ण भूमेर्भुजमिवोच्छितम् ।
सर्वत्र रमणीयेषु गन्धमादनसानुषु ।। १६ ।।
सक्तचक्षुरभिप्रायान् हृदयेनानुचिन्तयन् ।
पुंस्कोकिलनिनादेषु षघट्पदाचरितेषु च ।। १७ ।।
बद्धश्रोत्रमनश्षक्षुर्जगामामितविक्रम: ।
वह देखनेमें ऐसा जान पड़ता था मानो पृथिवीके समस्त आभूषणोंसे विभूषित ऊँचे
उठी हुई भुजा हो। गन्धमादनके शिखर सब ओरसे रमणीय थे। वहाँ कोयल पक्षियोंकी
शब्दध्वनि हो रही थी और झुंड-के-झुंड भौरे मड़रा रहे थे। भीमसेन उन्हींमें आँखें गड़ाये
मन-ही-मन अभिलषित कार्यका चिन्तन करते जाते थे। अमितपराक्रमी भीमके कान, नेत्र
और मन उन्हीं शिखरोंमें अटके रहे अर्थात् उनके कान वहाँके विचित्र शब्दोंको सुननेमें लग
गये; आँखें वहाँके अद्भुत दृश्योंको निहारने लगीं और मन वहाँकी अलौकिक विशेषताके
विषयमें सोचने लगा और वे अपने गन्तव्य स्थानकी ओर अग्रसर होते चले गये ।। १६-१७
हे ||
आजिपघ्रन् स महातेजा: सर्वर्तुकुसुमोद्भधवम् ।। १८ ।।
गन्धमुद्धतमुद्दामो वने मत्त इव द्विप: ।
वीज्यमान: सुपुण्येन नानाकुसुमगन्धिना ।। १९ ।।
पितुः संस्पर्शशीतेन गन्धमादनवायुना ।
ह्ियमाणश्रम: पित्रा सम्प्रहृष्टटनूरूह: || २० ।।
वे महातेजस्वी कुन्तीकुमार सभी ऋतुओंके फूलोंके उत्कट सुगन्धका आस्वादन करते
हुए वनमें उद्दामगतिसे विचरनेवाले मदोन्मत्त गजराजकी भाँति चले जा रहे थे। नाना
प्रकारके कुसुमोंसे सुवासित गन्धमादनकी परम पवित्र वायु उन्हें पंखा झल रही थी। जैसे
पिताको पुत्रका स्पर्श शीतल एवं सुखद जान पड़ता है, वैसा ही सुख भीमसेनको उस
पर्वतीय वायुके स्पर्शसे मिल रहा था। उनके पिता पवनदेव उनकी सारी थकावट हर लेते
थे। उस समय हर्षातिरेकसे भीमके शरीरमें रोमांच हो रहा था || १८--२० ।।
स यक्षगन्धर्वसुरब्रद्मर्षिगणसेवितम् ।
विलोकयामास तदा पुष्पहेतोररिंदम: ।। २१ ।।
शत्रुदमन भीमसेनने उस समय (पूर्वोक्त पुष्पकी प्राप्तिके लिये एक बार) यक्ष, गन्धर्व,
देवता और ब्रह्मर्षियोंसे सेवित उस विशाल पर्वतपर (सब ओर) दृष्टिपात किया ।। २१ ।।
विषमच्छदैरचितैरनुलिप्त इवाड्गगुलै: ।
वलिभिर्धातुविच्छेदे: काउ्चनाउ्जनराजतै: ।
सपक्षमिव नृत्यन्तं पार्श्वलग्नै: पयोधरै: ।। २२ ।।
उस समय अनेक धातुओंसे रँँगे हुए सप्तपर्ण (छितवन) के पत्तोंद्वारा उनके ललाटमें
विभिन्न धातुओंके काले, पीले और सफेद रंग लग गये थे, जिससे ऐसा जान पड़ता था
मानो अँगुलियोंद्वारा त्रिपुण्ड्र चन्द्र लगाया गया हो। उस पर्वत-शिखरके उभय पार्श्चमें लगे
हुए मेघोंसे उसकी ऐसी शोभा हो रही थी मानो वह पुनः पंखधारी होकर नृत्य कर रहा
है ।। २२ ।।
मुक्ताहारैरिव चित च्युतै: प्रस्रवणोदकै: ।
अभिरामदरीकुज्जनिर्सरोदककन्दरम् ।। २३ ||
निरन्तर झरनेवाले झरनोंके जल उस पहाड़के कण्ठदेशमें अवलम्बित मोतियोंके हार-
से प्रतीत हो रहे थे। उस पर्वतकी गुफा, कुंज, निर्झर, सलिल और कन्दराएँ सभी मनोहर
थे ।। २३ ।।
अप्सरोनूपुररवै: प्रनृत्तवतरबर्हिणम् ।
दिग्वारणविषाणाग्रै्धष्टोपलशिलातलम् ।। २४ ।।
वहाँ अप्सराओंके नूपुरोंकी मधुर ध्वनिके साथ सुन्दर मोर नाच रहे थे। उस पर्वतके
एक-एक रत्न और शिलाखण्डपर दिग्गजोंके दाँतोंकी रगड़का चिह्न अंकित था ।। २४ ।।
स्रस्तांशुकमिवाक्षो भ्यैर्निम्नगा नि:सृतैर्जलै: ।
सशष्पकवलै: स्वस्थैरदूरपरिवर्तिभि: ।। २५ ।।
भयानभिज्ै्हरिणै: कौतूहलनिरीक्षित: ।
चालयन्नुरुवेगेन लताजालान्यनेकश: ।। २६ ।।
आक्रीडमानो हृष्टात्मा श्रीमान् वायुसुतो ययौ ।
प्रियामनोरथं कर्तुमुद्यतश्चारुलोचन: ।। २७ ।।
निम्नगामिनी नदियोंसे निकला हुआ क्षोभरहित जल नीचेकी ओर इस प्रकार बह रहा
था, मानो उस पर्वतका वस्त्र खिसककर गिरा जाता हो। भयसे अपरिचित और स्वस्थ
हरिण मुँहमें हरे घासका कौर लिये पास ही खड़े होकर भीमसेनकी ओर कौतूहलभरी
दृष्टिसे देख रहे थे। उस समय मनोहर नेत्रोंवाले शोभाशाली वायुपुत्र भीम अपने महान् वेगसे
अनेक लतासमूहोंको विचलित करते हुए हर्षपूर्ण हृदयसे खेल-सा करते जा रहे थे। वे
अपनी प्रिया द्रौपदीका प्रिय मनोरथ पूर्ण करनेको सर्वथा उद्यत थे || २५--२७ ।।
प्रांशु: कनकवर्णाभ: सिंहसंहननो युवा ।
मत्तवारणविक्रान्तो मत्तवारणवेगवान् ।। २८ ।।
उनकी कद बहुत ऊँची थी। शरीरका रंग स्वर्ण-सा दमक रहा था। उनके सम्पूर्ण अंग
सिंहके समान सुदृढ़ थे। उन्होंने युवावस्थामें पदार्पण किया था। वे मतवाले हाथीके समान
मस्तानी चालसे चलते थे। उनका वेग मदोन्मत्त गजराजके समान था ।। २८ ।।
मत्तवारणताम्राक्षो मत्ततारणवारण: ।
प्रियपाश्चोपविष्टाभिव्यवित्ताभिविचिष्टितै: ।। २९ ।।
यक्षगन्धर्वयोषाभिरदृश्याभिननिरीक्षित: ।
नवावतारो रूपस्य विक्रीडन्निव पाण्डव: | ३० ।।
चचार रमणीयेषु गन्धमादनसानुषु ।
संस्मरन् विविधान् क्लेशान् दुर्योधनकृतान् बहून् ।। ३१ ।।
द्रौपद्या वनवासिन्या: प्रियं कर्तु समुद्यत: ।
सो<चिन्तयद् गते स्वर्गमर्जुने मयि चागते ।। ३२ ।।
पुष्पह्ेतो: कथं त्वार्य: करिष्यति युधिष्ठिर: ।
स्नेहान्नरवरो नूनमविश्वासाद् बलस्य च ।। ३३ ।।
नकुलं सहदेवं च न मोक्ष्यति युधिष्ठिर: ।
कथं तु कुसुमावाप्ति: स्याच्छीघ्रमिति चिन्तयन् ।। ३४ ।।
प्रतस्थे नरशार्दूल: पक्षिराडिव वेगित: ।
सज्जमानमनोटदृष्टि: फुल्लेषु गिरिसानुषु ।। ३५ ।।
मतवाले हाथीके समान ही उनकी लाल-लाल आँखें थीं। वे समरभूमिमें मदोन्मत्त
हाथियोंको भी पीछे हटानेमें समर्थ थे। अपने प्रियतमके पार्श्वभागमें बैठी हुई यक्ष और
गन्धर्वोकी युवतियाँ सब प्रकारकी चेष्टाओंसे निवृत्त हो स्वयं अलक्षित रहकर भीमसेनकी
ओर देख रही थीं। वे उन्हें सौन्दर्यके नूतन अवतार-से प्रतीत होते थे। इस प्रकार पाण्डुनन्दन
भीम गन्धमादनके रमणीय शिखरोंपर खेल-सा करते हुए विचरने लगे। वे दुर्योधनद्वारा दिये
गये नाना प्रकारके असंख्य क्लेशोंका स्मरण करते हुए वनवासिनी द्रौपदीका प्रिय करनेके
लिये उद्यत हुए थे। उन्होंने मन-ही-मन सोचा--“अर्जुन स्वर्गलोकमें चले गये हैं और मैं फूल
लेनेके लिये इधर चला आया हूँ। ऐसी दशामें आर्य युधिष्ठिर कोई कार्य कैसे करेंगे? नरश्रेष्ठ
महाराज युधिष्ठिर नकुल और सहदेवपर अत्यन्त स्नेह रखते हैं। उन दोनोंके बलपर उन्हें
विश्वास नहीं है। अतः वे निश्चय ही उन्हें नहीं छोड़ेंगे, अर्थात् कहीं नहीं भेजेंगे। अब कैसे
मुझे शीघ्र वह फूल प्राप्त हो जाय--यह चिन्ता करते हुए नरश्रेष्ठ भीम पक्षिराज गरुड़के
समान वेगसे आगे बढ़े। उनके मन और नेत्र फूलोंसे भरे हुए पर्वतीय शिखरोंपर लगे हुए
थे ।। २९--३५ |।
द्रौोपदीवाक्यपाथेयो भीम: शीघ्रतरं ययौ ।
कम्पयन् मेदिनीं पद्धयां निर्घात इव पर्वसु || ३६ ।।
त्रासयन् गजयूथानि वातरंहा वृकोदर: ।
सिंहव्याप्रमगांश्वैव मर्दयानो महाबल: ।। ३७ ।।
उन्मूलयन् महावृक्षान् पोथयंस्तरसा बली ।
लतावललीश्व वेगेन विकर्षन् पाण्डुनन्दन: ।
उपर्युपरि शैलाग्रमारुरुक्षुरिव द्विप: ।। ३८ ।।
द्रौपदीका अनुरोधपूर्ण वचन ही उनका पाथेय (मार्गका कलेवा) था, वे उसीको लेकर
शीघ्रतापूर्वक चले जा रहे थे। वायुके समान वेगशाली वृकोदर पर्वकालमें होनेवाले उत्पात
(भूकम्प और बिजली गिरने)-के समान अपने पैरोंकी धमकसे पृथ्वीको कम्पित और
हाथियोंके समूहोंको आतंकित करते हुए चलने लगे। वे महाबली कुन्तीकुमार सिंहों, व्याप्रों
और मृगोंको कुचलते तथा अपने वेगसे बड़े-बड़े वृक्षोंको जड़से उखाड़ते और विनाश करते
हुए आगे बढ़ने लगे। पाण्डुनन्दन भीम अपने वेगसे लताओं और बल्लरियोंको खींचे लिये
जाते थे। वे ऊपर-ऊपर जाते हुए ऐसे प्रतीत होते थे, मानो कोई गजराज पर्वतकी सबसे
ऊँची चोटीपर चढ़ना चाहता हो || ३६--३८ ।।
विनर्दमानो$तिभृशं सविद्युदिव तोयद: ।
तेन शब्देन महता भीमस्य प्रतिबोधिता: ।। ३९ ।।
गुहां संतत्यजुर्व्याच्रा निलिल्युर्वनवासिन: ।
समुत्पेतु: खगास्त्रस्ता मृगयूथानि दुद्गरुवु: ।। ४० ।।
वे बिजलियोंसे सुशोभित मेघकी भाँति बड़े जोरसे गर्जना करने लगे। भीमसेनकी उस
भयंकर गर्जनासे जगे हुए व्याप्त अपनी गुफा छोड़कर भाग गये, वनवासी प्राणी वनमें ही
छिप गये, डरे हुए पक्षी आकाशमें उड़ गये और मृगोंके झुंड दूरतक भागते चले
गये ।। ३९-४० ।।
ऋक्षाश्नोत्ससजुर्वक्षांस्तत्यजुर्हरयों गुहाम् ।
व्यजृम्भन्त महासिंहा महिषाश्वावलोकयन् ।। ४१ ।।
रीछोंने वृक्षोंका आश्रय छोड़ दिया, सिंहोंने गुफाएँ त्याग दीं, बड़े-बड़े सिंह जँभाई लेने
लगे और जंगली भैंसे दूरसे ही उनकी ओर देखने लगे || ४१ ।।
तेन वित्रासिता नागा: करेणुपरिवारिता: ।
तद् वन॑ स परित्यज्य जम्मुरन्यन्महावनम् ।। ४२ ।।
भीमसेनकी उस गर्जनासे डरे हुए हाथी उस वनको छोड़कर हथिनियोंसे घिरे हुए दूसरे
विशाल वनमें चले गये || ४२ ।।
वराहमृगसंघाश्व महिषाश्न वनेचरा: ।
व्याप्रगोमायुसंघाश्च प्रणेदुर्गवयै: सह ।। ४३ ।।
रथाज्रसाद्वदात्यूहा हंसकारण्डवप्लवा: |
शुका: पुंस्कोकिला: क्रौज्चा विसंज्ञा भेजिरे दिश: ।। ४४ ।।
सूअर, मृगसमूह, जंगली भैंसे, बाघों तथा गीदड़ोंके समुदाय और गवय--ये सब-के-
सब एक साथ चीत्कार करने लगे। चक्रवाक, चातक, हंस, कारण्डव, प्लव, शुक, कोकिल
और क्रौंच आदि पक्षियोंने अचेत होकर भिन्न-भिन्न दिशाओंकी शरण ली ।। ४३-४४ ।।
तथान्ये दर्पिता नागा: करेणुशरपीडिता: ।
सिंहव्याप्राश्न संक़ुद्धा भीमसेनमथाद्रवन् ।। ४५ ।।
शकृन्मूत्रं च मुडचाना भयविश्रान्तमानसा: ।
व्यादितास्या महारौद्रा व्यनदन् भीषणान् रवान् ।। ४६ ।।
तथा हथिनियोंके कटाक्ष-बाणसे पीड़ित हुए दूसरे बलोन्मत्त गजराज, सिंह और व्याघ्र
क्रोधमें भरकर भीमसेनपर टूट पड़े। वे मल-मूत्र छोड़ते हुए मन-ही-मन भयसे घबरा रहे थे
और मुँह बाये हुए अत्यन्त भयानक रूपसे भैरव-गर्जना कर रहे थे || ४५-४६ ।।
ततो वायुसुतः क्रोधात् स्वबाहुबलमाश्रित: ।
गजेनान्यान् गजाउ्छीमान् सिंहं सिंहेन वा विभु: ।। ४७ ।।
तलप्रहारैरन्यांश्व॒ व्यहनत् पाण्डवो बली ।
ते वध्यमाना भीमेन सिंहव्याप्रतरक्षव: ।। ४८ ।।
भयाद् विससूजुर्भीमं शकृन्मूत्रं च सुखुवु: ।
प्रविवेश तत: क्षिप्रं तानपास्य महाबल: ।। ४९ ।।
वन॑ पाण्डुसुत: श्रीमाछ्छब्देनापूरयन् दिश: ।
तब अपने बाहु-बलका भरोसा रखनेवाले श्रीमान् वायुपुत्र भीमने कुपित हो एक
हाथीसे दूसरे हाथियोंको और एक सिंहसे दूसरे सिंहोंको मार भगाया तथा उन महाबली
पाण्डुकुमारने कितनोंको तमाचोंके प्रहारसे मार डाला। भीमसेनकी मार खाकर सिंह, व्याप्र
और चीते (बघेरे) भयसे उन्हें छोड़कर भाग चले तथा घबराकर मल-मूत्र करने लगे।
तदनन्तर महान् शक्तिशाली पाण्डुनन्दन भीमसेनने शीघ्र उन सबको छोड़कर अपनी
गर्जनासे सम्पूर्ण दिशाओंको गुँजाते हुए एक वनमें प्रवेश किया || ४७--४९ ३ ।।
अथापश्यन्महाबाहुर्गन्धमादनसानुषु ।। ५० ।।
सुरम्यं कदलीषण्डं बहुयोजनविस्तृतम् ।
तमभ्यगच्छद् वेगेन क्षोभयिष्यन् महाबल: ।। ५१ ।।
महागज इवास्रावी प्रभञ्जन् विविधान् ट्रुमान्
उत्पाट्य कदलीस्तम्भान् बहुतालसमुच्छूयान् । ५२ ।।
चिक्षेप तरसा भीम: समन्ताद् बलिनां वर: |
विनदन् सुमहातेजा नृसिंह इव दर्पितः ।। ५३ ।।
ततः सत्त्वान्युपाक्रामद् बहूनि सुमहान्ति च ।
रुरुवानरसिंहांश्व महिषांश्न जलाशयान् ॥। ५४ ।।
तेन शब्देन चैवाथ भीमसेनरवेण च ।
वनान्तरगताश्षापि वित्रेसुर्मुग॒पक्षिण: ।। ५५ ।।
इसी समय गन्धमादनके शिखरोंपर महाबाहु भीमने एक परम सुन्दर केलेका बगीचा
देखा, जो कई योजन दूरतक फैला हुआ था। मदकी धारा बहानेवाले महाबली गजराजकी
भाँति उस कदलीवनमें हलचल मचाते और भाँति-भाँतिके वृक्षोंको तोड़ते हुए वे बड़े वेगसे
वहाँ गये। वहाँके केलेके वृक्ष खम्भोंके समान मोटे थे। उनकी ऊँचाई कई ताड़ोंके बराबर
थी। बलवानोंमें श्रेष्ठ भीमने बड़े वेगसे उन्हें उखाड़-उखाड़कर सब ओर फेंकना आरम्भ
किया। वे महान् तेजस्वी तो थे ही, अपने बल और पराक्रमपर गर्व भी रखते थे; अतः
भगवान् नृसिंहकी भाँति विकट गर्जना करने लगे। तत्पश्चात् और भी बहुत-से बड़े-बड़े
जन्तुओंपर आक्रमण किया। रुरु, वानर, सिंह, भैंसे तथा जल-जन्तुओंपर भी धावा किया।
उन पशु-पक्षियोंके एवं भीमसेनके उस भयंकर शब्दसे दूसरे वनमें रहनेवाले मृग और पक्षी
भी थर्रा उठे || ५०--५५ ||
त॑ शब्द सहसा श्रुत्वा मृगपक्षिसमीरितम् ।
जलार्दपक्षा विहगा: समुत्पेतु: सहस्रश: ।। ५६ ।।
मृगों और पक्षियोंके उस भयसूचक शब्दको सहसा सुनकर सहस्रों पक्षी आकाशमें
उड़ने लगे। उन सबकी पाँखें जलसे भीगी हुई थीं ।। ५६ ।।
तानौदकान् पक्षिगणान् निरीक्ष्य भरतर्षभ: ।
तानेवानुसरन् रम्यं ददर्श सुमहत् सर: ।। ५७ ।।
भरतश्रेष्ठ भीमने यह देखकर कि ये तो जलके पक्षी हैं, उन्हींके पीछे चलने लगे और
आगे जानेपर एक अत्यन्त रमणीय विशाल सरोवर देखा ।। ५७ ।।
काउ्चनै: कदलीषण्डैर्मन्दमारुतकम्पितै: ।
वीज्यमानमिवाक्षोभ्यं तीरात् तीरविसर्पिभि: ॥। ५८ ।।
उस सरोवरके एक तीरसे लेकर दूसरे तीरतक फैले हुए सुवर्णमय केलेके वृक्ष मन्द
वायुसे विकम्पित होकर मानो उस अगाध जलाशयको पंखा झल रहे थे || ५८ ।।
तत् सरो<5थावतीर्याशु प्रभूतनलिनोत्पलम् ।
महागज इवोद्दामश्रिक्रीड बलवद् बली ।। ५९ |।
उसमें प्रचुर कमल और उत्पल खिले हुए थे। बन्धनरहित महान् गजके समान
बलवानोंमें श्रेष्ठ भीमसेन सहसा उस सरोवरमें उतरकर जल-क्रीड़ा करने लगे ।। ५९ |।
विक्रीड्य तस्मिन् सुचिरमुत्ततारामितद्युति: ।
ततो<ध्यगन्तुं वेगेन तद् वनं बहुपादपम् ।। ६० ।।
दीर्घ कालतक उस सरोवरमें क्रीड़ा करनेके पश्चात् अमित तेजस्वी भीम जलसे बाहर
निकले और असंख्य वृक्षोंसे सुशोभित उस कदलीवनमें वेगपूर्वक जानेको उद्यत
हुए || ६० ।।
दध्मौ च शड्खं स्वनवत् सर्वप्राणेन पाण्डव: ।
आस्फोटयच्च बलवान् भीम: संनादयन् दिश: ।। ६१ ।।
तस्य शड्खस्य शब्देन भीमसेनरवेण च ।
बाहुशब्देन चोग्रेण नदन्तीव गिरेगुहा: ।। ६२ ।।
उस समय बलवान पाण्डुनन्दन भीमने अपनी सारी शक्ति लगाकर बड़े जोरसे शंख
बजाया और सम्पूर्ण दिशाओंको प्रतिध्वनित करते हुए ताल ठोंका। उस शंखकी ध्वनि,
भीमसेनकी गर्जना और उनके ताल ठोंकनेके भयंकर शब्दसे मानो पर्वतोंकी कन्दराएँ गूँज
उठीं ।। ६१-६२ ।।
त॑ वज्ननिष्पेषसममास्फोटितमहारवम् |
श्रुत्वा शैलगुहासुप्तै: सिंहैर्मुक्तो महास्वन: ।। ६३ ।।
पर्वतोंपर वज्रपात होनेके कारण उस ताल ठोंकनेके भयानक शब्दको सुनकर
गुफाओंमें सोये हुए सिंहोंने भी जोर-जोरसे दहाड़ना आरम्भ किया ।। ६३ ।।
सिंहनादभयत्रस्तै: कुज्जरैरपि भारत ।
मुक्तो विराव: सुमहान् पर्वतो येन पूरित: ।। ६४ ।।
भारत! उन सिंहोंका दहाड़ना सुनकर भयसे डरे हुए हाथी भी चीत्कार करने लगे,
जिससे वह विशाल पर्वत शब्दायमान हो उठा ।। ६४ ।।
तं तु नाद॑ ततः श्रुत्वा मुक्त वारणपुड़वै: ।
भ्रातरं भीमसेनं तु विज्ञाय हनुमान् कपि: ।। ६५ ।।
बड़े-बड़े गजराजोंका वह चीत्कार सुनकर कपिप्रवर हनुमानजी, जो उस समय
कदलीवनमें ही रहते थे, यह समझ गये कि मेरे भाई भीमसेन इधर आये हैं || ६५ ।।
दिवंगमं रुरोधाथ मार्ग भीमस्य कारणात् |
अनेन हि पथा मा वै गच्छेदिति विचार्य सः ।। ६६ ||
आस्त एकाय-ने मार्गे कदलीषण्डमण्डिते |
भ्रातुर्भीमस्य रक्षार्थ त॑ं मार्गमवरुध्य वै ।। ६७ ।।
तब उन्होंने भीमसेनके हितके लिये स्वर्गकी ओर जानेवाला मार्ग रोक दिया।
हनुमानजीने यह सोचकर कि भीमसेन इसी मार्गसे स्वर्गलोककी ओर न चले जायेँ, एक
मनुष्यके आने-जाने योग्य उस संकुचित मार्गपर बैठ गये। वह मार्ग केलेके वृक्षोंसे घिरा
होनेके कारण बड़ी शोभा पा रहा था। उन्होंने अपने भाई भीमकी रक्षाके लिये ही यह राह
रोकी थी ।। ६६-६७ ।।
मात्र प्राप्स्यति शापं वा धर्षणां वेति पाण्डव: ।
कदलीषण्डमध्यस्थो होवं संचिन्त्य वानर: ।। ६८ ।।
प्राजूम्भत महाकायो हनूमान् नाम वानर: ।
कदलीषण्डमध्यस्थो निद्रावशगतस्तदा ।। ६९ |।
जृम्भमाण: सुविपुलं शक्रध्वजमिवोच्छितम् ।
आस्फोटयच्च लाडूलमिन्द्राशनिसमस्वनम् ।। ७० ।।
कदलीवनमें आय हुए पाण्डुनन्दन भीमसेनको इस मार्गपर आनेके कारण किसीसे
शाप या तिरस्कार न प्राप्त हो जाय, यह विचारकर ही कपिप्रवर हनुमानजी उस वनके
भीतर स्वर्गका रास्ता रोककर सो गये। उस समय उन्होंने अपने शरीरको बड़ा कर लिया
था। निद्राके वशीभूत होकर जब वे जँभाई लेते और इन्द्रकी ध्वजाके समान ऊँचे तथा
विशाल लंगूरको फटकारते, उस समय वज्रकी गड़गड़ाहटके समान आवाज होती
थी || ६८--७० ।।
तस्य लाडूलनिनदं पर्वत: सुगुहामुखै: ।
उद्गारमिव गॉर्नर्दन्नुत्ससर्ज समन््ततः ।। ७१ ।।
वह पर्वत उनकी पूँछकी फटकारके उस महान् शब्दको सुन्दर कन्दरारूपी मुखोंद्वारा
सब ओर प्रतिध्वनिके रूपमें दुहराता था, मानो कोई साँड़ जोर-जोरसे गर्जना कर रहा
हो ।। ७१ ।।
लाडूलास्फोटशब्दाच्च चलित: स महागिरि: ।
विघूर्णमानशिखर: समन्तात् पर्यशीर्यत ।। ७२ ।।
स लाडूलरवस्तस्य मत्तवारणनि:स्वनम् ।
अन्तर्धाय विचित्रेषु चचार गिरिसानुषु || ७३ ।।
पूँछके फटकारनेकी आवाजसे वह महान् पर्वत हिल उठा। उसके शिखर झूमते-से
जान पड़े और वह सब ओरसे टूट-फ़ूटकर बिखरने लगा। वह शब्द मतवाले हाथीके
चिग्धाड़ोेकी आवाजको भी दबाकर विचित्र पर्वत-शिखरोंपर चारों ओर फैल
गया || ७२-७३ ||
स भीमसेनस्तच्छुत्वा सम्प्रहृष्टतनूरुह: ।
शब्दप्रभवमन्विच्छंक्षचार कदलीवनम् ।। ७४ ।।
उसे सुनकर भीमसेनके रोंगटे खड़े हो गये और उसके कारणको हढूँढ़नेके लिये वे उस
केलेके बगीचेमें घूमने लगे || ७४ ।।
कदलीवनमध्यस्थमथ पीने शिलातले ।
ददर्श सुमहाबाहुर्वानराधिपतिं तदा ।। ७५ ।।
उस समय विशाल भुजाओंवाले भीमसेनने कदलीवनके भीतर ही एक मोटे
शिलाखण्डपर लेटे हुए वानरराज हनुमानजीको देखा || ७५ ।।
विद्युत्सम्पातदुष्प्रेक्ष॑ विद्युत्सम्पातपिड्ुलम् ।
विद्युत्सम्पातनिनदं विद्युत्सम्पातचठ्चलम् ।। ७६ ।।
विद्युत्पातके समान चकाचौंध पैदा करनेके कारण उनकी ओर देखना अत्यन्त कठिन
हो रहा था। उनकी अंगकान्ति गिरती हुई बिजलीके समान पिंगल-वर्णकी थी। उनका
गर्जन-तर्जन वज्रपातकी गड़गड़ाहटके समान था। वे विद्युत्पातके सदूश चड्चल प्रतीत होते
थे।। ७६ |।
बाहुस्वस्तिकविन्यस्तपीनहस्वशिरोधरम् ।
स्कन्धभूयिष्ठकायत्वात् तनुमध्यकटीतटम् ।। ७७ ।।
किंचिच्चाभुग्नशीर्षेण दीर्घरोमाज्चितेन च |
लाडूलेनोर्ध्वगतिना ध्वजेनेव विराजितम् ।। ७८ ।।
उनक कंधे चौड़े और पुष्ट थे। अतः उन्होंने बाँहके मूलभागको तकिया बनाकर उसीपर
अपनी मोटी और छोटी ग्रीवाको रख छोड़ा था और उनके शरीरका मध्यभाग एवं कटिप्रदेश
पतला था। उनकी लंबी पूँछका अग्रभाग कुछ मुड़ा हुआ था। उसकी रोमावलि घनी थी
तथा वह पूँछ ऊपरकी ओर उठकर फहराती हुई ध्वजा-सी सुशोभित होती
थी ।। ७७-७८ |।
हस्वौष्ठ ताम्रजिद्दास्यं रक्तकर्ण चलद्भ्रुवम् ।
विवृत्तदेष्टादशनं शुक्लतीक्ष्णाग्रशोभितम् ।। ७९ ।।
अपश्यद् वदनं तस्य रश्मिवन्तमिवोडुपम् |
वदनाभ्यन्तरगतै: शुक्लैर्दन्तैरलंकृतम् ।। ८० ।।
उनके ओठ छोटे थे। जीभ और मुखका रंग ताँबेके समान था। कान भी लाल रंगके ही
थे और भौंहें चजचल हो रही थीं। उनके खुले हुए मुखमें श्वेत चमकते हुए दाँत और दाढ़ें
अपने सफेद और तीखे अग्रभागके द्वारा अत्यन्त शोभा पा रही थीं। इन सबके कारण
उनका मुख किरणोंसे प्रकाशित चन्द्रमाके समान दिखायी देता था। मुखके भीतरकी श्वेत
दन्तावलि उसकी शोभा बढ़ानेके लिये आभूषणका काम दे रही थी ।। ७९-८० ।।
केसरोत्करसम्मिश्रमशोकानामिवोत्करम् |
हिरण्मयीनां मध्यस्थं कदलीनां महाद्युतिम् ।। ८१ ।।
सुवर्णमय कदली-वृक्षोंक बीच विराजमान महातेजस्वी हनुमानजी ऐसे जान पड़ते थे
मानो केसरोंकी क्यारीमें अशोकपुष्पोंका गुच्छ रख दिया गया हो ।। ८१ ।।
दीप्यमानेन वपुषा स्वर्चिष्मन्तमिवानलम् |
निरीक्षन्तममित्रघ्नं लोचनैर्मधुपिड्रलै: ।। ८२ ।।
वे शत्रुसूदन वानरवीर अपने कान्तिमान् शरीरसे प्रज्वलित अग्निके समान जान पड़ते
थे और अपनी मधुके समान पीली आँखोंसे इधर-उधर देख रहे थे ।।
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त॑ वानरवरं धीमानतिकायं महाबलम् |
स्वर्ग पन्थानमावृत्य हिमवन्तमिव स्थितम् ।। ८३ ।।
दृष्टवा चैनं महाबाहुरेक॑ तस्मिन् महावने ।
अथोपसूत्य तरसा विभीर्भीमस्ततो बली ।। ८४ ।।
सिंहनादं चकारोग्र॑ं वज्ञाशनिसमं बली ।
तेन शब्देन भीमस्य वित्रेसुर्मुग॒पक्षिण: ।। ८५ ।।
परम बुद्धिमान् बलवान् महाबाहु भीमसेन उस महान् वनमें विशालकाय महाबली
वानरराज हनुमानजीको अकेले ही स्वर्गका मार्ग रोककर हिमालयके समान स्थित देख
निर्भय होकर वेगपूर्वक उनके पास गये और वज्र-गर्जनाके समान भयंकर सिंहनाद करने
लगे। भीमसेनके उस सिंहनादसे वहाँके मृग और पक्षी थर्रा उठे | ८३--८५ ।।
हनूमांश्व महासत्त्व ईषदुन्मील्य लोचने ।
दृष्टवा तमथ सावज्ञं लोचनैर्मधुपिड्लै: ।
स्मितेन चैनमासाद्य हनूमानिदमब्रवीत् ।। ८६ ।।
तब महान् धैर्यशाली हनुमानजीने आँखें कुछ खोलकर अपने मधुपिंगल नेत्रोंद्वारा
अवहेलनापूर्वक उनकी ओर देखा और उन्हें निकट पाकर उनसे मुसकराते हुए इस प्रकार
कहा ।। ८६ ।।
हनूमानुवाच
किमर्थ सरुजस्ते5हं सुखसुप्त: प्रबोधित: ।
ननु नाम त्वया कार्या दया भूतेषु जानता ।। ८७ ।।
हनुमानजी बोले--भाई! मैं तो रोगी हूँ और यहाँ सुखसे सो रहा था। तुमने क्यों मुझे
जगा दिया? तुम समझदार हो। तुम्हें सब प्राणियोंपर दया करनी चाहिये || ८७ ।।
वयं धर्म न जानीमस्तिर्यग्योनिमुपाश्रिता: ।
नरास्तु बुद्धिसम्पन्ना दयां कुर्वन्ति जन्तुषु ।। ८८ ।।
हमलोग तो पशुयोनिके प्राणी हैं, अत: धर्मकी बात नहीं जानते; परंतु मनुष्य बुद्धिमान्
होते हैं, अतः वे सब जीवोंपर दया करते हैं ।। ८८ ।।
क्रूरेषु कर्मसु कथं देहवाक्चित्तदूषिषु ।
धर्मघातिषु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधा: ॥। ८९ ।।
किंतु पता नहीं, तुम्हारे-जैसे बुद्धिमानूलोग धर्मका नाश करनेवाले तथा मन, वाणी और
शरीरको भी दूषित कर देनेवाले क्रूर कर्मोमें कैसे प्रवृत्त होते हैं? || ८९ ।।
न त्वं धर्म विजानासि बुधा नोपासितास्त्वया ।
अल्पबुद्धितया बाल्यादुत्सादयसि यन्मृगान् ।। ९० ।।
तुम्हें धर्मका बिलकुल ज्ञान नहीं है। मालूम होता है, तुमने विद्वानोंकी सेवा नहीं की है।
मन्दबुद्धि होनेके कारण अज्ञानवश तुम यहाँके मृगोंको कष्ट पहुँचाते हो || ९० ।।
ब्रूहि कस्त्वं किमर्थ वा किमिदं वनमागत: ।
वर्जित मानुषैभविस्तथैव पुरुषैरपि ।। ९१ ।।
बोलो तो, तुम कौन हो? इस वनमें तुम क्यों और किसलिये आये हो? यहाँ तो न कोई
मानवीय भाव हैं और न मनुष्योंका ही प्रवेश है ।। ९१ ।।
क्व च त्वयाद्य गन्तव्ं प्रब्रूहि पुरुषर्षभ ।
अत: परमगम्यो<यं पर्वत: सुदुरारुह: ।। ९२ ।।
पुरुषश्रेष्ठ॒ ठीक-ठीक बतलाओ, तुम्हें आज इधर कहाँतक जाना है? यहाँसे आगे तो
यह पर्वत अगम्य है। इसपर चढ़ना किसीके लिये भी अत्यन्त कठिन है ।। ९२ |।
विना सिद्धगतिं वीर गतिरत्र न विद्यते |
देवलोकस्य मार्गोड्यमगम्यो मानुषै: सदा ।। ९३ ।।
वीर! सिद्ध पुरुषोंक सिवा और किसीकी यहाँ गति नहीं है। यह देवलोकका मार्ग है,
जो मनुष्योंके लिये सदा अगम्य है ।। ९३ ।।
कारुण्यात् त्वामहं वीर वारयामि निबोध मे ।
नातः परं त्वया शक्यं गन्तुमाश्वसिहि प्रभो ।। ९४ ।।
वीरवर! मैं दयावश ही तुम्हें आगे जानेसे रोकता हूँ। मेरी बात सुनो। प्रभो! यहाँसे आगे
तुम किसी प्रकार जा नहीं सकते। इसपर विश्वास करो ।। ९४ ।।
स्वागतं सर्वथैवेह तवाद्य मनुजर्षभ ।
इमान्यमृतकल्पानि मूलानि च फलानि च ।। ९५ ।।
भक्षयित्वा निवर्तस्व मा वृथा प्राप्स्यसे वधम् ।
ग्राह्म॑ं यदि वचो महां हितं मनुजपुड्रव ।। ९६ ।।
मानवशिरोमणे! आज यहाँ सब प्रकारसे तुम्हारा स्वागत है। ये अमृतके समान मीठे
फल-मूल खाकर यहींसे लौट जाओ, अन्यथा व्यर्थ ही तुम्हारे प्राण संकटमें पड़ जायाँगे।
नरपुंगव! यदि मेरा कथन हितकर जान पड़े तो इसे अवश्य मानो ।। ९५-९६ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां
भीमकदलीषण्डप्रवेशे षट्चत्वारिंशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १४६ ।।
इस प्रकार श्रीमह्ााभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशतीर्थयात्राके प्रसंगमें
भीमसेनका कदलीवनमें प्रवेशविषयक एक सौ छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४६ ॥।
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सप्तचत्वारिशंर्दाधिकशततमो< ध्याय:
श्रीहनुमान् और भीमसेनका संवाद
वैशम्पायन उवाच
एतच्छुत्वा वचस्तस्य वानरेन्द्रस्य धीमत: ।
भीमसेनस्तदा वीर: प्रोवाचामित्रकर्षण: ।। १ ॥।
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! उस समय परम बुद्धिमान् वानरराज
हनुमानजीका यह वचन सुनकर शत्रुसूदन वीरवर भीमसेनने इस प्रकार कहा ।। १ ।।
भीम उवाच
को भवान् कि निमित्तं वा वानरं वपुरास्थित: ।
ब्राह्मणानन्तरो वर्ण: क्षत्रियस्त्वां तु पृष्छति ॥। २ ।।
भीमसेनने पूछा--आप कौन हैं? और किसलिये वानरका रूप धारण कर रखा है? मैं
ब्राह्मणके बादका वर्ण--क्षत्रिय हूँ, और मैं आपसे आपका परिचय पूछता हूँ ।। २ ।।
कौरव: सोमवंशीय: कुन्त्या गर्भेण धारित: ।
पाण्डवो वायुतनयो भीमसेन इति श्रुत: ॥। ३ ।।
मेरा परिचय इस प्रकार है--मैं चन्द्रवंशी क्षत्रिय हूँ। मेरा जन्म कुरुकुलमें हुआ है। माता
कुन्तीने मुझे गर्भमें धारण किया था। मैं वायुपुत्र पाण्डव हूँ। मेरा नाम भीमसेन है || ३ ।।
स वाक्यं कुरुवीरस्य स्मितेन प्रतिगृह्म तत् ।
हनूमान् वायुतनयो वायुपुत्रमभाषत ।। ४ ।।
कुरुवीर भीमसेनका वह वचन मन्द मुसकानके साथ सुनकर वायुपुत्र हनुमानजीने
वायुके ही पुत्र भीमसेनसे इस प्रकार कहा ।। ४ ।।
हनूमानुवाच
वानरोऊहं न ते मार्ग प्रदास्यामि यथेप्सितम् |
साधु गच्छ निवर्तस्व मा त्वं प्राप्स्यसि वैशसम् ।। ५ ।।
हनुमानजी बोले--भैया! मैं वानर हूँ। तुम्हें तुम्हारी इच्छाके अनुसार मार्ग नहीं दूँगा।
अच्छा तो यह होगा कि तुम यहींसे लौट जाओ, नहीं तो तुम्हारे प्राण संकटमें पड़
जायँगे ।। ५ ।।
भीमसेन उवाच
वैशसं वास्तु यद्वान्यन्न त्वां पृच्छामि वानर ।
प्रयच्छ मार्गमुनत्तिष्ठ मा मत्त: प्राप्स्यसे व्यथाम् ।। ६ ।।
भीमसेनने कहा--वानर! मेरे प्राण संकटमें पड़े या और कोई दुष्परिणाम भोगना पड़े,
इसके विषयमें तुमसे कुछ नहीं पूछता हूँ। उठो और मुझे आगे जानेके लिये रास्ता दो। ऐसा
होनेपर तुमको मेरे हाथोंसे किसी प्रकारका कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा ।। ६ ।।
हनूमानुवाच
नास्ति शक्तिमममोत्थातुं व्याधिना क्लेशितो हाहम् ।
यद्यवश्यं प्रयातव्यं लड्घयित्वा प्रयाहि माम् ।। ७ ।।
हनुमानजी बोले--भाई! मैं रोगसे कष्ट पा रहा हूँ। मुझमें उठनेकी शक्ति नहीं है। यदि
तुम्हें जाना अवश्य है तो मुझे लाँधघधकर चले जाओ ।। ७ ।।
भीम उवाच
निर्गुण: परमात्मा तु देहं व्याप्यावतिष्ठते ।
तमहं ज्ञानविज्ञेयं नावमन्ये न लड्घये ॥। ८ ।।
भीमसेनने कहा--निर्गुण परमात्मा समस्त प्राणियोंके शरीरमें व्याप्त होकर स्थित हैं।
वे ज्ञानसे ही जाननेमें आते हैं। मैं उनका अपमान या उल्लंघन नहीं करूँगा || ८ ।।
यद्यागमैर्न विद्यां च तमहं भूतभावनम् ।
क्रमेयं त्वां गिरिं चैव हनूमानिव सागरम् ।। ९ ।।
यदि शास्त्रोंके द्वारा मुझे उन भूतभावन भगवान्के स्वरूपका ज्ञान न होता तो मैं
तुम्हींको क्या इस पर्वतको भी उसी प्रकार लाँघ जाता, जैसे हनुमानजी समुद्रको लाँघ गये
थे।।९।।
हनूमानुवाच
क एष हनुमान् नाम सागरो येन लड्घितः ।
पृच्छामि त्वां नरश्रेष्ठ कथ्यतां यदि शक््यते ।। १० ।।
हनुमानजी बोले--नरश्रेष्ठ! मैं तुमसे एक बात पूछता हूँ, वह हनुमान् कौन था जो
समुद्रको लाँध गया था? उसके विषयमें यदि तुम कुछ कह सको तो कहो ।। १० ।।
भीम उवाच
भ्राता मम गुणश्लाध्यो बुद्धिसत्त्वबलान्वित: ।
रामायणे5तिविख्यात: श्रीमान् वानरपुड्रव: ।। ११ ।।
भीमसेनने कहा--वानरप्रवर श्रीहनुमानजी मेरे बड़े भाई हैं। वे अपने सदगुणोंके
कारण सबके लिये प्रशंसनीय हैं। वे बुद्धि, बल, धैर्य एवं उत्साहसे युक्त हैं। रामायणमें
उनकी बड़ी ख्याति है ।। ११ ।।
रामपत्नीकृते येन शतयोजनविस्तृत: ।
सागर: प्लवगेन्द्रेण क्रमेणैकेन लड्घित: ॥। १२ ||
वे वानरश्रेष्ठ हनुमान् श्रीरामचन्द्रजीकी पत्नी सीताजीकी खोज करनेके लिये सौ योजन
विस्तृत समुद्रको एक ही छलाँगमें लाँध गये थे || १२ ।।
स मे भ्राता महावीर्यस्तुल्यो5हं तस्य तेजसा ।
बले पराक्रमे युद्धे शक्तोडहं तव निग्रहे ।। १३ ।।
वे महापराक्रमी वानरवीर मेरे भाई लगते हैं। मैं भी उन्हींके समान तेजस्वी, बलवान्
और पराक्रमी हूँ तथा युद्धमें तुम्हें परास्त कर सकता हूँ ।। १३ ।।
उत्तिष्ठ देहि मे मार्ग पश्य मे चाद्य पौरुषम् ।
मच्छासनमकुर्वाणं त्वां वा नेष्ये यमक्षयम् ।। १४ ।।
उठो और मुझे रास्ता दो तथा आज मेरा पराक्रम अपनी आँखों देख लो। यदि मेरी
आज्ञा नहीं मानोगे तो तुम्हें यमलोक भेज दूँगा ।। १४ ।।
वैशम्पायन उवाच
विज्ञाय तं बलोन्मत्तं बाहुवीर्येण दर्पितम् |
हृदयेनावहस्यैनं हनूमान् वाक्यमब्रवीत् ।। १५ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! भीमसेनको बलके अभिमानसे उन्मत्त तथा
अपनी भुजाओंके पराक्रमसे घमंडमें भरा हुआ जान हनुमानजीने मन-ही-मन उनका
उपहास करते हुए उनसे इस प्रकार कहा ।। १५ ।।
हनूमानुवाच
प्रसीद नास्ति मे शक्तिरुत्थातुं जरयानघ ।
ममानुकम्पया त्वेतत् पुच्छमुत्सार्य गम्यताम् ।। १६ ।।
हनुमानजी बोले--अनघ! मुझपर कृपा करो। बुढ़ापेके कारण मुझमें उठनेकी शक्ति
नहीं रह गयी है। इसलिये मेरे ऊपर दया करके इस पूँछको हटा दो और निकल
जाओ ।। १६ |।
वैशम्पायन उवाच
एवमुक्ते हनुमता हीनवीर्यपराक्रमम् |
मनसाचिन्तयद् भीम: स्वबाहुबलदर्पित: ।। १७ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! हनुमानजीके ऐसा कहनेपर अपने बाहुबलका
घमंड रखनेवाले भीमने मन-ही-मन उन्हें बल और पराक्रमसे हीन समझा || १७ |।
पुच्छे प्रगृह्दा तरसा हीनवीर्यपराक्रमम् ।
सालोक्यमन्तकस्यैनं नयाम्यद्येह वानरम् ।। १८ ।।
और भीतर-ही-भीतर यह संकल्प किया कि “आज मैं इस बल और पराक्रमसे शून्य
वानरको वेगपूर्वक इसकी पूँछ पकड़कर यमराजके लोकमें भेज देता हूँ ।। १८ ।।
सावज्ञमथ वामेन स्मयग्जग्राह पाणिना ।
न चाशकच्चालयितुं भीम: पुच्छे महाकपे: ।। १९ ।।
ऐसा सोचकर उन्होंने बड़ी लापरवाही दिखाते और मुसकराते हुए अपने बायें हाथसे
उस महाकपिकी पूँछ पकड़ी, किंतु वे उसे हिला-डुला भी न सके ।। १९ ।।
उच्चिक्षेप पुनर्दोर्भ्यामिन्द्रायुधमिवोच्छितम् ।
नोद्धर्तुमशकद् भीमो दोर्भ्यामपि महाबल: ।। २० ।।
तब महाबली भीमसेनने उनकी इन्द्रधनुषके समान ऊँची पूँछको दोनों हाथोंसे उठानेका
पुनः प्रयत्न किया, परंतु दोनों हाथ लगा देनेपर भी वे उसे उठा न सके ।।
उत्क्षिप्तभ्रूविवृत्ताक्ष: संहतभ्रुकुटीमुख: ।
स्विन्नगात्रो5भवद् भीमो न चोद्धर्तु शशाक तम् ।। २१ ।।
फिर तो उनकी भौंहें तन गयीं, आँखें फटी-सी रह गयीं, मुखमण्डलमें भ्रुकुटी स्पष्ट
दिखायी देने लगी और उनके सारे अंग पसीनेसे तर हो गये। फिर भी भीमसेन
हनुमानजीकी पूँछको किंचित् भी हिला न सके ।। २१ ।।
यत्नवानपि तु श्रीमॉल्लाडूलोद्धरणोद्धुर: ।
कपे: पार्श्रगतो भीमस्तस्थौ व्रीडानतानन: ।। २२ ।।
प्रणिपत्य च कौन्तेय: प्राउजलियवॉक्यमब्रवीत् ।
प्रसीद कपिशार्दूल दुरुक्त क्षम्यतां मम ।। २३ ।।
यद्यपि श्रीमान् भीमसेन उस पूँछको उठानेमें सर्वथा समर्थ थे और उसके लिये उन्होंने
बहुत प्रयत्न भी किया, तथापि सफल न हो सके। इससे उनका मुँह लज्जासे झुक गया
और वे कुन्तीकुमार भीम हनुमानजीके पास जाकर उनके चरणोंमें प्रणाम करके हाथ जोड़े
हुए खड़े होकर बोले--“कपिप्रवर! मैंने जो कठोर बातें कही हों, उन्हें क्षमा कीजिये और
मुझपर प्रसन्न होइये ।।
सिद्धो वा यदि वा देवो गन्धर्वो वाथ गुह्म॒ुक: ।
पृष्ट: सन् काम्यया ब्रूहि कस्त्वं वानररूपधृक् ॥। २४ ।।
“आप कोई सिद्ध हैं या देवता? गन्धर्व हैं या गुह्वक? मैं परिचय जाननेकी इच्छासे पूछ
रहा हूँ। बतलाइये, इस प्रकार वानरका रूप धारण करनेवाले आप कौन हैं? ।। २४ ।।
न चेद् गुहां महाबाहो श्रोतव्यं चेद् भवेन््मम ।
शिष्यवत् त्वां तु पृष्छामि उपपन्नो5स्मि तेडनघ ।। २५ ।।
“महाबाहो! यदि कोई गुप्त बात न हो और वह मेरे सुननेयोग्य हो, तो बताइये। अनघ!
मैं आपकी शरणमें आया हूँ और शिष्यभावसे पूछता हूँ। अत: अवश्य बतानेकी कृपा
करें! || २५ ।।
हनूमानुवाच
यत् ते मम परिज्ञाने कौतूहलमरिंदम ।
तत् सर्वमखिलेन त्वं शृणु पाण्डवनन्दन ।। २६ ।।
हनुमानजी बोले--शत्रुदमन पाण्डुनन्दन! तुम्हारे मनमें मेरा परिचय प्राप्त करनेके
लिये जो कौतूहल हो रहा है उसकी शान्तिके लिये सब बातें विस्तारपूर्वक सुनो ।।
अहं केसरिण: क्षेत्र वायुना जगदायुषा ।
जात: कमलपत्राक्ष हनूमान् नाम वानर: || २७ ।।
कमलनयन भीम! मैं वानरश्रेष्ठ केसरीके क्षेत्रमें जगतके प्राणस्वरूप वायुदेवसे उत्पन्न
हुआ हूँ। मेरा नाम हनुमान् वानर है || २७ ।।
सूर्यपुत्रं च सुग्रीवं शक्रपुत्रं च वालिनम् ।
सर्वे वानरराजानस्तथा वानरयूथपा: ।। २८ ।।
उपतस्थुर्महावीर्या मम चामित्रकर्षण ।
सुग्रीवेणाभवत् प्रीतिरनिलस्याग्निना यथा ।। २९ ।।
पूर्वकालमें सभी वानरराज और वानरयूथपति, जो महान् पराक्रमी थे, सूर्यनन्दन सुग्रीव
तथा इन्द्रकुमार वालीकी सेवामें उपस्थित रहते थे। शत्रुसूदन भीम! उन दिनों सुग्रीवके साथ
मेरी वैसी ही प्रेमपूर्ण मित्रता थी, जैसी वायुकी अग्निके साथ मानी गयी है || २८-२९ ।।
निकृतः स ततो क्रात्रा कस्मिंश्चित् कारणान्तरे ।
ऋष्यमूके मया सार्ध सुग्रीवो न््यवसच्चिरम् ।। ३० ।।
किसी कारणान्तरसे वालीने अपने भाई सुग्रीवको घरसे निकाल दिया, तब बहुत
दिनोंतक वे मेरे साथ ऋष्यमूक पर्वतपर रहे || ३० ।।
अथ दाशरथिरवीरो रामो नाम महाबल: ।
विष्णुर्मानुषरूपेण चचार वसुधातलम् ।। ३१ ।।
उस समय महाबली वीर दशरथनन्दन श्रीराम, जो साक्षात् भगवान् विष्णु ही थे,
मनुष्यरूप धारण करके इस भूतलपर विचर रहे थे || ३१ ।।
स पितु: प्रियमन्विच्छन् सहभार्य: सहानुज: ।
सभथनुर्धन्विनां श्रेष्ठो दण्डकारण्यमाश्रित: ।। ३२ ।।
वे अपने पिताकी आज्ञा पालन करनेके लिये पत्नी सीता और छोटे भाई लक्ष्मणके
साथ दण्डकारण्यमें चले आये। धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ रघचुनाथजी सदा धनुष-बाण लिये रहते
थे ।। ३२ ।।
तस्य भार्या जनस्थानाच्छलेनापहता बलात् |
राक्षसेन्द्रेण बलिना रावणेन दुरात्मना ।। ३३ ।।
सुवर्णरत्नचित्रेण मृगरूपेण रक्षसा ।
वज्चयित्वा नरव्याप्र॑ं मारीचेन तदानघ ।। ३४ ।।
अनघ! दण्डकारण्यमें आकर वे जनस्थानमें रहा करते थे। एक दिन अत्यन्त बलवान्
दुरात्मा राक्षसराज रावण मायासे सुवर्ण-रत्नमय विचित्र मृगका रूप धारण करनेवाले
मारीच नामक राक्षसके द्वारा नरश्रेष्ठ श्रीरामको धोखेमें डालकर उनकी पत्नी सीताको छल-
बलपूर्वक हर ले गया ।। ३३-३४ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां हनुमद्धीमसंवादे
सप्तचत्वारिंशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १४७ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रसंगमें
हनुमानजी और भीमसेनका संवादविषयक एक सौ सैंतालीयवाँ अध्याय पूरा
हुआ ॥। १४७ ॥।
हि आय न [हुक है
अष्टचत्वारिशर्दाधिकशततमो< ध्याय:
हनुमानजीका भीमसेनको संक्षेपसे श्रीरामका चरित्र सुनाना
हनूमानुवाच
हृतदार: सह श्रात्रा पत्नीं मार्गनू स राघव: ।
दृष्टवान् शैलशिखरे सुग्रीव॑ वानरर्षभम् ।। १ ।॥।
हनुमानजी कहते हैं--भीमसेन! इस प्रकार स्त्रीका अपहरण हो जानेपर अपने
भाईके साथ उसकी खोज करते हुए श्रीरघुनाथजी जनस्थानसे आगे बढ़े। उन्होंने
ऋष्यमूकपर्वतके शिखरपर रहनेवाले वानरराज सुग्रीवसे भेंट की ।। १ ।।
तेन तस्याभवत् सख्यं राघवस्य महात्मन: ।
स हत्वा वालिन राज्ये सुग्रीवमभिषिक्तवान् ।। २ ।।
वहाँ सुग्रीवके साथ महात्मा श्रीरघुनाथजीकी मित्रता हो गयी। तब उन्होंने वालीको
मारकर किष्किन्धाके राज्यपर सुग्रीवका अभिषेक कर दिया ।। २ ।।
स राज्यं प्राप्य सुग्रीव: सीताया: परिमार्गणे |
वानरान् प्रेषयामास शतशो5थ सहसत्रश: ।। ३ ।।
राज्य पाकर सुग्रीवने सीताजीकी खोजके लिये सौ-सौ तथा हजार-हजार वानरोंकी
टोली इधर-उधर भेजी ।। ३ ।।
ततो वानरकोटीभि: सहितो<हं नरर्षभ ।
सीतां मार्गन् महाबाहो प्रयातो दक्षिणां दिशम् ।। ४ ।।
नरश्रेष्ठ॒ महाबाहो! उस समय करोड़ों वानरोंके साथ मैं भी सीताजीका पता लगाता
हुआ दक्षिण दिशाकी ओर गया ।। ४ ।।
ततः प्रवृत्ति: सीताया गृप्रेण सुमहात्मना ।
सम्पातिना समाख्याता रावणस्य निवेशने ।। ५ ।।
तदनन्तर गृध्रजातीय महाबुद्धिमान् सम्पातिने सीताजीके सम्बन्धमें यह समाचार दिया
कि वे रावणके नगरमें विद्यमान हैं || ५ ।।
ततोऊहं कार्यसिद्धयर्थ रामस्याक्लिष्टकर्मण: ।
शतयोजनविस्तीर्णमर्णवं सहसा55प्लुत: ।। ६ ।।
तब मैं अनायास ही महान् कर्म करनेवाले श्रीरघुनाथजीकी कार्यसिद्धिके लिये सहसा
सौ योजन विस्तृत समुद्रको लाँध गया ।। ६ ।।
अहं स्ववीर्यादुत्तीर्य सागरं मकरालयम् ।
सुतां जनकराजस्य सीतां सुरसुतोपमाम् ।। ७ ।।
दृष्टवान् भरतश्रेष्ठ रावणस्य निवेशने ।
समेत्य तामहं देवीं वैदेहीं राघवप्रियाम् ।। ८ ।।
दग्ध्वा लड़कामशेषेण साट्टप्राकारतोरणाम् ।
प्रत्यागतश्वास्य पुनर्नाम तत्र प्रकाश्य वै ।। ९ ।।
भरतश्रेष्ठ) मगर और ग्राह आदिसे भरे हुए उस समुद्रको अपने पराक्रमसे पार करके मैं
रावणके नगरमें देवकन्याके समान तेजस्विनी जनकराजनन्दिनी सीतासे मिला।
रघुनाथजीकी प्रियतमा विदेहराजकुमारी सीता-देवीसे भेंट करके अट्टालिका, चहारदिवारी
और नगर-द्वारसहित समूची लंकापुरीको जलाकर वहाँ श्रीराम-नामकी घोषणा करके मैं
पुन: लौट आया || ७--९ |।
मद्वाक्यं चावधार्याशु रामो राजीवलोचन: ।
स बुद्धिपूर्व सैन्यस्य बद्ध्वा सेतुं महोदधौ ।। १० ।।
वृतो वानरकोटीभि: समुत्तीर्णो महार्णवम् ।
ततो रामेण वीरेण हत्वा तान् सर्वराक्षसान् ।। ११ ।।
रणे तु राक्षसगणं रावणं लोकरावणम् ।
निशाचरेन्द्रं हत्वा तु सभ्रातृसुतबान्धवम् ।। १२ ।।
मेरी बात मानकर कमलनयन भगवान् श्रीरामने बुद्धिपूर्वक विचार करके सैनिकोंकी
सलाहसे महासागर-पर पुल बँधवाया और करोड़ों वानरोंसे घिरे हुए वे महासमुद्रको पार
करके लंकापर जा चढ़े। तदनन्तर वीरवर श्रीरामने उन समस्त राक्षसोंको मारकर युद्धमें
समस्त लोकोंको रुलानेवाले राक्षसराज रावणको भी भाई, पुत्र और बन्धु-बान्धवोंसहित
मार डाला || १०--१२ ||
राज्येडभिषिच्य लड्कायां राक्षसेन्द्रे विभीषणम् ।
धार्मिक भक्तिमन्तं च भक्तानुगतवत्सलम् ।। १३ ।।
ततः प्रत्याहता भार्या नष्टा वेदश्रुतिर्यथा ।
तयैव सहित: साध्व्या पत्न्या रामो महायशा: ।। १४ ।।
गत्वा ततो5तित्वरित: स्वां पुरी रघुनन्दन: ।
अध्यावसत् ततो<योध्यामयोध्यां द्विषतां प्रभु: ।। १५ ।।
ततः प्रतिष्ठितो राज्ये रामो नृपतिसत्तम: ।
वरं मया याचितो5सौ रामो राजीवलोचन: ।। १६ ।।
यावद् राम कथेयं ते भवेल्लोकेषु शत्रुहन् ।
तावज्जीवेयमित्येवं तथास्त्विति च सो5ब्रवीत् ।। १७ ।।
तत्पश्चात् धर्मात्मा, भक्तिमान् तथा भक्तों और सेवकोंपर स्नेह रखनेवाले राक्षसराज
विभीषणको लंकाके राज्यपर अभिषिक्त किया और खोयी हुई वैदिकी श्रुतिकी भाँति
अपनी पत्नीका वहाँसे उद्धार करके महायशस्वी रघुनन्दन श्रीराम अपनी उस साध्वी
पत्नीके साथ ही बड़ी उतावलीके साथ अपनी अयोध्यापुरीमें लौट आये। इसके बाद
शत्रुओंको भी वशमें करनेवाले नृपश्रेष्ठ भगवान् श्रीराम अवधके राज्यसिंहासनपर आसीन
हो उस अजेय अयोध्यापुरीमें रहने लगे। उस समय मैंने कमलनयन श्रीरामसे यह वर माँगा
कि “शत्रुसूदन! जबतक आपकी यह कथा संसारमें प्रचलित रहे तबतक मैं अवश्य जीवित
रहूँ"। भगवानने “तथास्तु” कहकर मेरी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली ।। १३--१७ ।।
सीताप्रसादाच्च सदा मामिहस्थमरिंदम ।
उपतिष्ठन्ति दिव्या हि भोगा भीम यथेप्सिता: ।। १८ ।।
शत्रुओंका दमन करनेवाले भीमसेन! श्रीसीताजीकी कृपासे यहाँ रहते हुए ही मुझे
इच्छानुसार सदा दिव्य भोग प्राप्त हो जाते हैं ।। १८ ।।
दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च ।
राज्यं कारितवान् रामस्ततः स्वभवनं गत: ।। १९ ।।
श्रीरामजीने ग्यारह हजार वर्षोतक इस पृथ्वीपर राज्य किया, फिर वे अपने
परमधामको चले गये ।। १९ ।।
तदिहाप्सरसस्तात गन्धर्वाश्ष सदानघ ।
तस्य वीरस्य चरितं गायन्तो रमयन्ति माम् ।। २० ।।
निष्पाप भीम! इस स्थानपर गन्धर्व और अप्सराएँ वीरवर रघुनाथजीके चरित्रोंको
गाकर मुझे आनन्दित करते रहते हैं || २० ।।
अयं च मार्गों मर्त्यानामगम्य: कुरुनन्दन ।
ततोऊहं रुद्धवान् मार्ग तवेमं देवसेवितम् ।। २१ ।।
धर्षयेद् वा शपेद् वापि मा कश्चिदिति भारत ।
दिव्यो देवपथो होष नात्र गच्छन्ति मानुषा: ।
यदर्थमागतश्चासि अत एव सरश्न तत् ।। २२ ।।
कुरुनन्दन! यह मार्ग मनुष्योंके लिये अगम्य है। अतः इस देवसेवित पथको मैंने
इसीलिये तुम्हारे लिये रोक दिया था कि इस मार्गसे जानेपर कोई तुम्हारा तिरस्कार न कर दे
या शाप न दे दे; क्योंकि यह दिव्य देवमार्ग है। इसपर मनुष्य नहीं जाते हैं। भारत! तुम जहाँ
जानेके लिये आये हो वह सरोवर तो यहीं है | २१-२२ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां हनुमद्धीमसंवादे
अष्टचत्वारिंशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १४८ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोगशती र्थयात्राके प्रसंगमें
हनुमानजी और भीमसेनका संवाद नामक एक सौ अड्भतालीसवाँ अध्याय पूरा
हुआ ॥। १४८ ॥
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एकोनपज्चाशर्दाधिकशततमो< ध्याय:
हनुमानजीके द्वारा चारों युगोंके धर्मोंका वर्णन
वैशम्पायन उवाच
एवमुक्तो महाबाहुर्भीमसेन: प्रतापवान् ।
प्रणिपत्य ततः प्रीत्या भ्रातरं हृष्टमानस: ।। १ ।।
उवाच श्लक्ष्णया वाचा हनूमन्तं कपीश्वरम् ।
मया धन्यतरो नास्ति यदार्य दृष्टवानहम् ।। २ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! हनुमानजीके ऐसा कहनेपर प्रतापी वीर
महाबाहु भीमसेनके मनमें बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने बड़े प्रेमसे अपने भाई वानरराज
हनुमान्को प्रणाम करके मधुर वाणीमें कहा--“अहा! आज मेरे समान बड़भागी दूसरा कोई
नहीं है; क्योंकि आज मुझे अपने ज्येष्ठ भ्राताका दर्शन हुआ है ।। १-२ ।।
अनुग्रहो मे सुमहांस्तृप्तिश्न तव दर्शनात् ।
एकं तु कृतमिच्छामि त्वयाद्य प्रियमात्मन: ।। ३ ।।
“आर्य! आपने मुझपर बड़ी कृपा की है। आपके दर्शनसे मुझे बड़ा सुख मिला है। अब
मैं पुन: आपके द्वारा अपना एक और प्रिय कार्य पूर्ण करना चाहता हूँ ।।
यत् ते तदा55सीत् प्लवत: सागरं मकरालयम् ।
रूपमप्रतिमं वीर तदिच्छामि निरीक्षितुम् ।। ४ ।।
एवं तुष्टो भविष्यामि श्रद्धास्यामि च ते वच: ।
एवमुक्त: स तेजस्वी प्रहस्य हरिरब्रवीत् ।। ५ ।।
“वीरवर! मकरालय समुद्रको लाँघते समय आपने जो अनुपम रूप धारण किया था,
उसका दर्शन करनेकी मुझे बड़ी इच्छा हो रही है। उसे देखनेसे मुझे संतोष तो होगा ही,
आपकी बातपर श्रद्धा भी हो जायगी।” भीमसेनके ऐसा कहनेपर महातेजस्वी हनुमानजीने
हँसकर कहा-- ।। ४-५ ||
न तच्छक्यं त्वया द्रष्टं रूपं नान्येन केनचित् ।
कालावस्था तदा हान्या वर्तते सा न साम्प्रतम् ।। ६ ।।
'भैया! तुम उस स्वरूपको नहीं देख सकते, कोई दूसरा मनुष्य भी उसे नहीं देख
सकता। उस समयकी अवस्था कुछ और ही थी, अब वह नहीं है || ६ ।।
अन्य: कृतयुगे कालस्त्रेतायां द्वापरे पर: ।
अयं प्रध्वंसन: कालो नाद्य तद् रूपमस्ति मे ।। ७ ।।
भूमिर्नद्यो नगा: शैला: सिद्धा देवा महर्षय: ।
कालं॑ समनुवर्तन्ते यथा भावा युगे युगे ।। ८ ।।
बलवर्ष्मप्रभावा हि प्रहीयन्त्युद्धवन्ति च ।
तदलं बत तदू रूपं द्रष्ट कुरुकुलोद्वह ।
युगं समनुवर्तामि कालो हि दुरतिक्रम: ॥। ९ ।।
'सत्ययुगका समय दूसरा था तथा त्रेता और द्वापरका दूसरा ही है। यह काल सभी
वस्तुओंको नष्ट करनेवाला है। अब मेरा वह रूप है ही नहीं। पृथ्वी, नदी, वृक्ष, पर्वत, सिद्ध,
देवता और महर्षि--ये सभी कालका अनुसरण करते हैं। प्रत्येक युगके अनुसार सभी
वस्तुओंके शरीर, बल और प्रभावमें न्यूनाधिकता होती रहती है। अतः कुरुश्रेष्ठ] तुम उस
स्वरूपको देखनेका आग्रह न करो। मैं भी युगका अनुसरण करता हूँ; क्योंकि कालका
उल्लंघन करना किसीके लिये भी अत्यन्त कठिन है” || ७--९ |।
भीम उवाच
युगसंख्यां समाचक्ष्व आचारं च युगे युगे ।
धर्मकामार्थभावांश्ष कर्मवीर्ये भवाभवौ || १० ।।
भीमसेनने कहा--कपिप्रवर! आप मुझे युगोंकी संख्या बताइये और प्रत्येक युगमें जो
आचार, धर्म, अर्थ एवं कामके तत्त्व, शुभाशुभ कर्म, उन कर्मोकी शक्ति तथा उत्पत्ति और
विनाशादि भाव होते हैं, उनका भी वर्णन कीजिये ।। १० ।।
हनूमानुवाच
कृतं नाम युगं तात यत्र धर्म: सनातन: ।
कृतमेव न कर्तव्यं तस्मिन् काले युगोत्तमे || ११ ।।
हनुमानजी बोले--तात! सबसे पहला कृतयुग है। उसमें सनातनधर्मकी पूर्ण स्थिति
रहती है। उसका कृतयुग नाम इसलिये पड़ा है कि उस उत्तम युगके लोग अपना सब
कर्तव्यकर्म सम्पन्न ही कर लेते थे। उनके लिये कुछ करना शेष नहीं रहता था (अतः “कृतम्
एव सर्व शुभं यस्मिन् युगे” इस व्युत्पत्तिक अनुसार वह “कृतयुग” कहलाया) ।। ११ ।।
न तत्र धर्मा: सीदन्ति क्षीयन्ते न च वै प्रजा: ।
ततः कृतयुगं नाम कालेन गुणतां गतम् ।। १२ ।।
उस समय धर्मका हास नहीं होता था। प्रजाका अर्थात् (माता-पिताके रहते हुए)
संतानका नाश नहीं होता था। तदनन्तर कालक्रमसे उसमें गौणता आ गयी ।। १२ ।।
देवदानवगन्धर्वयक्षराक्षसपन्नगा: ।
नासन् कृतयुगे तात तदा न क्रयविक्रय: ।। १३ ।।
तात! कृतयुगमें देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और नाग नहीं थे, अर्थात् ये परस्पर
भेद-भाव नहीं रखते थे। उस समय क्रय-विक्रयका व्यवहार भी नहीं था ।। १३ ।।
न सामकरग्यजुर्वर्णा: क्रिया नासीच्च मानवी |
अभिध्याय फल तत्र धर्म: संन्यास एव च ।। १४ ||
ऋतक्, साम और यजुर्वेदके मन्त्रवर्णोका पृथक्-पृथक् विभाग नहीं था। कोई मानवी
क्रिया (कृषि आदि) भी नहीं होती थी। उस समय चिन्तन करनेमात्रसे सबको अभीष्ट
फलकी प्राप्ति हो जाती थी। सत्ययुगमें एक ही धर्म था, स्वार्थका त्याग || १४ ।।
न तस्मिन् युगसंसर्गे व्याधयो नेन्द्रियक्षय: ।
नासूया नापि रुदितं न दर्पो नापि वैकृतम् ।। १५ ।।
उस युगमें बीमारी नहीं होती थी। इन्द्रियोंमें भी क्षीणता नहीं आने पाती थी। कोई
किसीके गुणोंमें दोष-दर्शन नहीं करता था। किसीको दुःखसे रोना नहीं पड़ता था और न
किसीमें घमंड था; तथा न कोई अन्य विकार ही होता था ।। १५ ।।
न विग्रह: कुतस्तन्द्री न द्वेघो न च पैशुनम्
न भयं नापि संतापो न चेष्या न च मत्सर: ।। १६ ।।
कहीं लड़ाई-झगड़ा नहीं था, आलसी भी नहीं थे। द्वेष, चुगली, भय, संताप, ईर्ष्या और
मात्सर्य भी नहीं था- ।। १६ ।।
ततः परमकं ब्रह्म सा गतियोंगिनां परा ।
आत्मा च सर्वभूतानां शुक्लो नारायणस्तदा ।। १७ ।।
उस समय योगियोंके परम आश्रय और सम्पूर्ण भूतोंकी अन्तरात्मा परब्रह्मस्वरूप
भगवान् नारायणका वर्ण शुक्ल था ।। १७ ||
ब्राह्मणा: क्षत्रिया वैश्या: शूद्राश्न॒ कृतलक्षणा: ।
कृते युगे समभवन् स्वकर्मनिरता: प्रजा: ।। १८ ।।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी शम-दम आदि स्वभावसिद्ध शुभ लक्षणोंसे
सम्पन्न थे। सत्ययुगमें समस्त प्रजा अपने-अपने कर्तव्यकर्मोंमें तत्पर रहती थी ।। १८ ।।
समाश्रयं समाचारं समज्ञानं च केवलम् ।
तदा हि समकर्माणो वर्णा धर्मानवाप्तुवन् ।। १९ ।।
उस समय परब्रह्म परमात्मा ही सबके एकमात्र आश्रय थे। उन्हींकी प्राप्तिके लिये
सदाचारका पालन किया जाता था। सब लोग एक परमात्माका ही ज्ञान प्राप्त करते थे।
सभी वर्णोके मनुष्य परब्रह्म परमात्माके उद्देश्यसे ही समस्त सत्कर्मोंका अनुष्ठान करते थे
और इस प्रकार उन्हें उत्तम धर्म-फलकी प्राप्ति होती थी ।। १९ ।।
एकदेवसदायुक्ता एकमन्त्रविधिक्रिया: ।
पृथग्धर्मास्त्विकवेदा धर्ममेकमनुव्रता: ।। २० ।।
सब लोग सदा एक परमात्मदेवमें ही चित्त लगाये रहते थे। सब लोग एक परमात्माके
ही नामका जप और उन्हींकी सेवा-पूजा किया करते थे। सबके वर्णाश्रमानुसार पृथक्-
पृथक् धर्म होनेपर भी वे एकमात्र वेदको ही माननेवाले थे और एक ही सनातनधर्मके
अनुयायी थे ।।
चातुराश्रम्ययुक्तेन कर्मणा कालयोगिना ।
अकामफलसंयोगातृ प्राप्रुवन्ति परां गतिम् ।। २१ ।।
सत्ययुगके लोग समय-समयपर किये जानेवाले चार आश्रमसम्बन्धी सत्कर्मोंका
अनुष्ठान करके कर्म-फलकी कामना और आसक्ति न होनेके कारण परम गति प्राप्त कर
लेते थे || २१ ।।
आत्मयोगसमायुक्तो धर्मोड्यं कृतलक्षण: ।
कृते युगे चतुष्पादश्चातुर्वण्यस्य शाश्वत: ।। २२ ।।
चित्तवृत्तियोंको परमात्मामें स्थापित करके उनके साथ एकताकी प्राप्ति करानेवाला
यह योग नामक धर्म सत्ययुगका सूचक है। सत्ययुगमें चारों वर्णोका यह सनातन धर्म चारों
चरणोंसे सम्पन्न--सम्पूर्ण रूपसे विद्यमान था ।। २२ ।।
एतत् कृतयुगं नाम त्रैगुण्यपरिवर्जितम्
त्रेतामपि निबोध त्वं यस्मिन् सत्र प्रवर्तते || २३ ।।
यह तीनों गुणोंसे रहित सत्ययुगका वर्णन हुआ। अब त्रेताका वर्णन सुनो, जिसमें यज्ञ-
कर्मका आरम्भ होता है ।।
पादेन हसते धर्मों रक्ततां याति चाच्युत: ।
सत्यप्रवृत्ताश्न नरा: क्रियाधर्मपरायणा: ।। २४ ।।
उस समय धर्मके एक चरणका हास हो जाता है और भगवान् अच्युतका स्वरूप लाल
वर्णका हो जाता है। लोग सत्यमें तत्पर रहते हैं। शास्त्रोक्त यज्ञक्रिया तथा धर्मके पालनमें
परायण रहते हैं || २४ ।।
ततो यज्ञा: प्रवर्तन्ते धर्माक्ष विविधा: क्रिया: ।
त्रेतायां भावसंकल्पा: क्रियादानफलोपगा: ।। २५ ||
त्रेतायुगमें ही यज्ञ, धर्म तथा नाना प्रकारके सत्कर्म आरम्भ होते हैं। लोगोंको अपनी
भावना तथा संकल्पके अनुसार वेदोक्त कर्म तथा दान आदिके द्वारा अभीष्ट फलकी प्राप्ति
होती है || २५ ।।
प्रचलन्ति न वै धर्मात् तपोदानपरायणा: ।
स्वधर्मस्था: क्रियावन्तो नरास्त्रेतायुगे5डभवन् ।। २६ ।।
त्रेतायुगके मनुष्य तप और दानमें तत्पर रहकर अपने धर्मसे कभी विचलित नहीं होते
थे। सभी स्वधर्मपरायण तथा क्रियावान् थे || २६ ।।
द्वापरे च युगे धर्मो द्विभागोन: प्रवर्तते ।
विष्णुवैं पीततां याति चतुर्धा वेद एव च ।। २७ ।।
द्वापरमें हमारे धर्मके दो ही चरण रह जाते हैं, उस समय भगवान् विष्णुका स्वरूप पीले
वर्णका हो जाता है और वेद (ऋक्, यजुः, साम और अथर्व--इन) चार भागोंमें बँट जाता
है || २७ |।
ततो<न््ये च चतुर्वेदास्त्रिवेदाश्व॒ तथापरे ।
दविवेदाश्वैकवेदाश्वाप्पनचश्व॒ तथापरे ।। २८ ।।
उस समय कुछ द्विज चार वेदोंके ज्ञाता, कुछ तीन वेदोंके विद्वान, कुछ दो ही वेदोंके
जानकार, कुछ एक ही वेदके पण्डित और कुछ वेदकी ऋचाओं के ज्ञानसे सर्वथा शून्य होते
हैं ।। २८ ।।
एवं शास्त्रेषु भिन्नेषु बहुधा नीयते क्रिया ।
तपोदानप्रवृत्ता च राजसी भवति प्रजा ।। २९ ।।
इस प्रकार भिन्न-भिन्न शास्त्रोंके होनेसे उनके बताये हुए कर्मोमें भी अनेक भेद हो जाते
हैं तथा प्रजा तप और दान--इन दो ही धर्मोमें प्रवृत होकर राजसी हो जाती है ।। २९ ।।
एकवेदस्य चाज्ञानाद् वेदास्ते बहव: कृता: ।
सत्त्वस्य चेह विश्रंशात् सत्ये कश्चिदवस्थित: ।। ३० ।।
द्वापरमें सम्पूर्ण एक वेदका भी ज्ञान न होनेसे वेदके बहुत-से विभाग कर लिये गये हैं।
इस युगमें सात्त्विक बुद्धिका क्षय होनेसे कोई विरला ही सत्यमें स्थित होता है || ३० ।।
सत्यात् प्रच्यवमानानां व्याधयो बहवो5भवन् ।
कामाश्षोपद्रवाश्वैव तदा वै दैवकारिता: ।। ३१ ।।
सत्यसे भ्रष्ट होनेके कारण द्वापरके लोगोंमें अनेक प्रकारके रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
उनके मनमें अनेक प्रकारकी कामनाएँ पैदा होती हैं और वे बहुत-से दैवी उपद्रवोंसे भी
पीड़ित हो जाते हैं ।। ३१ ।।
यैर््यमाना: सुभृशं तपस्तप्यन्ति मानवा: ।
कामकामा: स्वर्गकामा यज्ञांस्तन्वन्ति चापरे || ३२ ।।
उन सबसे अत्यन्त पीड़ित होकर लोग तप करने लगते हैं। कुछ लोग भोग और
स्वर्गकी कामनासे यज्ञोंका अनुष्ठान करते हैं || ३२ ।।
एवं द्वापरमासाद्य प्रजा: क्षीयन्त्यधर्मत: ।
पादेनैकेन कौन्तेय धर्म: कलियुगे स्थित: ।। ३३ ।।
इस प्रकार द्वापरयुगके आनेपर अधर्मके कारण प्रजा क्षीण होने लगती है। (तत्पश्चात्
कलियुगका आगमन होता है।) कुन्तीनन्दन! कलियुगमें धर्म एक ही चरणसे स्थित होता
है ।। ३३ ||
तामसं युगमासाद्य कृष्णो भवति केशव: ।
वेदाचारा: प्रशाम्यन्ति धर्मयज्ञक्रियास्तथा ।। ३४ ।।
इस तमोगुणी युगको पाकर भगवान् विष्णुके श्रीविग्रहका रंग काला हो जाता है।
वैदिक सदाचार, धर्म तथा यज्ञ-कर्म नष्ट हो जाते हैं || ३४ ।।
ईतयो व्याधयस्तन्द्री दोषा: क्रोधादयस्तथा ।
उपद्रवा: प्रवर्तन्ते आधय: क्षुद्धयं तथा ।। ३५ ।।
ईति, व्याधि, आलस्य, क्रोध आदि दोष, मानसिक रोग तथा भूख-प्यासका भय--ये
सभी उपद्रव बढ़ जाते हैं || ३५ ।।
युगेष्वावर्तमानेषु धर्मो व्यावर्तते पुन: ।
धर्मे व्यावर्तमाने तु लोको व्यावर्तते पुन: ।। ३६ ।।
युगोंके परिवर्तन होनेपर आनेवाले युगोंके अनुसार धर्मका भी हास होता जाता है। इस
प्रकार धर्मके क्षीण होनेसे लोक (की सुख-सुविधा)-का भी क्षय होने लगता है || ३६ ।।
लोके क्षीणे क्षयं यान्ति भावा लोकप्रवर्तका: ।
युगक्षयकृता धर्माः प्रार्थनानि विकुर्वते ।। ३७ ।।
लोकके क्षीण होनेपर उसके प्रवर्तक भावोंका भी क्षय हो जाता है। युग-क्षयजनित धर्म
मनुष्यकी अभीष्ट कामनाओंके विपरीत फल देते हैं || ३७ ।।
एतत् कलियुगं नाम अचिराद् यत् प्रवर्तते ।
युगानुवर्तनं त्वेतत् कुर्वन्ति चिरजीविन: ।। ३८ ।।
यह कलियुगका वर्णन किया गया, जो शीघ्र ही आनेवाला है। चिरजीवीलोग भी इस
प्रकार युगका अनुसरण करते हैं || ३८ ।।
यच्च ते मत्परिज्ञाने कौतूहलमरिंदम ।
अनर्थकेषु को भाव: पुरुषस्य विजानतः ।। ३९ |।
शत्रुदमन! तुम्हें मेरे पुरातन स्वरूपको देखने या जाननेके लिये जो कौतूहल हुआ है,
वह ठीक नहीं है। किसी भी समझदार मनुष्यका निरर्थक विषयोंके लिये आग्रह क्यों होना
चाहिये? ।। ३९ ।।
एतत् ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि ।
युगसंख्यां महाबाहो स्वस्ति प्राप्तुहि गम्यताम् ।। ४० ।।
महाबाहो! तुमने युगोंकी संख्याके विषयमें मुझसे जो प्रश्न किया है, उसके उत्तरमें मैंने
यह सब बातें बतायी हैं। तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम लौट जाओ ।। ४० ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां कदलीषण्डे
हनुमद्धीमसंवादे एकोनपञ्चाशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १४९ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत लोमशतीर्थयात्राके प्रसंगमें कदलीवनके भीतर
हनुमानजी और भीमसेनका संवादविषयक एक सौ उनचासवाँ अध्याय पूरा
हुआ ॥। १४९ ॥
हि आय न [हुक हि 7 2
- सत्ययुगके मनुष्य आदि प्राणियोंमें दोषोंका अभाव बतलाया है, उसका यह अभिप्राय समझना चाहिये कि
अधिकांशमें उनमें इन दोषोंका अभाव था।
पजञज्चाशर्दाधिकशततमोब् ध्याय:
श्रीहनुमानजीके द्वारा भीमसेनको अपने विशाल रूपका
प्रदर्शन और चारों वर्णोके धर्मोका प्रतिपादन
भीमसेन उवाच
पूर्वरूपमदृष्टवा ते न यास्यामि कथंचन ।
यदि ते5हमनुग्राह्मो दर्शयात्मानमात्मना ।। १ ।।
भीमसेनने कहा--कपिप्रवर! मैं आपका वह पूर्वरूप देखे बिना किसी प्रकार नहीं
जाऊँगा। यदि मैं आपका कृपापात्र होऊँ, तो आप स्वयं ही अपने-आपको मेरे सामने प्रकट
कर दीजिये ।। १ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमुक्तस्तु भीमेन स्मितं कृत्वा प्लवंगम: ।
तद् रूप॑ दर्शयामास यद् वै सागरलड्घने ।। २ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! भीमसेनके ऐसा कहनेपर हनुमानजीने
मुसकराकर उन्हें अपना वह रूप दिखाया, जो उन्होंने समुद्र-लंघनके समय धारण किया
था।।२।।
भ्रातु: प्रियमभीप्सन् वै चकार सुमहद् वपुः ।
देहस्तस्य ततो$तीव वर्धत्यायामविस्तरै: ।। ३ ।।
सद्रुमं कदलीषण्डं छादयन्नमितद्युति: ।
गिरेश्लोच्छूयमाक्रम्य तस्थौ तत्र च वानर: ।। ४ ।।
उन्होंने अपने भाईका प्रिय करनेकी इच्छासे अत्यन्त विशाल शरीर धारण किया।
उनका शरीर लंबाई, चौड़ाई और ऊँचाईमें बहुत बड़ा हो गया। वे अमित तेजस्वी वानरवीर
वृक्षोंसहित समूचे कदलीवनको आच्छादित करते हुए गन्धमादन पर्वतकी ऊँचाईको भी
लाँघकर वहाँ खड़े हो गये ।। ३-४ ।।
समुच्छितमहाकायो द्वितीय इव पर्वत: ।
ताम्रेक्षणस्तीक3्ष्णदंष्टो भूकुटीकुटिलानन: ।। ५ ।।
उनका वह उन्नत विशाल शरीर दूसरे पर्वतके समान प्रतीत होता था। लाल आँखों
तीखी दाढ़ों और टेढ़ी भौंहोंसे युक्त उनका मुख था ।। ५ ।।
दीर्घलाडरूलमाविध्य दिशो व्याप्य स्थित: कपि: ।
तद् रूप॑ महदालक्ष्य भ्रातु: कौरवनन्दन: ।। ६ ।।
विसिष्मिये तदा भीमो जहृषे च पुन: पुनः ।
तमर्कमिव तेजोभि: सौवर्णमिव पर्वतम् ।। ७ ।।
प्रदीप्तमिव चाकाशं दृष्टवा भीमो न्यमीलयत् ।
आबभाषे च हनुमान् भीमसेनं स्मयन्निव ।। ८ ।।
वे वानरवीर अपनी विशाल पूँछको हिलाते हुए सम्पूर्ण दिशाओंको घेरकर खड़े थे।
भाईके उस विराट् रूपको देखकर कौरवनन्दन भीमको बड़ा आश्चर्य हुआ। उनके शरीरमें
बार-बार हर्षसे रोमांच होने लगा। हनुमानजी तेजमें सूर्यके समान दिखायी देते थे। उनका
शरीर सुवर्णमय मेरुपर्वतके समान था और उनकी प्रभासे सारा आकाशमण्डल प्रज्वलित-
सा जान पड़ता था। उनकी ओर देखकर भीमसेनने दोनों आँखें बंद कर लीं। तब हनुमानजी
उनसे मुसकराते हुए-से बोले--- || ६--८ ।।
एतावदिह शक्तस्त्वं द्रष्ट रूप॑ं ममानघ ।
वर्धेडहं चाप्पतो भूयो यावन्मे मनसि स्थितम् |
भीमशशत्रुषु चात्यर्थ वर्धते मूर्तिरोजसा ।। ९ ।।
“अनघ! तुम यहाँ मेरे इतने ही बड़े रूपको देख सकते हो, परंतु मैं इससे भी बड़ा हो
सकता हूँ। मेरे मनमें जितने बड़े स्वरूपकी भावना होती है, उतना ही मैं बढ़ सकता हूँ।
भयानक शशत्रुओंके समीप मेरी मूर्ति अत्यन्त ओजके साथ बढ़ती है” || ९ ।।
वैशम्पायन उवाच
तदद्धुतं महारौद्रं विन्ध्यपर्वतसंनिभम् ।
दृष्टवा हनूमतो वर्ष्म सम्भ्रान्त: पवनात्मज: ।। १० ।।
प्रत्युवाच ततो भीम: सम्प्रहृष्टतनूरुह: ।
कृताञ्जलिरदीनात्मा हनूमन्तमवस्थितम् ।। ११ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! हनुमानजीका वह विन्न्ध्य पर्वतके समान
अत्यन्त भयंकर और अद्भुत शरीर देखकर वायुपुत्र भीमसेन घबरा गये। उनके शरीरमें
रोंगटे खड़े होने लगे। उस समय उदार-हृदय भीमने हाथ जोड़कर अपने सामने खड़े हुए
हनुमानूजीसे कहा-- || १०-११ |।
दृष्ट प्रमाणं विपुलं शरीरस्यास्य ते विभो ।
संहरस्व महावीर्य स्वयमात्मानमात्मना ।। १२ ||
'प्रभो! आपके इस शरीरका विशाल प्रमाण प्रत्यक्ष देख लिया। महापराक्रमी वीर! अब
आप स्वयं ही अपने शरीरको समेट लीजिये ।। १२ ।।
न हि शव्नोमि त्वां द्रष्टं दिवाकरमिवोदितम् ।
अप्रमेयमनाधृष्यं मैनाकमिव पर्वतम् ।। १३ ।।
“आप तो सूर्यके समान उदित हो रहे हैं। मैं आपकी ओर देख नहीं सकता। आप
अप्रमेय तथा दुर्धर्ष मैनाक पर्वतके समान खड़े हैं ।। १३ ।।
विस्मयश्चैव मे वीर सुमहान् मनसोउद्य वै ।
यद् रामस्त्वयि पार्श्रस्थे स्वयं रावणमभ्यगात् ।। १४ ।।
“वीर! आज मेरे मनमें इस बातको लेकर बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि आपके निकट
रहते हुए भी भगवान् श्रीरामने स्वयं ही रावणका सामना किया ।। १४ ।।
त्वमेव शक्तस्तां लड़कां सयोधां सहवाहनाम् |
स्वबाहुबलमाश्रित्य विनाशयितुमज्जसा ।। १५ ।।
“आप तो अकेले ही अपने बाहुबलका आश्रय लेकर योद्धाओं और वाहनोंसहित
समूची लंकाको अनायास नष्ट कर सकते थे ।। १५ ।।
नहि ते किंचिदप्राप्यं मारुतात्मज विद्यते |
तव नैकस्य पर्याप्तो रावण: सगणो युधि ।॥। १६ ।।
“मारुतनन्दन! आपके लिये कुछ भी असम्भव नहीं है। समरभूमिमें अपने
सैनिकोंसहित रावण अकेले आपका ही सामना करनेमें समर्थ नहीं था' || १६ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमुक्तस्तु भीमेन हनूमान् प्लवगोत्तम: ।
प्रत्युवाच ततो वाक्य स्निग्धगम्भीरया गिरा ॥। १७ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! भीमके ऐसा कहनेपर कपिश्रेष्ठ हनुमानजीने
स्नेहयुक्त गम्भीर वाणीमें इस प्रकार उत्तर दिया-- ।। १७ ।।
हनूमानुवाच
एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत ।
भीमसेन न पर्याप्तो ममासौ राक्षसाधम: ।। १८ ।।
हनुमानजी बोले--भारत! महाबाहु भीमसेन! तुम जैसा कहते हो, ठीक ही है। वह
अधम राक्षस वास्तवमें मेरा सामना नहीं कर सकता था ।। १८ ।।
मया तु निहते तस्मिन् रावणे लोककण्टके ।
कीर्तिनिश्येद् राघवस्य तत एतदुपेक्षितम् ।। १९ ।।
किंतु सम्पूर्ण लोकोंको काँटेके समान कष्ट देनेवाला रावण यदि मेरे ही हाथों मारा
जाता, तो भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी कीर्ति नष्ट हो जाती। इसीलिये मैंने उसकी उपेक्षा कर
दी ।। १९ ||
तेन वीरेण तं हत्वा सगणं राक्षसाधमम् ।
आनीता स्वपुरं सीता कीर्तिश्वाख्यापिता नृूषु ।। २० ।।
वीरवर श्रीरामचन्द्रजी सेनासहित उस अधम राक्षसका वध करके सीताजीको अपनी
अयोध्यापुरीमें ले आये। इससे मनुष्योंमें उनकी कीर्तिका भी विस्तार हुआ ।।
तद् गच्छ विपुलप्रज्ञ भ्रातु: प्रियहिते रत: ।
अरिष्ट क्षेममध्वानं वायुना परिरक्षित: ।। २१ ।।
अच्छा, महाप्राज्ञ! अब तुम अपने भाईके प्रिय एवं हितमें तत्पर रहकर वायुदेवतासे
सुरक्षित हो क्लेशरहित मार्गसे कुशलपूर्वक जाओ ।। २१ ।।
एष पन्था: कुरुश्रेष्ठ सौगन्धिकवनाय ते ।
द्रक्ष्यससे धनदोद्यानं रक्षितं यक्षराक्षसै: । २२ ।।
कुरुश्रेष्ठ! यह मार्ग सौगन्धिक वनको जाता है। इससे जानेपर तुम्हें कुबेरका बगीचा
दिखायी देगा, जो यक्षों तथा राक्षसोंसे सुरक्षित है ।। २२ ।।
न च ते तरसा कार्य: कुसुमावचय: स्वयम् ।
देवतानि हि मान्यानि पुरुषेण विशेषत: ।। २३ ।।
वहाँ जाकर तुम जल्दीसे स्वयं ही उसके फूल न तोड़ने लगना। मनुष्योंको तो
विशेषरूपसे देवताओंका सम्मान ही करना चाहिये ।। २३ ।।
बलिहोमनमस्कारेैर्मन्त्रैक्ष भरतर्षभ ।
दैवतानि प्रसादं हि भक्त्या कुर्वन्ति भारत ॥। २४ ।।
भरतश्रेष्ठ! पूजा, होम, नमस्कार, मन्त्रजप तथा भक्तिभावसे देवता प्रसन्न होकर कृपा
करते हैं ।। २४ ।।
मा तात साहसं कार्षी: स्वधर्मं परिपालय ।
स्वधर्मस्थ: परं धर्म बुध्यस्व गमयस्व च ।। २५ ।।
तात! तुम दुःसाहस न कर बैठना, अपने धर्मका पालन करना, स्वधर्ममें स्थित रहकर
तुम श्रेष्ठ धर्मको समझो और उसका पालन करो || २५ ।।
न हि धर्ममविज्ञाय वृद्धाननुपसेव्य च ।
धर्मार्थी वेदितुं शक्यौ बृहस्पतिसमैरपि ।। २६ ।।
क्योंकि धर्मको जाने बिना और वृद्ध पुरुषोंकी सेवा किये बिना बृहस्पति-जैसे
विद्वानोंके लिये भी धर्म और अर्थके तत्त्वको समझना सम्भव नहीं है ।। २६ ।।
अधर्मो यत्र ध्माख्यो धर्मश्चाधर्मसंज्ञित: ।
स विज्ञेयो विभागेन यत्र मुहान्त्यबुद्धयः ॥। २७ ।।
कहीं अधर्म ही धर्म कहलाता है और कहीं धर्म भी अधर्म कहा जाता है। अतः धर्म
और अधर्मके स्वरूपका पृथक्-पृथक् ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। बुद्धिहीनलोग इसमें
मोहित हो जाते हैं || २७ ।।
आचारसम्भवो धर्मों धर्मे वेदा: प्रतिष्ठिता: ।
वेदैर्यज्ञा: समुत्पन्ना यज्जैर्देवा: प्रतिष्ठिता: ।। २८ ।।
आचारसे धर्मकी उत्पत्ति होती है। धर्ममें वेदोंकी प्रतिष्ठा है। वेदोंसे यज्ञ प्रकट हुए हैं
और यज्ञोंसे देवताओंकी स्थिति है ।। २८ ।।
वेदाचारविधानोक्तिर्यज्नैर्धार्यन्ति देवता: ।
बृहस्पत्युशन:प्रोक्तैर्नयैर्धार्यन्ति मानवा: ।। २९ ।।
वेदोक्त आचारके विधानसे बतलाये हुए यज्ञोंद्वारा देवतवाओंकी आजीविका चलती है
और बृहस्पति तथा शुक्राचार्यकी कही हुई नीतियाँ मनुष्योंके जीवन-निर्वाहकी आधारभूमि
हैं ।। २९ ।।
पण्याकरवणिज्याभि: कृष्यागोजाविपोषणै: ।
विद्यया धार्यते सर्व धर्मरेतैद्विजातिभि: ।। ३० ।।
हाट-बाजार करना, कर (लगान या टैक्स) लेना, व्यापार, खेती, गोपालन, भेड़ और
बकरोंका पोषण तथा विद्या पढ़ना-पढ़ाना--इन धर्मानुकूल वृत्तियोंद्वारा द्विजगण सम्पूर्ण
जगतकी रक्षा करते हैं || ३० ।।
त्रयी वार्ता दण्डनीतिस्तिस््रो विद्या विजानताम् |
ताभि: सम्यक् प्रयुक्ताभिलोंकयात्रा विधीयते ।। ३१ ।।
वेदत्रयी, वार्ता (कृषि-वाणिज्य आदि) और दण्डनीति--ये तीन विद्याएँ हैं (इनमें
वेदाध्ययन ब्राह्मणकी, वार्ता वैश्यकी और दण्डनीति क्षत्रियकी जीविकावृत्ति है)। विज्ञ
पुरुषोंद्वारा इन वृत्तियोंका ठीक-ठीक प्रयोग होनेसे लोकयात्राका निर्वाह होता है || ३१ ।।
सा चेद् धर्मकृता न स्यात् त्रयीधर्ममृते भुवि ।
दण्डनीतिमृते चापि निर्मर्यादमिदं भवेत् ।। ३२ ।।
यदि लोकमयात्रा धर्मपूर्वक न चलायी जाय, इस पृथ्वीपर वेदोक्त धर्मका पालन न हो
और दण्डनीति भी उठा दी जाय तो यह सारा जगत् मर्यादाहीन हो जाय ।। ३२ ।।
वार्ताधर्मे ह्ुवर्तिन्यो विनश्येयुरिमा: प्रजा: ।
सुप्रवृत्तैस्त्रिभिह तिर्धर्म सूयन्ति वै प्रजा: ।। ३३ ।।
यदि यह प्रजा वार्ता-धर्म (कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य) में प्रवृत्त न हो तो नष्ट हो
जायगी। इन तीनोंकी सम्यक प्रवृत्ति होनेसे प्रजा धर्मका सम्पादन करती है ।। ३३ ।।
द्विजातीनामृतं धर्मो होकश्चैवैकलक्षण: ।
यज्ञाध्ययनदानानि त्रयः साधारणा: स्मृता: ।। ३४ ।।
द्विजातियोंका मुख्य धर्म है सत्य (सत्य-भाषण, सत्य-व्यवहार, सद्भाव)। यह धर्मका
एक प्रधान लक्षण है। यज्ञ, स्वाध्याय और दान--ये तीन धर्म द्विजमात्रके सामान्य धर्म माने
गये हैं ।। ३४ ।।
याजनाध्यापन विदप्रे धर्मश्नैव प्रतिग्रह: ।
पालन क्षत्रियाणां वै वैश्यधर्मश्ष पोषणम् ।। ३५ ।।
यज्ञ कराना, वेद और शास्त्रोंको पढ़ाना तथा दान ग्रहण करना--यह ब्राह्मणका ही
आजीविकाप्रधान धर्म है। प्रजा-पालन क्षत्रियोंका और पशु-पालन वैश्योंका धर्म
है ।। ३५ ||
शुश्रूषा च द्विजातीनां शूद्राणां धर्म उच्यते ।
भैक्ष्यहोमव्रतैहीनास्तथैव गुरुवासिता: ।। ३६ ।।
ब्राह्मण आदि तीनों वर्णोकी सेवा करना शूद्रोंका धर्म बताया गया है। तीनों वर्णोंकी
सेवामें रहनेवाले शूद्रोंके लिये भिक्षा, होम और व्रत मना है ।। ३६ ।।
क्षत्रधर्मो5त्र कौन्तेय तव धर्मोउत्र रक्षणम् |
स्वधर्म प्रतिपद्यस्व विनीतो नियतेन्द्रिय: ।। ३७ ।।
कुन्तीनन्दन! सबकी रक्षा करना क्षत्रियका धर्म है, अतः तुम्हारा धर्म भी यही है। अपने
धर्मका पालन करो। विनयशील बने रहो और इन्द्रियोंको वशमें रखो ।। ३७ ।।
वृद्ध: सम्मन्त्रय सद्धिश्व बुद्धिमद्धि: श्रुतान्वितै: ।
आस्थित: शास्ति दण्डेन व्यसनी परिभूयते ।। ३८ ।।
वेद-शास्त्रोंके विद्वान, बुद्धिमान् तथा बड़े-बूढ़े श्रेष्ठ पुरुषोंस सलाह करके उनका
कृपापात्र बना हुआ राजा ही दण्डनीतिके द्वारा शासन कर सकता है। जो राजा दुर्व्यसनोंमें
आसक्त होता है, उसका पराभव हो जाता है ।। ३८ ।।
निग्रहानुग्रहैः सम्यग् यदा राजा प्रवर्तते ।
तदा भवन्ति लोकस्य मर्यादा: सुव्यवस्थिता: ।। ३९ |।
जब राजा निग्रह और अनुग्रहके द्वारा प्रजावर्गके साथ यथोचित बर्ताव करता है, तभी
लोककी सम्पूर्ण मर्यादाएँ सुरक्षित होती हैं ।। ३९ ।।
तस्माद् देशे च दुर्गे च शत्रुमित्रबलेषु च ।
नित्यं चारेण बोद्धव्यं स्थान वृद्धि: क्षयस्तथा ।। ४० ।।
इसलिये राजाको उचित है कि वह देश और दुर्गमें अपने शत्रु और मित्रोंके सैनिकोंकी
स्थिति, वृद्धि और क्षयका गुप्तचरोंद्वारा सदा पता लगाता रहे || ४० ।।
रज्ञामुपायश्चारश्न बुद्धिमन्त्रपराक्रमा: ।
निग्रहप्रग्रहौ चैव दाक्ष्यं वै कार्यसाधकम् ।। ४१ ।।
साम, दान, दण्ड, भेद--ये चार उपाय, गुप्तचर, उत्तम बुद्धि, सुरक्षित मन्त्रणा,
पराक्रम, निग्रह, अनुग्रह और चतुरता--ये राजाओंके लिये कार्य-सिद्धिके साधन हैं ।।
साम्ना दानेन भेदेन दण्डेनोपेक्षणेन च ।
साधनीयानि कर्माणि समासव्यासयोगत: ।। ४२ ।।
साम, दान, भेद, दण्ड और उपेक्षा--इन नीतियोंमेंसे एक-दोके द्वारा या सबके एक
साथ प्रयोगद्वारा राजाओंको अपने कार्य सिद्ध करने चाहिये ।। ४२ ।।
मन्त्रमूला नया: सर्वे चाराश्न भरतर्षभ ।
सुमन्त्रितेन या सिद्धिस्तां द्विजै:ः सह मन्त्रयेत् ।। ४३ ।।
भरतश्रेष्ठ! सारी नीतियों और गुप्तचरोंका मूल आधार है मन्त्रणाको गुप्त रखना। उत्तम
मन्त्रणा या विचारसे जो सिद्धि प्राप्त होती है, उसके लिये द्विजोंके साथ गुप्त परामर्श करना
चाहिये ।। ४३ ।।
स्त्रिया मूढेन बालेन लुब्धेन लघुनापि वा ।
न मन्त्रयीत गुह्मानि येषु चोन््मादलक्षणम् ।। ४४ ।।
स्त्री, मूर्ख, बालक, लोभी और नीच पुरुषोंके साथ तथा जिसमें उनन््मादका लक्षण
दिखायी दे, उसके साथ भी गुप्त परामर्श न करे || ४४ ।।
मन्त्रयेत् सह विद्वद्धिः शक्तै: कर्माणि कारयेत् ।
स्निग्धैश्व नीतिविन्यासान् मूर्खान् सर्वत्र वर्जयेत् || ४५ ।।
विद्वानोंके साथ ही गुप्त मन्त्रणा करनी चाहिये। जो शक्तिशाली हों, उन्हींसे कार्य
कराने चाहिये। जो स्नेही (सुहृद) हों उन्हींके द्वारा नीतिके प्रयोगका काम कराना चाहिये।
मूर्खोको तो सभी कार्योसे अलग रखना चाहिये ।। ४५ ।।
धार्मिकान् धर्मकार्येषु अर्थकार्येषु पण्डितान् ।
सत्रीषु क्लीबान् नियुज्जीत क्रूरान् क्रूरेषु कर्मसु || ४६ ।।
राजाको चाहिये कि वह धर्मके कार्योमें धार्मिक पुरुषोंको, अर्थसम्बन्धी कार्योमें
अर्थशास्त्रके पण्डितोंको, स्त्रियोंकी देख-भालके लिये नपुंसकोंको और कठोर कार्याँमें क्रूर
स्वभावके मनुष्योंको लगावे ।। ४६ ।।
स्वेभ्यश्चैव परेभ्यश्व कार्याकार्यसमुद्धवा ।
बुद्धि: कर्मसु विज्ञेया रिपूणां च बलाबलम् ।। ४७ ।।
बहुत-से कार्योंकी आरम्भ करते समय अपने तथा शत्रुपक्षके लोगोंसे भी यह सलाह
लेनी चाहिये कि अमुक काम करनेयोग्य है या नहीं। साथ ही, शत्रुकी प्रबलता और
दुर्बलताको भी जाननेका प्रयत्न करना चाहिये ।। ४७ ।।
बुद्धया स्वप्रतिपन्नेषु कुर्यात् साधुष्वनुग्रहम् ।
निग्रहं चाप्यशिष्टेषु निर्मर्यादेषु कारयेत् ।। ४८ ।।
बुद्धिसे सोच-विचारकर अपनी शरणमें आये हुए श्रेष्ठ कर्म करनेवाले पुरुषोंपर अनुग्रह
करना चाहिये और मर्यादा भंग करनेवाले दुष्ट पुरुषोंको दण्ड देना चाहिये ।। ४८ ।।
निग्रहे प्रग्रहे सम्यग् यदा राजा प्रवर्तते ।
तदा भवति लोकस्य मर्यादा सुव्यवस्थिता ।। ४९ ।।
जब राजा निग्रह और अनुग्रहमें ठीक तौरसे प्रवृत्त होता है, तभी लोककी मर्यादा
सुरक्षित रहती है ।। ४९ ।।
एष ते5भिहित: पार्थ घोरो धर्मो दुरन्वय: ।
त॑ स्वधर्मविभागेन विनयस्थोडनुपालय ।। ५० ।।
कुन्तीनन्दन! यह मैंने तुम्हें कठोर राज्य-धर्मका उपदेश दिया है। इसके मर्मको समझना
अत्यन्त कठिन है। तुम अपने धर्मके विभागानुसार विनीतभावसे इसका पालन
करो ।। ५० ।।
तपोधर्मदमेज्याभिरविप्रा यान्ति यथा दिवम् |
दानातिथ्यक्रियाधर्मर्यान्ति वैश्याश्व सद्गतिम् ।। ५१ ।।
क्षत्र याति तथा स्वर्ग भुवि निग्रहपालनै: ।
सम्यक् प्रणीतदण्डा हि कामद्वेषविवर्जिता: ।
अलुब्धा विगतक्रोधा: सतां यान्ति सलोकताम् ।। ५२ ।।
जैसे तपस्या, धर्म, इन्द्रिय-संयम और यज्ञानुष्ठानके द्वारा ब्राह्मण उत्तम लोकमें जाते हैं
तथा जिस प्रकार वैश्य दान और आतिथ्यरूप धर्मोसे उत्तम गति प्राप्त कर लेते हैं, उसी
प्रकार इस लोकमें निग्रह और अनुग्रहके यथोचित प्रयोगसे क्षत्रिय स्वर्गलोकमें जाता है।
जिनके द्वारा दण्डनीतिका उचित रीतिसे प्रयोग किया जाता है, जो राग-द्वेषसे रहित,
लोभशून्य तथा क्रोधहीन हैं; वे क्षत्रिय सत्पुरुषोंको प्राप्त होनेवाले लोकोंमें जाते हैं ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां
हनुमद्धीमसेनसंवादे पज्चाशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १५० ||
इस प्रकार श्रीमह्ा भारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोगशती थ्थयात्राके प्रसंगमें
हनुमानजी और भीमसेनका संवादविषयक एक सौ पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १५० ॥/
हि आय न हुक मपटआ आ्ा८्
एकपज्चाशर्दाधकशततमो< ध्याय:
श्रीहनुमानजीका भीमसेनको आश्वासन और विदा देकर
अन्तर्धान होना
वैशम्पायन उवाच
ततः संहृत्य विपुलं तद् वपु: कामतः कृतम् ।
भीमसेन पुनर्दोर्भ्या पर्यष्वजत वानर: ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर अपनी इच्छासे बढ़ाये हुए उस विशाल
शरीरका उपसंहार कर वानरराज हनुमानजीने अपनी दोनों भुजाओंद्वारा भीमसेनको
हृदयसे लगा लिया ।। १ ||
परिष्वक्तस्य तस्याशु भ्रात्रा भीमस्य भारत ।
श्रमो नाशमुपागच्छत् सर्व चासीत् प्रदक्षिणम् ।। २ ।।
भारत! भाईका आलिंगन प्राप्त होनेपर भीमसेनकी सारी थकावट तत्काल नष्ट हो गयी
और सब कुछ उन्हें अनुकूल प्रतीत होने लगा ।। २ ।।
बल॑ चातिबलो मेने न मे5स्ति सदृशो महान् |
ततः पुनरथोवाच पर्यश्रुनयनो हरि: ।। ३ ।।
भीममाभाष्य सौहार्दाद् बाष्पगद्गदया गिरा |
गच्छ वीर स्वमावासं स्मर्तव्योडस्मि कथान्तरे ।। ४ ।।
अत्यन्त बलशाली भीमसेनको यह अनुभव हुआ कि मेरा बल बहुत बढ़ गया। अब मेरे
समान दूसरा कोई महान् नहीं है। फिर हनुमानजीने अपने नेत्रोंमें आँसू भरकर सौहार्दसे
गद्गदवाणीद्वारा भीमसेनको सम्बोधित करके कहा--“वीर! अब तुम अपने निवास-
स्थानपर जाओ। बातचीतके प्रसंगमें कभी मेरा भी स्मरण करते रहना ।। ३-४ ।।
इहस्थश्व कुरुश्रेष्ठ न निवेद्योडस्मि करह्िचित् |
धनदस्यालयाच्चापि विसृष्टानां महाबल ।। ५ ।।
देशकाल इहायातुं देवगन्धर्वयोषिताम् ।
ममापि सफल चक्षु: स्मारितश्नलास्मि राघवम् ।। ६ ।।
रामाभिधानं विष्णुं हि जगद्धृदयनन्दनम् ।
सीतावकत्रारविन्दर्क दशास्यध्वान्तभास्करम् ।। ७ ।।
मानुषं गात्रसंस्पर्श गत्वा भीम त्वया सह |
तदस्मद्दर्शन॑ वीर कौन्तेयामोघमस्तु ते ।। ८ ।।
“कुरुश्रेष्ठ! मैं इस स्थानपर रहता हूँ, यह बात कभी किसीसे न कहना। महाबली वीर!
अब कुबेरके भवनसे भेजी हुई देवांगनाओं तथा गन्धर्व-सुन्दरियोंके यहाँ आनेका समय हो
गया है। भीम! तुम्हें देखकर मेरी भी आँखें सफल हो गयीं। तुम्हारे साथ मिलकर तुम्हारे
मानवशरीरका स्पर्श करके मुझे उन भगवान् रामचन्द्रजीका स्मरण हो आया है, जो श्रीराम-
नामसे प्रसिद्ध साक्षात् विष्णु हैं। जगत्के हृदयको आनन्द प्रदान करनेवाले,
मिथिलेशनन्दिनी सीताके मुखारविन्दको विकसित करनेके लिये सूर्यके समान तेजस्वी तथा
दशमुख रावणरूपी अन्धकारराशिको नष्ट करनेके लिये साक्षात् भुवन-भास्कररूप हैं। वीर
कुन्तीकुमार! तुमने जो मेरा दर्शन किया है, वह व्यर्थ नहीं जाना चाहिये || ५--८ ।।
भ्रातृत्वं त्वं पुरस्कृत्य वरं वरय भारत ।
यदि तावन्मया क्षुद्रा गत्वा वारणसाह्नयम् ।। ९ ।।
धार्तराष्ट्रा निहन्तव्या यावदेतत् करोम्यहम् ।
शिलया नगरं वापि मर्दितव्यं मया यदि ।। १० ।।
बद्ध्वा दुर्योधनं चाद्य आनयामि तवान्तिकम् |
यावदेतत् करोम्यद्य काम॑ तव महाबल ।। ११ ।।
“भारत! तुम मुझे अपना बड़ा भाई समझकर कोई वर माँगो। यदि तुम्हारी इच्छा हो कि
मैं हस्तिनापुरमें जाकर तुच्छ धृतराष्ट्र-पुत्रोंकी मार डालूँ तो मैं यह भी कर सकता हूँ अथवा
यदि तुम चाहो कि मैं पत्थरोंकी वर्षासे सारे नगरको रौंदकर धूलमें मिला दूँ अथवा
दुर्योधनको बाँधकर अभी तुम्हारे पास ला दूँ तो यह भी कर सकता हूँ। महाबली वीर!
तुम्हारी जो इच्छा हो, वही पूर्ण कर दूँगा" ।। ९--११ ।।
वैशम्पायन उवाच
भीमसेनस्तु तद् वाक््यं श्रुत्वा तस्य महात्मन: ।
प्रत्युवाच हनूमन्तं प्रह्ष्टेनान्तरात्मना ।। १२ ।।
कृतमेव त्वया सर्व मम वानरपुड्रव ।
स्वस्ति ते5स्तु महाबाहो कामये त्वां प्रसीद मे ।। १३ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! महात्मा हनुमानजीका यह वचन सुनकर
भीमसेनने हर्षोल्लासपूर्ण हृदयसे हनुमानजीको इस प्रकार उत्तर दिया--“वानरशिरोमणे!
आपने मेरा यह सब कार्य कर दिया। आपका कल्याण हो। महाबाहो! अब आपसे मेरी
इतनी ही कामना है कि आप मुझपर प्रसन्न रहिये--मुझपर आपकी कृपा बनी
रहे || १२-१३ ।।
सनाथा: पाण्डवा: सर्वे त्वया नाथेन वीर्यवन् ।
तवैव तेजसा सर्वान् विजेष्यामो वयं परान् ।। १४ ।।
'शक्तिशाली वीर! आप-जैसे नाथ (संरक्षक) को पाकर सब पाण्डव सनाथ हो गये।
आपके ही प्रभावसे हमलोग अपने सब शत्रुओंको जीत लेंगे” || १४ ।।
एवमुक्तस्तु हनुमान् भीमसेनमभाषत ।
भ्रातृत्वात् सौह्ृदाच्चैव करिष्यामि प्रियं तव ।। १५ ।।
भीमसेनके ऐसा कहनेपर हनुमानजीने उनसे कहा--“तुम मेरे भाई और सुहृद् हो,
इसलिये मैं तुम्हारा प्रिय अवश्य करूँगा” || १५ ।।
चमूं विगाह्[ शत्रूणां शरशक्तिसमाकुलाम् |
यदा सिंहरवं वीर करिष्यसि महाबल ।। १६ ।।
तदाहं बृंहयिष्यामि स्वरवेण रवं तव ।
विजयस्य ध्वजस्थश्न नादान् मोक्ष्यामि दारुणान् ।। १७ ।।
शत्रूणां ये प्राणहरा: सुखं येन हनिष्यथ ।
एवमाभाष्य हनुमांस्तदा पाण्डवनन्दनम् ॥। १८ ।।
मार्गमाख्याय भीमाय तत्रैवान्तरधीयत ।। १९ ।।
“महाबली वीर! जब तुम बाण और शक्तिके आघातसे व्याकुल हुई शत्रुओंकी सेनामें
घुसकर सिंहनाद करोगे, उस समय मैं अपनी गर्जनासे तुम्हारे उस सिंहनादको और बढ़ा
दूँगा। उसके सिवा अर्जुनकी ध्वजापर बैठकर मैं ऐसी भीषण गर्जना करूँगा, जो शत्रुओंके
प्राणोंको हरनेवाली होगी, जिससे तुमलोग उन्हें सुगमतासे मार सकोगे।” पाण्डवोंका
आनन्द बढ़ानेवाले भीमसेनसे ऐसा कहकर हनुमानजीने उन्हें जानेके लिये मार्ग बता दिया
और स्वयं वहीं अन्तर्धान हो गये || १६--१९ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां गन्धमादनप्रवेशे
हनुमद्धीमसंवादे एकपञठ्चाशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १५१ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोगशती र्थयात्राके प्रसंगमें
गन्धमादन पर्वतपर हनुमानजी और भीमसेनका संवादविषयक एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥। १५१ ॥।
हि आय न [हुक है
द्विपज्चाशर्दाधिकशततमो< ध्याय:
भीमसेनका सौगन्धिक वनमें पहुँचना
वैशम्पायन उवाच
गते तस्मिन् हरिवरे भीमो5पि बलिनां वर: ।
तेन मार्गेण विपुलं व्यचरद् गन्धमादनम् ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! उन कपिप्रवर हनुमानजीके चले जानेपर
बलवानोंमें श्रेष्ठ भीमसेन भी उनके बताये हुए मार्गसे विशाल गन्धमादन पर्वतपर विचरने
लगे ।। १ ।।
अनुस्मरन् वपुस्तस्य श्रियं चाप्रतिमां भुवि ।
माहात्म्यमनुभावं च स्मरन् दाशरथेर्यया ।। २ ।॥।
मार्गमें वे हनुमानजीके उस अद्भुत विशाल विग्रह और अनुपम शोभाका तथा
दशरथनन्दन श्रीरामचन्द्रजीके अलौकिक माहात्म्य एवं प्रभावका बारंबार स्मरण करते जाते
थे।।२।।
स तानि रमणीयानि वनान्युपवनानि च ।
विलोकयामास तदा सौगन्धिकवनेप्सया ।। ३ ।।
फुल्लद्रुमविचित्राणि सरांसि सरितस्तथा ।
नानाकुसुमचित्राणि पुष्पितानि वनानि च ।। ४ ।।
सौगन्धिक वनको प्राप्त करनेकी इच्छासे उन्होंने उस समय वहाँके सभी रमणीय वनों
और उपवनोंका अवलोकन किया। विकसित वृक्षोंके कारण विचित्र शोभा धारण करनेवाले
कितने ही सरोवर और सरिताओंपर दृष्टिपात किया तथा अनेक प्रकारके कुसुमोंसे अद्भुत
प्रतीत होनेवाले खिले फूलोंसे युक्त काननोंका भी निरीक्षण किया ।। ३-४ ।।
मत्तवारणयूथानि पड़कक्लिन्नानि भारत ।
वर्षतामिव मेघानां वृन्दानि ददृशे तदा ।। ५ ।।
भारत! उस समय बहते हुए मदके पंकसे भीगे मतवाले गजराजोंके अनेकानेक यूथ
वर्षा करनेवाले मेघोंके समूहके समान दिखलायी देते थे ।। ५ ।।
हरिणैश्वपलापाड्लैहरिणीसहितैरवनम् ।
सशष्पकवलै: श्रीमान् पथि दृष्ट्वा द्रुतं ययौ ।। ६ ।।
शोभाशाली भीमसेन मुहमें हटी घासका कौर लिये हुए चंचल नेत्रोंवाले हरिणों और
हरिणियोंसे युक्त उस वनकी शोभा देखते हुए बड़े वेगसे चले जा रहे थे ।। ६ ।।
महिषैश्न वराहैश्न शार्टूलैश्न निषेवितम् ।
व्यपेतभीर्गिरिं शौर्याद् भीमसेनो व्यगाहत ।। ७ ।।
उन्होंने अपनी अद्भुत शूरतासे निर्भय होकर भेंसों, वराहों और सिंहोंसे सेवित गहन
वनमें प्रवेश किया ।। ७ ।।
कुसुमानन्तगन्धैश्व ताम्रपललवकोमलै: ।
याच्यमान इवारण्ये ट्रुमैमारुतकम्पितै: ।। ८ ।।
फ़ूलोंकी अनन्त सुगन्धसे वासित तथा लाल-लाल पल्लवोंके कारण कोमल प्रतीत
होनेवाले वृक्ष हवाके वेगसे हिल-हिलकर मानो उस वनमें भीमसेनसे याचना कर रहे
थे।। ८ ।।
कृतपद्माज्जलिपुटा मत्तषट्पदसेविता: ।
प्रियतीर्थवना मार्गे प्शेनी: समतिक्रमन् ।। ९ |।
मार्गमें उन्हें अनेक ऐसी पुष्करिणियोंको लाँधचना पड़ा, जिनके घाट और वन देखनेमें
बहुत प्रिय लगते थे। मतवाले भ्रमर उनका सेवन करते थे तथा वे सम्पुटित कमलकोषोंसे
अलंकृत हो ऐसी जान पड़ती थीं, मानो उन्होंने कमलोंकी अंजलि बाँध रखी थी ।। ९ ।।
मज्जमानमनोटदृष्टि: फुल्लेषु गिरिसानुषु ।
द्रौोपदीवाक्यपाथेयो भीम: शीघ्रतरं ययौ ।। १० ।।
भीमसेनका मन और उनके नेत्र कुसुमोंसे अलंकृत पर्वतीय शिखरोंपर लगे थे।
द्रौपदीका अनुरोधपूर्ण वचन ही उनके लिये पाथेय था और इस अवस्थामें वे अत्यन्त
शीघ्रतापूर्वक चले जा रहे थे || १० ।।
परिवृत्तेडहनि ततः प्रकीर्णहरिणे वने ।
काज्चनैर्विमलै: पद्मैर्ददर्श विपुलां नदीम् ।। ११ ।।
दिन बीतते-बीतते भीमसेनने एक वनमें जहाँ चारों ओर बहुत-से हरिण विचर रहे थे,
सुन्दर सुवर्णमय कमलोंसे सुशोभित विशाल नदी देखी ।। ११ ।।
हंसकारण्डवयुतां चक्रवाकोपशोभिताम् |
रचितामिव तस्याद्रेमालां विमलपड्कजाम् ।। १२ ।।
उसमें हंस और कारण्डव आदि जलपक्षी निवास करते थे। चक्रवाक उसकी शोभा
बढ़ाते थे। वह नदी क्या थी उस पर्वतके लिये स्वच्छ सुन्दर कमलोंकी माला-सी रची गयी
थी ।। १२ ।।
तस्यां नद्यां महासत्त्वः सौगन्धिकवनं महत् |
अपश्यत् प्रीतिजननं बालार्कसदृशद्युति ।। १३ ।।
महान् धैर्य और उत्साहसे सम्पन्न वीरवर भीमसेनने उसी नदीमें विशाल सौगन्धिक वन
देखा, जो उनकी प्रसन्नताको बढ़ानेवाला था। उस वनमें प्रभातकालीन सूर्यकी भाँति प्रभा
फैल रही थी ।। १३ ।।
तद् दृष्टवा लब्धकाम: स मनसा पाण्डुनन्दन: ।
वनवासपरिक्लिष्टां जगाम मनसा प्रियाम् ।। १४ ।।
उस वनको देखकर पाण्डुनन्दन भीमने मन-ही-मन यह अनुभव किया कि मेरा मनोरथ
पूर्ण हो गया। फिर उन्हें वनवासके क्लेशोंसे पीड़ित अपनी प्रियतमा द्रौपदीकी याद आ
गयी ।। १४ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां सौगन्धिकाहरणे
द्विपज्चाशदधिकशततमो<्ध्याय: ।। १५२ |।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रस॑ंगमें
सौगन्धिक कमलको लानेसे सम्बन्ध रखनेवाला एक सौ बावनवाँ अध्याय पूरा
हुआ ॥/ १५२ ॥।
हि आय ० () हि २ 7
त्रिपठ्चाशदाधिकशततमोब< ध्याय:
क्रोधवश नामक राक्षसोंका भीमसेनसे सरोवरके निकट
आनेका कारण पूछना
वैशम्पायन उवाच
स गत्वा नलिनीं रम्यां राक्षसैरभिरक्षिताम् ।
कैलासशिखराभ्याशे ददर्श शुभकाननाम् ।। १ ||
कुबेरभवनाभ्याशे जातां पर्वतनिझरै: ।
सुरम्यां विपुलच्छायां नानाद्रुमलताकुलाम् ॥। २ ||
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! इस प्रकार आगे बढ़नेपर भीमसेनने कैलास
पर्वतके निकट कुबेरभवनके समीप एक रमणीय सरोवर देखा, जिसके आस-पास सुन्दर
वनस्थली शोभा पा रही थी। बहुत-से राक्षस उसकी रक्षाके लिये नियुक्त थे। वह सरोवर
पर्वतीय झरनोंके जलसे भरा था। वह देखनेमें बहुत ही सुन्दर, घनी छायासे सुशोभित तथा
अनेक प्रकारके वृक्षों और लताओंसे व्याप्त था ।। १-२ ।।
हरिताम्बुजसंच्छन्नां दिव्यां कनकपुष्कराम् ।
नानापक्षिजनाकीर्णा सूपतीर्थामकर्दमाम् ।। ३ ।।
हरे रंगके कमलोंसे वह दिव्य सरोवर ढका हुआ था। उसमें सुवर्णमय कमल खिले थे।
वह नाना प्रकारके पक्षियोंसे युक्त था। उसका किनारा बहुत सुन्दर था और उसमें कीचड़
नहीं था। ।। ३ ।।
अतीवरम्यां सुजलां जातां पर्वतसानुषु ।
विचित्रभूतां लोकस्य शुभामद्भुतदर्शनाम् ।। ४ ।।
वह सरोवर अत्यन्त रमणीय, सुन्दर जलसे परिपूर्ण, पर्वतीय शिखरोंके झरनोंसे उत्पन्न,
देखनेमें विचित्र, लोकके लिये मंगलकारक तथा अद्भुत दृश्यसे सुशोभित था ।। ४ ।।
तत्रामृतरसं शीतं लघु कुन्तीसुत: शुभम् |
ददर्श विमल॑ तोयं पिबंश्व बहु पाण्डव: ।। ५ ।।
उस सरोवरमें कुन्तीकुमार पाण्डुपुत्र भीमने अमृतके समान स्वादिष्ट, शीतल, हलका,
शुभकारक और निर्मल जल देखा तथा उसे भरपेट पीया ।। ५ ।।
तां तु पुष्करिणीं रम्यां दिव्यसौगन्धिकावृताम् ।
जातरूपमयै: पद्मैश्छन्नां परमगन्धिभि: ।। ६ ।।
वैदूर्यवरनालैश्व बहुचित्रैर्मनोरमै: ।
हंसकारण्डवोदधूतै: सृजद्धिरमलं रज: ।। ७ ।।
वह सरोवर दिव्य सौगन्धिक कमलोंसे आवृत तथा रमणीय था। परम सुगन्धित
सुवर्णमय कमल उसे ढँके हुए थे। उन कमलोंकी नाल उत्तम वैदूर्यमणिमय थी। वे कमल
देखनेमें अत्यन्त विचित्र और मनोरम थे। हंस और कारण्डव आदि पक्षी उन कमलोंको
हिलाते रहते थे, जिससे वे निर्मल पराग प्रकट किया करते थे ।। ६-७ ।।
आक्रीडं राजराजस्य कुबेरस्य महात्मन: ।
गन्धर्वैरप्सरोभिश्व देवैश्व परमार्चिताम् ।। ८ ।।
वह सरोवर राजाधिराज महाबुद्धिमान् कुबेरका क्रीडास्थल था। गन्धर्व, अप्सरा और
देवता भी उसकी बड़ी प्रशंसा करते थे ।। ८ ।।
सेवितामृषिभिर्दिव्यैर्यक्षे: किम्पुरुषैस्तथा ।
राक्षसै: किन्नरैश्वापि गुप्तां वैश्रवणेन च ।। ९ ।।
दिव्य ऋषि-मुनि, यक्ष, किम्पुरुष, राक्षत और किन्नर उसका सेवन करते थे तथा
साक्षात् कुबेरके द्वारा उसके संरक्षणकी व्यवस्था की जाती थी || ९ ।।
तां च दृष्टवैव कौन्तेयो भीमसेनो महाबल: ।
बभूव परमप्रीतो दिव्यं सम्प्रेक्ष्य तत् सर: ।॥ १० ।।
कुन्तीनन्दन महाबली भीमसेन उस दिव्य सरोवरको देखते ही अत्यन्त प्रसन्न हो
गये ।। १० ।।
तच्च क्रोधवशा नाम राक्षसा राजशासनात् ।
रक्षन्ति शतसाहसारश्रित्रायुधपरिच्छदा: ।। ११ ।।
महाराज कुबेरके आदेशसे क्रोधवश नामक राक्षस, जिनकी संख्या एक लाख थी,
विचित्र आयुध और वेशभूषासे सुसज्जित हो उसकी रक्षा करते थे ।। ११ ।।
ते तु दृष्टवैव कौन्तेयमजिनै: प्रतिवासितम् |
रुक्माड्रदधरं वीरं॑ भीम॑ भीमपराक्रमम् ॥। १२ ।।
सायुध॑ बद्धनिस्त्रिंशभशड्कितमरिंदमम् |
पुष्करेप्सुमुपायान्तमन्योन्यमभिचुक्रुशु: ।। १३ ।।
उस समय भयानक पराक्रमी कुन्तीकुमार वीरवर भीम अपने अंगोंमें मृगचर्म लपेटे हुए
थे। भुजाओंमें सोनेके अंगद (बाजूबंद) पहन रखे थे। वे धनुष और गदा आदि आयुधोंसे
युक्त थे। उन्होंने कमरमें तलवार बाँध रखी थी। वे शत्रुओंका दमन करनेमें समर्थ और
निर्भीक थे। उन्हें कमल लेनेकी इच्छासे वहाँ आते देख वे पहरा देनेवाले राक्षस आपसमें
कोलाहल करने लगे ।।
अयं पुरुषशार्दूल: सायुधोडजिनसंवृत: ।
यच्चिकीर्षरिह प्राप्तस्तत् सम्प्रष्टमिहारहथ ।। १४ ॥।
उनमें परस्पर इस प्रकार बातचीत हुई--'देखो, यह नरश्रेष्ठ मृगचर्मसे आच्छादित
होनेपर भी हाथमें आयुध लिये हुए है। यह यहाँ जिस कार्यके लिये आया है, उसे
पूछो” ।। १४ ।।
ततः: सर्वे महाबाहुं समासाद्य वृकोदरम् ।
तेजोयुक्तमपृच्छन्त कस्त्वमाख्यातुमहसि ।। १५ ।।
तब वे सब राक्षस परम तेजस्वी महाबाहु भीमसेनके पास आकर पूछने लगे--“तुम
कौन हो?” यह बताओ ।।
मुनिवेषधरश्वैव सायुधश्वैव लक्ष्यसे ।
यदर्थमभिसम्प्राप्तस्तदाचक्ष्व महामते ।। १६ ।।
“महामते! तुमने वेष तो मुनियोंका-सा धारण कर रखा है; परंतु आयुधोंसे सम्पन्न
दिखायी देते हो। तुम किसलिये यहाँ आये हो?” बताओ ।। १६ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां सौगन्धिकाहरणे
त्रिपउचाशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १५३ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रसंगमें
सौगन्धिकाहरणविषयक एक सौ तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १५३ ॥
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चतुष्पञ्चाशर्दाधेिकशततमो< ध्याय:
भीमसेनके द्वारा क्रोधवश नामक राक्षसोंकी पराजय और
द्रोपदीके लिये सौगन्धिक कमलोंका संग्रह करना
भीम उवाच
पाण्डवो भीमसेनो<हं धर्मराजादनन्तर: ।
विशालां बदरीं प्राप्तो भ्रातृभि: सह राक्षसा: ।। १ ।।
अपश्यत् तत्र पाज्चाली सौगन्धिकमनुत्तमम् |
अनिलोढमितो नूनं सा बहूनि परीप्सति ।। २ ।।
भीमसेन बोले--राक्षसो! मैं धर्मराज युधिष्ठिरका छोटा भाई पाण्डुपुत्र भीमसेन हूँ
और भाइयोंके विशाला बदरी नामक तीर्थमें आकर ठहरा हूँ। वहाँ पाउ्चालराजकुमारी
द्रौपदीने सौगन्धिक नामक एक परम उत्तम कमल देखा। उसे देखकर वह उसी तरहके और
भी बहुत-से पुष्प प्राप्त करना चाहती है, जो निश्चय ही यहींसे हवामें उड़कर वहाँ पहुँचा
होगा ।। १-२ ।।
तस्या मामनवद्याड्या धर्मपत्न्या: प्रिये स्थितम्
पुष्पाहारमिह प्राप्त निबोधत निशाचरा: ।। ३ ।।
निशाचरो! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि मैं उसी अनिन््द्य सुन्दरी धर्मपत्नीका प्रिय
मनोरथ पूर्ण करनेके लिये उद्यत हो बहुत-से सौगन्धिक पुष्पोंका अपहरण करनेके लिये ही
यहाँ आया हूँ ।। ३ ।।
राक्षसा ऊचु:
आक्रीडो<यं कुबेरस्य दयित: पुरुषर्षभ ।
नेह शक्यं मनुष्येण विहर्तु मर्त्यधर्मणा ।। ४ ।।
राक्षसोंने कहा--नरश्रेष्ठ. यह सरोवर कुबेरकी परम प्रिय क्रीड़ास्थली है। इसमें
मरणधर्मा मनुष्य विहार नहीं कर सकता ।। ४ ।।
देवर्षयस्तथा यक्षा देवाश्नात्र वृकोदर ।
आमन्त्रय यक्षप्रवरं पिबन्ति रमयन्ति च ।
गन्धर्वाप्सरसश्वैव विहरन्त्यत्र पाण्डव ।। ५ ।।
वृकोदर! देवर्षि, यक्ष तथा देवता भी यक्षराज कुबेरकी अनुमति लेकर ही यहाँका जल
पीते और इसमें विहार करते हैं। पाण्डुनन्दन! गन्धर्व और अप्सराएँ भी इसी नियमके
अनुसार यहाँ विहार करती हैं ।। ५ ।।
अन्यायेनेह यः कश्रनिदवमान्य धनेश्वरम् ।
विहर्तुमिच्छेद् दुर्वत्त: स विनश्येन्न संशय: ।। ६ ।।
जो कोई दुराचारी पुरुष धनाध्यक्ष कुबेरकी अवहेलना करके अन्यायपूर्वक यहाँ विहार
करना चाहेगा, वह नष्ट हो जायगा, इसमें संशय नहीं है || ६ ।।
तमनादृत्य पद्मानि जिहीर्षसि बलादृत: ।
धर्मराजस्य चात्मानं ब्रवीषि भ्रातरं कथम् ।। ७ ।।
भीमसेन! तुम अपने बलके घमंडमें आकर कुबेरकी अवहेलना करके यहाँसे
कमलपुष्पोंका अपहरण करना चाहते हो। ऐसी दशामें अपने-आपको धर्मराजका भाई कैसे
बता रहे हो? ।। ७ ।।
आमन्त्र्य यक्षराजं॑ वै तत: पिब हरस्व च ।
नातो<न्यथा त्वया शक््यं किंचित् पुष्करमीक्षितुम् ।। ८ ।।
पहले यक्षराजकी आज्ञा ले लो, उसके बाद इस सरोवरका जल पीओ और यहाँसे
कमलके फूल ले जाओ। ऐसा किये बिना तुम यहाँके किसी कमलकी ओर देख भी नहीं
सकते ।। ८ ।।
भीमसेन उवाच
राक्षसास्तं न पश्यामि धनेश्वरमिहान्तिके ।
दृष्टवापि च महाराजं नाहं याचितुमुत्सहे ।। ९ ।।
न हि याचन्ति राजान एष धर्म: सनातन: ।
न चाहं हातुमिच्छामि क्षात्रधर्म कथंचन || १० ।।
भीमसेन बोले--राक्षसो! प्रथम तो मैं यहाँ आस-पास कहीं भी धनाध्यक्ष कुबेरको
देख नहीं रहा हूँ, दूसरे यदि मैं उन महाराजको देख भी लूँ तो भी उनसे याचना नहीं कर
सकता, क्योंकि क्षत्रिय किसीसे कुछ माँगते नहीं हैं, यही उनका सनातन धर्म है। मैं किसी
तरह क्षात्र-धर्मको छोड़ना नहीं चाहता || ९-१० ||
इयं च नलिनी रम्या जाता पर्वतनिर्झरे ।
नेयं भवनमासाद्य कुबेरस्प महात्मन: ।। ११ ।।
यह रमणीय सरोवर पर्वतीय झरनोंसे प्रकट हुआ है, यह महामना कुबेरके घरमें नहीं
है ।। ११ ||
तुल्या हि सर्वभूतानामियं वैश्रवणस्य च ।
एवं गतेषु द्रव्येषु कः क॑ याचितुमर्हति ।। १२ ।।
अतः इसपर अन्य सब प्राणियोंका और कुबेरका भी समान अधिकार है। ऐसी
सार्वजनिक वस्तुओंके लिये कौन किससे याचना करेगा? ।। १२ ।।
वैशम्पायन उवाच
इत्युक्त्वा राक्षसान् सर्वान् भीमसेनो हामर्षण: ।
व्यगाहत महाबाहुरनलिनीं तां महाबल:ः ।। १३ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! सभी राक्षसोंसे ऐसा कहकर अमर्षमें भरे हुए
महाबली महाबाहु भीमसेन उस सरोवरमें प्रवेश करने लगे ।। १३ ।।
ततः स राक्षसैर्वाचा प्रतिषिद्ध: प्रतापवान् ।
मा मैवमिति सक्रोधैर्भर्सयद्धि: समन््ततः ।। १४ ।।
उस समय क्रोधमें भरे राक्षस चारों ओरसे प्रतापी भीमको फटकारते हुए वाणीद्वारा
रोकने लगे--“नहीं-नहीं, ऐसा न करो' ।। १४ ।।
कदर्थीकृत्य तु स तान् राक्षसान् भीमविक्रम: ।
व्यगाहत महातेजास्ते तं सर्वे न््यवारयन् ।। १५ ।।
परंतु भयंकर पराक्रमी महातेजस्वी भीम उन सब राक्षसोंकी अवहेलना करके उस
जलाशयमें उतर ही गये। यह देख सब राक्षस उन्हें रोकनेकी चेष्टा करते हुए चिल्ला उठे
-- || १५ ||
गृह्नीत बध्नीत विकर्ततेम॑ं
पचाम खादाम च भीमसेनम् |
क्रुद्धा ब्रुवन्तो डभिययुर्द्रतं ते
शस्त्राणि चोट्यम्य विवृत्तनेत्रा: | १६ ।।
“अरे! इसे पकड़ो, बाँध लो, काट डालो, हम सब लोग इस भीमको पकायेंगे और खा
जायँगे।” क्रोधपूर्वक उपर्युक्त बातें कहते और आँखें फाड़-फाड़कर देखते हुए वे सभी
राक्षस शस्त्र उठाकर तुरंत उनकी ओर दौड़े ।। १६ ।।
ततः स गुर्वी यमदण्डकल्पां
महागदां काञ्चनपट्टनद्धाम् ।
प्रगृह्दा तानभ्यपत॒त् तरस्वी
ततोड<ब्रवीत् तिष्ठत तिष्ठतेति ।। १७ ।।
तब भीमसेनने यमदण्डके समान विशाल और भारी गदा उठा ली, जिसपर सोनेका
पत्र मढ़ा हुआ था। उसे लेकर वे बड़े वेगसे उन राक्षसोंपर टूट पड़े और ललकारते हुए बोले
-- खड़े रहो, खड़े रहो” ।। १७ ।।
ते तं तदा तोमरपट्टिशाद्यि-
व्यविद्धशस्त्रै: सहसा निपेतु: ।
जिघांसव: क्रोधवशा: सुभीमा
भीम॑ समन्तात् परिवद्रुरुग्रा: । १८ ।।
वातेन कुन्त्यां बलवान् सुजात:
शूरस्तरस्वी द्विषतां निहन्ता ।
सत्ये च धर्मे च रत: सदैव
पराक्रमे शत्रुभिरप्रधृष्य: ।। १९ ।।
यह देख वे भयंकर क्रोधवश नामक राक्षस भीमसेनको मार डालनेकी इच्छासे
शत्रुओंके शस्त्रोंको नष्ट कर देनेवाले तोमर, पट्टिश आदि आयुधोंको लेकर सहसा उनकी
ओर दौड़े और उन्हें चारों ओरसे घेरकर खड़े हो गये। वे सब-के-सब बड़े उग्र स्वभावके थे।
इधर भीमसेन कुन्तीदेवीके गर्भसे वायु देवताके द्वारा उत्पन्न होनेके कारण बड़े बलवान,
शूरवीर, वेगशाली एवं शत्रुओंका वध करनेमें समर्थ थे। वे सदा ही सत्य एवं धर्ममें रत थे।
पराक्रमी तो वे ऐसे थे कि अनेक शत्रु मिलकर भी उन्हें परास्त नहीं कर सकते
थे।। १८-१९ |।
तेषां स मार्गान् विविधान् महात्मा
विहत्य शस्त्राणि च शात्रवाणाम् |
यथा प्रवीरान् निजघान भीम:
परं शतं पुष्करिणीसमीपे ।। २० ।।
महामना भीमने शत्रुओंके भाँति-भाँतिके पैंतरों तथा अस्त्र-शस्त्रोंकी विफल करके
उनके सौसे भी अधिक प्रमुख वीरोंको उस सरोवरके समीप मार गिराया ।। २० ।।
ते तस्य वीर्य च बल॑ च दृष्टवा
विद्याबलं बाहुबलं तथैव ।
अशवनुवन्त: सहितं समन्ताद्
द्रुतं प्रवीरा: सहसा निवृत्ता: ।। २१ ।।
भीमसेनका पराक्रम, शारीरिक बल, विद्याबल और बाहुबल देखकर वे वीर राक्षस एक
साथ संगठित होकर भी उनका वेग सहनेमें असमर्थ हो गये और सहसा सब ओससे युद्ध
छोड़कर निवृत्त हो गये | २१ ।।
विदीर्यमाणास्तत एव तूर्ण-
माकाशमास्थाय विमूढसंज्ञा: ।
कैलासश्ज्ण्यभिदुद्र॒वुस्ते
भीमार्दिता: क्रोधवशा: प्रभग्ना: ।। २२ ।।
भीमसेनकी मारसे क्षत-विक्षत एवं पीड़ित हो वे क्रोधवश नामक राक्षस अपनी सुध-
बुध खो बैठे थे। अतः उनके पाँव उखड़ गये और वे तुरंत वहाँसे आकाशमें उड़कर
कैलासके शिखरोंपर भाग गये ।। २२ ।।
स शक्रवद् दानवदैत्यसड्घान्
विक्रम्य जित्वा च रणेडरिसड्घान् ।
विगाह्द[ तां पुष्करिणीं जितारि:
कामाय जग्राह ततो<म्बुजानि ।। २३ ।।
शत्रुविजयी भीम इन्द्रकी भाँति पराक्रम करके दानव और दैत्योंके दलको युद्धमें
हराकर उस सरोवरमें प्रविष्ट हो इच्छानुसार कमलोंका संग्रह करने लगे || २३ ।।
ततः स पीत्वामृतकल्पमम्भो
भूयो बभूवोत्तमवीर्यतेजा: ।
उत्पाट्य जग्राह च सो<म्बुजानि
सौगन्धिकान्युत्तमगन्धवन्ति ।। २४ ।।
तदनन्तर उस सरोवरका अमृतके समान मधुर जल पीकर वे पुनः उत्तम बल और
तेजसे सम्पन्न हो गये और श्रेष्ठ सुगन्धसे युक्त सौगन्धिक कमलोंको उखाड़-उखाड़कर
संगृहीत करने लगे || २४ ।।
ततस्तु ते क्रोधवशा: समेत्य
धनेश्वरं भीमबलप्रणुन्ना: ।
भीमस्य वीर्य च बल॑ च संख्ये
यथावदाचख्युरतीव भीता: ।। २५ ।।
तब भीमसेनके बलसे पीड़ित और अत्यन्त भयभीत हुए क्रोधवशोंने धनाध्यक्ष कुबेरके
पास जाकर युद्धमें भीमके बल और पराक्रमका यथावत् वृत्तान्त कह सुनाया || २५ ।।
तेषां वचस्तत् तु निशम्य देव:
प्रहस्य रक्षांसि ततो5भ्युवाच ।
गृह्नातु भीमो जलजानि कामात्
कृष्णानिमित्तं विदितं ममैतत् ।। २६ ।।
उनकी बातें सुनकर देवप्रवर कुबेरने हँसकर उन राक्षसोंसे कहा--“मुझे यह मालूम है।
भीमसेनको द्रौपदीके लिये इच्छानुसार कमल ले लेने दो” ।। २६ ।।
ततोअभ्यनुज्ञाप्य धनेश्वरं ते
जग्मु: कुरूणां प्रवरं विरोषा: |
भीमं च तस्यां ददृशुर्नलिन्यां
यथोपजोषं विहरन्तमेकम् ।। २७ ।।
तब धनाध्यक्षकी आज्ञा पाकर वे राक्षस रोषरहित हो कुरुप्रवर भीमके पास गये और
उन्हें अकेले ही उस सरोवरमें इच्छानुसार विहार करते देखा || २७ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां सौगन्धिकाहरणे
चतुष्पड्चाशदधिकशततमो<्ध्याय: ।। १५४ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रस॑ंगमें
सौगन्धिकाहरणविषयक एक सौ चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १५४ ॥।
अऑडआ हटर () है ०
पञ्चपञ्चाशर्दाधिकशततमो& ध्याय:
भयंकर उत्पात देखकर युधिष्ठिर आदिकी चिन्ता और
सबका गन्धमादन-पर्वतपर सौगन्धिकवनमें भीमसेनके
पास पहुँचना
वैशम्पायन उवाच
ततस्तानि महाहाणि दिव्यानि भरतर्षभ ।
बहूनि बहुरूपाणि विरजांसि समाददे ॥। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--भरतश्रेष्ठ, तदनन्तर भीमसेनने अनेक प्रकारके बहुमूल्य,
दिव्य और निर्मल बहुत-से सौगन्धिक कमल संगृहीत कर लिये ।। १ ।।
ततो वायुर्महान् शीघ्रो नीचै: शर्करकर्षण: ।
प्रादुरासीत् खरस्पर्श: संग्राममभिचोदयन् ।। २ ।।
इसी समय गन्धमादन पर्वतपर तीव्र वेगसे बड़े जोरकी आँधी उठी, जो नीचे कंकड़-
बालूकी वर्षा करनेवाली थी। उसका स्पर्श तीक्ष्ण था। वह किसी भारी संग्रामकी सूचना
देनेवाली थी ।। २ ।।
पपात महती चोल्का सनिर्घाता महाभया ।
निष्प्रभश्चाभवत् सूर्यश्छन्नरश्मिस्तमोवृत: ।। ३ ।।
वज्रकी गड़गड़ाहटके साथ अत्यन्त भयदायक भारी उल्कापात होने लगा। सूर्य
अन्धकारसे आवृत हो प्रभाशून्य हो गये। उनकी किरणें आच्छादित हो गयीं ।। ३ ।।
निर्घातश्चाभवद् भीमो भीमे विक्रममास्थिते ।
चचाल पृथिवी चापि पांसुवर्ष पपात च ।। ४ ।।
जिस समय भीम राक्षसोंके साथ युद्धमें भारी पराक्रम दिखा रहे थे, उस समय पृथ्वी
हिलने लगी, आकाशमें भीषण गर्जना होने लगी और धूलकी वर्षा आरम्भ हो गयी ।। ४ ।।
सलोहिता दिशश्वासन् खरवाचो मृगद्धिजा: ।
तमोवृतमभूत् सर्व न प्राज्ञायत किंचन ।। ५ ।।
सम्पूर्ण दिशाएँ लाल हो गयी, मृग और पक्षी कठोर शब्द करने लगे, सारा जगत्
अन्धकारसे आच्छन्न हो गया और किसीको कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था ।। ५ ।।
अन्ये च बहवो भीमा उत्पातास्तत्र जज्ञिरे
तदद्भुतमभिप्रेक्ष्य धर्मपुत्रो युधिष्ठिर: ।। ६ ।।
उवाच वदतां श्रेष्ठ; को5स्मानभिभविष्यति ।
सज्जीभवत भद्ठं वः पाण्डवा युद्धदुर्मदा: ।। ७ ।।
यथारूपाणि पश्यामि स्वभ्यग्रो न: पराक्रम: ।
एवमुक््त्वा ततो राजा वीक्षाज्चक्रे समन्ततः ।। ८ ।।
इसके सिवा और भी बहुत-से भयानक उत्पात वहाँ प्रकट होने लगे। यह अद्भुत घटना
देखकर वक्ताओमें श्रेष्ठ धर्मपुत्र युधिष्ठिरने कहा--“कौन हम लोगोंको पराजित कर सकेगा?
रणोन्मत्त पाण्डवो! तुम्हारा भला हो, तुम युद्धके लिये तैयार हो जाओ। मैं जैसे लक्षण देख
रहा हूँ, उससे पता लगता है कि हमारे लिये पराक्रम दिखानेका समय अत्यन्त निकट आ
गया है।' ऐसा कहकर राजा युधिष्छिरने चारों ओर दृष्टिपात किया || ६--८ ।।
अपश्यमानो भीम॑ तु धर्मपुत्रो युधिष्ठिर: ।
ततः कृष्णां यमौ चापि समीपस्थावरिंदम: ।। ९ |।
पप्रच्छ भ्रातरं भीम॑ भीमकर्माणमाहवे ।
कच्चित् क्व भीम: पाज्चालि किंचित् कृत्यं चिकीर्षति ।। १० ।।
जब भीम नहीं दिखायी दिये, तब शत्रुदमन धर्मनन्दन युधिष्ठिरने द्रौपदी तथा पास ही
बैठे हुए नकुल-सहदेवसे अपने भाई भीमके सम्बन्धमें, जो रणभूमिमें भयानक कर्म
करनेवाले थे, पूछा--'पांचाल-राजकुमारी! भीमसेन कहाँ है? क्या वे कोई काम करना
चाहते हैं? || ९-१० ।।
कृतवानपि वा वीर: साहसं साहसप्रिय: ।
इमे हाकस्मादुत्पाता महासमरदर्शना: ।। ११ ।।
“अथवा साहसप्रेमी वीरवर भीमने कोई साहसका कार्य तो नहीं कर डाला? यह
अकस्मात् प्रकट हुए उत्पात महान् युद्धके सूचक हैं || ११ ।।
दर्शयन्तो भयं तीव्रं प्रादुर्भूता:ः समन्तत: ।
त॑ तथावादिन कृष्णा प्रत्युवाच मनस्विनी ।
प्रिया प्रियं चिकीर्षन्ती महिषी चारुहासिनी ।। १२ ।।
'ये चारों ओर तीव्र भयका प्रदर्शन करते हुए प्रकट हो रहे हैं।” धर्मराज युधिष्ठिरको
ऐसी बातें करते देख मनोहर मुसकानवाली मनस्विनी महारानी पतिप्रिया द्रौपदीने उनका
प्रिय करनेकी इच्छासे इस प्रकार उत्तर दिया ।।
द्रौपहयुवाच
यत् तत् सौगन्धिकं राजन्नाह्ृतं मातरिश्वना ।
तन््मया भीमसेनस्य प्रीतयाद्योपपादितम् ।। १३ ।।
अपि चोक्तो मया वीरो यदि पश्येब॑हृन्यपि ।
तानि सर्वाण्युपादाय शीघ्रमागम्यतामिति ।। १४ ।।
द्रौपदी बोली--राजन्! आज जो सौगन्धिक पुष्प वायु उड़ा लायी थी, उसे मैंने
प्रसन्नतापूर्वक भीमसेनको दिया और उन वीरशिरोमणिसे यह भी कहा कि “यदि इसी
तरहके बहुत-से पुष्प तुम्हें दिखायी दें, तो उन सबको लेकर शीघ्र यहाँ लौट
आना” || १३-१४ ||
सतु नूनं महाबाहु: प्रियार्थ मम पाण्डव: ।
प्रागुदीचीं दिशं राजंस्तान्याह्तुमितो गत: ।। १५ ।।
महाराज! मालूम होता है कि वे महाबाहु पाण्डुकुमार निश्चय ही मेरा प्रिय करनेके लिये
उन्हीं फूलोंको लानेके निमित्त यहाँसे पूर्वोत्तर दिशाको गये हैं || १५ ।।
उक्तस्त्वेवं तया राजा यमाविदमथाब्रवीत् |
गच्छाम सहितास्तूर्ण येन यातो वृकोदर: ।। १६ ।।
द्रौपदीके ऐसा कहनेपर राजा युधिष्ठिरने नकुल-सहदेवसे इस प्रकार कहा--“अब हम
लोग भी एक साथ शीघ्र ही उस मार्गपर चलें' जिससे भीमसेन गये हैं ।। १६ ।।
वहन्तु राक्षसा विप्रान् यथाश्रान्तान् यथाकृशान् |
त्वमप्यमरसंकाश वह कृष्णां घटोत्कच ।। १७ ।।
“देवताओंके समान तेजस्वी घटोत्कच! तुम्हारे साथी राक्षस लोग इन ब्राह्मणोंको, जो
जैसे थके और दुर्बल हों, उसके अनुसार कंधेपर बिठाकर ले चलें और तुम भी द्रौपदीको ले
चलो || १७ ||
व्यक्त दूरमितो भीम: प्रविष्ट इति मे मतिः ।
चिरं च तस्य कालो<5यं स च वायुसमो जवे ॥। १८ ।।
तरस्वी वैनतेयस्य सदृशो भुवि लंघने ।
उत्पतेदषि चाकाशं निपतेच्च यथेच्छकम् ।। १९ ।।
“यह स्पष्ट जान पड़ता है कि भीमसेन यहाँसे बहुत दूर चले गये हैं, मेरा यही विश्वास है।
क्योंकि उनको गये बहुत समय हो गया है तथा वे वेगमें वायुके समान हैं और इस पृथ्वीको
लाँघनेमें गरुड़के समान शीघ्रगामी हैं। वे आकाशमें छलाँग मार सकते हैं और इच्छानुसार
कहीं भी कूद सकते हैं ।। १८-१९ ।।
तमन्वियाम भवतां प्रभावाद् रजनीचरा: ।
पुरा स नापराध्नोति सिद्धानां ब्रह्मवादिनाम् ।। २० ।।
“निशाचरो! भीमसेन ब्रह्मवादी सिद्धोंका कुछ अपराध न कर पावें, इसके पहले ही
तुम्हारे प्रभावसे हम उन्हें ढूँढ़ निकालें! || २० ।।
तथेत्युक्त्वा तु ते सर्वे हैडिम्बप्रमुखास्तदा ।
उद्देशज्ञा: कुबेरस्य नलिन्या भरतर्षभ ।। २१ ।।
आदाय पाण्डवांश्वैव तांश्ष विप्राननेकश: ।
लोमशेनैव सहिता: प्रययु: प्रीतमानसा: ।। २२ ।।
जनमेजय! तब कुबेरके उस सरोवरका पता जाननेवाले उन घटोत्कच आदि सब
राक्षसोंने “तथास्तु/ कहकर पाण्डवों तथा उन अनेकानेक ब्राह्मणोंको कंधेपर बैठाकर
लोमशजीके साथ वहाँसे प्रसन्नतापूर्वक प्रस्थान किया || २१-२२ ।।
ते सर्वे त्वरिता गत्वा ददृुशु: शुभकाननाम् |
पद्मसौगन्धिकवतीं नलिनीं सुमनोरमाम् ।। २३ ।।
उन सबने शीघ्रतापूर्वक जाकर सुन्दर वनस्थलीसे सुशोभित वह अत्यन्त मनोरम
सरोवर देखा, जिसमें सौगन्धिक कमल थे ।। २३ ।।
तं च भीम॑ महात्मानं तस्यास्तीरे मनस्विनम् ।
ददृशुर्निहतांश्चैव यक्षांश्व विपुलेक्षणान् ।। २४ ।।
भिन्नकायाक्षिबाहूरून् संचूर्णितशिरोधरान् ।
तं च भीम॑ महात्मानं तस्यास्तीरे व्यवस्थितम् ।। २५ ।।
उसके तटपर मनस्वी महामना भीमको तथा उनके द्वारा मारे गये बड़े-बड़े नेत्रोंवाले
यक्षोंको भी देखा--जिनके शरीर, नेत्र, भुजाएँ और जाँचें छिन्न-भिन्न हो गयी थीं, गर्दन
कुचल दी गयी थी, महात्मा भीम उस सरोवरके तटपर खड़े थे || २४-२५ ।।
सक्रोध॑ स्तब्धनयनं संदष्टदशनच्छदम् ।
उद्यम्य च गदां दोर्भ्या नदीतीरेष्ववस्थितम् ।। २६ ।।
उनका क्रोध शान्त नहीं हुआ था। उनकी आँखें स्तब्ध हो रही थीं। वे दोनों हाथोंसे गदा
उठाये और दाँतोंसे ओठ दबाये नदीके तटपर खड़े थे || २६ ।।
प्रजासंक्षेपसमये दण्डहस्तमिवान्तकम् ।
त॑ं दृष्टवा धर्मराजस्तु परिष्वज्य पुन: पुन: ॥। २७ ।।
उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता था, मानो प्रजाके संहारकालमें दण्ड हाथमें लिये
यमराज खड़े हों। भीमसेनको उस अवस्थामें देखकर धर्मराजने उन्हें बार-बार हृदयसे
लगाया ।। २७ ||
उवाच श्लक्ष्णया वाचा कौन्तेय किमिदं कृतम् |
साहसं बत भद्र ते देवानामथ चाप्रियम् ।। २८ ।।
और मधुर वाणीमें कहा--“कुन्तीनन्दन! यह तुमने क्या कर डाला? तुम्हारा कल्याण
हो। खेदके साथ कहना पड़ता है कि तुम्हारा यह कार्य साहसपूर्ण है और देवताओंके लिये
अप्रिय है ।। २८ ।।
पुनरेवं न कर्तव्यं मम चेदिच्छसि प्रियम् ।
अनुशिष्य तु कौन्तेयं पद्मानि परिगृह्मु च ।। २९ ।।
तस्यामेव नलिन्यां तु विजहुरमरोपमा: ।
एतस्मिन्नेव काले तु प्रगृहीतशिलायुधा: ।। ३० ।।
प्रादुरासन् महाकायास्तस्योद्यानस्य रक्षिण: ।
ते दृष्टवा धर्मराजानं महर्षि चापि लोमशम् ।। ३१ ।।
नकुलं सहदेवं च तथान्यान् ब्राह्मणर्षभान् |
विनयेन नता: सर्वे प्रणिपत्य च भारत ।। ३२ ।।
सान्त्विता धर्मराजेन प्रसेदु: क्षणदाचरा: ।
विदिताश्च कुबेरस्य तत्र ते कुरुपुड्रवा: ।। ३३ ।।
ऊषुर्नातिचिरं कालं॑ रममाणा: कुरूद्वहा: |
प्रतीक्षमाणा बीभत्सुं गन्धमादनसानुषु ।। ३४ ।।
“यदि मेरा प्रिय करना चाहते हो तो फिर ऐसा काम न करना।” भीमसेनको ऐसा
उपदेश देकर उन्होंने पूर्वोक्त सौगन्धिक कमल ले लिये और वे देवोपम पाण्डव उसी
सरोवरके तटपर इधर-उधर भ्रमण करने लगे। इसी समय शिलाओंको आयुधरूपमें ग्रहण
किये, बहुत-से विशालकाय उद्यानरक्षक वहाँ प्रकट हो गये। भारत! उन्होंने धर्मराज
युधिष्ठिर, महर्षि लोमश, नकुल-सहदेव तथा अन्यान्य श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको विनयपूर्वक
नतमस्तक होकर प्रणाम किया। फिर धर्मराज युधिष्ठिरने उन्हें सान्त्वना दी। इससे वे
निशाचर (राक्षस) प्रसन्न हो गये। तदनन्तर वे कुरुप्रवर पाण्डव धनाध्यक्ष कुबेरकी
जानकारीमें कुछ कालतक वहाँ आनन्दपूर्वक टिके रहे और गन्धमादन पर्वतके शिखरोंपर
अर्जुनके आगमनकी प्रतीक्षा करते रहे | २९--३४ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां सौगन्धिकाहरणे
पजञ्चपञ्चाशदधिकशततमोड< ध्याय: ।। १५५ ||
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशती र्थयात्राके प्रसंगमें
सौगन्धिकाहरणविषयक एक सौ पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १५५ ॥/
हि >> आय न [हुक हि 7
षट्पज्चाशर्दाधेकशततमो< ध्याय:
पाण्डवोंका आकाशवाणीके आदेशसे पुनः नर-
नारायणाश्रममें लौटना
वैशम्पायन उवाच
तस्मिन् निवसमानो<5थ धर्मराजो युधिष्ठिर: ।
कृष्णया सहितान् भ्रातृ्नित्युवाच सहद्विजान् ॥। १ ||
वैशम्पायनजी कहते है--जनमेजय! उस सौगन्धिक सरोवरके तटपर निवास करते
हुए धर्मराज युधिष्ठिरने एक दिन ब्राह्मणों तथा द्रौपदीसहित अपने भाइयोंसे इस प्रकार कहा
-- || १ ||
दृष्टानि तीर्थान्यस्माभि: पुण्यानि च शिवानि च ।
मनसो ह्वादनीयानि वनानि च पृथक् पृथक् । २ ।।
“हम लोगोंने अनेक पुण्यदायक एवं कल्याण-स्वरूप तीर्थोंके दर्शन किये। मनको
आह्लाद प्रदान करनेवाले भिन्न-भिन्न वनोंका भी अवलोकन किया || २ ।।
देवै: पूर्व विचीर्णानि मुनिभिश्च महात्मभि: ।
यथाक्रमविशेषेण द्विजै: सम्पूजितानि च ।। ३ ।।
*वे तीर्थ और वन ऐसे थे, जहाँ पूर्वकालमें देवता और महात्मा, मुनि विचरण कर चुके
हैं तथा क्रमश: अनेक द्विजोंने उनका समादर किया है ।। ३ ।।
ऋषीणां पूर्वचरितं तथा कर्म विचेष्टितम् ।
राजर्षीणां च चरितं कथाश्च विविधा: शुभा: ।। ४ ।।
शृण्वानास्तत्र तत्र सम आश्रमेषु शिवेषु च ।
अभिषेक द्विजै: सार्थ कृतवन्तो विशेषत: ।। ५ ।।
“हमने ऋषियोंके पूर्वचरित्र, कर्म और चेष्टाओंकी कथा सुनी है। राजर्षियोंके भी चरित्र
और भाँति-भाँतिकी शुभ कथाएँ सुनते हुए मंगलमय आश्रमोंमें विशेषत: ब्राह्मणोंके साथ
तीर्थस्नान किया है ।। ४-५ ।।
अर्चिता: सतत देवा: पुष्पैरद्धि: सदा च वः ।
यथालब्धैर्मूलफलै: पितरश्नापि तर्पिता: ।। ६ ।।
“हमने सदा फूल और जलसे देवताओंकी पूजा की है और यथाप्राप्त फल-मूलसे
पितरोंको भी तृप्त किया है ।। ६ ।।
पर्वतेषु च रम्येषु सर्वेषु च सरस्सु च ।
उदधौ च महापुण्ये सूपस्पृष्टं महात्मभि: ।। ७ ।।
“रमणीय पर्वतों और समस्त सरोवरोंमें विशेषत: परम पुण्यमय समुद्रके जलमें इन
महात्माओंके साथ भलीभाँति स्नान एवं आचमन किया है ।। ७ ।।
इला सरस्वती सिन्धुर्यमुना नर्मदा तथा ।
नानातीर्थेषु रम्येषु सूपस्पृष्ट सह द्विजै:ः ॥। ८ ।।
“इला, सरस्वती, सिंधु, यमुना तथा नर्मदा आदि नाना रमणीय तीथोोमें भी ब्राह्मणोंके
साथ विधिवत् स्नान और आचमन किया है ।। ८ ।।
गड्जाद्वारमतिक्रम्प बहव: पर्वता: शुभा: |
हिमवान् पर्वतश्नैव नानाद्विजगणायुत: ।। ९ ।।
“गंगाद्वार (हरिद्वार)-को लाँचकर बहुत-से मंगलमय पर्वत देखे तथा बहुसंख्यक
ब्राह्मणोंसे युक्त हिमालय पर्वतका भी दर्शन किया ।। ९ |।
विशाला बदरी दृष्टा नरनारायणाश्रम: ।
दिव्या पुष्करिणी दृष्टा सिद्धदेवर्षिपूजिता ।। १० ।।
“विशाल बदरीतीर्थ, भगवान् नर-नारायणके आश्रम तथा सिद्धों और देवर्षियोंसे पूजित
इस दिव्य सरोवरका भी दर्शन किया || १० ।।
यथाक्रमविशेषेण सर्वाण्यायतनानि च ।
दर्शितानि द्विजश्रेष्ठा लोमशेन महात्मना ।। १३१ ||
“विप्रवरो! महात्मा लोमशजीने हमें सभी पुण्य-स्थानोंके क्रमश: दर्शन कराये
हैं ।। ११ ।।
इमं॑ वैश्रवणावासं पुण्यं सिद्धनिषेवितम् ।
कथं भीम गमिष्यामो गतिरन्तरधीयताम् ।। १२ ।।
'भीमसेन! यह सिद्धसेवित पुण्यप्रदेश कुबेरका निवासस्थान है। अब हम कुबेरके
भवनमें कैसे प्रवेश करेंगे? इसका उपाय सोचो” ।। १२ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवं ब्रुवति राजेन्द्रे वागुवाचाशरीरिणी ।
न शक्यो दुर्गमो गन्तुमितो वैश्रवणाश्रमात् ।। १३ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--महाराज युधिष्ठिरके ऐसा कहते ही आकाशवाणी बोल उठी
--“कुबेरके इस आश्रमसे आगे जाना सम्भव नहीं है। यह मार्ग अत्यन्त दुर्गम है ।। १३ ।।
अनेनैव पथा राजन् प्रतिगच्छ यथागतम् |
नरनारायणस्थानं बदरीत्यभिविश्रुतम् ।। १४ ।।
“राजन्! जिससे तुम आये हो, उसी मार्गसे विशाला बदरीके नामसे विख्यात भगवान्
नर-नारायणके स्थानको लौट जाओ ।। १४ ।।
तस्माद् यास्यसि कौन्तेय सिद्धचारणसेवितम् ।
बहुपुष्पफलं रम्यमाश्रमं वृषपर्वण: ।। १५ ।।
“कुन्तीकुमार! वहाँसे तुम प्रचुर फल-फूलसे सम्पन्न वृषपर्वके रमणीय आश्रमपर
जाओ, जहाँ सिद्ध और चारण निवास करते हैं ।। १५ ।।
अतिक्रम्य च त॑ पार्थ त्वार्शिषेणाश्रमे वसे: |
ततो द्रक्ष्यसि कौन्तेय निवेशं धनदस्य च ।। १६ ।।
“उस आश्रमको भी लाँचकर आर्डषषिणके आश्रमपर जाना और वहीं निवास करना।
तदनन्तर तुम्हें धनदाता कुबेरके निवासस्थानका दर्शन होगा” ।। १६ ||
एतस्मिन्नन्तरे वायुर्दिव्यगन्धवह: शुचि: ।
सुखप्रह्नलादन: शीत: पुष्पवर्ष ववर्ष च ।। १७ ।।
इसी समय दिव्य सुगन्धसे परिपूर्ण पवित्र वायु चलने लगी, जो शीतल तथा सुख और
आह्लाद देनेवाली थी। साथ ही वहाँ फूलोंकी वर्षा होने लगी || १७ ।।
श्रुत्वा तु दिव्यामाकाशाद् वाचं सर्वे विसिस्मियु: ।
ऋषीणां ब्राह्मणानां च पार्थिवानां विशेषत: ।। १८ ।।
वह दिव्य आकाशवाणी सुनकर सबको बड़ा विस्मय हुआ। ऋषियों, ब्राह्मणों और
विशेषत: राजर्षियोंको अधिक आश्चर्य हुआ ।। १८ ।।
श्रुत्वा तन्महदाश्नचर्य द्विजो धौम्यो5ब्रवीत् तदा ।
न शक्यमुत्तरं वक्तुमेवं भवतु भारत ।। १९ ।।
वह महान् आश्चर्यजनक बात सुनकर वि्रर्षि धौम्यने कहा--“भारत! इसका प्रतिवाद
नहीं किया जा सकता। ऐसा ही होना चाहिये” ।। १९ |।
ततो युधिष्छिरो राजा प्रतिजग्राह तद् वच: ।
प्रत्यागम्य पुनस्तं तु नरनारायणाश्रमम् ।। २० ।।
भीमसेनादिशि: सर्वैर्भ्नातृभि: परिवारित: ।
पाज्चाल्या ब्राह्मुणाश्वैव न्यवसन्त सुखं तदा ।। २३१ ।।
तदनन्तर राजा युधिष्ठिरने वह आकाशवाणी स्वीकार कर ली और पुन: नर-नारायणके
आश्रममें लौटकर भीमसेन आदि सब भाइयों और द्रौपदीके साथ वहीं रहने लगे। उस समय
साथ आये हुए ब्राह्मण लोग भी वहीं सुखपूर्वक निवास करने लगे || २०-२१ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां
पुनर्नरनारायणाश्रमागमने षट्पज्चाशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १५६ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोगशती र्थयात्राके प्रसंगमें
पाण्डवोंका पुनः नर-नारायणके आश्रगरमें आयमनविषयक एक सौ छप्पनवाँ अध्याय पूरा
हुआ ॥। १५६ ॥/
हि आय न [हुक हि 7 आम
(जटासुरवधपर्व)
सप्तपञ्चाशदधिकशततमो< ध्याय:
जटासुरके द्वारा द्रौपदीसहित युधिष्ठिर, नकुल, सहदेवका
हरण तथा भीमसेनद्वारा जटासुरका वध
वैशम्पायन उवाच
ततस्तान् परिविश्वस्तान् वसतस्तत्र पाण्डवान् ।
पर्वतेन्द्रे द्विजैः सार्थ पार्थागमनकाड्क्षया ।। १ ।।
गतेषु तेषु रक्ष:सु भीमसेनात्मजे5पि च ।
रहितान् भीमसेनेन कदाचित् तान् यदृच्छया ।। २ ।।
जहार धर्मराजानं यमौ कृष्णां च राक्षस: |
ब्राह्मणो मन्त्रकुशलः सर्वशास्त्रविदुत्तम: ।। ३ ।।
इति ब्रुवन् पाण्डवेयान् पर्युपास्ते सम नित्यदा ।
परीप्समान: पार्थानां कलापानि धनूंषि च ।। ४ ।।
अन्तरं सम्परिप्रेप्सुद्रौपद्या हरणं प्रति ।
दुष्टात्मा पापबुद्धि: स नाम्ना ख्यातो जटासुर: ।। ५ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर पर्वतराज गन्धमादनपर सब पाण्डव
अर्जुनके आनेकी प्रतीक्षा करते हुए ब्राह्मणोंके साथ नि:शंक रहने लगे। उन्हें पहुँचानेके लिये
आये हुए राक्षस चले गये। भीमसेनका पुत्र घटोत्कच भी विदा हो गया। तत्पश्चात् एक
दिनकी बात है, भीमसेनकी अनुपस्थितिमें अकस्मात् एक राक्षसने धर्मराज युधिष्ठिर,
नकुल, सहदेव तथा द्रौपदीको हर लिया। वह ब्राह्मणके वेषमें प्रतिदिन उन््हींके साथ रहता
था और सब पाण्डवोंसे कहता था कि “मैं सम्पूर्ण शास्त्रोंमें श्रेष्ठ और मन्त्र-कुशल ब्राह्मण
हूँ।” वह कुन्तीकुमारोंक तरकस और धनुषको भी हर लेना चाहता था और द्रौपदीका
अपहरण करनेके लिये सदा अवसर दूँढ़ता रहता था। उस दुष्टात्मा एवं पापबुद्धि राक्षसका
नाम जटासुर था ।।
पोषणं तस्य राजेन्द्र चक्रे पाण्डवनन्दन: ।
बुबुधे न च तं पापं भस्मच्छन्नमिवानलम् ।। ६ ।।
जनमेजय! पाण्डवोंको आनन्द प्रदान करनेवाले युधिष्ठिर अन्य ब्राह्मणोंकी तरह
उसका भी पालन-पोषण करते थे। परंतु राखमें छिपी हुई आगकी भाँति उस पापीके
असली स्वरूपको वे नहीं जानते थे ।। ६ ।।
स भीमसेने निष्क्रान्ते मृगयार्थमरिन्दम ।
घटोत्कचं सानुचरं दृष्ट्वा विप्रद्रुतं दिश: ।। ७ ।।
लोमशप्रभृतींस्तांस्तु महर्षीक्ष समाहितान् ।
स््नातुं विनिर्गतान् दृष्टवा पुष्पार्थ च तपोधनान् ॥। ८ ।।
रूपमन्यत् समास्थाय विकृतं भैरवं महत् |
गृहीत्वा सर्वशस्त्राणि द्रौपदी परिगृह्ू च ।। ९ ।।
प्रातिष्ठत स दुष्टात्मा त्रीन् गृहीत्वा च पाण्डवान् |
सहदेवस्तु यत्नेन ततो5पक्रम्य पाण्डव: ।। १० ।।
विक्रम्प कौशिकं खडगं मोक्षयित्वा ग्रहं रिपो: |
आक्रन्दद् भीमसेनं वै येन यातो महाबल: ।। ११ ।।
शत्रुसूदन! हिंसक पशुओंको मारनेके लिये भीमसेनके आश्रमसे बाहर चले जानेपर
उस राक्षसने देखा कि घटोत्कच अपने सेवकोंसहित किसी अज्ञात दिशाको चला गया,
लोमश आदि महर्षि ध्यान लगाये बैठे हैं तथा दूसरे तपोधन स्नान करने और फूल लानेके
लिये कुटियासे बाहर निकल गये हैं, तब उस दुष्टात्माने विशाल, विकराल एवं भयंकर दूसरा
रूप धारण करके पाण्डवोंके सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्र, द्रौपदी तथा तीनों पाण्डवोंको भी लेकर
वहाँसे प्रस्थान कर दिया। उस समय पाण्डु-कुमार सहदेव प्रयत्न करके उस राक्षसकी
पकड़से छूट गये और पराक्रम करके म्यानसे निकली हुई अपनी तलवारको भी उससे छुड़ा
लिया। फिर वे महाबली भीमसेन जिस मार्गसे गये थे, उधर ही जाकर उन्हें जोर-जोरसे
पुकारने लगे || ७--११ ॥।
तमब्रवीद् धर्मराजो ह्वियमाणो युधिष्ठिर: ।
धर्मस्ते हीयते मूढ न तत्त्वं समवेक्षसे || १२ ।।
इधर जिन्हें वह जटासुर हरकर लिये जा रहा था *वे धर्मराज युधिष्ठिर उससे इस प्रकार
बोले--“अरे मूर्ख! इस प्रकार (विश्वासघात करनेसे) तो तेरे धर्मका ही नाश हो रहा है। किंतु
उधर तेरी दृष्टि नहीं जाती है ।।
येअन्ये क्वचिन्मनुष्येषु तिर्यग्योनिगताश्व ये ।
धर्म ते समवेक्षन्ते रक्षांसि च विशेषत: ।। १३ ।।
“दूसरे भी जहाँ कहीं मनुष्य अथवा पशु-पक्षीकी योनिमें स्थित प्राणी हैं, वे सभी धर्मपर
दृष्टि रखते हैं। राक्षस तो (पशु-पक्षीकी अपेक्षा भी) विशेषरूपसे धर्मका विचार करते
हैं ।। १३ ।।
धर्मस्य राक्षसा मूलं॑ धर्म ते विदुरुत्तमम् ।
एतत् परीक्ष्य सर्व त्वं समीपे स्थातुमहसि ।। १४ ।।
देवाश्ष ऋषय: सिद्धा: पितरश्चापि राक्षस ।
गन्धर्वोरगरक्षांसि वयांसि पशवस्तथा ।। १५ ।।
तिर्यग्योनिगताश्ैव अपि कीटपिपीलिका: ।
मनुष्यानुपजीवन्ति ततस्त्वमपि जीवसि ।। १६ ।।
'राक्षस धर्मके मूल हैं। वे उत्तम धर्मका ज्ञान रखते हैं। इन सब बातोंका विचार करके
तुझे हमलोगोंके समीप ही रहना चाहिये। राक्षस! देवता, ऋषि, सिद्ध, पितर, गन्धर्व, नाग,
राक्षस, पशु, तिर्यग्योनिके सभी प्राणी और कीड़े-मकोड़े, चींटी आदि भी मनुष्योंके आश्रित
हो जीवन-निर्वाह करते हैं। इस दृष्टिसे तू भी मनुष्योंसे ही जीविका चलाता है ॥| १४--
१६ ||
समृद्धया हास्य लोकस्य लोको युष्माकमृध्यति ।
इमं च लोक॑ शोचन्तमनुशोचन्ति देवता: ।। १७ ।।
“इस मनुष्यलोककी समृद्धिसे ही तुम सब लोगोंका लोक समृद्धिशाली होता है। यदि
इस लोककी दशा शोचनीय हो तो देवता भी शोकमें पड़ जाते हैं ।। १७ ।।
पूज्यमानाश्र वर्धन्ते हव्यकव्यैर्यथाविधि ।
वयं राष्ट्रस्य गोप्तारो रक्षितारश्न राक्षस ।। १८ ।।
क्योंकि मनुष्यद्वारा हव्य और कव्यसे विधिपूर्वक पूजित होनेपर उनकी वृद्धि होती है।
राक्षस! हमलोग राष्ट्रके पालक और संरक्षक हैं ।। १८ ।।
राष्ट्रस्यारक्ष्यमाणस्य कुतो भूति: कुतः सुखम् |
न च राजावमन्तव्यो रक्षसा जात्वनागसि ।॥। १९ ।।
“हमारे द्वारा रक्षित न होनेपर राष्ट्रको कैसे समृद्धि प्राप्त होगी और कैसे उसे सुख
मिलेगा? राक्षसको भी उचित है कि वह बिना अपराधके कभी किसी राजाका अपमान न
करे ।। १९ ||
अणुरप्यपचारकश्न नास्त्यस्माकं नराशन ।
विघसाशान् यथाशकक्त्या कुर्महे देवतादिषु || २० ।।
“नरभक्षी निशाचर! तेरे प्रति हमलोगोंकी ओरसे थोड़ा-सा भी अपराध नहीं हुआ है।
हम देवता आदिको समर्पित करके बचे हुए प्रसादस्वरूप अन्नका यथाशक्ति गुरुजनों और
ब्राह्मणोंको भोजन कराते हैं || २० ।।
गुरूंश्न ब्राह्म॒णांश्वैव प्रणामप्रवणा: सदा |
द्रोग्धव्यं न च मित्रेषु न विश्वस्तेषु करहिचित् ।। २१ ।।
“गुरुजनों तथा ब्राह्मणोंके सम्मुख हमारा मस्तक सदा झुका रहता है। किसी भी
पुरुषको कभी अपने मित्रों और विश्वासी पुरुषोंके साथ द्रोह नहीं करना चाहिये || २१ ।।
येषां चान्नानि भुज्जीत यत्र च स्यात् प्रतिश्रय: ।
स त्वं प्रतिश्रयेडस्माकं पूज्यमान: सुखोषित: ।। २२ ।॥।
“जिनका अन्न खाये और जहाँ अपनेको आश्रय मिला हो, उनके साथ भी द्रोह या
विश्वासघात करना उचित नहीं है। तू हमारे आश्रयमें हमलोगोंसे सम्मानित होकर सुखपूर्वक
रहा है || २२ ।।
भुक्त्वा चान्नानि दुष्प्रज्ञ कथमस्मान् जिहीर्षसि ।
एवमेव वृथाचारो वृथावृद्धों वृथामति: ।। २३ ।।
“खोटी बुद्धिवाले राक्षस! तू हमारा अन्न खाकर हमें ही हर ले जानेकी इच्छा कैसे
करता है? इस प्रकार तो अबतक तूने ब्राह्मणरूपसे जो आचार दिखाया था, वह सब व्यर्थ
ही था। तेरा बढ़ना या वृद्ध होना भी व्यर्थ ही है। तेरी बुद्धि भी व्यर्थ है ।। २३ ।।
वृथामरणमर्हश्व वृथाद्य न भविष्यसि ।
अथ चेद् दुष्टबुद्धिस्त्वं सर्वेर्धमर्विवर्जित: ॥। २४ ।।
प्रदाय शस्त्राण्यस्माकं युद्धेन द्रौपदी हर ।
अथ चेत् त्वमविज्ञानादिदं कर्म करिष्यसि ।। २५ ।।
अधर्म चाप्यकीर्तिं च लोके प्राप्स्पसि केवलम् ।
एतामट्य परामृश्य स्त्रियं राक्षस मानुषीम् ॥। २६ ।।
विषमेतत् समालोड्य कुम्भेन प्राशितं त्वया ।
ततो युधिष्िरस्तस्य गुरुक: समपद्यत ।। २७ ।।
'ऐसी दशामें तू व्यर्थ मृत्युका ही अधिकारी है और आज व्यर्थ ही तुम्हारे प्राण नष्ट हो
जायँगे। यदि तेरी बुद्धि दुष्टतापर ही उतर आयी है और तू सम्पूर्ण धर्मोको भी छोड़ बैठा है,
तो हमें हमारे अस्त्र देकर युद्ध कर तथा उसमें विजयी होनेपर द्रौपदीको ले जा। यदि तू
अज्ञानवश यह विश्वासघात या अपहरण कर्म करेगा, तो संसारमें तुझे केवल अधर्म और
अकीर्ति ही प्राप्त होगी। निशाचर! आज तूने इस मानवजातिकी स्त्रीका स्पर्श करके जो
पाप किया है, यह भयंकर विष है, जिसे तूने घड़ेमें घोलकर पी लिया है।' इतना कहकर
युधिष्ठिर उसके लिये बहुत भारी हो गये || २४--२७ ।।
स तु भाराभिभूतात्मा न तथा शीघ्रगो5भवत् |
अथाब्रवीद द्रौपदीं च नकुलं च युधिष्ठिर: ।। २८ ।।
भारसे उसका शरीर दबने लगा, इसलिये अब वह पहलेकी तरह शीघ्रतापूर्वक न चल
सका। तब युधिष्ठिरने नकुल और द्रौपदीसे कहा-- ।। २८ ।।
मा भैष्ट राक्षसान्मूढाद् गतिरस्य मया हृता ।
नातिदूरे महाबाहुर्भविता पवनात्मज: ।। २९ |।
“तुमलोग इस मूढ़ राक्षससे डरना मत। मैंने इसकी गति कुण्ठित कर दी है। वायुपुत्र
महाबाहु भीमसेन यहाँसे अधिक दूर नहीं होंगे ।। २९ ।।
अस्मिन् मुहुर्ते सम्प्राप्ते न भविष्यति राक्षस: ।
सहदेवस्तु त॑ दृष्टवा राक्षसं मूढचेतनम् ।। ३० ।।
उवाच वचन राजन् कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् ।
राजन् किंनाम सत्कृत्यं क्षत्रियस्यास्त्यतोडधिकम् ।। ३१ ।।
यद् युद्धेडभिमुख: प्राणांस्त्यजेच्छत्रुं जयेत वा ।
एष चास्मान् वयं चैनं युद्धयमाना: परंतप ।। ३२ ।।
सूदयेम महाबाहो देशकालो हाय॑ नृप ।
क्षत्रधर्मस्य सम्प्राप्त: काल: सत्यपराक्रम: ।। ३३ |।
“इस आगामी मुहूर्तके आते ही इस राक्षसके प्राण नहीं रहेंगे।! इधर सहदेवने उस मूढ़
राक्षषकी ओर देखते हुए कुन्तीनन्दन युधिष्ठिस्से कहा--'राजन्! क्षत्रियके लिये इससे
अधिक सत्कर्म क्या होगा कि वह युद्धमें शत्रुका सामना करते हुए प्राणोंका त्याग कर दे
अथवा शत्रुको ही जीत ले। राजन्! इस प्रकार यह हमें अथवा हम इसे युद्ध करते हुए मार
डालें। परंतप महाबाहु नरेश! यह क्षत्रिय धर्मके अनुकूल देश-काल प्राप्त हुआ है। यह समय
यथार्थ पराक्रम प्रकट करनेके लिये है || ३०--३३ ॥।
जयन्तो हन्यमाना वा प्राप्तुमर्हाम सदगतिम् ।
राक्षसे जीवमानेउद्य रविरस्तमियाद् यदि ।। ३४ ।।
नाहं ब्रूयां पुनर्जातु क्षत्रियोडस्मीति भारत |
भो भो राक्षस तिष्ठस्व सहदेवो5स्मि पाण्डव: || ३५ ||
हत्वा वा मां नयस्वैनां हतो वाद्येह स्वप्स्यसि ।
तदा ब्रुवति माद्रेये भीमसेनो यदृच्छया ।। ३६ ।।
प्रत्यदृश्यद् गदाहस्त: सवज्र इव वासव: ।
सो<पश्यद् भ्रातरौ तत्र द्रौपदीं च यशस्विनीम् ।। ३७ ।।
“भारत! हम विजयी हों या मारे जाय, सभी दशाओंमें उत्तम गति प्राप्त कर सकते हैं।
यदि इस राक्षसके जीते-जी सूर्य डूब गये, तो मैं फिर कभी अपनेको क्षत्रिय नहीं कहूँगा।
अरे ओ निशाचर! खड़ा रह, मैं पाण्डुकुमार सहदेव हूँ, या तो तू मुझे मारकर द्रौपदीको ले
जा या स्वयं मेरे हाथों मारा जाकर आज यहीं सदाके लिये सो जा।' माद्रीनन्दन सहदेव जब
ऐसी बात कह रहे थे, उसी समय अकस्मात् गदा हाथमें लिये भीमसेन दिखायी दिये, मानो
वज्रधारी इन्द्र आ पहुँचे हों। उन्होंने वहाँ (राक्षसके अधिकारमें पड़े हुए) अपने दोनों भाइयों
तथा यशस्विनी द्रौपदीको देखा || ३४--३७ ।।
क्षितिस्थं सहदेवं च क्षिपन्तं राक्षसं तदा ।
मार्गाच्च राक्षसं मूढं कालोपहतचेतसम् ।। ३८ ।।
भ्रमन्तं तत्र तत्रेैव देवेन विनिवारितम् ।
भ्रातृस्तान् ह्वियतो दृष्ट्वा द्रौपदी च महाबल: ।। ३९ ।।
क्रोधमाहारयद् भीमो राक्षसं चेदमब्रवीत् |
विज्ञातो$सि मया पूर्व पाप शस्त्रपरीक्षणे || ४० ।।
उस समय सहदेव धरतीपर खड़े होकर राक्षसपर आक्षेप कर रहे थे और वह मूढ़
राक्षस मार्गसे भ्रष्ट होकर वहीं चक्कर काट रहा था। कालसे उसकी बुद्धि मारी गयी थी।
दैवने ही उसे वहाँ रोक रखा था। भाइयों और द्रौपदीका अपहरण होता देख महाबली
भीमसेन कुपित हो उठे और जटासुरसे बोले--“ओ पापी! पहले जब तू शस्त्रोंकी परीक्षा
कर रहा था, तभी मैंने तुझे पहचान लिया था || ३८--४० ।।
आस्था तु त्वयि मे नास्ति यतोडसि न हतस्तदा ।
ब्रह्मरूपप्रतिच्छन्नो न नो वदसि चाप्रियम् ।। ४१ ।।
“तुझपर मेरा विश्वास नहीं रह गया था, तो भी तू ब्राह्मणके रूपमें अपने असली
स्वरूपको छिपाये हुए था और हमलोगोंसे कोई अप्रिय बात नहीं कहता था। इसीलिये मैंने
तुम्हें तत्काल नहीं मार डाला || ४१ ।।
प्रियेषु रममाणं त्वां न चैवाप्रियकारिणम् ।
अतिथिं ब्रह्मरूपं च कथं हन्यामनागसम् ।। ४२ ।।
राक्षसं जानमानो5पि यो हन्यान्नरकं व्रजेत् ।
अपक्वस्य च कालेन वधस्तव न विद्यते ॥। ४३ ।।
तू हमारे प्रिय कार्योमें मन लगाता था। जो हमें प्रिय न लगे, ऐसा काम नहीं करता था।
ब्राह्मण अतिथिके रूपमें आया था और कभी कोई अपराध नहीं किया था। ऐसी दशामें मैं
तुझे कैसे मारता? जो राक्षसको राक्षस जानते हुए भी बिना किसी अपराधके उसका वध
करता है, वह नरकमें जाता है। अभी तेरा समय पूरा नहीं हुआ था, इसलिये भी आजसे
पहले तेरा वध नहीं किया जा सकता था || ४२-४३ ।।
नूनमद्यासि सम्पक्वो यथा ते मतिरीदृशी ।
दत्ता कृष्णापहरणे कालेनाद्भुतकर्मणा ।। ४४ ।।
“आज निश्चय ही तेरी आयु पूरी हो चुकी है, तभी तो अद्भुत कर्म करनेवाले कालने तुझे
इस प्रकार द्रौपदीके अपहरणकी बुद्धि दी है ।। ४४ ।।
बडिशो< यं त्वया ग्रस्त: कालसूत्रेण लम्बित: ।
मत्स्यो5म्भसीव स्यूतास्य: कथमद्य भविष्यसि ।। ४५ ।।
“कालरूपी डोरेसे लटकाया हुआ बंसीका काँटा तूने निगल लिया है। तेरा मुँह जलकी
मछलीके समान उस काँटेमें गुथ गया है, अतः अब तू कैसे जीवन धारण करेगा? ।। ४५ ।।
यं चासि प्रस्थितो देशं मन: पूर्व गतं च ते ।
न तं गन्तासि गन्तासि मार्ग बकहिडिम्बयो: ।। ४६ ।।
“जिस देशकी ओर तू प्रस्थित हुआ है और जहाँ तेरा मन पहलेसे ही जा पहुँचा है, वहाँ
अब तू न जा सकेगा। तुझे तो बक और हिडिम्बके मार्गपर जाना है, || ४६ ||
एवमुक्तस्तु भीमेन राक्षस: कालचोदित: ।
भीत उत्सृज्य तान् सर्वान् युद्धाय समुपस्थित: ।। ४७ ।।
भीमसेनके ऐसा कहनेपर वह राक्षस भयभीत हो उन सबको छोड़कर कालकी
प्रेरणासे युद्धके लिये उद्यत हो गया || ४७ ।।
अब्रवीच्च पुनर्भीम॑ रोषात् प्रस्फुरिताधर: ।
न मे मूढा दिश: पाप त्वदर्थ मे विलम्बितम् ।। ४८ ।।
उस समय रोषसे उसके ओठ फड़क रहे थे। उसने भीमसेनको उत्तर देते हुए कहा
--ओ पापी! मुझे दिग्भ्रम नहीं हुआ था। मैंने तेरे ही लिये विलम्ब किया था || ४८ ।।
श्रुता मे राक्षसा ये ये त्वया विनिहता रणे |
तेषामद्य करिष्यामि तवास्रेणोदकक्रियाम् ।। ४९ ।।
'तूने जिन-जिन राक्षसोंको युद्धमें मारा है, उन सबके नाम मैंने सुने हैं। आज तेरे रक्तसे
ही मैं उनका तर्पण करूँगा, ।। ४९ ।।
एवमुक्तस्ततो भीम: सृक्किणी परिसंलिहन् ।
स्मयमान इव क्रोधात् साक्षात् कालान्तकोपम: ।। ५० |।
(ब्रुवन् वै तिष्ठ तिछेति क्रोधसंरक्तलोचन: ।)
बाहुसंरम्भमेवैक्षन्नभिदुद्राव राक्षसम् ।
राक्षसो5पि तदा भीम॑ युद्धार्थिननवस्थितम् ।। ५१ ।।
मुहुर्मुहुव्याददान: सृक्किणी परिसंलिहन् |
अभिदुद्राव संरब्धो बलिव॑ज़धरं यथा | ५२ ।।
राक्षसके ऐसा कहनेपर भीमसेन अपने मुखके दोनों कोने चाटते हुए कुछ मुसकराते-से
प्रतीत हुए फिर क्रोधसे साक्षात् काल और यमराजके समान जान पड़ने लगे। रोषसे उनकी
आँखें लाल हो गयी थीं “खड़ा रह,” खड़ा रह कहते हुए ताल ठोंककर राक्षसकी ओर दृष्टि
गड़ाये उसपर टूट पड़े। राक्षस भी उस समय भीमसेनको युद्धके लिये उपस्थित देख बार-
बार मुँह फैलाकर मुँहके दोनों कोने चाटने लगा और जैसे बलिराजा वज्रधारी इन्द्रपर
आक्रमण करता है, उसी प्रकार कुपित हो उसने भीमसेनपर धावा किया || ५०--५२ ।।
(भीमसेनो>प्यवष्टब्धो नियुद्धायाभवत् स्थित: ।
राक्षसो5पि च विस्रब्धो बाहुयुद्धमकाड्क्षत ।।
वर्तमाने तदा ताभ्यां बाहुयुद्धे सुदारुणे ।
माद्रीपुत्रावतिक्रुद्धावुभावप्य भ्यधावताम् ।। ५३ ।।
भीमसेन भी स्थिर होकर उससे युद्धके लिये खड़े हो गये और वह राक्षस भी निश्िन्त
हो उनके साथ बाहुयुद्धकी इच्छा करने लगा। उस समय उन दोनोंमें बड़ा भयंकर बाहुयुद्ध
होने लगा। यह देख माद्रीपुत्र नकुल और सहदेव अत्यन्त क्रोधमें भरकर उसकी ओर
दौड़े | ५३ ।।
न्यवारयत् तौ प्रहसन् कुन्तीपुत्रो वृकोदर: ।
शक्तोहं राक्षसस्येति प्रेक्षध्वमिति चाब्रवीत् ।। ५४ ।।
परंतु कुन्तीकुमार भीमसेनने हँसकर उन दोनोंको रोक दिया और कहा--“मैं अकेला
ही इस राक्षसके लिये पर्याप्त हूँ। तुमलोग चुप-चाप देखते रहो” ।। ५४ ।।
आत्मना क्रातृभिश्वैव धर्मेण सुकृतेन च ।
इप्टेन च शपे राजन् सूदयिष्यामि राक्षसम् ।। ५५ ।।
फिर वे युधिष्ठिससे बोले--“महाराज! मैं अपनी, सब भाइयोंकी, धर्मकी, पुण्य कर्मोंकी
तथा यज्ञकी शपथ खाकर कहता हूँ, इस राक्षसको अवश्य मार डालूँगा || ५५ ।।
इत्येवमुक्त्वा तौ वीरौ स्पर्थमानौ परस्परम् |
बाहुभ्यां समसज्जेतामुभौ रक्षोवृकोदरी ।। ५६ ।।
ऐसा कहकर वे दोनों वीर राक्षत और भीम एक-दूसरेसे स्पर्धा रखते हुए बाँहोंसे बाँहें
मिलाकर गुथ गये ।। ५६ ।।
तयोरासीत् सम्प्रहार: क्रुद्धयोर्भीमरक्षसो: ।
अमृष्यमाणयो: सड्ख्ये देवदानवयोरिव ।। ५७ ।।
भीमसेन तथा राक्षस दोनोंमें देवताओं और दानवोंके समान युद्ध होने लगा। दोनों ही
रोष और अमर्षमें भरकर एक-दूसरेपर प्रहार करने लगे || ५७ ।।
आरुज्यारुज्य तौ वृक्षानन्योन्यमभिजषघ्नतु: ।
जीमूताविव गर्जन्तौ निनदन्तौ महाबलौ ।॥। ५८ ।।
दोनोंका बल महान् था। वे गर्जते हुए दो मेघोंकी भाँति सिंहनाद करके वृक्षोंकों तोड़-
तोड़कर परस्पर चोट करते थे ।। ५८ ।।
बभज्जतुर्महावक्षानूरुभिबलिनां वरौ ।
अन्योन्येनाभिसंरब्धौ परस्परवधैषिणौ ।। ५९ ।।
बलवानोंमें श्रेष्ठ वे दोनों वीर अपनी जाँघोंके धक््केसे बड़े-बड़े वृक्षोंको तोड़ डालते थे
और परस्पर कुपित हो एक-दूसरेको मार डालनेकी इच्छा रखते थे ।। ५९ ।।
तद् वृक्षयुद्धमभवन्महीरुहविनाशनम् |
बालिसुग्रीवयो भ्रात्रो: पुरा स्त्रीकाड्क्षिणोर्यथा || ६० ।।
जैसे पूर्वकालमें स्त्रीकी इच्छावाले दो भाई बालि और सुग्रीवर्में भयंकर संग्राम हुआ था,
उसी प्रकार भीमसेन और राक्षसमें होने लगा। उन दोनोंका वह वृक्षयुद्ध उस वनके
वृक्षसमूहोंके लिये महान् विनाशकारी सिद्ध हुआ ।। ६० ।।
आविध्याविध्य तौ वृक्षान् मुहूर्तमितरेतरम्
ताडयामासतुरुभौ विनदन्तौ मुहुर्मुहु: ॥। ६१ ।।
वे दोनों बड़े-बड़े वृक्षोंकी हिला-हिलाकर बार-बार विकट गर्जना करते हुए दो घड़ीतक
एक-दूसरेपर प्रहार करते रहे ।। ६१ ।।
तस्मिन् देशे यदा वृक्षा: सर्व एव निपातिता: ।
पुञज्जीकृताश्न शतश: परस्परवधेप्सया ।। ६२ ।।
ततः शिला: समादाय मुहूर्तमिव भारत ।
महाभ्रेरिव शैलेन्द्रौ युयुधाते महाबलौ ।। ६३ ।।
शिलाभिरुग्ररूपाभिव॑हतीभि: परस्परम् |
वजैरिव महावेगैराजघ्नतुरमर्षणौ ।। ६४ ।।
भारत! जब उस प्रदेशके सारे वृक्ष गिरा दिये गये, तब एक-दूसरेका वध करनेकी
इच्छासे उन महाबली वीरोंने वहाँ ढेर-की-ढेर पड़ी हुई सैकड़ों शिलाएँ लेकर दो घड़ीतक
इस प्रकार युद्ध किया, मानो दो पर्वतराज बड़े-बड़े मेघखण्डोंद्वारा परस्पर युद्ध कर रहे हों।
वहाँकी शिलाएँ विशाल और अत्यन्त भयंकर थीं। वे देखनेमें महान् वेगशाली वजच्धोंके समान
जान पड़ती थीं। अमर्षमें भरे हुए वे दोनों योद्धा उन्हीं शिलाओंद्वारा एक-दूसरेको मारने
लगे ।। ६२--६४ ।।
अभिद्र॒ुत्य च भूयस्तावन्योन्यं बलदर्पितौ |
भुजाभ्यां परिगृह्माथ चकर्षाते गजाविव ।। ६५ ।।
तत्पश्चात् अपने-अपने बलके घमंडमें भरे हुए वे दोनों वीर एक दूसरेकी ओर झपटकर
पुनः अपनी भुजाओंसे कसते हुए विपक्षीको उसी प्रकार खींचने लगे, जैसे दो गजराज
परस्पर भिड़कर एक-दूसरेको खींच रहे हों ।। ६५ ।।
मुष्टिभिश्व महाघोरैरन्योन्यमभिजचध्नतु: ।
तत: कटकटाशब्दो बभूव सुमहात्मनो: ।। ६६ ।।
अपने अत्यन्त भयानक मुक्कोंद्वारा वे परस्पर चोट करने लगे। तब उन दोनों महाकाय
वीरोंमें जोर-जोरसे कटकटानेकी आवाज होने लगी ।। ६६ ।।
ततः संहृत्य मुष्टिं तु पजचशीर्षमिवोरगम् ।
वेगेनाभ्यहनद् भीमो राक्षसस्य शिरोधराम् ।। ६७ ।।
तदनन्तर भीमसेनने पाँच सिरवाले सर्पकी भाँति अपने पाँच अंगुलियोंसे युक्त हाथकी
मुट्ठी बाँधकर उसे राक्षसकी गर्दनपर बड़े वेगसे दे मारा || ६७ ।।
ततः श्रान्तं तु तद् रक्षो भीमसेनभुजाहतम् ।
सुपरिश्रान्तमालक्ष्य भीमसेनो< भ्यवर्तत ।। ६८ ।।
भीमसेनकी भुजाओंके आघातसे वह राक्षस थक गया था। तदनन्तर उसे अधिक थका
हुआ देख भीमसेन आगे बढ़ते गये || ६८ ।।
तत एन महाबाहुर्बाहुभ्याममरोपम: ।
समुत्क्षिप्प बलादू भीमो विनिष्पिष्य महीतले ।। ६९ |।
तत्पश्चात् देवताओंके समान तेजस्वी महाबाहु भीमसेनने उस राक्षसको दोनों
भुजाओंसे बलपूर्वक उठा लिया और उसे पृथ्वीपर पटककर पीस डाला ।। ६९ ||
तस्य गात्राणि सर्वाणि चूर्णयामास पाण्डव: ।
अरत्निना चाभिहत्य शिर: कायादपाहरत् । ७० ।।
उस समय पाण्डुनन्दन भीमने उसके सारे अंगोंको दबाकर चूर-चूर कर दिया और
थप्पड़ मारकर उसके सिरको धड़से अलग कर दिया ।। ७० ।।
संदष्टौष्ठ॑ विवृत्ताक्ष॑ फलं वृक्षादिव च्युतम् ।
जटासुरस्य तु शिरो भीमसेनबलाद्धतम् ।। ७१ ।।
भीमसेनके बलसे कटकर अलग हुआ जटासुरका वह सिर वृक्षसे टूटकर गिरे हुए
फलके समान जान पड़ता था। उसका ओठ दाँतोंसे दबा हुआ था और आँखें बहुत फैली
हुई थीं ।। ७१ ।।
पपात रुधिरादिग्ध॑ संदष्टदशनच्छदम् ।
त॑ निहत्य महेष्वासो युधिष्ठिरमुपागमत् ।
स्तूयमानो द्विजाग्रयैस्तु मरुद्धिरिव वासव: ।। ७२ ।।
दाँतोंसे दबे हुए ओठवाला वह मस्तक खूनसे लथपथ होकर गिर पड़ा था। इस प्रकार
जटासुरको मारकर महान धनुर्धर भीमसेन युधिष्ठिरके पास आये। उस समय श्रेष्ठ द्विज
उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे, मानो मरुद्गण देवराज इन्द्रके गुण गा रहे हों || ७२ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि जटासुरवधपर्वणि सप्तपञ्चाशदधिकशततमो< ध्याय:
॥॥ १५७ ||
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनप्वके अन्तर्गत जटायुरवधपर्वमें एक सौ सत्तावनवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥। १५७ ॥।
॥। समाप्तं जटासुरवधपर्व ।।
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(यक्षयुद्धपर्व)
अष्टपपञज्चाशदधिकशततमो< ध्याय:
नर-नारायण-आश्रमसे वृषपर्वाके यहाँ होते हुए राजर्षि
आएिषिणके आश्रमपर जाना
वैशम्पायन उवाच
निहते राक्षसे तस्मिन् पुनर्नारायणाश्रमम् |
अभ्येत्य राजा कौन्तेयो निवासमकरोत् प्रभु: ॥। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--उस राक्षसके मारे जानेपर कुन्तीकुमार शक्तिशाली राजा
युधिष्ठिर पुन: नर-नारायण-आश्रममें आकर रहने लगे ।। १ ।।
स समानीय तानू सर्वान् भ्रातृनित्यब्रवीद् वच: ।
द्रौपद्या सहितान् काले संस्मरन् भ्रातरं जयम् ॥ २ ।।
एक दिन उन्होंने द्रौयदीसहित सब भाइयोंको एकत्र करके अपने प्रियबन्धु अर्जुनका
स्मरण करते हुए कहा-- ।॥। २ ।।
समाक्षतस्रो5भिगता: शिवेन चरतां वने ।
कृतोद्देश: स बीभत्सु: पजचमीमभित: समाम् ।। ३ ।।
“हमलोगोंको कुशलपूर्वक वनमें विचरते हुए चार वर्ष हो गये। अर्जुनने यह संकेत किया
था कि मैं पाँचवें वर्षमें लौट आऊँगा ।। ३ ।।
प्राप्य पर्वतराजानं श्वेतं शिखरिणां वरम् ।
पुष्पितैर्टरमषण्डैश्व मत्तकोकिलषट्पदै: ।। ४ ।।
मयूरैश्वातकैश्वापि नित्योत्सवविभूषितम् ।
व्याप्रैर्वराहैर्महिषैर्गवयै्हरिणैस्तथा ।। ५ ।।
श्वापदेव्यालरूपैश्न रुकुभिश्न निषेवितम् ।
फुल्लै: सहस्रपत्रैश्न शतपत्रैस्तथोत्पलै: ।। ६ ।।
प्रफुल्लै: कमलैश्वैव तथा नीलोत्पलैरपि ।
महापुण्यं पवित्र॑ च सुरासुरनिषेवितम् ।। ७ ।।
'पर्वतोंमें श्रेष्ठ गेरिगशज कैलासपर आकर अर्जुनसे मिलनेके शुभ अवसरकी प्रतीक्षामें
हमने यहाँ डेरा डाला है। (क्योंकि वहीं मिलनेका उनकी ओरसे संकेत प्राप्त हुआ था।) वह
शत कैलास-शिखर पुष्पित वृक्षावलियोंसे सुशोभित है। वहाँ मतवाले कोकिलोंकी काकली,
भ्रमरोंके गुंजारव तथा मोर और पपीहोंकी मीठी वाणीसे नित्य उत्सव-सा होता रहता है, जो
उस पर्वतकी शोभाको बढ़ा देता है। वहाँ व्याप्र, वराह, महिष, गवय, हरिण, हिंसक जन्तु,
सर्प तथा रुरुमृग निवास करते हैं। खिले हुए सहस्रदल, शतदल, उत्पल, प्रफुल्ल कमल
तथा नीलोत्पल आदिसे उस पर्वतकी रमणीयता और भी बढ़ गयी है। वह परम पुण्यमय
और पवित्र है। देवता और असुर दोनों ही उसका सेवन करते हैं || ४--७ ।।
तत्रापि च कृतोद्देशः समागमदिदृक्षुभि: ।
कृतश्न समयस्तेन पार्थेनामिततेजसा ।। ८ ।।
पज्चवर्षाणि वत्स्यामि विद्यार्थीति पुरा मयि ।
“अमिततेजस्वी अर्जुनने वहाँ भी अपना आगमन देखनेके लिये उत्सुक हुए हमलोगोंके
साथ संकेतपूर्वक यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं अस्त्रविद्याका अध्ययन करनेके लिये पाँच
वर्षोतक देवलोकमें निवास करूँगा ।।
अत्र गाण्डीवधन्वानमवाप्तास्त्रमरिन्दमम् ।। ९ |।
देवलोकादिमं लोकं द्रक्ष्याम: पुनरागतम् ।
इत्युक्त्वा ब्राह्म॒ुणान् सर्वानामन्त्रयत पाण्डव: ।। १० ।।
'शत्रुओंका दमन करनेवाले गाण्डीवधारी अर्जुन अस्त्रविद्या प्राप्त करके पुनः
देवलोकसे इस मनुष्यलोकमें आनेवाले हैं। हमलोग शीघ्र ही उनसे मिलेंगे”! ऐसा कहकर
पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरने सब ब्राह्मणोंको आमन्त्रित किया || ९-१० ।।
कारणं चैव तत् तेषामाचचक्षे तपस्विनाम् ।
तानुग्रतपस: प्रीतान् कृत्वा पार्था: प्रदक्षिणाम् ।। ११ ।।
और उन तपस्वियोंके सामने उन्हें बुला भेजनेका कारण बताया। उन कठोर
तपस्वियोंको प्रसन्न करके कुन्तीकुमारोंने उनकी परिक्रमा की ।। ११ ।।
ब्राह्मणास्ते5न्वमोदन्त शिवेन कुशलेन च |
सुखोदर्कमिमं क्लेशमचिराद् भरतर्षभ ।। १२ ।।
तब उन ब्राह्मणोंने कुशल-मंगलके साथ उन सबके अभीष्ट मनोरथकी पूर्तिका
अनुमोदन किया और कहा--'भरतश्रेष्ठी] आजका यह क्लेश शीघ्र ही सुखद भविष्यके
रूपमें परिणत हो जायगा ।। १२ ।।
क्षत्रधर्मेण धर्मज्ञ तीर्त्वा गां पालयिष्यसि ।
तत् तु राजा वचस्तेषां प्रतिगृह्य तपस्विनाम् ।। १३ ।।
प्रतस्थे सह विप्रैस्तै््नातृभिश्व॒ परन्तप: ।
राक्षसैरनुयातो वै लोमशेनाभिरक्षित: ।। १४ ।।
“धर्मज्ञ! तुम क्षत्रियरधर्मके अनुसार इस संकटसे पार होकर सारी पृथ्वीका पालन
करोगे।” राजा युधिष्ठिरने उन तपस्वी ब्राह्मणोंका यह आशीर्वाद शिरोधार्य किया और वे
परंतप नरेश उन ब्राह्मणों तथा भाइयोंके साथ वहाँसे प्रस्थित हुए। घटोत्कच आदि राक्षस
भी उनकी सेवाके लिये पीछे-पीछे चले। राजा युधिष्ठिर महर्षि लोमशके द्वारा सर्वथा
सुरक्षित थे ।। १३-१४ ।।
क्वचित् पद्धयां ततो5गच्छद् राक्षसैरुह्मुते क्वचित् ।
तत्र तत्र महातेजा भ्रातृभि: सह सुव्रत: ।। १५ ।।
उत्तम व्रतका पालन करनेवाले वे महातेजस्वी भूपाल कहीं तो भाइयोंसहित पैदल
चलते और कहीं राक्षसलोग उन्हें पीठपर बैठाकर ले जाते थे। इस प्रकार वे अनेक स्थानोंमें
गये ।। १५ ।।
ततो युधिष्ठिरो राजा बहून् क्लेशान् विचिन्तयन् ।
सिंहव्याप्रगजाकीर्णामुदीचीं प्रययौ दिशम् ।। १६ ।।
तदनन्तर राजा युधिष्ठिर अनेक क्लेशोंका चिन्तन करते हुए सिंह, व्याप्र और हाथियोंसे
भरी हुई उत्तर-दिशाकी ओर चल दिये ।। १६ ।।
अवेक्षमाण: कैलासं मैनाकं चैव पर्वतम् ।
गन्धमादनपादांश्व श्वेत चापि शिलोच्चयम् ।। १७ ।।
उपर्युपरि शैलस्य बद्दीश्व सरित: शिवा: ।
पृष्ठ हिमवत: पुण्यं ययौ सप्तदशेडहनि ।। १८ ।।
कैलास, मैनाकपर्वत, गन्धमादनकी घाटियों और श्वेत (हिमालय) पर्वतका दर्शन करते
हुए उन्होंने पर्वतमालाओंके ऊपर-ऊपर बहुत-सी कल्याणमयी सरिताएँ देखीं तथा सत्रहवें
दिन वे हिमालयके एक पावन पृष्ठभागपर जा पहुँचे || १७-१८ ।।
ददृशु: पाण्डवा राजन् गन्धमादनमन्तिकात् ।
पृष्ठे हिमवत: पुण्ये नानाद्रुमलतावृते ।। १९ ।।
सलिलावर्तसंजातै: पुष्पितैश्न महीरुहै: ।
समावृतं पुण्यतममाश्रमं वृषपर्वण: ।। २० ।।
तमुपागम्य राजर्षि धर्मात्मानमरिन्दमा: ।
पाण्डवा वृषपर्वाणमवन्दन्त गतक्लमा: ।। २१ ।।
राजन! वहाँ पाण्डवोंने गन्धमादन पर्वतका निकटसे दर्शन किया। हिमालयका वह
पावन पृष्ठभाग नाना प्रकारके वृक्षों और लताओंसे आवृत था। वहाँ जलके आवर्तोंसे
सींचकर उत्पन्न हुए फूलवाले वृक्षोंसे घिरा हुआ वृषपर्वाका परम पवित्र आश्रम था।
शत्रुदमन पाण्डवोंने उन धर्मात्मा राजर्षि वृषपर्वाके पास जाकर क्लेशरहित हो उन्हें प्रणाम
किया ।। १९--२१ ।।
अभ्यनन्दत् स राजर्षि: पुत्रवद् भरतर्षभान् ।
पूजिताश्चावसंस्तत्र सप्तरात्रमरिन्दमा: | २२ ||
उन राजर्षिने भरतकुलभूषण पाण्डवोंका पुत्रके समान अभिनन्दन किया और उनसे
सम्मानित होकर वे शत्रुदमन पाण्डव वहाँ सात रात ठहरे रहे || २२ ।।
अष्टमे5हनि सम्प्राप्ते तमृषिं लोकविश्रुतम् ।
आमन्त्रय वृषपर्वाणं प्रस्थान प्रत्यरोचयन् ।। २३ ।।
आठवें दिन उन विश्वविख्यात राजर्षि वृषपर्वाकी आज्ञा ले उन्होंने वहाँसे प्रस्थान
करनेका विचार किया ।। २३ ।।
एकैकशकश्च तान् विप्रान् निवेद्य वृषपर्वणि ।
न्यासभूतान् यथाकालं बन्धूनिव सुसत्कृतान् ।। २४ ।।
पारिब्ह च तं शेषं परिदाय महात्मने ।
ततस्ते यज्ञपात्राणि रत्नान्न्याभरणानि च ।। २५ ।।
न्यदधुः पाण्डवा राजजन्नाश्रमे वृषपर्वण: ।
अपने साथ आये हुए ब्राह्मणोंको उन्होंने एक-एक करके वृषपर्वाके यहाँ धरोहरकी
भाँति सौंपा। उन सबका पाण्डवोंने समय-समयपर सगे बन्धुकी भाँति सत्कार किया था।
ब्राह्मणोंको सौंपनेके पश्चात् पाण्डवोंने अपनी शेष सामग्री भी उन्हीं महामनाको दे दी।
तदनन्तर पाण्डुपुत्रोंने वृषपर्वाके ही आश्रममें अपने यज्ञपात्र तथा रत्नमय आभूषण भी रख
दिये || २४-२५३ ।।
अतीतानागते विद्वान् कुशल: सर्वधर्मवित् ।। २६ ।।
अन्वशासत् स धर्मज्ञ: पुत्रवद् भरतर्षभान् |
तेडनुज्ञाता महात्मान: प्रययुर्दिशमुत्तराम् । २७ ।।
वृषपर्वा भूत और भविष्यके ज्ञाता, कार्यकुशल और सम्पूर्ण धर्मोके मर्मज्ञ थे। उन
धर्मज्ञ नरेशने भरतश्रेष्ठ पाण्डवोंको पुत्रकी भाँति उपदेश दिया। उनकी आज्ञा पाकर
महामना पाण्डव उत्तरदिशाकी ओर चले ।। २६-२७ ।।
तान् प्रस्थितानभ्यगच्छद् वृषपर्वा महीपति: ।
उपन्यस्य महातेजा विप्रेभ्य: पाण्डवांस्तदा ।। २८ ।।
अनुसंसार्य कौन्तेयानाशीर्भिरभिनन्द्य च ।
वृषपर्वा निववृते पन्थानमुपदिश्य च ।। २९ ।।
उस समय उनके प्रस्थान करनेपर महातेजस्वी राजर्षि वृषपर्वाने पाण्डवोंको (उस
देशके जानकार अन्य) ब्राह्मणोंके सुपुर्द कर दिया और कुछ दूर पीछे-पीछे जाकर उन
कुन्तीकुमारोंको आशीर्वाद देकर प्रसन्न किया। तत्पश्चात् उन्हें रास्ता बताकर वृषपर्वा लौट
आये ।। २८-२९ |।
नानामृगगणैर्जुष्टं कौन्तेय: सत्यविक्रम: ।
पदाति भ्रत्िभि: सार्धथ प्रातिछतत युधिछिर: ।। ३० ।।
फिर सत्यपराक्रमी कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर अपने भाइयोंके साथ पैदल ही (वृषपर्वकि
बताये हुए मार्गपर) चले, जो अनेक जातिके मृगोंके झुंडोंसे भरा हुआ था ।। ३० ।।
नानाद्रुमनिरोधेषु वसन््तः शैलसानुषु ।
पर्वतं विविशु: श्वेतं चतुर्थेडहनि पाण्डवा: ।। ३१ ।।
महाभ्रघनसंकाशं सलिलोपहितं शुभम् ।
मणिकाज्चनरूप्यस्य शिलानां च समुच्चयम् ।। ३२ ।।
(रूपं हिमवतः प्रस्थं बहुकन्दरनिर्सरम् ।
शिलाविभड्रविकटं लतापादपसंकुलम् ।।)
ते समासाद्य पन्थानं यथोक्तं वृषपर्वणा ।
अनुसखुर्यथोद्देशं पश्यन्तो विविधान्नगान् ।। ३३ ।।
वे सभी पाण्डव नाना प्रकारके वृक्षोंसे हरे-भरे पर्वतीय शिखरोंपर डेरा डालते हुए चौथे
दिन श्वेत (हिमालय) पर्वतपर जा पहुँचे, जो महामेघके समान शोभा पाता था। वह सुन्दर
शैल शीतल सलिलराशिसे सम्पन्न था और मणि सुवर्ण, रजत तथा शिलाखण्डोंका
समुदायरूप था। हिमालयका वह रमणीय प्रदेश अनेकानेक कन्दराओं और निर्डरोंसे
सुशोभित शिलाखण्डोंके कारण दुर्गग तथा लताओं और वृक्षोंसे व्याप्त था। पाण्डव
वृषपर्वाके बताये हुए मार्गका आश्रय ले नाना प्रकारके वृक्षोंका अवलोकन करते हुए अपने
अभीष्ट स्थानकी ओर अग्रसर हो रहे थे || ३१--३३ ।।
उपर्युपरि शैलस्य गुहा: परमदुर्गमा: ।
सुदुर्गमांस्ते सुबहूनू सुखेनैवाभिचक्रमु: ।। ३४ ।।
धौम्य: कृष्णा च पार्थाश्च॒ लोमशश्न महानृषि: ।
अगच्छन् सहितास्तत्र न कश्निदवहीयते ।। ३५ ।।
उस पर्वतके ऊपर बहुत-सी अत्यन्त दुर्गम गुफाएँ थीं और अनेक दुर्गम्य प्रदेश थे।
पाण्डव उन सबको सुखपूर्वक लाँचकर आगे बढ़ गये। पुरोहित धौम्य, द्रौपदी, चारों पाण्डव
तथा महर्षि लोमश--ये सब लोग एक साथ चल रहे थे। कोई पीछे नहीं छूटता था ।।
ते मृगद्धिजसंघुष्टं नानाद्रुमलतायुतम् |
शाखामृगगणैश्वैव सेवितं सुमनोरमम् ।। ३६ ।।
पुण्यं पद्मसरोयुक्ते सपल्वलमहावनम् ।
उपतस्थुर्महाभागा माल्यवन्तं महागिरिम् ।। ३७ ।।
आगे बढ़ते हुए वे महाभाग पाण्डव पुण्यमय माल्यवान् नामक महान पर्वतपर जा
पहुँचे, जो अनेक प्रकारके वृक्षों और लताओंसे सुशोभित तथा अत्यन्त मनोरम था। वहाँ
मृगोंके झुंड विचरते और भाँति-भाँतिके पक्षी कलरव कर रहे थे। बहुत-से वानर भी उस
पर्वतका सेवन करते थे। उसके शिखरपर कमलमण्डित सरोवर, छोटे-छोटे जलकुण्ड और
विशाल वन थे ।। ३६-३७ ।।
ततः किम्पुरुषावासं सिद्धचारणसेवितम् ।
ददृशुर्ह्ष्टरोमाण: पर्वत॑ं गन्धमादनम् ।। ३८ ।।
वहाँसे उन्हें गन्धमादन पर्वत दिखायी दिया, जो किम्पुरुषोंका निवासस्थान है। सिद्ध
और चारण उसका सेवन करते हैं। उसे देखकर पाण्डवोंका रोम-रोम हर्षसे खिल
उठा ।। ३८ ।।
विद्याधरानुचरितं किन्नरीभिस्तथैव च ।
गजसड्घमावासं सिंहव्याप्रगणायुतम् ।। ३९ ।।
उस पर्वतपर विद्याधर विहार करते थे। किन्नरियाँ क्रीड़ा करती थीं। झुंड-के-झुंड हाथी,
सिंह और व्याप्र निवास करते थे ।। ३९ ।।
शरभोज्नादसंघुष्टं नानामृगनिषेवितम् |
ते गन्धमादनवन तन्नन्दनवनोपमम् ।। ४० ।।
मुदिता: पाण्डुतनया मनोहृददयनन्दनम् |
विविशु: क्रमशो वीरा: शरण्यं शुभकाननम् ।। ४१ ।।
शरभोंके सिंहनादसे वह पर्वत गूँजता रहता था। नाना प्रकारके मृग वहाँ निवास करते
थे। गन्धमादन पर्वतका वह वन नन्दनवनके समान मन और हृदयको आनन्द देनेवाला था।
वे वीर पाण्डुकुमार बड़े प्रसन्न होकर क्रमश: उस सुन्दर काननमें प्रविष्ट हुए, जो सबको
शरण देनेवाला था || ४०-४१ ||
द्रौोपदीसहिता वीरास्तैश्न विप्रैर्महात्मभि: ।
शृण्वन्त: प्रीतिजननान् वल्गूनू मदकलाउछुभान् ॥। ४२ ।।
श्रोत्ररम्यान् सुमधुराज्छब्दान् खगमुखेरितान् ।
सर्वर्तुफलभाराब्यान् सर्वर्तुकुसुमोज्ज्वलान् ।। ४३ ।।
पश्यन्त: पादपांश्वापि फलभारावनामितान् |
आग्रानाम्रातकान् भव्यान् नारिकेलान् सतिन्दुकान् ।। ४४ ।।
मुञज्जातकांस्तथाञ्जीरान् दाडिमान् बीजपूरकान् ।
पनसॉल्लकुचान् मोचान् खर्जूरानम्लवेतसान् ।। ४५ ।।
पारावतांस्तथा क्षौद्रान् नीपांश्वापि मनोरमान् ।
बिल्वान् कपित्थाज्जम्बूंश्व काश्मरीर्बदरीस्तथा ।। ४६ ।।
प्लक्षानुदुम्बरबटानश्वत्थान् क्षीरिकांस्तथा ।
भल्लातकानामलकी्हरीतकबिभीतकान् ।। ४७ ।।
इड्गुदान् करमर्दाश्व तिन्दुकांश्व महाफलान् |
एतानन्यांश्व विविधान् गन्धमादनसानुषु ।। ४८ ।।
फलैरमृतकल्पैस्तानाचितान् स्वादुभिस्तरून् |
तथैव चम्पकाशोकान् केतकान् बकुलांस्तथा ।। ४९ ।।
पुन्नागान् सप्तपर्णाश्व॒ कर्णिकारान् सकेतकान् |
पाटलान् कुटजानू् रम्यान् मन्दारेन्दीवरांस्तथा ।। ५० |।
पारिजातान् कोविदारान् देवदारुद्रुमांस्तथा |
शालांस्तालांस्तमालांश्व पिप्पलान् हिड्डुकांस्तथा ।। ५१ ||
शाल्मली: किंशुकाशोकाञछिंशपा: सरलांस्तथा ।
उनके साथ द्रौपदी तथा पूर्वोक्त महामना ब्राह्मण भी थे। वे सब लोग विहंगोंके मुखसे
निकले हुए अत्यन्त मधुर सुन्दर, श्रवण-सुखद मादक एवं मोदजनक शुभ शब्द सुनते हुए
तथा सभी ऋतुओंके पुष्पों और फलोंसे सुशोभित एवं उनके भारसे झुके वृक्षोंको देखते हुए
आगे बढ़ रहे थे। आम, आमड़ा, भव्य नारियल, तेंदू, मुंजातक, अंजीर, अनार, नीबू,
कटहल, लकुच (बड़हर), मोच (केला), खजूर, अम्लवेंत, पारावत, क्षौद्र, सुन्दर कदम्ब,
बेल, कैथ, जामुन, गम्भारी, बेर, पाकड़, गूलर, बरगद, पीपल, पिंड खजूर, भिलावा,
आँवला, हरे, बहेड़ा, इंगुद, करौंदा तथा बड़े-बड़े फलवाले तिंदुक--ये और दूसरे भी नाना
प्रकारके वृक्ष गन्धमादनके शिखरोंपर लहलहा रहे थे, जो अमृतके समान स्वादिष्ट फलोंसे
लदे हुए थे। (इन सबको देखते हुए पाण्डवलोग आगे बढ़ने लगे।) इसी प्रकार चम्पा,
अशोक, केतकी, बकुल (मौलशिरी), पुन्नाग (सुल्ताना चंपा), सप्तपर्ण (छितवन), कनेर,
केवड़ा, पाटल (पाड़रि या गुलाब), कुटज, सुन्दर मन्दार, इन्दीवर (नीलकमल), पारिजात,
कोविदार, देवदारु, शाल, ताल, तमाल, पिप्पल, हिंगुक (हींगका वृक्ष), सेमल, पलाश,
अशोक, शीशम तथा सरल आदि वृक्षोंको देखते हुए पाण्डवलोग अग्रसर हो रहे थे ।। ४२
--५२३ ||
चकोरै: शतपन्रैश्व भुड़राजैस्तथा शुकै: ।। ५२ ।।
कोकिलै: कलविड्कैश्न हारितैर्जीवजीविकै: ।
प्रियकैश्ातकैश्वैव तथान्यैरविविधै: खगै: ।। ५३ ।।
श्रोत्ररम्यं सुमधुरं कूजद्धिश्चात्यधिष्ठितान् ।
सरांसि च मनोज्ञानि समन्ताज्जलचारिभि: || ५४ ।।
कुमुदै: पुण्डरीकैश्न तथा कोकनदोत्पलै: ।
कह्लारै:ः कमलैश्वैव आचितानि समन्तत:ः ।। ५५ ||
कायम्बैश्वक्रवाकैश्व कुररैर्जलकुक्कुटै: ।
कारण्डवै: प्लवै्सैर्बकैर्मद्गुभिरेव च ।। ५६ ।।
एतैश्नान्यैश्न कीर्णानि समनन््ताज्जलचारिभि: ।
हृष्टैसतथा तामरसरसासवमदालसै: || ५७ |।
इन वृक्षोंपर निवास करनेवाले चकोर, मोर, भूृंगराज, तोते, कोयल, कलविंक (गौरैया-
चिड़िया), हारीत (हारिल), चकवा, प्रियक, चातक तथा दूसरे नाना प्रकारके पक्षी,
श्रवणसुखद मधुर शब्द बोल रहे थे। वहाँ चारों ओर जलचर जन्तुओंसे भरे हुए मनोहर
सरोवर दृष्टिगोचर होते थे। जिनमें कुमुद, पुण्डरीक, कोकनद, उत्पल, कह्लार और कमल
सब ओर व्याप्त थे। कादम्ब, चक्रवाक, कुरर, जलकुक्कुट, कारण्डव, प्लव, हंस, बक,
मदगु तथा अन्य कितने ही जलचर पक्षी कमलोंके मकरन्दका पान करके मदसे मतवाले
और हर्षसे मुग्ध हुए उन सरोवरोंमें सब ओर फैले थे || ५२--५७ ।।
पद्मोदरच्युतरज:किंजल्कारुणरज्जितै: ।
मज्जुस्वरैर्मधुकरैविरुतान् कमलाकरान् ॥। ५८ ।।
कमलोंसे भरे हुए तालाबोंमें मीठे स्वरसे बोलनेवाले भ्रमरोंके शब्द गूँज रहे थे। वे भ्रमर
कमलके भीतरसे निकली हुई रज तथा केसरोंसे लाल रंगमें रँगे-से जान पड़ते थे || ५८ ।।
अपश्यंस्ते नरव्यापत्रा गन्धमादनसानुषु ।
तथैव पद्मषण्डैश्वू मण्डितांश्ष समन्ततः ॥। ५९ |।
इस प्रकार वे नरश्रेष्ठ गन्थमादनके शिखरोंपर पद्मषण्डमण्डित तालाबोंको सब ओर
देखते हुए आगे बढ़ रहे थे | ५९ ।।
शिखण्डिनीभि: सहिताँललतामण्डलकेषु च ।
मेघतूर्यरवोद्दाममदनाकुलितान् भृूशम् ।। ६० ।।
कृत्वैव केकामधुरं संगीतं मधुरस्वरम् ।
चित्रान् कलापान् विस्तीर्य सविलासान् मदालसान् ।। ६१ ।।
मयूरान् ददृशुर्ह्वशन् नृत्यतो वनलालसान् ।
कांश्षित् प्रियाभि:सहितान् रममाणान् कलापिन: ।। ६२ ।।
वल्लीलतासंकटेषु कुटजेषु स्थितांस्तथा ।
कांश्चिच्च कुटजानां तु विटपेषूत्कटानिव ।। ६३ ।।
कलापरुचिराटोपनिचितान् मुकुटानिव ।
विवरेषु तरूणां च रुचिरान् ददृशुश्ष ते ।। ६४ ।।
वहाँ लता-मण्डपोंमें मोरिनियोंके साथ नाचते हुए मोर दिखायी देते थे। जो मेघोंकी
मृदंगतुल्य गम्भीर गर्जना सुनकर उद्दाम कामसे अत्यन्त उन्मत्त हो रहे थे। वे अपनी मधुर
केकाध्वनिका विस्तार करके मीठे स्वरमें संगीतकी रचना करते थे और अपनी विचित्र पाँखें
फैलाकर विलासयुक्त मदालसभावसे वनविहारके लिये उत्सुक हो प्रसन्नताके साथ नाच रहे
थे। कुछ मोर लतावल्लरियोंसे व्याप्त कुटजवृक्षोंके कुज्जोंमें स्थित हो अपनी प्यारी
मोरिनियोंके साथ रमण करते थे और कुछ कुटजोंकी डालियोंपर मदमत्त होकर बैठे थे तथा
अपनी सुन्दर पाँखोंके घटाटोपसे युक्त हो मुकुटके समान जान पड़ते थे। कितने ही सुन्दर
मोर वृक्षोंके कोटरोंमें बैठे थे। पाण्डवोंने उन सबको देखा ।। ६०--६४ ।।
सिन्धुवारांस्तथोदारान् मन्मथस्येव तोमरान् ।
सुवर्णवर्णकुसुमान् गिरीणां शिखरेषु च ।। ६५ ।।
पर्वतवोंके शिखरोंपर अधिकाधिक संख्यामें सुनहरे कुसुमोंसे सुशोभित सुन्दर
शेफालिकाके- “पौधे दिखायी देते थे, जो कामदेवके तोमर नामक बाण-से प्रतीत होते
थे।। ६५ |।
कर्णिकारान् विकसितान् कर्णपूरानिवोत्तमान् |
तथापश्यन् कुरबकान् वनराजिषु पुष्यितान् । ६६ ।।
कामवश्यौत्सुक्यकतन् कामस्येव शरोत्करान् |
तथैव वनराजीनामुदारान् रचितानिव ।। ६७ ।।
विराजमानांस्ते5पश्यंस्तिलकांस्तिलकानिव ।
तथानड्रशराकारान् सहकारान् मनोरमान् ।। ६८ ।।
अपश्यन् भ्रमरारावान् मगज्जरीभिरविराजितान् |
हिरण्यसदृशैः पुष्पैर्दावाग्निसदृशैरपि ।। ६९ ।।
लोहितैरज्जनाभैश्ष वैदूर्यसदृशैरपि ।
अतीव वृक्षा राजन्ते पुष्पिता: शैलसानुषु ।। ७० ।।
खिले हुए कनेरके फूल उत्तम कर्णपूरके समान प्रतीत होते थे। इसी प्रकार वन-
श्रेणियोंमें विकसित कुरबक नामक वृक्ष भी उन्होंने देखे, जो कामासक्त पुरुषोंको
उत्कण्ठित करनेवाले कामदेवके बाणसमूहोंके समान जान पड़ते थे। इसी प्रकार उन्हें
तिलकके वृक्ष दृष्टिगोचर हुए, जो वनश्रेणियोंके ललाटमें रचित सुन्दर तिलकके समान
शोभा पा रहे थे। कहीं मनोहर मंजरियोंसे विभूषित मनोरम आम्रवृक्ष दीख पड़ते थे, जो
कामदेवके बाणोंकी-सी आकृति धारण करते थे। उनकी डालियोंपर भौंरोंकी भीड़ गूँजती
रहती थी। उन पर्वतोंके शिखरोंपर कितने ही ऐसे वृक्ष थे, जिनमें सुवर्णके समान सुन्दर
पुष्प खिले थे। कुछ वक्षोंके पुष्प देखनेमें दावानलका भ्रम उत्पन्न करते थे। किन्हीं वृक्षोंके
फूल लाल, काले तथा वैदूर्यमणिके सदृश धूमिल थे। इस प्रकार पर्वतीय शिखरोंपर विभिन्न
प्रकारके पुष्पोंसे विभूषित वृक्ष बड़ी शोभा पा रहे थे || ६६--७० ।।
तथा शालांस्तमालांश्व पाटलान् बकुलानपि ।
माला इव समासक्ता: शैलानां शिखरेषु च ।। ७१ ।।
इसी तरह शाल, तमाल, पाटल और बकुल आदि वृक्ष उन शैलशिखरोंपर धारण की
हुई मालाकी भाँति शोभा पा रहे थे || ७१ ।।
विमलस्फाटिकाभानि पाण्डुरच्छदनैर्दधिजै: ।
कलहंसैरुपेतानि सारसाभिरुतानि च ।। ७२ ।।
सरांसि बहुशः पार्था: पश्यन्त: शैलसानुषु ।
पद्मोत्पलविमिश्राणि सुखशीतजलानि च ।। ७३ ।।
पाण्डवोंने पर्वतीय शिखरोंपर बहुत-से ऐसे सरोवर देखे, जो निर्मल स्फटिकमणिके
समान सुशोभित थे। उनमें सफेद पाँखवाले पक्षी कलहंस आदि विचरते तथा सारस कलरव
करते थे। कमल और उत्पल-पुष्पोंसे संयुक्त उन सरोवरोंमें सुखद एवं शीतल जल भरा
था || ७२-७३ |।
एवं क्रमेण ते वीरा वीक्षमाणा: समन्ततः ।
गन्धवन्त्यथ माल्यानि रसवन्ति फलानि च ।। ७४ ।।
सरांसि च मनोज्ञानि वृक्षांश्रवातिमनोरमान् ।
विविशु: पाण्डवा: सर्वे विस्मयोत्फुल्ललोचना: ।। ७५ ||
इस प्रकार वे वीर पाण्डव चारों ओर सुगन्धित पुष्पमालाएँ, सरस फल, मनोहर सरोवर
और मनोरम वृक्षावलियोंको क्रमश: देखते हुए गन्धमादन पर्वतके वनमें प्रविष्ट हुए। वहाँ
पहुँचनेपर उन सबकी आँखें आश्वर्यसे खिल उठीं || ७४-७५ ।।
कमलोत्पलकटछ्लारपुण्डरीकसुगन्धिना ।
सेव्यमाना वने तस्मिन् सुखस्पर्शेन वायुना || ७६ ।।
उस समय कमल, उत्पल, कह्नलार और पुण्डरीककी सुन्दर गन्ध लिये मन्द मधुर वायु
उस वनमें मानो उन्हें व्यजन डुलाती थी ।। ७६ ।।
ततो युधिष्ठटिरो भीममाहेदं प्रीतिमद् वच: ।
अहो श्रीमदिदं भीम गन्धमादनकाननम् ।। ७७ ||
तदनन्तर युधिष्छिरने भीमसेनसे प्रसन्नतापूर्ण यह बात कही--“भीम! यह गन्धमादन-
कानन कितना सुन्दर और कैसा अद्भुत है? | ७७ ।।
वने हास्मिन् मनोरम्ये दिव्या: काननजा द्रुमा: ।
लताश्न विविधाकारा: पत्रपुष्पफलोपगा: ।। ७८ ।।
“इस मनोरम वनके वृक्ष और नाना प्रकारकी लताएँ दिव्य हैं। इन सबमें पत्र, पुष्प और
फलोंकी बहुतायत है || ७८ ।।
भान्त्येते पुष्पविकचा: पुंस्कोकिलकुलाकुला: ।
नात्र कण्टकिन: केचिन्न च विद्यन्त्यपुष्पिता: ।। ७९ ।।
'ये सभी वृक्ष फूलोंसे लदे हैं। कोकिल-कुलसे अलंकृत हैं। इस वनमें कोई भी वृक्ष ऐसे
नहीं हैं, जिनमें काँटे हों और जो खिले न हों ।। ७९ ।।
स्निग्धपत्रफला वृक्षा गन्धमादनसानुषु ।
भ्रमरारावमधुरा नलिनी: फुल्लपड़कजा: ।। ८० ।।
गन्धमादनके शिखरोंपर जितने वृक्ष हैं, उन सबके पत्र और फल चिकने हैं। सभी
भ्रमरोंके मधुर गुंजारवसे मनोहर जान पड़ते हैं। यहाँके सरोवरोंमें कमल खिले हुए
हैं ।। ८० ।।
विलोड्यमाना: पश्येमा: करिभि: सकरेणुभि: ।
पश्येमां नलिनीं चान्यां कमलोत्पलमालिनीम् ॥। ८१ ।।
स्रग्धरां विग्रहवतीं साक्षाच्छियमिवापराम् ।
नानाकुसुमगन्धाढ्यास्तस्येमा: काननोत्तमे ।। ८२ ।।
उपगीयमाना भ्रमरै राजन्ते वनराजय: ।
पश्य भीम शुभान् देशान् देवाक्रीडान् समन््ततः ।। ८३ |।
“देखो, हथिनियोंसहित हाथी इन तालाबोंमें घुसकर इन्हें मथे डालते हैं और इस दूसरी
पुष्करिणीपर दृष्टिपात करो, जो कमल और उत्पलकी मालाओंसे अलंकृत है। यह
कमलमालाधारिणी साक्षात् दूसरी लक्ष्मीके समान मानो साकार विग्रह धारण करके प्रकट
हुई है। गन्धमादनके इस उत्तम वनमें नाना प्रकारके कुसुमोंकी सुगन्धसे सुवासित ये छोटी-
छोटी वनश्रेणियाँ भ्रमरोंके गीतोंसे मुखरित हो कैसी शोभा पा रही हैं? भीमसेन! देखो,
यहाँके सुन्दर प्रदेशोंमें चारों ओर देवताओंकी क्रीडास्थली है | ८१--८३ ।।
अमानुषगतिं प्राप्ता: संसिद्धा: सम वृकोदर ।
लताभि: पुष्पिताग्राभि: पुष्पिता: पादपोत्तमा: ।। ८४ ।।
संश्लिष्टा: पार्थ शोभन्ते गन्धमादनसानुषु ।
“वृकोदर! हमलोग ऐसे स्थानपर आ गये हैं, जो मानवोंके लिये अगम्य है। जान पड़ता
है हम सिद्ध हो गये हैं। कुन्तीनन्दन! गन्धमादनके शिखरोंपर ये फ़ूलोंसे भरे हुए उत्तम वृक्ष
इन पुष्पित लताओंसे अलंकृत होकर कैसी शोभा पा रहे हैं? ।। ८४३ ।।
शिखण्डिनीभि श्षचरतां सहितानां शिखण्डिनाम् ।। ८५ ।।
नदतां शृणु निर्घोषं भीम पर्वतसानुषु ।
'भीम! इन पर्वतशिखरोंपर मोरिनियोंके साथ विचरते बोलते हुए मोरोंका यह मधुर
केकारव तो सुनो || ८५३६ ।।
चकोरा: शतपत्राशक्ष मत्तकोकिलसारिका: ।। ८६ ||
पत्रिण: पुष्पितानेतान् संपतन्ति महाद्रुमान् ।
“ये चकोर, शतपत्र, मदोन्मत्त कोकिल और सारिका आदि पक्षी इन पुष्पमण्डित
विशाल वृक्षोंकी ओर कैसे उड़े जा रहे हैं? ।। ८६३ ।।
रक्तपीतारुणा: पार्थ पादपाग्रगता: खगा: ।। ८७ ।।
परस्परमुदी क्षन्ते बहवो जीवजीवका: ।
'पार्थ! वृक्षोंकी ऊँची शिखाओंपर बैठे हुए लाल, गुलाबी और पीले रंगके चकोर पक्षी
एक-दूसरेकी ओर देख रहे हैं || ८७३ ।।
हरितारुणवर्णानां शाद्धलानां समीपत: ।। ८८ ।।
सारसा: प्रतिदृश्यन्ते शैलप्रस्रवणेष्वपि ।
उधर हरी और लाल घासोंके समीप पर्वतीय झरनोंके पास सारस दिखायी देते
हैं ।। ८८६ ।।
वदन्ति मधुरा वाच: सर्वभूतमनोरमा: ।। ८९ ।।
भूज़राजोपचक्राश्व लोहपृष्ठा: पतत्त्रिण: ।
'भृंगराज, उपचक्र (चक्रवाक) और लोहपृष्ठ (कंक) नामक पक्षी ऐसी मीठी बोली
बोलते हैं, जो समस्त प्राणियोंके मनको मोह लेती है || ८९३ ।।
चतुर्विषाणा: पद्माभा: कुड्जरा: सकरेणव: ॥। ९० ||
एते वैदूर्यवर्णाभं क्षोभयन्ति महत् सर: ।
“इधर देखो, ये कमलके समान कान्तिवाले गजराज, जिनके चार दाँत शोभा पा रहे हैं,
हथिनियोंके साथ आकर वैदूर्यमणिके समान सुशोभित इस महान् सरोवरको मथे डालते
हैं ।। ९०६ ।।
बहुतालसमुत्सेधा: शैलशृज्गभपरिच्युता: ।। ९१ ।।
नानाप्रस्रवणेभ्यश्ष वारिधारा: पतन्ति च ।
“अनेक झरनोंसे जलकी धाराएँ गिर रही हैं। जिनकी ऊँचाई कई ताड़के बराबर है और
ये पर्वतके सर्वोच्च शिखरसे नीचे गिरती हैं ।। ९१ ह ।।
भास्कराभा: प्रभाभिश्न शारदाभ्रघनोपमा: ।। ९२ |।।
शोभयन्ति महाशैलं नानारजतधातव: ।
क्वचिदगञ्जनवर्णा भा: क्वचित् काउचनसन्निभा: ।। ९३ ।।
“नाना प्रकारके रजतमय धातु इस महान् पर्वतकी शोभा बढ़ा रहे हैं। इनमेंसे कुछ तो
अपनी प्रभाओंसे भगवान् भास्करके समान प्रकाशित होते हैं और कुछ शरद्-ऋतुके श्वेत
बादलोंके समान सुशोभित हो रहे हैं। कहीं काजलके समान काले और सुवर्णके समान
पीले रंगके धातु दीख पड़ते हैं ।। ९२-९३ ।।
धातवो हरितालस्य क्वचिद्धिड्गुलकस्य च ।
मन:शिलागुहाश्रैव सन्ध्या भ्रनिकरोपमा: ।। ९४ ।।
“कहीं हरितालसम्बन्धी धातु हैं और कहीं हिंगुलसम्बन्धी। कहीं मैनसिलकी गुफाएँ हैं,
जो संध्याकालीन लाल बादलोंके समान जान पड़ती हैं ।। ९४ ।।
शशलोहितवर्णाभा: क्वचिद्गैरिकधातव: ।
सितासिताभ्रप्रतिमा बालसूर्यसमप्र भा: ।। ९५ ।।
“कहीं गेरु नामक धातु हैं, जिनकी कान्ति लाल खरगोशके समान दिखायी देती है।
कोई धातु श्वेत बादलोंके समान हैं, तो कोई काले मेघोंके समान। कोई प्रातःकालके सूर्यकी
भाँति लाल रंगके हैं ।। ९५ ।।
एते बहुविधा: शैलं शोभयन्ति महाप्रभा: ।
गन्धर्वा: सह कान्ताभिर्यथोक्त वृषपर्वणा ।। ९६ ।।
दृश्यन्ते शैलशड्रेषु पार्थ किम्पुरुषै: सह ।
'ये नाना प्रकारकी परम कान्तिमान् धातु समूचे शैलकी शोभा बढाती हैं। पार्थ! जिस
प्रकार वृषपर्वाने कहा था उसी प्रकार इन पर्वतीय शिखरोंपर अपनी प्रेयसी अप्सराओं तथा
किम्पुरुषोंके साथ गन्धर्व दृष्टिगोचर होते हैं ।। ९६३ ।।
गीतानां समतालानां तथा साम्नां च नि:ःस्वन: ।। ९७ ।।
श्रूयते बहुधा भीम सर्वभूतमनोहर: ।
महागज्जामुदीक्षस्व पुण्यां देवनदीं शुभाम् ।। ९८ ।।
'भीमसेन! यहाँ सम तालसे गाते हुए गीतों तथा साममन्त्रोंका विविध स्वर सुनायी
पड़ता है, जो सम्पूर्ण भूतोंके चित्तको आकर्षित करनेवाला है। यह परम पवित्र एवं
कल्याणमयी देवनदी महागंगा हैं, इनका दर्शन करो ।।
कलहंसगणैर्जुष्टामृषिकिन्नरसेविताम् ।
धातुभिश्न सरिद्धिश्न किन्नरैर्मुगपक्षिभि: ।। ९९ ।।
गन्धर्वैरप्सरोभिश्व काननैश्ष मनोरमै: ।
व्यालैश्व विविधाकारै: शतशीर्षै: समनन्तत:ः ।। १०० ||
उपेतं पश्य कौन्तेय शैलराजमरिन्दम ।
“यहाँ हंसोंके समुदाय निवास करते हैं तथा ऋषि एवं किन्नरगण सदा इन (गंगाजी)-का
सेवन करते हैं। शत्रुदमन भीम! भाँति-भाँतिके धातुओं, नदियों, किन्नरों, मृगों, पक्षियों,
गन्धर्वों, अप्सराओं, मनोरम काननों तथा सौ मस्तकवाले भाँति-भाँतिके सर्पोसे सम्पन्न इस
पर्वतराजका दर्शन करो” ।। ९९-१०० $ ||
वैशग्पायन उवाच
ते प्रीतमनस: शूरा: प्राप्ता गतिमनुत्तमाम् ।। १०१ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--इस प्रकार वे शूरवीर पाण्डव हर्षपूर्ण हृदयसे अपने परम
उत्तम लक्ष्य स्थानको पहुँच गये || १०१ ।।
नातृप्यन् पर्वतेन्द्रस्य दर्शनेन परन्तपा: ।
उपेतमथ माल्यैश्व फलवद्धिश्न पादपै: । १०२ ।।
आर्डिषेणस्य राजर्षेराश्रमं ददृशुस्तदा |
गिरिराज गन्धमादनका दर्शन करनेसे उन्हें तृप्ति नहीं होती थी। तदनन्तर परंतप
पाण्डवोंने पुष्पमालाओं तथा फलवान् वृक्षोंसे सम्पन्न राजर्षि आर्दिषेणका आश्रम
देखा || १०२३ ।।
ततस्ते तिग्मतपसं कृशं धमनिसंततम् |
पारगं सर्वधर्माणामार्टिषिणमुपागमन् ।। १०३ ।।
फिर वे कठोर तपस्वी दुर्बलकाय तथा नस-नाड़ियोंसे ही व्याप्त राजर्षि आर्टिषेणके
समीप गये, जो सम्पूर्ण धर्मोके पारंगत विद्वान थे || १०३ ।।
इति श्रीमहाभारते आरण्यके पर्वणि यक्षयुद्धपर्वणि गन्धमादनप्रवेशे
अष्टपपञज्चाशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १५८ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत यक्षयुद्धपर्वमें गन््धमादनप्रवेशविषयक एक सौ
अद्वावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १५८ ॥।
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- सिन्धुवार शब्दका अर्थ आचार्य नीलकण्ठने कमल माना है। आधुनिक कोषकारोंने 'सिन्धुवार'को शेफालिका या
निर्गुण्डीका पर्याय माना है। उसके फूल मंजरीके आकारमें केसरिया रंगके होते हैं, अत: तोमरसे उनकी उपमा ठीक बैठती
है। इसीलिये यहाँ शेफालिका अर्थ लिया गया।
एकोनषष्टर्याधकशततमो< ध्याय:
प्रश्नके रूपमें आर्डिषिणका युधिष्ठिरके प्रति उपदेश
वैशम्पायन उवाच
युधिष्ठिरस्तमासाद्य तपसा दग्धकिल्बिषम् |
अभ्यवादयत प्रीतः शिरसा नाम कीर्तयन् ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! राजर्षि आर्टिषेणने तपस्याद्वारा अपने सारे पाप
दग्ध कर दिये थे। राजा युधिष्ठिरने उनके पास जाकर बड़ी प्रसन्नताके साथ अपना नाम
बताते हुए उनके चरणोंमें मस्तक रखकर प्रणाम किया ।। १ ।।
ततः कृष्णा च भीमश्न यमौ च सुतपस्विनौ ।
शिरोभ्रि: प्राप्य राजर्षि परिवार्योपतस्थिरे ।। २ ।।
तदनन्तर द्रौपदी, भीमसेन और परम तपस्वी नकुल-सहदेव--ये सभी मस्तक झुकाकर
उन राजर्षिको चारों ओरसे घेरकर खड़े हो गये ।। २ ।।
तथैव धौम्यो धर्मज्ञ: पाण्डवानां पुरोहित: ।
यथान्यायमुपाक्रान्तस्तमृषिं संशितव्रतम् ।। ३ ।।
उसी प्रकार पाण्डवोंके पुरोहित धर्मज्ञ धौम्यजी कठोर व्रतका पालन करनेवाले राजर्षि
आ्शडिषिणके पास यथोचित शिष्टाचारके साथ उपस्थित हुए ।। ३ ।।
अन्वजानातू स धर्मज्ञो मुनिर्दिव्येन चक्षुषा ।
पाण्डो: पुत्रान् कुरुश्रेष्ठानास्यतामिति चाब्रवीत् ।। ४ ।।
उन धर्मज्ञ मुनि आर्डिषेणने अपनी दिव्यदृष्टिसे कुरुश्रेष्ठ पाण्डवोंको जान लिया और
कहा, “आप सब लोग बैठें” ।। ४ ।।
कुरूणामृषभं पार्थ पूजयित्वा महातपा: ।
सह भ्रातृभिरासीनं पर्यपृच्छटदनामयम् ।। ५ ।।
महातपस्वी आर्टिषिणने भाइयोंसहित कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिका यथोचित आदर-सत्कार
किया और जब वे बैठ गये, तब उनसे कुशल-समाचार पूछा-- || ५ ।।
नानृते कुरुषे भावं कच्चिद् धर्मे प्रवर्तसे ।
मातापित्रोश्व ते वृत्ति: कच्चित् पार्थ न सीदति ।। ६ ।।
“कुन्तीनन्दन! कभी झूठकी ओर तो तुम्हारा मन नहीं जाता? तुम धर्ममें लगे रहते हो
न? माता-पिताके प्रति जो तुम्हारी सेवावृत्ति होनी चाहिये, वह है न? उसमें शिथिलता तो
नहीं आयी है? ।। ६ ।।
कच्चित् ते गुरव: सर्वे वृद्धा वैद्याश्न पूजिता: ।
कच्चिन्न कुरुषे भावं पार्थ पापेषु कर्मसु |। ७ ।।
“क्या तुमने समस्त गुरुजनों, बड़े-बूढ़ों और विद्वानोंका सदा समादर किया है? पार्थ!
कभी पापकर्मामें तो तुम्हारी रुचि नहीं होती? ।। ७ ।।
सुकृतं प्रतिकर्तु च कच्चिद्धातुं च दुष्कृतम् ।
यथान्यायं कुरुश्रेष्ठ जानासि न विकत्थसे ।। ८ ।।
“कुरुश्रेष्ठ! क्या तुम अपने उपकारीको उसके उपकारका यथोचित बदला देना जानते
हो? क्या तुम्हें अपना अपकार करनेवाले मनुष्यकी उपेक्षा कर देनेकी कला का ज्ञान है?
तुम अपनी बड़ाई तो नहीं करते? ।। ८ ।।
यथा मानिता: कच्चित् त्वया नन्दन्ति साधव: ।
वनेष्वपि वसन् कच्चिद् धर्ममेवानुवर्तसे ।। ९ ।।
“क्या तुमसे यथायोग्य सम्मानित होकर साधु पुरुष तुमपर प्रसन्न रहते हैं? क्या तुम
वनमें रहते हुए भी सदा धर्मका ही अनुसरण करते हो? ।। ९ ।।
कच्चिद् धौम्यस्त्वदाचारैर्न पार्थ परितप्यते ।
दानधर्मतपःशौचैरार्जवेन तितिक्षया ।। १० ।।
पितृपैतामहं वृत्तं कच्चित् पार्थनुवर्तसे ।
कच्चिद् राजर्षियातेन पथा गच्छसि पाण्डव ।। ११ ।।
'पार्थ! तुम्हारे आचार-व्यवहारसे पुरोहित धौम्यजीको क्लेश तो नहीं पहुँचता है?
कुन्तीनन्दन! कया तुम दान, धर्म, तप, शौच, सरलता और क्षमा आदिके द्वारा अपने बाप-
दादोंके आचार-व्यवहारका अनुसरण करते हो? पाण्डुनन्दन! प्राचीन राजर्षि जिस मार्गसे
गये हैं, उसीपर तुम भी चलते हो न? ।। १०-११ ।।
स्वे स्वे किल कुले जाते पुत्रे नप्तरि वा पुन: ।
पितर: पितृलोकस्था: शोचन्ति च हसन्ति च ।। १२ ।।
कि तस्य दुष्कृते5स्माभि: सम्प्राप्तव्यं भविष्यति ।
कि चास्य सुकृतेडस्माभि: प्राप्तव्यमिति शोभनम् ।। १३ ।।
“कहते हैं, जब-जब अपने-अपने कुलमें पुत्र अथवा नातीका जन्म होता है, तब-तब
पितृलोकमें रहनेवाले पितर शोकमग्न होते हैं और हँसते भी हैं। शोक तो उन्हें यह सोचकर
होता है कि “क्या हमें इसके पापमें हिस्सा बँटाना पड़ेगा?” और हँसते इसलिये हैं कि “क्या
हमें इसके पुण्यका कुछ भाग मिलेगा? यदि ऐसा हो तो बड़ी अच्छी बात है! || १२-१३ ।।
पिता माता तथैवाग्निर्गुरुरात्मा च पठचम: ।
यस्यैते पूजिता: पार्थ तस्था लोकावुभौ जितौ ।। १४ ।।
'पार्थ! जिसके द्वारा पिता, माता, अग्नि, गुरु और आत्मा--इन पाँचोंका आदर होता
है, वह यह लोक और परलोक दोनोंको जीत लेता है” || १४ ।।
युधिछिर उवाच
भगवन्नार्य माहैतद् यथावद् धर्मनिश्चयम् ।
यथाशक्ति यथान्यायं क्रियते विधिवन्मया ।। १५ ।।
युधिष्ठिरने कहा--भगवन्! आर्यचरण! आपने मुझे यह धर्मका निचोड़ बताया है। मैं
अपनी शक्तिके अनुसार यथोचित रीतिसे विधिपूर्वक इसका पालन करता हूँ ।। १५ ।।
आर्शिषिण उवाच
अब्भक्षा वायुभक्षाश्व प्लवमाना विहायसा ।
जुषन्ते पर्वतश्रेष्ठमृषय: पर्वसंधिषु ।। १६ ।।
आर्डिषेण बोले--पार्थ! पर्वोकी संधिवेलामें (पूर्णिमा तथा प्रतिपदाकी संधिमें) बहुत-
से ऋषिगण आकाशभमार्गसे उड़ते हुए आते हैं और इस श्रेष्ठ पर्वतका सेवन करते हैं। उनमेंसे
कितने तो केवल जल पीकर जीवन-निर्वाह करते हैं और कितने केवल वायु पीकर रहते
हैं ।। १६ ||
कामिन: सह कान्ताभि: परस्परमनुव्रता: ।
दृश्यन्ते शैलशूड्रस्था यथा किम्पुरुषा नृप ।। १७ ।।
राजन! कितने ही किम्पुरुष-जातिके कामी अपनी कामिनियोंके साथ परस्पर
अनुरक्तभावसे यहाँ क्रीडाके लिये आते हैं और पर्वतके शिखरोंपर घूमते दिखायी देते
हैं ।। १७ ।।
अरजांसि च वासांसि वसाना: कौशिकानि च ।
दृश्यन्ते बहवः पार्थ गन्धर्वाप्सरसां गणा: ।। १८ ।।
कुन्तीकुमार! गन्धर्वों और अप्सराओंके बहुत-से गण यहाँ देखनेमें आते हैं, उनमेंसे
कितने ही स्वच्छ वस्त्र धारण करते हैं और कितने ही रेशमी वस्त्रोंसे सुशोभित होते
हैं ।। १८ ।।
विद्याधरगणाश्षैव स्रग्विण: प्रियदर्शना: ।
महोरगगणांश्वैव सुपर्णाश्षीरगादय: ।। १९ ।।
विद्याधरोंके गण भी सुन्दर फूलोंके हार पहने अत्यन्त मनोहर दिखायी देते हैं। इनके
सिवा बड़े-बड़े नागगण, सुपर्णजातीय पक्षी तथा सर्प आदि भी दृष्टिगोचर होते हैं ।। १९ ।।
अस्य चोपरि शैलस्य श्रूयते पर्वसंधिषु ।
भेरीपणवशड्खानां मृदड़ानां च नि:ःस्वन: | २० ||
पर्वोकी संधि-बेलामें इस पर्वतके ऊपर भेरी, पणव, शंख और मृदंगोंकी ध्वनि सुनायी
देती है ।। २० ।।
इहस्थैरेव तत् सर्व श्रोतव्यं भरतर्षभा: ।
न कार्या व: कथंचित् स्यात् तत्राभिगमने मति: ।। २१ ।।
भरतकुलभूषण पाण्डवो! तुम्हें यहीं रहकर वह सब कुछ देखना या सुनना चाहिये।
वहाँ पर्वतके ऊपर जानेका विचार तुम्हें किसी प्रकार भी नहीं करना चाहिये || २१ ।।
न चाप्यत: परं शक््यं गन्तुं भरतसत्तमा: |
विहारो ह्वञात्र देवानाममानुषगतिस्तु सा ।। २२ ।।
भरतश्रेष्ठ] इससे आगे जाना असम्भव है। वहाँ देवताओंकी विहारस्थली है। वहाँ
मनुष्योंकी गति नहीं हो सकती ।। २२ ।।
ईषच्चपलकर्माणं मनुष्यमिह भारत |
द्विषन्ति सर्वभूतानि ताडयन्ति च राक्षसा: ।। २३ ।।
भारत! यहाँ थोड़ी-सी भी चपलता करनेवाले मनुष्यसे सब प्राणी द्वेष करते हैं तथा
राक्षसलोग उसपर प्रहार कर बैठते हैं || २३ ।।
अस्यातिक्रम्य शिखरं कैलासस्य युधिष्छिर ।
गति: परमसिद्धानां देवर्षीणां प्रकाशते ।। २४ ।।
युधिष्ठिर! इस कैलासके शिखरको लाँघ जानेपर परम सिद्ध देवर्षियोंकी गति प्रकाशित
होती है ।। २४ ।।
चापलादिह गच्छन्तं पार्थ यानमित: परम् |
अय:शूलादिभिष्ष्नन्ति राक्षसा: शत्रुसूदन ।। २५ ।।
शत्रुसूदन पार्थ! चपलतावश इससे आगेके मार्गपर जानेवाले मनुष्यको राक्षसगण
लोहेके शूल आदिसे मारते हैं || २५ ।।
अप्सरोभि: परिवृत: समृद्धया नरवाहन: ।
इह वैश्रवणस्तात पर्वसंधिषु दृश्यते | २६ ।।
तात! पर्वोकी संधिके समय यहाँ मनुष्योंपर सवार होनेवाले कुबेर अप्सराओंसे घिरकर
अपने अतुल वैभवके साथ दिखायी देते हैं । २६ ।।
शिखरस्थं समासीनमधिपं यक्षरक्षसाम् ।
प्रेक्षन्ते सर्वभूततानि भानुमन्तमिवोदितम् ।। २७ ।।
यक्षों तथा राक्षसोंके अधिपति कुबेर जब इस कैलाशशिखरपर विराजमान होते हैं, उस
समय उदित हुए सूर्यकी भाँति शोभा पाते हैं। उस अवसरपर सब प्राणी उनका दर्शन करते
हैं || २७ ।।
देवदानवसिद्धानां तथा वैश्रवणस्य च ।
गिरे: शिखरमूद्यानमिदं भरतसत्तम || २८ ।।
भरतश्रेष्ठ! पर्वतका यह शिखर देवताओं, दानवों, सिद्धों तथा कुबेरका क्रीड़ा-कानन
है || २८ ।।
उपासीनस्य धनदं तुम्बुरो: पर्वसंधिषु ।
गीतसामस्वनस्तात श्रूयते गन्धमादने ।। २९ ।।
तात! पर्वसंधिके समय गन्धमादन पर्वतपर कुबेरकी सेवामें उपस्थित हुए तुम्बुरु
गन्धर्वके साम-गानका स्वर स्पष्ट सुनायी पड़ता है ।। २९ ।।
एतदेवंविध॑ चित्रमिह तात युधिष्िर ।
प्रेक्षन्ते सर्वभूतानि बहुश: पर्वसंधिषु | ३० ।।
तात युधिष्ठिर! इस प्रकार पर्वसंधिकालमें सब प्राणी यहाँ अनेक बार ऐसे-ऐसे अद्भुत
दृश्योंका दर्शन करते हैं ।।
भुज्जाना मुनिभोज्यानि रसवन्ति फलानि च ।
वसध्व॑ पाण्डवश्रेष्ठा यावदर्जुनदर्शनात् ।। ३१ ।।
श्रेष्ठ पाण्डवो! जबतक तुम्हारी अर्जुनसे भेंट न हो, तबतक मुनियोंके भोजन
करनेयोग्य सरस फलोंका उपभोग करते हुए तुम सब लोग यहाँ (सानन्द) निवास
करो ।। ३१ ।।
न तात चपलैर्भाव्यमिह प्राप्त: कथंचन ।
उषित्वेह यथाकामं यथाश्रद्ध॑ विहृत्य च |
ततः शस्त्रजितां तात पृथिवीं पालयिष्यसि ।। ३२ ।।
तात! यहाँ आनेवाले लोगोंको किसी प्रकार चपल नहीं होना चाहिये। तुम यहाँ अपनी
इच्छाके अनुसार रहकर और श्रद्धाके अनुसार घूम-फिरकर लौट जाओगे और श्त्रोंद्वारा
जीती हुई पृथ्वीका पालन करोगे ।। ३२ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि यक्षयुद्धपर्वणि आर्टिषेणयुधिष्ठटिरसंवादे
एकोनषष्ट्यधिकशततमो<ध्याय ।। १५९ ||
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत यक्षयुद्धपर्वमें आर्दिषेण-युधिष्ठिरसंवादविषयक
एक सौ उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १५९ ॥।
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षष्टर्याधिकशततमो< ध्याय:
पाण्डवोंका आर्टशिषेणके आश्रमपर निवास, द्रौपदीके
अनुरोधसे भीमसेनका पर्वतके शिखरपर जाना और यक्षों
तथा राक्षसोंसे युद्ध करके मणिमान्का वध करना
जनमेजय उवाच
आर्डिषेणाश्रमे तस्मिन् मम पूर्वपितामहा: ।
पाण्डो: पुत्रा महात्मान: सर्वे दिव्यपराक्रमा: ।। १ ॥।
कियन्तं कालमवसन् पर्वते गन्धमादने ।
कि च चक्रुर्महावीर्या: सर्वेडतिबलपौरुषा: ।। २ ।।
जनमेजयने पूछा--ब्रह्मन! गन्धमादन पर्वतपर आर्टिषेणके आश्रममें मेरे समस्त
पूर्वपितामह दिव्य पराक्रमी महामना पाण्डव कितने समयतक रहे? वे सभी महान् पराक्रमी
और अत्यन्त बल-पौरुषसे सम्पन्न थे। वहाँ रहकर उन्होंने क्या किया? ।। १-२ ।।
कानि चाभ्यवहार्याणि तत्र तेषां महात्मनाम् ।
वसतां लोकवीराणामासंस्तद् ब्रूहि सत्तम || ३ ।।
साधुशिरोमणे! वहाँ निवास करते समय विश्वविख्यात वीर महामना पाण्डवोंके भोज्य
पदार्थ क्या थे? यह बतानेकी कृपा करें ।। ३ ।।
विस्तरेण च मे शंस भीमसेनपराक्रमम् ।
यत् यच्चक्रे महाबाहुस्तस्मिन् हैमवते गिरौ ।। ४ ।।
आप मुझसे भीमसेनका पराक्रम विस्तारपूर्वक बतावें। उन महाबाहुने हिमालय पर्वतके
शिखरपर रहते समय कौन-कौन-सा कार्य किया था? ।। ४ ।।
न खल्वासीतू पुनर्युद्धं तस्य यक्षैर््धिजोत्तम ।
कच्चित् समागमस्तेषामासीद् वैश्रवणस्य च ।। ५ ।।
द्विजश्रेष्ठ! उनका यक्षोंके साथ फिर कोई युद्ध हुआ था या नहीं। क्या कुबेरके साथ
कभी उनकी भेंट हुई थी? ।। ५ ।।
तत्र ह्वायाति धनद आर्टिषेणो यथाब्रवीत् ।
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं विस््तरेण तपोधन ।। ६ ।।
न हि मे शृण्वतस्तृप्तिरस्ति तेषां विचेष्टितम् ।
क्योंकि आ्षिणने जैसा बताया था, उसके अनुसार वहाँ कुबेर अवश्य आते रहे होंगे।
तपोधन! मैं यह सब विस्तारके साथ सुनना चाहता हूँ; क्योंकि पाण्डवोंका चरित्र सुननेसे
मुझे तृप्ति नहीं होती || ६६ ।।
वैशम्पायन उवाच
एतदात्महितं श्रुत्वा तस्याप्रतिमतेजस: ।। ७ ।।
शासन सतत चक्रुस्तथैव भरतर्षभा: ।
वैशम्पायनजीने कहा--राजन्! अप्रतिम तेजस्वी आर्डिषिणका यह अपने लिये
हितकर वचन सुनकर भरतकुल-भूषण पाण्डवोंने सदा उनके आदेशका उसी प्रकार पालन
किया ।। ७६ ||
भुज्जाना मुनिभोज्यानि रसवन्ति फलानि च ॥। ८ ।।
मेध्यानि हिमवत्पृछ्ठे मधूनि विविधानि च ।
एवं ते न्यवसंस्तत्र पाण्डवा भरतर्षभा: ।। ९ ||
वे हिमालयके शिखरपर निवास करते हुए मुनियोंके खानेयोग्य सरस फलोंका और
नाना प्रकारके पवित्र (बिना हिंसाके प्राप्त) मधुका भी भोजन करते थे। इस प्रकार
भरतश्रेष्ठ पाण्डव वहाँ निवास करते थे ।। ८-९ ।।
तथा निवसतां तेषां पञ्चमं वर्षमभ्यगात् ।
शृण्वतां लोमशोक्तानि वाक््यानि विविधान्युत ।। १० ।।
वहाँ निवास करते हुए उनका पाँचवाँ वर्ष बीत गया। उन दिनों वे लोमशजीकी कही हुई
नाना प्रकारकी कथाएँ सुना करते थे ।। १० ।।
कृत्यकाल उपस्थास्य इति चोक््त्वा घटोत्कच: ।
राक्षसै: सह सर्वश्च पूर्वमेव गत: प्रभो ।। ११ ।।
राजन! घटोत्कच यह कहकर कि “मैं आवश्यकताके समय स्वयं उपस्थित हो जाऊँगा'
सब राक्षसोंके साथ पहले ही चला गया था ।। ११ ।।
आर्डिषेणाश्रमे तेषां वसतां वै महात्मनाम् |
अगच्छन् बहवो मासा: पश्यतां महदद्भुतम् | १२ ।।
आर्टिषेणके आश्रममें रहकर अत्यन्त अद्भुत दृश्योंका अवलोकन करते हुए महामना
पाण्डवोंके अनेक मास व्यतीत हो गये ।। १२ ।।
तैस्तत्र विहरद्धिश्च रममाणैश्न पाण्डवै: ।
प्रीतिमन्तो महाभागा मुनयश्लारणास्तथा ।। १३ ।।
वहाँ रहकर क्रीडा-विहार करते हुए उन पाण्डवोंसे महाभाग मुनि और चारण बहुत
प्रसन्न थे || १३ ।।
आज म्मु: पाण्डवान द्रष्ू शुद्धात्मानो यतव्रता: ।
ते तैः सह कथां चक्रुर्दिव्यां भरतसत्तमा: ।। १४ ।।
उनका अन्तःकरण शुद्ध था और वे संयम-नियमके साथ उत्तम व्रतका पालन
करनेवाले थे। एक दिन वे सभी पाण्डवोंसे मिलनेके लिये आये। भरतशिरोमणि पाण्डवोंने
उनके साथ दिव्य चर्चाएँ की || १४ ।।
ततः कतिपयाहस्य महाह्दनिवासिनम् ।
ऋद्धिमन्तं महानागं सुपर्ण: सहसा55हरत् ।। १५ ।।
तदनन्तर कुछ दिनोंके बाद एक महान् जलाशयमें निवास करनेवाले महानाग
ऋद्धिमान्को गरुडने सहसा झपाटा मारकर पकड़ लिया ॥। १५ ||
प्राकम्पत महाशैल: प्रामृद्यन्त महाद्रुमा: ।
ददृशु: सर्वभूतानि पाण्डवाश्व तदद्भुतम् ।। १६ ।।
उस समय वह महान् पर्वत हिलने लगा। बड़े-बड़े वृक्ष मिट्टीमें मिल गये। वहाँके समस्त
प्राणियों तथा पाण्डवोंने उस अद्भुत घटनाको प्रत्यक्ष देखा || १६ ।।
ततः शैलोत्तमस्याग्रात् पाण्डवान् प्रति मारुत: ।
अवहत् सर्वमाल्यानि गन्धवन्ति शुभानि च ।। १७ ।।
तत्पश्चात् उस उत्तम पर्वतके शिखरसे पाण्डवोंकी ओर हवाका एक झोंका आया,
जिसने वहाँ सब प्रकारके सुगन्धित पुष्पोंकी बनी हुई बहुत-सी सुन्दर मालाएँ लाकर बिखेर
दीं ।। १७ ||
तत्र पुष्पाणि दिव्यानि सुहृद्धि:ः सह पाण्डवा: ।
ददृशु: पञ्चवर्णानि द्रौपदी च यशस्विनी ।। १८ ।।
पाण्डवोंने अपने सुहृदोंके साथ जाकर उन मालाओंमें गूँथे हुए दिव्य पुष्प देखे, जो
पाँच रंगके थे। यशस्विनी द्रौपदीने भी उन फ़ूलोंको देखा था ।। १८ ।।
भीमसेनं ततः कृष्णा काले वचनमत्रवीत् |
विविक्ते पर्वतोद्देशे सुखासीनं महाभुजम् ॥। १९ ।।
तदनन्तर उसने समय पाकर पर्वतके एकान्त प्रदेशमें सुखपूर्वक बैठे हुए महाबाहु
भीमसेनसे कहाप-- ।। १९ |।
सुपर्णानिलवेगेन श्वसनेन महाचलात् |
पज्चवर्णानि पात्यन्ते पुष्पाणि भरतर्षभ ।। २० ।।
प्रत्यक्ष॑ सर्वभूतानां नदीमश्चरथां प्रति ।
खाण्डवे सत्यसंधेन भ्रात्रा तव महात्मना ।। २३ ।।
गन्धर्वोरगरक्षांसि वासवश्नल निवारित: ।
हता मायाविनश्षोग्रा धनु: प्राप्तं च गाण्डिवम् | २२ ।।
“भरतश्रेष्ठ! गरुडके पंखसे उठी हुई वायुके वेगसे उस दिन उस महान् पर्वतसे जो पाँच
रंगके फूल अश्वरथा नदीके तटपर गिराये गये थे, उन्हें सब प्राणियोंने प्रत्यक्ष देखा। मुझे याद
है, खाण्डव वनमें तुम्हारे महामना भाई सत्यप्रतिज्ञ अर्जुनने गन्धर्वों, नागों, राक्षसों तथा
देवराज इन्द्रको भी युद्धमें आगे बढ़नेसे रोक दिया था। बहुत-से भयंकर मायावी राक्षस
उनके हाथों मारे गये और उन्होंने गाण्डीव नामक धनुष भी प्राप्त कर लिया || २०-२२ ।।
तवापि सुमहत् तेजो महद् बाहुबलं च ते ।
अविषदहामनाधृुष्यं शक्रतुल्यपराक्रम ।। २३ ।।
“आर्यपुत्र! तुम्हारा पराक्रम भी इन्द्रके ही समान है। तुम्हारा तेज और बाहुबल भी
महान् है। वह दूसरोंके लिये दुःसह एवं दुर्धर्ष है ।। २३ ।।
त्वद्वाहुबलवेगेन त्रासिता: सर्वराक्षसा: ।
हित्वा शैलं प्रपद्यन्तां भीमसेन दिशो दश || २४ ।।
'भीमसेन! मैं चाहती हूँ कि तुम्हारे बाहुबलके वेगसे थर्राकर सम्पूर्ण राक्षस इस
पर्वतको छोड़ दें और दसों दिशाओंकी शरण लें ।। २४ ।।
ततः शैलोत्तमस्याग्रं चित्रमाल्यधरं शिवम् |
व्यपेतभयसम्मोहा: पश्यन्तु सुहृदस्तव ।। २५ ।।
एवं प्रणिहितं भीम चिरात् प्रभृति मे मन: ।
द्रष्टमिच्छामि शैलाग्रं त्वद्वाहुबलपालिता ।। २६ ।।
“तत्पश्चात् विचित्र मालाधारी एवं शिवस्वरूप इस उत्तम शैल-शिखरको तुम्हारे सब
सुहृद् भय और मोहसे रहित होकर देखें। भीम! दीर्धकालसे मैं अपने मनमें यही सोच ही
रही हूँ। मैं तुम्हारे बाहुबलसे सुरक्षित हो इस शैल-शिखरका दर्शन करना चाहती
हूँ! || २५-२६ |।
ततः क्षिप्तमिवात्मान द्रौपद्या स परंतप: ।
नामृष्यत महाबाहु: प्रहारमिव सद्भव: ।। २७ ।।
द्रौपदीकी यह बात सुनकर परंतप महाबाहु भीमसेनने इसे अपने ऊपर आक्षेप हुआ--
सा समझा। जैसे अच्छा बैल अपने ऊपर चाबुककी मार नहीं सह सकता, उसी प्रकार यह
आक्षेप उनसे नहीं सहा गया ।।
सिंहर्षभगति: श्रीमानुदार: कनकप्रभ: ।
मनस्वी बलवान दृप्तो मानी शूरश्व॒ पाण्डव: ।। २८ ।।
उनकी चाल श्रेष्ठ सिंहके समान थी। वे सुन्दर, उदार और कनकके समान कान्तिमान्
थे। पाण्डुनन्दन भीम मनस्वी, बलवान, अभिमानी, मानी और शूरवीर थे ।। २८ ।।
लोहिताक्ष: पृथुव्यंसो मत्तवारणविक्रम: ।
सिंहदंष्टो बृहत्स्कन्ध: शालपोत इवोद्भतः ।। २९ |।
उनकी आँखें लाल थीं। दोनों कंधे हृष्ट-पुष्ट थे। उनका पराक्रम मतवाले गजराजके
समान था। दाँत सिंहकी दाढ़ोंकी समानता करते थे। कंधे विशाल थे। वे शालवृक्षकी भाँति
ऊँचे जान पड़ते थे || २९ ।।
महात्मा चारुसर्वाज्ध: कम्बुग्रीवो महाभुज: ।
रुक्मपृष्ठं धनु: खडगं तूर्णाश्चनापि परामृशत् ।। ३० ।।
उनका हृदय महान् था, सभी अंग मनोहर जान पड़ते थे, ग्रीवा शंखके समान थी और
भुजाएँ बड़ी-बड़ी थीं। वे सुवर्णकी पीठवाले धुनष, खड्ग तथा तरकसपर बार-बार हाथ
फेरते थे || ३० ।।
स केसरीव चोत्सिक्त: प्रभिन्न इव वारण: ।
व्यपेतभयसम्मोह: शैलमभ्यपतद् बली ।। ३१ ।।
बलवान् भीमसेन मदोन्मत्त सिंह और मदकी धारा बहानेवाले गजराजकी भाँति भय
और मोहसे रहित हो उस पर्वतपर चढ़ने लगे ।। ३१ ।।
त॑ मृगेन्द्रमिवायान्तं प्रभिन्नमिव वारणम् |
ददृशु: सर्वभूतानि बाणकार्मुकधारिणम् ।। ३२ ।।
मदवर्षी कुंजर और मृगराजकी भाँति आते हुए धनुष-बाणधारी भीमसेनको उस समय
सब भूतोंने देखा || ३२ ।।
द्रौपद्या वर्धयन् हर्ष गदामादाय पाण्डव: ।
व्यपेतभयसम्मोह: शैलराज॑ समाश्रित: ।। ३३ ।।
पाण्डुनन्दन भीम गदा हाथमें लेकर द्रौपदीका हर्ष बढ़ाते हुए भय और घबराहट
छोड़कर उस पर्वतराजपर चढ़ गये ।। ३३ ॥।
न ग्लानिर्न च कातर्य न वैक्लव्यं न मत्सर: ।
कदाचिज्जुषते पार्थमात्मजं मातरिश्वन: ।। ३४ ।।
वायु-पुत्र कुन्तीकुमार भीमसेनको कभी ग्लानि, कातरता, व्याकुलता और मत्सरता
आदि भाव नहीं छूते थे || ३४ ।।
तदेकायनमासाद्य विषमं भीमदर्शनम् |
बहुतालोच्छूयं शूद्धमारुरोह महाबल: ।। ३५ ।।
वह पर्वत ऊँची-नीची भूमियोंसे युक्त और देखनेमें भयंकर था। उसकी ऊँचाई कई
ताड़ोंके बराबर थी और उसपर चढ़नेके लिये एक ही मार्ग था, तो भी महाबली भीमसेन
उसके शिखरपर चढ़ गये ।। ३५ ।।
सकिजन्नरमहानागमुनिगन्धर्वराक्षसान् |
हर्षयन् पर्वतस्याग्रमारुह्वु स महाबल: ।। ३६ ।।
पर्ववके शिखरपर आरूढ़ हो महाबली भीम किन्नर, महानाग, मुनि, गन्धर्व तथा
राक्षसोंका हर्ष बढ़ाने लगे || ३६ |।
ततो वैश्रवणावासं ददर्श भरतर्षभ: ।
काज्चनै: स्फाटिकैश्वैव वेश्मभि: समलंकृतम् ।। ३७ ।।
तदनन्तर भरतश्रेष्ठ भीमसेनने कुबेरका निवासस्थान देखा, जो सुवर्ण और
स्फटिकमणिके बने हुए भवनोंसे विभूषित था ।। ३७ ।।
प्राकारेण परिक्षिप्तं सौवर्णेन समन्ततः ।
सर्वरत्नद्युतिमता सर्वोद्यानवता तथा ।। ३८ ।।
शैलादश्युच्छुयवता चयाट्टालकशोभिना ।
द्वारतोरणनिर्व्यूहध्वजसंवाहशोभिना ।। ३९ |।
उसके चारों ओर सोनेकी चहारदीवारी बनी थी। उसमें सब प्रकारके रत्न जड़े होनेसे
उनकी प्रभा फैलती रहती थी। चहारदीवारीके सब ओर सुन्दर बगीचे थे। उस
चहारदीवारीकी ऊँचाई पर्वतसे भी अधिक थी। बहुतसे भवनों और अट्टालिकाओंसे उसकी
बड़ी शोभा हो रही थी। द्वार, तोरण (गोपुर), बुर्ज और ध्वजसमुदाय उसकी शोभा बढ़ा रहे
थे ।। ३८-३९ |।
विलासिनीभिरत्यर्थ नृत्यन्तीभि: समन्ततः ।
वायुना धूयमानाभि: पताकाभिरलंकृतम् ।। ४० ।।
उस भवनमें सब ओर कितनी ही विलासिनी अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं और हवासे
फहराती हुई पताकाएँ उस भवनका अलंकार बनी हुई थीं || ४० ।।
धनुष्कोटिमवष्टभ्य वक्रभावेन बाहुना ।
पश्यमान: स खेदेन द्रविणाधिपते: पुरम् ।। ४१ ।।
अपनी तिरछी की हुई बाहुसे धनुषकी नोकको स्थिर करके भीमसेन उस धनाध्यक्ष
कुबेरके नगरको बड़े खेदके साथ देख रहे थे || ४१ ।।
मोदयन् सर्वभूतानि गन्धमादनसम्भव: ।
सर्वगन्धवहस्तत्र मारुत: सुसुखो ववौ ।। ४२ ।।
गन्धमादनसे उठी हुई वायु सम्पूर्ण सुगन्धकी राशि लेकर समस्त प्राणियोंको आनन्दित
करती हुई सुखद मन्द गतिसे बह रही थी ।। ४२ ।।
चित्रा विविधवर्णाभ श्षित्रमञज्जरिधारिण: ।
अचिन्त्या विविधास्तत्र ट्रमा: परमशोभिन: ।। ४३ ।।
रत्नजालपरिक्षिप्तं चित्रमाल्यविभूषितम् |
राक्षसाधिपते: स्थानं ददृशे भरतर्षभ: ।। ४४ ।।
वहाँके अत्यन्त शोभाशाली विविध वृक्ष नाना प्रकारकी कान्तिसे प्रकाशित हो रहे थे।
उनकी मज्जरियाँ विचित्र दिखायी देती थीं। वे सब-के-सब और अकथनीय जान
पड़ते थे। भरतश्रेष्ठ भीमने राक्षसराज कुबेरके उस स्थानको नाक समुदायसे सुशोभित
तथा विचित्र मालाओंसे विभूषित देखा ।। ४३-४४ ।।
गदाखड््गधनुष्पाणि: समभित्यक्तजीवित: ।
भीमसेनो महाबाहुस्तस्थौ गिरिरिवाचल: ।। ४५ ।।
तत:ः शड्खमुपाध्मासीद् द्विषतां लोमहर्षणम् ।
ज्याघोषतलशब्दं च कृत्वा भूतान्यमोहयत् ।। ४६ ।।
उनके हाथमें गदा, खड़ग और धनुष शोभा पा रहे थे। उन्होंने अपने जीवनका मोह
सर्वथा छोड़ दिया था। वे माहबाहु भीमसेन वहाँ पर्वतकी भाँति अविचल-भावसे कुछ देर
खड़े रहे। तत्पश्चात् उन्होंने बड़े जोरसे शंख बजाया, जिसकी आवाज शशत्रुओंके रोंगटे खड़े
कर देनेवाली थी। फिर धनुषकी टंकार करके समस्त प्राणियोंकों मोहित कर
दिया ।। ४५-४६ ।।
ततः प्रहृष्टरोेमाणस्तं शब्दमभिदुद्रुवु: ।
यक्षराक्षसगन्धर्वा: पाण्डवस्य समीपत: ।। ४७ ।।
तब यक्ष, राक्षस और गन्धर्व रोमाज्वित होकर उस शब्दको लक्ष्य करके पाण्डुनन्दन
भीमसेनके समीप दौड़े आये || ४७ ।।
गदापरिघनिस्त्रिंशशूलशक्तिपरश्वधा: ।
प्रगूहीता व्यरोचन्त यक्षराक्षसबाहुभि: ।। ४८ ।।
उस समय गदा, परिघ, खड्ग, शूल, शक्ति और फरसे आदि अस्त्र-शस्त्र उन यक्षों तथा
राक्षसोंके हाथोंमें आकर बड़ी चमक पैदा कर रहे थे || ४८ ।।
ततः प्रववृते युद्ध तेषां तस्य च भारत ।
तैः प्रयुक्तान् महामायै: शूलशक्तिपरश्वधान् ।। ४९ ।।
भल््लैर्भीम: प्रचिच्छेद भीमवेगतरैस्तत: ।
अन्तरिक्षगतानां च भूमिष्टानां च गर्जताम् ।। ५० ।।
शरैरविंव्याध गात्राणि राक्षसानां महाबल: ।
सा लोहितमहावृष्टिर भ्यवर्षन्महाबलम् ।। ५१ ।।
गदापरिघपाणीनां रक्षसां कायसम्भवा: ।
कार्येभ्य: प्रच्युता धारा राक्षसानां समन््तत: ।। ५२ ।।
भारत! तदनन्तर उन यक्षों और गन्धवोंका भीमसेनके साथ युद्ध प्रारम्भ हो गया। वे
यक्ष और राक्षस बड़े मायावी थे। उनके चलाये हुए शूल, शक्ति और फरसोंको भीमसेनने
भयानक वेगशाली भल्ल नामक बाणोंद्वारा काट गिराया। वे राक्षस आकाशमें उड़कर तथा
भूतलपर खड़े होकर जोर-जोरसे गर्जना कर रहे थे। महाबली भीमने बाणोंकी झड़ी
लगाकर उनके शरीरोंको अच्छी प्रकार छेद डाला। गदा और परिघ हाथमें लिये हुए
राक्षसोंके शरीरसे महाबली भीमपर खूनकी बड़ी भारी वर्षा होने लगी तथा चारों ओर
राक्षसोंके शरीरसे रक्तकी कितनी ही धाराएँ बह चलीं ।। ४९--५२ ।।
भीमबाहुबलो त्सूष्टैरायुधैर्यक्षरक्षसाम् ।
विनिकृत्तानि दृश्यन्ते शरीराणि शिरांसि च ।। ५३ ।।
भीमके बाहुबलसे छूटे हुए अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा यक्षों तथा राक्षसोंके शरीर और सिर कटे
दिखायी दे रहे थे ।।
प्रच्छाद्यमानं रक्षोभि: पाण्डवं प्रियदर्शनम् ।
ददृशु: सर्वभूतानि सूर्यमभ्रगणैरिव ।। ५४ ।।
जैसे बादल सूर्यको ढक लेते हैं, उसी प्रकार प्रियदर्शन पाण्डुपुत्र भीमको राक्षस ढक
लेते हैं, यह सब प्राणियोंने प्रत्यक्ष देखा || ५४ ।।
स रश्मिभिरिवादित्य: शरैररिनिघातिभि: ।
सर्वानार्च्छन्महाबाहुर्बलवान् सत्यविक्रम: ।। ५५ ।।
तब सत्यपराक्रमी बलवान् महाबाहु भीमसेनने अपने शत्रुनाशक बाणोंद्वारा समस्त
शत्रुओंको उसी प्रकार ढक लिया, जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे संसारको ढक लेते
हैं ।। ५५ ||
अभितर्जयमानाश्न रुवन्तश्न महारवान् |
न मोहं भीमसेनस्य ददृशु: सर्वराक्षसा: ।। ५६ ।।
सब ओरसे गर्जन-तर्जन करते हुए तथा बड़ी भयानक आवाजसे चिग्घाड़ते हुए सब
राक्षसोंने भीमसेनके चित्तमें तनिक भी घबराहट नहीं देखी ।। ५६ ।।
यक्षा विकृतसर्वाज्जा भीमसेनभयार्दिता: |
भीममार्तस्वरं चक्रुर्विप्रकीर्णमहायुधा: ।। ५७ ।।
जिनके सारे अंग विकृत एवं विकराल थे, वे यक्ष भीमसेनके भयसे पीड़ित हो अपने
बड़े-बड़े आयुधोंको इधर-उधर फेंककर भयंकर आर्तनाद करने लगे ।। ५७ ।।
उत्सृज्य ते गदाशूलानसिशक्तिपरश्वधान् ।
दक्षिणां दिशमाजम्मुस्त्रसिता दृढद्धन्चना ।। ५८ ।।
सुदृढ़ धनुषवाले भीमसेनसे आतंकित हो वे यक्ष-राक्षस आदि योद्धा गदा, शूल, खड्ग,
शक्ति तथा परशु आदि अस्त्रोंको वहीं छोड़कर दक्षिणदिशाकी ओर भाग गये ।। ५८ ।।
तत्र शूलगदापाणिवव्यूढोरस्को महाभुज: ।
सखा वैश्रवणस्यासीन्मणिमाज्नाम राक्षस: ।। ५९ ||
वहाँ कुबेरके सखा राक्षसप्रवर मणिमान् भी मौजूद थे। उनके हाथोंमें त्रिशूल और गदा
शोभा पा रही थी उनकी छाती चौड़ी और बाँहें विशाल थीं || ५९ |।
अदर्शयदधीकारं पौरुषं च महाबल: ।
स तान् दृष्टवा परावृत्तान् स्मयमान इवाब्रवीत् ।। ६० ।।
उन महाबली वीरने वहाँ अपने अधिकार और पौरुष दोनोंको प्रकट किया। उस समय
अपने सैनिकोंको रणसे विमुख होते देख वे मुसकराते हुए उनसे बोले-- || ६० ।।
एकेन बहव: सड्ख्ये मानुषेण पराजिता: ।
प्राप्प वैश्रवणावासं कि वक्ष्यथ धनेश्वरम् ।। ६१ ।।
“अरे! तुम बहुत बड़ी संख्यामें होकर भी आज एक मनुष्यद्वारा युद्धमें पराजित हो
गये।” कुबेरभवनमें धनाध्यक्षके पास जाकर क्या कहोगे?” ।। ६१ ।।
एवमाभाष्य तान् सर्वनिभ्यवर्तत राक्षस: |
शक्तिशूलगदापाणिरभ्यधावत् स पाण्डवम् ॥। ६२ ।।
ऐसा कहकर राक्षस मणिमानने उन सबको लौटाया और हाथोंमें शक्ति, शूल तथा गदा
लेकर भीमसेनपर धावा किया ।। ६२ ।।
तमापतत्तं वेगेन प्रभिन्नमिव वारणम् |
वत्सदन्तैस्त्रिभि: पाश्वे भीमसेन: समार्दयत् ॥। ६३ ।।
मदकी धारा बहानेवाले गजराजकी भाँति मणिमानको बड़े वेगसे आता देख भीमसेनने
वत्सदन्त नामक तीन बाणोंद्वारा उनकी पसलीमें प्रहार किया ।। ६३ ।।
मणिमानपि संक्रुद्ध: प्रगृह्ा महतीं गदाम् ।
प्राहिणोद् भीमसेनाय परिगृह्म महाबल: ।। ६४ ।।
यह देख महाबली मणिमान् भी रोषसे आगबबूला हो उठे और बहुत बड़ी गदा लेकर
उन्होंने भीमसेनपर चलायी ।। ६४ ।।
विद्युद्रूपां महाघोरामाकाशे महतीं गदाम् ।
शरैरबहुभिरभ्यार्च्छद् भीमसेन: शिलाशितै: ।। ६५ ।।
वह विशाल एवं महा भयंकर गदा आकाशमें विद्युतकी भाँति चमक उठी। यह देख
भीमसेनने पत्थर पर रगड़कर तेज किये हुए बहुत-से बाणोंद्वारा उसपर आघात
किया ।। ६५ |।
प्रत्यहन्यन्त ते सर्वे गदामासाद्य सायका: ।
न वेग॑ धारयामासुर्गदावेगस्य वेगिता: ।। ६६ ।।
परंतु वे सभी बाण मणिमान्की गदासे टकराकर नष्ट हो गये। यद्यपि वे बड़े वेगसे छूटे
थे, तथापि गदा चलानेके अभ्यासी मणिमान्की गदाके वेगको न सह सके ।। ६६ ।।
गदायुद्धसमाचारं बुद्धयमान: स वीर्यवान् ।
व्यंसयामास तं तस्य प्रहारं भीमविक्रम: ।। ६७ ।।
भयंकर पराक्रमी महाबली भीमसेन गदायुद्धकी कलको जानते थे। अतः उन्होंने शत्रुके
उस प्रहारको व्यर्थ कर दिया || ६७ ।।
ततः शक्ति महाघोरां रुक्मदण्डामयस्मयीम् ।
तस्मिन्नेवान्तरे धीमान् प्रजहाराथ राक्षस: ।। ६८ ।।
तदनन्तर बुद्धिमान् राक्षसने उसी समय स्वर्णमय दण्डसे विभूषित एवं लोहेकी बनी हुई
बड़ी भयानक शक्तिका प्रहार किया || ६८ ।।
सा भुजं भीमनिर्हादा भित्वा भीमस्य दक्षिणम् |
साग्निज्वाला महारौद्रा पपात सहसा भुवि ।। ६९ ।।
वह अग्निकी ज्वालाके समान अत्यन्त भयंकर शक्ति भयानक गड़गड़ाहटके साथ
भीमकी दाहिनी भुजाको छेदकर सहसा पृथ्वीपर गिर पड़ी ।। ६९ ।।
सो5तिविद्धो महेष्वास: शक्त्यामितपराक्रम: ।
गदां जग्राह कौन्तेय: क्रोधपर्याकुलेक्षण: ।। ७० ।।
रुक्मपट्टपिनद्धां तां शत्रूणां भयवर्धिनीम् ।
प्रगृह्या थ नदन् भीम: शैक्यां सर्वायसीं गदाम् ।। ७१ ।।
तरसा चाभिदुद्राव मणिमन्तं महाबलम् |
शक्तिकी गहरी चोट लगनेसे महान धनुर्धर एवं अत्यन्त पराक्रमी कुन्तीकुमार भीमके
नेत्र क्रोधसे व्याकूल हो उठे और उन्होंने एक ऐसी गदा हाथमें ली जो शत्रुओंका भय
बढ़ानेवाली थी। उसके ऊपर सोनेके पत्र जड़े थे। वह सारी-की-सारी लोहेकी बनी हुई और
शत्रुओंको नष्ट करनेमें समर्थ थी। उसे लेकर भीमसेन विकट गर्जना करते हुए बड़े वेगसे
महाबली मणिमान्की ओर दौड़े || ७०-७१ ३ ।।
दीप्यमानं महाशूलं प्रगृह्ा मणिमानपि ।। ७२ ।।
प्राहिणोद् भीमसेनाय वेगेन महता नदन् ।
उधर मणिमानने भी सिंहनाद करते हुए एक चमचमाता हुआ महान त्रिशूल हाथमें
लिया और बड़े वेगसे भीमसेनपर चलाया || ७२ ३ ||
भड़क्त्वा शूलं गदाग्रेण गदायुद्धविशारद: ।। ७३ ।।
अभिदुद्राव तं हन्तुं गरुत्मानिव पन्नगम् ।
परंतु गदा-युद्धमें कुशल भीमने गदाके अग्रभागसे उस त्रिशूलके टुकड़े-टुकड़े करके
मणिमानको मारनेके लिये उसी प्रकार धावा किया, जैसे किसी सर्पके प्राण लेनेके लिये
गरुड उसपर टूट पड़ते हैं || ७३ ३ ।।
सो<न्तरिक्षमवप्लुत्य विधूय सहसा गदाम् ।। ७४ ।।
प्रचिक्षेप महाबाहुर्विनद्य रणमूर्धनि ।
सेन्द्राशनिरिवेन्द्रेण विसृष्टा वातरंहसा ।। ७५ ।।
महाबाहु भीमने युद्धके मुहानेपर गर्जना करते हुए सहसा आकाशमें उछलकर गदा
घुमायी और उसे वायुके समान वेगसे मणिमानपर दे मारा, मानो देवराज इन्द्रने किसी
दैत्यपर वज्रका प्रहार किया हो || ७४-७५ ।।
हत्वा रक्ष: क्षितिं प्राप्प कृत्येव निपषात ह |
त॑ राक्षसं भीमबलं भीमसेनेन पातितम् ।। ७६ ।।
ददृशु: सर्वभूतानि सिंहेनेव गवां पतिम् ।
त॑ प्रेक्ष्य निहत॑ भूमौ हतशेषा निशाचरा: ।
भीममार्तस्वरं कृत्वा जम्मु: प्राचीं दिशं॑ प्रति ॥| ७७ ।।
वह गदा उस राक्षसके प्राण लेकर भूमिपर मूर्तिमती कृत्याके समान गिर पड़ी।
भीमसेनके द्वारा मारे गये उस भयानक शक्तिशाली राक्षसको सब प्राणियोंने प्रत्यक्ष देखा,
मानो सिंहने किसी साँड़को मार गिराया हो। उसे मरकर पृथ्वीपर गिरा देख मरनेसे बचे हुए
निशाचर भयंकर आर्तनाद करते हुए पूर्व दिशाकी ओर भाग चले ।। ७६-७७ ||
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इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि यक्षयुद्धपर्वणि मणिमद्वथे षष्ट्यधिकशततमो< ध्याय:
॥॥ १६० ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपव॑के अन्तर्गत यक्षयुद्धपर्वमें माणियान्ू-वधसे सम्बन
रखनेवाला एक सौ साठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६० ॥।
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एकषष्ट्यधिकशततमो< ध्याय:
कुबेरका गन्धमादन पर्वतपर आगमन और युधिष्छिरसे
उनकी भेंट
वैशम्पायन उवाच
श्र॒त्वा बहुविधै: शब्दैर्नाद्यमानां गिरेगुहाम् ।
अजातशत्रुः कौन्तेयो माद्रीपुत्रावुभावपि ।। १ ।।
धौम्य: कृष्णा च विप्राश्व सर्वे च सुहददस्तथा ।
भीमसेनमपश्यन्त: सर्वे विममसो5भवन् ।। २ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! उस समय उस पर्वतकी गुफा नाना प्रकारके
शब्दोंसे प्रतिध्वनित हो रही थी। वह प्रतिध्वनि सुनकर अजातशत्रु कुन्तीकुमार युधिष्ठिर,
दोनों माद्री-पुत्र नकुल-सहदेव, पुरोहित धौम्य, द्रौपदी और समस्त ब्राह्मण तथा सुहृद--ये
सभी भीमसेनको न देखनेके कारण बहुत उदास हो गये ।। १-२ ।।
द्रौपदीमार्शिषिणाय सम्प्रधार्य महारथा: ।
सहिता: सायुधा: शूरा: शैलमारुरुहुस्तदा ।। ३ ।।
तब वे महारथी शूर-वीर द्रौपदीको आर्टिषिणकी देख-रेखमें सौंपकर हाथोंमें अस्त्र-शस्त्र
लिये एक साथ पर्वतपर चढ़ गये ।। ३ ।।
तत: सम्प्राप्य शैलाग्रं वीक्षमाणा महारथा: ।
ददृशुस्ते महेष्वासा भीमसेनमरिंदमा: || ४ ।।
तदनन्तर शत्रुओंका दमन करनेवाले वे महाधनुर्धर एवं महारथी वीर उस पर्वतके
शिखरपर पहुँचकर जब इधर-उधर दृष्टिपात करने लगे, तब उन्हें भीमसेन दिखायी
दिये ।। ४ ।।
स्फुरतश्न महाकायान् गतसत्त्वांश्व॒ राक्षसान्
महाबलान् महासत्त्वान् भीमसेनेन पातितान् ।। ५ ।।
साथ ही उन्होंने भीमसेनके द्वारा मार गिराये हुए महान् शक्तिशाली तथा परम उत्साही
विशालकाय राक्षस भी देखे, जिनमेंसे कुछ छटपटा रहे थे और कुछ मरे पड़े थे ।। ५ ।।
शुशुभे स महाबाहुर्गदाखड््गधनुर्धर: ।
निहत्य समरे सर्वान् दानवान् मघवानिव ।। ६ ।।
उस समय गदा, खड़्ग और धनुष धारण किये महाबाहु भीमसेन समरभूमिमें सम्पूर्ण
दानवोंका संहार करके खड़े हुए देवराज इन्द्रके समान शोभा पा रहे थे ।। ६ ।।
ततस्ते भ्रातरं दृष्टवा परिष्वज्य महारथा: ।
तत्रोपविविशु: पार्था: प्राप्ता गतिमनुत्तमाम् ।। ७ ।।
तब वे उत्तम आश्रयको प्राप्त हुए महारथी पाण्डव भाई भीमसेनको हृदयसे लगाकर
उनके पास ही बैठ गये ।। ७ ।।
तैश्नतुर्भिमहेष्वासैर्गिरिशुड्रमशो भत ।
लोकपालैर्महाभागैर्दिवं देववरैरिव ।। ८ ।।
जैसे महान् भाग्यशाली देवश्रेष्ठ इन्द्र आदि लोकपालोंके द्वारा स्वर्गलोककी शोभा होती
है, उसी प्रकार उन चार महाधनुर्धर बन्धुओंसे उस समय वह पर्वत-शिखर सुशोभित हो रहा
था।।८।।
कुबेरसदन दृष्ट्वा राक्षसांश्व निपातितान् ।
भ्राता भ्रातरमासीनमत्रवीत् पृथिवीपति: ।। ९ ।।
राजा युधिष्ठिरने कुबेरका भवन देखकर और मारे गये राक्षसोंकी ओर दृष्टिपात करके
अपने पास बैठे हुए भाई भीमसेनसे कहा ।। ९ |।
युधिछिर उवाच
साहसाद् यदि वा मोहाद् भीम पापमिदं कृतम् |
नैतत् ते सदृशं वीर मुनेरिव मृषा वध: ।। १० ।।
युधिष्ठिर बोले--वीर भीमसेन! तुमने दुःसाहसवश अथवा मोहके कारण जो यह
पापकर्म किया है, वह मुनिवृत्तिसे रहनेवाले तुम्हारे अनुरूप नहीं है। राक्षसोंका यह संहार
व्यर्थ ही किया गया है || १० ।।
राजद्विष्टं न कर्तव्यमिति धर्मविदो विदु: ।
त्रिदशानामिदं द्विष्टं भीमसेन त्वया कृतम् ।। ११ ।।
भीमसेन! धर्मज्ञ पुरुष यह जानते और मानते हैं कि राजद्रोहका कार्य नहीं करना
चाहिये; परन्तु तुमने तो न केवल राजद्रोहका अपितु देवताओंके भी द्रोहका कार्य किया
है ।। ११ ||
अर्थधर्मावनादृत्य यः पापे कुरुते मन: ।
कर्मणां पार्थ पापानां स फल विन््दते ध्रुवम् ।
पुनरेवं न कर्तव्यं मम चेदिच्छसि प्रियम् ।। १२ ।।
पार्थ! जो अर्थ और धर्मका अनादर करके पापमें मन लगाता है उसे पापकर्मोका फल
अवश्य प्राप्त होता है। यदि तुम वही कार्य करना चाहते हो जो मुझे प्रिय लगे तो आजसे
फिर कभी ऐसा काम तुम्हें नहीं करना चाहिये || १२ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमुकक््त्वा स धर्मात्मा भ्राता भ्रातरमच्युतम् ।
अर्थतत्त्वविभागज्ञ: कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर: || १३ ।।
विरराम महातेजास्तमेवार्थ विचिन्तयन् ।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! धर्मात्मा भाई महातेजस्वी कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर
अर्थतत्त्वके विभागको ठीक-ठीक जाननेवाले थे। वे धर्मसे कभी च्युत न होनेवाले अपने
भाई भीमसेनसे उपर्युक्त बातें कहकर चुप हो गये और उसी विषयपर बार-बार विचार करने
लगे ।। १३३ ||
ततस्ते हतशिष्टा ये भीमसेनेन राक्षसा: ।। १४ ।।
सहिता: प्रत्यपद्यन्त कुबेरसदन प्रति ।
उधर भीमसेनकी मारसे बचे हुए राक्षस एक साथ हो कुबेरके भवनमें गये || १४३६ ।।
ते जवेन महावेगा: प्राप्य वैश्रवणालयम् ।। १५ ।।
भीममार्तस्वरं चक्रुर्भीमसेनभयार्दिता: ।
न्यस्तशस्त्रायुधा: क्लान्ता: शोणिताक्ततनुच्छदा: ।। १६ ।।
वे महान् वेगशाली तो थे ही, तीव्र गतिसे धनाध्यक्षके महलमें पहुँचकर भयंकर
आर्तनाद करने लगे। भीमसेनका भय उस समय भी उन्हें पीड़ा दे रहा था। वे अपने अस्त्र-
शस्त्र छोड़ चुके थे एवं थके हुए थे। उनके कवच खूनसे लथपथ हो गये थे ।। १५-१६ ।।
प्रकीर्णमूर्थजा राजन् यक्षाधिपतिमन्रुवन्
गदापरिघनिस्त्रिंशतोमरप्रासयोधिन: ।। १७ ।।
राक्षसा निहता: सर्वे तव देव पुर:सरा: |
राजन्! अपने सिरके बाल बिखेरे हुए वे राक्षस यक्षराज कुबेरसे इस प्रकार बोले
--देव! आपके भी सभी राक्षस, जो युद्धमें सदा आगे रहते और गदा, परिघ, खड़्ग, तोमर
तथा प्रास आदिके युद्धमें कुशल थे, मार डाले गये ।। १७३
प्रमृद्य तरसा शैलं मानुषेण धनेश्वर ।। १८ ।।
एकेन सहिता: सड्ख्ये रणे क्रोधवशा गणा: ।
'धनेश्वर! एक मनुष्यने बलपूर्वक इस पर्वतको रौंद डाला है और युद्धमें क्रोधवश
नामक राक्षसगणोंको मार भगाया है ।। १८ ६ ।।
प्रवरा राक्षसेन्द्राणां यक्षाणां च नराधिप ।। १९ ।।
शेरते निहता देव गतसत्त्वा: परासव: ।
लब्धशेषा वयं मुक्ता मणिमांस्ते सखा हत: ।। २० ।।
“नरेश्वर! राक्षसों और यक्षोंमें जो प्रमुख वीर थे, वे आज उत्साहशून्य तथा निष्प्राण
होकर रणभूमिमें सो रहे हैं। हमलोग उसके कृपा-प्रसादसे छूट गये हैं; परंतु आपके सखा
राक्षस मणिमान् मार डाले गये हैं || १९-२० ।।
मानुषेण कृतं कर्म विधत्स्व यदनन्तरम् ।
स तच्छुत्वा तु संक़रुद्धः सर्ववक्षणणाधिप: ।। २१ ।।
कोपसंरक्तनयन: कथमित्यब्रवीद् वच: ।
“यह सब कार्य एक मनुष्यने किया है। इसके बाद जो करना उचित हो, वह कीजिये।”
राक्षसोंकी यह बात सुनकर समस्त यक्षगणोंके स्वामी कुबेर कुपित हो उठे, क्रोधसे उनकी
आँखें लाल हो गयीं। वे सहसा बोल उठे। “यह कैसे सम्भव हुआ?” ।। २१३ ।।
द्वितीयमपराध्यन्तं भीम॑ श्रुत्वा धनेश्वर: ।। २२ ।।
चुक्रोध यक्षाधिपतिर्युज्यतामिति चाब्रवीत् ।
भीमने यह दूसरा अपराध किया है, यह सुनकर धनाध्यक्ष यक्षराजके क्रोधकी सीमा न
रही। उन्होंने तुरंत आज्ञा दी, 'रथ जोतकर ले आओ' || २२६ ।।
अथाभ्रघनसंकाशं गिरिशृज्भमिवोच्छितम् ।। २३ ।।
रथं संयोजयामासुर्गन्धर्वै्हिममालिभि: ।
तस्य सर्वगुणोपेता विमलाक्षा हयोत्तमा: || २४ ।।
तेजोबलगुणोपेता नानारत्नविभूषिता: ।
शोभमाना रथे युक्तास्तरिष्यन्त इवाशुगा: ।। २५ ।।
फिर तो सेवकोंने सुनहरे बादलोंकी घटाके सदृश विशाल पर्वतशिखरके समान ऊँचा
रथ जोतकर तैयार किया। उसमें सुवर्णमालाओंसे विभूषित गन्धर्वदेशीय घोड़े जुते हुए थे।
वे सर्वगुणसम्पन्न उत्तम अश्व तेजस्वी, बलवान् और अश्वोचित गुणोंसे युक्त थे। उनकी आँखें
निर्मल थीं और उन्हें नाना प्रकारके रत्नमय आभूषण पहनाये गये थे। रथमें जुते हुए वे
शोभाशाली अभश्व शीघ्रगामी थे। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो वे अभी सब कुछ
लाँघ जायँगे || २३--२५ ।।
ह्रेषयामासुरन्योन्यं हेषितैर्विजयावहै: ।
स तमास्थाय भगवान् राजराजो महारथम् ॥। २६ ।।
प्रययौ देवगन्धर्व: स्तूयमानो महाद्युति: ।
उन अश्वोंके हिनहिनानेकी आवाज विजयकी सूचना देनेवाली थी। उनमेंसे प्रत्येक अश्व
स्वयं हिनहिनाकर दूसरेको भी इसके लिये प्रेरणा देता था। उस विशाल रथपर आखरूढ़ हो
महातेजस्वी राजाधिराज भगवान् कुबेर देवताओं और गन्धर्वोके मुखसे अपनी स्तुति सुनते
हुए चले || २६६ ।।
त॑ प्रयान्तं महात्मानं सर्वे यक्षा धनाधिपम् ।। २७ ।।
धनाध्यक्ष महामना कुबेरके प्रस्थान करनेपर समस्त यक्ष भी उनके साथ चले ।। २७ ।।
रक्ताक्षा हेमसंकाशा महाकाया महाबला: ।
सायुधा बद्धनिस्त्रिंशा यक्षा दशशतावरा: ।। २८ ।।
उन सबके नेत्र लाल थे। शरीरकी कान्ति सुवर्णके समान थी। वे सभी महाकाय और
महाबली थे। वे सब तलवार बाँधे अस्त्र-शस्त्रोंस सुसज्जित थे। उनकी संख्या एक हजारसे
कम नहीं थी ।। २८ ।।
ते जवेन महावेगा: प्लवमाना विहायसा ।
गन्धमादनमाजम्मु: प्रकर्षन्त इवाम्बरम् ।। २९ |।
वे महान् वेगशाली यक्ष आकाशमें उड़ते हुए गन्धमादन पर्वतपर आये, मानो समूचे
आकाशमण्डल-को खींचे ले रहे हों || २९ ।।
तत् केसरिमहाजालं धनाधिपतिपालितम् ।
कुबेरं च महात्मानं यक्षरक्षोगणावृतम् ।। ३० ।।
ददृशुर््डष्टरोमाण: पाण्डवा: प्रियदर्शनम् ।
कुबेरस्तु महासत्त्वान् पाण्डो: पुत्रान् महारथान् ।। ३१ ।।
आत्तकार्मुकनिस्त्रिंशान् दृष्टवा प्रीतो5भवत् तदा ।
देवकार्य चिकीर्षन् स हृदयेन तुतोष ह ।। ३२ ।।
धनाध्यक्ष कुबेरके द्वारा पालित घोड़ोंके उस महा समुदायको तथा यक्ष-राक्षसोंसे घिरे
हुए प्रियदर्शन महामना कुबेरको भी पाण्डवोंने देखा। देखकर उनके अंगोंमें रोमाउ्च हो
आया। इधर कुबेर भी धनुष और तलवार लिये शक्तिशाली महारथी पाण्डुपुत्रोंकी देखकर
बड़े प्रसन्न हुए। कुबेर देवताओंका कार्य सिद्ध करना चाहते थे, इसलिये मन-ही-मन
पाण्डवोंसे बहुत संतुष्ट हुए | ३०--३२ ॥।
ते पक्षिण इवापेतुर्गिरिशुड्धं महाजवा: ।
तस्थुस्तेषां समभ्याशे धनेश्वरपुर:सरा: ।। ३३ ।।
वे कुबेर आदि तीव्र वेगशाली यक्ष-राक्षस पक्षीकी तरह उड़कर गन्धमादन पर्वतके
शिखरपर आये और पाण्डवोंके समीप खड़े हो गये || ३३ ॥।
ततस्तं हृष्टमनसं पाण्डवान् प्रति भारत ।
समीक्ष्य यक्षगन्धर्वा निर्विकारमवस्थिता: ।। ३४ ।।
जनमेजय! पाण्डवोंके प्रति कुबेरका मन प्रसन्न देखकर यक्ष और गन्धर्व
निर्विकारभावसे खड़े रहे ।। ३४ ।।
पाण्डवाश्न महात्मान: प्रणम्य धनदं प्रभुम् ।
नकुल: सहदेवश्न धर्मपुत्रश्न धर्मवित् ।। ३५ ।।
अपराद्धमिवात्मानं मनन््यमाना महारथा: ।
तस्थु: प्राउजलय: सर्वे परिवार्य धनेश्वरम् || ३६ ।।
धर्मज्ञ धर्मपुत्र युधिष्ठि, नकुल और सहदेव--ये महारथी महामना पाण्डव भगवान्
कुबेरको प्रणाम करके अपनेको अपराधी-सा मानते हुए उन्हें सब ओरसे घेरकर हाथ जोड़े
खड़े रहे ।। ३५-३६ ।।
स हाासनवरं श्रीमत् पुष्पकं विश्वकर्मणा ।
विहितं चित्रपर्यन्तमातिछतत धनाधिप: ।। ३७ ।।
धनाध्यक्ष कुबेर विश्वकर्माके बनाये हुए सुन्दर एवं श्रेष्ठ विमान पुष्पकपर विराजमान
थे। वह विमान विचित्र निर्माणकौशलकी पराकाष्ठा था || ३७ ।।
तमासीन॑ महाकाया: शड्कुकर्णा महाजवा: ।
उपोपविविशुर्यक्षा राक्षसाश्न॒ सहस्रश: ।। ३८ ।।
शतशक्षापि गन्धर्वास्तथैवाप्सरसां गणा: ।
परिवार्योपतिष्ठन्त यथा देवा: शतक्रतुम् ।। ३९ ।।
विमानपर बैठे हुए कुबेरके पास कील-जैसी कानवाले तीव्र वेगशशाली विशालकाय
सहसौरों यक्ष-राक्षस भी बैठे थे। जैसे देवता इन्द्रको घेरकर खड़े होते हैं, उसी प्रकार सैकड़ों
गन्धर्व और अप्सराओंके गण कुबेरको सब ओरसे घेरकर खड़े थे ।। ३८-३९ ।।
काज्चनीं शिरसा बिशभ्रद् भीमसेन: स्रजं शुभाम्
पाशखड््गधनुष्पाणिरुदैक्षत धनाधिपम् ।। ४० ।।
अपने मस्तकपर सुवर्णकी सुन्दर माला धारण किये और हाथोंमें खड्ग, पाश तथा
धनुष लिये भीमसेन धनाध्यक्ष कुबेरकी ओर देख रहे थे || ४० ।।
भीमसेनस्य न ग्लानिर्विक्षतस्यापि राक्षसै: ।
आसीत् तस्यामवस्थायां कुबेरमपि पश्यत: ।। ४१ ।।
भीमसेनको राक्षसोंने बहुत घायल कर दिया था। उस अवस्थामें भी कुबेरको देखकर
उनके मनमें तनिक भी ग्लानि नहीं होती थी || ४१ ।।
आददानं शितान् बाणान् योद्धुकाममवस्थितम् |
दृष्टवा भीम॑ धर्मसुतमब्रवीन्नरवाहन: ।। ४२ ।।
भीमसेन हाथोंमें तीखे बाण लिये उस समय भी युद्धके लिये तैयार खड़े थे। यह देख
नरवाहन कुबेरने धर्मपुत्र युधिष्ठिससे कहा-- || ४२ ।।
विदुस्त्वां सर्वभूतानि पार्थ भूतहिते रतम् ।
निर्भयश्नापि शैलाग्रे वस त्वं भ्रातृभि: सह ।। ४३ ।।
“कुन्तीनन्दन! तुम सदा सब प्राणियोंके हितमें तत्पर रहते हो, यह बात सब प्राणी
जानते हैं। अतः तुम अपने भाइयोंके साथ इस शैल-शिखरपर निर्भय होकर रहो ।। ४३ ।।
न च मन्युस्त्वया कार्यो भीमसेनस्य पाण्डव |
कालेनैते हताः पूर्व निमित्तमनुजस्तव ।। ४४ ।।
'पाण्डुनन्दन! तुम्हें भीमसेनपर क्रोध नहीं करना चाहिये। ये यक्ष और राक्षस कालके
द्वारा पहले ही मारे गये थे। तुम्हारे भाई तो इसमें निमित्तमात्र हुए हैं || ४४ ।।
व्रीडा चात्र न कर्तव्या साहसं यदिदं कृतम् ।
दृष्श्नापि सुरै: पूर्व विनाशो यक्षरक्षसाम् ।। ४५ ।।
'भीमसेनने जो यह दुःसाहसका कार्य किया है, इसके लिये तुम्हें लज्जित नहीं होना
चाहिए; क्योंकि यक्ष तथा राक्षस्रोंका यह विनाश देवताओंको पहले ही प्रत्यक्ष हो चुका
था ।। ४५ ||
न भीमसेने कोपो मे प्रीतो5स्मि भरतर्षभ ।
कर्मणा: भीमसेनस्य मम तुष्टिरभूत् पुरा || ४६ ।।
“भरतश्रेष्ठ) भीमसेनपर मेरा क्रोध नहीं है। मैं इनपर प्रसन्न हूँ। भीमसेनके कार्यसे मुझे
पहले भी प्रसन्नता प्राप्त हो चुकी है” || ४६ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमुक्त्वा तु राजानं भीमसेनमभाषत ।
नैतन्मनसि मे तात वर्तते कुरुसत्तम || ४७ ।।
यदिदं साहसं भीम कृष्णार्थे कृतवानसि ।
मामनादृत्य देवांश्व विनाशं यक्षरक्षसाम् ।। ४८ ।।
स्वबाहुबलमाश्रित्य तेनाहं प्रीतिमांस्त्वयि ।
शापादद्य विनिर्मुक्तो घोरादस्मि वृकोदर || ४९ |।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! राजा युधिष्ठिर्से ऐसा कहकर कुबेरने
भीमसेनसे कहा--“तात! कुरुश्रेष्ठ भीम! तुमने द्रौपदीके लिये जो यह साहसपूर्ण कार्य
किया है, इसके लिये मेरे मनमें कोई विचार नहीं है। तुमने मेरी तथा देवताओंकी अवहेलना
करके अपने बाहुबलके भरोसे यक्षों तथा राक्षसोंका विनाश किया है, इससे तुमपर मैं बहुत
प्रसन्न हूँ। वृकोदर! आज मैं एक भयंकर शापसे छूट गया हूँ || ४७--४९ ।।
अहं पूर्वमगस्त्येन क्रुद्धेन परमर्षिणा ।
शप्तो5पराधे कम्मिंश्चित् तस्यैषा निष्कृति: कृता | ५० ।।
दृष्टो हि मम संक्लेश: पुरा पाण्डवनन्दन ।
न तवात्रापराधो5स्ति कथंचिदपि पाण्डव ।। ५१ ।।
'पूर्वकालकी बात है, महर्षि अगस्त्यने किसी अपराधपर कुपित हो मुझे शाप दे दिया
था; उसका तुम्हारे द्वारा निगाकरण हुआ। पाण्डव-नन्दन! मुझे पूर्वकालसे ही यह दुःख
देखना बदा था। इसमें तुम्हारा किसी तरह भी कोई अपराध नहीं है” || ५०-५१ ।।
युधिछिर उवाच
कथं शप्तो5सि भगवन्नगस्त्येन महात्मना ।
श्रोतुमिच्छाम्यहं देव तवैतच्छापकारणम् ।। ५२ ।।
युधिषछ्िरने पूछा--भगवन्! महात्मा अगस्त्यने आपको कैसे शाप दे दिया? देव!
आपको शाप मिलनेका क्या कारण है? यह मैं सुनना चाहता हूँ || ५२ ।।
इदं चाश्चर्यभूतं मे यत् क्रोधात् तस्य धीमतः ।
तदैव त्वं न निर्दग्ध: सबल: सपदानुग: ।। ५३ ।।
मुझे इस बातके लिये बड़ा आश्चर्य होता है कि उन बुद्धिमान् महर्षिके क्रोधसे आप
उसी समय अपने सेवकों और सैनिकोंसहित जलकर भस्म क्यों नहीं हो गये? ।। ५३ ।।
धनेश्वर उवाच
देवतानामभून्मन्त्र: कुशवत्यां नरेश्वर ।
वृतस्तत्राहमगमं महापद्मशतैस्त्रिभि: ।। ५४ ।।
कुबेर बोले--नरेश्वर! प्राचीन कालमें कुशवतीमें देवताओंकी मन्त्रणा-सभा बैठी थी।
उसमें मुझे भी बुलाया गया था। मैं तीन सौ महापद्म यक्षोंके साथ वहाँ गया ।। ५४ ।।
यक्षाणां घोररूपाणां विविधायुधधारिणाम् |
अध्वन्यहमथापश्यमगस्त्यमृषिसत्तमम् ।। ५५ ।।
उग्र॑ तपस्तप्यमानं यमुनातीरमाश्रितम् ।
नानापक्षिगणाकीर्ण पुष्पितद्रुमशोभितम् ।। ५६ ।।
वे भयानक यक्ष नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लिये हुए थे। रास्तेमें मुझे मुनिश्रेष्ठ
अगस्त्यजी दिखायी दिये, जो यमुनाके तटपर कठोर तपस्या कर रहे थे। वह प्रदेश भाँति-
भाँतिके पक्षियोंसे व्याप्त और विकसित वृक्षावलियोंसे सुशोभित था ।। ५५-५६ ।।
तमूर्ध्वबाहुं दृष्टवैव सूर्यस्याभिमुखे स्थितम् ।
तेजोराशिं दीप्यमानं हुताशनमिवैधितम् ।। ५७ ।।
महर्षि अगस्त्य अपनी दोनों बाँहें ऊपर उठाये सूर्यकी ओर मुँह करके खड़े थे। वे
तेजोराशि महात्मा प्रज्वलित अग्निके समान उद्दीप्त हो रहे थे || ५७ ।।
राक्षसाधिपति: श्रीमान् मणिमान्नाम मे सखा ।
मौखर्यादज्ञानभावाच्च दर्पान्मोहाच्च पार्थिव ।। ५८ ।।
न्यछीवदाकाशगतो महर्षेस्तस्य मूर्थनि ।
स कोपान्मामुवाचेदं दिश: सर्वा दहन्निव ।। ५९ ।।
राजन! उन्हें देखकर ही मेरे एक मित्र राक्षसराज श्रीमणिमानने मूर्खता, अज्ञान,
अभिमान एवं मोहके कारण आकाशसे उन महर्षिके मस्तकपर थूक दिया। तब वे क्रोधसे
मानो सारी दिशाओंको दग्ध करते हुए मुझसे इस प्रकार बोले--- || ५८--५९ ।।
मामवज्ञाय दुष्टात्मा यस्मादेष सखा तव ।
धर्षणां कृतवानेतां पश्यतस्ते धनेश्वर ।। ६० ।।
तस्मात् सहैभि: सैन्यैस्ते वर्ध प्राप्स्यति मानुषात् ।
त्वं चाप्येभिह्तै: सैन्य: क्लेशं प्राप्येह दुर्मति: ।
तमेव मानुषं दृष्टवा किल्बिषाद विप्रमोक्ष्यसे || ६१ ।।
'धनेश्वर! तुम्हारे इस दुष्टात्मा सखाने मेरी अवहेलना करके तुम्हारे देखते-देखते जो
मेरा इस प्रकार तिरस्कार किया है, उसके फलस्वरूप इन समस्त सैनिकोंके साथ यह एक
मनुष्यके हाथसे मारा जायगा। तुम्हारी बुद्धि खोटी हो गयी है, अतः इन सब सैनिकोंके मारे
जानेपर उनके लिये दुःख उठानेके पश्चात् तुम फिर उसी मनुष्यका दर्शन करके मेरे शाप एवं
पापसे छुटकारा पा सकोगे ।।
सैन्यानां तु तवैतेषां पुत्रपौत्रबलान्वितम् ।
न शापं प्राप्यते घोरं तत् तवाज्ञां करिष्यति ॥। ६२ ।।
“इन सैनिकोंमेंसे जो तुम्हारी आज्ञाका पालन करेगा, वह पुत्र, पौत्र तथा सेनापर लागू
होनेवाले इस भयंकर शापके प्रभावसे अलग रहेगा” ।। ६२ ।।
एष शापो मया प्राप्त: प्राक् तस्मादृषिसत्तमात् |
स भीमेन महाराज क्षात्रा तव विमोक्षित: ।। ६३ ।।
महाराज युधिष्ठिर! पूर्व कालमें उन मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यसे यही शाप मुझे प्राप्त हुआ था,
जिससे तुम्हारे भाई भीमसेनने छुटकारा दिलाया है ।। ६३ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि यक्षयुद्धपर्वणि कुबेरदर्शने
एकषष्ट्यधिकशततमो< ध्याय: ।। १६१ ||
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत यक्षयुद्धपर्वमें कुबेरदर्शनविषयक एक सौ
इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६१ ॥।
हि न () हि २ आम
द्विषष्ट्याधिकशततमो< ध्याय:
कुबेरका युधिष्ठिर आदिको उपदेश और सान्त्वना देकर
अपने भवनको प्रस्थान
धनद उवाच
युधिष्ठिर धृतिर्दाक्ष्य देशकालपराक्रमा: ।
लोकततन्त्रविधानानामेष पञ्चविधो विधि: ।। १ ।।
कुबेर बोले--युधिष्ठिर! धैर्य, दक्षता, देश, काल और पराक्रम--ये पाँच लौकिक
कार्योंकी सिद्धिके हेतु हैं || १ ।।
धृतिमन्तश्न दक्षाश्न स्वे स्वे कर्मणि भारत ।
पराक्रमविधानज्ञा नरा कृतयुगे5डभवन् ॥। २ ।।
भारत! सत्ययुगमें सब मनुष्य धैर्यवान, अपने-अपने कार्यमें कुशल तथा
पराक्रमविधिके ज्ञाता थे || २ ।।
धृतिमान् देशकालज्ञ: सर्वधर्मविधानवित् |
क्षत्रिय: क्षत्रियश्रेष्ठ प्रशास्ति पृथिवीं चिरम् ।। ३ ।॥।
क्षत्रियश्रेष्ठ! जो क्षत्रिय धैर्यवान, देश-कालको समझनेवाला तथा सम्पूर्ण धर्मोके
विधानका ज्ञाता है, वह दीर्घकालतक इस पृथ्वीका शासन कर सकता है ।। ३ ।।
य एवं वर्तते पार्थ पुरुष: सर्वकर्मसु ।
स लोके लभते वीर यशः प्रेत्य च सद्गतिम् ।। ४ ।।
देशकालान्तरप्रेप्सु: कृत्वा शक्र: पराक्रमम् ।
सम्प्राप्तस्त्रिदिवे राज्यं वृत्रहा वसुभि: सह ।। ५ ।।
वीर पार्थ! जो पुरुष इसी प्रकार सब कर्मामें प्रवृत्त होता है, वह लोकमें सुयश और
परलोकमें उत्तम गति पाता है। देश-कालके अन्तरपर दृष्टि रखनेवाले वृत्रासुर-विनाशक
इन्द्रने वसुओंसहित पराक्रम करके स्वर्गका राज्य प्राप्त किया है ।। ४-५ ।।
यस्तु केवलसंरम्भात् प्रपातं न निरीक्षते ।
पापात्मा पापबुद्धिर्य: पापमेवानुवर्तते ॥। ६ ।।
जो केवल क्रोधके वशीभूत हो अपने पतनको नहीं देखता है, वह पापबुद्धि पापात्मा
पुरुष पापका ही अनुसरण करता है ।। ६ |।
कर्मणामविभागज्ञ: प्रेत्य चेह विनश्यति ।
अकालज्ञ: सुदुर्मेधा: कार्याणामविशेषवित् ।। ७ ।।
जो कर्मोंके विभागको नहीं जानता, समयको नहीं पहचानता और कार्योंके वैशिष्ट्यूको
नहीं समझता है, वह खोटी बुद्धिवाला मनुष्य इहलोक तथा परलोकमें भी नष्ट ही होता
है ।। ७ ।।
वृथा55चारसमारम्भ: प्रेत्य चेह विनश्यति ।
साहसे वर्तमानानां निकृतीनां दुरात्मनाम् ।। ८ ।।
साहसके कार्योंमें लगे हुए ठग एवं दुरात्मा पुरुषोंके उत्तम कर्मोंका अनुष्ठान इस लोक
और परलोकमें भी व्यर्थ नष्टप्राय ही है ।। ८ ।।
सर्वसामर्थ्यलिप्सूनां पापो भवति निश्चय: ।
अधर्मज्ञोडवलिप्तश्न बालबुद्धिरमर्षण: ।। ९ ।।
निर्भयो भीमसेनो<यं तं शाधि पुरुषर्षभ ।
सब प्रकारकी (सांसारिक) सामर्थ्यके इच्छुक मनुष्योंका निश्चय पापपूर्ण होता है।
पुरुषरत्न युधिष्ठिर! ये भीमसेन धर्मको नहीं जानते, इन्हें अपने बलका बड़ा अभिमान है
इनकी बुद्धि अभी बालकोंकी-सी है तथा ये अत्यन्त क्रोधी और निर्भय हैं, अतः तुम इन्हें
उपदेश देकर काबूमें रखो ।। ९६ ।।
आर्डटिषेणस्य राजर्षे: प्राप्प भूयस्त्वमाश्रमम् ।। १० ।।
तामिस्र॑ प्रथमं पक्षं वीतशोकभयो वस ।
नरेश्वर! अब पुनः तुम यहाँसे राजर्षि आर्डिषेणके आश्रमपर जाकर कृष्णपक्षभर शोक
और भयसे रहित होकर रहो ।। १०३ ।।
अलका: सह गन्धर्वर्यक्षाश्ष॒ सह किन्नरैः ।। १३१ ।।
मन्नियुक्ता मनुष्येन्द्र सर्वे च गिरिवासिन: ।
रक्षिष्यन्ति महाबाहो सहित द्विजसत्तमै: ।। १२ ।।
महाबाहु नरश्रेष्ठ! वहाँ अलकानिवासी यक्ष तथा इस पर्वतपर रहनेवाले सभी प्राणी मेरी
आज्ञाके अनुसार गन्धर्वों और किन्नरोंके साथ सदा इन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसहित तुम्हारी रक्षा
करेंगे ।। ११-१२ ।।
साहसादनुसम्प्राप्त: प्रतिबुध्य: वृकोदर: ।
वार्यतां साध्वयं राजंस्त्वया धर्मभूृतां वर || १३ ।।
धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ नरेश! भीमसेन यहाँ दुःसाहस-पूर्वक आये हैं, यह बात समझाकर
इन्हें अच्छी तरह मना कर दो (जिससे ये पुनः कोई अपराध न कर बैठें) || १३ ।।
अतः परं च वो राजन द्रक्ष्यन्ति वनगोचरा: ।
उपस्थास्यथन्ति वो राजन् रक्षिष्यन्ते च व: सदा ।। १४ ।।
राजन्! अबसे इस वनमें रहनेवाले सब यक्ष तुमलोगोंकी देख-भाल करेंगे, तुम्हारी
सेवामें उपस्थित होंगे और सदा तुम सब लोगोंके संरक्षणमें तत्पर रहेंगे || १४ ।।
तथैव चाज्नपानानि स्वादूनि च बहूनि च ।
आहरिष्यन्ति मत्प्रेष्या: सदा व: पुरुषर्षभा: ।। १५ ।।
पुरुषरत्न पाण्डवो! इसी प्रकार हमारे सेवक तुम्हारे लिये वहाँ सदा स्वादिष्ट अन्न-पान
प्रचुर मात्रामें प्रस्तुत करते रहेंगे || १५ ।।
यथा जिष्णुर्महेन्द्रस्य यथा वायोरव॑कोदर: ।
धर्मस्य त्वं यथा तात योगोत्पन्नो निज: सुत: ।। १६ ।।
आत्मज्ञावात्मसम्पन्नौ यमौ चोभौ यथाशद्रिनो: ।
रक्ष्यास्तद्वन्ममापीह यूयं सर्वे युधिष्ठिर ।। १७ ।।
तात युधिष्ठिर! जैसे अर्जुन देवराज इन्द्रके, भीमसेन वायुदेवके और तुम धर्मराजके
योगबलसे उत्पन्न किये हुए निजी पुत्र होनेके कारण उनके द्वारा रक्षणीय हो तथा ये दोनों
आत्मबलसम्पन्न नकुल-सहदेव जैसे दोनों अश्विनीकुमारोंसे उत्पन्न होनेके कारण उनके
पालनीय हैं, उसी प्रकार यहाँ मेरे लिये भी तुम सब लोग रक्षणीय हो ।। १६-१७ ।।
अर्थतत्त्वविधानज्ञ: सर्वधर्मविधानवित् |
भीमसेनादवरज: फाल्गुन: कुशली दिवि ।। १८ ।।
अर्थतत्त्वकी विधिके ज्ञाता और सम्पूर्ण धर्मोके विधानमें कुशल अर्जुन, जो भीमसेनसे
छोटे हैं, इस समय कुशलपूर्वक स्वर्गलोकमें विराज रहे हैं || १८ ।।
या: काशक्षन मता लोके स्वर्ग्या: परमसम्पद: ।
जन्मप्रभृति ता: सर्वाः स्थितास्तात धनंजये ।। १९ ।।
तात! संसारमें जो कोई भी स्वर्गीय श्रेष्ठ सम्पत्तियाँ मानी गयी हैं, वे सब अर्जुनमें
जन्मकालसे ही स्थित हैं ।। १९ ।।
दमो दान बल बुद्धि्नीर्धतिस्तेज उत्तमम् ।
एतान्यपि महासत्त्वे स्थितान्यमिततेजसि ।। २० ||
अमित तेजस्वी और महान् सत्त्वशाली अर्जुनमें दम (इन्द्रिय-संयम), दान, बल, बुद्धि,
लज्जा, धैर्य तथा उत्तम तेज--ये सभी सदगुण विद्यमान हैं || २० ।।
न मोहात् कुरुते जिष्णु: कर्म पाण्डव गर्हितम् ।
न पार्थस्य मृषोक्तानि कथयन्ति नरा नृषु |। २१ ।।
पाण्डुनन्दन! तुम्हारे भाई अर्जुन कभी मोहवश निन्दित कर्म नहीं करते। मनुष्य
आपसमें कभी अर्जुनके मिथ्याभाषणकी चर्चा नहीं करते हैं | २१ ।।
स देवपितृगन्धर्वै: कुरूणां कीर्तिवर्धन: ।
मानित: कुरुते5स्त्राणि शक्रसझनि भारत || २२ ।।
भारत! कुरुकुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले अर्जुन इन्द्रभवनमें देवताओं, पितरों तथा
गन्धर्वोंसे सम्मानित हो अस्त्रविद्याका अभ्यास करते हैं । २२ ।।
योडसौ सर्वान् महीपालान् धर्मेण वशमानयत् |
स शान्तनुर्महातेजा: पितुस्तव पितामह: ।। २३ ।।
प्रीयते पार्थ पार्थेन दिवि गाण्डीवधन्चना ।
सम्यक् चासौ महावीर्य: कुलधुर्येण पार्थिव: ॥। २४ ।।
पार्थ! जिन्होंने सब राजाओंको धर्मपूर्वक अपने अधीन कर लिया था, वे महातेजस्वी,
महापराक्रमी तथा सदाचारपरायण महाराज शान्तनु, जो तुम्हारे पिताके पितामह थे,
स्वर्गलोकमें कुरुकुलधुरीण गाण्डीवधारी अर्जुनसे बहुत प्रसन्न रहते हैं || २३-२४ ।।
पितृन् देवानृषीन् विप्रान् पूजयित्वा महातपा: ।
सप्त मुख्यान् महामेधानाहरद् यमुनां प्रति ॥। २५ ।।
अधिराज: स राजंस्त्वां शान्तनु: प्रपितामह: ।
स्वर्गजिच्छक्रलोकस्थ: कुशलं परिपृच्छति ।। २६ ।।
महातपस्वी शान्तनुने देवताओं, पितरों, ऋषियों तथा ब्राह्मणोंकी पूजा करके यमुना-
तटपर सात बड़े-बड़े अश्वमेधयज्ञोंका अनुष्ठान किया था। राजन! वे तुम्हारे प्रपितामह
राजाधिराज शान्तनु स्वर्गलोकको जीतकर उसीमें निवास करते हैं। उन्होंने मुझसे तुम्हारी
कुशल पूछी थी ।। २५-२६ ।।
वैशम्पायन उवाच
एतच्छुत्वा तु वचन धनदेन प्रभाषितम् ।
पाण्डवाश्व ततस्तेन वभूवु: सम्प्रहर्षिता: ।। २७ ।।
ततः शक्ति गदां खड््गं धनुश्च॒ भरतर्षभ: ।
प्राध्वं कृत्वा नमश्नक्रे कुबेराय वृकोदर: ।॥ २८ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! कुबेरकी कही हुई ये बातें सुनकर पाण्डवोंको
बड़ी प्रसन्नता हुई। तदनन्तर भरतकुल-भूषण भीमसेनने उठायी हुई शक्ति गदा, खड्ग और
धनुषको नीचे करके कुबेरको नमस्कार किया ।।
ततोडब्रवीद् धनाध्यक्ष: शरण्य: शरणागतम् ।
मानहा भव शत्रूणां सुहृदां नन्दिवर्धन: || २९ ।।
तब शरण देनेवाले धनाध्यक्ष कुबेरने अपनी शरणमें आये हुए भीमसेनसे कहा
--'पाण्डुनन्दन! तुम शत्रुओंका मान मर्दन और सुहृदोंका आनन्द वर्धन करनेवाले
बनो ।। २९ |।
स्वेषु वेश्मसु रम्येषु वसतामित्रतापना: ।
कामान्न परिहास्यन्ति यक्षा वो भरतर्षभा: ।। ३० ||
'शत्रुओंको संताप देनेवाले भरतकुलभूषण पाण्डवो! तुम सब लोग अपने रमणीय
आश्रमोंमें निवास करो। यक्षलोग तुम्हारी अभीष्ट वस्तुओंकी प्राप्तिमें बाधा नहीं
डालेंगे || ३० ।।
शीघ्रमेव गुडाकेश: कृतास्त्र: पुनरेष्यति ।
साक्षान्मघवता सृष्ट: सम्प्राप्स्यति धनंजय: ।। ३१ ।।
“निद्राविजयी अर्जुन अस्त्रविद्या सीखकर साक्षात् इन्द्रके भेजनेपर शीघ्र ही यहाँ आवेंगे
और तुम सब लोगोंसे मिलेंगे” || ३१ ।।
एवमुत्तमकर्माणमनुशिष्य युधिष्ठटिरम् ।
श्वेतं गिरिवरश्रेष्ठ प्रययौं गुह्ुकाधिप: ।। ३२ ।।
इस प्रकार उत्तम कर्म करनेवाले युधिष्ठिरको उपदेश देकर यक्षराज कुबेर गिरिश्रेष्ठ
कैलासको चले गये ।। ३२ ।।
त॑ परिस्तोमसंकीर्ण्नानारत्नवि भूषितै: ।
यानैरनुययुर्यक्षा राक्षसाश्व॒ सहस्रश: ।। ३३ ।।
उनके पीछे सहस्रों यक्ष और राक्षस भी अपने-अपने वाहनोंपर आरूढ़ हो चल दिये।
उनके वे वाहन नाना प्रकारके रत्नोंसे विभूषित थे और उनकी पीठपर बहुरंगे कम्बल आदि
कसे हुए थे | ३३ ।।
पक्षिणामिव निर्घोष: कुबेरसदनं प्रति ।
बभूव परमाश्चानामैरावतपथे यथा ।। ३४ ।।
जैसे इन्द्रपुरीके मार्गपपर चलनेवाले विविध वाहनोंका कोलाहल सुनायी पड़ता है, उसी
प्रकार कुबेरभवनके प्रति यात्रा करनेवाले उत्तम अश्वोंका शब्द ऐसा जान पड़ता था, मानो
पक्षी उड़ रहे हों | ३४ ।।
ते जम्मुस्तूर्णमणाकाशं धनाधिपतिवाजिन: ।
प्रकर्षन्त इवा भ्राणि पिबन्त इव मारुतम् ।। ३५ ||
धनाध्यक्ष कुबेरके वे घोड़े अपने साथ बादलोंको खींचते और वायुको पीते हुए-से तीत्र
गतिसे आकाशमें उड़ चले ।। ३५ ।।
ततस्तानि शरीराणि गतसत्त्वानि रक्षसाम् |
अपाकृष्यन्त शैलाग्रादू धनाधिपतिशासनात् ।। ३६ ।।
तदनन्तर कुबेरकी आज्ञासे राक्षसोंके वे निर्जीव शरीर उस पर्वतशिखरसे दूर हटा दिये
गये ।। ३६ ।।
तेषां हि शापकाल: स कृतो5गस्त्येन धीमता ।
समरे निहतास्तस्माच्छापस्यान्तो5भवत् तदा ॥। ३७ ।।
पाण्डवाश्नव महात्मानस्तेषु वेश्मसु तां क्षपाम्
सुखमूषुर्गतोद्वेगा: पूजिता: सर्वराक्षसै: । ३८ ।।
बुद्धिमान् अगस्त्यने यक्षोंके लिये शापकी वही अवधि निश्चित की थी। जब वे युद्धमें
मारे गये तब उनके शापका अन्त हो गया। महामना पाण्डव अपने उन आश्रमोंमें सम्पूर्ण
राक्षसोंसे पूजित एवं उद्वेगशून्य होकर सुखसे रात्रि व्यतीत करने लगे || ३७-३८ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि यक्षयुद्धपर्वणि कुबेरवाक्ये
द्विषष्ट्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १६२ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत यक्षयुद्धपर्वमें कुबेरवाक्यविषयक एक सौ
बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६२ ॥/
#::73:.8 #::3-.7 (0) हि २ 7
त्रेषष्ट्याधिकशततमोब<् ध्याय:
धौम्यका युधिषिरको मेरु पर्वत तथा उसके शिखरोंपर
स्थित ब्रह्मा, विष्णु आदिके स्थानोंका लक्ष्य कराना और
सूर्य-चन्द्रमाकी गति एवं प्रभावका वर्णन
वैशम्पायन उवाच
ततः सूर्योदये धौम्य: कृत्वा5डहछ्लिकमरिंदम ।
आर्टिषेणेन सहित: पाण्डवानभ्यवर्तत ।। ३ ||
वैशम्पायनजी कहते हैं--शत्रुदमन नरेश! तदनन्तर सूर्योदय होनेपर आ्टिषिणसहित
धौम्यजी नित्यकर्म पूरा करके पाण्डवोंके पास आये ।। १ ।।
ते5भिवाद्यार्टिषिणस्य पादौ धौम्यस्य चैव ह ।
ततः प्राउजलय: सर्वे ब्राह्म॒णांस्तानपूजयन् ।। २ ।।
तब समस्त पाण्डवोंने आर्श्षिण तथा धौम्यके चरणोंमें प्रणाम किया और हाथ
जोड़कर सब ब्राह्मणोंका पूजन किया ।। २ ।।
ततो युधिष्टिरं धौम्यो गृहीत्वा दक्षिणे करे ।
प्राचीं दिशमभिप्रेक्ष्य महर्षिरिदमब्रवीत् ।। ३ ।।
तदनन्तर महर्षि धौम्यने युधिष्ठिरका दाहिना हाथ पकड़कर पूर्व दिशाकी ओर देखते
हुए कहा-- ।। ३ ||
असोौ सागरपर्यन्तां भूमिमावृत्य तिष्ठति ।
शैलराजो महाराज मन्दरो5ति विराजते ।। ४ ।।
“महाराज! वह पर्वतराज मन्दराचल प्रकाशित हो रहा है, जो समुद्रतककी भूमिको
घेरकर खड़ा है ॥। ४ ।।
इन्द्रवैश्रवणावेतां दिशं पाण्डव रक्षत: |
पर्वतैश्न वनान्तैश्न काननैश्वैव शोभिताम् ॥। ५ |।
'पाण्डुनन्दन! पर्वतों, वनान्त प्रदेशों और काननोंसे सुशोभित इस पूर्व दिशाकी रक्षा
इन्द्र और कुबेर करते हैं ।।
एतदाहुर्महेन्द्रस्य राज्ञो वैश्रवणस्य च ।
ऋषय: सर्वधर्मज्ञा: सझ तात मनीषिण: ।। ६ ।।
अतश्रोद्यन्तमादित्यमुपतिष्ठन्ति वै प्रजा: ।
ऋषयश्नापि धर्मज्ञा: सिद्धा: साध्याश्व देवता: ।। ७ ।।
“तात! सब धर्मोके ज्ञाता मनीषी महर्षि इस दिशाको देवराज इन्द्र तथा कुबेरका
निवासस्थान कहते हैं। इधरसे ही उदित होनेवाले सूर्यदेवकी समस्त प्रजा, धर्मज्ञ ऋषि,
सिद्ध महात्मा तथा साध्य देवता उपासना करते हैं ।। ६-७ ।।
यमस्तु राजा धर्मज्ञ: सर्वप्राणभृतां प्रभु: ।
प्रेतसत्त्वगतिं होनां दक्षिणामाश्रितो दिशम् ॥। ८ ।।
“समस्त प्राणियोंके ऊपर प्रभुत्व रखनेवाले धर्मज्ञ राजा यम इस दक्षिण दिशाका
आश्रय लेकर रहते हैं। इसमें मरे हुए प्राणी ही जा सकते हैं ।। ८ ।।
एतत् संयमनं पुण्यमतीवाद्धुतदर्शनम् ।
प्रेतराजस्य भवनमृद्धया परमया युतम् ।। ९ ।।
'प्रेतताजका यह निवासस्थान अत्यन्त समृद्धिशाली परम पवित्र तथा देखनेमें अद्भुत
है। राजन! इसका नाम संयमन (या संयमनीपुरी) है ।। ९ ।।
य॑ं प्राप्प सविता राजन् सत्येन प्रतितिष्ठति ।
अस्तं पर्वतराजानमेतमाहुर्मनीषिण: || ३० ।।
एतं पर्वतराजानं समुद्र च महोदधिम् |
आवसन् वरुणो राजा भूतानि परिरक्षति ।। ११ ।।
“राजन! जहाँ जाकर भगवान् सूर्य सत्यसे प्रतिष्ठित होते हैं, उस पर्वतराजको मनीषी
पुरुष अस्ताचल कहते हैं। गिरिराज अस्ताचल और महान् जलराशिसे भरे हुए समुद्रमें
रहकर राजा वरुण समस्त प्राणियोंकी रक्षा करते हैं | १०-११ ।।
उदीचीं दीपयन्नेष दिशं तिष्ठति वीर्यवान् |
महामेरुर्महा भाग शिवो ब्रह्मविदां गति: ।। १२ ।।
“महाभाग!” यह अत्यन्त प्रकाशमान महामेरु पर्वत दिखायी देता है, जो उत्तर दिशाको
उद्धासित करता हुआ खड़ा है। इस कल्याणकारी पर्वतपर ब्रह्मवेत्ताओंकी ही पहुँच हो
सकती है ।। १२ ।।
यस्मिन ब्रह्मसदश्चैव भूतात्मा चावतिष्ठते ।
प्रजापति: सृजन् सर्व यत् किज्चिज्जड्र्मागमम् ।। १३ ।।
“इसीपर ब्रह्माजीकी सभा है, जहाँ समस्त प्राणियोंके आत्मा ब्रह्मा स्थावर-जंगम
समस्त प्राणियोंकी सृष्टि करते हुए नित्य निवास करते हैं || १३ ।।
यानाहुर्ब्रह्मण: पुत्रान् मानसात् दक्षसप्तमान् ।
तेषामपि महामेरु: शिवं स्थानमनामयम् ।। १४ ।।
“जिन्हें ब्रह्माजीका मानसपुत्र बताया जाता है और जिनमें दक्षप्रजापतिका स्थान
सातवाँ है। उन समस्त प्रजापतियोंका भी यह महामेरु पर्वत ही रोग-शोकसे रहित सुखद
स्थान है | १४ ।।
अन्रैव प्रतितिष्ठन्ति पुनरेवोदयन्ति च ।
सप्त देवर्षयस्तात वसिष्ठप्रमुखा: सदा ।। १५ ।।
“तात! वसिष्ठ आदि सात देवर्षि इन्हीं प्रजापतिमें लीन होते और पुनः इन्हींसे प्रकट
होते हैं । १५ ।।
देशं विरजसं पश्य मेरो: शिखरमुत्तमम् ।
यत्रात्मतृप्तैर ध्यास्ते देवे: सह पितामह: ।। १६ ।।
'युधिष्ठिर! मेरुका वह उत्तम शिखर देखो, जो रजोगुण रहित प्रदेश है, वहाँ अपने-
आपमें तृप्त रहनेवाले देवताओंके साथ पितामह ब्रह्मा निवास करते हैं ।। १६ ।।
यमाहु: सर्वभूतानां प्रकृते: प्रकृति धरुवम् ।
अनादिनिधन देवं प्रभुं नारायणं परम् ।। १७ ।।
ब्रहद्मण: सदनात् तस्य परं स्थान प्रकाशते ।
देवा अपि न पश्यन्ति सर्वतेजोमयं शुभम् ।। १८ ।।
अत्यर्कानलदीप्तं तत् स्थान विष्णोर्महात्मन: ।
स्वयैव प्रभया राजन दुष्प्रेक्ष्यं देवदानवैः ॥। १९ ।।
“जो समस्त प्राणियोंकी पञ्चभूतमयी प्रकृतिके अक्षय उपादान हैं, जिन्हें ज्ञानी पुरुष
अनादि अनन्त दिव्य-स्वरूप परम प्रभु नारायण कहते हैं, उनका उत्तम स्थान उस
ब्रह्मलोकसे भी ऊपर प्रकाशित हो रहा है। देवता भी उन सर्वतेजोमय शुभस्वरूप
भगवान्का सहज ही दर्शन नहीं कर पाते। राजन! परमात्मा विष्णुका वह स्थान सूर्य और
अग्निसे भी अधिक तेजस्वी है और अपनी ही प्रभासे प्रकाशित होता है। देवताओं और
दानवोंके लिये उसका दर्शन अत्यन्त कठिन है ।| १७--१९ ।।
प्राच्यां नारायणस्थानं मेरावतिविराजते ।
यत्र भूतेश्वरस्तात सर्वप्रकृतिरात्मभू: ।। २० ।।
भासयन् सर्वभूतानि सुश्रियाभिविराजते ।
नात्र ब्रह्मर्षयस्तात कुत एव महर्षय: ।। २१ ।।
प्राप्रुवन्ति गतिं होतां यतीनां भावितात्मनाम् |
नतं ज्योतींषि सर्वाणि प्राप्प भासन्ति पाण्डव ।। २२ ।।
“तात! पूर्व दिशामें मेरूपर ही भगवान् नारायणका स्थान सुशोभित हो रहा है, जहाँ
सम्पूर्ण भूतोंके स्वामी तथा सबके उपादान कारण स्वयंभू भगवान् विष्णु अपने उत्कृष्ट
तेजसे सम्पूर्ण भूतोंको प्रकाशित करते हुए विराजमान होते हैं। वहाँ यत्नशील ज्ञानी
महात्माओंकी ही पहुँच हो सकती है। उस नारायणधाममें ब्रह्मर्षियोंकी भी गति नहीं है।
फिर महर्षि तो वहाँ जा ही कैसे सकते हैं। पाण्डुनन्दन! सम्पूर्ण ज्योतिर्मय पदार्थ भगवान्के
निकट जाकर अपना तेज खो बैठते हैं--उनमें पूर्ववत् प्रकाश नहीं रह जाता ॥| २०--
२२ |।
स्वयं प्रभुरचिन्त्यात्मा तत्र ह्यतिविराजते ।
यतयस्तत्र गच्छन्ति भक्त्या नारायणं हरिम् ।। २३ ।।
'साक्षात् अचिन्त्यस्वरूप भगवान् विष्णु ही वहाँ विराजित होते हैं। यत्नशील महात्मा
भक्तिके प्रभावसे वहाँ भगवान् नारायणको प्राप्त होते हैं || २३ ।।
परेण तपसा युक्ता भाविता: कर्मभि: शुभै: ।
योगसिद्धा महात्मानस्तमोमोहविवर्जिता: ।। २४ ।।
तत्र गत्वा पुनर्नेमं लोकमायान्ति भारत ।
स्वयम्भुवं महात्मानं देवदेवं सनातनम् ।। २५ ।।
“भारत! जो उत्तम तपस्यासे युक्त हैं और पुण्यकर्मोके अनुष्ठानसे पवित्र हो गये हैं, वे
अज्ञान और मोहसे रहित योगसिद्ध महात्मा उस नारायण-धाममें जाकर फिर इस संसारमें
नहीं लौटते हैं। अपितु स्वयंभू एवं सनातन परमात्मा देवदेव विष्णुमें लीन हो जाते
हैं ।। २४-२५ ।।
स्थानमेतन्महाभाग ध्रुवमक्षयमव्ययम् |
ईश्वरस्य सदा होतत् प्रणमात्र युधिष्ठिर ।। २६ ।।
“महाभाग युधिष्ठिर! यह परमेश्वरका नित्य, अविनाशी और अविकारी स्थान है। तुम
यहींसे इसको प्रणाम करो ।। २६ ।।
एन॑ त्वहरहर्मेरुं सूर्याचन्द्रमसौ ध्रुवम्
प्रदक्षिणमुपावृत्य कुरुत: कुरुनन्दन ।। २७ ।।
ज्योतींषि चाप्यशेषेण सर्वाण्यनघ सर्वतः ।
परियान्ति महाराज गिरिराजं प्रदक्षिणम् ।। २८ ।।
“कुरुनन्दन! सूर्य और चन्द्रमा प्रतिदिन इस निश्चल मेरुगिरिकी प्रदक्षिणा करते रहते हैं।
पापशून्य महाराज! सम्पूर्ण नक्षत्र भी गिरिराज मेरुकी सर्वतोभावेन परिक्रमा करते
हैं | २७-२८ ।।
एतं ज्योतींषि सर्वाणि प्रकर्षीन् भगवानपि ।
कुरुते वितमस्कर्मा आदित्यो5भिप्रदक्षिणम् ।। २९ ।।
“अन्धकारका निवारण करना ही जिनका मुख्य कर्म है, वे भगवान् सूर्य भी सम्पूर्ण
ज्योतियोंको अपनी ओर खींचते हुए इस मेरुगिरिकी प्रदक्षिणा करते हैं |। २९ ।।
अस्तं प्राप्प तत: संध्यामतिक्रम्प दिवाकर: ।
उदीचीं भजते काष्ठां दिशमेष विभावसु: ।। ३० ।।
स मेरुमनुवृत्त: सन् पुनर्गच्छति पाण्डव ।
प्रामुख: सविता देव: सर्वभूतहिते रत: ।। ३१ ।।
“तदनन्तर अस्ताचलको पहुँचकर संध्याकालकी सीमाको लाँघकर ये भगवान् सूर्य
उत्तर दिशाका आश्रय लेते हैं। पाण्डुनन्दन! मेरु पर्वतका अनुसरण करके उत्तर दिशाकी
सीमातक पहुँचकर ये समस्त प्राणियोंके हितमें तत्पर रहनेवाले भगवान् सूर्य पुनः
पूर्वाभिमुख होकर चलते हैं || ३०-३१ ।।
स मासान् विभजन् काले बहुथधा पर्वसंधिषु ।
तथैव भगवान् सोमो नक्षत्र: सह गच्छति ।। ३२ ।।
“उसी प्रकार भगवान् चन्द्रमा भी नक्षत्रोंके साथ मेरु पर्वतकी परिक्रमा करते हैं और
पर्वसंधिके समय विभिन्न मासोंका विभाग करते रहते हैं ।। ३२ ।।
एवमेतं त्वतिक्रम्प महामेरुमतन्द्रित: ।
भावयन् सर्वभूतानि पुनर्गच्छति मन्दरम् ।। ३३ ।।
तथा तमिस्रहा देवो मयूखैर्भावयञ्जगत् ।
मार्गमेतदसम्बाधमादित्य: परिवर्तते ।। ३४ ।।
“इस तरह आलस्यरहित हो इस महामेरुका उल्लंघन करके समस्त प्राणियोंका पोषण
करते हुए वे पुनः मन्दराचलको चले जाते हैं। उसी प्रकार अन्धकारनाशक भगवान् सूर्य
अपनी किरणोंसे सम्पूर्ण जगत्का पालन करते हुए इस बाधारहित मार्गपर सदा चक्कर
लगाते रहते हैं || ३३-३४ ।।
सिसृक्षुः शिशिराण्येव दक्षिणां भजते दिशम् |
ततः सर्वाणि भूतानि कालो< भ्यच्छति शैशिर: ।। ३५ ।।
स्थावराणां च भूतानां जजड़मानां च तेजसा ।
तेजांसि समुपादत्ते निवृत्त: स विभावसु: ।। ३६ ।।
ततः स्वेदक्लमौ तन््द्री ग्लानिश्व भजते नरान् ।
प्राणिभि: सतत स्वप्नो हाभीक्षणं च निषेव्यते ।। ३७ ।।
एवमेतदनिर्देश्यं मार्गमावृत्य भानुमान् ।
पुन: सृजति वर्षाणि भगवान् भावयन् प्रजा: ॥। ३८ ।।
'शीतकी सृष्टि करनेकी इच्छासे ही सूर्यदेव दक्षिण दिशाका आश्रय लेते हैं, इसलिये
समस्त प्राणियोंपर शीतकालका प्रभाव पड़ने लगता है। दक्षिणायनसे निवृत्त होनेपर वे
भगवान् सूर्य स्थावर-जंगम सभी प्राणियोंका तेज अपने तेजसे हर लेते हैं, यही कारण है
कि मनुष्योंको पसीना, थकावट, आलस्य और ग्लानिका अनुभव होता है तथा प्राणी सदा
निद्राका ही बार-बार सेवन करते हैं। इस प्रकार इस अन्तरिक्ष मार्गको आवृत करके समस्त
प्रजाकी पुष्टि करते हुए भगवान् सूर्य पुन: वर्षाकी सृष्टि करते हैं | ३५--३८ ।।
वृष्टिमारुतसंतापै: सुखै: स्थावरजड्रमान् |
वर्धयन् सुमहातेजा: पुन: प्रतिनिवर्तते ।। ३९ ।।
“महातेजस्वी सूर्यदेव वृष्टि, वायु और तापद्दारा सुखपूर्वक चराचर जीवोंकी पुष्टि करते
हुए पुनः अपने स्थानपर लौट आते हैं ।। ३९ ।।
एवमेष चरन् पार्थ कालचक्रमतन्द्रित: ।
प्रकर्षन् सर्वभूतानि सविता परिवर्तते ।। ४० ।।
“कुन्तीनन्दन! इस प्रकार ये भगवान् सूर्य सावधान हो समस्त प्राणियोंका आकर्षण
और पोषण करते हुए विचरते और कालचक्रका संचालन करते हैं || ४० ।।
संतता गतिरेतस्य नैष तिष्ठति पाण्डव |
आदायैव तु भूतानां तेजो विसृजते पुन: ।। ४१ ।।
विभजन् सर्वभूतानामायु: कर्म च भारत ।
अहोरात्र॑ कला: काष्ठा: सृजत्येष सदा विभु: ॥। ४२ ।।
'युधिष्ठिर! यह सूर्यदेवकी निरन्तर चलनेवाली गति है। सूर्य कभी एक क्षणके लिये भी
रुकते नहीं हैं। वे सम्पूर्ण भूतोंके रसमय तेजको ग्रहण करके पुनः उसे वर्षाकालमें बरसा
देते हैं। भारत! ये भगवान् सविता सम्पूर्ण भूतोंकी आयु और कर्मका विभाग करते हुए
दिन-रात, कला-काष्ठा आदि समयकी निरन्तर सृष्टि करते रहते हैं! || ४१-४२ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि यक्षयुद्धपर्वणि मेरुदर्शने त्रिषष्टयधिकशततमो< ध्याय:
॥| १६३ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत यक्षयुद्धपर्वमें मेरुदर्शनविषयक एक सौ
तिरसठसाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६३ ॥/
हि >> न [हुक है 7
चतुःषष्ट्यधिकशततमो< ध्याय:
पाण्डवोंकी अर्जुनके लिये उत्कण्ठा और अर्जुनका
आगमन
वैशम्पायन उवाच
तस्मिन् नगेन््द्रे वसतां तु तेषां
महात्मनां सद्व्र॒तमास्थितानाम् |
रति: प्रमोदश्च॒ बभूव तेषा-
माकाड्क्षतां दर्शनमर्जुनस्य ।। १ ।॥।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! उस पर्वतराज गन्धमादनपर उत्तम व्रतका
आश्रय ले निवास करते हुए अर्जुनके दर्शनकी इच्छा रखनेवाले महामना पाण्डवोंके मनमें
अत्यन्त प्रेम और आनन्दका प्रादुर्भाव हुआ ।। १ ।।
तान् वीर्ययुक्तान् सुविशुद्धकामां-
स्तेजस्विन: सत्यधृतिप्रधानान् ।
सम्प्रीयमाणा बहवो5भिजग्मु-
ग्गन्धर्वसड्घाश्न महर्षयश्नल । २ ॥।
वे सब-के-सब बड़े पराक्रमी थे। उनकी कामनाएँ अत्यन्त विशुद्ध थीं। वे तेजस्वी तो थे
ही, सत्य और धैर्य उनके प्रधान गुण थे; अतः बहुतसे गन्धर्व तथा महर्षिगण उनसे
प्रेमपूर्वक मिलने-जुलनेके लिये आने लगे ।। २ ।।
त॑ पादपै: पुष्पधरैरुपेतं
नगोत्तमं प्राप्प महारथानाम् |
मनः:प्रसाद: परमो बभूव
यथा दिवं प्राप्प मरुदगणानाम् ।। ३ ।।
वह श्रेष्ठ पर्वत विकसित वृक्षावलियोंसे विभूषित था। वहाँ पहुँच जानेसे महारथी
पाण्डवोंके मनमें बड़ी प्रसन्नता रहने लगी। ठीक उसी तरह, जैसे मरुद्गणोंको स्वर्गलोकमें
पहुँचनेपर प्रसन्नता होती है ।। ३ ।।
मयूरहंसस्वननादितानि
पुष्पोपकीर्णानि महाचलस्य ।
शृज्भाणि सानूनि च पश्यमाना
गिरे: परं हर्षमवाप्य तस्थु: ।॥। ४ ।।
उस महान् पर्वतके शिखर मयूरों और हंसोंके कलनादसे गूँजते रहते थे। वहाँ सब ओर
सुन्दर पुष्प व्याप्त हो रहे थे। उन मनोहर शिखरोंको देखते हुए पाण्डवलोग बड़े हर्षके साथ
वहाँ रहने लगे ।। ४ ।।
साक्षात् कुबेरेण कृताश्च तस्मिन्
नगोत्तमे संवृतकूलरोधस: ।
कादम्बकारण्डवहंसजुष्टा:
पद्माकुला: पुष्करिणीरपश्यन् ।। ५ ।।
उस श्रेष्ठ शैलपर साक्षात् भगवान् कुबेरने अनेक सुन्दर सरोवर बनवाये थे, जो कमल-
समूहसे आच्छादित रहते थे। उनके जल शैवाल आदिसे ढके होते थे और उन सबमें हंस,
कारण्डव आदि पक्षी सानन्द निवास करते थे। पाण्डवोंने उन सरोवरोंको देखा ।। ५ ।।
क्रीडाप्रदेशां श्ष समृद्धरूपान्
सुचित्रमाल्यावृतजातशो भान् ।
मणिप्रकीर्णाक्ष मनोरमांश्न॒
यथा भवेयुर्धनदस्य राज्ञ: || ६ ।।
धनाध्यक्ष राजा कुबेरके लिये जैसे होने चाहिये, वैसे ही समृद्धिशाली क्रीडा-प्रदेश वहाँ
बने हुए थे। विचित्र मालाओंसे समावृत होनेके कारण उनकी शोभा बहुत बढ़ गयी थी।
उनको मणि तथा रत्नोंसे अलंकृत किया गया था, जिससे वे क्रीड़ा-स्थल मनको मोहे लेते
थे।।
अनेकवर्णश्न सुगन्धिशभिश्न
महाद्रुमै: संततमभ्रजालै: ।
तपःप्रधाना: सततं चरन्तः
शज्रं गिरेश्चिन्तयितुं न शेकु: ७ ।।
अनेक वर्णवाले विशाल सुगन्धित वृक्षों तथा मेघसमूहोंसे व्याप्त उस पर्वतशिखरपर
विचरते हुए सदा तपस्यामें ही संलग्न रहनेवाले पाण्डव उस पर्वतकी महत्ताका चिन्तन नहीं
कर पाते थे ।। ७ ।।
स्वतेजसा तस्य नगोत्तमस्य
महौषधीनां च तथा प्रभावात् ।
विभक्तभावो न बभूव कश्रि-
दहोनिशानां पुरुषप्रवीर ।। ८ ।।
वीरवर जनमेजय! पर्वतराज गन्धमादनके अपने तेजसे तथा वहाँकी तेजस्विनी
महौषधियोंके प्रभावसे वहाँ सदा प्रकाश व्याप्त रहनेके कारण दिन-रातका कोई विभाग
नहीं हो पाता था ।। ८ ।।
यमास्थित: स्थावरजड़मानि
विभावसुर्भावयतेडमितौजा: ।
तस्योदयं चास्तमनं च वीरा-
स्तत्र स्थितास्ते ददृशुर्नसिंहा: ।। ९ ।।
जिन भगवान् सूर्यका आश्रय लेकर अमित तेजस्वी अग्निदेव सम्पूर्ण स्थावर-जंगम
प्राणियोंका पोषण करते हैं, उनके उदय और अस्तकी लीलाको पुरुषसिंह वीर पाण्डव वहाँ
रहकर स्पष्ट देखते थे ।। ९ ।।
रवेस्तमिस्रागमनिर्गमांस्ते
तथोदयं चास्तमनं च वीरा: ।
समावृता: प्रेक्ष्य तमोनुदस्य
गभस्तिजालै: प्रदिशों दिशश्ष॒ ।। १० ।।
स्वाध्यायवन्त: सततक्रियाश्र
धर्मप्रधानाश्न शुचिव्रताश्न ।
सत्ये स्थितास्तस्य महारथस्य
सत्यव्रतस्यथागमनप्रतीक्षा: ।। ११ ।।
वे वीर पाण्डव वहाँसे अन्धकारके आगमन और निर्गमनको अन्धकारविनाशक
भगवान् सूर्यके उदय और अस्तकी लीलाको तथा उनके किरणसमूहोंसे व्याप्त हुई सम्पूर्ण
दिशाओं और विदिशाओंको देखकर स्वाध्यायमें संलग्न रहते थे। सदा शुभकर्मोंके
अनुष्ठानमें तत्पर रहकर प्रधानरूपसे धर्मका ही आश्रय लेते थे। उनका आचार-व्यवहार
अत्यन्त पवित्र था। वे सत्यमें स्थित होकर सत्यव्रतरपरायण महारथी अर्जुनके आगमनकी
प्रतीक्षा करते थे || १०-११ ।।
इहैव हर्षोउस्तु समागतानां
क्षिप्रं कृतास्त्रेण धनंजयेन ।
इति ब्रुवन्त: परमाशिषणस्ते
पार्थास्तपोयोगपरा बभूवु: ।॥ १२ ।।
“इस पर्वतपर आये हुए हम सब लोगोंको यहीं अस्त्रविद्या सीखकर पधारे हुए अर्जुनके
दर्शनसे शीघ्र ही अत्यन्त हर्षकी प्राप्ति हो; इस प्रकार परस्पर शुभ-कामना प्रकट करते हुए
वे सभी कुन्तीपुत्र तप और योगके साधनमें संलग्न रहते थे || १२ ।।
दृष्टवा विचित्राणि गिरी वनानि
किरीटिनं चिन्तयतामभीक्ष्णम् ।
बभूव रात्रि्दिवसश्च तेषां
संवत्सरेणैव समानरूप: ।। १३ ।।
उस पर्वतपर विचित्र वन-कुंजोंकी शोभा देखते और निरन्तर अर्जुनका चिन्तन करते
हुए पाण्डवोंको एक दिन-रातका समय एक वर्षके समान प्रतीत होता था || १३ ।।
यदैव धौम्यानुमते महात्मा
कृत्वा जटां प्रत्रजित: स जिष्णु: ।
तदैव तेषां न बभूव हर्ष:
कुतो रतिस्तद्वतमानसानाम् ।। १४ ।।
जबसे धौम्य मुनिकी आज्ञा लेकर महामना अर्जुन सिरपर जटा धारण करके तपस्याके
लिये प्रस्थित हुए थे, तभीसे उन पाण्डवोंके मनमें रंचमात्र भी हर्ष नहीं रह गया था। उनका
मन निरन्तर अर्जुनमें ही लगा रहता था। ऐसी दशामें उन्हें सुख कैसे प्राप्त हो सकता
था? ॥| १४ ।।
भ्रातुर्नियोगात् तु युधिष्ठिरस्य
वनादसौ वारणमत्तगामी ।
यत् काम्यकात् प्रव्रजित: स जिष्णु-
स्तदैव ते शोकहता बभूवु: ।। १५ ।।
गजराजके समान मस्तानी चालसे चलनेवाले वे अर्जुन जब बड़े भाई युधिष्ठिरकी आज्ञा
लेकर काम्यक वनसे प्रस्थित हुए थे, तभी समस्त पाण्डव शोकसे पीड़ित हो गये
थे।। १५ |।
तथैव तं चिन्तयतां सिताश्च-
मस्त्रार्थिनं वासवमभ्युपेतम् ।
मासो<5थ कृच्छेण तदा व्यतीत-
स्तस्मिन् नगे भारत भारतानाम् ।। १६ ।।
जनमेजय! अस्त्रविद्याकी अभिलाषासे देवराज इन्द्रके समीप गये हुए श्वेतवाहन
अर्जुनका चिन्तन करनेवाले पाण्डवोंका एक मास उस पर्वतपर बड़ी कठिनाईसे व्यतीत
हुआ ।। १६ ।।
उषित्वा पञज्च वर्षाणि सहस्राक्षनिवेशने ।
अवाप्य दिव्यान्यस्त्राणि सर्वाणि विबुधेश्वरात् ।। १७ ।।
आग्नेयं वारुणं सौम्यं वायव्यमथ वैष्णवम् |
ऐन्द्रं पाशुपतं ब्राह्मंं पारमेष्ठ्यं प्रजापते: । १८ ।।
यमस्य धातु: सवितुस्त्वष्ट्वै श्रवणस्य च ।
तानि प्राप्प सहस्राक्षादभिवाद्य शतक्रतुम् ।। १९ ।।
अनुज्ञातस्तदा तेन कृत्वा चापि प्रदक्षिणम् ।
आगच्छदर्जुन: प्रीतः प्रह्ृष्टो गन्धमादनम् || २० ।।
इधर अर्जुनने इन्द्र-भवनमें पाँच वर्ष रहकर देवेश्वर इन्द्रसे सम्पूर्ण दिव्यास्त्र प्राप्त कर
लिये। इस प्रकार अग्नि, वरुण, सोम, वायु, विष्णु, इन्द्र, पशुपति, ब्रह्मा, परमेष्ठी, प्रजापति,
यम, धाता, सविता, त्वष्टा तथा कुबेरसम्बन्धी अस्त्रोंको भी देवेन्द्रसे ही प्राप्त करके उन्हें
प्रणाम किया। तदनन्तर उनसे अपने भाइयोंके पास लौटनेकी आज्ञा पाकर उनकी परिक्रमा
करके अर्जुन बड़े प्रसन्न हुए और हर्षोल्लासमें भरकर गन्धमादनपर आये ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि यक्षयुद्धपर्वण्यर्जुनाभिगमने
चतुःषष्ट्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १६४ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत यक्षयुद्धपर्वमें अर्जुनाभिगमनविषयक एक सौ
चौंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६४ ॥।
हि मय न () है 7
(निवातकवचयुद्धपर्व)
पजञ्चषष्ट्यधिकशततमो< ध्याय:
अर्जुनका गन्धमादन पर्वतपर आकर अपने भाइयोंसे
मिलना
वैशम्पायन उवाच
ततः कदाचिटद्धरिसम्प्रयुक्तं
महेन्द्रवाहं सहसोपयातम् ।
विद्युत्प्रभं प्रेक्ष्य महारथानां
हर्षोडर्जुनं चिन्तयतां बभूव ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर किसी समय हरे रंगके घोड़ोंसे जुता
हुआ देवराज इन्द्रका रथ सहसा आकाशमें प्रकट हुआ, मानो बिजली चमक उठी हो। उसे
देखकर अर्जुनका चिन्तन करते हुए महारथी पाण्डवोंको बड़ा हर्ष हुआ ।। १ ।।
स दीप्यमान: सहसान्तरिक्ष॑
प्रकाशयन् मातलिसंगृहीत: ।
बभौ महोल्केव घनान्तरस्था
शिखेव चाग्नेज्वलिता विधूमा ।। २ ।।
उस रथका संचालन मातलि कर रहे थे। वह दीप्तिमान् रथ सहसा अन्तरिक्षलोकको
प्रकाशित करता हुआ इस प्रकार सुशोभित होने लगा, मानो बादलोंके भीतर बड़ी भारी
उल्का प्रकट हुई हो अथवा अग्निकी धूमरहित ज्वाला प्रज्वलित हो उठी हो || २ ।।
तमास्थित: संददृशे किरीटी
स्रग्वी नवान्याभरणानि बिश्रत् ।
धनंजयो वज्रधरप्रभाव:
श्रिया ज्वलन् पर्वतमाजगाम ।। ३ ||
उस दिव्य रथपर बैठे हुए किरीटधारी अर्जुन स्पष्ट दिखायी देने लगे। उनके कण्ठमें
दिव्य हार शोभा पा रहा था और उन्होंने स्वर्गलोकके नूतन आभूषण धारण कर रखे थे।
उस समय धनंजयका प्रभाव वज्रधारी इन्द्रके समान जान पड़ता था। वे अपनी दिव्य
कान्तिसे प्रकाशित होते हुए गन्धमादन पर्वतपर आ पहुँचे ।। ३ ।।
स शैलमासाद्य किरीटमाली
महेन्द्रवाहादवरुह्म तस्मात् ।
धौम्यस्य पादावभिवाद्य धीमा-
नजातशत्रोस्तदनन्तरं च ।। ४ ।।
वृकोदरस्यापि च वन्द्यपादौ
माद्रीसुता भ्यामभिवादितश्च ।
समेत्य कृष्णां परिसान्त्व्य चैनां
प्रह्मो$भवद् भ्रातुरुपह्दरे सः ।। ५ ।।
पर्वतपर पहुँचकर बुद्धिमान् किरीटधारी अर्जुन देवराज इन्द्रके उस दिव्य रथसे उतर
पड़े। उस समय सबसे पहले उन्होंने महर्षि धौम्यके दोनों चरणोंमें मस्तक झुकाया।
तदनन्तर अजातशत्रु युधिष्ठिर तथा भीमसेनके चरणोंमें प्रणाम किया। इसके बाद नकुल
और सहदेवने आकर अर्जुनको प्रणाम किया तत्पश्चात् द्रौपदीसे मिलकर अर्जुनने उसे बहुत
आश्वासन दिया और अपने भाई युधिष्ठिरके समीप आकर वे विनीत भावसे खड़े हो
गये ।। ४-५ ।।
स्वर्गसे लौटकर अर्जुन धर्मराजको प्रणाम कर रहे हैं
बभूव तेषां परम: प्रहर्ष-
स्तेनाप्रमेयेण समागतानाम् ।
स चापि तानू प्रेक्ष्य किरीटमाली
ननन्द राजानमभिप्रशंसन् ।। ६ ।।
अप्रमेय वीर अर्जुनसे मिलकर सब पाण्डवोंको बड़ा हर्ष हुआ। अर्जुन भी उन सबसे
मिलकर बड़े प्रसन्न हुए तथा राजा युधिष्ठिरकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे || ६ ।।
यमास्थित: सप्त जघान पूगान्
दिते: सुतानां नमुचेर्निहन्ता ।
तमिन्द्रवाहं समुपेत्य पार्था:
प्रदक्षिणं चक्कुरदीनसत्त्वा: || ७ ।।
नमुचिनाशक इन्द्रने जिसपर बैठकर दैत्योंके सात यूथोंका संहार किया था, उस
इन्द्ररथके समीप जाकर उदार हृदयवाले कुन्तीपुत्रोंने उसकी परिक्रमा की ।। ७ ।।
ते मातलेश्वक्रुरतीव हृष्टा:
सत्कारमग्रयं सुरराजतुल्यम् ।
सर्वान् यथावच्च दिवौकसस्ते
पप्रच्छुरेनं कुरुराजपुत्रा: । ८ ।।
साथ ही, उन्होंने अत्यन्त हर्षमें भरकर मातलिका देवराज इन्द्रके समान सर्वोत्तम
विधिसे सत्कार किया। इसके बाद उन पाण्डवोंने मातलिसे सम्पूर्ण देवताओंका यथावत्
कुशल-समाचार पूछा ।। ८ ।।
तानप्यसौ मातलिरभ्यनन्दत्
पितेव पुत्राननुशिष्य पार्थान् ।
ययौ रथेनाप्रतिमप्रभेण
पुनः सकाशं त्रिदिवेश्वरस्य ।। ९ ।।
मातलिने भी पाण्डवोंका अभिनन्दन किया और जैसे पिता पुत्रको उपदेश देता है, उसी
प्रकार पाण्डवोंको कर्तव्यकी शिक्षा देकर वे पुनः अपने अनुपम कान्तिशाली रथके द्वारा
स्वंगलोकके स्वामी इन्द्रके समीप चले गये ।।
गते तु तस्मिन् नरदेववर्य:
शक्रात्मज: शक्ररिपुप्रमाथी ।
(साक्षात् सहस्राक्ष इव प्रतीत:
श्रीमान् स्वदेहादवमुच्य जिष्णु: ।)
शक्रेण दत्तानि ददौ महात्मा
महाधनान्युत्तमरूपवन्ति ।। १० ।।
दिवाकरा भाणि विभूषणानि
प्रिय: प्रियायै सुतसोममात्रे ।
मातलिके चले जानेपर इन्द्रशत्रुओंका संहार करनेवाले देवेन्द्रकुमार नृपश्रेष्ठ महात्मा
श्रीमान् अर्जुनने, जो साक्षात् सहस्रलोचन इन्द्रके समान प्रतीत होते थे, अपने शरीरसे
उतारकर इन्द्रके दिये हुए बहुमूल्य, उत्तम तथा सूर्यके समान देदीप्यमान दिव्य आभूषण
अपनी प्रियतमा सुतसोमकी माता द्रौपदीको समर्पित कर दिये ।।
ततः स तेषां कुरुपुड़वानां
तेषां च सूर्याग्निसमप्रभाणाम् ।। ११ ।।
विप्रर्षभाणामुपविश्य मध्ये
सर्व यथावत् कथयांबभूव ।
एवं मयास्त्राण्युपशिक्षितानि
शक्राच्च वाताच्च शिवाच्च साक्षात् ।। १२ ।।
तदनन्तर उन कुरुश्रेष्ठ पाण्डवों तथा सूर्य और अग्निके समान तेजस्वी ब्रह्मर्षियोंके
बीचमें बैठकर अर्जुनने अपना सब समाचार यथावत् रूपसे कह सुनाया। “मैंने अमुक
प्रकारसे इन्द्र, वायु और साक्षात् शिवसे दिव्यास्त्रोंकी शिक्षा प्राप्त की है ।। ११-१२ ।।
तथैव शीलेन समाधिनाथ
प्रीता: सुरा मे सहिता: सहेन्द्रा: ।
संक्षेपतो वै स विशुद्धकर्मा
तेभ्य: समाख्याय दिवि प्रवासम् || १३ ।।
माद्रीसुता भ्यां सहित: किरीटी
सुष्वाप तामावसतिं प्रतीत: ।। १४ ।।
“मेरे शील-स्वभाव तथा चित्तकी एकाग्रतासे इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता मुझपर बहुत
प्रसन्न रहते थे। निर्दोष कर्म करनेवाले अर्जुनने अपने स्वर्गीय प्रवासका सब समाचार उन
सबको संक्षेपसे बताकर नकुल-सहदेवके साथ निश्चिन्त होकर उस आश्रममें शयन
किया ।। १३-१४ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि निवातकवचयुद्धपर्वण्यर्जुनसमागमे
पज्चषष्ट्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १६५ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत निवातकक्चयुद्धपर्वमें अर्जुनसमागमविषयक
एक सौ पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६५ ॥।
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका ६ “लोक मिलाकर १४३ लोक हैं)
_<- #<ज ()) अपन हा
षट्षष्ट्यधिकशततमोड ध्याय:
इन्द्रका पाण्डवोंके पास आना और युधिष्ठिरको सान्त्वना
देकर स्वर्गको लौटना
वैशम्पायन उवाच
ततो रजन्यां व्युष्टायां धर्मराजं युधिष्ठिरम् ।
भ्रातृभि: सहित: सर्वैरवन्द्त धनंजय: ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर रात बीतनेपर प्रात:काल उठकर
समस्त भाइयोंसहित अर्जुनने धर्मराज युधिष्ठिरको प्रणाम किया ।। १ ।।
एतस्मिन्नेव काले तु सर्ववादित्रनि:स्वन: ।
बभूव तुमुल:ः शब्दस्त्वन्तरिक्षे दिवौकसाम् ।। २ ।।
इसी समय अन्तरिक्षमें देवताओंके सम्पूर्ण वाद्योंकी तुमुल ध्वनि गूँज उठी ।। २ ।।
रथनेमिस्वनश्वैव घण्टाशब्दक्ष भारत ।
पृथग् व्यालमृगाणां च पक्षिणामिव सर्वश: ।। ३ ।।
भारत! रथके पहियोंकी घर्घराहट, घंटानाद तथा सर्प, मृग एवं पक्षियोंक कोलाहल सब
ओर पृथक्-पृथक् सुनायी दे रहे थे ।। ३ ।।
(रवोन्मुखास्ते ददृशु: प्रीयमाणा: कुरूद्गवहा: ।
मरुद्धिरन्वितं शक्रमापतन्तं विहायसा ।।)
ते समन्तादनुययुर्गन्धर्वाप्सरसां गणा: ।
विमानै: सूर्यसंकाशैदेंवराजमरिंदमम् ।। ४ ।।
पाण्डवोंने प्रसन्नतापूर्वक उस ध्वनिकी ओर आँख उठाकर देखा, तो उन्हें देवराज इन्द्र
दृष्टिगोचर हुए जो सम्पूर्ण मर्द्गण आदि देवताओंके साथ आकाशमार्गसे आ रहे थे।
गन्धर्वों और अप्सराओंके समूह सूर्यके समान तेजस्वी विमानोंद्वारा शत्रुदमन देवराजको
चारों ओरसे घेरकर उन्हींके पथका अनुसरण कर रहे थे ।। ४ ।।
ततः स हरिभिर्युक्ते जाम्बूनदपरिष्कृतम्
मेघनादिनमारुहा[ श्रिया परमया ज्वलन् ।। ५ ।।
पार्थानभ्याजगामाथ देवराज: पुरंदर: ।
थोड़ी ही देरमें हरे रंगके घोड़ोंसे जुते हुए, मेघ-गर्जनाके समान गम्भीर घोष करनेवाले,
जाम्बूनद नामक सुवर्णसे अलंकृत रथपर आरूढ़ देवराज इन्द्र पाण्डवोंके पास आ पहुँचे।
उस समय वे अपनी उत्कृष्ट प्रभासे अत्यन्त उद्धासित हो रहे थे || ५३ ।।
आगत्य च सहस्राक्षो रथादवरुरोह वै ॥। ६ ।।
त॑ दृष्टवैव महात्मानं धर्मराजो युधिष्ठिर: ।
भ्रातृभि: सहित: श्रीमान् देवराजमुपागमत् ।। ७ ।।
निकट आनेपर सहसख्नलोचन इन्द्र रथसे उतर गये। उन महामना देवराजको देखते ही
भाइयोंसहित श्रीमान् धर्मराज युधिष्ठिर उनके पास गये ।। ६-७ ।।
पूजयामास चैवाथ विधिवद् भूरिदक्षिण: ।
यथार्हममितात्मानं विधिदृष्टेन कर्मणा ।। ८ ।।
यज्ञोंमें प्रचुर दक्षिणा देनेवाले युधिष्ठिर शास्त्रवर्णित पद्धतिसे अमितवबुद्धि इन्द्रका
विधिवत् स्वागत-सत्कार किया ।। ८ ।।
धनंजयश्च तेजस्वी प्रणिपत्य पुरंदरम् ।
भृत्यवत् प्रणतस्तस्थौ देवराजसमीपत: ।। ९ |।
तेजस्वी अर्जुन भी इन्द्रको प्रणाम करके उनके समीप सेवककी भाँति विनीतभावसे
खड़े हो गये ।। ९ ।।
आप्यायत महातेजा: कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर: ।
धनंजयमभिप्रेक्ष्य विनीतं स्थितमन्तिके ।। १० ।।
जटिल देवराजस्य तपोयुक्तमकल्मषम् |
हर्षेण महता<5<विष्ट: फाल्गुनस्याथ दर्शनात् ।। ११ ।।
महातेजस्वी कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर अर्जुनको देवराजके समीप विनीतभावसे स्थित देख
बड़े प्रसन्न हुए। अर्जुनके सिरपर जटा बाँध गयी थी। वे देवराजके आदेशके अनुसार
तपस्यामें लगे रहते थे; अतः सर्वथा निष्पाप हो गये थे। अर्जुनको देखनेसे उन्हें महान् हर्ष
हुआ था ।। १०-११ ||
वभूव परमप्रीतो देवराजं च पूजयन् |
त॑ं तथादीनमनसं राजानं हर्षसम्प्लुतम् ।। १२ ।।
उवाच वचन धीमान् देवराज: पुरंदर: ।
त्वमिमां पृथिवीं राजन् प्रशासिष्यसि पाण्डव ।
स्वस्ति प्राप्रुहि कौन्तेय काम्यकं पुनराश्रमम् ।। १३ ।।
अतः देवराजका पूजन करके वे बड़े प्रसन्न हुए। उदारचित्त राजा युधिष्ठिरको इस
प्रकार हर्षमें मगन देखकर परम बुद्धिमान् देवराज इन्द्रने कहा--पाण्डुनन्दन! तुम इस
पृथ्वीका शासन करोगे। कुन्तीकुमार! अब तुम पुन: काम्यक वनके कल्याणकारी आश्रममें
चले जाओ ।। १२-१३ ।।
अस्त्राणि लब्धानि च पाण्डवेन
सर्वाणि मत्त: प्रयतेन राजन् ।
कृतप्रियश्चलास्मि धनंजयेन
जेतुं न शक््यस्त्रिभिरेष लोकै: ।। १४ ।।
“राजन! पाण्डुनन्दन अर्जुनने एकाग्रचित्त होकर मुझसे सम्पूर्ण दिव्यास्त्र प्राप्त कर
लिये हैं। साथ ही इन्होंने मेरा बड़ा प्रिय कार्य सम्पन्न किया है। तीनों लोकोंके समस्त प्राणी
इन्हें युद्धमें परास्त नहीं कर सकते” ।। १४ ।।
एकमुक्त्वा सहस्राक्ष: कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरम् ।
जगाम त्रिदिवं हृष्ट: स्तूयमानो महर्षिभि: | १५ ।।
कुन्तीनन्दन युधिष्ठिससे ऐसा कहकर इन्द्र महर्षियोंक मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए
सानन्द स्वर्गलोकको चले गये ।। १५ ।।
धनेश्वरगृहस्थानां पाण्डवानां समागमम् |
शक्रेण य इदं विद्वानधीयीत समाहित: ।। १६ ।।
संवत्सरं ब्रह्मचारी नियत: संशितव्रत: ।
स जीवेद्धि निराबाध: स सुखी शरदां शतम् ।। १७ ।।
धनाध्यक्ष कुबेरके घरमें टिके हुए पाण्डवोंका जो इन्द्रके साथ समागम हुआ था, उस
प्रसंगको जो विद्वान एकाग्रचित्त होकर प्रतिदिन पढ़ता है और संयम-नियमसे रहकर कठोर
व्रतका आश्रय ले एक वर्षतक ब्रह्मचर्यका पालन करता है, वह सब प्रकारकी बाधाओंसे
रहित हो सौ वर्षोतक सुखपूर्वक जीवन धारण करता है ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि निवातकचवयुद्धपर्वणि इन्द्रागमने
षट्षष्टयधिकशततमो< ध्याय: ।। १६६ ।।
इस प्रकार श्रीमह्या भारत वनपर्वके अन्तर्गत निवातकवचयुद्धपर्वमें इन्द्रागयमनविषयक एक
सौ छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६६ ॥/
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल १८ श्लोक हैं)
हि >> [हुक माप आप८
सप्तषष्ट्यांधेकशततमो< ध्याय:
अर्जुनके द्वारा अपनी तपस्या-यात्राके वृत्तान्तका वर्णन,
भगवान् शिवके साथ संग्राम और पाशुपतास्त्र-प्राप्तिकी
कथा
वैशम्पायन उवाच
यथागतं गते शक्रे भ्रातृभि: सह सज्भतः |
कृष्णया चैव बीभत्सुर्थर्मपुत्रमपूजयत् ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! देवराज इन्द्रके चले जानेपर भाइयों तथा
द्रौोपदीके साथ मिलकर अर्जुनने धर्मपुत्र युधिष्ठिरको प्रणाम किया ।। १ ।।
अभिवादयमान त॑ मूर्ध्न्युपाप्राय पाण्डवम् ।
हर्षगद्गदया वाचा प्रद्ृष्टो$र्जुनमब्रवीत् ।। २ ।॥।
पाण्डुनन्दन अर्जुनको प्रणाम करते देख युधिष्छिर बड़े प्रसन्न हुए एवं उनका मस्तक
सूँघकर हर्षगद्गद-वाणीमें इस प्रकार बोले-- ।। २ ।।
कथमर्जुन कालो<यं स्वर्गे व्यतिगतस्तव ।
कथं चास्त्राण्यवाप्तानि देवराजश्न तोषित: ।। ३ ।।
“अर्जुन! स्वर्गमें तुम्हारा यह समय किस प्रकार बीता? कैसे तुमने दिव्यास्त्र प्राप्त किये
और कैसे देवराज इन्द्रको संतुष्ट किया? ।। ३ ।।
सम्यग वा ते गृहीतानि कच्चिदस्त्राणि पाण्डव ।
कच्चित् सुराधिप: प्रीतो रुद्रो वास्त्राण्यदात् तव ।। ४ ।।
'पाण्डुनन्दन! क्या तुमने सभी अस्त्र अच्छी तरह सीख लिये? क्या देवराज इन्द्र अथवा
भगवान् रुद्रने प्रसन्न होकर तुम्हें अस्त्र प्रदान किये हैं? || ४ ।।
यथा दृष्टश्न॒ ते शक्रो भगवान् वा पिनाकधृक् ।
यथैवास्त्राण्यवाप्तानि यथैवाराधितश्ष ते ।। ५ ।।
यथोक्तवांस्त्वां भगवान् शतक्रतुररिंदम ।
कृतप्रियस्त्वयास्मीति तस्य ते कि प्रियं कृतम् ।। ६ ।।
'शत्रुदमन! तुमने जिस प्रकार देवराज इन्द्रका दर्शन किया है अथवा जैसे पिनाकधारी
भगवान् शिवको देखा है, जिस प्रकार तुमने सब अस्त्रोंकी शिक्षा प्राप्त की है और जैसे
तुम्हारेद्वारा देवाराधनका कार्य सम्पादित हुआ है, वह सब बताओ। भगवान् इन्द्रने अभी-
अभी कहा था कि “अर्जुनने मेरा अत्यन्त प्रिय कार्य सम्पन्न किया है” सो वह उनका कौन-
सा प्रिय कार्य था, जिसे तुमने सम्पन्न किया है ।। ५-६ |।
एतदिच्छाम्यहं श्रीतुं विस्तरेण महाद्युते ।
यथा तुष्टो महादेवो देवराजस्तथानघ ।। ७ ।।
यच्चापि वज्पाणेस्तु प्रियं कृतमरिंदम ।
एतदाख्याहि मे सर्वमखिलेन धनंजय ।। ८ ।।
“महातेजस्वी वीर! मैं ये सब बातें विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ। शत्रुओंका दमन
करनेवाले निष्पाप अर्जुन! जिस प्रकार तुम्हारे ऊपर महादेवजी तथा देवराज इन्द्र संतुष्ट हुए
और वज्रधारी इन्द्रका जो प्रिय कार्य तुमने सम्पन्न किया है, वह सब पूर्णरूपसे
बताओ ।। ७-८ ।।
अजुन उवाच
शृणु हन्त महाराज विधिना येन दृष्टवान् |
शतक्रतुमहं देव॑ं भगवन्तं च शड्करम् ।। ९ ।।
विद्यामधीत्य तां राजंस्त्वयोक्तामरिमर्दन ।
भवता च समादिष्टस्तपसे प्रस्थितो वनम् ।। १० ।।
अर्जुन बोले--महाराज! मैंने जिस विधिसे देवराज इन्द्र तथा भगवान् शंकरका दर्शन
किया था, वह सब बतलाता हूँ, सुनिये! शत्रुओंका मर्दन करनेवाले नरेश! आपकी बतायी
हुई विद्याको ग्रहण करके आपहीके आदेशसे मैं तपस्या करनेके लिये वनकी ओर प्रस्थित
हुआ || ९-१० ||
भगुतुड़्मथो गत्वा काम्यकादास्थितस्तप: ।
एकरात्रोषित: कज्चिदपश्यं ब्राह्मणं पथि ।। ११ ।।
काम्यक वनसे चलकर तपस्यामें पूरी आशा रखकर मैं भृगुतुंग पर्वतपर पहुँचा और
वहाँ एक रात रहकर जब आगे बढ़ा, तब मार्गमें किसी ब्राह्मणदेवताका मुझे दर्शन
हुआ ।। ११ ।।
स मामपृच्छत् कौन्तेय क्वासि गन्ता ब्रवीहि मे ।
तस्मा अवितथं सर्वमन्रुवं कुरुनन्दन ।। १२ ।।
उन्होंने मुझसे कहा--“कुन्तीनन्दन! कहाँ जाते हो? मुझे ठीक-ठीक बताओ।” तब मैंने
उनसे सब कुछ सच-सच बता दिया ।। १२ ।।
स तथ्यं मम तच्छुत्वा ब्राह्मणो राजसत्तम |
अपूजयत मां राजन प्रीतिमांश्वाभवन्न्मयि ।। १३ ।।
नृपश्रेष्ठ! ब्राह्मणदेवताने मेरी यथार्थ बातें सुनकर मेरी प्रशंसा की और मुझपर बड़े
प्रसन्न हुए ।। १३ ।।
ततो मामब्रवीत् प्रीतस्तप आतिष्ठ भारत ।
तपस्वी नचिरेण त्वं द्रक्ष्स्से विबुधाधिपम् ।। १४ ।।
तत्पश्चात् उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक कहा--“भारत! तुम तपस्याका आश्रय लो! तपमें
प्रवृत्त होनेपर तुम्हें शीघ्र ही देवराज इन्द्रका दर्शन होगा” ।। १४ ।।
ततो<हं वचनात् तस्य गिरिमारुह्मु शैशिरम् ।
तपो5तप्यं महाराज मासं मूलूफलाशन: ।। १५ ।।
महाराज! उनके इस आदेशको मानकर मैं हिमालय पर्वतपर आरूढ़ हो तपस्यामें
संलग्न हो गया और एक मासतक केवल फल-फूल खाकर रहा ।। १५ ।।
द्वितीयश्षापि मे मासो जल॑ भक्षयतो गत: ।
निराहारस्तृतीये5थ मासे पाण्डवनन्दन ।। १६ ।।
ऊर्ध्वबाहुश्नतुर्थ तु मासमस्मि स्थितस्तदा ।
नच मे हीयते प्राणस्तदद्भुतमिवाभवत् ।। १७ ।।
इसी प्रकार मैंने दूसरा महीना भी केवल जल पीकर बिताया। पाण्डवनन्दन! तीसरे
महीनेमें मैं पूर्णतः निराहार रहा। चौथे महीनेमें मैं ऊपरको हाथ उठाये खड़ा रहा। इतनेपर
भी मेरा बल क्षीण नहीं हुआ, यह एक आश्वर्यकी-सी बात हुई ।। १६-१७ ।।
पज्चमे त्वथ सम्प्राप्ते प्रथमे दिवसे गते ।
वराहसंस्थितं भूतं मत्समीपं समागमत् ।। १८ ।।
पाँचवाँ महीना प्रारम्भ होनेपर जब एक दिन बीत गया तब दूसरे दिन एक
शूकररूपधारी जीव मेरे निकट आया ।। १८ ।।
निघ्नन् प्रोथेन पृथिवीं विलिखंश्ररणैरपि ।
सम्मार्जञ्जठरेणोर्वी विवर्तश्न मुहुर्मुहु: ।। १९ ।।
वह अपनी थूथुनसे पृथ्वीपर चोट करता और पैरोंसे धरती खोदता था। बार-बार
लेटकर वह अपने पेटसे वहाँकी भूमिको ऐसा स्वच्छ कर देता था, मानो उसपर झाड़ दिया
गया हो ।। १९ |।
अनु तस्यापरं भूतं महत् कैरातसंस्थितम् ।
भधनुर्बाणासिमत् प्राप्तं सत्रीगणानुगतं तदा । २० ।।
उसके पीछे किरात-जैसी आकृतिमें एक महान् पुरुषका दर्शन हुआ। उसने धनुष-बाण
और खड्ग ले रखे थे। उसके साथ स्त्रियोंका एक समुदाय भी था ।। २० ।॥।
ततो<हं धनुरादाय तथाक्षय्ये महेषुधी ।
अताडयं शरेणाथ तद् भूतं लोमहर्षणम् ।। २१ ।।
तब मैंने धनुष तथा अक्षय तरकस लेकर एक बाणके द्वारा उस रोमांचकारी सूकरपर
आघात किया ।।
युगपत् तं किरातस्तु विकृष्य बलवद् धनुः ।
अभ्याजचघ्ने दृढतरं कम्पयन्निव मे मन: ।। २२ ।।
साथ ही किरातने भी अपने सुदृढ़ धनुषको खींचकर उसपर गहरी चोटकी, जिससे मेरा
हृदय कम्पित-सा हो उठा || २२ ||
स तु मामब्रवीद् राजन् मम पूर्वपरिग्रह: ।
मृगयाधर्ममुत्स॒ज्य किमर्थ ताडितस्त्वया ।। २३ ।।
राजन्! फिर वह किरात मुझसे बोला--'“यह सूअर तो पहले मेरा निशाना बन चुका
था, फिर तुमने आखेटके नियमको छोड़कर उसपर प्रहार क्यों किया?” ।। २३ ।।
एष ते निशितैर्बाणैर्दर्प हन्मि स्थिरो भव ।
स धनुष्मान् महाकायस्ततो मामभ्यभाषत ।। २४ ।।
इतना ही नहीं उस विशालकाय एवं धनुर्धर किरातने उस समय मुझसे यह भी कहा
--'अच्छा, ठहर जाओ। मैं अपने पैने बाणोंसे अभी तुम्हारा घमंड चूर-चूर किये देता
हूँ! ।। २४ ।।
ततो गिरिमिवात्यर्थमावृणोन्मां महाशरै: ।
तं॑ चाहं शरवर्षेण महता समवाकिरम् ।। २५ ।।
ऐसा कहकर उस भीलने जैसे पर्वतपर वर्षा हो, उस प्रकार महान् बाणोंकी बौछार
करके मुझे सब ओरसे ढक दिया; तब मैंने भी भारी बाणवर्षा करके उसे सब ओरसे
आच्छादित कर दिया ।। २५ ||
ततः शरैर्दीप्तमुखैर्यन्त्रितैरनुमन्त्रितै: ।
प्रत्यविध्यमहं तं॑ तु वजैरिव शिलोच्चयम् ।। २६ ।।
तदनन्तर जैसे वज्रसे पर्वतपर आघात किया जाय, उसी प्रकार प्रज्वलित मुखवाले
अभिमन्त्रित और खूब खींचकर छोड़े हुए बाणोंद्वारा मैंने उसे बार-बार घायल
किया ।। २६ ||
तस्य तच्छतथा रूपमभवच्च सहस्रधा ।
तानि चास्य शरीराणि शरैरहमताडयम् ।। २७ ।।
उस समय उसके सैकड़ों और सहस्रों रूप प्रकट हुए और मैंने उसके सभी शरीरोंपर
बाणोंसे गहरी चोट पहुँचायी || २७ ।।
पुनस्तानि शरीराणि एकीभूतानि भारत ।
अदृश्यन्त महाराज तान्यहं व्यधमं पुन: ।। २८ ।।
भारत! फिर उसके वे सारे शरीर एकरूप दिखायी दिये। महाराज! उस एकरूपमें भी
मैंने उसे पुन: अच्छी तरह घायल किया ।। २८ ।।
अर्णुर्ब॑हच्छिरा भूत्वा बृहच्चाणुशिरा: पुन: ।
एकीभूतस्तदा राजन् सो<भ्यवर्तत मां युधि ।। २९ ।।
यदाभिभवितु बाणैर्न च शक्नोमि तं रणे ।
ततो महास्त्रमातिष्ठं वायव्यं भरतर्षभ ।। ३० ।।
कभी उसका शरीर तो बहुत छोटा हो जाता, परंतु मस्तक बहुत बड़ा दिखायी देता था।
फिर वह विशाल शरीर धारण कर लेता और मस्तक बहुत छोटा बना लेता था। राजन!
अन्तमें वह एक ही रूपमें प्रकट होकर युद्धमें मेरा सामना करने लगा। भरतर्षभ! जब मैं
बाणोंकी वर्षा करके भी युद्धमें उसे परास्त न कर सका, तब मैंने महान् वायव्यास्त्रका
प्रयोग किया || २९-३० ।।
न चैनमशकं हन्तुं हल 0 खा भवत् |
तस्मिन् प्रतिहते चास्त्रे मे महानभूत् ।। ३१ ।।
किंतु उससे भी उसका वध न कर सका। यह एक अद्भुत-सी घटना हुई। वायव्यास्त्रके
निष्फल हो जानेपर मुझे महान् आश्चर्य हुआ || ३१ ।।
भूय एव महाराज सविशेषमहं ततः ।
अस्त्रपूगेन महता रणे भूतमवाकिरम् ।। ३२ ।।
महाराज! तब मैंने पुनः विशेष प्रयत्न करके रणभूमिमें किरातरूपधारी उस अद्भुत
पुरुषपर महान् अस्त्रसमूहकी वर्षा की || ३२ ।।
स्थूणाकर्णमथो जालं शरवर्षमथोल्बणम् |
शलभास्त्रमश्मवर्ष समास्थायाहमभ्ययाम् ।। ३३ ।।
स्थूणाकर्ण5, वारुणास्त्र-, भयंकर शरवर्षास्त्रर, शलभास्त्र5<४ तथा अभ्मवर्ष४ इन
अस्त्रोंका सहारा ले मैं उस किरातपर टूट पड़ा ।। ३३ ।।
जग्रास प्रसभं तानि सर्वाण्यस्त्राणि मे नृप ।
तेषु सर्वेषु जग्धेषु ब्रह्मास्त्र महदादिशम् ।। ३४ ।।
राजन! उसने मेरे उन सभी अस्त्रोंको बलपूर्वक अपना ग्रास बना लिया। उन सबके
भक्षण कर लिये जानेपर मैंने महान ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया ।। ३४ ।।
ततः प्रज्वलितैर्बाणै: सर्वतः सोपचीयते ।
उपचीयमानश्न मया महास्त्रेण व्यवर्धत ।। ३५ ।।
तब प्रज्वलित बाणोंद्वारा वह अस्त्र सब ओर बढ़ने लगा। मेरे महान अस्त्रसे बढ़नेकी
प्रेरणा पाकर वह ब्रह्मास्त्र अधिक वेगसे बढ़ चला ।। ३५ ||
ततः: संतापिता लोका मत्प्रसूतेन तेजसा ।
क्षणेन हि दिश: खं च सर्वतो हि विदीपितम् ।। ३६ ।।
तदनन्तर मेरे द्वारा प्रकट किये हुए ब्रह्मास्त्रके तेजसे वहाँके सब लोग संतप्त हो उठे।
एक ही क्षणमें सम्पूर्ण दिशाएँ और आकाश सब ओरसे आगकी लपटोंसे उद्दीप्त हो
उठे | ३६ ।।
तदप्यस्त्रं महातेजा: क्षणेनैव व्यशातयत् ।
ब्रह्मास्त्रे तु हते राजन् भयं मां महदाविशत् ।। ३७ ।।
परंतु उस महान् तेजस्वी वीरने क्षणभरमें ही मेरे उस ब्रह्मास्त्रको भी शान्त कर दिया।
राजन! उस ब्रह्मास्त्रके नष्ट होनेपर मेरे मनमें महान् भय समा गया ।।
ततो<हं धनुरादाय तथाक्षय्ये महेषुधी ।
सहसाभ्यहनं भूत॑ तान्यप्यस्त्राण्यभक्षयत् ।। ३८ ।।
तब मैं धनुष और दोनों अक्षय तरकस लेकर सहसा उस दिव्य पुरुषपर आघात करने
लगा, किंतु उसने उन सबको भी अपना आहार बना लिया ।। ३८ ।।
हतेष्वस्त्रेषु सर्वेषु भक्षितेष्वायुधेषु च ।
मम तस्य च भूतस्य बाहुयुद्धमवर्तत ।। ३९ ।।
जब मेरे सारे अस्त्र-शस्त्र नष्ट होकर उसके आहार बन गये, तब मेरा उस अलौकिक
प्राणीके साथ मल्लयुद्ध प्रारम्भ हो गया ।। ३९ ।।
व्यायामं मुष्टिभि: कृत्वा तलैरपि समागतै: ।
अपाययंश्व तद् भूत॑ निश्रचेष्टमगमं महीम् ।। ४० ।।
ततः प्रहस्य तद् भूतं तत्रैवान्तरधीयत ।
सह स्त्रीभिर्महाराज पश्यतो मे<द्भधुतोपमम् ।। ४१ ।।
पहले मुक्कों और थप्पड़ोंसे मैंने उससे टक्कर लेनेकी चेष्टाकी, परंतु उसपर मेरा कोई
वश नहीं चला और मैं निश्वेष्ट होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। महाराज! तब वह अलौकिक प्राणी
हँसकर मेरे देखते-देखते स्त्रियोंसहित वहीं अन्तर्धान हो गया || ४०-४१ ।।
एवं कृत्वा स भगवांस्ततो<न्यद् रूपमास्थित: ।
दिव्यमेव महाराज वसानो<द्धभुतमम्बरम् ।। ४२ ।।
हित्वा किरातरूपं च भगवांस्त्रिदशे श्वर: ।
स्वरूपं दिव्यमास्थाय तस्थौ तत्र महेश्वर: ।। ४३ ।।
राजन! वास्तवमें वे भगवान् शंकर थे। उन्होंने पूर्वोक्त बर्ताव करके दूसरा रूप धारण
कर लिया। देवताओंके स्वामी भगवान् महेश्वर किरातरूप छोड़कर दिव्य स्वरूपका आश्रय
ले अलौकिक एवं अद्भुत वस्त्र धारण किये वहाँ खड़े हो गये || ४२-४३ ।।
अदृश्यत तत: साक्षाद् भगवान् गोवृषध्वज: ।
उमासहायो व्यालधृग् बहुरूप: पिनाकधृकू ।। ४४ ।।
स मामभ्येत्य समरे तथैवाभिमुखं स्थितम् ।
शूलपाणिरथोवाच तुष्टोउस्मीति परंतप ।। ४५ ।।
इस प्रकार उमासहित साक्षात् भगवान् वृषभ-ध्वजका दर्शन हुआ। उन्होंने अपने
अंगोंमें सर्प और हाथमें पिनाक धारण कर रखे थे। अनेक रूपधारी भगवान् शूलपाणि उस
रणभूमिमें मेरे निकट आकर पूर्ववत् सामने खड़े हो गये और बोले--'परंतप! मैं तुमपर
संतुष्ट हूँ" | ४४-४५ ।।
ततस्तदू धनुरादाय तूणौ चाक्षय्यसायकौ ।
प्रादान्ममैव भगवान् धारयस्वेति चाब्रवीत् ।। ४६ ।।
तुष्टोडस्मि तव कौन्तेय ब्रूहि किं करवाणि ते ।
यत् ते मनोगतं वीर तद् ब्रूहि वितराम्पहम् ॥। ४७ ।।
अमरत्वमपाहाय ब्रूहि यत् ते मनोगतम् ।
तदनन्तर मेरे धनुष और अक्षय बाणोंसे भरे हुए दोनों तरकस लेकर भगवान् शिवने
मुझे ही दे दिये और कहा--'परंतप! ये अपने अस्त्र ग्रहण करो।' कुन्तीकुमार! मैं तुमसे
संतुष्ट हूँ। बोलो, तुम्हारा कौन-सा कार्य सिद्ध करूँ? वीर! तुम्हारे मनमें जो कामना हो,
बताओ मैं उसे पूर्ण कर दूँगा। अमरत्वको छोड़कर और तुम्हारे मनमें जो भी कामना हो,
बताओ' ।। ४६-४७ ३ ||
ततः प्राञज्जलिरेवाहमस्त्रेषु गतमानस: ।। ४८ ।।
प्रणम्य मनसा शर्व ततो वचनमाददे ।
भगवान् मे प्रसन्नश्वेदीप्सितो5यं वरो मम ।। ४९ ।।
अस्त्राणीच्छाम्यहं ज्ञातुं यानि देवेषु कानिचित् ।
ददानीत्येव भगवानन्रवीत् त्रयम्बकश्न माम् ।। ५० ।।
मेरा मन तो अस्त्र-शस्त्रोंमें लगा हुआ था। उस समय मैंने हाथ जोड़कर मन-ही-मन
भगवान् शंकरको प्रणाम किया और यह बात कही--“यदि मुझपर भगवान् प्रसन्न हैं, तो
मेरा मनोवांछित वर इस प्रकार है--देवताओंके पास जो कोई भी दिव्यास्त्र हैं, उन्हें मैं
जानना चाहता हूँ।” यह सुनकर भगवान् शंकरने मुझसे कहा--'पाण्डुनन्दन! मैं तुम्हें
सम्पूर्ण दिव्यास्त्रोंकी प्राप्तिका वर देता हूँ || ४८--५० ।।
रौद्रमस्त्रं मदीयं त्वामुपस्थास्यति पाण्डव ।
प्रददौ च मम प्रीत: सो<स्त्रं पाशुपतं महत् ।। ५१ ।।
'पाण्डुकुमार! मेरा रौद्रास्त्र स्वयं तुम्हें प्राप्त हो जायगा। यह कहकर भगवान्
पशुपतिने बड़ी प्रसन्नताके साथ मुझे अपना महान् पाशुपतास्त्र प्रदान किया ।। ५१ ।।
उवाच च महादेवो दत्त्वा मे5स्त्रं सनातनम् |
न प्रयोज्यं भवेदेतन्मानुषेषु कथठ्चन ।। ५२ |।
अपना सनातन अस्त्र मुझे देकर महादेवजी फिर बोले--तुम्हें मनुष्योंपर किसी प्रकार
इस अस्त्रका प्रयोग नहीं करना चाहिये || ५२ ।।
जगद् विनिर्दहेदेवमल्पतेजसि पातितम् |
पीड्यमानेन बलवत् प्रयोज्यं स्याद्ू धनंजय ।। ५३ ।।
अस्त्राणां प्रतिघाते च सर्वथैव प्रयोजयेत् ।
“अपनेसे अल्पशक्तिवाले विपक्षी पर यदि इसका प्रहार किया जाय तो यह सम्पूर्ण
विश्वको दग्ध कर देगा। धनंजय! जब शत्रुके द्वारा अपनेको बहुत पीड़ा प्राप्त होने लगे, उस
दशामें आत्मरक्षाके लिये इसका प्रयोग करना चाहिये। शत्रुके अस्त्रोंका विनाश करनेके
लिये सर्वथा इसका प्रयोग उचित है” || ५३ ६ ।।
तदप्रतिहतं दिव्यं सर्वास्त्रप्रतिषिधनम् ।। ५४ ।।
मूर्तिमन्मे स्थित पारश्वे प्रसन्ने गोवृषध्वजे ।
इस प्रकार भगवान् वृषभध्वजके प्रसन्न होनेपर सम्पूर्ण अस्त्रोंका निवारण करनेवाला
और कहीं भी कुण्ठित न होनेवाला दिव्य पाशुपतास्त्र मूर्तिमान् हो मेरे पास आकर खड़ा हो
गया ।। ५४६ ।।
उत्सादनममित्राणां परसेनानिकर्तनम् | ५५ ।।
दुरासदं दुष्प्रसहं सुरदानवराक्षसै: ।
अनुज्ञातस्त्वहं तेन तत्रैव समुपाविशम् ।। ५६ ।।
प्रेक्षतश्नैेव मे देवस्तत्रैवान्तरधीयत ।। ५७ ।।
वह शत्रुओंका संहारक और विपक्षियोंकी सेनाका विध्वंसक है। उसकी प्राप्ति बहुत
कठिन है। देवता, दानव तथा राक्षस किसीके लिये भी उसका वेग सहन करना अत्यन्त
कठिन है। फिर भगवान् शिवकी आज्ञा होनेपर मैं वहीं बैठ गया और वे मेरे देखते-देखते
अन्तर्धान हो गये || ५५--५७ |।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि निवातकवचयुद्धपर्वणि गन्धमादनवासे
युधिष्ठटिरार्जुनसंवादे सप्तषष्ट्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १६७ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत निवातकवचयुद्धपर्वमें गन्धमादननिवासकालिक
युधिष्ठिर-अर्जुन-संवादविषयक एक सौ सरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६७ ॥/
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३. आचार्य नीलकण्ठके मतसे स्थूणाकर्ण नाम है शंकुकर्णका, जो भगवान् रुद्रके एक अवतार हैं। वे जिस अस्त्रके
देवता है, उसका नाम भी स्थूणाकर्ण है।
२. मूलमें जाल शब्द आया है, जिसका अर्थ है, जालसम्बन्धी। यह जलवर्षक अस्त्रकी ही वारुणास्त्र है।
३. जैसे बादल पानीकी वर्षा करता है, उसी प्रकार निरन्तर बाणवर्षा करनेवाला अस्त्र शरवर्ष कहलाता है।
४. जैसे असंख्य टिड्डियाँ आकाशमें मँडराती और पौधोंपर टूट पड़ती हैं, उसी प्रकार जिस अस्त्रसे असंख्य बाण
आकाशको आच्छादित करते और शत्रुको अपना लक्ष्य बनाते हैं, उसीका नाम शलभास्त्र है।
५. पत्थरोंकी वर्षा करनेवाले अस्त्रको अश्मवर्ष कहते हैं।
अष्ट षष्ट्यांधेिकशततमोब<& ध्याय:
अर्जुनद्वारा स्वर्गलोकमें अपनी अस्त्रशिक्षा और
निवातकवच दानवोंके साथ युद्धकी तैयारीका कथन
अजुन उवाच
ततस्तामवसं प्रीतो रजनीं तत्र भारत ।
प्रसादाद देवदेवस्य >यम्बकस्य महात्मन: ।। १ ।।
अर्जुन कहते हैं--भारत! देवाधिदेव परमात्मा भगवान् त्रिलोचनके कृपाप्रसादसे मैंने
प्रसन्नतापूर्वक वह रात वहीं व्यतीत की ।। १ ॥।
व्युषितो रजनीं चाहं कृत्वा पौर्वाह्निकी: क्रिया: ।
अपश्यं त॑ द्विजश्रेष्ठं दृष्टवानस्मि यं पुरा |। २ ।।
सबेरा होनेपर पूर्वाह्लकालकी क्रिया पूरी करके मैंने पुनः उन्हीं श्रेष्ठ ब्राह्मणको अपने
समक्ष पाया, जिनका दर्शन मुझे पहले भी हो चुका था ।। २ ।।
तस्मै चाहं यथावृत्तं सर्वमेव न्यवेदयम् ।
भगवन्तं महादेवं समेतो5स्मीति भारत ।। ३ ||
भरतकुलभूषण! उनसे मैंने अपना सारा वृत्तान्त यथावत् कह सुनाया और बताया कि
'मैं भगवान् महादेवजीसे मिल चुका हूँ ।। ३ ।।
स मामुवाच राजेन्द्र प्रीयमाणो द्विजोत्तम: ।
दृष्टस्त्वया महादेवो यथा नान्येन केनचित् ।। ४ ।।
राजेन्द्र! तब वे विप्रवर बड़े प्रसन्न होकर मुझसे बोले--“कुन्तीकुमार! जिस प्रकार
तुमने महादेवजीका दर्शन किया है, वैसा दर्शन और किसीने नहीं किया है ।। ४ ।।
समेत्य लोकपालैस्तु सर्वैर्वैवस्वतादिभि: |
द्रष्टास्यनघ देवेन्द्र सच ते5स्त्राणि दास्यति ।। ५ ।।
“अनघ! अब तुम यम आदि लोकपालोंके साथ देवराज इन्द्रका दर्शन करोगे और वे भी
तुम्हें अस्त्र प्रदान करेंगे” || ५ ।।
एवमुक््त्वा स मां राजन्नाश्लिष्य च पुन: पुन: ।
अगच्छत् स यथाकाममं ब्राह्मण: सूर्यसंनिभ: ।। ६ ।।
राजन! ऐसा कहकर सूर्यके समान तेजस्वी ब्राह्मण देवताने मुझे बार-बार हृदयसे
लगाया और फिर वे इच्छानुसार अपने अभीष्ट स्थानको चले गये ।। ६ ।।
अथापराल्ने तस्याह्व: प्रावात् पुण्य: समीरण: ।
पुनर्नवमिमं लोकं कुर्वन्निव सपत्नहन् ।। ७ ।।
दिव्यानि चैव माल्यानि सुगन्धीनि नवानि च ।
शैशिरस्य गिरे: पादे प्रादुरासन् समीपत: ।। ८ ।।
शत्रुविजयी नरेश! तदनन्तर जब वह दिन ढलने लगा, तब पुनः इस जगतमें नूतन
जीवनका संचार-सा करती हुई पवित्र वायु चलने लगी और उस हिमालयके पार्श्ववर्ती
प्रदेशमें दिव्य, नवीन और सुगन्धित पुष्पोंकी वर्षा होने लगी || ७-८ ।।
वादित्राणि च दिव्यानि सुघधोराणि समन्ततः ।
स्तुतयश्रेन्द्रसंयुक्ता अश्रूयन्न्त मनोहरा: ।। ९ ।।
चारों ओर अत्यन्त भयंकर प्रतीत होनेवाले दिव्य वाद्यों और इन्द्रसम्बन्धी स्तोत्रोंके
मनोहर शब्द सुनायी देने लगे ।। ९ ।।
गणाक्षाप्सरसां तत्र गन्धर्वाणां तथैव च ।
पुरस्ताद् देवदेवस्य जगुर्गीतानि सर्वश: ।। १० ।।
सब गन्धर्वों और अप्सराओंके समूह वहाँ देवराज इन्द्रके आगे रहकर गीत गा रहे
थे ।। १० ।।
मरुतां च गणास्तत्र देवयानैरुपागमन् |
महेन्द्रानुच॒रा ये च ये च सझनिवासिन: ।। ११ ||
देवताओंके अनेक गण भी दिव्य विमानोंपर बैठकर वहाँ आये थे। जो महेन्द्रके सेवक
थे और जो इन्द्रभवनमें ही निवास करते थे, वे भी वहाँ पधारे ।। ११ ।।
ततो मरुत्वान् हरिभिरययुक्तिवाहि: स्वलड्कृतै: ।
शचीसहायस्तत्रायात् सह सर्वैस्तदामरै: | १२ |।
तदनन्तर थोड़ी ही देरमें विविध आभूषणोंसे विभूषित हरे रंगके घोड़ोंसे जुते हुए एक
सुन्दर रथके द्वारा शचीसहित इन्द्रने सम्पूर्ण देवताओंके साथ वहाँ पदार्पण किया ।। १२ ।।
एतस्मिन्नेव काले तु कुबेरो नरवाहन: ।
दर्शयामास मां राजॉललक्ष्म्या परमया युत: ।। १३ ।।
राजन! इसी समय सर्वोत्वृष्ट ऐश्वर्य--लक्ष्मीसे सम्पन्न नरवाहन कुबेरने भी मुझे दर्शन
दिया ।। १३ ।।
दक्षिणस्यां दिशि यमं प्रत्यपश्यं व्यवस्थितम् ।
वरुणं देवराजं च यथास्थानमवस्थितम् ।। १४ ।।
दक्षिण दिशाकी ओर दृष्टिपात करनेपर मुझे साक्षात् यमराज खड़े दिखायी दिये। वरुण
और देवराज इन्द्र भी क्रमश: पश्चिम और पूर्व दिशामें यथास्थान खड़े हो गये ।। १४ ।।
ते मामूचुर्महाराज सान्त्वयित्वा नरर्षभ ।
सव्यसाचिन् निरीक्षास्माॉललोकपालानवस्थितान् ।। १५ ।।
महाराज! नरश्रेष्ठ] उन सब लोकपालोंने मुझे सान्त्वना देकर कहा--'सव्यसाची
अर्जुन! देखो, हम सब लोकपाल यहाँ खड़े हैं ।। १५ ।।
सुरकार्यार्थसिद्धयर्थ दृष्टवानसि शड्करम् |
अस्मत्तो5पि गृहाण त्वमस्त्राणीति समन्ततः || १६ ।।
“देवताओंके कार्यकी सिद्धिके लिये ही तुम्हें भगवान् शंकरका दर्शन प्राप्त हुआ था।
अब तुम चारों ओर घूमकर हमलोगोंसे भी दिव्यास्त्र ग्रहण करो” ।। १६ ।।
ततोऊहं प्रयतो भूत्वा प्रणिपत्य सुरर्षभान् ।
प्रत्यगृह्नं तदास्त्राणि महान्ति विधिवद् विभो ।। १७ ।।
प्रभो! तब मैंने एकाग्रचित्त हो उन उत्तम देवताओंको प्रणाम करके उन सबसे
विधिपूर्वक महान दिव्यास्त्र प्राप्त किये || १७ ।।
गृहीतास्त्रस्ततो देवैरनुज्ञातो5स्मि भारत ।
अथ देवा ययु: सर्वे यथागतमरिंदम ।। १८ ।।
भारत! जब मैं अस्त्र ग्रहण कर चुका तब देवताओंने मुझे जानेकी आज्ञा दी। शत्रुदमन!
तदनन्तर सब देवता जैसे आये थे, वैसे अपने-अपने स्थानको चले गये ।। १८ ।।
मघवानपि देवेशो रथमारुहा[ सुप्रभम् ।
उवाच भगवान् स्वर्ग गन्तव्यं फाल्गुन त्वया ।। १९ |।
देवेश्वर भगवान् इन्द्रने भी अपने अत्यन्त प्रकाशपूर्ण रथपर आरूढ़ हो मुझसे कहा
--'अर्जुन! तुम्हें स्वर्गलोककी यात्रा करनी होगी ।। १९ ।।
पुरैवागमनादस्माद् वेदाहं त्वां धनंजय ।
अतः: पर त्वहं वै त्वां दर्शये भरतर्षभ ।। २० ।।
'भरतश्रेष्ठ धनंजय! यहाँ आनेसे पहले ही मुझे तुम्हारे विषयमें सब कुछ ज्ञात हो गया
था। इसके बाद मैंने तुम्हें दर्शन दिया है || २० ।।
त्वया हि तीर्थेषु पुरा समाप्लाव: कृतोडसकृत् ।
तपश्चेदं महत् तप्तं स्वर्ग गन्तासि पाण्डव || २१ ।।
'पाण्डुनन्दन! तुमने पहले अनेक बार बहुत-से तीर्थोमें स्नान किया है और इस समय
इस महान् तपका भी अनुष्ठान कर लिया है, अतः तुम स्वर्गलोकमें सशरीर जानेके
अधिकारी हो गये हो || २१ ।।
भूयश्चैव च तप्तव्यं तपश्चरणमुत्तमम् ।
स्वर्ग त्ववश्यं गन्तव्यं त्वया शत्रुनिष्दन ।। २२ ।।
'शत्रुसूदन! अभी तुम्हें और भी उत्तम तपस्या करनी है और स्वर्गलोकमें अवश्य
पदार्पण करना है || २२ ।।
माललिममन्नियोगात् त्वां त्रिदिवं प्रापयिष्यति ।
विदितस्त्वं हि देवानां मुनीनां च महात्मनाम् ।। २३ ।।
इहस्थ: पाण्डवश्रेष्ठ तप: कुर्वन् सुदुष्करम् ।
“मेरी आज्ञासे मातलि तुम्हें स्वर्गमें पहुँचा देगा। पाण्डवश्रेष्ठ! यहाँ रहकर जो तुम
अत्यन्त दुष्कर तप कर रहे हो, इसके कारण देवताओं तथा महात्मा मुनियोंमें तुम्हारी
ख्याति बहुत बढ़ गयी है” || २३६ ।।
ततो5हमन्रुवं शक्रं प्रसीद भगवन् मम ।
आचार्य वरयेयं त्वामस्त्रार्थ त्रिदशेश्वर ।। २४ ।।
तब मैंने देवराज इन्द्रसे कहा--“भगवन्! आप मुझपर प्रसन्न होइये। देवेश्वर! मैं
अस्त्रविद्याकी प्राप्तिके लिये आपको अपना आचार्य बनाता हूँ || २४ ।।
इन्द्र रवाच
क्रूरकर्मास्त्रवित् तात भविष्यसि परंतप ।
यदर्थमस्त्राणीप्सुस्त्वं तं काम॑ पाण्डवाप्रुहि || २५ ।।
इन्द्रने कहा--परंतप तात अर्जुन! दिव्य अस्त्र-शस्त्रोंका ज्ञान प्राप्त कर लेनेपर तुम
भयंकर कर्म करने लगोगे। अतः पाण्डुनन्दन! मेरी इच्छा है कि तुम जिसके लिये अस्त्रोंकी
शिक्षा प्राप्त करना चाहते हो, तुम्हारा वह उद्देश्य पूर्ण हो ।। २५ ।।
ततो>5हमन्रुव॑ नाहं दिव्यान्यस्त्राणि शत्रुहन् ।
मानुषेषु प्रयोक्ष्यामि विनास्त्रप्रतिघातनात् । २६ ।।
यह सुनकर मैंने उत्तर दिया--'शत्रुघाती देवेश्वर! मैं शत्रुओंद्वारा प्रयुक्त दिव्यास्त्रोंका
निवारण करनेके सिवा अन्य किसी अवसरपर मनुष्योंके ऊपर दिव्यास्त्रोंका प्रयोग नहीं
करूँगा ।। २६ ।।
तानि दिव्यानि मे<स्त्राणि प्रयच्छ विबुधाधिप ।
लोकांश्षास्त्रजितान् पश्चाल्लभेयं सुरपुड्रव ।। २७ ।।
“देवराज! सुरश्रेष्ठ! आप मुझे वे दिव्य अस्त्र प्रदान करें। अस्त्रविद्या सीखनेके पश्चात् मैं
उन्हीं अस्त्रोंके द्वारा जीते हुए लोकोंपर अधिकार प्राप्त करना चाहता हूँ” || २७ ।।
इन्द्र रवाच
परीक्षार्थ मयैतत् ते वाक्यमुक्तं धनंजय ।
ममात्मजस्य वचन सूपपन्नमिदं तव ।। २८ ।।
इन्द्र बोले--धनंजय! मैंने तुम्हारी परीक्षा लेनेके लिये उपर्युक्त बात कही थी। तुमने जो
अस्त्रविद्याके प्रति अत्यन्त उत्सुकता प्रकट की है, वह तुम्हारे जैसे मेरे पुत्रके अनुरूप ही
है || २८ ।।
शिक्ष मे भवन गत्वा सर्वाण्यस्त्राणि भारत |
वायोरग्नेर्वसुभ्योडपि वरुणात् समरुद्गणात् ॥। २९ |।
साध्य॑ पैतामहं चैव गन्धर्वोरगरक्षसाम् |
वैष्णवानि च सर्वाणि नैर्ऋलतानि तथैव च ।। ३० ।।
मदगतानि च जानीहि सर्वास्त्राणि कुरुद्वह ।
एवमुक्त्वा तु मां शक्रस्तत्रैवान्तरधीयत ।। ३१ ।।
भारत! तुम मेरे भवनमें चलकर सम्पूर्ण अस्त्रोंकी शिक्षा प्राप्त करो। कुरुश्रेष्ठ! वायु,
अग्नि, वसु, वरुण, मरुद्गण, साध्यगण, ब्रह्मा, गन्धर्वगण, नाग, राक्षस, विष्णु तथा
निर्क्रतिके और स्वयं मेरे भी सम्पूर्ण अस्त्रोंका ज्ञान प्राप्त करो, मुझसे ऐसा कहकर इन्द्र वहीं
अन्तर्धान हो गये ।।
अथापश्य॑ हरियुजं रथमैन्द्रमुपस्थितम् ।
दिव्यं मायामयं पुण्यं यत्तं मातलिना नूप ।। ३२ ।।
तदनन्तर थोड़ी ही देरमें मुझे हरे रंगके घोड़ोंसे जुता हुआ देवराज इन्द्रका रथ वहाँ
उपस्थित दिखायी दिया। राजन! वह दिव्य मायामय पवित्र रथ मातलिके द्वारा नियन्त्रित
था ।। ३२ ||
लोकपालेषु यातेषु मामुवाचाथ मातलि: ।
द्रष्टमिच्छति शक्रस्त्वां देवराजो महाद्युते || ३३ ।।
जब सभी लोकपाल चले गये, तब मातलिने मुझसे कहा--“महातेजस्वी वीर! देवराज
इन्द्र तुमसे मिलना चाहते हैं || ३३ ।।
संसिद्धयस्व महाबाहो कुरु कार्यमनन्तरम् |
पश्य पुण्यकृताँललोकान् सशरीरो दिवं व्रज ।। ३४ ।।
“महाबाहो! तुम उनसे मिलकर कृतार्थ होओ और अब आवश्यक कार्य करो। इसी
शरीरसे देवलोकमें चलो तथा पुण्यात्मा पुरुषोंके लोकोंका दर्शन करो || ३४ ।।
देवराज: सहस्ाक्षस्त्वां दिदृक्षति भारत ।
इत्युक्तो5हं मातलिना गिरिमामन्त्रय शैशिरम् ।। ३५ ।।
प्रदक्षिणमुपावृत्य समारोहं रथोत्तमम् ।
भरतनन्दन! सहस्र नेत्रोंवाले देवराज इन्द्र तुम्हें देखना चाहते हैं।। मातलिके ऐसा
कहनेपर मैं हिमालयसे आज्ञा ले रथकी परिक्रमा करके उस श्रेष्ठ रथमें सवार हुआ ।। ३५६
||
चोदयामास स हयान् मनोमारुतरंहस: ।। ३६ ।।
मातलिहयतत्त्वज्ञो यथावद् भूरिदक्षिण: ।
मातलि अश्वसंचालनकी कलाके मर्मज्ञ थे। सारथिके कार्यमें अत्यन्त कुशल थे। उन्होंने
मन तथा वायुके समान वेगशाली अश्वोंको यथोचित रीतिसे आगे बढ़ाया || ३६३ ।।
अवैक्षत च मे वकक्त्रं स्थितस्याथ स सारथि: || ३७ ।।
तथा क्रान्ते रथे राजन् विस्मितश्लैदमब्रवीत् ।
राजन! उस समय देवसारथि मातलिने आकाशमें चक्कर लगाते हुए रथपर
स्थिरतापूर्वक बैठे हुए मेरे मुखकी ओर दृष्टिपात किया और आश्वर्यवकित होकर कहा
-- ३७३ ||
अत्यद्भुतमिदं त्वद्य विचित्र प्रतिभाति मे ।। ३८ ।।
यदास्थितो रथं दिव्यं पदान्न चलित: पदम् |
“भरतश्रेष्ठ!ी आज मुझे यह बड़ी विचित्र और अद्भुत बात दिखायी दे रही है कि इस
दिव्य रथपर बैठकर तुम अपने स्थानसे तनिक भी हिल-डुल नहीं रहे हो ।। ३८ ई ।।
देवराजो5पि हि मया नित्यमत्रोपलक्षित: ।। ३९ ।।
विचलन प्रथमोत्पाते हयानां भरतर्षभ ।
त्वं पुन: स्थित एवात्र रथे भ्रान्ते कुरूद्गबह ।। ४० ।।
“कुरुकुलभूषण भरतश्रेष्ठ) जब घोड़े पहली बार उड़ान भरते हैं" उस समय मैंने सदा
यह देखा है कि देवराज इन्द्र भी विचलित हुए बिना नहीं रह पाते, परंतु तुम चक्कर काटते
हुए रथपर भी स्थिरभावसे बैठे हो || ३९-४० ।।
अतिशक्रमिदं सर्व तवेति प्रतिभाति मे ।
इत्युक्त्वा55काशमाविश्य मातलिविंबुधालयान् ।। ४१ ।।
दर्शयामास मे राजन् विमानानि च भारत |
स रथो हरिभिरयुक्तो हार्ध्वमाचक्रमे तत: ।। ४२ ।।
'कुरुश्रेष्ठ! तुम्हारी ये सब बातें मुझे इन्द्रसे भी बढ़कर प्रतीत हो रही हैं।'
भरतकुलभूषण नरेश! ऐसा कहकर मातलिने अन्तरिक्षलोकमें प्रविष्ट होकर मुझे
देवताओंके घरों और विमानोंका दर्शन कराया, फिर हरे रंगके घोड़ोंसे जुता हुआ वह रथ
वहाँसे भी ऊपरकी ओर बढ़ चला ।। ४१-४२ ।।
ऋषयो देवताश्वैव पूजयन्ति नरोत्तम |
तत: कामगमॉल्लोकानपश्यं वै सुर्िणाम् ।। ४३ ।।
नरश्रेष्ठी ऋषि और देवता भी उस रथका समादर करते थे। तदनन्तर मैंने देवर्षियोंके
अनेक समुदायोंका दर्शन किया, जो अपनी इच्छाके अनुसार सर्वत्र जानेकी शक्ति रखते
हैं ।। ४३ ।।
गन्धर्वाप्सरसां चैव प्रभावममितौजसाम् |
नन्दनादीनि देवानां वनान्युपवनानि च || ४४ ।।
दर्शयामास मे शीघ्र॑ं मातलि: शक्रसारथि: ।
तत: शक्रस्थ भवनमपश्यममरावतीम् ।। ४५ ||
दिव्यै: कामफलै वक्ष रत्नैज्ष समलड्कृताम्
न तत्र सूर्यस्तपति न शीतोष्णे न च कलम: ।। ४६ ।।
अमित तेजस्वी गन्धर्वों और अप्सराओंका प्रभाव भी मुझे प्रत्यक्ष दिखायी दिया। फिर
इन्द्रसारथि मातलिने मुझे शीघ्र ही देवताओंके नन्दन आदि वन और उपवन दिखाये।
तत्पश्चात् मैंने अमरावतीपुरी तथा इन्द्रभवनका दर्शन किया। वह पुरी इच्छानुसार फल
देनेवाले दिव्य वृक्षों तथा रत्नोंसे सुशोभित थी। वहाँ सूर्यका ताप नहीं होता, सर्दी या
गर्मीका कष्ट नहीं रहता और न किसी-को थकावट ही होती है || ४४--४६ ।।
न बाधते तत्र रजस्तत्रास्ति न जरा नृप ।
न तत्र शोको दैन्यं वा दौर्बल्यं चोपलक्ष्यते || ४७ ।।
नरेश्वर! वहाँ रजोगुणजनित विकार नहीं सताते, बुढ़ापा नहीं आता; शोक, दीनता और
दुर्बलताका दर्शन नहीं होता || ४७ ।।
दिवौकसां महाराज न ग्लानिररिमर्दन ।
न क्रोधलोभौ तत्रास्तां सुरादीनां विशाम्पते || ४८ ।।
महाराज! शत्रुसूदन! स्वर्गवासी देवताओंको कभी ग्लानि नहीं होती। उनमें क्रोध और
लोभका भी अभाव होता है ।। ४८ ।।
नित्यतुष्टाश्च ते राजन् प्राणिन: सुरवेश्मनि ।
नित्यपुष्पफलास्तत्र पादपा हरितच्छदा: || ४९ ।।
राजन! स्वर्गमें निवास करनेवाले प्राणी सदा संतुष्ट रहते हैं। वहाँके वृक्ष सर्वदा फल-
फ़ूलसे सम्पन्न और हरे पत्तोंसे सुशोभित रहते हैं ।। ४९ ।।
पुष्करिण्यश्न विविधा: पद्मसौगन्धिकायुता: ।
शीतस्तत्र ववौ वायु: सुगन्धी जीवन: शुचि: ।। ५० ।।
वहाँ सहस्रों सौगन्धिक कमलोंसे अलंकृत नाना प्रकारके सरोवर शोभा पाते हैं और
शीतल, पवित्र, सुगन्धित एवं नवजीवनदायक वायु सदा बहती रहती है || ५० ।।
सर्वरत्नविचित्रा च भूमि: पुष्पविभूषिता |
मृगद्धिजाश्व॒ बहवो रुचिरा मधुरस्वरा: ।। ५१ ।।
विमानगामिन श्षात्र दृश्यन्ते बहवोम्बरे ।
ततो<पश्यं वसून् रुद्रान् साध्यांशक्ष समरुद्गणान् | ५२ ।।
आदित्यानश्रिनौ चैव तान् सर्वान् प्रत्यपूजयम् ।
ते मां वीयेंण यशसा तेजसा च बलेन च ।। ५३ ।।
अस्त्रैश्नाप्पन्वजानन्त संग्रामे विजयेन च ।
वहाँकी भूमि सब प्रकारके रत्नोंसे विचित्र शोभा धारण करती है और (सब ओर बिखरे
हुए) पुष्प उस भूमिके लिये आभूषणका काम देते हैं। स्वर्गलोकमें बहुत-से मनोहर पशु और
पक्षी देखे जाते हैं, जिनकी बोली बड़ी मधुर प्रतीत होती है। वहाँ अनेक देवता आकाशमें
विमानोंपर विचरते दिखायी देते हैं। तदनन्तर मुझे वसु, रुद्र, साथ्य, मरुद्गण, आदित्य और
अश्विनीकुमारोंके दर्शन हुए। मैंने उन सबके आगे मस्तक झुकाकर उनका सम्मान किया।
उन सबने मुझे पराक्रमी, यशस्वी, तेजस्वी, बलवान, अस्त्रवेत्ता और संग्राम-विजयी होनेका
आशीर्वाद दिया || ५१--५३ ३ ।।
प्रविश्य तां पुरी दिव्यां देवगन्धर्वपृूजिताम् ।। ५४ ।।
देवराजं सहस्राक्षमुपातिष्ठं कृताञ्जलि: ।
ददावर्धासनं प्रीत: शक्रो मे ददतां वर: ।। ५५ ।।
तत्पश्चात् देव-गन्धर्वपूजित दिव्य अमरावतीपुरीमें प्रवेश करके मैंने हाथ जोड़कर
सहस्र नेत्रोंवाले देवराज इन्द्रको प्रणाम किया। दाताओंमें श्रेष्ठ देवराज इन्द्रने प्रसन्न होकर
मुझे अपने आधे सिंहासनपर स्थान दिया || ५४-५५ |।
बहुमानाच्च गात्राणि पस्पर्श मम वासव: |
तत्राहं देवगन्धर्व: सहितो भूरिदक्षिण ।। ५६ ।।
अस्त्रार्थमवसं स्वर्गे शिक्षाणो<स्त्राणि भारत ।
विश्वावसोश्र वै पुत्रश्चित्रसेनो5$भवत् सखा ।। ५७ |।
इतना ही नहीं, उन्होंने बड़े आदरके साथ मेरे अंगोंपर हाथ फेरा। यज्ञोंमें पूरी दक्षिणा
देनेवाले भरतश्रेष्ठ) उस स्वर्गलोकमें देवताओं और गन्धर्वोके साथ अस्त्रविद्याकी प्राप्तिके
लिये रहने लगा और प्रतिदिन अस्त्रोंका अभ्यास करने लगा। उस समय गन्धर्वराज
विश्वावसुके पुत्र चित्रसेनके साथ मेरी मैत्री हो गयी थी ।। ५६-५७ ।।
स च गान्धर्वमखिलं ग्राहयामास मां नृप ।
तत्राहमवसं राजन गृहीतास्त्र: सुपूजित: ।। ५८ ।।
सुखं शक्रस्य भवने सर्वकामसमन्वित: ।
शृण्वन् वै गीतशब्दं च तूर्यशब्दं च पुष्कलम् ।
पश्यंश्षाप्सरस: श्रेष्ठा नृत्यन्तीर्भरतर्षभ ।। ५९ ।।
नरेश्वर! उन्होंने मुझे सम्पूर्ण गान्धर्ववेद (संगीत-विद्या)-का अध्ययन कराया। राजन!
वहाँ इन्द्रभवनमें अस्त्र-शस्त्रोंकी शिक्षा ग्रहण करते हुए मैं बड़े सम्मान और सुखसे रहने
लगा। वहाँ सभी मनोवांछित पदार्थ मेरे लिये सुलभ थे। भरतश्रेष्ठ! मैं वहाँ कभी मनोहर
गीत सुनता, कभी पर्याप्तरूपसे दिव्य वाद्योंका आनन्द लेता और कभी-कभी श्रेष्ठ
अप्सराओंका नृत्य भी देख लेता था ।।
तत् सर्वमनवज्ञाय तथ्यं विज्ञाय भारत |
अत्यर्थ प्रतिगृह्माहमस्त्रेष्वेव व्यवस्थित: ।। ६० ।।
भारत! इन समस्त सुख-सुविधाओंकी अवहेलना न करते हुए उन्हें स्वीकार करके भी
मैं इनके असली रूपको जानकर--इनकी निःसारताको भलीभाँति समझकर अधिकतर
अस्त्रोंके अभ्यासमें ही संलग्न रहता था। (गीत आदिमें कभी आसक्त नहीं हुआ) ।। ६० ।।
ततोअतुष्यत् सहस्राक्षस्तेन कामेन मे विभु: ।
एवं मे वसतो राजन्नेष कालोत्यगाद् दिवि ।। ६१ ।।
अस्त्रविद्याकी ओर मेरी ऐसी अभिरुचि होनेसे सहसनेत्रधारी भगवान् इन्द्र मुझपर बहुत
संतुष्ट रहते थे। राजन! इस प्रकार स्वर्गमें रहकर मेरा यह समय सुखपूर्वक बीतने
लगा ।। ६१ ||
कृतास्त्रमतिविश्वस्तमथ मां हरिवाहन: ।
संस्पृश्य मूर्थ्नि पाणिभ्यामिदं वचनमब्रवीत् ।। ६२ ।।
धीरे-धीरे मैं अस्त्रविद्यामें निपुण हो गया। मेरी विज्ञतापर सबको अधिक विश्वास था।
एक दिन भगवान् इन्द्रने अपने दोनों हाथोंसे मेरे मस्तकका स्पर्श करते हुए मुझसे इस
प्रकार कहा-- ।। ६२ |।
न त्वमद्य युधा जेतुं शक््य: सुरगणैरपि ।
कि पुनर्मनुषे लोके मानुषैरकृतात्मभि: ।। ६३ ।।
“अर्जुन! अब तुम्हें युद्धमें देवता भी परास्त नहीं कर सकते। फिर मर्त्यलोकमें रहनेवाले
बेचारे असंयमी मनुष्योंकी तो बात ही क्या है? ।। ६३ ।।
अप्रमेयो5प्रधृष्यश्न युद्धेष्वप्रतिमस्तथा ।
अजेयस्त्व॑ हि संग्रामे सर्वैरपि सुरासुरै: ।
अथाब्रवीत् पुनर्देव: सम्प्रहृष्टतनूरुह: ।। ६४ ।।
तुम युद्धमें अप्रमेय, अजेय और अनुपम हो। संग्रामभूमिमें सम्पूर्ण देवता और असुर
भी तुम्हें पपाजित नहीं कर सकते।” इतना कहते-कहते देवराजके शरीरमें रोमांच हो आया।
तदनन्तर वे फिर बोले-- || ६४ ।।
अस्त्रयुद्धे समो वीर न ते कश्चिद् भविष्यति ।
अप्रमत्त: सदा दक्ष: सत्यवादी जितेन्द्रिय: ।। ६५ ।।
ब्र्मण्यश्षास्त्रविच्चासि शूरश्चासि कुरूद्वह ।
अस्त्राणि समवाप्तानि त्वया दश च पञ्त च ।। ६६ ।।
पज्चभिर्विधिश्रि: पार्थ विद्यते न त्वया सम: ।
प्रयोगमुपसंहारमावृत्ति च धनंजय ।। ६७ ।।
प्रायक्षित्तं च वेत्थ त्वं प्रतिघातं च सर्वश: ।
ततो गुर्वर्थकालो<यं समुत्पन्न: परंतप ।। ६८ ।।
“वीर! अस्त्र-युद्धमें तुम्हारा सामना कर सके, ऐसा कोई योद्धा नहीं होगा। कुरुश्रेष्ठ!
तुम सर्वदा सावधान रहते हो, प्रत्येक कार्यमें कुशल हो, जितेन्द्रिय, सत्यवादी और
ब्राह्मणभक्त हो; तुम्हें अस्त्र-शस्त्रोंका ज्ञान है और तुम अद्भुत शौर्यसे सम्पन्न हो। पार्थ!
तुमने पाँच विधियोंसहित पंद्रह अस्त्र प्राप्त किये हैं, अतः इस भूतलपर तुम्हारे-जैसा शूर
दूसरा कोई नहीं है। परंतप धनंजय! प्रयोग, उपसंहार, आवृत्ति, प्रायश्चित्त- और प्रतिघातर
--ये अस्त्रोंकी पाँच विधियाँ हैं; तुम इन सबका पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर चुके हो। अत: अब
गुरुदक्षिणा देनेका समय आ गया है || ६५--६८ ।।
प्रतिजानीष्व त॑ कर्तु ततो वेत्स्याम्यहं परम् ।
ततो5हमन्रुवं राजन् देवराजमिदं वच: ।। ६९ ।।
विषहां यन्मया कर्तु कृतमेव निबोध तत् |
ततो मामब्रवीद् राजन् प्रहसन् बलवृत्रहा || ७० ।।
“तुम उसे देनेकी प्रतिज्ञा करो, तब मैं अपने महान् कार्यको तुम्हें बताऊँगा।” राजन्! यह
सुनकर मैंने देवराजसे कहा--'भगवन्! जो कुछ मैं कर सकता हूँ, उसे किया हुआ ही
समझिये।” नरेश्वरर तब बल और वृत्रासुरके शत्रु इन्द्रने मुझसे हँसते हुए कहा
-- | ६९-७० ||
नाविषदां तवाद्यास्ति त्रिषु लोकेषु किंचन ।
निवातकवचा नाम दानवा मम शत्रव: ।। ७१ ||
“वीरवर! तीनों लोकोंमें ऐसा कोई कार्य नहीं है, जो तुम्हारे लिये असाध्य हो।
निवातकवच नामक दानव मेरे शत्रु हैं || ७१ ।।
समुद्रकुक्षिमाश्रित्य दुर्गे प्रतिवसन्त्युत ।
तिस्र: कोट्य: समाख्यातास्तुल्यरूपबलप्रभा: ।। ७२ ।।
तांस्तत्र जहि कौन्तेय गुर्वर्थस्ते भविष्यति ।
ततो मातलिसंयुक्त मयूरसमरोमभि: ।। ७३ ।।
हयैरुपेतं प्रादान्मे रथं दिव्यं महाप्रभम् ।
बबन्ध चैव मे मूर्घ्नि किरीटमिदमुत्तमम् ।। ७४ ।।
*वे समुद्रके भीतर दुर्गम स्थानका आश्रय लेकर रहते हैं। उनकी संख्या तीन करोड़
बतायी जाती है और उन सभीके रूप, बल और तेज एक समान हैं। कुन्तीनन्दन! तुम उन
दानवोंका संहार कर डालो। इतने से ही तुम्हारी गुरु-दक्षिणा पूरी हो जायगी।' ऐसा कहकर
इन्द्रने मुझे एक अत्यन्त कान्तिमान् दिव्य रथ प्रदान किया, जिसे मातलि जोतकर लाये थे।
उसमें मयूरोंके समान रोमवाले घोड़े जुते हुए थे। रथ आ जानेपर देवराजने यह उत्तम
किरीट मेरे मस्तकपर बाँध दिया || ७२--७४ ।।
स्वरूपसदृशं चैव प्रादादड़विभूषणम् |
अभेद्यं कवचं चेदं स्पर्शरूपवदुत्तमम् ।। ७५ ।।
फिर उन्होंने मेरे स्वरूपके अनुरूप प्रत्येक अंगमें आभूषण पहना दिये। इसके बाद यह
अभेद्य उत्तम कवच धारण कराया, जिसका स्पर्श तथा रूप मनोहर है ।।
अजरां ज्यामिमां चापि गाण्डीवे समयोजयत् ।
ततः प्रायामहं तेन स्यन्दनेन विराजता ।। ७६ ।।
येनाजयद् देवपतिर्बलिं वैरोचनिं पुरा ।
ततो देवा: सर्व एव तेन घोषेण बोधिता: ।। ७७ ।।
मन्वाना देवराजं मां समाजम्मुर्विशाम्पते ।
दृष्टवा च मामपृच्छन्त कि करिष्यसि फाल्गुन ।। ७८ ।।
तत्पश्चात् मेरे गाण्डीव धनुषमें उन्होंने यह अटूट प्रत्यज्चा जोड़ दी। इस प्रकार युद्धकी
सामग्रियोंसे सम्पन्न होकर उस तेजस्वी रथके द्वारा मैं संग्रामके लिये प्रस्थित हुआ, जिसपर
आरूढ़ होकर पूर्वकालमें देवराजने विरोचनकुमार बलिको परास्त किया था। महाराज! तब
उस रथकी घर्घराहटसे सजग हो सब देवता मुझे देवराज समझकर मेरे पास आये और मुझे
देखकर पूछने लगे--'अर्जुन! तुम क्या करनेकी तैयारीमें हो?” || ७६--७८ ।।
५ क्र
तानब्रुवं यथाभूतमिदं कर्तास्मि संयुगे ।
निवातकवचानां तु प्रस्थितं मां वधैषिणम् । ७९ ।।
निबोधत महाभागा: शिवं चाशास्त मेडनघा: ।
ततो वाग्भि: प्रशस्ताभिस्त्रिदशा: पृथिवीपते ।
तुष्ठबुर्मा प्रसन्नास्ते यथा देवं पुरंदरम् ।। ८० ।।
तब मैंने उनसे सब बातें बताकर कहा---'मैं युद्धमें यही करने जा रहा हूँ। आपको यह
ज्ञात होना चाहिये कि मैं निवातकवच नामक दानवोंके वधकी इच्छासे प्रस्थित हुआ हूँ।
अतः निष्पाप एवं महाभाग देवताओ! आप मुझे ऐसा आशीर्वाद दें, जिससे मेरा मंगल हो।'
राजन! तब वे देवतालोग प्रसन्न हो देवराज इन्द्रकी भाँति श्रेष्ठ एवं मधुर वाणीद्वारा मेरी
स्तुति करते हुए बोले-- || ७९-८० ।।
रथेनानेन मघवा जितवान् शम्बरं युधि ।
नमुचिं बलवृत्रौ च प्रह्लादनरकावपि ।। ८३१ ।।
इस रथके द्वारा इन्द्रने युद्धमें शम्बरासुरपर विजय पायी है। नमुचि, बल, वृत्र, प्रह्नाद
और नरकासुरको परास्त किया है || ८१ ।।
बहूनि च सहस्राणि प्रयतान्यर्बुदान्यपि ।
रथेनानेन दैत्यानां जितवान् मघवा युधि ।। ८२ ।।
“इनके सिवा अन्य बहुत-से दैत्योंको भी इस रथके द्वारा पराजित किया है, जिनकी
संख्या सहस्रों, लाखों और अरबोंतक पुहँच गयी है || ८२ ।।
त्वमप्यनेन कौन्तेय निवातकवचान् रणे |
विजेता युधि विक्रम्य पुरेव मघवा वशी ।। ८३ ।।
“कुन्तीनन्दन! जैसे पूर्वकालमें सबको वशमें करनेवाले इन्द्रने असुरोंपर विजय पायी
थी, उसी प्रकार तुम भी इस रथके द्वारा युद्धमें पराक्रम करके निवातकवचोंको परास्त
करोगे ।। ८३ ।।
अयं च शंखप्रवरो येन जेतासि दानवान् |
अनेन विजिता लोका: शक्रेणापि महात्मना ।। ८४ ।।
“यह श्रेष्ठ शंख है, जिसे बजानेसे तुम्हें दानवोंपर विजय प्राप्त हो सकती है। महामना
इन्द्रने भी इसके द्वारा सम्पूर्ण लोकोंपर विजय पायी है' ।। ८४ ।।
प्रदीयमान देवैस्तं देवदत्तं जलोद्धवम् ।
प्रत्यगृह्लं जयायैनं स्तूयमानस्तदामरै: ।। ८५ ।।
स शड्ुखी कवची बाणी प्रगृूहीतशरासन: ।
दानवालयमत्युग्रं प्रयातो5स्मि युयुत्सया || ८६ ।।
वही यह शंख है, जिसे मैंने अपनी विजयके लिये ग्रहण किया था। देवताओंने उसे
दिया था, इसलिये इसका नाम देवदत्त है। शंख लेकर देवताओंके मुखसे अपनी स्तुति
सुनता हुआ मैं कवच, बाण तथा धनुषसे सज्जित हो युद्धकी इच्छासे अत्यन्त भयंकर
दानवोंके नगरकी ओर चल दिया ।। ८५-८६ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि निवातकवचयुद्धपर्वण्यर्जुनवाक्ये
अष्टषष्ट्यघधिकशततमो<ध्याय: ।। १६८ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अर्जुनवाक्यविषयक एक सौ अड़सठवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥। १६८ ॥।
हि >> मो न () हि 7 आम
३. निर्दोष प्राणीका वध हो जाय, तो उसे पुन: संजीवित करनेकी विद्याको प्रायश्ित्त कहते हैं।
२. शत्रुके अस्त्रसे पराभवको प्राप्त हुए अपने अस्त्रको पुन: शक्तिशाली बनाना प्रतिघात कहलाता है।
एकोनसप्तत्याधिकशततमो< ध्याय:
अर्जुनका पातालमें प्रवेश और निवातकवचोंके साथ
युद्धारम्भ
अजुन उवाच
ततोऊहं स्तूयमानस्तु तत्र तत्र महर्षिभि: ।
अपश्यमुदर्धि भीममपां पतिमथाव्ययम् ।। १ ।।
फेनवत्य: प्रकीर्णाश्व संहताश्न समुत्थिता: ।
ऊर्मयश्नात्र दृश्यन्ते वल्गन्त इव पर्वता: । २ ।।
अर्जुन बोले--राजन्! तदनन्तर मार्गमें जहाँ-तहाँ महर्षियोंके मुखसे अपनी स्तुति
सुनते हुए मैंने जलके स्वामी समुद्रके पास पहुँचकर उसका निरीक्षण किया। वह देखनेमें
अत्यन्त भयंकर था। उसका पानी कभी घटता-बढ़ता नहीं है। उसमें फेनसे मिली हुई
पहाड़ोंके समान ऊँची-ऊँची लहरें उठकर नृत्य करती-सी दिखायी दे रही थीं। वे कभी
इधर-उधर फैल जाती और कभी आपसमें टकरा जाती थीं ।। १-२ ।।
नाव: सहस््रशस्तत्र रत्नपूर्णा: समन्ततः ।
नभसीव विमानानि विचरन्त्यो विरेजिरे ।
तिमिड्लिला: कच्छपाक्ष तथा तिमितिमिड्लिला: ।। ३ ।।
मकराश्नात्र दृश्यन्ते जले मग्ना इवाद्रय: ।
शड्खानां च सहस््राणि मग्नान्यप्सु समन््तत: ।। ४ ।।
वहाँ सब ओर रत्नोंसे भरी हुई हजारों नावें चल रही थीं, जो आकाशगमें विचरते हुए
विमानोंकी-सी शोभा पाती थीं तथा तिमिंगिलः, तिमितिमिंगिलठे, कछुए और मगर पानीमें
डूबे हुए पर्वतोंके समान दृष्टिगोचर होते थे। सहस्नों शंख सब ओर जलमें निमग्न
थे ।। ३-४ ।।
दृश्यन्ते सम यथा रात्रौ तारास्तन्वभ्रसंवृता: ।
तथा सहस्रशस्तत्र रत्नसड्घा: प्लवन्त्युत ।। ५ ।।
जैसे रातमें झीने बादलोंके आवरणसे सहस्रों तारे चमकते दिखायी देते हैं, उसी प्रकार
समुद्रके जलमें स्थित हजारों रत्नसमूह तैरते हुए-से प्रतीत हो रहे थे |। ५ ।।
वायुश्व घूर्णते भीमस्तदद्भुतमिवाभवत् |
तमुदीक्ष्य महावेगं सर्वाम्भोनिधिमुत्तमम् ।। ६ ।।
अपश्यं दानवाकीर्ण तद् दैत्यपुरमन्तिकात् ।
तत्रैव मातलिस्तूर्ण निपत्य पृथिवीतले ।। ७ ।।
रथं तं तु समाश्शलिष्यः प्राद्रवद् रथयोगवित् |
त्रासयन् रथघोषेण तत् पुरं समुपाद्रवत् ।। ८ ।।
औरोंकी तो बात ही क्या है, वहाँ भयानक वायु भी पथ-भ्रान्तकी भाँति भटकने लगती
है। वायुका वह चक्कर काटना अद्धुत-सा प्रतीत हो रहा था। इस प्रकार अत्यन्त वेगशाली
जलराशि महासागरको देखकर उसके पास ही मैंने दानवोंसे भरा हुआ वह दैत्यनगर भी
देखा। रथ-संचालनमें कुशल सारथि मातलि तुरंत वहाँ पहुँचकर पातालमें उतरे तथा रथपर
सावधानीसे बैठकर आगे बढ़े। उन्होंने रथकी घर्घराहटसे सबको भयभीत करते हुए उस
दैत्यपुरकी ओर धावा किया ।। ६-८ ।।
रथघोष॑ तु त॑ श्रुत्वा स्तनयित्नोरिवाम्बरे |
मन्वाना देवराजं मामाविग्ना दानवाभवन् ॥। ९ ।।
आकाशमें होनेवाली मेघ-गर्जनाके समान उस रथका शब्द सुनकर दानवलोग मुझे
देवराज इन्द्र समझकर भयसे अत्यन्त व्याकुल हो उठे ॥। ९ ।।
सर्वे सम्भ्रान्तमनस: शरचापधरा: स्थिता: ।
तथासिशूलपरशुगदामुसलपाणय: ।। १० ।।
सभी मन-ही-मन घबरा गये। सभी अपने हाथोंमें धनुष-बाण, तलवार, शूल, फरसा,
गदा और मुसल आदि अस्त्र-शस्त्र लेकर खड़े हो गये ।। १० ।।
ततो द्वाराणि पिदधुर्दानवास्त्रस्तचेतस: ।
संविधाय पुरे रक्षां न सम कश्नन दृश्यते ।। ११ ।।
दानवोंके मनमें आतंक छा गया था। इसलिये उन्होंने नगरकी रक्षाका प्रबन्ध करके
सारे दरवाजे बंद कर लिये। नगरके बाहर कोई भी दिखायी नहीं देता था ।। ११ ।।
तत: शड्खमुपादाय देवदत्तं महास्वनम् |
परमां मुदमाश्रित्य प्राधमं तं शनैरहम् ।। १२ ।।
तब मैंने बड़ी भयंकर ध्वनि करनेवाले देवदत्त नामक शंखको हाथमें लेकर अत्यन्त
प्रसन्न हो धीरे-धीरे उसे बजाया ।। १२ ।।
स तु शब्दो दिवं स्तब्ध्वा प्रतिशब्दमजीजनत् |
वित्रेसुश्न निलिल्युश्व भूतानि सुमहान्त्यपि ।। १३ ।।
वह शंखनाद स्वर्गलोकसे टकराकर प्रतिध्वनि उत्पन्न करने लगा। उसकी आवाज
सुनकर बड़े-बड़े प्राणी भी भयभीत हो इधर-उधर छिप गये ।। १३ ।।
ततो निवातकवचा: सर्व एव स्वलंकृता: ।
दंशिता विविधैस्त्राणैविचित्रायुधपाणय: ।। १४ ।।
आयसैश्व महाशूलैर्गदाभिमुसलैरपि ।
पट्टिशै: करवालैश्व रथचक्रैश्न भारत ।। १५ ।।
शतघ्नीभिर्भुशुण्डीमि: खड्गैश्षित्रै: स्वलंकृतै: ।
प्रगृहीतैर्दिते: पुत्रा: प्रादुरासन् सहस्रशः: ।। १६ ।।
भारत! तदनन्तर निवातकवचनामक सभी दैत्य आभूषणोंसे विभूषित हो भाँति-
भाँतिके कवच धारण किये, हाथोंमें विचित्र आयुध लिये, लोहेके बने हुए बड़े-बड़े शूल,
गदा, मुसल, पट्टिश, करवाल, रथ-चक्र, शतघ्नी (तोप), भुशुण्डि (बंदूक) तथा रत्नजटित
विचित्र खड़ग आदि लेकर सहस्रोंकी संख्यामें नगरसे बाहर आये ।। १४--१६ ।।
ततो विचार्य बहुशो रथमार्गेषु तान् हयान् ।
प्राचोदयत् समे देशो मातलिभर्भरतर्षभ ।। १७ ।।
तेन तेषां प्रणुन्नानामाशुत्वाच्छीघ्रगामिनाम् ।
नान्वपश्यं तदा किंचित् तन्मे5द्भुतमिवा भवत् ।। १८ ।।
भरतश्रेष्ठ] उस समय मातलिने बहुत सोच-विचारकर समतल प्रदेशमें रथ जानेयोग्य
मार्गोपर अपने उन घोड़ोंको हाँका। उसके हाँकनेपर उन शीघ्रगामी अश्वोंकी चाल इतनी
तेज हो गयी कि मुझे उस समय कुछ भी दिखायी नहीं देता था। यह एक अद्भुत बात थी ।।
ततस्ते दानवास्तत्र वादित्राणि सहस्रश: |
विकृतस्वररूपाणि भृशं सर्वाण्यनादयन् ।। १९ ।।
तदनन्तर उन दानवोंने वहाँ भीषण स्वर और विकराल आकृतिवाले विभिन्न प्रकारके
सहस्रों बाजे जोर-जोरसे बजाने आरम्भ किये ।। १९ ।।
तेन शब्देन सहसा समुद्रे पर्वतोपमा: ।
आप्लवन्त गतै: सच्त्वैर्मत्स्या:शतसहस्रश: || २० |।
वाद्योंकी उस तुमुल-ध्वनिसे सहसा समुद्रके लाखों बड़े-बड़े पर्वताकार मत्स्य मर गये
और उनकी लाशें पानीके ऊपर तैरने लगीं || २० ।।
ततो वेगेन महता दानवा मामुपाद्रवन् ।
विमुज्चन्त: शितान् बाणान् शतशो5थ सहस्रश: ।। २१ ।।
तत्पश्चात् उन सब दानवोंने सैकड़ों और हजारों तीखे बाणोंकी वर्षा करते हुए बड़े
वेगसे मुझपर आक्रमण किया ।। २१ ।।
स सम्प्रहारस्तुमुलस्तेषां च मम भारत |
अवर्तत महाघोरो निवातकवचान्तक:ः ।। २२ ।।
भारत! तब उन दानवोंका और मेरा महाभयंकर तुमुल संग्राम आरम्भ हो गया, जो
निवातकवचोंके लिये विनाशकारी सिद्ध हुआ || २२ ।।
ततो देवर्षयश्नैव तथान्ये च महर्षय: ।
ब्रद्मर्षयश्न सिद्धाश्न समाजम्मुर्महामृथे || २३ ।।
ते वै मामनुरूपाभिर्मधुराभिर्जयैषिण: ।
अस्तुवन् मुनयो वाम्भियथ्थेन्द्रे तारकामये ।। २४ ।।
उस समय बहुत-से देवर्षि तथा अन्य महर्षि एवं ब्रह्मर्षि और सिद्धगण उस महायुद्धमें
(देखनेके लिये) आये। वे सब-के-सब मेरी विजय चाहते थे। अतः उन्होंने जैसे तारकामय
संग्रामके अवसरपर इन्द्रकी स्तुति की थी, उसी प्रकार अनुकूल एवं मधुर वचनोंद्वारा मेरा
भी स्तवन किया ।। २३-२४ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि निवातकवचयुद्धपर्वणि युद्धारम्भे
एकोनसप्तत्यधिकशततमो< ध्याय: ।। १६९ ||
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत वनपर्वके अन्तर्गत निवातकवचयुद्धपर्वमें युद्धारम्भविषयक एक
सौ उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६९ ॥
हि मय - न () असम अप
१. एक विशेष प्रकारके मत्स्यका नाम 'तिमि” है, जो उसे निगल जाता है, उस महामत्स्यको 'तिमिंगिल” कहते हैं।
२. जो तिमिंगलको भी निगल जाता है, उस महामहामत्स्यका नाम 'तिमितिमिंगिल' है।
३. नीलकण्ठी टीकामें लिखा है कि पृथ्वीमें उतरकर निम्नस्थलमें गये हुए रथके चक्केको दृढ़तापूर्वक पकड़कर ऊँचा
किया।
सप्तत्याधेकशततमो< ध्याय:
अर्जुन और निवातकवचोंका युद्ध
अजुन उवाच
ततो निवातकवचा: सर्वे वेगेन भारत ।
अभ्यद्रवन् मां सहिता: प्रगृहीतायुधा रणे ।। १ ।।
अर्जुन बोले--भारत! तदनन्तर सारे निवातकवच संगठित हो हाथोंमें अस्त्र-शस्त्र
लिये युद्धभूमिमें वेगपूर्वक मेरे ऊपर टूट पड़े ।। १ ।।
आच्छाद्य रथपन्थानमुत्क्रोशन्तो महारथा: ।
आवृत्य सर्वतस्ते मां शरवर्षरवाकिरन् ।। २ ।।
ततो<परे महावीर्या: शूलपट्टिशपाणय: ।
शूलानि च भुशुण्डीश्व मुमुचुर्दानवा मयि ।। ३ ।।
उन महारथी दानवोंने मेरे रथका मार्ग रोककर भीषण गर्जना करते हुए मुझे सब ओरसे
घेर लिया और मुझपर बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी। फिर कुछ अन्य महापराक्रमी दानव
शूल और पट्टिश आदि हाथोंमें लिये मेरे सामने आये और मुझपर शूल तथा भुशुण्डियोंका
प्रहार करने लगे || २-३ ।।
तच्छूलवर्ष सुमहद् गदाशक्तिसमाकुलम् |
अनिशं सृज्यमानं तैरपतन्मद्रथोपरि ।। ४ ।।
अन्ये मामभ्यधावन्त निवातकवचा युधि ।
शितशस्त्रायुधा रौद्रा: कालरूपा: प्रहारिण: ।। ५ ।।
दानवोंद्वारा की गयी वह शूलोंकी बड़ी भारी वर्षा निरन्तर मेरे रथपर होने लगी। उसके
साथ ही गदा और शक्तियोंका भी प्रहार हो रहा था। कुछ दूसरे निवातकवच हाथोंमें तीखे
अस्त्र-शस्त्र लिये उस युद्धके मैदानमें मेरी और दौड़े। वे प्रहार करनेमें कुशल थे। उनकी
आकृति बड़ी भयंकर थी और देखनेमें वे कालरूप जान पड़ते थे ।। ४-५ ।।
तानहं विविधैर्बाणैवेंगवद्धिरजिदह्ागै: ।
गाण्डीवमुक्तैरभ्यघ्नमेकैकं दशभिम्मथे ॥। ६ ।।
तब मैंने उनमेंसे एक-एकको युद्धमें गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए सीधे जानेवाले विविध
प्रकारके दस-दस वेगवान् वाणोंद्वारा बींध डाला ।। ६ ।।
ते कृता विमुखा: सर्वे मत्प्रयुक्त: शिलाशितै: ।
ततो मातलिना तूर्ण हयास्ते सम्प्रचोदिता: ।। ७ ।।
मेरे छोड़े हुए बाण पत्थरपर तेज किये हुए थे। उनकी मार खाकर सभी दानव
युद्धभूमिसे भाग चले। तब मातलि उस रथके घोड़ोंको तुरंत ही तीव्र वेगसे हाँका || ७ ।।
मार्गान् बहुविधांस्तत्र विचेरुर्वातरंहस: ।
सुसंयता मातलिना प्रामथ्नन्त दिते: सुतान् ।। ८ ।।
सारथिसे प्रेरित होकर वे अश्व नाना प्रकारकी चालें दिखाते हुए वायुके समान वेगसे
चलने लगे। मातलिने उन्हें अच्छी तरह काबूमें कर रखा था। उन सबने वहाँ दितिके पुत्रोंको
रौंद डाला ।। ८ ।।
शतं शतास्ते हरयस्तस्मिन् युक्ता महारथे ।
शान्ता मातलिना यत्ता व्यचरन्नल्पका इव ।। ९ ||
अर्जुनके उस विशाल रथमें दस हजार घोड़े जुते हुए थे, तो भी मातलिने उन्हें इस
प्रकार वशमें कर रखा था कि वे अल्पसंख्यक अश्वोंकी भाँति शान्तभावसे विचरते
थे।।९।।
तेषां चरणपातेन रथनेमिस्वनेन च ।
मम बाणनिपातैश्न हतास्ते शतशो5सुरा: ।। १० ।।
उन घोड़ोंके पैरोंकी मार पड़नेसे, रथके पहियेकी घर्घराहट होनेसे तथा मेरे बाणोंकी
चोट खानेसे सैकड़ों दैत्य मर गये || १० ।।
गतासवस्तथैवान्ये प्रगृहीतशरासना: ।
हतसारथयस्तत्र व्यकृष्यन्त तुरंगमै: ।। ११ ।।
इसी प्रकार वहाँ दूसरे बहुत-से असुर हाथमें धनुष-बाण लिये प्राणरहित हो गये थे और
उनके सारथि भी मारे गये थे, उस दशामें सारथिशून्य घोड़े उनके निर्जीव शरीरको खींचे
लिये जाते थे ।। ११ ।।
ते दिशो विदिश: सर्वे प्रतिरुध्य प्रहारिण: ।
अभ्यघ्नन् विविधै: शस्त्रैस्ततो मे व्यथितं मन: ।। १२ ।।
तब वे समस्त दानव सारी दिशाओं और विदिशाओंको रोककर भाँति-भाँतिके अस्त्र-
शास्त्रोंद्वारा मुझपर घातक प्रहार करने लगे। इससे मेरे मनमें बड़ी व्यथा हुई ।। १२ ।।
ततोऊ<हं मातलेवीर्यमपश्यं परमाद्भुतम् ।
अश्वांस्तथा वेगवतो यदयत्नादधारयत् ।। १३ ।।
उस समय मैंने मातलिकी अत्यन्त अद्भुत शक्ति देखी। उन्होंने वैसे वेगशाली अश्वोंको
बिना किसी प्रयासके ही काबूमें कर लिया ।। १३ ।।
ततोऊहं लघुभिभ्रित्रैरस्त्रैस्तानसुरान् रणे |
चिच्छेद सायुधान् राजन् शतशो5थ सहस्रश: ।। १४ ।।
एवं मे चरतस्तत्र सर्वयत्नेन शत्रुहन् ।
प्रीतिमानभवद् वीरो मातलि: शक्रसारथि: ।। १५ ।।
राजन! तब मैंने उस रणभूमिने अस्त्र-शस्त्रधारी सैकड़ों तथा सहस्रों असुरोंको विचित्र
एवं शीघ्रगामी बाणोंद्वारा मार गिराया। शत्रुदमन नरेश! इस प्रकार पूर्ण प्रयत्नपूर्वक युद्धमें
विचरते हुए मेरे ऊपर इन्द्रसाराथि वीरवर मातलि बड़े प्रसन्न हुए || १४-१५ ।।
बध्यमानास्ततस्तैस्तु हयैस्तेन रथेन च ।
अगमन् प्रक्षयं केचिन्न्यवर्तन्त तथा परे || १६ ।।
मेरे उन घोड़ों तथा उस दिव्य रथसे कुचल जानेके कारण भी कितने ही दानव मारे गये
और बहुत-से युद्ध छोड़कर भाग गये ।। १६ ।।
स्पर्थमाना इवास्माभिनिवातकवचा रणे |
शरवर्ष: शरार्त मां महद्धि: प्रत्यवारयन् ।। १७ ।।
ततोऊहं लघुभिभ्षिन्रैब्रह्यास्त्रपरिमन्त्रितै: ।
व्यधमं सायकैराशु शशशो5थ सहस्रश: ।। १८ ।।
निवातकवचोंने संग्राममें हमलोगोंसे होड़-सी लगा रखी थी। मैं बाणोंके आघातसे
पीड़ित था, तो भी उन्होंने बड़ी भारी बाणवर्षा करके मेरी प्रगतिको रोकने-की चेष्टा की।
तब मैंने अद्भुत और शीघ्रगामी बाणोंको ब्रह्मास्त्रसे अभिमन्त्रित करके चलाया और उनके
द्वारा शीघ्र ही सैकड़ों तथा हजारों दानवोंका संहार करने लगा ।। १७-१८ ।।
तत:ः सम्पीड्यनास्ते क्रोधाविष्टा महारथा: ।
अपीडयन् मां सहिता: शरशूलासिवृष्टिभि: ।। १९ ।।
तदनन्तर मेरे बाणोंसे पीड़ित होकर वे महारथी दैत्य क्रोधसे आग-बबूला हो उठे और
एक साथ संगठित हो खड्ग, शूल तथा बाणोंकी वर्षद्वारा मुझे घायल करने लगे ।। १९ ।।
ततो5हमस्त्रमातिष्ठं परमं तिग्मतैजसम् |
दयितं देवराजस्य माधवं नाम भारत ॥। २० |।
भारत! यह देख मैंने देवराज इन्द्रके परम प्रिय माधव नामक प्रचण्ड तेजस्वी अस्त्रका
आश्रय लिया ।। २० ।।
ततः खड्गांस्त्रिशूलांश्व॒ तोमरांश्व सहस्रश: ।
अस्त्रवीर्येण शतधा तैर्मुक्तानहमच्छिदम् ।। २१ ।।
तब उस अस्त्रके प्रभावसे मैंने दैत्योंके चलाये हुए सहस्रों खड़्ग, त्रिशूल और तोमरोंके
सौ-सौ टुकड़े कर डाले || २१ ।।
छित्त्वा प्रहरणान्येषां ततस्तानपि सर्वश: ।
प्रत्यविध्यमहं रोषाद् दशभिर्दशभि: शरै: || २२ ।।
तत्पश्चात् दानवोंके समस्त अस्त्र-शस्त्रोंका उच्छेद करके मैंने रोषवश उन सबको भी
दस-दस बाणोंसे घायल करके बदला चुकाया ।। २२ ।।
गाण्डीवाद्धि तदा संख्ये यथा भ्रमरपद्धक्तय: ।
निष्पतन्ति महाबाणास्तन्मातलिरपूजयत् ।। २३ ।।
उस समय मेरे गाण्डीव धनुषसे बड़े-बड़े बाण उस युद्ध-भूमिमें इस प्रकार छूटते थे,
मानो वृक्षसे झुंड-के-झुंड भौंरे उड़ रहे हों। मातलिने मेरे इस कार्यकी बड़ी प्रशंसा
की ।। २३ ।।
तेषामपि तु बाणास्ते तन्मातलिरपूजयत् ।
अवाकिरन् मां बलवत् तानहं व्यधमं शरै: ।। २४ ।।
तदनन्तर उन दानवोंके भी बाण मेरे ऊपर जोर-जोरसे गिरने लगे। मातलिने उनकी उस
बाण-वर्षाकी भी सराहना की। फिर मैंने अपने बाणोंद्वारा शत्रुओंके उन सब बाणोंको छिन्न-
भिन्न कर डाला | २४ ।।
वध्यमानास्ततस्ते तु निवातकवचा: पुन: ।
शरवर्षर्महद्धिर्मा समन्तात् पर्यवारयन् ।। २५ ।।
इस प्रकार मार खाते और मरते रहनेपर भी निवातकवचोंने पुनः भारी बाण-वर्षकि
द्वारा मुझे सब ओरसे घेर लिया ।। २५ ।।
शरवेगान्निहत्याहमस्त्रैरस्त्रविघातिभि: ।
ज्वलडद्धि: परमै: शीघ्रैस्तानविध्यं सहस्रश: ।। २६ ।।
तब मैंने अस्त्र-विनाशक अस्त्रोंद्वारा उनकी बाणवर्षाके वेगको शान्त करके अत्यन्त
शीघ्रगामी एवं प्रज्वलित बाणोंद्वारा सहस्रों दैत्योंकोी घायल कर दिया ।। २६ ।।
तेषां छिन्नानि गात्राणि विसृजन्ति सम शोणितम् |
प्रावषीवाभिवृष्टानि शुज्भाण्यथ धराभूताम् ।। २७ ।।
उनके कटे हुए अंग उसी प्रकार रक्तकी धारा बहाते थे, जैसे वर्षा-ऋतुमें वृष्टिके जलसे
भीगे हुए पर्वतोंके शिखर (गेरू आदि धातुओंसे मिश्रित) जलकी धारा बहाते हैं || २७ ।।
इन्द्राशनिसमस्पर्शवेंगवद्धिरजिद्ागै: ।
मद्बाणैर्वध्यमानास्ते समुद्धिग्ना: सम दानवा: ।। २८ ।।
मेरे बाणोंका स्पर्श इन्द्रके वज़के समान था। वे बड़े वेगसे छूटते और सीधे जाकर
शत्रुको अपना निशाना बनाते थे। उनकी चोट खाकर वे समस्त दानव भयसे व्याकुल हो
उठे ।। २८ ।।
शतधा भिन्नदेहास्ते क्षीणप्रहरणौजस: ।
ततो निवातकवचा मामयुध्यन्त मायया ॥। २९ ||
उन दैत्योंके शरीरके सौ-सौ टुकड़े हो गये थे। उनके अस्त्र-शस्त्र कट गये और उत्साह
नष्ट हो गया था। ऐसी अवस्थामें निवातकवचोंने मेरे साथ माया-युद्ध आरम्भ कर
दिया ।। २९ ||
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि निवातकवचयुद्धपर्वणि सप्तत्यधिकशततमो<ध्याय: ।।
२७० |।
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत वनपर्वके अन्तर्गत निवातकवचयुद्धपर्वमें एक सौ सत्तरवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥। १७० ॥।
अपना स२ (0 अवज असल
एकसप्तत्याधिकशततमो< ध्याय:
दानवोंके मायामय युद्धका वर्णन
अजुन उवाच
ततो<श्मवर्ष सुमहत् प्रादुरासीत् समन्ततः ।
नगमात्रै: शिलाखण्डैस्तन्मां दृढ्मपीडयत् ।। १ ।।
अर्जुन बोले--महाराज! तदनन्तर चारों ओरसे पत्थरोंकी बड़ी भारी वर्षा आरम्भ हो
गयी। वृक्षोंक बराबर ऊँचे शिलाखण्ड रणभूमिमें गिरने लगे, इससे मुझे बड़ी पीड़ा
हुई ।। १ ।।
तदहं वज्ञसंकाशैमे॑हिन्द्रास्त्रप्रचोदितै: ।
अचूर्णयं वेगवद्धि: शरजालैर्महाहवे ।। २ ।।
तब मैंने महेन्द्रासत्रसे अभिमन्त्रित वज्रतुल्य वेगवान् बाणोंद्वारा उस महासमरमें
गिरनेवाले समस्त शिला-खण्डोंको चूर-चूर कर दिया ।। २ ।।
चूर्ण्यमाने5श्मवर्षे तु पावक: समजायत ।
तत्राश्मचूर्णान्यपतन् पावकप्रकरा इव ।। ३ ।।
पत्थरोंकी वर्षके चूर्ण होते ही सब ओर आग प्रकट हो गयी। फिर तो वहाँ आगकी
चिनगारियोंके समूहकी भाँति पत्थरका चूर्ण पड़ने लगा ।। ३ ।।
ततो<श्मवर्षे विहते जलवर्ष महत्तरम् ।
धाराभिरक्षमात्राभि: प्रादुरासीन््ममान्तिके ।। ४ ।।
तदनन्तर मेरे बाणोंसे वह पत्थरोंकी वर्षा शान्त होनेपर महत्तर जल-वृष्टि आरम्भ हो
गयी। मेरे पासही सर्पोके- समान मोटी जलधाराएँ गिरने लगीं | ४ ।।
नभस: प्रच्युता धारास्तिग्मवीर्या: सहस्रश: |
आवृण्वन् सर्वतो व्योम दिशश्वोपदिशस्तथा ।। ५ ।।
आकाशसे प्रचण्ड शक्तिशालिनी सहस्रों धाराएँ बरसने लगीं, जिन्होंने न केवल
आकाशको ही, अपितु सम्पूर्ण दिशाओं और उपदिशाओंको भी सब ओरसे ढक
लिया ।। ५ ।।
धाराणां च निपातेन वायोर्विस्फूर्जितेन च ।
गर्जितिन च दैत्यानां न प्राज्ञायत किंचन ।। ६ ।।
धाराओंकी वर्षा, हवाके झकोरों और दैत्योंकी गर्जनासे कुछ भी जान नहीं पड़ता
था।। ६ ।।
धारा दिवि च सम्बद्धा वसुधायां च सर्वश: ।
व्यामोहयन्त मां तत्र निपतन्त्योडनिशं भुवि ।। ७ ।।
स्वर्गसे लेकर पृथ्वीतक एक सूत्रमें आबद्ध-सी होकर पृथ्वीपर सब ओर जलकी धाराएँ
लगातार गिर रही थीं, जिन्होंने वहाँ मुझे मोहमें डाल दिया था ।। ७ ।।
तत्रोपदिष्टमिन्द्रेण दिव्यमस्त्र विशोषणम् ।
दीप्तं॑ प्राहिणवं घोरमशुष्यत् तेन तज्जलम् ।। ८ ।।
तब मैंने वहाँ देवराज इन्द्रके द्वारा प्राप्त हुए दिव्य विशोषणास्त्रका प्रयोग किया, जो
अत्यन्त तेजस्वी और भयंकर था। उससे वर्षाका वह सारा जल सूख गया ।। ८ ।।
हते5श्मवर्षे च मया जलवर्षे च शोषिते ।
मुमुचुर्दानवा मायामग्निं वायुं च भारत ।। ९ ।।
भारत! जब मैंने पत्थरोंकी वर्षा शान्न्त कर दी और पानीकी वर्षाको भी सोख लिया,
तब दानवलोग मुझपर मायामय अग्नि और वायुका प्रयोग करने लगे ।। ९ ।।
ततो5हमग्निं व्यधमं सलिलास्त्रेण सर्वश: ।
शैलेन च महास्त्रेण वायोरवेगमधारयम् ॥। १० ।।
फिर तो मैंने वारुणास्त्रसे वह सारी आग बुझा दी और महान् शैलास्त्रका प्रयोग करके
मायामय वायुका वेग कुण्ठित कर दिया ।। १० ।।
तस्यां प्रतिहतायां ते दानवा युद्धदुर्मदा: ।
प्राकुर्वन् विविधां मायां यौगपद्येन भारत ।। ११ ।।
भारत! उस मायाका निवारण हो जानेपर वे रणोन्मत्त दानव एक ही समय अनेक
प्रकारकी मायाका प्रयोग करने लगे ।। ११ ।।
ततो वर्ष प्रादुरभूत् सुमहल्लोमहर्षणम् ।
अस्त्राणां घोररूपाणामन्नेर्वायोस्तथाश्मनाम् ।। १२ ।।
फिर तो भयानक अस्त्रोंकी तथा अग्नि, वायु और पत्थरोंकी बड़ी भारी वर्षा होने लगी
जो रोंगटे खड़े कर देनेवाली थी ।। १२ ।।
सा तु मायामयी वृष्टि: पीडयामास मां युधि ।
अथ घोर तमस्तीव्रं प्रादुरासीत् समन््ततः ।। १३ ।।
उस मायामयी वष्नि युद्धमें मुझे बड़ी पीड़ा दी। तदनन्तर चारों ओर महाभयानक
अन्धकार छा गया ।। १३ ।।
तमसा संवृते लोके घोरेण परुषेण च ।
हरयो विमुखाश्चासन् प्रास्खलच्चापि मातलि: ।। १४ ।।
घोर एवं दुःसह तिमिरराशिसे सम्पूर्ण लोकोंके आच्छादित हो जानेपर मेरे रथके घोड़े
युद्धसे विमुख हो गये और मातलि भी लड़खड़ाने लगे ।। १४ ।।
हस्ताद्धि रश्मयश्चास्य प्रतोद: प्रापतद् भुवि ।
असकृच्चाह मां भीत: क्यासीति भरतर्षभ ।। १५ ।।
उनके हाथसे घोड़ोंके लगाम और चाबुक पृथ्वीपर गिर पड़े और वे भयभीत होकर
बार-बार मुझसे पूछने लगे--“भरतश्रेष्ठ अर्जुन! तुम कहाँ हो?” ।। १५ ।।
मां च भीराविशत् तीव्रा तस्मिन् विगतचेतसि ।
सच मां विगतज्ञान: संत्रस्तमिदमब्रवीत् ।। १६ ।।
मातलिके बेसुध होनेपर मेरे मनमें भी अत्यन्त भय समा गया। तब सुध-बुध खोये हुए
मातलिने मुझ भयभीत योद्धासे इस प्रकार कहा-- ।। १६ ।।
सुराणामसुराणां च संग्राम: सुमहानभूत् ।
अमृतार्थ पुरा पार्थ स च दृष्टो मयानघ ।। १७ ।।
“निष्पाप कुन्तीकुमार! प्राचीन कालमें अमृतकी प्राप्तिके लिये देवताओं और दैत्योंमें
अत्यन्त घोर संग्राम हुआ था, जिसे मैंने अपनी आँखों देखा है || १७ ।।
शम्बरस्य वधे घोर: संग्राम: सुमहानभूत् ।
सारथ्यं देवराजस्य तत्रापि कृतवानहम् ।। १८ ।।
“शम्बरासुरके वधके समय भी अत्यन्त भयानक युद्ध हुआ था। उसमें भी मैंने देवराज
इन्द्रके सारथिका कार्य सँभाला था || १८ ।।
तथैव वृत्रस्य वधे संगृहीता हया मया ।
वैरोचनेमहायुद्धं दृष्ट चापि सुदारुणम् ।। १९ ।।
“इसी प्रकार वृत्रासुरके वधके समय भी मैंने ही घोड़ोंकी बागडोर हाथमें ली थी।
विरोचनकुमार बलिका अत्यन्त भयंकर महासंग्राम भी मेरा देखा हुआ है ।। १९ ।।
एते मया महाघोरा: संग्रामा: पर्युपासिता: ।
न चापि विगततज्ञानो<भूतपूर्वो5स्मि पाण्डव || २० ।।
'ये बड़े-बड़े भयानक युद्ध मैंने देखे हैं, उनमें भाग लिया है, परंतु पाण्डुनन्दन! आजसे
पहले कभी भी मैं इस प्रकार अचेत नहीं हुआ था ।। २० ।।
पितामहेन संहार: प्रजानां विहितो ध्रुवम् ।
न हि युद्धमिदं युक्तमन्यत्र जगत: क्षयात् ।। २१ ।।
“जान पड़ता है, विधाताने आज समस्त प्रजाका संहार निश्चित किया है, अवश्य ऐसी
ही बात है। जगत्के संहारके अतिरिक्त अन्य समयमें ऐसे भयानक युद्धका होना सम्भव
नहीं है” ।। २१ ।।
तस्य तद् वचन श्रुत्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना |
मोहयिष्यन् दानवानामहं मायाबलं महत् ।। २२ ।।
अब्र॒ुवं मातलिं भीत॑ं पश्य मे भुजयोर्बलम् |
अस्त्राणां च प्रभावं वै धनुषो गाण्डिवस्थ च ।। २३ ।।
अद्यास्त्रमाययैतेषां मायामेतां सुदारुणाम् ।
विनिहन्मि तमश्नोग्रं मा भै: सूत स्थिरो भव ।। २४ ।।
मातलिका यह वचन सुनकर मैंने स्वयं ही अपने-आपको सँभाला और दानवोंके उस
महान् मायाबलका निवारण करते हुए भयभीत मातलिसे कहा--'सूत! आप डरें मत।
स्थिरतापूर्वक रथपर बैठे रहें और देखें, मेरी इन भुजाओंमें कितना बल है? मेरे गाण्डीव
धनुष तथा अस्त्रोंका कैसा प्रभाव है? आज मैं अपने अस्त्रोंकी मायासे इन दानवोंकी इस
भयंकर माया तथा घोर अन्धकारका विनाश किये देता हूँ | २२--२४ ।।
एवमुक्त्वाहमसृजमस्त्रमायां नराधिप ।
मोहनीं सर्वभूतानां हिताय त्रिदिवौकसाम् ।। २५ ।।
नरेश्वर! ऐसा कहकर मैंने देवताओंके हितके लिये अस्त्रसम्बन्धिनी मायाकी सृष्टि की,
जो समस्त प्राणियोंको मोहमें डालनेवाली थी ।। २५ ।।
पीड्यमानासु मायासु तासु तास्वसुरोत्तमा: ।
पुनर्बहुविधा माया: प्राकुर्वन्नमितौजस: ।। २६ ।।
उससे असुरोंकी वे सारी मायाएँ नष्ट हो गयीं। तब उन अमित तेजस्वी दानवराजाओंने
पुनः नाना प्रकारकी मायाएँ प्रकट की ।। २६ ।।
पुन: प्रकाशम भवत् तमसा ग्रस्यते पुन: ।
भवत्यदर्शनो लोक: पुनरप्सु निमज्जति ।। २७ ।।
इससे कभी तो प्रकाश छा जाता था और कभी सब कुछ अन्धकारमें विलीन हो जाता
था। कभी सम्पूर्ण जगत् अदृश्य हो जाता और कभी जलमें डूब जाता था || २७ ।।
सुसंगृहीतैहरिभि: प्रकाशे सति मातलि: ।
व्यचरत् स्वन्दनाग्रयेण संग्रामे लोमहर्षणो ।। २८ ।।
तदनन्तर प्रकाश होनेपर मातलिने घोड़ोंको काबूमें करके अपने श्रेष्ठ रथके द्वारा उस
रोमांचकारी संग्राममें विचरना प्रारम्भ किया || २८ ।।
ततः पर्यपतन्नुग्रा निवातकवचा मयि ।
तानहं विवरं दृष्टवा प्राहिण्यं यमसादनम् ।। २९ |।
तब भयानक निवातकवच चारों ओरसे मेरे ऊपर टूट पड़े। उस समय मैंने अवसर देख-
देखकर उन सबको यमलोक भेज दिया ।। २९ |।
वर्तमाने तथा युद्धे निवातकवचान्तके ।
नापश्यं सहसा सर्वान् दानवान् मायया5डवृतान् ॥। ३० |।
वह युद्ध निवातकवचोंके लिये विनाशकारी था। अभी युद्ध हो ही रहा था कि सहसा
सारे दानव अन्तर्धानी मायासे छिप गये। अतः मैं किसीको भी देख न सका ।। ३० ||
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि निवातकवचयुद्धपर्वणि मायायुद्धे
एकसप्तत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १७१ ||
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत निवातकवचयुद्धपर्वमें मायायुद्धविषयक एक
सौ इकद्ठत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १७१ ॥।
हि मो [हुक मपआ आप्८्
- कोसोंमें 'अक्ष' शब्दका अर्थ 'सर्प' भी मिलता है।
द्विसप्तत्याधिकशततमो< ध्याय:
निवातकवचोंका संहार
अजुन उवाच
अदृश्यमानास्ते दैत्या योधयन्ति सम मायया ।
अदृश्येनास्त्रवीर्येण तानप्यहमयोधयम् ।॥। १ ।।
अर्जुन बोले--राजन्! इस प्रकार अदृश्य रहकर ही वे दैत्य मायाद्वारा युद्ध करने लगे
तथा मैं भी अपने अस्त्रोंकी अदृश्य शक्तिके द्वारा ही उनका सामना करने लगा ।। १ ।।
गाण्डीवमुक्ता विशिखा: सम्यगस्त्रप्रचोदिता: ।
अच्चछिन्दनुत्तमाड़नि यत्र यत्र सम ते3भवन् ।। २ ॥।
मेरे गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए बाण विधिवत प्रयुक्त दिव्यास्त्रोंसे प्रेरित हो जहाँ-जहाँ वे
दैत्य थे, वहीं जाकर उनके सिर काटने लगे ।। २ ।।
ततो निवातकवचा वध्यमाना मया युधि ।
संहृत्य मायां सहसा प्राविशन् पुरमात्मन: ।॥। ३ ||
जब मैं इस प्रकार युद्धक्षेत्रमें उनका संहार करने लगा, तब वे निवातकवच दानव
अपनी मायाको समेटकर सहसा नगरमें घुस गये ।। ३ ।।
व्यपयातेषु दैत्येषु प्रादुर्भूते च दर्शने ।
अपश्यं दानवांस्तत्र हतान् शतसहसत्रश: || ४ ।।
दैत्योंक भाग जानेसे जब वहाँ सब कुछ स्पष्ट दिखायी देने लगा, तब मैंने देखा, लाखों
दानव वहाँ मरे पड़े थे | ४ ।।
विनिष्पिष्टानि तत्रैषां शस्त्राण्याभरणानि च ।
शतश: सम प्रदृश्यन्ते गात्राणि कवचानि च ।। ५ ।।
हयानां नान्तरं हवासीत् पदाद् विचलितुं पदम् ।
उत्पत्य सहसा तस्थुरन्तरिक्षगमास्तत: ।। ६ ।।
उनके अस्त्र-शस्त्र और आभूषण भी पिसकर चूर्ण हो गये थे। दानवोंके शरीरों और
कवचोंके सौ-सौ टुकड़े दिखायी देते थे। वहाँ दैत्योंकी इतनी लाशें पड़ी थी कि घोड़ोंके लिये
एकके बाद दूसरा पैर रखनेके लिये कोई स्थान नहीं रह गया था। अतः वे अन्तरिक्षचारी
अश्व वहाँसे सहसा उछलकर आकाशकमें खड़े हो गये ।। ५-६ ।।
ततो निवातकवचा व्योम संछाद्य केवलम् ।
अदृश्या ह्ृत्यवर्तन्त विसृजन्त: शिलोच्चयान् ।। ७ ।।
तदनन्तर निवातकवचोंने अदृश्यरूपसे ही आक्रमण किया और केवल आकाशको
आच्छादित करके पत्थरोंकी वर्षा आरम्भ कर दी | ७ ।।
अन्तर्भूमिगताश्चान्ये हयानां चरणान्यथ ।
व्यगृह्लनन् दानवा घोरा रथचक्रे च भारत ।। ८ ।।
भरतनन्दन! कुछ भयंकर दानवोंने, जो पृथ्वीके भीतर घुसे हुए थे, मेरे घोड़ोंके पैर
तथा रथके पहिये पकड़ लिये ।। ८ ।।
विनिगृहा हरीनश्चान् रथं च मम युध्यत: ।
सर्वतो मामविध्यन्त सरथं धरणीधरै: ।। ९ ।।
इस प्रकार युद्ध करते समय मेरे हरे रंगके घोड़ों तथा रथको पकड़कर उन दानवोंने
रथसहित मेरे ऊपर सब ओरसे शिलाखण्डोंद्वारा प्रहार आरम्भ किया ।। ९ |।
पर्वतैरुपचीयद्धि: पतमानैस्तथापरै: |
स देशो यत्र वर्ताम गुहेव समपद्यत ।। १० ।।
नीचे पर्वतोंके ढेर लग रहे थे और ऊपरसे नयी-नयी चट्टानें पड़ रही थीं। इससे वह
प्रदेश जहाँ हमलोग मौजूद थे, एक गुफाके समान बन गया ।। १० ।।
पर्वतैश्छाद्यमानो*5हं निगृहीतैश्व वाजिभि: ।
अगच्छं परमामार्ति मातलिस्तदलक्षयत् ।। ११ ।।
एक ओर तो मैं शिलाखण्डोंसे आच्छादित हो रहा था, दूसरी ओर मेरे घोड़े पकड़ लिये
जानेसे रथकी गति कुण्ठित हो गयी थी। इस विवशताकी दशामें मुझे बड़ी पीड़ा होने लगी,
जिसे मातलिने जान लिया ।। ११ ।।
लक्षयित्वा च मां भीतमिदं वचनमत्रवीत् ।
अर्जुनार्जुन मा भैस्त्वं वज्रमस्त्रमुदीरय ।। १२ ।।
इस प्रकार मुझे भयभीत हुआ देख मातलिने कहा--'अर्जुन! अर्जुन! तुम डरो मत।
इस समय वच्ञास्त्रका प्रयोग करो” || १२ ।।
ततोऊहं तस्य तद् वाकक््यं श्रुत्वा वज़मुदीरयम् ।
देवराजस्य दयितं भीममस्त्रं नराधिप ।। १३ ।।
महाराज! मातलिका वह वचन सुनकर मैंने देवराजके परम प्रिय तथा भयंकर अस्त्र
वज्रका प्रयोग किया ।। १३ ।।
अचल स्थानमासाद्य गाण्डीवमनुमन्त्रय च ।
अमुज्चं वज्रसंस्पर्शानायसान् निशितान् शरान् ॥। १४ ।।
अविचल स्थानका आश्रय ले गाण्डीव धनुषको वच्ञास्त्रसे अभिमन्त्रित करके मैंने
लोहेके तीखे बाण छोड़े, जिनका स्पर्श वज़्के समान कठोर था ।। १४ ।।
ततो मायाश्व ता: सर्वा निवातकवचांश्व तान् ।
ते वज़्चोदिता बाणा वज्रभूता: समाविशन् ।। १५ ।।
तदनन्तर वच्ास्त्रसे प्रेरित हुए वे वज्रस्वरूप बाण पूर्वोक्त सारी मायाओं तथा
निवातकवच दानवोंके भीतर घुस गये ।। १५ ।।
ते वज्वेगविहता दानवा: पर्वतोपमा: ।
इतरेतरमा श्लिष्य न्यपतन् पृथिवीतले ।। १६ ।।
फिर तो वज्रके वेगसे मारे गये वे पर्ववाकार दानव एक-दूसरेका आलिंगन करते हुए
धराशायी हो गये ।। १६ ।।
अन्तर्भूमौ च येडगृह्नन् दानवा रथवाजिन: ।
अनुप्रविश्य तान् बाणा: प्राहिण्वन् यमसादनम् ।। १७ |।
पृथ्वीके भीतर घुसकर जिन दानवोंने मेरे रथके घोड़ोंको पकड़ रखा था, उनके शरीरमें
भी घुसकर मेरे बाणोंने उन सबको यमलोक भेज दिया ।। १७ ।।
हतैर्निवातकवचैर्निरस्तै: पर्वतोपमै: ।
समाच्छाद्यत देश: स विकीर्णैरिव पर्वतैः ॥। १८ ।।
वहाँ मरकर गिरे हुए पर्वताकार निवातकवच इधर-उधर बिखरे हुए पर्वतोंके समान
जान पड़ते थे। वहाँका सारा प्रदेश उनकी लाशोंसे पट गया था ॥। १८ ।।
न हयानां क्षति: काचिन्न रथस्य न मातले: ।
मम चादृश्यत तदा तदद्भुतमिवाभवत् ।। १९ ।।
उस समयके युद्धमें न तो घोड़ोंको कोई हानि पहुँची, न रथका ही कोई सामान टूटा, न
मातलिको ही चोट लगी और न मेरे ही शरीरमें कोई आघात दिखायी दिया, यह एक अद्भुत-
सी बात थी ।। १९ |।
ततो मां प्रहसन् राजन् मातलि: प्रत्यभाषत ।
नैतदर्जुन देवेषु त्वयि वीर्य यदीक्ष्यते । २० ॥।
तब मातलिने हँसते हुए मुझसे कहा--“अर्जुन! तुममें जो पराक्रम दिखायी देता है, वह
देवताओं में भी नहीं है” || २० ।।
हतेष्वसुरसंघेषु दारास्तेषां तु सर्वश: ।
प्राक्रोशन् नगरे तस्मिन् यथा शरदि सारसा: || २१ ।।
उन असुरसमूहोंके मारे जानेपर उनकी सारी स्त्रियाँ उस नगरमें जोर-जोरसे करुण
क्रन्दन करने लगीं, मानो शरत्कालमें सारस पक्षी बोल रहे हों || २१ ।।
ततो मातलिना सार्धमहं तत् पुरम भ्ययाम् ।
त्रासयन् रथघोषेण निवातकवचस्त्रिय: ॥। २२ ।।
तब मैं मातलिके साथ रथकी घर्घराहटसे निवातकवचोंकी स्त्रियोंको भयभीत करता
हुआ उस दैत्य-नगरमें गया || २२ ।।
तान् दृष्टवा दशसाहस्रान् मयूरसदृशान् हयान् ।
रथं च रविसंकाशं प्राद्रवन् गणश: स्त्रिय: ।। २३ ।।
मोरके समान सुन्दर उन दस हजार घोड़ोंको तथा सूर्यके समान तेजस्वी उस दिव्य
रथको देखते ही झुंड-की-झुंड दानवस्त्रियाँ इधर-उधर भाग चलीं ।। २३ ।।
ताभिराभरणै: शब्दस्त्रासिताभि: समीरित: ।
शिलानामिव शैलेषु पतन्तीनामभूत् तदा ।। २४ ।।
उन डरी हुई निशाचरियोंके आभूषणोंके द्वारा उत्पन्न हुआ शब्द पर्वतोंपर पड़ती हुई
शिलाओंके समान जान पड़ता था ।। २४ ।।
वित्रस्ता दैत्यनार्यस्ता: स्वानि वेश्मान्यथाविशन् |
बहुरत्नविचित्राणि शातकुम्भमयानि च ॥। २५ ।।
तत्पश्चात् वे भयभीत हुई दैत्यनारियाँ अपने-अपने घरोंमें घुस गयीं। उनके महल सोनेके
बने हुए थे और अनेक प्रकारके रत्नोंसे उनकी विचित्र शोभा होती थी || २५ ।।
तदद्भुताकारमहं दृष्टवा नगरमुत्तमम् ।
विशिष्ट देवनगरादपृच्छे मातलिं ततः ।। २६ ।।
वह उत्तम एवं अद्भुत नगर देवपुरीसे भी श्रेष्ठ दिखायी देता था। तब उसे देखकर मैंने
मातलिसे पूछा-- || २६ ।।
इदमेवंविधं कस्माद् देवा नावासयन्त्युत ।
पुरंदरपुराद्धीदं विशिष्टमिति लक्षये ।। २७ ।।
'सारथे! देवतालोग ऐसा नगर क्यों नहीं बसाते हैं? यह नगर तो मुझे इन्द्रपुरीसे भी
बढ़कर दिखायी देता है” || २७ ।।
मातलिर्वाच
आसीदिदं पुरा पार्थ देवराजस्य न: पुरम्
ततो निवातकवचैरित: प्रच्याविता: सुरा: || २८ ।।
मातलि बोले--पार्थ! पूर्वकालमें यह नगर हमारे देवराजके ही अधिकारमें था। फिर
निवातकवचोंने आकर देवताओंको यहाँसे निकाल दिया ।। २८ ।।
तपस्तप्त्वा महत् तीव्र प्रसाद्य च पितामहम्
इदं वृतं निवासाय देवेभ्यश्वाभयं युधि ॥। २९ ।।
उन्होंने अत्यन्त तीव्र तपस्या करके पितामह ब्रह्माजीको प्रसन्न किया और उनसे अपने
रहनेके लिये यही नगर माँग लिया। साथ ही यह भी माँगा कि “हमें युद्धमें देवताओंसे भय न
हो” ॥। २९ |।
तत: शक्रेण भगवान् स्वयंभूरिति चोदितः
विधत्तां भगवानन्तमात्मनो हितकाम्यया | ३० ।।
तब इन्द्रने भगवान् ब्रह्माजीसे इस प्रकार निवेदन किया--'प्रभो! अपने (और हमारे)
हितके लिये आप ही इन दानवोंका अन्त कीजिये' ।। ३० ।।
तत उक्तो भगवता दिष्टमत्रेति भारत
भवितान्तस्त्वमप्येषां देहेनानयेन शत्रुहन् ।। ३१ ।।
भरतनन्दन! उनके ऐसा कहनेपर भगवान् ब्रह्माने कहा--“शत्रुदमन देवराज! इसमें
दैवका यही विधान है कि तुम्हीं दूसरा शरीर धारण करके इन दानवोंका अन्त कर
सकोगे” ।। ३१ ।।
तत एपषां वधार्थाय शक्रो<स्त्राणि ददौ तव
न हि शक्या: सुरै्हन्तुं य एते निहतास्त्वया || ३२ ।।
(अर्जुन! तुम्हीं इन्द्रके दूसरे स्वरूप हो।) इन दैत्योंके वधके लिये ही इन्द्रने तुम्हें
दिव्यास्त्र प्रदान किये हैं। आज जो ये दानव तुम्हारे हाथों मारे गये हैं, इन्हें देवता नहीं मार
सकते थे ।। ३२ ।।
कालस्य परिणामेन ततस्त्वमिह भारत
एषामन्तकर: प्राप्तस्तत् त्वया च कृतं तथा ।। ३३ ।।
भारत! समयके फेरसे ही तुम इनका विनाश करनेके लिये यहाँ आ पहुँचे हो और तुमने
जैसा दैवका विधान था, उसके अनुसार इनका संहार कर डाला है ।। ३३ ।।
दानवानां विनाशाय अस्त्राणां परमं बलम्
ग्राहितस्त्वं महेन्द्रेण पुरुषेन्द्र तदुत्तमम् । ३४ ।।
पुरुषोत्तम! देवराज इन्द्रने इन दानवोंके विनाशके उद्देश्यसे ही तुम्हें परम उत्तम
अस्त्रबलकी प्राप्ति करायी है ।। ३४ ।।
अर्जुन उवाच
ततः प्रशाम्य नगरं दानवांश्व निहत्य तान्
पुनर्मातलिना सार्थमगच्छे देवसझ तत् ।। ३५ ।।
अर्जुन कहते हैं--महाराज! इस प्रकार उन दानवोंका संहार करके नगरमें शान्ति
स्थापित करनेके पश्चात् मैं मातलिके साथ पुनः: उस देवलोकको लौट आया ।। ३५ |।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि निवातकवचयुद्धपर्वणि निवातकवचयुद्धे
द्विसप्तत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १७२ ।।
इस प्रकार श्रीमह्ा भारत वनपर्वके अन्तर्गत निवातकवचयुद्धपर्वमें निवातकवचयुद्धाविषयक
एक सौ बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १७२ ॥।
अर रत (0) है ०
त्रिसप्तत्यांधिकशततमोब< ध्याय:
अर्जुनद्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयोंका वध
और इन्द्रद्वारा अर्जुनका अभिनन्दन
अजुन उवाच
निवर्तमानेन मया महदू दृष्टं ततो5परम्
पुरं कामचरं दिव्यं पावकार्कसमप्रभम् ।। १ ।।
अर्जुन बोले--राजन्! तत्पश्चात् लौटते समय मार्ममें मैंने एक दूसरा दिव्य एवं विशाल
नगर देखा, जो अग्नि और सूर्यके समान प्रकाशित हो रहा था। वह अपने निवासियोंकी
इच्छाके अनुसार सर्वत्र आ-जा सकता था ।। १ ।।
रत्नद्रुममयैश्षित्रै: सुस्वरैश्व पतत्त्रिभि:
पौलोमै: कालकज्जैश्न नित्यहृष्टे रधिष्ठितम् ।। २ ।।
विचित्र र॒त्नमय वृक्ष और मधुर स्वरमें बोलनेवाले पक्षी उस नगरकी शोभा बढ़ाते थे।
पौलोम और कालकज्ज नामक दानव सदा प्रसन्नतापूर्वक वहाँ निवास करते थे ।। २ ।।
गोपुराट्टालकोपेतं चतुर्द्धारं दुरासदम्
सर्वरत्नमयं दिव्यमद्भुतोपमदर्शनम् ॥। ३ ।।
उस नगरमें ऊँचे-ऊँचे गोपुरोंसहित सुन्दर अट्ठटालिकायें सुशोभित थीं। उसमें चारों
दिशाओंमें एक-एक करके चार फाटक लगे थे। शत्रुओंके लिये उस नगरमें प्रवेश पाना
अत्यन्त कठिन था। सब प्रकारके रत्नोंसे निर्मित वह दिव्य नगर अद्भुत दिखायी देता
था।।३।।
ट्रुमै: पुष्पफलोपेतै: सर्वरत्नमयैर्वृतम्
तथा पतनत्र्त्रिभिर्दिव्यैरुपेतं सुमनोहरै: ।। ४ ।।
फल और फूलोंसे भरे हुए सर्वरत्नमय वृक्ष नगरको सब ओरसे घेरे हुए थे तथा वह
नगर दिव्य एवं अत्यन्त मनोहर पक्षियोंसे युक्त था ।। ४ ।।
असुरैर्नित्यमुदितै: शूलर्टिमुसलायुधै:
चापमुद्गरहस्तैश्व स्रग्विभि: सर्वतो वृतम् । ५ ।॥।
सदा प्रसन्न रहनेवाले बहुत-से असुर गलेमें सुन्दर माला धारण किये और हाथोंमें शूल,
ऋष्टि, मुसल, धनुष तथा मुद्गर आदि अस्त्र-शस्त्र लिये सब ओरसे घेरकर उस नगरकी रक्षा
करते थे ।। ५ ।।
तदहं प्रेक्ष्य दैत्यानां पुरमद्भुतदर्शनम्
अपृच्छे मातलिं राजन् किमिदं वर्तते5द्भुतम् ।। ६ ।।
राजन! दैत्योंके उस अद्भुत दिखायी देनेवाले नगरको देखकर मैंने मातलिसे पूछा
--'सारथे! यह कौन-सा अद्भुत नगर है?” ।। ६ ।।
मातलिरुवाच
पुलोमा नाम दैतेयी कालका च महासुरी
दिव्यं वर्षमहस्रं ते चेरतु: परमं तप: ।। ७ ।।
तपसोडन््ते ततस्ताभ्यां स्वयम्भूरदद् वरम्
अगृल्लीतां वरं ते तु सुतानामल्पदुःखताम् ।। ८ ।।
मातलिने कहा--पार्थ! दैत्यकुलकी कन्या पुलोमा तथा महान् असुरवंशकी कन्या
कालका--उन दोनोंने एक हजार दिव्य वर्षोतक बड़ी भारी तपस्या की। तदनन्तर तपस्या
पूर्ण होनेपर भगवान् ब्रह्माजीने उन दोनोंको वर दिया। उन्होंने यही वर माँगा कि “हमारे
पुत्रोंका दुःख दूर हो जाय” || ७-८ ।।
अवध्यतां च राजेन्द्र सुरराक्षसपन्नगै:
पुरं सुरमणीयं च खचरं सुमहाप्रभम् ।। ९ ।।
सर्वरत्नै: समुदितं दुर्धर्षममरैरपि
महर्षियक्षगन्धर्वपन्नगासुरराक्षसै: ।। १० ।।
सर्वकामगुणोपेतं वीतशोकमनामयम्
ब्रह्मणा भरतश्रेष्ठ कालकेयकृते कृतम् ।। ११ ।।
तदेतत् खपुरं दिव्यं चरत्यमरवर्जितम्
पौलोमाध्युषितं वीर कालकज्जैश्व दानवै: ।। १२ ।।
राजेन्द्र! उन दोनोंने यह भी प्रार्थना की कि “हमारे पुत्र देवता, राक्षस तथा नागोंके लिये
भी अवध्य हों। इनके रहनेके लिये एक सुन्दर नगर होना चाहिये, जो अपने महान प्रभा-
पुज्जसे जगमगा रहा हो। वह नगर विमानकी भाँति आकाशमें विचरनेवाला होना चाहिये,
उसमें सब प्रकारके रत्नोंका संचय रहना चाहिये, देवता, महर्षि, यक्ष, गन्धर्व, नाग, असुर
तथा राक्षस कोई भी उसका विध्वंस न कर सके। वह नगर समस्त मनोवाजञ्छित गुणोंसे
सम्पन्न, शोकशून्य तथा रोग आदिसे रहित होना चाहिये।” भरतश्रेष्ठ! ब्रह्माजीने कालकेयोंके
लिये वैसे ही नगरका निर्माण किया था। यह वही आकाशचारी दिव्य नगर है, जो सर्वत्र
विचरता है। इसमें देवताओंका प्रवेश नहीं है। वीरवर! इसमें पौलोम और कालकंज नामक
दानव ही निवास करते हैं ।। ९--१२ ।।
हिरण्यपुरमित्येवं ख्यायते नगरं महत्
रक्षितं कालकेयैश्न पौलोमैश्न महासुरै: ।। १३ ।।
यह विशाल नगर हिरण्यपुरके नामसे विख्यात है। कालकेय तथा पौलोम नामक महान्
असुर इसकी रक्षा करते हैं || १३ ।।
त एते मुदिता राजन्नवध्या: सर्वदैवतै:
निवसन्त्यत्र राजेन्द्र गतोद्वेगा निरुत्सुका: || १४ ।।
राजन! ये वे ही दानव हैं, जो सम्पूर्ण देवताओंसे अवध्य रहकर उद्वेग तथा उत्कण्ठासे
रहित हो यहाँ प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं ।। १४ ।।
मानुषान्मृत्युरेतेषां निर्दिष्टो ब्रह्मणा पुरा
एतानपि रणे पार्थ कालकज्जान् दुरासदान्
वज्ास्त्रेण नयस्वाशु विनाशं सुमहाबलान् ॥। १५ ।।
पूर्वकालमें ब्रह्माजीने मनुष्यके हाथसे इनकी मृत्यु निश्चित की थी। कुन्तीकुमार! ये
कालकंज और पौलोम अत्यन्त बलवान तथा दुर्धर्ष हैं। तुम युद्धमें वज्रास्त्रके द्वारा इनका
भी शीघ्र ही संहार कर डालो || १५ ।।
अजुन उवाच
सुरासुरैरवध्यं तदहं ज्ञात्वा विशाम्पते
अब्र॒ुवं मातलिं हृष्टो याहेतत् पुरमज्जसा ।। १६ ।।
अर्जुन बोले--राजन्! उस हिरण्यपुरको देवताओं और असुरोंके लिये अवध्य जानकर
मैंने मातलिसे प्रसन्नतापूर्वक कहा--'आप यथाशीघ्र इस नगरमें अपना रथ ले
चलिये' ।। १६ ।।
त्रिदशेशद्विषो यावत् क्षयमस्त्रैर्नयाम्यहम्
न कथज्वचिद्धि मे पापा न वध्या ये सुरद्विष: ॥। १७ ।।
“जिससे देवराजके द्रोहियोंको मैं अपने अस्त्रोंद्वारा नष्ट कर डालूँ। जो देवताओंसे द्वेष
रखते हैं, उन पापियोंको मैं किसी प्रकार मारे बिना नहीं छोड़ सकता” ।। १७ ।।
उवाह मां ततः शीघ्र हिरण्यपुरमन्तिकात्
रथेन तेन दिव्येन हरियुक्तेन मातलि: ।। १८ ।।
मेरे ऐसा कहनेपर मातलिने घोड़ोंसे युक्त उस दिव्य रथके द्वारा मुझे शीघ्र ही
हिरण्यपुरके निकट पहुँचा दिया ।। १८ ।।
ते मामालक्ष्य दैतेया विचित्रा भरणाम्बरा:
समुत्पेतुर्महावेगा रथानास्थाय दंशिता: ।। १९ ।।
मुझे देखते ही विचित्र वस्त्राभूषणोंसे विभूषित वे दैत्य कवच पहनकर अपने रथोंपर
जा बैठे और बड़े वेगसे मेरे ऊपर टूट पड़े ।। १९ ।।
ततो नालीकनाराचैर्भल्लै: शक्त्यृष्टितोमरै:
प्रत्यघ्नन् दानवेन्द्रा मां क्रुद्धास्तीव्रपराक्रमा: ।। २० ।।
तत्पश्चात् क्रोधमें भरे हुए उन प्रचण्ड पराक्रमी दानवेन्द्रोंने नालीक, नाराच, भल्ल,
शक्ति, ऋष्टि तथा तोमर आदि अस्त्रोंद्वारा मुझे मारना आरम्भ किया || २० ।।
तदहं शरवर्षेण महता प्रत्यवारयम्
शस्त्रवर्ष महद् राजन् विद्याबलमुपाश्रित: ॥। २१ ।।
व्यामोहयं च तान् सर्वान् रथमार्गैश्चरन् रणे
तेडन्योन्यमभिसम्मूढा: पातयन्ति सम दानवान् ।। २२ ।।
राजन्! उस समय मैंने विद्या-बलका आश्रय लेकर महती बाण-वर्षके द्वारा उनके
अस्त्र-शस्त्रोंकी भारी बौछारको रोका और युद्ध-भूमिमें रथके विभिन्न पैंतरे बदलकर विचरते
हुए उन सबको मोहमें डाल दिया। वे ऐसे किंकर्तव्यविमूढ हो रहे थे कि आपसमें ही लड़कर
एक-दूसरे दानवोंको धराशायी करने लगे || २१-२२ ।।
तेषामेवं विमूढानामन्योन्यमभिधावताम्
शिरांसि विशियेर्दीप्तैन्यहनं शतसड्घश: ।। २३ ।।
इस प्रकार मूढ़चित्त हो आपसमें ही एक-दूसरेपर धावा करनेवाले उन दानवोंके सौ-सौ
मस्तकोंको मैं अपने प्रज्वलित बाणोंद्वारा काट-काटकर गिराने लगा ।।
ते वध्यमाना दैतेया: पुरमास्थाय तत् पुनः
खमुत्पेतु: सनगरा मायामास्थाय दानवीम् ॥। २४ ।।
वे दैत्य जब इस प्रकार मारे जाने लगे, तब पुनः अपने उस नगरमें ही घुस गये और
दानवी मायाका सहारा ले नगर सहित आकाशमें ऊँचे उड़ गये ।। २४ ।।
ततो<हं शरवर्षेण महता कुरुनन्दन
मार्गमावृत्य दैत्यानां गतिं चैषामवारयम् ।। २५ ।।
कुरुनन्दन! तब मैं बाणोंकी भारी बौछार करके दैत्योंका मार्ग रोक लिया और उनकी
गति कुण्ठित कर दी |। २५ ।।
तत् पुरं खचरं दिव्यं कामगं सूर्यसप्रभम्
दैतेयैर्वरदानेन धार्यते सम यथासुखम् ।। २६ ।।
सूर्यके समान प्रकाशित होनेवाला दैत्योंका वह आकाशचारी दिव्य नगर उनकी इच्छाके
अनुसार चलनेवाला था और दैत्यलोग वरदानके प्रभावसे उसे सुखपूर्वक आकाशमें धारण
करते थे ।। २६ ।।
अन्तर्भूमौ निपतति पुनरूर्ध्व॑ प्रतिष्ठते
पुनस्तिर्यक् प्रयात्याशु पुनरप्सु निमज्जति || २७ ।।
वह दिव्य पुर कभी पृथ्वीपर अथवा पातालमें चला जाता, कभी ऊपर उड़ जाता, कभी
तिरछी दिशाओंमें चलता और कभी शीघ्र ही जलमें डूब जाता था ।। २७ ।।
अमरावतिसंकाशं तत् पुरं कामगं महत्
अहमस्त्रैरबहुविधै: प्रत्यगृह्लं परंतप ।। २८ ।।
परंतप! इच्छानुसार विचरनेवाला वह विशाल नगर अमरावतीके ही तुल्य था; परंतु मैंने
नाना प्रकारके अस्त्रों द्वारा उसे सब ओरसे रोक लिया ।। २८ ।।
ततो<हं शरजालेन दिव्यास्त्रनुदितेन च
व्यगृह्नं सह दैतेयैस्तत् पुरं पुरुषर्षभ ।। २९ ।।
नरश्रेष्ठ! फिर दिव्यास्त्रोंसे अभिमन्त्रित बाणसमूहोंकी वृष्टि करते हुए मैंने दैत्योंसहित
उस नगरको क्षत-विक्षत करना आरम्भ किया ।। २९ |।
विक्षतं चायसैर्बाणर्म-्प्रयुक्तैरजिद्वागै:
महीमभ्यपतदू राजन् प्रभग्नं पुरमासुरम् ॥। ३० ।।
राजन! मेरे चलाये हुए लोहनिर्मित बाण सीधे लक्ष्यतक पहुँचनेवाले थे। उनसे
क्षतिग्रस्त हुआ वह दैत्य-नगर तहस-नहस होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा ।। ३० ।॥।
ते वध्यमाना मद्वाणैर्वज़वेगैरयस्मयै:
पर्यभ्रमन्त वै राजन्नसुरा: कालचोदिता: ।। ३१ ।।
महाराज! लोहेके बने हुए मेरे बाणोंका वेग वज्ञ़के समान था। उनकी मार खाकर वे
कालप्रेरित असुर चारों ओर चक्कर काटने लगते थे ।। ३१ ।।
ततो मातलिरारुह्म[ पुरस्तान्निपतन्निव
महीमवातरत क्षिप्रं रथेनादित्यवर्चसा || ३२ ।।
तदनन्तर मातलि आकाशमें ऊँचे चढ़कर सूर्यके समान तेजस्वी रथद्वारा उन राक्षसोंके
सामने गिरते हुए-से शीघ्र ही पृथ्वीपर उतरे ।। ३२ ।।
ततो रथसहस्राणि षष्टिस्तेषाममर्षिणाम्
युयुत्सूनां मया सार्थ पर्यवर्तन्त भारत
तान्यहं निशितैर्बाणिव्यधरमं गार्ध्रराजितै: ।। ३३ ।।
भरतनन्दन! उस समय युद्धकी इच्छासे अमर्षमें भरे हुए उन दानवोंके साठ हजार रथ
मेरे साथ लड़नेके लिये डट गये। यह देख मैंने गृद्धपंखसे सुशोभित तीखे बाणोंद्वारा उन
सबको घायल करना आरम्भ किया ।। ३३ ||
ते युद्धे सन्न्यवर्तन्त समुद्रस्थ यथोर्मय:
नेमे शक्या मानुषेण युद्धेनेति प्रचिन्त्य तत् ।। ३४ ।।
ततो&हमानुपूर्व्येण दिव्यान्यस्त्राण्ययोजयम्
परंतु वे दानव युद्धके लिये इस प्रकार मेरी ओर चढ़े आ रहे थे, मानो समुद्रकी लहरें
उठ रही हों। तब मैंने यह सोचकर कि मानवोचित युद्धके द्वारा इनपर विजय नहीं पायी जा
सकती, क्रमशः दिव्यास्त्रोंका प्रयोग आरम्भ किया ।। ३४३ ।।
ततस्तानि सहस्राणि रथिनां चित्रयोधिनाम् ।। ३५ ||
अस्त्राणि मम दिव्यानि प्रत्यघध्नन् शनकैरिव
परंतु विचित्र युद्ध करनेवाले वे सहस्रों रथारूढ़ दानव धीरे-धीरे मेरे दिव्यास्त्रोंका भी
निवारण करने लगे ।।
रथमार्गान् विचित्रांस्ते विचरन्तो महाबला: ।। ३६ ।।
प्रत्यदृश्यन्त संग्रामे शतशो5थ सहस््रशः
वे महान् बलवान तो थे ही, रथके विचित्र पैंतरे बदलकर रणभूमिमें विचर रहे थे। उस
युद्धके मैदानमें उनके सौ-सौ और हजार-हजारके झुंड दिखायी देते थे || ३६३ ।।
विचित्रमुकुटापीडा विचित्रकवचध्वजा: ।। ३७ ।।
विचित्राभरणाश्रैव नन्दयन्तीव मे मनः
उनके मस्तकोंपर विचित्र मुकुट और पगड़ी देखी जाती थी। उनके कवच और ध्वज
भी विचित्र ही थे। वे अद्भुत आभूषणोंसे विभूषित हो मेरे लिये मनोरंजनकी-सी वस्तु बन
गये थे || ३७३ ।।
अहं तु शरवर्षैस्तानस्त्रप्रचुदितै रणे ।। ३८ ।।
नाशबवनुवं॑ पीडयितु ते तु मां प्रत्यपीडयन्
उस युद्धमें दिव्यास्त्रों द्वारा अभिमन्त्रित बाणोंकी वर्षा करके भी मैं उन्हें पीड़ित न कर
सका; परंतु वे मुझे बहुत पीड़ा देने लगे || ३८ ६ ।।
तैः पीड्यमानो बहुभि: कृतास्त्रै: कुशलैर्युधि ।। ३९ ।।
व्यथितो5स्मि महायुद्धे भयं चागान्महन्मम
वे अस्त्रोंके ज्ञाता तथा युद्धकुशल थे, उनकी संख्या भी बहुत थी। उस महान संग्राममें
उन दानवोंसे पीड़ित होनेपर मेरे मनमें महान् भय समा गया ।। ३९६ ।।
ततो&हं देवदेवाय रुद्राय प्रयतो रणे | ४० ।।
(प्रयत: प्रणतो भूत्वा नमस्कृत्य महात्मने ।)
स्वस्ति भूतेभ्य इत्युक्त्वा महास्त्रं समचोदयम्
तब मैंने एकाग्रचित्त हो मस्तक झुकाकर देवाधिदेव महात्मा रुद्रको प्रणाम किया और
“समस्त भूतोंका कल्याण हो” ऐसा कहकर उनके महान् पाशुपतास्त्रका प्रयोग किया ।। ४०
ई |
यत् तद् रौद्रमिति ख्यातं सर्वामित्रविनाशनम् ।। ४१ ।।
(महत् पाशुपतं दिव्यं सर्वतोकनमस्कृतम् ।)
ततो<पश्यं त्रिशिरसं पुरुषं नवलोचनम्
त्रिमुखं षपड्भुजं दीप्तमर्कज्वलनमूर्थजम् ।। ४२ ।।
उसीको “रौद्रास्त्र” भी कहते हैं। वह समस्त शत्रुओंका विनाश करनेवाला है। वह महान्
एवं दिव्य पाशुपतास्त्र सम्पूर्ण विश्वके लिये वन्दनीय है। उसका प्रयोग करते ही मुझे एक
दिव्य पुरुषका दर्शन हुआ, जिनके तीन मस्तक, तीन मुख, नौ नेत्र तथा छः: भुजाएँ थीं।
उनका स्वरूप बड़ा तेजस्वी था। उनके मस्तकके बाल सूर्यके समान प्रज्वलित हो रहे
थे || ४१-४२ ।।
लेलिहानैर्महानागै: कृतचीरममित्रहन्
(भक्तानुकम्पिनं देवं नागयज्ञोपवीतिनम् ।)
विभीस्ततस्तदस्त्र॑ तु घोरं रौद्रं सनातनम् ।। ४३ ।।
दृष्टवा गाण्डीवसंयोगमानीय भरतर्षभ
नमस्कृत्वा त्रिनेत्राय शर्वायामिततेजसे ।। ४४ ।।
मुक्तवान् दानवेन्द्राणां पपाभावाय भारत
मुक्तमात्रे ततस्तस्मिन् रूपाण्यासन् सहस्रश: ।। ४५ ।।
शत्रुदमन नरेश! लपलपाती जीभवाले बड़े-बड़े नाग उन दिव्य पुरुषके लिये चीर
(वस्त्र) बने हुए थे। भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाले उन महादेवजीने सर्पोंका ही यज्ञोपवीत
धारण कर रखा था। उनके दर्शनसे मेरा सारा भय जाता रहा। भरतश्रेष्ठ! फिर तो मैंने उस
भयंकर एवं सनातन पाशुपतास्त्रको गाण्डीव धनुषपर संयोजित करके अमित तेजस्वी
त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकरको नमस्कार किया और उन दाननवेन्द्रोंके विनाशके लिये उनपर
चला दिया। उस अस्त्रके छूटते ही उससे सहस्रों रूप प्रकट हो गये || ४३--४५ ।।
मृगाणामथ सिंहानां व्याप्राणां च विशाम्पते
ऋक्षाणां महिषाणां च पन्नगानां तथा गवाम् ।। ४६ ।।
शरभाणां गजानां च वानराणां च सड्घश:
ऋषभाणां वराहाणां मार्जाराणां तथैव च ।। ४७ ।।
शालावृकाण्णा प्रेतानां भुरुण्डानां च सर्वशः
गृध्राणां गरुडानां च चमराणां तथैव च ॥। ४८ ।।
देवानां च ऋषीणां च गन्धर्वाणां च सर्वशः
पिशाचानां सयक्षाणां तथैव च सुरद्धिषाम् ।। ४९ ।।
गुहाकानां च संग्रामे नै#तानं तथैव च
झषाणां गजवकक्त्राणामुलूकानां तथैव च ।। ५० ।।
मीनवाजिसरूपाणां नानाशस्त्रासिपाणिनाम्
तथैव यातुधानानां गदामुद्गरधारिणाम् ।। ५१ ।।
महाराज! मृग, सिंह, व्याप्र, रीछ, भैंस, नाग, गौ, शरभ, हाथी, वानर, बैल, सूअर,
बिलाव, भेड़िये, प्रेत, मुरुण्ड, गिद्ध, गरुड, चमरी गाय, देवता, ऋषि, गन्धर्व, पिशाच, यक्ष,
देवद्रोही राक्षस, गुह्मक, निशाचर, मत्स्य, गजमुख, उल्लू, मीन तथा अभश्व-जैसे रूपवाले
नाना प्रकारके जीवोंका प्रादुर्भाव हुआ। उन सबके हाथमें भाँति-भाँतिके अस्त्र-शस्त्र एवं
खड्ग थे। इसी प्रकार गदा और मुद्गर धारण किये बहुत-से यातुधान भी प्रकट हुए ।। ४६
“५३९ ||
एतैश्वान्यैश्व बहुभि्नानारूपधरैस्तथा
सर्वमासीज्जगद् व्याप्तं तस्मिन्नस्त्रे विसर्जिते ।। ५२ ।।
त्रिशिरोभिश्नतुर्दष्टै क्षतुरास्यै श्चतुर्भुजै:
अनेकरूपसंयुक्तैर्मांसमेदोवसास्थिभि: ।। ५३ ।।
इन सबके साथ दूसरे भी बहुत-से जीवोंका प्राकट्य हुआ, जिन्होंने नाना प्रकारके रूप
धारण कर रखे थे। उन सबके द्वारा यह सारा जगत् व्याप्त-सा हो गया था। पाशुपतास्त्रका
प्रयोग होते ही कोई तीन मस्तक, कोई चार दाढ़ें, कोई चार मुख और कोई चार भुजावाले
अनेक रूपधारी प्राणी प्रकट हुए, जो मांस, मेदा, वसा और हलड्ियोंसे संयुक्त
थे ।। ५२-५३ ।।
अभीक्षणं वध्यमानास्ते दानवा नाशमागता:
अर्कज्वलनतेजोभिव॑ज्राशनिसमप्रभै: ।। ५४ ।।
अद्रिसारमयैश्चान्यैर्बाणैरपि निबर्हणै:
न्यहनं दानवानू् सर्वान् मुहूर्तेनेव भारत ।। ५५ ।।
उन सबके द्वारा गहरी मार पड़नेसे वे सारे दानव नष्ट हो गये। भारत! उस समय सूर्य
और अग्निके समान तेजस्वी तथा वज्ञ और अशनिके समान प्रकाशित होनेवाले
शत्रुविनाशक लोहमय बाणोंद्वारा भी मैंने दो ही घड़ीमें सम्पूर्ण दानवोंका संहार कर
डाला ।। ५४-५५ ||
गाण्डीवास्त्रप्रणुन्नांस्तान् गतासून् नभसक्ष्युतान्
दृष्टवाहं प्राणमं भूयस्त्रिपुरघ्नाय वेधसे ।। ५६ ।।
गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए अस्त्रोंद्वारा क्षत-विक्षत हो समस्त दानव प्राण त्यागकर
आकाशसे पृथ्वीपर गिर पड़े हैं। यह देखकर मैंने पुनः त्रिपुरनाशक भगवान् शंकरको प्रणाम
किया ।। ५६ ।।
तथा रौद्रास्त्रनिष्पिष्टान् दिव्याभरणभूषितान्
निशम्य परमं हर्षमगमद् देवसारथि: ।। ५७ ।।
दिव्य आभूषणोंसे विभूषित दानव पाशुपतास्त्रसे पिस गये हैं, यह देखकर देवसारथि
मातलिको बड़ा हर्ष हुआ || ५७ ।।
तदसहां कृतं कर्म देवैरपि दुरासदम्
दृष्टवा मां पूजयामास मातलि: शक्रसारथि: ।। ५८ ।।
जो कार्य देवताओंके लिये भी दुष्कर और असहा था, वह मेरेद्वारा पूरा हुआ देख
इन्द्रसारथि मातलिने मेरा बड़ा सम्मान किया ।। ५८ ||
उवाच वचन चेदं प्रीयमाण: कृताञ्जलि:
सुरासुरैरसहां हि कर्म यत् साधितं त्वया ।। ५९ ।।
और अत्यन्त प्रसन्न हो हाथ जोड़कर कहा--'अर्जुन! आज तुमने वह कार्य कर
दिखाया है जो देवताओं और असुरोंके लिये भी असाध्य था || ५९ ।।
न होतत् संयुगे कर्तुमपि शक्तः सुरेश्वर:
(ध्रुवं धनंजय प्रीतस्त्वयि शक्र: पुरार्दन ।)
सुरासुरैरवध्यं हि पुरमेतत् खगं महत् ।। ६० ।।
त्वया विमथितं वीर स्ववीर्यतपसो बलात्
'साक्षात् देवराज इन्द्र भी युद्धमें यह सब कार्य करनेकी शक्ति नहीं रखते हैं।
हिरण्यपुरका विनाश करनेवाले वीरवर धनंजय! निश्चय ही देवराज इन्द्र आज तुम्हारे ऊपर
बहुत प्रसन्न होंगे। वीर! तुमने अपने पराक्रम और तपस्याके बलसे इस आकाशचारी विशाल
नगरको तहस-नहस कर डाला, जिसे सम्पूर्ण देवता और असुर मिलकर भी नष्ट नहीं कर
सकते थे” ।। ६० ३ ।।
विध्वस्ते खपुरे तस्मिन् दानवेषु हतेषु च ।। ६१ ।।
विनदन्त्यः स्त्रिय: सर्वा निष्पेतुर्नगराद् बहि:
प्रकीर्णकेश्यो व्यथिता: कुरर्य इव दुखिता: ।। ६२ ।।
उस आकाशवर्ती नगरका विध्वंस और दानवोंका संहार हो जानेपर वहाँकी सारी
स्त्रियाँ विलाप करती हुई नगरसे बाहर निकल आयीं। उनके केश बिखरे हुए थे। वे दुःख
और व्यथामें डूबी हुई कुररीकी भाँति करुण-क्रन्दन करती थीं ।। ६१-६२ ।।
पेतुः पुत्रान् पितृन् भ्रातूनू शोचमाना महीतले
रुदत्यो दीनकण्ठ्यस्तु निनदन्त्यो हतेश्वरा: ।। ६३ ।।
उरांसि परिनिध्नन्त्यो विस्नस्तस्रग्विभूषणा:
अपने पुत्र, पिता और भाइयोंके लिये शोक करती हुई वे सब-की-सब पृथ्वीपर गिर
पड़ीं। जिनके पति मारे गये थे, वे अनाथ अबलाएँ दीनतापूर्ण कष्टसे रोती-चिल्लाती हुई
छाती पीट रही थीं। उनके हार और आभूषण इधर-उधर गिर पड़े थे ।। ६३ $ ।।
तच्छोकयुक्तमश्रीकं दुःखदैन्यसमाहतम् ।। ६४ ।।
न बभौ दानवपुरं हतत्विट्कं हतेश्वरम्
गन्धर्वनगराकारं हतनागमिव हृदम् ॥। ६५ ।।
शुष्कवृक्षमिवारण्यमदृश्यम भवत् पुरम्
दानवोंका वह नगर शोकमग्न हो अपनी सारी शोभा खो चुका था। वहाँ दुःख और
दीनता व्याप्त हो रही थी। अपने प्रभुओंके मारे जानेसे वह दानव-नगर निष्प्रभ और
अशोभनीय हो गया था। गन्धर्व-नगरकी भाँति उसका अस्तित्व अयथार्थ जान पड़ता था।
जिसका हाथी मर गया हो, उस सरोवर और जहाँके वृक्ष सूख गये हों, उस वनके समान वह
नगर अदर्शनीय हो गया था ।। ६४-६५३ ।।
मां तु संहृष्टमनसं क्षिप्रं मातलिरानयत् ।। ६६ ।।
देवराजस्य भवनं कृतकर्माणमाहवात्
मेरे मनमें तो हर्ष और उत्साह भरा हुआ था। मैंने देवताओंका कार्य पूरा कर दिया था।
अतः मातलि उस रणभूमिसे मुझे शीघ्र ही देवराज इन्द्रके भवनमें ले आये || ६६३ ।।
हिरण्यपुरमुत्सूज्य निहत्य च महासुरान् ।। ६७ ।।
निवातकवचांश्वैव ततो5हं शक्रमागमम्
इस प्रकार मैं निवातकवच नामक महादानवोंको (तथा पौलोम और कालकेयोंको)
मारकर तथा उजड़े हुए हिरण्यपुरको उसी अवस्थामें छोड़कर वहाँसे इन्द्रके पास
आया || ६७६ ||
मम कर्म च देवेन्द्र मातलिरविस्तरेण तत् ।। ६८ ।।
सर्व विश्रावयामास यथाभूतं महाद्ुते
महाद्युते! मातलिने मेरा सारा कार्य, जो कुछ जैसे हुआ था, देवराज इन्द्रसे
विस्तारपूर्वक कह सुनाया ।।
हिरण्यपुरघातं च मायानां च निवारणम् ।। ६९ ।।
निवातकवचानां च वधं संख्ये महौजसाम्
85 त्वा भगवान् _प्रीतः सहस्राक्ष: पुरंदर: ।। ७० |।
: सहित: श्रीमान् साधु साध्वित्यथाब्रवीत्
(परिष्वज्य च मां प्रेम्णा मूर्ध्नि चाप्राय सस्मितम् ।)
ततो मां देवराजो वै समाश्वास्य पुन: पुन: ।। ७१ ।।
अब्रवीद् विबुधै: सार्थमिदं स मधुरं वच:
अतिदेवासुरं कर्म कृतमेव त्वया रणे || ७२ ।।
हिरण्यपुरका विध्वंस, दानवी मायाका निवारण तथा महाबलवान् निवातकवचोंका
युद्धमें वध सुनकर मरुत् आदि देवताओंसहित भगवान् सहस्नलोचन इन्द्र अत्यन्त प्रसन्न हो
मुझे साधुवाद देने लगे और मुझे प्रेम पूर्वक हृदयसे लगाकर मुसकराते हुए मेरा मस्तक
सूँघा। तत्पश्चात् देवराजने बार-बार मुझे सान्त्वना देते हुए देवताओंके साथ यह मधुर वचन
कहा--'पार्थ! तुमने युद्धमें वह कार्य किया है, जो देवताओं और असुरोंके लिये भी
असम्भव है || ६९--७२ ।।
गुर्वर्थश्ष कृत: पार्थ महाशत्रून् घ्नता मम
एवमेव सदा भाव्यं स्थिरेणाजी धनंजय || ७३ ||
असम्मूढेन चास्त्राणां कर्तव्यं प्रतिपादनम्
अविषटह्गो रणे हि त्वं देवदानवराक्षसै: ।। ७४ ।।
“आज तुमने मेरे महान् शत्रुओंका संहार करके गुरुदक्षिणा चुका दी है। धनंजय! इसी
प्रकार तुम्हें सदा युद्धभूमिमें अविचल रहना चाहिये और मोहशून्य होकर अस्त्रोंका प्रयोग
करना चाहिये। देवता, दानव तथा राक्षस कोई भी युद्धमें तुम्हारा सामना नहीं कर
सकता || ७३-७४ ।।
सयक्षासुरगन्धर्वै: सपक्षिगणपत्नगै:
वसुधां चापि कौन्तेय त्वदूबाहुबलनिर्जिताम्
पालयिष्यति धर्मात्मा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर: ।। ७५ ।।
'यक्ष, असुर, गन्धर्व, पक्षी तथा नाग भी तुम्हारे सामने नहीं टिक सकते। कुन्तीकुमार!
धर्मात्मा कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर तुम्हारे बाहुबलसे जीती हुई पृथ्वीका पालन करेंगे | ७५ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि निवातकवचयुद्धपर्वणि हिरण्यपुरदैत्यवधे
त्रिसप्तत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १७३ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत निवातकवचयुद्धपर्वमें हिरण्यपुरवासी दैत्योंके
वधसे सम्बन्ध रखनेवाला एक सौ तिहतत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १७३ ॥।
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका २३ श्लोक मिलाकर कुल ७७३ श्लोक हैं)
छः #&< (9) #प्टज 2४
चतुःसप्तरत्यांधेकशततमो< ध्याय:
80: कक कं यात्राका वृत्तान्त सुनकर युधिष्ठिरद्वारा
उनका और दिव्यास्त्रदर्शनकी इच्छा प्रकट
करना
अजुन उवाच
ततो मामतिविश्वस्तं संरूढशरविक्षतम्
देवराजो विगृहोदं काले वचनमब्रवीत् ।। १ ।।
अर्जुन कहते हैं--राजन्! तदनन्तर मैं देवराजका अत्यन्त विश्वासपात्र बन गया। धीरे-
धीरे मेरे शरीरके सब घाव भर गये। तब एक दिन देवराज इन्द्रने मेरा हाथ पकड़कर कहा
-- १ ॥।
दिव्यान्यस्त्राणि सर्वाणि त्वयि तिष्ठन्ति भारत
न त्वाभिभवितुं शक्तो मानुषो भुवि कश्चन । २ ।।
“भरतनन्दन! तुममें सब दिव्यास्त्र विद्यमान हैं। भूमण्डलका कोई भी मनुष्य तुम्हें
पराजित नहीं कर सकता ।। २ ।।
भीष्मो द्रोण: कृप: कर्ण: शकुनि: सह राजभि:
संग्रामस्थस्य ते पुत्र कलां नाहन्ति षघोडशीम् ।। ३ ।।
“बेटा! भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण तथा राजाओंसहित शकुनि--ये सब-के-सब
संग्राममें खड़े होनेपर तुम्हारी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं हो सकते' ।। ३ ।।
इदं च मे तनुत्राणं प्रायच्छन्मघवान प्रभु:
अभेद्यं कवचं दिव्यं स्रजं चैव हिरण्मयीम् ।। ४ ।।
महाराज! उन देवेश्वर इन्द्रने स्वयं मेरे शरीरकी रक्षा करनेवाला यह अभेद्य दिव्य कवच
और यह सुवर्णमयी माला मुझे दी ।। ४ ।।
देवदत्तं च मे शड्खं पुनः प्रादान्महारवम्
दिव्यं चेदं किरीटं मे स्वयमिन्द्रो युयोज ह ।। ५ ।।
फिर उन्होंने बड़े जोरकी आवाज करनेवाला यह देवदत्त नामक शंख प्रदान किया।
स्वयं देवराज इन्द्रने ही यह दिव्य किरीट मेरे मस्तकपर रखा था ।। ५ ।।
ततो दिव्यानि वस्त्राणि दिव्यान्याभरणानि च
प्रादाच्छक्रो ममैतानि रुचिराणि बृहन्ति च ।। ६ ।।
तत्पश्चात् देवराजने मुझे ये मनोहर एवं विशाल दिव्य वस्त्र तथा दिव्य आभूषण
दिये || ६ ।।
एवं सम्पूजितस्तत्र सुखमस्म्युषितो नृप
इन्द्रस्य भवने पुण्ये गन्धर्वशिशुभि: सह ।। ७ ।।
महाराज! इस प्रकार सम्मानित होकर मैं उस पवित्र इन्द्रभवनमें गन्धर्वकुमारोंके साथ
सुखपूर्वक रहने लगा ।।
ततो मामब्रवीच्छक्र: प्रीतिमानमरै: सह
समयो.र्डजुन गन्तुं ते भ्रातरो हि स्मरन्ति ते ।। ८ ।।
तदनन्तर देवताओंसहित इन्द्रने प्रसन्न होकर मुझसे कहा--'अर्जुन! अब तुम्हारे
जानेका समय आ गया है; क्योंकि तुम्हारे भाई तुम्हें बहुत याद करते हैं” || ८ ।।
एवमिन्द्रस्यथ भवने पञ्च वर्षाणि भारत
उषितानि मया राजन् स्मरता द्यूतजं कलिम् ।। ९ ।।
भारत! इस प्रकार द्यूतजनित कलहका स्मरण करते हुए मैंने इन्द्रभवनमें पाँच वर्ष
व्यतीत किये हैं ।। ९ ।।
ततो भवन्न्तमद्राक्ष॑ं भ्रातृभि: परिवारितम्
गन्धमादनपादस्य पर्वतस्यास्य मूर्थनि ।। १० ।।
इसके बाद इस गन्धमादनकी शाखाभूत इस पर्वतके शिखरपर भाइयोंसहित आपका
दर्शन किया है || १० ।।
युधिछ्िर उवाच
दिष्ट्या धनंजयास्त्राणि त्वया प्राप्तानि भारत
दिष्ट्या चाराधितो राजा देवानामीश्वर: प्रभु: ।। ११ ।।
दिष्ट्या च भगवान् स्थाणुर्देव्या सह परंतप
साक्षाद् दृष्ट: स्वयुद्धेन तोषितश्न॒ त्वयानघ ।। १२ ।।
युधिष्ठिर बोले--धनंजय! बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुमने दिव्यास्त्र प्राप्त कर लिये।
भारत! यह भी भाग्यकी ही बात है कि तुमने देवताओंके स्वामी राजराजेश्वर इन्द्रको
आराधनाद्दारा प्रसन्न कर लिया। निष्पाप परंतप! सबसे बड़ी सौभाग्यकी बात तो यह है कि
तुमने देवी पार्वतीके साथ साक्षात् भगवान् शंकरका दर्शन किया और उन्हें अपनी
युद्धकलासे संतुष्ट कर लिया ।। ११-१२ ।।
दिष्ट्या च लोकपालैस्त्वं समेतो भरतर्षभ
दिष्ट्या वर्धामहे पार्थ दिष्ट्यासि पुनरागत: ।। १३ ।।
भरतश्रेष्ठ] समस्त लोकपालोंके साथ तुम्हारी भेंट हुई, यह भी हमारे लिये सौभाग्यका
सूचक है। हमारा अहोभाग्य है कि हम उन्नतिके पथपर अग्रसर हो रहे हैं। अर्जुन! हमारे
भाग्यसे ही तुम पुनः हमारे पास लौट आये ।। १३ ।।
अद्य कृत्स्नां महीं देवीं विजितां पुरमालिनीम्
मन्ये च धृतराष्ट्रस्य पुत्रानपि वशीकृतान् ।। १४ ।।
आज मुझे यह विश्वास हो गया कि हम नगरोंसे सुशोभित समूची वसुधादेवीको जीत
लेंगे। अब हम धृतराष्ट्रके पुत्रोंको भी अपने वशमें पड़ा हुआ ही मानते हैं ।। १४ ।।
इच्छामि तानि चास्त्राणि द्रष्टें दिव्यानि भारत
यैस्तथा वीर्यवन्तस्ते निवीतकवचा हत: || १५ ।।
भारत! अब मेरी इच्छा उन दिव्यास्त्रोंको देखनेकी हो रही है, जिनके द्वारा तुमने उस
प्रकारके उन महापराक्रमी निवातकवचोंका विनाश किया है ।। १५ ।।
अजुन उवाच
श्वः प्रभाते भवान् द्रष्टा दिव्यान्यस्त्राणि सर्वशः
निवातकववचा घोरा यैर्मया विनिपातिता: ।। १६ ।।
अर्जुन बोले--महाराज! कल सबेरे आप उन सब दिव्यास्त्रोंको देखियेगा जिनके द्वारा
मैंने भयानक निवातकवचोंको मार गिराया है ।। १६ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमागमनं तत्र कथयित्वा धनंजय:
भ्रातृभि: सहित: सर्वे रजनीं तामुवास ह ।। १७ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्! इस प्रकार अपने आगमनका वृत्तान्त सुनाकर सब
भाइयोंसहित अर्जुनने वहाँ वह रात व्यतीत की ।। १७ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि निवातकवचयुद्धपर्वणि अस्त्रदर्शनसंकेते
चतु:सप्तत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १७४ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत निवातकवचयुद्धपर्वमें अस्रदर्शनके लिये
संकेतविषयक एक सौ चौह्तत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १७४ ॥।
अप: आर (0) है ०
पज्चसप्तरत्याधेकशततमो< ध्याय:
नारद आदिका अर्जुनको दिव्यास्त्रोंके प्रदर्शनसे रोकना
वैशम्पायन उवाच
तस्यां रात्र्यां व्यतीतायां धर्मराजो युधिष्ठिर:
उत्थायावश्यकार्याणि कृतवान् भ्रातृभि: सह ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! जब वह रात बीत गयी तब धर्मराज युधिष्ठिरने
भाइयोंसहित उठकर आवश्यक नित्यकर्म पूरे किये |। १ ।।
ततः: संचोदयामास सोडर्जुनं भ्रातृनन्दनम्
दर्शयास्त्राणि कौन्तेय यैर्जिता दानवास्त्वया ।। २ ।।
तत्पश्चात् उन्होंने भाइयोंको सुख पहुँचानेवाले अर्जुनको आज्ञा दी--'कुन्तीनन्दन! अब
तुम उन दिव्यास्त्रोंका दर्शन कराओ जिनसे तुमने दानवोंपर विजय पायी है” ।। २ ।।
ततो धनंजयो राजन देवैर्दत्तानि पाण्डव:
अस्त्राणि तानि दिव्यानि दर्शयामास भारत ।। ३ ।।
राजन! तब पाण्डुनन्दन अर्जुनने देवताओंके दिये हुए उन दिव्य अस्त्रोंको दिखानेका
आयोजन किया ।। ३ ।।
यथान्यायं महातेजा: शौच परममास्थित:
(नमस्कृत्य त्रिनेत्राय वासवाय च पाण्डव: ।)
गिरिकूबरपादाक्ष शुभवेणु त्रिवेणुमत् ।। ४ ।।
पार्थिवं रथमास्थाय शोभमानो धनंजय:
दिव्येन संवृतस्तेन कवचेन सुवर्चसा ।। ५ ।।
धनुरादाय गाण्डीवं देवदत्तं स वारिजम्
शोशुभ्यमान: कौन्तेय आनुपूर्व्यान्महाभूज: ।। ६ ।।
अस्त्राणि तानि दिव्यानि दर्शनायोपचक्रमे
अथ प्रयोक्ष्यमाणेषु दिव्येष्वस्त्रेषु तेषु वै ॥ ७ ।।
समाक्रान्ता मही पद्धयां समकम्पत सद्रुमा
क्षुभिता: सरितश्वैव तथैव च महोदधि: ।। ८ ।।
महातेजस्वी अर्जुन पहले तो विधिपूर्वक स्नान करके शुद्ध हुए। फिर न्रिनेत्रधारी
भगवान् शंकर और इन्द्रको नमस्कार करके उन्होंने वह अत्यन्त तेजस्वी दिव्य कवच धारण
किया। तत्पश्चात् वे पृथ्वीरूपी रथपर आरूढ़ हो बड़ी शोभा पाने लगे। पर्वत ही उस रथका
कूबर था, दोनों पैर ही पहिये थे और सुन्दर बाँसोंका वन ही त्रिवेणु (रथके अंगविशेष)-का
काम देता था। तदनन्तर महाबाहु कुन्तीनन्दन अर्जुनने एक हाथमें गाण्डीव धनुष और
दूसरेमें देवदत्त शंख ले लिया। इस प्रकार वीरोचित वेशसे सुशोभित हो उन्होंने क्रमश: उन
दिव्यास्त्रोंको दिखाना आरम्भ किया। जिस समय उन दिव्यास्त्रोंका प्रयोग प्रारम्भ होने जा
रहा था, उसी समय अर्जुनके पैरोंसे दबी हुई पृथ्वी वृक्षोंसहित काँपने लगी। नदियों और
समुद्रोंमें उफान आ गया || ४--८ ।।
शैलाक्षापि व्यदीर्यन्त न ववी च समीरण:
न बभासे सहस्रांशुर्न जज्वाल च पावक: ।। ९ ।।
पर्वत विदीर्ण होने लगे और हवाकी गति रुक गयी। सूर्यकी प्रभा फीकी पड़ गयी और
आगका जलना बंद हो गया ।। ९ ।।
न वेदा: प्रतिभान्ति सम द्विजातीनां कथंचन
अन्तर्भूमिगता ये च प्राणिनो जनमेजय ।। १० ।।
पीड्यमाना: समुत्थाय पाण्डवं पर्यवारयन्
वेपमाना: प्राउ्जलयस्ते सर्वे विकृतानना: ।। ११ ।।
दहामानास्तदास्त्रैस्ते याचन्ति सम धनंजयम्
ततो ब्रह्र्षयश्चैव सिद्धा ये च महर्षय: ।। १२ ।।
जड़मानि च भूतानि सर्वाण्येवावतस्थिरे
देवर्षयक्ष प्रवरास्तथैव च दिवौकस: ।। १३ ।।
यक्षराक्षसगन्धर्वास्तथैव च पतत्त्रिण:
खेचराणि च भूतानि सर्वाण्येवावतस्थिरे ।। १४ ।।
द्विजातियोंको किसी प्रकार भी वेदोंका भान नहीं हो पाता था। जनमेजय! भूमिके
भीतर जो प्राणी निवास करते थे, वे भी पीड़ित हो उठे और अर्जुनको सब ओरसे घेरकर
खड़े हो गये। उन सबके मुखपर विकृति आ गयी थी। वे हाथ जोड़े हुए थर-थर काँप रहे थे
और अस्त्रोंके तेजसे संतप्त हो धनंजयसे प्राणोंकी भिक्षा माँग रहे थे। इसी समय ब्रह्मर्षि,
सिद्ध महर्षि, समस्त जंगम प्राणी, श्रेष्ठ देवर्षि, देवता, यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, पक्षी तथा
आकाशचारी प्राणी सभी वहाँ आकर उपस्थित हो गये || १०--१४ ।।
ततः पितामहश्नैव लोकपालाश्ष सर्वशः
भगवांश्र महादेव: सगणो<5भ्याययौ तदा ।। १५ ।।
इसके बाद ब्रह्माजी, समस्त लोकपाल तथा भगवान् महादेव अपने गणोंसहित वहाँ
आये ।। १५ ।।
ततो वायुर्महाराज दिव्यैर्माल्यै: सुगन्धिभि:
अभित: पाण्डवं चित्रैरवचक्रे समन्ततः ।। १६ ।।
महाराज! तदनन्तर वायुदेव पाण्डुनन्दन अर्जुनपर सब ओरसे विचित्र सुगन्धित दिव्य
मालाओंकी वृष्टि करने लगे ।। १६ ।।
जगुश्न गाथा विविधा गन्धर्वा: सुरचोदिता:
ननृतुः सड्घशश्चैव राजन्नप्सरसां गणा: ।। १७ ||
राजन! देवप्रेरित गन्धर्व नाना प्रकारकी गाथाएँ गाने लगे और झुंड-की-झुंड अप्सराएँ
नृत्य करने लगीं || १७ ।।
तस्मिंश्न॒ तादृशे काले नारदश्नोदित: सुरै:
आगगम्याह वच: पार्थ श्रवणीयमिदं नूप ।। १८ ।।
अर्जुनार्जुन मा युड्क्ष्व दिव्यान्यस्त्राणि भारत
नैतानि निरधिष्ठाने प्रयुज्यन्ते कथंचन ।। १९ ।।
नराधिप! उस समय देवताओंके कहनेसे देवर्षि नारद अर्जुनके पास आये और उनसे
यह सुननेयोग्य बात कहने लगे--'अर्जुन! अर्जुन! इस समय दिव्यास्त्रोंका प्रयोग न करो।
भारत! ये दिव्य अस्त्र किसी लक्ष्यके बिना कदापि नहीं छोड़े जाते || १८-१९ ।।
अधिष्ठाने न वाअनार्त: प्रयुजुजीत कदाचन
प्रयोगेषु महान् दोषो ह्ुस्त्राणां कुरुनन्दन ।। २० ।।
“कोई लक्ष्य मिल जाय तो भी ऐसा मनुष्य कभी इनका प्रयोग न करे, जो स्वयं संकटमें
न पड़ा हो। कुरुनन्दन! इन दिव्यास्त्रोंका अनुचितरूपमें प्रयोग करनेपर महान् दोष प्राप्त
होता है ।। २० ।।
एतानि रक्ष्यमाणानि धनंजय यथागमम्
बलवन्ति सुखाहाणि भविष्यन्ति न संशय: || २१ ।।
“धनंजय! शास्त्रके अनुसार सुरक्षित रखे जानेपर ही ये अस्त्र सबल और सुखदायक
होते हैं, इसमें संशय नहीं है || २१ ।।
अरक्ष्यमाणान्येतानि त्रैलोक्यस्पापि पाण्डव
भवन्ति सम विनाशाय मैव॑ भूय: कृथा: क्वचित् ॥। २२ ।।
अजाततशत्रो त्वं चैव द्रक्ष्यसे तानि संयुगे
योज्यमानानि पार्थेन द्विषतामवमर्दने ।। २३ |।
'पाण्डुपुत्र! इनकी समुचित रक्षा न होनेपर ये दिव्यास्त्र तीनों लोकोंके विनाशके कारण
बन जाते हैं। अतः फिर कभी इस तरह इनके प्रदर्शनका साहस न करना। अजातशण्रु
युधिष्ठटि! (आप भी इस समय इन्हें देखनेका आग्रह छोड़ दें।) जब रणक्षेत्रमें शत्रुओंके
संहारका अवसर आयगा, उस समय अर्जुनके द्वारा प्रयोगमें लाये जानेपर इन दिव्यास्त्रोंका
दर्शन कीजियेगा' || २२-२३ ।।
वैशग्पायन उवाच
निवार्याथ ततः पार्थ सर्वे देवा यथागतम्
जम्मुरन्ये च ये तत्र समाजम्मुर्नरर्षभ ।। २४ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--नरश्रेष्ठ! इस प्रकार अर्जुनको दिव्यास्त्रोंके प्रदर्शनसे
रोककर सम्पूर्ण देवता तथा अन्य सभी प्राणी जैसे आये थे वैसे लौट गये ।।
तेषु सर्वेषु कौरव्य प्रतियातेषु पाण्डवा:
तस्मिन्नेव वने हृकास्त ऊषु: सह कृष्णया ।। २५ ।।
कुरुनन्दन! उन सबके चले जानेपर सब पाण्डव द्रौपदीके साथ बड़े हर्षपूर्वक उसी
वनमें रहने लगे || २५ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि निवातकवचयुद्धपर्वणि अस्त्रदर्शने
पजञ्चसप्तत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १७५ ||
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत वनपर्वके अन्तर्गत निवातकवचयुद्धपर्वमें अस्त्रदर्शनविषयक एक
सौ पचहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १७५ ॥।
हि 8 मो «0 आ (0) है ०
(आजगरपर्व)
षट्सप्तत्यधिकशततमो<ध्याय:
भीमसेनकी युधिषछ्विरसे बातचीत और पाण्डवोंका
गन्धमादनसे प्रस्थान
जनमेजय उवाच
तस्मिन् कृतास्त्रे रथिनां प्रवीरे
प्रत्यागते भवनाद् वृत्रहन्तुः
अतः: परं किमकुर्वन्त पार्था:
समेत्य शूरेण धनंजयेन ।। १ ।।
जनमेजयने पूछा--भगवन्! रथियोंमें श्रेष्ठ महावीर अर्जुन जब इन्द्रभवनसे
दिव्यास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त करके लौट आये, तब उनसे मिलकर कुन्तीकुमारोंने पुन: कौन-सा
कार्य किया? ।। १ ।।
वैशम्पायन उवाच
वनेषु तेष्वेव तु ते नरेन्द्रा:
सहार्जुनेनेन्द्रसमेन वीरा:
तस्मिंश्व शैलप्रवरे सुरम्ये
धनेश्वराक्रीडगता विजहु: ।। २ ।।
वैशम्पायनजी बोले--राजन्! वे नरश्रेष्ठ वीर पाण्डव इन्द्रतुल्य पराक्रमी अर्जुनके
साथ उस परम रमणीय शैलशिखरपर कुबेरकी क्रीड़ाभूमिके अन्तर्गत उन्हीं वनोंमें सुखसे
विहार करने लगे |। २ ।।
वेश्मानि तान्यप्रतिमानि पश्चन्
क्रीडाश्व नानाद्रुमसंनिबद्धा:
चचार धन्वी बहुधा नरेन्द्र:
सोअस्त्रेषु यत्त: सततं किरीटी ॥। ३ ।।
वहाँ कुबेरके अनुपम भवन बने हुए थे। नाना प्रकारके वृक्षोंके निकट अनेक प्रकारके
खेल होते रहते थे। उन सबको देखते हुए किरीटधारी अर्जुन बहुधा वहाँ विचरा करते और
हाथमें धनुष लेकर सदा अस्त्रोंके अभ्यासमें संलग्न रहते थे ।। ३ ।।
अवाप्य वासं नरदेवपुत्रा:
प्रसादजं वैश्रवणस्य राज्ञ:
न प्राणिनां ते स्पृहयन्ति राजन्
शिवश्व काल: स बभूव तेषाम् ।। ४ ।।
राजन! राजकुमार पाण्डवोंको राजाधिराज कुबेरकी कृपासे वहाँका निवास प्राप्त हुआ
था। वे वहाँ रहकर भूतलके अन्य प्राणियोंके ऐश्वर्यसुखकी अभिलाषा नहीं रखते थे।
उनका वह समय बड़े सुखसे बीत रहा था ।।
समेत्य पार्थेन यथैकरात्र-
मूषु: समास्तत्र तदा चतस्र:
पूर्वाश्न षट् ता दश पाण्डवानां
शिवा बभूवुर्वसतां वनेषु ।। ५ ।।
वे अर्जुनके साथ वहाँ चार वर्षोतक रहे, परंतु उनको वह समय एक रातके समान ही
प्रतीत हुआ। पहलेके छः: वर्ष तथा वहाँके चार वर्ष इस प्रकार सब मिलाकर पाण्डवोंके
वनवासके दस वर्ष आनन्दपूर्वक बीत गये ।। ५ ।।
ततोअब्रवीद् वायुसुतस्तरस्वी
जिष्णुश्न॒ राजानमुपोपविश्य
यमौ च वीरौ सुरराजकल्पा-
वेकान्तमास्थाय ह्ित॑ प्रियं च ।। ६ ।।
तदनन्तर एक दिन अर्जुन तथा वीरवर नकुल-सहदेव, जो देवराजके समान पराक्रमी
थे, एकान्तमें राजा युधिष्ठिरके पास बैठे थे। उस समय वेगशाली वायुपुत्र भीमसेन यह
हितकर एवं प्रिय वचन बोले-- || ६ |।
तव प्रतिज्ञां कुरुराज सत्यां
चिकीर्षमाणास्तदनु प्रियं च
ततो न गच्छाम वनान्यपास्य
सुयोधनं सानुचरं निहन्तुम् ।। ७ ।।
“कुरुगाज! आपकी प्रतिज्ञाको सत्य करनेकी इच्छासे और आपका प्रिय करनेकी
अभिलाषा रखनेके कारण हमलोग यह वनवास छोड़कर दुर्योधनका अनुचरोंसहित वध
करने नहीं जा रहे हैं ।। ७ ।।
एकादशं वर्षमिदं वसाम:
सुयोधनेनात्तसुखा: सुखार्हा[:
त॑ वज्चयित्वाधमबुद्धिशील-
मज्ञातवासं सुखमाप्नुयाम ।। ८ ।।
“अब हमारे निवासका यह ग्यारहवाँ वर्ष चल रहा है। हमलोग सुख भोगनेके अधिकारी
थे, परन्तु दुर्योधनने हमारा सुख छीन लिया। उसकी बुद्धि तथा स्वभाव अत्यन्त अधम है।
उस दुष्टको धोखा देकर हम अपने अज्ञातवासका समय भी सुखपूर्वक बिता लेंगे | ८ ।।
तवाज्ञया पार्थिव निर्विशड्का
विहाय मानं॑ विचरन् वनानि
समीपवासेन विलोभितास्ते
ज्ञास्यन्ति नास्मानपकृष्टदेशान् ।। ९ ।।
'भूपशिरोमणे! आपकी आज्ञासे हम मानापमानका विचार छोड़कर नि:शंक हो वनमें
विचरते रहेंगे। पहले किसी निकटवर्ती स्थानमें रहकर दुर्योधन आदिके मनमें वहीं खोज
करनेका लोभ उत्पन्न करेंगे और फिर वहाँसे दूर देशमें चले जायँगे, जिससे उन्हें हमारा पता
न लग सकेगा ।। ९ |।
संवत्सरं तत्र विद्ृत्य गूढं
नराधमं तं॑ सुखमुद्धरेम
निर्यात्य वैरं सफल॑ सपुष्पं
तस्मै नरेन्द्राधमपूरुषाय ।। १० ।।
सुयोधनायानुचरैर्वृताय
ततो महीमावस धर्मराज
स्वर्गोपमं देशमिमं चरद्धिः
शक्यो विहन्तुं नरदेव शोक: ।। ११ ।।
“वहाँ एक वर्षतक गुप्तरूपसे निवास करके जब हम लौटेंगे, तब अनायास ही उस
नराधम दुर्योधनकी जड़ उखाड़ देंगे। नरेन्द्र! नीच दुर्योधन आज अपने अनुचरोंसे घिरकर
सुखी हो रहा है। उसने जो वैरका वृक्ष लगा रखा है, उसे हम फल-फ़ूलसहित उखाड़ फेकेंगे
और उससे वैरका बदला लेंगे। अत: धर्मराज! आप यहाँसे चलकर पृथ्वीपर निवास करें।
नरदेव! इसमें संदेह नहीं कि हमलोग इस स्वर्गतुल्य प्रदेशमें विचरते रहनेपर भी अपना सारा
शोक अनायास ही निवृत्त कर सकते हैं ।। १०-११ ।।
कीर्तिस्तु ते भारत पुण्यगन्धा
नश्येद्धि लोकेषु चराचरेषु
तत् प्राप्य राज्यं कुरुपुड्रवानां
शक््यं महत् प्राप्तुमथ क्रियाश्व॒ ।। १२ ।।
इदं तु शक््यं सतत नरेन्द्र
प्राप्तुं त्वया यललभसे कुबेरात्
कुरुष्व बुद्धि द्विषतां वधाय
कृतागसां भारत निग्रहे च ।। १३ ।।
“परंतु ऐसा होनेपर चराचर जगत्में आपकी पुण्यमयी कीर्ति नष्ट हो जायगी। इसलिये
कुरुवंश-शिरोमणि अपने पूर्वजोंके उस महान् राज्यको प्राप्त करके ही हम और कोई
सत्कर्म करनेयोग्य हो सकते हैं। भरतकुलभूषण महाराज! आप कुबेरसे जो सम्मान या
अनुग्रह प्राप्त कर रहे हैं, इसे तो सदा ही प्राप्त कर सकते हैं। इस समय तो अपराधी
शत्रुओंको मारने और दण्ड देनेका निश्चय कीजिये ।। १२-१३ ।।
तेजस्तवोग्रं न सहेत राजन्
समेत्य साक्षादपि वज्पाणि:
न हि व्यथां जातु करिष्यतस्तौ
समेत्य देवैरपि धर्मराज ।। १४ ।।
तवार्थसिद्धयर्थमपि प्रवृत्तौ
सुपर्णकेतुश्न शिनेश्व नप्ता
तथैव कृष्णो5प्रतिमो बलेन
तथैव चाहं नरदेववर्य ।। १५ ।।
तवार्थसिद्धयर्थमभिप्रपन्नो
यथैव कृष्ण: सह याददवैस्तै:
तथैव चाहं नरदेववर्य
यमौ च वीरौ कृतिनौ प्रयोगे || १६ ।।
“राजन! साक्षात् वज्रधारी इन्द्र भी आपसे भिड़कर आपके भयंकर तेजको नहीं सह
सकते। धर्मराज! आपका कार्य सिद्ध करनेके लिये दो वीर सदा प्रयत्न करते हैं! गरुडध्वज
भगवान् श्रीकृष्ण और शिनिके नाती वीरवर सात्यकि। ये दोनों आपके लिये देवताओंसे भी
युद्ध करनेमें कभी कष्टका अनुभव नहीं करेंगे। नरदेवशिरोमणे! इन्हीं दोनोंके समान अर्जुन
भी बल और पराक्रममें अपना सानी नहीं रखते। इसी प्रकार मैं भी बलमें किसीसे कम नहीं
हूँ। जैसे भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण यादवोंके साथ आपके प्रत्येक कार्यकी सिद्धिके लिये
उद्यत रहते हैं, उसी प्रकार मैं, अर्जुन तथा अस्त्रोंके प्रयोगमें कुशल वीर नकुल-सहदेव भी
आपकी आज्ञाका पालन करनेके लिये सदा संनद्ध रहा करते हैं ।। १४--१६ ।।
त्वदर्थयोगप्रभवप्रधाना:
शमं करिष्याम परान् समेत्य ।। १६६ ।।
आपको धनकी प्राप्ति हो और आपका एऐश्वर्य बढ़े, यही हमारा प्रधान लक्ष्य है। अतः
हमलोग शत्रुओंसे भिड़कर वैरकी शान्ति करेंगे || १६३ ।।
वैशम्पायन उवाच
ततस्तदाज्ञाय मतं महात्मा
तेषां च धर्मस्य सुतो वरिष्ठ: ।। १७ ।।
प्रदक्षिणं वैश्रवणाधिवासं
चकार धर्मार्थविदुत्तमौजा:
आमन्त्र्य वेश्मानि नदी: सरांसि
सर्वाणि रक्षांसि च धर्मराज: ।। १८ ।।
यथागतं मार्गमवेक्षमाण:
पुनर्गिरिं चैव निरीक्षमाण:
ततो महात्मा स विशुद्धबुद्धि:
सम्प्रार्थयामास नगेन््द्रवर्यम् ।। १९ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर धर्म और अर्थके तत्त्वको जाननेवाले
उत्तम ओजसे सम्पन्न श्रेष्ठ महात्मा धर्मपुत्र युधिष्ठिने उस समय उन सबके अभिप्रायको
जानकर कुबेरके निवासस्थान उस गन्धमादन पर्वतकी प्रदक्षिणा की। फिर उन्होंने वहाँके
भवनों, नदियों, सरोवरों तथा समस्त राक्षसोंसे विदा ली। इसके बाद वे जिस मार्गसे आये
थे, उसकी ओर देखने लगे। तदनन्तर उन विशुद्धबुद्धि महात्मा युधिष्ठिरने पुनः गन्धमादन
पर्वतकी ओर देखते हुए उस श्रेष्ठ गिरिराजसे इस प्रकार प्रार्थना की || १७--१९ ।।
समाप्तकर्मा सहित: सुहद्धि-
जिंत्वा सपत्नान् प्रतिलभ्य राज्यम्
शैलेन्द्र भूयस्तपसे जितात्मा
द्रष्टा तवास्मीति मतिं चकार || २० ।।
'शैलेन्द्र अब अपने मन और बुद्धिको संयममें रखनेवाला मैं शत्रुओंको जीतकर
अपना खोया हुआ राज्य पानेके बाद सुहृदोंके साथ अपना सब कार्य सम्पन्न करके पुनः
तपस्याके लिये लौटनेपर आपका दर्शन करूँगा" इस प्रकार युधिष्ठिरने निश्चय
किया ।। २० ||
वृतश्न सर्वरनुजेैर्दिजैश्न
तेनैव मार्गेण पति: कुरूणाम्
उवाह चैतान् गणशस्तथैव
घटोत्कच: पर्वतनिर्झरिषु || २१ ।।
तत्पश्चात् समस्त भाइयों और ब्रह्माणोंसे घिरे हुए कुरुगाज युधिष्ठिर उसी मार्गसे नीचे
उतरने लगे जहाँ दुर्गम पर्वत और झरने पड़ते थे, वहाँ घटोत्कव अपने गणोंसहित आकर
पहलेकी तरह इन सबको पीठपर बिठा वहाँसे पार कर देता था || २१ ।।
तान् प्रस्थितान् प्रीतमना महर्षि:
पितेव पुत्राननुशिष्य सर्वान्
स लोमश: प्रीतमना जगाम
दिवौकसां पुण्यतमं निवासम् | २२ ।।
महर्षि लोमशने जब पाण्डवोंको वहाँसे प्रस्थान करते देखा, तब जिस प्रकार दयालु
पिता अपने पुत्रोंको उपदेश देता है वैसे ही उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर सबको उत्तम उपदेश
दिया। फिर मन-ही-मन प्रसन्नताका अनुभव करते हुए वे देवताओंके परम पवित्र स्थानको
चले गये ।। २२ ।।
तेनार्शटिषिणेन तथानुशिष्टा-
स्तीर्थानि रम्याणि तपोवनानि
महान्ति चान्यानि सरांसि पार्था:
सम्पश्यमाना: प्रययुर्नराग्रया: || २३ ।।
इसी प्रकार राजर्षि आर्ड्षिणने भी उन सबको उपदेश दिया। तत्पश्चात् वे नरश्रेष्ठ
पाण्डव पवित्र तीर्थों, मनोहर तपोवनों और अन्य बड़े-बड़े सरोवरोंका दर्शन करते हुए आगे
बढ़े || २३ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि आजगरपर्वणि गन्धमादनप्रस्थाने
षट्सप्तत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १७६ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत आजगरपर्वमें गन्धमादनसे प्रस्थानविषयक एक
सौ छिह्तत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १७६ ॥/
हि न हुक है
सप्तसप्तत्याधेकशततमोब< ध्याय:
पाण्डवोंका गन्धमादनसे ह6/26:३40 4" 88:44 और
विशाखयूप वनमें होते हुए सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवनमें प्रवेश
वैशम्पायन उवाच
नगोत्तमं प्रस्रवणैरुपेतं
दिशां गजै: किन्नरपक्षिभिश्न
सुखं निवासं जहतां हि तेषां
न प्रीतिरासीद् भरतर्षभाणाम् ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! पर्वतश्रेष्ठ गन्धमादन अनेकानेक निर्डरोंसे
सुशोभित तथा दिग्गजों, किन्नरों और पक्षियोंसे सुसेवित होनेके कारण भरतवंशियों-में श्रेष्ठ
पाण्डवोंके लिये एक सुखदायक निवास था, उसे छोड़ते समय उनका मन प्रसन्न नहीं
था।।१।।
ततस्तु तेषां पुनरेव हर्ष:
कैलासमालोक्य महान् बभूव
कुबेरकान्तं भरतर्षभाणां
महीधरं वारिधरप्रकाशम् ॥। २ ।।
तत्पश्चात् कुबेरके प्रिय भूधर कैलाशको, जो श्वेत बादलोंके समान प्रकाशित हो रहा
था, देखकर भरतकुलभूषण पाण्बुपुत्रोंकोी पुनः महान् हर्ष प्राप्त हुआ ।।
समुच्छूयान् पर्वतसंनिरोधान्
गोष्ठान् हरीणां गिरिसेतुमाला:
बहून् प्रपातांश्व॒ समीक्ष्य वीरा:
स्थलानि निम्नानि च तत्र तत्र ।। ३ ।।
तथैव चान्यानि महावनानि
मृगद्धिजानेकपसेवितानि
आलोकयन्तो$भिययु: प्रतीता-
स्ते धन्विन: खड्गधरा नराग्रया: ।। ४ ।।
नरश्रेष्ठ पाण्डव अपने हाथोंमें खड्ग और धनुष लिये हुए थे। वे ऊँचाई, पर्वतोंके सकरे
स्थान, सिंहोंकी मादें, पर्वतीय नदियोंको पार करनेके लिये बने हुए पुल, बहुत-से झरने और
नीची भूमियोंको जहाँ-तहाँ देखते हुए तथा मृग, पक्षी एवं हाथियोंसे सेवित दूसरे-दूसरे
विशाल वनोंका अवलोकन करते हुए विश्वासपूर्वक आगे बढ़ने लगे ।। ३-४ ।।
वनानि रम्याणि नदी: सरांसि
गुहा गिरीणां गिरिगह्वराणि
एते निवासा: सततं बभूवु-
दिवानिशं प्राप्प नरर्षभाणाम् ।। ५ ।।
पुरुषरत्न पाण्डव कभी रमणीय वनोंमें, कभी सरोवरोंके किनारे, कभी नदियोंके तटपर
और कभी पर्वतोंकी छोटी-बड़ी गुफाओंमें दिन या रातके समय ठहरते जाते थे। सदा ऐसे
ही स्थानोंमें उनका निवास होता था ।। ५ ।।
ते दुर्गवासं बहुधा निरुष्य
व्यतीत्य कैलासमचिन्त्यरूपम्
आसेदुरत्यर्थमनोरमं ते
तमाश्रमाग्रयं वृषपर्वणस्तु || ६ ।।
अनेक बार दुर्गम स्थानोंमें निवास करके अचिन्त्यरूप कैलासपर्वतको पीछे छोड़कर वे
पुनः वृषपर्वाके अत्यन्त मनोरम उस श्रेष्ठ आश्रममें आ पहुँचे |। ६ ।।
समेत्य राज्ञा वृषपर्वणा ते
प्रत्यर्चितास्तेन च वीतमोहा:
शशंसिरे विस्तरश: प्रवासं
गिरौ यथावद् वृषपर्वणस्ते ।। ७ ।।
वहाँ राजा वृषपर्वासे मिलकर और उनसे भलीभाँति पूजित होकर उन सबका शोक-
मोह दूर हो गया। फिर उन्होंने वृषपर्वासे गन्धमादन पर्वतपर अपने रहनेके वृत्तान्तका
यथार्थरूपसे एवं विस्तारपूर्वक वर्णन किया ।।
सुखोषितास्तस्य त एकरात्रं
पुण्याश्रमे देवमहर्षिजुष्टे
अभ्याययुस्ते बदरीं विशालां
सुखेन वीरा: पुनरेव वासम् ॥। ८ ।।
उस पवित्र आश्रममें देवता और महर्षि निवास किया करते थे। वहाँ एक रात
सुखपूर्वक रहकर वे वीर पाण्डव फिर विशालापुरीके बदरिकाश्रमतीर्थमें चले आये और
वहाँ बड़े आनन्दसे रहे ।। ८ ।।
ऊषुस्ततस्तत्र महानुभावा
नारायणस्थानगता: समग्रा:
कुबेरकान्तां नलिनीं विशोका:
सम्पश्यमाना: सुरसिद्धजुष्टाम् ।। ९ ।।
तत्पश्चात् वहाँ भगवान् नर-नारायणके क्षेत्रमें आकर सभी महानुभाव पाण्डवोंने
सुखपूर्वक निवास किया और शोकरहित हो कुबेरकी उस प्रिय पुष्करिणीका दर्शन किया,
जिसका सेवन देवता और सिद्ध पुरुष किया करते हैं ।।
तां चाथ दृष्टवा नलिनीं विशोका:
पाण्डो: सुता: सर्वनरप्रधाना:
ते रेमिरे नन्दनवासमेत्य
द्विजर्षयो वीतमला यथैव ।। १० ||
सम्पूर्ण मनुष्योंमें श्रेष्ठ वे पाण्डुपुत्र उस पुष्करिणीका दर्शन करके शोकरहित हो वहाँ
इस प्रकार आनन्दका अनुभव करने लगे, मानो निर्मल ब्रह्मर्षिगण इन्द्रके नन्दनवनमें सानन्द
विचर रहे हों ।। १० ।।
ततः क्रमेणोपययुर्न॒वीरा
यथागतेनैव पथा समग्रा:
विहृत्य मासं सुखिनो बदर्या
किरातराज्ञो विषयं सुबाहो: ।। ११ ।।
इसके बाद वे सारे नरवीर जिस मार्गसे आये थे, क्रमशः उसी मार्गसे चल दिये।
बदरिकाश्रममें एक मासतक सुखपूर्वक विहार करके उन्होंने किरातनरेश सुबाहुके राज्यकी
ओर प्रस्थान किया ।। ११ ।।
पीनांस्तुषारान् दरदांश्व॒ सर्वान्
देशान् कुलिन्दस्य च भूमिरत्नान्
अतीत्य दुर्ग हिमवत्प्रदेशं
पुरं सुबाहोर्ददृशुर्नुवीरा: ॥। १२ ।।
कुलिन्दके तुषार, दरद आदि धन-धान्यसे युक्त और प्रचुर रत्नोंसे सम्पन्न देशोंको लाँघते
हुए हिमालयके दुर्गम स्थानोंको पार करके उन नरवीरोंने राजा सुबाहुका नगर
देखा ।॥। १२ ।।
श्रुत्वा च तान् पार्थिवपुत्रपौत्रान्
प्राप्तान् सुबाहुर्विषये समग्रान्
प्रत्युद्ययौ प्रीतियुत: स राजा
त॑ चाभ्यनन्दन् वृषभा: कुरूणाम् ।। १३ ।।
राजा सुबाहुने जब सुना कि मेरे राज्यमें राजपुत्र पाण्डवगण पधारे हुए हैं, तब बहुत
प्रसन्न होकर नगरसे बाहर आ उसने उन सबकी अगवानी की। फिर कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर
आदिने भी उनका बड़ा समादर किया ।। १३ |।
समेत्य राज्ञा तु सुबाहुना ते
सूतैर्विशोकप्रमुखैश्न सर्वे
सहेन्द्रसेनै: परिचारिकैश्न
पौरोगवैर्ये च महानसस्था: ।। १४ ।।
राजा सुबाहुसे मिलकर वे विशोक आदि अपने सारथियों, इन्द्रसेन आदि परिचारकों,
अग्रगामी सेवकों तथा रसोइयोंसे भी मिले ।। १४ ।।
सुखोषितास्तत्र त एकरात्र॑
सूतान् समादाय रथांश्व सर्वान्
घटोत्कचं सानुचरं विसृज्य
ततोभ्ययुर्यामुनमद्रिराजम् ।। १५ ।।
वहाँ उन सबने एक रात बड़े सुखसे निवास किया। पाण्डवोंने अपने सारे सारथियों
तथा रथोंको साथ ले लिया और अनुचरोंसहित घटोत्कचको विदा करके वहाँसे पर्वतराजको
प्रस्थान किया जहाँ यमुनाका उद्गम-स्थान है ।। १५ ।।
तस्मिन् गिरौ प्रस्नरवणोपपन्न-
हिमोत्तरीयारुणपाण्डुसानौ
विशाखयूपं समुपेत्य चक्ु-
स्तदा निवासं पुरुषप्रवीरा: ।। १६ ।।
झरनोंसे युक्त हिमराशि उस पर्वतरूपी पुरुषके लिये उत्तरीयका काम करती थी और
उसका अरुण एवं श्वेत रंगका शिखर बालसूर्यकी किरणें पड़नेसे सफेद एवं लाल पगड़ीके
समान शोभा पाता था। उसके ऊपर विशाखयूप नामक वनमें पहुँचकर नरवीर पाण्डवोंने
उस समय निवास किया ।। १६ ।।
वराहनानामृगपक्षिजुष्ट
महावन चैत्ररथप्रकाशम्
शिवेन पार्था मृगयाप्रधाना:
संवत्सरं तत्र वने विजहुः ।। १७ ।।
वह विशाल वन चैत्ररथ वनके समान शोभायमान था। वहाँ सूअर, नाना प्रकारके मृग
तथा पक्षी निवास करते थे। उन दिनों पाण्डवोंका वहाँ हिंस्र जीवोंको मारना ही प्रधान काम
था। वहाँ वे एक वर्षतक बड़े सुखसे विचरते रहे || १७ ।।
तत्राससादातिबलं भुजड़ं
क्षुधार्दितं मृत्युमिवोग्ररूपम्
वृकोदर: पर्वतकन्दरायां
विषादमोहव्यथितान्तरात्मा ।। १८ ।।
उसी यात्रामें भीमसेन एक दिन पर्वतकी कन्दरामें भूखसे पीड़ित एक अजगरके पास
जा पहुँचे, जो अत्यन्त बलवान होनेके साथ ही मृत्युके समान भयानक था। उस समय
उनकी अनन््तरात्मा विषाद एवं मोहसे व्यथित हो उठी ।। १८ ।।
दीपो5भवद् यत्र वृकोदरस्य
युधिष्ठिरो धर्मभृतां वरिष्ठ:
अमोक्षयद् यस्तमनन्ततेजा
ग्राहेण संवेष्टितसर्वगात्रम् ।। १९ ।।
उस अवसरपर धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ अत्यन्त तेजस्वी युधिष्ठिर भीमसेनके लिये द्वीपकी
भाँति अवलम्ब हो गये। अजगरने भीमसेनके सम्पूर्ण शरीरको लपेट लिया था, परंतु
युधिष्ठिरने (अजगरको उसके प्रश्नोंके उत्तरद्वारा संतुष्ट करके) उन्हें छुड़ा दिया ।। १९ ।।
ते द्वादशं वर्षमुपोपयातं
वने विहर्तु कुरव: प्रतीता:
तस्माद् वनाच्चैत्ररथप्रकाशात्
श्रिया ज्वलन्तस्तपसा च युक्ता: ।। २० ।।
ततश्न यात्वा मरुधन्वपारश्व
सदा भरनुर्वेदरतिप्रधाना:
सरस्वतीमेत्य निवासकामा:
सरस्ततो द्वैतवनं प्रतीयु: ।। २१ ।।
अब इन पाण्डवोंके वनवासका बारहवाँ वर्ष आ पहुँचा था। उसे भी वनमें सानन्द
व्यतीत करनेके लिये उनके मनमें बड़ा उत्साह था। अपनी अद्भुत कान्तिसे प्रकाशित होते
हुए तपस्वी पाण्डव चैत्ररथ वनके समान शोभा पानेवाले उस वनसे निकलकर मरुभूमिके
पास सरस्वतीके तटपर गये और वहीं निवास करनेकी इच्छासे द्वैतवनके द्वैत सरोवरके
समीप गये। उस समय पाण्डवोंका विशेष प्रेम सदा धनुर्वेदमें ही लक्षित होता था ।।
समीक्ष्य तान् द्वैतवने निविष्टान्
निवासिनस्तत्र ततो5भिजग्मु:
तपोदमाचारसमाधियुक्ता-
स्तृणोदपात्रावरणाश्मकुट्टा: ।। २२ ।।
उन्हें द्वैतववनमें आया देख वहाँके निवासी उनके दर्शनके लिये निकट आये। वे सब-के-
सब तपस्या, इन्द्रिय-संयम, सदाचार और समाधिमें तत्पर रहनेवाले थे। तिनकेकी चटाई,
जलपात्र, ओढ़नेका कपड़ा और सिल-लोढ़े--यही उनके पास सामग्री थी ।। २२ ।।
प्लक्षाक्षरोहीतकवेतसाश्र
तथा बदर्य: खदिरा: शिरीषा:
बिल्वेड्गुदा: पीलुशमीकरीरा:
सरस्वतीतीररुहा बभूवु: ॥॥ २३ ।।
तां यक्षगन्धर्वमहर्षिकान्ता-
मागारभूतामिव देवतानाम्
सरस्वती प्रीतियुता श्चरन्त:
सुखं विजहुर्नरदेवपुत्रा: ।। २४ ।।
सरस्वतीके तटपर पाकड़, बहेड़ा, रोहितक, बेंत, बेर, खैर, सिरस, बेल, इंगुदी, पीलु,
शमी और करीर आदिके वृक्ष खड़े थे। वह नदी यक्ष, गन्धर्व और महर्षियोंको प्रिय थी।
देवताओंकी तो वह मानो बस्ती ही थी। राजपुत्र पाण्डव बड़ी प्रसन्नता और सुखसे वहाँ
विचरने और निवास करने लगे ।। २३-२४ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि आजगरपर्वणि पुनर्द्धतवनप्रवेशे
सप्तसप्तत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १७७ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत आजगरपर्वमें पाण्डवोंका पुन: द्वैतवनमें
प्रवेशविषयक एक सौ सतहतत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १७७ ॥।
हि आय ० (0) है 2
अष्टस प्तरत्याधेकशततमो< ध्याय:
महाबली भीमसेनका हिंसक पशुओंको मारना और
अजगरद्वारा पकड़ा जाना
जनमेजय उवाच
कथं नागायुतप्राणो भीमो भीमपराक्रम:
भयमाहारयत तीव्र तस्मादजगरान्मुने ।। १ ।।
जनमेजयने पूछा--मुने! भयानक पराक्रमी भीमसेनमें ते दस हजार हाथियोंका बल
थ। फिर उन्हें उस अजगरसे इतना तीव्र भय कैसे प्राप्त हुअ? ।। १ ।।
पौलस्त्यं धनदं युद्धे य आह्वयति दर्पित:
नलिन्यां कदनं कृत्वा निहन्ता यक्षरक्षसाम् ।। २ ।।
त॑ं शंससि भयाविष्टमापन्नमरिसूदनम्
एतदिच्छाम्यहं श्रीतुं परं कौतूहलं हि मे ।। ३ ।।
जो बलके घमंडमें आकर पुलस्त्यनन्दन कुबेरको भी युद्धके लिये ललकारते थे,
जिन्होंने कुबेरकी पुष्करिणीके तटपर कितने ही यक्षों तथा राक्षसोंका संहार कर डाला था,
उन्हीं शत्रुसूदन भीमसेनको आप भयभीत (और विपत्तिग्रस्त) बताते हैं। अतः मैं इस
प्रसंगको विस्तारसे सुनना चाहता हूँ। इसके लिये मेरे मनमें बड़ा कौतूहल हो रहा
है ।। २-३ ।।
वैशम्पायन उवाच
बन्नाश्चयें वने तेषां वसतामुग्रधन्विनाम्
प्राप्तानामाश्रमाद् राजन् राजर्षे्वृषपर्वण: ॥। ४ ।।
वैशम्पायनजीने कहा--राजन्! राजर्षि वृषप्वकि आश्रमसे आकर उग्र धनुर्धर
पाण्डव अनेक आश्रर्योंसे भरे हुए उस द्वैतवनमें निवास करते थे ।। ४ ।।
यदृच्छया धनुष्पाणिरबद्धखड्गो वृकोदर:
ददर्श तद् वन रम्यं देवगन्धर्वसेवितम् ।। ५ ।।
भीमसेन तलवार बाँधकर हाथमें धनुष लिये अकस्मात् घूमने निकल जाते और
देवताओं तथा गन्धर्वोंसे सेवित उस रमणीय वनकी शोभा निहारते थे ।। ५ ।।
स ददर्श शुभान् देशान् गिरेहिमवतस्तदा
देवर्षिसिद्धचरितानप्सरोगणसेवितान् ।। ६ ।।
उन्होंने हिमालय पर्वतके उन शुभ प्रदेशोंका अवलोकन किया जहाँ देवर्षि और सिद्ध
पुरुष विचरण करते थे तथा अप्सराएँ जिनका सदा सेवन करती थीं ।। ६ ।।
चकोरैरुपचक्रैश्व पक्षिभिर्जीवजीवकै:
कोकिलेभ्भड्गराजैश्व तत्र तत्र निनादितान् । ७ ।।
वहाँ भिन्न-भिन्न स्थानोंमें चकोर, उपचक्र, जीव-जीवक, कोकिल और भृंगराज आदि
पक्षी कलरव करते थे ।। ७ ।।
नित्यपुष्पफलैव॑क्षैर्हिमसंस्पर्शकोमलै:
उपेतान् बहुलच्छायैर्मनोनयननन्दनै: ।। ८ ।।
वहाँके वृक्ष सदा फ़ूल और फल देते थे। हिमके स्पर्शसे उनमें कोमलता आ गयी थी।
उनकी छाया बहुत घनी थी और वे दर्शनमात्रसे मन एवं नेत्रोंकी आनन्द प्रदान करते
थे।। ८ ।।
स सम्पश्यन् गिरिनदीर्वैदूर्यमणिसंनिभै:
सलिलैहिमसंकाशै्हँसकारण्डवायुतै: ।। ९ ।।
उन वृक्षोंसे सुशोभित प्रदेशों तथा वैदूर्यमणिके समान रंगवाले, हिमसदृश स्वच्छ,
शीतल सलिल-समूहसे संयुक्त पर्वतीय नदियोंकी शोभा निहारते हुए वे सब ओर घूमते थे।
नदियोंकी उस जलराशिमें हंस और कारण्डव आदि सहसौरों पक्षी किलोलें करते थे ।।
वनानि देवदारूणां मेघानामिव वागुरा:
हरिचन्दनमिश्राणि तुड़कालीयकान्यपि ।। १० ।।
हरिचन्दन, तुंग और कालीयक आदि वृक्षोंसे युक्त ऊँचे-ऊँचे देवदारुक वन ऐसे जान
पड़ते थे मानो बादलोंको फँसानेके लिये फंदे हों || १० ।।
मृगयां परिधावन् स समेषु मरुधन्वसु
विध्यन् मृगान् शरै: शुद्ध क्षचार स महाबल: ।। ११ ।।
महाबली भीम सारे मरु प्रदेशमें शिकारके लिये दौड़ते और केवल बाणोंद्वारा हिंसक
पशुओंको घायल करते हुए विचरा करते थे || ११ ।।
भीमसेनस्तु विख्यातो महान्तं दंष्टिणं बलात्
निघ्नन् नागशतप्राणो वने तस्मिन् महाबल: || १२ ।।
भीमसेन अपने महान् बलके लिये विख्यात थे। उनमें सैकड़ों हाथियोंकी शक्ति थी। वे
उस वनमें विकराल दाढ़ोंवाले बड़े-से-बड़े सिंहको भी पछाड़ देते थे || १२ ।॥।
मृगाणां स वराहाणां महिषाणां महाभुज:
विनिष्नंस्तत्र तत्रेव भीमो भीमपराक्रम: ।॥। १३ ।।
भीमसेनका पराक्रम भी उनके नामके अनुसार ही भयानक था। उनकी भुजाएँ विशाल
थीं। वे मृगयामें प्रवृत्त होकर जहाँ-तहाँ हिंसक पशुओं, वराहों और भैंसोंको भी मारा करते
थे ।। १३ ।।
स मातज्गशतप्राणो मनुष्पशतवारण:
सिंहशार्दूलविक्रान्तो वने तस्मिन् महाबल: ।। १४ ।।
वृक्षानुत्पाटपामास तरसा वै बभज्ज च
पृथिव्याश्व प्रदेशान् वै नादयंस्तु वनानि च ।। १५ ।।
उनमें सैकड़ों मतवाले गजराजोंके समान बल था। वे एक साथ सौ-सौ मनुष्योंका वेग
रोक सकते थे। उनका पराक्रम सिंह और शार्दूलके समान था महाबली भीम उस वनमें
वृक्षोंको उखाड़ते और उन्हें वेगपूर्वक पुनः तोड़ डालते थे। वे अपनी गर्जनासे उस वन्य
भूमिके प्रदेशों तथा समूचे वनको गुँजाते रहते थे || १४-१५ ।।
पर्वताग्राणि वै मृदूनन् नादयानश्न विज्वर:
प्रक्षिपन् पादपांश्चापि नादेनापूरयन् महीम् ।। १६ ।।
वे पर्वतशिखरोंको रौंदते, वृक्षोंको तोड़कर इधर-उधर बिखेरते और निश्चिन्त होकर
अपने सिंहनादसे भूमण्डलको प्रतिध्वनित किया करते थे ।। १६ ।।
वेगेन न््यपतद् भीमो निर्भयश्व पुनः पुनः
आस्फोटयन क्ष्वेडयंश्व॒ तलतालांश्व वादयन् ।। १७ ।।
वे निर्भय होकर बार-बार वेगपूर्वक कूदते-फाँदते, ताल ठोंकते, सिंहनाद करते और
तालियाँ बजाते थे ।। १७ ।।
चिरसम्बद्धदर्पस्तु भीमसेनो वने तदा
गजेन्द्राश्न महासत्त्वा मृगेन्द्राश्ष महाबला: ।। १८ ।।
भीमसेनस्य नादेन व्यमुठ्जन्त गुहा भयात्
वनमें घूमते हुए भीमसेनका बलाभिमान दीर्घकालसे बहुत बढ़ा हुआ था। उस समय
उनकी सिंह-गर्जनासे महान् बलशाली गजराज और मृगराज भी भयसे अपना स्थान
छोड़कर भाग गये ।। १८३ ।।
क्वचित् प्रधावंस्तिष्ठ॑श्न॒ क्वचिच्चोपविशंस्तथा ।। १९ ।।
मृगप्रेप्सुर्महारौद्रे वने चरति निर्भय:
स तत्र मनुजव्याप्रो वने वनचरोपम: ।। २० ।।
पदभ्यामभिसमापेदे भीमसेनो महाबल:
स प्रविष्टो महारण्ये नादान् नदति चाद्भुतान् ।। २१ ।।
त्रासयन् सर्वभूतानि महासत्त्वपराक्रम:
वे कहीं दौड़ते, कहीं खड़े होते और कहीं बैठते हुए शिकार पानेकी अभिलाषासे उस
महाभयंकर वनमें निर्भय विचरते रहते थे। वे नरश्रेष्ठ महाबली भीम उस वनमें वनचर
भीलोंकी भाँति पैदल ही चलते थे, उनका साहस और पराक्रम महान् था। वे गहन वनमें
प्रवेश करके समस्त प्राणियोंको डराते हुए अद्भुत गर्जना करते थे || १९--२१ ३ ।।
ततो भीमस्य शब्देन भीता: सर्पा गुहाशया: ।। २२ ||
अतकिक्रान्तास्तु वेगेन जगामानुसूत: शनै:
ततो5मरवरप्रख्यो भीमसेनो महाबल: ।। २३ ।।
स ददर्श महाकायं भुजज़्ं लोमहर्षणम्
गिरिदुर्गे समापन्नं कायेनावृत्य कन्दरम् ।। २४ ।।
तदनन्तर एक दिनकी बात है, भीमसेनके सिंहनादसे भयभीत हो गुफाओंमें रहनेवाले
सारे सर्प बड़े वेगसे भागने लगे और भीमसेन धीरे-धीरे उन्हींका पीछा करने लगे। श्रेष्ठ
देवताओंके समान कान्तिमान् महाबली भीमसेनने आगे जाकर एक विशालकाय अजगर
देखा, जो रोंगटे खड़े कर देनेवाला था। वह अपने शरीरसे एक (विशाल) कन्दराको घेरकर
पर्वतके एक दुर्गम स्थानमें रहता था || २२--२४ ।।
पर्वताभोगवर्ष्माणमतिकायं महाबलम्
चित्राड़मड़जैश्षित्रैर्हरिद्रासद्शच्छविम् ।। २५ ।।
गुहाकारेण वक््त्रेण चतुर्दष्टेण राजता
दीप्ताक्षेणातिताम्रेण लिहानं सृक्किणी मुहुः ।। २६ ।।
त्रासनं सर्वभूतानां कालान्तकयमोपमम्
निःश्वासक्ष्वेडनादेन भर्त्सयन्तमिव स्थितम ।। २७ ||
उसका शरीर पर्वतके समान विशाल था। वह महाकाय होनेके साथ ही अत्यन्त
बलवान् भी था। उसका प्रत्येक अंग शारीरिक विचित्र चिह्नोंसे चिह्नित होनेके कारण विचित्र
दिखायी देता था। उसका रंग हल्दीके समान पीला था। प्रकाशमान चारों दाढ़ोंसे युक्त
उसका मुख गुफा-सा जान पड़ता था। उसकी आँखें अत्यन्त लाल और आग उगलती-सी
प्रतीत होती थीं। वह बार-बार अपने दोनों गलफरोंको चाट रहा था। कालान्तक तथा यमके
समान समस्त प्राणियोंको भयभीत करनेवाला वह भयानक भुजंग अपने उच्छवास और
सिंहनादसे दूसरोंकी भर्त्सना करता-सा प्रतीत होता था || २५--२७ ।।
स भीम॑ सहसाभ्येत्य पृदाकु: कुपितो भृशम्
जग्राहाजगरो ग्राहो भुजयोरुभयोरबलात् ।। २८ ।।
वह अजगर अत्यन्त क्रोधमें भरा हुआ था। (मनुष्योंकोी) जकड़नेवाले उस सर्पने सहसा
भीमसेनके निकट पहुँचकर उनकी दोनों बाँहोंको बलपूर्वक जकड़ लिया ।। २८ ।।
तेन संस्पृष्टगात्रस्य भीमसेनस्य वै तदा
संज्ञा मुमोह सहसा वरदानेन तस्य हि ॥। २९ ।।
उस समय भीमसेनके शरीरका उससे स्पर्श होते ही वे भीमसेन सहसा अचेत हो गये।
ऐसा इसलिये हुआ कि उस सर्पको वैसा ही वरदान मिला था ।। २९ ||
दशनागसहस््राणि धारयन्ति हि यद् बलम्
तद् बलं भीमसेनस्य भुजयोरसमं परै: ।। ३० ।।
दस हजार गजराज जितना बल धारण करते हैं, उतना ही बल भीमसेनकी भुजाओंमें
विद्यमान था। उनके बलकी और कहीं समता नहीं थी ।। ३० ।।
स तेजस्वी तथा तेन भुजगेन वशीकृतः
विस्फुरन् शनकैर्भीमो न शशाक विचेष्टितुम् ।। ३१ ।।
ऐसे तेजस्वी भीम भी उस अजगरके वशमें पड़ गये। वे धीरे-धीरे छटपटाते रहे, परंतु
छूटनेकी अधिक चेष्टा करनेमें सफल न हो सके ।। ३१ ।।
नागायुतसमप्राण: सिंहस्कन्धो महाभुज:
गृहीतो व्यजहात् सत्त्वं वरदानविमोहितः ।। ३२ ।।
उनकी प्राणशक्ति दस सहस्र हाथियोंके समान थी। दोनों कंधे सिंहके कंधोंके समान थे
और भुजाएँ बहुत बड़ी थीं। फिर भी सर्पको मिले हुए वरदानके प्रभावसे मोहित हो जानेके
कारण सर्पकी पकड़में आकर वे अपना साहस खो बैठे ।। ३२ ।।
स हि प्रयत्नमकरोत् तीव्रमात्मविमोक्षणे
न चैनमशकद् वीर: कथंचित् प्रतिबाधितुम् ।। ३३ ।।
उन्होंने अपनेको छुड़ानेके लिये घोर प्रयत्न किया, किंतु वीरवर भीमसेन किसी प्रकार
भी उस सर्पको पराजित करनेमें सफलता नहीं प्राप्त कर सके ।। ३३ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि आजगरपर्वणि अजगरग्रहणे
अष्टसप्तत्यधिकशततमो< ध्याय: ।। १७८ ।।
इस प्रकार श्रीमह्या भारत वनपर्वके अन्तर्गत आजगरपर्वमें भीमयेनका अजगरद्वारा
ग्रहणसम्बन्धी एक सौ अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १७८ ॥।
हि आय >> (0) हि २ 7
एकोनाशीरत्याधिकशततमो<् ध्याय:
भीमसेन और सर्परूपधारी नहुषकी बातचीत, भीमसेनकी
चिन्ता तथा युधिष्ठटिरद्वारा भीमकी खोज
वैशम्पायन उवाच
स भीमसेनस्तेजस्वी तथा सर्पवशं गतः
चिन्तयामास सर्पस्य वीर्यमत्यद्भुतं महत् ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! इस प्रकार सर्पके वशमें पड़े हुए वे तेजस्वी
भीमसेन उस अजगरकी अत्यन्त अद्भुत शक्तिके विषयमें विचार करने लग गये ।। १ ।।
उवाच च महासर्प कामया ब्रूहि पन्नग
कस्त्वं भो भुजगश्रेष्ठ कि मया च करिष्यसि ।॥। २ ।।
पाण्डवो भीमसेनो*हं धर्मराजादनन्तर:
नागायुतसमप्राणस्त्वया नीत: कथं वशम् ।। ३ ।।
सिंहा: केसरिणो व्यात्रा महिषा वारणास्तथा
समागताश्न शतशो निहताश्न मया युधि ।। ४ ।।
राक्षसाश्न पिशाचाश्न पन्नगाश्न महाबला:
भुजवेगमशक्ता मे सोढुं पन्नगसत्तम ।। ५ ।।
कि नु विद्याबलं कि नु वरदानमथो तव
उद्योगमपि कुर्वाणो वशगो5स्मि कृतस्त्वया ।। ६ ।।
असत्यो विक्रमो नृणामिति मे धीयते मतिः
यथेदं मे त्वया नाग बल॑ प्रतिहतं महत् ।। ७ ।।
फिर उन्होंने उस महान् सर्पसे कहा--“भुजंगप्रवर! आप स्वेच्छापूर्वक बताइये। आप
कौन हैं? और मुझे पकड़कर क्या करेंगे? मैं धर्मराज युधिष्ठिरका छोटा भाई पाण्डुपुत्र
भीमसेन हूँ। मुझमें दस हजार हाथियोंका बल है, फिर भी न जाने कैसे आपने मुझे अपने
वशमें कर लिया? मेरे सामने सैकड़ों केसरी, सिंह, व्याप्र, महिष और गजराज आये, किंतु
मैंने सबको युद्धमें मार गिराया। पन्नगश्रेष्ठ! राक्षस, पिशाच और महाबली नाग भी मेरी (इन)
भुजाओंका वेग नहीं सह सकते थे। परंतु छूटनेके लिये मेरे उद्योग करनेपर भी आपने मुझे
वशमें कर लिया, इसका क्या कारण है? क्या आपमें किसी विद्याका बल है अथवा आपको
कोई न मिला है? नागराज! आज मेरी बुद्धिमें यही सिद्धान्त स्थिर हो रहा है
कि का पराक्रम झूठा है। जैसा कि इस समय आपने मेरे इस महान् बलको कुण्ठित
कर दिया है! ॥। २--७ ।।
वैशम्पायन उवाच
इत्येवंवादिनं वीर भीममक्लिष्टकारिणम्
भोगेन महता गृहा समन्तात् पर्यवेष्टयत् । ८ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! ऐसी बातें करनेवाले वीरवर भीमसेनको, जो
अनायास ही महान् पराक्रम कर दिखानेवाले थे, उस अजगरने अपने विशाल शरीरसे
जकड़कर चारों ओरसे लपेट लिया || ८ ।।
निगृहौनं महाबाहुं ततः स भुजगस्तदा
विमुच्यास्य भुजी पीनाविदं वचनमब्रवीत् ।। ९ ।।
तब इस प्रकार महाबाहु भीमसेनको अपने वशमें करके उस भुजंगमने उनकी दोनों
मोटी-मोटी भुजाओंको छोड़ दिया और इस प्रकार कहा-- ।। ९ ।।
दिष्टस्त्वं क्षुधितस्याद्य देवैर्भक्षो महाभुज
दिष्ट्या कालस्य महतः: प्रिया: प्राणा हि देहिनाम् । १० ।।
“महाबाहो! मैं दीर्घकालसे भूखा बैठा था, आज सौभाग्यवश देवताओंने तुम्हें ही मेरे
लिये भोजनके रूपमें भेज दिया है। सभी देहधारियोंको अपने-अपने प्राण प्रिय होते
हैं ।। १० ।।
यथा विविदं मया प्राप्तं सर्परूपमरिंदम
तथावश्यं मया ख्याप्यं तवाद्य शूणु सत्तम ॥। ११ ।।
'शत्रुदमन! जिस प्रकार मुझे यह सर्पका शरीर प्राप्त हुआ है, वह आज अवश्य तुमसे
बतलाना है। सज्जनशिरोमणे! तुम ध्यान देकर सुनो || ११ ।।
इमामवस्थां सम्प्राप्तो हाहं कोपान्मनीषिणाम्
शापस्यान्तं परिप्रेप्सु: सर्व तत् कथयामि ते ।। १२ ।।
“मैं मनीषी महात्माओंके कोपसे इस दुर्दशाको प्राप्त हुआ हूँ और इस शापके
निवारणकी प्रतीक्षा करते हुए यहाँ रहता हूँ। शापका क्या कारण है? यह सब तुमसे कहता
हूँ, सुनो | १२ ।।
नहुषो नाम राजर्षिव््यक्ते ते श्रोत्रमागत:ः
तवैव पूर्व: पूर्वेषामायोरवशधर: सुतः ।। १३ ।।
“मैं राजर्षि नहुष हूँ, अवश्य ही यह मेरा नाम तुम्हारे कानोंमें पड़ा होगा। मैं तुम्हारे
पूर्वजोंका भी पूर्वज हूँ। महाराज आयुका वंशप्रवर्तक पुत्र हूँ | १३ ।।
सो&हं शापादगस्त्यस्थ ब्राह्णानवमन्य च
इमामवस्थामापन्न: पश्य दैवमिदं मम ।। १४ ।।
“मैं ब्राह्यणोंका अनादर करके महर्षि अगस्त्यके शापसे इस अवस्थाको प्राप्त हुआ हूँ।
मेरे इस दुर्भाग्यको अपने आँखों देख लो || १४ ।।
त्वां चेदवध्यं दायादमतीव प्रियदर्शनम्
अहमसद्योपयोक्ष्यामि विधानं पश्य यादृशम् ।। १५ ।।
“तुम यद्यपि अवध्य हो; क्योंकि मेरे ही वंशज हो। देखनेमें अत्यन्त प्रिय लगते हो
तथापि आज तुम्हें अपना आहार बनाऊँगा। देखो, विधाताका कैसा विधान है? ।। १५ ।।
नहि मे मुच्यते कश्चित् कथंचित् प्रग्रहं गतः
गजो वा महिषो वापि षछ्ले काले नरोत्तम ।। १६ ।।
“नरश्रेष्ठ। दिनके छठे भागमें कोई भैंसा अथवा हाथी ही क्यों न हो, मेरी पकड़में आ
जानेपर किसी तरह छूट नहीं सकता ।। १६ ।।
नासि केवलसर्पेण तिर्यग्योनिषु वर्तता
गृहीत: कौरवश्रेष्ठ वरदानमिदं मम ।॥। १७ ।।
“कौरवश्रेष्ठ! तुम तिर्यग योनिमें पड़े हुए किसी साधारण सर्पकी पकड़में नहीं आये हो।
किंतु मुझे ऐसा ही वरदान मिला है (इसीलिये मैं तुम्हें पकड़ सका हूँ) ।।
पतता हि विमानाग्रयान्मया शक्रासनाद् द्रुतम्
कुरु शापान्तमित्युक्तो भगवान् मुनिसत्तम: || १८ ।।
“जब मैं इन्द्रके सिंहासनसे भ्रष्ट हो शीघ्रतापूर्वक श्रेष्ठ विमानसे नीचे गिरने लगा, उस
समय मैंने मुनिश्रेष्ठ भगवान् अगस्त्यसे प्रार्थना की कि प्रभो! मेरे शापका अन्त नियत कर
दीजिये ।। १८ ।।
स मामुवाच तेजस्वी कृपयाभिपरिप्लुतः
मोक्षस्ते भविता राजन् कस्माच्चित् कालपर्ययात् ।। १९ ।।
“उस समय उन तेजस्वी महर्षिने दयासे द्रवित होकर मुझसे कहा--'राजन्! कुछ
कालके पश्चात् तुम इस शापसे मुक्त हो जाओगे” ।। १९ ।।
ततो5स्मि पतितो भूमौ न च मामजहात् स्मृति:
स्मार्तमस्ति पुराणं मे यथैवाधिगतं तथा ।। २० ।।
“उनके इतना कहते ही मैं पृथ्वीपर गिर पड़ा। परंतु आज भी वह पुरानी स्मरण-शक्ति
मुझे छोड़ नहीं सकी है। यद्यपि यह वृत्तान्त बहुत पुराना हो चुका है तथापि जो कुछ जैसे
हुआ था; वह सब मुझे ज्यों-का-त्यों स्मरण है || २० ।।
यस्तु ते व्याह्वतान् प्रश्नान् प्रतिब्रूयाद् विभागवित्।
स त्वां मोक्षयिता शापादिति मामब्रवीदृषि: ।। २१ ।।
“महर्षिने मुझसे कहा था कि “जो तुम्हारे पूछे हुए प्रश्नोंका विभागपूर्वक उत्तर दे दे, वही
तुम्हें शापसे छुड़ा सकता है || २१ ।।
गृहीतस्य त्वया राजन् प्राणिनोडपि बलीयस:
सत्त्वभ्रंशो5धिकस्यापि सर्वस्याशु भविष्यति ।। २२ ।।
“राजन्! जिसे तुम पकड़ लोगे, वह बलवान्-से-बलवान् प्राणी क्यों न हो, उसका भी
धैर्य छूट जायगा। एवं तुमसे अधिक शक्तिशाली पुरुष क्यों न हो, सबका साहस शीघ्र ही
खो जायगा' || २२ ||
इति चाप्यहमश्रौषं वचस्तेषां दयावताम्
मयि संजातहार्दानामथ तेडन्तर्हिता द्विजा: ।। २३ ।।
इस प्रकार मेरे प्रति हार्दिक दयाभाव उत्पन्न हो जानेके कारण उन दयालु महर्षियोंने
जो बात कही थी, वह भी मैंने स्पष्ट सुनी। तत्पश्चात् वे सारे ब्रह्मर्षि अन्तर्धान हो
गये ।। २३ ।।
सो<हं परमदुष्कर्मा वसामि निरये5शुचौ
सर्पयोनिमिमां प्राप्प कालाकाडुक्षी महाद्युते || २४ ।।
महाद्युते! इस प्रकार मैं अत्यन्त दुष्कर्मी होनेके कारण इस अपवित्र नरकमें निवास
करता हूँ। इस सर्पयोनिमें पड़कर इससे छूटनेके अवसरकी प्रतीक्षा करता हूँ” || २४ ।।
तमुवाच महाबाहुर्भीमसेनो भुजड्भमम्
न च कुप्ये महासर्प न चात्मानं विगर्हये ॥। २५ ।।
तब महाबाहु भीमने उस अजगरसे कहा--“महासर्प! न तो मैं आपपर क्रोध करता हूँ
और न अपनी ही निन्दा करता हूँ || २५ ।।
यस्मादभावी भावी वा मनुष्य: सुखदु:ःखयो:
आगमे यदि वापाये न तत्र ग्लपयेन्मन: ।। २६ ।।
"क्योंकि मनुष्य सुख-दुःखकी प्राप्ति अथवा निवृतिमें कभी असमर्थ होता है और कभी
समर्थ। अत: किसी भी दशामें अपने मनमें ग्लानि नहीं आने देनी चाहिये || २६ ।।
दैवं पुरुषकारेण को वज्चयितुमह्ति
दैवमेव परं मन्ये पुरुषार्थो निरर्थक: | २७ ।।
“कौन ऐसा मनुष्य है, जो पुरुषार्थके बलसे दैवको वंचित कर सके। मैं तो दैवको ही
बड़ा मानता हूँ, पुरुषार्थ व्यर्थ है ।। २७ ।।
पश्य दैवोपघाताद्धि भुजवीर्यव्यपाश्रयम्
इमामवस्थां सम्प्राप्तमनिमित्तमिहाद्य माम् ।। २८ ।।
“देखिये, दैवके आघातसे आज मैं अकारण ही यहाँ इस दशाको प्राप्त हो गया हूँ। नहीं
तो मुझे अपने बाहुबलका बड़ा भरोसा था || २८ ।।
किंतु नाद्यानुशोचामि तथा55त्मानं विनाशितम्
यथा तु विपिने न्यस्तान् भ्रातृन् राज्यपरिच्युतान् ।। २९ ।।
'परंतु आज मैं अपनी मृत्युके लिये उतना शोक नहीं करता हूँ, जितना कि राज्यसे
वंचित हो वनमें पड़े हुए अपने भाइयोंके लिये मुझे शोक हो रहा है || २९ ।।
हिमवांश्व सुदुर्गोड्यं यक्षराक्षससंकुल:
मां समुद्वीक्षमाणास्ते प्रपतिष्यन्ति विह्लला: ।। ३० ।।
'यक्षों तथा राक्षसोंसे भरा हुआ यह हिमालय अत्यन्त दुर्गम है, मेरे भाई व्याकुल होकर
जब मुझे खोजेंगे, तब अवश्य कहीं खंदकमें गिर पड़ेंगे || ३० ।।
विनष्टमथ मां श्र॒ुत्व भविष्यन्ति निरुद्यमा:
धर्मशीला मया ते हि बाध्यन्ते राज्यगृद्धिना ।। ३१ ।।
“मेरी मृत्यु हुई सुनकर वे राज्य-प्राप्तिका सारा उद्योग छोड़ बैठेंगे। मेरे सभी भाई
स्वभावतः धर्मात्मा हैं। मैं ही राज्यके लोभसे उन्हें युद्धके लिये बाध्य करता रहता
हूँ ।। ३१ ||
अथवा नार्जुनो धीमान् विषादमुपयास्यति
सर्वस्त्रिविदनाधृष्यो देवगन्धर्वराक्षसै: ।। ३२ ।।
“अथवा बुद्धिमान् अर्जुन विषादमें नहीं पड़ेंगे; क्योंकि वे सम्पूर्ण अस्त्रोंके ज्ञाता हैं।
देवता, गन्धर्व तथा राक्षस भी उन्हें पराजित नहीं कर सकते ।। ३२ ।।
समर्थ: स महाबाहुरेको5पि सुमहाबल:
देवराजमपि स्थानात् प्रच्यावयितुमज्जसा ।। ३३ ।।
“महाबली महाबाहु अर्जुन अकेले ही देवराज इन्द्रको भी अनायास ही अपने स्थानसे
हटा देनेमें समर्थ हैं | ३३ ।।
कि पुनर्ध॑तराष्ट्रस्य पुत्र दुर्यूतदेविनम्
विद्विष्टं सर्वलोकस्य दम्भमोहपरायणम् ।॥। ३४ ।।
“फिर उस धुृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनकों जीतना उनके लिये कौन बड़ी बात है, जो
कपटटद्यूतका सेवन करनेवाला, लोकद्रोही, दम्भी तथा मोहमें डूबा हुआ है ।।
मातरं चैव शोचामि कृपणां पुत्रगृद्धिनीम्
यास्माकं नित्यमाशास्ते महत्त्वमधिकं परै: ।। ३५ ।।
“मैं पुत्रोंके प्रति स्नेह रखनेवाली अपनी उस दीन माताके लिये शोक करता हूँ, जो सदा
यह आशा रखती है कि हम सभी भाइयोंका महत्त्व शत्रुओंसे बढ़-चढ़कर हो ।। ३५ ।।
तस्या: कथं त्वनाथाया मद्विनाशाद् भुजड्गरम
सफलास्ते भविष्यन्ति मयि सर्वे मनोरथा: ।। ३६ ।।
'भुजंगम! मेरे मरनेसे मेरी अनाथ माताके वे सभी मनोरथ जो मुझपर अवलम्बित थे,
कैसे सफल हो सकेंगे? ।। ३६ ।।
नकुल: सहदेवश्न यमौ च गुरुवर्तिनौ
मद्वाहुबलसंगुप्तौ नित्यं पुरुषमानिनौ ।। ३७ ।।
“एक साथ जन्म लेनेवाले नकुल और सहदेव सदा गुरुजनोंकी आज्ञाके पालनमें लगे
रहते हैं। मेरे बाहुबलसे सुरक्षित हो वे दोनों भाई सर्वदा अपने पौरुषपर अभिमान रखते
हैं ।। ३७ ।।
भविष्यतो निरुत्साहौ भ्रष्टवीर्यपराक्रमौ
मद्विनाशात् परिद्यूनाविति मे वर्तते मति: ।। ३८ ।।
“वे मेरे विनाशसे उत्साहशून्य हो जायँगे, अपने बल और पराक्रम खो बैठेंगे और सर्वथा
शक्तिहीन हो जायँगे, ऐसा मेरा विश्वास है” || ३८ ।।
एवंविधं बहु तदा विललाप वृकोदर:
भुजड़भोगसंरुद्धो नाशकच्च विचेष्टितुम् ।। ३९ ।।
जनमेजय! उस समय भीमसेनने इस तरहकी बहुत-सी बातें कहकर देरतक विलाप
किया। वे सर्पके शरीरसे इस प्रकार जकड़ गये थे कि हिल-डुल भी नहीं सकते थे ।। ३९ ।।
युधिष्ठिरस्तु कौन्तेयो बभूवास्वस्थचेतन: ।
अनिष्टदर्शनान् घोरानुत्पातान् परिचिन्तयन् ।। ४० ।।
उधर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर अनिष्टसूचक भयंकर उत्पातोंको देखकर बड़ी चिन्तामें पड़े।
वे व्याकुल हो गये ।। ४० ।।
दारुणं ह्ुशिवं नादं शिवा दक्षिणत: स्थिता ।
दीप्तायां दिशि वित्रस्ता रौति तस्याश्रमस्य ह ।। ४१ ।।
उनके आश्रमसे दक्षिण दिशामें, जहाँ आग लगी हुई थी, एक डरी हुई सियारिन खड़ी
हो दारुण अमंगलसूचक आर्तनाद करने लगी ।। ४१ ।।
एकपफक्षाक्षिचरणा वर्तिका घोरदर्शना ।
रक्त वमन्ती ददृशे प्रत्यादित्यमभासुरा ।। ४२ ।।
एक पाँख, एक आँख तथा एक पैरवाली भयंकर और मलिन वर्तिका (बटेर चिड़िया)
सूर्यकी ओर रक्त उगलती हुई दिखायी दी || ४२ ।।
प्रववी चानिलो रूक्षक्षण्ड: शर्करकर्षण: ।
अपसपव्यानि सर्वाणि मृगपक्षिरुतानि च ।। ४३ ।।
उस समय कंकड़ बरसानेवाली रूखी और प्रचण्ड वायु बह रही थी और पशु-पक्षियोंके
सम्पूर्ण शब्द दाहिनी ओर हो रहे थे || ४३ ।।
पृष्ठतो वायस: कृष्णो याहि याहीति शंसति ।
मुहुर्मुहु: स्फुरति च दक्षिणो5स्य भुजस्तथा ।। ४४ ।।
पीछेकी ओरसे काला कौवा “जाओ-जाओ'” की रट लगा रहा था और उनकी दाहिनी
बाँह बार-बार फड़क उठती थी || ४४ ।।
हृदयं चरणश्नमापि वामो5स्य परितप्यति ।
सव्यस्याक्ष्णो विकारश्नाप्यनिष्ट: समपद्यत || ४५ ।।
उनके हृदय तथा बायें पैरमें पीड़ा होने लगी। बायीं आँखमें अनिष्टसूचक विकार उत्पन्न
हो गया ।। ४५ ।।
धर्मराजो5पि मेधावी मन््यमानो महद् भयम् ।
द्रौपदी परिपप्रच्छ क्व भीम इति भारत ।। ४६ ।।
भारत! परम बुद्धिमान् धर्मराज युधिष्ठिरने भी अपने मनमें महान् भय मानते हुए
द्रौोपदीसे पूछा--“भीमसेन कहाँ है?” ।। ४६ ।।
शशंस तस्मै पाञज्चाली चिरयातं वृकोदरम् |
स प्रतस्थे महाबाहुर्धाम्पेन सहितो नृप: ।। ४७ ।।
द्रौपदीने उत्तर दिया--'उनको यहाँसे गये बहुत देर हो गयी“--यह सुनकर महाबाहु
महाराज युधिष्छिर महर्षि धौम्यके साथ उनकी खोजके लिये चल दिये ।। ४७ ।।
द्रौपद्या रक्षणं कार्यमित्युवाच धनंजयम् |
नकुलं सहदेवं च व्यादिदेश द्विजान् प्रति ।। ४८ ।।
जाते समय उन्होंने अर्जुनसे कहा--'द्रौपदीकी रक्षा करना।” फिर उन्होंने नकुल और
सहदेवको ब्राह्मणोंकी रक्षा एवं सेवाके लिये आज्ञा दी || ४८ ।।
स तस्य पदमुन्नीय तस्मादेवाश्रमात् प्रभु: ।
मृगयामास कौन्तेयो भीमसेनं महावने ।। ४९ ।।
शक्तिशाली कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरने उस महान् वनमें भीमसेनके पदचिह्न देखते हुए उस
आश्रमसे निकलकर सब ओर खोजा || ४९ ||
स प्राचीं दिशमास्थाय महतो गजयूथपान् ।
ददर्श पृथिवीं चिटह्लैर्भीमस्य परिचिह्विताम् ।। ५० ।।
पहले पूर्व दिशामें जाकर हाथियोंके बड़े-बड़े यूथपतियोंकों देखा। वहाँकी भूमि
भीमसेनके पद-चिह्नोंसे चिह्नित थी || ५० ।।
ततो मृगसहस््राणि मृगेन्द्राणां शतानि च ।
पतितानि वने दृष्टवा मार्ग तस्याविशन्नूप: ।। ५१ ।।
वहाँसे आगे बढ़नेपर उन्होंने वनमें सैकड़ों सिंह और हजारों अन्य हिंसक पशु पृथ्वीपर
पड़े देखे। देखकर भीमसेनके मार्गका अनुसरण करते हुए राजाने उसी वनमें प्रवेश
किया ।। ५१ ।।
धावतस्तस्य वीरस्य मृगार्थ वातरंहस: ।
ऊरुवातविनिर्भग्ना ट्रुमा व्यावर्जिता: पथि ।। ५२ ।।
वायुके समान वेगशाली वीरवर भीमसेनके शिकारके लिये दौड़नेपर मार्गमें उनकी
जाँघोंके आघातसे टूटकर पड़े हुए बहुत-से वृक्ष दिखायी दिये || ५२ ।।
स गत्वा तैस्तदा चिटह्लैर्ददर्श गिरिगह्रे ।
रूक्षमारुतभूयिष्ठे निष्पत्रद्रुमसंकुले || ५३ ।।
ईरिणे निर्जले देशे कण्टकिद्रुमसंकुले ।
अश्मस्थाणुक्षुपाकीर्णे सुदुर्गे विषमोत्कटे ।
गृहीतं भुजगेन्द्रेण निश्चेष्टमनुजं तदा ।। ५४ ।।
तब उन्हीं पद-चिह्लोंके सहारे जाकर उन्होंने पर्वतकी कन्दरामें अपने भाई भीमसेनको
देखा, जो अजगरकी पकड़में आकर चेष्टाशून्य हो गये थे। उक्त पर्वतकी कन्दरामें विशेष
रूपसे रूक्ष वायु चलती थी। वह गुफा ऐसे वृक्षोंसे ढकी थी, जिनमें नाममात्रके लिये भी
पत्ते नहीं थे। इतना ही नहीं, वह स्थान ऊसर, निर्जल, काँटेदार वृक्षोंसे भरा हुआ, पत्थर,
टूँठ और छोटे वृक्षोंसे व्याप्त, अत्यन्त दुर्गग और ऊँचा-नीचा था || ५३-५४ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि आजगरपर्वणि युधिष्ठटिरभीमदर्शने
एकोनाशीत्यधिकशततमो< ध्याय: ।। १७९ ||
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत वनपवके अन्तर्गत आजगरपर्वमें युधिष्ठिरको भीमसेनके दर्शनसे
सम्बन्ध रखनेवाला एक सौ उनासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १७९ ॥।
हि न (हुक है आस
अशीर्त्याधिकशततमो<& ध्याय:
युधिष्ठिरका भीमसेनके पास पहुँचना और सर्परूपधारी
नहुषके प्रश्नोंका उत्तर देना
वैशम्पायन उवाच
युधिष्ठिरस्तमासाद्य सर्पभोगेन वेष्टितम् ।
दयितं भ्रातरं धीमानिदं वचनमब्रवीत् ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! सर्पके शरीरसे बँधे हुए अपने प्रिय भाई
भीमसेनके पास पहुँचकर परम बुद्धिमान् युधिष्ठिरने इस प्रकार पूछा-- ।। १ ।।
कुन्तीमात: कथमिमामापदं त्वमवाप्तवान् ।
कश्षायं पर्वताभोगप्रतिम: पन्नगोत्तम: ।। २ ।।
स धर्मराजमालक्ष्य भ्राता भ्रातरमग्रजम् ।
कथयामास तत् सर्व ग्रहणादि विचेष्टितम् ।। ३ ।।
“कुन्तीनन्दन! तुम कैसे इस विपत्तिमें फँस गये? और यह पर्वतके समान लम्बा-चौड़ा
श्रेष्ठ नाग कौन है?' अपने बड़े भ्राता धर्मराज युधिष्ठिरको वहाँ उपस्थित देख भाई
भीमसेनने अपने पकड़े जाने आदिकी सारी चेष्टाएँ कह सुनायीं ।। २-३ ।।
भीम उवाच
अयमार्य महासत्वो भक्षार्थ मां गृहीतवान् ।
नहुषो नाम राजर्षि: प्राणवानिव संस्थित: ।। ४ ।।
भीम बोले--आर्य! ये वायुभक्षी सर्पके रूपमें बैठे हुए महान् शक्तिशाली साक्षात्
राजर्षि नहुष हैं, इन्होंने मुझे अपना आहार बनानेके लिये पकड़ रखा है ।। ४ ।।
युधिछिर उवाच
मुच्यतामयमायुष्मन् भ्राता मेडमितविक्रम: ।
वयमाहारमन्यं ते दास्याम: क्षुज्ञिवारणम् ।। ५ ।।
तब युधिष्ठटिरने सर्पसे कहा--आयुष्मन्! आप मेरे इस अनन्त पराक्रमी भाईको छोड़
दें। हमलोग आपकी भूख मिटानेके लिये दूसरा भोजन देंगे ।। ५ ।।
सर्प उवाच
आहाते राजपुत्रो5यं मया प्राप्तो मुखागतः ।
गम्यतां नेह स्थातव्यं श्वो भवानपि मे भवेत् ।। ६ ।।
सर्प बोला--राजन्! यह राजकुमार मेरे मुखके पास स्वयं आकर मुझे आहाररूपमें
प्राप्त हुआ है। तुम जाओ, यहाँ ठहरना उचित नहीं है; अन्यथा कलतक तुम भी मेरे आहार
बन जाओगे ।। ६ ।।
व्रतमेतन्महाबाहो विषयं मम यो व्रजेत्
स मे भक्षो भवेत् तात त्वं चापि विषये मम ।। ७ ।।
महाबाहो! मेरा यह नियम है कि मेरी अधिकृत भूमिके भीतर जो भी आ जायगा, वह
मेरा भक्ष्य बन जायगा। तात! इस समय तुम भी मेरे अधिकारकी सीमामें ही आ गये
हो ।। ७ ||
चिरेणाद्य मया55हार: प्राप्तोडयमनुजस्तव ।
नाहमेनं विमोक्ष्यामि न चान्यमभिकाड्क्षये ।। ८ ।॥।
दीर्घकालतक उपवास करनेके बाद आज यह तुम्हारा छोटा भाई मुझे आहाररूपमें
प्राप्त हुआ है, अतः न तो मैं इसे छोडूँगा और न इसके बदलेमें दूसरा आहार ही लेना चाहता
हूँ ।। ८ ।।
युधिष्ठिर उवाच
देवो वा यदि वा दैत्य उरगो वा भवान् यदि ।
सत्यं सर्प वचो ब्रूहि पृच्छति त्वां युधिष्ठिर: ।
किमर्थ च त्वया ग्रस्तो भीमसेनो भुजड़म ।। ९ |।
युधिछिरने कहा--सर्प! तुम कोई देवता हो या दैत्य अथवा वास्तवमें सर्प ही हो? सच
बताओ, तुमसे युधिष्ठिर प्रश्न कर रहा है। भुजंगम! किस लिये तुमने भीमसेनको ही अपना
ग्रास बनाया है? ।। ९ ।।
किमाह्त्य विदित्वा वा प्रीतिस्ते स्याद् भुजड़म् ।
किमाहारं प्रयच्छामि कथं मुज्चेद् भवानिमम् ।। १० ।।
बोलो, तुम्हारे लिये क्या ला दिया जाय? अथवा तुम्हें किस बातका ज्ञान करा दिया
जाय? जिससे तुम प्रसन्न होओगे। मैं कौन-सा आहार दे दूँ अथवा किस उपायका
अवलम्बन करूँ, जिससे तुम इन्हें छोड़ सकते हो? ।। १० ।।
सर्प उवाच
नहुषो नाम राजाहमासं पूर्वस्तवानघ ।
प्रथित: पजचम: सोमादायो: पुत्रो नराधिप ।। ११ ।।
सर्प बोला--निष्पाप नरेश! मैं पूर्वजन्ममें तुम्हारा विख्यात पूर्वज नहुष नामका राजा
था। चन्द्रमासे पाँचवीं पीढ़ीमें जो आयु नामक राजा हुए थे, उन्हींका मैं पुत्र हूँ || ११ ।।
क्रतुभिस्तपसा चैव स्वाध्यायेन दमेन च ।
त्रैलोक्यैश्वर्यमव्यग्र॑ प्राप्तोडहं विक्रमेण च ।। १२ ।।
मैंने अनेक यज्ञ किये, तपस्या की, स्वाध्याय किया तथा अपने मन और इन्द्रियोंके
संयमरूप योगका अभ्यास किया। इन सत्कर्मोंसे तथा अपने पराक्रमसे भी मुझे तीनों
लोकोंका निष्कण्टक साम्राज्य प्राप्त हुआ था ।। १२ ।।
तदैश्वर्य समासाद्य दर्पो मामगमत् तदा ।
सहसं हि द्विजातीनामुवाह शिबिकां मम ।। १३ ।।
ऐश्वर्यमदमत्तो5हमवमन्य ततो द्विजान् ।
इमामगस्त्येन दशामानीत: पृथिवीपते ।। १४ ।।
न तु मामजहात् प्रज्ञा यावदद्येति पाण्डव |
तस्यैवानुग्रहाद् राजन्नगस्त्यस्य महात्मन: ।। १५ ।।
तब उस ऐश्वर्यको पाकर मेरा अहंकार बढ़ गया। मैंने सहस्रों ब्राह्यगोंसे अपनी पालकी
ढुलवायी। तदनन्तर ऐश्वर्यके मदसे उन्मत्त हो मैंने बहुत-से ब्राह्मगोंका अपमान किया।
पृथ्वीपते! इससे कुपित हुए महर्षि अगस्त्यने मुझे इस अवस्थाको पहुँचा दिया। पाण्डुनन्दन
नरेश! उन्हीं महात्मा अगस्त्यकी कृपासे आजतक मेरी स्मरणशक्ति मुझे छोड़ नहीं सकी है।
(मेरी स्मृति ज्यों-की-त्यों बनी हुई है) | १३--१५ ।।
षष्ठे काले मया55हार: प्राप्तोड्यमनुजस्तव ।
नाहमेन॑ विमोक्ष्यामि न चान्यदपि कामये ।। १६ ।।
महर्षिके शापके अनुसार दिनके छठे भागमें तुम्हारा यह छोटा भाई मुझे भोजनके
रूपमें प्राप्त हुआ है। अतः मैं न तो इसे छोडूँगा और न इसके बदले दूसरा आहार लेना
चाहता हूँ || १६ ।।
प्रश्नानुच्चारितानद्य व्याहरिष्यसि चेन्मम ।
अथ पश्चाद् विमोक्ष्यामि भ्रातरं ते वकोदरम् ।। १७ ।।
परंतु एक बात है, यदि तुम मेरे पूछे हुए कुछ प्रश्नोंका अभी उत्तर दे दोगे, तो उसके
बाद मैं तुम्हारे भाई भीमसेनको छोड़ दूँगा ।। १७ ।।
युधिछिर उवाच
ब्रृहि सर्प यथाकामं प्रतिवक्ष्यामि ते वच: ।
अपि चेच्छकनुयां प्रीतिमाहर्तु ते भुजज्म ।। १८ ।।
युधिष्ठिरने कहा--सर्प! तुम इच्छानुसार प्रश्न करो। मैं तुम्हारी बातका उत्तर दूँगा।
भुजंगम! यदि हो सका, तो तुम्हें प्रसन्न करनेका प्रयत्न करूँगा ।। १८ ।।
वेद्यं च ब्राह्मणेनेह तद् भवान् वेत्ति केवलम् |
सर्पराज ततः: श्र॒त्वा प्रतिवक्ष्यामि ते वच: ।। १९ ।।
सर्पराज! ब्राह्मणको इस जीवनमें जो कुछ जानना चाहिये, वह केवल तत्त्व तुम जानते
हो या नहीं। यह सुनकर मैं तुम्हारे प्रश्नोंका उत्तर दूँगा ।। १९ ।।
सर्प उवाच
ब्राह्मण: को भवेद् राजन् वेद्यं कि च युधिष्ठिर ।
ब्रवीह्मतिमतिं त्वां हि वाक्यैरनुमिमीमहे || २० ।।
सर्प बोला--राजा युधिष्ठिर! यह बताओ कि ब्राह्मण कौन है और उसके लिये
जाननेयोग्य तत्त्व क्या है? तुम्हारी बातें सुननेसे मुझे ऐसा अनुमान होता है कि तुम अतिशय
बुद्धिमान् हो || २० ।।
युधिछिर उवाच
सत्यं दानं क्षमा शीलमानृशंस्यं तपो घृणा ।
दृश्यन्ते यत्र नागेन्द्र स ब्राह्मण इति स्मृत: ।॥ २१ ।।
युधिष्ठिरने कहा--नागराज! जिसमें सत्य, दान, क्षमा, सुशीलता, क्रूरताका अभाव,
तपस्या और दया--से सद्गुण दिखायी देते हों, वही ब्राह्मण कहा गया है || २१ ।।
वेद्य॑ सर्प परं ब्रह्म निर्दुः:खमसुखं च यत् ।
यत्र गत्वा न शोचन्ति भवत: कि विवक्षितम् ।। २२ ।।
सर्प! जाननेयोग्य तत्त्व तो परम ब्रह्म ही है, जो दुःख और सुखसे परे है तथा जहाँ
पहुँचकर अथवा जिसे जानकर मनुष्य शोकके पार हो जाता है। बताओ, तुम्हें अब इस
विषयमें क्या कहना है? ।। २२ ।।
सर्प उवाच
चातुर्वर्ण्य प्रमाणं च सत्यं च ब्रह्म चैव हि |
शूद्रेष्वपि च सत्यं च दानमक्रोध एव च ।
आनृशंस्यमहिंसा च घृणा चैव युधिछिर ।। २३ ।।
सर्प बोला--युथधिष्ठिर! सत्य एवं प्रमाणभूत ब्रह्म तो चारों वर्णोके लिये हितकर है।
सत्य, दान, अक्रोध, क्रूरताका अभाव, अहिंसा और दया आदि सदगुण तो शाद्रोंमें भी रहते
हैं ।। २३ ।।
वेद्यं यच्चात्र निर्दुः:खमसुखं च नराधिप ।
ताभ्यां हीन॑ पद चान्यन्न तदस्तीति लक्षये ।। २४ ।।
नरेश्वर! तुमने यहाँ जो जाननेयोग्य तत्त्वको दुःख और सुखसे परे बताया है, सो दुःख
और सुखसे रहित किसी दूसरी वस्तुकी सत्ता ही मैं नहीं देखता हूँ |। २४ ।।
युधिछिर उवाच
शूद्रे तु यद् भवेल्लक्ष्म द्विजे तच्च न विद्यते ।
न वै शूद्रो भवेच्छूद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मण: ।। २५ ।।
यत्रैतल्लक्ष्यते सर्प वृत्तं स ब्राह्मण: स्मृतः ।
यत्रैतन्न भवेत् सर्प तं शूद्रमिति निर्दिशेत् । २६ ।।
युधिष्ठिरने कहा--यदि शूद्रमें सत्य आदि उपर्युक्त लक्षण हैं और ब्राह्मणमें नहीं हैं तो
वह शूद्र शूद्र नहीं है और वह ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं है। सर्प! जिसमें ये सत्य आदि लक्षण
मौजूद हों, वह ब्राह्मण माना गया है और जिसमें इन लक्षणोंका अभाव हो, उसे शूद्र कहना
चाहिये || २५-२६ ।।
यत् पुनर्भवता प्रोक्तं न वेद्यं विद्यतीति च ।
ताभ्यां हीनमतो<न्यत्र पदमस्तीति चेदपि ।। २७ ।।
एवमेतन्मतं सर्प ताभ्यां हीनं॑ न विद्यते |
यथा शीतोष्णयोर्मध्ये भवेन्नोष्णं न शीतता ।। २८ ।।
एवं वै सुखदु:खाभ्यां हीनमस्ति पद क्वचित् |
एषा मम मति: सर्प यथा वा मन्यते भवान् ॥। २९ |।
अब तुमने जो यह कहा कि सुख-दुःखसे रहित कोई दूसरा वेद्य तत्त्व है ही नहीं, सो
तुम्हारा यह मत ठीक है। सुख-दुःखसे शून्य कोई पदार्थ नहीं है। किंतु एक ऐसा पद है भी।
जिस प्रकार बर्फमें उष्णता और अग्निमें शीतलता कहीं नहीं रहती, उसी प्रकार जो वेद्य-पद
है, वह वास्तवमें सुख-दुःखसे रहित ही है। नागराज! मेरा तो यही विचार है, फिर आप जैसा
मानें || २७--२९ ||
सर्प उवाच
यदि ते वृत्ततो राजन ब्राह्मण: प्रसमीक्षित: ।
वृथा जातिस्तदा<<युष्मन् कृतियविन्न विद्यते ।। ३० ||
सर्प बोला--आयुष्मन् नरेश! यदि आचारसे ही ब्राह्मणकी परीक्षा की जाय, तब तो
जबतक उसके अनुसार कर्म न हो जाति व्यर्थ ही है ।। ३० ।।
युधिछिर उवाच
जातिरत्र महासर्प मनुष्यत्वे महामते |
संकरात् सर्ववर्णानां दुष्परीक्ष्येति मे मति: ।। ३१ ।।
युधिष्ठिरने कहा--महासर्प! महामते! मनुष्योंमें जातिकी परीक्षा करना बहुत ही
कठिन है; क्योंकि इस समय सभी वर्णोका परस्पर संकर (सम्मिश्रण) हो रहा है, ऐसा मेरा
विचार है ।। ३१ ।।
सर्वे सर्वास्वपत्यानि जनयन्ति सदा नरा: |
वाड्मैथुनमथो जन्म मरणं च सम॑ नृणाम् ॥। ३२ ।।
इदमार्ष प्रमाणं च ये यजामह इत्यपि ।
तस्माच्छील प्रधानेष्टं विदुर्ये तत््वदर्शिन: ।। ३३ ।।
सभी मनुष्य सदा सब जातियोंकी स्त्रियोंसे संतान उत्पन्न कर रहे हैं। वाणी, मैथुन तथा
जन्म और मरण--ये सब मनुष्योंमें एक-से देखे जाते हैं। इस विषयमें यह आर्षप्रमाण भी
मिलता है--'ये यजामहे' यह श्रुति जातिका निश्चय न होनेके कारण ही जो हमलोग यज्ञ
कर रहे हैं, ऐसा सामान्यरूपसे निर्देश करती है। इसलिये जो तत्त्वदर्शी विद्वान हैं, वे शीलको
ही प्रधानता देते हैं और उसे ही अभीष्ट मानते हैं | ३२-३३ ।।
प्राइनाभिवर्धनात् पुंसो जातकर्म विधीयते ।
तत्रास्य माता सावित्री पिता त्वाचार्य उच्यते ॥। ३४ ।।
जब बालकका जन्म होता है, तब नालच्छेदनके पूर्व उसका जातकर्म-संस्कार किया
जाता है। उसमें उसकी माता सावित्री कहलाती है और पिता आचार्य ।।
तावच्छूद्रसमो होष यावद् वेदे न जायते ।
तस्मिन्नेवं मतिद्वैथे मनु: स्वायम्भुवोडब्रवीत् ।। ३५ ।।
कृतकृत्या: पुनर्वर्णा यदि वृत्तं न विद्यते ।
संकरस्त्वत्र नागेन्द्र बलवान् प्रसमीक्षित: ।। ३६ ।।
जबतक बालकका संस्कार करके उसे वेदका स्वाध्याय न कराया जाय, तबतक वह
शूद्रहीके समान है। जातिविषयक संदेह होनेपर स्वायम्भुव मनुने यही निर्णय दिया है।
नागराज! यदि वैदिक संस्कार करके वेदाध्ययन करनेपर भी ब्राह्मणादि वर्णोमें अपेक्षित
शील और सदाचारका उदय नहीं हुआ तो उसमें प्रबल वर्णसंकरता है, ऐसा विचारपूर्वक
निश्चय किया गया है ।।
यत्रेदानीं महासर्प संस्कृतं वृत्तमिष्यते ।
त॑ ब्राह्मणमहं पूर्वमुक्तवान् भुजगोत्तम ।। ३७ ।।
महासर्प! भुजंगमप्रवर! इस समय जिसमें संस्कारके साथ-साथ सदाचारकी उपलब्धि
हो, वही ब्राह्मण है। यह बात मैं पहले ही बता चुका हूँ ।। ३७ ।।
सर्प उवाच
श्रुतं विदितवेद्यस्थ तव वाक्य युधिष्ठिर ।
भक्षयेयमहं कस्माद् भ्रातरं ते वकोदरम् ।। ३८ ।।
सर्प बोला--युधिष्ठिर! तुम जाननेयोग्य सभी बातें जानते हो। मैंने तुम्हारी बात अच्छी
तरह सुन ली। अब मैं तुम्हारे भाई भीमसेनको कैसे खा सकता हूँ? | ३८ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि आजगरपर्वणि युधिष्ठिरसर्पसंवादे
अशीत्यधिकशततमोडयाय: ।। १८० ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत आजगरपर्वमें युधिष्टिरसर्पसंवादाविषयक एक
सौ अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १८० ॥
हि () हि २ 7
एकाशीरत्याधिकशततमो< ध्याय:
युधिष्ठटिरद्वारा अपने प्रश्नोंका उचित उत्तर पाकर संतुष्ट हुए
सर्परूपधारी नहुषका भीमसेनको छोड़ देना तथा
युधिष्ठटिरके साथ वार्तालाप करनेके प्रभावसे सर्पयोनिसे
मुक्त होकर स्वर्ग जाना
युधिछिर उवाच
भवानेतादृशो लोके वेदवेदाड़पारग: ।
ब्रूहि कि कुर्वतः कर्म भवेद् गतिरनुत्तमा ।। १ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--तुम सम्पूर्ण वेद-वेदांगोंके पारगामी हो। लोकमें तुम्हारी ऐसी ही
ख्वाति है। बताओ, किस कर्मके आचरणसे सर्वोत्तम गति प्राप्त हो सकती है? ।। १ ।।
सर्प उवाच
पात्रे दत्त्वा प्रियाण्युक्त्वा सत्यमुक्त्वा च भारत ।
अहिंसानिरत: स्वर्ग गच्छेदिति मतिर्मम ।॥ २ ।।
सर्पने कहा--भारत! इस विषयमें मेरा विचार यह है कि मनुष्य सत्पात्रको दान देनेसे,
सत्य और प्रिय वचन बोलनेसे तथा अहिंसा-धर्ममें तत्पर रहनेसे स्वर्ग (उत्तम गति) पा
सकता है ।। २ ।।
युधिछिर उवाच
दानाद् वा सर्प सत्याद् वा किमतो गुरु दृश्यते ।
अहिंसाप्रिययोश्वैव गुरुलाघवमुच्यताम् ।। ३ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--नागराज! दान और सत्यमें किसका पलड़ा भारी देखा जाता है?
अहिंसा और प्रियभाषण--इनमेंसे किसका महत्त्व अधिक है और किसका कम? यह
बताओ ।। ३ ||
सर्प उवाच
दानं च सत्य॑ तत्त्वं वा अहिंसा प्रियमेव च ।
एषां कार्यगरीयस्त्वाद् दृश्यते गुरुलाघवम् ।। ४ ।।
सर्पने कहा--महाराज! दान, सत्य-तत्त्व, अहिंसा और प्रियभाषण--इनकी गुरुता
और लघुता कार्यकी महत्ताके अनुसार देखी जाती है || ४ ।।
कस्माच्चिद् दानयोगाद्धि सत्यमेव विशिष्यते ।
सत्यवाक्याच्च राजेन्द्र किंचिद् दानं विशिष्यते ।। ५ ।।
राजेन्द्र! किसी दानसे सत्यका ही महत्त्व बढ़ जाता है और कोई-कोई दान ही
सत्यभाषणसे अधिक महत्त्व रखता है ।। ५ ।।
एवमेव महेष्वास प्रियवाक्यान्महीपते ।
अहिंसा दृश्यते गुर्वी ततश्च प्रियमिष्यते || ६ ।।
महान् धनुर्थर भूपाल! इसी प्रकार कहीं तो प्रिय वचनकी अपेक्षा अहिंसाका गौरव
अधिक देखा जाता है और कहीं अहिंसासे भी बढ़कर प्रियभाषणका महत्त्व दृष्टिगोचर होता
है ।। ६ |।
एवमेतद् भवेद् राजन् कायपिक्षमनन्तरम् |
यदभिप्रेतमन्यत् ते ब्रूहि यावद् ब्रवीम्यहम् ।। ७ ।॥।
राजन! इस प्रकार इनके गौरव-लाघवका निश्चय कार्यकी अपेक्षासे ही होता है। अब
और जो कुछ भी प्रश्न तुम्हें अभीष्ट हो, वह पूछो । मैं यथासाध्य उत्तर देता हूँ || ७ ।।
युधिछिर उवाच
कथं स्वर्गे गति: सर्प कर्मणां च फल ध्रुवम्
अशरीरस्य दृश्येत प्रब्रूहि विषयांश्व मे ।। ८ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--सर्प! मनुष्यको स्वर्गकी प्राप्ति और कर्मोका निश्चयरूपसे
मिलनेवाला फल किस प्रकार देखनेमें आता है एवं देहाभिमानसे रहित पुरुषकी गति किस
प्रकार होती है? इन विषयोंको मुझसे भलीभाँति कहिये ।। ८ ।।
सर्प उवाच
तिस्रो वै गतयो राजन् परिदृष्टा: स्वकर्मभि: ।
मानुषं स्वर्गवासश्च तिर्यग्योनिश्चव तत् त्रिधा ।। ९ ।।
सर्पने कहा--राजन्! अपने-अपने कर्मोंके अनुसार जीवोंकी तीन प्रकारकी गतियाँ
देखी जाती हैं--स्वर्गलोककी प्राप्ति, मनुष्ययोनिमें जन्म लेना और पशु-पक्षी आदि
योनियोंमें (तथा नरकोंमें) उत्पन्न होना।- बस, ये ही तीन योनियाँ हैं || ९ ।।
तत्र वै मानुषाल्लोकाद् दानादिभिरतन्द्रित: ।
अहिंसार्थसमायुक्तै: कारणै: स्वर्गमश्लुते || १० ।।
इनमेंसे जो जीव मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होता है, पर यदि आलस्य और प्रमादका त्याग
करके अहिंसाका पालन करते हुए दान आदि शुभ कर्म करता है, तो उसे इन पुण्य कर्मोंके
कारण स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है ।। १० ।।
विपरीतैश्व राजेन्द्र कारणैर्मानुषो भवेत् ।
तिर्यग्योनिस्तथा तात विशेषज्षात्र वक्ष्यते |। ११ ।।
कामक्रोधसमायुक्तो हिंसालो भसमन्वित: ।
मनुष्यत्वात् परिभ्रष्टस्तिर्यग्योनौ प्रसूयते || १२ ।।
राजेन्द्र! इसके विपरीत कारण उपस्थित होनेपर मनुष्ययोनिमें तथा पशु-पक्षी आदि
योनिमें जन्म लेना पड़ता है। तात! पशु-पक्षी आदि योनियोंमें जन्म लेनेका जो विशेष
कारण है, उसे भी यहाँ बतलाया जाता है। जो काम, क्रोध, लोभ और हिंसामें तत्पर होकर
मानवतासे भ्रष्ट हो जाता है, अपनी मनुष्य होनेकी योग्यताको भी खो देता है, वही पशु-
पक्षी आदि योनिमें जन्म पाता है ।। ११-१२ ।।
तिर्यग्योन्या: पृथग्भावो मनुष्यार्थे विधीयते ।
गवादिशभ्यस्तथाश्रेभ्यो देवत्वमपि दृश्यते ।। १३ ।॥।
फिर मनुष्य-जन्मकी प्राप्तिके लिये उसका तिर्यक्-योनिसे उद्धार होता है। गौओं तथा
अश्वोंको भी उस योनिसे छुटकारा मिलकर देवत्वकी प्राप्ति होती है, यह बात देखी जाती
है ।। १३ ||
सो<यमेता गतीस्तात जनन््तुश्चरति कार्यवान् ।
नित्ये महति चात्मानमवस्थापयते द्विज: ।। १४ ।।
जातो जातश्न बलवद् भुड्क्ते चात्मा स देहवान् ।
फलार्थस्तात निष्पृक्त: प्रजापालनभावन: ।। १५ ।।
तात! प्रयोजनवश वही यह जीव इन्हीं तीन गतियोंमें भटकता रहता है। कर्मफलको
चाहनेवाला देहाभिमानी जीव परवशतासे बार-बार जन्म लेता और दुःख-सुखका उपभोग
करता है। किंतु तात! जो कर्मफलमें आसक्त नहीं है, वह प्रजाजनोंके पालनकी
भावनावाला द्विज अपने आत्माको नित्य परब्रह्म परमात्मामें भलीभाँति स्थित कर देता
है ।। १४-१५ ||
युधिछिर उवाच
शब्दे स्पर्शे च रूपे च तथैव रसगन्धयो: ।
तस्याधिष्ठानमव्यग्रो ब्रूहि सर्प यथातथम् ।। १६ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--सर्प! शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध--इनका आधार क्या है?
आप शान्तचित्त होकर इसे यथार्थरूपसे बताइये ।। १६ ।।
कि न गृह्नाति विषयान् युगपच्च महामते ।
एतावदुच्यतां चोक्तं सर्व पन्नगसत्तम ।। १७ ।।
महामते! पन्नगश्रेष्ठ! मन विषयोंका एक ही साथ ग्रहण क्यों नहीं करता? इन उपर्युक्त
सब बातोंको बताइये ।।
सर्प उवाच
यदात्मद्रव्यमायुष्मन् देहसंश्रयणान्वितम् ।
करणाधिष्ितं भोगानुपभुड्धक्ते यथाविधि ।। १८ ।।
सर्पने कहा--आयुष्मन्! स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरोंका आश्रय लेनेवाला और
इन्द्रियोंसे युक्त जो आत्मा नामक द्रव्य है, वही विधिपूर्वक नाना प्रकारके भोगोंको भोगता
है ।। १८ ।।
ज्ञान चैवात्र बुद्धिश्न मनश्न भरतर्षभ |
तस्य भोगाधिकरणे करणानि निबोध मे ।। १९ ।।
भरतश्रेष्ठ! ज्ञान, बुद्धि और मन--ये ही शरीरमें उसके करण समझो ।। १९ ।।
मनसा तात पर्येति क्रमशो विषयानिमान् |
विषयायतनस्थो हि भूतात्मा क्षेत्रमास्थित: ।। २० ।।
तात! पाँचों विषयोंके आधारभूत पंचभूतोंसे बने हुए शरीरमें स्थित जीवात्मा इस
शरीरमें स्थित हुआ ही मनके द्वारा क्रमशः इन पाँचों विषयोंका उपभोग करता है || २० ।।
तत्र चापि नरव्यात्र मनो जन्तोर्विधीयते ।
तस्माद् युगपदत्रास्य ग्रहणं नोपपद्यते ।। २१ ।।
नरश्रेष्ठ! विषयोंके उपभोगके समय (बुद्धिके द्वारा) इस जीवात्माका मन किसी एक ही
विषयमें नियन्त्रित कर दिया जाता है। इसीलिये उसके द्वारा एक ही साथ अनेक विषयोंका
ग्रहण सम्भव नहीं हो पाता है || २१ ।।
स आत्मा पुरुषव्याप्र भ्रुवोरन्तरमाश्रित: ।
बुद्धि द्रव्येषु सूजति विविधेषु परावराम् ।। २२ ।।
पुरुषसिंह! वही आत्मा दोनों भौंहोंके बीच स्थित होकर उत्तम-अधम बुद्धिको भिन्न-
भिन्न द्रव्योंकी ओर प्रेरित करता है | २२ ।।
बुद्धेरुत्तरकाला च वेदना दृश्यते बुध: ।
एष वै राजशार्दूल विधि: क्षेत्रज्ञभावन: ।। २३ ||
बुद्धिकी क्रियाके उत्तरकालमें भी विद्वान् पुरुषोंको एक अनुभूति दिखायी देती है।
नृपश्रेष्ठ! यही क्षेत्रज्ष आत्माको प्रकाशित करनेवाली विधि है ।। २३ ।।
युधिछ्िर उवाच
मनसश्नापि बुद्धेश्न ब्रूहि मे लक्षणं परम् ।
एतदथध्यात्मविदुषां परं कार्य विधीयते ।। २४ ।।
युधिष्ठिने कहा--सर्प! मुझे मन और बुद्धिका उत्तम लक्षण बतलाओ।
अध्यात्मशास्त्रके विद्वानोंके लिये इनको जानना परम कर्तव्य कहा गया है ।। २४ ।।
सर्प उवाच
बुद्धिरात्मानुगा तात उत्पातेन विधीयते ।
तदश्रिता हि संजैषा बुद्धिस्तस्यैषिणी भवेत् ।। २५ ।।
बुद्धिरुत्पद्यते कार्यान््मनस्तूत्पन्नमेव हि ।
बुद्धे्गुणविधानेन मनस्तद्गुणवद् भवेत् ।। २६ ।।
सर्पने कहा--तात! आत्माके भोग और मोक्षका सम्पादन करना ही बुद्धिका प्रयोजन
है तथा आत्माका आश्रय लेकर ही बुद्धि विषयोंकी ओर जाती है। इस कारण वह
आत्माका अनुसरण करनेवाली मानी जाती है। वह भी आत्माकी चेतनशक्तिके सम्बन्धसे
ही है तथा बुद्धिके गुणविधानसे अर्थात् उसकी ज्ञानशक्तिके प्रभावसे ही मन उस गुणसे
सम्पन्न होता है यानी इन्द्रियोंके विषयोंको ग्रहण करनेमें समर्थ हो जाता है। अतः बुद्धि तो
कार्यके आरम्भसे प्रकट होती है और मन सदैव प्रकट रहता है। (कार्यको देखकर ही
कारणकी सत्ता व्यक्त होती है--यह न्याय है) || २५-२६ ।।
एतदू् विशेषणं तात मनोबुद्धयोर्यदन्तरम् ।
त्वमप्यत्राभिसम्बुद्ध:ः कथं वा मन्यते भवान् ॥। २७ ।।
तात! मन और बुद्धिकी यह विशेषता ही उन दोनोंका अन्तर है। तुम भी तो इस
विषयके अच्छे ज्ञाता हो, अत: बताओ, तुम्हारी कैसी मान्यता है? ।। २७ ।।
युधिछिर उवाच
अहो बुद्धिमतां श्रेष्ठ शुभा बुद्धिरियं तव ।
विदितं वेदितव्यं ते कस्मात् समनुपृच्छसि ।। २८ ।।
युधिष्ठिर बोले--बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ! तुम्हारी यह बुद्धि बड़ी उत्तम है। तुम तो जानने
योग्य वस्तुको जान चुके हो, फिर मुझसे क्यों पूछते हो? ।। २८ ।।
सर्वज्ञं त्वां कथं मोह आविशत् स्वर्गवासिनम् |
एवमद्धुतकर्माणमिति मे संशयो महान् ।। २९ ।।
तुम तो सर्वज्ञ तथा स्वर्गके निवासी थे। तुमने बड़े अद्भुत कर्म किये थे। भला, तुम्हें कैसे
मोह हो गया? (अर्थात् ब्राह्मणोंका अपमान कैसे कर बैठे?) इस बातको लेकर मेरे मनमें
बड़ा संशय हो रहा है ।। २९ |।
सर्प उवाच
सुप्रज्ञममपि चेच्छूरमृद्धिमोहयते नरम् |
वर्तमान: सुखे सर्वो मुह्मतीति मतिर्मम ।। ३० ।।
सर्पने कहा--राजन्! यह धन-सम्पत्ति बड़े-बड़े बुद्धिमान् और शूरवीर मनुष्यको भी
मोहमें डाल देती है। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि सुख-विलासमें डूबे हुए सभी लोग मोहित
हो जाते हैं ।। ३० ।।
सो>हमैश्वर्यमोहेन मदाविष्टो युधिष्ठिर ।
पतित: प्रतिसम्बुद्धस्त्वां तु सम्बोधयाम्यहम् ।। ३१ ।।
युधिष्ठिर! इसी तरह मैं भी ऐश्वर्यके मोहसे मदोन्मत्त हो गया और मुझे उस समय चेत
हुआ, जब कि मेरा अधः:पतन हो चुका। अतः अब तुम्हें सचेत कर रहा हूँ ।। ३१ ।।
कृतं कार्य महाराज त्वया मम परंतप ।
क्षीण:शाप: सुकृच्छो मे त्वया सम्भाष्य साधुना ।। ३२ ।।
परंतप महाराज! आज तुमने मेरा बहुत बड़ा कार्य किया। इस समय तुम-जैसे श्रेष्ठ
पुरुषसे वार्तालाप करनेके कारण मेरा वह अत्यन्त कष्टदायक शाप निवृत्त हो गया ।। ३२ ।।
अहं हि दिवि दिव्येन विमानेन चरन् पुरा ।
अभिमानेन मत्त: सन् कंचिन्नान्यमचिन्तयम् ।। ३३ ।।
पूर्वकालमें (जब मैं स्वर्गका राजा था,) दिव्य विमानपर चढ़कर आकाशगमें विचरता
रहता था। उस समय अभिमानसे मत्त होकर मैं दूसरे किसीको कुछ नहीं समझता
था || ३३ ||
ब्रह्मर्षिदेवगन्धर्वयक्षराक्षसपन्नगा: ।
करान् मम प्रयच्छन्ति सर्वे त्रैलोक्यवासिन: ।। ३४ ।।
ब्रह्मर्षि, देवता गन्धर्व, यक्ष, राक्षत और नाग आदि जो भी इस त्रिलोकीमें निवास
करनेवाले प्राणी थे, वे सब मुझे कर देते थे || ३४ ।।
चक्षुषा यं प्रपश्यामि प्राणिनं पृथिवीपते ।
तस्य तेजो हराम्याशु तद्धि-दृष्टेबलं मम ।। ३५ ।।
राजन! उन दिनों मैं जिस प्राणीकी ओर आँख उठाकर देखता था, उसका तेज तत्काल
हर लेता था। यह थी मेरी दृष्टिकी शक्ति ।। ३५ ।।
ब्रह्मर्षणां सहस्नं हि उवाह शिबिकां मम |
स मामपनयो राजन् भ्रंशयामास वै श्रिय: ।। ३६ ।।
हजारों ही ब्रह्मर्षि मेरी पालकी ढोते थे। महाराज! मेरे इसी अत्याचारने मुझे स्वर्गकी
राज्यलक्ष्मीसे भ्रष्ट कर दिया ।। ३६ |।
तत्र हागस्त्य: पादेन वहन् स्पृष्टो मया मुनि: ।
अगस्त्येन ततो<स्म्युक्त: सर्पस्त्वं च भवेति ह ।। ३७ ।।
स्वर्गमें मुनिवर अगस्त्य जब मेरी पालकी ढो रहे थे, तब मैंने उन्हें लात मारी, इसलिये
उन्होंने मुझे ऐसा कहा कि “तू निश्चय ही सर्प हो जा” ।। ३७ ।।
ततस्तस्माद् विमानाग्र्यात् प्रच्युतश्ष्युतलक्षण: ।
प्रपतन् बुबुधे55त्मानं व्याली भूतमधोमुखम् ।
आयाचं तमहं विप्रं शापस्यान्तो भवेदिति ।। ३८ ।।
उनके इतना कहते ही मेरे सभी राजचिह्न लुप्त हो गये। मैं (सर्प होकर) उस उत्तम
विमानसे नीचे गिरा। उस समय मुझे ज्ञात हुआ कि मैं सर्प होकर नीचे मुँह किये गिर रहा हूँ;
तब मैंने शापका अन्त होनेके उद्देश्यसे उन ब्रह्मर्षिसे याचना करते हुए कहा ।। ३८ ।।
सर्प उवाच
प्रमादात् सम्प्रमूढस्य भगवन् क्षन्तुमर्हसि ।
ततः स मामुवाचेदं प्रपतन्तं कृपान्वित: ।। ३९ ।।
सर्पने कहा--भगवन! मैं प्रमादवश विवेकशून्य हो गया था। इसीलिये मुझसे यह घोर
अपराध हुआ है। आप कृपया क्षमा करें। तब मुझे गिरते देख वे महर्षि दयासे द्रवित होकर
बोले-- ।॥। ३९ |।
युधिष्ठिरो धर्मराज: शापात् त्वां मोक्षयिष्यति ।
अभिमानस्य घोरस्य पापस्य च नराधिप ।। ४० ।।
फले क्षीणे महाराज फल पुण्यमवाप्स्यसि ।
ततो मे विस्मयो जातस्तद् दृष्टवा तपसो बलम् ।। ४१ ।।
“राजन! धर्मराज युधिष्ठिर तुम्हें इस शापसे मुक्त करेंगे। महाराज! जब तुम्हारे इस
अभिमान और घोर पापका फल क्षीण हो जायगा, तब तुम्हें फिर तुम्हारे पुण्योंका फल
प्राप्त होगा! उस समय मुझे उनकी तपस्याका महान् बल देखकर बड़ा आश्चर्य
हुआ || ४०-४१ ।।
ब्रह्म च ब्राह्मणत्वं च येन त्वाहमचूचुदम् ।
सत्यं दमस्तपो दानमहिंसा धर्मनित्यता ।। ४२ ।।
साथकानि सदा पुंसां न जातिर्न कुलं नूप ।
अरिष्ट एष ते भ्राता भीमसेनो महाबल: ।
स्वस्ति ते5स्तु महाराज गमिष्यामि दिवं पुन: ।। ४३ ।।
राजन! उनका ब्रह्म-ज्ञान और ब्राह्मणत्व देखकर भी मुझे बड़ा विस्मय हुआ। इसीलिये
इस विषयमें मैंने तुमसे पहले प्रश्न किया था। राजन! सत्य, इन्द्रियसंयम, तपस्या, दान,
अहिंसा और धर्मपरायणता--ये सदगुण ही सदा मनुष्योंको सिद्धिकी प्राप्ति करानेवाले हैं,
जाति और कुल नहीं। ये रहे तुम्हारे भाई महाबली भीमसेन, जो सर्वथा सकुशल हैं।
महाराज! तुम्हारा कल्याण हो, अब मैं पुनः स्वर्गलोकको जाऊँगा ।। ४२-४३ ।।
(स चायं पुरुषव्यात्र काल: पुण्य उपागतः ।
तदस्मात् कारणात् पार्थ कार्य मम महत् कृतम् ।।)
पुरुषसिंह! पार्थ! तुम्हारे शुभागमनसे ही यह पुण्यकाल प्राप्त हुआ है, इस कारण
तुमने मेरा बहुत बड़ा कार्य सिद्ध कर दिया।
वैशम्पायन उवाच
(ततस्तस्मिन् मुहूर्ते तु विमानं कामगामि वै |
अवपातेन महता तत्रावाप तदुत्तमम् ।।)
इत्युक्त्वा55जगरं देहं मुक्त्वा स नहुषो नृपः ।
दिव्यं वपुः समास्थाय गतस्त्रिदिवमेव ह ।। ४४ ।।
वैशम्पायनजी कहते है--जनमेजय! तदनन्तर उसी मुहूर्तमें एक इच्छानुसार
चलनेवाला उत्तम विमान बड़े जोरकी उड़ानके, साथ वहाँ आ पहुँचा। युधिष्ठिरसे पूर्वोक्त
बातें कहकर राजा नहुषने अजगरका शरीर त्याग दिया और दिव्य शरीर धारण करके वे
पुनः स्वर्गलोकको चले गये ।। ४४ ।।
युधिष्ठिरो5पि धर्मात्मा क्रात्रा भीमेन संगत: ।
धौम्येन सहित: श्रीमानाश्रमं पुनरागमत् ।। ४५ ।।
धर्मात्मा युधिष्ठिर भी भाई भीमसेनसे मिलकर उनके और धौम्य मुनिके साथ फिर
अपने आश्रमपर लौट आये || ४५ ।।
ततो द्विजेभ्य: सर्वेभ्य: समेतेभ्यो यथातथम् |
कथयामास तत् सर्व धर्मराजो युधिष्ठटिर: ॥। ४६ ।।
तब धर्मराज युधिष्छिरने वहाँ एकत्र हुए सब ब्राह्मणोंको भीमसेनके सर्पके चंगुलसे
छूटनेका वह सारा वृत्तान्त कह सुनाया ।। ४६ ||
तच्छुत्वा ते द्विजा: सर्वे भ्रातरश्नास्य ते त्रयः ।
आसन सुत्रीडिता राजन् द्रौपदी च यशस्विनी || ४७ ।।
राजन! यह सुनकर सब ब्राह्मण, उनके तीनों भाई और यशस्विनी द्रौपदी सब-के-सब
बड़े लज्जित हुए ।। ४७ ।।
ते तु सर्वे द्विजश्रेष्ठाःपाण्डवानां हितेप्सया |
मैवमित्यब्रुवन् भीम॑ गर्हयन्तो5स्य साहसम् ।। ४८ ।।
तब पाण्डवोंके हितकी इच्छासे वे सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण भीमसेनको उनके दुःसाहसकी
निन्दा करते हुए बोले--'अब कभी ऐसा न करना' ।। ४८ ।।
पाण्डवास्तु भयान्मुक्तं प्रेक्ष्य भीम॑ महाबलम् |
हर्षमाहारयांचक्रुविजहुश्न मुदा युता: ।। ४९ ।।
पाण्डवलोग महाबली भीमसेनको भयसे मुक्त हुआ देख हर्षसे उललसित हो उठे और
प्रसन्नतापूर्वक वहाँ विचरने लगे || ४९ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि आजगरपर्वणि भीममोचने
एकाशीत्यधिकशततमो<ध्याय: ॥। १८१ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत आजगरपर्वमें भीमसेनके सर्पके भयसे छूटनेसे
सम्बन्ध रखनेवाला एक सौ इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १८१९ ॥।
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ५१ श्लोक हैं।)
अऑडज आटर | आओ अप
- ये ही क्रमश: ऊर्ध्वगति, मध्यगति और अधोगतिके नामसे प्रसिद्ध हैं।
(मार्कण्डेयसमास्यापर्व)
द्वयशीत्यधिकशततमो< ध्याय:
वर्षा और शरद्-ऋतुका 8404 98 लक एवं आदिका पुनः
द्ैतवनसे | प्रवेश
वैशम्पायन उवाच
निदाघान्तकर: काल: सर्वभूतसुखावह: ।
तत्रैव वसतां तेषां प्रावृट् समभिपद्यत ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर ग्रीष्म-ऋतुकी समाप्ति सूचित
करनेवाला वर्षाकाल आया, जो समस्त प्राणियोंको सुख पहुँचानेवाला था। पाण्डव अभी
द्वैतवनमें ही थे, उसी समय वर्षा-ऋतु आ गयी ।। १ ।।
छादयन्तो महाघोषा: खं दिशश्न बलाहका: ।
प्रववर्षुदिवारात्रमसिता: सततं तदा ॥। २ ।।
तब काले-काले मेघ जोर-जोरसे गर्जना करते हुए आकाश और दिशाओंमें छा गये
और दिन-रात निरन्तर जलकी वर्षा करने लगे || २ ।।
तपात्ययनिकेताश्ष शतशो5थ सहस््रश: ।
अपेतार्कप्रभाजाला: सविद्युद्धिमलप्रभा: ।। ३ ॥।
वे वर्षामें तम्बूके समान जान पड़ते थे। उनकी संख्या सैकड़ों और हजारोंतक पहुँच
गयी थी। उन्होंने सूर्यके प्रभापुजजको तो ढँक दिया था और विद्युत्की निर्मल प्रभा धारण
कर ली थी ।। ३ ।।
विरूढशष्पा धरणी मत्तदंशसरीसूपा ।
बभूव पयसा सिक्ता शान्ता सर्वमनोरमा ।। ४ ।।
धरतीपर घास जम गयी। मतवाले डाँस और सर्प आदि विचरने लगे। पृथ्वी जलसे
अभिषिक्त होकर शान्त और सबके लिये मनोरम हो गयी ।। ४ ।।
न सम प्रज्ञायते किंचिदम्भसा समवस्तृते ।
सम॑ वा विषम वापि नद्यो वा स्थावराणि च ।। ५ ।।
सब ओर इतना पानी भर गया कि ऊँचा-नीचा, समतल, नदी अथवा पेड़-पौधे आदिका
पता नहीं चलता था ।। ५ ।।
क्षुब्धतोया महावेगा: श्वसमाना इवाशुगा: ।
सिन्धव: शोभयांचक्रु: काननानि तपात्यये ।। ६ ।।
वर्षा-ऋतुकी नदियाँ बड़े वेगसे छूटनेवाले शीघ्र-गामी बाणोंकी भाँति सनसनाती हुई
चलती थीं। उनके जलमें हिलोरें उठती रहती थीं और वे कितने ही काननोंकी शोभा बढ़ाती
थीं।। ६ |।
नदतां काननान्तेषु श्रूयन्ते विविधा: स्वना: ।
वृष्टिभिश्रछाद्यमानानां वराहमृगपक्षिणाम् ।। ७ ।।
वनके भीतर वर्षाकी बौछारोंसे भीगते और बोलते हुए वराह, मृग और पक्षियोंकी
भाँति-भाँतिकी बोलियाँ सुनायी देती थीं || ७ ।।
स्तोकका: शिखिनश्चैव पुंस्कोकिलगणै: सह ।
मत्ता: परिपतन्ति सम दर्दुराश्चैव दर्पिता: ।॥ ८ ।।
पपीहा और मोर नर-कोकिलोंके साथ आनन्दोन्मत्त होकर इधर-उधर उड़ने लगे और
मेढक भी घमण्डमें आकर इधर-उधर कूदते और टर्र-टर्र करते थे ।। ८ ।।
तथा बहुविधाकारा प्रावृण्मेघानुनादिता ।
अभ्यतीता शिवा तेषां चरतां मरुधन्वसु ।। ९ ।।
पाण्डव अभी मरुप्रदेशमें ही विचरते थे, तभी मेघोंकी गर्जनासे गूँजती तथा अनेक
प्रकारके रूप-रंग लिये प्रकट हुई मंगलमयी वर्षा-ऋतु भी बीत गयी ।। ९ ।।
क्रौज्चहंससमाकीर्णा शरत् प्रमुदिताभवत् ।
रूढकक्षवनप्रस्था प्रसन्नजलनिम्नगा || १० ।।
विमलाकाशनक्षत्रा शरत् तेषां शिवाभवत् |
मृगद्धिजसमाकीर्णा पाण्डवानां महात्मनाम् ।। ११ ।।
तत्पश्चात् आनन्दमयी शरद्-ऋतुका शुभागमन हुआ। क्रौज्च और हंस आदि पक्षी चारों
ओर विचरने लगे। वनोंमें और पर्वतीय शिखरोंपर कास, कुश आदि बहुत बढ़ गये थे।
नदियोंका जल स्वच्छ हो गया। आकाश निर्मल होनेसे नक्षत्रोंका आलोक और उज्ज्वल हो
उठा। सब ओर मृग और पक्षी किलोल करने लगे। महात्मा पाण्डवोंके लिये यह शरद्-ऋतु
अत्यन्त सुखदायिनी थी ।। १०-११ ।।
दृश्यन्ते शान्तरजस: क्षपा जलदशीतला: ।
ग्रहनक्षत्रसड्घैश्व॒ सोमेन च विराजिता: ।। १२ ।।
उस समयकी रातें धूलरहित एवं निर्मल दिखायी देती थीं। बादलोंके समान उनमें
शीतलता थी। ग्रहों और नक्षत्रोंके समुदाय तथा चन्द्रमा उनकी शोभा बढ़ाते थे || १२ ।।
कुमुदै: पुण्डरीकैश्न शीतवारिधरा: शिवा: ।
नदी: पुष्करिणीश्रैव ददृशु: समलंकृता: ।। १३ ।।
पाण्डवोंने देखा, नदियाँ और पोखरियाँ कुमुदों तथा कमल-पुष्पोंसे अलंकृत हैं। उनमें
शीतल जल भरा हुआ है और वे सबके लिये सुखदायिनी प्रतीत होती हैं ।। १३ ।।
आकाशनीकाशतटां तीरवानीरसंकुलाम् ।
बभूव चरतां हर्ष: पुण्यतीर्था सरस्वतीम् ।। १४ ।।
पावन तीर्थोंसे विभूषित सरस्वती नदीका तट आकाशके समान निर्मल दिखायी देता
था। उसके दोनों किनारे बेंतकी लहलहाती हुई लताओंसे आच्छादित थे। वहाँ विचरते हुए
पाण्डवोंको बड़ा आनन्द मिलता था ।। १४ ।।
ते वै मुमुदिरे वीरा: प्रसन्नसलिलां शिवाम् |
पश्यन्तो दृढ्धन्वान: परिपूर्णा सरस्वतीम् ।। १५ ।।
वीर पाण्डव सुदृढ़ धनुष धारण करनेवाले थे। उन्होंने स्वच्छ जलसे भरी हुई
कल्याणमयी सरस्वतीका दर्शन करके बड़े आनन्दका अनुभव किया ।। १५ ।।
तेषां पुण्यतमा रात्रि: पर्वसंधौ सम शारदी ।
तत्रैव वसतामासीत् कार्तिकी जनमेजय ।। १६ ।।
जनमेजय! उनके वहीं रहते समय पर्वकी संधि-वेलामें कार्तिककी शरत्पूर्णिमाकी परम
पुण्यमयी रात्रि आयी ।। १६ ।।
पुण्यकृद्धिर्महास त्त्वैस्तापसै: सह पाण्डवा: ।
तत् सर्वे भरतश्रेष्ठा: समूहुर्योगमुत्तमम् ।। १७ ।।
उस समय भरतश्रेष्ठ पाण्डवोंने महान् सत्त्वगुणसे सम्पन्न, पुण्यात्मा, तपस्वी मुनियोंके
साथ स्नान-दानादिके द्वारा उस उत्तम योगको पूर्णतः सफल बनाया ।। १७ |।
तमिस्राभ्युदये तस्मिन् धौम्येन सह पाण्डवा: ।
सूतै: पौरोगवैश्वैव काम्यकं प्रययुर्वनम् । १८ ।।
फिर कृष्ण-पक्षका उदय होनेपर पाण्डवलोग धौम्य मुनि, सारथिगण तथा
पाकशालाध्यक्षके साथ काम्यक-वनकी ओर चल दिये ।। १८ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि काम्यकवनप्रवेशे
द्यशीत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १८२ ।।
इस प्रकार श्रीमह्या भारत वनपवकि अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्वमें
काम्यकवनगमनविषयक एक सौ बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १८२ ॥
हि >> आय न हुक अत अप
त्रयशीर्त्याधिकशततमोब< ध्याय:
काम्यकवनमें पाण्डवोंके पास भगवान् श्रीकृष्ण, मुनिवर
मार्कण्डेय तथा नारदजीका आगमन एवं युधिष्ठिरके
पूछनेपर मार्कण्डेयजीके द्वारा कर्मफल-भोगका विवेचन
वैशम्पायन उवाच
काम्यकं प्राप्प कौरव्य युधिष्ठिरपुरोगमा: ।
कृतातिथ्या मुनिगणैर्निषेदु: सह कृष्णया ।। १ ।।
ततस्तान् परिविश्वस्तान् वसतः पाण्डुनन्दनान् |
ब्राह्मणा बहवस्तत्र समन्तात् पर्यवारयन् ॥। २ ।।
अथाब्रवीद् द्विज: ककश्िदर्जुनस्य प्रियः सखा ।
स एष्यति महाबाहुर्वशी शौरिरुदारधी: ।। ३ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--कुरुनन्दन जनमेजय! काम्यकवनमें पहुँचनेपर वहाँके
मुनियोंने युधिष्ठिर आदि पाण्डवोंका यथोचित आदर-सत्कार किया। फिर वे द्रौपदीके साथ
वहाँ रहने लगे। जब वे विश्वासपात्र पाण्डव वहाँ निवास करने लगे, तब बहुत-से ब्राह्मणोंने
आकर सब ओसरसे उन्हें घेर लिया (और उन्हींके साथ रहने लगे)। तदनन्तर एक दिन एक
ब्राह्मण आया। उसने यह सूचना दी कि सबको वशमें रखनेवाले उदारबुद्धि महाबाहु
भगवान् श्रीकृष्ण, जो अर्जुनके प्रिय सखा हैं, अभी यहाँ पधारेंगे || १--३ ॥।
विदिता हि हरेयूयमिहायाता: कुरूद्वहा: ।
सदा हि दर्शनाकाडुक्षी श्रेयो5न्वेषी च वो हरि: ।। ४ ।।
कुरुश्रेष्ठ पाण्डवो! आपलोगोंका यहाँ आना भगवान् श्रीकृष्णको ज्ञात हो चुका है। वे
सदा आपलोगोंको देखनेके लिये उत्सुक रहते हैं और आपके कल्याणकी बात सोचते रहते
हैं ।। ४ ।।
बहुवत्सरजीवी च मार्कण्डेयो महातपा: ।
स्वाध्यायतपसा युक्तः क्षिप्रं युष्मान् समेष्यति ।। ५ ।।
एक शुभ समाचार और है, चिरंजीवी महातपस्वी मार्कण्डेय मुनि, जो स्वाध्याय और
तपस्यामें संलग्न रहा करते हैं, शीघ्र ही आपलोगोंसे मिलेंगे |। ५ ।।
तथैव ब्रुवतस्तस्य प्रत्यदृश्यत केशव: ।
शैब्यसुग्रीवयुक्तेन रथेन रथिनां वर: ॥। ६ ।।
मघवानिव पौलोम्या सहित: सत्यभामया ।
उपायाद् देवकीपूुत्रो दिदृक्षु: कुरुसत्तमान् । ७ ।।
ब्राह्मण इस प्रकारकी बातें कह ही रहा था कि शैब्य और सुग्रीव नामक अअश्रोंसे जुते
हुए रथद्वारा रथियोंमें श्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्ण आते हुए दिखायी दिये। जैसे शचीके साथ इन्द्र
आये हों, उसी प्रकार सत्यभामाके साथ देवकीनन्दन श्रीहरि उन कुरुकुलशिरोमणि
पाण्डवोंसे मिलने वहाँ आये ।। ६-७ ।।
अवतीर्य रथात् कृष्णो धर्मराजं यथाविधि ।
ववन्दे मुदितो धीमान् भीमं च बलिनां वरम् ।। ८ ।।
परम बुद्धिमान श्रीकृष्णने रथसे उतरकर बड़ी प्रसन्नताके साथ धर्मराज युधिष्ठिर तथा
बलवानोंमें श्रेष्ठ भीमको विधिपूर्वक प्रणाम किया ।। ८ ।।
पूजयामास धौम्यं च यमाभ्यामभिवादित: ।
परिष्वज्य गुडाकेशं द्रौपदी पर्यसान्त्वयत् ।। ९ ।।
स दृष्टवा फाल्गुनं वीरं चिरस्य प्रियमागतम् ।
पर्यष्वजत दाशार्ह: पुन: पुनररिंदम: || १० ||
फिर धौम्य मुनिका पूजन किया। तत्पश्चात् नकुल-सहदेवने आकर उनके चरणोंमें
मस्तक झुकाये। इसके बाद निद्राविजयी अर्जुनको हृदयसे लगाकर श्रीकृष्णने द्रौपदीको
भलीभाँति सान्त्वना दी। परमप्रिय वीरवर अर्जुनको दीर्घकालके बाद आया देख शत्रुदमन
श्रीकृष्णने उन्हें बार-बार हृदयसे लगाया ।। ९-१० ।।
तथैव सत्यभामापि द्रौपदी परिषस्वजे ।
पाण्डवानां प्रियां भार्या कृष्णस्य महिषी प्रिया ॥। ११ ।।
इसी प्रकार श्रीकृष्णकी प्यारी रानी सत्यभामाने भी पाण्डवोंकी प्रिय पत्नी पांचालीका
आलिंगन किया ।। ११ ।।
ततस्ते पाण्डवा: सर्वे सभार्या: सपुरोहिता: ।
आनर्चु: पुण्डरीकाक्षं परिवद्रुश्चन सर्वश: ।। १२ ।।
तदनन्तर पत्नी और पुरोहितसहित समस्त पाण्डवोंने कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णका
पूजन किया और सब-के-सब उन्हें घेरकर बैठ गये ।। १२ ।।
कृष्णस्तु पार्थेन समेत्य विद्वान्
धनंजयेनासुरतर्जनेन ।
बभौ यथा भूतपतिर्महात्मा
समेत्य साक्षाद् भगवान् गुहेन ।। १३ ।।
सर्वज्ञ भगवान् श्रीकृष्ण असुरोंको भयभीत करनेवाले कुन्तीनन्दन अर्जुनसे मिलकर
उसी प्रकार सुशोभित हुए, जैसे परम महात्मा साक्षात् भगवान् भूतनाथ शंकर कार्तिकेयसे
मिलकर शोभा पाते हैं ।। १३ ।।
ततः समस्तानि किरीटमाली
वनेषु वृत्तानि गदाग्रजाय ।
उक्त्वा यथावत् पुनरन्वपृच्छत्
कथं सुभद्रा च स चाभिमन्यु: ।। १४ ।।
तदनन्तर किरीटधारी अर्जुनने गदके बड़े भाई भगवान् श्रीकृष्णकोी वनवासके सारे
वत्तान्त यथार्थरूपसे बताकर पुनः उनसे पूछा--'सुभद्रा और अभिमन्यु कैसे हैं? ।। १४ ।।
स पूजयित्वा मधुहा यथावत्
पार्थ च कृष्णां च पुरोहितं च ।
उवाच राजानमभिप्रशंसन्
युधिष्ठिरं तत्र सहोपविश्य ।। १५ ।।
भगवान् मधुसूदनने अर्जुन, द्रौपदी तथा पुरोहित धौम्यका सम्मान करके सबके साथ
बैठकर राजा युधिष्ठिरकी प्रशंसा करते हुए कहा-- ।। १५ ।।
धर्म: पर: पाण्डव राज्यलाभात्
तस्यार्थमाहुस्तप एव राजन् ।
सत्यार्जवाभ्यां चरता स्वधर्म
जितस्त्वयायं च परश्च॒ लोक: ।। १६ ।।
“राजन! पाण्डुनन्दन! राज्यलाभकी अपेक्षा धर्म महान् है। धर्मकी वृद्धिके लिये तपको
ही प्रधान साधन बताया गया है। आप सत्य और सरलता आदि सदगुणोंके साथ-साथ
स्वधर्मका पालन करते हैं, अतः आपने इस लोक और परलोक दोनोंको जीत लिया
है ।। १६ ||
अधीतमग्रे चरता व्रतानि
सम्यग धनुर्वेदमवाप्यकृत्स्नम् ।
क्षात्रेण धर्मेण वसूनि लब्ध्वा
सर्वे हमवाप्ता: क्रतव: पुराणा: ॥। १७ ।।
नग्राम्यधर्मेषु रतिस्तवास्ति
कामान्न किंचित् कुरुषे नरेन्द्र |
न चार्थलोभात् प्रजहासि धर्म
तस्मात् प्रभावादसि धर्मराज: ।। १८ ।।
“आपने सबसे पहले ब्रह्मचर्य आदि व्रतोंका पालन करते हुए सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन
किया है। तत्पश्चात् सम्पूर्ण धनुर्वेदकी शिक्षा प्राप्त की है। इसके बाद क्षत्रिय-धर्मके अनुसार
धनका उपार्जन करके समस्त प्राचीन यज्ञोंका अनुष्ठान किया है। नरेश्वर! जिसमें गँवारोंकी
आसक्ति हुआ करती है, उस स्त्री-सम्बन्धी भोगमें आपका अनुराग नहीं है। आप कामनासे
प्रेरित होकर कुछ नहीं करते हैं और धनके लोभसे धर्मका त्याग नहीं करते हैं। इसी प्रभावसे
धर्मराज कहलाते हैं || १७-१८ ।।
दानं च सत्यं च तपश्च राजन्
श्रद्धा च बुद्धिश्न क्षमा धृतिश्न ।
अवाप्य राष्ट्राणि वसूनि भोगा-
नेषा परा पार्थ सदा रतिस्ते ।। १९ ।।
“राजन! आपने राज्य, धन और भोगोंको पाकर भी सदा दान, सत्य, तप, श्रद्धा, बुद्धि,
क्षमा तथा धृति--इन सदगुणोंसे ही प्रेम किया है ।। १९ ।।
वनमें पाण्डवोंसे श्रीकृष्ण-सत्यभामाका मिलना
यदा जनौघ: कुरुजाड्लानां
कृष्णां सभायामवशामपश्यत् |
अपेतधर्मव्यवहार वृत्तं
सहेत तत् पाण्डव कस्त्वदन्य: ।। २० ।।
'पाण्डुनन्दन! कुरुजांगलदेशकी जनताने द्यूतसभामें द्रौयदीको जिस विवश-अवस्थामें
देखा था और उस समय उसके साथ जो पापपूर्ण बर्ताव किया गया था, उसे आपके सिवा
दूसरा कौन सह सकता था? || २० ||
असंशयं सर्वसमृद्धकाम:
क्षिप्रं प्रजा: पालयितासि सम्यक् ।
इमे वयं निग्रहणे कुरूणां
यदि प्रतिज्ञा भवत: समाप्ता ॥। २१ ।।
“धर्मराज! अब शीघ्र ही आपके सारे मनोरथ पूर्ण होंगे और आप राजसिंहासनपर
आरूढ़ होकर न्यायपूर्वक प्रजाका पालन करेंगे, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। यदि
आपकी वनवासविषयक प्रतिज्ञा पूरी हो जाय, तो हम सब लोग आपके विरोधी कौरवोंको
दण्ड देनेके लिये उद्यत हैं! | २१ ।।
धौम्यं च भीम॑ च युधिष्ठिरं च
यमौ च कृष्णां च दशार्हसिंह: ।
उवाच दिष्ट्या भवतां शिवेन
प्राप्त: किरीटी मुदितः कृतास्त्र: ॥। २२ ।॥।
तदनन्तर युदुकुलसिंह भगवान् श्रीकृष्णने धौम्य, युधिष्ठिर भीमसेन, नकुल, सहदेव
और द्रौपदीकी ओर देखते हुए कहा--'सौभाग्यकी बात है कि आपलोगोंद्वारा की हुई
मंगलकामनासे किरीटधारी अर्जुन अस्त्रविद्याके पारंगत विद्वान् होकर सानन्द लौट आये
हैं ।। २२ ।।
प्रोवाच कृष्णामपि याज्ञसेनीं
दशार्हभर्ता सहित: सुहृद्धिः ।
दिष्टया समग्रासि धनंजयेन
समागतेत्येवमुवाच कृष्ण: || २३ ।।
कृष्णे धरनुर्वेदरतिप्रधाना-
स्तवात्मजास्ते शिशव: सुशीला: ।
सद्धिः सदैवाचरितं सुहृद्धि-
श्वरन्ति पुत्रास्तव याज्ञसेनि ।। २४ ।।
इसके बाद दशार्हकुलके स्वामी श्रीकृष्ण, जो अपने सुहृदोंसे घिरे हुए थे, यज्ञसेनकुमारी
द्रौपदीसे बोले--“कृष्णे! अर्जुनसे मिलकर तेरी सारी कामना सफल हो गयी, यह बड़े
आनन्दकी बात है। तेरे पुत्र बड़े सुशील हैं। धनुर्वेदमें उनका विशेष अनुराग है। वे अपने
सुहृदोंसहित सत्पुरुषोंद्वारा आचरित सदाचार और धर्मका पालन करते हैं || २३-२४ ।।
राज्येन राष्ट्रश्न निमन्त्रयमाणा:
पित्रा च कृष्णे तव सोदरैश्न ।
न यज्ञसेनस्य न मातुलानां
गृहेषु बाला रतिमाप्नुवन्ति ॥। २५ ।।
“कृष्णे! तुम्हारे पिता और भाइयोंने राज्य तथा राजकीय उपकरणों--यान-वाहन
आदिकी सुविधा दिखाकर अनेक बार आमन्त्रित किया, तो भी तुम्हारे बच्चे अपने नाना
यज्ञसेन और मामा धृष्टद्युम्न आदिके घरोंमें रहना पसंद नहीं करते हैं--वहाँ उनका मन नहीं
लगता है || २५ ।।
आनर्तमेवाभिमुखा: शिवेन
गत्वा धरनुर्वेदरतिप्रधाना: ।
तवात्मजा वृष्णिपुरं प्रविश्य
न दैवतेभ्य: स्पृहयन्ति कृष्णे | २६ ।।
“कृष्णे! उनका थभरनुर्वेदमें विशेष प्रेम है। वे आनर्त देशमें ही कुशलपूर्वक जाकर
वृष्णिपुरी द्वारकामें रहते हैं। वहाँ रहकर उन्हें देवताओंके लोकमें भी जानेकी इच्छा नहीं
होती ।। २६ ।।
यथा त्वमेवार्हसि तेषु वृत्तं
प्रयोक्तुमार्या च तथैव कुन्ती ।
तेष्वप्रमादेन तथा करोति
तथैव भूयश्व तथा सुभद्रा ।। २७ ।।
“उन बालकोंको तुम सदाचारकी जैसी शिक्षा दे सकती हो, आर्या कुन्ती भी उन्हें जैसा
सदाचार सिखा सकती हैं, वैसी शिक्षा देनेकी योग्यता सुभद्रामें भी है। वह बड़ी सावधानीके
साथ वैसी ही शिक्षा देकर उन सब बालकोंको सदाचारमें प्रतिष्ठित करती है || २७ ।।
यथानिरुद्धस्य यथाभिमन्यो-
यथा सुनीथस्य यथैव भानो: ।
तथा विनेता च गतिश्व कृष्णे
तवात्मजानामपि रौक्मिणेय: ।। २८ ।।
“कृष्णे। रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्म जिस प्रकार अनिरुद्ध, अभिमन्यु, सुनीथ और भानुको
धनुर्वेदकी शिक्षा देते हैं, उसी प्रकार वे तुम्हारे पुत्रोंके भी शिक्षक और संरक्षक हैं || २८ ।।
गदासिचर्मग्रहणेषु शूरा-
नस्त्रेषु शिक्षासु रथाश्वयाने ।
सम्यग् विनेता विनयत्यतन्तद्र-
स्तांश्वाभिमन्यु: सततं कुमार: ।। २९ |।
'शिक्षा देनेमें नीेपूण और आलस्यरहित कुमार अभिमन्यु तुम्हारे शूर-वीर पुत्रोंको गदा
और ढाल-तलवारके दाँव-पेंच सिखाते हैं। अन्यान्य अस्त्रोंकी भी शिक्षा देते हैं। साथ ही रथ
चलाने और घोड़े हाँकनेकी कला भी सिखाते हैं। वे सदा उनकी शिक्षा-दीक्षामें संलग्न रहते
हैं ।। २९ ।।
स चापि सम्यक् प्रणिधाय शिक्षां
शस्त्राणि चैषां विधिवत् प्रदाय |
तवात्मजानां च तथाभिमन्यो:
पराक्रमैस्तुष्यति रौक्मिणेय: ।। ३० ।।
“अस्त्र-शस्त्रोंके प्रयोगकी उत्तम शिक्षा दे उनके लिये उन्होंने विधिपूर्वक नाना प्रकारके
शस्त्र भी दे रक्खे हैं। तुम्हारे पुत्रों और अभिमन्युके पराक्रम देखकर रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न
बहुत संतुष्ट रहते हैं || ३० ।।
यदा विहारं प्रसमीक्षमाणा:
प्रयान्ति पुत्रास्तव याज्ञसेनि ।
एकैकमेषामनुयान्ति तत्र
रथाक्ष यानानि च दन्तिनश्ष ।। ३१ ||
'याज्ञसेनी! तुम्हारे पुत्र जब नगरकी शोभा देखनेके लिये घूमने निकलते हैं, उस समय
उनमेंसे प्रत्येकके लिये रथ, घोड़े, हाथी और पालकी आदि सवारियाँ पीछे-पीछे जाती
हैं! ।। ३१ ।।
अथाब्रवीद् धर्मराजं तु कृष्णो
दशार्हयोधा: कुकुरान्धकाश्न ।
एते निदेशं तव पालयन्त-
स्तिष्ठन्तु यत्रेच्छसि तत्र राजन् ।। ३२ ।।
तत्पश्चात् भगवान् श्रीकृष्णने धर्मराज युधिष्ठिस्से कहा--“राजन्! दशार्ह, कुकुर और
अंधकवंशके योद्धा जहाँ आप चाहें, वहीं आपकी आज्ञाका पालन करते हुए खड़े रह सकते
हैं । ३२ ।।
आवर्ततां कार्मुकवेगवाता
हलायुधप्रग्रहणा मधूनाम् ।
सेना तवार्थेषु नरेन्द्र यत्ता
ससादिपत्त्यश्वरथा सनागा ।। ३३ ।।
“नरेन्द्र! जिसके धनुषका वेग वायुवेगके समान हैं, हल धारण करनेवाले बलरामजी
जिसके सेनापति हैं, वह सवारोंसहित हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिकोंसे भरी हुई मथुरा-
प्रान्तवासी गोपोंकी चतुरंगिणी सेना सदा युद्धके लिये संनद्ध हो आपकी अभीष्ट-सिद्धिके
लिये निरन्तर तत्पर रहती है || ३३ ।।
प्रस्थाप्यतां पाण्डव धार्तराष्ट्र:
सुयोधन: पापकृतां वरिष्ठ: ।
स सानुबन्ध: ससुहृद्गण श्न
भौमस्य सौभाधिपतेश्व मार्गम् ।। ३४ ।।
पाण्डुनन्दन! अब आप पापात्माओंके शिरोमणि धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनको उसके सुहृदों
और सम्बन्धियों-लहित उसी मार्गपर भेज दीजिये, जहाँ भौमासुर और शाल्व गये
हैं ।। ३४ ।।
काम॑ तथा तिष्ठ नरेन्द्र तस्मिन्
यथा कृतस्ते समय: सभायाम् ।
दाशार्हयोधैस्तु हतारियोध॑
प्रतीक्षतां नागपुरं भवन्तम् ।। ३५ ।।
“महाराज! आप चाहें तो सभामें जो प्रतिज्ञा आपने की है, उसीके पालनमें लगे रहें।
यदि आपकी आज्ञा हो तो यदुवंशी योद्धा आपके समस्त शत्रुओंको मार डालें और
हस्तिनापुर नगर आपके शुभागमनकी प्रतीक्षा करता रहे ।। ३५ ।।
व्यपेतमन्युर्व्यपनीतपाप्मा
विहृत्य यत्रेच्छसि तत्र कामम् |
ततः: प्रसिद्ध प्रथमं विशोक:
प्रपत्स्यसे नागपुरं सुराष्ट्रम ।। ३६ ।।
“राजन! आप क्रोध, दीनता और दुःखसे दूर रहकर जहाँ-जहाँ आपकी इच्छा हो वहाँ-
वहाँ घूम लीजिये। तत्पश्चात् शोकरहित हो अपनी प्रसिद्ध और उत्तम राजधानी हस्तिनापुरमें
प्रवेश कीजियेगा” ।। ३६ ।।
ततस्तदाज्ञाय मतं महात्मा
यथाददुक्तं पुरुषोत्तमेन ।
प्रशस्य विप्रेक्ष्य च धर्मराज:
कृताञ्जलि: केशवमित्युवाच ।। ३७ ||
पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णने अपना मत अच्छी तरह व्यक्त कर दिया था। उसे
जानकर महात्मा धर्मराजने भगवान् केशवकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और हाथ जोड़कर
उनकी ओर देखते हुए कहा-- ।। ३७ ।।
असंशयं केशव पाण्डवानां
भवान् गतिस्त्वच्छरणा हि पार्था: |
कालोदये तच्च ततश्व भूयः
कर्ता भवान् कर्म न संशयोडस्ति ।। ३८ ।।
“केशव! इसमें संदेह नहीं कि आप ही पाण्डवोंके अवलम्ब हैं। कुन्तीके हम सभी पुत्र
आपकी ही शरणमें हैं। जब समय आयेगा, तब आप पुनः अपने इस कथनके अनुसार सब
कार्य करेंगे, इसमें संदेह नहीं है ।। ३८ ।।
यथाप्रतिज्ञं विहतश्ष॒ काल:
सर्वा: समा द्वादश निर्जनेषु ।
अज्ञातचर्या विधिवत् समाप्य
भवद्गता: केशव पाण्डवेया: ।। ३९ ।।
एषैव बुद्धिर्जुषतां सदा त्वां
सत्ये स्थिता: केशव पाण्डवेया: ।
सदानधर्मा: सजना: सदारा:
सबान्धवास्त्वच्छरणा हि पार्था: ।। ४० ।।
“भगवन्! हमने अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार बारह वर्षोका सारा समय निर्जन वनोंमें
घूमकर बिता दिया है। अब अज्ञातवासकी अवधि भी विधिपूर्वक पूर्ण कर लेनेपर हम
समस्त पाण्डव आपकी आज्ञाके अधीन हो जायूँगे। नाथ! आपकी भी बुद्धि सदा ऐसी ही
बनी रहे। ये पाण्डव सदा सत्यके पालनमें संलग्न रहे हैं। प्रभो! दान-धर्मसे युक्त हम सभी
कुन्तीपुत्र सेवक, परिजन, स्त्री, पुत्र तथा बन्धु-बान्धवोंसहित केवल आपकी ही शरणमें
हैं! | ३९-४० ।।
वैशम्पायन उवाच
तथा वदति वार्ष्णेये धर्मराजे च भारत ।
अथ पश्चात् तपोवृद्धों बहुवर्षमहस्रधूकू ।। ४१ ।।
प्रत्यदृश्यत धर्मात्मा मार्कण्डेयो महातपा: ।
अजरश्नामरश्नरैव रूपौदार्यगुणान्वित: ।। ४२ ।।
व्यदृश्यत तथा युक्तो यथा स्यात् पजचविंशक: ।
वैशम्पायनजी कहते हैं--भारत! भगवान् श्रीकृष्ण और धर्मराज युधिष्ठिर जब इस
प्रकार बातें कर रहे थे, उसी समय अनेक सहसख्र वर्षोकी अवस्थावाले तपोवृद्ध धर्मात्मा
महातपस्वी मार्कण्डेय मुनि आते दिखायी दिये। वे रूप और उदारता आदि गुणोंसे सम्पन्न
तथा अजर-अमर थे। वैसे बड़े-बूढ़े होनेपर भी वे ऐसे दिखायी दे रहे थे, मानो पच्चीस
वर्षकी अवस्थाके तरुण हों ।।
तमागतमृषिं वृद्ध बहुवर्षमहस्रिणम् ।। ४३ ।।
आनर्चुब्रद्विणा: सर्वे कृष्णश्च॒ सह पाण्डवै: ।
तमर्चितं सुविश्वस्तमासीनमृषिसत्तमम् |
ब्राह्मणानां मतेनाह पाण्डवानां च केशव: || ४४ ।।
हजारों वर्षोकी अवस्थावाले उन वृद्ध महर्षिके पधारनेपर पाण्डवोंसहित भगवान्
श्रीकृष्ण तथा समस्त ब्राह्मणोंने उनका पूजन किया। पूजित होनेपर जब वे अत्यन्त विश्वास
करनेयोग्य मुनिश्रेष्ठ आसनपर विराजमान हो गये, तब वहाँ आये हुए ब्राह्मणों और
पाण्डवोंकी सम्मतिसे भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार कहा ।।
श्रीकृष्ण उवाच
शुश्रूषव: पाण्डवास्ते ब्राह्मणाश्व समागता: ।
द्रौपदी सत्यभामा च तथाहं परमं वच: ।। ४५ ।।
पुरावृत्ता: कथा: पुण्या: सदाचारान् सनातनान् |
राज्ञां सत्रीणामृषीणां च मार्कण्डेय विचक्ष्व न: ।। ४६ ।।
श्रीकृष्ण बोले--मार्कण्डेयजी! आपके उपदेश सुननेकी इच्छासे यहाँ पाण्डवोंके
साथ-साथ बहुत-से ब्राह्मण भी पधारे हुए हैं। द्रौपदी, सत्यभामा तथा मैं, सब लोग आपकी
उत्तम वाणीका रसास्वादन करना चाहते हैं। आप प्राचीनकालके नरेशों, नारियों तथा
महर्षियोंकी पुरातन पुण्य कथाएँ सुनाइये और हमलोगोंसे सनातन सदाचारका वर्णन
कीजिये ।। ४५-४६ ।।
वैशम्पायन उवाच
तेषु तत्रोपविष्टेषु देवर्षिरपि नारद: ।
आजगाम विशुद्धात्मा पाण्डवानवलोकक: ।। ४७ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! वे सब लोग वहाँ बैठे ही थे कि विशुद्ध
अन्तःकरणवाले देवर्षि नारद भी पाण्डवोंसे मिलनेके लिये वहाँ आये ।। ४७ ।।
तमप्यथ महात्मानं सर्वे ते पुरुषर्षभा: ।
पाद्यार््यभ्यां यथान्यायमुपतस्थूर्मनीषिण: ।। ४८ ।।
तब उन सभी श्रेष्ठ मनीषी पुरुषोंने उन महात्मा नारदजीको भी पाद्य आदि देकर उनका
यथायोग्य सत्कार किया ।। ४८ ।।
। । । ॥ ]
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६
नारदस्त्वथ देवर्षिज्ञात्वा तांस्तु कृतक्षणान् ।
मार्कण्डेयस्य वदतस्तां कथामन्वमोदत ।। ४९ ।।
तब देवर्षि नारदने उन सबको कथा सुननेके लिये अवसर निकालकर तैयार हुआ जान
वक्ता मार्कण्डेय मुनिकी उस कथा सुननेके विचारका अनुमोदन किया || ४९ ।।
उवाच चैनं कालज्ञ: स्मयन्निव सनातन: ।
ब्रह्में कथ्यतां यत् ते पाण्डवेषु विवक्षितम् ।। ५० ।।
उस समय उपर्युक्त अवसरके ज्ञाता सनातन भगवान् श्रीकृष्णने मार्कण्डेयजीसे
मुसकराते हुए कहा--“'महर्ष!ी आप पाण्डवोंसे जो कुछ कहना चाहते थे, वह
कहिये” ।। ५० ।।
एवमुक्त: प्रत्युवाच मार्कण्डेयो महातपा: ।
क्षणं कुरुध्वं विपुलमाख्यातव्यं भविष्यति ।। ५१ ।।
उनके ऐसा कहनेपर महातपस्वी मार्कण्डेय मुनिने कहा--'पाण्डवो! तुम सब लोग
क्षणभरके लिये चुप हो जाओ; क्योंकि मुझे तुमसे बहुत कुछ कहना है” ।। ५१ ।।
एवमुक्ता: क्षणं चक्कु: पाण्डवा: सह तैर्दविजै: |
मध्यन्दिने यथा55दित्यं प्रेक्षन्तस्ते महामुनिम् ।। ५२ ।।
उनके इस प्रकार आज्ञा देनेपर उन ब्राह्मणोंसहित पाण्डव मध्याह्नकालके सूर्यकी भाँति
तेजस्वी उन महामुनिको देखते हुए उनके वक्तव्यको सुननेके लिये चुप हो गये ।। ५२ ।।
वैशम्पायन उवाच
तं॑ विवक्षन्तमालक्ष्य कुरुगाजो महामुनिम् |
कथासंजननार्थाय चोदयामास पाण्डव: ।। ५३ |।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! महामुनि मार्कण्डेयजीको बोलनेके लिये उद्यत
देख कुरुराज पाण्बुपुत्र युधिष्ठिरने कथा प्रारम्भ करनेके लिये इस प्रकार प्रेरित किया
-- || ५३ ||
भवान् दैवतदैत्यानामृषीणां च महात्मनाम् |
राजर्षीणां च सर्वेषां चरितज्ञ: पुरातन: ।। ५४ ।।
“महामुने! आप देवताओं, दैत्यों, ऋषियों, महात्माओं तथा समस्त राजर्षियोंके
चरित्रोंको जाननेवाले प्राचीन महर्षि हैं || ५४ ।।
सेव्यश्नोपासतिव्यश्ष मतो न: कड्क्षितश्चिरम्
अयं च देवकीपुत्र: प्राप्तोडः्मानवलोकक: ।। ५५ ||
“हमारे मनमें दीर्घकालसे यह इच्छा थी कि हमें आपकी ये सेवा और सत्संगका शुभ
अवसर मिले। ये देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण भी हमसे मिलनेके लिये यहाँ पधारे
हैं ।। ५५ ||
भवत्येव हि मे बुद्धिर्दष्टवा55त्मानं सुखाच्च्युतम्
धारीराष्टरं श्र दुर्वत्तानृध्यतः प्रेक्ष्य सर्वश: ।। ५६ ।।
“ब्रह्म! जब मैं अपनेको सुखसे वज्चित पाता हूँ और दुराचारी धृतराष्ट्रपुत्रोंकी सब
प्रकारसे समृद्धिशाली होते देखता हूँ, तब स्वभावतः ही मेरे मनमें एक विचार उठता
है ।। ५६ ||
कर्मण: पुरुष: कर्ता शुभस्याप्यशुभस्य वा ।
स फलं तदुपाश्नाति कथं कर्ता स्विदीश्वर: ।। ५७ ।।
कुतो वा सुखदु:खेषु नृणां ब्रह्म॒विदां वर ।
इह वा कृतमन्वेति परदेहेडथ वा पुन: ।। ५८ ।।
“मैं सोचता हूँ, शुभ और अशुभ कर्म करनेवाला जो पुरुष है, वह अपने उन कर्मोंका
फल कैसे भोगता है तथा ईश्वर उन कर्मफलोंका रचयिता कैसे होता है? ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ
मुनीश्वर! सुख और दु:खकी प्राप्ति करानेवाले कर्मोमें मनुष्योंकी प्रवृत्ति कैसे होती है?
मनुष्यका किया कर्म इस लोकमें ही उसका अनुसरण करता है अथवा पारलौकिक शरीरमें
भी || ५७-५८ ||
देही च देहं संत्यज्य मृग्यमाण: शुभाशुभै: ।
कथं संयुज्यते प्रेत्य इह वा द्विजसत्तम ।। ५९ ||
'द्विजश्रेष्ठ देहधारी जीव अपने शरीरका त्याग करके जब परलोकमें चला जाता है,
तब उसके शुभ और अशुभ कर्म उसको कैसे प्राप्त करते हैं और इहलोक और परलोकमें
जीवका उन कर्मोंके फलसे किस प्रकार संयोग होता है? ।। ५९ ।।
ऐहलौकिकमेवेह उताहो पारलौकिकम् |
क्व च कर्माणि तिष्ठन्ति जन्तो: प्रेतस्य भार्गव ।। ६० ।।
'भृगुनन्दन! कर्मोका फल इसी लोकमें प्राप्त होता है या परलोकमें? प्राणीकी मृत्यु हो
जानेपर उसके कर्म कहाँ रहते हैं? || ६० ।।
मार्कण्डेय उवाच
त्वद्युक्तोडयमनुप्रश्नो यथावद् वदतां वर ।
विदितं वेदितव्यं ते स्थित्यर्थ त्वं तु पृष्छसि ।। ६१ |।
मार्कण्डेयजी बोले--वक्ताओंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिर! तुम्हारा यह प्रश्न यथार्थ और
युक्तिसंगत है। तुम्हें जाननेयोग्य सभी बातोंका ज्ञान है, तो भी तुम केवल लोक-मर्यादाकी
रक्षाके लिये यह प्रश्न उपस्थित करते हो ।। ६१ ।।
अत्र ते कथयिष्यामि तदिहैकमना: शृणु ।
यथेहामुत्र च नर: सुखदुःखमुपाश्चुते ॥। ६२ ।।
मनुष्य इहलोक या परलोकमें जिस प्रकार सुख और दुःख भोगता है, इसके विषयमें
तुम्हें अपना विचार बताऊँगा। तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो ।। ६२ ।।
निर्मलानि शरीराणि विशुद्धानि शरीरिणाम् ।
ससर्ज धर्मतन्त्राणि पूर्वोत्पन्न: प्रजापति: || ६३ ।।
सर्वप्रथम प्रजापति ब्रह्माजी उत्पन्न हुए। उन्होंने जीवोंके लिये निर्मल तथा विशुद्ध शरीर
बनाये। साथ ही धर्मका ज्ञान करानेवाले धर्मशास्त्रोंको प्रकट किया ।।
अमोघफलसंकल्पा: सुव्रता: सत्यवादिन: ।
ब्रह्मभूता नरा: पुण्या: पुराणा: कुरुसत्तम || ६४ ।।
उस समयके सब मनुष्य उत्तम व्रतका पालन करनेवाले तथा सत्यवादी थे। उनका
अभीष्ट फलविषयक संकल्प कभी व्यर्थ नहीं होता था। कुरुश्रेष्ठ) वे सभी मनुष्य
ब्रह्मस्वरूप, पुण्यात्मा और चिरजीवी थे ।। ६४ ।।
सर्वे देवै: समायान्ति स्वच्छन्देन नभस्तलम् |
ततश्न पुनरायान्ति सर्वे स्वच्छन्दचारिण: ।। ६५ ।।
स्वच्छन्दमरणा श्चासन् नरा: स्वच्छन्दचारिण: ।
अल्पबाधा निरातज्ठा: सिद्धार्था निरुपद्रवा: ।। ६६ ।।
सभी स्वच्छन्दतापूर्वक आकाशमार्गसे उड़कर देवताओंसे मिलने जाते और
स्वच्छन्दचारी होनेके कारण इच्छा होते ही पुनः वहाँसे लौट आते थे। वे अपनी इच्छा
होनेपर ही मरते और इच्छाके अनुसार ही जीवित रहते थे। स्वतन्त्रतापूर्वक सर्वत्र विचरण
करते थे। उनके मार्ममें बाधाएँ बहुत कम आती थीं। उन्हें कोई भय नहीं होता था। वे
उपद्रवशून्य तथा पूर्णकाम थे || ६५-६६ ।।
द्रष्टारो देवसड्घानामृषीणां च महात्मनाम् |
प्रत्यक्षा: सर्वधधर्माणां दान्ता विगतमत्सरा: | ६७ ।।
देवताओं तथा महात्मा ऋषियोंके समुदायका उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन होता था। वे सभी
धर्मोको प्रत्यक्ष करनेवाले, जितेन्द्रिय तथा ईष्यासि रहित होते थे || ६७ ।।
आसन् वर्षसहस्त्रीयास्तथा पुत्रसहस्रिण: |
उनकी आयु हजारों वर्षोकी होती थी और वे हजार-हजार पुत्र उत्पन्न करते थे ।। ६७ $ई
||
ततः कालान्तरे<न्यस्मिन् पथिवीतलचारिण: ।। ६८ ।।
कामक्रोधाभिभूतास्ते मायाव्याजोपजीविन: ।
लोभमोहाभिकभूताश्ष त्यक्ता देहैस्ततो नरा: ।। ६९ ।।
तदनन्तर कुछ कालके पश्चात् भूतलपर विचरनेवाले मनुष्य काम और क्रोधके वशीभूत
हो गये। वे छल-कपट और दम्भसे जीविका चलाने लगे। उनके मनको लोभ और मोहने
दबा लिया। इन दोषोंके कारण उन्हें इच्छा न होते हुए भी अपना शरीर त्यागनेके लिये
विवश होना पड़ा ।। ६८-६९ ||
अशुभै: कर्मभि: पापास्तिर्यड्निरयगामिन: ।
संसारेषु विचित्रेषु पच्यमाना: पुनःपुन: ॥। ७० ||
वे पापपरायण हो अपने अशुभ कर्मोंके फलस्वरूप पशु-पक्षी आदिकी योनियोंमें जाने
और नरकमें गिरने लगे। विचित्र सांसारिक योनियोंमें बारंबार जन्म लेकर दुःखसे संतप्त
होने लगे || ७० ।।
मोघेष्टा मोघसंकल्पा मोघज्ञाना विचेतस: ।
सर्वाभिशड्किनश्वैव संवृत्ता: क्लेशदायिन: ।। ७१ ।।
उनकी कामनाएँ, उनके संकल्प और उनके ज्ञान सभी निष्फल थे। उनकी स्मरण-शक्ति
क्षीण हो गयी थी। वे सभी परस्पर संदेह करते हुए एक-दूसरेके लिये क्लेशदायक बन
गये ।। ७१ ।।
अशुभै: कर्मभिश्चापि प्रायश: परिचिद्विता: ।
दौष्कुल्या व्याधिबहुला दुरात्मानो5प्रतापिन: ।। ७२ ।।
उनके शरीरमें प्रायः उनके अशुभ कर्मोंके चिह्न (कोढ़ आदि) प्रकट होने लगे। कोई
अधम कुलमें जन्म लेते, कोई बहुत-से रोगोंके शिकार बने रहते और कोई दुष्ट स्वभावके हो
जाते थे। उनमेंसे कोई भी प्रतापी नहीं होता था || ७२ ।।
भवन्त्यल्पायुष: पापा रौद्रकर्मफलोदया: ।
नाथन्त: सर्वकामानां नास्तिका भिन्नचेतस: ।। ७३ ।।
इस प्रकार पापकर्मामें प्रवृत्त होनेवाले पापियोंकी आयु उनके कर्मानुसार बहुत कम हो
गयी। उनके पापकर्मोंके भयंकर फल प्रकट होने लगे। वे अपनी सभी अभीष्ट वस्तुओंके
लिये दूसरोंके सामने हाथ फैलाकर याचना करने लगे। कितने ही नास्तिक और
विचलितचित्त हो गये ।। ७३ ।।
जन्तो: प्रेतस्प कौन्तेय गति: स्वैरिह कर्मभि: ।
प्राज्ञस्थ हीनबुद्धेश्न कर्मकोश: क्व तिष्ठति । ७४ ।।
क्वस्थस्तत् समुपाश्चाति सुकृतं यदि वेतरत् ।
इति ते दर्शनं यच्च तत्राप्यनुनयं शृणु || ७५ ।।
कुन्तीनन्दन! इस संसारमें मृत्युके पश्चात् जीवकी गति उनके अपने-अपने कर्मोंके
अनुसार ही होती है। परंतु मरनेके बाद ज्ञानी और अज्ञानीकी कर्मराशि कहाँ रहती है? कहाँ
रहकर वह पुण्य अथवा पापका फल भोगता है? इस दृष्टिसे जो तुमने प्रश्न किया है, उसके
उत्तरमें मैं सिद्धान्त बता रहा हूँ, सुनो || ७४-७५ ।।
अयमादिशरीरेण देवसूष्टेन मानव: ।
शुभानामशुभानां च कुरुते संचयं महत् ।। ७६ ।।
आयुषोबचन्ते प्रहायेदं क्षीणप्रायं कलेवरम् |
सम्भवत्येव युगपद् योनौ नास्त्यन्तराभव: || ७७ ।।
यह मनुष्य ईश्वरके रचे हुए पूर्वशरीरके द्वारा (अन्तःकरणमें) शुभ और अशुभ कर्मोंकी
बहुत बड़ी राशि संचित कर लेता है। फिर आयु पूरी होनेपर वह इस जरा-जर्जर स्थूल
शरीरका त्याग करके उसी क्षण किसी दूसरी योनि (शरीर)-में प्रकट होता है। एक शरीरको
छोड़ने और दूसरेको ग्रहण करनेके बीचमें क्षणभरके लिये भी वह असंसारी नहीं
होता ।। ७६-७७ ||
तत्रास्य स्वकृतं कर्म छायेवानुगतं सदा ।
फलत्यथ सुखाहें वा दुःखाहों वाथ जायते ।। ७८ ।।
कृतान्तविधिसंयुक्त: स जन्तुर्लक्षणै: शुभै: ।
अशुभेर्वा निरादानो लक्ष्यते ज्ञानदृष्टिभि: ।। ७९ ।।
वहाँ दूसरे स्थूल शरीरमें उसके पूर्वजन्मका किया हुआ कर्म छायाकी भाँति सदा उसके
पीछे लगा रहता और यथासमय अपना फल देता है। इसलिये जीव सुख अथवा दुःख
भोगनेके योग्य होकर जन्म लेता है। यमराजके विधान (पुण्य और पापके फल-भोग)-में
नियुक्त हुआ जीव अपने शुभ अथवा अशुभ लक्षणोंद्वारा अपनेको मिले हुए सुख अथवा
दुःखका निवारण करनेमें असमर्थ है। यह बात ज्ञान-दृष्टिवाले महात्मा पुरुषोंद्वारा देखी
जाती है || ७८-७९ ||
एषा तावदबुद्धीनां गतिरुक्ता युधिष्ठिर ।
अतः: परं ज्ञानवतां निबोध गतिमुत्तमाम् ।। ८० ।।
युधिष्ठिर! यह तत्त्वज्ञानशून्य मूढ़ मनुष्योंकी स्वर्ग-नरकरूप गति बतायी गयी है। अब
इसके बाद विवेकी पुरुषोंको प्राप्त होनेवाली उत्तम गतिका वर्णन सुनो ।। ८० ।।
मनुष्यास्तप्ततपस: सर्वागमपरायणा: ।
स्थिरव्रता: सत्यपरा गुरुशुश्रूषणे रता: ।। ८१ ।।
सुशीला: शुक्लजातीया: क्षान्ता दान्ता: सुतेजस: ।
शुचियोन्यन्तरगता: प्रायश: शुभलक्षणा: ।। ८२ ।।
ज्ञानी मनुष्य तपस्वी, सम्पूर्ण शास्त्रोंके स्वाध्यायमें तत्पर, स्थिरतापूर्वक व्रतका पालन
करनेवाले, सत्यपरायण, गुरुसेवामें संलग्न, सुशील, शुक्ताजातीय (सात््विक), क्षमाशील,
जितेन्द्रिय और अत्यन्त तेजस्वी होते हैं। वे शुद्ध योनिमें जन्म लेते और प्राय: शुभ लक्षणोंसे
सुशोभित होते हैं || ८१-८२ ।।
जितेन्द्रियत्वाद् वशिन: शुक्लत्वान्मन्दरोगिण: ।
अल्पाबाधपरित्रासाद भवन्ति निरुपद्रवा: ।। ८३ ।।
च्यवन्तं जायमानं च गर्भस्थं चैव सर्वश: ।
स्वमात्मान परं चैव बुध्यन्ते ज्ञानचक्षुषा || ८४ ।।
जितेन्द्रिय होनेके कारण वे मनको वशमें रखते हैं और सात््विक अन्त:करणके होनेके
कारण नीरोग होते हैं। दुःख और त्रासके क्षीण होनेके कारण वे उपद्रवरहित होते हैं। विवेकी
पुरुष गर्भसे गिरते, जन्म लेते अथवा गर्भमें ही रहते समय भी ज्ञानदृष्टिसे अपने-आपका
और परमात्माका सर्वथा यथार्थ अनुभव करते हैं || ८३-८४ ।।
ऋषयस्ते महात्मान: प्रत्यक्षागमबुद्धयः ।
कर्मभूमिमिमां प्राप्प पुनर्यान्ति सुरालयम् ।। ८५ ।।
लौकिक तथा शास्त्रीय ज्ञानको प्रत्यक्ष करनेवाले वे महामना ऋषि इस कर्मभूमिमें
आकर फिर देवलोकमें चले जाते हैं || ८५ ।।
किंचिद् दैवाद्धठात् किंचित् किंचिदेव स्वकर्मभि: ।
प्राप्रुवन्ति नरा राजन् मा ते<स्त्वन्या विचारणा ।। ८६ ।।
राजन! विवेकी मनुष्य कर्मोंका कुछ फल प्रारब्धवश प्राप्त करते हैं, कुछ कर्मोका फल
हठात् प्राप्त होता है और कुछ कर्मोंका फल अपने उद्योगसे ही प्राप्त होता है। इस विषयमें
तुम्हें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये ।। ८६ ।।
इमामत्रोपमां चापि निबोध वदतां वर ।
मनुष्यलोके यच्छेय: परं मन्ये युधिछिर ।। ८७ ।।
इह वैकस्य नामुत्र अमुत्रैकस्य नो इह ।
इह वामुत्र चैकस्य नामुत्रैकस्य नो इह ।। ८८ ।।
वक्ताओंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिर! मनुष्यलोकमें मैं जिसे परम कल्याणकी बात समझता हूँ,
उसके विषयमें यह उदाहरण सुनो। कोई मनुष्य इस लोकमें ही परम सुख पाता है,
परलोकमें नहीं। किसीको परलोकमें ही परम कल्याणकी प्राप्ति होती है, इस लोकमें नहीं।
किसीको इहलोक और परलोक दोनोंमें परम श्रेयकी प्राप्ति होती है; तथा किसीको न तो
परलोकमें उत्तम सुख मिलता है और न इस लोकमें ही || ८७-८८ ।।
धनानि येषां विपुलानि सन्ति
नित्यं रमन्ते सुविभूषिताड्गा: ।
तेषामयं शत्रुवरघ्न लोको
नासौ सदा देहसुखे रतानाम् ।। ८९ ।।
जिनके पास बहुत धन होता है, वे अपने शरीरको हर तरहसे सजाकर नित्य विषयोंमें
रमण करते अर्थात् विषय-सुख भोगते हैं। शुत्रुसूदन! सदा अपने शरीरके ही सुखमें आसक्त
हुए उन मनुष्योंको केवल इसी लोकमें सुख मिलता है, परलोकमें उनके लिये सुखका
सर्वथा अभाव है ।। ८९ |।
ये योगयुक्तास्तपसि प्रसक्ता:
स्वाध्यायशीला जरयन्ति देहान् ।
जितेन्द्रिया: प्राणिवधे निवृत्ता-
स्तेषामसौ नायमरिघ्न लोक: ।। ९० ।।
शत्रुसूदन! जो लोग इस लोकमें योगसाधन करते हैं, तपस्यामें संलग्न होते हैं और
स्वाध्यायमें तत्पर रहते हैं तथा इस प्रकार प्राणियोंकी हिंसासे दूर रहकर इन्द्रियोंको संयममें
रखते हुए (तपस्याद्वारा) अपने शरीरको दुर्बल कर देते हैं, उनके लिये इस लोकमें सुख नहीं
है। वे परलोकमें ही परम कल्याणके भागी होते हैं || ९० ।।
ये धर्ममेव प्रथमं चरन्ति
धर्मेण लब्ध्वा च धनानि काले |
दारानवाप्य क्रतुभिर्यजन्ते
तेषामयं चैव परश्षच लोक: ।। ९१ ।।
जो लोग कर्तव्य-बुद्धिसे पहले धर्मका ही आचरण करते हैं और उस धर्मसे ही
(न्याययुक्त) धनका उपार्जन कर यथासमय स्त्रीसे विवाह करके उसके साथ यज्ञ-याग और
ईश्वरभक्ति आदिका अनुष्ठान करते हैं, उनके लिये इहलोक और परलोक दोनों ही सुखद
हैं ।। ९१ ।।
ये नैव विद्यां न तपो न दानं
न चापि मूढा: प्रजने यतन्ति |
न चानुगच्छन्ति सुखानि भोगां-
स्तेषामयं नैव परश्ष लोक: ॥। ९२ ।।
जो मूढ़ न विद्याके लिये, न तपके लिये और न दानके लिये ही प्रयत्न करते हैं एवं न
धर्मपूर्वक संतानोत्पादनके लिये ही यत्नशील होते हैं, वे न तो सुख पाते हैं और न भोग ही
भोगते हैं। उनके लिये न तो इस लोकमें सुख है और न परलोकमें ।। ९२ ।।
सर्वे भवन्तस्त्वतिवीर्यसत्त्वा
दिव्यौजस: संहननोपपन्ना: ।
लोकादमुष्मादवनिं प्रपन्ना:
स्वधीतविद्या: सुरकार्यहेतो: । ९३ ।।
राजा युधिष्ठिर! तुम सब लोग बड़े पराक्रमी और धैर्यवान् हो। तुममें अलौकिक ओज
भरा है। तुम सुदृढ़ शरीरसे सम्पन्न हो और देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये परलोकसे
इस पृथिवीपर अवतीर्ण हुए हो। यही कारण है कि तुमने सभी उत्तम विद्याएँ सीख ली
हैं ।। ९३ ।।
कृत्वैव कर्माणि महान्ति शूरा-
स्तपोदमाचारविहारशीला: ।
देवानृषीन् प्रेतगणांश्व॒ सर्वान्
संतर्पयित्वा विधिना परेण ।। ९४ ।।
स्वर्ग परं पुण्यकृतो निवासं
क्रमेण सम्प्राप्स्यथ कर्मभि: स्वै: ।
मा भूद् विशड्का तव कौरवेन्द्र
दृष्टवा55त्मन: क्लेशमिमं सुखाहम् ।। ९५ ।।
तुम सभी शूर-वीर तथा तपस्या, इन्द्रियसंयम और उत्तम आचार-व्यवहारमें सदा ही
तत्पर रहनेवाले हो। अतः (इस संसारमें बड़े-बड़े महत्त्वपूर्ण कार्य करके) देवताओं, ऋषियों
और समस्त पितरोंको उत्तम विधिसे तृप्त करोगे। तत्पश्चात् अपने सत्कर्मोंके फलस्वरूप
तुम सब लोग क्रमसे पुण्यात्माओंके निवास स्थान परम स्वर्गलोकको चले जाओगे।
इसीलिये कौरवराज! तुम (अपने वर्तमान कष्टको देखकर) मनमें किसी प्रकारकी शंकाको
स्थान न दो। यह क्लेश तो तुम्हारे भावी सुखका ही सूचक है ।। ९४-९५ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि तयशीत्यधिकशततमो< ध्याय:
॥| १८३ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्वमें एक सौ तिरासीवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥। १८३ ॥
हि आय न [हुक हि 7 2
चतुरशीरत्याधेकशततमो< ध्याय:
तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मुणोंका माहात्म्य
वैशम्पायन उवाच
मार्कण्डेयं महात्मानमूचु: पाण्डुसुतास्तदा ।
माहात्म्यं द्विजमुख्यानां श्रोतुमिच्छाम कथ्यताम् ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! उस समय पाण्घुपुत्रोंने महात्मा मार्कण्डेयजीसे
कहा--'मुने! हम श्रेष्ठ ब्राह्मणोंका माहात्म्य सुनना चाहते हैं, आप उसका वर्णन
कीजिये' ॥। १ ||
एवमुक्त: स भगवान् मार्कण्डेयो महातपा: ।
उवाच सुमहातेजा: सर्वशास्त्रविशारद: || २ ।।
उनके ऐसा कहनेपर महातपस्वी, महान् तेजस्वी और सम्पूर्ण शास्त्रोंके निपुण विद्वान्
भगवान् मार्कण्डेयने इस प्रकार कहा ।। २ ।।
मार्कण्डेय उवाच
हैहयानां कुलकरो राजा परपुरंजय: ।
कुमारो रूपसम्पन्नो मृगयां व्यचरद् बली ।। ३ ।।
मार्कण्डेयजी बोले--हैहयवंशी क्षत्रियोंकी वंशपरम्पराको बढ़ानेवाला राजा
परपुरंजय, जो अभी कुमारावस्थामें था, बड़ा ही सुन्दर और बलवान था, एक दिन वनमें
हिंसक पशुओंको मारनेके लिये गया ।। ३ ।।
चरमाणस्तु सो5रण्ये तृणवीरुत्समावृते |
कृष्णाजिनोत्तरासजुूं ददर्श मुनिमन्तिके ।। ४ ।।
तृण और लताओंसे भरे हुए उस वनमें घूमते-घूमते उस राजकुमारने एक मुनिको देखा,
जो काले हिंसक पशुके चर्मकी ओढ़नी ओडढ़े थोड़ी ही दूरपर बैठे थे ।। ४ ।।
स तेन निहतो<रण्ये मन्यमानेन वै मृगम् ।
व्यथित: कर्म तत् कृत्वा शोकोपहतचेतन: ।। ५ ।।
राजकुमारने उन्हें हिंसक पशु ही समझा और उस वनमें अपने बाणोंसे उन्हें मार डाला।
अज्ञानवश यह पापकर्म करके वह राजकुमार व्यथित हो शोकसे मूर्च्छित हो गया ।। ५ ।।
जगाम हैहयानां वै सकाशं प्रथितात्मनाम् ।
राज्ञां राजीवनेत्रो5सौ कुमार: पृथिवीपति: ।
तेषां च तद् यथावृत्तं कथयामास वै तदा ॥। ६ ।।
तत्पश्चात् होशमें आकर वह सुविख्यात हैहयवंशी राजाओंके पास गया। वहाँ पृथ्वीका
पालन करनेवाले उस कमलनयन राजकुमारने उन सबके सामने इस दुर्घटनाका यथावत्
समाचार कहा || ६ ||
त॑ चापि हिंसितं तात मुनिं मूलफलाशिनम् ।
श्र॒त्वा दृष्टवा च ते तत्र बभूवुर्दीनमानसा: ।। ७ ।।
तात! फल-मूलका आहार करनेवाले एक मुनिकी हिंसा हो गयी, यह सुनकर और
देखकर वे सभी क्षत्रिय मन-ही-मन बहुत दुःखी हुए ।। ७ ।।
कस्यायमिति ते सर्वे मार्गमाणास्ततस्तत: ।
जम्मुश्नारिष्टनेम्नो5थ ताकक्ष्यस्याश्रममज्जसा ।। ८ ।॥।
फिर वे सब-के-सब जहाँ-तहाँ यह पता लगाते हुए कि ये मुनि किसके पुत्र हैं, शीघ्र ही
कश्यप-नन्दन अरिष्टनेमिके आश्रमपर गये ।। ८ ।।
तेडभिवाद्य महात्मानं तं मुनिं नियतव्रतम् ।
तस्थु: सर्वे स तु मुनिस्तेषां पूजामथाहरत् ।। ९ ।।
वहाँ नियमपूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाले उन महात्मा मुनिको प्रणाम करके वे
सब खड़े हो गये। तब मुनिने उनके लिये अर्घ्य आदि पूजन-सामग्री अर्पित की || ९ ।।
ते तमूचुर्महात्मानं न वयं सत्क्रियां मुने ।
त्वत्तोर्ड्: कर्मदोषेण ब्राह्मणो हिंसितो हि न: ।। १० ||
यह देखकर उन्होंने उन महात्मासे कहा--“मुने! हम अपने दूषित कर्मके कारण
आपसे सत्कार पानेयोग्य नहीं रह गये हैं। हमसे एक ब्राह्मणकी हत्या हो गयी है” || १० ।।
तानब्रवीत् स विप्रर्षि: कथं वो ब्राह्मणो हत: ।
क्व चासौ ब्रूत सहिता: पश्यध्वं मे तपोबलम् ।। ११ ।।
यह सुनकर उन ब्रह्मर्षिने कहा--“आपलोगोंसे ब्राह्मणकी हत्या कैसे हुई? और वह
मरा हुआ ब्राह्मण कहाँ है? बताइये। फिर सब लोग एक साथ मेरी तपस्याका बल
देखियेगा' ।। ११ ।।
ते तु तत् सर्वमखिलमाख्यायास्मै यथातथम् |
नापश्यंस्तमृषिं तत्र गतासुं ते समागता: ।। १२ ।।
उनके इस प्रकार पूछनेपर क्षत्रियोंने मुनिके वधका सारा समाचार उनसे ठीक-ठीक
कह सुनाया और उन्हें साथ लेकर सभी उस स्थानपर आये जहाँ मुनिकी हत्या हुई थी।
किंतु उन्होंने वहाँ मरे हुए मुनिकी लाश नहीं देखी ।। १२ ।।
अन्वेषमाणा: सव्रीडा: स्वप्रवद्धतचेतना: ।
तानब्रवीत् तत्र मुनिस्ताक्ष्य: परपुरंजय ॥। १३ ।।
स्यादयं ब्राह्मण: सो5थ युष्माभियों विनाशित: ।
पुत्रो हयं मम नृपास्तपोबलसमन्वित: ।। १४ ।।
फिर तो वे लज्जित होकर इधर-उधर उसकी खोज करने लगे। स्वप्नकी भाँति उनकी
चेतना लुप्त-सी हो गयी। तब मुनिवर अरिष्टनेमिने उनसे कहा--“परपुरंजय! तुम लोगोंने
जिसे मार डाला था, वह यही ब्राह्मण तो नहीं है? राजाओ! यह मेरा तपोबलसम्पन्न पुत्र
है! ।। १३-१४ ||
ते च दृष्टवैव तमृषिं विस्मयं परमं गता: ।
महदाश्चर्यमिति वै ते ब्रुवाणा महीपते ।। १५ ।।
राजन्! उन महर्षिको जीवित हुआ देख वे सभी क्षत्रिय बड़े विस्मित हुए और कहने
लगे 'यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है” || १५ ।।
मृतो हायमुपानीत: कथं जीवितमाप्तवान् ।
किमेतत् तपसो वीर्य येनायं जीवित: पुनः ।। १६ ।।
“ये मरे हुए मुनि यहाँ कैसे लाये गये और किस प्रकार इन्हें जीवन मिला? क्या यह
तपस्याकी ही शक्ति है, जिससे फिर ये जीवित हो गये? ।। १६ ।।
श्रोतुमिच्छामहे विप्र यदि श्रोतव्यमित्युत ।
स तानुवाच नास्माकं मृत्यु: प्रभवते नूपा: ।। १७ ।।
“ब्रह्म! हम यह सब रहस्य सुनना चाहते हैं। यदि सुननेयोग्य हो तो कहिये'। तब
महर्षिने उन क्षत्रियोंसे कहा--“राजाओ! हम लोगोंपर मृत्युका वश नहीं चलता” ।। १७ ।।
कारणं व: प्रवक्ष्यामि हेतुयोगसमासत: ।
(मृत्यु: प्रभवने येन नास्माकं नृपसत्तमा: ।
शुद्धाचारा अनलसा: संध्योपासनतत्परा: ।।
शुद्धान्ना: शुद्धसुधना ब्रह्म॒चर्यव्रतान्विता: ।)
सत्यमेवाभिजानीमो नानृते कुर्महे मन: ।
स्वधर्ममनुतिष्ठामस्तस्मान्मृत्युभयं न न: ।। १८ ।।
“इसका क्या कारण है? यह मैं तर्क और युक्तिके साथ संक्षेपसे बता रहा हूँ। श्रेष्ठ
नूपतिगण! हमलोगोंपर मृत्युका प्रभाव क्यों नहीं पड़ता--यह बताते हैं, सुनिये--हम शुद्ध
आचार-विचारसे रहते हैं, आलस्यसे रहित हैं, प्रतिदिन संध्योपासनके परायण रहते हैं, शुद्ध
अन्न खाते हैं और शुद्ध रीतिसे न्यायपूर्वक धनोपार्जन करते हैं; यही नहीं हमलोग सदा
ब्रह्मचर्यव्रतके पालनमें लगे रहते हैं। हमलोग केवल सत्यको ही जानते हैं। कभी झूठमें मन
नहीं लगाते और सदा अपने धर्मका पालन करते रहते हैं। इसलिये हमें मृत्युसे भय नहीं
है ।। १८ ।।
यद् ब्राह्मणानां कुशलं तदेषां कथयामहे ।
नैषां दुश्चरितं ब्रूमस्तस्मान्मृत्युभयं न न: ।। १९ ।।
अतिथीनन्नपानेन भृत्यानत्यशनेन च ।
सम्भोज्य शेषमश्नीमस्तस्मान्मृत्युभयं न न: ।। २० ।।
'ब्राह्मणोंके जो शुभ कर्म हैं, उन्हींकी हम चर्चा करते हैं। उनके दोषोंका बखान नहीं
करते हैं। इसलिये हमें मृत्युसे भय नहीं है। हम अतिथियोंको अन्न और जलसे तृप्त करते हैं।
हमारे ऊपर जिनके भरण-पोषणका भार है, उन्हें हम पूरा भोजन देते हैं और उन्हें भोजन
करानेसे बचा हुआ अन्न हम स्वयं भोजन करते हैं, अतः हमें मृत्युसे भय नहीं
है || १९-२० ।।
शान्ता दान्ता: क्षमाशीलास्तीर्थदानपरायणा: ।
पुण्यदेशनिवासाच्च तस्मान्मृत्युभयं न नः ।
तेजस्विदेशवासाच्च तस्मान्मृत्युभयं न न: ।। २१ ।।
“हम सदा शम, दम, क्षमा, तीर्थ-सेवन और दानमें तत्पर रहनेवाले हैं तथा पवित्र देशमें
निवास करते हैं। इसलिये भी हमें मृत्युसे भय नहीं है। इतना ही नहीं हमलोग तेजस्वी
पुरुषोंके देशमें निवास करते हैं अर्थात् सत्पुरुषोंक समीप रहा करते हैं। इस कारणसे भी
हमें मृत्युसे भय नहीं होता है ।। २१ ।।
एतदू वै लेशमात्र व: समाख्यातं विमत्सरा: ।
गच्छध्वं सहिता: सर्वे न पापाद् भयमस्ति व: ।। २२ ।।
/ईर्ष्यरहित राजाओ! ये सब बातें मैंने तुम्हें संक्षेपसे सुनायी हैं। अब तुम सब लोग एक
साथ यहाँसे जाओ, तुम्हें ब्रह्महत्याके पापसे भय नहीं रहा” ।। २२ ।।
एवमस्त्विति ते सर्वे प्रतिपूज्य महामुनिम् ।
स्वदेशमगमन् हृष्टा राजानो भरतर्षभ ।। २३ ।।
भरतश्रेष्ठल यह सुनकर उन हैहयवंशी क्षत्रियोंने 'एवमस्तु/ कहकर महामुनि
अरिष्टनेमिका सम्मान एवं पूजन किया और प्रसन्न होकर अपने स्थानको चले गये ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि ब्राह्मणमाहात्म्यक थने
चतुरशीत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १८४ ।।
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत वनपर्वके अन्तर्गत मार्कण्डेययमास्यापर्वमें
ब्राह्मणमाहात्म्यवर्णणविषयक एक सौ चौरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १८४ ॥।
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १६३ “लोक मिलाकर कुल २४३ श्लोक हैं)
गदर #< (9) #::.# #2 5-7
पज्चाशीर्त्याधिकशततमो< ध्याय:
ब्राह्मगकी महिमाके विषयमें अत्रिमुनि तथा राजा पृथुकी
प्रशंसा
मार्कण्डेय उवाच
भूय एव महाभाग्यं ब्राह्मणानां निबोध मे ।
वैन्यो नामेह राजर्षिरश्वमेधाय दीक्षित: ।। १ ।।
मार्कण्डेयजी कहते हैं--राजन! ब्राह्मणोंका और भी माहात्म्य मुझसे सुनो।
पूर्वकालमें वेनके पुत्र राजर्षि पृथुने, जो यहाँ वैन्यके नामसे प्रसिद्ध थे, किसी समय
अश्वमेधयज्ञकी दीक्षा ली || १ ।।
तमत्रिर्गन्तुमारेभे वित्तार्थमिति नः श्रुतम् ।
भूयो<र्थ नानुरुध्यत् स धर्मव्यक्तिनिदर्शनात् ।। २ ।।
उन दिनों महात्मा अत्रिने धन माँगनेकी इच्छासे उनके पास जानेका विचार किया, यह
बात हमारे सुननेमें आयी है; परंतु ऐसा करनेसे उनको अपना धर्मात्मापन प्रकट करना
पड़ता। इसलिये फिर उन्होंने धनके लिये अनुरोध नहीं किया |। २ ।।
स विचिन्त्य महातेजा वनमेवान्वरोचयत् |
धर्मपत्नीं समाहूय पुत्रांश्रेदमुवाच ह ।। ३ ।।
महातेजस्वी अत्रिने मन-ही-मन कुछ सोच-विचारकर (तपस्याके लिये) वनमें ही
जानेका निश्चय किया और अपनी धर्मपत्नी तथा पुत्रोंको बुलाकर इस प्रकार कहा
-- || ३ ||
प्राप्स्पयाम: फलमत्यन्तं बहुलं निरुपद्रवम् ।
अरण्यगमन् क्षिप्रं रोचतां वो गुणाधिकम् ।। ४ ।।
“हमलोग वनमें रहकर (तपद्दारा) धर्मका बहुत अधिक उपद्रवशून्य फल पा सकते हैं।
अतः शीघ्र वनमें चलनेका विचार तुम सब लोगोंको रुचिकर होना चाहिये; क्योंकि ग्राम्य-
जीवनकी अपेक्षा वनमें रहना अधिक लाभप्रद है” || ४ ।।
त॑ भार्या प्रत्युवाचाथ धर्ममेवानुतन्वती ।
वैन्यं गत्वा महात्मानमर्थयस्व धनं बहु ।। ५ ।।
अत्रिकी पत्नी भी धर्मका ही अनुसरण करनेवाली थी। उसने यज्ञ-यागादिके रूपमें
धर्मके ही विस्तारपर दृष्टि रखकर पतिको उत्तर दिया--'प्राणनाथ! आप धर्मात्मा राजा
वैन्यके पास जाकर अधिक धनकी याचना कीजिये ।। ५ ।।
स ते दास्यति राजर्षियजमानोडर्थितो धनम् ।
तत आदाय विष्रषषे प्रतिगृह्य धनं बहु |। ६ ।।
भृत्यान् सुतान् संविभज्य ततो व्रज यथेप्सितम् ।
एष वै परमो धर्मों धर्मविद्धिरुदाहृत: ।॥ ७ ।।
वे राजर्षि इन दिनों यज्ञ कर रहे हैं, अत: इस अवसरपर यदि आप उनसे माँगेंगे तो वे
आपको अधिक धन देंगे। ब्रह्मर्ष! वहाँसे प्रचुर धन लाकर भरण-पोषण करनेयोग्य इन
पुत्रोंको बाँट दीजिये; फिर इच्छानुसार वनको चलिये। धर्मज्ञ महात्माओंने यही परम धर्म
बताया है! || ६-७ ।।
अत्रिर॒वाच
कथितो मे महाभागे गौतमेन महात्मना ।
वैन्यो धर्मार्थसंयुक्त: सत्यव्रतसमन्वित: ।। ८ ।।
अत्रि बोले--महाभागे! महात्मा गौतमने मुझसे कहा है कि “वेनपुत्र राजा पृथु धर्म
और अर्थके साधनमें संलग्न रहते हैं। वे सत्यव्रती हैं! || ८ ।।
द्वेष्टार: किंतु नः सन्ति वसन्तस्तत्र वै द्विजा: |
यथा मे गौतम: प्राह ततो न व्यवसाम्यहम् । ९ ।।
परंतु एक बात विचारणीय है। वहाँ उनके यज्ञमें जितने ब्राह्मण रहते हैं, वे सभी मुझसे
द्वेष रखते हैं, यही बात गौतमने भी कही है। इसीलिये मैं वहाँ जानेका विचार नहीं कर रहा
हूँ ।। ९ ।।
तत्र सम वाचं कल्याणीं धर्मकामार्थसंहिताम् ।
मयोक्तामन्यथा ब्रूयुस्ततस्ते वै निरर्थिकाम् ।। १० ।।
यदि मैं वहाँ जाकर धर्म, अर्थ और कामसे युता कल्याणमयी वाणी भी बोलूँगा तो वे
उसे धर्म और अर्थके विपरीत ही बतायेंगे; निरर्थक सिद्ध करेंगे || १० ।।
गमिष्यामि महाप्राज्ञे रोचते मे वचस्तव ।
गाश्च मे दास्यते वैन्य: प्रभूतं चार्थसंचयम् ।। ११ ।।
तथापि महाप्राज्ञे! मैं वहाँ अवश्य जाऊँगा, मुझे तुम्हारी बात ठीक जँचती है। राजा पृथु
मुझे बहुत-सी गौएँ तो देंगे ही, पर्याप्त धन भी देंगे || ११ ।।
एवमुक्त्वा जगामाशु वैन्ययज्ञं महातपा: ।
गत्वा च यज्ञायतनमत्रिस्तुष्टाव तं नूपम् १२ ।।
वाक्यैर्मड्गलसंयुक्तैे: पूजयानो<ब्रवीद् वच: ।
ऐसा कहकर महातपस्वी अत्रि शीघ्र ही राजा पृथुके यज्ञमें गये। यज्ञमण्डपमें पहुँचकर
उन्होंने उस राजाका मांगलिक वचनोंद्वारा स््तवन किया और उनका समादर करते हुए इस
प्रकार कहा || १२३ ।।
अत्रिर॒वाच
राजन् धन्यस्त्वमीशश्व भुवि त्वं प्रथमो नूप: ।। १३ ।।
अत्रि बोले--राजन! तुम इस भूतलके सर्वप्रथम राजा हो; अतः धन्य हो, सब प्रकारके
ऐश्वर्यसे सम्पन्न हो || १३ ।।
स्तुवन्ति त्वां मुनिगणास्त्वदन्यो नास्ति धर्मवित् |
तमब्रवीदृषि: क्रुद्धो वचनं वै महातपा: ।। १४ ।।
महर्षिंगण तुम्हारी स्तुति करते हैं। तुम्हारे सिवा दूसरा कोई नरेश धर्मका ज्ञाता नहीं है।
उनकी यह बात सुनकर महातपस्वी गौतम मुनिने कुपित होकर कहा ।। १४ ।।
गौतम उवाच
मैवमत्रे पुनर्ब्रूया न ते प्रज्ञा समाहिता ।
अत्र नः प्रथमं स्थाता महेन्द्रो वै प्रजापति: ।। १५ ।।
गौतम बोलें--अत्रे! फिर कभी ऐसी बात मुँहसे न निकालना। तुम्हारी बुद्धि एकाग्र
नहीं है। यहाँ हमारे प्रथम प्रजापतिके रूपमें साक्षात् इन्द्र उपस्थित हैं || १५ ।।
अथात्रिरपि राजेन्द्र गौतम॑ प्रत्यभाषत ।
अयमेव विधाता हि यथैवेन्द्र: प्रजापति: ।
त्वमेव मुहासे मोहाजन्न प्रज्ञानं तवास्ति ह ।। १६ ।।
राजेन्द्र! तब अत्रिने भी गौतमको उत्तर देते हुए कहा--'मुने! ये पृथु ही विधाता हैं, ये
ही प्रजापति इन्द्रके समान हैं। तुम्हीं मोहसे मोहित हो रहे हो; तुम्हें उत्तम बुद्धि नहीं प्राप्त
है! ।| १६ |।
गौतम उवाच
जानामि नाहं मुहयामि त्वमेवात्र विमुहते ।
स्तौषि त्वं दर्शनप्रेप्सू राजानं जनसंसदि ।। १७ ।।
गौतम बोले--मैं नहीं मोहमें पड़ा हूँ, तुम्हीं यहाँ आकर मोहित हो रहे हो। मैं खूब
समझता हूँ, तुम राजासे मिलनेकी इच्छा लेकर ही भरी सभामें स्वार्थवश उनकी स्तुति कर
रहे हो || १७ ।।
न वेत्थ परमं धर्म न चावैषि प्रयोजनम् ।
बालस्त्वमसि मूढश्न वृद्ध: केनापि हेतुना ।। १८ ।।
उत्तम धर्मका तुम्हें बिलकुल ज्ञान नहीं है। तुम धर्मका प्रयोजन भी नहीं समझते हो।
मेरी दृष्टिमें तुम मूढ हो, बालक हो; किसी विशेष कारणसे बूढ़े बने हुए हो अर्थात् केवल
अवस्थासे बूढ़े हो ।। १८ ।।
विवदन्तौ तथा तौ तु मुनीनां दर्शने स्थितौ ।
ये तस्य यज्ञे संवृत्तास्तेडपृच्छन्त कथं त्विमौ ।। १९ ।।
मुनियोंके सामने खड़े होकर जब वे दोनों इस प्रकार विवाद कर रहे थे, उस समय उन्हें
देखकर जिनका यज्ञमें पहलेसे वरण हो चुका था, वे ब्राह्मण पूछने लगे--'ये दोनों कैसे लड़
रहे हैं? ।। १९ ।।
प्रवेश: केन दत्तो5यमुभयोर्वैन्यसंसदि ।
उच्चै: समभिभाषन्तौ केन कार्येण घिष्ठितौ ।। २० ।।
ततः परमधर्मात्मा काश्यप: सर्वधर्मवित् ।
विवादिनावनुप्राप्ती तावुभौ प्रत्यवेदयत् ।। २१ ।।
“किसने इन दोनोंको महाराज पृथुके यज्ञमण्डपमें घुसने दिया है? ये दोनों जोर-जोरसे
बातें करते और झगड़ते यहाँ किस कामसे खड़े हैं? उस समय परम धर्मात्मा एवं सम्पूर्ण
धर्मोंके ज्ञाता कणादने सब सदस्योंको बताया कि ये दोनों किसी विषयको लेकर परस्पर
विवाद कर रहे हैं और उसीके निर्णयके लिये यहाँ आये हैं" ।।
अथाब्रवीत् सदस्यांस्तु गौतमो मुनिसत्तमान् |
आवयोव्यद्वितं प्रश्न शूणुत द्विजसत्तमा: ।। २२ ।।
वैन्यं विधातेत्याहात्रिरत्र नौ संशयो महान् |
श्रुत्वैव तु महात्मानो मुनयो<शभ्यद्रवन् द्रुतम् ।। २३ ।।
सनत्कुमारं धर्मज्ञ संशयच्छेदनाय वै |
स च तेषां वच: श्रुत्वा यथातत्त्वं महातपा: ।
प्रत्युवाचाथ तानेवं धर्मार्थसहितं वच: ।। २४ ।।
तब गौतमने सदस्यरूपसे बैठे हुए उन श्रेष्ठ मुनियोंसे कहा--*श्रेष्ठ ब्राह्मणो! हम
दोनोंके प्रश्षको आपलोग सुनें। अत्रिने राजा पृथुकी विधाता कहा है। इस बातको लेकर हम
दोनोंमें महान् संशय एवं विवाद उपस्थित हो गया है।” यह सुनकर वे महात्मा मुनि उक्त
संशयका निवारण करनेके लिये तुरंत ही धर्मज्ञ सनत्कुमारजीके पास दौड़े गये। उन
महातपस्वीने इनकी सब बातें यथार्थरूपसे सुनकर उनसे यह धर्म एवं अर्थयुक्त वचन कहा
-- || २२--२४ ||
सनत्कुमार उवाच
ब्रह्म क्षत्रेण सहित क्षत्रं च ब्रह्मणा सह ।
संयुक्तौ दहत: शत्रून् वनानीवाग्निमारुती ।। २५ ।।
राजा वै प्रथितो धर्म: प्रजानां पतिरेव च ।
स एव शक्र: शुक्रश्न स धाता च बृहस्पति: ।। २६ ।।
सनत्कुमार बोले--ब्राह्मण क्षत्रियसे और क्षत्रिय ब्राह्मणसे संयुक्त हो जायेँ तो वे दोनों
मिलकर शत्रुओंको उसी प्रकार दग्ध कर डालते हैं, जैसे अग्नि और वायु परस्पर सहयोगी
होकर कितने ही वनोंको भस्म कर डालते हैं। राजा धर्मरूपसे विख्यात है। वही प्रजापति,
इन्द्र, शुक्राचार्य, धाता और बृहस्पति भी है ।। २५-२६ ।।
प्रजापतिर्विराट् सम्राट् क्षत्रियो भूपतिर्नप: ।
य एशि: स्तूयते शब्दै: कस्तं नार्चितुमहति ।॥ २७ ।।
पुरायोनिर्युधाजिच्च अभिया मुदितो भव: ।
स्वर्णेता सहजिद् बश्रुरिति राजाभिधीयते ।। २८ ।।
सत्ययोनि: पुराविच्च सत्यधर्मप्रवर्तक: ।
अधमददृषयो भीता बल क्षत्रे समादधन् ।। २९ ।।
जिस राजाकी प्रजापति, विराट, सम्राट, क्षत्रिय, भूषपति, नृप आदि शब्दोंद्वारा स्तुति की
जाती है, उसकी पूजा कौन नहीं करेगा? पुरायोनि (प्रथम कारण), युधाजित्
(संग्रामविजयी), अभिया (रक्षाके लिये सर्वत्र गमन करनेवाला), मुदित (प्रसन्न), भव
(ईश्वर), स्वर्णेता (स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला), सहजित् (तत्काल विजय करनेवाला) तथा
बश्रु (विष्णु)--इन नामोंद्वारा राजाका वर्णन किया जाता है। राजा सत्यका कारण, प्राचीन
बातोंको जाननेवाला तथा सत्यधर्ममें प्रवृत्ति करानेवाला है। अधर्मसे डरे हुए ऋषियोंने
अपना ब्राह्मबल भी क्षत्रियोंमें स्थापित कर दिया था || २७--२९ ||
आदित्यो दिवि देवेषु तमो नुदति तेजसा ।
तथैव नृपतिर्भूमावधर्मनुदते भूशम् ।। ३० ।।
जैसे देवलोकमें सूर्य अपने तेजसे सम्पूर्ण अन्धकारका नाश करता है, उसी प्रकार
राजा इस पृथ्वीपर रहकर अधर्मोंको सर्वथा हटा देता है || ३० ।॥।
ततो राज्ञ: प्रधानत्वं शास्त्रप्रामाण्यदर्शनात् ।
उत्तर: सिद्धयते पक्षो येन राजेति भाषितम् ।। ३१ ।।
अतः शास्त्र-प्रमाणपर दृष्टिपात करनेसे राजाकी प्रधानता सूचित होती है। इसलिये
जिसने राजाको प्रजापति बतलाया है, उसीका पक्ष उत्कृष्ट सिद्ध होता है ।। ३१ ।।
मार्कण्डेय उवाच
ततः स राजा संहृष्ट: सिद्धे पक्षे महामना: ।
तमत्रिमब्रवीत् प्रीत: पूर्व येनाभिसंस्तुत: ।। ३२ ।।
यस्मात् पूर्व मनुष्येषु ज्यायांसं मामिहाब्रवी: ।
सर्वदेवैश्व विप्रर्षे सम्मितं श्रेष्ठमेव च ।। ३३ ।।
तस्मात् तेऊहं प्रदास्यामि विविध वसु भूरि च ।
दासीसहसं श्यामानां सुवस्त्राणामलंकृतम् ।। ३४ ।।
दशकोटीर्हिरिण्यस्य रुक्मभारांस्तथा दश ।
एतद् ददामि वितप्रर्षे सर्वज्ञस्त्वं मतो हि मे ।। ३५ ।।
मार्कण्डेयजी कहते हैं--तदनन्तर एक पक्षकी उत्कृष्टता सिद्ध हो जानेपर महामना
राजा पृथु बड़े प्रसन्न हुए और जिन्होंने उनकी पहले स्तुति की थी, उन अगत्रिमुनिसे इस
प्रकार बोले--'ब्रह्मर्ष! आपने यहाँ मुझे मनुष्योंमें प्रथम (भूपाल), श्रेष्ठ, ज्येष्ठ तथा सम्पूर्ण
देवताओंके समान बताया है, इसलिये मैं आपको प्रचुरमात्रामें नाना प्रकारके रत्न और धन
दूँगा, सुन्दर वस्त्राभूषणोंसे विभूषित सहस्रों युवती दासियाँ अर्पित करूँगा तथा दस करोड़
स्वर्णमुद्रा और दस भार सोना भी दूँगा। विप्रर्षे! ये सब वस्तुएँ आपको अभी दे रहा हूँ, मैं
समझता हूँ, आप सर्वज्ञ हैं| || ३२--३५ ।।
तदत्रिन्यायतः सर्व प्रतिगृह्मा भिसत्कृत: ।
प्रत्युज्जगाम तेजस्वी गृहानेव माहतपा: ।। ३६ ।।
तब महान् तपस्वी और तेजस्वी अत्रि मुनि राजासे समादृत हो न्यायपूर्वक मिले हुए
उस सम्पूर्ण धनको लेकर अपने घरको चले गये ।। ३६ ।।
प्रदाय च धन प्रीत: पुत्रेभ्य: प्रयतात्मवान् ।
तप: समभिसंधाय वनमेवान्वपद्यत ।। ३७ ।।
फिर मनपर संयम रखनेवाले वे महामुनि पुत्रोंको प्रसन्नतापूर्वक वह सारा धन बाँटकर
तपस्याका शुभ संकल्प मनमें लेकर वनमें ही चले गये ।। ३७ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि ब्राह्मणमाहात्म्ये
पज्चाशीत्यधिकशततमो< ध्याय: ।। १८५ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्वमें ब्राह्मणमाहात्म्यविषयक
एक सौ पचासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १८५ ॥
ऑड # (_) ऑणआ आए
षडशीरत्याधेकशततमो< ध्याय:
ताक्ष्यमुनि और सरस्वतीका संवाद
मार्कण्डेय उवाच
अन्रैव च सरस्वत्या गीत॑ं परपुरंजय ।
पृष्टया मुनिना वीर शृणु ताक्ष्येण धीमता ।। १ ।।
मार्कण्डेयजी कहते हैं--शत्रुओंकी राजधानी-पर विजय पानेवाले पाण्डुनन्दन! इसी
विषयमें परम बुद्धिमान् ताक्ष्य मुनिने सरस्वतीदेवीसे कुछ प्रश्न किया था, उसके उत्तरमें
सरस्वतीदेवीने जो कुछ कहा था, वह तुम्हें सुनाता हूँ, सुनो || १ ।।
ताक्ष्य उवाच
कि नु श्रेय: पुरुषस्येह भद्रे
कथं कुर्वन् न च्यवते स्वधर्मात् ।
आचक्ष्व मे चारुसर्वाज्ञि कुर्या
त्वया शिष्टो न च्यवेयं स्वधर्मात् ।। २ ।।
ताक्ष्यने पूछा--भद्रे! इस संसारमें मनुष्यका कल्याण करनेवाली वस्तु क्या है? किस
प्रकार आचरण करनेवाला पुरुष अपने धर्मसे भ्रष्ट नहीं होता है? सर्वागसुन्दरी देवि! तुम
मुझसे इसका वर्णन करो। मैं तुम्हारी आज्ञाका पालन करूँगा। मुझे विश्वास है कि तुमसे
उपदेश ग्रहण करके मैं अपने धर्मसे गिर नहीं सकता ।। २ ।।
कथं वाग्निं जुहुयां पूजये वा
कस्मिन् काले केन धर्मो न नश्येत् ।
एतत् सर्व सुभगे प्रब्रवीहि
यथा लोकान् विरजा: संचरेयम् ।। ३ ।।
मैं कैसे और किस समय अग्निमें हवन अथवा उसका पूजन करूँ? क्या करनेसे धर्मका
नाश नहीं होता है? सुभगे! तुम ये सारी बातें मुझसे बताओ। जिससे मैं रजोगुणरहित होकर
सम्पूर्ण लोकोंमें विचरण करूँ || ३ ।।
मार्कण्डेय उवाच
एवं पृष्टा प्रीतियुक्तेन तेन
शुश्रूषुमीक्ष्योत्तमबुद्धियुक्तम् ।
ताक्ष्य विप्रं धर्मयुक्त हितं॑ च
सरस्वती वाक्यमिदं बभाषे ।। ४ ।।
मार्कण्डेयजी कहते हैं--राजन्! उनके इस प्रकार प्रेमपूर्वक पूछनेपर सरस्वतीदेवीने
ब्रह्मर्षि ताक्ष्यको धर्मात्मा, उत्तम बुद्धिसे युक्त एवं श्रवणके लिये उत्सुक देखकर उनसे यह
हितकर वचन कहा-- ।। ४ ।।
सरस्वत्युवाच
यो ब्रह्म जानाति यथाप्रदेशं॑
स्वाध्यायनित्य: शुचिरप्रमत्त: |
स वै पारं देवलोकस्य गन्ता
सहामरे: प्राप्तुयात् प्रीतियोगम् ।। ५ ।।
सरस्वती बोली--मुने! जो प्रमाद छोड़कर पवित्र भावसे नित्य स्वाध्याय करता है
और अर्चि आदि मार्गोंसे प्राप्त होनेयोग्य सगुण ब्रह्मको जान लेता है, वह देवलोकसे उठकर
ब्रह्मलोकमें जाता है और देवताओंके साथ प्रेमसम्बन्ध स्थापित कर लेता है ।। ५ ।।
तत्र सम रम्या विपुला विशोका:
सुपुष्पिता: पुष्करिण्य: सुपुण्या: ।
अकर्दमा मीनवत्य: सुतीर्था
हिरण्मयैरावृता: पुण्डरीकै: ।। ६ ।।
वहाँ सुन्दर, विशाल, शोकरहित, अत्यन्त पवित्र तथा सुन्दर पुष्पोंसे सुशोभित छोटे-
छोटे सरोवर हैं। उनमें कीचड़का नाम नहीं है। उनमें मछलियाँ निवास करती हैं। उन
सरोवरोंमें उतरनेके लिये मनोहर सीढ़ियाँ बनी हुई हैं और वे सभी सरोवर सुवर्णमय कमल-
पुष्पोंसे आच्छादित रहते हैं ।। ६ ।।
तासां तीरेष्वासते पुण्यभाजो
महीयमाना: पृथगप्सरोभि: ।
सुपुण्यगन्धाभिरलंकृताभि-
हिरिण्यवर्णाभिरतीव हृष्टा: ।। ७ ।॥।
उनके तटोंपर पूजनीय पुण्यात्मा पुरुष पृथक्ू-पृथक् अप्सराओंके साथ सानन्द
प्रतिष्ठित होते हैं। वे अप्सराएँ अत्यन्त पवित्र सुगन्धसे सुवासित, विविध आभूषणोंसे
विभूषित तथा स्वर्णकी-सी कान्तिसे प्रकाशित होती हैं |। ७ ।।
परं लोकं गोप्रदास्त्वाप्तुवन्ति
दत्त्वानड्वाहं सूर्यलोक॑ व्रजन्ति ।
वासो दत्त्वा चान्द्रमसं तु लोकं
दत्त्वा हिरण्यममरत्वमेति ॥। ८ ।।
गोदान करनेवाले मनुष्य उत्तम लोकमें जाते हैं। छकड़े ढोनेवाले बलवान् बैलोंका दान
करनेसे दाताओंको सूर्यलोककी प्राप्ति होती है। वस्त्रदानसे चन्द्रलोक और सुवर्णदानसे
अमरत्वकी प्राप्ति होती है ।। ८ ।।
धेनुं दत्त्वा सुप्रभां सुप्रदोहां
कल्याणवत्सामपलायिनीं च ।
यावन्ति रोमाणि भवन्ति तस्या-
स्तावद् वर्षाण्यासते देवलोके ।। ९ ।।
जो अच्छे रंगकी हो, सुगमतासे दूध दुहा लेती हो, सुन्दर बछड़े देनेवाली हो और बन्धन
तुड़ाकर भागनेवाली न हो, ऐसी गौका जो लोग दान करते हैं, वे गौके शरीरमें जितने रोएँ
हों, उतने वर्षतक देवलोकमें निवास करते हैं ।। ९ ।।
अनड्वाहं सुव्रतं यो ददाति
हलस्य वोढारमनन्तवीर्यम् ।
धुरन्धरं बलवन्तं युवानं
प्राप्नोति लोकान् दश धेनुदस्य ।। १० ।।
जो मनुष्य अच्छे स्वभाववाले, अत्यन्त शक्तिशाली, हल खींचनेवाले, गाड़ीका बोझ
ढोनेमें समर्थ, बलवान् और तरुण अवस्थावाले बैलका दान करता है, वह धेनुदान करनेवाले
पुरुषसे दसगुने पुण्यलोक प्राप्त करता है ।। १० ।।
ददाति यो वै कपिलां सचैलां
कांस्योपदोहां द्रविणैरुत्तरीयै: ।
तैस्तैर्गुणै: कामदुहाथ भूत्वा
नरं प्रदातारमुपैति सा गौ: ।। ११ ।।
जो काँसेकी दोहनी, वस्त्र, उत्तरकालिक दक्षिणाद्रव्यके साथ कपिला गौका दान करता
है, उसकी दी हुई वह गौ उन-उन गुणोंके साथ कामधेनु बनकर परलोकमें दाताके पास
पहुँच जाती है ।। ११ ।।
यावन्ति रोमाणि भवन्ति धेन्वा-
स्तावत् फलं भवति गोप्रदाने ।
पुत्रांश्व पौत्रांश्॒ कुलं च सर्व-
मासप्तमं तारयते परत्र । १२ ।।
उस धेनुके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षोतक दाता गोदानके पुण्य-फलका
उपभोग करता है। साथ ही वह गौ परलोकमें दाताके पुत्रों, पौत्रों एवं सात पीढ़ीतकके
समूचे कुलका उद्धार करती है || १२ ।।
सदक्षिणां काउ्चनचारुशड्रीं
कांस्योपदोहां द्रविणैरुत्तरीयै: ।
धेनुं तिलानां ददतो द्विजाय
लोका वसूनां सुलभा भवन्ति ।। १३ ।।
स्वकर्मभिर्दानवसंनिरुद्धे
तीव्रान्धकारे नरके सम्पतन्तम् ।
महार्णवे नौरिव वातयुक्ता
दानं गवां तारयते परत्र ॥। १४ ।।
जो सोनेके बने हुए सुन्दर सींग, काँसके दुग्धपात्र, द्रव्य तथा ओढ़नेके वस्त्र और
दक्षिणासहित तिलकी धेनुका ब्राह्मणको दान करता है, उसके लिये वसुओंके लोक सुलभ
हो जाते हैं। जैसे महासागरमें डूबते हुए मनुष्यको अनुकूल वायुके सहयोगसे चलनेवाली
नाव बचा लेती है, उसी प्रकार जो अपने कर्मोद्वारा काम, क्रोध आदि दानवोंसे घिरे हुए घोर
अज्ञानान्धकारसे परिपूर्ण नरकमें गिर रहा है, उसे गोदानजनित पुण्य परलोकमें उबार लेता
है ।। १३-१४ ||
यो ब्राह्मदेयां तु ददाति कन्यां
भूमिप्रदानं च करोति विदप्रे ।
ददाति दानं विधिना च यश्न॒
स लोकमाप्रोति पुरंदरस्य ।। १५ ।।
जो ब्राह्म विवाहकी विधिसे दान करनेयोग्य कन्याका (श्रेष्ठ वरको) दान करता है,
ब्राह्मणको भूदान देता है और विधिपूर्वक अन्यान्य वस्तुओंका दान सम्पन्न करता है, वह
इन्द्रलोकमें जाता है || १५ ।।
यः सप्त वर्षाणि जुहोति तार्क्ष्य
हव्यं त्वग्नौी नियत: साधुशील: ।
सप्तावरान् सप्त पूर्वान् पुनाति
पितामहानात्मना कर्मभि: स्वै: ।। १६ ।।
ताक्ष्य! जो सदाचारी पुरुष संयम--नियमका पालन करते हुए सात वर्षोतक अम्निमें
आहुति देता है, वह अपने सत्कर्मोंद्वारा अपने साथ ही सात पीढ़ीतककी भावी संतानोंको
और सात पीढ़ी पूर्वतकके पितामहोंको भी पवित्र कर देता है || १६ ।।
ताक्ष्य उवाच
किमन्निहोत्रस्य व्रतं पुराण-
माचक्ष्व मे पृच्छतश्चानुरूपे ।
त्वयानुशिष्टो5हमिहाद्य विद्यां
यदग्निहोत्रस्य व्रतं पुराणम् ।। १७ ।।
ताक्ष्यने पूछा--मनोहर रूपवाली देवि! मैं पूछता हूँ कि अग्निहोत्रका प्राचीन नियम
क्या है? यह बताओ। तुम्हारे उपदेश करनेपर आज मुझे यहाँ अग्निहोत्रके प्राचीन नियमका
ज्ञान हो जाय ।। १७ ।।
सरस्वत्युवाच
न चाशुचिरनप्यिनिर्णिक्तपाणि-
नब्रिह्मविज्जुहुयान्नाविपश्चित् |
बुभुत्सव: शुचिकामा हि देवा
नाश्रद्धानाद्धि हविर्जुषन्ति ।। १८ ।।
सरस्वतीने कहा--मुने! जो अपवित्र है, जिसने हाथ-पैर (भी) नहीं धोये हैं, जो वेदके
ज्ञानसे वज्चित है, जिसे वेदार्थका कोई अनुभव नहीं है, ऐसे पुरुषको अग्निमें आहुति नहीं
देनी चाहिये। देवता दूसरोंके मनोभावको जाननेकी इच्छा रखते हैं, वे पवित्रता चाहते हैं,
अतः: श्रद्धाहीन मनुष्यके दिये हुए हविष्यको ग्रहण नहीं करते हैं | १८ ।।
नाश्रोत्रियं देवहव्ये नियुठ्ज्या-
न्मोघं पुरा सिज्चति तादृशो हि ।
अपूर्वमश्रोत्रियमाह तार्क्ष्य
न वै तादूग् जुहुयादग्निहोत्रम् ।। १९ ।।
वेद-मन्त्रोंका ज्ञान न रखनेवाले पुरुषको देवताओंके लिये हविष्य प्रदान करनेके कार्यमें
नियुक्त न करे; क्योंकि वैसा मनुष्य जो हवन करता है, वह व्यर्थ हो जाता है। तार्क्ष्य!
अश्रोत्रिय पुरुषको वेदमें अपूर्व (कुलशीलसे अपरिचित) कहा गया है-। अतः वैसा पुरुष
अग्निहोत्रका अधिकारी नहीं है ।। १९ ।।
वृशाश्ष ये जुद्धति श्रद्दधाना:
सत्यव्रता हुतशिष्टाशिनश्व ।
गवां लोकं प्राप्य ते पुण्यगन्धं
पश्यन्ति देवं परमं चापि सत्यम् ।। २० ।।
जो तपसे कृश हो सत्य व्रतका पालन करते हुए प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक हवन करते हैं
और हवनसे बचे हुए अन्नका भोजन करते हैं, वे पवित्र सुगन्धसे भरे हुए गौओंके लोकमें
जाते हैं और वहाँ परम सत्य परमात्माका दर्शन करते हैं || २० ।।
ताक्ष्य उवाच
क्षेत्रज्ञभूतां पपलोकभावे
कर्मोदये बुद्धिमतिप्रविष्टाम् ।
प्रज्ञां च देवीं सुभगे विमृश्य
पृच्छामि त्वां का हसि चारुरूपे || २१ ।।
ताक्ष्यने पूछा--सुन्दर रूपवाली सौभाग्यशालिनी देवि! तुम आत्मस्वरूपा हो तथा
परलोकके विषयमें एवं कर्म-फलके विचारमें प्रविष्ट हुई अत्यन्त उत्तृष्ट बुद्धि हो। प्रज्ञा देवी
भी तुम्हीं हो। तुम्हींको इन दोनों रूपोंमें जानकर मैं पूछता हूँ, बताओ, वास्तवमें तुम क्या
हो? ।।
सरस्वत्युवाच
अग्निहोत्रादहम भ्यागतास्मि
विप्र्षभाणां संशयच्छेदनाय ।
त्वत्संयोगादहमेतमन्रुवं
भावे स्थिता तथ्यमर्थ यथावत् ।। २२ ।।
सरस्वती बोली--मुने! मैं [विद्यारूपा सरस्वती हूँ और] श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके अग्निहोत्रसे
यहाँ तुम्हारे संशयका निवारण करनेके लिये आयी हूँ। (तुम श्रद्धालु हो) तुम्हारा सांनिध्य
पाकर ही मैंने यहाँ ये पूर्वोक्त सत्य बातें यथार्थरूपसे बतायी हैं; क्योंकि आन्तरिक
श्रद्धाभावमें ही मेरी स्थिति है || २२ ।।
ताक्ष्य उवाच
न हि त्वया सदृशी काचिदस्ति
विभ्राजसे ह्ृतिमात्र यथा श्री: |
रूपं च ते दिव्यमनन्तकान्ति
प्रज्ञां च देवीं सुभगे बिभर्षि ।। २३ ।।
ताक्ष्यने पूछा--सुभगे! तुम्हारी-जैसी दूसरी कोई नारी नहीं है। तुम साक्षात्
लक्ष्मीजीकी भाँति अत्यन्त प्रकाशमान दिखायी देती हो। तुम्हारा यह परम कान्तिमान्
स्वरूप अत्यन्त दिव्य है। साथ ही तुम दिव्य प्रज्ञा भी धारण करती हो (इसका क्या कारण
है?) । २३ ।।
सरस्वत्युवाच
श्रेष्ठानि यानि द्विपदां वरिष्ठ
यज्ञेषु विद्वन्नुपपादयन्ति ।
तैरेव चाहं सम्प्रवृद्धा भवामि
चाप्यायिता रूपवती च विप्र ।। २४ ।।
सरस्वती बोली--नरश्रेष्ठ! विद्वन! याज्ञिकलोग यज्ञोंमें जो श्रेष्ठ कार्य करते हैं अथवा
श्रेष्ठ वस्तुओंका संकलन करते हैं, उन्हींसे मेरी पुष्टि तथा तृप्ति होती है और विप्रवर! उन्हींसे
मैं रूपवती होती हूँ || २४ ।।
यच्चापि द्रव्यमुपयुज्यते ह
वानस्पत्यमायसं पार्थिवं वा |
दिव्येन रूपेण च प्रज्ञया च
तेनैव सिद्धिरिति विद्धि विद्वन्ू ।। २५ ।।
विद्वन! उन यज्ञोंमें जो समिधा-स्रुवा आदि वृक्षसे उत्पन्न होनेवाली वस्तुएँ, सुवर्ण आदि
तैजस वस्तुएँ तथा व्रीहि आदि पार्थिव वस्तुएँ उपयोगमें लायी जाती हैं, उन्हींके द्वारा दिव्य
रूप तथा प्रज्ञासे सम्पन्न मेरे स्वरूपकी पुष्टि होती है, यह बात तुम अच्छी तरह समझ
लो ।। २५ ।।
ताक्ष्य उवाच
इदं श्रेय: परमं मन्यमाना
व्यायच्छन्ते मुनयः सम्प्रतीता: ।
आचक्ष्व मे तं परमं विशोक॑
मोक्ष परं यं प्रविशन्ति धीरा: ।
सांख्या योगा परम॑ यं विदन्ति
परं पुराणं तमहं न वेझि ।। २६ ।।
ताक्ष्यने पूछा--देवि! जिसे परम कल्याणस्वरूप मानते हुए मुनिजन अत्यन्त
विश्वासपूर्वक इन्द्रियों आदिका निग्रह करते हैं तथा जिस परम मोक्ष-स्वरूपमें धीर पुरुष
प्रवेश करते हैं, उस शोकरहित परम मोक्षपदका वर्णन करो; क्योंकि जिस परम मोक्षपदको
सांख्ययोगी और कर्मयोगी जानते हैं, उस सनातन मोक्ष-तत्त्वको मैं नही जानता ।। २६ ।।
सरस्वत्युवाच
त॑ वै परं वेदविदः प्रपन्ना:
परं परेभ्य: प्रथितं पुराणम् ।
स्वाध्यायवन्तो व्रतपुण्ययोगै-
स्तपोधना वीतशोका विमुक्ता: || २७ ।।
सरस्वती बोली--स्वाध्यायरूप योगमें लगे हुए तथा तपको ही धन माननेवाले योगी
व्रत-पुण्य और योगके साधनोंसे जिस प्रख्यात, परात्पर एवं पुरातन पदको प्राप्तकर
शोकरहित तथा मुक्त हो जाते हैं, वही सनातन ब्रह्मपद है। वेदवेत्ता उसी परमपदका आश्रय
लेते हैं || २७ ।।
तस्याथ मध्ये वेतस: पुण्यगन्ध:
सहस्रशाखो विपुलो विभाति ।
तस्य मूलात् सरित: प्रस्रवन्ति
मधूदकप्रस्रवणा: सुपुण्या: ।। २८ ।।
उस परब्रह्ममें ब्रह्माण्डरूपी एक विशाल बेंतका वृक्ष है, जो भोग-स्थानरूपी अनन्त
शाखाओंसे युक्त तथा शब्दादि विषयरूपी पवित्र सुगन्धसे सम्पन्न है। (उस ब्रह्माण्डरूपी
वृक्षका मूल अविद्या है।) उस अविद्यारूपी मूलसे भोगवासनामयी निरन्तर बहनेवाली
अनन्त नदियाँ उत्पन्न होती हैं। वे नदियाँ ऊपरसे तो रमणीय और पवित्र सुवाससे युक्त
प्रतीत होती हैं तथा मधुके समान मधुर एवं जलके समान तृप्तिकारक विषयोंको बहाया
करती हैं ।। २८ ।।
शाखां शाखां महानद्यः संयान्ति सिकताशया: ।
धानापूपा मांसशाका: सदा पायसकर्दमा: ।। २९ ।।
परंतु वास्तवमें वे सब भूने हुए जौके समान फल देनेमें असमर्थ, पूओंके समान अनेक
छिद्रोंवाली, हिंसासे मिल सकनेवाली अर्थात् मांसके समान अपवित्र, सूखे शाकके समान
सारशून्य और खीरके समान रुचिकर लगनेवाली होनेपर भी कीचड़के समान चित्तमें
मलिनता उत्पन्न करनेवाली हैं। बालूके कणोंके समान परस्पर विलग एवं ब्रह्माण्डरूपी
बेंतके वृक्षकी शाखाओंमें बहनेवाली हैं || २९ ।।
यस्मिन्नग्निमुखा देवा: सेन्द्रा: सहमरुद्गणा: ।
ईजिरे क्रतुभि: श्रे्ठस्तत् पदं परमं मम ।। ३० ।।
मुने! इन्द्र, अग्नि और पवन आदि मरुदगणोंके साथ देवतालोग जिस ब्रह्मको प्राप्त
करनेके लिये श्रेष्ठ यज्ञोंद्वारा उसका पूजन करते हैं, वह मेरा परमपद है ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि सरस्वतीताक्ष्यसंवादे
षडशीत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १८६ ।।
इस प्रकार श्रीमह्या भारत वनपवकि अन्तर्गत मार्कण्डेययमास्यापर्वमें सरस्वती-
ताक्ष्यसंवादविषयक एक सौ छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १८६ ॥।
हि आन (9) आप आ आह
- जैसे मनुष्य अपरिचित पुरुषका दिया हुआ अन्न नहीं खाता, उसी प्रकार अश्रोत्रियका दिया हुआ हविष्य देवता नहीं
स्वीकार करते हैं।
सप्ताशीरत्याधिकशततमो< ध्याय:
वैवस्वत मनुका चरित्र तथा मत्स्यावतारकी कथा
वैशम्पायन उवाच
ततः स पाण्डवो विप्रं मार्कण्डेयमुवाच ह |
कथयस्वेति चरितं मनोरवैंवस्वतस्य च || १ ||
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! इसके बाद पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरने
मार्कण्डेयजीसे कहा--“अब आप हमसे वैवस्वत मनुके चरित्र कहिये' ।। १ ।।
मार्कण्डेय उवाच
विवस्वत: सुतो राजन् महर्षि: सुप्रतापवान् ।
बभूव नरशार्दूल प्रजापतिसमद्युति: ।। २ ।।
मार्कण्डेयजी बोले--नरश्रेष्ठ नरेश! विवस्वान् (सूर्य)-के एक अत्यन्त प्रतापी पुत्र
हुआ, जो प्रजापतिके समान कान्तिमान् और महान् ऋषि था ।। २ ।।
ओजसा तेजसा लक्ष्म्या तपसा च विशेषत:ः ।
अतिचक्राम पितरं मनु: स्वं च पितामहम् ।। ३ ।।
वह बालक मनु ओज, तेज, कान्ति और विशेषतः तपस्याद्वारा अपने पिता भगवान्
सूर्य तथा पितामह महर्षि कश्यपसे भी आगे बढ़ गया ।। ३ ।।
ऊर्ध्वबाहुर्विशालायं बदर्या स नराधिप ।
एकपादस्थितस्तीव्रं चकार सुमहत् तप: ।। ४ ।।
अवाक्शिरास्तथा चापि नेत्रैरनिमिषैर्दढम् ।
सो5तप्यत तपो घोर वर्षाणामयुतं तदा ।। ५ ।।
महाराज! उसने बदरिकाश्रममें जाकर दोनों बाँहें ऊपर उठाये एक पैरसे खड़ा हो दस
हजार वर्षोतक बड़ी भारी तपस्या की। उस समय उसका सिर नीचेकी ओर झुका हुआ था
और वह एकटक नेत्रोंसे निरन्तर देखता रहता था। इस प्रकार बड़ी दृढ़ताके साथ उस
बालकने घोर तप किया ।। ४-५ ।।
त॑ कदाचित् तपस्यन्तमार्द्रचीरजटाधरम् |
चीरिणीतीरमागम्य मत्स्यो वचनमत्रवीत् ।। ६ ।।
(वही बालक वैवस्वत मनुके नामसे प्रसिद्ध हुआ।) एक दिनकी बात है, मनु भीगे चीर
और जटा धारण किये चीरिणी नदीके तटपर तपस्या कर रहे थे। उस समय एक मत्स्य
आकर इस प्रकार बोला-- ।। ६ ||
भगवन क्षुद्रमत्स्यो5स्मि बलवद्धयो भयं मम ।
मत्स्येभ्यो हि ततो मां त्वं त्रातुमहसि सुव्रत ।। ७ ।।
“'भगवन्! मैं एक छोटा-सा मत्स्य हूँ। मुझे (अपनी जातिके) बलवान् मत्स्योंसे बराबर
भय बना रहता है। अतः उत्तम व्रतका पालन करनेवाले सहर्षे! आप उनसे मेरी रक्षा
करें || ७ ।।
दुर्बलं बलवन्तो हि मत्स्या मत्स्यं विशेषतः ।
आस्वदन्ति सदा वृत्तिविहिता न: सनातनी ।। ८ ।।
“बलवान मत्स्य विशेषत: दुर्बल मत्स्यको अपना आहार बना लेते हैं, यह सदासे हमारी
मत्स्य-जातिकी नियत--वृत्ति है ।। ८ ।।
तस्माद् भयौघान्महतो मज्जन्तं मां विशेषतः ।
त्रातुमहसि कर्तास्मि कृते प्रतिकृतं तव ।। ९ ।।
“इसलिये भयके महान समुद्रमें मैं डूब रहा हूँ। आप विशेष प्रयत्न करके मुझे बचानेका
कष्ट करें। आपके इस उपकारके बदले मैं भी प्रत्युपकार करूँगा” ।। ९ |।
स मत्स्यवचन श्रुत्वा कृपयाभिपरिप्लुत: ।
मनुर्वैवस्वतो<गृह्नात् तं मत्स्यं पाणिना स्वयम् ।। १० ।।
उदकान्तमुपानीय मत्स्यं वैवस्वतो मनु: ।
अलिज्जरे प्राक्षिपत् तं चन्द्रांशुसदृशप्रभम् ।। ११ ।।
मत्स्यकी यह बात सुनकर वैवस्वत मनुको बड़ी दया आयी। उन्होंने स्वयं अपने हाथसे
चन्द्रमाकी किरणोंके समान श्वेत रंगवाले उस मत्स्यको उठा लिया और पानीके बाहर लाकर
मटकेमें डाल दिया ।।
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27५ आम
५०:८2. &70- ---:
स तत्र ववृधे राजन् मत्स्य: परमसत्कृत: ।
पुत्रवत् स्वीकरोत् तस्मै मनुर्भावं विशेषत: ।। १२ ।।
अथ कालेन महता स मत्स्य: सुमहानभूत् |
अलिज्जरे यथा चैव नासौ समभवत् किल ।। १३ ।।
राजन! वहाँ उन्होंने बड़े आदरके साथ उसका पालन-पोषण किया और वह दिन-दिन
बढ़ने लगा। मनुने उसके प्रति पुत्रके समान विशेष वात्सल्य भाव प्रकट किया। तदनन्तर
दीर्घकाल बीतनेपर वह मत्स्य इतना बड़ा हो गया कि मटकेमें उसका रहना असम्भव हो
गया ।। १२-१३ |।
अथ मत्स्यो मनु दृष्टवा पुनरेवाभ्यभाषत ।
भगवन् साधु मेउद्यान्यत् स्थानं सम्प्रतिपादय ।। १४ ।।
तब एक दिन मत्स्यने मनुको देखकर फिर कहा--“भगवन्! अब आप मेरे लिये इससे
अच्छा कोई दूसरा स्थान दीजिये” ।। १४ ।।
उद्धृत्यालिज्जरात् तस्मात् ततः स भगवान् मनुः ।
त॑ मत्स्यमनयद् वापीं महतीं स मनुस्तदा ।। १५ ।।
तब वे भगवान् मनु उस मत्स्यको उस मटकेसे निकालकर एक बहुत बड़ी बावलीके
पास ले गये ।। १५ ।।
तत्र त॑ प्राक्षिपच्चापि मनु: परपुरंजय ।
अथावर्धत मत्स्य: स पुनर्वर्षमणान् बहून्ू ।। १६ ।।
शत्रुविजयी युधिष्ठिर! मनुने उसे वहीं डाल दिया। अब वह मत्स्य अनेक वर्षोतक
उसीमें क्रमश: बढ़ता रहा || १६ ।।
द्वियोजनायता वापी विस्तृता चापि योजनम् ।
तस्यां नासौ समभवन्मत्स्यो राजीवलोचन ।। १७ ।।
कमलनयन! उस बावलीकी लम्बाई दो योजन और चौड़ाई एक योजनकी थी; परंतु
उसमें भी उस मत्स्यका रहना कठिन हो गया ।। १७ ।।
विचेष्टितुं च कौन्तेय मत्स्यो वाप्यां विशाम्पते ।
मनुं मत्स्यस्ततो दृष्टवा पुनरेवाभ्यभाषत ।। १८ ।।
नराधिप कुन्तीनन्दन! वह उस बावलीमें हिल-डुल भी नहीं पाता था। अतः मनुको
देखकर वह पुनः बोला-- ।। १८ ।।
नय मां भगवन् साधो समुद्रमहिषीं प्रियाम् ।
गड्गां तत्र निवत्स्यामि यथा वा तात मन्यसे ।। १९ |।
निदेशे हि मया तुभ्यं स्थातव्यमनसूयता ।
वृद्धिर्हि परमा प्राप्ता त्वत्कृते हि मयानघ ।। २० ।।
“भगवन्! साधुबाबा! अब आप मुझे समुद्रकी प्यारी पटरानी गंगाजीमें ले चलिये। मैं
वहीं निवास करूँगा। अथवा तात! आप जहाँ उचित समझें, ले चलें। अनघ! मुझे
दोषदृष्टिका परित्याग करके सदा आपके आज्ञापालनमें स्थिर रहना है; क्योंकि आपके
कारण ही मैं भलीभाँति पुष्ट होकर इतना बड़ा हुआ हूँ" || १९-२० ।।
एवमुक्तो मनुर्मत्स्यमनयद् भगवान् वशी ।
नदीं गड्डां तत्र चैनं स्वयं प्राक्षिपदच्युत: ।। २१ ।।
मत्स्यके ऐसा कहनेपर जितेन्द्रिय, अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले भगवान्
मनुने उसे स्वयं ले जाकर गंगामें डाल दिया || २१ ।।
स तत्र ववृधे मत्स्य: किंचित्कालमरिंदम ।
ततः पुनर्मनुं दृष्टवा मत्स्यो वचनमब्रवीत् ।। २२ ।।
गड़ायां हि न शक्नोमि बृहत्त्वाच्चेष्टितुं प्रभो ।
समुद्र नय मामाशु प्रसीद भगवज्निति ।। २३ ।।
उद्धृत्य गज़्ासलिलात् ततो मत्स्यं मनु: स्वयम् ।
समुद्रमनयत् पार्थ तत्र चैनमवासृजत् ।। २४ ।।
शत्रुदमन! फिर वह मत्स्य वहाँ कुछ कालतक बढ़ता रहा। फिर एक दिन मनुको
देखकर उसने कहा--'प्रभो! मेरा शरीर अब इतना बड़ा हो गया है कि मैं गंगाजीमें हिल-
डुल नहीं सकता। अतः मुझे शीघ्र ही समुद्रमें ले चलिये। भगवन्! आप प्रसन्न होकर मुझपर
इतनी कृपा अवश्य कीजिये।' कुन्तीनन्दन! तब मनुने स्वयं उस मत्स्यको गंगाजीके जलसे
निकालकर समुद्रतक पहुँचाया और उसमें छोड़ दिया || २२--२४ ।।
सुमहानपि मत्स्यस्तु स मनोर्नयतस्तदा ।
आसीद् यथेष्टहार्यश्न॒ स्पर्शनन्धसुखस्य वै ॥। २५ ।।
राजन! यद्यपि वह मत्स्य बहुत विशाल था, तो भी जब मनु उसे ले जाने लगे, तब वह
ऐसा बन गया, जिससे आसानीसे ले जाया जा सके। उसका स्पर्श और गन्ध दोनों मनुके
लिये बड़े सुखकर थे ।। २५ ।।
यदा समुद्रे प्रक्षिप्त: स मत्स्यो मनुना तदा ।
तत एनमिदं वाक््यं स्मयमान इवाब्रवीत् ।। २६ ।।
जब मनुने उस मत्स्यको समुद्रमें डाल दिया, तब इसने उनसे मुसकराते हुए-से कहा
-- || २६ ||
भगवन् हि कृता रक्षा त्वया सर्वा विशेषतः ।
प्राप्तकालं तु यत् कार्य त्वया तच्छुयतां मम ।। २७ ।।
“भगवन्! आपने विशेष मनोयोगके साथ सब प्रकारसे मेरी रक्षा की है, अब आपके
लिये जिस कार्यका अवसर प्राप्त हुआ है, वह बताता हूँ, सुनिये-- || २७ ।।
अचिराद् भगवन् भौममिदं स्थावरजड्रमम् |
सर्वमेव महाभाग प्रलयं वै गमिष्यति ।। २८ ।।
'भगवन्! यह सारा-का-सारा चराचर पार्थिव जगत् शीघ्र ही नष्ट होनेवाला है।
महाभाग! सम्पूर्ण जगत्का प्रलय हो जायगा ।। २८ ।।
सम्प्रक्षालनकालो<यं लोकानां समुपस्थित: ।
तस्मात् त्वां बोधयाम्यद्य यत् ते हितमनुत्तमम् ।। २९ ।।
“यह सब लोकोंके सम्प्रजक्ञालन (एकार्णवके जलसे धुलकर नष्ट होने)-का समय आ
गया है। इसलिये मैं आपको सचेत करता हूँ और आपके लिये जो परम उत्तम हितकी बात
है, उसे बताता हूँ || २९ ।।
त्रसानां स्थावराणां च यच्चेड़ं यच्च नेड़ति ।
तस्य सर्वस्य सम्प्राप्त: काल: परमदारुण: || ३० ।।
“सम्पूर्ण जंगमों तथा स्थावर पदार्थो्में जो हिल-डुल सकते हैं और जो हिलने-
डुलनेवाले नहीं हैं, उन सबके लिये अत्यन्त भयंकर समय आ पहुँचा है || ३० ।।
नौश्व कारयितव्या ते दृढा युक्तवटारका ।
तत्र सप्तर्षिभि: सार्थमारुहेथा महामुने || ३१ ।।
“आपको एक मजबूत नाव बनवानी चाहिये, जिसमें (मजबूत) रस्सी जुटी हो।
महामुने! फिर आप सप्तर्षियोंके साथ उस नावपर बैठ जाइये ।। ३१ ।।
बीजानि चैव सर्वाणि यथोक्तानि द्विजै: पुरा ।
तस्यामारोहयेनावि सुसंगुप्तानि भागश: ।। ३२ ।।
'पूर्वकालमें ब्राह्मणोंने जो सब प्रकारके बीज बताये हैं, उनका पृथक्-पृथक् संग्रह
करके उन्हें सुरक्षितरूपसे उस नावपर रख लें ।। ३२ ।।
नौस्थश्न मां प्रतीक्षेथास्ततो मुनिजनप्रिय ।
आगमिष्याम्यहं शुद्भी विज्ञेयस्तेन तापस ।। ३३ ।।
एवमेतत्् त्वया कार्यमापृष्टोडसि व्रजाम्पहम् ।
ता न शक््या महत्यो वै आपस्तर्तु मया विना ।। ३४ ।।
“मुनिजनोंके प्रेमी तपस्वी नरेश! उस नावमें बैठे रहकर आप मेरी प्रतीक्षा कीजियेगा।
मैं आपके पास अपने मस्तकमें सींग धारण किये आऊँगा। उसीसे आप मुझे पहचान लेंगे।
इस प्रकार यह सब कार्य आपको करना है। अब मैं आपसे आज्ञा चाहता हूँ और यहाँसे
जाता हूँ। उस महान् जलराशिको आपलोग मेरी सहायताके बिना पार नहीं कर
सकेंगे ।। ३३-३४ ।।
नाभिशड्क््यमिदं चापि वचन मे त्वया विभो ।
एवं करिष्य इति तं स मत्स्यं प्रत्यभाषत ।। ३५ ।।
'प्रभो! आप मेरी इस बातमें तनिक भी संदेह न करें।” तब राजाने उस मत्स्यसे कहा
--“बहुत अच्छा! मैं ऐसा ही करूँगा” ।। ३५ ।।
जम्मतुश्च॒ यथाकाममनुज्ञाप्य परस्परम् ।
ततो मनुर्महाराज यथोक्तं मत्स्यकेन ह ।। ३६ ।।
बीजान्यादाय सर्वाणि सागर पुप्लुवे तदा ।
नौकया शुभया वीर महोर्मिणमरिंदम ।। ३७ ।।
शत्रुदमन! वे दोनों एक-दूसरेसे विदा लेकर इच्छानुसार वहाँसे चले गये। महाराज!
तदनन्तर मनु मत्स्यभगवान्के कथनानुसार सम्पूर्ण बीज लेकर एक सुन्दर नौकाद्वारा
उत्ताल तरंगोंसे भरे हुए महासागरमें तैरने लगे || ३६-३७ ।।
चिन्तयामास च मनुस्तं मत्स्यं पृथिवीपते ।
सच तच्चिन्तितं ज्ञात्वा मत्स्य: परपुरंजय ।। ३८ ।।
शृद्जी तत्राजगामाशु तदा भरतसत्तम |
त॑ दृष्टवा मनुजव्याप्र मनुर्मत्स्यं जलार्णवे || ३९ ।।
शड्डिणं तं यथोक्तेन रूपेणाद्रिमिवोच्छितम् ।
वटारकमयं पाशमथ मत्स्यस्य मूर्थनि ।। ४० ।।
शत्रुनगरविजयी नरेश्वर! तदनन्तर मनुने भगवान् मत्स्यका चिन्तन किया। यह जानकर
शृंंगधारी भगवान् मत्स्य वहाँ शीघ्र आ पहुँचे। नरश्रेष्ठ भरतकुलशिरोमणे! समुद्रमें अपने
पूर्वकथित रूपसे ऊँचे पर्वतकी भाँति शृंगंधारी मत्स्य भगवानको आया देख उनके
मस्तकवर्ती सींगमें उन्होंने बँटी हुई रस्सी बाँध दी || ३८--४० ।।
मनुर्मनुजशार्दूल तस्मिन् शृद्गे न्यवेशयत् |
संयतस्तेन पाशेन मत्स्य: परपुरंजय ।। ४१ ।।
वेगेन महता नावं प्राकर्षललवणाम्भसि ।
स च तांस्तारयन् नावा समुद्र मनुजेश्वर ।। ४२ ।।
नृत्यमानमिवोर्मीभिर्गर्जमानमिवाम्भसा ।
क्षोभ्यमाणा महावातै: सा नौस्तस्मिन् महोदधौ ।। ४३ ।।
घूर्णते चपलेव स्त्री मत्ता परपुरंजय ।
नैव भूमिर्न च दिश: प्रदिशो वा चकाशिरे ।। ४४ ।।
शत्रुकी राजधानीपर विजय पानेवाले पुरुषसिंह! मनुने वह नाव उस सींगमें अटका दी।
रस्सीसे बँधे हुए मत्स्यभगवान् उन सबको नौकाद्वारा पार उतारनेके लिये उस खारे पानीके
समुद्रमें बड़े वेगसे नाव खींचने लगे। मनुजेश्वर! उस समय समुद्र अपनी लहरोंसे नृत्य
करता-सा जान पड़ता था। पानीके हिलोरोंसे भयंकर गर्जना-सी कर रहा था। शत्रुविजयी
नरेश्वर! उस महासागरमें प्रचण्ड वायुके झोंकोंसे विक्षुब्ध होकर हिलती-डुलती हुई वह
नौका चंचल-चित्तवाली मतवाली स्त्रीके समान झूम रही थी। उस समय न तो भूमिका पता
लगता था और न दिशाओं तथा विदिशाओंका ही भान होता था ।।
सर्वमाम्भसमेवासीत् खं द्यौश्व नरपुज्गभव ।
एवंभूते तदा लोके संकुले भरतर्षभ ।। ४५ ।।
अदृश्यन्तर्षय: सप्त मनुर्मत्स्यस्तथैव च ।
एवं बहून् वर्षगणांस्तां नावं सो5थ मत्स्यक: ।। ४६ ।।
चकर्षतन्द्रितो राज॑स्तस्मिन् सलिलसंचये ।
ततो हिमवत: शृड्ूरं यत् परं भरतर्षभ ।। ४७ ।।
तत्राकर्षत् ततो नावं स मत्स्य: कुरुनन्दन ।
अथाब्रवीत् तदा मत्स्यस्तानृषीन् प्रहसन् शनै: ।। ४८ ।।
अस्मिन् हिमवत: शृज्रे नावं बध्नीत मा चिरम् |
सा बद्धा तत्र तैस्तूर्णमृषिभिर्भरतर्षभ ।। ४९ ।।
नौर्मत्स्यस्य वच: श्रुत्वा शुज़े हिमवतस्तदा ।
तच्च नौबन्धनं नाम शृज्रं हिमवत: परम् ।। ५० ।।
भरतकुलभूषण नरेश्वरर! आकाश और द्युलोक सब कुछ जलमय ही प्रतीत होता था।
इस प्रकार जब सारा विश्व एकार्णवके जलमें डूबा हुआ था, उस समय केवल सप्तर्षि, मनु
और मत्स्य भगवान्--ये ही नौ व्यक्ति दृष्टिगोचर होते थे। राजन! इस तरह बहुत वर्षोतक
भगवान् मत्स्य आलस्यरहित होकर उस अगाध जलराशिमें उस नौकाको खींचते रहे।
भरतकुलतिलक! तदनन्तर हिमालयका जो सर्वोच्च शिखर था, वहाँ मत्स्यभगवान् उस
नावको खींचकर ले गये। कुरुनन्दन! तब वे धीरे-धीरे हँसते हुए उन समस्त ऋषियोंसे बोले
--“आपलोग हिमालयके इस शिखरमें इस नावको शीघ्र बाँध दें।” भरतश्रेष्ठ! मत्स्यका वह
वचन सुनकर उन महर्षियोंने तुरंत वहाँ हिमालयके शिखरमें वह नौका बाँध दी। तभीसे
हिमालयका वह उत्तम शिखर “नौका-बन्धन' के नामसे विख्यात हुआ || ४५--५० ।।
ख्यातमगद्यापि कौन्तेय तद् विद्धि भरतर्षभ ।
अथाब्रवीदनिमिषस्तानृषीन् सहितस्तदा ।। ५१ ||
भरतश्रेष्ठ कुन्तीनन्दन! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि वह शिखर आज भी उसी नामसे
प्रसिद्ध है। तदनन्तर एकटक दृष्टिवाले भगवान् मत्स्य एक साथ उन सब ऋषियोंसे बोले
-- || ५१ ||
अहं प्रजापतिर्ब्रहद्या मत्परं नाधिगम्यते |
मत्स्यरूपेण यूयं च मयास्मान्मोक्षिता भयात् ।। ५२ ।।
मनुना च प्रजा: सर्वा: सदेवासुरमानुषा: ।
स्रष्टव्या: सर्वलोकाश्ष यच्चेड़ं यच्च नेड़ति ।। ५३ ।।
“मैं प्रजापति ब्रह्मा हूँ। मुझसे भिन्न दूसरी कोई वस्तु नहीं उपलब्ध होती। मैंने ही
मत्स्यरूप धारण करके इस महान् भयसे तुमलोगोंकी रक्षा की है। अब मनुको चाहिये कि
ये देवता, असुर और मनुष्य आदि समस्त प्रजाकी, सब लोकोंकी और सम्पूर्ण चराचरकी
सृष्टि करें ।।
तपसा चापि तीव्रेण प्रतिभास्य भविष्यति ।
मत्प्रसादात् प्रजासग्े न च मोहं गमिष्यति ।। ५४ ।।
“इन्हें तीव्र तपस्याके द्वारा जगत्की सृष्टि करनेकी प्रतिभा प्राप्त हो जायगी। मेरी
कृपासे प्रजाकी सृष्टि करते समय इन्हें मोह नहीं होगा || ५४ ।।
इत्युक्त्वा वचन मत्स्य: क्षणेनादर्शनं गत: ।
स्रष्टकाम: प्रजाश्नापि मनुर्वैवस्वत: स्वयम् ।। ५५ ।।
प्रमूढो 5 भूत् प्रजासगे तपस्तेपे महत् ततः ।
तपसा महता युक्त: सो5थ स्रष्टूं प्रचक्रसे || ५६ ।।
ऐसा कहकर भगवान् मत्स्य क्षणभरमें अदृश्य हो गये। तदनन्तर स्वयं वैवस्वत मनुको
प्रजाओंकी सृष्टि करनेकी इच्छा हुई, किंतु प्रजाकी सृष्टि करनेमें उनकी बुद्धि मोहाच्छन्न हो
गयी थी। तब उन्होंने बड़ी भारी तपस्या की और महान् तपोबलसे सम्पन्न होकर उन्होंने
सृष्टिका कार्य प्रारम्भ किया || ५५-५६ ।।
सर्वा: प्रजा मनु: साक्षाद् यथावद् भरतर्षभ ।
इत्येतन्मात्स्यकं नाम पुराणं परिकीर्तितम् ।। ५७ ।।
भरतकुलभूषण! फिर वे पूर्वकल्पके अनुसार सारी प्रजाकी यथावत् सृष्टि करने लगे।
इस प्रकार यह संक्षेपसे मत्स्य पुराणका वृत्तान्त बताया गया है ।। ५७ ।।
आख्यानमिदमाख्यातं सर्वपापहरं मया ।
य इदं शृणुयान्नित्यं मनोश्वरितमादित: ।
स सुखी सर्वपूर्णार्थ: सर्वलोकमियान्नर: ।। ५८ ।।
मेरे द्वारा वर्णित यह उपाख्यान सब पापोंको नष्ट करनेवाला है। जो मनुष्य प्रतिदिन
प्रारम्भसे ही मनुके इस चरित्रको सुनता है, वह सुखी हो सम्पूर्ण मनोरथोंको पा लेता और
सब लोकोंमें जा सकता है ।। ५८ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि मत्स्योपाख्याने
सप्ताशीत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १८७ ।।
इस प्रकार श्रीम्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्वनें मत्स्योपाख्यानविषयक
एक सौ सतासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १८७ ॥।
हि >> आय न हुक है 7
अष्टा शीर्त्याधिकशततमोब् ध्याय:
चारों युगोंकी वर्ष-संख्या एवं कलियुगके प्रभावका वर्णन,
प्रलयकालका दृश्य और मार्कण्डेयजीको ४ (02०8 कुन्दजीके
दर्शन, मार्कण्डेयजीका भगवान्के उदरमें प्रवेश कर
ब्रह्माण्डदर्शन करना और फिर बाहर निकलकर उनसे
वार्तालाप करना
वैशम्पायन उवाच
ततः स पुनरेवाथ मार्कण्डेयं यशस्विनम् ।
पप्रच्छ विनयोपेतो धर्मराजो युधिषिर: ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर विनयशील धर्मराज युधिष्ठिरने यशस्वी
मार्कण्डेय मुनिसे पुनः इस प्रकार प्रश्न किया-- ।। १ ।।
नैके युगसहस्रान्तास्त्वया दृष्टा महामुने ।
न चापीह सम: कश्रिदायुष्मान् दृश्यते तव ।। २ ।।
“महामुने! आपने हजार-हजार युगोंके अन्तमें होनेवाले अनेक महाप्रलयके दृश्य देखे
हैं। इस संसारमें आपके समान बड़ी आयुवाला दूसरा कोई पुरुष नहीं दिखायी देता || २ ।।
वर्जयित्वा महात्मानं ब्रह्माणं परमेषछ्ठिनम् ।
न ते$स्ति सदृश: ककश्रिदायुषा ब्रह्मवित्तम ।। ३ ।।
ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ महर्षे! परमेष्ठी महात्मा ब्रह्माजीको छोड़कर दूसरा कोई आपके
समान दीर्घायु नहीं है ।। ३ ।।
अनन्तरिक्षे लोके5स्मिन् देवदानववर्जिते ।
त्वमेव प्रलये विप्र ब्रह्माणमुपतिष्ठसे ।। ४ ।।
ब्रह्म! जब यह संसार देवता, दानव तथा अन्तरिक्ष आदि लोकोंसे शून्य हो जाता है
उस प्रलयकालमें केवल आप ही ब्रह्माजीके पास रहकर उनकी उपासना करते हैं ।। ४ ।।
प्रलये चापि निर्वत्ति प्रबुद्धे च पितामहे ।
त्वमेक: सृज्यमानानि भूतानीह प्रपश्यसि ।। ५ ।।
चतुर्विधानि विप्रर्षे यथावत् परमेछ्िना ।
वायुभूता दिश: कृत्वा विक्षिप्यापस्ततस्तत: ।। ६ ।।
ब्रह्मर्ष! फिर प्रलयकाल व्यतीत होनेपर जब पितामह ब्रह्मा जागते हैं, तब सम्पूर्ण
दिशाओंमें वायुको फैलाकर उसके द्वारा समस्त जलराशिको इधर-उधर छितराकर (सूखे
स्थानोंमें) ब्रह्माजीके द्वारा जो जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्धिज्ज नामक चार प्रकारके
प्राणी रचे जाते हैं, उन्हें एकमात्र आप ही (सबसे पहले) अच्छी तरह देख पाते हैं ।। ५-६ ।।
त्वया लोकगुरु: साक्षात् सर्वलोकपितामह: ।
आराधितो द्विजश्रेष्ठ तत्परेण समाधिना ।। ७ ।।
स्वप्रमाणमथो विप्र त्वया कृतमनेकश: ।
घोरेणाविश्य तपसा वेधसो निर्जितास्त्वया ।। ८ ।।
द्विजश्रेष्ठी आपने तत्परतापूर्वक चित्तवृत्तियोंका निरोध करके सम्पूर्ण लोकोंके पितामह
साक्षात् लोकगुरु ब्रह्माजीकी आराधना की है। विप्रवर! आपने अनेक बार इस जगत्की
प्रारम्भिक सृष्टिको प्रत्यक्ष किया है और घोर तपस्याद्वारा (मरीचि आदि) प्रजापतियोंको भी
जीत लिया है || ७-८ ।।
नारायणाड्कप्रख्यस्त्वं साम्परायेडतिपठ्यसे ।
भगवाननेकश: कृत्वा त्वया विष्णोश्व विश्वकृत् ।। ९ ।।
कर्णिकोद्धरणं दिव्यं ब्रह्यण: कामरूपिण: ।
रत्नालंकारयोगाशभ्यां दृग्भ्यां दुष्टस्त्वया पुरा || १० ।।
आप भगवान् नारायणके समीप रहनेवाले भक्तोंमें सबसे श्रेष्ठ हैं। परलोकमें आपकी
महिमाका सर्वत्र गान होता है। आपने पहले स्वेच्छासे प्रकट होनेवाले सर्वव्यापक ब्रह्मकी
उपलब्धिके स्थानभूत हृदयकमलकी कर्णिकाका (योगकी कलासे) अलौकिक उद्घाटन
कर वैराग्य और अभ्याससे प्राप्त हुई दिव्य दृष्टिद्वारा विश्वरचयिता भगवान्का अनेक बार
साक्षात्कार किया है ।। ९-१० ।।
तस्मात् तवान्तको मृत्युर्जरा वा देहनाशिनी ।
नत्वां विशति विप्रर्षे प्रसादात् परमेछ्चिन: ।। ११ ।।
इसीलिये सबको मारनेवाली मृत्यु तथा शरीरको जर्जर बना देनेवाली जरा आपका
स्पर्श नहीं करती है। ब्रह्मर्ष! इसमें भगवान् परमेष्ठीका कृपाप्रसाद ही कारण है || ११ ।।
यदा नैवं रविनग्निर्न वायुर्न च चन्द्रमा: ।
नैवान्तरिक्ष नैवोर्वी शेष भवति किंचन ।। १२ ।।
तस्मिन्नेकार्णवे लोके नष्टे स्थावरजड़मे ।
नष्टे देवासुरगणे समुत्सन्नमहोरगे ।। १३ ।।
शयानममितात्मानं पद्मोत्पलनिकेतनम् |
त्वमेक: सर्वभूतेशं ब्रह्माणमुपतिष्ठसि ।। १४ ।।
(महाप्रलयके समय) जब सूर्य, अग्नि, वायु, चन्द्रमा, अन्तरिक्ष और पृथ्वी आदिमेंसे
कोई भी शेष नहीं रह जाता, समस्त चराचर जगत् उस एकार्णवके जलमें डूबकर अदृश्य हो
जाता है, देवता और असुर नष्ट हो जाते हैं तथा बड़े-बड़े नागोंका संहार हो जाता है, उस
समय कमल और उत्पलमें निवास तथा शयन करनेवाले सर्वभूतेश्वर अमितात्मा ब्रह्माजीके
पास रहकर केवल आप ही उनकी उपासना करते हैं | १२--१४ ।।
एतत् प्रत्यक्षत: सर्व पूर्व वृत्तं द्विजोत्तम ।
तस्मादिच्छाम्यहं श्रोतुं सर्वहेत्वात्मिकां कथाम् । १५ ।।
द्विजोत्तम! यह सारा पुरातन इतिहास आपका प्रत्यक्ष देखा हुआ है। इसलिये मैं
आपके मुखसे सबके हेतुभूत कालका निरूपण करनेवाली कथा सुनना चाहता हूँ || १५ ।।
अनुभूतं हि बहुशस्त्वयैकेन द्विजोत्तम |
न ते<स्त्यविदितं किंचित् सर्वलोकेषु नित्यदा ।। १६ ।।
विप्रवर! केवल आपने ही अनेक कल्पोंकी श्रेष्ठ रचनाका बहुत बार अनुभव किया है।
सम्पूर्ण लोकोंमें कभी कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो आपको ज्ञात न हो' || १६ ।।
मार्कण्डेय उदाच
हन्त ते वर्णयिष्यामि नमस्कृत्वा स्वयम्भुवे ।
पुरुषाय पुराणाय शाश्वतायाव्ययाय च ।। १७ ।।
अव्यक्ताय सुसूक्ष्माय निर्गुणाय गुणात्मने ।
स एष पुरुषव्याघत्र पीतवासा जनार्दन: ।। १८ ।।
एष कर्ता विकर्ता च भूतात्मा भूतकृत् प्रभु: ।
अचिन्त्यं महदाश्चर्य पवित्रमिति चोच्यते ।। १९ ।।
मार्कण्डेयजी बोले--राजन! मैं स्वयं प्रकट होनेवाले सनातन, अविनाशी, अव्यक्त,
सूक्ष्म, निर्गुण एवं गुणस्वरूप पुराणपुरुषको नमस्कार करके तुम्हें वह कथा अभी सुनाता
हूँ। पुरुषसिंह! ये जो हमलोगोंके पास बैठे हुए पीताम्बरधारी भगवान् जनार्दन हैं, ये ही
संसारकी सृष्टि और संहार करनेवाले हैं। ये ही भगवान् समस्त प्राणियोंके अन्तर्यामी आत्मा
और उनके रचयिता हैं। ये पवित्र, अचिन्त्य एवं महान् आश्वर्यमय तत्त्व कहे जाते हैं ।। १७
-7१९ ||
अनादिनिधनं भूत॑ विश्वमव्ययमक्षयम् |
एष कर्ता न क्रियते कारणं चापि पौरुषे || २० ।।
इनका न आदि है, न अन्त। ये सर्वभूतस्वरूप, अव्यय और अक्षय हैं। ये ही सबके
कर्ता हैं, इनका कोई कर्ता नहीं है। पुरुषार्थकी प्राप्तिमें भी ये ही कारण हैं || २० ।।
यद्येष पुरुषो वेद वेदा अपि न त॑ विदुः ।
सर्वमाश्नर्यमेवैतन्निवृत्तं राजसत्तम ।। २१ ।।
आदितो मनुजव्याप्र कृत्स्नस्य जगत: क्षये ।
ये अन्तर्यामी आत्मा होनेसे सबको जानते हैं, परंतु इन्हें वेद भी नहीं जानते।
नृपशिरोमणे! नरश्रेष्ठ! सम्पूर्ण जगत्का प्रलय होनेके पश्चात् इन आदिभूत परमेश्वरसे ही यह
सम्पूर्ण आश्वर्यमय जगत् पुनः उत्पन्न हो जाता है ।। २१३ ।।
चत्वार्याहु: सहस्राणि वर्षाणां तत् कृतं युगम् ।। २२ ।।
तस्य तावच्छती संध्या संध्यांशक्ष तथाविध: ।
चार हजार दिव्य वर्षोका एक सत्ययुग बताया गया है, उतने ही सौ वर्ष उसकी संध्या
और संध्यांशके होते हैं (इस प्रकार कुल अड़तालीस सौ दिव्य वर्ष सत्ययुगके हैं) ।। २२३
||
त्रीणि वर्षसहस्राणि त्रेतायुगमिहोच्यते ।। २३ ।।
तस्य तावच्छती संध्या संध्यांशश्व॒ ततः: परम् ।
तीन हजार दिव्य वर्षोका त्रेतायुग बताया जाता है, उसकी संध्या और संध्यांशके भी
उतने ही (तीन-तीन) सौ दिव्य वर्ष होते हैं (इस तरह यह युग छत्तीस सौ दिव्य वर्षोंका होता
है) || २३६ ।।
तथा वर्षसहसे द्वे द्वापरं परिमाणत: ।। २४ ।।
तस्यापि द्विशती संध्या संध्यांशश्ष तथाविध: ।
द्वापरका मान दो हजार दिव्य वर्ष है तथा उतने ही सौ दिव्य वर्ष उसकी संध्या और
संध्यांशके हैं (अत: सब मिलकर चौबीस सौ दिव्य वर्ष द्वापरके हैं) || २४६ ।।
सहस्रमेकं वर्षाणां तत: कलियुगं स्मृतम् ।। २५ ।।
तस्य वर्षशतं संधि: संध्यांशश्व॒ ततः परम् |
संधिसंध्यांशयोस्तुल्यं प्रमाणमुपधारय ।। २६ ।।
तदनन्तर एक हजार दिव्य वर्ष कलियुगका मान कहा गया है, सौ वर्ष उसकी संध्याके
और सौ वर्ष संध्यांशके बताये गये हैं (इस प्रकार कलियुग बारह सौ दिव्य वर्षोंका होता है)।
संध्या और संध्यांशका मान बराबर-बराबर ही समझो ।। २५-२६ ।।
क्षीणे कलियुगे चैव प्रवर्तेत कृतं युगम् ।
एषा द्वादशसाहस्त्री युगाख्या परिकीर्तिता ।। २७ ।।
कलियुगके क्षीण हो जानेपर पुनः सत्ययुगका आरम्भ होता है। इस तरह बारह हजार
दिव्य वर्षोकी एक चतुर्युगी बतायी गयी है ।। २७ ।।
एतत् सहस्रपर्यन्तमहो ब्राह्ममुदाह्नतम् ।
विश्व हि ब्रह्मभवने सर्वत: परिवर्त्तते | २८ ।।
लोकानां मनुजव्याघ्र प्रलयं त॑ विदुर्बुधा: ।
नरश्रेष्ठ] एक हजार चतुर्युग बीतनेपर ब्रह्माजीका एक दिन होता है। यह सारा जगत्
ब्रह्माके दिनभर ही रहता है (और वह दिन समाप्त होते ही नष्ट हो जाता है।) इसीको
विद्वान् पुरुष लोकोंका प्रलय मानते हैं || २८३ ।।
अल्पावशिष्टे तु तदा चुगान्ते भरतर्षभ ।। २९ ।।
सहस्रान्ते नरा: सर्वे प्रायशो5नृतवादिन: ।
यज्ञप्रतिनिधि: पार्थ दानप्रतिनिधिस्तथा ।। ३० ।।
व्रतप्रतिनिधिश्वैव तस्मिन् काले प्रवर्तते ।
भरतश्रेष्ठ सहस्र युगकी समाप्तिमें जब थोड़ा-सा ही समय शेष रह जाता है, उस
समय कलियुगके अन्तिम भागमें प्राय: सभी मनुष्य मिथ्यावादी हो जाते हैं। पार्थ! उस
समय यज्ञ, दान और व्रतके प्रतिनिधि कर्म चालू हो जाते हैं अर्थात् यज्ञ, दान, तप मुख्य
विधिसे न होकर गौण विधिसे नाममात्र होने लगते हैं || २९-३० $ ।।
ब्राह्मणा: शूद्रकर्माणस्तथा शूद्रा धनार्जका: ।। ३१ ।।
क्षत्रधर्मेण वाप्यत्र वर्तयन्ति गते युगे ।
युगकी समाप्तिके समय ब्राह्मण शूद्रोंके कर्म करते हैं और शाद्र वैश्योंकी भाँति
धनोपार्जन करने लगते हैं अथवा क्षत्रियोंके कर्मसे जीविका चलाने लगते हैं || ३१६ ।।
निवृत्तयज्ञस्वाध्याया दण्डाजिनविवर्जिता: ।। ३२ ||
ब्राह्मणा: सर्वभक्षाश्न॒ भविष्यन्ति कलौ युगे ।
अजपा ब्राह्मणास्तात शूद्रा जपपरायणा: ।। ३३ ।।
(सहस्र चतुर्युगके अन्तिम) कलियुगके अन्तिम भागमें ब्राह्मण यज्ञ, स्वाध्याय, दण्ड
और मृगचर्मका त्याग कर देंगे और (भनक्ष्याभक्ष्यका विचार छोड़कर) सब कुछ खाने-
पीनेवाले हो जायँगे। तात! ब्राह्मण तो जपसे दूर भागेंगे और शूद्र वैदिक मन्त्रोंके जपमें
संलग्न होंगे ।। ३२-३३ ।।
विपरीते तदा लोके पूर्वरूपं क्षयस्य तत् ।
बहवो म्लेच्छराजान: पृथिव्यां मनुजाधिप ।। ३४ ।।
नरेश्वर! इस प्रकार जब लोगोंके विचार और व्यवहार विपरीत हो जाते हैं, तब प्रलयका
पूर्वरूप आरम्भ हो जाता है। उस समय इस पृथ्वीपर बहुत-से म्लेच्छ राजा राज्य करने
लगते हैं ।। ३४ ।।
मृषानुशासिन: पापा मृषावादपरायणा: ।
आन्ध्रा: शका: पुलिन्दाश्न यवनाश्न नराधिपा: ।। ३५ ।।
काम्बोजा बाह्लिका: शूरास्तथा5<5भीरा नरोत्तम |
न तदा ब्राह्मण: कश्रनित् स्वधर्ममुपजीवति ।। ३६ ।।
छलसे शासन करनेवाले, पापी और असत्यवादी आन्ध्र, शक, पुलिन्द, यवन,
काम्बोज, बाह्लीक तथा शौर्यसम्पन्न आभीर इस देशके राजा होंगे। नरश्रेष्ठी उस समय कोई
ब्राह्मण अपने धर्मके अनुसार जीविका चलानेवाला न होगा ।। ३५-३६ ।।
क्षत्रियाश्षापि वैश्याश्ष विकर्मस्था नराधिप ।
अल्पायुष: स्वल्पबला: स्वल्पवीर्यपराक्रमा: ।। ३७ ।।
नरेश्वर! क्षत्रिय और वैश्य भी अपना-अपना धर्म छोड़कर दूसरे वर्णोके कर्म करने
लगेंगे। सबकी आयु कम होगी, सबके बल, वीर्य और पराक्रम घट जायँगे || ३७ ।।
अल्पसाराल्पदेहाश्व॒ तथा सत्याल्पभाषिण: ।
बहुशून्या जनपदा मृगव्यालावृता दिश: ।। ३८ ।।
युगान्ते समनुप्राप्ते वृथा च ब्रह्मवादिन: ।
भोवादिनस्तथा शाद्रा ब्राह्मणाश्चार्यवादिन: ।। ३९ ।।
मनुष्य नाटे कदके होंगे। उनकी शरीरिक शक्ति बहुत कम हो जायगी और उनकी
बातोंमें सत्यका अंश बहुत कम होगा। बहुधा सारे जनपद जनशून्य होंगे। सम्पूर्ण दिशाएँ
पशुओं और सर्पोसे भरी होंगी। युगान्तकाल उपस्थित होनेपर अधिकांश मनुष्य (अनुभव न
होते हुए भी) वृथा ही ब्रह्मज्ञानकी बातें कहेंगे। शूद्र द्विजातियोंको भो (ऐ) कहकर पुकारेंगे
और ब्राह्मणलोग शूट्रोंको आर्य अर्थात् आप कहकर सम्बोधन करेंगे ।। ३८-३९ ।।
युगान्ते मनुजव्याप्र भवन्ति बहुजन्तवः ।
न तथा घ्राणयुक्ताश्न सर्वगन्धा विशाम्पते || ४० ।।
पुरुषसिंह राजन! युगान्तकालमें बहुतसे जीव-जन्तु उत्पन्न हो जायँगे। सब प्रकारके
सुगन्धित पदार्थ नासिकाको उतने गन्धयुक्त नहीं प्रतीत होंगे || ४० ।।
रसाश्च मनुजव्यात्र न तथा स्वादुयोगिन: ।
बहुप्रजा हस्वदेहा: शीलाचारविवर्जिता: ।
मुखे भगा: स्त्रियो राजन् भविष्यन्ति युगक्षये ।। ४१ ।।
अट्टशूला जनपदा: शिवशूलाश्षतुष्पथा: ।
केशशूला: स्त्रियो राजन् भविष्यन्ति युगक्षये || ४२ ।।
नरव्याप्र! इसी प्रकार रसीले पदार्थभी जैसे चाहिये वैसे स्वादिष्ट नहीं होंगे। राजन्! उस
समयकी स्त्रियाँ नाटे कदकी और बहुत संतान (बच्चा) पैदा करनेवाली होंगी। उनमें शील
और सदाचारका अभाव होगा। युगान्तकालमें स्त्रियाँ मुखसे भगसम्बन्धी यानी व्यभिचारकी
ही बातें करनेवाली होंगी। राजन! युगान्त-कालमें हर देशके लोग अन्न बेचनेवाले होंगे।
ब्राह्मण वेद बेचनेवाले तथा (प्रायः) स्त्रियाँ वेश्यावृत्तिको अपनानेवाली होंगी- ।। ४१-४२ ।।
अल्पक्षीरास्तथा गावो भविष्यन्ति जनाधिप ।
अल्पपुष्पफलाश्चापि पादपा बहुवायसा: ।। ४३ ।।
ब्रह्मवध्यानुलिप्तानां तथा मिथ्याभिशंसिनाम् ।
नृपाणां पृथिवीपाल प्रतिगृह्नन्ति वै द्विजा: ।। ४४ ।।
जनेश्वर! युगान्तकालमें गायोंके थनोंमें बहुत कम दूध होगा। वृक्षपर फल और फूल
बहुत कम होंगे और उनपर (अच्छे पक्षियोंकी अपेक्षा) कौए ही अधिक बसेरे लेंगे। भूपाल!
ब्राह्मणगलोग (लोभवश) ब्रह्महत्या-जैसे पापोंसे लिप्त और मिथ्यावादी नरेशोंसे ही दान-
दक्षिणा लेंगे || ४३-४४ ।।
लोभमोहपरीताश्च मिथ्याधर्मध्वजावृता: ।
भिक्षार्थ पृथिवीपाल चज्चूर्यन्ते द्विजैर्दिश: ।। ४५ ।।
राजन! वे ब्राह्मण लोभ और मोहमें फँसकर झूठे धर्मका ढोंग रचनेवाले होंगे, इतना ही
नहीं, वे भिक्षाके लिये सारी दिशाओंके लोगोंको पीड़ित करते रहेंगे | ४५ ।।
करभारभयाद् भीता गृहस्था: परिमोषका: |
मुनिच्छञाकृतिच्छन्ना वाणिज्यमुपजीविन: ।। ४६ ।।
मिथ्या च नखरोमाणि धारयन्ति तदा द्विजा: ।
गृहस्थलोग करके भारसे डरकर लुटेरे बन जायाँगे। ब्राह्मण मुनियों-जैसी कपटपूर्ण
आकृति धारण किये वैश्यवृत्तिसे जीविका चलायेंगे और झूठे दिखावेके लिये नख तथा
दाढ़ी-मूछ धारण करेंगे ।। ४६३ ।।
अर्थलोभान्नरव्याप्र तथा च ब्रह्म॒चारिण: ।। ४७ ।।
आश्रमेषु वृथाचारा: पानपा गुरुतल्पगा: ।
इह लौकिकमीहन्ते मांसशोणितवर्धनम् ।। ४८ ।।
नरश्रेष्ठल धनके लोभसे ब्रह्मचारी भी आश्रमोंमें दम्भपूर्ण आचारको अपनायेंगे और
मद्यपान करके गुरुपत्नीगमन करेंगे। लोग अपने शरीरके मांस और रक्त बढ़ानेवाले
इहलौकिक कर्मांमें ही लगे रहेंगे ।।
बहुपाषण्डसंकीर्णा: परान्नगुणवादिन: ।
आश्रमा मनुजव्यात्र भविष्यन्ति युगक्षये ।। ४९ ।।
नरश्रेष्ठ) युगान्तकालमें सभी आश्रम अनेक प्रकारके पाखण्डोंसे व्याप्त और दूसरोंसे
मिले हुए भोजनका ही गुणगान करनेवाले होंगे || ४९ ।।
यर्थर्तुवर्षी भगवान् न तथा पाकशासन: ।
न चापि सर्वबीजानि सम्यगू रोहन्ति भारत ।। ५० ।।
भगवान् इन्द्र भी ठीक वर्षाऋतुके समय जलकी वर्षा नहीं करेंगे। भारत! भूमिमें बोये
हुए सभी बीज ठीकसे नहीं जमेंगे || ५० ।।
हिंसाभिरामश्न जनस्तथा सम्पद्यते5शुचि: ।
अधर्मफलमत्यर्थ तदा भवति चानघ ।। ५१ ।।
कलियुगमें सब लोग हिंसामें ही सुख माननेवाले तथा अपवित्र रहेंगे। निष्पाप! उस
समय अधर्मका फल बहुत अधिक मात्रामें मिलेगा || ५१ ।।
तदा च पृथिवीपाल यो भवेद् धर्मसंयुतः ।
अल्पायु: स हि मन्तव्यो न हि धर्मो5स्ति कश्नन ।। ५२ ।।
भूपाल! उस समय जो भी धर्ममें तत्पर रहेगा, उसकी आयु बहुत थोड़ी देखनेमें
आयेगी; क्योंकि उस समय कोई भी धर्म टिक नहीं सकेगा ।। ५२ ।।
भूयिष्ठं कूटमानैश्व पण्यं विक्रीणते जना: ।
वणिजकश्न नरव्यात्र बहुमाया भवन्त्युत ।। ५३ ।।
लोग बाजारमें झूठे माप-तौल बनाकर बहुत-सा माल बेचते रहेंगे। नरश्रेष्ठीी उस
समयके बनिये भी बहुत माया जाननेवाले (धूर्त) होंगे ।। ५३ ।।
धर्मिष्ठा: परिहीयन्ते पापीयान् वर्धते जन: ।
धर्मस्य बलहानि: स्यादधर्मश्ष बली तथा ।। ५४ ।।
धर्मात्मा पुरुष हानि उठाते दीखेंगे और बड़े-बड़े पापी लौकिक दृष्टिसे उन्नतिशील होंगे।
धर्मका बल घटेगा और अधर्म बलवान् होगा ।। ५४ ।।
अल्पायुषो दरिद्राश्न॒ धर्मिष्ठा मानवास्तथा ।
दीर्घायुष: समृद्धाश्व विधर्माणो युगक्षये ।। ५५ ।।
युगान्तकालमें धर्मिष्ठ मानव अल्पायु तथा दरिद्र देखे जायँगे और अधर्मी मनुष्य दीर्घायु
तथा समृद्धिशाली देखे जायँगे ।। ५५ ।।
नगराणां विहारेषु विधर्माणो युगक्षये ।
अधर्मिष्ठिरुपायैश्व प्रजा व्यवहरन्त्युत ।। ५६ ।।
युगान्तके समय नगरोंके उद्यानोंमें पापी पुरुष अड्डा जमायेंगे और पापपूर्ण उपायोंद्वारा
प्रजाके साथ दुर्व्यवहार करेंगे ।। ५६ ।।
संचयेन तथाल्पेन भवन्त्याब्यमदान्विता: ।
धनं विश्वासतो न्यस्तं मिथो भूयिष्ठशो नरा: ॥। ५७ ।।
हर्तु व्यवसिता राजन् पापाचारसमन्विता: ।
नैतदस्तीति मनुजा वर्तन्ते निरपत्रपा: ।। ५८ ।।
राजन! थोड़ेसे धनका संग्रह हो जानेपर लोग धनाढ्यताके मदसे उन्मत्त हो उठेंगे। यदि
किसीने विश्वास करके अपने धनको धरोहरके रूपमें रख दिया तो अधिकांश पापाचारी
और निर्लज मनुष्य उस धरोहरको हड़प लेनेकी चेष्टा करेंगे और उससे साफ कह देंगे कि
हमारे यहाँ तुम्हारा कुछ भी नहीं है | ५७-५८ ।।
पुरुषादानि सत्त्वानि पक्षिणो5थ मृगास्तथा ।
नगराणां विहारेषु चैत्येष्वपि च शेरते ।। ५९ ।।
मनुष्यका मांस खानेवाले हिंसक जीव तथा पशु-पक्षी नागरिकोंके बगीचों और
देवालयोंमें भी शयन करेंगे ।। ५९ ।।
सप्तवर्षष्टवर्षाश्च स्त्रियों गर्भधरा नूप ।
दशद्वादशवर्षाणां पुंसां पुत्र: प्रजायते || ६० ।।
राजन! युगान्तकालमें सात-आठ वर्षकी स्त्रियाँ गर्भ धारण करेंगी और दस-बारह
वर्षकी अवस्थावाले पुरुषोंके भी पुत्र होंगे || ६० ।।
भवन्ति षोडशे वर्षे नरा: पलितिनस्तथा ।
आयु:क्षयो मनुष्याणां क्षिप्रमेव प्रपद्यते | ६१ ।।
सोलहवें वर्षमें मनुष्योंक बाल पक जायँगे और उनकी आयु शीघ्र ही समाप्त हो
जायगी ।। ६१ ।।
क्षीणायुषो महाराज तरुणा वृद्धशीलिन: ।
तरुणानां च यच्छीलं तद् वृद्धेषु प्रजायते ।। ६२ ।।
महाराज! उस समयके तरुणोंकी आयु क्षीण होगी और उनका शील-स्वभाव बूढ़ोंका-
सा हो जायगा और तरुणोंका जो शील-स्वभाव होना चाहिये, वह बूढ़ोंमें प्रकट
होगा ।। ६२ ।।
विपरीतास्तदा नार्यो वज्चयित्वारहत: पतीन् |
व्युच्चरन्त्यपि दुःशीला दासै: पशुभिरेव च ।। ६३ ।।
उस समयकी विपरीत स्वभाववाली स्त्रियाँ अपने योग्य पतियोंको भी धोखा देकर बुरे
शील-स्वभावकी हो जायँगी और सेवकों तथा पशुओंके साथ भी व्यभिचार करेंगी ।। ६३ ।।
वीरपत्न्यस्तथा नार्य: संश्रयन्ति नरान् नृप ।
भर्तारमपि जीवन्तमन्यान् व्यभिचरन्त्युत ।। ६४ ।।
राजन! वीर पुरुषोंकी पत्नियाँ भी परपुरुषोंका आश्रय लेंगी और पतिके जीते हुए भी
दूसरोंसे व्यभिचार करेंगी ।। ६४ ।।
तस्मिन् युगसहस्रान्ते सम्प्राप्ते चायुष: क्षये ।
अनावृष्टिर्महाराज जायते बहुवार्षिकी || ६५ ।।
महाराज! इस प्रकार आयुको क्षीण करनेवाले सहस्र युगोंके अन्तिम भागकी समाप्ति
होनेपर बहुत वर्षोतक वृष्टि बंद हो जाती है ।। ६५ ।।
ततस्तान्यल्पसाराणि सत्त्वानि क्षुधितानि वै ।
प्रलयं यान्ति भूयिष्ठं पृथिव्यां पृथिवीपते ।। ६६ ।।
पृथ्वीपते! इससे भूतलके थोड़ी शक्तिवाले अधिकांश प्राणी भूखसे व्याकुल होकर मर
जाते हैं || ६६ ।।
ततो दिनकरेदीप्तै: सप्तभिर्मनुजाधिप ।
पीयते सलिल ॑ सर्व समुद्रेषु सरित्सु च || ६७ ।।
नरेश्वर! तदनन्तर प्रचण्ड तेजवाले सात सूर्य उदित होकर सरिताओं और समुद्रोंका
सारा जल सोख लेते हैं ।। ६७ ।।
यच्च काष्ठ॑ तृणं चापि शुष्कं चार्द्र च भारत ।
सर्व तद् भस्मसाद् भूत॑ दृश्यते भरतर्षभ ।। ६८ ।।
भरतकुलभूषण! उस समय जो भी तृण-काष्ठ अथवा सूखे-गीले पदार्थ होते हैं, वे सभी
भस्मीभूत दिखायी देने लगते हैं || ६८ ।।
तत: संवर्तको वह्निवायुना सह भारत |
लोकमाविशते पूर्वमादित्यैरुपशोषितम् ।। ६९ ।।
भारत! इसके बाद '“संवर्तक” नामकी प्रलयकालीन अग्नि वायुके साथ उन सम्पूर्ण
लोकोंमें फैल जाती है, जहाँका जल पहले सात सूर्योंद्वारा सोख लिया गया है ।। ६९ ।।
ततः स पृथिवीं भिनत्त्वा प्रविश्य च रसातलम् ।
देवदानवयक्षाणां भयं जनयते महत् ।। ७० ।।
तत्पश्चात् पृथ्वीका भेदन कर वह अग्नि रसातलतक पहुँच जाती है तथा देवता, दानव
और यक्षोंके लिये महान् भय उपस्थित कर देती है || ७० ।।
निर्दहन् नागलोकं च यच्च किज्चित् क्षिताविह ।
अधस्तात् पृथिवीपाल सर्व नाशयते क्षणात् ।। ७१ ।।
राजन्! वह नागलोकको जलाती हुई इस पृथ्वीके नीचे जो कुछ भी है, उस सबको
क्षणभरमें नष्ट कर देती है || ७१ ।।
ततो योजनविंशानां सहस्राणि शतानि च ।
निर्दहत्यशिवो वायु: स च संवर्तकोडनल: ।। ७२ ।।
इसके बाद वह अमंगलकारी प्रचण्ड वायु और वह संवर्तक अग्नि बाईस हजार योजन
तकके लोगोंको भस्म कर डालती है || ७२ ।।
सदेवासुरगन्धर्व सयक्षोरगराक्षसम् ।
ततो दहति दीप्त: स सर्वमेव जगद् विभु: ॥। ७३ ||
इस प्रकार सर्वत्र फैली हुई वह प्रज्वलित अग्नि देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, नाग तथा
राक्षसोंसहित सम्पूर्ण विश्वको भस्म कर डालती है || ७३ ।।
ततो गजकुलप्रख्यास्तडिन्मालाविभूषिता: ।
उत्तिष्ठन्ति महामेघा नभस्यद्भुतदर्शना: ।। ७४ ।।
इसके बाद आकाशमें महान् मेघोंकी घोर घटा घिर आती है, जो अद्भुत दिखायी देता
है। उनमेंसे प्रत्येक मेघ-समूह हाथियोंके झुंडकी भाँति विशालकाय और श्यामवर्ण तथा
बिजलीकी मालाओंसे विभूषित होता है || ७४ ।।
केचिन्नीलोत्पलश्यामा: केचित् कुमुदसंनि भा: ।
केचित् किज्जल्कसंकाशा: केचित् पीता: पयोधरा: ।। ७५ ।।
केचिद्धारिद्रसंकाशा: कारण्डवनिभास्तथा ।
केचित् कमलपत्राभा: केचिद्धिड्डुलसप्रभा: ।। ७६ ।।
कुछ बादल नील कमलक समान श्याम और कुछ कुमुद-कुसुमके समान सफेद होते
हैं। कुछ जलधरोंकी कान्ति केसरोंके समान दिखायी देती है। कुछ मेघ हल्दीके सदृश पीले
और कुछ कारण्डव पक्षीके समान दृष्टिगोचर होते हैं। कोई-कोई कमलदलके समान और
कुछ हिंगुल-जैसे जान पड़ते हैं || ७५-७६ ।।
केचित् पुरवराकारा: केचिद् गजकुलोपमा: ।
केचिदञ्जनसंकाशा: केचिन्मकरसंनिभा: ।। ७७ ।।
कुछ श्रेष्ठ नगरोंके समान, कुछ हाथियोंके झुंड-जैसे, कुछ काजलके रंगवाले और कुछ
मगरोंकी-सी आकृतिवाले होते हैं || ७७ ।।
विद्युन्मालापिनद्धाड: समुत्तिष्ठन्ति वै घना: ।
घोररूपा महाराज घोरस्वननिनादिता: ।
ततो जलधरा: सर्वे व्याप्रुवन्ति नभस्तलम् || ७८ ।।
वे सभी बादल विद्युन्मालाओंसे अलंकृत होकर घिर आते हैं। महाराज! भयंकर गर्जना
करनेके कारण उनका स्वरूप बड़ा भयानक जान पढ़ता है। धीरे-धीरे वे सभी जलधर
समूचे आकाशमण्डलको ढक लेते हैं || ७८ ।।
तैरियं पृथिवी सर्वा सपर्वतवनाकरा ।
आपूर्यते महाराज सलिलौघपरिप्लुता ।। ७९ ।।
महाराज! उनके वर्षा करनेपर पर्वत, वन और खानोंसहित यह सारी पृथ्वी अगाध
जलराशिमें ड्ूबकर सब ओरसे भर जाती है || ७९ ।।
ततस्ते जलदा घोरा राविण: पुरुषर्षभ ।
सर्वतः प्लावयन्त्याशु चोदिता: परमेछ्िना ।। ८० ।।
पुरुषरत्न! तदनन्तर विधातासे प्रेरित हो गर्जन-तर्जन करनेवाले वे भयंकर मेघ शीघ्र
सब ओर वर्षा करके सबको जलसे आप्लावित कर देते हैं || ८० ।।
वर्षमाणा महत् तोयं पूरयन्तो वसुंधराम् ।
सुघोरमशिवं रौद्रं नाशयन्ति च पावकम् ।। ८१ ।।
महान् जल-समूहकी वर्षा करके वसुन्धराको जलमें डुबोनेवाले वे समस्त मेघ उस
अत्यन्त घोर, अमंगलकारी और भयानक अग्निको बुझा देते हैं || ८१ ।।
ततो द्वादशवर्षाणि पयोदास्त उपप्लवे ।
धाराभि: पूरयन्तो वै चोद्यमाना महात्मना ।। ८२ ।।
तदनन्तर प्रलयकालके वे पयोधर महात्मा ब्रह्माजीकी प्रेरणा पाकर पृथ्वीको परिपूर्ण
करनेके लिये बारह वर्षोतक धारावाहिक वृष्टि करते हैं || ८२ ।।
ततः समुद्र: स्वां वेलामतिक्रामति भारत ।
पर्वताश्च विदीर्यन्ते मही चाप्सु निमज्जति ।। ८३ ।।
भारत! तदनन्तर समुद्र अपनी सीमाको लाँघ जाता है, पर्वत फट जाते और पृथ्वी
पानीमें डूब जाती है ।। ८३ ।।
सर्वतः सहसा भ्रान्तास्ते पयोदा नभस्तलम् ।
संवेष्टयित्वा नश्यन्ति वायुवेगपराहता: ।। ८४ ।।
तत्पश्चात् समस्त आकाशको घेरकर सब ओर फैले हुए वे मेघ वायुके प्रचण्ड वेगसे
छिन्न-भिन्न होकर सहसा अदृश्य हो जाते हैं ।। ८४ ।।
ततस्तं मारुतं घोरं स्वयम्भूमनुजाधिप ।
आदि: पद्मालयो देव: पीत्वा स्वपिति भारत ॥। ८५ ||
नरेश्वरर इसके बाद कमलमें निवास करनेवाले आदिदेव स्वयं ब्रह्माजी उस भयंकर
वायुको पीकर सो जाते हैं ।। ८५ ।।
तस्मिन्नेकार्णवे घोरे नष्टे स्थावरजड्रमे ।
नष्टे देवासुरगणे यक्षराक्षसवर्जिते ।। ८६ ।।
निर्मनुष्ये महीपाल निःश्वापदमहीरुहे ।
अनन्तरिक्षे लोके5स्मिन् भ्रमाम्पेकोडहमाहत: ।। ८७ ।।
इस प्रकार चराचर प्राणियों, देवताओं तथा असुर आदिके नष्ट हो जानेपर यक्ष, राक्षस,
मनुष्य, हिंसक जीव, वृक्ष तथा अन्तरिक्षसे शून्य उस घोर एकार्णवमय जगतमें मैं अकेला
ही इधर-उधर मारा-मारा फिरता हूँ || ८६-८७ ।।
एकार्णवे जले घोरे विचरन् पार्थिवोत्तम |
अपश्यन् सर्वभूतानि वैक्लव्यमगमं तत: ।॥। ८८ ।।
नृपश्रेष्ठी एकार्णवके उस भयंकर जलमें विचरते हुए जब मैंने किसी भी प्राणीको नहीं
देखा, तब मुझे बड़ी व्याकुलता हुई ।। ८८ ।।
ततः सुदीर्घ गत्वाहं प्लवमानो नराधिप ।
श्रान्त: क्वचिन्न शरणं लभाम्यहमतन्द्रित: ।। ८९ ।।
नरेश्वरर उस समय आलस्यशून्य होकर सुदीर्घकाल-तक तैरता हुआ मैं दूर जाकर बहुत
थक गया। परंतु कहीं भी मुझे कोई आश्रय नहीं मिला ।। ८९ ।।
ततः कदाचित् पश्यामि तस्मिन् सलिलसंचये ।
न्यग्रोधं सुमहान्तं वै विशालं पृथिवीपते ॥। ९० ।।
राजन्! तदनन्तर एक दिन एकार्णवकी उस अगाध जलराशिमें मैंने एक बहुत विशाल
बरगदका वृक्ष देखा ।। ९० ।।
शाखायां तस्य वृक्षस्य विस्तीर्णायां नराधिप ।
पर्यड्के पृथिवीपाल दिव्यास्तरणसंस्तृते | ९१ ।।
उपविष्टं महाराज पद्मेन्दुसद्शाननम् |
फुल्लपद्मविशालाक्षं बालं पश्यामि भारत ।। ९२ ।।
नराधिप! उस वृक्षकी चौड़ी शाखापर एक पलंग था, जिसके ऊपर दिव्य बिछौने बिछे
हुए थे। महाराज! उस पलंगपर एक सुन्दर बालक बैठा दिखायी दिया, जिसका मुख
कमलके समान कमनीय शोभा धारण करनेवाला तथा चन्द्रमाके समान नेत्रोंको आनन्द
देनेवाला था। उसके नेत्र प्रफुल्ल पद्मदलके समान विशाल थे ।। ९१-९२ ।।
ततो मे पृथिवीपाल विस्मय: सुमहानभूत् |
कथं त्वयं शिशु: शेते लोके नाशमुपागते ।। ९३ ।।
पृथ्वीनाथ! उसे देखकर मुझे बड़ा विस्मय हुआ। मैं सोचने लगा--'सारे संसारके नष्ट
हो जानेपर भी यह बालक यहाँ कैसे सो रहा है?” ।। ९३ ।।
तपसा चिन्तयंश्वापि तं शिशुं नोपलक्षये ।
भूतं भव्यं भविष्यं च जानन्नपि नराधिप ।। ९४ ।।
नरेश्वर! मैं भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालोंका ज्ञाता होनेपर भी तपस्यासे
भलीभाँति चिन्तन करता (ध्यान लगाता) रहा, तो भी उस शिशुके विषयमें कुछ न जान
सका ।। ९४ ।।
अतसीपुष्पवर्णा भ: श्रीवत्सकृतभूषण: ।
साक्षाल्लक्ष्म्या इवावास: स तदा प्रतिभाति मे ।। ९५ ।।
उसकी अंगकान्ति अलसीके फूलकी भाँति श्याम थी। उसका वक्ष:स्थल श्रीवत्सचिह्नसे
विभूषित था। वह उस समय मुझे साक्षात् लक्ष्मीका निवासस्थान-सा प्रतीत होता
था ।। ९५ ||
ततो मामब्रवीद् बाल: स पद्मनिभलोचन: ।
श्रीवत्सधारी द्युतिमान् वाक््यं श्रुतिसुखावहम् ।। ९६ ।।
जानामि त्वां परिश्रान्तं ततो विश्रामकाड्क्षिणम् ।
मार्कण्डेय इहास्स्व त्वं यावदिच्छसि भार्गव ।। ९७ ।।
मुझे विस्मयमें पड़ा देख कमलके समान नेत्रवाले उस श्रीवत्सधारी कान्तिमान् बालकने
मुझसे इस प्रकार श्रवणसुखद वचन कहा--'भृगुवंशी मार्कण्डेय! मैं तुम्हें जानता हूँ। तुम
बहुत थक गये हो और विश्राम चाहते हो। तुम्हारी जबतक इच्छा हो यहाँ बैठो ।।
अभ्यन्तरं शरीरे मे प्रविश्य मुनिसत्तम ।
आस्स्व भो विहितो वास: प्रसादस्ते कृतो मया ।। ९८ ।।
“'मुनिश्रेष्ठ! मैंने तुमपर कृपा की है। तुम मेरे शरीरके भीतर प्रवेश करके विश्राम करो।
वहाँ तुम्हारे रहनेके लिये व्यवस्था की गयी है” ।। ९८ ।।
ततो बालेन तेनैवमुक्तस्थासीत् तदा मम ।
निर्वेदो जीविते दीर्घे मनुष्यत्वे च भारत ।। ९९ ।।
उस बालकके ऐसा कहनेपर उस समय मुझे अपने दीर्घ-जीवन और मानव-शरीरपर
बड़ा खेद और वैराग्य हुआ ।। ९९ |।
ततो बालेन तेनास्यं सहसा विवृतं कृतम् ।
तस्याहमवशो वकत्रे दैवयोगात् प्रवेशित: ।। १०० ।।
तदनन्तर उस बालकने सहसा अपना मुख खोला और मैं दैवयोगसे परवशकी भाँति
उसमें प्रवेश कर गया || १०० ।।
ततः प्रविष्टस्तत्कुक्षिं सहसा मनुजाधिप ।
सराष्ट्रनगराकीर्णा कृत्स्नां पश्यामि मेदिनीम् ।। १०१ ।।
राजन! उसमें प्रवेश करते ही मैं सहसा उस बालकके उदरमें जा पहुँचा। वहाँ मुझे
समस्त राष्ट्रों और नगरोंसे भरी हुई यह सारी पृथ्वी दिखायी दी || १०१ ॥।
गड्डां शतद्रं सीतां च यमुनामथ कौशिकीम् ।
चर्मण्वतीं वेत्रवर्ती चन्द्रभागां सरस्वतीम् ।। १०२ ।।
सिन्धुं चैव विपाशां च नदीं गोदावरीमपि ।
वस्वोकसारां नलिनीं नर्मदां चैव भारत ।। १०३ ।।
नदीं ताम्रां च वेणां च पुण्यतोयां शुभावहाम् ।
सुवेणां कृष्णवेणां च इरामां च महानदीम् ।। १०४ ।।
वितस्तां च महाराज कावेरीं च महानदीम् ।
शोणं च पुरुषव्याप्र विशल्यां किम्पुनामपि || १०५ ।।
एताश्षान्याश्व नद्यो5हं पृथिव्यां या नरोत्तम ।
परिक्रामन् प्रपश्यामि तस्य कुक्षौ महात्मन: ।। १०६ ।।
नरश्रेष्ठ फिर तो मैं उस महात्मा बालकके उदरमें घूमने लगा। घूमते हुए मैंने वहाँ गंगा,
सतलज, सीता, यमुना, कोसी, चम्बल, वेत्रवती, चिनाव, सरस्वती, सिन्धु, व्यास, गोदावरी,
वस्वोकसारा, नलिनी, नर्मदा, ताम्रपर्णी, वेणा, शुभदायिनी पुण्यतोया, सुवेणा, कृष्णवेणा,
महानदी इरामा, वितस्ता (झेलम), महानदी कावेरी, शोणभद्र, विशल्या तथा किम्पुना--इन
सबको तथा इस पृथ्वीपर जो अन्य नदियाँ हैं, उनको भी देखा || १०२--१०६ ।।
ततः समुद्र पश्यामि यादोगणनिषेवितम् ।
रत्नाकरममित्रघ्न पयसो निधिमुत्तमम् || १०७ ।।
शत्रुसूदन! इसके बाद जलजन्तुओंसे भरे हुए अगाध जलके भण्डार परम उत्तम
रत्नाकर समुद्रको भी देखा || १०७ ||
तत्र पश्यामि गगन चन्द्रसूर्यविराजितम् ।
जाज्वल्यमानं तेजोभि: पावकार्कसमप्रभम् ।। १०८ ।।
वहाँ मुझे चन्द्रमा और सूर्यसे सुशोभित आकाशमण्डल दिखायी दिया, जो अनन्त
तेजसे प्रज्वलित तथा अग्नि एवं सूर्यके समान देदीप्यमान था ।। १०८ ॥।
पश्यामि च महीं राजन् काननैरुपशोभिताम् ।
(सपर्वतवनद्वीपां निमग्नाशतसड्कुलाम् ।)
यजन्ते हि तदा राजन् ब्राह्मणा बहुभिर्मखै: । १०९ ।।
राजन! वहाँकी भूमि विविध काननोंसे सुशोभित, पर्वत, वन और द्वीपोंसे उपलक्षित
तथा सैकड़ों सरिताओंसे संयुक्त दिखायी देती थी। ब्राह्मणलोग नाना प्रकारके यज्ञोंद्वारा
भगवान् यज्ञपुरुषकी आराधना करते थे ।। १०९ ।।
क्षत्रियाश्ष प्रवर्तन्ते सर्ववर्णानुरंजनै: ।
वैश्या: कृषिं यथान्यायं कारयन्ति नराधिप ।। ११० ।।
नरेश्वर! क्षत्रिय राजा सब वर्णोकी प्रजाका अनुरंजन करते--सबको सुखी और प्रसन्न
रखते थे। वैश्य न्यायपूर्वक खेतीका काम और व्यापार करते थे ।। ११० ।।
शुश्रूषायां च निरता द्विजानां वृषलास्तदा ।
ततः परिपतन् राजंस्तस्य कुक्षौ महात्मन: ।। १११ ।।
हिमवन्तं च पश्यामि हेमकूटं च पर्वतम् ।
निषध॑ चापि पश्यामि श्वेतं च रजतान्वितम् ।। ११२ ।।
पश्यामि च महीपाल पर्वतं गन्धमादनम् ।
मन्दरं मनुजव्याप्र नीलं चापि महागिरिम् ।। ११३ ।।
पश्यामि च महाराज मेरुं कनकपर्वतम् |
महेन्द्र चैव पश्यामि विन्ध्यं च गिरिमुत्तमम् ।। ११४ ।।
मलयं चापि पश्यामि पारियात्र च पर्वतम् |
एते चान्ये च बहवो यावन्त: पृथिवीधरा: ।। ११५ ।।
तस्योदरे मया दृष्टा: सर्वे रत्नविभूषिता: ।
सिंहान् व्याप्रान् वराहांश्न॒ पश्यामि मनुजाधिप ।। ११६ ।।
शूद्र तीनों द्विजातियोंकी सेवा-शुश्रूषामें लगे रहते थे। राजन! यह सब देखते हुए जब मैं
उस महात्मा बालकके उदरमें भ्रमण करता आगे बढ़ा, तब हिमवान्, हेमकूट, निषध,
रजतयुक्त श्वेतगिरि, गन्धमादन, मन्दराचल, महागिरि नील, सुवर्णमय पर्वत मेरु, महेन्द्र,
उत्तम विन्ध्यगिरि, मलय तथा पारियात्र पर्वत देखे। ये तथा और भी बहुत-से पर्वत मुझे उस
बालकके उदरमें दिखायी दिये। वे सब-के-सब नाना प्रकारके रत्नोंसे विभूषित थे। राजन!
वहाँ घूमते हुए मैंने सिंह, व्याप्र और वाराह आदि पशु भी देखे || १११--११६ ।।
पृथिव्यां यानि चान्यानि सत्त्वानि जगतीपते ।
तानि सर्वाण्यहं तत्र पश्यन् पर्यचरं तदा ।। ११७ ।।
पृथ्वीपते! भूमण्डलमें जितने प्राणी हैं, उन सबको देखते हुए मैं उस समय उस
बालकके उदरमें विचरता रहा ।। ११७ |।
कुक्षौ तस्य नरव्याघ्र प्रविष्ट: संचरन् दिश: ।
शक्रादींश्वापि पश्यामि कृत्स्नान् देवगणानहम् ।। ११८ ।।
नरश्रेष्ठ उस शिशुके उदरमें प्रविष्ट हो सम्पूर्ण दिशाओंमें भ्रमण करते हुए इन्द्र आदि
सम्पूर्ण देवताओंके भी दर्शन हुए ।। ११८ ।।
साध्यान् रुद्रांस्तथा5<दित्यान् गुह्मकान् पितरस्तदा ।
सर्पान् नागान् सुपर्णाश्च वसूनप्यश्चिनावपि ।। ११९ ।।
गन्धर्वाप्सरसो यक्षानषींश्वैव महीपते ।
देत्यदानवसड्घांश्व नागांश्न मनुजाधिप ।। १२० |।
सिंहिकातनयांश्वापि ये चान्ये सुरशत्रव: ।
यच्च किंचिन्मया लोके दृष्टं स्थावरजड्रमम् ।। १२१ ।।
सर्व पश्याम्यहं राजंस्तस्य कुक्षौ महात्मन: ।
चरमाण: फलाहार: कृत्स्नं जगदिदं विभो ।। १२२ ।।
पृथ्वीपते! साध्य, रुद्र, आदित्य, गुह्यक, पितर, सर्प, नाग, सुपर्ण, वसु, अश्विनीकुमार,
गन्धर्व, अप्सरा, यक्ष तथा ऋषियोंका भी मैंने दर्शन किया। दैत्य-दानवसमूह, नाग,
सिंहिकाके पुत्र (राहु आदि) तथा अन्य देवशत्रुओंको भी देखा। राजन्! इस लोकमें मैंने जो
कुछ भी स्थावर-जंगम पदार्थ देखे थे, वे सब मुझे उस महात्माकी कुक्षिमें दृष्टिगोचर हुए।
महाराज! मैं प्रतिदिन फलाहार करता और इस सम्पूर्ण जगतमें घूमता
रहता ।। ११९-१२२ |।
अन्तःशरीरे तस्याहं वर्षाणामधिकं शतम् ।
न च पश्यामि तस्याहं देहस्यान्तं कदाचन ।। १२३ ।।
उस बालकके शरीरके भीतर मैं सौ वर्षमे अधिक कालतक घूमता रहा, तो भी कभी
उसके शरीरका अन्त नहीं दिखायी दिया ।। १२३ ।।
सततं धावमानश्ष् चिन्तयानो विशाम्पते ।
(भ्रमंस्तत्र महीपाल यदा वर्षगणान् बहून् ।)
आसादयामि नैवान्तं तस्य राजन् महात्मन: ।। १२४ ।।
ततस्तमेव शरणं गतो<5स्मि विधिवत् तदा ।
वरेण्यं वरदं देव॑ं मनसा कर्मणैव च ।। १२५ ।।
युधिष्ठिर! मैं निरन्तर दौड़ लगाता और चिन्तामें पड़ा रहता था। महाराज! जब बहुत
वर्षोतक भ्रमण करनेपर भी उस महात्माके शरीरका अन्त नहीं मिला, तब मैंने मन, वाणी
और क्रियाद्वारा उन वरदायक एवं वरेण्य देवताकी ही विधिपूर्वक शरण
ली ।। १२४-१२५ ||
ततो<5हं सहसा राजन् वायुवेगेन नि:सृतः ।
महात्मनो मुखात् तस्य विवृतात् पुरुषोत्तम || १२६ ।।
पुरुषरत्न युधिष्ठिर! उनकी शरण लेते ही मैं वायुके समान वेगसे उक्त महात्मा
बालकके खुले हुए मुखकी राहसे सहसा बाहर निकल आया ।। १२६ ।।
ततस्तस्यैव शाखायां न्यग्रोधस्य विशाम्पते ।
आस्ते मनुजशार्दूल कृत्स्नमादाय वै जगत् ।। १२७ ।।
तेनैव बालवेषेण श्रीवत्सकृतलक्षणम् |
आसीन तं॑ नरव्याप्र पश्याम्यमिततेजसम् ।। १२८ ।।
नरश्रेष्ठ राजन! बाहर आकर देखा तो उसी बरगदकी शाखापर उसी बाल-वेषसे सम्पूर्ण
जगत्को अपने उदरमें लेकर श्रीवत्सचिह्लसे सुशोभित वह अमिततेजस्वी बालक पूर्ववत्
बैठा हुआ है ।। १२७-१२८ ।।
ततो मामब्रवीद् बाल: स प्रीत: प्रहसन्निव ।
श्रीवत्सधारी द्युतिमान् पीतवासा महाद्युति: ।। १२९ |।
तब महातेजस्वी पीताम्बरधारी श्रीवत्सभूषित कान्तिमान् उस बालकने प्रसन्न होकर
हँसते हुए-से मुझसे कहा-- || १२९ ।।
अपीदानीं शरीरेडस्मिन् मामके मुनिसत्तम |
उषितस्त्व॑ सुविश्रान्तो मार्कण्डेय ब्रवीहि मे ।। १३० ।।
“'मुनिश्रेष्ठ मार्कण्डेय! क्या तुम मेरे इस शरीरमें रहकर विश्राम कर चुके? मुझे
बताओ” || १३० ||
मुहूर्तादथ मे दृष्टि: प्रादुर्भूता पुनर्नवा ।
यया निर्मुक्तमात्मानमपश्यं लब्धचेतसम् ।। १३१ ।।
फिर दो ही घड़ीमें मुझे एक नवीन दृष्टि प्राप्त हुई, जिससे मैं अपने-आपको मायासे
मुक्त और सचेत अनुभव करने लगा ।। १३१ ।।
तस्य ताम्रतलौ तात चरणौ सुप्रतिषछ्ितौ ।
सुजातौ मृदुरक्ताभिरड्जुलीभिविराजितौ ।। १३२ ।।
प्रयत्नेन मया मूर्ध्ना गृहीत्वा हभिवन्दितौ |
तात! तदनन्तर मैंने कोमल और लाल रंगकी अँगुलियोंसे सुशोभित लाल-लाल
तलवेवाले उस बालकके सुन्दर एवं सुप्रतिष्ठित चरणोंको प्रयत्नपूर्वक पकड़कर उन्हें अपने
मस्तकसे प्रणाम किया || १३२३ ।।
दृष्टवा परिमितं तस्य प्रभावममितौजस: ।। १३३ ।।
विनयेनाञ्जलिं कृत्वा प्रयत्नेनोपगम्य ह ।
दृष्टो मया स भूतात्मा देवः कमललोचन: ।। १३४ ।।
उस अमित तेजस्वी शिशुका अनन्त प्रभाव देखकर मैं यत्नपूर्वक उसके समीप गया
और विनीतभावसे हाथ जोड़कर सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा उस कमलनयन देवताका दर्शन
किया ।। १३३-१३४ ।।
तमहं प्राउ्जलिर्भूत्वा नमस्कृत्येदमन्रुवम् ।
ज्ञातुमिच्छामि देव त्वां मायां चैतां तवोत्तमाम् ।। १३५ ।।
फिर हाथ जोड़े नमस्कार करके मैंने उससे इस प्रकार कहा--देव! मैं आपको और
आपकी इस उत्तम मायाको जानना चाहता हूँ || १३५ ।।
आस्थयेनानुप्रविष्टो5हं शरीरे भगवंस्तव ।
दृष्टवानखिलान् सर्वान् समस्तान् जठरे हि ते ।। १३६ ।।
'भगवन्! मैंने आपके मुखकी राहसे शरीरमें प्रवेश करके आपके उदरमें समस्त
सांसारिक पदार्थोका अवलोकन किया है || १३६ ।।
तव देव शरीरस्था देवदानवराक्षसा: ।
यक्षगन्धर्वनागाश्न जगत् स्थावरजड्रमम् ।। १३७ ।।
“देव! आपके शरीरमें देवता, दानव, यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, नाग तथा समस्त स्थावर-
जंगमरूप जगत् विद्यमान है ।।
त्वत्प्रसादाच्च मे देव स्मृतिर्न परिहीयते ।
ट्रुतमन्त:शरीरे ते सततं परिवर्तिन: ।। १३८ ।।
'प्रभो! आपकी कृपासे आपके शरीरके भीतर निरन्तर शीघ्र गतिसे घूमते रहनेपर भी
मेरी स्मरणशक्ति नष्ट नहीं हुई है ।। १३८ ।।
निर्गतो5हमकामस्तु इच्छया ते महाप्रभो ।
इच्छामि पुण्डरीकाक्ष ज्ञातुं त्वाहमनिन्दितम् ।। १३९ ।।
“महाप्रभो! मैं अपनी अभिलाषा न रहनेपर भी केवल आपकी इच्छासे बाहर निकल
आया हूँ। कमलनयन! आप सर्वोत्कृष्ट देवताको मैं जानना चाहता हूँ || १३९ ।।
इह भूत्वा शिशु: साक्षात् कि भवानवतिष्ठते ।
पीत्वा जगदिदं सर्वमेतदाख्यातुमहसि ।। १४० ।।
“आप इस सम्पूर्ण जगत्को पी करके यहाँ साक्षात् बालकवेषमें क्यों विराजमान हैं?
यह सब बतानेकी कृपा करें ।। १४० ।।
किमर्थ च जगत् सर्व शरीरस्थं तवानघ ।
कियन्तं च त्वया कालमिह स्थेयमरिंदम ।। १४१ ।।
“अनघ! यह सारा संसार आपके शरीरमें किसलिये स्थित है? शत्रुदमन! आप कितने
समयतक यहाँ इस रूपमें रहेंगे? ।। १४१ ।।
एतदिच्छामि देवेश श्रोतु ब्राह्मणकाम्यया ।
त्वत्त: कमलपत्राक्ष विस्तरेण यथातथम् ।। १४२ ।।
'देवेश्वर! कमलनयन! ब्राह्मणमें जो सहज जिज्ञासा होती है, उससे प्रेरित होकर मैं
आपसे यह सब बातें यथाविधि विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ ।। १४२ ।।
महद्धयेतदचिन्त्यं च यदहं दृष्टवान् प्रभो ।
इत्युक्त: स मया श्रीमान् देवदेवो महाद्युति: ।
सान्त्वयन् मामिदं वाक्यमुवाच वदतां वर: ।। १४३ ।।
'प्रभो! मैंने जो कुछ देखा है, यह अगाध और अचिन्त्य है।” मेरे इस प्रकार पूछनेपर वे
वक्ताओंमें श्रेष्ठ महातेजस्वी देवाधिदेव श्रीभगवान् मुझे सान्त्वना देते हुए इस प्रकार
बोले ।। १४३ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि
अष्टाशीत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १८८ ।।
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत वनपर्वके अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्वमें एक सौ अद्ठासीवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥। १८८ ॥
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल १४४ श्लोक हैं)
हि आय ० (0) हि २ 7
-अट्टमन्नं शिवो वेदो ब्राह्मणाश्व चतुष्पथा: | केशो भगं समाख्यातं शूलं तद् विक्रयं विदु: ।। (नीलकण्ठकृत टीका)
एकोननवर्त्याधेकशततमो< ध्याय:
भगवान् बालमुकुन्दका मार्कण्डेयको अपने स्वरूपका
परिचय देना तथा मार्कण्डेयद्वारा श्रीकृष्णकी महिमाका
प्रतिपादन और पाण्डवोंका श्रीकृष्णकी शरणमें जाना
देव उवाच
काम देवा अपि न मां विप्र जानन्ति तत्त्वतः |
त्वत्प्रीत्या तु प्रवक्ष्यामि यथेदं विसृजाम्पहम् ।। १ ।।
भगवान् बोले--विप्रवर! देवता भी मेरे स्वरूपको यथेष्ट और यथार्थरूपसे नहीं
जानते। मैं जिस प्रकार इस जगत्की रचना करता हूँ, वह तुम्हारे प्रेमके कारण तुम्हें
बताऊँगा ।। १ ||
पितृभक्तो$सि विप्रर्षे मां चैव शरणं गत: ।
ततो दृष्टो$स्मि ते साक्षाद् ब्रह्मचर्य च ते महत् ।। २ ।।
ब्रह्मर्ष! तुम पितृभक्त हो, मेरी शरणमें आये हो और तुमने महान् ब्रह्मचर्यका पालन
किया है। इन्हीं सब कारणोंसे तुम्हें मेरे साक्षात् स््वरूपका दर्शन हुआ ।। २ ।।
अपां नारा इति पुरा संज्ञाकर्म कृतं मया |
तेन नारायणो&प्युक्तो मम तत् त्वयनं सदा ।। ३ ।।
पूर्वकालमें मैंने ही जलका “नारा” नाम रखा था। वह “नारा' मेरा सदा अयन
(वासस्थान) है, इसलिये मैं “नारायण' नामसे विख्यात हूँ ।। ३ ।।
अहं नारायणो नाम प्रभव: शाश्वृतो5व्यय: ।
विधाता सर्वभूतानां संहर्ता च द्विजोत्तम ।। ४ ।।
अहं विष्णुरहं ब्रह्मा शक्रश्नाहं सुराधिप: ।
अहं वैश्रवणो राजा यम: प्रेताधिपस्तथा ।। ५ ।।
मैं नारायण ही सबकी उत्पत्तिका कारण, सनातन और अविनाशी हूँ। द्विजश्रेष्ठ!
सम्पूर्ण भूतोंकी सृष्टि और संहार करनेवाला भी मैं ही हूँ। मैं ही विष्णु हूँ, मैं ही ब्रह्मा हूँ, मैं
ही देवराज इन्द्र हूँ और मैं ही राजा कुबेर तथा प्रेतराज यम हूँ ।। ४-५ ।।
अहं शिवश्न सोमश्ष॒ कश्यपो5थ प्रजापति: ।
अहं धाता विधाता च यज्ञश्षाहं द्विजोत्तम ।। ६ ।।
विप्रवर! मैं ही शिव, चन्द्रमा, प्रजापति कश्यप, धाता, विधाता और यज्ञ हूँ || ६ ।।
अग्निरास्यं क्षिति: पादौ चन्द्रादित्यौ च लोचने ।
द्यौर्मूर्धा खं दिश: श्रोत्रे तथा5प: स्वेदसम्भवा: || ७ ||
सदिशं च नभ: कायो वायुर्मनसि मे स्थित: ।
मया क्रतुशतैरिष्टं बहुभि: स्वाप्तदक्षिणै: ।। ८ ।।
अग्नि मेरा मुख है, पृथ्वी चरण है, चन्द्रमा और सूर्य नेत्र हैं। द्युलोक मेरा मस्तक है।
आकाश और दिशाएँ मेरे कान हैं तथा जल मेरे शरीरके पसीनेसे प्रकट हुआ है।
दिशाओंसहित आकाश मेरा शरीर है। वायु मेरे मनमें स्थित है। मैंने पर्याप्त दक्षिणाओंसे
युक्त अनेक शत यज्ञोंद्वारा यजन किया है ।। ७-८ ।।
यजन्ते वेदविदुषो मां देवयजने स्थितम् ।
पृथिवयां क्षत्रियेन्द्राश्न पार्थिवा: स्वर्गकाड्क्षिण: ।। ९ ।।
यजन्ते मां तथा वैश्या: स्वर्गलोकजिगीषया ।
चतुःसमुद्रपर्यन्तां मेरुमन्दर भूषणाम् ।। १० ।।
शेषो भूत्वाहमेवैतां धारयामि वसुन्धराम् ।
वेदवेत्ता ब्राह्मण देवयज्ञमें स्थित मुझ यज्ञपुरुषका यजन करते हैं। पृथ्वीका पालन
करनेवाले क्षत्रियनरेश स्वर्गप्राप्तिकी अभिलाषासे इस भूतलपर यज्ञोंद्वारा मेरा यजन करते
हैं। इसी प्रकार वैश्य भी स्वर्गलोकपर विजय पानेकी इच्छासे मेरी सेवा-पूजा करते हैं। मैं ही
शेषनाग होकर मेरुमन्दरसे विभूषित तथा चारों समुद्रोंसे घिरी हुई इस वसुन्धराको अपने
सिरपर धारण करता हूँ ।। ९-१० ३ ।।
वाराहं रूपमास्थाय मयेयं जगती पुरा ।। ११ ।।
मज्जमाना जले विप्र वीयेणासीत् समुद्धृता ।
अग्निश्च वडवावक्त्रो भूत्वाहं द्विजसत्तम ।। १२ |।
पिबाम्यप: सदा दिद्वंस्ताश्वैवं विसृजाम्यहम् ।
ब्रह्म वक्त्र॑ भुजौ क्षत्रमूरू मे संस्थिता विश: ।। १३ ।।
विप्रवर! पूर्वकालमें जब यह पृथ्वी जलमें डूब गयी थी, उस समय मैंने ही वाराहरूप
धारण करके इसे बलपूर्वक जलसे बाहर निकाला था। विद्वन! मैं ही बडवामुख अग्नि होकर
सदा समुद्रके जलको पीता हूँ और फिर उस जलको बरसा देता हूँ। ब्राह्मण मेरा मुख है,
क्षत्रिय दोनों भुजाएँ हैं और वैश्य मेरी दोनों जाँघोंके रूपमें स्थित हैं || ११--१३ ।।
पादौ शूद्रा भवन्तीमे विक्रमेण क्रमेण च ।
ऋग्वेद: सामवेदश्च यजुर्वेदो5प्यथर्वण: ।। १४ ।।
मत्तः प्रादुर्भवन्त्येते मामेव प्रविशन्ति च |
ये शूद्र मेरे दोनों चरण हैं। मेरी शक्तिसे क्रमश: इनका प्रादुर्भाव हुआ है। ऋग्वेद,
यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद--ये मुझसे ही प्रकट होते और मुझमें ही लीन हो जाते
हैं ।। १४६३ ||
यतय: शान्तिपरमा यतात्मानो बुभुत्सव: | १५ ।।
कामक्रोधद्वेषमुक्ता नि:संगा वीतकल्मषा: ।
सत्त्वस्था निरहड्कारा नित्यमध्यात्मकोविदा: ।। १६ ।।
मामेव सतत विद्राश्चिन्तयन्त उपासते ।
शान्तिपरायण, संयमी, जिज्ञासु, काम-क्रोध-द्वेघपहित आसक्तिशून्य, निष्पाप,
सात्विक, नित्य अहंकारशून्य तथा अध्यात्मज्ञानकुशल यति एवं ब्राह्मण सदा मेरा ही
चिन्तन करते हुए उपासना करते हैं || १५-१६३ ।।
अहं संवर्तको वदह्विरहं संवर्तकोडनल: ।। १७ ||
अहं संवर्तकः सूर्यस्त्वहं संवर्तकोडनिल: ।
तारारूपाणि दृश्यन्ते यान्येतानि नभस्तले ।। १८ ।।
मम वै रोमकूपाणि विद्धि त्वं द्विजसत्तम ।
रत्नाकरा: समुद्राश्व॒ सर्व एव चतुर्दिशम् ।। १९ ।।
वसनं शयनं चैव विलयं चैव विद्धि मे ।
मयैव सुविभक्तास्ते देवकार्यार्थसिद्धये ।। २० ।।
मैं ही संवर्तक (प्रलयका कारण) वल्ि हूँ। मैं ही संवर्तक अनल हूँ। मैं ही संवर्तक सूर्य हूँ
और मैं ही संवर्तक वायु हूँ। द्विजश्रेष्ठ आकाशमें जो ये तारे दिखायी देते हैं उन सबको मेरे
ही रोमकूप समझो। रत्नाकर समुद्र और चारों दिशाओंको मेरे वस्त्र, शय्या और
निवासस्थान जानो। मैंने ही देवताओंके कार्यकी सिद्धिके लिये इनकी पृथक्-पृथक् रचना
की है ।। १७--२० ।।
काम क्रोधं च हर्ष च भयं मोहं तथैव च ।
ममैव विद्धि रोमाणि सर्वाण्येतानि सत्तम || २३ ||
साधुशिरोमणे! काम, क्रोध, हर्ष, भय और मोह--इन सभी विकारोंको मेरी ही
रोमावली समझो ।। २१ ।।
प्राप्रुवन्ति नरा विप्र यत् कृत्वा कर्म शो भनम् ।
सत्यं दानं तपश्चोग्रमहिंसा चैव जन्तुषु || २२ ।।
मद्विधानेन विहिता मम देहविहारिण: ।
मया<<विर्भूतविज्ञाना विचेष्टन्ते न कामत: ।। २३ ।।
ब्रह्म! जिस शुभ कर्मोके आचरणसे मनुष्यको कल्याणकी प्राप्ति होती है, वे सत्य,
दान, उग्र तपस्या और किसी भी प्राणीकी हिंसा न करनेका स्वभाव--ये सब मेरे ही
विधानसे निर्मित हुए हैं और मेरे ही शरीरमें विहार करते हैं। मैं समस्त प्राणियोंके ज्ञानको
जब प्रकट कर देता हूँ, तभी वे चेष्टाशील होते हैं, अन्यथा अपनी इच्छासे वे कुछ नहीं कर
सकते || २२-२३ ।।
सम्यग् वेदमधीयाना यजन्ते विविधैर्मखै: ।
शान्तात्मानो जितक्रोधा: प्राप्रुवन्ति द्विजातय: ।। २४ ।।
जो द्विजाति अच्छी तरह वेदोंका अध्ययन करके शान्तचित्त और क्रोधशून्य होकर
नाना प्रकारके यज्ञोंद्वारा मेरी आराधना करते हैं, उन्हें ही मेरी प्राप्ति होती है ।। २४ ।।
प्राप्तुंन शक्यो यो विद्वन् नरैर्दुष्कृतकर्मभि: ।
लोभाभिभूतै: कृपणैरनार्यरकृतात्मभि: ।। २५ ।।
तं॑ मां महाफलं विद्धि नराणां भावितात्मनाम् |
सुदुष्प्रापं विमूढानां मार्ग योगैर्निषेवितम् ।। २६ ।।
विद्वन्! पापकर्मा, लोभी, कृपण, अनार्य और अजितात्मा मनुष्य जिसे कभी नहीं पा
सकते वह महान् फल मुझे ही समझो। मैं ही शुद्ध अन्तःकरणवाले मानवोंको सुलभ
होनेवाला योगसेवित मार्ग हूँ। मूढ़ मनुष्योंके लिये मैं सर्वथा दुर्लभ हूँ || २५-२६ ।।
यदा यदा च धर्मस्य ग्लानिर्भवति सत्तम |
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदा55त्मानं सृजाम्यहम् ।। २७ ।।
दैत्या हिंसानुरक्ताश्न अवध्या: सुरसत्तमै: ।
राक्षसाश्षापि लोकेड5स्मिन् यदोत्पत्स्यन्ति दारुणा: ।। २८ ।।
तदाहं सम्प्रसूयामि गृहेषु शुभकर्मणाम् ।
प्रविष्टो मानुषं देहं सर्व प्रशमयाम्पहम् ।। २९ ।।
महर्ष!! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मका उत्थान होता है, तब-तब मैं अपने-
आपको प्रकट करता हूँ। जब हिंसाप्रेमी दैत्य श्रेष्ठ देवताओंके लिये अवध्य हो जाते हैं तथा
भयानक राक्षस जब इस संसारमें उत्पन्न हो अत्याचार करने लगते हैं तब मैं पुण्यात्मा
पुरुषोंके घरोंपर मानवशरीरमें प्रविष्ट होकर प्रकट होता हूँ और उन दैत्यों एवं राक्षसोंका
सारा उपद्रव शान्त कर देता हूँ || २७--२९ ।।
सृष्टवा देवमनुष्यांस्तु गन्धर्वोरगराक्षसान् ।
स्थावराणि च भूतानि संहराम्यात्ममायया ।। ३० ।।
मैं ही अपनी मायासे देवता, मनुष्य, गन्धर्व, नाग, राक्षस तथा स्थावर प्राणियोंकी सृष्टि
करके समय आनेपर पुन: उनका संहार कर डालता हूँ ।। ३० ।।
कर्मकाले पुनर्देहमविचिन्त्यं सृजाम्पहम् ।
आविव्य मानुषं देहं मर्यादाबन्धकारणात् ।। ३१ ।।
फिर सृष्टि-रचनाके समय मैं अचिन्त्यस्वरूप धारण करता हूँ; तथा मर्यादाकी स्थापना
एवं रक्षाके लिये मानव-शरीरसे अवतार लेता हूँ ।। ३१ ।।
श्वेत: कृतयुगे वर्ण: पीतस्त्रेतायुगे मम ।
रक्तो द्वापरमासाद्य कृष्ण: कलियुगे तथा ॥। ३२ ।।
सत्ययुगमें मेरे शरीरका रंग श्वेत, त्रेतामें पीला, द्वापरमें लाल और कलियुगमें काला
होता है ।। ३२ ।।
त्रयो भागा हुधर्मस्य तस्मिन् काले भवन्ति च ।
अन्तकाले च सन्प्राप्ते कालो भूत्वातिदारुण: ।। ३३ ।।
त्रैलोक्यं नाशयाम्येक: कृत्स्नं स्थावरजड्रमम् ।
उस कलिकालमें तीन हिस्सा अधर्म और एक ही हिस्सा धर्म रहता है। प्रलयकाल
आनेपर मैं ही अत्यन्त दारुण कालरूप होकर अकेला ही सम्पूर्ण चराचर त्रिलोकीका नाश
करता हूँ ।। ३३ ६ ||
अहं त्रिवर्त्मा विश्वात्मा सर्वतोकसुखावह: ।। ३४ ।।
आविर्भू: सर्वगोडनन्तो हृषीकेश उरुक्रम: ।
कालचक्रं नयाम्येको ब्रह्मन्नहमरूपकम् ।। ३५ ।।
शमन सर्वभूतानां सर्वलोककृतोद्यमम् |
एवं प्रणिहित: सम्यड् ममात्मा मुनिसत्तम |
सर्वभूतेषु विप्रेन्द्र न च मां वेत्ति कश्चन ।। ३६ ।।
मैं तीनों लोकोंमें व्याप्त, सम्पूर्ण विश्वका आत्मा, सब लोगोंको सुख पहुँचानेवाला,
सबकी उत्पत्तिका कारण, सर्वव्यापी, अनन्त, इन्द्रियोंका नियन्ता और महान् विक्रमशाली
हूँ। ब्रह्म! यह जो सम्पूर्ण भूतोंका संहार करनेवाला और सबको उद्योगशील बनानेवाला
अव्यक्त कालचक्र है, इसका संचालन केवल मैं ही करता हूँ। मुनिश्रेष्ठ! इस प्रकार मेरा
स्वरूपभूत आत्मा ही सर्वत्र सब प्राणियोंके भीतर भलीभाँति स्थित है। विप्रवर! इतनेपर
भी मुझे कोई जानता नहीं है ।। ३४-३६ ।।
सर्वलोके च मां भक्ता: पूजयन्ति च सर्वश: ।
यच्च किंचित् त्वया प्राप्तं मयि क्लेशात्मकं द्विज | ३७ ।।
सुखोदयाय तत् सर्व श्रेयसे च तवानघ ।
यच्च किंचित् त्वया लोके दृष्टं स्थावरजड्रमम् ।। ३८ ।।
विहित: सर्वथैवासी ममात्मा भूतभावन: ।
अर्ध मम शरीरस्य सर्वलोकपितामह: ।॥। ३९ |।
समस्त जगत्में भक्त पुरुष सब प्रकारसे मेरी आराधना करते हैं। तुमने मेरे निकट
आकर जो कुछ भी क्लेश उठाया है, ब्रह्मन! वह सब तुम्हारे भावी कल्याण और सुखका
साधक है। अनघ! लोकमें तुमने जो कोई भी स्थावर-जंगम पदार्थ देखा है, उसके रूपमें
सर्वथा मेरा भूत-भावन आत्मा ही प्रकट हुआ है। सम्पूर्ण लोकोंके पितामह ब्रह्मा मेरा आधा
अंग हैं || ३७--३९ ।।
अहं नारायणो नाम शड्खचक्रगदाधर: ।
यावद्युगानां विप्रर्षे सहस्रपरिवर्तनात् ।। ४० ।।
तावत् स्वपिमि विश्वात्मा सर्वभूतानि मोहयन् ।
एवं सर्वमहं कालमिहास्से मुनिसत्तम || ४१ ।।
अशिशु: शिशुरूपेण यावदब्रह्मा न बुध्यते ।
ब्रह्मर्ष! मैं शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाला विश्वात्मा नारायण हूँ, सहस्र युगके
अन्तमें जो प्रलय होता है वह जबतक रहता है, तबतक सब प्राणियोंको (महानिद्रारूप
मायासे) मोहित करके मैं (जलमें) शयन करता हूँ। मुनिश्रेष्ठ! यद्यपि मैं बालक नहीं हूँ, तो
भी जबतक ब्रह्मा नहीं जागते, तबतक सदा इसी प्रकार बालकरूप धारण करके यहाँ रहता
हूँ ।। ४०-४१ ३ |।
मया च दत्तो विप्राग्रय वरस्ते ब्रह्म॒रूपिणा ।। ४२ ।।
असकृत् परितुष्टेन विप्रर्षिगणपूजित ।
सर्वमेकार्णवं दृष्टवा नष्ट स्थावरजड्रमम् ।। ४३ ।।
विक्लवो5सि मया ज्ञातस्ततस्ते दर्शितं जगत् ।
अभ्यन्तरं शरीरस्य प्रविष्टोडसि यदा मम ।। ४४ ।।
दृष्टवा लोक॑ समस्तं च विस्मितो नावबुध्यसे ।
ततो$सि वकत्राद् विप्रषे द्रुतं निःसारितो मया ।। ४५ ।।
विप्रशिरोमणे! तुम ब्रह्मर्षियोंद्वारा पूजित हो। मैंने ही ब्रह्मारूपसे तुम्हारे ऊपर बार-बार
संतुष्ट हो तुम्हें अभीष्ट वर प्रदान किया है। मैंने समझ लिया था कि तुम सम्पूर्ण चराचर
जगत्को नष्ट तथा एकार्णवमें निमग्न हुआ देखकर व्याकुल हो रहे हो। इसीलिये तुम्हें पुनः
जगत्का दर्शन कराया है। ब्रह्मर्ष! जब तुम मेरे शरीरके भीतर प्रविष्ट हुए थे और समस्त
संसारको देखकर विस्मय-विमुग्ध हो फिर सचेत नहीं हो पा रहे थे, तब मैंने तुरंत तुम्हें
मुखसे बाहर निकाल दिया था || ४२--४५ ।।
आखयातस्ते मया चात्मा दुर्जेयो हि सुरासुरै: ।। ४६ ।।
यावत् स भगवान ब्रह्मा न बुध्येत महातपा: ।
तावत् त्वमिह विप्रषें विश्रब्धश्नर वै सुखम् ।। ४७ ।।
ब्रह्मर्ष! इस प्रकार मैंने तुम्हें अपने स्वरूपका उपदेश किया है, जिसका जानना देवता
और असुरोंके लिये भी कठिन है। जबतक महातपस्वी भगवान् ब्रह्माका जागरण न हो,
तबतक तुम श्रद्धा और विश्वासपूर्वक सुखसे विचरते रहो || ४६-४७ ।।
ततो विबुद्धे तस्मिंस्तु सर्वलोकपितामहे ।
एकीभूतो हि स्रक्ष्यामि शरीराणि द्विजोत्तम ।। ४८ ।।
द्विजश्रेष्ठ! सर्वलोकपितामह ब्रह्माके जागनेपर मैं उनसे एकीभूत हो समस्त शरीरोंकी
सृष्टि करूँगा ।। ४८ ।।
आकाश पृथिवीं ज्योतिर्वायुं सलिलमेव च ।
लोके यच्च भवेच्छेषमिह स्थावरजड्रमम् ।। ४९ ।।
आकाश, पृथ्वी, अग्नि, वायु और जलका तथा इस संसारमें जो अन्य चराचर वस्तुएँ
अवशिष्ट हैं, उन सबका निर्माण करूँगा ।। ४९ ।।
मार्कण्डेय उवाच
इत्युक्त्वान्तर्हितस्तात स देव: परमाद्धुत: ।
प्रजाश्वैमा: प्रपश्यामि विचित्रा विविधा: कृता: ।। ५० ।।
मार्कण्डेयजी कहते हैं--तात युधिष्ठिर! ऐसा कहकर वे परम अद्भुत देवता भगवान्
बालमुकुन्द अन्तर्धान हो गये। उनके अन्तर्धान होते ही मैंने देखा कि यह नाना प्रकारकी
विचित्र प्रजा ज्यों-की-त्यों उत्पन्न हो गयी है || ५० ।।
एवं दृष्टं मया राजंस्तस्मिन् प्राप्ते युगक्षये ।
आश्चर्य भरतश्रेष्ठ सर्वधर्मभूतां वर ।। ५१ ।।
सम्पूर्ण धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ भरतकुल-तिलक युधिष्ठिर! इस प्रकार उस प्रलयकालके
आनेपर मुझे यह आश्चर्यजनक अनुभव हुआ था ।। ५१ ।।
य: स देवो मया दृष्ट: पुरा पद्मायतेक्षण: ।
स एष पुरुषव्याप्र सम्बन्धी ते जनार्दन: ।। ५२ ।।
नरश्रेष्ठ! पुरातन प्रलयके समय मुझे जिन कमल-दललोचन देवता भगवान्
बालमुकुन्दका दर्शन हुआ था, तुम्हारे सम्बन्धी ये भगवान् श्रीकृष्ण वे ही हैं || ५२ ।।
अस्यैव वरदानाद्धि स्मृतिर्न प्रजहाति माम् ।
दीर्घमायुश्न कौन्तेय स्वच्छन्दमरणं मम || ५३ ।।
कुन्तीनन्दन! इन्हींके वरदानसे मुझे पूर्वजन्मकी स्मृति भूलती नहीं है। मेरी दीर्घकालीन
आयु और स्वच्छन्द मृत्यु भी इन्हींकी कृपाका प्रसाद है | ५३ ।।
स एष कृष्णो वार्ष्णेय: पुराणपुरुषो विभु: ।
आस्ते हरिरचिन्त्यात्मा क्रीडनज्जिव महाभुज: ।। ५४ ।।
ये वृष्णिकुल-भूषण महाबाहु श्रीकृष्ण ही वे सर्वव्यापी, अचिन्त्यस्वरूप, पुराण-पुरुष
श्रीहरि हैं जो पहले बालरूपमें मुझे दिखायी दिये थे। वे ही यहाँ अवतीर्ण हो भाँति-भाँतिकी
लीलाएँ करते हुए-से दीख रहे हैं || ५४ ।।
एष धाता विधाता च संहर्ता चैव शाश्वत: ।
श्रीवत्सवक्षा गोविन्द: प्रजापतिपति: प्रभु: । ५५ ।।
श्रीवत्सचिह्न जिनके वक्ष:स्थलकी शोभा बढ़ाता है, वे भगवान् गोविन्द ही इस विश्वकी
सृष्टि, पालन और संहार करनेवाले, सनातन प्रभु और प्रजापतियोंके भी पति हैं || ५५ ।।
दृष्टवेमं वृष्णिप्रवरं स्मृतिमामियमागता ।
आदिदेवमयं जिष्णुं पुरुषं पीतवाससम् ।। ५६ ।।
इन आदिदेवस्वरूप, विजयशील, पीताम्बरधारी पुरुष वृष्णिकुल-भूषण श्रीकृष्णको
देखकर मुझे इस पुरातन घटनाकी स्मृति हो आयी है ।। ५६ ।।
सर्वेषामेव भूतानां पिता माता च माधव: ।
गच्छध्यमेनं शरणं शरण्यं कौरवर्षभा: ।। ५७ ।।
कुरुकुलश्रेष्ठ पाण्डवो! ये माधव ही समस्त प्राणियोंके पिता और माता हैं। ये ही सबको
शरण देनेवाले हैं। अत: तुम सब लोग इन्हींकी शरणमें जाओ ।। ५७ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमुक्ताश्न ते पार्था यमौ च पुरुषर्षभौ ।
द्रौपद्या सहिता: सर्वे नमश्नक्रुर्जनार्दनम् ।। ५८ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! मार्कण्डेय मुनिके ऐसा कहनेपर कुन्तीपुत्र
युधिष्ठि, भीम और अर्जुन तथा पुरुषरत्न नकुल-सहदेव--इन सबने द्रौपदीसहित उठकर
भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें प्रणाम किया || ५८ ।।
स चैतान् पुरुषव्याप्र साम्ना परमवल्गुना ।
सान्त्वयामास मानाहों मनन््यमानो यथाविधि ।। ५९ |।
नरश्रेष्ठ! फिर सम्माननीय श्रीकृष्णने भी इन सबका विधिपूर्वक समादर करते हुए परम
मधुर सान्त्वनापूर्ण वचनोंद्वारा इन्हें सब प्रकारसे आश्वासन दिया ।। ५९ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि भविष्यकथने
एकोननवत्यधिकशततमो< ध्याय: ।। १८९ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्वमें भविष्यकथनविषयक
एक सौ नवासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १८९ ॥
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नवर्त्याधेकशततमो<्ध्याय:
युगान्तकालिक कलियुगके समयके बर्तावका तथा कल्कि-
अवतारका वर्णन
वैशम्पायन उवाच
युधिष्ठिरस्तु कौन्तेयो मार्कण्डेयं महामुनिम् ।
पुन: पप्रच्छ साम्राज्ये भविष्यां जगतो गतिम् ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरने महामुनि
मार्कण्डेयसे अपने साम्राज्यमें जगत्की भावी गतिविधिके विषयमें पुनः इस प्रकार प्रश्न
किया ।। १ |।
युधिष्ठिर उवाच
आश्चर्यभूतं भवतः श्रुतं नो वदतां वर ।
मुने भार्गव यद् वृत्तं युगादौ प्रभवात्ययम् ।। २ ।।
युधिष्ठिर बोले--वक्ताओंमें श्रेष्ठ! भूगुवंशविभूषण महर्षे! हमने आपके मुखसे युगके
आदिमें संघटित हुई उत्पत्ति और प्रलयके सम्बन्धमें बड़े आश्वर्यकी बातें सुनी हैं || २ ।।
अस्मिन् कलियुगे त्वस्ति पुनः: कौतूहलं मम ।
समाकुलेषु धर्मेषु कि नु शेषं भविष्यति ।। ३ ।।
अब मुझे इस कलियुगके विषयमें पुनः विशेषरूपसे सुननेका कुतूहल हो रहा है। जब
सारे धर्मोंका उच्छेद हो जायगा, उस समय क्या शेष रह जायगा? ।। ३ ।।
किंवीर्या मानवास्तत्र किमाहारविहारिण: ।
किमायुष: किंवसना भविष्यन्ति युगक्षये ।। ४ ।।
युगान्तकालमें कलियुगके मनुष्योंका बल-पराक्रम कैसा होगा? उनके आहार-विहार
कैसे होंगे? उनकी आयु कितनी होगी और उनके परिधान--वस्त्राभूषण कैसे होंगे || ४ ।।
कां च काष्ठां समासाद्य पुन: सम्पत्स्यते कृतम् ।
विस्तरेण मुने ब्रूहि विचित्राणीह भाषसे ।। ५ ।।
कलियुगके किस सीमातक पहुँच जानेपर पुनः सत्ययुग आरम्भ हो जायगा? मुने! इन
सब बातोंका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये; क्योंकि आपकी कथा बड़ी विचित्र होती
है ।। ५ ।।
इत्युक्त: स मुनिश्रेष्ठ: पुनरेवाभ्यभाषत ।
रमयन् वृष्णिशार्दूलं पाण्डवांश्व महानृषि: ।। ६ ।।
युधिष्ठिरके इस प्रकार पूछनेपर मुनिश्रेष्ठ महर्षि मार्कण्डेयने वृष्णिप्रवर श्रीकृष्ण तथा
पाण्डवोंको आनन्दित करते हुए पुनः इस प्रकार कहा-- ।। ६ ।।
मार्कण्डेय उवाच
शृणु राजन मया दृष्ट॑ यत् पुरा श्रुतमेव च ।
अनुभूतं च राजेन्द्र देवदेवप्रसादजम् ।। ७ ।।
भविष्यं सर्वलोकस्य वृत्तान्तं भरतर्षभ |
कलुषं कालमासाद्य कथ्यमानं निबोध मे ।। ८ ।।
मार्कण्डेय बोले--भरतश्रेष्ठ राजन! मैंने देवाधिदेव भगवान् बालमुकुन्दकी कृपासे
पूर्वकालमें, निकृष्ट कलिकालके प्राप्त होनेपर सम्पूर्ण लोकोंके भावी वृत्तान्तके विषयमें जो
कुछ देखा-सुना या अनुभव किया है, वह बताता हूँ, सुनो और समझो ।। ७-८ ।।
कृते चतुष्पात् सकलो निर्व्याजोपाधिवर्जित: ।
वृष: प्रतिष्ितो धर्मो मनुष्ये भरतर्षभ ।। ९ ।।
भरतश्रेष्ठ! सत्ययुगमें मनुष्योंके भीतर वृषरूप धर्म अपने चारों पादोंसे युक्त होनेके
कारण सम्पूर्ण रूपमें प्रतिष्ठित होता है। उसमें छल-कपट या दम्भ नहीं होता ।। ९ ।।
अधर्मपाददविद्धस्तु त्रिभिरंशै: प्रतिष्ठित: ।
त्रेतायां द्वापरेडर्थेन व्यामिश्रो धर्म उच्यते ।। ३० ।।
किंतु त्रेतामें वह धर्म अधर्मके एक पादसे अभिभूत होकर अपने तीन अंशोंसे ही
प्रतिष्ठित होता है। द्वापरमें धर्म आधा ही रह जाता है। आधेमें अधर्म आकर मिल जाता
है ।। १० ।।
त्रिभिरंशैरधर्मस्तु लोकानाक्रम्य तिष्ठति ।
तामसं युगमासाद्य तदा भरतसत्तम ।। ११ ।।
चतुर्थाशेन धर्मस्तु मनुष्यानुपतिष्ठति ।
आयुर्वीर्यमथो बुद्धिर्बलं तेजश्च॒ पाण्डव ।। १२ ।।
मनुष्याणामनुयुगं हसतीति निबोध मे ।
राजानो ब्राह्माणा वैश्या: शूद्राश्वैव युधिष्ठिर ।। १३ ।।
व्याजैर्धर्म चरिष्यन्ति धर्मवैतंसिका नरा: ।
सत्य॑ संक्षेप्स्यते लोके नरै: पण्डितमानिभि: ।। १४ ।।
परंतु भरतश्रेष्ठ, कलियुग आनेपर अधर्म अपने तीन अंशोंद्वारा सम्पूर्ण लोकोंको
आक्रान्त करके स्थित होता है और धर्म केवल एक पादसे मनुष्योंमें प्रतिष्ठित होता है।
पाण्डुनन्दन! प्रत्येक युगमें मनुष्योंकी आयु, वीर्य, बुद्धि, बल तथा तेज क्रमश: घटते जाते
हैं। युधिष्ठिर अब कलियुगके समयका वर्णन सुनो। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी
जातियोंके लोग कपट॒पूर्वक धर्मका आचरण करेंगे और धर्मका जाल बिछाकर दूसरे
लोगोंको ठगते रहेंगे। अपनेको पण्डित माननेवाले लोग सत्यका त्याग कर देंगे ।। ११--
१४ ||
सत्यहान्या ततस्तेषामायुरल्पं भविष्यति ।
आयुष: प्रक्षयाद् विद्यां न शक्ष्यन्त्युपजीवितुम् ।। १५ ।।
सत्यकी हानि होनेसे उनकी आयु थोड़ी हो जायगी और आयुकी कमी होनेके कारण वे
अपने जीवन-निर्वाहके योग्य विद्या प्राप्त नहीं कर सकेंगे ।। १५ ।।
विद्याहीनानविज्ञानालल्लोभो<प्यभिभविष्यति ।
लोभक्रो धपरा मूढा: कामासक्ताश्न मानवा: ॥। १६ ।।
वैरबद्धा भविष्यन्ति परस्परवधैषिण: ।
विद्याके बिना ज्ञान न होनेसे उन सबको लोभ दबा लेगा। फिर लोभ और क्रोधके
वशीभूत हुए मूढ़ मनुष्य कामनाओंमें फँसकर आपसमें वैर बाँध लेंगे और एक-दूसरेके प्राण
लेनेकी घातमें लगे रहेंगे || १६३ ||
ब्राह्मणा: क्षत्रिया वैश्या: संकीर्यन्त: परस्परम् ।। १७ ।।
शूद्रतुल्या भविष्यन्ति तप:सत्यविवर्जिता: ।
अन्त्या मध्या भविष्यन्ति मध्याश्चान्त्या न संशय: ।। १८ ।।
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य--से आपसमें संतानोत्पादन करके वर्णसंकर हो जायाँगे। वे
सभी तपस्या और सत्यसे रहित हो शूद्रोंके समान हो जायँगे। अन्त्यज (चाण्डाल आदि)
क्षत्रिय-वैश्य आदिके कर्म करेंगे और क्षत्रिय-वैश्य आदि चाण्डालोंके कर्म अपना लेंगे, इसमें
संशय नहीं है || १७-१८ ।।
ईदृशो भविता लोको युगान्ते पर्युपस्थिते ।
वस्त्राणां प्रवरा शाणी धान्यानां कोरदूषका: ।। १९ ।।
युगान्तकाल आनेपर लोगोंकी ऐसी ही दशा होगी। वस्त्रोंमें सनके बने हुए वस्त्र अच्छे
समझे जायँगे। धानोंमें कोदोका आदर होगा ।। १९ ।।
भायमित्राश्व पुरुषा भविष्यन्ति युगक्षये ।
मत्स्यामिषेण जीवन्तो दुहन्तश्चाप्पजैडकम् ।। २० ।।
गोषु नष्टासु पुरुषा येडपि नित्यं धृतव्रता: ।
तेडपि लोभसमायुक्ता भविष्यन्ति युगक्षये || २१ ।।
उस युगक्षयके समय पुरुष केवल स्त्रियोंसे ही मित्रता करनेवाले होंगे। कितने ही लोग
मछलीके मांससे जीविका चलायेंगे। गायोंके नष्ट हो जानेके कारण मनुष्य भेड़ और
बकरीका भी दूध दुहकर पीयेंगे। जो लोग सदा व्रत धारण करके रहनेवाले हैं, वे भी युगान्त
कालमें लोभी हो जायँगे || २०-२१ ।।
अन्योन्यं परिमुष्णन्तो हिंसयन्तश्न॒ मानवा: ।
अजपा नास्तिका: स्तेना भविष्यन्ति युगक्षये ।। २२ ।।
लोग एक-दूसरेको लूटेंगे और मारेंगे। युगान्तकालके मनुष्य जपरहित, नास्तिक और
चोरी करनेवाले होंगे || २२ ।।
सरित्तीरेषु कुद्दालैर्वापयिष्यन्ति चौषधी: ।
ताश्चाप्पल्पफलास्तेषां भविष्यन्ति युगक्षये ।। २३ ।।
नदियोंके किनारेकी भूमिको कुदालोंसे खोदकर लोग वहाँ अनाज बोयेंगे। उन
अनाजोंमें भी युगान्तकालके प्रभावसे बहुत कम फल लगेंगे || २३ ।।
श्राद्धे दैवे च पुरुषा येडपि नित्यं धृतव्रता: ।
तेडपि लोभसमायुक्ता भोक्ष्यन्तीह परस्परम् ।। २४ ।।
जो सदा (परान्नका त्याग करके) व्रतका पालन करनेवाले लोग हैं, वे भी उस समय
लोभवश देवयज्ञ तथा श्राद्धमें एक-दूसरेके यहाँ भोजन करेंगे || २४ ।।
पिता पुत्रस्य भोक्ता च पितु: पुत्रस्तथैव च |
अतिक्रान्तानि भोज्यानि भविष्यन्ति युगक्षये ।। २५ ।।
कलियुगके अन्तिम भागमें पिता पुत्रकी और पुत्र पिताकी शय्या आदिका उपभोग
करने लगेंगे। उस समय त्याज्य (अभक्ष्य) पदार्थ भी भोजनके योग्य समझे जायँगे ।। २५ ।।
न व्रतानि चरिष्यन्ति ब्राह्मणा वेदनिन्दका: ।
न यक्ष्यन्ति न होष्यन्ति हेतुवादविमोहिता: ।
निम्नेष्वीहां करिष्यन्ति हेतुवादविमोहिता: ।। २६ ।।
ब्राह्मगलोग व्रत और नियमोंका पालन तो करेंगे नहीं, उलटे वेदोंकी निन्दा करने लग
जायँगे। कोरे तर्कवादसे मोहित होकर वे यज्ञ और होम छोड़ बैठेंगे। वे केवल तर्कवादसे
मोहित होकर नीच-से-नीच कर्म करनेके लिये प्रयत्नशील रहेंगे || २६ ।।
निम्ने कृषिं करिष्यन्ति योक्ष्यन्ति धुरि धेनुका: ।
एकहायनवत्सांशक्ष॒ योजयिष्यन्ति मानवा: ।। २७ ।।
मनुष्य नीची भूमिमें (अर्थात् गायोंके जल पीने और चरनेकी जगहमें) खेती करेंगे। दूध
देनेवाली गायोंको भी बोझ ढोनेके काममें लगा देंगे और सालभरके बछड़ोंको भी हलमें
जोतेंगे || २७ ।।
पुत्र:पितृवरध॑ कृत्वा पिता पुत्रवधं तथा ।
निरुद्धेगो बृहद्वादी न निन्दामुपलप्स्यते ।। २८ ।।
पुत्र पिताका और पिता पुत्रका वध करके भी उद्विग्न नहीं होंगे। अपनी प्रशंसाके लिये
लोग बड़ी-बड़ी बातें बनायेंगे, किंतु समाजमें उनकी निन््दा नहीं होगी ।। २८ ।।
म्लेच्छभूतं जगत् सर्व निष्क्रियं यज्ञवर्जितम् ।
भविष्यति निरानन्दमनुत्सवमथो तथा ।। २९ ।।
सारा संसार म्लेच्छोंकी भाँति शुभ कर्म और यज्ञ-यागादि छोड़ देगा तथा आनन्दशून्य
और उत्सवरहित हो जायगा || २९ ||
प्रायश: कृपणानां हि तथाबन्धुमतामपि ।
विधवानां च वित्तानि हरिष्यन्तीह मानवा: || ३० ||
लोग प्राय: दीनों, असहायों तथा विधवाओंका भी धन हड़प लेंगे || ३० ॥।
स्वल्पवीर्यबला: स्तब्धा लोभमोहपरायणा: ।
तत्कथादानसंतुष्टा दुष्टानामपि मानवा: ।। ३१ ।।
परिग्रहं करिष्यन्ति मायाचारपरिग्रहा: ।
समाह्दयन्त: कौन्तेय राजान: पापबुद्धयः ।। ३२ ।।
परस्परवधोद्ुक्ता मूर्खा: पण्डितमानिन: ।
भविष्यन्ति युगस्यान्ते क्षत्रिया लोककण्टका: ।। ३३ ।।
उनके शारीरिक बल और पराक्रम क्षीण हो जायँगे। वे उद्ण्ड होकर लोभ और मोहमें
डूबे रहेंगे। वैसे ही लोगोंकी चर्चा करने और उनसे दान लेनेमें प्रसन्नताका अनुभव करेंगे।
कपटपूर्ण आचारको अपनाकर वे दुष्टोंके दिये हुए दानको भी ग्रहण कर लेंगे। कुन्तीनन्दन!
पापबुद्धि राजा एक-दूसरेको युद्धके लिये ललकारते हुए परस्पर एक-दूसरेके प्राण लेनेको
उतारू रहेंगे और मूर्ख होते हुए अपनेको पण्डित मानेंगे। इस प्रकार युगान्तकालके सभी
क्षत्रिय जगतके लिये काँटे बन जायँगे || ३१--३३ ।।
अरक्षितारो लुब्धाश्व॒ मानाहड्कारदर्पिता: ।
केवलं दण्डरुचयो भविष्यन्ति युगक्षये ।। ३४ ।।
कलियुगकी समाप्तिके समय वे प्रजाकी रक्षा तो करेंगे नहीं, उनसे रुपये ऐंठनेके लिये
लोभ अधिक रखेंगे। सदा मान और अहंकारके मदमें चूर रहेंगे। वे केवल प्रजाको दण्ड
देनेके कार्यमें ही रुचि रखेंगे || ३४ ।।
आक्रम्याक्रम्य साधूनां दारांश्वापि धनानि च ।
भोक्ष्यन्ते निरनुक्रोशा रूवतामपि भारत ।। ३५ ।।
भारत! लोग इतने निर्दयी हो जायँगे कि सज्जन पुरुषोंपर भी बार-बार आक्रमण
करके उनके धन और स्त्रियोंका बलपूर्वक उपभोग करेंगे तथा उनके रोने-बिलखनेपर भी
दया नहीं करेंगे || ३५ ।।
न कन्यां याचते कक्षिन्नापि कन्या प्रदीयते ।
स्वयंग्राहा भविष्यन्ति युगान्ते समुपस्थिते ।। ३६ ।।
कलियुगका अन्त आनेपर न तो कोई किसीसे कन्याकी याचना करेगा और न कोई
कन्यादान ही करेगा। उस समयके वर-कन्या स्वयं ही एक-दूसरेको चुन लेंगे ।।
राजानश्नाप्यसंतुष्टा: परार्थान् मूढचेतस: ।
सर्वोपायैहरिष्यन्ति युगान्ते पर्युपस्थिते ।। ३७ ।।
कलियुगकी समाप्तिके समय असंतोषी तथा मूढ़चित्त राजा भी सब तरहके उपायोंसे
दूसरोंके धनका अपहरण करेंगे ।। ३७ ।।
म्लेच्छी भूतं जगत् सर्व भविष्यति न संशय: ।
हस्तो हस्तं परिमुषेद् युगान्ते समुपस्थिते ।। ३८ ।।
उस समय सारा जगत् म्लेच्छ हो जायगा--इसमें संशय नहीं। एक हाथ दूसरे हाथको
लूटेगा--सगा भाई भी भाईके धनको हड़प लेगा ।। ३८ ॥।
सत्य॑ संक्षिप्यते लोके नरै: पण्डितमानिभि: ।
स्थविरा बालमतयो बाला: स्थविरबुद्धयः ।। ३९ ।।
अपनेको पण्डित माननेवाले मुनष्य संसारमें सत्यको मिटा देंगे। बूढ़ोंकी बुद्धि बालकों-
जैसी होगी और बालकोंकी बूढ़ों-जैसी || ३९ ।।
भीरुस्तथा शूरमानी शूरा भीरुविषादिन: ।
न विश्वसन्ति चान्योन्यं युगान्ते पर्युपस्थिते । ४० ।।
युगान्तकाल उपस्थित होनेपर कायर अपनेको शूर-वीर मानेंगे और शूर-वीर कायरोंकी
भाँति विषादमें डूबे रहेंगे। कोई एक-दूसरेका विश्वास नहीं करेंगे || ४० ।।
एकाहार्य युगं सर्व लोभमोहव्यवस्थितम् ।
अधर्मों वर्द्धते तत्र न तु धर्म: प्रवर्तते || ४१ ।।
युगके सब लोग लोभ और मोहमें फँसकर भक्ष्याभक्ष्यका विचार किये बिना ही एक
साथ सम्मिलित होकर भोजन करने लगेंगे। अधर्म बढ़ेगा और धर्म विदा हो
जायगा ।। ४१ ||
ब्राह्मणा: क्षत्रिया वैश्या न शिष्यन्ति जनाधिप ।
एकवर्णस्तदा लोको भविष्यति युगक्षये ॥। ४२ ।।
नरेश्वर! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंका नाम भी नहीं रह जायगा। युगान्तकालमें सारा
विश्व एक वर्ण, एक जातिका हो जायगा || ४२ ।।
न क्ष॑ंस्यति पिता पुत्र पुत्रश्न पितरं तथा ।
भार्याश्व पतिशुश्रूषां न करिष्यन्ति संक्षये ।। ४३ ।।
युगक्षय-कालमें पिता पुत्रके अपराधको क्षमा नहीं करेंगे और पुत्र भी पिताकी बात
नहीं सहेगा। स्त्रियाँ अपने पतियोंकी सेवा छोड़ देंगी || ४३ ।।
ये यवान्ञा जनपदा गोधूमान्नास्तथैव च ।
तान् देशान् संश्रयिष्यन्ति युगान्ते पर्युपस्थिते ।। ४४ ।।
युगान्तकाल आनेपर (लोग) उन प्रदेशोंमें चले जायँगे जहाँ जौ और गेहूँ आदि अनाज
अधिक पैदा होते हैं (चाहे वह देश निषिद्ध ही क्यों न हो) ।। ४४ ।।
स्वैराचाराश्न पुरुषा योषितश्न विशाम्पते ।
अन्योन्यं न सहिष्यन्ति युगान्ते पर्युपस्थिते ।। ४५ ।।
महाराज! युगान्तकाल आनेपर पुरुष और स्त्रियाँ स्वेच्छाचारी होकर एक-दूसरेके कार्य
और विचारको नहीं सहेंगे || ४५ ।।
म्लेच्छभूतं जगत् सर्व भविष्यति युधिष्ठिर ।
नश्राद्धैस्तर्पयिष्यन्ति दैवतानीह मानवा: ।। ४६ |।
युधिष्ठि!| उस समय सारा जगत् म्लेच्छ हो जायगा। मनुष्य श्राद्ध और यज्ञ-कर्मोद्वारा
पितरों और देवताओंको संतुष्ट नहीं करेंगे || ४६ ।।
न वश्चित् कस्यचिच्छोता न कश्चित् कस्यचिद् गुरु: ।
तमोग्रस्तस्तदा लोको भविष्यति जनाधिप ।। ४७ ।।
राजन! उस समय कोई किसीका उपदेश नहीं सुनेगा और न कोई किसीका गुरु ही
होगा। सारा जगत् अज्ञानमय अन्धकारसे आच्छादित हो जायगा || ४७ ।।
परमायुश्च भविता तदा वर्षाणि षोडश ।
ततः प्राणान् विमोक्ष्यन्ति युगान्ते समुपस्थिते || ४८ ।।
पज्चमे वाथ षष्ले वा वर्षे कन्या प्रसूयते ।
सप्तवर्षा्टवर्षाश्न॒ प्रजास्यन्ति नरास्तदा ।। ४९ ।।
उस समय युगान्तकाल उपस्थित होनेपर लोगोंकी आयु अधिक-से-अधिक सोलह
वर्षकी होगी, उसके बाद वे प्राणत्याग कर देंगे। पाँचवें या छठे वर्षमें स्त्रियाँ बच्चे पैदा करने
लगेंगी और सात-आठ वर्षके पुरुष संतानोत्पादनमें प्रवृत्त हो जायँगे || ४८-४९ ।।
पत्यौ स्त्री तु तदा राजन् पुरुषो वा स्त्रियं प्रति ।
युगान्ते राजशार्दूल न तोषमुपयास्यति ।। ५० ।।
नृपश्रेष्ठ! युगान्तकाल आनेपर स्त्री अपने पतिसे और पति अपनी स्त्रीसे संतुष्ट नहीं
होंगे ।। ५० ।।
अल्पद्रव्या वृथालिड्डा हिंसा च प्रभविष्यति ।
न कश्चित् कस्यचिद् दाता भविष्यति युगक्षये ।। ५१ ।।
कलियुगके अन्तभागमें लोगोंके पास धन थोड़ा रहेगा और लोग दिखावेके लिये
साधुवेष धारण करेंगे। हिंसाका जोर बढ़ेगा और कोई किसीको कुछ देनेवाला नहीं
रहेगा ।। ५१ ||
अट्टशूला जनपदा: शिवशूलाश्षतुष्पथा: ।
केशशूला: स्त्रियश्वापि भविष्यन्ति युगक्षये ।। ५२ ।।
युगक्षयकालमें सभी देशोंके लोग अन्न बेचेंगे। ब्राह्मण वेदविक्रय करेंगे और स्त्रियाँ
वेश्या वृत्ति अपना लेंगी ।। ५२ ।।
म्लेच्छाचारा: सर्वभक्षा दारुणा: सर्वकर्मसु ।
भाविन: पश्चिमे काले मनुष्या नात्र संशय: ।। ५३ ।।
युगान्तकालके मनुष्य म्लेच्छों-जैसे आचारवाले और सर्वभक्षी यानी अभक्ष्यका भी
भक्षण करनेवाले हो जायाँगे। वे प्रत्येक कर्ममें अपनी क्रूरताका परिचय देंगे, इसमें संशय
नहीं है ।। ५३ ।।
क्रयविक्रयकाले च सर्व: सर्वस्य वज्चनम् ।
युगान्ते भरतश्रेष्ठ वित्तलोभात् करिष्यति ।। ५४ ।।
भरतश्रेष्ठ।! युगान्तकालमें धनके लोभसे क्रय-विक्रयके समय सभी सबको
ठगेंगे ।। ५४ ।।
ज्ञानानि चाप्यविज्ञाय करिष्यन्ति क्रियास्तथा ।
आत्मच्छन्देन वर्तन्ते युगान्ते समुपस्थिते || ५५ ।।
क्रियाके तत््वको न जानकर भी लोग उसे करनेमें प्रवृत्त होंगे। युगानन््तकालके सभी
मानव स्वेच्छाचारी हो जायँगे ।। ५५ ।।
स्वभावात् क्रूरकर्माणश्वान्योन्यमभिशंसिन: ।
भवितारो जना: सर्वे सम्प्राप्ते तु युगक्षये | ५६ ।।
आरामांश्वैव वृक्षांश्ष॒ नाशयिष्यन्ति निर्व्यथा: ।
भविता संशयो लोके जीवितस्य हि देहिनाम् ।। ५७ ।।
सभी स्वभावतः क्रूर और एक-दूसरेपर मिथ्या कलंक लगानेवाले होंगे। युगान्तकाल
उपस्थित होनेपर सब लोग बगीचों और वृक्षोंको कटवा देंगे और ऐसा करते समय उनके
मनमें पीड़ा नहीं होगी। प्रत्येक मनुष्यके जीवनधारणमें भी शंका हो जायगी। अर्थात् प्रत्येक
मनुष्यका जीवन धारण करना कठिन हो जायगा ।। ५६-५७ ।|।
तथा लोभाभिभूताश्न भविष्यन्ति नरा नूप ।
ब्राह्मणांश्व हनिष्यन्ति ब्राह्मणस्वोपभोगिन: ।। ५८ ।।
राजन्! सब लोग लोभके वशीभूत होंगे और ब्राह्मणोंका धन उपभोग करनेका जिनका
स्वभाव पड़ गया है, वे धनके लिये ब्राह्मणोंको मार भी डालेंगे ।।
हाहाकृता द्विजाश्वैव भयार्ता वृषलार्दिता: ।
त्रातारमलभन्तो वै भ्रमिष्यन्ति महीमिमाम् ।। ५९ |।
शूद्रोंक सताये हुए ब्राह्मण भयसे पीड़ित हो हाहाकार करने लगेंगे और अपने लिये
कोई रक्षक न मिलनेके कारण सारी पृथ्वीपर निश्चय ही भटकते फिरेंगे ।। ५९ ।।
जीवितान्तकरा: क्रूरा रौद्रा: प्राणिविहिंसका: ।
यदा भविष्यन्ति नरास्तदा संक्षेप्स्यते युगम् । ६० ।।
जब दूसरोंके जीवनका विनाश करनेवाले क्रूर, भयंकर तथा जीवहिंसक मनुष्य पैदा
होने लगें, तब समझ लेना चाहिये कि युगान्तकाल उपस्थित हो गया ।।
आश्रयिष्यन्ति च नदी: पर्वतान् विषमाणि च |
प्रधावमाना वित्रस्ता द्विजा: कुरुकुलोद्ह ।। ६१ ।।
कुरुकुलतिलक युधिष्ठिर! अत्याचारियोंसे डरे हुए ब्राह्मण इधर-उधर भागकर नदियों,
पर्वतों तथा दुर्गम स्थानोंका आश्रय लेंगे || ६१ ।।
दस्युभि: पीडिता राजन् काका इव द्विजोत्तमा: ।
कुराजभिश्न सततं करभारप्रपीडिता: ।। ६२ ।।
धैर्य त्यक्त्वा महीपाल दारुणे युगसंक्षये ।
विकर्माणि करिष्यन्ति शूद्राणां परिचारका: ।। ६३ ।।
राजन! श्रेष्ठ ब्राह्मण भी लुटेरोंसे पीड़ित होकर कौओंकी तरह काँव-काँव करते फिरेंगे।
दुष्ट राजाओंके लगाये हुए करोंके भारसे सदा पीड़ित होनेके कारण वे धैर्य छोड़कर चल देंगे
और शूद्रोंकी सेवा-शुश्रूषामें लगे रहकर धर्मविरुद्ध कार्य करेंगे। भूपाल! भयंकर कलियुगके
अन्तमें जगत्की यही दशा होगी ।। ६२-६३ ।।
शूद्रा धर्म प्रवक्ष्यन्ति ब्राह्मणा: पर्युपासका: ।
श्रोतारश्ष भविष्यन्ति प्रामाण्येन व्यवस्थिता: || ६४ ।।
विपरीतश्न॒ लोको<यं भविष्यत्य धरोत्तर: ।
एड्कान् पूजयिष्यन्ति वर्जयिष्यन्ति देवता: ।। ६५ ।।
शूद्र धर्मोपदेश करेंगे और ब्राह्मणलोग उनकी सेवामें रहकर उसे सुनेंगे तथा उसीको
प्रामाणिक मानकर उसका पालन करेंगे। समस्त लोकका व्यवहार विपरीत और उलट-पुलट
हो जायगा। ऊँच नीच और नीच ऊँच हो जायँगे। लोग हड्डी जड़ी हुई दीवारोंकी तो पूजा
करेंगे और देवविग्रहोंको त्याग देंगे || ६४-६५ ।।
शूद्रा: परिचरिष्यन्ति न द्विजान् युगसंक्षये ।
आश्रमेषु महर्षीणां ब्राह्मणावसथेषु च ।। ६६ ।।
देवस्थानेषु चैत्येषु नागानामालयेषु च ।
एड्डकचिह्ना पृथिवी न देवगृहभूषिता ।। ६७ ।।
युगान्तकालमें शूद्र द्विजातियोंकी सेवा नहीं करेंगे। वह समय आनेपर महर्षियोंके
आश्रमोंमें, ब्राह्मणोंके घरोंमें, देवस्थानोंमें, चैत्यवृक्षोंके आस-पास और नागालयोंमें जो भूमि
होगी, उसपर हड्डी जड़ी हुई दीवारोंका चिह्न तो उपलब्ध होगा; परंतु देवमन्दिर उस भूमिकी
शोभा नहीं बढ़ायेंगे || ६६-६७ ।।
भविष्यति युगे क्षीणे तद् युगान्तस्य लक्षणम् ।
यदा रौद्रा धर्महीना मांसादा: पानपास्तथा ।। ६८ ।।
भविष्यन्ति नरा नित्य॑ं तदा संक्षेप्स्यते युगम् ।
यह सब युगान्तका लक्षण समझना चाहिये। जब सब मानव सदा भयंकर स्वभाववाले,
धर्महीन, मांसखोर और शराबी हो जायँगे, उस समय युगका संहार होगा ।।
पुष्पं पुष्पे यदा राजन् फले वा फलमाश्रितम् ।। ६९ ।।
प्रजास्यति महाराज तदा संक्षेप्स्यते युगम् ।
अकालवर्षी पर्जन्यो भविष्यति गते युगे ।। ७० ।।
महाराज! जब फूलमें फूल, फलमें फल लगने लगेगा, उस समय युगका संहार होगा।
युगान्तकालमें मेघ असमयमें ही वर्षा करेंगे | ६९-७० ।।
अक्रमेण मनुष्याणां भविष्यन्ति तदा क्रिया: ।
विरोधमथ यास्यन्ति वृषला ब्राह्मणैः सह ।। ७१ ।।
मनुष्योंकी सारी क्रियाएँ क्रमसे विपरीत होंगी। शूद्र ब्राह्मणोंक साथ विरोध
करेंगे || ७१ ।।
मही म्लेच्छजनाकीर्णा भविष्यति ततो<5चिरात् ।
करभारभयाद् विप्रा भजिष्यन्ति दिशो दश || ७२ |।
सारी पृथ्वी थोड़े ही समयमें म्लेच्छोंसे भर जायगी। ब्राह्मणलोग करोंके भारसे भयभीत
होकर दसों दिशाओंकी शरण लेंगे || ७२ ।।
निर्विशेषा जनपदास्तथा विषौ्टिकरार्दिता: ।
आश्रमानुपलप्स्यन्ति फलमूलोपजीविन: ।। ७३ ।।
सारे जनपद एक-जैसे आचार और वेशभूषा बना लेंगे। लोग बेगार लेनेवालों और कर
लेनेवालोंसे पीड़ित हो एकान्त आश्रमोंमें चले जायँगे और फल-मूल खाकर जीवन-निर्वाह
करेंगे || ७३ ।।
एवं पर्याकुले लोके मर्यादा न भविष्यति ।
न स्थास्यन्त्युपदेशे च शिष्या विप्रियकारिण: ।। ७४ ।।
इस तरह उथल-पुथल मच जानेपर संसारमें कोई मर्यादा नहीं रह जायगी। शिष्य गुरुके
उपदेशपर नहीं चलेंगे। वे उलटे उनका अहित करेंगे ।। ७४ ।।
आचार्योड्पनिधिश्रैव भर्त्स्यते तदनन्तरम् ।
अर्थयुक््त्या प्रवत्स्यन्ति मित्रसम्बन्धिबान्धवा: || ७५ ।।
अपने कुलका आचार्य भी यदि निर्धन हो तो उसे निरन्तर शिष्योंकी डाँट-फटकार
सुननी पड़ेगी। मित्र, सम्बन्धी या भाई-बन्धु धनके लालचसे ही अपने पास रहेंगे ।।
अभाव: सर्वभूतानां युगान्ते सम्भविष्यति ।
दिश: प्रज्वलिता: सर्वा नक्षत्राण्यप्रभाणि च ।। ७६ ।।
युगान्तकाल आनेपर समस्त प्राणियोंका अभाव हो जायगा। सारी दिशाएँ प्रज्वलित हो
उठेंगी और नक्षत्रोंकी प्रभा विलुप्त हो जायगी ।। ७६ ।।
ज्योतींषि प्रतिकूलानि वाता: पर्याकुलास्तथा ।
उल्कापाताश्षन बहवो महाभयनिदर्शका: ।। ७७ |।
ग्रह उलटी गतिसे चलने लगेंगे। हवा इतनी जोरसे चलेगी कि लोग व्याकुल हो उठेंगे।
महान् भयकी सूचना देनेवाले उल्कापात बार-बार होते रहेंगे || ७७ ।।
षड्भिरन्यैश्व सहितो भास्कर: प्रतपिष्यति ।
तुमुलाश्चापि निर्हादा दिग्दाहाश्वापि सर्वश: ।। ७८ ।।
एक सूर्य तो है ही, छ: और उदय होंगे और सातों एक साथ तपेंगे। सब ओर बिजलीकी
भयानक गड़गड़ाहट होगी, सब दिशाओंमें आग लगेगी || ७८ ।।
कबन्धान्तर्हितो भानुरुदयास्तमने तदा ।
अकालवर्षी भगवान् भविष्यति सहस्रदूक्ू ।। ७९ |।
उदय और अस्तके समय सूर्य राहुसे ग्रस्त दिखायी देगा। भगवान् इन्द्र समयपर वर्षा
नहीं करेंगे ।।
सस्यानि च न रोक्ष्यन्ति युगान्ते पर्युपस्थिते ।
अभीक्षणं क्रूरवादिन्य: परुषा रुदितप्रिया: ॥। ८० ।।
युगान्तकाल उपस्थित होनेपर बोयी हुई खेती उगेगी ही नहीं; स्त्रियाँ कठोर
स्वभाववाली और सदा कटुवादिनी होंगी। उन्हें रोना ही अधिक पसंद होगा ।। ८० ।।
भर्तृणां वचने चैव न स्थास्यन्ति ततः स्त्रिय: ।
पुत्राश्न मातापितरौ हनिष्यन्ति युगक्षये ।। ८१ ।।
वे पतिकी अज्ञामें नहीं रहेंगी। युगान्तकालमें पुत्र माता-पिताकी हत्या करेंगे || ८१ ।।
सूदयिष्यन्ति च पतीन् स्त्रिय: पुत्रानपाश्चिता: ।
अपर्वणि महाराज सूर्य राहुरुपैष्यति ।। ८२ ।।
नारियाँ अपने बेटोंसे मिलकर पतिकी हत्या करा देंगी। महाराज! अमावस्याके बिना ही
राहु सूर्यपर ग्रहण लगायेगा ।। ८२ ।।
युगान्ते हुतभुक् चापि सर्वतः प्रज्वलिष्यति ।
पानीयं भोजनं चापि याचमानास्तदाध्वगा: ।। ८३ ।।
न लप्स्यन्ते निवासं च निरस्ता: पथि शेरते ।
युगान्तकाल आनेपर सब ओर आग भी जल उठेगी। उस समय पथिकोंको माँगनेपर
कहीं अन्न, जल या ठहरनेके लिये स्थान नहीं मिलेगा। वे सब ओरसे कोरा जवाब पाकर
निराश हो सड़कोंपर ही सो रहेंगे ।।
निर्घातवायसा नागा: शकुना: समृगद्धिजा: ॥। ८४ ।।
रूक्षा वाचो विमोक्ष्यन्ति युगान्ते पर्युपस्थिते ।
मित्रसम्बन्धिनश्षापि संत्यक्ष्यन्ति नरास्तदा || ८५ ||
जनं परिजन चापि युगान्ते पर्युपस्थिते ।
युगान्तकाल उपस्थित होनेपर बिजलीकी कड़कके समान कड़वी बोली बोलनेवाले
कौवे, हाथी, शकुन, पशु और पक्षी आदि बड़ी कठोर वाणी बोलेंगे। उस समयके मनुष्य
अपने मित्रों, सम्बन्धियों, सेवकों तथा कुट॒म्बीजनोंको भी अकारण त्याग देंगे || ८४-८५३
||
अथ देशान् दिशश्वापि पत्तनानि पुराणि च ।। ८६ ।।
क्रमश: संश्रयिष्यन्ति युगान्ते पर्युपस्थिते ।
हा तात हा सुतेत्येवं तदा वाच: सुदारुणा: ॥। ८७ ।।
विक्रोशमानक्षान्योन्यं जनो गां पर्यटिष्यति ।
ततस्तुमुलसड्घाते वर्तमाने युगक्षये ।। ८८ ।।
प्रायः लोग स्वदेश छोड़कर दूसरे देशों, दिशाओं, नगरों और गाँवोंका आश्रय लेंगे और
हा तात! हा पुत्र! इत्यादि रूपसे अत्यन्त दुःखद वाणीमें एक-दूसरेको पुकारते हुए इस
पृथ्वीपर विचरेंगे। युगान्तकालमें संसारकी यही दशा होगी। उस समय एक ही साथ समस्त
लोकोंका भयंकर संहार होगा ।। ८६--८८ ।।
द्विजातिपूर्वको लोक: क्रमेण प्रभविष्यति ।
ततः कालान्तरे<न्यस्मिन् पुनर्लोकविवृद्धये ।। ८९ ।।
भविष्यति पुनर्देवमनुकूलं यदृच्छया ।
यदा सूर्यश्न चन्द्रश्न तथा तिष्यबृहस्पती ।। ९० ।।
एकराशौ समेष्यन्ति प्रपत्स्यति तदा कृतम् |
कालवर्षी च पर्जन्यो नक्षत्राणि शुभानि च ।। ९१ ।।
तदनन्तर कालान्तरमें सत्ययुगका आरम्भ होगा और फिर क्रमशः ब्राह्मण आदि वर्ण
प्रकट होकर अपने प्रभावका विस्तार करेंगे। उस समय लोकके अभ्युदयके लिये पुनः
अनायास दैव अनुकूल होगा। जब सूर्य, चन्द्रमा और बृहस्पति एक साथ पुष्य नक्षत्र एवं
तदनुरूप एक राशि कर्कमें पदार्पण करेंगे, तब सत्ययुगका प्रारम्भ होगा। उस समय मेघ
समयपर वर्षा करेगा। नक्षत्र शुभ एवं तेजस्वी हो जायँगे ।। ८९--९१ ।।
प्रदक्षिणा ग्रहाश्चापि भविष्यन्त्यनुलोमगा: ।
क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं भविष्यति निरामयम् ।। ९२ ।।
ग्रह प्रदक्षिणाभावसे अनुकूल गतिका आश्रय ले अपने पथपर अग्रसर होंगे। उस समय
सबका मंगल होगा। देशमें सुकाल आ जायगा। आरोग्यका विस्तार होगा। तथा रोग-
व्याधिका नाम भी नहीं रहेगा ।। ९२ ।।
कल्की विष्णुयशा नाम द्विज: कालप्रचोदित: ।
उत्पत्स्यते महावीर्यों महाबुद्धिपराक्रम: ।। ९३ ।।
सम्भूत: सम्भलग्रामे ब्राह्मणावसथे शुभे ।
(महात्मा वृत्तसम्पन्न: प्रजानां हितकृन्नूप ।)
राजन! युगान्तके समय कालकी प्रेरणासे सम्भल नामक ग्राममें किसी ब्राह्मणके
मंगलमय गृहमें एक महान् शक्तिशाली बालक प्रकट होगा, जिसका नाम होगा विष्णुयशा
कलल््की। वह महान् बुद्धि एवं पराक्रमसे सम्पन्न महात्मा, सदाचारी तथा प्रजावर्गका हितैषी
होगा। (वह बालक ही भगवान्का कल्की अवतार कहलायेगा) ।। ९३ ।।
मनसा तस्य सर्वाणि वाहनान्यायुधानि च ।। ९४ ।।
उपस्थास्यन्ति योधाक्ष शस्त्राणि कवचानि च ।
स धर्मविजयी राजा चक्रवर्ती भविष्यति ।। ९५ ।।
मनके द्वारा चिन्तन करते ही उसके पास इच्छानुसार वाहन, अस्त्र-शस्त्र, योद्धा और
कवच उपस्थित हो जायँगे। वह धर्मविजयी चक्रवर्ती राजा होगा ।। ९४-९५ ।।
स चेम॑ संकुलं लोकं प्रसादमुपनेष्यति ।
उत्थितो ब्राह्मणो दीप्त: क्षयान्तकृदुदारधी: ।। ९६ ।।
वह उदारबुद्धि, तेजस्वी ब्राह्मण, दुःखसे व्याप्त हुए इस जगत्को आनन्द प्रदान करेगा।
कलियुगका अन्त करनेके लिये ही उसका प्रादुर्भाव होगा ।। ९६ ।।
संक्षेपको हि सर्वस्य युगस्य परिवर्तक: ।
स सर्वत्र गतान क्षुद्रान् ब्राह्मणै: परिवारित: ।
उत्सादयिष्यति तदा सर्वम्लेच्छगणान् द्विज: ।। ९७ ।।
वही सम्पूर्ण कलियुगका संहार करके नूतन सत्ययुगका प्रवर्तक होगा। वह ब्राह्मणोंसे
घिरा हुआ सर्वत्र विचरेगा और भूमण्डलमें सर्वत्र फैले हुए नीच स्वभाववाले सम्पूर्ण
म्लेच्छोंका संहार कर डालेगा || ९७ |।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि भविष्यकथने
नवत्यधिकशततमो<ध्याय: ॥। १९० |।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्वमें भविष्यवर्णनणविषयक
एक सौ नब्बेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १९० ॥।
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका ३ *लोक मिलाकर कुल ९७३ श्लोक हैं)
#५+ ०० ()) अपन आस
एकनवरत्याधिकशततमो< ध्याय:
भगवान् कल्कीके द्वारा सत्ययुगकी स्थापना और
मार्कण्डेयजीका युधिष्ठटिरके लिये धर्मोपदेश
मार्कण्डेय उदाच
ततपश्नोरक्षयं कृत्वा द्विजेभ्य: पृथिवीमिमाम् ।
वाजिमेधे महायज्ञे विधिवत् कल्पयिष्यति ।। १ |।
मार्कण्डेयजी कहते हैं--युधिष्ठि!| उस समय चोर-डाकुओं एवं म्लेच्छोंका विनाश
करके भगवान् कल्की अश्वमेध नामक महायज्ञका अनुष्ठान करेंगे और उसमें यह सारी
पृथ्वी विधिपूर्वक ब्राह्मणको दे डालेंगे ।। १ ॥।
स्थापयित्वा च मर्यादा: स्वयम्भुविहिता: शुभा: ।
वन॑ पुण्ययश:कर्मा रमणीयं प्रवेक्ष्यति ॥। २ ।॥।
उनका यश तथा कर्म सभी परम पावन होंगे। वे ब्रह्माजीकी चलायी हुई मंगलमयी
मर्यादाओंकी स्थापना करके (तपस्याके लिये) रमणीय वनमें प्रवेश करेंगे || २ ।।
तच्छीलमनुवर्त्स्यन्ति मनुष्या लोकवासिन: ।
विप्रैश्नोरक्षये चैव कृते क्षेमं भविष्यति ।। ३ ।।
फिर इस जगत्के निवासी मनुष्य उनके शील-स्वभावका अनुकरण करेंगे। इस प्रकार
सत्ययुगमें ब्राह्मणोंद्वारा दस्युदलका विनाश हो जानेपर संसारका मंगल होगा ।। ३ ।॥।
कृष्णाजिनानि शक्तीश्न त्रिशूलान्यायुधानि च ।
स्थापयन् द्विजशार्दूलो देशेषु विजितेषु च ।। ४ ।।
संस्तूयमानो विप्रेन्द्रैमानयानो द्विजोत्तमान् |
कलल्की चरिष्यति महीं सदा दस्युवधे रत: ।। ५ ।।
द्विजश्रेष्ठ कल्की सदा दस्युवधमें तत्पर रहकर समस्त भूतलपर विचरते रहेंगे और
अपने द्वारा जीते हुए देशोंमें काले मृगचर्म, शक्ति, त्रिशूल तथा अन्य अस्त्र-शस्त्रोंकी
स्थापना करते हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणोंद्वागा अपनी स्तुति सुनेंगे और स्वयं भी उन
ब्राह्मणशिरोमणियोंको यथोचित सम्मान देंगे || ४-५ ।।
हा मातस्तात पुत्रेति तास्ता वाच: सुदारुणा: ।
विक्रोशमानान् सुभृशं दस्यून् नेष्यति संक्षयम् ।। ६ ।।
ततो<धर्मविनाशो वै धर्मवृद्धिश्व भारत ।
भविष्यति कृते प्राप्ते क्रियावांश्व जनस्तथा ।। ७ ।।
उस समय चोर और लुटेरे दर्दभरी वाणीमें “हाय मैया”, “हाय बप्पा” और “हाय बेटा'
इत्यादि कहकर जोर-जोरसे चीत्कार करेंगे और उन सबका भगवान् कल्की विनाश कर
डालेंगे। भारत! दस्युओंके नष्ट हो जानेपर अधर्मका भी नाश हो जायगा और धर्मकी वृद्धि
होने लगेगी। इस प्रकार सत्ययुग आ जानेपर सब मनुष्य सत्यकर्मपरायण होंगे ।। ६-७ ।।
आरामाश्चैव चैत्याश्ष॒ तटाकावसथास्तथा ।
पुष्करिण्यश्व विविधा देवतायतनानि च ॥। ८ ।।
यज्ञक्रियाश्व विविधा भविष्यन्ति कृते युगे ।
ब्राह्मणा: साधवश्चैव मुनयश्न तपस्विन: ।। ९ ।।
उस युगमें नये-नये बगीचे लगाये जायाँगे। चैत्यवृक्षोंकी स्थापना होगी। पोखरों और
धर्मशालाओंका निर्माण होगा। भाँति-भाँतिकी पोखरियाँ तैयार होंगी। कितने ही देवमन्दिर
बनेंगे और नाना प्रकारके यज्ञकर्मोका अनुष्ठान होगा। ब्राह्मण साधु-स्वभावके होंगे।
मुनिलोग तपस्यामें तत्पर रहेंगे || ८-९ ।।
आश्रमा हतपाखण्डा: स्थिता: सत्यरता: प्रजा: ।
जनिष्यन्ते च बीजानि रोप्यमाणानि चैव ह ।। १० ||
आश्रम पाखण्डियोंसे रहित होंगे और सारी प्रजा सत्यपरायण होगी। खेतोंमें बोये
जानेवाले सब प्रकारके बीज अच्छी तरह उगेंगे || १० ।।
सर्वेष्वृतुषु राजेन्द्र सर्व सस्यं भविष्यति ।
नरा दानेषु निरता व्रतेषु नियमेषु च ।। ११ ।।
राजेन्द्र! सभी ऋतुओंमें सभी प्रकारके अनाज पैदा होंगे। सब लोग दान, व्रत और
नियमोंमें लगे रहेंगे || ११ ।।
जपयज्ञपरा विप्रा धर्मकामा मुदा युता: ।
पालयिष्यन्ति राजानो धर्मेणेमां वसुन्धराम् ।। १२ ।।
ब्राह्मण प्रसन्नतापूर्वक जपयज्ञमें तत्पर रहेंगे और धर्ममें ही उनकी रुचि होगी।
क्षत्रियनरेश धर्मपूर्वक इस पृथ्वीका पालन करेंगे ।। १२ ।।
व्यवहाररता वैश्या भविष्यन्ति कृते युगे ।
षट्कर्मनिरता वित्रा: क्षत्रिया विक्रमे रता: ।। १३ ॥।
शुश्रूषायां रता: शूद्रास्तथा वर्णत्रयस्य च ।
सत्ययुगके वैश्य सदा न्यायपूर्वक व्यापार करनेवाले होंगे। ब्राह्मण यजन-याजन,
अध्ययन-अध्यापन, दान और प्रतिग्रह--इन छः कर्माँमें तत्पर रहेंगे। क्षत्रिय बल-पराक्रममें
अनुराग रखेंगे तथा शूद्र ब्राह्मण आदि तीनों वर्णोकी सेवामें लगे रहेंगे || १३ ई ।।
एष धर्म: कृतयुगे त्रेतायां द्वापरे तथा ।। १४ ।।
पश्चिमे युगकाले च य: स ते सम्प्रकीर्तित: ।
सर्वलोकस्य विदिता युगसंख्या च पाण्डव ।। १५ ।।
धर्मका यह स्वरूप सत्ययुगमें अक्षुण्ण रहेगा। त्रेता, द्वापर तथा कलियुगमें धर्मकी
जैसी स्थिति रहेगी, उसका वर्णन तुमसे किया जा चुका है। पाण्डुनन्दन! तुम्हें सम्पूर्ण
लोककी युग-संख्याका ज्ञान भी हो चुका है ।। १४-१५ ।।
एतत् ते सर्वमाख्यातमतीतानागतं तथा ।
वायुप्रोक्तमनुस्मृत्य पुराणमृषिसंस्तुतम् ।। १६ ।।
राजन! ऋषियोंद्वारा प्रशंसित तथा वायुदेवद्वारा वर्णित पुराणकी बातोंका स्मरण करके
मैंने तुमसे यह भूत-भविष्यका सारा वृत्तान्त बताया है ।। १६ ।।
एवं संसारमार्गा मे बहुशश्चिरजीविना ।
दृष्टाश्वैवानुभूताश्व तांस्ते कथितवानहम् ।। १७ ।।
इस प्रकार चिरजीवी होनेके कारण मैंने संसारके मार्गोका अनेक बार दर्शन और
अनुभव किया है, जिनका तुम्हारे समक्ष वर्णन कर दिया है ।। १७ ।।
इदं चैवापरं भूय: सह भ्रातृभिरच्युत ।
धर्मसंशयमोक्षार्थ निबोध वचनं मम ।। १८ ।।
धर्ममर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले युधिष्ठिर! तुम अपने भाइयोंसहित यह मेरी एक
बात और सुनो। धर्मविषयक संदेहका निवारण करनेके लिये मेरे वचनको ध्यान देकर
सुनो || १८ ।।
धर्मे त्वया55त्मा संयोज्यो नित्यं धर्मभूतां वर ।
धर्मात्मा हि सुखं राजन प्रेत्य चेह च नन्दति ।। १९ ।।
धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ महाराज! तुम्हें अपने-आपको सदा धर्ममें ही लगाये रखना चाहिये;
क्योंकि धर्मात्मा मनुष्य इस लोक और परलोकमें भी बड़े सुखसे रहता है ।। १९ ।।
निबोध च शुभां वाणी यां प्रवक्ष्यामि तेडनघ ।
न ब्राह्मणे परिभव: कर्तव्यस्ते कदाचन ।। २० ||
ब्राह्मण: कुपितो हन्यादपि लोकानू् प्रतिज्ञया ।
निष्पाप नरेश! मेरी इस कल्याणमयी वाणीको समझो, जिसे मैं अभी तुम्हें सुना रहा हूँ।
युधिष्ठिर! तुम्हें कभी किसी ब्राह्मणका तिरस्कार नहीं करना चाहिए; क्योंकि यदि ब्राह्मण
कुपित हो जाय और किसी बातकी प्रतिज्ञा कर ले, तो वह उस प्रतिज्ञाके अनुसार सम्पूर्ण
लोकोंका विनाश कर सकता है || २०६ ।।
वैशम्पायन उवाच
मार्कण्डेयवच: श्रुत्वा कुरूणां प्रवरो नृप: ।। २१ ।।
उवाच वचन धीमान् परमं परमद्युति: ।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! मार्कण्डेयजीकी यह बात सुनकर परम तेजस्वी
और बुद्धिमान कुरुकुलरत्न राजा युधिष्ठिरने यह उत्तम वचन कहा-- || २१६ ।।
कस्मिन् धर्मे मया स्थेयं प्रजा: संरक्षता मुने || २२ ।।
कथं च वर्तमानो वै न च्यवेयं स्वधर्मत: ।
“मुने! प्रजाकी रक्षा करते हुए किस धर्ममें स्थित रहना चाहिये। मेरा व्यवहार और
बर्ताव कैसा हो, जिससे मैं स्वधर्मसे कभी च्युत न होऊँ?” || २२६ ।।
मार्कण्डेय उदाच
दयावान् सर्वभूतेषु हितो रक्तोडनसूयक: ।। २३ ।।
सत्यवादी मृदुर्दान्तः प्रजानां रक्षणे रत: ।
चर धर्म त्यजाधर्म पितृन् देवांश्व पूजय ।। २४ ।।
मार्कण्डेयजीने कहा--राजन्! तुम सब प्राणियोंपर दया करो। सबके हितैषी बने
रहो। सबपर प्रेमभाव रखो और किसीमें दोषदृष्टि मत करो। सत्यवादी, कोमलस्वभाव,
जितेन्द्रिय और प्रजापालनमें तत्पर रहकर धर्मका आचरण करो। अधर्मको दूरसे ही त्याग
दो तथा देवता और पितरोंकी आराधना करते रहो ।। २३-२४ ।।
प्रमादाद् यत् कृतं ते5भूत् सम्यग् दानेन तज्जय ।
अलं ते मानमाश्रित्य सततं परवान् भव ॥। २५ |।
यदि प्रमादवश तुम्हारेद्वारा किसीके प्रति कोई अनुचित व्यवहार हो गया हो तो उसे
अच्छी प्रकार दानसे संतुष्ट करके वशमें करो। मैं सबका स्वामी हूँ, ऐसे अहंकारको कभी
पासमें न आने दो। तुम अपनेको सदा पराधीन समझते रहो || २५ ।।
विजित्य पृथिवीं सर्वा मोदमान: सुखी भव ।
एष भूतो भविष्यश्च धर्मस्ते समुदीरित: ।। २६ ।।
न ते<स्त्यविदितं किज्चिदतीतानागतं भुवि |
तस्मादिमं परिक्लेशं त्वं तात हृदि मा कृथा: ।। २७ ।।
सारी पृथ्वीको जीतकर सदा सानन्द और सुखी रहो। तात युधिष्ठिर! मैंने तुम्हें जो यह
धर्म बताया है, इसका पालन भूतकालमें भी हुआ है और भविष्यकालमें भी इसका पालन
होना चाहिए। भूत और भविष्यकी ऐसी कोई बात नहीं है, जो तुम्हें ज्ञात न हो; अतः: इस
समय जो यह क्लेश तुम्हें प्राप्त हुआ है, इसके लिये हृदयमें कोई विचार न
करो || २६-२७ ।।
प्राज्ञास्तात न मुहान्ति कालेनापि प्रपीडिता: ।
एष कालो महाबाहो अपि सर्वदिवौकसाम् ॥। २८ ।।
तात! विद्वान् पुरुष कालसे पीड़ित होनेपर भी कभी मोहमें नहीं पड़ते। महाबाहो! यह
काल सम्पूर्ण देवताओंपर भी अपना प्रभाव डालता है || २८ ।।
मुहान्ति हि प्रजास्तात कालेनापि प्रचोदिता: ।
मा च तत्र विशड्काभूद् यन्मयोक्ते तवानघ ।। २९ |।
युधिष्ठिर! कालसे प्रेरित होकर ही यह सारी प्रजा मोहग्रस्त होती है। अनघ! मैंने तुम्हारे
सामने जो कुछ भी कहा है, उसमें तुम्हें किसी प्रकारकी शंका नहीं होनी चाहिये ।। २९ ।।
आशड्कय मद्वचो होतद् धर्मलोपो भवेत् तव |
जातोऊसि प्रथिते वंशे कुरूणां भरतर्षभ ।। ३० ।।
कर्मणा मनसा वाचा सर्वमेतत् समाचर ।
मेरे इस वचनमें संदेह करनेपर तुम्हारे धर्मका लोप होगा। भरतकुलभूषण। तुम
कौरवोंके प्रख्यात कुलमें उत्पन्न हुए हो; अतः मन, वाणी और क्रियाद्वारा इन सब बातोंका
पालन करो || ३०३ ||
युधिछिर उवाच
यत् त्वयोक्तं द्विजश्रेष्ठ वाक्यं श्रुतिमनोहरम् ।। ३१ ।।
तथा करिष्ये यत्नेन भवतः शासन विभो ।
न मे लोभोस्ति विप्रेन्द्र न भयं न च मत्सर: ।। ३२ ।।
करिष्यामि हि तत् सर्वमुक्त यत् ते मयि प्रभो |
युधिष्ठिरने कहा--द्विजश्रेष्ठ] आपने मुझे जो उपदेश दिया है, वह मेरे कानोंको मधुर
एवं मनको प्रिय लगा है। विभो! मैं आपकी आज्ञाका यत्नपूर्वक पालन करूँगा।
ब्राह्मणश्रेष्ठ। मेरे मनमें लोभ, भय और ईर्ष्या नहीं है। प्रभो! आपने मेरे लिये जो कहा है,
इसका अवश्य पालन करूँगा ।। ३१-३२३ ||
वैशम्पायन उवाच